राम नाम जान्यो नहीं-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
मनुष्य बीज है भगवत्ता का—प्रवचन-दसवां
1—शतपथ ब्राह्मण में एक प्रश्न है: को वेद
मनुष्यस्य? मनुष्य को कौन जानता है?
क्या मनुष्य इतना जटिल और रहस्यपूर्ण है कि उसे
कोई नहीं जान सकता है?
2—आप कितनी करुणावश बोल रहे हैं! उसे इस देश के
लोग नहीं समझते और क्रुद्ध होते हैं। क्या आप इतना जोखिम लिए बगैर अपना कार्य नहीं
संपन्न कर सकते?
3—आप अपनी बातों का आधार अक्सर महापुरुषों की
निंदा क्यों बना लेते हैं? अच्छा होगा यदि आप अपनी बात
विधायक रूप से हमारे सामने रखें।
4—आपने मेरी आंखें खोल दीं। आप अगर मुझ वृद्ध को
स्वीकार लें, संन्यास में दीक्षा दें और समाधि का अनुभव कराएं,
तो मैं इस धर्मशास्त्रों से भरी झोली को आज ही फेंक दूं। मेरी
करबद्ध प्रार्थना है कि आप मुझे गरीबदास झोलीवाले का पुराना नाम न दें, मैं अब गरीबी और झोली दोनों से मुक्त होना चाहता हूं।
पहला प्रश्न: भगवान,
शतपथ ब्राह्मण में एक प्रश्न है: को वेद
मनुष्यस्य? मनुष्य को कौन जानता है?
भगवान, क्या मनुष्य इतना
जटिल और रहस्यपूर्ण है कि उसे कोई नहीं जान सकता है?
पुरुषोत्तम महंती,
मनुष्य जटिल नहीं है, रहस्यपूर्ण जरूर है। जटिल होता
तो जानना कठिन न होता। कितना ही जटिल हो, जटिलता सुलझाई जा
सकती है। जटिलता एक पहेली है, जो बुद्धि की सीमा के पार नहीं,
बुद्धि की सीमा के भीतर है। जो जटिल था उसे मनुष्य ने सुलझा लिया है,
या नहीं सुलझाया है तो सुलझा लेगा। जो कल अज्ञात था, आज ज्ञात है। जो आज अज्ञात है, कल ज्ञात हो जाएगा।
विज्ञान ये दो कोटियां ही मानता है--ज्ञात और अज्ञात। इन दोनों के बीच
कोई गुणात्मक भेद नहीं है; थोड़ा समय का अंतराल है। अज्ञात वह है जो ज्ञात होने
में समर्थ है। सिर्फ थोड़ी और चेष्टा, थोड़ी और खोज, थोड़ी और शोध, थोड़ा और तर्क, थोड़ा
और विज्ञान। लेकिन रहस्य गुणात्मक रूप से भिन्न है, परिमाणात्मक
रूप से ही नहीं। रहस्य का अर्थ अज्ञात नहीं है; रहस्य का
अर्थ है अज्ञेय, जो जाना ही न जा सके; जो
बुद्धि की सीमा के पार है; जिसे जीया तो जा सकता है, लेकिन जाना नहीं जा सकता। जानने का अर्थ होता है--शब्द में ढाला जा सके,
तर्क में तौला जा सके, बुद्धि माप सके। रहस्य
का अर्थ होता है--अमाप; जिसको जानने का, तौलने का कोई उपाय नहीं, लेकिन जो है; लेकिन अनंत है, असीम है। जितना जानोगे उतना ही पाओगे
कि जानना मुश्किल है। जितना पहचानोगे उतना ही पाओगे पहचानने को बहुत और शेष है,
सदा शेष है।
सुकरात का वचन प्रीतिकर है। सुकरात कहता है: मैं एक ही बात जान पाया
कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं! उपनिषद कहते हैं: जो जानता है वह नहीं जानता। जो
नहीं जानता है, वही जानता है। यह भी उपनिषद कहते हैं कि अज्ञानी तो
अंधकार में भटक जाते हैं, ज्ञानी महा अंधकार में भटक जाते
हैं। यह वचन बहुत आग्नेय है, बहुत क्रांतिकारी है। इसकी
चिनगारी भी तुम्हारे भीतर पड़ जाए तो तुम्हारे जीवन के जंगल में आग लग जाए। सब
कूड़ा-कर्कट जल जाए। फिर वही बचे जो खालिस सोना है।
तुम पूछते हो: "क्या मनुष्य इतना जटिल और रहस्यपूर्ण है कि उसे
कोई नहीं जान सकता?'
तुम जटिलता और रहस्य को पर्यायवाची समझ रहे हो। वे पर्यायवाची नहीं
हैं। जटिलता तो सिर्फ एक चुनौती है बुद्धि के लिए। रहस्य बड़ी गहरी बात है। बुद्धि
तो सतही है। रहस्य को जानना हो तो जानने का ढंग काम नहीं आता। वहां तो सुकरात जैसा
अज्ञानी हो जाना पड़े।
जीसस ने कहा है: जो बच्चों की भांति निर्दोष होंगे, वे ही केवल मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे।
वहां ज्ञानी की बिसात नहीं। वहां जानने वाले के लिए कोई प्रवेश नहीं; वहां निर्दोष, सरल-चित्तता, इतनी
सरल-चित्तता जैसे कोरा कागज! जब तुम कोरे कागज की भांति हो जाते हो, तो परिचय होता है, प्रत्यभिज्ञा होती है, तो स्वाद आता है, तो रस बहता है, तो जीवन में उत्सव सधता है।
और शतपथ ब्राह्मण का यह सूत्र ठीक कहता है: "को वेद मनुष्यस्य?'
मनुष्य को कौन जानता है? कौन सा वेद है जो
मनुष्य को जानता है? कौन सा ज्ञान है जो मनुष्य को जानता है?
कौन सा सिद्धांत है जो मनुष्य को जानता है? कौन
सा धर्म है जो दावा कर सके मनुष्य को जानने का? और मनुष्य को
ही क्यों चुना है? क्योंकि मनुष्य पराकाष्ठा है जीवन के
रहस्य की। यूं तो सारा जीवन रहस्यपूर्ण है। यूं तो एक गुलाब के फूल को भी जानना
कहां संभव है!
अंग्रेजी के महाकवि टेनीसन ने कहा है...एक सुबह घूमते हुए, पत्थर की एक दीवाल में घास का एक पौधा वर्षा के दिनों में ऊग आया है,
और उस पर एक छोटा सा घास का फूल खिला है। सुबह की ताजी हवा, सूरज की ऊगती हुई नयी-नयी किरणें, पक्षियों के गीत
और पत्थर को तोड़ कर ऊग आए इस घास के पौधे का राज! नहीं कि सिर्फ पौधा ऊग आया है,
वरन फूला भी है। टेनीसन ठिठक कर खड़ा हो गया। और टेनीसन ने जो वचन
कहा...कहा कि काश! मैं इस घास के फूल को पूरा का पूरा जान लूं, जड़ से लेकर शिखर तक, तो मैं सारे अस्तित्व को जान
लूंगा। फिर कुछ और जानने को शेष न रह जाएगा।
घास का एक छोटा सा फूल भी पूरा-पूरा नहीं जाना जा सकता है, कुछ छूट ही जाता है। जो छूट जाता है वही राज है। जो छूट जाता है वही रहस्य
है। जो पकड़ में आ जाता है, दो कौड़ी का है। जो पकड़ में नहीं
आता वही प्राण है।
घास का फूल अगर इतना रहस्यपूर्ण हो तो फिर गुलाब की तो क्या बात है!
फिर झील में खिल आए कमल को तो समझना बहुत मुश्किल होगा। और यह जो चेतना का सहस्रदल
कमल है, यह जो मनुष्य के भीतर छिपा हुआ सहस्रार है, यह जो मनुष्य की चेतना का फूल है, यह तो इस पृथ्वी
पर, इस सारे अस्तित्व में अनूठा है, अद्वितीय
है। पदार्थ में खिले फूलों को भी नहीं जाना जा सकता तो चेतना के फूल को तो कैसे
जाना जा सकेगा?
"को वेद मनुष्यस्य?'
कौन जानता है मनुष्य को? कौन सा वेद जानता है?
कौन सा शास्त्र जानता है? कौन सी किताब है जो
मनुष्य के राज को खोल सकी है?
सारे शास्त्रों ने, सारी किताबों ने, सारे ज्ञानियों ने, सारे प्रबुद्ध पुरुषों ने मनुष्य
के रहस्य की तरफ ही इशारा किया है। यही कहा है: चुप हो जाओ तो शायद कुछ पहचान हो;
खोजो मत, ठहर जाओ, तो
शायद कुछ झलक मिले। मन का उपयोग न करो, क्योंकि मन की सीमा
है और यह चेतना असीम है। सीमित साधन का उपयोग करोगे तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे।
साधन ही बाधा बन जाएगा।
मनुष्य को पहचानना हो तो मन से गहरे जाना होगा। मनुष्य शरीर नहीं है, मन भी नहीं है; इन दोनों के पीछे छिपा हुआ चैतन्य है,
साक्षी है। जो मन के पार है, उसे जानने की
भाषा में नहीं जाना जा सकता। उसे तो प्रेम की भाषा में पीया जा सकता है।
और मन के पार हो जाने की प्रक्रिया का नाम ही ध्यान है। इसलिए जिसे
ध्यान में प्रवेश करना है उसे सारे शास्त्रों को अग्नि को समर्पित कर देना होता
है। वही एक यज्ञ करने जैसा है। वही एक हवन धार्मिक व्यक्ति के योग्य है। खाक कर दे
सारे शब्दों को, चाहे वे कितने ही सुंदर हों, कितने
ही प्यारे लोगों ने कहे हों, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता।
क्योंकि शब्द तो मन तक ही जाएंगे। उनकी दौड़ उसके आगे नहीं। जहां निःशब्द शुरू होता
है, वहीं मनुष्य की असली सत्ता का प्रारंभ है। जहां विचार
गिर जाते हैं और निर्विचार का आयाम खुलता है, वहीं मनुष्य की
चेतना में पहली दफे तुम्हारा प्रवेश होता है। जहां तक मन वहां तक तुम नहीं। जहां
अ-मन आया वहीं तुम हो।
फिर स्वभावतः इस रहस्य को कोई और नहीं जी सकता है। प्रत्येक व्यक्ति
को अपना रहस्य स्वयं जानना होगा। इसलिए यह शतपथ ब्राह्मण ठीक ही कहता है--
"को वेद मनुष्यस्य? मनुष्य
को कौन जानता है?'
तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हें कोई भी नहीं जान सकता है। और तुम भी तभी
जान सकोगे जब अतिक्रमण कर जाओ देह, मन का। जब इन दोनों
की सीढ़ियों पर चढ़ जाओ तो मंदिर में प्रवेश हो। केवल तुम्हारे और कोई तुम्हें नहीं
जान सकता। और तुम्हारा भी जानना जानना नहीं कहा जा सकता, जीना
ही कहा जा सकता है। जानने में फासला होता है। जिसे तुम जानते हो वह और, जो जानता है वह और। जानने में द्वैत होता है--अनिवार्य, बिना द्वैत के जानना सधेगा नहीं। वहां जिसको तुम जान रहे हो, ज्ञेय; जो जान रहा है, ज्ञाता--इन
दोनों के बीच के संबंध का नाम ही ज्ञान है। लेकिन स्वयं को जानने में तो द्वैत
नहीं हो सकता। वहां तो जानने वाला और जाना जाने वाला एक है। इसलिए जानने की भाषा
वहां काम नहीं आएगी। जीने की भाषा काम आएगी। जीना ही वहां जानना है, जीना ही वहां पहचानना है।
और तुम्हारे जीवन को सब तरह से अवरुद्ध कर दिया गया है। जीवन की इतनी
निंदा की गई है और शास्त्रों की इतनी प्रशंसा की गई है। शब्दों को सिर पर ढोओ और
अपनी निंदा और ग्लानि के बोझ से दबे रहो--यही सिखाया गया है सदियों से। जब कि यह
स्वयं से परिचित होने का मार्ग नहीं है; स्वयं से अपरिचित रह
जाने की विधि है।
लेकिन सत्ताधारी यही चाहते हैं कि तुम अपने को न जान पाओ, तुम अपने को न पहचान पाओ, तुम अपने को न जी पाओ,
ताकि तुम्हें गुलाम बनाया जा सके। और गुलामियों के बहुत नाम हैं।
धर्मों के नाम पर गुलामी है; राष्ट्रों के नाम पर गुलामी है;
सिद्धांतों के नाम पर गुलामी है। गुलामी के इतने ढंग हैं, इतने रूप हैं, जंजीरें ऐसे-ऐसे सुंदर रंगों में सोने
और चांदी से मढ़ी हुई हैं कि लगता है आभूषण हैं। लोग भूल ही गए हैं कि चाहे सोने से
ही मढ़ी क्यों न हो जंजीर, चाहे बेड़ियां हीरे-जवाहरातों से
क्यों न टंकी पड़ी हों, बेड़ियां बेड़ियां हैं, हथकड़ियां हथकड़ियां हैं। और कारागृह चाहे संगमरमर से ही क्यों न बनाया गया
हो, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता, कारागृह
कारागृह है। वह खुला आकाश नहीं है। उसमें आकाश के न चांद हैं, न सूरज हैं, न तारे हैं, न
आकाश में उड़ने की संभावना है।
तुम सब पिंजड़ों में बंद हो और खुले आकाश में उड़ता हुआ पक्षी--बात और।
वही पक्षी पिंजड़े में बंद हो जाए तो बात और। खुले आकाश में उड़ते हुए उसके पंखों का
जादू, उसकी स्वच्छंदता, उसकी मुक्ति,
और सारा आकाश उसका अपना, चांदत्तारे उसके,
सूरज उसका, वृक्ष उसके, फूल
उसके। आकाश में उड़ते हुए बादलों को पार करने का आनंद उसका। दूर-दूर के सितारों को
लक्ष्य बना लेने की मौज उसकी। और फिर इस मौज से उठता हुआ गीत, खुलते हुए पंख, खुलता हुआ कंठ भी।
वही पक्षी तुम बंद कर लो सोने के पिंजड़े में सही, सारी सुविधाएं जुटा दो, भोजन की चिंता न रहे उसे,
लेकिन फिर भी यह पक्षी वही नहीं है जिसे तुमने आकाश में पंखों को
तौलते देखा था। यह पक्षी वही नहीं है जो बादलों को पार करता हुआ देखा गया था। यह
पक्षी वही नहीं है जिसने सुबह-सुबह सूरज का स्वागत किया था और गीत गाए थे। यह
पक्षी वही नहीं है जो सांझ अपने आनंद से अपने नीड़ में वापस लौटता था। यह चहल-पहल
वही नहीं है। यह पक्षी मर गया, नाम-मात्र को जिंदा है।
यूं ही हिंदू हैं, यूं ही मुसलमान हैं, यूं ही ईसाई हैं, यूं ही जैन हैं। ये सब पिंजड़ों में
बंद लोग हैं। इनमें से कोई भी मनुष्य की चेतना को नहीं जान सकता। इन सबके सिद्धांत
हैं। और जो सिद्धांतों को पकड़ कर चलता है, मन के पार कैसे
जाएगा? उसके सिद्धांत ही उसे अटका लेंगे। उसके सिद्धांत ही
उसके पैरों को खींच लेंगे, उसके पंखों को काट देंगे। वह अपने
सिद्धांतों को सिद्ध करने की चेष्टा में संलग्न रहेगा। उसकी आतुरता सत्य के लिए
नहीं है, उसकी आतुरता एक है कि मेरा सिद्धांत सत्य सिद्ध
होना चाहिए।
सत्य का अन्वेषण सिद्धांतों को छोड़ कर ही हो सकता है। जब तुम्हारी
आंखों पर सिद्धांत लदे हों तो तुम कैसे सत्य को देख पाओगे? और सारे लोग सिद्धांतों से भरे हुए हैं। उनकी आंखें सिद्धांतों ने अंधी कर
दी हैं। वे वही देख पाते हैं जो उनके सिद्धांत उन्हें आज्ञा देते हैं।
सत्ताधिकारी चाहे धार्मिक हों, चाहे राजनैतिक हों,
उनकी आकांक्षा नहीं है कि तुम सत्य को जान लो। क्योंकि जो सत्य को
जान लेगा उसे गुलाम नहीं बनाया जा सकता। जो सत्य को जान लेगा, फिर उसे इन टुच्ची और क्षुद्र सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता। वह न तो
भारतीय होगा, न चीनी होगा, न जापानी
होगा। वह न काला होगा, न गोरा होगा। जिसने सत्य को जाना
वस्तुतः वह न स्त्री होगा, न पुरुष होगा। वह सिर्फ शुद्ध
चैतन्य होगा। वहां कोई कोटियां काम न आएंगी। वहां विभाजन नहीं हो सकता।
और विभाजन सत्ताधिकारी का सूत्र है: बांटो और राज्य करो। पुरोहित वही
करता है, राजनेता वही करता है। बांटो, लोग
बंटे रहें, लोग आपस में लड़ते रहें, यही
सत्ताधिकारी का बल है। और लोग अंधे रहें तो ही तो नेताओं की कीमत है। तो ही
धर्मगुरुओं की जरूरत है। आंख तुम्हारी खुल जाए तो फिर बहुत मुश्किल हो जाती है।
आंख खुल गई तो फिर किसी नेता की तुम्हें कोई जरूरत नहीं है। तुम अपने
मार्ग-द्रष्टा हो। तुम अपने प्रकाश स्वयं हो। तुम्हारी भीतर की ज्योति जल उठी।
मनुष्य को जटिल मत समझना। मनुष्य बहुत सरल है। लेकिन जितना सरल है
उतना ही रहस्यपूर्ण है। जटिलता को समझना आसान है, क्योंकि जटिलता को
बांटा जा सकता है, काटा जा सकता है, विभाजित
किया जा सकता है। सरलता को जानना असंभव है, क्योंकि उसका कोई
विश्लेषण नहीं हो सकता।
यूं समझो, वैज्ञानिक से अगर पूछो कि पानी क्या है? तो वह जवाब देगा कि उदजन और अक्षजन का जोड़ है--एच टू ओ। दो हिस्सा उदजन,
एक हिस्सा अक्षजन; बस इन तीन हिस्सों से मिल
कर पानी बन जाता है। उससे पूछो, उदजन क्या है? तो भी वह जवाब देने में समर्थ है कि उदजन कितने इलेक्ट्रान, कितने न्यूट्रान और प्रोटान से बनती है। लेकिन उससे अगर तुम पूछो कि
इलेक्ट्रान, प्रोटान और न्यूट्रान क्या हैं? तब मुश्किल खड़ी हो जाती है। क्योंकि उनका विभाजन नहीं हो सकता। इलेक्ट्रान
का कोई विभाजन नहीं हो सकता। पानी को विभाजित किया जा सकता है, इसलिए उत्तर दिया जा सकता है कि यह दो का जोड़ है। लेकिन इलेक्ट्रान का कोई
विभाजन संभव नहीं है--अविभाज्य है, सरल है; उसमें द्वैत नहीं है, दुविधा नहीं है; एक है। क्या उत्तर दो! इलेक्ट्रान इलेक्ट्रान है। इसलिए वैज्ञानिक के पास
कोई उत्तर नहीं है। वहां जाकर सब उत्तर गिर जाते हैं।
पदार्थ की दुनिया में जब यह घटता है तो चेतना की दुनिया में तुम सोच
सकते हो, और भी अनंत गुने रूप में यह घटना घटती है। चेतना तो
बिलकुल सरल है, बिलकुल अविभाज्य है। यह हो सकता है कभी
इलेक्ट्रान का भी विभाजन हो सके, तब उत्तर हो जाएगा। लेकिन
उत्तर केवल प्रश्न को थोड़ा और आगे सरका देगा। जिनसे इलेक्ट्रान बना होगा उन पर
प्रश्न चला जाएगा। बात बनेगी भी और बनेगी भी नहीं। विज्ञान प्रश्नों को पीछे
सरकाता जाता है, लेकिन अंततः एक जगह आकर तो रुक ही जाना पड़ता
है। वह चेतना है।
चेतना को न विभाजित किया जा सकता, न विज्ञान के
दूरदर्शक यंत्रों से देखा जा सकता, न सूक्ष्मदर्शक यंत्रों
से देखा जा सकता, न विज्ञान के तराजुओं के पास ऐसे कोई
मापदंड हैं जिन पर तौला जा सके। इसलिए विज्ञान तो इनकार ही कर देता है कि चेतना है
ही नहीं। यह झंझट से बचने के लिए। क्योंकि अगर चेतना है तो विज्ञान को उत्तर देना
होगा। और उत्तर नहीं है पास। और कोई अपने अज्ञान को मानने को राजी नहीं है। अहंकार
मानने नहीं देता अज्ञान को। इसलिए यही उचित है कि जो हल न होता हो, कह दो कि है ही नहीं।
लेकिन ध्यान में चेतना का साक्षात्कार होता है। इनकार तो किया नहीं जा
सकता। निरपवाद रूप से जब भी किसी व्यक्ति ने मन के पार छलांग लगाई है और ध्यान को
जन्म दिया है, उसने जाना है चेतना को। इस एक सत्य के संबंध में कोई
प्रबुद्ध पुरुष किसी दूसरे से भिन्न नहीं है। यह एक ही तत्व है जिसके संबंध में
सारे प्रबुद्ध पुरुष राजी हैं, सहमत हैं।
लेकिन जानना होगा स्वयं ही, खुद ही। तुम्हारे
भीतर ही यह रहस्य है। तुम्हें उस गहराई में अपने भीतर डूबना होगा जहां इस रहस्य से
तुम्हारा तालमेल हो जाए, जहां संगीत बज उठे, जहां एक हाथ की ताली बजे, जहां अद्वैत का बोध हो।
शतपथ ब्राह्मण ठीक ही कहता है: "को वेद मनुष्यस्य? कौन जान सका मनुष्य को?'
नहीं कोई दूसरा कभी जान सका। और जब तक मनुष्य भी मनुष्य ही
है...मनुष्य शब्द को सोचना, विचारना--मन से बना है। जिसके पास मन है वह मनुष्य।
इसलिए मनुष्य भी जब तक मनुष्य है, इसे न जान सकेगा। मनुष्य
से थोड़ा पार जाना होगा। मन के पार जाओगे तो मनुष्य के पार चले जाओगे। वही भगवत्ता
का लोक है।
मेरे लिए कोई भगवान नहीं है अस्तित्व में, भगवत्ता है। प्रत्येक मनुष्य बीज है भगवत्ता का। मनुष्यता पीछे छूट जाए तो
भगवत्ता का फूल खिल जाता है। प्रत्येक व्यक्ति छिपा हुआ भगवान है। नहीं जानता,
नहीं पहचानता--यह और बात है। और यही उसका रहस्य है।
भगवत्ता है रहस्य मनुष्यता का। और जब तक तुम भगवत्ता से परिचित न हो
जाओ, तब तक नहीं अपने को जान सकोगे, नहीं
पहचान सकोगे। शास्त्रों को दोहराते रहो तोतों की तरह, प्यारे
वचन हैं, सुंदर शब्द हैं, मधुर काव्य
है, सब है, मगर मुर्दा है। जीवंत तो
तभी होगा जब स्वयं की प्रतीति होगी। और वह तुम्हारा जन्म-सिद्ध अधिकार है।
लेकिन अपने भीतर जाना होगा। मंदिरों में जाने से नहीं होगा, मस्जिदों में जाने से नहीं होगा, चर्चों और
गुरुद्वारों में वह नहीं मिलेगा। वह तुम्हारे भीतर विराजमान है। ठहरो, आंख बंद करो, अपने भीतर डूबो। जब सब ठहर जाएगा
तुम्हारे भीतर, कोई हलन-चलन न होगी, कोई
विकल्प न होगा, निर्विकल्पता होगी--तत्क्षण जैसे सूर्य ऊग आए,
सुबह हो जाए, और तुम्हारे प्राणों की वीणा भी
बज उठेगी! तुम्हारे गीत भी मुखर हो उठेंगे। तब तुम जानोगे। मगर गूंगे का गुड़ ही
रहेगा जानना। जान लोगे, लेकिन कह न सकोगे। जीने लगोगे,
मगर अभिव्यक्ति न दे सकोगे।
इसलिए सदगुरु सत्य नहीं दे सकता, लेकिन उसके जीने की
आभा, उसकी मौजूदगी का प्रसाद, उसकी
उपस्थिति निश्चित ही, तुम्हारे भीतर जो सोया है, उसे सुगबुगा सकती है। तुम्हारे भीतर जो जागा नहीं सदियों से, शायद करवट ले ले। तुम्हारे भीतर जो मूर्च्छा है वह उसके जागरण की चोट से
टूट सकती है। और तुम्हारा बुझा दीया उसके जले दीये के करीब आ जाए...। और यही
सत्संग का अर्थ है: जले दीये के करीब बुझे दीये का आ जाना। यही गुरु और शिष्य का
संबंध और नाता है। यह प्रेम की पराकाष्ठा है--जले हुए दीये के करीब बुझे हुए दीये
का आ जाना। और एक घड़ी ऐसी है, एक स्थान ऐसा है, जहां जले दीये से ज्योति एक क्षण में बुझे दीये में प्रवेश कर जाती है। और
इसका गणित बड़ा अनूठा है। बुझे दीये को सब कुछ मिल जाता है और जले दीये का कुछ भी
खोता नहीं है।
दूसरा प्रश्न: भगवान,
आप कितनी करुणावश बोल रहे हैं! उसे इस देश के लोग
नहीं समझते और क्रुद्ध होते हैं। क्या आप इतना जोखिम लिए बगैर अपना कार्य नहीं
संपन्न कर सकते?
आप फूल से भी अधिक कोमल हैं। हम आपके प्रेम में
पड़ गए हैं। आप ही हमारे जीवन-आधार हैं। मुझे भय लग रहा है।
अगेह भारती,
भय की तो जरा भी जरूरत नहीं। क्योंकि जो है उसे मिटाया नहीं जा सकता
और जो नहीं है वह मिटेगा ही। मनुष्य दोनों का जोड़ है--मर्त्य का और अमृत का।
मर्त्य तो जाएगा ही, देर-अबेर, ऐसे या ऐसे। मर्त्य
को तो विदा होना ही होगा। इसलिए उसके लिए तो भय का कोई कारण ही नहीं। और अमृत सदा
है। उसके लिए भी भय का कोई कारण नहीं। अभय होओ! जो मिटना है उससे कोई लगाव न लगाओ।
मेरे फूल से बहुत लगाव न लगाओ। मेरी सुगंध को ही पहचानो; वह
नहीं मिटेगी।
तुम कहते हो: "आप कितनी करुणावश बोल रहे हैं! उसे इस देश के लोग
नहीं समझते, क्रुद्ध होते हैं।'
यही सनातन रीति है। यही लोगों का सदा का ढंग है।
न उनकी रीत नयी, न अपनी प्रीत नयी।
न उनकी हार नयी, न अपनी जीत नयी।।
यूं ही होता रहा है। वे भी मजबूर हैं, मैं भी मजबूर हूं।
मैं वही कह सकता हूं जो है और वे वही कर सकते हैं जो मूर्च्छा में संभव है। वे
क्रुद्ध ही हो सकते हैं। मूर्च्छा में और क्या करेंगे? उनकी
समझ जैसी है, जहां है, उसके अनुसार ही
तो वर्तन होगा। काश! वे मुझे समझ सकें तो उनके जीवन में क्रांति हो जाए। जो समझ
रहे हैं उनके जीवन में क्रांति हो रही है।
लेकिन यह आशा रखना उचित नहीं कि सभी लोग समझ पाएंगे। प्रयास यही होगा
कि सभी समझ पाएं, फिर भी यह आशा रखना उचित नहीं कि सभी समझ पाएंगे। यह
उनकी स्वतंत्रता भी है। न समझना चाहें तो उन्हें पूरा हक है न समझने का। सत्य को न
लेना चाहें तो कोई जबरदस्ती तो नहीं की जा सकती। क्रोध करके वे यही कह रहे हैं।
क्रोध दो बात का सूचक है। एक तो कि वे डगमगाए, कि वे घबड़ाए, कि अपना असत्य किसी अचेतन तल पर उनको
पहचान आने लगा। नहीं तो क्रोध पैदा होने का कोई कारण नहीं। क्रोध पैदा ही तब होता
है जब सत्य की चोट तुम्हारे भीतर, असत्य के तुमने जो ताश के
महल बना रखे हैं, उनको थरथराने लगती है। जब सत्य की हवाएं
तुम्हारी कागज की नावों को डुबाने को तत्पर हो जाती हैं तो क्रोध पैदा होता है।
क्रोध वस्तुतः सूचना है इस बात की कि किसी अचेतन तल पर सत्य को स्वीकृति दी जा रही
है। नहीं तो क्रोध पैदा नहीं होता है।
और यह भी ध्यान रखना, लोग करुणा को कभी भी क्षमा नहीं
कर पाते। यह कठिन काम है--करुणा को क्षमा करना। इसलिए कठिन काम है कि करुणा का
अर्थ ही यह होता है कि कोई तुम्हें दे रहा है कुछ और तुमसे प्रत्युत्तर में कुछ भी
नहीं चाहता है। खयाल रखना, दुनिया में देना कठिन नहीं है,
लेना बहुत कठिन है। क्योंकि लेने में अपमान होता है। देने में तो
कोई अड़चन नहीं। देने में तो आनंद है, देने में तो मौज है,
देने में प्रेम है।
और कुछ ऐसी चीजें हैं जो बांटने से बढ़ती हैं। सत्य ऐसी ही चीज है, आनंद ऐसी ही चीज है, प्रेम ऐसी ही चीज है--बांटो और
बढ़ती है; मत बांटो, रुक जाती है,
घट जाती है। कंजूसी करो, और तुम्हारा सत्य
मरने लगेगा। जैसे नदी बहती रहे तो जीवित रहती है, और डबरा बन
जाए तो सड़ना शुरू हो जाती है। जीवन प्रवाह है। और जो भी जीवंत है उसमें प्रवाह
होगा।
तो मेरी भी मजबूरी है। जो मेरे भीतर घटा है उसे मैं बांटने को मजबूर
हूं। कुछ किया नहीं जा सकता। जो गीत घटा है वह गाया जाएगा। जो आनंद घटा है वह
बरसाया जाएगा। मगर लोगों को भी समझने की कोशिश करो। आनंद भी बरसाओ, वे भीगने से डरते हैं, वे छाता खोल लेते हैं। प्रेम
दो, वे अपने द्वार बंद कर लेते हैं। क्योंकि लेने में अहंकार
को चोट लगती है। मैं, और लूं? असंभव!
मैं कोई भिखारी हूं?
और सत्य को लेने में तो और भी चोट पड़ती है। क्योंकि लोग तो माने ही
बैठे हैं कि सत्य उन्हें पता है, अब कोई और क्या देगा? किसी ने गीता में पा लिया है, किसी ने बाइबिल में पा
लिया है। किसी ने कुरान में पा लिया है; जब कि किताबों में
मिलता ही नहीं। किताबों में यूं हो सकता है कि सूखे फूल मिल जाएं किताबों में दबे।
लोग रख भी देते हैं गुलाब इत्यादि को अपने बाइबिल में दबा कर। वह केवल स्मृति है
गुलाब की, गुलाब नहीं। गुलाब तो मिलेंगे कहीं खिलते हुए झाड़ियों
पर, जीवंत। लेकिन एक खतरा है जीवंत गुलाब के पास जाने में,
वहां कांटे भी हैं। ये जो मरे हुए गुलाब के फूल किताबों में दबे मिल
जाते हैं, इनमें कांटे नहीं होते। इनमें कोई खतरा भी नहीं
होता, इनमें कोई सुगंध भी नहीं होती, इनसे
कुछ डर भी नहीं होता। ये तुम्हारी किताब में दबे हुए हैं।
और इन किताबों से तुम जो समझ रहे हो, वह तुम्हारी ही समझ
है जो तुम किताबों पर आरोपित कर देते हो। किताबें तो मुर्दा हैं, किताबें क्या करेंगी? तुम जो अर्थ कर लोगे वे
तुम्हारे होंगे।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने एक मित्र से कह रहा था, जब कभी मुझे जुकाम होता है तो मैं एक व्हिस्की की बोतल ले आता हूं और एक
घंटे में साफ।
मित्र ने पूछा, कमाल करते हो, यार! जुकाम कहीं
एक घंटे में साफ होता है!
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, जुकाम नहीं भाई।
आम आदमी का आजकल
बहुत ज्यादा जिक्र है।
जिसे देखिए उसे
आम आदमी की ही फिक्र है।
इससे प्रभावित होकर हमने रिसर्च की--
आदमी को आखिर
आम आदमी क्यों कहा जाता है?
इसमें आखिर आम का क्या गुण आ जाता है?
हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे
कि आम आदमी अगर कच्चा हो
तो उसकी चटनी अच्छी बनती है
अचार बन जाता है
और अगर वह पक्का हो
तो उसे चूसने में बड़ा मजा आता है।
नेता भाषण देकर आया
नौकर पर आकर गुर्राया
मैं आया हूं थका-थकाया
पैर दबाओ, राम लुभाया।
राम लुभाया बोला--मालिक
एक जरूरी बात बता दूं
भाषण से तो गला थका है
आप कहें तो गला दबा दूं।
नेताजी, पिताश्री के मुख में आग देने जा ही रहे थे कि
फोटोग्राफर दिख गया। तड़ से मुसकान जोड़ दी। फोटो जब धुल कर आया, ऐसा लगा जैसे नेताजी पिताजी के हार-फूल से ढंके चेहरे को देख कर गुनगुना
रहे हों--आज मेरे बाप की शादी है!
लोगों की समझ, उनकी अपनी आदतें। फोटोग्राफर दिख जाए नेता को और नेता
न मुस्कुराए! एकदम बत्तीसों दांत दिखाई पड़ जाते हैं। कैमरे का जादू ऐसा! फिर बाप
मर गया हो, आग ही देने क्यों न जा रहे हों, मगर पुरानी आदत यूं तो नहीं छूट जाती।
लोग वही समझ सकते हैं जो समझ सकते हैं। उन पर क्रुद्ध न होना। उनकी
गालियों पर नाराज न होना। उनकी मजबूरी है। सदियों से उन्हें ऐसे पाठ पढ़ाए गए हैं, सारी वर्णमाला उलटी पढ़ाई गई है। और आज जब अचानक उनसे सत्य की बात कहो तो
संभवतः उन्हें लगता है: क्या उलटी बातें कर रहे हो!
यूं है कि सारे आदमी जैसे शीर्षासन कर रहे हों, और कोई एक आदमी अपने पैर के बल खड़ा हो जाए और कहने लगे कि भाइयो, क्यों उलटे खड़े हो? स्वभावतः भीड़ कहेगी, पागल हो, उलटे तुम हो। हम तो सब सीधे खड़े हैं। हमारी
भीड़ इस बात का सबूत है! इतने लोग गलत तो नहीं हो सकते। तुम एक अकेले को सत्य मिल
गया है?
अंधों के बीच आंख वाले आदमी की मुसीबत हो जानी स्वाभाविक है। नहीं तो
क्यों सुकरात को जहर दिया जाए? और कैसे पागल लोग हैं, फिर सदियों तक पूजते हैं। पहले जहर देते हैं, फिर
सदियों तक पूजते हैं। जब सुकरात जिंदा है तो उसकी करुणा को क्षमा नहीं कर सकते। और
फिर जब उसको जहर देकर मार डालते हैं तो फिर अपने को क्षमा नहीं कर सकते। फिर
अपराध-भाव पकड़ता है। उस अपराध-भाव से बचने के लिए फिर सुकरात को सम्मान देना शुरू
करते हैं। ऐसी उलटी गणित की व्यवस्था है; मगर इतनी पुरानी है,
खून-मांस-मज्जा में समा गई है।
आस्कर वाइल्ड जब न्यूयार्क पहुंचे तो कस्टम वालों ने उनसे पूछा, क्या आपके पास कोई आपत्तिजनक वस्तु भी है?
आस्कर वाइल्ड ने जवाब दिया, जी हां, मेरी अक्ल।
अक्ल बड़ी आपत्तिजनक वस्तु है। यहां लोगों की अक्ल तो पोंछ डाली गई है।
उसकी लीपापोती कर दी गई है। इसलिए इनसे अक्ल की बात करना इन्हें अड़चन में डालना
है। और जब इनको तुम अड़चन में डालोगे...और इससे बड़ी अड़चन क्या होगी कि किसी आदमी को
अपनी जीवन-धारणाएं बदलनी पड़ें! अपने जीवन के सिद्धांत बदलने पड़ें! जिस ढर्रे से वह
जीया है, जीवन भर जिस भरोसे से जीया है, सब
गलत सिद्ध हो जाए! उसके पैर के नीचे से जमीन खिसक जाती है।
इसलिए, अगेह भारती, मेरी मजबूरी है,
मैं बोलूंगा। उनकी मजबूरी है कि वे नाराज होंगे, क्रुद्ध होंगे, समझेंगे नहीं। मगर इसी तरह मेरी
मजबूरी और उनकी मजबूरी के बीच कुछ लोग समझेंगे भी। कुछ लोग समझ भी रहे हैं। ऐसे ही
तुम मेरे प्रेम में आ गए हो। इस कशमकश में--मैं अपनी बात कहे जाऊंगा, वे गालियां दिए जाएंगे--मगर कुछ लोग, जिनके पास
थोड़ी-बहुत भी बुद्धि शेष रह गई है, जिन्होंने किसी तरह अपनी
बुद्धि का कुछ अंश बचा लिया है; पंडित-पुरोहित नहीं पहुंच
पाए; महामंडलेश्वर, महंत, संत नहीं पहुंच पाए; स्कूल, कालेज,
विश्वविद्यालय नहीं पहुंच पाए; जिन्होंने अपनी
थोड़ी सी बुद्धि बचा ली है, वे निश्चित ही इस सारी गाली-गलौज के
बीच भी सत्य को देख पाएंगे। इस धुएं के बीच भी उन्हें सूरज की किरण देखने में
कठिनाई नहीं पड़ेगी। और हजार लोग गालियां दें और एक भी समझ जाए तो पर्याप्त
पुरस्कार है। और क्या चाहिए?
तीसरा प्रश्न: भगवान,
आपसे प्रश्न पूछना खतरे से खाली नहीं है। लेकिन
आप आदमी बहुत मजेदार हैं। आपकी बातें सुन कर बड़ा मजा आता है। ऐसे किसी संत-महात्मा
को सुन कर कभी नहीं हुआ पहले।
एक बात समझ में नहीं आती कि आप अपनी बातों का
आधार अक्सर महापुरुषों की निंदा क्यों बना लेते हैं? अच्छा होगा यदि आप अपनी बात विधायक रूप से हमारे सामने रखें।
दीनदयाल खत्री,
खत्री हो सो खतरा तुमने मोल लिया। अरे खत्री ही क्या! खत्री बच्चा ही
क्या जो खतरा मोल न ले! मगर तुम्हें पता है कि कहीं भी वेदों में, शास्त्रों में, तुम्हारे किसी महापुरुष ने, खत्री कैसे उत्पन्न हुए, इसके संबंध में कुछ भी नहीं
कहा है। शूद्र पैर से पैदा हुए; वैश्य जंघाओं से पैदा हुए
ईश्वर की; क्षत्रिय छाती से पैदा हुए, बाहुओं
से पैदा हुए; ब्राह्मण, स्वभावतः खोपड़ी
से पैदा हुए। मगर खत्री? भगवान क्या कोई मुसलमान है कि कुछ
लोगों को खतना करके ही पैदा कर दिया!
अब तुमने खतरा ही ले लिया तो मैं भी क्या करूं? मगर मैं तुम्हें राज बताता हूं कि खत्री कैसे पैदा हुए। तुम्हें चिंता
होगी, क्योंकि तुम कहोगे कि मैंने फिर महापुरुषों की निंदा
कर दी। अब मैं भी क्या करूं? सत्य को कहना ही पड़ेगा।
एक महापुरुष हो गए--परशुराम। मैं उनको महापुरुष नहीं कहता, मगर अब तुम कहते हो। उन्होंने पृथ्वी को अठारह बार क्षत्रियों से खाली कर
दिया। उन्होंने जिंदगी भर एक ही धंधा किया--क्षत्रियों की गर्दन काटते फिरे। वे तो
लिए ही फिरे फरसा। नाम तो उनका राम ही था, लेकिन परशुराम
इसीलिए कहलाने लगे वे--फरसावाले राम। वे तो जहां दिखे क्षत्रिय, फिर देर न करें। वे पहले सरदार थे--सत श्री अकाल! वाहे गुरुजी की फतह,
वाहे गुरुजी का खालसा! देखा क्षत्रिय और किया खतम! फिर देर-अबेर
नहीं करते। ऐसा उन्होंने सारी पृथ्वी को अठारह बार, एकाध-दो
बार भी नहीं, क्षत्रियों से खाली कर दिया।
सो क्षत्रिय तो खतम कर गए तुम्हारे महापुरुष परशुराम। मगर ऋषि-मुनियों
की कृपा! अब तुम कहोगे महापुरुषों की निंदा हो गई, मैं भी क्या करूं?
पुरुषों को तो काट डाला परशुराम ने; स्त्रियों
को काटने में जरा उनको भी संकोच आया कि मर्द बच्चा होकर स्त्रियों को काटे! सो
स्त्रियां बच जाएं। और उन दिनों यह रिवाज था कि कोई भी स्त्री जाकर ऋषि-मुनियों से
निवेदन कर सकती थी कि हमें पुत्र-दान दो। और पुत्र-दान वह कुछ ऐसा नहीं था कि भभूत
वगैरह देकर पुत्र-दान देते थे--असलियत में देते थे! वही उनका काम था। उसके लिए एक
पूरी व्यवस्था थी वैदिक काल में--नियोग। ऋषि-मुनियों का काम वही था जो सांडों का
काम है। गऊमाता को जब भी चाहिए पुत्र, ले आए सांड। सांड कर
देता नियोग। गऊमाता पुत्रवती हो जाती। सो ऋषि-मुनि बेचारे दया करते रहे--करुणावश।
महापुरुष हैं सो निंदा नहीं करता। इधर एक महापुरुष क्षत्रियों को काटते रहे,
उधर बहुत से महापुरुष नियोग करते रहे। ऐसे खत्री पैदा हुए। भगवान ने
तो बनाए नहीं थे। यह महापुरुषों की कृपा से! इसलिए मैं समझ सकता हूं कि तुमको
क्यों अड़चन होती है महापुरुषों की निंदा से। क्योंकि यही ऋषि-मुनि...। खत्री असली
ऋषि-मुनियों की संतान हैं।
तुम कहते हो: "एक बात समझ में नहीं आती कि आप अपनी बातों का आधार
अक्सर महापुरुषों की निंदा क्यों बना लेते हैं!'
पहली तो बात यह है कि तुमने जिसे महापुरुष समझा है उसे मैं भी
महापुरुष समझूं, यह कोई अनिवार्य है? तुमने तो
एक से एक कमबख्तों को महापुरुष समझा हुआ है। अब तुम्हारे महापुरुष मानने से मुझ पर
कोई सीमा नहीं लगती। मैं तो उनको वैसे ही देखता हूं जैसे वे हैं।
अब परशुराम को मैं कोई महापुरुष नहीं मान सकता। इससे महान हत्यारा
खोजना मुश्किल। किस आधार पर महापुरुष समझो? इससे ज्यादा दुष्ट
आदमी खोजना मुश्किल। अठारह बार पूरी पृथ्वी को क्षत्रियों से खाली कर दिया!
और यह दुष्ट तो हद दर्जे का रहा होगा। क्योंकि इसके बाप को शक हो गया
इसकी मां पर। यह बापों का पुराना धंधा है। और बाप ने कह दिया कि जा मां की गर्दन
काट ला! और यह परशुराम अपनी मां की गर्दन काट दिया। पूत के लक्षण पालने में। तभी
क्षत्रियों को समझ जाना चाहिए था कि इससे बचो, यह आदमी खतरनाक है।
अब तुम कहते हो इनको महापुरुष कहूं! हालांकि हिंदू इनको अवतार मानते
हैं। जो इनको अवतार मानते हैं वे केवल अपनी बुद्धि की सूचना देते हैं। थोड़ा तो
सोचो, थोड़ा तो विचारो कि इस तरह के हत्यारे लोगों को तुम
अवतार कहते हो! तुम्हारा इन्हें अवतार कहना भी तुम्हारी वृत्तियों के संबंध में
खबर देता है। और दूसरी तरफ तुम यह भी कहे चले जाते हो कि यह हिंदू धर्म महान धर्म।
अहिंसा परमो धर्म को मानने वाला धर्म। यह तो सबके प्रति उदार। और परशुराम तुम्हारे
अवतार! और तुम सबके प्रति उदार, सहिष्णु--और परशुराम
तुम्हारे अवतार!
तुम जिसको महापुरुष कहते हो, उससे तुम्हारे संबंध
में खबर मिलती है।
मेरी कसौटी पर जो महापुरुष नहीं है, वह नहीं है। चाहे
लाखों लोगों ने उसे पूजा हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं
किसी महापुरुष की निंदा नहीं करता हूं, लेकिन अब जो मुझे
महापुरुष दिखाई पड़ते ही नहीं और जो तुम्हारे जीवन के आधार बन गए हैं, जो तुम्हारे जीवन में जहर घोल रहे हैं, तुम्हें उस
विष से मुक्त करने के लिए मुझे चोट करनी पड़ती है।
और निंदा शब्द भी, दीनदयाल खत्री, तुमने ठीक प्रयोग नहीं किया। आलोचना निंदा नहीं है। मैं जो भी कह रहा हूं
वह तुम्हारे शास्त्रों में उल्लिखित है। मैं तो सिर्फ आलोचना कर रहा हूं।
तुम्हारे शास्त्र कहते हैं ब्रह्मा ने सृष्टि बनाई। वह परम पिता है, क्योंकि उसी ने सृष्टि को जन्माया, सो सृष्टि उसकी
बेटी हुई। मगर ब्रह्मा अपनी बेटी पर मोहित हो गए। वे उसका पीछा करने लगे। बाप बेटी
का पीछा करने लगा। बेटी घबड़ाई और भागी। बेटी भागने लगी, बाप
भी भागने लगा। बेटी डर के मारे छिपने लगी। बेटी छिपी, गाय बन
गई--छिपने के लिए गाय बन गई। मगर यूं कोई ब्रह्मा को धोखा दे सकता है! वे तत्क्षण
सांड बन गए। बेटी भागी और हथिनी बन गई, वे हाथी बन गए। बेटी
भागी और बंदरिया बन गई, वे हनुमानजी बन गए! बस वे पीछे पड़े
ही रहे। यूं सारी सृष्टि पैदा हुई।
तुम्हारे शास्त्र कहते हैं। मैं कुछ निंदा नहीं कर रहा हूं। लेकिन
गंदगी ऐसी है कि सिर्फ उल्लेख कर देना ही पर्याप्त है, आलोचना करने की भी जरूरत नहीं रह जाती। ये तुम्हारे ब्रह्मा हैं! और इनको
तुम पूजते हो! और ये तुम्हारे जगत के स्रष्टा हैं, तो फिर
तुम कैसे होओगे? फिर तुम्हारे आधार ही गलत हैं। तुम्हारी
बुनियाद में ही कुछ जहर है।
तुम मुझसे कहते हो कि "आप आदमी बहुत मजेदार हैं, आपकी बातें सुन कर बड़ा मजा आता है। ऐसे किसी संत-महात्मा को सुन कर कभी
नहीं हुआ पहले।'
वह इसीलिए आता है कि जो मैं कह रहा हूं वह सच-सच है। अब तुम चाहते हो
कि सारा मजा खतम हो जाए, तो फिर बहुत संत-महात्मा हैं, कहीं
भी सत्संग करो। उबाने के लिए तो न मालूम कितने संत-महात्मा हैं, जहां बैठ कर जम्हाइयां लो, जहां बैठ कर सोओ।
तुम्हें मेरी बात प्रीतिकर लग रही है; मगर किस कारण लग रही
है, इसकी तुमने खोज नहीं की। तुम्हें मेरी बात प्रीतिकर लग
रही है, रसपूर्ण लग रही है, उसका कारण
यही है कि सत्य सदा रसपूर्ण है। मगर सत्य कठोर भी है; फूल
जैसा कोमल भी, जो समझ पाएं; जो न समझ
पाएं तो चट्टान जैसा कठोर भी। निंदा मैं किसी की भी नहीं कर रहा हूं।
तुम कहते हो: "अच्छा होगा यदि आप अपनी बात विधायक रूप से हमारे
सामने रखें।'
विधायक रूप से ही बात को सामने रख रहा हूं। लेकिन किसी भी चीज को
बनाने के पहले बहुत सी चीजें मिटानी पड़ती हैं। इस कहानी को समझने की कोशिश करो।
मैंने सुना है, एक चर्च बहुत पुराना हो गया था। इतना जराजीर्ण कि हवा
का झोंका आता तो चर्च का भवन कंपता था। आकाश में बिजली कड़कती तो यूं लगता कि अब
चर्च गिरा तब गिरा। बादल गरजते और चर्च थर्राता। चर्च की ऐसी हालत देख कर कोई चर्च
में उपासना के लिए नहीं आता था। औरों की तो बात छोड़ दो, वह
जो चर्च का पादरी था वह भी बाहर से ही दो फूल सीढ़ियों पर चढ़ा कर लौट जाता था। वह
भी भीतर नहीं घुसता था। कौन जाने कब गिर जाए!
जब देखा कि कोई उपासक नहीं आता और पादरी तक भीतर नहीं जाता, तो मजबूरी में चर्च के ट्रस्टियों को बैठक बुलानी पड़ी। वह बैठक भी बाहर
हुई, चर्च से बहुत दूर, क्योंकि भवन
गिरे तो बाहर भी काफी दूर तक उसके परिणाम होंगे। और ट्रस्टियों की इस बैठक में चार
प्रस्ताव स्वीकृत हुए। पहला प्रस्ताव कि बहुत मजबूरी है कि हमें अपने बाप-दादाओं
के द्वारा बनाए गए पुराने चर्च को गिराना पड़ेगा; और नया चर्च
बनाना जरूरी हो गया है।
पुराने से ऐसा आकर्षण! पुराने से ऐसा मोह! पुराने का बंधन ऐसा! मगर
पुराना ही जंजीर है। और जो पुराने को नहीं तोड़ पाता वह नया नहीं हो पाता।
बड़ी मजबूरी में, बड़ी उदासी में उन्होंने यह पहला
प्रस्ताव पास किया कि नया चर्च बनाना होगा, यह हम निर्णय
लेते हैं। दुख है हमें कि पुरानी चर्च की इमारत को गिराना पड़ेगा, मगर मजबूरी है। हे प्रभु! क्षमा करना।
दूसरा प्रस्ताव उन्होंने तत्क्षण किया: लेकिन यद्यपि हम पुराने चर्च
को गिरा रहे हैं, लेकिन ठीक पुराने चर्च की जगह ही और पुराने चर्च के
स्थापत्य के अनुसार ही, ठीक पुराने चर्च के नक्शे से ही नया
चर्च निर्मित किया जाएगा। वह बिलकुल पुराने चर्च जैसा होगा।
और तीसरा प्रस्ताव उन्होंने किया कि नये चर्च में कोई भी नयी चीज
उपयोग नहीं की जाएगी। पुराने चर्च के ही खिड़की, द्वार-दरवाजे,
ईंटें, पत्थर, उनका ही
उपयोग किया जाएगा।
और उन्होंने चौथा प्रस्ताव भी सर्व-सम्मति से पास किया कि जब तक नया
चर्च न बन जाए, हम पुराने को गिराएंगे नहीं।
अब यह नया चर्च बनेगा कैसे? दीनदयाल खत्री,
तुम्हीं बताओ। यह नया चर्च बनेगा कैसे? पुराने
को गिराना होगा।
मेरी बातें विधायक हैं। मगर वे तभी विधायक हो सकती हैं जब पहले पुराने
को गिराने की, विध्वंस करने की तैयारी हो। तुम चाहोगे सिर्फ विधायक
बातें हों। तुम चाहते हो सिर्फ नये चर्च को बनाने की बातें हों, पुराने चर्च को गिराने की बात न उठाई जाए।
तुम्हारी सलाह बड़ी नेक, मगर मैं मान नहीं
सकता, क्योंकि मैं अंधा नहीं हूं। वह पुराना चर्च पहले
गिराना होगा, तभी नया चर्च बन सकता है। और कोई जरूरत नहीं है
कि पुराने चर्च की ही चीजें उपयोग की जाएं। क्योंकि अगर पुराने चर्च की ही चीजें
उपयोग करनी हैं, वही जराजीर्ण चर्च फिर बन कर खड़ा हो जाएगा।
अगर नया कुछ भी उपयोग नहीं करना है, पुराने का ही पूरा उपयोग
करना है, तो काहे को मेहनत करते हो? वह
फिर हिलेगा। फिर बिजलियां आएंगी और कंपेगा। मगर इस तरह की मूर्खता होती है।
मैंने सुना है, एक सरकारी दफ्तर में कोई सौ वर्ष से फाइलें इकट्ठे
होतेऱ्होते इतनी फाइलें इकट्ठी हो गईं कि दफ्तर में पता लगाना ही मुश्किल हो कि
कौन सी फाइल कहां है। और हिंदुस्तानी दफ्तर! एक ही फाइल हो तो उसका पता लगाना
मुश्किल है। वहां लाखों फाइलें इकट्ठी हो गईं।
और हिंदुस्तानी दफ्तर फाइलें इकट्ठी करने में जैसा रस लेते हैं! जितनी
बड़ी फाइल की थप्पी जिसकी टेबल पर हो वह उतना ही बड़ा आदमी। फाइल की थप्पी बड़ी होती
जाती है, आदमी छिपता जाता है, उतना ही
बड़ा आदमी! आखिर में फाइलें ही रह जाती हैं, आदमी का कुछ पता
ही नहीं चलता। उससे कई लाभ हैं, फाइलों के पीछे जो उसे करना
हो करता है। टाइपिस्ट से प्रेम करे, कि चाय पीए, कि पैर पसार कर सोए। फाइलें कवच का काम करती हैं। पीछे कुछ भी होता रहे।
रिश्वत ले, दे, जो करना हो करे--फाइलें
बचाव करती हैं। और फाइलों का ढेर उसकी गंभीरता बढ़ाता है। वह चलता भी है तो अकड़ से
चलता है कि जरा देखो तो फाइलें! सारा बोझ मैं ही ढो रहा हूं। संसार, कौन कहता है, कछुए पर टिका है? मुझ पर टिका है!
उस दफ्तर में प्रवेश करना तक मुश्किल हो गया था। जो प्रवेश कर जाता
उसको निकलना मुश्किल हो जाता। जो निकल जाता उसको प्रवेश करना मुश्किल हो जाता। अंततः
यह निर्णय किया गया कि अब ये सौ साल पुरानी फाइलें, इनको इकट्ठा रखने से
क्या फायदा है? तो दफ्तर के प्रधान ने कहा, अब इनको जला दिया जाए। लेकिन जलाने के पहले एक बात खयाल रखी जाए--सबकी
कापी कर ली जाए।
देखते हो बुद्धिमानी! दीनदयाल खत्री, देखते हो? इसको कहते हैं विधायकता। क्या विधायक कदम! अरे कभी जरूरत पड़ जाए, फिर? तो सबकी कापी कर लेनी चाहिए जरूरी। पुरानी तो
जला दो, मगर कापियां कर लो।
मैं इस तरह की मूढ़ताओं में भरोसा नहीं करता।
जमीन साफ करनी पड़ेगी। पुरानी इमारतें हटानी होंगी। और तभी नये का
निर्माण हो सकता है। विध्वंस निर्माण का अनिवार्य अंग है। बिना विध्वंस के कोई
निर्माण कभी नहीं होता है। और जो विध्वंस से डरते हैं वे कभी निर्माण नहीं कर
पाते। वे निर्माण की बकवास जितनी चाहे कर लें।
इस देश में खूब रचनात्मक कार्यक्रमों की बातें होती हैं। बस बातचीत ही
बातचीत है। रचनात्मक कार्यक्रम! आजादी के तैंतीस साल गुजर गए, रचनात्मक कार्यक्रम की कितनी योजनाएं, कितनी बकवास!
रचना सिर्फ एक होती है--बच्चे पैदा होते हैं। आजादी के वक्त जितनी संख्या थी,
अब दुगुनी संख्या है। दुगुनी समस्याएं खड़ी हो गईं।
बस एक ही रचना का काम चलता है इस देश में। होड़ लगी है कि तुमने एक
दर्जन बच्चे पैदा किए, दो दर्जन बच्चे पैदा करके बताऊंगा! अरे मैं भी मर्द
हूं! यहां मर्द की एक ही पहचान है--कितने बच्चे? यहां स्त्री
के भी उर्वरा होने की एक ही पहचान है--कितने बच्चे? जब तक कि
पूरा का पूरा ट्रक भर कर तुम अपने बच्चों को पिकनिक कराने न ले जा सको, तुम भी क्या आदमी हो! मतलब लोगों को शक हो जाएगा कि नसबंदी तो नहीं करवा
ली! और यहां लोग बहुत डरते हैं कि जिसकी नसबंदी हो गई वह तो खतम ही समझो। अब बचा
ही क्या? असली चीज तो निकल ही गई, अब
तो घास-फूस रह गया। अब तो इनका एक ही उपयोग है कि कर दो किसी खेत में खड़ा, गांधी टोपी लगा दो, कुर्ता पहना दो, चूड़ीदार पाजामा जमा दो, चिड़ियों इत्यादि को भगाते
रहेंगे, कौवों को डराते रहेंगे। अब इनका उपयोग ही क्या,
नसबंदी हो गई!
मैं रायपुर में प्रोफेसर था। यूं सांझ को घूमने निकला था कि स्वामी
करपात्री महाराज एक जगह व्याख्यान दे रहे थे। तो मैं जरा खड़ा हो गया कि सुन लूं
एकाध मूर्खतापूर्ण बात और फिर आगे बढूं। और क्या संयोग कि मैं खड़ा हुआ और उन्होंने
कहा...क्या समझा रहे थे वे लोगों को...कि जिस पानी में से बिजली निकाल ली जाती है
वह पानी बेकार, उसको पीना मत। उस पानी की असली शक्ति तो निकल ही गई,
कुंडलिनी तो निकल ही गई! उसको सींचना भी मत। नहीं तो जो होगी भी फसल,
वह बांझ। देखने को गेहूं रहेगा, भीतर कुछ भी
नहीं।
और जनता सिर हिला रही थी कि बात तो सच्ची है। अरे बिजली ही जब निकल गई
तो अब क्या, फोकट पानी बचा!
अब ये बुद्धू...नहीं-नहीं, महापुरुष! नहीं तो
दीनदयाल खत्री नाराज हो जाएंगे। नहीं, कभी निंदा नहीं करनी
चाहिए! अरे निंदा तो दूर, आलोचना भी नहीं करनी चाहिए।
ऐसी-ऐसी गजब की खोजें कर रहे हैं, बड़े-बड़े वैज्ञानिकों को
मात दे रहे हैं! क्षमा करना, मैंने बुद्धू कह दिया, वह ठीक नहीं।
जीवन को रूपांतरित करना हो तो पहले विध्वंस करना ही होगा।
सदियों-सदियों के सड़े-गले कचरे को आग लगानी होगी। जमीन साफ करनी होगी। तभी उसमें
नयी फसल उगाई जा सकती है।
आखिरी प्रश्न: भगवान,
आपने मेरी आंखें खोल दीं। मैं अपनी झोली में
धर्मशास्त्र रखे हुए हूं, मुझे और अधिक जूते उसमें नहीं
डालने। आप अगर मुझ वृद्ध को स्वीकार लें, संन्यास में दीक्षा
दें और समाधि का अनुभव कराएं, तो मैं इस धर्मशास्त्रों से
भरी झोली को आज ही फेंक दूं। मैं आपके सत्संग में स्वाध्याय, संन्यास और मौन की प्रक्रिया सीखना चाहता हूं। मेरी करबद्ध प्रार्थना है
कि आप मुझे गरीबदास झोलीवाले का पुराना नाम न दें, मैं अब
गरीबी और झोली दोनों से मुक्त होना चाहता हूं।
गरीबदास झोलीवाले,
यह तो तुमने गजब कर दिया! चमत्कार कहो। क्योंकि इस देश में आदमी आंखें
इतनी आसानी से नहीं खोलते। खोलने की कहो तो और भींच कर बंद कर लेते हैं।
तुम ठीक कहते हो कि "मैं अपनी झोली में धर्मशास्त्र रखे हुए हूं।'
सभी धर्मशास्त्रों को ही ढो रहे हैं। और अच्छा ही है कि झोली में रखे
हो, सो छुटकारा आसान! लोगों की तो खोपड़ियों में घुस गए हैं। वहां से निकालने
में बड़ी मुसीबत है। बड़ी सर्जरी करनी पड़ती है। पहले तो अपनी खोपड़ी में कोई छेद नहीं
करने देता। किसी तरह अगर खोपड़ी में खिड़की बना भी लो--वही मैं करता हूं, संन्यासियों की खोपड़ी में खिड़की बनाता हूं--फिर उस खिड़की में से धीरे-धीरे
शास्त्र निकालने पड़ते हैं। कठिन काम है, क्योंकि शास्त्र
भीतर जकड़े हुए हैं। उन्होंने बहुत जाला फैला रखा है। तुम सौभाग्यशाली हो कि
तुम्हारे शास्त्र झोली में हैं। झोली तो एक झटके में खतम कर दी जाएगी। शायद इसीलिए
तुम्हारी इतनी जल्दी आंखें भी खुल गईं। सौभाग्यशाली हो तुम।
और तुम कहते हो: "आप अगर मुझ वृद्ध को स्वीकार लें...।'
तुम्हारी यह आकांक्षा, तुम्हारी यह तैयारी,
स्पष्ट कहती है कि तुम वृद्ध नहीं हो। शरीर से वृद्ध कोई हो...। यह
चित्त की युवावस्था है। यह हिम्मत, यह साहस, बुढ़ापे में भी! भीतर बहती हुई हिम्मत, यौवन, नये को अंगीकार करने की जोखिम, तुम्हारे वृद्ध होने
का प्रमाण नहीं देती। शरीर से बूढ़े होना कोई बात नहीं, वह तो
स्वाभाविक है। लेकिन इस देश का अभागापन ऐसा है कि यहां बच्चे पैदाइश से ही बूढ़े
होते हैं। नहीं होते तो मां-बाप, शिक्षक, धर्मगुरु, सब मिल-जुल कर उनको बूढ़ा बनाने में लग
जाते हैं। बच्चों से लोग अपेक्षा करते हैं कि बूढ़ों की तरह व्यवहार करें। और जो
बच्चा बूढ़ों की तरह व्यवहार करता है, बड़ी प्रशंसा पाता है कि
बड़ा शिष्टाचारी है।
मुझे यह सौभाग्य बचपन से नहीं मिला। किसी ने कभी मेरी प्रशंसा नहीं
की।
मेरे एक अध्यापक, हर वर्ष, ब्राह्मण
थे तो श्रावण के महीने में राखी बांधने के समय घर-घर जाकर राखी बांधते थे। वे मुझे
भी राखी बांधते थे। जब मुझे राखी बांधते थे तो मेरे पिता कहते थे कि उनके पैर छुओ
और यह रुपया उनको भेंट करो। एक बार यूं हुआ कि वे आए, मेरे
पिता मौजूद न थे। उन्होंने राखी बांधी, मैं झटके से उठा और
उनका हाथ पकड़ कर अपना पैर छुआ दिया।
वे तो एकदम भनभना गए। एकदम क्रुद्ध हो गए। मैंने कहा, यह भी क्या बात! इतनी दफे मैंने छुआ, तुमने मजा
लिया। एकाध बार मुझको भी मजा लेने दो। और संयोग की बात है कि आज मेरे पिता हैं
नहीं, नहीं तो वे एकदम मेरे पीछे पड़ जाते हैं कि पैर छुओ। और
किसी को पता न चलेगा, क्योंकि कोई है ही नहीं, मैं हूं और आप हैं। नाहक क्रुद्ध हो रहे हो! अगर क्रुद्ध हुए तो पूरे गांव
को खबर कर दूंगा।
बोले कि भई ठीक, तू भी ठीक कहता है। अब जो हुआ सो
हुआ। किसी से कहने की कोई जरूरत नहीं।
और मैंने कहा, आप आइंदा खयाल रखना। अब मुझे राखी मत बांधना। क्योंकि
मैंने मजा ले लिया। अब यह मजा मैं नहीं छोड़ सकता।
वे मुझे डर-डर कर देखते थे कक्षा में भी, और मेरी तरफ नजर रखते। मैं भी आंख से जवाब दे देता कि खयाल रखना। हालांकि
मैंने पूरे गांव में खबर धीरे-धीरे उड़ा दी। वे मुझसे पूछने लगे कि लोगों को कैसे
पता चल रहा है? मैंने कहा, अजीब! इस
गांव में कई लोग मालूम होता है विचार पढ़ना जानते हैं। मैं किसी से कह नहीं रहा,
आप किसी से कह नहीं सकते; पता नहीं कैसे लोगों
को पता चल रहा है! लोग मुझसे पूछते हैं तो मजबूरी में मुझे सत्य के लिए हां तो
भरना ही पड़ता है कि हां यह बात हुई है, इस तरह की घटना घटी
है।
बच्चों को बचपन से ही आज्ञाकारी बनाने की ऐसी चेष्टा चलती है कि
धीरे-धीरे वे बेचारे आज्ञाकारी गुलाम ही हो जाते हैं। फिर उनकी सामर्थ्य ही टूट
जाती है। वे बूढ़े ही हो जाते हैं--असमय बूढ़े हो जाते हैं।
यह तो सौभाग्य की बात है गरीबदास कि तुम वृद्ध हो, फिर भी मेरी चोटों को सह सके; न केवल सह सके,
बल्कि समझने की भी तुमने चेष्टा की। और तुम राजी भी हो संन्यास के
लिए। लेकिन वहां कुछ बातें तुम्हें खयाल में रखनी होंगी।
तुम कहते हो: "आप संन्यास में दीक्षा दें और समाधि का अनुभव कराएं, तो मैं इन धर्मशास्त्रों को आज ही फेंक दूं।'
समाधि का अनुभव शर्त से नहीं हो सकता। जब तक शर्त है तब तक समाधि संभव
नहीं। संन्यास में दीक्षा देने को मैं राजी हूं। लेकिन इसके पहले कि तुम शास्त्रों
को जलाओ, तुम्हें शर्त को जलाना पड़ेगा। यह शर्त कि आप मुझे समाधि
का अनुभव कराएं...। कोई किसी को समाधि का अनुभव नहीं करा सकता। इशारा कर सकता हूं,
संकेत दे सकता हूं। करना तो तुम्हीं को होगा। और अगर शर्त पहले से
तुम्हारे मन में रही तो तुम न कर पाओगे। तुम्हारी शर्त ही बाधा बन जाएगी। समाधि तो
बेशर्त अनुभव है। अगर तुम्हारी यह अपेक्षा रही कि अब समाधि का अनुभव हो, अब समाधि का अनुभव हो, अभी तक नहीं हुआ! तीन दिन हो
गए, तेरह दिन हो गए, तीन साल हो गए,
अभी तक नहीं हुआ! बस वहीं अड़चन हो जाएगी।
एक बड़ी पुरानी बोधकथा है--जो मुझे प्रीतिकर है--कि नारद स्वर्ग जा रहे
हैं, अपनी वीणा पर गीत गुनगुनाते। उन्होंने देखा एक वृक्ष
के नीचे एक वृद्ध संन्यासी माला फेर रहा है। रुक गए। कहा कि स्वर्ग जा रहा हूं,
परमात्मा से कुछ पूछना हो तो पूछ आऊंगा तुम्हारे लिए।
संन्यासी ने कहा कि जरा पूछ आना कि मेरी मुक्ति में कितनी देर और है? काफी समय हो गया। सुना था मैंने कि देर है, अंधेर
नहीं। लेकिन देर इतनी हुई जा रही है कि लगता है अंधेर है। तीन जन्म हो गए, तीन जन्म, माला फेरते-फेरते, राम
नाम जपते-जपते। आखिर धैर्य की भी एक सीमा होती है। जरा पूछ आना कि कितनी देर और?
जिस ढंग से उसने कहा उस ढंग में जाहिर है कि यह आदमी अभी भी व्यवसाय
की भाषा में सोच रहा है। अभी भी लेन-देन है कि इतनी देर हो गई, इतना श्रम किया है, अब फल मिलना चाहिए। और ध्यान की
गहराई तो फलाकांक्षा से मुक्त होने पर होती है। समाधि तो तभी फलित होती है जब सारी
फलाकांक्षा तिरोहित हो गई होती है, जब पाने का कोई इरादा ही
नहीं होता। यह उलटबांसी है समाधि की। जब पाने का कोई भी इरादा नहीं, जब बात ही बिसर गई, जब समाधि अपने में ही आनंद बन गई,
अपने में ही साध्य हो गई, साधन न रही, तभी आकाश बरसता है, तभी अमृत की झरी लग जाती है,
और तभी हजार-हजार दीये जलते हैं, और तभी खिलते
हैं भीतर के कमल, उसके पहले नहीं।
नारद हंसे और उन्होंने कहा, जरूर पूछ आऊंगा।
दूसरे वृक्ष के नीचे एक युवा संन्यासी नाच रहा था। रहा होगा मेरा ही
संन्यासी। कहानी कितनी ही पुरानी हो, इससे क्या फर्क पड़ता
है! मगर मैं अपने संन्यासियों को पहचानता हूं, चाहे पुराने
हों, चाहे नये हों। क्योंकि मेरे अलावा वह किसी और का
संन्यासी हो ही नहीं सकता। वह अपना इकतारा लिए नाच रहा था। नारद थोड़ी देर खड़े रहे,
वह रुका ही नहीं, उसने अपनी धुन छोड़ी ही नहीं।
नारद ने खुद ही पूछा कि भाई, मैं जा रहा हूं स्वर्ग, तुम्हारे पड़ोस में बैठे हुए वृद्ध संन्यासी ने पूछा है कुछ, तुम कहो तो तुम्हारे लिए भी पूछ आऊं।
वह युवक संन्यासी बोला, व्यर्थ बाधा न दो।
आगे बढ़ो! फिजूल की बकवास न करो! किसको जाना है स्वर्ग? और
किसको पड़ी परमात्मा पाने की? यहां मैं मजे में हूं, मस्ती में हूं। शर्म भी नहीं आती बेहूदी बातें पूछते! मुझे कुछ पूछना नहीं,
मुझे कुछ चाहना नहीं। मेरी कोई चाह नहीं। मैं आनंदित हूं। आनंदित
आदमी की क्या चाह हो सकती है?
नारद लौटे। उस बूढ़े संन्यासी को कहा कि मैंने पूछा था; उन्होंने कहा, कम से कम तीन जन्म और लगेंगे।
बूढ़े संन्यासी ने माला फेंक दी और कहा, भाड़ में जाए बैकुंठ!
तीन जन्म? सो अब तक जो मैंने मेहनत की, व्यर्थ गई। मैं भी पागल था, जो यह माला बैठा पकड़े,
बुद्धू था मैं! अरे कुछ भोग ही लेते संसार, कुछ
मजा-मौज कर लेते। सारी दुनिया मजा-मौज कर रही है, एक मैं
बुद्धू की तरह यहां बैठा राम-राम जप रहा हूं। और तीन जन्म लगेंगे! न लाज है,
न संकोच है। कहीं कोई न्याय नहीं।
वह तो इतना भन्नाया कि नारद को डर लगा कि उनकी वीणा वगैरह न तोड़ दे।
और फिर वे युवा संन्यासी के पास गए और कहा कि भई, हालांकि तूने नहीं पूछा था। और अब तो मुझे बहुत डर लग रहा है, क्योंकि जिसने पूछा था उसका उत्तर दिया, उसने माला
फेंक दी और उसने ऐसी बातें कहीं जो नहीं कहनी चाहिए। कहने लगा ऐसी की तैसी बैकुंठ
की! यह बात शोभा नहीं देती। तूने तो पूछा भी नहीं था, मगर
मेरी गलती कि मैं तेरे लिए भी पूछ आया। और जो उन्होंने कहा है, अब मैं डरता हूं कि कहूं कि न कहूं।
वह युवा संन्यासी तो नाचता रहा। उसने कहा, कहना हो भाई तो कह दे, न कहना हो तो न। तू अपना काम
कर, हमें अपना काम करने दे। किसको पड़ी है कि क्या तू पूछ आया
और क्या उत्तर लाया!
नारद ने कहा, तो फिर हम कहे देते हैं। मैंने पूछा तो उन्होंने कहा,
जिस वृक्ष के नीचे वह युवा संन्यासी नाच रहा है, उसमें जितने पत्ते हैं उतने ही जन्म उसको लगेंगे।
वह युवा संन्यासी तो और त्वरा से नाचने लगा। उसके चेहरे पर आनंद ही
आनंद! नारद को तो भरोसा न आया। उसने कहा, तू आनंदित किसलिए हो
रहा है? समझा कि नहीं? कोई अफीम वगैरह
तो नहीं खाता? अरे होश में आ! कितने इस पर पत्ते हैं,
कुछ गिनती तो कर!
लेकिन उस युवा संन्यासी ने कहा, अरे बस इतने पत्ते!
तो पा ही लिया, देर क्या? संसार में
कितने पत्ते हैं! इसी जंगल में कितने पत्ते हैं! एक वृक्ष के पत्ते। अनंत वृक्ष
हैं। इतने से पत्ते, गिनती करने की जरूरत क्या है? कौन समय खराब करे! पा ही लिया! तू फिक्र छोड़। तू आगे जा भाई, तू बेकार बरबाद न कर हमारा समय। मिल ही गया। यूं हमें कोई चाह न थी। यूं
हमने पूछा भी न था। यूं हमने मांगा भी न था। मगर उसकी कृपा अपरंपार है।
और कहानी कहती है कि वह युवक उसी क्षण मुक्त हो गया।
ऐसी बेशर्त, ऐसी फलाकांक्षा-रहित चित्त की दशा चाहिए। समाधि तो घट
सकती है। समाधि कोई अनहोनी बात नहीं। ध्यान भी लगेगा, समाधि
भी आएगी। मगर शर्त नहीं।
मेरा संन्यास बेशर्त है। न मैं तुमसे पूछता हूं कि तुम्हारी योग्यता
क्या, पात्रता क्या। मेरी तरफ से भी बेशर्त है। मैंने कभी
किसी से नहीं पूछा कि भई तू पात्र भी है! बल्कि लोग खुद ही मुझसे पूछते हैं डरते
हुए कि आप हमें संन्यास तो दे रहे हैं, मगर हम पात्र नहीं।
हम शराब पीते हैं।
मैं कहता हूं, कोई फिक्र न करो। संन्यास बड़ी चीज है। ऐसी छोटी-मोटी
चीजों से नहीं अटकती। शराब पीते हो, पीओ; संन्यास में इससे क्या बाधा पड़ती है? अगर संन्यास
में कुछ बल है तो शराब चली जाएगी। क्यों यह शर्त पहले से लगानी कि शराब पीना छोड़ो?
यह तो संन्यास की निर्बलता होगी।
कोई तो बेचारे यही कहते हैं कि अब आप दे तो रहे हैं संन्यास, मगर धूम्रपान की आदत है।
अब पागल हो गए हो! अरे धुआं कुछ परमात्मा का दुश्मन है? और धुआं को भीतर ले गए, बाहर लाए, इसमें क्या अड़चन है? इससे संन्यास का क्या विरोध?
यूं ही समझो कि जरा गलत ढंग का प्राणायाम कर रहे हो, और क्या! है तो प्राणायाम ही, मगर तुम्हें शुद्ध
वायु पसंद नहीं, तुम्हारी मौज। पहले धुआं मिलाते हो उसमें,
फिर प्राणायाम करते हो। वैसे भी अब हवा में इतना धुआं है कि जो
धूम्रपान नहीं करते वे भी करीब-करीब धूम्रपान कर रहे हैं। इतनी कारें चल रही हैं,
ट्रक चल रहे हैं, बसें चल रही हैं, सड़कों पर इतना धुआं है।
वैज्ञानिकों ने खोज की है कि न्यूयार्क की सड़कों पर इतना धुआं है, इतना विषाक्त धुआं है, कि वे चकित हैं कि आदमी जिंदा
कैसे है! इतना धुआं, इतना विषाक्त वातावरण, आदमी को मर ही जाना चाहिए। मगर आदमी बड़ा हिम्मतवर प्राणी है। वह हर चीज
में अपने को समायोजित कर लेता है। यही तो उसकी खूबी है। और जानवर मर गए। बहुत
जानवर इस जमीन पर थे जो अब नहीं हैं। उनमें खराबी एक थी कि वे समायोजित नहीं हो
सकते थे नयी परिस्थिति के साथ। जब परिस्थितियां बदलीं, वातावरण
बदला या मौसम बदला या कोई दुर्घटना हुई, भूचाल हुआ, भूकंप हुआ, पहाड़ निकले, समुद्र
बने, वे बेचारे मर गए। नयी परिस्थिति में वे अपने को न
सम्हाल पाए। आदमी की यही तो खूबी है कि हर परिस्थिति में अपने को सम्हाल लेता है,
हर मौसम में, हर वातावरण में वह अपने को राजी
कर लेता है।
तो मैं उनसे कहता हूं, क्या फिक्र करते हो!
थोड़ा-बहुत धुआं निकाला, कोई अड़चन नहीं। ज्यादा ही इसको
धार्मिक बनाना हो तो जब भीतर ले गए तब कहा राम, जब बाहर ले
गए तब कहा राम। सो माला हो गई, जप हो गया। मगर इससे कुछ
संन्यास में बाधा नहीं।
मैं कोई शर्त नहीं लगाता। जुआरी आए, शराबी आए, मैं कोई शर्त नहीं लगाता। और न ही मैं चाहता हूं कि मुझ पर कोई शर्त लगाई
जाए।
गरीबदास, मैं तो तैयार हूं संन्यास में तुम्हें दीक्षा देने
को--भलीभांति जानते हुए कि जो झोले में शास्त्र हैं वे सिर्फ झोले में ही नहीं
होंगे, तुम्हारे भीतर भी चले ही गए होंगे। दुष्ट-संग का असर
तो होता ही है। इतने दिन झोले में रहे तो कुछ न कुछ जहर तुम्हारे भीतर गया होगा।
फिर तुम महंत हो। अब महंत होना कोई आसान काम थोड़े ही है। कई तरह की
विकृतियां चाहिए महंत होने के लिए। महंत होने के लिए विक्षिप्तताएं चाहिए।
लेकिन गरीबदास यूं हिम्मतवर आदमी मालूम होते हैं। अब तक जो उन्होंने
प्रश्न पूछे थे, उनमें हमेशा दस्तखत करते थे--महंत गरीबदास झोलीवाले।
आज उन्होंने महंत छोड़ दिया। यह शुभ लक्षण है। मगर शर्तबंदी भी छोड़ दो। समाधि
घटेगी। जब घटनी है तब घटेगी। ऐसी जल्दी भी क्या है? ऐसा
अधैर्य भी क्या है? यह आकांक्षा भी हम क्यों रख कर चलें?
यह वासना भी तो आखिर वासना ही है। और समाधि निर्वासना में घटती है।
तुम कहते हो कि "आप समाधि का अनुभव कराएं, तो मैं इस धर्मशास्त्रों से भरी झोली को आज ही फेंक दूं।'
झोली तो फेंको! रही समाधि, पीछे निपट लेंगे। इस
कचरे को तो हटाओ, भूमि तो साफ करो, फिर
बीज पीछे बो लेंगे।
तुम कहते हो: "आपके सत्संग में स्वाध्याय, संन्यास और मौन की प्रक्रिया सीखना चाहता हूं।'
सहज ही घटित हो जाएगा सब। क्योंकि स्वाध्याय का यहां तो वही अर्थ है
जो स्वाध्याय का होना चाहिए: स्वयं का अध्ययन। यहां कोई गीता, कुरान, बाइबिल का अध्ययन स्वाध्याय नहीं है। स्वयं
का अध्ययन!
और वही मौन की प्रक्रिया है। जैसे-जैसे तुम स्वयं के अध्ययन में लीन
होते हो, जैसे-जैसे स्वयं का निरीक्षण करते हो, साक्षी बनते हो, अपने आप मौन होते चले जाते हो।
और जो व्यक्ति मौन को उपलब्ध हो जाता है, जो अपने भीतर शून्य को पा लेता है, उसके जीवन में
संन्यास।
दीक्षा तो केवल प्राथमिक चरण है, सिर्फ पहला कदम है,
सिर्फ उदघोषणा है कि अब मैं स्वयं को खोजने चलता हूं। निर्णय है कि
अब से मेरा जीवन स्वयं की खोज होगा। लेकिन जिस दिन व्यक्ति अपने भीतर स्वाध्याय के
द्वारा मौन को अनुभव कर लेता है उस दिन संन्यास का फूल खिलता है। तब इस संसार के
कोलाहल में जीता है, लेकिन मौन। तब बाजार में जीता है,
लेकिन मौन। तब भीड़-भाड़ में जीता है, लेकिन
एकांत में ही होता है। उसका एकांत अखंडित होता है। उसका मौन अखंडित होता है। कोई
घटना उसके मौन को नष्ट नहीं कर सकती और कोई भीड़-भाड़ उससे उसके एकांत को नहीं छीन
सकती। वह हमेशा अपने भीतर के शून्य में विराजमान होता है। वही असली मंदिर है।
तुम कहते हो: "मेरी करबद्ध प्रार्थना है कि आप मुझे गरीबदास
झोलीवाले का पुराना नाम न दें।'
तुम प्रार्थना न भी करो, तो भी मैं यह नाम तो
तुम्हें दे नहीं सकता। तुम गरीब हो नहीं। कोई गरीब नहीं है। जिसके भीतर भगवान
विराजमान हो वह कैसे गरीब हो सकता है? ईश्वर शब्द का अर्थ ही
ऐश्वर्य होता है। ऐश्वर्य से ही वह शब्द बना है। और हम सब के भीतर, आज संभावना सही, कल सत्य हो सकता है। आज बीज सही,
कल वसंत आ सकता है, फूल ही फूल खिल सकते हैं।
भगवत्ता जिनके भीतर है, वे कैसे गरीब? तुम्हें
कोई नाम दूंगा जो भगवत्ता का स्मरण कराए। तुम इसकी चिंता न करो। नाम तो मैं प्यारे
चुनता हूं, क्योंकि नाम तुम्हारे भविष्य की दिशा का संकेत
बनते हैं।
तुम कहते हो: "मैं अब गरीबी और झोली दोनों से मुक्त होना चाहता
हूं।'
तब तुम ठीक जगह आ गए हो। यहां न गरीबी का समर्थन है, न झोली का समर्थन है। मेरे संन्यासी भिक्षु नहीं। मेरे संन्यासी
दीन-दरिद्रता में भरोसा नहीं करते।
भगवत्ता को जीना है। और भगवत्ता से बड़ी कोई समृद्धि नहीं। भगवत्ता
हमारा साम्राज्य है। और प्रत्येक व्यक्ति को यूं जीना है जैसे शहंशाह हो। शहंशाह
भी मात हो जाने चाहिए, यूं जीना है। बाहर की बादशाहत भी कोई बादशाहत है?
भीतर की बादशाहत ही असली बादशाहत है।
आज इतना ही।
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