साहिब मिले साहिब भये-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
भगवान श्री रजनीश का पूर्ण मनुष्य—
""...हसन ने कहा," राबिया, तूने तो बात ही बदल दी, तूने तो मुझे बहुत झेंपाया। क्षमा कर, आता हूं,
भीतर आता हूं, तू ही ठीक कहती है।'
और राबिया ने कहा,"बाहर तो सब माया है, भ्रम है, सत्य
तो भीतर है।'
वहां मैं राजी नहीं हूं। बहार भी सत्य है, भीतर भी सत्य है। तुम्हारी नजर जहां पड़ जाए। तुम बाहर को देखोगे तो भीतर
के सत्य से वंचित रह जाओगे। और तुम भीतर देखोगे तो तुम बाहर के सत्य से वंचित रह
जाओगे। और अब तक यही हुआ। पूरब ने भीतर देखा, बाहर के सत्य
से वंचित रह गया। इसलिए दीन है, दरिद्र है, भूखा है,प्यासा है, उदास है,
क्षीण है। जैसे मरणशय्या पर पड़ा है। क्योंकि बाहर तो सब माया है। तो
फिर कौन विज्ञान को जन्म दे? कौन उलझे माया में? और कौन खोजे माया के सत्यों को? और माया में सत्य हो
कैसे सकते हैं?
इस देश की दरिद्रता में तुम्हारे अध्यात्मवादियों का हाथ है। जाने न
सही तो अनजाने सही, मगर हाथ तो है; उसे इनकारा नहीं
जा सकता।
और पश्चिम बाहर के सत्य पर ही अटक गया। उसने भीतर देखा ही नहीं।
पश्चिम कहता है, भीतर कुछ भी नहीं है। भीतर जैसी कोई चीज ही नहीं है।
यह सब बकवास है। जो है, बाहर है; सब
बाहर है।
मगर एक बात ख्याल रखना, दोनों का तर्क एक ही
है। इस तर्क में जरा भी भेद नहीं है। शंकराचार्य के तर्क में और कार्ल माक्र्स के
तर्क में जरा भी भेद नहीं है। शंकराचार्य कहते हैं, बाहर जो
है, असत्य है, सत्य भीतर है, और कार्ल माक्र्स कहता है, भीतर जो है, सब असत्य है और बाहर जो है, वही सत्य है। मगर दोनों
की भ्रांति है। और वहीं दोनों की चूक है।
मैं चाहूंगा एक ऐसा मनुष्य पृथ्वी पर जो भीतर और बाहर के बीच सम्मिलन
बना सके। जो भीतर और बाहर के बीच सेतु निर्मित कर सके। जो इतना कुशल हो कि आंख बंद
करे तो भीतर स्रष्टा को देखे और आंख खोले तो बाहर सृष्टि को देखे। न तो भीतर के
कारण बाहर को झुठलाए, न बाहर के कारण भीतर को झुठलाए। झुठलाए ही नहीं।
इनकार ही न करे। जिसका स्वीकार इतना बड़ा हो कि उसमें बाहर और भीतर दोनों समा जाएं।
तो धर्म और विज्ञान का मिलन हो। तो पूरब और पश्चिम का मिलन हो। मेरे संन्यासी से
मैं वही आशा करता हूं कि उसमें दोनों मिलेंगे। उसमें भौतिकवाद और अध्यात्म का मिलन
होगा।
इसलिए मेरे संन्यासी को दो तरह की आलोचनाएं सहनी पड़ेंगी।
भौतिकवादी कहेगा कि तुम भी क्या अध्यात्म की बातें करते हो!
कम्युनिस्ट मेरे विरोध में हैं। उनका विरोध मुझसे यह है कि मैं लोगों को ध्यान
जैसी भ्रामक दिशा में गतिमान कर रहा हूं। लाखों को भीतर की तरफ ले जा रहा हूं।
जबकि असली सवाल बाहर है। क्रांति बाहर होनी है। सूरज बाहर निकलना है, चांद बाहर है, रोशनी बाहर है, और
मैं लोगों का भीतर भटका रहा हूं। मैं उनको क्रांति से छीने ले रहा हूं। मैं
क्रांति का दुश्मन हूं।
और अध्यात्मवादी मुझसे नाराज है। सारे अध्यात्मवादियों के अलग-अलग
फिरके मेरे खिलाफ हैं। उनकी खिलाफत का कारण? उनका कहना यह है कि
मैं अपने संन्यासी का भौतिकवाद की शिक्षा दे रहा हूं। मैं उससे नहीं कहता कि संसार
को छोड़ो। मैं उससे नहीं कहता कि संसार माया है। मैं उससे कहता हूं जीओ, जी भर कर जीओ! मैं उसे भोगी बना रहा हूं। मैं उसे योग से तोड़ रहा हूं। मैं
उसे भरमा रहा हूं, भटका रहा हूं; मैं
उसे भ्रष्ट कर रहा हूं।
उन दोनों की आलोचनाएं मुझे सहनी पड़ेंगी। सदियों पुरानी दोनों की
धारणाएं हैं। मैं उनके लिए बेबूझ हुआ जा रहा हूं। उनकी भी समझ के बाहर है कि मेरे
संबंध में वे राजी क्यों है? वे राजी इसलिए हैं कि उन दोनों
का तर्क एक है। वे आधे को मानते हैं।
मैं चाहता हूं तुम्हारी आंख तरल होनी चाहिए, तुम्हारी दृष्टि तरल होनी चाहिए।--न अंतर्मुखी, न
बहिर्मुखी। अंतर्मुखी हुए तो बाहर से टूटे। उसका फल भोगोगे। पूरब भोग रहा है फल,
बुरी तरह भोग रहा है फल। और बहिर्मुखी हुए, भीतर
से चूक जाओगे। पश्चिम उसका फल भोग रहा है, बुरी तरफ भोग रहा
है। अंतर्मुखी हुए तो दीन होओगे, दरिद्र होओगे, गुलाम होओगे। और बहिर्मुखी हुए, तो विक्षिप्त होने
लगोगे। चित्त तनावग्रस्त हो जाएगा, संताप से भर जाएगा।
दौड़-धूप तो बहुत होगी, आपाधापी तो बहुत होगी, मगर कोई विराम न बचेगा जीवन में, शांति के कोई क्षण
न मिलेंगे; अर्थ खो जाएगा; एक
अर्थहीनता छा जाएगी। धन बहुत होगा, बड़े महल खड़े हो जाएंगे,
राजपथ बनेंगे, विज्ञान होगा, उद्योग होगा, बड? तकनीकी विकास
होंगे, एक-से-एक अदभुत चीजें विज्ञान खोज कर हाथ में दे देगा,
चांदत्तारों पर पहुंचने की ताकत आ जाएगी, मगर
भीतर दीया भी न जलेगा, मोमबत्ती भी न जलेगी, भीतर अंधेरा रहेगा। और भीतर अंधेरा हो तो तुम चांद पर भी पहुंच जाओ तो
क्या करोगे? तुम तो तुम ही रहोगे। चांद पर भी पहुंचने से
क्या होगा? तो भी तुम्हारे भीतर का चांद नहीं ऊगेगा।
ये दोनों परंपराएं हार गयीं, थक गयीं, टूट गयीं। इन दोनों के दिन लद गये। मैं दोनों को ही अधूरा मानता हूं,
इसलिए रुग्ण मानता हूं। मनुष्य को एक तरल दृष्टि चाहिए।
इस शब्द को समझने की कोशिश करो--तरल दृष्टि। अगर इस शब्द को तुम समझ
लो तो मेरी भाषा तुम्हें समझ में आ जाएगी। मेरा जीवन को देखने का ढंग तुम्हारी समझ
में आ जाएगा। मैं अंतर्मुखी नहीं, बहिर्मुखी नहीं। और न चाहता हूं
कि तुम अंतर्मुखी बनो या बहिर्मुखी बनो। मैं चाहता हूं, तुम
चुनाव करना मत, तुम तरल रहो, तुम जब
चाहो तब आंख बंद करो। जैसे आंख झपकते हो, जैसे रात सो जाते
हो, जैसे सुबह आंख खोल लेते हो, इतनी
ही तरलता चाहिए। जड़ मत हो जाओ। एक ही घेरे में आबद्ध मत हो जाओ। बाहर आना और भीतर
जाना सुगम होना चाहिए। जैसे अपने घर के बाहर-भीतर आते हो। सुबह-सुबह बाहर निकल आते
हो, बगिया में बैठते हो, धूप सुहानी
लगती है। और फिर धूप थोड़ी देर में तेल होने लगती है, पसीना
बहने लगता है, फिर तुम उठे और चुपचाप घर के भीतर, घर की छाया में चले जाते हो। अब छाया प्यारी लगती है। अभी थोड़ी देर पहले
धूप प्यारी लगती थी। जब तम कुनकुनी थी, प्यारी थी, अब तेज हो गयी, प्रखर हो गयी, आग
बरसने लगी, अब छाया चाहिए, अब तुम भीतर
सरक आते हो। जैसी सरलता से तुम अपने घर के बाहर-भीतर आते-जाते हो, बिना किसी अवरोध के। तुम यह जिद्द नहीं करते कि मैं तो अंतर्मुखी हूं तो
मैं तो भीतर ही बैठूंगा, चाहे सर्दी में ठिठुरूं, चाहे दांत कटकटाएं।
लेकिन अगर तुमने जिद की कि मैं तो भीतर ही रहूंगा, तो दांत कटकटाएंगे। अंधेरे में तुम जीओगे फिर। अगर तुमने बाहर ही रहने की
जिद की, तो पसीने-पसीने हो जाओगे; तो नाहक
नर्क भोगोगे। जिद में पड़ना मत। हठ से बचना।
हठ मनुष्य को आग्रहपूर्ण बनाता है। और सब तरह के आग्रह खतरनाक हैं। न
तो बाहर का आग्रह करना, न भीतर का। आग्रह ही मत करना। निराग्रही होना धार्मिक
होना है।
इसलिए मैं अपने संन्यासी को कहता हूं: जब समय मिल जाए आंख बंद करो, भीतर डुबकी मारो, भीतर के मोती चुगो। और जब जरूरत
पड़े तो बाहर के जगत में श्रम करो। बाहर का जगत भी तुम्हारा है। वह भी परमात्मा की
देन है। बाहर के चांद-सूरज भी तुम्हारे हैं। मगर भीतर के भी चांद-सूरज हैं। बाहर
भी एक आकाश है और भीतर भी एक आकाश है।
पश्चिम के बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक कार्ल गुस्ताव जुंग ने मनुष्य को दो
कोटियों में बांटा हैं: अंतर्मुखी और बहिर्मुखी। मैं मानता हूं कि पुराने मनुष्य
के संबंध में उनका यह विभाजन बिलकुल सच है। लेकिन भविष्य के मनुष्य के संबंध में
यह विभाजन झूठ हो जाने वाला है। हो जाना चाहिए। इसे झूठ करने के लिए ही मेरा सारा
प्रयास है। कार्ल गुस्ताव जुंग को झूठ करना ही है। एक ऐसा आदमी चाहिए, जिसको कोटियों में न बांटा जा सके। जो बाजार में हो और ध्यानी हो। जो
ध्यानी हो और भीड़ में हो। जो भीड़ में भी अकेला होने में समर्थ हो । जो बाजार में
भी बैठ कर आंख बंद कर ले तो हिमालय के द्वार खुल जाएं।''
आलोक हमारा स्वभाव है—पहला
प्रवचन
११ जुलाई, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
पहला प्रश्न: भगवान, "साहेब मिल साहेब भये' नयी प्रवचनमाला के प्रारंभ में
हम आपका स्वागत मरते हैं, प्रणाम करते हैं और विनती करते हैं
कि आप हमें बताएं कि परमात्मा को "साहेब' क्यों कहते
हैं?
आनंद संत, परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है, जैसा
कि साधारणतः समझा जाता है। उस भ्रांत समझ के कारण ही मंदिर बने, मस्जिद बने, काबा बने, काशी
बने; मूर्तियां, हवन-यज्ञ, पूजा-पाठ, पांडित्य-पौरोहित्य, सारा सिलसिला, सारा षडयंत्र, मनुष्य
के शोषण का सारा आयोजन हुआ। सारी भ्रांति एक बात पर खड़ी है कि जैसे परमात्मा कोई
व्यक्ति है।
परमात्मा का केवल इतना ही अर्थ है कि अस्तित्व पदार्थ पर समाप्त नहीं
है। पदार्थ केवल अस्तित्व की बाह्य रूपरेखा है, उसका अंतस्तल नहीं।
परिधि है, केंद्र नहीं। और परिधि मालिक नहीं हो सकती। केंद्र
ही मालिक होगा। इसलिए परमात्मा को "साहेब' कहा है।
कहना कुछ होगा, नाम कुछ देना होगा। लाओत्सू ने कहा। उसका कोई नाम
नहीं है, इसलिए मैं "ताओ' कहूंगा।
मगर वक्तव्य पर ध्यान देना। उसका कोई नाम नहीं है, फिर भी
इशारा तो करना होगा, अंगुली तो उठानी होगी, उसका कोई पता-ठिकाना तो देना होगा, अंधों तक उसकी
कोई खबर तो पहुंचानी होगी, बहरों के कान में चिल्लाना तो
होगा, सोयों को झकझोरना तो होगा। सभी नाम उपचार मात्र हैं।
कोई भी नाम दो। कोई भी नाम दिया जा सकता है।
बुद्ध ने उसे धर्म कहा। महावीर ने उसे परमात्मा ही कहा, लेकिन हिंदुओं ने बहुत भिन्न अर्थ दिए। हिंदुओं का अर्थ है ः वह, जिसने सबको बनाया। स्रष्टा, नियंता, सर्वनियामक। महावीर का अर्थ है: आत्मा की परम शुद्ध अवस्था--परम आत्मा।
अर्थ कुछ भी दो, नाम कुछ भी दो, अनाम है अस्तित्व तो। लेकिन बिना नाम दिये काम चलेगा नहीं। बच्चा भी पैदा
होता है तो अनाम पैदा होता है। फिर कुछ पुकारना होगा। तो राम कहो, कृष्ण कहो, रहीम कहो, रहमान
कहो। सब प्रतीक हैं, इतना स्मरण रहे तो फिर कुछ भूल नहीं
होती। लेकिन प्रतीक को ही जोर से पकड़ ले,
प्रतीक को ही जो सत्य मान ले, तो भ्रांति हो
जाती है। चित्र चित्र है, इतनी स्मृति बनी रहे तो चित्र भी
प्यारा है। लेकिन चित्र ही सब कुछ हो जाए तो चूक हो गयी। जिससे सहारा मिलना था,
वही बाधा हो गया। मूर्ति मूर्ति है तो प्यारी हो सकती है।
बुद्ध की मूर्तियां हैं, महावीर की मूर्तियां
हैं, कृष्ण की मूर्तियां हैं, प्यारी
हो सकती हैं--प्रतीक समझो तो। तो कृष्ण की बांसुरी बजाती हुई मूर्ति इस बात की खबर
है कि अस्तित्व उदासीनों के लिए नहीं है। जिन्हें जीना है, जो
जीने के परम अर्थ को जानना चाहते हैं, वे नाचें, गाएं, गुनगुनाए; उड़ाएं रंग,
जीवन को उत्सव बनाएं। उदासीन तो जीवन से भागता है, भगोड़ा होता है, पलायनवादी होता है, जीवन-विरोधी होता है। और जीवन के सत्य को जीवन की तरफ पीठ करके कैसे पा
सकोगे? चूक सकते हो, पा नहीं सकते।
जीवन में गहरे उतरना होगा, डुबकी मारनी होगी--ऐसी कि लीन ही
हो जाओ, कि लौट कर आने को भी कोई न बचे।
रामकृष्ण कहने थे, नमक का एक पुतला सागर की थाह
लेने गया था, फिर लौटा ही नहीं। लौटे भी कैसे? थाह लेते-लेते ही लीन हो गया। नमक का ही पुतला था, सागर
से ही बना था, सागर से ही आया था, सागर
में ही वापिस हो गया, लौटे कौन? खबर
कौन दे कि कितना गहरा है सागर? गहराई जिसने पायी, वह गहराई हो गया। जीवन से पीठ करोगे, सागर की तरफ
पीठ करके भाग खड़े होओगे, तो तुम सोचते हो कि सागर की गहराई
जान पाओगे? फूलों से आंख बंद कर लोगे, तो
सौंदर्य से पहचान कैसे होगी? इंद्रधनुषों से जी चुराओगे और
फिर भी सत्यम् शिवम् सुंदरम् का पाठ करते रहोगे? सब तरह से
अपने को कुरूप करोगे, विरुप करोगे, विकृत
करोगे और फिर भी संकोच न करोगे, शर्माओगे भी नहीं? फिर भी सत्यम् शिवम् सुंदरम् का उदघोष? विरोधाभास भी
न देखोगे? सत्य की परम अभिव्यक्ति है सौंदर्य। तो सौंदर्य को
पहचानना होगा, जानना होगा, आत्मसात
करना होगा आलिंगन करना होगा। तब जान सकोगे तब पहचान सकोगे।
वह जो कृष्ण के पीतांबर वस्त्र हैं, वह जो मोर-मुकुट है,
वह जो हाथ में सधी बांसुरी है, वह जो पैर
नृत्य की मुद्रा मैं है, वह जो पैरों में घूंघर बंधे हैं,
वे सब खबर दे रहे हैं इस बात की कि उसका मार्ग केवल नर्तक ही पूरा
कर पाए हैं। ऐसा प्रतीक समझो तो कृष्ण की मूर्ति प्यारी है। मगर तुम कृष्ण को भोग
लगाओ, उठाओ, बिठाओ, झूला झुलाओ--पत्थर की मूर्ति या धातु की मूर्ति को--तो तुमने फिर तूल से
ही भूल कर दी। तुमने प्रतीक को ऐसा पकड़ा, उसकी ऐसी गर्दन
दबायी कि उसके प्राण ही निकल गये।
महावीर की प्रतिमा के सामने सिर पटकने से कुछ भी न होगा--सिर टूट सकता
है--महावीर की प्रतिमा को समझो। वह जो नग्न खड़ी प्रतिमा है, वह एक दूसरा इशारा, एक दूसरी अंगुली। एक कृष्ण हैं,
सुंदर वस्त्रों में, आभूषणों में, मोर-मुकुट में, वह एक इशारा, एक
ढंग का इशारा। चांद एक हो, अंगुलियां तो हजार तरफ से उठ सकती
हैं। अंगुलियां तो हजार तरह की हो सकती हैं। अंगुलियों का भेद चांद को भिन्न-भिन्न
नहीं कर देता। मगर पागल हैं ऐसे लोग, अंगुलियों को पकड़ लेते
हैं! चांद से तो प्रयोजन ही नहीं, अंगुलियों पर झगड़ा! कि
किसकी अंगुली सुंदर? कि किसकी अंगुली की चर्चा कुरान में,
बाइबिल में? कौन-सी अंगुली चांद की तरफ उठने
का अधिकार रखती है? अंगुलियों पर उलझे हो। छोटे बच्चों की
भांति हो। जैसे छोटे बच्चों को मां का स्तन न मिले तो अपनी अंगुलियां ही चूसने
लगते हैं। स्तन से चूके जा रहे हो, पोषण से तो चूके जा रहे
हो, चांद की तरफ तो आंख नहीं उठाते जहां से अमृत बरसे,
अंगुलियों को चूस रहे हो!
छोटा बच्चा अंगुली चूसते-चूसते सो जाता है। सोचता है कि मिल गया स्तन।
सोचता है पा लिया पोषण। छोटे बच्चे को हम क्षमा भी कर सकते हैं, लेकिन यहां बड़े-बूढ़े भी अंगुलियों को चूसते-चूसते सो रहे हैं। कुछ भेद
नहीं है।
प्रतीकों को लोग अति आग्रहपूर्वक पकड़ लेते हैं। इससे चूक हो जाती है।
नहीं तो कृष्ण का सजा हुआ रूप भी एक इशारा है, महावीर की नग्न खड़ी
प्रतिमा भी एक इशारा है। और जो समझता है, उसके लिए दोनों अंगुलियां
एक ही चांद का दिखा रही हैं। महावीर की नग्न प्रतिमा कह रही है: ऐसे निर्दोष होता
है; जिसे पता भी नहीं कि मैं नग्न हूं या नहीं। जिसे पता भी
नहीं कि मैं पुरुष हूं कि स्त्री। जिसे छुपाने का अपने को अभी भाव नहीं आया। जहां
छुपाने का भाव आया, वहां कपटता आयी, वहां
चालबाजी आयी, होशियारी आयी, धोखाधड़ी
आयी, अहंकार आया। छोटा बच्चा नग्न है, उसे
पता ही नहीं।
बाइबिल की कथा कि जब अदम ने ज्ञान के वृक्ष का फल खाया, तो जो पहला ख्याल उसे आया वह यह था कि मैं नग्न हूं। उसने जल्दी से पत्ते
तोड़े और अपनी नग्नता पत्तों से ढक ली। जब तक ज्ञान का फल नहीं चखा था तब तक नग्नता
का कुछ पता ही न था। तब तक एक नैसर्गिक सौंदर्य था, एक सहजता
भा। वह खो गयी--तत्क्षण खो गयी। हर बच्चा अदम की तरह ही पैदा होता है--निष्कपट,
निष्कलुष कहीं कोई कालिख नहीं, कहीं कोई दाग
नहीं, छुपाने का कोई सवाल नहीं। कहीं कोई पाप नहीं है,
किससे छिपाना है, क्या छिपाना है? अभी यह भी सवाल नहीं है कि मैं पृथक हूं। अभी अस्तित्व के साथ एकता है।
ऐसी ही महावीर की नग्न खड़ी प्रतिमा है, कि जिस दिन तुम भी
ऐसे निर्दोष हो जाओगे, छोटे बच्चे की भांति, उस दिन परमात्मा हो। उस दिन पा लिया। पा लिया पाने योग्य जो है। सब धनों
का धन, राज्यों का राज्य, परम पद।
लेकिन वही मूढ़ता कि लोग नग्नता की साधना कर रहे हैं!
नग्नता साधना की बात नहीं है। क्योंकि साधी गयी नग्नता सरल नहीं हो
सकती। बात इतनी सीधी और साफ है--साधी गयी नग्नता सरल नहीं हो सकती। बच्चा कोई
नग्नता थोड़े ही साधता है, कि मां के पेट में नौ महीने नग्नता का अभ्यास करता है,
वह नग्नता सहज है। ऐसे ही ध्यान की एक घड़ी में जीवन ऐसा निष्कलुष हो
जाता है। फिर तुम कपड़े उतारो कि न उतारो, वह गौण बात है। सभी
जाग्रत पुरुषों ने कपड़े उतार दिये ऐसा भी नहीं, मगर एक गहरे
अर्थ में सभी ने कपड़े उतार दिये। उनके और अस्तित्व के बीच कोई पर्दा न रहा,
बेपर्दा हो गये। उन्होंने अस्तित्व के सामने अपने को खोलकर रख दिया।
इतना तो प्रतीक है। इससे ज्यादा खींचा कि तुम मूढ़ता में पड़े।
अब जैन मुनि है जो अभ्यास करता है नग्नता का--पांच सीढ़ियों में अभ्यास
करना पड़ता है। क्योंकि एकदम से नंगे खड़े होओगे तो जरा शर्म भी लगेगी, बेचैनी भी लगेगी--लोग क्या कहेंगे। तो धीरे-धीरे पहले वस्त्र कुछ छोड़े--एक
चादर रखी--फिर चादर भी छोड़ दी, लंगोटी रखी, यों छोड़ते-छोड़ते, क्रमशः गणित से, हिसाब से--मगर यह सारा हिसाब ही तो चालबाजी है। फिर नग्न ही खड़े हो गये तो
इस नग्नता और महावीर की नग्नता सहज है, अभ्यासजन्य नहीं है।
महावीर के जीवन में बड़ा प्यारा उल्लेख है। जैसे मैं कहते-कहते थकता
नहीं! वे सब छोड़कर जंगल चले जाना चाहते थे। देख लिया सब। राज्य देखा, राज्य का वैभव देखा, सुख-सुविधा देखी, सब देखा। लेकिन मां से आज्ञा चाही। और मां ने कहा कि भूलकर भी दुबारा यह
बात मत उठाना जब तक मैं जिंदा हूं। मैं बर्दाश्त न कर सकूंगी। मेरे मर जाने के बाद
जो तुम्हें लगे, करना। महावीर ने कहा, जैसी
मर्जी। फिर बात ही न उठायी। चौंकने जैसा मामला है। इतने जल्दी राजी हो गये! इतनी
सरलता से राजी हो गये! अदभुत आदमी रहे होंगे। जिद की होती कि यह मामला संन्यास का
है। पहले तो आज्ञा लेने का कोई सवाल ही न था। जिसको सब छोड़कर जाना है, वह आज्ञाएं लेगा! और कौन आज्ञा देगा! और कोई भी आज्ञा नहीं देगा तो बस रुक
गये! कोई कहानी को ऊपर से देखेगा तो लगेगा यह तो बचने का ढंग है। पहले ही से
सोचा-विचारा था। न मिलेगी आज्ञा, न जाने की जरूरत आएगी नहीं,
मामला कुछ और ही था, गहरा था।
मां की मृत्यु हुई। तो मरघट से लौटते वक्त अपने बड़े भाई से आज्ञा
मांगी, कि अब मुझे आज्ञा दे दें। मां ने यह कहा था कि जब तक
वह है तब तक न कहूं, तो चुप रहा। बड़े भाई ने कहा, तुम्हें होश है या तुम बेहोश हो? तुम पागल तो नहीं
हो? एक तो मां मर गयी, अब तुम्हें मेरे
एकमात्र सहारे हो, तुम भी मुझे छोड़कर चले जाओगे? पिता चल बसे, मां चल बसी, अब
मेरा कोई भी नहीं; जब तक मैं जिंदा हूं, भूलकर यह बात मत करना। महावीर ने कहा, जैसी मर्जी।
मां का मरना तो संभव भी था, कि चलो वृद्ध है, आज नहीं कल चल बसेगी, तो फिर संन्यस्त हो जाएंगे,
लेकिन बड़े भाई में और महावीर में तो उम्र का भी कोई ज्यादा फासला
नहीं था--दो साल का। यह भी हो सकता है महावीर ही पहले मरें। यह बड़े भाई की मौत कब
होगी! मगर रुक रहे।
लेकिन तीन-चार वर्ष के भीतर ही बड़े भाई ने सारे परिवार के लोगों को
इकट्ठा किया और कहा कि अब रोकना उचित नहीं है। क्योंकि अब कुछ रुका नहीं है।
महावीर यूं रहने लगे घर में ही जैसे हों ही न। उठते, बैठते, खाते पीते, चलते,
मगर शून्यवत। थे भी और नहीं भी थे। सब अभिनय हो गया। कोई रस न रहा।
किसी काम में कोई उत्सुकता न रही। कोई आकांक्षा भी न थी। उनकी इस भावदशा को देखकर
महावीर के भाई ने परिवार के सारे लोगों से कहा कि अब उचित नहीं है रोकना। आत्मा से
तो यह जा ही चुका, शरीर ही रह गया है, तो
शरीर को भी हम रोकने के भागीदार क्यों बनें? हम क्यों यह पाप
अपने सिर लें? इसका जुम्मा हमारा है। जहां तक इसका वश है,
वहां तक तो यह गया, यह जंगल में ही है,
अब इसे महल वगैरह दिखायी नहीं पड़ता, इसे कुछ
दिखायी नहीं पड़ता; न धन-दौलत से कुछ लेना-देना है; न किसी परिवार की, राज्य की उलझनों में कोई रस है,
न कोई उत्सुकता है; पूछो तो हां-हूं कर देता
है, न पूछो तो घर में आग भी लगी रहे तो यह बैठा देखता
रहेगा--साक्षी मात्र--अब यह साक्षी का भाव इतना गहरा हो गया है कि रोकना उचित
नहीं।
भाई ने खुद महावीर से प्रार्थना की कि तुम तो जा ही चुके, अब हम तुम्हारे शरीर को क्यों रोकें? तुम खुशी से
जाओ।
तो महावीर चल पड़े। उठे और चल पड़े। एक अपूर्व सहजता है। रोक लिया, रुक गये, जाने दिया, ची पड़े।
जो उनकी निजी चीजें थीं, बांट दीं। सिर्फ एक वस्त्र बचा था।
वह भी रास्ते में आखिरी एक भिखमंगा मिल गया और उसने कहा कि मुझे कुछ भी नहीं मिला।
मैं भागा आ रहा था, आप तो सब बांट ही चले। मेरे हिस्से का
क्या हुआ? तो महावीर ने कहा, अब यह
वस्त्र ही बचा है, कीमती है, आधा-आधा
कर लें। तू बेचेगा तो काफी तुझे मिल जाएगा। तो आधा-आधा लिया। यूं आधे नग्न हो गये।
अभ्यास से नहीं, आकस्मिक। संयोगवशात।
फिर गांव से निकलते वक्त बबूल की झाड़ी में आधा वस्त्र उलझ गया। तो अब
कौन रुके! यूं भी बहुत देर रुक चुके थे। अब यह वस्त्र को कौन सुलझाए और निकाले
बबूल की झाड़ी से! और फिर झाड़ी ने इतने आग्रह से मांगा है वस्त्र को, सो आधा वस्त्र झाड़ी का दे दिया। यूं नग्नता आयी।
इस नग्नता में और तथाकथित जैन मुनियों कि नग्नता में जमीन- आसमान का
भेद है। यूं कहा कि तू भी ले ले, अब और तो कुछ बचा भी नहीं है। यह
सीमा थी राज्य की। यह बबूल की झाड़ी सीमा पर थी। कहा कि यह कुछ तेरा भी हिस्सा होगा,
होगा किसी जन्म का कुछ लेना-देना, तू भी ले
ले। अब न मुझे फुरसत है रुकने की, न इस कपड़े को सुलझाने
की--और क्या तुझसे छीनूं! जब सब दे दिया तो इस छोटे-से टुकड़े के लिए अब क्या
उपद्रव करना!
यूं नग्नता आयी। यह अभ्यास नहीं था।
महावीर के पहले के तेईस तीर्थंकर वस्तुतः नग्न नहीं थे। चौबीसों
मूर्तियां तीर्थंकरों की नग्न हैं, उसका कारण है महावीर
की छाप। उसका कारण है: महावीर का ऐसा प्रभाव पड़ा,...यद्यपि
महावीर अंतिम तीर्थंकर हैं, वस्तुतः लेकिन वे ही प्रथम हैं।
तेईस तीर्थंकर उनके पहले जो आए थे, सब फीके पड़ गये। महावीर
के सूरज ने सबके सूरज को धुंधला कर दिया। और महावीर की छाप ऐसी पड़ी कि नग्न होना
तीर्थंकर होने के लिए अनिवार्यता बन गयी। लोगों का गणित! लोग हिसाब लगाए रखते हैं!
उन्होंने बाकी तेईस को भी नग्न कर दिया। वे नग्न थे नहीं। उन्होंने वस्त्र कभी
छोड़े नहीं थे। यह तो महावीर की छाप यूं पड़ी कि अब उन तेईस को वस्त्र पहनाना और
महावीर को नग्न खड़ा करना उन तेईस की भद्द करना होगी। इसलिए चौबीसों मूर्तियां नग्न
हो गयीं।
वे तेईस तीर्थंकर सफेद वस्त्र ही पहनते थे। इसलिए जैनों के जो दो पंथ
है, श्वेतांबर और दिगंबर, उनमें श्वेतांबर पंथ ही
वस्तुतः पुराना पंथ है, क्योंकि वे तेईस तीर्थंकर सफेद कपड़े
ही पहनते थे। और झगड़ा इसीलिए खड़ा हुआ--महावीर के शिष्यों में झगड़ा हो गया कि हम
तेईस की मानें या इस एक व्यक्ति की मानें? मगर यह एक व्यक्ति
इतना बलशाली था! इसकी सहजता, इसकी निर्मलता, इसकी फूलों जैसी ताजगी! इंकार करना भी मुश्किल था। तो अधिक लोग तो महावीर
से राजी हो गये और उन्होंने कहा बेहतर हो हम तेईस का भी महावीर के रंग में रंग
दें। उन्होंने तेईस को भी महावीर के रंग में रंग दिया।
लेकिन कुछ पुराणपंथी थे, रूढ़िवादी थे, उन्होंने उन तेईस को बदलना उचित नहीं समझा, वे
इतिहास को मानकर चलने वाले लोग होंगे, लकीर कि फकीर होंगे,
उन्होंने महावीर की प्रतिष्ठा तो की, माना,
लेकिन उन तेईस को कैसे नग्न कर दें, तो
उन्होंने महावीर को ही वस्त्र पहनाए। लेकिन महावीर नग्न थे, इनको
वस्त्र भी कैसे पहनाए, तो श्वेतांबरों ने एक तरकीब ईजाद की,...आदमी कैसे हैं! कैसी-कैसी तरकीबें ईजाद करते हैं!...कि महावीर वस्त्र तो
पहनते थे लेकिन वे वस्त्र देवताओं द्वारा भेंट किये वस्त्र थे, किसीके दिखायी नहीं पड़ते थे, इसलिए लोगों को नंगे
मालूम पड़ते थे। पहनते तो थे सफेद ही वस्त्र, लेकिन चूंकि वे दिव्य
वस्त्र थे, सिर्फ देवताओं को दिखायी पड़ते थे।...पता नहीं इन
लोगों को वे कैसे दिखाई पड़े?
मगर सच बात तो यह है कि दो में से कुछ एक करना जरूरी था। या तो तेईस
के साथ महावीर का वस्त्र पहनाओ! तो यह तरकीब निकाली उन्होंने। अब इस नग्न आदमी को
एकदम झुठलाया नहीं जा सकता था। और यह जिंदा था और वे तेईस तो बहुत प्राचीन हो गये
थे। जैनियों के पहले तीर्थंकर आदिनाथ को तो पांच हजार साल हो चुके थे। बात बहुत
पुरानी हो गयी थी। बहुत धूमिल हे गयी थी। उनके वस्त्र ले लो तो वे कुछ नहीं कर
सकते, पहना दो तो कुछ नहीं कर सकते। लेकिन महावीर जिंदा थे।
नग्न आदमी को वस्त्र एकदम से पहना कैसे सकते हो लोगों के सामने तो कैसा आदम बेईमान
है, कैसा चालबाज है! उसने झूठे वस्त्र पहना दिये देवताओं के
द्वारा लाए गये वस्त्र पहना दिये। मगर वस्त्र पहना दिये।
एक तो रास्ता यह था गणित पुरा कर लेने का। हम गणित से जीते हैं। गणित
यानी चालबाजी। सीधी-सच्ची बात थी कि तेईस का कपड़े पहनाने थे, चौबीसवें को नहीं पहनाने थे। क्या हर्ज था? लेकिन
उन्हें लगा, तर्क हो जाएगा, विरोधाभास
हो जाएगा, असंगति हो जाएगी। छोटे लोग संगति के चक्र में पड़े
रहते हैं। असंगति न हो जाए! कहीं कोई विरोधाभास न हो जाए! और सच तो यह है कि
महावीर में और आदिनाथ में भेद न हो, यह असंभव है। इतने
अपूर्व लोग भिन्न तो होंगे ही। अद्वितीय तो होंगे ही। समान तो हो ही नहीं सकते।
यह महावीर की नग्नता तो सिर्फ निर्दोषता का प्रतीक है। अब कोई नग्न
होने का अभ्यास करने की जरूरत नहीं है। हां, किसी के सहज नग्नता आ
जाए, बात और। लेकिन चेष्टा से आरोपित करोगे, चूक हो जाएगी। सारे धर्म यही करते हैं। सारे धर्मों का यही उपद्रव है,
यही जंजाल है। प्रतीक को जार से पकड़ लेते हैं।
परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है। सारी मूर्तियां हमारी कल्पित मूर्तियां
हैं। सारी मूर्तियां सुंदर प्रतीक हैं। लेकिन उन प्रतीकों को सत्य मत मान लेना।
परमात्मा एक अनुभूति है--अनिर्वचनीय, अव्याख्य। नाम कुछ
देना होगा--इशारे के लिए।
मलूकदास ने "साहेब' कहा। प्यारा नाम है।
साहेब का मतलब होता है: मालिक सूफी फकीरों ने परमात्मा के निंयाबे नाम कहे। उन
निन्याबे नामों में एक नाम है: या-मालिक! सूफियों की छाप मध्ययुग के संतों पर बहुत
गहरी पड़ी। कबीर, नानक, मलूक, इनको तुम हिंदू नहीं कह सकते। न मुसलमान कह सकते। सच तो यह है, किसी संत को तुम हिंदू और मुसलमान नहीं कह सकते। जो संत हिंदू और मुसलमान
हो, जैन-बौद्ध हो, ईसाई-यहूदी हो,
वह कुछ और होगा, संत नहीं है।
मध्ययुग में भारत में एक अपूर्व मिश्रण हुआ। गंगा-जमुन मिलीं। हजारों
साल की भारतीय परंपरा इस्लाम की परंपरा के साथ गले मिली। लड़नेवाले लड़ते रहे, छुरेबाजी करते रहे, हत्याएं करते रहे, मिलने वाले मिलते रहे। जो गले मिले, उन फकीरों में
सूफियों की छाप आयी। उनके शब्दों में भी सूफियों का प्रभाव आया।
साहेब या-मालिक का ही रूपांतरण है। यह वचन मलूक का है:
साहेब मिल साहेब भये, कछु रही न तमाई।
कहै मलूक तिस घर गये, जहं पवन न जाई।।
मगर फिर याद दिला दूं: मालिक से मतलब मत समझ लेना तुम्हारी आम भाषा
का। इतना ही अर्थ है कि हमारे भीतर जो अहंकार है, जो हमेशा मालकियत की
घोषणा करता है, उसे समर्पित कर दो, इस
परम अस्तित्व के प्रति अर्पित कर दो, चढ़ा दो। क्योंकि अगर
कोई मालिक है तो यह सारा अस्तित्व मालिक है। उसीसे बहते हैं सागर, नदियां, उठते हैं पर्वत, चांदत्तारें;
वृक्ष हरे हैं, फूलों में गंध है, पक्षियों के कंठों में गीत हैं, आदमी की आंखों में
ज्योति है, प्राणों में जीवन है--यह सारा अस्तित्व एक
भगवत्ता से व्याप्त है। अगर कोई मालिक है तो सह परम भगवत्ता ही मालिक है। इसलिए
साहेब प्यारा शब्द है!
संतों ने साहेब दो तरह से उपयोग किया। एक तो परमात्मा के लिए और एक
सदगुरु के लिए। क्योंकि इस पृथ्वी पर उसका प्रतीक, जीवंत प्रतीक अगर कोई
है, तो वह सदगुरु हैं। जिसने उसे जाना हो, जिसने उसे जीया हो, जिसने उसे पिया हो, जिसके रग-रग में, रोए-रोए में वह समा गया हो,
जिसकी श्वास-श्वास में उसकी गंध हो, जिसके
उठने-बैठने में उसका रंग हो, उसका ढंग हो, जिसकी आंखों में झांको तो उसमें झांकना हो जाए, जिसका
हाथ हाथ में ले लो तो उसका हाथ हाथ में पड़ जाए, उसको भी
साहेब कहा। और परमात्मा को भी साहेब कहा। मगर दोनों के पीछे प्रयोजन एक ही है कि
तुम अपनी मालकियत छोड़ो।
लेकिन लोग, जैसा मैंने कहा, प्रतीका खूब
पकड़ लेते हैं। परमात्मा मालिक है सो हम उसकी प्रार्थना करेंगे--अहंकार वगैरह नहीं
छोड़ेंगे! उलटे उससे हम और अहंकार को भरने की प्रार्थना करेंगे--अहंकार वगैरह नहीं
छोड़ेंगे! उलटे उससे हम और अहंकार को भरने की प्रार्थना करेंगे। कि हे मालिक,
हे परवरदिगार, हे साहेबों के साहेब, तू जो चाहे वह हो जाए, जरा मुझे नौकरी ही दिला दे!
कि चुनाव ही जितवा दे! कि दुकान ही चलवा दे! कि धंधे में बरकत मिले। कि मिट्टी
छुऊं, सोना हो जाए। कि जीवन में सफलता हाथ लगे। यश मिले,
नाम कर जाऊं। इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्ण-अक्षरों में स्मरण किया
जाऊं। ये सब अहंकार के ही आभूषण हैं।
तुम मंदिरों में क्या मांगते हो? अपने को चढ़ाने जाते
हो कि कुछ मांगने जाते हो? तुम्हारी प्रार्थनाएं तुम्हारे
भीतर के भिखमंगेपन का सबूत हैं। और कौन है भिखमंगा तुम्हारे भीतर? तुम्हारा अहंकार ही भिखमंगा है। क्योंकि अहंकार कभी भरता ही नहीं। मांगो,
मांगो, मांगो, कहता
है--मांगते ही रहो। जितना मिल जाए उतना ही थोड़ा पड़ता है, कम
पड़ता है। परमात्मा मालिक है, उसकी पूजा करो। पूजा करने से वह
खुश होगा। अपना पाप बढ़ा-चढ़ाकर बताओ, ताकि अपनी दयनीयता प्रगट
हो। और उसकी करुणा की खूब महिमा गाओ। उसके अहंकार पर खूब, मक्खन
लगाओ! कि हे पतितपावन, तू हमारा उद्धार कर! अरे, तूने तो पत्थरों पर पैर रख दिये और पत्थरों में प्राण आ गये! अहिल्या
पत्थर की तरह पड़ी थी और तूने उसे पुनरुज्जीवन दे दिया। अंधों को आंखें दे दीं,
लंगड़ों को पहाड़ चढ़ा दिये, तू जो न करे थोड़ा!
तू तो सब चमत्कार कर सकता है! मुझ गरीब पर भी जरा ध्यान दे! जरा एक नजर इस तरफ भी
हो जाए!
प्रार्थना शब्द का अर्थ ही मांगना हो गया। प्रार्थना जैसा प्यारा शब्द
एकदम गंदा हो गया हमारे हाथों में पड़ कर। हमारे हाथ में जो चीज भी पड़ जाए, गंदी हो जाती है। हमारी हाथ गंदे हैं। हमारी अकल गंदी है। हमारे भीतर
गंदगी ही गंदगी भरी है।
एक वृद्ध महिला लाल बत्ती की अवहेलना कर अपनी गाड़ी चौराहे से पार
कराने लगी। नियुक्त सिपाही ने कई बार सीटी बजायी, पर वह चौराहा पार
करके ही रुकी। सिपाही ने उससे क्रोधित स्वर में पूछा, मैंने
इतनी सीटियां बजायी, पर आप रुकीं क्यों नहीं? बुढ़िया ने गर्माकर उत्तर दिया, बच्चा,अब क्या मेरी उम्र सीटियां सुनने की है? अब मैं बूढ़ी
हो गयी, मेरी उम्र सीटियां सुनने की है? अब मैं बूढ़ी हो गयी, मेरी उम्र ढल गयी, सीटियां बजाना था तीस साल पहले, अब क्या खाक सीटियां
बजा रहा है!
पुलिसवाला सीटी बजा रहा है गाड़ी रोकने को, मगर एक हमारी खोपड़ी है जिसमें हमारे अपने अर्थ हैं।
तुम परमात्मा के सामने जाकर जो प्रार्थनाएं कर रहे हो, उसमें तुम परमात्मा के संबंध में कुछ भी नहीं कह रहे हो सिर्फ अपनी अहंकार
की भूख जाहिर कर रहे हो। कि तेरे प्रसाद से सब हो जाएगा। चमत्कार हो जाते हैं तेरे
प्रसाद से। तू क्या नहीं कर सकता है!
यह प्रार्थना नहीं है। प्रार्थना तो धन्यवाद का नाम है। आभार का नाम
है। प्रार्थना तो इस बात की उदघोषणा है कि तूने जीवन दिया, कि तूने जीवन को इतना रस दिया, बोध दिया, चैतन्य दिया, ध्यान की क्षमता दी, समाधि का कमल खिल सके इसकी संभावना दी, कैसे धन्यवाद
करूं? कैसे आभार करूं? कोई राह नहीं
सूझती तेरे ऋण से मुक्त हो जाने की। और सब ऋण चुक जाए, तेरा
ऋण कैसे चुकेगा? तो झुकता हूं, तो हजार
बार झुकता हूं। तुम्हारी नमाज, तुम्हारी प्रार्थना, तुम्हारी पूजा बस इस धन्यवाद से जरा भी भिन्न हुई कि समझना कि तुमने बात
समझी नहीं। तुम कुछ गलत समझ गये।
"साहेब' प्रतीक है-- और
प्यारा प्रतीक है। मलूक के इस वचन को समझने की कोशिश करो--
"साहेब मिल साहेब भये',...
पहली तो बात मलूक यह कहते हैं कि जो उस साहेब से मिला, वह वही हो गया। उससे मिलने का सबूत यह है। उससे मिलने का और कोई सबूत नहीं
होता। अगर उससे भी मिले और फिर भी दूरी रही तो क्या खाक मिले! अगर उससे भी मिले और
वही न हो गये, तो क्या खाक मिले! जो उससे मिला, वह वही हो गया। भगवान से मिले कि भगवान हुए। ब्रह्म से मिले कि ब्रह्म
हुए। सत्य से मिले कि सत्य हुए। मिलने का और क्या अर्थ हो सकता है? उपनिषद कहते हैं: जो उसे जानता है, वह वही हो जाता
है--हम वही हैं ही, सिर्फ पहचान नहीं है, प्रत्यभिज्ञा नहीं है। हम उससे अन्यथा हो ही नहीं सकते। एक क्षण का भी हम
जी नहीं सकते अन्य होकर। जीवन उसी का दूसरा नाम है। वही तो धड़कता है हृदय में। वही
तो श्वासों में आता है और जाता है। वही तो व्याप्त जै, बाहर-भीतर,
ऊपर-नीचे, दसों दिशाओं में। एक इंच स्थान भी
तो उससे खाली नहीं। सब तो उससे भरा है--लबालब भरा है। तुम
चाहो भी तो उससे भिन्न नहीं हो सकते।
लेकिन अजीव है आदमी, अपने को भिन्न समझ रखा है। और न
केवल अपने का भिन्न समझ रखा है, बल्कि जिद करता है, विरोध करता है उन लोगों का जो घोषणा कर दें कि हम उसके साथ एक हो गये।
मंसूर का सूली पर चढ़ा दिया। सिर्फ एक ही कसूर था बेचारे का कि उसने यह घोषणा कर
दी: अनलहक। कह दिया कि मैं सत्य हूं, कि मैं परमात्मा हूं।
बस, यह कसूर हो गया। यह महा अपराध हो गया।
जीसस का कसूर क्या था, यही कि जीसस ने कहा
कि मैं और मेरा पिता दो नहीं हैं, एक हैं। पर्याप्त थी यह
बात सूली देने के लिए।
मंसूर का समझे होते तो तुमने भी जाना होता कि तुम भी वही हो। जीसस को
समझे होते तो तुमने जाना होता कि तुम भी वही हो। जीसस कोइ अपने निजी व्यक्तित्व के
लिए घोषणा नहीं कर रहे हैं। जीसस की घोषणा में समस्त जीवन की घोषणा सम्मिलित है।
मंसूर का वक्तव्य मंसूर के संबंध में नहीं है, तुम्हारे संबंध में
भी उतना ही है। जिसने सूली दी मंसूर को, उनके संबंध में भी
वह वक्तव्य उतना ही सत्य है। मंसूर को पता है, उनको पता नहीं
है।
लेकिन आदमी बड़ा अजीब है। वह यह मानने को राजी नहीं हो सकता कि मैं
परमात्मा हूं। क्यों? वह यह भी मानने को राजी नहीं होता कि कोई दूसरा
व्यक्ति परमात्मा है। क्यों? दूसरे को तो वह इसलिए परमात्मा
नहीं मान सकता कि उसको लगता है मेरे अहंकार को चोट लग रही है। कि अभी मैं हूं और
मेरे रहते कोई दूसरा परमात्मा! मैं कैसे मानूं? कि कोई और
परमात्मा है! यह कौन जुर्रत कर रहा है, कौन हिम्मत कर रहा है
अपने को परमात्मा कहने की? आदमी एक ही भाषा समझता है,
अहंकार की। उसे निरअहंकार की भाषा तो आती नहीं है। और ये उदघोषणाएं
आती हैं निरअहंकार से। वह अपने ही ढंग से सोचता है। और किसी ढंग से सोच भी नहीं
सकता।
इसलिए जीसस ने मरते वक्त सूली पर अंतिम प्रार्थना की परमात्मा से कि
हे प्रभु, इन सारे लोगों को क्षमा कर देना जो मुझे सूली दे रहे
हैं, क्योंकि इन्हें पता नहीं कि ये क्या कर रहे हैं। इन्हें
कुछ भी पता नहीं कि ये कौन हैं और ये किसे मार रहे हैं।
वे लोग जीसस को थोड़े ही सूली दे रहे थे, अपने ही भविष्य को
सूली दे रहे थे। अपनी ही परम संभावना से इनकार कर रहे थे।
मंसूर हंसा था जब उसे मारा गया। और किसी ने पूछा भीड़ में से कि मंसूर
हंसते क्यों हो? तो मंसूर ने कहा, इसलिए हंसता
हूं कि तुम जिसे सूली दे रहे हो, वह मैं नहीं हूं। यह देह,
इसके संबंध में तो कभी मैंने कहा भी नहीं है अनलहक। और जिसके संबंध
में मैंने कहा है अनलहक, वह हंस रहा है। तुम मुझे काटो तो
जानूं!
मंसूर वही कह रहा है जो कृष्ण ने कहा: नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः। न तो शस्त्र मुझे छेद सकते हैं, न
आग मुझे जला सकती है।
वेद कहते हैं: अमृतस्य पुत्रः। आदमियों, तुम अमृत के बेटे हो।
तुम उसके पुत्र हो। तुम उससे ही आए हो। जैसे सागर में सागर की लहरें हैं, ऐसे तुम हो। जरा भी भिन्न नहीं।
मगर आदमी ने अपने को भिन्न मान रखा है। तो कभी कोई घोषणा करता है अहं
ब्रह्मास्मि की, तो हमारे अहंकार को चोट लगती है। हम ऐसी मूढ़ता में
हैं कि हम तिलमिला उठते हैं। हम अपनी ही मूढ़ता से उसके वक्तव्य का भी अर्थ लेते
हैं।
एक आदमी अपने कुत्ते के साथ घूमने निकला। सड़क पर उसे एक मसखरा मिल
गया। उसने पूछा, अरे, इस गधे के साथ कहां जा रहे
हो? आदमी गुस्सा होकर बोला अंधे हो क्या? यह गधा नहीं, कुत्ता है। मसखरे ने कहा, तुमसे कौन बात करता है जी, मैं तो इस कुत्ते से पूछ
रहा हूं।
हम जल्दी से निर्णय ले लेते हैं। हम अपने ढंग से ही समझ लेते हैं। कोई
और ढंग भी हो सकता है, कुछ अर्थ और भी हो सकते हैं। लेकिन हम निष्णात हो गये
हैं एक विशिष्ट व्याख्या के, एक विशिष्ट अर्थ के। और हम
प्रत्येक चीज पर वही अर्थ थोपे चले जाते हैं।
एक शराबी रेलवे के पूछताछ कार्यालय में गया। खिड़की पर बैठे बाबू से
उसने पूछा, "बाबूजी, अभी प्लेटफार्म
पर जो ठेलेवाला खड़ा था, वह कहां गया?' "मुझे नहीं पता', बाबू ने टका सा जवाब दे दिया। शराबी
चला गया, थोड़ी देर बाद घूम-फिरकर आया और बोला,"इधर से आपने मेरी पत्नी को जाते हुए तो नहीं देखा?' "नहीं', बाबू ने उत्तर दिया। दस-पंद्रह मिनट के भीतर
ही वह फिर वापस लौट आया, बोला, "बाबूजी,
रेलवे स्टेशन पर नमकीन क्या भाव मिलेगा?' इस
बार बाबू झल्लाया, "सारे स्टेशन का ठेका मैंने ही ले
रखा है क्या? नमकीनवाले से पूछो जाकर!' " जब कुछ नहीं मालूम, तब क्या खाक पूछताछ कार्यालय खोलकर
बैठे हो!'--शराबी बड़बड़ाया और आगे चला गया।
पूछताछ का दफ्तर, तो शराबी को लगा कि हर चीज का
पता होना चाहिए पूछताछ के दफ्तर में। उसकी पत्नी निकली, ठेलेवाला
कहां गया, नमकीन क्या भाव है। शराबी की अपनी दुनिया है।
तुम भी अपनी अहंकार की एक शराब में डूबे हुए हो। जब कोई घोषणा करता
है: साहेब मिल साहेब भये, तो तुम तिलमिला उठते हो। तुम्हें सदमा लगता है। तुम
समझते हो, शायद यह तो अहंकार की घोषणा हो गयी। तुम यह सोच ही
नहीं सकते, तुम्हारी कल्पना के बाहर है यह बात, कल्पनातीत, कि यह विनम्रता की घोषणा हो सकती है। और
सच यही है कि यह घोषणा सदा ही विनम्रता से आयी है। इसका अहंकार से कोई लेना-देना
नहीं है। जब तक अहंकार है तब तक तो यह घोषणा करने की हिम्मत ही नहीं हो सकती। यह
साहस तो निरहंकारिता का ही हो सकता है।
एक देश में किसी मामूली अपराध पर कोड़ों की सजा दे दी जाती थी। वहां एक
महाशय को किसी लड़की को छेड़ने पर पंद्रह कोड़ों की सजा मिली। जब पंद्रह कोड़े पूरे हो
गये तो वे महाशय बिलकुल अधमुए हो गये। अफसर उसके पास पहुंचा और कहने लगा, सुनो मिस्टर, अगर फिर किसी लड़की को तंग किया तो
अस्सी कोड़े पड़ेंगे। आज से सारी लड़कियों को अपनी बहन समझना। वे महाशय बोले, जी बिलकुल। मैं फिर आपको शिकायत का मौका नहीं दूंगा।
इतने में उनकी बीबी आयी और रोते हुए बोली, सरताज, क्या बहुत पीड़ा है? वे
महाशय बोले, नहीं-नहीं बहन जी, मैं
बिलकुल ठीक-ठाक हूं।
एक अंधकार है जिसमें तुम जी रहे हो। उस अंधकार की एक भाषा है, देखने का एक ढंग है, सोचने की एक प्रक्रिया है,
तर्क की एक शैली है। और जब प्रकाश से भरा हुआ व्यक्ति तुमसे कुछ
बोलता है, तो तुम नहीं समझ पाते। तुमसे चूक हो जाती है। और
तुममें इतनी भी विनम्रता नहीं है कि तुम कम-से-कम शांत होकर समझने की चेष्टा तो कर
लो। तुम्हारे छुरे निकल आते हैं, तुम्हारी तलवारें खिंच जाती
हैं, तुम मरने-मारने को उतारू हो जाते हो। जैसे तलवारों से
कोई सत्यों को काटा जा सकता है! कि गोलियों से कोई सत्यों के प्राण लिये जा सकते
हैं! कि सूलियों पर कोई सत्य की हत्या हो सकती है!
साहेब मिल साहेब भये, कछु रही न तमाई।
बडा प्यारा वचन है मलूक का। जरा भी तम न रहा, जरा भी अंधकार न रहा-- कछु रही न तमाई--जरा भी अज्ञान न रहा। और अहंकार
अज्ञान है, अंधकार है, तमाई है। यह
मानना, यह जानना कि मैं अस्तित्व से पृथक हूं, भिन्न हूं, इस जगत में सबसे बड़ी भूल है। फिर शेष
सारी भूलें इस भूल से पैदा होती हैं। जिसने जाना सत्य को, जिसने
भीतर ध्यान के दीये को जलाया, उसके भीतर यह अंधकार समाप्त हो
जाता है। रह जाता है एक ज्योतिर्मय अनुभव। उस अनुभव में कुछ भेद नहीं रह जाता,
अभेद, अद्वैत शेष रहता है।
साहेब मिल साहेब भये, कछु रही न तमाई।
कहै मलूक तिस घर गये, जहां पवन न जाई।।
जीवन तो सब जगह पहुंच जाता है। लेकिन परमात्मा का घर इतना सूक्ष्म है
कि वहां पवन की भी गति नहीं। वहां तो पवन भी काफी स्थूल हैं और प्रवेश नहीं कर
पाता। वहां तो सिर्फ निरहंकारित ही प्रवेश कर पाती है। वही इतनी सूक्ष्मातिसूक्ष्म
है कि परमात्मा के घर में केवल उसका ही प्रवेश है। जो द्वार पर ही अपने को छोड़कर
भीतर आ सके, जो सीढ़ियों पर ही अपने को डाल दे, तो फिर भीतर आने का मालिक हो जाता है, हकदार हो जाता
है। मिटने को जो राजी है, वह पाने का अधिकारी हो जाता है।
धन्यभागी हैं वे जो मिटने को तत्पर हैं। बिना
मिटे उसे कोई पाता नहीं। या तो मिटो और उसे पाओ या उसे पाओ और मिट जाओ--ये एक ही
सिक्के के दो पहलू हैं।
आनंद संत! इस प्यारे वचन
पर ध्यान करना। यहां साहेब से कोई व्यक्ति का प्रयोजन नहीं। न राम से अर्थ है, न कृष्ण से अर्थ है, न महावीर से अर्थ है, न बुद्ध से। यहां साहेब से अर्थ है: अस जगत के प्राणों के केन्द्र पर जो
संगीत प्रतिध्वनित हो रहा है। जिस संगीत ने सारे जगत को अपने में लयबद्ध किया हुआ
है। जिस संगीत ने सारे जगत को बांध रखा है एक स्वर में। जगत अराजकता नहीं है,
यहां एक अपूर्व सुव्यवस्था है। इतना विराट जगत जिस मौन और जिस शांति
से और जिस आनंद से गतिमान है, कहीं कोई उच्छृंखलता नहीं,
कहीं कोई व्याघात नहीं है, सब अविच्छिन्न धारा
की तरह चल रहा है, जिस अज्ञात ऊर्जा ने इस सारे जगत को एक
लयबद्धता दी है, उस अज्ञात ऊर्जा का नाम: साहेब।
नाम जो तुम्हारी मर्जी हो, देना। नाम कुछ भी दे
सकते हो। साहेब भी प्यारा नाम है। खूब प्यारा नाम है। और साहेब की मूर्ति कैसे
बनाओगे! राम की मूर्ति बनानी हो तो धनुर्धारी राम, कृष्ण की
मूर्ति बनानी हो तो बांसुरी वाले कृष्ण और क्राइस्ट की मूर्ति बनानी हो तो सूली पर
चढ़े क्राइस्ट--साहेब की क्या मूर्ति बनाओगे? कोई मूर्ति
बनेगी नहीं। सिर्फ भाव रह जाएगा।
और अच्छा यही है कि भाव में डूबो। मूर्तियों में बहुत लोग जकड़ गये हैं, मंदिरों में बहुत लोग बंध गये हैं। अब मधुशालाएं चाहिए, मंदिर नहीं। मंदिरों से आदमी बुरी तरह थक गया। उसकी छाती पर पहाड़ की तरह
होकर बैठ गये हैं। अब मनुष्य को बड़े-बड़े शास्त्र नहीं चाहिए, छोटे-छोटे संकेत चाहिए। शास्त्र तो जंगलों की तरह हो गये हैं। उनमें आदमी
खोता ही चला जाता है। निकलता है खोजने, सूझने, मार्ग पाने, उलझाव को निपटाने--और उलझ जाता है।
पुराने उलझाव तो अपनी जगह रहते ही रहते हैं, और नये-नये
उलझाव खड़े हो जाते हैं। पंडितों को तुम जितन उलझन में पड़ा हुआ जाओगे, उतना अज्ञानियों को उलझन में नहीं पाओगे। पंडित की हालत अज्ञानियों से भी
बदतर हो जाती है।
उपनिषदों में एक अदभुत क्रांतिकारी वचन है। मैंने दुनिया के करीब-करीब
सारे शास्त्र देखे, लेकिन इस वचन के मुकाबले कोई वचन कहीं मुझे मिला
नहीं। इस वचन की क्रांति तो ऐसी है कि आज भी उस पर राख नहीं जमी है। लाख उपाय किये
गये हैं उस पर राख जमाने के, लेकिन राख उस पर जमती नहीं।
अंगारा दमकता है। आज भी उतना ही दमकता है। उपनिषद में वचन है कि अज्ञानी तो भटकते
ही हैं, अंधकार में भटकते हैं, लेकिन
ज्ञानी महा अंधकार में भटक जाते हैं। जिसने भी कहा होगा, गजब
की छाती का आदमी रहा होगा। हिम्मत का आदमी रहा होगा। ऐसी पते की बात कही कि
अज्ञानी भटकते ही हैं; सो कोई बड़ी बात नहीं, सो कोई नयी बात नहीं, सो कुछ विशिष्ट बात नहीं,
मत उठाओ यह चर्चा, अज्ञानी तो भटकते ही है,
वीक है, स्वाभाविक है, होगा
ही ऐसा; ज्ञानियों की तो पूछो! ज्ञानी महा अंधकार में भटक
जाते हैं।
किन ज्ञानियों की बात कर रहा है उपनिषद का ऋषि? पंडितों की। महापंडितों की। वे अजीब-अजीब बातों में उलझ जाते हैं। वे बाल
की खाल निकालने में लग जाते हैं। संकेत तो एक तरफ पड़े रह जाते हैं, वे ऐसे तर्कजाल में खोते हैं, ऐसे विवाद में पड़ते
हैं कि ध्यान की फुर्सत कहां? समाधि का समय कहां? और स्मरण रहे, समाधान अगर कहीं है तो समाधि में है।
शास्त्रों के उत्तर से--शास्त्रीयता से समाधान मिलता होता तो अब तक आदमी की सारी
समस्याएं समाप्त हो गयी होती। शास्त्र कुछ कम नहीं हैं। बहुत शास्त्र हैं।
पर्याप्त शास्त्र हैं। लेकिन हर शास्त्र और समस्याएं बढ़ा गया है।
मैं अपने संन्यासियों को कहना चाहता हूं: संकेत काफी हैं। ज्यादा
उलझाव में मत पड़ जाना। "साहेब मिल साहेब भये, कछु रही न तमाई',
इतना करो, बस इतना कर लो , भीतर का अंधेरा तोड़ो। यह भीतर जो सोयापन है इसे मिटाओ--यह नींद तोड़ो। खूब
सो लिए, कब तक साए रहोगे? मगर हम तो
अपनी नींद के लिए भी नये-नये तर्क खोजते हैं।
पहला तो हमारा तर्क यह है--कौन कहता है कि हम सो रहे हैं? बस, यह सबसे बड़ा तर्क है हमारा, कि कौन कहता है कि हम सो रहे हैं? कौन कहता है कि
हमारे भीतर अंधकार है? और एक बार इस तर्क को तुमने समर्थन
देना शुरू कर दिया कि फिर स्वभावतः अंधकार का तोड़ने की तो बात ही नहीं उठती ,
प्रश्न ही नहीं जगता। और आदमी कुशल है हर चीज के लिए तर्क खोज लेने
के लिए।
एक शिकारी बाप ने एक दिन बेटे के सामने उड़ते पक्षी को निशाना लगाया।
हमेशा की तरह निशाना चूक गया। बाप ने देखा बेटा बहुत ध्यान से उड़ते हुए पक्षी को
देख रहा है। उसने बेटे से कहा, देख बेटा, चमत्कार
देख, पक्षी मर कर भी उड़ रहा है!
आदमी तर्क खोज लेने में तो बहुत कुशल है
जार्ज गुर्जिएफ, इस सदी का एक परम ज्ञानी व्यक्ति,
उन थोड़े-से लोगों में, जिनको हम कह सकते हैं:
साहेब मिल साहेब भये, कछु रही न तमाई, एक
था। गुर्जिएफ ने कहा है, बहुत बार कहा है, इस बोध कथा को बहुत दोहराया है कि एक जादूगर के पास बहुत-सी भेड़ें थी। और
उन भेड़ों को संभालने के लिए उसे बहुत नौकर रखने पड़ते थे। फिर नौकरों के ऊपर भी और
निरीक्षक नियुक्त करने पड़ते थे। क्योंकि नौकर भेड़ों को चुरा ले जाते, खा जाते, बेच देते। और भेड़ें इतनी थीं कि या तो उनकी
गिनती रोज-रोज करते रहो, जो कि संभव नहीं था। भेड़ों के बच्चे
होते, उनका पता नहीं चल पाता उसके मालिक को। बच्चे उड़ा ले
जाते। रद्दी-खद्दी भेड़ें खरीद कर उसकी अच्छी भेड़ों में मिला देते, अच्छी भेड़ें बेच देते। कभी-कभी भेड़ें खो भी जातीं, नौकर
लापरवाह थे--नौकरों को क्या पड़ी! जंगली जानवर उठा ले जाते। आखिर जादूगर परेशान हो
गया। एक दिन उसे ख्याल आया कि मैं तो जादूगर हूं, में क्यूं
न अपने जादू का उपयोग करूं! उसने सारे नौकरों को विदा कर दिया।
और उसने अपनी सारी भेड़ों को सम्मोहित करके बेहोश किया, और भेड़ों को कहा कि तुम भेड़ नहीं हो, तुम मनुष्य हो,
और तुम्हें डरने की कोई भी जरूरत नहीं है, भागने
की कोई भी जरूरत नहीं है, अपने-आप घर लौट आना। तुम भेड़ नहीं
हो; यह तुम्हारी भ्रांति थी, यह
भ्रांति छोड़ दो। और तुम्हें डरने की भी कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि भेड़ें डरती
रहती थीं, कंपती रहती थीं, क्योंकि राज
भेड़ें देखती थीं कि आज यह भेड़ कटी, कल वह भेड़ कटी--क्योंकि
जादूगर को रोज भेड़ें भोजन के लिए चाहिए; उसके मित्र आते,
मेहमान आते। तो उसने सारी भेड़ों को समझा दिया कि तुम भेड़ हो ही
नहीं। तुम्हारे अलावा दूसरी भेड़ें भेड़ें हैं, तुम आदमी हो।
तुम कभी नहीं काटे जाओगे।
और उस दिन से बड़ी निश्चिंतता हो गयी। भेड़े अपने-आप लौट आतीं। भेड़ें ही
नहीं थीं तो भागना क्या? डर ही न नहा। और एक भेड़ कटती तो दूसरी भेड़ें
मुस्कुराती, क्योंकि वे अपने दिल में सोचतीं कि हम तो आदमी
हैं, हम तो कोई भेड़ हैं नहीं। कटने दो, भेड़ें कटती ही रहती हैं, क्या लेना-देना! भेड़ों में
जो आपसी संगठन था, वह भी टूट गया। भेड़ें जो इकट्ठी होकर चलती
थीं, वह भी समाप्त हो गया।
नौकरों की भी कोई जरूरत न रही, निरीक्षणों की भी कोई
जरूरत न रही।
गुर्जिएफ कहता था, ऐसी ही हालत आदमी की है। आदमी
अपने को ही सम्मोहित कर लेता है। सबसे बड़ा उसका सम्मोहन यह कि मैं जैसा हूं बिलकुल
ठीक हूं। मैं कोई सोया हुआ आदमी थोड़े ही हूं। मैं तो जागा हुआ आदमी हूं ही। मैं तो
ज्ञानी हूं ही। मुझे ज्ञान करके क्या करना है! ध्यान करके क्या करना है! अज्ञानी
करें!
और छोटी-छोटी तरकीबें निकाल ली हैं उसने अपने को सिद्ध करने के लिए।
किसी ने गीता कंठस्थ कर ली है, किसी ने कुरान की आयतें याद कर
ली हैं, कोई सुबह मंदिर में बैठकर घंटी बजा देता है, थोड़ा-सा दीया जलाकर आरती उतार लेता है, सोचता है हो
गई पूजा, हो गई प्रार्थना, अब और कुछ
करने को है नहीं, धर्म पूरा हो गया।
हर आदमी ने धर्म का एक बड़ा सस्ता रूप खोज निकाला है। जिसमें कोई
क्रांति से नहीं गुजरना होता, जिसमें जीवन में कुछ भी नहीं
बदलना होता, जीवन जैसा है वैसा का वैसा ही रहता है, वैसा का वैसा ही रखने के लिए तुम्हारा धर्म सहयोगी होता है।
अगर तुम्हें सच में ही जीवन में दुख हो, पीड़ा हो, परेशानी हो।--जो कि है--तो वह इस बात का सबूत है कि अंधकार घना है। अंधकार
के बिना कोई विषाद नहीं। अंधकार के बिना कोई दुख नहीं। अंधकार के बिना कोई नर्क
नहीं। आत्म-अज्ञान से ही सारा नर्क पैदा होता है। और आत्म-ज्ञान स्वर्ग है।
लेकिन जो भी बात तुम्हें याद दिलाएगा, तुम उससे नाराज
होओगे। इसलिए सदगुरुओं को कभी क्षमा नहीं कर पाते हो तुम। हां, मर जाने के बाद पूजा करते हो। वह पूजा भी अपराधभाव के कारण। क्योंकि जब वे
जिंदा थे तब तुम क्षमा नहीं कर पाए। तो जब मर गये तो तुम्हारे भीतर अपराध सताता
है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बेटे जब बाप मर जाते हैं तो उनकी तस्वीरें
लटकाएंगे, फूल चढ़ाएंगे, अंत्येष्टि करेंगे,
रोएंगे-धोएंगे, बड़ा दुख मनाएंगे। और जब बाज
जीवित थे तो उनकी तरफ ध्यान भी न दिया। कभी उनके पैर न दबाए। कभी उनकी सेवा न की।
जब पिता की मृत्यु होती है तो तुमने जो दर्ुव्यवहार किया है जीवित पिता के साथ वह
सब तुम्हारे सामने खड़ा हे जाता है। अब इस दर्ुव्यवहार के लिए क्या करो? अब तो क्षमा मांगी भी नहीं जा सकती। मांगो भी तो किससे मांगो! अब तो क्षमा
जो कर सकता था, वह भी नहीं जा सकती। मांगो भी तो किससे
मांगो! अब तो क्षमा जो कर सकता था, वह भी न रहा। तो अब एक
पश्चात्ताप पकड़ता है, एक प्रायश्चित पकड़ता है, एक प्रायश्चित पकड़ता है। उस प्रायश्चित में, उस
अपराधभाव में तुम रोते हो।
पत्नी मर जाती है तो पति रोता है, छाती पीटता है। और जब
पत्नी जिंदा थी तो न-मालूम किस अपशकुन में, किस दुर्दिन में
इससे विवाह कर लिया। यह दुर्घटना कैसे मोल ले ली? मर गयी
पत्नी तो तुम उसकी याददाश्त में मरे जा रहे हो। यह उसकी याददाश्त नहीं है और न यह
उसका प्रेम है। प्रेम नहीं कर पाए, जब करना था तब समय गंवाया,
अब पीड़ा सालती है। अब उस पीड़ा के घाव को छिपाने के लिए, अब उस अपराध के भाव से मुक्त होने के लिए तुम लीपापोती कर रहे हो। अब कब्र
को तुम सुंदर बना रहे हो। अब तुम दुनिया को यह दिखाना चाहते हो, मैं कितना चाहता था। कितना नहीं चाहता था।
पति जिंदा रहते हैं तो पत्नियां सिवाय सताने के शायद ही कोई दूसरा काम
करती हों। और मर जाते हैं, तो सती होने को तैयार हैं। बड़ा आश्चर्य है। जिंदा पति
को जला देने को तत्पर हैं। चौबीस घंटे पीछे पड़ी हुई हैं। न उसको चैन से बैठने
देंगी,न उठने देंगी। अखबार भी पढ़ रहा होगा तो अखबार छीन
लेंगी कि जब देखो तब अखबार लिए बैठे हो! जैसे मैं मर गयी हूं। भोजन भी करने बैठेगा
तो उसकी खोपड़ी खाएगी। जमाने भर की शिकायतें!...मैं न-मालूम कितने परिवारों में
ठहरा हूं और जो मैंने देखा, उससे मुझे जाहिर हो गया कि क्यों
लोग सदियों से संन्यासी होते रहे। क्यों माया-मोह छोड़कर भागते रहे। माया-मोह वगैरह
कुछ भी नहीं, पत्नी। माया-मोह तो सब शाब्दिक बात है।
पत्नियों ने ऐसा सताया कि एकदम वैराग्य-भाव पैदा करवा दिया। और फिर से महात्मा
लिखते हैं: स्त्री नरक का द्वार है। ये किसी और स्त्री के बाबत नहीं लिख रहे हैं,
ये एक स्त्री के बाबत लिख रहे हैं, जिसने इनको
नरक का पाठ चखा दिया। मगर उसने पाठ ऐसा चखाया है,...करते हैं
न कि दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंककर पीने लगता है,...उसने
पाठ इन्हें ऐसा सिखा दिया है कि अब ये स्त्री-जाति मात्र के दुश्मन हो गये हैं। एक
स्त्री ने इनके सारी स्त्री-जाति का दुश्मन कर दिया।
और यही पतिदेव मर जाएं तो वही पत्नी इनके साथ चिता पर चढ़ने को तैयार
हो जाएगी। अब उसे पश्चात्ताप सताएगा। सती होने में कुछ प्रेम नहीं है, सिर्फ पश्चात्ताप है। पश्चात्ताप है कि जब प्रेम का क्षण था तब मैंने
प्रेम न दिया, अब क्या करूं? आत्मग्लानि
है। सती होना कोई धार्मिक कृत्य नहीं है, यह अधार्मिकता का
लक्षण है। यह लक्षण है इस बात का कि जीवन में प्रेम की कमी रही, जीवन रूखा-सूखा रहा प्रेम से--और अब सालती है बात, कचोटती
है बात, छाती में छुरी की तरह आपकी है, जीना मुश्किल हो गया है। अब तो कुर्बानी दे दूं अपनी ताकि किसी तरह समतुल
हो जाए बात। कि अगर सताया था तो कोई बात नहीं, देखो, अब अपने को बलिदान भी कर दिया।
आदमी की मनोविज्ञान बहुत जटिल है। जैसा तुझे उसे ऊपर से देखते हो वैसा
ही नहीं है। उसके भीतर जाल पर जाल हैं। जीसस जिंदा थे तो सूली दी और आज आधी पृथ्वी
ईसाई है। बुद्ध जिंदा थे तो पत्थर मारे, हत्या करने की ही तरह
की चेष्टा की, पागल हाथी छोड़ा, चट्टानें
सरकाईं, जहर खिलाया, और आज सारा एशिया
पूजा करता है।
जितनी मूर्तियां बुद्ध की हैं उतनी दुनिया में किसी दूसरे व्यक्ति की
नहीं। बुद्ध की इतनी मूर्तियां बनीं कि अरबी में, उर्दू में जो शब्द है
मूर्ति के लिए बूत, वह बुद्ध का ही रूप है। बुद्ध की इतनी
मूर्तियां बनी कि बुद्ध शब्द बुत बन गया। बुद्ध-परस्ती बुत-परस्ती कही जाने लगी।
मूर्तिपूजा का अर्थ बुद्ध पूजा। सबसे पहले मूर्तियां बुद्ध की बनीं। और इतना सताया
इस आदमी को!
महावीर को तुमने कम पीड़ा दी! कानों में खीले ठोंक दिये। पागल कुत्ते
महावीर के पीछे छोड़े। महावीर को गांवों-गांवों से भगाया, कहीं टिकने न दिया। और अब जगह-जगह गांव-गांव में मंदिर हैं, पूजा चल रही है, स्मरण किया जा रहा है।
आश्चर्य की बात है! मामला क्या है? जीवित सदगुरु से
तुम्हें क्या पीड़ा मिलती है? तुम्हें पीड़ा मिलती है। वह
तुमसे सत्य-सत्य कह देता है, जैसी है बात वैसी ही कह देता
है। तुम सोए हो तो कहता है तुम सोए हो। तुम अंधे हो तो कहता है तुम अंधे हो।
सूरदास भी नहीं कहता। सीधा कह देना चाहता है, जैसे हो वैसा
ही कह देना चाहता है। दो को दो कहता है, तीन को तीन कहता है;
दो और दो चार होते हैं, ऐसा ही गणित जैसा साफ
उसका वक्तव्य होता है। कोई लाग-लगाव नहीं, कोई बनाव-श्रृंगार
नहीं, कोई बचाव-छिपाव नहीं। तुम्हें उसकी बातें चोट करती हैं,
झकझोरती हैं। वह तुम्हें हिलाना चाहता है। वह तुम्हें जगाना चाहता
है। मजबूरी है उसकी; हिलाए न, जगाए न
तो तुम सोए ही रहोगे। तुम चिल्लाओगे, गालियां दोगे।
जर्मनी का एक प्रसिद्ध विचारक हुआ: इमेनुअल कांट। इतना प्रसिद्ध
विचारक इतना बड़ा दार्शनिक! जर्मनी ने दूसरा इतना बड़ा दार्शनिक पैदा नहीं किया। और
जर्मनी ने बड़े दार्शनिक पैदा किये। हीगल और शिलर और फ्यूरबाख, और बड़ी परंपरा है जर्मन दार्शनिकों की। लेकिन कांट सर्वोच्च है। लेकिन एक
उसकी झंझट थी। वह रोज सुबह उठने में उसका मुश्किल होती थी। नौकर रख छोड़ा था
उसने--उठाने के लिए। और नौकर भी सिर्फ एक ही टिका उसके पास। क्योंकि कोई जब उसे तो
वह गालियां दे, मारे। स्वभावतः। सोने में उसको ऐसा रस था कि
उसे कोई उठाए तो एकदम चिल्लाए, नाराज हो। शाम को समझाकर सोए
कि तुम फिकिर मत करना चाहे मैं गाली दूं, चाहे मारूं,
चाहे चिल्लाऊं, तुम मुझे उठाना ही। मगर आखिर
नौकर भी नौकर है, आदमी है। जब कोई उसे मारने लगे, गालियां देने लगे, चिल्लाने लगे, उसके कपड़े फाड़ डाले और जल्दी से अपना कंबल ओढ़कर फिर सो जाए, तो आखिर नौकर भी सोचे: यह किस तरह की नौकरी है!
मगर एक नौकर टिका उसके पास, क्योंकि जब कांट उसे
मारे तो वह भी उसकी पिटाई करे। तगड़ा आदमी था, अच्छी उठा-पटक
कर दे वह। कांट को खींचकर बिस्तर के बाहर धर पटके। कंबल-वंबल फेंक दे। बिस्तर उलट
दे। पहले तो कांट भी बहुत हैरान हुआ, उसने कहा कि भाई,
तुम हमारे नौकर हो कि हम तुम्हारे नौकर हैं! उसने कहा, नौकर कोई हो लेकिन आपने कहा कि उठाना। और जब आप मुझे मारोगे तो मैं भी
मारूंगा। और जब आप मुझे गालियां दोगे तो मैं भी छोड़नेवाला नहीं हूं। अरे, नौकरी एक तरफ; और जब जिंदगी पर आ बने तो मैं भी अपनी
आत्मरक्षा करूंगा। और आत्मरक्षा का श्रेष्ठतम उपाय है: आक्रमण। तो मैं वह धूलाई
करूंगा कि तुम भी याद रखोगे!
मकर वह नौकर टिका। कांट उस पर निर्भर हो गया; लेकिन यह एक दिन की बात नहीं थी, वह रोज का मामला
था। इससे भी कुछ सीख नहीं आयी। इससे भी काम जारी रहा, वही।
रोज सुबह यही उपद्रव, रोज सुबह यही किलकिल।
आदमी भी करीब-करीब ऐसा ही सोया है, इससे भी गहरा सोया
है। सब सोच-विचार एक तरफ, नींद भर तुम्हारी कोई तोड़े तो तुम
एकदम नाराज हो जाते हो। तुम चाहते हो कि कोई लोरी गाए और तुम्हारी नींद को गहराए।
तुम चाहते हो कि कोई अच्छे ढंग से सोने की विधि समझाए।
तुम्हारे पंडित-पुरोहित यही करते हैं। वे तुम्हारे अंधकार को बढ़ाते
हैं, घटाते नहीं। तुम उनसे प्रसन्न हो। सदगुरुओं से तुम
हैरान, परेशान। क्योंकि वे तुम्हें जगाते हैं। और तुम्हारे
परम स्वरूप का स्मरण दिलाना चहते हैं। वह स्मरण करने में भी तुम्हें अड़चन
है--साहेब मिल सहेब भये; वे कहते हैं मिल जाओ साहेब से, हो जाओ
साहेब। हो तो तुम साहेब, जरा जग जाओ तो अभी हो जाओ।
कोई पूछ सकता है कि आखिर आदमी अपने परमात्मा होने की घोषणा से भी
इंकार क्यों करता है? उसका भी कारण है। उसका कारण बहुत साफ है। अगर तुम
अपने को परमात्मा होना स्वीकार करो तो तुम्हें अपना जीवन तत्क्षण बदलना होगा। सड़क
पर खड़े बीड़ी पी रहे हो और याद आ गया साहेब मिल साहेब हो गये, अब साहेब कैसे बीड़ी पी रहे हैं, जरा जंचेगी नहीं
बात! जुआ खेल रहे हो, शराब पी रहे हो-- और साहेब जुआ खेल रहे
हैं, शराब पी रहे हैं, जरा बात जंचेगी
नहीं! साहेब चुनाव लड़ रहे हैं! कि साहेब हाथ जोड़े खड़े हैं, एक-एक
मतदाता के सामने नाक रगड़ रहे हैं कि वोट दे देना! तुमको खुद ही लगेगा कि यह मेरा
क्या परमात्मा का रूप है! यह मैं क्या कर रहा हूं! जेब काट रहे हैं! सिनेमाघर के
सामने "क्यू' लगा है मीलों लंबा, उसमें
खड़े हैं! सौ-सौ जूते खाये तमाशा घुसके देखें! पिट रहे हैं, कुट
रहे हैं, मगर तमाशा देख रहे हैं। तो तुम कैसे मानो कि तुम
परमात्मा हो! तुम कहते हो कि नहीं-नहीं, इस झंझट में हमें
पड़ना नहीं। यह तो बहुत उपद्रव की बात है। इसको मान लेने का मतलब हुआ कि फिर अपनी
पूरी जिंदगी जिस ढंग से जी रहे हैं, वह न जी सकेंगे। मुश्किल
हो जाएगी।
तुम अपनी जिंदगी को नहीं बदलना चहते। तो ठीक, यह कहो कि हम अपनी जिंदगी को नहीं बदलना चाहते। मगर वह भी तुम नहीं कह
सकते। तो तुम सह कहते हो कि नहीं आदमी कैसे परमात्मा हो सकता है! परमात्मा
परमात्मा है, वह मालिक है, आदमी आदमी
है; वह स्रष्टा हैं, हम परमात्मा कैसे
हो सकते हैं! हम तो ऐसे ही हैं, ऐसे ही रहेंगे; ऐसा उसने हमें बनाया, हमारी नियति, हमारा भाग्य; लिख दिया विधाता ने जो, कि तुम जुआरी होओ, कि तुम शराबी होओ!
मेरे एक मित्र हैं। सब तरह से भले आदमी हैं, बस शराब पीने की एक आदत है। और अक्सर यह होता है कि शराबी भले आदमी होते
हैं। कई तरह से भले होते हैं। बड़े मिलनसार, बड़े प्यारे आदमी
हैं। और अक्सर ऐसा होता है कि जो लोग शराब नहीं पीते और सिगरेट नहीं पीते और पान
नहीं खाते और तंबाकू नहीं खाते, ये लोग मिलनसार नहीं होते।
ये हैंकड़ होते हैं, अकडू होते हैं। हर बात में झंझट खड़ी कर
दें। इनमें दयाभाव नहीं होता।
वह भले आदमी हैं। एकदम मिलनसार, सब तरह से अच्छे आदमी,
मगर उनकी पत्नी को धार्मिक होने की धुन सवार है! अक्सर स्त्रियों को
धार्मिक होने की धुन सवार रहती है। सो वह उनकी जान खाती रहती है। वह उनको ले जाती
रही साधु संतों के पास। वे बेचारे जहां ले जाती जाना पड़ता। क्योंकि वे जो एक कसूर
करते हैं, शराब पीने का, उसकी वजह से
डरते हैं पत्नी से। और तो कोई डरने का कारण भी नहीं है, मगर
वह जो एक भूल है, उसकी वजह से पत्नी उन्हें उसको सुनना पड़ता
था, सिर झुकाकर, कि जी हां-जी हां करते
रहते। दिल तो होता कि गर्दन दबा दें--ऐसा मुझको उन्होंने बाद में बताया--कि दिल तो
होता कि महाराज को मिटा ही दें बिलकुल, कि एकदम जूते पर जूते
लगाए जा रहा है! और हम कुछ कह भी नहीं सकते क्योंकि पत्नी बैठी हुई हैं। और पत्नी
पकड़कर लाई है, तो चलो सुनो, महाराज जो
कहते हैं समझो।
इसी भूल में उनकी पत्नी उन्हें मेरे पास ले आयी। उसने सोचा कि मैं
समझाऊंगा। वे आए वैसे ही डरे-डरे, वैसे ही झुके-झुके, आंख नीची करके बैठ गये। कुछ बड़ा पाप नहीं कर रहे हो। इतने डरने की कोई
जरूरत नहीं। और तो कोई पाप नहीं कर रहे। यूं भी शराब कोई मांसाहार नहीं है।
शाकाहारी ही हो न तुम? कहने लगे, है तो
शाकाहार ही। थोड़ा उन्होंने पत्नी की तरफ देखा कि तू कहां ले आई! पत्नी ने भी उनकी
तरफ देखा कि अब क्या करना! मैंने कहा, शाकाहार है। शुद्ध
अंगूर की पीते हो न? उन्होंने कहा, बिलकुल।
ऊंची से ऊंची कीमती चीज पीता हूं, कोई ठर्रा पीने की मुझे
आदत भी नहीं। मजे से पीओ, ऐसी क्या घबड़ाने की बात है! दिल खोलकर
पीओ! और यह डरते क्या हो? पत्नी ने कहा, आप कह क्या रहे हैं? मैं सुन क्या रही हूं? इनको तो मैं ले जाती हूं और लोग समझा-समझाकर हार गये और तब भी ये नहीं
रुके और आप कह रहे हैं कि दिल खोलकर पीओ! अब तो और मुसीबत हो जाएगी।
मैंने कहा कि एक काम कर। कितने दिन से तू इन्हें रोक रही है? उसने कहा, तीस साल हो गए। जब से शादी हुई। तीस साल
हो गए इनको रोकते हुए, नहीं रुकते। तो मैंने कहा , एक काम कर, सात दिन के लिए तू इनको रोकना बंद कर दे।
सात दिन तक एक शब्द मत बोलना शराब के खिलाफ। और सात दिन बाद तू इनको ले आ। और सात
दिन के लिए मैंने उनसे कहा कि तुम दिल खोल कर पी लो सात दिन फिर सोचेंगे।
वे तो बड़े प्रसन्न हुए। जाते वक्त दिल खोलकर पैर छुए। पत्नी बोली, हां,क्यों नहीं छुओगे! मैंने कहा, देखो सात दिन के लिए बिलकुल तुम कहना ही मत कुछ।
वह तो तीसरे दिन ही आ गयी कि मैं बरदाश्त नहीं कर सकती। मैं नहीं रुक
सकती। मैंने कहा, तू अब थोड़ा सोच! जैसी उनको शराब पीने की आदत है,
ऐसा तुझे रोकने की आदत है, फर्क क्या है?
वह तो शराब पीने की आदत से मजबूर हैं, वह तो
अब उनके शरीर में घुस गयी, तीस साल पुरानी हो गयी, उनके लहू में मिल गयी, अब तो मच्छर भी उनका खून पीते
होंगे तो बेहोश हो जाते होंगे, अब तो भूलकर इनका खून वगैरह
किसी को मत दिलवाना कभी किसी को जरूरत पड़ जाए, नहीं तो उसको
नशा चढ़ जाएगा; अब तो खून वगैरह कहां होगा, अब तो शराब ही शराब बह रही होगी- तीस साल से डटकर जी रहे हैं, अब तो इनका मांस मज्जा बन गयी शराब--और तू इनसे रोकने को कहती है। और तुझे
तो कुछ खास काम नहीं करना है, सिर्फ कहना नहीं है। अगर तू
अपनी आदत नहीं छोड़ सकती-- सिर्फ कहने की बात है, तुझे तो कोई
नशा नहीं है! उसने कहा कि नहीं, मैं नहीं बरदाश्त कर सकती,
मैं बिना कहे रह ही नहीं सकती। और ये तीन दिन में जैसा कष्ट मैंने
पाया है, तीस साल में नहीं पाया। क्योंकि अब वे दिल खोलकर पी
रहे हैं-- और पीते ही नहीं, रात को पीकर मुझे आपका उपदेश
देते हैं। आपकी किताबें पड़ने लगे हैं। और एकदम ज्ञान चर्चा छेड़ते हैं तो मुझे और
आग लगती है! कि बैठे तो तुम पीकर हो और ज्ञानचर्चा! और जब वे पी लेते हैं तो फिर
वे किसी की सुनते नहीं। अब कल ही रात दो बजे रात उठकर एकदम प्रवचन देने लगे। और
फिर नहीं रुकते। फिर तो रोका भी नहीं जा सकता उनको। मेरी बरदाश्त के बाहर है।
मैंने कहा कि अगर तू रुक जाए, तो मैं उन्हें भी
रोंकू। अगर तुझसे इतना भी न छूटता हो, तो उनके पीछे भी क्यों
पड़ी है, उनसे भी कैसे छूटेगा! तुझे भी लत पड़ गयी। यह भी तेरी
शराब है। तुझे मजा आ रहा है रोकने में। तुझे मजा आ रहा है अहंकार को भरने का। तू
मुझ पर छोड़ दे, मैं फिकिर कर लूंगा। और तुझे ही अगर फिक्र
करनी है, तीस साल से तू कर ही रही है, कुछ
हो नहीं जाया। मैं ज्यादा नहीं मांगता, थोड़े ही दिन मांगता
हूं, तीस दिन मुझे दे दे। सात दिन तू चुप रह, इसके बाद मैं बात कर लूंगा।
वह तो नहीं रह सकी सात दिन चुप! लेकिन सात दिन बाद पति आए--पत्नी तो
आयी ही नहीं, क्योंकि वह चुप नहीं रह सकी--उन्होंने कहा, वह नहीं रह सकी चुप, फिर भी एक बात मुझे समझ में आ
गयी कि मैं उसके अहंकार को भर रहा हूं शराब पी-पीकर। और उसका अहंकार मेरे अहंकार
को चोट दे रहा हैं, कि वह रोकना चाहती है इसलिए मैं रुक नहीं
सकता। और मैं पीता हूं, इसमें उसे मजा आ रहा है। अब मैं क्या
करूं? मैंने कहा कि तुम संन्यासी हो जाओ। उन्होंने कहा,
क्या कहते हैं आप! शराब मेरी नहीं छुटेगी। मैंने कहा, मैं शराब छोड़ने की कहता ही नहीं, तुम संन्यासी हो
जाओ। ये छोटी-मोटी बातें पीछे देख लेंगे। ये तो बहुत छोटी-मोटी बातें हैं, इनका काई खास मतलब नहीं है।
वह संन्यासी क्या हुए, उनकी शराब छूट गयी!
वे मुझसे आकर कहने लगे, बड़ी मुश्किल हो गयी; शराब लेकर सामने बैठता हूं और फिर सोचता हूं कि मैं संन्यासी शराब पिऊं?!
भाड़ में जाए पत्नी!--यही मुझे पिलाती रही तीस साल से। यह रोकती हैं,
इसकी जिद है रोकना, मेरी जिद है--कहीं भीतर
मेरे अहंकार को चोट पड़ती है। मैं उसकी जिद के पीछे क्या अपनी जिंदगी खराब करूंगा!
अब तो शराबघर भी नहीं जा सकता। क्योंकि शराबघर गया था, एक आदमी मेरे पैरों पर गिर पड़ा और बोला, महात्मा जी,
आज यहां कैसे? तो मैंने कहा, क्यों भाई? उसने कहा, यह
शराबघर है। मैंने कहा, अरे, मैं भूल से
आ गया। मैं तत्क्षण लौट पड़ा।
तुम्हें अगर यह स्मरण भी बनना शुरू हो जाए कि तुम परमात्मा हो, तो तुम पाओगे तुम्हारी जिंदगी में क्रांति होनी शुरू हो गयी। क्रमशः
आहिस्ता-आहिस्ता तुम कुछ चीजों को गिरते देखोगे, बिना छोड़े
छूटते देखोगे। क्योंकि स्वयं की भगवत्ता का बोध इतना बड़ा बोध है! बाढ़ की तरह आता
है, सब बहा ले जाता है कूड़ा-करकट, गंदगी,
जन्मों-जन्मों की गंदगी।
मलूक ठीक कहते हैं--
साहेब मिल साहेब भये, कछु रही न तमाई।
कहै मलूक तिस घर गये, जहं पवन न जाई।।
अब उस घर में पहुंच गये हैं, जहां हवा का भी प्रवेश
नहीं हो सकता, वहां हमारा प्रवेश हो गया है। वह घर तुम्हारे
ही भीतर है। वह मंदिर तुम्हीं हो। तुम्हीं हो काबा, तुम्हीं
हो काशी, कहीं और जाना मत, कहीं और
खोजना मत, सिर्फ एक स्मरण को गहरा करते जाओ कि साहेब
तुम्हारे भीतर बैठा हुआ है। उठो, बैठो, चलो, भूलो मत कि साहेब तुम्हारे भीतर बैठा हुआ है।
इस स्मरण को जितना सघन कर सको, करो और तुम पाओगे कि तुम्हारी
जिंदगी में क्रांति होनी शुरू हो गयी। यह स्मरण जैसे-जैसे सघन होगा वैसे-वैसे कुछ
चीजें गिरती जाएंगी, गिरती जाएंगी। एक दिन तुम पाओगे,
सब कचरा बह गया है। कछु रही न तमाई। कोई अंधकार न बचा, कोई अहंकार न बचा। आलोक ही आलोक।
आलोक हमारा स्वभाव है। पाना नहीं है, उपलब्धि नहीं है आलोक,
हमारी निजता है।
जरा-सा दर्शन तुम्हें इसका हो जाए तो तुम्हें ऐसा लगेगा जैसे
"स्वभाव' को लगा है। "स्वभाव' ने
लिखा हैं--
भगवान,
कैसे सकून पाऊं तुम्हें देखने के बाद
अब क्या गजल सुनाऊं तुम्हें देखने के बाद
आवाज दे रही है मेरी जिंदगी मुझे
जाऊं या मैं न जाऊं तुम्हें देखने के बाद
कैसे सकून पाऊं...
काबे का इहतराम भी मेरी नजर में है
सर किस जगह झुकाऊं तुम्हें देखने के बाद
कैसे सकून जाऊं...
तरी निगाहे-मस्त ने मखमूर कर दिया
क्या मैकदे का जाऊं तुम्हें देखने के बाद
कैसे सकून पाऊं...
नजरों में ताबे-दीद भी बाकी रही नहीं
किससे नजर मिलाऊं तुम्हें देखने के बाद
कैसे सकून पाऊं...
अब क्या गजल सुनाऊं तुम्हें देखने के बाद
जरा भीतर झांको, गजलें ही गजलें गूंज उठती हैं।
गीत ही गीत फूट पड़ते हैं। फूल ही फूल खिल जाते हैं। जरा भीतर देखो, दीये ही दीये जल जाते हैं। दीपावली हो जाती है। जरा भीतर देखो, रंगों की फुहारें फूट पड़ती है। फाग मच जाती है। जरा भीतर मूड़ कर देखो,
बांसुरी बज उठती हैं, कोयल कूकने लगती है,
पपीहा पी पी पुकारने लगता है। जरा भीतर मुड़ कर देखो।
मेरे पास होने का एक ही प्रयोजन हो सकता है कि तुम भीतर मुड़ कर देखने
की कला सीख जाओ। संन्यास भीतर मुड़ कर देखने की कला है।
आज इतना ही।
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