आज प्रारंभ होने वाली प्रवचनमाला का शीर्षक आपने चुना है: सांच
सांच सो सांच।
भगवान, निवेदन है कि दरिया साहब के इस पद को हमें समझाने
की अनुकंपा करें--
कंचन कंचन ही सदा, कांच कांच सो कांच।
दरिया झूठ सो झूठ है, सांच सांच सो सांच।।
योग मुक्ता,
सत्य
शाश्वत है, सनातन है, समयातीत है। जो बदलता है वह स्वप्न है। जो
नहीं बदलता वही सत्य है। उस अपरिवर्तनीय को पा लेना ही धर्म है। परिवर्तित होते
संसार के साथ जो अपने मोह को लगाता है, सिवाय दुख के और कुछ
भी नहीं पाता है। यह अपरिहार्य है। जो बदल रहा है उसे तुम लाख चेष्टा करो तो भी
ठहरा न सकोगे। उसका स्वभाव बदलना है। और तुम उसके मोह में पड़ोगे तो चाहोगे कि ठहर
जाए, रुक जाए--और वह ठहरने वाला नहीं, रुकने
वाला नहीं। वह तो गया, अब गया, अब
गया--गया ही हुआ है। सुबह हुई कि सांझ हो गई। सुबह में ही सांझ छिपी है। जन्म हुआ
कि मृत्यु हो गई। मृत्यु के दूत किन्हीं भैंसों पर सवार होकर नहीं आते, जन्म पर सवार होकर आते हैं। जन्म के साथ ही मृत्यु प्रवेश कर गई। अब तुम लाख
उपाय करो तो भी मृत्यु से बचा नहीं जा सकता है।
इस
बात को ठीक से पहचान लेना जीवन में क्रांति बन जाती है: जैसे ही तुम्हें यह बात
दिखाई पड़ गई कि जो भी बदल रहा है उसके साथ मोह को बांधना दुख पैदा करने का आयोजन
है; उसके साथ अपने को जोड़ना नर्क में पड़ना है। नर्क कहीं और नहीं--यहीं है।
स्वर्ग भी कहीं और नहीं--यहीं है। जब भी तुम शाश्वत से अपने को जोड़ लेते हो,
स्वर्ग की सुगंध फैल जाती है। और जब भी तुम अशाश्वत से अपने को जोड़
लेते हो, नर्क की अग्नि में सड़ने लगते हो। स्वर्ग और नर्क
तुम्हारी दृष्टि की बात है, बस नजर-नजर की बात है। कोई
भौगोलिक अवस्थाएं नहीं हैं स्वर्ग और नर्क, मनोवैज्ञानिक
तथ्य हैं।
दरिया
ठीक कहते हैं--
कंचन
कंचन ही सदा,
कांच कांच सो कांच।
दरिया
झूठ सो झूठ है,
सांच सांच सो सांच।।
ऐसा
हो सकता है कि कभी चमकदार पीतल सूरज की किरणों में सूरज जैसा भासे, स्वर्ण जैसा
भासे। मगर वह आभास है। निकट आओगे, आभास टूट जाएगा। दूर रहोगे,
आभास बना रहेगा। इस जगत के सत्य को अगर न देखना हो तो दूर रहना।
जिनको धन नहीं मिलता उन्हें धन में आशा बनी रहती है; लगता है
मिल जाएगा तो सब मिल जाएगा। जिन्हें धन मिला उन्हें सिर्फ निर्धनता मिलती है।
धनी
से ज्यादा निर्धन इस पृथ्वी पर कोई और नहीं, क्योंकि धन पाकर उसकी सारी आशाएं
निराशाएं हो जाती हैं। कितने सपने बांधे थे! कितनी आकांक्षाओं के जाल बुने थे!
कितनी-कितनी मृग-मरीचिकाएं थीं! कितना श्रम किया था! सारा जीवन दांव पर लगा कर यह
धन पाया है और ठीकरे हाथ लगते हैं। उन सपनों की कहीं कोई दूर की भी ध्वनि नहीं है।
वह जो सोचा था कि जीवन में नृत्य होगा, वे घूंघर बजते ही
नहीं। वह जो सोचा था कि गीत उमगेंगे, वे गीत कभी लगते ही
नहीं। वह जो गुलाब के फूलों की आशाएं थीं, गुलाब के फूल तो
दूर, पत्थर भी हाथ नहीं आते। धनी आदमी जितना निर्धन हो जाता
है उतना निर्धन भी निर्धन नहीं होता। सम्राट जितने भिखारी हो जाते हैं, उतने भिखारी भिखारियों में भी नहीं होते। क्योंकि भिखारी के पास कम से कम
आशा तो होती है; सम्राट के पास वह आशा भी नहीं रह जाती। वहां
तो सिर्फ हताशा है, सिर्फ निराशा है--विराट निराशा, जिसका न कोई ओर है न कोई छोर है।
इस
संसार में चीजें दूर से सुंदर हैं, पास आकर सब विकृत हो जाती हैं।
क्योंकि पास आकर यह दिखाई पड़ता है: कुछ भी ठहरा नहीं है। जवानी बुढ़ापा हो रही है।
सौंदर्य कुरूप हो रहा है। जीवन मरण में बदल रहा है। क्या पकड़ते हो? रेत में घर बनाते हो! पानी पर हस्ताक्षर करते हो! यहां तुम्हारा हस्ताक्षर
बन भी नहीं पाएगा और मिट जाएगा। ये रेत के महल, इनमें कोई
कभी रहा है? बन भी जाएं तो हवा का कोई भी आवारा झोंका इन्हें
गिरा देगा।
लेकिन
हमारे मन की एक तरकीब है: एक आशा टूटती है तो दस नई आशाएं खड़ी कर लेता है। कहता है, यह आशा
टूट गई तो कोई बात नहीं, और आशाएं हैं। अगर यह असफलता मिली
तो कोई बात नहीं, अभी और सफलताएं हैं। और यूं नहीं हार जाते।
और यूं नहीं हताश हो जाते। हिम्मत रखो! जूझते रहो! मिलेगा, जरूर
मिलेगा!
और
कोई भी नहीं पूछता कि किसी को कभी मिला है! सदियां-सदियां बीत गईं, किसी ने
कहा है धन पाकर कि मुझे मिल गया धन! और किसी ने कहा है साम्राज्य पाकर कि मुझे मिल
गया जो मैंने चाहा था--मेरे सपनों का मालिक, मेरी कल्पनाओं
का लोक!
निरपवाद
रूप से सारी मनुष्य-जाति की यह कथा है, व्यथा है कि किसी को भी यहां कुछ
भी नहीं मिला। लेकिन झूठ प्रपंच तो बहुत खड़े कर देता है; पीतल
भी सोना मालूम पड़ता है; चमकदार कंकड़ भी हीरे मालूम पड़ते हैं।
मगर दरिया कहते हैं लाख मालूम पड़ते रहें--कंचन कंचन ही सदा! सोना तो सोना है। कांच
कांच सो कांच। दरिया झूठ सो झूठ है। चाहे सारी दुनिया मानती हो, मगर जो झूठ है सो झूठ है। सत्य और झूठ का निर्णय कोई लोकतांत्रिक ढंग से
नहीं होता कि किसके पक्ष में कितने मत हैं।
जार्ज
बर्नार्ड शॉ से एक व्यक्ति कह रहा था कि निश्चय ही जीसस के विचार सच होने चाहिए, ईसाइयत सच
होनी चाहिए। हालांकि जीसस के विचार और ईसाइयत पर्यायवाची नहीं हैं। कहां जीसस और
कहां ईसाइयत! कोई संबंध नहीं, दूर का नाता-रिश्ता भी नहीं।
सच पूछो तो दोनों एक-दूसरे के विपरीत हैं। लेकिन आमतौर से लोग ऐसे ही पर्याय बना
लेते हैं। वह कहना तो यही चाहता था कि ईसाइयत सच है, लेकिन
बात जीसस से शुरू की थी और कहा कि ईसाइयत सच होनी ही चाहिए क्योंकि दुनिया के
अधिकतम लोग ईसाई हैं। इतना विराट जनसमूह जब ईसाई है तो निश्चित ही ईसाइयत में कुछ
सत्य होना चाहिए। नहीं तो क्यों इतने लोग ईसाई हों? इतने लोग
पागल तो नहीं हो सकते।
जार्ज
बर्नार्ड शॉ ने बड़ी कीमत की बात कही, लाखों की बात कही। जार्ज बर्नार्ड
शॉ ने कहा, तुम्हारा तर्क ही मेरे लिए काफी प्रमाण है कि जिस
बात को इतने लोग मानते हों वह जरूर गलत ही होगी। इतने लोग और सत्य को कभी मान लें,
तो यह पृथ्वी स्वर्ग हो जाए।
जीसस
को कितने लोगों ने माना?
इने-गिने, सौ-पचास। और कितने लोगों ने मारा?
उनकी संख्या लाखों, करोड़ों। सुकरात को कितने
लोगों ने माना? उनकी संख्या अंगुलियों पर गिनी जा सकती है।
और कितने लोगों ने निर्णय किया कि जहर देकर इस आदमी को समाप्त कर दो? उनकी संख्या विराट है। अलहिल्लाज मंसूर को या सरमद को, जिन्होंने गर्दन काटी वे बहुसंख्यक थे। सरमद के साथ जाने को कौन तैयार था?
कुछ थोड़े-से दीवाने, जो गर्दन कटाने को राजी
हों।
सत्य
के साथ तो थोड़े-से ही लोग खड़े होते हैं, क्योंकि सत्य के साथ खड़े होने की
कीमत चुकानी पड़ती है। पहले तो सत्य यूं सस्ता मिलता नहीं, बाजार
में बिकता नहीं, मंदिरों और मस्जिदों में मिलता नहीं। अपने
भीतर तलाशना होता है; न बाइबिल में, न
कुरान में, न वेद में। अपने भीतर तराशना होता है। और वह खोज
बड़ी एकांत है और बड़ी अकेली है और बड़ी दुर्गम है। इस दुनिया में सबसे कठिन जगह है
अपने भीतर जाना, क्योंकि न कोई संगी होता, न कोई साथी होता। जैसे-जैसे भीतर जाते हो वैसे-वैसे अकेले होते जाते हो।
और एक ऐसी घड़ी आती है जब अकेला होना भी नहीं बचता; जब शून्य
ही रह जाता है, तुम भी खो जाते हो। पहले संगी-साथी खोते हैं,
फिर विचार खोते हैं, फिर भावनाएं खोती हैं। और
एक ऐसा अपूर्व क्षण आता है, जिसको कहो कि मृत्यु जैसा,
कि स्वयं की सत्ता भी खो जाती है, अत्ता भी खो
जाती है, आत्मा भी खो जाती है। तुम यह भी नहीं कह सकते कि
मैं हूं। और जिस घड़ी वहां कोई भी नहीं है, उस घड़ी सत्य का
आविर्भाव होता है।
यूं
जो अपने को सूली पर चढ़ा दे--इस गहरी सूली पर--अहंकार को ऐसे जो मृत्यु को समर्पित
कर दे, यूं भस्मीभूत हो जाने दे ध्यान की अग्नि में और विराट शून्य में लीन हो
जाए, उसके जीवन में सत्य का अनुभव होता है। बहुत थोड़े-से लोग
इतना साहस कर पाते हैं। भीड़ तो सत्य से बहुत दूर है। सत्य का निर्णय कोई मतों से नहीं
होता, हाथ उठा कर नहीं होता निर्णय कि कितने हाथ तुम्हारे
पक्ष में हैं। यह ढंग राजनीति का है। यह ढंग धर्म का नहीं है।
और
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं: ईसाइयत, हिंदू, मुसलमान,
जैन, बौद्ध, सिक्ख,
पारसी, इनके नाम से जो जमातें हैं वे जमातें
राजनीति की हैं। धर्म की कहीं कोई जमात होती है? सत्संग होता
है, जमात नहीं होती। सदगुरु के पास उठना-बैठना होता है।
समाधिस्थ के पास मिटने की तैयारी होती है। जो खुद मिट चुका है उसके साथ जुड़ना
शुरुआत है स्वयं के मिटने की। शिष्यत्व होता है, लेकिन कोई
जमात नहीं होती। जमात तो झूठ की होती है, और जमात तो मूढ़ों
की होती है। मगर मूढ़ों को एक फायदा है कि वे सदा यह कह सकते हैं कि हमारी संख्या
है! कितने लोग हमारी बात को मानने वाले हैं! तो जरूर हमारी बात सच होगी।
मैं
भी जार्ज बर्नार्ड शॉ की बात से सहमत हूं। सत्य के साथ मुश्किल से कभी कोई खड़ा होता
है। सत्य की सार्वलौकिक निंदा होती है और असत्य की सार्वलौकिक पूजा होती है। असत्य
को पुरस्कार मिलते हैं;
असत्य को सम्मान मिलते हैं; पदवियां, उपाधियां मिलती हैं। सत्य को तो सिवाय सूली के और कभी कुछ नहीं मिला,
पत्थरों के और गालियों के कभी कुछ नहीं मिला। सत्य को तो ताज भी
पहनाए गए हैं तो कांटों के। सत्य का रास्ता कोई फूलों की सेज नहीं, दुर्गम है। ऐसे भी दुर्गम है, और लोग उसे और दुर्गम
बना देते हैं। मगर कुछ भी हो, कंचन फिर भी कंचन है--दुनिया
माने न माने, एक भी मानने वाला न हो।
एक
जमाना था--कोई ज्यादा दिन पहले नहीं, सिर्फ तीन सौ साल पहले--सारी
दुनिया मानती थी कि पृथ्वी चपटी है, गोल नहीं। और जिस एक
व्यक्ति ने पृथ्वी को गोल माना, कोलंबस ने, उस पर लोग हंसे। उसको पागल कहा। उसके साथ यात्रा पर जाने को बड़ी मुश्किल
से केवल थोड़े-से लोग राजी हुए, केवल नब्बे लोग राजी हुए। बामुश्किल
सालों खोज कर वह नब्बे लोगों को राजी कर पाया। और इन नब्बे लोगों के साथ भी उसे
रास्ते में हमेशा खतरा रहा। क्योंकि ये नब्बे लोग भी बीच-बीच में डगमगा जाते थे और
सोचने लगते थे हम किस पागल के साथ पड़ गए! कोई दूर भी तो किनारा दिखाई पड़ता नहीं।
और एक तो ऐसी घड़ी आ गई थी कि उन नब्बे लोगों ने यह तय कर लिया कि हम इस आदमी को
उठा कर समुद्र में फेंक दें और वापस लौट जाएं।
जब
कोलंबस को यह बात पता चली कि एक साजिश चल रही है, उसके ही शिष्यों में! आखिर
अपनी जान गंवानी, इतनी हिम्मत थोड़े-से ही जवां मर्दों की
होती है। उन नब्बे आदमियों ने सोचा कि अब मुश्किल हुई, क्योंकि
तीन महीने का सामान लेकर चले थे, भोजन, वह चुकने लगा। केवल तीन दिन का सामान और बचा और अभी तक यह जिस किनारे की
बात करता था वह आया नहीं। और जमीन गोल है, कुछ सिद्ध हुआ
नहीं। क्योंकि कोलंबस का खयाल था तीन महीने में हम पूरी पृथ्वी का चक्कर ही लगा
लेंगे। अगर जमीन गोल है तो जहां से चलेंगे वहीं पहुंच जाएंगे। उसने अपना जो गणित
बिठाया था उसमें तीन महीने का भोजन काफी था।
उन
नब्बे लोगों ने,
मल्लाहों ने, संगी-साथियों ने रात छुप कर एक
बैठक की और कहा कि हम कल ऐसा करें, इस आदमी को उठा कर पानी
में फेंकें, यह पागल है और हम वापस लौट चलें। कोलंबस ने छिप
कर यह बात सुनी। जब उसने देखा कि नब्बे ही आदमी नदारद हैं, तो
कहां गए! देखा तो वे सब नीचे इकट्ठे हैं नाव में और घुस-पुस चर्चा कर रहे हैं। छिप
कर उसने यह बात सुनी।
वह
पहुंच गया द्वार खोल कर और उसने कहा कि कोई हर्ज नहीं, मैं
तुम्हारा प्रयोजन समझा। तुम मेरे दुश्मन नहीं हो, लेकिन तुम
अपने प्राणों से बहुत चिंतित हो। मैं राजी हूं, तुम मुझे
पानी में फेंक दो, इसके लिए साजिश करने की कोई जरूरत नहीं।
तुम कहो तो मैं खुद कूद जाऊं और तुम वापस लौट जाओ। लेकिन मुझे यह बताओ, एक बात का जवाब दे दो: हमारे पास केवल तीन दिन का भोजन बचा है। दो महीना
सत्ताइस दिन तुम क्या करोगे? क्योंकि तीन महीने का भोजन
लौटने के लिए भी चाहिए। तीन दिन का भोजन है, फिर बाकी समय
तुम क्या करोगे? इतनी यात्रा तो हम करके आए, यह तुम्हें पक्की तरह मालूम है। इतनी यात्रा तुम वापस करोगे तो तीन महीने
का भोजन तुम्हें चाहिए ही चाहिए। तो एक बात तो पक्की है तुम लौट कर न पहुंच सकोगे।
इसलिए पीछे लौटना तो बिलकुल व्यर्थ है। अब तो तीन दिन और तुम मुझ पागल का साथ दे
लो, मैं तुमसे कहता हूं तीन दिन के भीतर जमीन मिल जाएगी।
मेरा गणित गलत नहीं हो सकता। रही बात निर्णय करने की, वह मैं
तुम पर छोड़ देता हूं। लौटोगे तो तीन महीने का भोजन चाहिए, मेरे
साथ चलोगे तो मैं तीन दिन के भोजन के ऊपर तुम्हें जमीन तक पहुंचा दूंगा।
आखिर
उन लोगों ने भी सोचा कि बात तो ठीक है, लौट कर भी जाएंगे तो तीन महीने तो
भोजन चाहिए, मर ही जाएंगे। और जो कोलंबस हमें इस यात्रा पर
लाया है उसके बिना हम यात्रा भी कर सकेंगे लौट कर, यह भी
पक्का नहीं है। इसके ही मार्गदर्शन में यहां तक पहुंचे हैं। अब तो अच्छा है कि तीन
दिन और सही। तीन महीने सह लिया, तीन दिन और सही।
और
ठीक तीन दिन में जमीन मिल गई। सारी दुनिया मानती थी कि जमीन चपटी है। एक पागल आदमी
मानता था कि जमीन गोल है। लेकिन वह एक पागल आदमी सही साबित हुआ, क्योंकि
जमीन गोल है! उसके पहले गैलीलियो के साथ यही मुसीबत हुई। सारी दुनिया मानती थी...।
अब भी हमारी भाषाओं में शब्द तो नहीं बदले हैं, अब भी हम
कहते हैं--सूर्यास्त, सूर्योदय। और शायद कभी नहीं बदलेंगे।
लेकिन गैलीलियो ने कहा था कि न कोई सूर्यास्त होता है, न कोई
सूर्योदय। धारणा यह थी कि सूरज चक्कर लगाता है पृथ्वी के। और गैलीलियो ने कहा कि
पृथ्वी चक्कर लगाती है सूरज के। बात ही बदल दी। सारी दुनिया मानती थी एक बात और
गैलीलियो ने लिखी दूसरी ही बात।
महा
निंदा हुई। कैथलिक पोप ने उसे रोम बुलाया और कहा, तुम माफी मांग लो। वह बूढ़ा
हो चुका था--पचहत्तर साल का हो चुका था। बीमार था, बिस्तर से
उसे घसीट कर लाया गया और कहा कि तुम क्षमा मांग लो, अन्यथा
मरने के लिए तैयार हो जाओ।
गैलीलियो
बड़ा समझदार आदमी रहा होगा। बहुत कम लोगों ने उसकी समझदारी की प्रशंसा की है। लोग
समझते हैं वह कायर था,
क्योंकि उसने क्षमा मांग ली। मैं ऐसा नहीं समझता, क्योंकि क्षमा उसने इस ढंग से मांगी कि वह कायरता नहीं बताती। वह उस आदमी
की समझदारी बताती है। और वह उस आदमी की इतनी गहरी समझदारी बताती है कि पोप और उनका
पूरा का पूरा मंडल जो निर्णायक बना बैठा था, उसकी मूर्खता
सिद्ध होती है। गैलीलियो ने कहा कि आप कहें तो अभी क्षमा मांग लूं। मुझे क्या अड़चन
है! अरे, मुझे लेना-देना क्या! मैं लिख दूंगा अपनी किताब में
कि पृथ्वी चक्कर नहीं लगाती, सूरज ही चक्कर लगाता है।
पोप
प्रसन्न हुआ,
उसका मंडल प्रसन्न हुआ। गैलीलियो ने खड़े होकर कहा, लेकिन एक बात खयाल रहे, मेरे लिखने से कुछ भी न
होगा। चक्कर तो पृथ्वी ही लगाती है। मैं लिख दूंगा, मुझे
लिखने में कोई अड़चन नहीं। मैं क्यों झंझट में पडूं, मुझे
क्या लेना-देना, पृथ्वी लगाए चक्कर कि सूरज लगाए चक्कर। मगर
इतना मैं कहे देता हूं, मेरे लिखने से कुछ बदलाहट होगी नहीं,
बात कुछ बनेगी नहीं। लाख मेरे जैसे गैलीलियो लिखते रहें कि सूरज
चक्कर लगाता है, सूरज सुनेगा नहीं। और तुम सूरज को सजा भी
नहीं दे सकते। तुम उसे अदालत में भी नहीं ला सकते। मैं तो घुटने टेक कर क्षमा
मांगता हूं कि मुझे माफ कर दो। न मालूम किस पागलपन में मैंने यह बात लिख दी। सच्ची
बातें कहनी ही नहीं चाहिए। सच्ची बातें कहने का परिणाम बुरा होता है, यह तो मैंने सुना था, आज देख भी लिया। मैं माफी
मांगता हूं और मैं लिखता हूं कि सूरज चक्कर लगाता है। मगर फिर भी जाते-जाते मैं कह
जाता हूं, ध्यान रखना, मेरी सूरज मानता
नहीं, पृथ्वी मेरी मानती नहीं। अरे, तुम्हीं
मेरी नहीं मानते तो कोई मेरी क्या मानेगा! मेरे घर के लोग नहीं मानते, मेरी पत्नी नहीं मानती, मेरा बेटा नहीं मानता। कोई
मानने वाला नहीं। चक्कर तो पृथ्वी ही लगाती है और लगाती रहेगी।
यह
आदमी अदभुत सूझ-बूझ का आदमी रहा होगा। इसने क्या व्यंग्य किया, गहरा
व्यंग्य किया! माफी भी मांग ली और उन बुद्धुओं को बुद्धू भी साबित कर दिया। लेकिन
आज हम जानते हैं कि गैलीलियो सही था। यह सनातन कथा है कि बहुत बार कांच कंचन होने
का दावा करता है। और भीड़ को जंचती है यह बात, क्योंकि कांच
सस्ता मिल जाता है, बिना कीमत चुकाए मिल जाता है।
तुम
ईश्वर को माने बैठे हो,
जानते तो नहीं। इसलिए तुम्हारा जो ईश्वर है वह कांच का टुकड़ा है,
कंचन नहीं। विश्वास कांच के टुकड़े हैं, अनुभव
स्वर्ण है।
कंचन
कंचन ही सदा,
कांच कांच सो कांच।
दरिया
झूठ सो झूठ है...
चाहे
दुनिया मानती रहे,
सदियों तक मानती रहे, कुछ भेद नहीं पड़ता।
...झूठ सो झूठ है, सांच सांच सो सांच।।
कोई
उपाय नहीं है सत्य को बदलने का। सत्य तो शाश्वत है, जैसा है बस वैसा है।
लेकिन
सत्य को जानने के लिए साहस चाहिए। और सत्य को जानने के लिए असत्य से हमारे लगाव
छूटने चाहिए। हम अपनी-अपनी धारणाओं में ऐसे ग्रसित हैं, हम
अपनी-अपनी धारणाओं में ऐसे बंधे हैं कि हमें इसकी चिंता ज्यादा है कि हमारी धारणा
सत्य सिद्ध होनी चाहिए, हमें सत्य की कोई चिंता नहीं।
दुनिया
में दो तरह के लोग हैं। एक तो वे, जो सत्य के साथ खड़े होने को राजी हैं। वे बहुत
थोड़े हैं। दूसरे वे, जो सत्य को अपने साथ खड़े करने को राजी
हैं; उनकी संख्या बहुत है। और जब तुम सत्य को अपने साथ खड़ा
करते हो, वह तुम्हारे तल का हो जाता है। तुम ही असत्य हो अभी,
तुम ही अज्ञान से भरे हो अभी, तुम्हारे जीवन
में कोई किरण नहीं, कोई सूरज नहीं, कोई
जरा-सा दीया भी नहीं जलता। तुम्हारे साथ जो सत्य खड़ा होने को राजी होगा, वह धोखा ही हो सकता है।
इस
तरह है कि हर इक पेड़ कोई मंदिर है
कोई
उजड़ा हुआ बेनूर पुराना मंदिर
ढूंढता
है जो खराबी के बहाने कब से!
चाक
हर बाम, हर इक दर का दमे-आखिर है
आस्मां
कोई पुरोहित है जो हर बाम तले
जिस्म
पर राख मले, माथे पे सिंदूर मले
सर-निगूं
बैठा है चुपचाप न जाने कब से!
इस
तरह है कि पसे-पर्दा कोई साहिर है
जिसने
आफाक पे डाला किसी सिह्र का दाम?
दामने-वक्त
से पैवस्त है यूं दामने-शाम!
अब
कभी शाम बुझेगी न अंधेरा होगा
अब
कभी रात ढलेगी न सवेरा होगा
आस्मां
आस लिए है कि ये जादू टूटे
चुप
की जंजीर कटे,
वक्त का दामन टूटे
दे
कोई शंख दुहाई,
कोई पायल बोले
कोई
बुत जागे, कोई सांवली घूंघट खोले!
बहुत
देर हो गई है। रात गहरी से गहरी होती चली गई है। सुबह का कुछ पता ही नहीं चलता।
अब
कभी शाम बुझेगी न अंधेरा होगा
अब
कभी रात ढलेगी न सवेरा होगा
आस्मां
आस लिए है कि ये जादू टूटे
चुप
की जंजीर कटे,
वक्त का दामन टूटे
दे
कोई शंख दुहाई,
कोई पायल बोले
कोई बुत
जागे, कोई सांवली
घूंघट खोले!
जरूरत
है कि कोई पर्दे को उठाए। हालांकि जो पर्दे को उठाएगा झंझट में पड़ेगा; हालांकि
जो यह घूंघट खोलेगा उसकी सूली निश्चित है। जो इस अंधेरे को तोड़ने की कोशिश करेगा,
अंधेरे के दुकानदार, अंधेरे के साथ जिनके
न्यस्त स्वार्थ जुड़े हैं, वे उसे मिटा डालने को आतुर हो
जाएंगे। लेकिन सत्य के मार्ग पर मिट जाना भी असत्य के मार्ग पर जीने से लाख गुना
बेहतर है।
उसी
के लिए मैं पुकार दे रहा हूं। संन्यास सत्य के खोजियों की खोज है। मैं चाहता हूं
कि तुम हिम्मत करो,
शंख फूंको।
दे कोई
शंख दुहाई, कोई पायल
बोले
बहुत
जमाने हो गए,
जीवन से नृत्य खो गया है। सत्य के बिना नृत्य हो भी नहीं सकता।
जमाने हो गए, कोई शंख नहीं बोला। जीवन के असली मंदिर में कोई
अर्चना के थाल नहीं सजे, कोई पूजा नहीं हुई। झूठे मंदिर बन
गए हैं, झूठे चर्च खड़े हैं, झूठी
मस्जिदें खड़ी हैं--जिनमें बहुत शोर-शराबा है, बहुत भीड़-भाड़
है। लेकिन सब जगह झूठ की दुकानें हैं।
सत्य
तो सदा व्यक्तियों के पास होता है, शास्त्रों के पास नहीं। मैं चाहता
हूं कि तुम जगाओ इस सोई हुई बुत को।
कोई बुत
जागे...
यूं
नहीं जागेगी,
अपने से नहीं जागेगी। झकझोरना होगा तो जागेगी। और ध्यान रहे,
झकझोरोगे तो गालियां खाओगे। झकझोरोगे तो पत्थर खाओगे। मगर सत्य के
मार्ग पर पड़े हुए पत्थर भी, सत्य के मार्ग पर खाए हुए पत्थर
भी फूल हो जाते हैं। और असत्य के मार्ग पर अगर फूल भी मिल जाएं तो कागजी फूल होते
हैं, किसी काम नहीं आते।
चुप की
जंजीर कटे...
बहुत
हो गया, कोई चुप की जंजीर को तोड़े! कोई इस साजिश को तोड़े!
...कोई पायल बोले
कोई बुत
जागे, कोई सांवली
घूंघट खोले!
सत्य
तो सत्य है। मगर सत्य को भी अपनी उदघोषणा तो किसी समाधिस्थ व्यक्ति से ही करनी
होती है। सत्य तो संगीत है,
लेकिन उस संगीत को भी तो कोई पोली बांसुरी चाहिए, जिससे बहे।
मैं
तो संन्यास की परिभाषा यही करता हूं: बांस की पोली पोंगरी। जिस दिन तुम अपने
अहंकार को छोड़ देते हो,
अपने मन को तोड़ देते हो, उस दिन बांस की पोली
पोंगरी हो जाते हो। फिर तुम्हारे ऊपर उस अज्ञात सत्य के ओंठ संगीत छेड़ देते हैं;
तुम्हारी हृदयत्तंत्री अनाहत नाद से भर जाती है।
जिन्होंने
हो तुझे देखा,
नयन वे और होते हैं!
कि
बनते वंदना के छंद,
क्षण वे और होते हैं!
जहां
गुलजार गुलशन,
क्या अजब, सब फूल तेरे हैं,
लगे
पर जो गले तेरे,
सुमन वे और होते हैं!
नहीं
दिखता मुझे जब,
सत्य भी मेरे लिए सपना,
कि
जो हक में हकीकत के,
सपन वे और होते हैं!
अगन
जाए न बुझ, बहते रहें आंसू किसी हद तक,
उठाते
जो लपट ऊंची,
नमन वे और होते हैं!
मरण
भी लोक-जीवन के लिए आदर्श,
पर अर्पित--
तुझे
जिनके सकल जीवन-मरण,
वे और होते हैं!
गहन
वन, गर्त, खाई देख चलना है मुनासिब पर--
तुझे
ही देखते चलते,
मगन वे और होते हैं!
उन
मगन लोगों को ही मैं पुकार रहा हूं। उनको ही पुकार रहा हूं जो इन अदभुत क्षणों को
जी सकें।
जिन्होंने हो
तुझे देखा, नयन वे
और होते हैं!
उन्हीं
नयनों को पुकार रहा हूं--उन्हीं आंखों वालों को! यूं तो सभी आंख वाले हैं, लेकिन
आंखें बंद किए बैठे हैं। और अगर उनसे कहो कि आंख खोलो तो नाराज होते हैं। क्योंकि
बंद किए आंख जमाने-जमाने बीत गए। वे भूल ही गए कि उनके पास आंखें भी हैं। जैसे
पिंजड़ों में बंद कोई पक्षी भूल ही चुका हो कि उसके पंख भी होते हैं। और अगर तुम
उसे पिंजड़े से निकाल भी दो, तो ध्यान रखना, वह जी न सकेगा, वह उड़ न सकेगा; उसके पंखों को उड़ने की कला ही भूल गई होगी। ऐसी ही लोगों की आंखें
हैं--जंजीरों में बंद, पत्थरों में ढंकी, विश्वासों से आच्छादित, शास्त्रों में दबी। देखते
दिखाई पड़ते हैं, मगर कुछ उन्हें दिखाई पड़ता नहीं।
जिन्होंने
हो तुझे देखा,
नयन वे और होते हैं!
कि बनते
वंदना के छंद, क्षण वे और
होते हैं!
उन
क्षणों को, उन नयनों को पुकार रहा हूं, जो कि वंदना के छंद बन
जाएं।
जहां
गुलजार गुलशन क्या अजब,
सब फूल तेरे हैं,
लगे पर
जो गले तेरे, सुमन वे और
होते हैं!
तुम
परमात्मा के गले का हार बन सकते हो। यह प्रत्येक व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है
कि वह सत्य को खोजे और सत्य के गले का हार हो जाए। और जब तक कोई सत्य के गले का
हार नहीं होता तब तक तुम्हारे जीवन में हार ही हार है, विजय
नहीं। जिस दिन तुम परमात्मा के गले के हार हो जाते हो, उस
दिन हार विजय हो गई। उस दिन तुम्हारा मिटना तुम्हारी जीत हो गई।
नहीं
दिखता मुझे जब,
सत्य भी मेरे लिए सपना,
कि
जो हक में हकीकत के,
सपन वे और होते हैं!
अगन
जाए न बुझ, बहते रहें आंसू किसी हद तक,
उठाते जो
लपट ऊंची, नमन वे
और होते हैं!
तुम्हारे
जीवन से ऐसी लपट उठनी चाहिए। लेकिन लोग नाराज होते हैं। मैंने किसी को संन्यास
देते वक्त कहा कि जरथुस्त्र ने कहा था कि तुम्हारे भीतर की आग को जगाओ, क्योंकि
वही आग जीवन है, वही आग परमात्मा है। और जरथुस्त्र को मानने
वाले बाहर की आग की पूजा में लगे हैं। भीतर की आग की बात अंधों के हाथ में जाते ही
सदा बाहर की आग हो जाती है। अंधों को सत्य कहो, फौरन असत्य
हो जाता है।
जरथुस्त्र
से मुझे प्रेम है,
क्योंकि जरथुस्त्र जैसा कोई व्यक्ति पृथ्वी पर शायद दूसरा नहीं हुआ।
बुद्ध में कुछ न कुछ जीवन-निषेध है। महावीर में तो बहुत कुछ जीवन-निषेध है। जीवन
का इनकार कहीं न कहीं है। लेकिन जरथुस्त्र में जीवन की परम विधायकता है, जीवन का परिपूर्ण स्वीकार है। जीवन ही ढंग से जीने का नाम धर्म है। इसलिए
जरथुस्त्र ने जो काम किया है, वह मेरे काम से बहुत
मिलता-जुलता है।
लेकिन
मेरे वक्तव्य के कारण पारसियों से मुझे इतनी गालियां मिलनी शुरू हो गईं कि मैं
हैरान हुआ। हैरान इसलिए हुआ कि मैंने यह कहा था कि जरथुस्त्र जीवन के प्रति जितने
समादर से भरा है उतना कोई दूसरा व्यक्ति नहीं। और जरथुस्त्र ने जीवन को ही
परमात्मा की स्थिति पर उठा दिया है--जीवन ही परमात्मा है। और उसका प्रतीक है
तुम्हारे भीतर की अग्नि। विज्ञान भी इससे राजी है कि सारा जीवन अग्नि ही है। अगर
सूरज बुझ जाए तो आदमी भी बुझ जाएंगे, पक्षी भी बुझ जाएंगे, फूल भी बुझ जाएंगे, सब बुझ जाएगा। इधर सूरज बुझा कि
सब बुझा। यह सूरज की आग है, जो तुम्हें गरमाए हुए है,
जो तुम्हें जिलाए हुए है। अग्नि को जीवन का प्रतीक बना लेना बड़ी
गहरी खोज थी, बड़ी गहरी सूझ थी। लेकिन मंदिर बनाकर, अग्यारी बनाकर अग्नि की पूजा करते रहना निपट पागलपन है।
बहुत-से
पत्र मेरे खिलाफ अखबारों में छपे हैं पारसियों के। सिर्फ एक पारसी महिला का पत्र
छोड़ कर, शेष सबने गालियां दी हैं कि मैं उनके धर्म के खिलाफ बोल रहा हूं, मुझे क्या हक है कि मैं जरथुस्त्र के संबंध में बोलूं?
मैं
तुमसे कहता हूं: मेरे सिवाय किसी को हक नहीं है। पारसी घर में पैदा हो गए, इससे कोई
हक मिलता है? जरथुस्त्र को जैसा मैं जानता हूं, जैसा मैं पहचानता हूं, वैसा कोई पारसी घर में पैदा
हो जाने से थोड़े ही पहचान लेगा। ये कोई पैदाइश की बातें हैं? कोई जरथुस्त्र को खून और हड्डियों से पहचाना जाता है? मैं हकदार हूं, जरथुस्त्र पर कहूंगा। और जरथुस्त्र
को जिन्होंने गलत समझा है उनके संबंध में भी कहूंगा।
सिर्फ
एक महिला ने भर पत्र लिखा है कि मेरी बात सच है। और उसने लिखा है कि मैं जन्मजात
पारसी हूं और आप जैसी बात कहने वाले जितने ज्यादा लोग हों उतना मनुष्य-जाति का हित
हो सकता है।
लेकिन
बाकी लोगों ने एकदम गालियां दी हैं। तो मैंने जो जरथुस्त्र के साथ यह कहा था कि
पारसी बुद्धिमान हैं,
विचारशील हैं, जीवन को प्रेम करने वाले लोग
हैं, निषेधक नहीं हैं--सिर्फ एक महिला ने मेरी बात के अनुकूल
उत्तर दिया है। बाकी सब बड़ी चेष्टा में लगे हैं सिद्ध करने को मुझे गलत कि नहीं,
पारसी इतने बुद्धिमान नहीं जितना मैंने कहा, कि
आप गलत कहते हैं, कि कहां हम बुद्धुओं को आपने बुद्धिमान कह
दिया! सारे पत्रों के लिखने वाले इस कोशिश में लगे हैं कि मैंने जो पारसियों के
संबंध में कह दिया, वह गलत कह दिया।
बाहर
नहीं कोई सत्य है,
सत्य भीतर है। उसे परमात्मा कहो, उसे अग्नि
कहो, उसे जीवन कहो, उसे निर्वाण
कहो--उसे जो भी नाम देना हो दे दो--लेकिन वही है सत्य।
और
दरिया कहते हैं: लोग कुछ भी मानते रहें, दरिया झूठ सो झूठ है, सांच सो सांच!
विश्वासों
से मुक्त होना है और अनुभव की तलाश करनी है। सिद्धांतों से मुक्त होना है और
स्वानुभूति में उतरना है। चित्त को निर्विचार करना है। ये विचार के चश्मे हैं, जो हर चीज
को रंग देते हैं और हमारी देखने की क्षमता ही खो जाती है। जब चित्त निर्विचार होता
है तो वह नजर पैदा होती है जो आर-पार देख लेती है। और तब सत्य के सिवाय कुछ भी
नहीं बचता है। तब तुम जानते हो कालातीत को, समयातीत को। और
जिसने समयातीत को जाना, वह समयातीत हो जाता है। जिसने
कालातीत को जाना वह कालातीत हो जाता है। वह अमृत को उपलब्ध हो जाता है। वेद कहते
हैं: अमृतस्य पुत्रः! तुम अमृत के पुत्र हो।
मगर
मृत्यु को तुमने अपना सब कुछ मान रखा है, क्योंकि परिवर्तनशील को पकड़ कर
बैठे हो। परिवर्तनशील को छोड़ो और अपने भीतर उसको तलाशो जो कभी नहीं बदलता। तुम्हारे
भीतर क्या है जो नहीं बदलता? शरीर तो रोज बदलता है, मन तो प्रतिपल बदलता है। हृदय तो और भी जल्दी बदलता है। ये तीन तुम्हारी
पर्तें हैं। और इन तीन के पार तुम्हारा जाग्रत चैतन्य है, तुम्हारा
होश है। वह होश कभी नहीं बदलता। तुम जब बच्चे थे, तब भी वही
होश था। फिर तुम जवान हुए, तब भी वही होश है। बूढ़े हो जाओगे,
तब भी वही होश है। जीते जी भी वही होश है; और
काश तुम मरते क्षण भी उस होश को सम्हाले रहो, फिर तुम्हारी
कोई मृत्यु नहीं है। फिर तुम उस सूत्र को पकड़ लिए, जो मिटता
ही नहीं।
एक
ही चीज शाश्वत है,
वह चैतन्य है। वही है सच्चिदानंद। उसकी ही तलाश करनी है। उसकी ही
तलाश में सारा जीवन लगा देना है।
दूसरा प्रश्न: भगवान,
मैं एक कवि हूं और राजनीति में भी हूं। मेरा वास्तविक धर्म क्या
है, यह मुझे बताएं।
राजेंद्र आग्नेय,
कवि
हो और राजनीति में हो,
यह तो बड़ी उपद्रव की बात है। दोनों एक साथ कैसे हो सकोगे? दो नावों पर सवार। और नावें भी एक दिशा में जाती हुई नहीं; दो विपरीत दिशाओं में जाती हुई। कहां राजनीति और कहां काव्य! राजनीति से
ज्यादा काव्य-शून्य कोई जगत है? और राजनीति से शून्य काव्य
के अतिरिक्त क्या हो सकता है?
राजनीति
है बाहर की दौड़। राजनीति है दूसरे के ऊपर मालकियत। और काव्य है अपने अंतर में
ठहरना और अपने अंतर की स्फुरणा को अभिव्यक्ति देना। राजनीति पर-निर्भर है; काव्य
स्व-निर्भर। इनका कहां तालमेल बिठाओगे? और अगर तुम दोनों में
हो तो एक ही बात पक्की समझो कि तुम्हारा काव्य झूठा है, राजनीति
ही सच्ची होगी।
जब
भी कोई आदमी पूछता हो कि मेरे पास एक हीरा है और एक पत्थर, दोनों में
से किसको बचाऊं, तो क्या समझेंगे हम? यही
समझेंगे कि इसको हीरे की परख नहीं। नहीं तो पत्थर और हीरे में बचाने का सवाल ही
कहां उठता है! अगर परख होती तो हीरा बचा ही लिया होता, पत्थर
फेंक ही दिया होता।
तुम
पूछते हो कि मैं राजनीति में भी हूं और कवि भी...।
यह
तो असंभव है। जब भी कोई व्यर्थ और सार्थक के बीच पूछता है किसको चुनूं, तो जान
लेना कि उसे अभी सार्थक दिखाई नहीं पड़ता। तुम्हारी कविता भी वैसी होगी जैसे
अटलबिहारी बाजपेयी की कविता। वे भी कविता करते हैं! तुकबंदी, उसको कविता समझते हैं। हैं पहुंचे हुए पुरुष! अटलबिहारी ब्रह्मचारी उनका
असली नाम होना चाहिए--अटलबिहारी बाजपेयी के बजाए। तुकबंदी कर लेते हैं। तुक्तक लिख
लेते हैं और उसको काव्य समझते हैं। तुकबंदी कोई भी लिख सकता है। तुकबंदी से कुछ भी
नहीं होता।
एक
प्रसिद्ध राजनेता और कवि एक बार वेश्यालय गए। होंगे तुम जैसे, या होंगे
अटलबिहारी ब्रह्मचारी जैसे। वेश्या युवती के पास जाकर वे लंबी-चौड़ी बातें करने लगे,
जैसी कि कवियों और राजनीतिज्ञों की आदत होती है। और दोहरी
बीमारी--कविता भी आए और राजनीति भी आए। डबल निमोनिया! बोले, प्रिये,
मैं तुम्हारे लिए आसमान के तारे तोड़ कर ला सकता हूं। युवती कुछ न
बोली, चुप रही। नेता जी फिर बोले, प्रिये,
मैं तुमसे सचमुच ही बहुत प्रेम करता हूं। मैं भी किसी मजनूं या
फरिहाद से कम नहीं। यदि कहो तो आज ही मैं भी ठेकेदार को एक दूध की नहर तुम्हारे घर
तक लाने का ठेका दे दूं, जैसा कि फरिहाद ने किया था। युवती
तब भी चुप रही। जब काफी देर तक भी युवती उनकी किसी बात का प्रत्युत्तर न दी,
तो नेता जी बोले, प्रिये, मैं तुम्हारे लिए जान भी दे सकता हूं। तुम जो भी करने को कहो, कर सकता हूं, मगर कुछ तो बोलो!
युवती
जो कि अब तक झल्ला चुकी थी,
बोली, नेता जी, तारे
तोड़ना हों तारे तोड़ो, नहर खुदवाना हो नहर खुदवाओ और जान देना
हो तो जान दे दो, मगर जो भी करना हो जल्दी करो, बाहर दूसरे ग्राहक इंतजार कर रहे हैं।
राजेंद्र
आग्नेय, ऐसे ही कवि मालूम होते हो।
सुना
मैंने, सेठ चंदूलाल मारवाड़ी की बेटी पंजाब घूमने गई थी। और वहां पंजाब के
प्रसिद्ध कवि सरदार विचित्तर सिंह के प्रेम में पड़ गई। और अंततः सरदार जी से ही
उसने विवाह कर लिया। सरदार जी जब पहली दफा अपनी ससुराल आए तो सास-ससुर, अन्य रिश्तेदारों ने कुंवर साहब कह कर उनका बहुत-बहुत सम्मान किया। जो
मिले वही कहे, कुंवर साहब! मगर कुंवर साहब सुनते ही उनको आग
लग जाए, आग्नेय हो जाएं! जो भी उन्हें देखता--आइए कुंवर साहब
आइए, पधारिए कुंवर जी, या कुंवर जी
स्नान के लिए चलिए, भोजन के लिए चलिए कुंवर साहब, आदि-आदि।
एक
दिन तो विचित्तर सिंह यह सब सहन करते रहे, मगर दूसरे दिन उनसे न रहा गया। और
गुस्से में आकर अपने ससुर चंदूलाल से बोले, बंद करिए यह
बकवास। यह क्या कुंवर साहब कुंवर साहब मचा रखा है? मैं सरदार
अवश्य हूं, किंतु इतना मूर्ख नहीं हूं कि जितना आपने समझ रखा
है। मैं कवि हूं। कु शब्द का उपयोग खराब चीजों के लिए किया जाता है--जैसे कुत्सित,
कुकर्म, कुरूप, कुगुरु,
कुदेव, कुख्यात। और सु शब्द का प्रयोग अच्छे
गुणों के लिए--जैसे सुशब्द, सुंदर, सुशील,
सुरम्य, सुभाषित, सुखद
इत्यादि। खयाल रखिए, यदि आपने मुझे अब एक बार भी आगे कुंवर
साहब कहा तो मैं आपकी लड़की को तलाक दे दूंगा!
चंदूलाल
भी हैं तो मारवाड़ी! बोले,
अरे सुंअर साहब, आप कैसी बातें कर रहे हैं!
राजेंद्र
आग्नेय, भैया राजनीति ही करो। काव्य कठिन पड़ेगा। काव्य के जगत में उतरना हो--और
मुझसे अगर पूछते हो--तो काव्य में उतरने का एक ही उपाय है, वह
ध्यान है। नहीं तो तुकबंदी ही रहेगी। सुंदर से सुंदर तुकबंदी भी आखिर तुकबंदी है।
अगर सच में काव्य में उतरना है तो पहले तो शांत बनो, मौन
बनो। इतने मौन बनो कि तुम्हारे भीतर से परमात्मा बोल सके। इतने चुप हो जाओ कि
तुम्हारी अपनी कोई वाणी ही न बचे, कि उसका झरना तुमसे बह
सके। तब काव्य पैदा होता है। तब सच्चा काव्य पैदा होता है।
तीसरा प्रश्न: भगवान,
महाकवि रवींद्रनाथ ने अपने मुक्ति-बोध को एक सुंदर गीत में
बांधा है--
वैराग्यसाधने मुक्ति, से आमार नय।
असंख्य बंधन मांझे महानंदमय
लभिब मुक्तिर स्वाद! एइ वसुधार
मृत्तिकार पात्रखानि भरि बारंबार
तोमार अमृत ढालि दिबे अविरत
नानावर्णगंधमय। प्रदीपेर मतो
समस्त संसार मोर लक्ष वर्तिकाय
ज्वालाये तुलिबे आलो तोमारि शिखाय
तोमार मंदिर मांझे।।
इंद्रियेर द्वार
रूद्ध करि योगासन, से नहे आमार।
ये किछु आनंद आछे दृश्ये गंधे गाने
तोमार आनंद रबे तार मांझखाने।।
मोह मोर मुक्ति उठिबे ज्वलिया,
प्रेम मोर भक्ति रूपे रहिबे फलिया।।
वैराग्य साधने से जो मुक्ति आती है वह मेरी मुक्ति नहीं है। मैं
तो असंख्य बंधनों के बीच ही अति आनंदपूर्ण मुक्ति का स्वाद लूंगा। इस पृथ्वी का
मृत्तिका पात्र ही बार-बार भर कर निरंतर तुम्हारे अनेक वर्ण और गंध से युक्त अमृत
को उंडेलेगा। दीपक के समान समस्त संसार मेरी लाख-लाख बत्तियों में तुम्हारी ही
शिखा में जला कर तुम्हारे ही मंदिर में प्रकाश करेगा।
इंद्रियों के द्वार को रुद्ध करने वाला जो योगासन है वह मेरा
मार्ग नहीं है। दृश्य, गंध और गान में जो कुछ भी आनंद है उसी के भीतर
तुम्हारा आनंद रहेगा। मोह मेरी मुक्ति के रूप में जल उठेगा। प्रेम मेरी भक्ति के
रूप में फला हुआ रहेगा।
भगवान, महाकवि के इस उदगार पर कुछ कहने की कृपा करें।
निखिलानंद,
रवींद्रनाथ
ने बहुत बार प्यारे वचनों को अभिव्यक्ति दी है--ऐसे वचनों को जो उन्हें ऋषियों के
बहुत निकट ले आते हैं;
ऐसे वचन जिनमें उपनिषदों का रस है; ऐसे वचन जो
कि कैसे वे बांध पाए यह चमत्कार है। क्योंकि ध्यान उन्होंने कभी साधा नहीं,
समाधि उन्होंने कभी जानी नहीं। लेकिन अति संवेदनशील व्यक्ति थे। उनकी
अति संवेदनशीलता उन्हें बहुत सत्य के निकट ले आई।
मगर
एक बात खयाल रहे,
सत्य के कितने ही निकट आ जाओ, लेकिन जब तक
सत्यमय ही नहीं हो जाते तब तक निकटता भी दूरी है। बिलकुल सत्य के पास भी बैठ जाओ,
सत्य तुममें झलकने भी लगे, झिलमिलाने भी लगे,
जैसे दर्पण में कोई तस्वीर बने, मगर दर्पण की
तस्वीर दर्पण की तस्वीर है। वह झील में बना चांद चांद नहीं है; बिलकुल चांद जैसा है। और कभी जब झील शांत होती है तो बहुत चांद जैसा होता
है। और कभी-कभी तो यूं हो सकता है कि चांद से भी सुंदर लगे।
रवींद्रनाथ
जैसे व्यक्ति को समझना जरा दुरूह है। दुरूह इसलिए कि वे झील के चांद हैं। कभी-कभी
तो असली चांद से भी ज्यादा सुंदर मालूम हो सकते हैं, क्योंकि झील का सौंदर्य भी
सम्मिलित हो जाता है। झील गहराई भी दे देती है और झील एक तिलिस्म भी दे देती
है--एक जादू! लेकिन झील का चांद बिलकुल चांद जैसा लग कर भी चांद नहीं है, केवल प्रतिच्छाया है।
काश
रवींद्रनाथ ध्यान में भी उतरे होते तो इतनी भी दूरी न रह जाती! यह करीब होने की
दूरी भी न रह जाती। यह करीब-करीब सत्य होना भी फासला है। और फासला एक पारदर्शी
दीवार का हो तो भी फासला है। तुम एक पक्षी के लिए कांच का पिंजड़ा बना सकते हो--ऐसा
पिंजड़ा कि उस पिंजड़े का कांच इतना पारदर्शी हो कि पक्षी को पता भी न चले कि मेरे
और आकाश के बीच में कोई दीवार है। इतना शुद्ध कांच हो सकता है, स्फटिक हो
सकता है, कि पक्षी को यूं लगे कि अब चाहूं तो अभी उड़ जाऊं।
ये सारे चांद, ये सारे तारे, यह सारा
आकाश खुला तो है, कहीं कोई सींकचे तो नहीं, कहीं कोई मेरे पैरों पर बंधन तो नहीं, कहीं कोई
दीवार तो नहीं। मगर जब भी उड़ेगा तभी पाएगा कि दीवार है। पारदर्शी है। तड़फड़ा कर गिर
पड़ेगा वहीं।
रवींद्रनाथ
और सत्य के बीच एक पारदर्शी दीवार रह गई--बस एक पारदर्शी दीवार। लेकिन उन्होंने
देख लिया पारदर्शी दीवार के पार जो चांदत्तारों का लोक है, उसकी झलक
उनमें है। इन वचनों से मैं राजी हो सकता हूं, बस थोड़ी-सी
शर्त मुझे रखनी पड़ेगी। पूरा-पूरा राजी नहीं हो सकता, बेशर्त
राजी नहीं हो सकता। ये वचन प्यारे हैं। और शायद ही कोई कवि इतने करीब आया है ऋषि
के जितने रवींद्रनाथ। इस सदी में दो व्यक्ति रवींद्रनाथ और खलील जिब्रान बहुत निकट
आए हैं। और एक तीसरा व्यक्ति माइकल नेमी भी करीब-करीब इतने ही निकट आ गया। इन तीन
व्यक्तियों को छोड़ कर इस सदी में किसी कवि ने ऐसी ऊंचाई नहीं ली। लेकिन ऋषि न हो
पाए, ध्यान की कमी रह गई। जो कहा वह प्यारा है।
वैराग्यसाधने
मुक्ति, से आमार नय।
"वैराग्य साधने से जो मुक्ति आती है वह मेरी मुक्ति नहीं।'
अब
मैं तुम्हें फर्क बताऊं,
कहां मेरा उनका फर्क हो जाएगा। अगर उन्होंने ध्यान भी साधा होता तो
वे कहते वैराग्य साधने से मुक्ति आती ही नहीं। अभी वे इतना तो मान रहे हैं कि
वैराग्य साधने से जो मुक्ति आती है वह मेरी नहीं है। वह मेरी नहीं है, यह तो सत्य है। मगर वैराग्य साधने से भी मुक्ति आती है, यह भ्रांति उनकी नहीं टूटी। इतना वे स्वीकार करते हैं कि वैराग्य साधने से
भी आती है, आई है, आती रही है; उसका इनकार नहीं है। यह जरूर वे कह रहे हैं कि वह मेरा मार्ग नहीं। मगर
मार्ग वह है, इसका अस्वीकार नहीं है। बस उतनी ही बात मेरे और
उनके बीच खलल हो जाती है। नहीं तो मैं बिलकुल राजी हो जाऊं।
वैराग्य
मेरा मार्ग भी नहीं है,
मगर इसलिए मेरा मार्ग नहीं है कि वैराग्य साधने से मुक्ति आती ही
नहीं। अगर आती हो तो मेरा मार्ग न हो, इससे क्या फर्क पड़ता
है? किसी का मार्ग हो सकता है। मगर वैराग्य साधने से मुक्ति
आती ही नहीं, क्योंकि वैराग्य राग का उलटा हो जाना है--राग
का शीर्षासन है। राग मिटता नहीं, केवल दमित हो जाता है। सड़ा
सकते हो अपने को, गला सकते हो अपने को। शरीर को सुखा सकते
हो। हड्डियों का पंजर रह जाए तो जरूर लगेगा कि राग समाप्त हो गया। लेकिन समाप्त
नहीं हुआ, फिर भोजन करो, फिर ठीक से
शरीर को जीवन-ऊर्जा दो, सारा राग वापस लौट आएगा।
वे
जो हिमालय की गुफाओं में बैठे हैं, फिर उन्हें लौटा लाओ बाजार में।
तुम चकित होओगे जान कर कि वे तुमसे ज्यादा बाजारू सिद्ध होंगे। क्योंकि तीस साल से
अगर उन्होंने दमन किया है तो तीस साल के रोग इकट्ठे हो गए हैं। वे तीस साल के रोग
बाजार में आकर एकदम से फूट पड़ेंगे। उनके पापों का घड़ा तुमसे कहीं ज्यादा भरा है।
तुम्हारा तो रोज-रोज खाली हो जाता है; उनका भरता ही रहा है,
तीस साल से इकट्ठा है। उनकी मवाद तो बहुत इकट्ठी हो गई है।
यह
बात तो प्यारी है--
वैराग्यसाधने
मुक्ति, से आमार नय।
रवींद्रनाथ
कहते हैं,
"वह मेरा मार्ग नहीं।' इससे तो मैं राजी
हूं, वह मेरा भी मार्ग नहीं। मगर मैं इतना और कहना चाहता हूं,
वह मार्ग ही नहीं है।
उन्होंने
कहा, "मैं तो असंख्य बंधनों के बीच ही अति आनंदपूर्ण मुक्ति का स्वाद लूंगा।'
लेकिन
लोगे कैसे? ले तो न सके। रवींद्रनाथ चिंताओं में जीए, परेशानियों
में जीए, अशांतियों में जीए। सत्कार सुख देता था, अपमान दुख देता था। किसी से प्रेम हो गया था; उससे
मिलना सुख, उससे न मिलना दुख। जीओगे कैसे आनंद से?
कहते
तो हो,
"मैं तो असंख्य बंधनों के बीच ही अति आनंदपूर्ण मुक्ति का
स्वाद लूंगा।'
तुम
लेना चाहते हो,
मगर लोगे कैसे? ध्यान के बिना वह तो संभव
नहीं। लिया जा सकता है। मैं भी कहता हूं, लिया जा सकता है।
कोई जरूरत कहीं भागने की नहीं है। सारे बंधनों के बीच में भी कोई मुक्त हो सकता है;
वही तो मेरा संन्यास है। संसार के बीच में भी कोई अछूता रह सकता है।
यह संसार की कालिख की कोठरी, यह काजल की कोठरी; इससे गुजरा भी जा सकता है और वस्त्र बिलकुल ही स्वच्छ रह सकते हैं,
कहीं धब्बा भी न लगे, दाग भी न लगे। कबीर ने
कहा न: खूब जतन से ओढ़ी रे कबीरा, ज्यों की त्यों धर दीन्हीं
चदरिया! इतने जतन से!
मगर
वह जतन रवींद्रनाथ के पास नहीं है। उसी जतन का नाम ध्यान है। वह यत्न, वह साधना,
वह रवींद्रनाथ के पास नहीं है। रवींद्रनाथ कभी किसी सदगुरु के पास
नहीं बैठे, किसी सत्संग में नहीं बैठे। रवींद्रनाथ ने जो भी
कहा है, संवेदनशील है, मगर सत्यानुभव
नहीं। बहुत करीब आ गया, लेकिन फिर भी बस करीब ही अटका रह
गया। आ-आ कर भी अटका रह गया। जैसे कोई सीढ़ियों से चढ़ा और आखिरी सोपान पर बैठ गया,
लेकिन छत पर न पहुंचा सो न पहुंचा।
"मैं तो असंख्य बंधनों के बीच ही अति आनंदपूर्ण मुक्ति का स्वाद लूंगा।'
बात
तो प्यारी है,
जरूर लो। मगर लोगे कैसे? उसकी विधि कहां?
असंख्य
बंधन मांझे महानंदमय
लभिब
मुक्तिर स्वाद! एइ वसुधार
मृत्तिकार
पात्रखानि भरि बारंबार
तोमार
अमृत ढालि दिबे अविरत
नानावर्णगंधमय।
प्रदीपेर मतो
समस्त
संसार मोर लक्ष वर्तिकाय
ज्वालाये
तुलिबे आलो तोमारि शिखाय
तोमार
मंदिर मांझे।।
"इस पृथ्वी का मृत्तिका पात्र ही बार-बार भर कर निरंतर तुम्हारे अनेक वर्ण
और गंध से युक्त अमृत को उंडेलेगा।'
बात
तो अच्छी है,
स्वादिष्ट, सुंदर; मगर
कैसे कर सकोगे यह? इस मिट्टी के पात्र में अमृत भरोगे कहां
से? इस मिट्टी के पात्र में अमृत को भर कर परमात्मा के चरणों
पर चढ़ाने की आकांक्षा शुभ है, मगर शुभ आकांक्षाओं से ही तो
नर्क का रास्ता पटा पड़ा है। सिर्फ आकांक्षा से कुछ नहीं होता। आकांक्षा को आकार
कैसे दोगे? उसकी कीमिया कहां है?
रवींद्रनाथ
ने कहीं ध्यान और समाधि की तो कोई बात की नहीं। अमृत कहां से लाओगे? मिट्टी का
पात्र तो ठीक है, सबके पास है, मगर
अमृत कहां से लाओगे? ध्यान के बिना कभी कोई अमृत को पा सका
है? अमृत तुम्हारे भीतर है, मगर खोजोगे
कैसे? खोजने की विधि ही तो ध्यान है।
इसलिए
इस कविता में--इस प्यारी कविता में--अगर तुम ध्यान जोड़ दो, इसकी
पृष्ठभूमि में अगर तुम समाधि को खड़ा कर दो, तो मैं इससे
पूरा-पूरा राजी हूं। मगर अगर समाधि की पृष्ठभूमि न हो तो ये सुंदर वचन हैं,
प्यारे वचन हैं--मगर अर्थहीन, निष्प्राण।
कहते
हैं, "दीपक के समान समस्त संसार मेरी लाख-लाख बत्तियों में तुम्हारी ही शिखा में
जला कर तुम्हारे ही मंदिर में प्रकाश करेगा।'
लेकिन
वह मंदिर कहां?
अभी उस परम शिखा से पहचान कहां? कह तो रहे हो,
लेकिन यह उड़ान है कविता भी। और कभी-कभी कवि बहुत ऊंची उड़ान ले लेता
है। लेकिन यह उड़ान सिर्फ कल्पना की है, यह सत्य का अनुभव
नहीं। और कल्पना कल्पना है--सांच सांच सो सांच।
इंद्रियेर
द्वार
रूद्ध
करि योगासन, से नहे आमार।
"इंद्रियों के द्वार को रुद्ध करने वाला जो योगासन है वह मेरा मार्ग नहीं।'
फिर
वही बात--मेरा मार्ग नहीं है। लेकिन योगासन से भी मिलता है, उससे भी
लोगों ने पाया है--इसका इनकार नहीं है। मैं तुमसे कहता हूं, लाख
तुम योगासन करो, नहीं पाओगे। हां, कुछ
और पाओगे। स्वास्थ्य पाओगे। कम बीमार होओगे। ज्यादा लंबे जीओगे। मगर ज्यादा लंबे
जीकर भी क्या करोगे? जीओगे तो यही जीवन, यही गलत जीवन। यह तो कम ही जीना अच्छा है। इसको लंबा जीकर और गलतियां
बढ़ाओगे। स्वस्थ रहोगे माना, मगर स्वस्थ रह कर करोगे क्या?
और शराब पीओगे। और जुआ खेलोगे। और वेश्यागमन करोगे। और करोगे क्या?
योगासन
तुम्हें स्वास्थ्य दे सकता है, लंबी आयु दे सकता है, इसमें
कोई दो मत नहीं हैं। क्योंकि सुंदर व्यायाम है; मगर व्यायाम
शरीर के पार नहीं जाता। शरीर को मोड़ो-मरोड़ो, ऐसा झुकाओ,
वैसा झुकाओ। स्वभावतः शरीर लोचपूर्ण रहेगा, ज्यादा
दिन तक युवा रहेगा। मगर युवा होने का करोगे क्या? कुछ न कुछ
गलत ही तो करोगे। ठीक करने की दृष्टि कहां से आ जाएगी? क्या
तुम सोचते हो योगासन करने से सम्यक दृष्टि का जन्म होगा? वह
संभव नहीं है।
और
भारत योगासन के नाम पर खूब भटक गया है, खूब भरमाया हुआ है। कोई नाक पर एक
अंगुली लगाए हुए सांसें ले रहा है, कोई सिर के बल खड़ा हुआ
है। कोई यह बंध साध रहा है, कोई वह बंध साध रहा है, और जिंदगी उनकी इसी में बीत रही है--बंधों के साधने में। और मुक्ति कब
साधोगे? ये बंध ही बंध साधते रहोगे! यह देह तो चली जाएगी।
फिर चाहे योगासन से पुष्ट हुई हो, चाहे दंड-बैठक से पुष्ट
हुई हो और चाहे पाश्चात्य ढंग के व्यायाम से पुष्ट हुई हो, यह
देह तो चली जाएगी। इस देह के साथ सब योगासन भी चला जाएगा। कुछ साधो जो मौत के पार
तुम्हारे साथ चलेगा!
तो
रवींद्रनाथ यह बात तो ठीक कहते हैं कि इंद्रियों के द्वार को रुद्ध करने वाला जो
योगासन है वह मेरा मार्ग नहीं है। मगर क्या वह मार्ग है? इतना साहस
नहीं जुटा पाते कहने का। वह दुर्दम्य साहस नहीं है। इसलिए रवींद्रनाथ को भारत में
कोई अप्रतिष्ठा नहीं मिली, सम्मान ही सम्मान मिला। मैं भी
यही कह रहा हूं, लेकिन एक शर्त है मेरी कि जो गलत है उसको
गलत भी कह रहा हूं। मेरे सामने यह बात बहुत साफ है कि जब तक गलत को गलत न कहा जाए,
सही को बताया ही नहीं जा सकता।
मुझसे
लोग पूछते हैं कि मैं क्यों किसी की आलोचना करता हूं?
मुझे
कुछ लेना-देना नहीं। मुझे कुछ रस नहीं किसी की आलोचना में। लेकिन जब तक गलत को गलत
न कहा जाए, सही को उभार कर बताया नहीं जा सकता। असार को असार न कहा जाए, सार को पहचाना नहीं जा सकता। रात के अंधेरे में ही तारे उभर कर प्रकट होते
हैं। काले तख्तों पर ही सफेद खड़िया से लिखते हैं, तब दिखाई
पड़ता है। तो पहले मैं गलत को कहना चाहता हूं, ताकि काला
तख्ता बने। तब फिर सफेद खड़िया से उस पर अक्षर उभारे जा सकते हैं।
लेकिन
रवींद्रनाथ ने गलत को कभी गलत नहीं कहा। कह भी नहीं सकते थे। उसका कोई अनुभव भी
नहीं था। यह कवि की उड़ान है। कभी-कभी तीर लग जाता है। लग गया तो तीर, नहीं लगा
तो तुक्का। सौ कविताओं में एक कविता कभी-कभी सत्य के करीब पहुंच जाती है।
कहते
हैं, "दृश्य, गंध और गान में जो कुछ भी आनंद है उसी के
भीतर तुम्हारा आनंद रहेगा।'
मगर
उसके पार भी बहुत है!
इंद्रियेर
द्वार
रूद्ध
करि योगासन, से नहे आमार।
ये
किछु आनंद आछे दृश्ये गंधे गाने
तोमार
आनंद रबे तार मांझखाने।
माना
कि दृश्य में भी आनंद है और गंध में भी और गान में भी, मगर ये
कुछ भी नहीं हैं उस आनंद के मुकाबले जो अदृश्य में है। जो गंध शून्य में है,
यह कुछ भी नहीं है उसके आगे। जहां सब शब्द खो जाते हैं, जहां गीत विलीन हो जाते हैं, जहां वीणा की झंकार भी
नहीं उठती, जहां सन्नाटा पूर्ण है, जहां
शून्य समग्र है--उसके सामने ये सब गंध, ये सब गीत, ये सब नृत्य, सब फीके पड़ जाते हैं। और जिसने उसे
जाना है उसके गीत में भी वह होता है। जिसने उसे जाना है, गीत
की तो क्या कहो, उसके उठने-बैठने में भी वह होता है। जिसने
उसे जाना है, उसकी पलक भी झपकती है तो वह होता है; उसकी आंख में वह होता है। वह जादू उसे घेरे ही रहता है।
रवींद्रनाथ
को उसका तो पता नहीं। अदृश्य को तो देखा नहीं तो दृश्य में क्या मजा मिलेगा? जब तक फूल
में तुम्हें फूल की आत्मा न दिखाई पड़ जाए, तब तक तुम ज्यादा
से ज्यादा फूल के रंगों की चर्चा कर सकते हो, गंधों की चर्चा
कर सकते हो। लेकिन परमात्मा भी फूल में मौजूद है, भगवत्ता भी
मौजूद है, उसकी चर्चा नहीं कर सकते। हां, यूं कल्पना चाहो तो कर सकते हो। लेकिन कल्पना तो आरोपण है, प्रक्षेपण है।
"मोह मेरी मुक्ति के रूप में जल उठेगा।'
मगर
तुम्हारी मुक्ति आएगी कहां से? वह अग्नि कहां से लाओगे जिसमें मोह भभक उठे और
जल उठे? उस अग्नि की तो कमी ही रह गई। इसलिए रवींद्रनाथ मरते
समय भी आनंदित नहीं मरे, दुखी थे, विषादपूर्ण
थे। विषाद था यही कि जो मुझे गाना था, गा नहीं पाया। जो मुझे
कहना था, कह नहीं पाया। यह बात तो वही है, अगर सच पूछो तो कुछ भेद नहीं।
एंड्रू
कारनेगी मरते वक्त दुखी था,
क्योंकि जितना कमाना चाहता था, नहीं कमा पाया।
दस अरब रुपया छोड़ कर मरा, लेकिन उसके इरादे सौ अरब रुपए
कमाने के थे। नब्बे अरब की कमी भारी कमी है, कोई थोड़ी कमी
नहीं। हार ही हो गई समझो--दस अरब। अरे, दस कौड़ी के बराबर हो
गए। कहां नब्बे अरब और कहां दस अरब! अभी नौ गुना और होना था। एंड्रू कारनेगी पर
तुम हंसोगे, क्योंकि वह कहता है कि मैं पूरा जो कमाना चाहता
था, नहीं कमा पाया।
रवींद्रनाथ
ने छह हजार गीत लिखे,
दुनिया में किसी कवि ने इतने गीत नहीं लिखे। पश्चिम में शैली को
महाकवि कहा जाता है, क्योंकि उसने दो हजार गीत लिखे। पश्चिम
में उससे ज्यादा गीत किसी ने भी नहीं लिखे। रवींद्रनाथ ने उसको तीन दफे पछाड़ दिया,
छह हजार गीत लिखे। और शैली के दो हजार गीत सभी संगीत में छंदबद्ध
नहीं हो सकते। रवींद्रनाथ के छह हजार गीत ही संगीत के मात्रा-छंद के अनुकूल हैं,
वे सब संगीत में बंध सकते हैं। इसलिए रवींद्र-संगीत एक अलग ही विधा
हो गई। उनके गीत सब संगीत में बंध सकते हैं। तो बंगाल में रवींद्र-संगीत एक अलग
आयाम ही बन गया।
लेकिन
रवींद्रनाथ छह हजार गीत,
अदभुत गीत लिख कर भी मरते तो विषाद में ही हैं। वह विषाद एंड्रू
कारनेगी से बहुत भिन्न नहीं है, वही का वही है। हालांकि
रवींद्रनाथ की बात पर तुम न हंसोगे। एंड्रू कारनेगी की बात तुम्हारी समझ में आती
है कि क्या करोगे, सौ अरब रुपए भी होते तो क्या करते,
दस अरब में क्या कर लिया?
एंड्रू
कारनेगी चपरासी की तरह जीया और चपरासी की तरह मरा। सच तो यह है कि चपरासी भी दफ्तर
में बाद में पहुंचते थे,
एंड्रू कारनेगी उनके एक घंटे पहले पहुंच जाता था। एंड्रू कारनेगी के
दफ्तर का यह हिसाब था कि दफ्तर खुले दस बजे तो एंड्रू कारनेगी नौ बजे। दस बजे
चपरासी पहुंचें, ग्यारह बजे क्लर्क पहुंचें, बारह बजे मैनेजर पहुंचें, एक बजे डायरेक्टर पहुंचें;
तीन बजे डायरेक्टर नदारद, चार बजे मैनेजर
नदारद, पांच बजे क्लर्क नदारद, फिर
चपरासी नदारद--और एंड्रू कारनेगी सात बजे तक बैठा है। यह तो चपरासी से भी बदतर
हालत हो गई। और जब दस अरब में यह हालत हो गई तो सौ अरब में क्या हालत होती,
जरा सोचो! फिर तो रात को भी घर लौटने वगैरह का सवाल नहीं था। यह कहा
जाता है एंड्रू कारनेगी को फुर्सत नहीं मिलती थी पत्नी से बात करने की, बच्चों से बात करने की। फुर्सत कहां से मिले?
रवींद्रनाथ
पर तुम न हंसोगे,
लेकिन बात वही की वही है। वही अहंकार की दौड़। सूक्ष्म हो गई,
बहुत बारीक हो गई, बड?ी
नाजुक हो गई, मगर विषाद है मन में कि मैंने जो गीत गाए,
पर्याप्त नहीं, और गाने थे। जो गाना था,
अभी गा नहीं पाया। कहते हुए मरे कि अभी तो मैं साज ही बिठा पाया था,
अभी गीत शुरू ही कहां हुआ था, और तूने मुझे
उठा लिया!
आनंद
से कैसे जीओगे?
तुम्हारा मोह कैसे मुक्ति के रूप में जल उठेगा? यह मोह तो अभी भी बना है! गीत से बंधा हुआ है मोह--और-और गीत, और-और गीत! कहानियां लिखीं, नाटक लिखे, उपन्यास लिखे--और-और! और की दौड़ संसार है। वही मोह है। कहते तो हो कि मेरा
मोह मेरी मुक्ति के रूप में जल उठेगा, मगर ध्यान की अग्नि हो
तो जरूर मोह जल उठता है। मोह छोड़ना नहीं पड़ता, यूं जल उठता
है जैसे मंदिर में धूप जलती है। सुगंधित हो उठता है।
कहते
हैं, "मेरा प्रेम मेरी भक्ति के रूप में फला हुआ रहेगा।'
बातें
तो प्यारी, बस बातें ही लेकिन। भीतर कुछ भी नहीं है। जिस प्रेम में रवींद्रनाथ जीए,
वह वही प्रेम है--आसक्ति, मोह,र् ईष्या, वैमनस्य--वही प्रेम। वही--थोड़ा सुसंस्कृत,
थोड़ा निखरा हुआ, थोड़ा चमकता हुआ--मगर वही।
उसमें कुछ भेद नहीं है। भेद हो भी नहीं सकता। तुम पत्थर को कितना ही निखारो और
कितना ही साफ करो, रहेगा तो पत्थर ही।
कंचन
कंचन ही सदा,
कांच कांच सो कांच।
दरिया
झूठ सो झूठ है,
सांच सांच सो सांच।।
आज इतना ही।
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