है इसका कोई उत्तर—प्रवचन-छट्ठवां
दिनांक 06 दिसम्बर सन् 1980 ओशो आश्रम पूना।
पहला प्रश्न: भगवान,
न जातु कामात् न भयात् न लोभात्
धर्म त्यजेत
जीवितस्यापि हेतोः।
धर्मो नित्यः सुखदुःखे त्वनित्ये
जीवो
नित्यो हेतुर अस्य त्वनित्यः।।
अपनी किसी इच्छा की तृप्ति के लिए, भय से, लोभ से या प्राणों की रक्षा के विचार से भी
धर्म को न छोड़ना चाहिए। धर्म नित्य है और सुख-दुख थोड़े समय के हैं। आत्मा नित्य है,
शरीर नश्वर है।
भगवान, कृपा कर इस सूत्र पर
कुछ कहें।
सहजानंद,
धर्म वह है जो तुम छोड़ना भी चाहो तो छोड़ न सको। जो छूट जाए, छोड़ा जा सके, वह धर्म नहीं है, मजहब है। और धर्म और मजहब में भेद को ठीक से समझ लेना।
धर्म का अर्थ है: स्वभाव। और मजहब का अर्थ है: जो तुम्हारे स्वभाव पर
दूसरों ने आरोपित किया। हिंदू होना धर्म नहीं; मुसलमान, जैन, ईसाई, बौद्ध, ये सब मजहब हैं, संप्रदाय हैं, संस्कार हैं। ये छोड़े जा सकते हैं क्योंकि पकड़े गए हैं। जो पकड़ा गया है वह
छोड़ा जा सकता है। धर्म तो तुम्हारी आत्मा का स्वभाव है; छोड़ना
भी चाहो तो छोड़ नहीं सकते।
इसलिए यह सूत्र बुनियादी रूप से गलत है, आधारभूत रूप से गलत
है। इस सूत्र का मौलिक संदेश है कि धर्म को छोड़ना नहीं चाहिए। और मैं तुमसे कहता
हूं: धर्म वही है जो छोड़ा नहीं जा सकता, पकड़ा भी नहीं जा
सकता। फिर धर्म के साथ क्या किया जा सकता है? भूला जा सकता
है, याद किया जा सकता है। विस्मृत कर सकते हो, स्मरण में ला सकते हो।
इसलिए बुद्ध ने कहा: सवाल केवल स्मृति का है, सम्यक स्मृति का है, सम्मासति। महावीर ने कहा: सवाल केवल
सम्यक ज्ञान का है। कहीं कुछ गया नहीं, कहीं कुछ खोया
नहीं--सिर्फ बोध। सो गए हो तुम, जागने की बात है। जागते ही
पा लोगे। और पाओगे उसी को जिसे सोते में भी खोया नहीं था लेकिन भूल गए थे। जैसे
शराब के नशे में कोई भूल जाए कि मैं कौन हूं, कि मेरा घर
कहां है, बस ऐसी ही बात है।
धर्म केवल विस्मृत होता है; उसकी सुरति जगानी है।
हां, मजहब पकड़े जाते हैं और मजहब छोड़े जाते हैं। भूल कर भी
मजहब को धर्म का पर्यायवाची मत समझना। अंग्रेजी का शब्द रिलीजन, उर्दू का शब्द मजहब, दोनों ही धर्म का अनुवाद नहीं
हैं। धर्म का तो सिर्फ चीनी भाषा में अनुवाद हो सकता है और वह शब्द है: ताओ। ताओ
का अर्थ होता है: धर्म, स्वभाव, स्वरूप।
इस सूत्र का आधार गलत है और फिर उस आधार पर खड़ा हुआ पूरा भवन भी गलत
है। यद्यपि यह सूत्र इतना जाना-माना है, इतने बार
सदियों-सदियों में दोहराया गया है कि करीब-करीब सभी को इसका पता है और तुमने शायद
ही इस भांति कभी सोचा हो कि यह सूत्र गलत हो सकता है। बहुत बार दोहराने से झूठ भी
सच मालूम होने लगते हैं। विज्ञापन की यही तो सारी कला है।
न जातु कामात् न भयात् न लोभात्
धर्म त्यजेत
जीवितस्यापि हेतोः।
धर्मो नित्यः सुखदुःखे त्वनित्ये
जीवो
नित्यो हेतुर अस्य त्वनित्यः।।
"अपनी किसी इच्छा की तृप्ति के लिए, भय से, लोभ से या प्राणों की रक्षा के विचार से भी
धर्म को न छोड़ना चाहिए।'
फिर धर्म को लोग पकड़ते क्यों हैं? इच्छा की तृप्ति के
लिए ही पकड़ते हैं। आखिर स्वर्ग में कल्पवृक्षों की क्या जरूरत है? स्वर्ग में सुंदर अप्सराओं की क्या आवश्यकता है? स्वर्ग
में शराब के चश्मे बहाने का क्या प्रयोजन है? तुम्हारे लोभ
को जगाना। तुम्हारे लोभ की अग्नि में घी डालना, उसे
प्रज्वलित करना।
तुम्हारा तथाकथित जो धर्म है--तथाकथित ही कह रहा हूं, वह धर्म नहीं है--लोभ पर ही खड़ा है। परलोक में खूब सुख मिलेंगे; अगर थोड़े-से दुख भी यहां झेलने पड़ें तो झेल लो। सौदा करने जैसा है। सौदा
ही कहना ठीक नहीं, लाटरी है। पंडित-पुरोहित समझाते हैं: यहां
एक दोगे, वहां करोड़ गुना पाओगे। लाटरी और क्या है? मगर असली सवाल पाने का है। पाना है तो छोड़ो। भोगना है तो त्यागो।
तपश्चर्या किसलिए है? और जिंदगी तो चार दिन की है, यूं ही चली जाएगी। चार दिन की जिंदगी में तपश्चर्या कर लो थोड़ी, तो फिर नित्य आनंद की उपलब्धि होगी।
लोभ का और क्या अर्थ हो सकता है? तो तुम कामना की
तृप्ति के लिए ही तो धर्मों को पकड़े हुए हो, मजहबों को जकड़े
हुए हो। और भय से भी, कि कहीं नर्क में न पड़ना पड़े। आखिर
नर्कों की ईजाद किसलिए की गई है? तुम्हें डराने, भयभीत करने के लिए। बचपन से ही तुम भयभीत किए जा रहे हो। मां-बाप को अगर
रोकना होता है तुम्हें कि तुम चौके में न चले जाओ, कहीं मिठाइयां
न खा लो, तो कह देते हैं कि अंधेरे में चौके में मत जाना,
वहां भूत हैं। बस भूत का खयाल बैठ जाए तो बच्चा चौके से बच कर
निकलेगा, डरा रहेगा, घबड़ाया रहेगा।
हम भयभीत करते हैं बचपन से ही। और वही भय बड़ों को छाया हुआ है--चोरी
मत करो, बेईमानी मत करो, नहीं तो नर्क
में सड़ोगे। नर्क की अग्नि में कढ़ाहे चढ़े हुए हैं, तुम्हारी
प्रतीक्षा कर रहे हैं, तेल उबल रहा है। यहां तेल की कमी हुई
जा रही है और वहां कढ़ाहे चढ़े ही हैं अनंत काल से। कितना तेल न जला डाला होगा! और
प्रयोजन क्या है? आदमियों को जैसे भजिया, पकौड़ा समझा जा रहा है, उनको तेल में चुड़ाया जा रहा
है! यह व्यवस्था किसलिए है? तुम भयभीत हो जाओ। तुम भयभीत हो
जाओ नर्क से और स्वर्ग के लोभ से भर जाओ, तो फिर तुम हिंदू
हो जाओगे, मुसलमान हो जाओगे, ईसाई हो
जाओगे, जैन हो जाओगे। फिर तुम्हें कोई भी बनाया जा सकता है।
फिर तुम्हें आदमी क्या मुर्गा बनाया जा सकता है। और मुर्गे लोग बना दिए गए हैं।
तुम्हें पता ही नहीं चलता कि तुमको किस तरकीब से मुर्गा बना दिया गया है।
चंदूलाल का बेटा टिल्लू स्कूल से लौटा। पहले ही दिन। और अपनी मां से
बोला, मां, गजब का स्कूल है! मास्टर
भी अदभुत हैं! अरे साधारण मास्टर नहीं हैं, जादूगर हैं!
मां ने कहा, तुझे कैसे पता चला कि जादूगर हैं?
तो टिल्लू गुरु ने कहा कि पता कैसे चला! उन्होंने कहा कि कल अगर सबक
याद करके न लाए तो मुर्गा बना दूंगा।
मगर यह जादू पंडित-पुरोहित कर ही रहे हैं: लोगों को मुर्गा बनाया हुआ
है। लोगों की बलि चढ़ाई जा रही है, मुर्गे काटे जा रहे हैं। और फिर
भी मजा यह है कि कहा जाता है: "अपनी किसी इच्छा की तृप्ति के लिए या भय से या
लोभ से धर्म को मत छोड़ना।' तो धर्म को पकड़ोगे ही किसलिए?
जिसकी कोई इच्छा नहीं, जिसका कोई भय नहीं,
जिसका कोई लोभ नहीं, वह पकड़ेगा ही क्यों?
क्यों होगा हिंदू, क्यों बनेगा जैन, क्यों बनेगा सिक्ख? किस कारण? क्या
प्रयोजन? अपने में जीएगा। अपनी मस्ती में जीएगा। अपने आनंद
में मग्न होगा। अपने ध्यान में डूबेगा। अपनी तलाश करेगा। क्यों पकड़ेगा शास्त्रों
को? क्यों शास्त्रों का कचरा ढोएगा?
ये कचरे जैसे सूत्र, मगर इनको लोग ढो रहे हैं।
और देखते हो, कैसी गजब की बातें कही जाती हैं और कैसे हैं अंधे लोग
कि मान लेते हैं! प्राणों की रक्षा के विचार से भी धर्म को न छोड़ना चाहिए। क्यों?
क्योंकि धर्म नित्य है और सुख-दुख थोड़े समय के हैं।
तो लोभी कौन है? जो सुख-दुख को पकड़ रहा है वह
लोभी है या जो सुख-दुख को छोड़ कर नित्य आनंद की आकांक्षा में धूनी रमाए बैठा है वह
लोभी है? लोभी कौन है? सांसारिक लोग
लोभी हैं या तुम्हारे महात्मा लोभी हैं, तुम्हारे ऋषि-मुनि
लोभी हैं? लोभी कौन है? थोड़े को जो
पकड़े है वह लोभी! और ज्यादा को जो पकड़ रहा है वह त्यागी! कुछ तो गणित का खयाल करो।
कुछ तो हिसाब सोचो। इस समय के सागरत्तट पर जो कंकड़-पत्थर बीन रहा है वह भोगी! और
जो हीरे-जवाहरातों की खोज में निकला है वह त्यागी!
और यह सूत्र यही कह रहा है कि धर्म नित्य है और सुख-दुख तो थोड़े समय
के हैं, अरे झेल लो! दो दिन की बात है, गुजार
लो। धैर्य रखो। जरा संयम साधो। फिर अनंत काल तक सुख भोगना। अप्सराएं नाचेंगी,
गंधर्व संगीत बजाएंगे, देवी-देवता सेवा
करेंगे। और कल्पवृक्ष के नीचे बैठ कर जो भोगना हो सो भोगना। जो मांगोगे, मांगोगे ही नहीं कि तत्क्षण मिल जाएगा।
मैं तो कहूंगा: जो व्यक्ति मोक्ष की आकांक्षा से धर्म को पकड़ता है वह
आदमी महा लोभी है। धर्म न तो मोक्ष की आकांक्षा है न स्वर्ग की, न नर्क का भय। फिर धर्म क्या है? धर्म तो अपने में
रमना है। धर्म तो अपने स्वभाव में डूबना है। और जो अपने स्वभाव में डूबा उसने जान
लिया सब, जो जानने योग्य है; पा लिया
सब, जो पाने योग्य है। वह इस संसार में भी आनंद से जीता है
और उस संसार में भी। इस और उस का सवाल नहीं है। वह जहां रहे वहीं आनंद से जीता है।
वह नर्क में भी रहे तो उसके पास वसंत के फूल ही खिलते रहेंगे। उसे तुम कढ़ाहों में
भी चुड़ाओगे तो भी वह ध्यान में मग्न रहेगा, कुछ भेद न पड़ेगा।
सिकंदर महान जब भारत से वापस लौटता था तो उसे याद आया कि उसके गुरु
अरिस्टोटल ने कहा था कि जब तुम भारत से वापस लौटो तो एक संन्यासी को लेते आना, मुझे संन्यासी देखना है; संन्यास क्या है, मैं समझना चाहता हूं। सीमा पर उसे याद आई, जब वह
भारत छोड़ रहा था। लूट-पाट तो उसने बहुत की थी, धन के बहुत
अंबार, हीरे-जवाहरात घोड़ों-हाथियों पर, ऊंटों पर लदे थे। उसे याद आया, एक संन्यासी को और
पकड़ ले चलूं। सोचा था जैसी और लूट, ऐसा ही एक संन्यासी पकड़
लूंगा। और संन्यासी उसने भारत में कई जगह देखे थे, तो कहीं
भी मिल जाएंगे। उसने पूछा कि यहां गांव में कोई संन्यासी है? लोगों ने कहा, हां है और बड़ा संन्यासी है! सच में
जिसको संन्यासी कहें वैसा संन्यासी है। नदी के तट पर, वृक्ष
के नीचे रहता है। आप चले जाएं।
सिकंदर गया और सिकंदर ने कहा कि तुम्हें मेरे साथ चलना होगा। तुम्हें
शाही सम्मान मिलेगा। और अगर तुमने इनकार किया, ध्यान रहे, तो यह तलवार देखते हो मेरे म्यान में, यह निकलेगी और
गर्दन काट देगी।
सिकंदर के इतिहास को लिखने वालों ने उस संन्यासी का नाम दंदामिस लिखा
है। यह यूनानी रूपांतरण होगा किसी भारतीय नाम का। दंदामिस हंसा और उसने कहा, फिर देर क्या? अरे तो निकाल तलवार! अरे तो काट सिर!
ऐसी बात तो सिकंदर ने कभी सुनी ही न थी। सिकंदर ने कहा कि तुम होश में
हो? सिर काटूंगा, मर जाओगे।
दंदामिस ने कहा, जिसको तू मारेगा उसे तो मैं मरा
हुआ बहुत समय पहले जान चुका हूं। यह देह तो मिट्टी है। घड़ा टूट जाएगा, टूटना ही है; आज टूटा कल टूटा, क्या फर्क पड़ता है! रही मेरी बात, सो मुझे तू न काट
पाएगा। और अच्छा ही हुआ कि तू आ गया। तू भी देखेगा इस सिर को गिरते हुए और मैं भी
देखूंगा। और दुखी मत होना कि यह तूने क्या किया। अरे मैं भी हंसूंगा, सिर गिरेगा, तू मेरी खिलखिलाहट सुनेगा।
कंप गया सिकंदर। संन्यासी ने कहा कि मैं चल सकता था, लेकिन यह संन्यासियों को निमंत्रित करने का ढंग नहीं है। तलवार की भाषा तू
मुझसे बोल रहा है! नहीं जाऊंगा। अब जो तुझे मर्जी हो, कर।
मेरे साथ भय और लोभ की भाषा नहीं बोली जा सकती।
सिकंदर समझा कि बात गलत हो गई। ऐसा आदमी ही उसे न मिला था इसके पहले, तो इस तरह के आदमी से बात किस भाषा में करनी यह भी उसे पता न था। उसने कहा,
मुझे क्षमा करें। मैं आपके इस रूप को देख कर आह्लादित हूं। आप पहले
आदमी हैं जो भय और लोभ से परे मालूम पड़ते हैं। लोभ मैंने दिया शाही सम्मान का,
भय मैंने दिया मृत्यु का; दोनों का कोई परिणाम
नहीं। आप न चलें तो इतना करें, कम से कम किसी अपने एक शिष्य
को भेज दें।
कुछ शिष्य दंदामिस के पास बैठे थे। दंदामिस ने चारों तरफ देखा और
कल्याण स्वामी नाम के एक संन्यासी को कहा, कल्याण, तू चला जा।
कल्याण ने कहा, जैसी मालिक की मर्जी। ऐसे भी मुझे जाना है।
सिकंदर हैरान हुआ उसने जब कहा कि ऐसे भी मुझे जाना है। उसने पूछा कि
मैं कुछ समझा नहीं। ये बड़ी अटपटी बातें हो रही हैं कि ऐसे भी मुझे जाना है। इस
आदमी का तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था कि इसको ले जाऊंगा। यह कहता है ऐसे भी मुझे
जाना है।
दंदामिस हंसा, कल्याण भी हंसा और उसने कहा कि जल्दी ही पता चल जाएगा
मेरे मतलब का। उसने गुरु के पैर छुए और कहा कि विदा तो लेनी ही थी, जरा जल्दी लेनी पड़ी।
और दो महीने बाद कल्याण मर गया। रास्ते में ही। मरते वक्त उसने सिकंदर
को कहा, अब समझे? मैंने कहा था यूं भी
मुझे जाना ही है, वक्त आ ही गया है, अरे
दो महीने बाद जाता, अभी चला। इसका भी जी रह जाएगा, तुम्हारी भी आज्ञा रह जाएगी। और जाना मुझे है ही।
सिकंदर बहुत चौंका। वह आदमी यह कह कर कहने लगा, कुछ कहना तो नहीं है, अब मैं चला।
सिकंदर ने कहा, अजीब लोग हो तुम भी। तेरा गुरु था जो बोला कि अगर
गर्दन काटोगे तो मेरी खिलखिलाहट सुनोगे। और एक तू है कि तुझे पहले से ही पता था कि
तुझे जाना ही है। कुछ मुझे भी कह जा।
कल्याण ने कहा, इतना ही कहता हूं कि मिलन होगा अपना। बेबीलोन में
मिलेंगे। फिर तुझे जो पूछना हो, पूछ लेना।
और वह मर गया। बेबीलोन में मिलेंगे! फिर तुझे जो पूछना हो पूछ लेना।
और उलझा गया। और मर गया आदमी कैसे बेबीलोन में मिलेगा? क्या भूत-प्रेत होकर मिलेगा? सिकंदर थोड़ा डरा भी। और
जब बेबीलोन पहुंचा तो बहुत घबड़ाया हुआ था। लेकिन बेबीलोन में बीमार पड़ गया। और
डाक्टरों ने कह दिया कि आप बच नहीं सकते। तब उसके एक वजीर ने याद दिलाया, याद करते हैं आप उस स्वामी कल्याण ने कहा था बेबीलोन में मिलूंगा? उसका मतलब यही रहा होगा कि अभी क्या कहना है, बेबीलोन
में मिलन हो जाएगा। असली मिलन, देह के पार मिलन!
और सिकंदर बेबीलोन में ही मरा, अपने घर नहीं पहुंच
पाया।
ये थोड़े-से लोग, ऐसे लोग जाने हैं कि धर्म क्या
है।
जिस व्यक्ति ने भी यह सूत्र लिखा होगा, वह तो खुद ही लोभी
है।
"धर्म नित्य है और सुख-दुख थोड़े समय के हैं। आत्मा
नित्य है, शरीर नश्वर है।'
इसलिए शरीर को मत पकड़ो, आत्मा को पकड़ो। शरीर
को पकड़ो भी तो जाएगा और आत्मा को न भी पकड़ो तो कहां जाने वाली है? तो मैं तो तुमसे कहूंगा: अपने को जान लो बस इतना काफी है। आत्म-स्मरण काफी
है। वही धर्म है। वही मोक्ष है। वही परमानंद है। और इस तरह के व्यर्थ के सूत्रों में
न उलझे रहो। मगर इस देश में दुर्भाग्य से ऐसे सूत्र हमारी छाती पर बैठे हैं।
दूसरा प्रश्न: भगवान,
बंबई के गुजराती समाचारपत्र, जनशक्ति के संपादक ने मुख्यपृष्ठ पर अपने
संपादकीय रजनीश मौन केम छे--रजनीश मौन क्यों
हैं--में निम्नलिखित आरोप किए हैं:
बिहार की भागलपुर और बांका की जेलों में अपराधी
कैदियों की आंखें फोड़ डालने की भीषण अमानुषिक घटनाएं, उनके संबंध में जानकारी दबा देने के बिहार सरकार के प्रयास और पुलिस के इस
प्रकार के अत्याचारों के कारण सारा भारत आंदोलित हो उठा है। संसद में उसके विरुद्ध
जबरदस्त आवाज उठाई गई है। फिर भी भगवान रजनीश मौन क्यों हैं? कहां गई उनकी अनुकंपा? कहां गई उनकी करुणा की भावना?
कहां गई उनकी मानवता?
योग, भोग और रोग के
ऐशो-आरामी निठल्ली जिंदगी जीने वाले रजनीश जी का रोआं तक नहीं हिला। दुबली-पतली
गायों को मारो; मोरारजी भले ही उपवास करके मर जाएं, फिर भी हम आनंद मनाएंगे; भारत तो अधिनायकवाद से ही
ठिकाने पर आएगा; बुद्ध, महावीर,
क्राइस्ट गलत थे और गांधी तो प्रतिक्रियावादी कायर थे--इस प्रकार की
बड़बड़ाहट करने वाले इस विलासी संन्यासी की जीभ पर बिहार की भयानक घटनाओं के विषय
में ताला क्यों लगा है? उनके अनुयायी इस बनावटी भगवान की
आलोचना करने
वाले को गालियां और उनकी हड्डियां चकनाचूर करने
की धमकियां देते हैं, तब वे अपने भगवान को क्यों नहीं
जगाते और मानवता की हो रही हत्या के विरुद्ध आवाज उठाने के
लिए क्यों नहीं कहते? है इसका कोई उत्तर?
भगवान, निवेदन है कि इस विषय
में कुछ कहें।
सत्य
वेदांत,
यह तो बड़ा प्यारा प्रश्न है। एक-एक मुद्दे पर विचार करने जैसा है।
पहली बात: "बिहार की भागलपुर और बांका की जेलों में अपराधी
कैदियों की आंखें फोड़ डालने की भीषण अमानुषिक घटनाएं, उनके संबंध में जानकारी दबा देने के बिहार सरकार के प्रयास और पुलिस के इस
प्रकार के अत्याचारों के कारण सारा भारत आंदोलित हो उठा है।'
सारा भारत आंदोलित नहीं हो उठा है--सिर्फ अखबारी शोरगुल। आंदोलन तो
उलटा हुआ है भागलपुर में, पुलिस के समर्थन में आंदोलन हुआ है। भागलपुर पूरा
जिला पुलिस के समर्थन में बंद रहा है। जनता ने मोर्चा निकाला है कि पुलिस के जिन
अधिकारियों को नौकरी से मुअत्तल किया गया है उनको मुअत्तल न किया जाए। और पुलिस के
अधिकारियों ने जो किया है उसके समर्थन में जनता ने आवाज दी है। और भागलपुर की जनता
जो कहे वह ज्यादा समझने जैसा है। भारत की जनता को क्या पता? जनशक्ति
के इस संपादक को क्या पता?
जिन लोगों की आंखें फोड़ी गई हैं वे कौन लोग हैं? भागलपुर की जनता जानती है कि वे किस तरह के गुंडे हैं, डकैत हैं, लुटेरे हैं, हत्यारे
हैं, बलात्कारी हैं। भागलपुर की जनता भलीभांति उनसे परिचित
है। भागलपुर की जनता ने, जिनकी आंखें फोड़ी गई हैं उनका
समर्थन नहीं किया है। और भारत से क्या मतलब है? अखबारी
शोरगुल! दो कौड़ी के अखबार और दो कौड़ी के अखबारों के संपादक! और इनका कुल धंधा इतना
है--उपद्रव! उपद्रव मचाओ।
और ऐसा प्रतीत होता है कि संपादक जनशक्ति के बड़े ज्ञानी हैं, सिद्ध पुरुष हैं। तो इनसे मैं पूछना चाहता हूं कि तुम गए, वहां लोगों से पूछा कि जिनकी आंखें फोड़ी गई हैं, उनके
कृत्य क्या थे? क्योंकि उनके कृत्यों को जाने बिना जो उनके
साथ किया गया है उसका मूल्यांकन नहीं हो सकता। वह सही है या गलत है, इसका मूल्यांकन भी नहीं हो सकता।
फिर यह भी ध्यान में रहे कि यह सारा आंखें फोड़ने का सिलसिला मोरारजी
देसाई की सरकार के समय शुरू हुआ था। तब ये अखबार वाले चुप क्यों रहे? है इसका कोई उत्तर? यह सिलसिला आज शुरू नहीं हुआ है।
आज अचानक अखबार वालों को क्यों इतनी अनुकंपा पैदा हो गई है? और
मजा यह है कि मैंने सारे अखबार देख डाले, एक अखबार ने भी
इसकी फिक्र नहीं की कि ये कौन लोग हैं जिनकी आंखें फोड़ी गईं! इनकी आंखें फोड़ी गईं,
इस शोरगुल को उठा कर इनके कृत्यों को दबाने की कोशिश की जा रही है।
ये तस्कर हैं। ये बलात्कारी हैं। ये डकैत हैं। ये चोर हैं, बेईमान
हैं, लुच्चे हैं, लफंगे हैं। यह सब
पोंछ डाला। इस सबको दबाने की कोशिश हो गई। इनकी आंखें क्या फोड़ डाली गईं...।
और ये ही लोग राम को भगवान कहते हैं, क्योंकि मुझे तो वे
कहते हैं बनावटी भगवान! राम असली भगवान हैं! और राम ने एक शूद्र के कान में सीसा
पिघलवा कर डलवा दिया था, उसका कसूर क्या था? उसका कसूर केवल इतना था कि उसने वेद के मंत्र सुन लिए थे। राम फिर भी
भगवान हैं। वेद का मंत्र सुनना कोई कसूर है? और कान में जब
सीसा पिघलवा कर डलवाया जाएगा तो कान फूट न जाएंगे? मैं
बनावटी भगवान सही, भागलपुर के पुलिस वाले तो असली भगवान
मालूम होते हैं। ये तो वही कार्य कर रहे हैं जो सतयुग से होता रहा। ये तो सच्चे
हिंदू संस्कृति के ठेकेदार हैं। ये न रहे तो हिंदू संस्कृति डूब जाएगी। ये तो
मर्यादा पुरुषोत्तम की संतान समझो। ये तो रामचंद्र जी के असली भक्त। ये वही तो कर
रहे हैं तो रामजी कर गए। ये कोई नई बात तो नहीं कर रहे हैं।
मैं जरूर इस बात का विरोध करता हूं कि यह कृत्य अमानुषिक है। मगर मेरे
विरोध का कारण अलग है। मेरे विरोध का कारण यह है कि बीसवीं सदी में बाबा आदम के
जमाने के उपाय करना मूर्खतापूर्ण है। अब तो आदमी को सताने की ज्यादा वैज्ञानिक
प्रक्रियाएं उपलब्ध हैं, यह क्या पागलपन? यह क्या
दकियानूसीपन? और आंखें फोड़ने से क्या हल हो जाएगा? क्या डकैती बंद हो जाएगी, क्या चोरी बंद हो जाएगी,
क्या बलात्कार बंद हो जाएंगे?
आंखें फोड़ी जा रही हैं मोरारजी देसाई के समय से। और भागलपुर में
अपराधों में कमी तो नहीं हुई, बढ़ती हुई है। आंखें फोड़ने से
अपराध नहीं मिट सकते। हमें कुछ और वैज्ञानिक साधन खोजने पड़ेंगे।
इंग्लैंड में अठारहवीं सदी तक जो आदमी चोरी करता था उसे रास्तों पर
खड़े करके कोड़े मारे जाते थे, लहूलुहान, उसकी
चमड़ी छिल जाती थी, नंगा करके, और
हजारों लोगों की भीड़ देखने इकट्ठी होती थी। खयाल यह था कि इस तरह दंड देने से
लोगों में भय व्याप्त हो जाएगा और फिर कोई चोरी न करेगा। लेकिन फिर यह दंड बंद
करना पड़ा। बंद इसलिए करना पड़ा कि वह जो भीड़ इकट्ठी होती थी वह देखने में इतनी
तल्लीन हो जाती थी--मार, लहूलुहान हो रहा है आदमी, चीख रहा है, चिल्ला रहा है--उसकी तल्लीनता का फायदा
लेकर लोग एक-दूसरे की जेबें काट लेते थे, वहीं! चोरी का दंड
मिल रहा है और भीड़ में जेबें कट जाती थीं।
जब इस बात का धीरे-धीरे पता चला तो साफ हो गई बात कि किसी को कोड़े
मारने से चोरी रुकने वाली नहीं है। चोरी वहीं हो रही है, ठेठ उसी जगह हो रही है, जहां कोड़े मारे जा रहे हैं।
उसका भी लाभ लेने वाले लाभ ले रहे हैं, क्योंकि लोग तल्लीन
हो गए हैं। लोग हिंसा को देखने में बड़े तल्लीन होते हैं, क्योंकि
उनके भीतर भी हिंसा दबी हुई पड़ी है। खुद तो नहीं कर पाते, कोई
दूसरा कर रहा है, उसके निमित्त खुद भी थोड़ा रस ले लेते हैं।
वे इतने तल्लीन हो जाते थे कि लोग उनकी जेबें काट लेते, उनको
पता न चलता। इसलिए वह सजा बंद की गई।
आंखें फोड़ने से न तो डाके कम होंगे, न तस्करी कम होगी,
न बेईमानी कम होगी--इसलिए मैं विरोध करता हूं। इसलिए भी विरोध करता
हूं कि आंखें फोड़ना अमानुषिक है, जब कि और वैज्ञानिक उपाय
उपलब्ध हैं जिनसे ज्यादा आसानी से लोगों से उनके अपराध स्वीकार कराए जा सकते हैं।
इतनी सरलता से अपराध स्वीकार कराए जा सकते हैं कि तुम चकित होओगे।
चीन में सदियों से यह प्रयोग होता रहा है, अब भी प्रयोग जारी है। पांच हजार साल पुराना है, सीधा-सादा
प्रयोग है। कैदी को एक छोटी-सी कोठरी में बंद कर देते हैं, जिसमें
वह बैठ भी नहीं सकता, हिल भी नहीं सकता, खड़े ही रहना पड़ता है उसे, लेटने का तो सवाल ही नहीं
उठता। और उसके सिर पर एक घड़ा लटका देते हैं और घड़े में से एक-एक बूंद करके पानी
गिरता रहता है, जैसे शंकर जी की पिंडी पर गिरता है न! पता
नहीं शंकर जी को किसने सजा दी है! भाग भी नहीं सकते वे। ऊपर लटकी है मटकी। और मटकी
में से बूंद-बूंद टप, टप, टप पानी गिर
रहा है। सो नहीं सकता आदमी, बैठ नहीं सकता, लेट नहीं सकता। चौबीस घंटे में घबड़ा जाता है। टप-टप-टप-टप चलता ही रहता है,
चलता ही रहता है! जैसे भावातीत ध्यान होता है न महर्षि महेश योगी का,
ट्रांसेंडेंटल मेडीटेशन, टप-टप, टप-टप, कौन न घबड़ा जाए! वह चिल्लाने लगता है कि मुझे
बाहर निकालो, मैं तैयार हूं स्वीकार करने को।
इसको मैं मानुषिक ढंग कहूंगा। कोई उसको मारा नहीं, पीटा नहीं, सताया नहीं, लेकिन
उसके मन को पिघला दिया। आखिर यही तो था। यही कर रहे थे पुलिस वाले। उनको सता-सता
कर यह पूछ रहे थे कि तुमने क्या किया। उसी सताने में बात बढ़ गई। बात में से बात बढ़
जाती है। आंखों में उन्होंने एसिड डाल दिया। शायद इस घबड़ाहट में, शायद इस भय में अपराध स्वीकार कर लें।
लेकिन ये ऋषि-मुनियों की संतान हैं ये पुलिस वाले! ऋषि-मुनियों ने
नर्क में तुम्हारे लिए यही तो इंतजाम किया है--कढ़ाहों में जलाए जाओगे, अंग-अंग काटे जाएंगे; प्यास लगेगी, पानी सामने होगा और मुंह सी देंगे, पानी पीने न
देंगे। काटे जाओगे और फिर-फिर जुड़ जाओगे। मरने भी न देंगे। अरे जीने भी न देंगे,
मरने भी नहीं देंगे।
इस बीसवीं सदी के वैज्ञानिक युग में, जब कि अब बहुत
सुविधापूर्ण रास्ते हैं, सम्मोहन के द्वारा काम किया जा सकता
है। सम्मोहन के द्वारा अपराधी को बेहोश किया जा सकता है और उस बेहोशी में उससे
सारी बातें उगलवायी जा सकती हैं। आंखें फोड़ने की क्या जरूरत है? कोई जरूरत नहीं, कोई आवश्यकता नहीं।
लेकिन यह भारतीय संस्कृति है! यहां कृष्ण ने अर्जुन को समझा कर सवा
अरब लोगों की हत्या करवा दी और फिर भी कृष्ण भगवान हैं! मैं तो बनावटी भगवान हूं, मगर कृष्ण असली भगवान हैं! सोलह हजार स्त्रियां भगा लाए लोगों की--दूसरों
की पत्नियां। खुद की तो एक विवाहित पत्नी थी, रुक्मणी,
उससे तो कभी मिलने-जुलने का अवसर आ पाता था कि नहीं, मुश्किल है। सोलह हजार स्त्रियां! कहां उस बेचारी का नंबर लगता होगा! और
उसमें सब दूसरों की स्त्रियां भगा लाए थे। ये असली भगवान हैं, मैं नकली भगवान हूं। साफ है कि नकली--न किसी के कान में सीसा पिघलवा कर
भरवाया, न सोलह हजार लोगों की स्त्रियां भगा लाया। नकली तो
हूं ही! अरे असली होने का प्रमाण भी तो होना चाहिए कुछ!...है इसका कोई उत्तर?
और अगर मैं सत्य बातें कहूं तो प्राणों में छिदती हैं।
जरूर मैं कहूंगा, क्योंकि पुलिस भारत की अशिक्षित
है, दकियानूसी है--जैसा कि भारत पूरा का पूरा दकियानूसी और
अशिक्षित है। मैं तो सरकार को कहूंगा कि यहां हमारे पास भेज दो, हम पुलिस के लोगों को यहां सम्मोहन की विद्या में शिक्षित कर सकते हैं।
इसलिए तो लोग यहां आने से डरते हैं कि मेरी आंख में देखा कि सम्मोहित हुए।
अभी प्रिंस आफ वेल्स का आना हुआ हिंदुस्तान में--प्रिंस चार्ल्स का।
उनके भाई मेरे संन्यासी हैं--विमल कीर्ति। उसी परिवार से हैं--विक्टोरिया के ही
नाती-पोतों में से वे भी एक हैं। वे भी जर्मनी के प्रिंस हैं, जर्मनी के सम्राट के पोते हैं। और प्रिंस चार्ल्स और विमल कीर्ति साथ-साथ
पढ़े हैं एक ही स्कूल में, खेले हैं। भाई हैं, तो उन्होंने बुलाया था विमल कीर्ति को, तो विमल
कीर्ति अपनी पत्नी और बच्ची को लेकर उनसे बंबई मिलने गए। जो पहली बात उन्होंने
की...विमल कीर्ति की पत्नी तुरिया के गले में माला पर उनकी नजर बार-बार जाए। फिर
उन्होंने लाकेट हाथ में लिया और कहा कि हां, आंखों में कुछ
बात है। यही मैंने सुना है। आंखों के कारण ही तुम लोग चक्कर में पड़े हो न!
यहां भेज दो पुलिस वालों को, उनके अधिकारियों को
हम प्रशिक्षित कर सकते हैं। हमारे पास प्रशिक्षित सम्मोहनविद हैं, जो उनको प्रशिक्षित कर सकते हैं। और बड़ी आसानी से उनसे बातें उगलवायी जा
सकती हैं। अगर सम्मोहन की प्रक्रिया बहुत ज्यादा सूक्ष्म मालूम पड़े तो क्लोरोफार्म
है, जिससे कोई हानि नहीं होती, लेकिन
आदमी बेहोश हो जाता है और बेहोशी में बड़बड़ाने लगता है और बातें कहने लगता है।
आंखें फोड़ना बहुत ही रामचंद्र जी के जमाने की बात हो गई! रामराज्य में चले ठीक,
अब चलाने की कोई जरूरत नहीं है। मगर वे जो गीता-ज्ञान मर्मज्ञ
मोरारजी देसाई हैं, वे चला गए। और मजा यह है कि चला वे गए और
इंदिरा को उसका भुगतान भरना पड़ेगा।
और मजा यह है कि जिन लोगों ने पार्लियामेंट में विरोध किया है--संपादक
ने लिखा है, संसद में उसके विरुद्ध जबरदस्त आवाज उठाई गई है--ये
वे ही लोग हैं विरोध करने वाले जिनके शासन में यह काम शुरू किया गया था। और इसलिए
तो इन सबको पता है, इसलिए तो अब उघाड़ सके। यह जालसाजी देखो!
ये ही लोग हैं, जिन्होंने विरोध में संसद में उपद्रव मचाया,
इन्हीं की सत्ता थी तब यह काम शुरू हुआ। तब ये चुप्पी मारे बैठे
रहे। इनकी जानकारी में शुरू हुआ। और मोरारजी देसाई--शुद्ध गांधीवादी, अहिंसक! इनके समय में यह शुरू हुआ। तब इनका गीता-ज्ञान कहां गया था?
लेकिन नहीं, गीता-ज्ञान में भी तो यही बात है, कि अरे आत्मा मरती थोड़े ही है। अरे बाहर के चक्षु के फूटने से कहीं भीतर
का चक्षु थोड़े ही फूटता है! सच तो यह है कि बाहर के चक्षु जिनके फूट जाते हैं,
उनको हम कहते हैं--प्रज्ञाचक्षु! उनके भीतर के चक्षु खुल जाते हैं!
पुलिस वाले उनके भीतर के चक्षु खोल रहे थे भाई!...है कोई इसका जवाब? उन्हें सूरदास बना रहे थे कि अब ये सूरदास हो जाएंगे तो कृष्ण कन्हैया के
गीत गाएंगे।
गीता में ही तो कहा हुआ है कि अरे अर्जुन, मत घबड़ा, काट! शरीर के काटने से कहीं आत्मा कटती है!
शरीर तो मिट्टी है, मिट ही जाएगा। और कृष्ण अर्जुन से कहते
हैं कि हे अर्जुन, तू इस फिक्र में मत पड़ कि तेरे ऊपर पाप
लगेगा! अरे उसकी बिना आज्ञा के पत्ता नहीं हिलता, तो मौत
कैसे होगी? उसने पहले ही इन्हें मार डाला है, तू तो निमित्त मात्र है।
तो मैं कहूंगा जनशक्ति के संपादक से, गीता का विरोध करो,
ये पुलिस वाले तो निमित्त मात्र थे। उसने, ऊपर
वाले ने, पहले ही आंखें फोड़ दी थीं, ये
तो बेचारे निमित्त मात्र थे। इनको क्यों फंसा रहे हो? अगर
फंसाना है तो ऊपर वाले को पकड़ो। ये न फोड़ते, किसी और से
फुड़वा देता। आंखें तो फूटतीं। उसकी बिना मर्जी के कुछ होता है?
और जब मैं ये सच बातें कहता हूं तो लोग कहते हैं कि मैं बुद्ध, महावीर और क्राइस्ट को गलत कह रहा हूं।
बुद्ध और महावीर या क्राइस्ट या कृष्ण या राम में जो सही है उसको मैं
सही कहता हूं; जो गलत है उसको गलत कहता हूं। मैंने कोई इनको सही
सिद्ध करने का ठेका लिया है? मेरी कसौटी पर जो सही है वह सही
है। मेरी कसौटी पर जो गलत है वह गलत है।
बुद्ध निश्चित ही सही हैं, जहां तक उनकी
विपस्सना ध्यान-पद्धति का सवाल है। तो मैंने अपने आश्रम में विपस्सना की
ध्यान-पद्धति को अंगीकार किया है। मैं मानता हूं कि उससे बड़ी ध्यान की कोई पद्धति
मनुष्य-जाति के इतिहास में कभी नहीं खोजी गई। इसलिए बुद्ध ने मनुष्य-जाति को बड़ी
से बड़ी भेंट दी है--विपस्सना। वह मुझे स्वीकार है। लेकिन बुद्ध ने पलायनवाद भी
सिखाया, उसका मैं समर्थन नहीं कर सकता हूं। बुद्ध ने भगोड़ापन
भी सिखाया, उसका मैं समर्थन नहीं कर सकता हूं। बुद्ध ने
लोगों को जीवन की तरफ पीठ कर लेने की बात भी सिखाई, उसका मैं
समर्थन नहीं कर सकता हूं।
महावीर ने अहिंसा का अपूर्व सूत्र दिया है: मत दुख दो, क्योंकि तुम दुख दोगे तो दुख पाओगे। हमें वही मिलता है जो हम देते हैं। यह
जगत तो एक प्रतिध्वनि है। तुम गीत गाओगे, जगत गीत होकर तुम
पर बरस उठेगा। तुम गाली दोगे, जगत गालियां होकर तुम पर लौट
आएगा। जगत तो दर्पण है। तो महावीर ने अहिंसा का अमोघ सूत्र दिया। लेकिन महावीर ने
भगोड़ापन भी सिखाया, पलायनवाद भी सिखाया; उसका मैं समर्थन नहीं कर सकता हूं। महावीर का वहां तक समर्थन करूंगा जहां
तक मेरी कसौटी पर सही है; जहां मेरी कसौटी पर सही नहीं है,
वहां मैं मजबूर हूं उनको गलत कहने को।
क्राइस्ट ने जरूर बहुत-सी महत्वपूर्ण बातें कहीं, अभूतपूर्व बातें कहीं--जैसे कहा कि परमात्मा का राज्य तुम्हारे भीतर है,
बाहर मत खोजो। जो बाहर खोजेगा, व्यर्थ भटकेगा।
जिसे पाना है वह भीतर है, और खोज तुम बाहर रहे हो; यही तुम्हारे जीवन का दुख है। यह बात तो ठीक है, लेकिन
जीसस ने वे बातें भी कहीं जिनका मैं समर्थन नहीं कर सकता। जीसस कहते हैं: धन्य हैं
गरीब, क्योंकि परमात्मा का राज्य उन्हीं का है। मैं इसका
समर्थन नहीं कर सकता। मैं गरीबी को धन्यता नहीं मान सकता। गरीबी पाप है, जघन्य पाप है, कोढ़ की भांति है। मिटना चाहिए। धन्य
हैं गरीब, यह मैं नहीं कह सकता।
मैं क्या करूं? या तो सारी बातों का समर्थन करूं--लोग चाहते हैं--या
सारी बातों को गलत कहूं। लेकिन न तो मैं सारी बातों को गलत कह सकता हूं, न सारी बातों को सही कह सकता हूं। मैं तो अपनी कसौटी से सही और गलत को
नापता हूं।
ये जनशक्ति जैसे अखबारों के संपादक, इनके पास न अपना कोई
मापदंड है, न अपनी कोई कसौटी है। ये तो अंधों की तरह,
भेड़ों की तरह, भीड़ चाल चलते हैं।
निश्चित ही मैं गांधी को प्रतिक्रियावादी कहता हूं और गांधी की अहिंसा
को मैं महावीर की अहिंसा नहीं मानता। महावीर की अहिंसा उनके ध्यान का परिणाम थी और
गांधी को ध्यान का कभी अनुभव नहीं हुआ। ध्यान कभी उन्होंने जाना नहीं। वे तो
बेचारे अल्लाह ईश्वर तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान--इसी
गोरखधंधे में पड़े रहे, ध्यान वगैरह जानने का अवसर कहां मिला?
हां, कोई उन्हें ध्यान बता सकता था, ऐसे
लोग थे, लेकिन उनका अहंकार उनके पास नहीं जाने दे सकता था।
कृष्णमूर्ति पर गांधी हंसते थे, मजाक करते थे। महादेव देसाई
ने, जो उनके सेक्रेटरी थे, गांधी की
डायरी लिखी। उसमें उल्लेख आता है। जहां कृष्णमूर्ति का उल्लेख आता है वहां
हंसी-मजाक छिड़ जाता है, क्योंकि कृष्णमूर्ति कहते हैं कि सब
कुछ स्वयं के भीतर है; सब कुछ ध्यान है, जागरण है; जागरण में सब मिल जाता है। इस पर गांधी
हंसते थे।
मेहरबाबा ने गांधी को तार किया था कि तुम अगर सच में ही परमात्मा को
पाना चाहते हो तो मैं तुम्हें ध्यान की विधि समझाने को राजी हूं। लेकिन गांधी ने
इसको अपमान समझा। तार का उत्तर दिया: अपनी विधि अपने पास रखिए, मैं खुद खोज लूंगा। मुझे किसी से सीखने की आवश्यकता नहीं है।
गांधी की अहिंसा और महावीर की अहिंसा में बुनियादी भेद है। गांधी
बुनियादी रूप से कायर व्यक्ति थे, बुनियादी रूप से बनिया थे। धूसर
बनिया! साधारण बनिया नहीं। डरपोक थे, पहले से डरपोक थे।
अचानक कैसे अहिंसा आ गई, यह सोचने जैसा है। गांधी की पूरी
प्रक्रिया समझने जैसी है। मैं किसी के नाम-धाम, यश-प्रतिष्ठा
से भयभीत नहीं होता। मुझे तो जो दिखाई पड़ता है वैसा ही कहूंगा।
गांधी इतने डरपोक थे कि एक मुसलमान लड़के ने उनको कहा कि तुम्हारा
डरपोकपन नहीं मिटेगा जब तक तुम मांसाहार नहीं करोगे। सो बेचारों ने मांसाहार कर
लिया, कि मांसाहार बिना किए कोई बलवान नहीं हो सकता। फिर
इंग्लैंड गए पढ़ने के लिए। तो मां ने कसमें दिलवा दीं--तीन कसमें--कि स्त्रियों से
सावधान रहना। ऐसे उनका ब्रह्मचर्य का भाव जगा। मांसाहार करना मत, क्योंकि मांसाहार किया कि भ्रष्ट हो जाओगे। और तीसरा, अपनी भारतीय संस्कृति की रक्षा करना, इसको खोना मत।
जब जा रहे थे जहाज पर तो जो उनके कमरे में उनका साथी था...इजिप्त में
जहाज रुका अलेग्जेंडरिया में, तो जहां-जहां जहाज रुकते हैं
वहां-वहां वेश्याओं के अड्डे होते हैं और सारे यात्री और कप्तान और सब नाविक और
माझी चले वेश्याओं के यहां। वह जो उनके कमरे का सहयोगी था, वह
भी चला। उसने कहा कि चल भाई, तू भी चल, यहां बैठा-बैठा क्या करेगा? तो इतने कायर थे,
इतने कमजोर थे कि यह भी न कह सके कि मुझे नहीं जाना है।
हद हो गई! अरे इस कहने में कौन-सी बड़ी ताकत की जरूरत थी कि मुझे नहीं
जाना है? अरे बहुत ही डरपोक थे, इतना
कहेंगे तो यह आदमी समझेगा कि पता नहीं नपुंसक हैं या क्या मामला है, भद्द न हो, तो कम से कम चादर ओढ़ कर सो जाते कि मुझे
बुखार चढ़ा है। वह भी न बना। डर के मारे उसके साथ हो लिए, कि
बदनामी न हो। वेश्या के घर भी पहुंच गए। जाना नहीं है, प्राण
कंप रहे हैं, क्योंकि मां की याद आ रही है, मां ने कहा है कि कभी किसी स्त्री...कसम खाकर गए हैं। और यह आदमी, अब इससे क्या कहें! और सभी जा रहे हैं, तो सभी जा
रहे हैं तो जाना पड़ेगा।
कायर का यह लक्षण होता है: जहां सब जा रहे हैं, वह उनके विपरीत नहीं जा सकता। जहां भीड़ जा रही है, वह
भी जाएगा। वह भेड़ होता है। भेड़ें भीड़ में चलती हैं। सिंहों के नहीं लेहड़े। सिंह
भेड़ों की तरह नहीं चलते, भीड़ में नहीं चलते, उनके लेहड़े नहीं होते।
मगर धूसर बनिया! पहुंच गए वेश्या के घर। अभी भी कह देते कि भाई मैंने
कसम खा ली है, मैं मां को वचन दे आया हूं। मगर मुंह न खुले, गला सूख गया। थूक नदारद हो गया। बोलती न खुले। खूब मौन सधा! महावीर ने भी
साधा था मौन, मगर इनका मौन खूब सधा! और हद हो गई। उसने भी
देखा, यह कुछ बोलता नहीं और पसीना-पसीना हुआ जा रहा है। शायद
नया-नया है, सिक्खड़ है, तो उसने
जबरदस्ती भीतर धक्का दे दिया और दरवाजा अटका दिया। भीतर वेश्या ने देखा, पंखा वगैरह झला, कि भई तुझे क्या हो रहा है, बोल तो! मगर वे बोलें तो बोलें कैसे? उधर तो उनकी
बोलती खो गई, मौन सध गया। इसको कहते हैं ध्यान की अवस्था!
अब इसको मैं कायरपन न कहूं तो क्या कहूं? वेश्या बेचारी दया खा गई कि यह बेचारा दीन-हीन आदमी, इसको हो क्या गया? लिटाया, पंखा
करे, पैर दबाए कि तू बोल तो, कुछ तो
बोल! किस भांति तेरी सेवा करूं! वह कुछ बोलें ही न। पानी वगैरह पिलाया। वेश्या ने
ऐसा ग्राहक ही न देखा था पहले। और जब मित्र ने बाहर द्वार पर दस्तक दी तो एकदम उठ
कर खड़े हो गए। धन्यवाद तक न दिया उस गरीब वेश्या को। बाहर निकल आए, मित्र के साथ हो लिए। दिखावे के लिए यह रहा कि हो आए वेश्या के
यहां--सिर्फ दिखावे के लिए। वहां तो वेश्या ने बेचारी ने नर्स का काम किया। और कोई
काम किया नहीं। कोई पाप वगैरह नहीं हुआ, मगर भीड़ में छाप रही
कि अरे होकर आए हैं; कोई भूल कर यह न समझे कि लंगोट के कोई
पक्के हैं; अरे हम भी कच्चे हैं, तुम
कच्चे हो तो हम भी कच्चे हैं! उसी शान में रहे। और बड़ी बातें बघारने लगे कि बड़ा
मजा आया! अब बोलती खुली। अब यह ध्यान टूटा, अब इनकी समाधि
उतरी।
इस तरह के कायर व्यक्तित्व में कैसे अचानक अहिंसा आ गई? और इस तरह की एक घटना नहीं है, घटनाओं पर घटनाएं
हैं। अचानक यह कायर व्यक्तित्व कैसे अहिंसक हो गया? यह
अहिंसा बड़े और ढंग से आई। यह अहिंसा बड़ी जालसाजी से आई। यह अहिंसा बड़ा गणित है। यह
वही गणित है जो आमतौर से हिंदुस्तान में जैनी कर रहे हैं। यह वही गणित है। जैन
कहते हैं: जीओ और जीने दो। उनका मतलब यह है कि भई जीने दो! न हम तुम्हें मारें,
न तुम हमें मारो। मतलब यह कि कृपा करके हमें मत मारो, देखो हम तुम्हें नहीं मार रहे। जब हम तुम्हें नहीं मार रहे तो तुम हमें
क्यों मार रहे हो? तो उनको यह हिंसा इस तरह से आई--जीओ और
जीने दो! इस अहिंसा के सूत्र को उन्होंने फिर खूब फैलाया। फिर इसी सूत्र के बल पर
वे महात्मा हो गए। लेकिन अहिंसा बिलकुल थोथी थी।
जब भारत आजाद नहीं हुआ था, गांधी से किसी ने
पूछा कि जब भारत आजाद हो जाएगा तो फिर क्या करिएगा, मिलिटरी
का क्या करिएगा, अस्त्र-शस्त्रों का क्या करिएगा? तो उन्होंने कहा, अस्त्र-शस्त्र समुद्र में डुबा
देंगे और मिलिटरी के लोगों को खेतों पर काम में लगा देंगे। फिर आजादी आई, फिर भूल गए चौकड़ी। फिर मिलिटरी के लोगों को खेतों में नहीं भेजा और न
अस्त्र-शस्त्र समुद्र में डुबाए, बल्कि उलटा यह हुआ कि जब
पहला हवाई जहाज पाकिस्तान पर हमला करने के लिए दिल्ली के ऊपर से उड़ा तो उसको गांधी
ने आशीर्वाद दिए। अब कहां गई अहिंसा? अब सारी अहिंसा भूल-भाल
गए। वह अहिंसा कायर की अहिंसा थी।
तो मैं तो जैसा है वैसा कहूंगा। इतना मैं जरूर जानता हूं कि किसी की
आंखें वगैरह फोड़ने की कोई जरूरत नहीं; ज्यादा बेहतर ढंग हैं,
ज्यादा वैज्ञानिक ढंग हैं। और संसद में शोरगुल मचाने से कुछ भी न
होगा। और अखबारों में जो उपद्रव चल रहा है, उससे जनता की खबर
का कुछ पता नहीं चलता। जनता की खबर तो भागलपुर में जो हो रहा है उससे पता चलता है,
कि पूरा भागलपुर बंद रहा, पूर्ण बंद
रहा--पुलिस के समर्थन में, क्योंकि जनता उन लुच्चे-लफंगों से
पीड़ित है, परेशान है।
पूछा है कि "फिर भी भगवान रजनीश मौन क्यों हैं?'
मौन इसीलिए हूं कि इस देश में सत्य बात कहनी पाप हुई जा रही है। सत्य
कहो कि बस गालियां खाओ।
पूछते हो, "कहां गई उनकी अनुकंपा?'
जैसे इनको मेरी अनुकंपा पर भरोसा हो! यह बेईमान आदमी देखते हो! ऊपर
कहता है कहां गई उनकी अनुकंपा, कहां गई उनकी करुणा की भावना,
कहां गई उनकी मानवता? और नीचे यह भी कहता है
कि बनावटी भगवान हैं!
अगर बनावटी भगवान हैं तो अनुकंपा हो ही कैसे सकती है? करुणा की भावना हो ही कैसे सकती है? मानवता हो ही
कैसे सकती है? यह तो विरोधाभास हो गया। अगर मानते हो मेरी
अनुकंपा तो मैं कहूंगा कि अब हमारे पास सारी दुनिया में, पावलफ
ने, स्किनर ने, डेलगाडो ने बहुत
वैज्ञानिक सुविधाएं जुटा दी हैं, जिनमें बिना किसी को परेशान
किए सारी बातें निकाली जा सकती हैं, उघाड़ी जा सकती हैं। हर
बात निकाली जा सकती है। अब तो इतने वैज्ञानिक साधन उपलब्ध हैं कि ये सिर्फ भारत
जैसे मूढ़ देश में ही इस तरह की बातें हो सकती हैं। यह सवाल भारत की पुलिस का नहीं
है। यह भारत के पुलिस वाले और भारत के संपादक, सब एक-सी
बुद्धि के हैं। ये सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं, कोई
फर्क नहीं है इनमें।
अब तो इलेक्ट्रोड के द्वारा मनुष्य के मस्तिष्क में से कोई भी रेकार्ड
बजवाया जा सकता है; वह कहना चाहे, कि न कहना चाहे,
होश में बैठा रहे आदमी। तुम होश में बैठे हो, जरा-सी
सुई, जिसका तुम्हें पता भी नहीं चलेगा, एक इलेक्ट्रोड तुम्हारे मस्तिष्क में जाता है और एक बिंदु को छूता है,
और रेकार्ड शुरू हो जाता है। और तुम खुद चौंक कर हैरान होओगे कि तुम
कुछ बोल रहे हो! खुद सुनोगे कि मैं बोल रहा हूं और जो नहीं बोलना चाहता वह बोल रहा
हूं, मुझे बोलना नहीं है और बोल रहा हूं। जैसे कि ग्रामोफोन
पर सुई चढ़ा दी और ग्रामोफोन बजने लगे, जैसे रेडियो बजने लगे,
या टेप-रिकार्डर बोलने लगे। मनुष्य की स्मृति टेप-रिकाघडग ही है।
उसके भीतर इसी तरह की व्यवस्था है। अब हमने सुइयां खोज ली हैं जो उस टेप-रिकार्डर
को चालू कर देती हैं। आदमी बैठा देखता रहता है, जैसा तुम देख
रहे हो। नहीं बोलना है, फिर भी टेप-रिकार्डर बोलता है,
आवाज देता है और उसे बोलना पड़ता है--अवश।
जब इतने वैज्ञानिक साधन उपलब्ध हों तो क्या जरूरत आंखें फोड़ने की? मगर आंखें फोड़नी पड़ रही हैं, क्योंकि तुम तो चरखे पर
रुके हो। ऐसा घनचक्कर यह देश है कि चरखे से आगे नहीं बढ़ना चाहता। तो तुम कैसे यह
नई वैज्ञानिक विधियां सीखोगे? तुम तो अपने पुरखों की बातें,
अपने पुरखों का गुणगान, और उसमें तो फिर
रामचंद्र जी आते हैं...पिघला दो सीसा, कान में भर दो।
उन्होंने कान में भरा, ये बेचारे जरा आगे बढ़ गए। इन्होंने
कहा: यह तो रामचंद्र जी पहले ही कर चुके हैं, अब हम जरा आगे
जाएं। ये समझो हनुमान जी--ये पुलिस वाले--इनकी बुद्धि हनुमान जी से ज्यादा और
क्या! पूंछ भर नहीं है, और तो बाकी सब ठीक है। और कौन जाने
पूंछ भी हो, ड्रेस के भीतर छिपाए हों। उन्होंने कान फोड़े,
इन्होंने आंखें फोड़ दीं। गुरु तो गुरु रहे, गुरु
तो गुड़ ही रहे और चेला शक्कर हो गए। शक्कर की वैसे भी कमी है।
मैं इसलिए मौन हूं कि जब तक इस पूरे देश की मानसिकता नहीं बदलती तब तक
लाख मचाओ शोरगुल संसद में। वे शोरगुल मचाने वाले लफंगे उसी कोटि के हैं। वही गुंडे
तो चुन कर संसदों में पहुंच जाते हैं। वही दादा। वही यहां सताते हैं लोगों को, वही संसद में उपद्रव मचाते हैं। जैसा तमाशा भारतीय संसद में होता है वैसा
दुनिया में कहीं नहीं होता। जूते चलते हैं। दुनिया में कहीं नहीं चलते। भारतीय
संस्कृति की बात ही और है! जूते चलते हैं, कुर्सियां फेंकी
जाती हैं, किताबें फेंकी जाती हैं।
गोआ की विधान-सभा में दोत्तीन वर्ष पहले ऐसी मारपीट हो गई, कुश्तम-कुश्ती हो गई कि गांधी जी की मूर्ति रखी थी, किसी
ने वही गिरा दी, वही चारों खाने चित कर दी, वही टूट-फूट गई। सारा सामान अस्तव्यस्त हो गया; जैसे
शराबघर में हो जाए वैसी हालत संसद की हो गई। वह तस्वीर देखने जैसी थी। उस तस्वीर
को तो घर-घर में टांग देना चाहिए। गांधी जी उलटे पड़े हैं, जूते
पड़े हैं, चप्पलें पड़ी हैं, फाइलें फिंक
गई हैं, कुर्सियां उलटी हो गई हैं। इसको कहते हैं--संसद!
सांसदिक प्रणाली! लोकतंत्र, प्रजातंत्र!
संसद में उपद्रव करने वाले लोग वही के वही हैं। ये अखबारों में लिखने
वाले लोग वही के वही हैं। इनकी भाषा देखो, जो लिख रहे हैं वह
क्या है? एक तरफ कहते हैं कि भगवान रजनीश मौन क्यों हैं। मैं
इसलिए मौन हूं कि जब तक तुम्हारी पूरी मानसिकता को बीसवीं सदी का न बनाया जाए,
समसामयिक न बनाया जाए, ये घटनाएं घटेंगी,
ये नहीं रोकी जा सकतीं। इधर से रोकोगे, उधर से
घटेंगी। और अगर इनको तुम रोकोगे तो जिनकी आंखें फोड़ी गई हैं, वे तुम्हारी आंखें फोड़ेंगे। या तो पुलिस को अगर दबाओगे तो गुंडे बढ़ेंगे,
अगर गुंडों को दबाओगे तो पुलिस गुंडागर्दी करती है। यहां गिरो तो
खाई, यहां गिरो तो कुआं।
यह पूरा देश एक ऐसे पिछड़ेपन में जी रहा है, समसामयिक नहीं है यह देश। और उस दृष्टि से मैं इन छोटी-छोटी टुच्ची बातों
पर क्या वक्तव्य देता रहूं? मैं काम में लगा हूं। मैं मौन
नहीं हूं, मैं काम में लगा हूं। जो लोग मुझसे राजी हैं,
उनकी मानसिकता को बीसवीं सदी का बनाने की कोशिश कर रहा हूं।
एक तरफ "भगवान रजनीश' और दूसरी तरफ
"योग, भोग और रोग के ऐशो-आरामी निठल्ली जिंदगी जीने
वाले रजनीश जी का रोआं तक नहीं हिला'।
अरे यही तो योगियों का पुराना लक्षण है कि रोआं तक न हिले!
स्थितप्रज्ञ की परिभाषा क्या है? कि दुनिया हिल जाए, मगर योगी का रोआं न हिले। सो नहीं हिला रोआं, सच
कहता हूं नहीं हिला। और इससे सिद्ध होता है कि भोग और रोग की बातें गलत हैं। नहीं
तो रोआं हिल जाता। अरे रोगी होता तो एकदम बुखार चढ़ जाता, जैसा
इनको चढ़ा हुआ है। ये संपादक महोदय एकदम बुखार में हैं, अनाप-शनाप
बक रहे हैं! एकदम सन्निपात में आ गए हैं। अगर भोगी होता तो भी घबड़ाता कि भैया
आंखें फूट रही हैं, कहीं खुद न फंस जाऊं, नहीं तो कोई मेरी आंखें फोड़ दे। योगी हूं! वही याद करो कृष्ण की बात--वही
कृष्ण की बकवास, जिसको तुम श्रीमद्भगवतगीता कहते हो--याद करो
कि सुख आए कि दुख, समभाव से रहे योगी, समता
रखे। जीवन हो कि मृत्यु, सब समान हैं।
रोआं तक नहीं हिला। इसी से तो सिद्ध होता है कि तुम लाख कहो बनावटी
भगवान हूं, बनावटी नहीं हूं, बिलकुल असली
हूं! भगवान का रोआं हिल रहा है, तुम कहो? इतना उपद्रव मचा हुआ है दुनिया में और भगवान मस्त! वे अपनी लीला ही कर रहे
हैं। वे क्षीरसागर में लेटे हैं अपने शेषनाग की शय्या पर! और क्या भोगी का लक्षण
होगा? क्षीरसागर, शेषनाग की शय्या और
लक्ष्मी मैया पैर दबा रही हैं! और निठल्ली जिंदगी क्या होगी? अब विष्णु भगवान ही जब निठल्ली जिंदगी बिता रहे हैं तो मैं क्या करूं?
कहा है संपादक ने, "दुबली-पतली गायों को
मारो...।'
अरे क्या लाख मारो, तुम मार नहीं सकते। पत्ता नहीं
हिलता बिना उसके इरादे के! जिसको मरना है वही मरेगा। कुछ तो अपने शास्त्रों की
इज्जत करो, कुछ तो समादर करो। जिसके भाग्य में लिखा है वही
होगा। कह गए ऋषि-मुनि कि जब पैदा होते हो तुम, तभी विधाता
लिख देता है कि कब मरोगे, घड़ी-क्षण-पल; कैसे मरोगे, कहां मरोगे, यह तक
लिख देता है, कि दादर में मरोगे, कि
बोरीवली पर मरोगे, कहां मरोगे। उल्हासनगर में मरोगे, कि चिंचवड़ में मरोगे, किस मोहल्ले में मरोगे,
किस घर में मरोगे--पहले ही सब लिख देता है। अरे रत्ती-रत्ती लिख
देता है, कुछ छोड़ता? कुछ भी नहीं
छोड़ता। विस्तार से सब बातें लिख देता है, जिसमें कोई भूल-चूक
न हो जाए। नहीं तो मरना था दादर में, मर गए बोरीवली में।
तो दुबली-पतली गायों को मारो। मैं क्या कहूंगा मारो? मैं तो इतना ही कह रहा हूं कि जो हो रहा है वह परमात्मा की मर्जी। यही तो
भारतीय संस्कृति है! और अगर मैं इसके खिलाफ कुछ कहूं तो भारतीय संस्कृति पर खतरा आ
जाता है। और तुम्हारे ऋषि-मुनि सब मांसाहारी, गऊ खाते रहे,
आदमी की बलि चढ़ाते रहे। और तरकीबत्तरकीब से बलि चढ़ाते रहे।
स्त्रियों को चिताओं पर चढ़ाते रहे। और इन संपादक को कोई चिंता नहीं उस सबकी। है
इसका कोई उत्तर? जिंदा स्त्रियों को चढ़ाते रहे, दुबली-पतली मरी-खुरी स्त्रियों को भी नहीं, जवान
स्त्रियों को चढ़ाते रहे, सुंदर स्त्रियों को चढ़ाते रहे। और
अभी तक पूजा चल रही है, सतियों के मंदिर बन रहे हैं। मैं तो
अखबार देखता हूं तो रोज कहीं दादी सती मां की झांकी, कहीं
झांझनसती मां की झांकी, कहीं सती का मेला भर रहा है। और सती
होना पाप! और सती होना अपराध! तो जो लोग झांझनसती का मेला भरते हैं, इन सबको बंद नहीं करना चाहिए?
अगर सती होना अपराध है, तो फिर सतियों का
मेला भरना तो सती-प्रथा का प्रचार करना है। सती की व्यवस्था करना, मंदिर बनाना, पूजा करना और स्त्रियों को प्रलोभन
देना है कि तुम भी हो जाओ सती, बाई क्या कर रही हो! अरे मारो
पति को, फिर हो जाओ सती! अरे चार दिन की जिंदगी है, कुछ कर लो। नाम रह जाएगा। झांझनसती हो जाओगी। झंझोड़ दो पति को और कूद पड़ो
चिता में। फिर मंदिर बनेगा, और तुम्हारी चिताओं पर जुड़ेंगे
हर बरस मेले।
और मैं, वे कहते हैं कि मोरारजी भले ही उपवास करके मर जाएं,
मैं आनंद मनाऊंगा।
मैं तो आनंद मनाता ही हूं। यही तो योग की व्यवस्था है। अब क्या चाहते
हो मैं योग भी छोड़ दूं? योग का यही तो मूल आधार है कि जीवन भी उत्सव, मृत्यु भी उत्सव। लेकिन मैंने जब कहा कि मोरारजी देसाई अगर अनशन करके मर
भी जाएं तो भी मैं उनसे अनशन तोड़ने को न कहूंगा, बल्कि उनके
मर जाने पर हम उत्सव मनाएंगे, नाचेंगे, गाएंगे--तो बड़ा विरोध हुआ गुजराती के अखबारों में। बड़ा विरोध हुआ कि यह तो
बात बहुत कठोर हो गई।
यह बात बिलकुल कठोर नहीं है। मेरे पिताजी चल बसे, उनको भी हमने इसी मस्ती से विदा दिया। यह कोई मोरारजी के लिए...अरे
मोरारजी पर दया कर रहा हूं! यहां तो हरेक चीज का उत्सव मनाया जाता है। मेरे पिता
ही चल बसे तो भी हमने नाच-गाकर उनको विदा किया। उतना ही सम्मान मोरारजी को दे रहा
हूं, और क्या चाहिए? यह बिलकुल
गोबर-गणेश को! इतना सम्मान जितना केवल बुद्ध पुरुषों को मिलना चाहिए, बुद्धुओं को इतना सम्मान! और उसका विरोध किया जा रहा है!
मैं तो अपने संन्यासियों से कह रहा हूं कि जब मैं मरूं तो ऐसा उत्सव
मनाना जैसा कि इस पृथ्वी पर कभी मनाया ही नहीं गया। क्योंकि जीवन भी उत्सव है, मृत्यु भी उत्सव है; दोनों में परमात्मा ही छिपा है,
तो फिर उत्सव ही होना चाहिए। इसमें कोई एतराज की बात कहां है?
लेकिन लोग अपनी बंधी धारणाओं से छूटते नहीं। और फिर मुझसे कहते हैं
मैं चुप क्यों हूं! बोलूं तो तुम्हारी बंधी धारणाओं पर चोट लगती है। जरा बोलो कि
चोट लगी।
अभी सिंधी संन्यासियों ने ही मुझसे कहा कि आप सिंधियों को क्यों छोड़ते
हैं? सीता मैया ही बोलीं कि हम भी हैं यहां और आप सिंधियों
पर कभी कुछ नहीं कहते। और कल प्रतिभा लालवानी को सिंधी-समाज के प्रमुख का फोन आ
गया कि अपने भगवान को कहो कि अगर सिंधियों के खिलाफ बोले तो हम भी बाजुएं
फड़काएंगे!
अरे! बड़ी मुसीबत है! है इसका कोई उत्तर? अगर बोलो तो मुसीबत,
न बोलो तो मुसीबत। और यहां जो सिंधी थे वे बाजुएं फड़का रहे थे,
वे कहते कि बोलो।
अब प्रतिभा लालवानी लालवानी नहीं है। वे बेचारे गलत समझे। वे समझे कि
सिंधी बाई है, इसको उकसाओ। लालवानी शब्द से उनको भ्रांति हो गई। वह
जो नी लगा है न! प्रतिभा कोई सिंधी नहीं है, सिर्फ एक सिंधी
को पति बना लिया। मगर सिंधी को भी रास्ते पर लगा दिया प्रतिभा ने--प्रतिभा ही है
उसके पास, उसमें कोई शक नहीं--पतिदेव को ऐसा गत्ता मारा है
कि वे बंबई में पड़े हैं। वे समझे कि यह प्रतिभा लालवानी भी सिंधी है। प्रतिभा कोई
सिंधी नहीं है। प्रतिभा तो प्रतिभा है--मेरी संन्यासिनी! वहां कहां सिंधी, वहां कहां मारवाड़ी, वहां कहां कोई और। अब उन्होंने
फोन किया कि बहुत हमारे खिलाफ कहा जा रहा है, रोज हमारे
खिलाफ कहा जा रहा है।
मैंने प्रतिभा को खबर भेजी है कि उनसे कहना कि वे जो भी कह रहे थे, तुम्हारे फोन ने सिद्ध कर दिया कि सच ही कह रहे थे। अरे मजाक भी नहीं समझ
सकते हो, महासिंधी मालूम होते हो!
कहा है कि "बुद्ध, महावीर और क्राइस्ट
गलत थे--ऐसा कहते हैं। गांधी प्रतिक्रियावादी कायर थे। इस प्रकार की बड़बड़ाहट करने
वाले इस विलासी संन्यासी की जीभ पर बिहार की भयानक घटनाओं के विषय में ताला क्यों
लगा है?'
संन्यासी तो मैं बिलकुल नहीं हूं, मुझे देख कर कोई भी
कह सकता है। यहां संन्यासी बहुत हैं, वे मेरे शिष्य हैं। अब
क्या गुरु को शिष्य बनना पड़ेगा? संन्यासी मैं नहीं हूं। मैं
जब दूसरों को चक्कर में डाल सकता हूं तो खुद क्यों चक्कर में पडूं? मैं तो शुद्ध विलासी हूं, इसलिए तो भगवान कहता हूं
अपने को। भगवान यानी भाग्यवान। और हमारा शब्द है, ईश्वर।
ईश्वर शब्द बना है ऐश्वर्य से। ऐश्वर्य का अर्थ है--विलास, भोग।
उसी से बना है ईश्वर। अरे मैं तो ईश्वर ठहरा--भोगी, विलासी,
लेटे हैं अपनी शय्या पर, निठल्ले!
दास मलूका कह गए सबके दाता राम।
अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम।।
अब कहां संन्यास वगैरह की बातें लगाए हो? अब क्या अ ब स से फिर मुझे पढ़ना शुरू करना पड़ेगा? बामुश्किल
तो सिद्ध हो पाए, अर्थात बामुश्किल सिंधी हो पाए, अब फिर संन्यासी?
और यह बात बिलकुल झूठ है, उन्होंने कहा कि मेरे
संन्यासी कहते हैं कि जो हमारे भगवान को गाली देंगे उनकी हम हड्डियां चकनाचूर कर
देंगे। यह बात बिलकुल झूठ है। सरासर झूठ है। ऐसा किसी संन्यासी ने नहीं कहा है। और
न मेरे संन्यासी इस तरह की बातों में भरोसा करते हैं। अरे हम तो आत्मा को चकनाचूर
करते हैं, क्या हड्डियों में उलझो! हड्डी वगैरह में तो
कुत्ते उलझते हैं। हड्डियां तो कुत्ते चकचोरते हैं। हमारे संन्यासी तो आत्माओं को
सफा करते हैं।
है इसका कोई उत्तर?
आज इतना ही।
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