ए न्यू मॉडल ऑफ दि यूनिवर्स—(पी. डी. ऑस्पेन्सकी)-ओशो की प्रिय पुस्तकें
A New Model of the Universe-P. D. Ouspensky
पी. डी. ऑस्पेन्सकी एक रशियन गणितज्ञ और रहस्यवादी था। उसे रहस्यदर्शी तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन रहस्य का खोजी जरूर था। विज्ञान अध्यात्म, गुह्म विद्या, इन सबमें उसकी एक साथ गहरी पैठ थी। इस अद्भुत प्रतिभाशाली लेखक ने पूरी जिंदगी अस्तित्व की पहेली को समझने-बुझने में लगायी। उसने विश्वंभर में भ्रमण किया, वह भारत भी आया, कई योगियों और महात्माओं से मिला। और अंत मैं गुरजिएफ का शिष्य बन गया। गुरजिएफ के साथ उसे जो अनुभव हुए उनके आधार पर उसने कई किताबें लिखी।
ऑस्पेन्सकी को बचपन से ही अदृश्य पुकारता था; उसकी झलकें आती थी। एक तरफ वह फ़िज़िक्स का अध्यन करता और दूसरी तरफ उसे ‘’अनंतता’’ दिखाई देता।
ओशो ने ऑस्पेन्सकी की पाँच किताबों को अपनी मनपसंद किताबों में शामिल किया है। ‘’टर्शियम ऑर्गेनम’’, ‘’इस सर्च ऑफ दि मिरेकुलस’’, ‘’ एक न्यू मॉडल ऑफ यूनिवर्स’’, ‘’दी फोर्थ वे’’, और ‘’दि फ़्यूचर साइकॉलॉजी ऑफ मैन’’। वे स्पष्ट रूप से कहते थे, ऑस्पेन्सकी की किताबें मुझे बहुत पसंद है।
इस किताब के भी 542 पृष्ठ है, और बारह प्रकरण है। यह एक अच्छा खाता रत्नाकर हे। विचारों के रत्न ही रत्न भरे पड़े है। इसके पन्नों में। और हर विचार ऐसा जो हमें एक नई अंतर्दृष्टि दे, जीवन के बारे में नये ढंग से सोचने की प्रेरणा दे। किताब का प्रारंभिक प्रकरण है ’’इसोटेरिज्म एक मॉडर्न थॉट (गुह्म विज्ञान और आधुनिक विचार) और अंतिम प्रकरण है: सेक्स एंड इवोल्यूशन (सेक्स और विकास)। ऑस्पेन्सकी निरंतर विज्ञान की खोजों का आधार लेते हुए, उसकी नींव पर रहस्य और अध्यात्म का भवन खड़ा करता है। उसका पूरा प्रयास यह है कि अतीत के आविष्कारों, वैज्ञानिकों, तर्क शास्त्रियों और नियमों को रद्द करके आधुनिक मनुष्य को एक नवीन, संपूर्ण और स्वस्थ आध्यात्मिक दृष्टि दी जाये। इसीलिए उसने किताब का नामकरण किया है: ‘’ए न्यू मॉडल ऑफ दि यूनिवर्स’’ इसी नाम का एक प्रकरण भी है इस किताब में।
ऑस्पेन्सकी का तर्क सीधा-साफ है। वह कहता है विश्व को समझने के लिए उसकी एक रूपरेखा बनानी जरूरी है। जैसे घर बनाने से पहले आर्किटेक्ट उसका नक्शा बनाता है। विज्ञान और दर्शन ने अतीत में विश्व का जो नक्शा बनाया था वह बड़ा संकीर्ण था। फ़िज़िक्स, केमिस्ट्री, खगोलविज्ञान इतना विकसित नहीं हुआ था। अब बीसवीं सदी में विज्ञान ने और विचार ने इतनी छलाँगें लगाई है कि अब हमें अरस्तू न्यूटन, पाइथागोरस, यूक्लिडी इत्यादि लोगों को सम्मानपूर्वक विदा करना चाहिए। विज्ञान ने ही अपने पुरखों की उपयोगिता निरर्थक कर दी है।
किताब की भूमिका में प्रसिद्ध अंग्रेज नाटककार इब्सेन द्वारा निर्मित एक पात्र डॉ स्टॉकमन का एक वक्तृत्व ऑस्पेन्सकी के उद्धृत किया है। (इस वक्तव्य पर ओशो के पेन के लाल निशान लगे है।) वह कहता है, ‘’ कुछ जरा-जर्जर सत्य होते है। वे अपनी उम्र से कुछ ज्यादा जी चुके है। और जब सत्य इतना बूढा होता है तो वह झूठ बनने के रास्ते पर होता है। इस तरह के सभी जीर्ण सत्य मांस के सड़े हुए टुकड़े की तरह होते है। उनमें पैदा होने वाली नैतिक बीमारी लोगों की अंतड़ियों को भीतर से कुरेदती रहती है।
अतीत का विचार और विज्ञान अब एक बूढा सत्य हो चूका है जो लंबी उमर के कारण असत्य बन गया है।
ऑस्पेन्सकी ने दो तरह की सोच बतायी है: तर्कसंगत और मनोवैज्ञानिक, अब तक हम आस्तित्व को तर्कसंगत मस्तिष्क से समझने की कोशिश करते थे लेकिन अस्तित्व बहुत विराट है, उसे समझने के लिए नई संवेदनशीलता चाहिए जो कि मनोवैज्ञानिक सोच से आ सकती है। तर्क बड़े सुनिश्चत निष्कर्ष निकालता है। और तार्किक मस्तिष्क सोचता है कि उसने सब कुछ जान लिया। इसलिए जीवन के रहस्य को वह बिलकुल चूक जाता है। मनोवैज्ञानिक मस्तिष्क मुश्किल में पड़ जाता है। क्योंकि उसके सामने रहस्य के इतने द्वार खुल जाते है कि वह कुछ भी सुलझा नहीं पाता। अस्तित्व के समक्ष विवश होकर खड़ा रह जाता है। लेकिन वह आदमी रहस्य को जीता है।
ऑस्पेन्सकी को बचपन से ही अदृश्य पुकारता था; उसकी झलकें आती थी। एक तरफ वह फ़िज़िक्स का अध्ययन करता और दूसरी तरफ उसे अनंतता के आलोक में वस्तुओं की जड़ता खो जाती। सब कुछ चैतन्य से तरंगायित नजर आता। जब चेतना नजर आती है तो उसके साथ एक और परिवर्तन घटते है। वस्तुओं को जोड़ने वाले एक अखंड तत्व का साक्षात होता है। इन परा मानसिक अनुभूतियों के बाद ऑस्पेन्सकी अपने घर में न रह सका। वह पूरब की और चल पडा गुह्म रहस्य विद्यालयों और गुरूओं की खोज में।
ऑस्पेन्सकी अपनी यात्रा के दौरान ईजिप्त से होते हुए भारत आया। वह इतने आध्यात्मिक व्यक्तियों से मिला कि धीरे-धीरे उसकी आंखों के सामने एक नया रहस्यपूर्ण समाज उभरने लगा, नयी कोटि के लोग जिनके पैदा होने की तैयारियाँ चल रही है; नये आदर्श नये बीज बोये जा रहे है ताकि आदमी की नई नस्ल पैदा हो। क्या यह ओशो चेतना के अवतरण की पूर्व तैयारी थी। वे नई कोटि के लोग कौन है? ओशो कहते है: ‘’ऑस्पेन्सकी मेरे संन्यासियों की बात कर रहा है।‘’ (बुक्स आय हैव लव्ड)
ऑस्पेन्सकी रहस्य लोक और भौतिक जगत को जोड़नेवाला एक सेतु है। वह निरंतर मनुष्य की प्रचलित, स्थापित धारणाओं का अनदेखा पहलू दिखाता है। जैसे डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत के बारे में वह कहता है, कि यह सिद्धांत अब मनुष्य के मस्तिष्क में इतना खुद गया है। इसके पक्ष में बोलना पुरातन पंथी लगता है। लेकिन विकास वाद हर कहीं लागू नहीं होता। अगर हर चीज एक नियम के अनुसार विकसित हो रही है तो फिर दुर्घटनाओं का क्या? घटनाओं की आकस्मिकता की क्या व्याख्या होगी। कुछ चीजें ऐसी भी है जो विकास से परे है, जैसे आनंद, चेतना, आसमान।
समय की चर्चा करते हुए, ‘’इटर्नल रिकरन्स’’ ‘’अर्थात शाश्वत पुनरावर्तन’’ के प्रकरण में ऑस्पेन्सकी ने यह अंत दृष्टि दी है कि तार्किक मस्तिष्क को समय जैसा दिखाई देता है, केवल वैसा ही नहीं है। समय का तीन आयामों के, विश्व के पास का चौथा आयाम भी है: अनंतता, अनंतता समय का अंत ही विस्तार नहीं है। बल्कि त्रिकाल(भूत, वर्तमान, भविष्य) के पार स्थित, चौथा आयाम है जिसे सामान्य तार्किक मन समझ नहीं पाता।
पुनर्जन्म की वैज्ञानिक जरूरत बताते हुए ऑस्पेन्सकी कहता है, यदि पुनर्जन्म न हो तो मानव जीवन बहुत ही बेतुका, अर्थहीन और छोटा मालूम होता है। जैसे किसी उपन्यास का एक फटा हुआ पन्ना। इस छोटे से जीवन के लिए इतनी आपाधापी, इतना शोरगुल व्यर्थ जान पड़ता है।
ऑस्पेन्सकी भारत में कई योगियों से मिला। उसने स्वयं योग का अभ्यास भी किया। इस अभ्यास से निर्मित हुआ एक प्रकरण: ‘’योग क्या है।‘’
ऑस्पेन्सकी की विशिष्टता यह है कि इस किताब को यह दार्शनिक या अध्यात्मिक शब्दजाल नहीं बनाता, बल्कि लगातार वैज्ञानिक धरातल पर ले आता है। भौतिक जगत और सूक्ष्म जगत, विज्ञान और अध्यात्म का एक अंतर-नर्तन सतत चलता रहता है। इसलिए यह ग्रंथ एक फंटासी न रहकर वैज्ञानिक खोज बनती है। सभी स्थापित वैज्ञानिक नियमों को ऑस्पेन्सकी ने आध्यात्मिक आयाम के द्वारा विस्थापित कर दिया है। न्यूटन का सर्वमान्य गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत ऑस्पेन्सकी अ-मान्य कर दिया है। उसकी दृष्टि में गुरुत्वाकर्षण तभी तक लागू है जब तक हम वस्तुओं को ठोस आकार की तरह देखते है। यदि वस्तुएं केवल वर्तुलाकार तरंगें है। जो एक दूसरें से जुड़ी हुई है तो कौन किसको खींचेगा। हम किस तल से चीजों को देखते है इस पर उसके नियम निर्भर करते है। एक कुर्सी तभी तक कुर्सी है जब तक हम चीजों को जड़ मानते है। इलेक्ट्रॉन की आंखों से देखें तो कुर्सी एक नाचते हुए अणुओं का ऊर्जा-पुंज है। और अवकाश में जायें तो कुर्सी की कोई उपयोगिता नहीं है, क्योंकि वहां ‘’बैठना’’ संभव ही नहीं है। सब कुछ तैरता रहता है।
‘’ए न्यू मॉडल ऑफ दि यूनिवर्स’’ एक आनंद यात्रा है। इसके शब्द मृत आकार नहीं है। जीवंत प्राणवान अनुभूतियां है। ऑस्पेन्सकी की भाव दशा में आकर हम इस अभियान पर चलें तो वाकई नये मनुष्य बनकर बाहर आयेंगे—एक ताजगी लेकर, नई आंखे और नई समझ लेकर।
लेकिन यह ताजगी इतनी आसानी से नहीं मिलेगी। 542 पृष्ठ का लंबा सफर तय करना पड़ेगा। उतना साहस और धीरज हो तो विश्व का यह नया नक्शा आपके जीवन को रूपांतरित कर देगा। लंदन के ‘’रूट लेज एण्ड केगन पॉल लिमिटेड’’ ने इसे 1931 में प्रकाशित किया था। उसके बाद इसके छह संस्करण प्रकाशित हुए। टी. वी. के उथले मनोरंजन से जो ऊब गये है उनके लिए यह किताब एक स्वास्थ्यवर्धक बौधिक पोषण है।
किताब की एक झलक:
दि फोर्थ डायमेन्शन—(चौथा आयाम)
यह ख्याल लोगों के मन में बढ़ना और मजबूत होना जरूरी है कि एक गुह्म ज्ञान है। जो उस सारे ज्ञान के पार है, जो मनुष्य अपने प्रयत्नों से प्राप्त कर सकता है। क्योंकि ऐसी कितनी ही समस्याएं है, प्रश्न है, जिन्हें वह सुलझा नहीं सकता।
मनुष्य स्वयं को धोखा दे सकता है, सोच सकता है उसका ज्ञान बढ़ता है, विकसित होता है; और वह पहले जितना जानता-समझता था, अब उससे अधिक जानने समझने लगा है। लेकिन कभी-कभार वह ईमानदारी से देखे कि आस्तित्व की बुनियादी पहेलियों के आगे वह इतना ह विवश है जितना कि जंगली आदमी या छोटा बच्चा होता है। हालांकि उसने कई जटिल यंत्र खोज लिए है। जिन्होंने उसके जीवन को और उलझा दिया है। लेकिन सुलझाया कुछ भी नहीं।
स्वयं के साथ और भी ईमानदारी बरतें तो मनुष्य पहचान सकता है कि उसकी सारी वैज्ञानिक और दार्शनिक प्रणालियां और सिद्धांत इन यंत्रों और साधनों की मानिंद है, क्योंकि वे प्रश्नों को और दुरूह बना देते है। हल नहीं करते।
दो खास प्रश्न जो मनुष्य को हर वक्त धेरे रहते है वे है—अदृश्य जगत का प्रश्न और मृत्यु की पहले।
मनुष्य चिंतन के पूरे इतिहास में सभी रूपों में , निरपवाद रूप से, जगत को दो कोटियों में बांटा गया है: दृश्य और अदृश्य। और लोगों को इस बात का अहसास रहा है कि दृश्य जगत जो उनके सीधे निरीक्षण और अध्ययन का अहसास रहा है कि दृश्य जगत जो उनके सीधे निरीक्षण और अध्ययन का हिस्सा है वह बहुत छोटा है, लगभग है ही नहीं। जिसकी तुलना में विराट अदृश्य आस्तित्व है। ....विश्व का यह विभाजन—दृश्य और अदृश्य--मनुष्य की विश्व-संबंधी पूरी सोच की आधारशिला है; भले ही इन विभाजनों को उसने नाम कुछ भी दिया हो। अगर हम विश्व के दर्शनों की गिनती करें तो ये विभाजन स्पष्ट हो जायेंगे। पहले ता हम सभी विचार पद्धतियों को तीन वर्गों में बांट दें--
1. धार्मिक पद्धति
2. दार्शनिक पद्धति
3. वैज्ञानिक पद्धति
सभी धार्मिक पद्धतियां, निरपवाद रूप से, जैसे ईसाइयत, बौद्ध, जैन से लेकर जंगली आदमी के पूर्णतया अप्रगति धर्म तक जो कि आधुनिक मनुष्य को आदिम दिखाई देते है। विश्व को दो वर्गों में बांटते है—दृश्य और अदृश्य। ईसाइयत में ईश्वर, फ़रिश्ते, शैतान, दैत्य, जीवित और मृत व्यक्तियों की आत्माएं, स्वर्ग और नर्क की धारणाएं है। और उससे पूर्व पेगन धर्मों में आधी तूफान, बिजली, बरसात, सूरज, आसमान, इत्यादि-इत्यादि नैसर्गिक शक्तियों को मानवीय रूप देकर देवताओं की शकल में पूजा गया है।
दर्शन में एक घटनाओं का जगत है। और एक कारणों का जगत है। एक संसार वस्तुओं का और एक संसार विचारों का। भारतीय दर्शन में, विशेषत: उसकी कुछ शाखाओं में दृश्य याने घटनाओं के जगत को माया कहा गया है, जिसका अर्थ है: अदृश्य जगत की अयथार्थ प्रतीति, इसलिए वह है ही नहीं।
विज्ञान में, अदृश्य जगत अणुओं का जगत है। और अजीब बात यह है कि वही विशाल मात्राओं का जगत है। जगत की दृश्यता उसकी मात्रा से नापी जाती है। अदृश्य जगत में है: कोशिकाएं, मांसपेशियाँ, माइक्रो-ऑर्गानिज्मस, दूरबीन से देखे जाने वाले सूक्ष्म जीवन, इलेक्ट्रॉन -प्रोटोन- न्यूट्रॉन, विद्युत तरंगें। इसी जगत में शामिल है, दूर-दूर तक फैले सितारे, सूर्य मालाएँ और अज्ञात विश्व। माइक्रोस्कोप एक आयाम में हमारी दृष्टि को विशाल करता है। और टेलीस्कोप दूसरी दिशा में। लेकिन जो अदृश्य विश्व शेष रह जाता है उसकी तुलना में विज्ञान की सूक्ष्म दृश्यता बहुत कम है।
ऑन दि स्टडी ऑफ ड्रीम्स एण्ड हिप्नोटिज्म:
यह पुस्तक ओशो ने सन 1869 में पढ़ी। जैसी कि उनका पढ़ने का अंदाज था, वे पुस्तक के महत्वपूर्ण अंशों पर लाल और नीले निशान लगाते थे। इस पुस्तक के जिन अंशों पर ओशो ने नीले बिंदु लगाये है उनमें से कुछ अंश प्रस्तुत है:
मेरे जीवन के कुछ बहुत अर्थपूर्ण संस्कार ऐसे थे जो स्वप्नों के जगत से आये। बचपन से स्वप्न लोक मुझे आकर्षित करता रहा। स्वप्नों की अगम घटना की व्याख्या मैं हमेशा ढूँढता रहा और यथार्थ और अयथार्थ स्वप्नों का अंतर-संबंध जानने की कोशिश करता रहा हूं, मेरे कुछ असाधारण अनुभव स्वप्नों से संबंधित रहे है। छोटी आयु में ही मैं इस ख्याल को लेकिर जागता था कि मैंने कुछ अद्भुत देखा है, और वह इतना रोमांचकारी है कि अब तक मैंने भी जो जाना था, समझा था, वह बिलकुल नीरस जान पड़ता है। इसके अलावा, मैं बार-बार आनेवाले स्वप्नों से आश्चर्यचकित था। ये स्वप्न बार-बार एक ही परिवेश में एक ही शकल में आते और उनका अंत भी एक जैसा होता। और उनके पीछे वही स्वाद छूटता।
सन 1900 के दरमियान जब मैं सपनों पर उपलब्ध पूरा साहित्य पढ़ चुका, मैंने खुद ही अपने स्वप्नों को विधिवत समझने की ठान ली। मैं अपने ही एक अद्भुत ख्याल पर प्रयोग करना चाहता था। जो बचपन में ही मेरे दिमाग में मेहमान हुआ था: क्या स्वप्न देखते समय होश साधना संभव नहीं है? मतलब, स्वप्न देखते हुए यह जानना कि में सोया हूं और होश पूर्वक सोचना, जैसे हम जागे हुए सोचते है।
मैंने अपने स्वप्नों को लिखना शुरू किया। उससे मेरी समझ में एक बात आ गई कि स्वप्नों को देखना हो तो जो सामान्य विधियां सिखाई जाती है वे किसी काम की नहीं हे। स्वप्न निरीक्षण को झेल नहीं पाते। निरीक्षण उन्हें बदल देता है। और शीध्र ही मेरे ख्याल में आया कि मैं जिनका निरीक्षण कर रहा था वे पुराने स्वप्न नहीं थे। बल्कि नये स्वप्न थे जिन्हें मेरे निरीक्षण ने पैदा किया था। मेरे भीतर कुछ था जिसने स्वप्न पैदा करने शुरू किये। मानों वे ध्यान को आकर्षित कर रहे थे।
दूसरा प्रयास स्वप्न में जागे रहना, इसे साधते-साधते मैं स्वप्नों को निरीक्षण करने का एक नया ही अंदाज सीख गया। उसने मेरी चेतना में एक अर्ध-स्वप्न की स्थिति पैदा कर दी। और मैं निश्चित रूप से जान गया कि अर्ध-स्वप्न की स्थिति के बिना स्वप्नों का निरीक्षण करना असंभव था।...इस अर्ध स्वप्न की स्थिति में मैं एक ही समय सोचा रहता और जागा भी रहता।
ऐक्सपैरिमैंट मिस्टिसिज्म:
सामान्य जीवन में हम सिद्धांत और प्रतिसिद्धांत के रूप में सोचते है। हमेशा हर कहीं, ‘’हां’’ या ‘’ना’’ में जवाब होत है। अलग ढंग से सोचने पर, नये तरीके से सोचने पर वस्तुओं को चिन्ह बनाकर सोचने पर मैं अपनी मानसिक प्रक्रिया की बुनियादी भूल को समझ गया।
हकीकत में हमेशा तीन तत्व होते है। दो नहीं। सिर्फ, हां या ना नहीं होते, वरन ‘’हां’’ ‘’ना’’, ‘’और कुछ’’ और होते है। और इस तीसरे तत्व का स्वभाव, जो कि समझ के परे था, कुछ ऐसा था कि उसने सामान्य तर्क को असंगत बना दिया और सोचने की आम पद्धति में बदलाहट की मांग की। मैंने पाया कि हर समस्या का उत्तर हमेशा ‘’तीसरे’’ अज्ञात तत्व से आता है। और इस तीसरे तत्व के बिना सही निष्कर्ष निकालना असंभव था।
मैं जब प्रश्न पूछता था तो मैं देखता था कि अकसर वह प्रश्न ही गलत पेश किया गया है। मेरे प्रश्न का उत्तर देने की बजाय वह ‘’चेतना’’ जिससे मैं बात करता था, उस प्रश्न को ही उलटा कर, घूमाकर दिखा देती कि प्रश्न गलत था। धीरे-धीरे मैं देखने लगा कि क्या गलत था। और जैसे ही मैंने स्पष्ट रूप से देखा कि मेरे प्रश्न में गलत क्या था, मुझे उत्तर दिखाई दिया। लेकिन उत्तर हमेशा अपने भीतर तीसरा तत्व लिये रहता जो इससे पहले में देख नहीं पाता था। क्योंकि मरे प्रश्न सदा दो तत्वों पर खड़ा रहता सिद्धांत और प्रतिसिद्धांत। मैंने इसे अपने लिए इस भांति सोच लिया: सारी कठिनाई प्रश्न के बनाने में थी। अगर हम सही प्रश्न बना सकें तो हमे उत्तर का पता चलना चाहिए। सही ढंग से पूछे गये प्रश्न में उत्तर अंतर्निहित होता है। लेकिन वह उत्तर हमारी अपेक्षा से कही भिन्न होगा।
ओशो का नज़रिया:
मैं पुन: ऑस्पेन्सकी का जिक्र करने जा रहा हूं, मैं उसकी दो किताबों का नाम ले चुका हूं। एक ‘’टर्शियम ऑर्गेनम’’ जो उसने अपने गुरु गुरजिएफ से मिलने से पहले लिखी थी। ‘’टर्शियम ऑर्गेनम’’ गणितज्ञों में प्रसिद्ध है। क्योंकि ऑस्पेन्सकी ने जब यह किताब लिखी तब वह गणितज्ञ था। दूसरी किताब ‘’इन सर्च ऑफ मिरेकुलस’’ उसने उस समय लिखी जब वह गुरूजिएफ के साथ कई वर्ष रह चुका था। लेकिन उसने तीसरी किताब लिखी है जो इन दो किताबों के बीच लिखी, ‘’टर्शियम ऑर्गेनम’’ के बाद और गुरूजिएफ से मिलने से पहले। इस किताब को बहुत कम ख्याति प्राप्त हुई है। यह किताब है: ‘’ए न्यू मॉडल ऑफ दि यूनिवर्स’’ बडी विचित्र किताब है। बड़ी विलक्षण।
ऑस्पेन्सकी ने पूरी दुनिया में गुरु की खोज की, खास कर भारत में। क्योंकि लोग अपनी मूढ़ता में सोचते है कि गुरु सिर्फ भारत में ही मिलते है। ऑस्पेन्सकी ने भारत में खोज की, और वर्षों खोज की। गुरु की खोज में वह बंबई भी आया था। उन दिनों में उसने ये सुंदर किताब लिखी ‘’न्यू मॉडल ऑफ दि यूनिवर्स’’
यह एक कवि की कल्पना है। क्योंकि उसे पता नहीं है कि वह क्या कह रहा है। लेकिन जो वह कह रहा है वह सत्य के बहुत-बहुत करीब है। लेकिन सिर्फ ‘’करीब’’ ख्याल रखना। और सिर्फ बाल की चौड़ाई तुम्हारी दूरी बनाने के लिए काफी है। वह दूर ही रहा। वह खोजता रहा.....खोजता रहा....
इस किताब में उसने उसकी खोज का विवरण लिखा है। किताब अचानक खत्म हो जाती है। मॉस्को के एक कैफेटेरिया में, जहां उसे गुरूजिएफ मिलता है। गुरूजिएफ वाकई एक विलक्षण गुरु था। वि कैफेटेरिया में बैठकर लिखता था। लिखने के लिए भी क्या जगह ढूँढी। वह कैफेटेरिया में जाकर बैठता....लोग बैठे है, खा रहे है, .....बच्चे इधर-उधर दौड़ रहे है। रास्ते से शोर गुल आ रहा है। हॉर्न बज रहे है....ओर गुरूजिएफ खिड़की के पास बैठा, इस सारे उपद्रव से घिरा ‘’आल एंड एवरीथिंग’’ लिख रहा है।
ऑस्पेन्सकी ने इस आदमी को देखा और इसके प्रेम में पड़ गया। कौन बच सकता था? वह सर्वथा असंभव है कि गुरु को देखो और उसके प्रेम में न पड़ जाओं, बशर्ते कि तुम पत्थर के होओ.....या सिंथेटिक चीज से बने हो। जैसे ही उसने गुरूजिएफ को देखा.....आश्चर्य। उसने देखा कि यही वे आंखें है जिन्हें खोजते हुए वह पूरी दुनियां में घूम रहा था। भारत की धूल-धूसरित गंदी सड़कें छान रहा था। और यह कैफेटेरिया मॉस्को में उसके घर के बिलकुल पास था। कभी-कभी तुम जिसे खोजते हो वह बिलकुल पास में मिल जाता है।
ए न्यू मॉडल ऑफ दि यूनिवर्स’’ काव्यात्मक है, लेकिन मेरी दृष्टि के बहुत करीब आती है। इसलिए मैं उसे सम्मिलित करता हूं।
ओशो
दि बुक्स आय हैव लव्ड
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