प्रश्न-- एक और मित्र ने पूछा है, आत्मा शरीर के बाहर चली जाए, तो क्या दूसरे शरीर में भी प्रवेश कर सकती है?
ओशो—कर सकती है। लेकिन दूसरे मृत शरीर में प्रवेश करने का कोई अर्थ और प्रयोजन नहीं रह जाता। क्योंकि दूसरा शरीर इस लिए मृत हुआ है कि उस शरीर में रहने वाली आत्मा उस शरीर में रहने में असमर्थ हो गई थी। वह शरीर व्यर्थ हो गया था। इसीलिए छोड़ा था। कोई प्रयोजन नहीं है, उस शरीर में प्रवेश करने का। लेकिन इस बात की संभावना है कि दूसरे शरीर में प्रवेश किया जा सके।
लेकिन यह प्रश्न पूछना मुल्य वान नहीं है। कि हम दूसरे के शरीर में कैसे प्रवेश करें, अपने ही शरीर में हम कैसे बैठे हुए है। इसका भी हमें कोई पता नहीं है। हम दूसरे के शरीर में प्रवेश करने की व्यर्थ की बातों पर विचार करने से क्या फायदा उठा सकते है। हम अपने ही शरीर में कैसे प्रविष्ट हो गई है, इसका भी हमे कोई पता नहीं है। हम अपने ही शरीर को कैसे जी रहे है, इसका कोई पता नहीं है। हम अपने ही शरीर से पृथक होकर अपने को देख सकें, इसका भी कोई अनुभव नहीं है। दूसरे के शरीर में प्रवेश का प्रयोजन भी नहीं है। लेकिन वैज्ञानिक रूप से यह कहा जा सकता है कि दूसरे के शरीर में प्रवेश संभव है। क्योंकि शरीर न दूसरे का है। और न अपना। सब शरीर दूसरे के है। जब मां के पेट में एक आत्मा प्रविष्ट करती है। तब भी वह शरीर में प्रवेश करती है। बहुत छोटे शरीर में प्रवेश हो रही है। ऐटमिक बॉडी में प्रवेश हो रही है। लेकिन शरीर तो है ही।
वह जो पहले दिन अणु बनता है मां के पेट में वह अणु आपके पूरे शरीर की रूपाकृति अपने में छिपाए हुए होता है। पचास साल बाद आपके बाल सफेद हो जायेंगे, यह संभावना भी उस छोटे से बीज छिपी थी। आपकी आंखों का रंग कैसा होगा। आपके हाथ कितने लंबे होंगे, आप स्वास्थ होंगे या बीमार। आप गोरे होंगे या काले, आपके बाल कैसे होंगे, सीधे या घुंघराले, ये तमाम बातें उस अणु में छुपी थी। जो उस समय वह अणु एक छोटी सी देह लिए परिपूर्ण था। वह ऐटमिक बाड़ी है, अणु शरीर, उस अणु शरीर में आत्मा प्रविष्ट होती है। उस अणु शरीर की जो संरचना है, उस अणु शरीर की जो स्थिति है, जो सिचुएशन है उसके अनुकूल आत्मा उसमे प्रविष्ट होती है।
और दुनिया में जो मनुष्य जाति का जीवन और चेतना रोज नीचे गिरती जा रही है। उसका एक मात्र कारण है कि दुनियां के दंपति श्रेष्ठ आत्माओं का जन्म देने की संभावना और सुविधा पैदा नहीं कर पा रहे। जो सुविधा पैदा की जा रही है, वह अत्यंत निकृष्ट आत्माओं के पैदा होने की सुविधा है।
आदमी के मर जाने के बाद जरूरी नहीं है कि उस आत्मा को जल्दी ही जन्म लेने का अवसर मिल जाए। साधारण आत्माएं, जो न बहुत श्रेष्ठ होती है, और न निकृष्ठ होती है। तेरह दिन के भीतर नए शरीर की खोज कर लेती है। लेकिन बहुत निकृष्ट आत्माओं को रूकना पड़ता है। क्योंकि उतना निकृष्ट अवसर मिलना मुश्किल है। उन निकृष्ट आत्माओं को ही हम प्रेत कहते है। बहुत श्रेष्ठ आत्माएं भी रूक जाती है। क्योंकि उन्हें श्रेष्ठ अवसर उपलब्ध नहीं मिलता। उन श्रेष्ठ आत्माओं को हम देवता कहते है।
पहली पुरानी दुनिया में भूत-प्रेतों की संख्या बहुत ज्यादा थी और देवताओं की संख्या बहुत कम। आज की दुनियां में भूत-प्रेतों की संख्या बहुत कम हो गई है और देवताओं की संख्या बहुत। क्योंकि देवता पुरूषों को पैदा होने का अवसर बहुत कम हो रहा है। भूत-प्रेतों को पैदा होने का अवसर बहुत तीव्रता से उपलब्ध हुआ है। तो जो भूत प्रेत रुके रह जाते है। मनुष्य के भी तर प्रवेश करने से, वे सारे के सारे मनुष्य जाति में प्रविष्ट हो गए है। इसीलिए आज भूत-प्रेत का दर्शन मुश्किल हो गया है। क्योंकि उसके दर्शन की कोई जरूरत नहीं है, आप अपने चारों और आदमी को देख लें, और उसका दर्शन हो जाता है। और देवता पर हमारा विश्वास कम हो गया है। क्योंकि देव पुरूष ही जब दिखाई न पड़ते हो तो देवता पर विश्वास करना बहुत कठिन है।
एक जमाना था कि देवता उतनी ही वास्तविकता थी, उतनी ही एक्जुअलटि थी जितना कि हमारे जीवन के और दूसरे सत्य है। अगर हम वेद के ऋषियों को पढ़ें तो ऐसा नहीं मालूम पड़ता कि देवताओं के संबंध में जो बात कर रहे है, वह किसी कल्पना के देवता के संबंध में बात कर रहे है। नहीं, वे ऐसे देवता की बात कर रहे है जो उनके साथ गीत गाता है, हंसता है, बात करता है, वे ऐसे देवता की बात कर रहे है। जो उनके साथ गीत गा रहे है जो उनके साथ पृथ्वी पर उनके साथ चल रहा हो। उनके अत्यंत निकट है। हमारा देव लोक से सारा संबंध विनिष्ट हो गया है। क्योंकि हमारे बीच ऐसे पुरूष नहीं जो सेतु बन सकें, जो ब्रिज बन सकें, जो देवताओं और मनुष्यों के बीच में खड़े हो सकें, जो एक दूसरे के बीच ब्रिज बना सके बता सके की देखो देवता कैसे होते है। और इसका सारा जिम्मा मनुष्य जाति के दांपत्य की जो व्यवस्था है, उस पर निर्भर करता है। मनुष्य जाती की दांपत्य की सारी की सारी व्यवस्था कुरूप, अगली और परवर्टेड है।
पहली तो बात यह है कि हमने हजारों साल से प्रेमपूर्ण विवाह बंद कर दिए है। और विवाह हम बिना प्रेम के करते है। जो विवाह बिना प्रेम के होगा, उस दंपति के बीच कभी भी वह आध्यात्मिक संबंध उत्पन्न नहीं होता जो प्रेम से संभव था। उन दोनो के बीच कभी भी वह हार्मनी, कभी भी वह एकरूपता और संगीत पैदा नहीं होता, जो एक श्रेष्ठ आत्मा के जन्म के लिए जरूरी है। उनका प्रेम केवल साथ रहने की वजह से पैदा हो गया सहचर्या होता है। उनके प्रेम में वह आत्मा का आंदोलन नहीं होता, जो दो प्राणों को एक कर देता है।
शायद आपको पता न होगा, स्त्रियां पुरूषों से ज्यादा सुंदर क्यों दिखाई पड़ती है। शायद आपको ख्याल न होगा, स्त्री के व्यक्तित्व में एक राउंड नेस, एक सुडौलता क्यों दिखाई पड़ती है? शायद आपको ख्याल में न होगा। कि स्त्री के व्यक्तित्व में एक संगीत, एक नृत्य, एक इनर डांस, एक भीतरी नृत्य क्यों दिखाई पड़ता है। जो पुरूष में दिखाई नहीं पड़ता। एक छोटा सा कारण है, बहुत बड़ा कारण नहीं है। एक छोटा सा, इतना छोटा कि आप कल्पना भी नहीं कर सकते। उतने छोटे से कारण पर व्यक्तित्व का इतना भेद पैदा हो जाता है।
मां के पेट में जो बच्चा निर्मित होता है, पहला अणु, उस पहले अणु में चौबीस जीवाणु पुरूष के होते है, चौबीस जीवाणु स्त्री के होते है। अगर चौबीस-चौबीस के दोनों जीवाणु मिलते है तो अड़तालीस जीवाणुओं का पहला सेल निर्मित होता है। अड़तालीस सेल से जो प्राण पैदा होता है, वह स्त्री का शरीर बनता है। अड़तालीस सेल से जो प्राण पैदा होता है, वह स्त्री का शरीर बनता है। उनके दोनों बाजू चौबीस-चौबीस के होते है—एक बैलेंस्ड, एक संतुलित। पुरूष का जो जीवाणु होता है। वह सैंतालीस जीवाणुओं का होता है। एक तरु चौबीस होते है, एक तरफ तेईस। बस यह बैलेंस टूट या वहीं से व्यक्तित्व का; संतुलन टूट गया। हार्मनी टूट गई।
स्त्री के दोनों पलड़े व्यक्तित्व के बराबर संतुलन के है। उससे सारे स्त्री का सौंदर्य, उसकी सुडौलता, उसकी कला, उसके व्यक्तित्व का काव्य पैदा होता है। और पुरूष के व्यक्तित्व में जरा सी कमी है। उसका एक तराजू चौबीस जीवाणुओं से बना है और दूसरा तेईस कोष्ठ धारी जीवाणुओं से। अगर मां के चौबीस कोष्ठ धारी जीवाणु से मिलता है तो पुरूष का जन्म होता है। इस लिए पुरूष में एक बेचैनी है। उसका सारा जीवन उस असन्तुलन से डोलता रहता है। उसके जीवन में एक बेचैनी है। मैं यह कर लूं, वह कर लूं, एक चिंता गई नहीं की दूसरी तैयार, पूरा जीवन उस असंतुलन के कारण बन गया है। एक छोटी से घटना से शुरू होती है पुरूष की इस बेचैनी की शुरू आत। जो बाद में हजारों तूफ़ानों में बदल जाती है, चंगेज खा, हिटलर, मुसोलनी, नादिरशाही के अनेक रूपों में। उसके एक पलड़े में एक अणु कम है। उसका बैलेंस व्यक्तित्व कम है। स्त्री का पूरा है। स्त्री की हार्मनी पूरी है, उसकी लयबद्धता पूरी है।
इतनी सी घटना इतना फर्क लाती है। हालांकि इससे सत्री सुंदर तो हो सकी। लेकिन स्त्री विकासमान नहीं हो सकी। क्योंकि जिस व्यक्तित्व में समता है, वह विकास नहीं करता। वह ठहर जाता है। पुरूष का व्यक्तित्व विषम है। विषम होने के कारण वह दौड़ता है, विकास करता है। चाँद पर जाएंगा, तारों पर जाएगा। खोज-बीन करेगा। सोचगा-विचारेगा। ग्रंथ लिखेगा। धर्म-निर्माण करेगा। न वह एवरेस्ट पर जाएगी, न चाँद तारों पर जाएगी। न वह धर्मों की खोज करेगी। न ग्रंथ लिखेगी, न विज्ञान की शोध करेगी। वह कुछ भी नहीं करेगी। उसके व्यक्तित्व में एक संतुलन है, वह संतुलन उसे पार होने के लिए तीव्रता नहीं भरता।
पुरूष ने सारी सभ्यता विकसित की, एक छोटी सी बात के कारण से कि उसमे एक अणु कम है। और स्त्री ने सारी सभ्यता विकसित नहीं की, उसमे एक अणु पूरा है। इतनी छोटी सी घटना इतने व्यक्तित्व का भेद ला सकती है। मैं इसलिए यह कह रहा हूं कि यह तो बायोलॉजिकली है, यह तो जीव-शास्त्र कहेगा कि इतना सा फर्क इतने भिन्न व्यक्तित्व को जन्म दे सकता है। और गहरे फर्क है, और इनर डिफरेंस है।
पुरूष और स्त्री के मिलने से जिस बच्चे का जन्म होता है। वह उन दोनों व्यक्तियों में कितना गहरा प्रेम है, कितनी आध्यात्मिकता है। कितनी पवित्रता है, कितने प्रेयर फुल है, कितने प्रार्थना पूर्ण ह्रदय से एक वे एक दूसरे के पास आये है। इस पर निर्भर करता है। इस प्रेम और समर्पण की भाव दिशा में कितनी ऊंची आत्मा उनकी तरफ आकर्षित होती है, कितनी विराट आत्मा उनकी और खिंची चली आती है। कितनी महान दिव्य चेतना उस घर को अपना अवसर बनाती है, इस पर निर्भर करता है।
मनुष्य जाति क्षीण और दीन और दरिद्र और दुःखी होती चली जा रही हे। उसके बहुत गहरे में कारण मनुष्य के दांपत्य का विकृत होना है। और जब तक हम मनुष्य के दांपत्य जीवन को सुकृत नहीं कर लेते, सुसंस्कृत नहीं कर लेते, जब तक उसे हम स्प्रिचुएलाइज नहीं कर लेते, जब तब तक हम मनुष्य के भविष्य को सुधार नहीं सकते। और दुर्भाग्य में उन लोगों का भी हाथ है, जिन लोगों ने गृहस्थ जीवन की निंदा की है और संन्यासी जीवन का बहुत ज्यादा शोरगुल मचाया है। उनका हाथ है। क्योंकि एक बार जब गृहस्थ जीवन कंडेम्ड़ हो गया, निंदित हो गया, तो उस तरफ हमने विचार करना छोड़ दिया।
नहीं, मैं आपसे कहना चाहता हूं, संन्यास के रास्ते से बहुत थोड़े से लोग ही परमात्मा तक पहुंच सकते है। बहुत थोड़े-से लोग, कुछ विशिष्ट तरह के लोग, कुछ अत्यंत भिन्न तरह के लोग संन्यास के रास्ते से परमात्मा तक पहुंचने है। अधिकतम लोग गृहस्थ के रास्ते से और दांपत्य के रास्ते से ही परमात्मा तक पहुंचते है। और आश्चर्य की बात है कि गृहस्थ के मार्ग से पहुंच जाना अत्यंत सरल है, सुलभ है, लेकिन उस तरफ कोई ध्यान नहीं देता। आज तक का सारा धर्म संन्यासियों के अति प्रभाव से पीड़ित है। आज तक का पूरा धर्म गृहस्थ के लिए विकसित नहीं हो सका। और अगर गृहस्थ के लिए धर्म विकसित होता, तो हमने जन्म के पहले क्षण से विचार किया होता कि कैसा आत्मा को आमंत्रित करना है, कैसी आत्मा को पुकारना है, कैसी आत्मा को प्रवेश देना है जीवन में।
अगर धर्म की ठीक-ठीक शिक्षा हो सके और एक-एक व्यक्ति को अगर धर्म की दिशा में ठीक विचार, कल्पना और भावना दी जा सके, तो बीस वर्षो में आने वाली मनुष्य की पीढ़ी को बिलकुल नया बनाया जा सकता है।
वह आदमी पापी है जो आदमी आने वाली आत्मा के लिए प्रेमपूर्ण निमंत्रण भेजे वाली आत्मा के लिए प्रेमपूर्ण निमंत्रण भेजे बिना भोग में उतरता है। वह आदमी अपराधी है, उसके बच्चे नाजायज है—चाहे उसे बच्चे विवाह के द्वारा पैदा किए हों—जिन बच्चों के लिए उसने अत्यंत प्रार्थना और पूजा से और परमात्मा को स्मरण करके नहीं बुलाया है। वह आदमी अपराधी है। सारी संततियों के सामने वह अपराधी रहेगा। कौन हमारे भीतर प्रविष्ट। हम शिक्षा की फिक्र करते है, हम वस्त्रों की फ्रिक करते है, हम बच्चें के स्वास्थ की फिक्र करते है, लेकिन बच्चों की आत्मा की फिक्र हम बिलकुल ही छोड़ दिए है। इससे कभी भी कोई अच्छी मनुष्य जाति पैदा नहीं हो सकती है।
इसलिए यह बहुत फ्रिक मत करें कि दूसरे के शरीर में कैसे प्रवेश करें। इस बात की फ्रिक करे कि आप इस शरीर में ही कैसे प्रवेश कर गए है।
ओशो
मैं मृत्यु सिखाता हूं, प्रवचन-- 2
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