तो ये बात बहुत विरोधा भाषी है, लेकिन ऐसा है। यदि कोई स्त्री ब्रह्मचर्य धारण करना चाहे और अपने शरीर से पृथक रहना चाहे तो वह यह पुरूष की उपेक्षा अधिक आसानी से कर सकती है। एक बार शरीर से अनासक्ति सध जाए तो वह अपने शरीर को पूरी तरह भूल सकती है।
पुरूष बहुत सरलता से नियंत्रण कर सकता है; लेकिन उसका चित उसके शरीर से ज्यादा बंधा है। इसी कारण से नियंत्रण उसके लिए संभव है; लेकिन यह नियंत्रण उसे रोज-रोज करना होगा। सतत करना होगा। और चूंकि स्त्री की कामवासना अनाक्रामक है, इसलिए वह इस दिशा में अधिक विश्राम पूर्ण हो सकती है। अधिक अनासक्त हो सकती है। लेकिन अनासक्ति कठिन है।
तो तंत्र ने अनेक-अनेक उपाय खोजें है। और तंत्र अकेली व्यवस्था है जो स्त्री-पुरूष में भेद नहीं करता और कहता है कि स्त्री पर्याय का उपयोग भी किया जा सकता है। तंत्र अकेला मार्ग है जो स्त्री को समान हैसियत प्रदान करता है।
शेष सभी धर्म कहते कुछ भी हों, अपने अंतस में यही समझते है कि स्त्री हीन पर्याय है। चाहे ईसाइयत हो, इस्लाम हो, जैन हो या बौद्ध हो, सब गहरे में यही मानते हे कि स्त्री हीन पर्याय है। और इस मान्यता का कारण वही है—तीसरी आँख द्वारा किया गया निदान। हर महीने मासिक धर्म के समय स्त्रियों का प्रभामंडल बदल जाता है।
तीसरी आँख के जरिए तुम उन चीजों को देखने में समर्थ हो जाते हो जो है, लेकिन जिन्हें सामान्य आंखों से नहीं देखा जा सकता। देखने की जितनी विधियां है वे सभी तीसरी आँख को प्रभावित करती है। कारण यह है कि देखने में जो ऊर्जा बाहर की और, संसार की और प्रवाहित होती है, वह अचानक रोक दिए जाने के कारण बहने के नए मार्ग ढूँढ़ती है और निकट पड़ने के कारण तीसरी आँख पर पहुंच जाती है।
तिब्बत में तो तीसरी आँख के लिए शल्य-चिकित्सा तक का उपाय किया गया था। कभी-कभी ऐसा होता है कि हजारों वर्षों से निष्क्रिय पड़े रहने के कारण तीसरी आँख बिलकुल बंद हो जाती है। मूंद जाती है। इस हालत में अगर तुम सामान्य आंखों की गति रोक दो तो तुम बेचैनी महसूस करोगे। कारण यह है कि आँख की ऊर्जा को गति करने का मार्ग नहीं मिला। इस ऊर्जा को मार्ग देने के लिए तिब्बत में तीसरी आँख की आपरेशन किया जाने लगा। यह संभव है। और अगर यह आपरेशन न किया जाए तो कई अड़चनें आ सकती है।
अभी दो या तीन दिन पहले एक संन्यासिनी मेरे पास आई थी—वह अभी यहां मौजूद है। उसने मुझे कहा कि उसकी तीसरी आँख पर बहुत जलन महसूस हो रही है। इतना ही नहीं कि वह जलन महसूस करती थी, उस जगह की चमड़ी सच में जल गई थी। ऐसा लगता था कि किसी ने बाहर से उसकी चमड़ी जला दी थी। जलन तो भीतर थी लेकिन उससे ऊपर की चमड़ी तक प्रभावित हो गई थी, वह बिलकुल जल गई थी। वह संन्यासिनी भयभीत थी कि पता नहीं क्या हो रहा है। साथ ही उसे वह जलन प्रीतिकर भी लगती थी—मानों कोई चीज गल रही हो। कुछ घटित हो रहा था और उससे स्थूल शरीर भी प्रभावित था—मानों असली आग ने उसे छू दिया हो। कारण क्या था?
कारण यह था कि तीसरी आँख सक्रिय हो गई थी। उसकी और ऊर्जा प्रवाहित होने लगी थी। जन्मों-जन्मों से यह आँख ठंडी पड़ी थी कभी उससे ऊर्जा प्रवाहित नहीं हुई थी। इस लिए जब पहली बार ऊर्जा का प्रवाह आया तो वह गर्म हो उठी। जलन होने लगी। और क्योंकि मार्ग अवरूद्ध था, इसलिए ऊर्जा आग जैसी उत्तप्त हो गई। इस तरह वह तीसरी आँख पर इकट्ठी ऊर्जा चोट करने लगी थी।
भारत में हम इसके लिए चंदन, या घी तथा अन्य चीजों का उपयोग करते है। उन्हें तीसरी आँख पर लगाते है और उसे तिलक कहते है। उसे तीसरी आँख की जगह पर लगाकर बहार से थोड़ी ठंडक दी जाती है। ताकि भीतर की गर्मी से, जलन से बाहर की चमड़ी न जले। इस आग से चमड़ी ही नहीं जलती है, कभी-कभी सिर की हड्डी में छेद तक हो जाता है।
मैं एक किताब पढ़ रहा था, जिसमें पृथ्वी पर मानवीय अस्तित्व की गहन रहस्यमयता के संबंध में बड़ी गहरी खोजें है। सदा ही यह प्रस्तावना की गई है कि मनुष्य यहां किसी दूसरे ग्रह से आया है। इस बात की कोई संभावना नहीं है। कि मनुष्य पृथ्वी पर एकाएक विकास को उपलब्ध हो गया हो। इस बात की भी संभावना नहीं है कि मनुष्य बैबून या बनमानुस से विकसित हुआ हो। क्योंकि अगर मनुष्य वनमानुष से आता है तो उसके ओर वनमानुष के बीच कोई कड़ी जरूर होनी चाहिए। सारी खोजों और आंकड़ों के बावजूद अब तक कोई एक भी शिव, कपाल या कोई ऐसी चीज नहीं मिली है जिसके सहारे यह कहा जा सके कि वनमानुष और मनुष्य के बीच की कड़ी उपलब्ध है।
विकास का अर्थ है कदम दर कदम वृद्धि। कोई वनमानुष एकाएक मनुष्य नहीं बन सकता। सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ना होता है। पर इसका कोई सबूत नहीं है कि वनमानुष क्रमश: कैसे इस विकास को उपलब्ध हुआ। डार्विन का सिद्धांत परिकल्पना भर है; क्योंकि बीच की कड़ियां नहीं मिलती है।
यही कारण है कि ऐसे सुझाव दिए गए है कि आदमी अचानक पृथ्वी पर उत्तर आया होगा। एक मनुष्य की पुरानी खोपड़ी कोई लाख साल पुरानी खोपड़ी मिली है। यह खोपड़ी दूसरी खोपड़ियों से जरा भी भिन्न नहीं है; उसमे कोई कमी नहीं है। उसके भीतर का ढांचा और संरचना सबकी सब वही है। जहां तक मस्तिष्क की संरचना का संबंध है, मनुष्य विकास करके नहीं आया मालूम पड़ता है। मालूम यही पड़ता है कि वह अचानक कहीं से पृथ्वी पर आ धमका।
निस्संदेह मनष्य किसी दूसरे ग्रह से आया होगा। अभी हम अंतरिक्ष की यात्राएं कर रहे है। यदि इस यात्रा में कोई ऐसा ग्रह हमे मिल जाए जो बसने लायक हो तो हम वहां पर बस जाएंगे। और तब उस ग्रह पर आदमी एकाएक प्रकट हो जाएगा।
तो मैं एक पुस्तक पढ़ रहा था जिसमें ऐसा प्रस्ताव किया गया है। लेखक ने उसमें अपनी परिकल्पना को मजबूत बनाने के लिए बहुत से तर्क खोजें है। उनमें एक बात है जिसका संबंध इस देखने की विधि से है और वह मैं तुम्हें बताना चाहता हूं। उसे दो खोपड़ियां मिली है—एक मैक्सिको में, दूसरी तिब्बत में। दोनों खोपड़ियों में तीसरी आँख के स्थान पर छेद है। और छेद ऐसे है जैसे की बंदूक की गोली से हुए हो। ये खोपड़ियां कम से कम पाँच-दस लाख वर्ष पुरानी होगी। अगर वे छेद तीर से किए गए होते तो वे इतने गोल नहीं होते। वे तीर से किये हुए नहीं हो सकते। तो इस आधार पर कि वे छेद बंदूक की गोली से बने है लेखक ने यह साबित करने की चेष्टा की है कि दस लाख वर्ष पहले बंदूकें थी। अन्यथा ये दो व्यक्ति मारे कैसे जाते।
सच्चाई यह है कि इस बात का बंदूक या गोली से कुछ लेना-देना नहीं है। जब भी तीसरी आँख के पूरी तरह अवरूद्ध होने पर आँखो की ऊर्जा अचानक गति करती है तो वह ऐसा छेद बना देती है। ऊर्जा भीतर से गोली की तरह आती है—बिलकुल गोली की तरह। वह संचित आग है; वह छेद बनाएगी ही। छेद वाली वे दो खोपड़ियां यह नहीं बताती है कि वे दो मनुष्य गोली से मारे गए। वे सिर्फ यह बताती है कि यह तीसरी आँख की घटना है। तीसरी आँख बिलकुल अवरूद्ध हो गई होगी। ऊर्जा इकट्ठी हो गई होगी; और गति के लिए जगह न पाकर वह आग बन गई होगी। उससे ही वह विस्फोट हुआ होगा। अन्यथा ऐसी घटना नहीं घट सकती थी।
यहीं कारण है कि तिब्बत में उन्होंने तीसरी आँख में छेद करने के उपाय निकाले, ताकि ऊर्जा आसानी से गति कर सके और इस तरह के एक्सीडेंट न हों।
तो जब तुम देखने की विधि का प्रयोग करो तो इस बात का सदा ध्यान रखना। जब भी जलन महसूस हो, डरना मत। लेकिन जब तुम्हें ऐसा लेक कि ऊर्जा बड़ी आग जैसी हो गई है। जब लगें की बंदूक की गर्म गोली जैसी कोई चीज खोपड़ी को भेदने के लिए तत्पर है, तो विधि का प्रयोग बंद कर दो और तुरंत मेरे पास चले आओ। तब प्रयोग को आगे मत जारी रखो। ज्यों ही लगे कि गोली जैसी कोई चीज मेरे माथे को छेद कर निकलना चाहती है। तो प्रयोग बंद कर दो और आँख खोल लो। और उन्हें उतनी गति दो जितनी दे सकते हो। आंखों को धूमाऔ, उनके हिलाने से जलन तुरंत कम हो जायेगी। ऊर्जा दो आंखों से फिर गति करने लगेगी। और जब तक मैं न कहूं, प्रयोग को फिर शुरू न करना। क्योंकि कई बार ऐसा हुआ है कि इस ऊर्जा से खोपड़ी फट गई।
वैसे तो यदि ऐसा हो भी जाए तो कुछ बुरा नहीं है। इसमें मर जाना भी अच्छा है; क्योंकि वह स्वयं एक ऐसी उपलब्धि है जो मृत्यु के पार जाती है। लेकिन बचाव के लिए अच्छा है कि जब लगे कि कुछ गड़बड़ होने वाली है—चाहे इस विधि से या किसी भी विधि से—तो विधि का प्रयोग बंद कर दो। किसी भी विधि से कुछ गलत की संभावना मालूम हो तो प्रयोग बंद कर देना उचित है।
भारत में अभी ऐसी बहुत सी विधियां सिखाई जा रही है और अनेक साधक नाहक कष्ट में पड़ते है; क्योंकि सिखाने वालों को खतरे का पता ही नहीं है। और सीखने वाले महज अंधी गली में भटकते है; उन्हें पता नहीं है कि वे कहां जा रहे है। और क्या कर रहे है।
मैं इन एक सौ बारह विधियों पर विशेषकर इसी कारण से बोल रहा हूं। मैं चाहता हूं कि तुम्हें इस सारी विधियों की, उनकी संभावनाओं की, उनके खतरों की जानकारी हो जाए। और तब तुम अपने लिए वह विधि चुन सकते हो जो तुम्हारे लिए सर्वाधिक अनुकूल हो। ओर तब अगर तुम किसी विधि का प्रयोग करोगे तो तुम्हें भलीभाँति पता होगा कि यह क्या है। कि क्या हो सकता है। और कुछ होने पर उससे निबटने के लिए क्या करना चाहिए।
ओशो
तंत्र-सूत्र भाग: 2 प्रवचन-22
(संस्करण: 1993)
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