कुल पेज दृश्य

शनिवार, 7 जनवरी 2012

माय ऐक्सपैरिमैंट विद दि टूथ-(गांधी)-041

माय ऐक्सपैरिमैंट विद दि टूथ-(महात्‍मा गांधी)-ओशो की प्रिय पुस्तकें

My Experiments with Truth: An Autobiography-Mahatma Gandhi

आज में जिस किताब का जिक्र करने जा रहा हूं, उसके बारे में किसी ने सोचा नहीं होगा कि मैं  बोलूगा। वह है: महात्‍मा गांधी की आत्‍मकथा। माय ऐक्सपैरिमैंट विथ टूथ। सत्‍य को लेकिर उनके प्रयोगों के विषय में बात करना सचमुच अद्भुत है। यह सही समय है।
      आज महात्‍मा गांधी के बारे में मैं कुछ अच्‍छी बातें कहता हूं, एक: एक भी व्‍यक्‍ति ने अपनी जीवनी इतनी ईमानदारी से, इतनी प्रामाणिकता से नहीं लिखी। आज तक जो सबसे प्रमाणिक जीवनी लिखी गई उसमें से एक है।

      जीवनी बड़ी विचित्र चीज है। या तो तुम अपनी प्रशंसा करना शुरू कर दो या अत्‍यंत विनम्र बनो। लेकिन महात्‍मा गांधी ये दोनों बातें नहीं कहते। वे सरल है; सिर्फ तथ्‍य कथन करते है, एक वैज्ञानिक की भांति। उन्‍हें हम बात का बहुत अहसास है कि यह उनकी जीवनी है। वे उन सब बातों को कहते है जिन्‍हें आदमी दूसरों से छिपाना चाहता है।
      लेकिन इसका शीर्षक गलत है। सत्‍य के साथ प्रयोग नहीं किये जा सकते। या तो आप उसे जान सकते हो या नहीं जान सकते। लेकिन उसके प्रयोग नहीं कर सकते। यह शब्‍द ‘’प्रयोग’’ ही वस्‍तुनिष्‍ठ विज्ञान के जगत का शब्‍द है। व्यक्ति निष्ठता के साथ प्रयोग नहीं कर सकते। ध्‍यान रहे, व्यक्ति निष्ठता (Subjectively) को, प्रयोग या निरीक्षण के किसी भी तल पर उतारना संभव नहीं है।
      अस्‍तित्‍व में व्‍यक्‍तिनिष्‍ठता सबसे रहस्‍यपूर्ण घटना है। और उसका रहस्‍य यह है कि वह सदा पीछे हटता चला जाता है। तुम जिसका भी निरीक्षण करते हो वह ‘’वह’’ नहीं है: वह व्‍यक्‍तिनिष्‍ठता नहीं है। व्‍यक्‍तिनिष्‍ठता निरीक्षक है, निरीक्षण की जानेवाली वस्‍तु नहीं है। सत्‍य के प्रयोग नहीं किए जा सकते क्‍योंकि प्रयोग केवल वस्‍तुओं के , विषयों के किये जाते है। चेतना के नहीं।
      महात्‍मा गांधी ईमानदार और भले आदमी थे। लेकिन वे ध्‍यानी नहीं थे। और अगर कोई ध्‍यानी नहीं है तो कितना ही अच्‍छा क्‍यों न हो, सब बेकार है। उन्‍होंने जीवन भर प्रयोग किए और कुछ भी उपल्‍बध न हुआ। वे उतने ही अज्ञानी मरे जितने कि थे। यह दुर्भाग्‍य है क्‍योंकि इतना संगठित, इतना ईमानदार, इतना प्रामाणिक आदमी मिलना मुश्किल है। सत्‍य को खोजने की उनकी इच्‍छा प्रबल थी। लेकिन वही इच्‍छा बाधा बन गई।
      सत्‍य मेरे जैसे लोगों को मिलता है जो उसकी फिक्र ही नहीं करते। जो सत्‍य की और ध्‍यान भी नहीं देते। मेरे द्वार पर परमात्‍मा भी दस्‍तक दे तो मैं खोलनेवाला नहीं हूं, द्वार खोलने का उपाय भी उसे ही खोजना होगा। सत्‍य ऐसे आलसी लोगों के पास आता है। इसलिए मैं स्‍वयं को ‘’बुद्धत्‍व के लिए आलसी मनुष्‍य का मार्गदर्शक’’ कहता हूं।
      मुझे इस आदमी से हमदर्दी है यद्यपि मैंने उसकी राजनीति की, सामाजिक विचारों की और समय के चरख़े को पीछे की और मोड़ने की मूढ़ धारणाओं की हमेशा आलोचना की है। वे चाहते थे कि मनुष्‍य पुन: आदिम हो जाए। वे सभी टैकनॉलॉजी के खिलाफ थे। यहां तक कि रेलगाड़ी और डाक-तार के भी विरोध में थे। विज्ञान के बगैर आदमी बंदर हो जायेगा। माना कि बंदर ताकतवर होता है, लेकिन बंदर आखिर बंदर ही है। आदमी को आगे बढ़ना है।
      मुझे किताब के शीर्षक पर भी ऐतराज है। क्‍योंकि यह सिर्फ शीर्षक नहीं है, उनके पूरे जीवन का सारांश है। वे सोचते थे, चूंकि वे इंग्‍लैड में पढ़े थे, वे आदर्श भारतीय अंग्रेज थे। बिलकुल विक्‍टोरियन। ये विक्‍टोरियन लोग नर्क में जाते है। गांधी बहुत भद्र व्यक्ति थे, शिष्‍टाचार और तहजीब से भरपूर। हर तरह की अंग्रेज मूढताएं......
      महात्‍मा गांधी इंग्‍लैड में पढ़े। शायद उसी कारण वे इतने उलझ गये। बेहतर होता अगर वे अशिक्षित रहते । फिर वे सत्‍य के प्रयोग न करते, सत्‍य का अनुभव करते।
      सत्‍य को जानना हो तो उसको अनुभव करना चाहिए, उसके प्रयोग नहीं।
ओशो
बुक्‍स आय हैव लव्‍ड

किताब की एक झलक:
      नैटाल की राजधानी मेरिन्‍सवर्ग में ट्रेन कोई 9 बजे पहुंची। यहां सोने वालों को बिछौना दिए जाते थे। एक रेलवे के नौकर ने आकर पूछा--
      ‘’आप बिछौना चाहते है?’’
      मैंने कहा—‘’मेरे पास बिछौना है।
      वह चला गया। इस बीच में एक यात्री आया। उसने मेरी और देखा। मुझे काला आदमी देखकर चकराया, बहार गया ओ एक दो कर्मचारियों को लेकर आया। किसी ने मुझ‍ से कुछ न कहा—अंत में एक अफसर आया। कहा चलो, तुमको दूसरे डिब्‍बे में जाना होगा।‘’
      मैंने कहा—‘’पर मेरे पास पहले दर्जे का टिकट है।‘’
      उसने कहा—‘’परवाह नहीं, मैं तुमसे कहता हूं कि तुम्‍हें आखिरी डिब्‍बे में बैठना होगा।‘’
      ‘’मैं कहता हूं कि मुझे डरबन से इसी डिब्‍बे में बिठाया गया है। और इसी में जाना चाहता हूं।‘’
      अफसर बोला—‘’यह नहीं हो सकता। तुम्‍हें उतरना होगा, नहीं तो सिपाही आकर उतार देंगे।‘’
      मैंने कहा—‘’तो सिपाही आकर भले ही मुझे उतार दें, मैं अपने से नहीं उतरूंगा।‘’
      सिपाही आया। उसने हाथ पकड़ा और धक्‍का मारकर मुझे नीचे गिरा दिया। मेरा सामान नीचे फेंक दिया गया। मैंने दूसरे डिब्‍बे में जाने से इनकार कर दिया। गाड़ी चल दी। मैं वेटिंग रूम में जा बैठा। हैंडबैग अपने साथ रखा। दूसरे सामान को मैने हाथ न लगाया। रेलवे वालों ने सामान कही रखवा दिया।
      मौसम जाड़े का था। दक्षिण अफ्रीका में ऊंची जगहों पर बड़े जोर का जाड़ा पड़ता है। मेरिन्सवर्ग ऊँचाई पर था। इससे खूब जाड़ा लगा। मेरा ओवरकोट मेरे सामान में रह गया था। सामान मांगने की हिम्‍मत न पड़ी कि कहीं फिर बेइज्‍जती न हो। जाड़े में सिकुड़ता और ठिठुरता रहा। कमरे में रोशनी न थी। आधी रात के समय एक मुसाफिर आया। ऐसा जान पडा मानो वह कुछ बात करना चाहता है। पर मेरे मन की हालत ऐसी न थी की मैं बात करता।
      मैंने सोचा—मेरा कर्तव्‍य क्‍या है? या तो मुझे अपने हकों के लिए लड़ना चाहिए, या वापस लौट जाना चाहिए। अथवा जो बेइज्‍जती हो रही है, उसे बर्दाश्‍त करके प्रिटोरिया पहुंचूं और मुक़द्दमे का काम खत्‍म कर के देश चला जाऊं। मुक्दमें को अधूरा छोड़कर भाग जाना तो कायरता होगी। मुझे पर जो कुछ बीत रही है, वह तो ऊपरी चोट है, वह तो भीतर के महारोग का एक बह्म लक्षण है। यह महारोग है वर्ण-द्वेष। यदि इस गहरी बीमारी को उखाड़ फेंकने की सामर्थ्‍य हो तो उसका उपयोग करना चाहिए। उसके लिए जो कुछ कष्‍ट और दुःख सहन करना पड़े, सहना चाहिए। इन अन्‍यायों का विरोध उसी हद तक करना चाहिए। जिस हद तक उनका संबंध रंग-द्वेष दूर करने से हो।
      ऐसा संकल्‍प करके मैने जिस तरह हो दूसरी गाड़ी से आगे जाने का निश्‍चय किया।
      रात गई गाड़ी गई। ट्रेन मुझे चार्ल्‍स टाउन ले चली।
      चार्ल्‍स टाउन ट्रेन सुबह पहुँचती है। चार्ल्‍स टाउन से जोहानिसबर्ग तक पहुंचने के लिए उस समय ट्रेन न थी। घोड़ा गाडी थी। और बीच में एक रात स्टैड रटन में रहना पड़ता था। मेरे पास घोड़ा-गाड़ी का टिकट था। मेरे एक दिन पिछड़ जाने से यह टिकट रद न होता था। फिर अब्‍दुल्‍ला सेठ ने चार्ल्‍स टाउन के घोड़ा-गाड़ी को तार भी दे दिया था। पर उसे तो बहाना बनाना था। इसलिए मुझे एक अंजान आदमी समझ कर उसने कहा—‘’तुम्‍हारा टिकट रद हो गया है।‘’ मैंने उचित उत्‍तर दिया। यह कहने का, कि टिकट रद्द हो गया है। कारण तो और ही था। मुसाफिर सब घोड़ा-गाडी में बैठते है। पर मैं समझा जाता था ’’कुली’’ और अंजान मालूम होता था। इसलिए घोड़ा-गाड़ी वाले कि यह नीयत थी कि मुझे गोरे मुसाफ़िरों के पास न बैठना पड़े तो अच्‍छा है। घोड़ा गाड़ी के बाहर की तरह अर्थात हांकने वाले के पास, दाएं-बांए दो बैठके थी। उनमें से एक बैठक पर घोड़ा गाड़ी के मालिक अफसर गोरा बैठता। वह अंदर बैठा और मुझे हांकने वाले के पास बिठाया। मैं समझ गया कि यह बिलकुल अन्‍याय है। अपमान है, परंतु मैंने इसे पी लिया। मैं जबर्दस्‍ती तो अंदर बैठ नहीं सकता था। यदि झगडा छेडूं तो घोड़ा गाड़ी वाला गाडी चला कर ले जाएं और मुझे एक दिन की देर हो, और दूसरे दिन का हाल परमात्‍मा ह जाने। इसलिए मैंने समझदारी से काम लिया और बैठ गया। मन में बड़ी खीझ रहा था।
      कोई तीन बजे घोड़ा गाड़ी पारडीकोप पर पहुंची। उस वक्‍त गोरे अफसर को मेरी जगह बैठने की इच्‍छा हुई। उसे सिगरेट पीना था। शायद खुली हवा भी खानी थी। सो उसने एक मैला सा बोरा हांकने वाले के पास से लिया। और पैर रखने के तख्‍ते पर बिछाकर मुझसे कहा—सामी, तू यहां बैठ, मैं हांकने वाले के पास बैठूंगा।‘’ इस अपमान को सहन करना मेरे सामर्थ्‍य के बाहर था। इसलिए मैंने डरते-डरते कहां, ‘’तुमने मुझे यहां जो बैठाया, सो मैंने इस अपमान को सहन कर लिया। मेरी जगह तो थी अंदर; पर तुमने अंदर बैठकर मुझे यहां बैठाया; अब तुम्‍हारा दिल बहार बैठने का हुआ, तुम्‍हें सिगरेट पीना है, इसलिए तुम मुझे अपने पैरों के पास बिठाना चाहते हो। मैं चाहे अंदर चला जाऊं पर तुम्‍हारे पैरों के पास बैठने को तैयार नहीं हूं।
      यह मैं किसी तरह से कह ही रहा था। कि मुझे पर थप्‍पड़ों की वर्षा होने लगी। और मेरे हाथ पकड़कर वह नीचे खींचने लगा। मैंने बैठक के पास लगे पीतल के सीख़चों को जोर से पकड़ लिया, और निश्‍चय कर लिया कि कलाई टुट जाने पर भी सींखचे न छोडूंगा। मुझ पर जा कुछ बीत रही थी, वह अंदर वाले यात्री देख रहे थे। वह मुझे गालियां दे रहा था। खींच रहा था। फिर भी में चुप रहा। वह तो बलवान और मैं बल-हीन। कुछ मुसाफ़िरों को दया आई और किसी ने कहा—अजी बेचारे को वहां बैठने क्‍यों नहीं देते? फिजूल उसे मार पीट रहे हो? वह ठीक तो कहता है, वहां नहीं तो उसे हमारे पास अंदर बैठने दो। वह बोला हरगिज नहीं। पर जरा सिटपिटा जरूर गया। पीटना छोड़ दिया, मेरा हाथ भी छोड़ दिया। हां दो चार गालियां अलबत्‍ता और दे डाली। फिर एक हाटेटोर नौकर को जो दूसरी तरफ बैठा था, अपने पाँव के पास बिठाया, और खुद बहार बैठा। मुसाफिर अंदर बैठे। सीटी बजी और घोड़ा-गाड़ी चली। मेरी छाती धक-धक कर रही थी। मुझे भय था कि मैं जीते जी मुकाम पर पहुंच सकूंगा कि नहीं। गौरा मेरी और त्योरी चढ़ाकर देख रहा था। अंगुलि का इशारा करके बकता रहा—‘’याद रख स्टैण्ड रन पहुंचने दे, फिर तुझे मजा चखाऊंगा।‘’ मैं चुप साध कर बैठा रहा और ईश्‍वर से सहायता के लिए प्रार्थना करता रहा।
महात्‍मा गांधी
आत्‍म कथा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें