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सोमवार, 2 जनवरी 2012

कमेंटरीज़ ऑन लिविंग-(जे कृष्ण मूर्ति)-037

कमेंटरीज़ ऑन लिविंग-(जे. कृष्‍ण मूर्ति) ओशोे की प्रिय पुस्तकें

Commentaries on Living: Jiddu Krishnamurti's

      जे कृष्‍ण मूर्ति की बेहद खूबसूरत किताब, ‘’कमेंटरीज़ ऑन लिविंग’ एक निर्मल झील है। जो कृष्‍ण मूर्ति के अंतरतम को पूरा का पूरा प्रतिबिंबित करती है। कृष्‍ण मूर्ति प्रकृति के सौंदर्य से असीम प्रेम करते थे। जंगलों में, पहाड़ों में देर तक सैर करने का उनका शौक सर्वविदित है। वे प्रकृति की बारीक से बारीक भंगिमा का अति संवेदनशीलता से आत्‍मसात करते थे।

      यह डायरीनुमा दस्‍तावेज कृष्‍ण मूर्ति ने अल्डुअस हक्‍सले के अनुरोध पर लिखा है। कृष्‍ण मूर्ति अमेरिका यूरोप और भारत में निरंतर भ्रमण करते थे। वहां के लोगों से मिलते थे, उनके प्रश्‍नों को हल करते थे। उनका वर्णन उन्‍होंने एक डायरी के रूप में लिखा है। इस डायरी का एक नक्‍शा है जो कृष्‍ण मूर्ति का अपना है। वह इस प्रकार है: पहले प्रकृति का वर्णन, फिर स्‍वयं की मन स्‍थित और चेतना का चित्रण और अंतत: उन व्‍यक्‍तियों और उनके साथ हुए संवाद का शब्‍दांकन जो उस दिन घटा था। यह डायरी त्रिविध संवाद है—व्‍यक्‍ति का प्रकृति से, व्‍यक्‍ति का स्‍वयं से, और व्‍यक्‍ति का व्‍यक्‍ति से। कृष्‍ण मूर्ति की वर्णन शैली फिर वह प्रकृति का वर्णन हो या सामने बैठे हुए व्‍यक्‍ति की मानसिकता का—चित्रमय है। वे दृश्‍य को शब्‍दों में रँगते है। उनके रंग इतने सजीव होते है कि उनके साथ हम भी वह दृश्‍य देखने लगते है। ये डायरियां कृष्‍ण मूर्ति के जीवन भविष्‍य है।
ये कभी पुराने और बासी नहीं होते। ठीक वैसे ही जैसे प्रकृति कभी पुरानी या बासी नहीं होती। क्‍या सूरज बूढ़ा लगता है। क्‍या लाखों सालों से उग रहे तारे पुराने पड़ गये है। क्‍या पहाड़ बासी हो गये मालूम होते है। कृष्‍ण मूर्ति का यह लेखन हमेशा तरो ताजा, सद्य: स्‍नात है। उसे पढ़कर पढ़ने वाले के भी तर भी ताजगी की फुहार फूट पड़ी है। और वो उस आनंद से सरा बोर हो उठता है। आंखों के सामने प्रकृति का पोर-पोर नाच उठता है, लगता है, हाथ बढ़ा कर छू लो।
      प्रकृति के सान्‍निध्‍य के साथ-साथ इन संवादों में हम कृष्‍ण मूर्ति की मानव पर काम करने की शैली देख सकते है। यह शैली बहुत कुछ सुकरात का स्‍मरण दिलाती है। जिज्ञासु व्‍यक्‍ति के प्रश्‍नों के भीतर पैठ कर कृष्‍ण मूर्ति उसे दिखा देता है कि उत्‍तर प्रश्‍न की गहराई में ही छिपा है। व्‍यक्‍ति स्‍वयं, स्‍वयं को पूर्ण और स्‍वस्‍थ बना सकता है। किसी गुरु के पास जाने की जरूरत नहीं है। कृष्‍ण मूर्ति दर्पण बनते है जिसमें प्रश्‍नकर्ता चाहे तो अपनी छवि देख सकता है। ध्‍यानियों, खोजियों के लिए अत्‍यंत उपयोगी यह किताब कृष्णामूर्ति फ़ाउंडेशन, इंडिया ने प्रकाशित की है।
     
किताब की झलक:
      घाटी के एक छोर से दूसरे छोर जाता घुमावदार रास्‍ता एक छोटे से पुल पर से गुजरता है जहां तेजी से दौड़ता हुआ पानी अभी-अभी हुई बारिश से मटमैला हुआ है। उत्‍तर की और मुड़कर मुलायम ढलानों के पार वह एकाकी गांव की तरफ जाता है। वह गांव और उसके निवासी बहुत गरीब थे। पहाड़ियों के उतार पर कई बकरियां, मैं, मैं करती जंगली पौधों को खाती रहती। बड़ा खूबसूरत प्रदेश था यह—हरा-भरा नीली पहाड़ियों से पटा। ये पहाड़ियां ऊंची नहीं थी। लेकिन बहुत प्रचीन थी। और नीले आकाश की पृष्‍ठभूमि में वे अद्भुत सौंदर्य लिये थी। अपरिसीम समय का विलक्षण सुहावनापन। वे उन मंदिरों की भांति थी जो आदमी उनकी शक्‍ल में बनाता है। स्‍वर्ग तक पहुंचने की अभीप्‍सा पूरी करने की कोशिश में। लेकिन उस संध्‍या, डूबते हुए सूरज की किरणों को अपने माथे पर धरी हुई ये पहाड़ियां बहुत निकट प्रतीत होती थी। दूर कहीं, दक्षिण दिशा में एक तूफान घुमड़ रहा था और बादलों में लरजती हुई बिजली पूरे भूप्रदेश को एक अजीब सा अहसास दे रही थी। तूफान रात के प्रहर से बरसेगा, लेकिन पहाड़ियां अंतत काल के तूफ़ानों को झेलकर खड़ी थी। और वे हमेशा रहेंगी—मनुष्‍य के सारे श्रम और पीड़ा के पार।
      ....उस रास्‍ते पर अब एक भी व्‍यक्‍ति नहीं था। एकाध अकेला ग्रामीण भी नहीं। धरती अचानक सूनी हो गई। अजीब सी शांति छा गई। नया, जवान चाँद काली पहाड़ियों से झांक रहा था। हवा थम गई थी। एक पत्‍ता भी नहीं हिल रहा था। सब कुछ स्‍तब्‍ध था, और मन पूरी तरह अकेला था। वह एकाकी नहीं था, कटा हुआ, अपने विचारों में बंद नहीं था। अकेला था अस्‍पर्शित और अदूषित था। वह दूरी बनाये उपेक्षा लिये नहीं था, पार्थिव चीजों से अलग नहीं था। वह अकेला था। और फिर भी सबके साथ था। चूंकि वह अकेला था, इसलिए सब कुछ उसी का था। जो अलग होता है वह स्‍वयं को अलग जानता है। लेकिन इस अकेलेपन में कोई अलगाव नहीं था। कोई विभाजन नहीं था। वृक्ष, झरना, दूर पुकारता कोई ग्रामीण, सारे इसी अकेलेपन में सम्‍मिलित थे। वह मनुष्‍य के साथ या पृथ्‍वी के साथ तादम्यता नहीं था। क्‍योंकि  सब तादात्म्य पूरी तरह से गायब हो गया था। इस अकेलेपन में समय के गुजरने का बोध खो गया था।
      वे तीन लोग थे—पिता, पुत्र और एक मित्र। पिता पचपन से ऊपर था, पुत्र तीस साल के आसपास और मित्र की आयु का अंदाजा लगाना मुश्‍किल था। दोनों बुजुर्ग गंजे थे। लेकिन बेटे के घने बाल थे। सुघड़ मस्‍तिष्‍क था, कुछ छोटी नाक, और बड़ी आंखें। उसके होंठ बेचैन थे, हालांकि वह चुपचाप बैठा हुआ था।
      बेटा बोलने लगा, यद्यपि मेरे पिताजी बातचीत में भाग नहीं लेंगे। फिर भी वे साथ रहना चाहते है क्‍योंकि यह समस्‍या ऐसी है। कि सभी को छूती है। सर, बात यह है कि हम सब बूढ़े हो रहे है। मैं, हालांकि इन दोनों की बनिस्‍बत युवा हूं, उस मोड़ तक आ रहा हूं जब लगता है, समय के पंख लगे है। दिन छोटे लगते है और मौत करीब लगती है। लेकिन फिलहाल हमारी समस्‍या मौत नहीं बुढ़ापा है।
      बुढ़ापे से तुम्‍हारा मतलब क्‍या है? तुम शारीरिक संयंत्र के जराग्रस्‍त होने की बात कर रहे हो या मन के?
      शरीर का बुढ़ापा तो अटल है, उपयोग और बीमारी की वजह से वह चुक जाता है। लेकिन क्‍या मन का बूढ़ा होना और जीर्ण होना जरूरी है?
      इस तरह दिमाग लड़ाना व्‍यर्थ है और समय बरबाद करना है। क्‍या मन का जीर्ण होना मात्र कल्‍पना है या तथ्‍य?
      तथ्‍य है, सर। मुझे पता है कि मेरा मन जीर्ण हो रहा है, थक रहा है। हलके-हलके बूढा हो रहा है।
      क्‍या युवकों की भी यही समस्‍या नहीं है। हालांकि उन्‍हें अभी इसका बोध नहीं है? उनके मस्‍तिष्‍क भी एक ढाँचे में जड़ हो गये है। उनके विचार संकीर्ण चौखट में बंद हो गये है। लेकिन जब तुम कहते हो कि मन बूढा हो रहा है तब तुम्‍हारा मतलब क्‍या है?
      वह उतना तरल, लचीला, सजग और संवेदनशील नहीं है जैसा पहले हुआ करता था? उसकी सजगता कम हो रहा है। जीवन की चुनौतियों के प्रति उसी जो प्रतिक्रिया होती है वह अतीत से आती है।
      तब फिर वह क्‍या है जो मन को बूढा करता है। वह है सुरक्षा और परिवर्तन के प्रति विरोध प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति का एक न्‍यस्‍त स्‍वार्थ है जिसकी वह जाने अनजाने रक्षा कर रहा है। उसे किसी को छूने नहीं देता।
ओशो का नज़रिया:
      मैं फिर जे. कृष्‍ण मूर्ति की और तुम्‍हारा ध्‍यान खींचता हूं। उस किताब को नाम है: ‘’कमेंटरीज़ ऑन लिविंग’’ इसके कई भाग है। यह उसी तत्‍व से बनी है जिससे सितारे बने है।
      ‘’कमेंटरीज़ ऑन लिविंग’’ कृष्‍ण मूर्ति की डायरी है। कभी-कभी वे अपनी डायरी में लिखते है.....एक रमणीय सूर्यास्‍त, कोई प्राचीन वृक्ष, या सिर्फ एक संध्या...घर लोट रहे पक्षी। सागर की और दौड़ने वाली सरिता...जो भी भाव उठे, उसे कभी-कभी लिखते थे। ऐसे ही इस पुस्‍तक का जन्‍म हुआ। यह व्‍यवस्‍थित रूप से नहीं लिखी गई। यह एक डायरी है। फिर भी, इसे सिर्फ पढ़ने से तुम किसी और ही लोक में पहुंच जाते हो। सौंदर्य का जगत...या इससे भी अच्‍छा, धन्यता का जगत। क्‍या तुम मेरे आंसुओं को देख सकते हो?
      कुछ समय से मैंने पढ़ा नहीं है। लेकिन इस किताब के नाम से ही मेरी आंखों में आंसू आ जाते है। मुझे यह किताब बेहद प्‍यारी है। आज तक जो श्रेष्‍ठतम किताबें लिखी गई है उनमें से यह एक है। मैंने पहले कहा था कि कृष्‍ण मूर्ति की ‘’फर्स्‍ट एंड लास्‍ट फ़्रीडम’’ सर्वश्रेष्‍ठ किताब है। जिसके पार वे नहीं जा सके। लेकिन यह तो किताब नहीं डायरी है। इसलिए मैं इसे अपनी सूची में सम्‍मिलित करता हूं।‘’
ओशो
दि बुक्‍स आय हैव लव्‍ड

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