धर्मों के कारण ही। धर्मों का विवाद इतना है, धर्मों की एक दूसरे के साथ इतनी छीना-झपटी है। धर्मों का एक दूसरे के प्रति विद्वेष इतना है कि धर्म-धर्म ही नहीं रहे। उन पर श्रद्धा सिर्फ वे ही कर सकते है जिनमें बुद्धि नाममात्र को नहीं है। अस सिर्फ मूढ़ ही पाए जाते है मंदिरों में, मसजिदों में। जिसमें थोड़ा भी सोच विचार है, वहां से कभी का विदा हो चुका है। क्योंकि जिसमें थोड़ा-सोचविचार है, उसे दिखाई पड़ेगा कि धर्म ने नाम से जो चल रहा है वह धर्म नहीं, राजनीति है। कुछ और है।
जीसस चले जब जमीन पर तो धर्म चला; पोप जब चलते है तो धर्म नहीं चलता, कुछ और चलता है। बुद्ध जब चले तो धर्म चला; अब पंडित है, पुजारी है, पुरोहित है, वे चलते है। उनके चलने में वह प्रसाद नहीं। उनकी वाणी में अनुभव की गंध नहीं। उनके व्यक्तित्व में वह कमल नहीं खिला जो प्रतीक है धर्म का उनके ह्रदय बंद है और उतनी ही कालिख से भरे है जितने किसी और के शायद थोड़े ज्यादा ही।
धर्म के नाम पर वैमनस्य है, ईप्सा है, हिंसा है। खून ख़राबा है। मस्जिद और मंदिर ने इतना लड़वाया है कि कोई भरोसा भी करना चाहे तो कैसे करे। और शास्त्र आज नहीं कल झूठे हो जाते है। सत्य तो शास्ता है, शास्त्रों में नहीं। सत्य तो बुद्ध है। धम्म पद में नहीं; मोहम्मद में है, कुरान में नहीं। यद्यपि कुरान मोहम्मद से पैदा हुई है। तो जब तक कुरान मोहम्मद के होंठों पर थी, तब तक उसमें मोहम्मद की श्वास थी। मोहम्मद की प्राण उर्जा थी। प्रतिफलित होती थी। जैसे ही शब्द मोहम्मद के होठो से हटे, मुर्दा हो गये। स्त्रोत से टूटे, कुछ के कुछ हो गये। फिर तुम्हारे हाथ में पड़े, तुमने उन्हें वह अर्थ दिया जो तुम दे सकते हो। तुम वह अर्थ तो कैसे दोगे जो मोहम्मद देना चाहते थे। मोहम्मद हुए बिना वह अर्थ नहीं दिया जा सकता। वह अर्थ मोहम्मद के होने में है। तुमने अपने अर्थ दिए। तुम्हारे अर्थ किसी प्रयोजन के नहीं। लाभ तो नहीं हो सकता, हानि सुनिश्चत होगी।
अनातोले फ्रांस का प्रसिद्ध वचन है कि कोई बंदर अगर दर्पण में झांकेगा तो बंदर ही नजर आयेगा।
दर्पण में वही दिखाई पड़ता है, जो तुम हो। शास्त्रों में भी वहीं दिखाई पड़ता है जो तुम हो। जिसके हाथ ते शास्त्र पडा उसका ही हो गया। मोहम्मद के हाथ में जब तक था, तब तक कुरान थी; तुम्हारे हाथ में जब तक आया कुछ का कुछ हो गया। और फिर तुम्हारे हाथ से भी चलती रही, हजारों साल बीत गये, एक हाथ से दूसरे हाथ में बदलते हुए। किताबें गंदी हो गई है। तुम्हारे हाथ की मैल उन पर जम गई है। कौन उन्हें झाड़े और साफ करे। वही तुम्हारा सबसे बड़ा दुश्मन।
ध्यान रहे, इस जगत में प्रत्येक चीज का जन्म होता है और प्रत्येक चीज की मृत्यु होती है। धर्म तो शाश्वत है। लेकिन कौन सा धर्म? वह धर्म जो जीवन को धारण किए है। वह शाश्वत है। लेकिन बुद्ध ने जब कहा, कहा शाश्वत को ही, लेकिन जब विचार में बांधा तो शाश्वत समय में उतरा। और समय के भीतर कोई भी चीज शाश्वत नहीं हो सकती। समय के भीतर तो पैदा हुई है, मरेगी। जन्मदिन होगा, मृत्यु दिन भी आयेगा। जब कोई सत्य शब्द में रूपायित होता है तो सबसे पहले लोग उसका विरोध करते है। क्यों? क्योंकि उनकी पुरानी मानी हुई किताबों के खिलाफ पड़ता है। खिलाफ न पड़े तो कम से कम भिन्न तो पड़ता है। लोग विरोध करते है।
सत्य का पहला स्वागत विरोध से होता है—पत्थरों से, गलियों से। सत्य पहले विद्रोह की तरह मालूम होता है। खतरनाक मालूम होता है। बहुत सूलियां चढ़नी पड़ती है सत्य को, तब कहीं स्वीकार होता है। लेकिन वे सूलियां चढ़ने में ही समय बीत जाता है और सत्य जो संदेश लाया थ वह धूमिल हो चुका होता है। जब तक तुम सत्य को स्वीकार करते हो, तब तक वह सत्य ही नहीं रह जाता। इतनी देर लगा देते हो स्वीकार करने में; लड़ने-झगड़ने में, विवाद में इतना समय गंवा देते हो कि तब तक सत्य पर बहुत धूल जम जाती है। धूल जाती है तब तुम स्वीकार करते हो। क्योंकि तब सत्य तुम्हारे शास्त्र जैसा मालूम होने लगाता है। तुम्हारे शास्त्र पर भी धूल जमी है बहुत।
जब समय की धूल जम जाती है शास्त्रों पर, तो वह परंपरा बन जाता है। जब शास्त्र सत्य को जन्माता नहीं। सत्य की कब्र बन जाता है। तब तुम स्वीकार करते हो—इसीलिए तुम स्वीकार करते हो। कब्रें-कब्रें सब एक जैसी होती है। क़ब्रों में तो सिर्फ नाम का ही फर्क होता है। जिंदा आदमियों में फर्क होता है। कब्र किस की है, पत्थर पर लिखा होता है। बस इतना ही फर्क होता है। और तो कोई फर्क नहीं होता। धम्म पद जब कब्र बन जाता है तो गीता की कब्र और कुरान की कब्र और वेद उपनिषद या बाइबल की कब्र में कुछ फर्क नहीं रह जाता है। तब तुम स्वागत करते हो। तुम पुराने का स्वागत करते हो।
सत्य जब नया होता है तब सत्य होता है। जितना नया होता है उतना ही सत्य होता है। क्योंकि उतना ही ताजा-ताजा परमात्मा से आया होता है। जैसे गंगा गंगोत्री में जैसी स्वच्छ है, फिर वैसी काशी में थोड़ी ही होगी। हालांकि तुम काशी जाते हो पूजने। काशी तक तो बहुत गंदी हो चुकी, बहुत नदी नाले गीर चूके, बहुत अर्थ मिश्रित हो चूका, न जाने कितने मुर्दे बहाये जा चूके। काशी तक आते-आते तो गंगा अपवित्र हो गई। कितनी ही पवित्र रही हो गंगोत्री में। जैसे वर्षा होती है, तो जब तक पानी की बूंद न जमीन नहीं छुई, तब तक वह परम शुद्ध होती है; जैसे ही जमीन छुई, कीचड़ हो गई। कीचड़ के साथ एक हो गई।
ओशो
अथातो भक्ति जिज्ञासा, भाग—1
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