प्रिंसिपिया एथिका—जी. इ. मूर—(ओशो की प्रिय पुस्तकें)
आधुनिक दर्शन शास्त्र के विकास में जी. ई मूर का योगदान उतना ही महत्वपूर्ण है! जितना कि बर्ट्रेंड रसेल का। उसकी बहुत कम रचनाएं प्रकाशित हुई। और ‘’प्रिंसिपिया एथिका’’ उनमें से सर्वप्रथम और सर्वाधिक प्रसिद्ध किताब है।
आधुनिक दर्शन शास्त्र के विकास में जी. ई मूर का योगदान उतना ही महत्वपूर्ण है! जितना कि बर्ट्रेंड रसेल का। उसकी बहुत कम रचनाएं प्रकाशित हुई। और ‘’प्रिंसिपिया एथिका’’ उनमें से सर्वप्रथम और सर्वाधिक प्रसिद्ध किताब है।
अंग्रेजी साहित्य और चिंतन पर उसका प्रभाव विचारणीय है। बर्ट्रेंड रसेल ने इस किताब के बारे में लिखा, ‘’इसका हमारे ऊपर (कैम्ब्रिज में) जो प्रभाव पडा, और इसे लिखने से पहले और बाद में जो व्याख्यान हुआ उसने हर चीज को प्रभावित किया। हमारे लिए वह विचारों और मूल्यों का बहुत बड़ा स्त्रोत था। लॉर्ड केन्स का तो मानना था कि यह किताब प्लेटों से भी बेहतर है।
‘’यह किताब नैतिक तर्क सारणी के दो मूलभूत सिद्धांतों की मीमांसा करती है। इसमें दो प्रश्न अत्यंत महत्वपूर्ण मालूम होते है; वे कौन सी चीजें है जो अपने आप में शुभ है, और हम किस तरह के कृत्य करें? नीतिशास्त्र के चिंतन में मूर के लेखन की सरलता, स्पष्टता और कॉमन सेंस ताजा प्राण फूंक देते है। उसकी बौद्धिक प्रामाणिकता और ओज इस किताब पर श्रेष्ठता की मुहर लगाते है।
यह किताब उस मानसिकता और बौद्धिक स्थिति के लिए लिखी गई है। जो आज से पचास साल पहले निति और नैतिकता का आचरण में बहुत विश्वास रखती थी। बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में मनुष्य के मन पर नीति की जबरदस्त पकड़ थी। यहां तक कि सभी धर्म नैतिक आचरण बनकर रह गये थे। आज की तारीख में इस किताब का महत्व समझ में आना बहुत मुशिकल है। क्योंकि आज नीति की धज्जियां उड़ गई है। हम मानसिक तौर पर एक अलग ही समय में जी रहे है।
बहरहाल जिस समय यह किताब लिखी गई उस समय यह क्रांतिकारी साबित हुई। क्योंकि उसने नीति नियमों की बुनियाद को हिला दिया। अच्छा-बुरा, सही-गलत, पाप-पूण्य, इसकी सामाजिक परिभाषा पत्थर की लकीर जैसी स्थिर होती है, मजबूत होती है। उसके आधार पर न्याय, अदालत, पुलिस, धर्म इत्यादि बनाये जाते है। और यहां मूर मौलिक सवाल उठाता है कि जिसे हम शुभ कहते है वह क्या है? क्या वह किसी वस्तु की आंतरिक गुणवता है या कि एक खास तरह के आचरण का मापदंड है? क्या अस्तित्व में लिखा है कि फलां चीज शुभ है और फलां चीज अशुभ? यह आचरण सही है और यह गलत? इसे आदमी ही तय करता है, अस्तित्व नहीं।
ये सारे प्रश्न नीतिशास्त्र के अंतर्गत आते है, किताब की भूमिका में मर ने यह बात स्पष्ट की है, ‘’जब हम कहते है, फलां आदमी अच्छा है या वह शख्स दुर्जन है। जब हम पूछते है, मुझे क्या करना चाहिए? या क्या ऐसा करना गलत होगा? तो यह नीतिशास्त्र का अधिकार है कि वह इस तरह के प्रश्नों की चर्चा करे। अधिकार जब हम इन शब्दों का प्रयोग करते है, ‘’शुभ, अशुभ, कर्तव्य, अधिकार, अच्छा, बुरा तब हम नैतिक मूल्यांकन कर रहे होते है।
अधिकांश नीतिवादी दार्शनिक अच्छाई को अच्छे आचरण से जोड़ते है। क्योंकि एक आदमी अच्छा है कि नहीं यह कैसे पता चलेगा? उसके आचरण से ही न? जब हम कहते है नशे में धुत होना बुरा है तो हम मानकर चलते है कि मदहोश होना बुरा कृत्य है।
मूर की विशिष्टता यह है कि वह आचरण को गुणवत्ता से अलग करता है। पहले गुणवत्ता, बाद में आचरण। और उसका मुद्दा सटीक है। कोई व्यक्ति अच्छा है। इसीलिए अच्छा आचरण कर सकता है। बुरा आदमी अच्छा आचरण कर सकता है। बुरा आदमी अच्छा आचरण कैसे कर सकता है। इसका मतलब है, अच्छाई अपने आप में कोई गुण है, मूल्य है।
अच्छाई की परिभाषा क्या है? मूर कहता है अच्छाई को परिभाषित करना असंभव है। ठीक वैसे ही जैसे पीले रंग ने देखा हो उसे समझाना मुश्किल है कि पीला रंग क्या है।
एक बार यह स्थापित कर कि अच्छाई का विश्लेषण और चर्चा करना नीतिशास्त्र को तीन हिस्सों में बांटा है। एक नैसर्गिक नीतिशास्त्र, दूसरा आध्यात्मिक नीतिशास्त्र और तीसरा सुखवाद (हिडोनिज्म) इससे पहले कि मनोविज्ञान एक स्वतंत्र विज्ञान की तरह विकसित हुआ, अध्यात्म, विज्ञान और गुह्म विज्ञान, ये सब ‘’नैचुरल साइंस’’ नैसर्गिक विज्ञान कहलाते थे। नैसर्गिक विज्ञान मानता है कि ‘’शुभ’’ वस्तुएं न हो तो क्या समय में कहीं भी केवल अच्छाई हो सकती है? क्या ‘’शुभ’’ एक अनुभूति है या कि वह वस्तुओं का अंग है जिससे कि वे बनी है? यदि वह उनका मूल द्रव्य है तो उसे निकाल लेने पर वह बचेगी ही नहीं।
‘’सुखवाद’’ पर एक पूरा परिच्छेद है। सुखवाद सुप्रसिद्ध दार्शनिक मिल का सिद्धांत है जो बीसवीं सदी के प्रारंभ में बहुत लोकप्रिय था। और आज यह सिद्धांत मात्र दर्शन नहीं, मनुष्य की जीवन चर्या बन चुका है। यह सिद्धांत मनुष्य की हर इच्छा और हर कृत्य के पीछे एक ही प्रेरणा को मानता है। और वह है सुख पाने की आकांशा इसलिए सुखवाद के अनुसार शुभ की परिभाषा है सुख। जो भी सुखद है उसे हम शुभ या अच्छा कहते है। सुखवादी दार्शनिक सुख को सर्वोपरि मानते है, सुख के अलावा जो भी है, फिर वह पूण्य हो या ज्ञान, जीवन हो या प्रकृति, या सौंदर्य, ये सब सुख प्राप्त करने के साधन की तरह अच्छे है। ये अपने आप में साध्य नहीं है। मिल ने लिखा है: ‘’सुख, और दुःख से मुक्ति ये ही अपने आपे साध्य हो सकते है।‘’
नीतिशास्त्र का एक और तल है आध्यात्मिक नीतिशास्त्र। मूर की दृष्टि में यही नीतिशास्त्र शुभ की परिभाषा कर सकता है। क्योंकि यह नैसर्गिक नीतिशास्त्रियों या सुखवादियों की तरह शुभ को किसी वस्तु का गुण नहीं मानता।
‘’आध्यात्मवादी लोगों की यह बहुत बड़ी योग्यता है कि वे ज्ञान को सिर्फ उन वस्तुओं तक सीमित नहीं मानते जिन्हें हम छू सकते है। देख सकते है, या महसूस कर सकते है। आध्यात्मवादी मानिसक तल पर जो वस्तुएं है उनके बारे में तो सोचते ही है, साथ में वस्तुओं के उस वर्ग के बारे में भी चिंतन करते है जो समय में नहीं होती, समय का अंग नहीं है, न ही प्रकृति का अंग है। सच तो यह है कि वह होती ही नहीं। यह जो वर्ग है ये शुभ को एक विशेषण की तरह समझ सकते है। यह ‘’गुडनेस’’ याने अच्छाई नहीं है, वरन वे वस्तुएं और गुणवत्ताएं है जो समय के भीतर हो सकती है। जिनकी एक अवधि होती है। और जो होती है और विदा भी हो सकती है। ये हमारे जानने के विषय हो सकते है।
‘’इस वर्ग के सबसे अहम उदाहरण है, अंक अर्थात नंबर। यह तो निश्चित है कि दो प्राकृतिक चीजें है; और यह भी उतना ही सुनिश्चित है कि ‘’दो’’ का अपना कोई अस्तित्व नहीं होता, और न ही हो सकता है। दो और दो चार जरूर हो सकते है। लेकिन अस्तित्व में न तो दो होते है और न चार होते है। और फिर भी उसमे कोई अर्थ तो होता है। तो एक अर्थ में दो है भी, और नहीं भी। जिसे सामान्य सत्य कहा जाता है, मसलन धरती पर कहीं भी कोई भी दो चीजें जुडकर चार होती है, वह वस्तुत: चार होती ही नहीं। इसे सामान्य सत्य माना जाता है। और प्लेटों के समय से लेकर आज तक इन ‘’सामान्य सत्यों‘’ ने दार्शनिकों के चिंतन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
मूर के अनुसार, आध्यात्मिक नीति शास्त्री ‘’सुप्रीम गुड’’ ‘’ आत्यंतिक शुभ’’ को मानते है लेकिन वह समय के बारे में अंत: वह प्रकृति का हिस्सा नहीं होता है। प्रकृति और सभी प्राकृतिक वस्तुएं समय में जीती है।
इसके बाद मर ने नीतिशास्त्र और आचरण का संबंध स्थापित किया है। नीतिशास्त्र के लिए शुभ की अवधारणा को मानना बहुत आवश्यक है क्योंकि उनका पूरा भवन ही उस पर खड़ा है।
जब हम किसी बात को या वस्तु को ‘’अच्छा’’ कहते है तो क्यों कहते है? इसे तय करना नीति शास्त्र का काम है।
इसी से जुड़ा हुआ दूसरा पहलू है या अच्छा भाव से किये हुए हर कृत्य का परिणाम अच्छा होता है। अगर हां, तो किसके लिए अच्छा है? खुद के लिए या सबके लिए? क्या कोई ऐसा कृत्य हो सकता है जो सब के लिए अच्छे परिणाम लाये?
किताब का अंतिम परिच्छेद है: ‘’दि आइडियल, आदर्श’’ इससे पहले वाक्य से ही मूर अपनी भूमिका स्पष्ट करता है—‘’ इस परिच्छेद का शीर्षक संदिग्ध है। जब हम किसी अवस्था को आदर्श कहते है तो हम तीन अलग-अलग बातें करना चाह सकते है। जब हम किसी चीज को अच्छा कहते है तो हो सकता है। कि हम न केवल अच्छा मानते है। वरन अन्य सभी चीजों से उसे बेहतर समझते है।‘’
‘’आदर्श का अर्थ है वस्तुओं की सर्वश्रेष्ठ अवस्था, आत्यंतिक शुभ का सार निचोड़। इस अर्थ में स्वर्ग की सम्यक कल्पना आदर्श की सम्यक धारण होगी। तथापि वैयक्तिक शुभ के पार एक सामूहिक और सार्वत्रिक शुभ की भी संकल्पना है। इसे ही दर्शन शास्त्र में मानवता का शुभ कहते है। यह वह अंतिम लक्ष्य है जिसके लिए हम काम करें। इस अर्थ में युटोपिया आदर्श है। युटोपिया की मन ही मन कल्पना करने वाले अपने ख़्यालों में कई चीजों को संभव मान सकते है। जो कि यथार्थ में असंभव हो सकते है।‘’
क्या ऐसा कोई शुभ है जो अपने आपमें सत्य हो सकता है। हो सकता है यह जो आत्यंतिक शुभ है उसकी कुछ ऐसी गुणवत्ताएं हों जिनकी हम कल्पना भी कर सकते हो। क्या कोई ऐसा खालिस शुभ है जिस पर अशुभ की बिलकुल छाया न हो? यदि सुख शुभ नहीं हो सकता, सौंदर्य शुभ नहीं हो सकता, ज्ञान शुभ नहीं हो सकता—क्योंकि प्रत्येक का विपरीत उसमे समाया हुआ है—तो फिर परम शुभ क्या है।
दो सौ पच्चीस पृष्ठों की यह खोज अंतत: शुभ तक नहीं पहुँचती अपितु पाठक को अधर में ही लटका देती है। जिस प्रश्न को लेकर शुरूआत की थी, ‘’वॉट इज़ गुड’’ ‘’शुभ क्या है। उसका उत्तर मिलना तो दूर, प्रश्न और विराट हो जाता है। तो फिर सवाल उठता है हम किस मुंह से इस अथाह जीवन के नीतिशास्त्र, कानून, अदालतें, किस लिए? यदि यह किताब किसी को इतना भी डांवाडोल कर देती है तो क्या चाहिए जी इ मूर सफल हुआ।
ओशो का नज़रिया--
जी. इ. मूर एक महान समसामयिक लेखक, न एक किताब लिखी है: ‘’प्रिंसिपिया एथिका’’ और पूरे इतिहास में संभवत: वह एकमात्र व्यक्ति है जिसने शुभ को परिभाषित करने के लिए इतनी गहराई से सोचा हो। शुभ की परिभाषा किए बगैर कोई नीतिशास्त्र कोई नैतिकता नहीं हो सकती। अगर तुम्हें यही पता नहीं हे कि शुभ क्या तो तुम कैसे जानोंगे क्या नैतिक है, क्या अनैतिक ; क्या सही है, क्या गलत।
उसने एक बुनियादी सवाल को उठाया और बगैर यह जानते हुए कि यह आखिरी सवाल है। और वह मुसीबत में फंस गया। आज की दुनियां के सर्वाधिक बुद्धिमान लोगों में एक था वह। वह इस सवाल को हर दृष्टि कोण से देखकर लगभग ढाई सौ पन्नों तक खोज करता है: ‘’शुभ क्या है?’’ और इतने सरल से शब्द की परिभाषा करने में वह बुरी तरह असफल रहा। हर कोई जानता है कि अच्छा क्या है, हर कोई जानता है बुरा क्या है। हर कोई जानता है सुंदर क्या है। हर कोई जानता है बुरा क्या है? हर कोई जानता है सुंदर क्या है? लेकिन उसकी परिभाषा करोगे तो तुम उसी मुसीबत में पड़ोगे।
उसने सोचा होगा कि हर कोई जानता है कि शुभ क्या है, सिर्फ थोड़ा सा राज जानने की बात है। ताकि उसकी परिभाषा की जा सके। लेकिन ढाई सौ पन्नों के बारीक तर्क के बाद, गहन चिंतन और बौद्धिक विश्लेषण के बाद वह इस नतीजे पर पहुंचता है कि शुभ अव्याख्येय है।
ओशो
बोधिधर्म: दि ग्रे टेस्ट झेन मास्टर
जी. इ. मूर की ‘’प्रिंसिपिया एथिका’’ मुझे यह किताब बहुत पसंद है। यह तर्क की महान सरणी है। यह दो सौ से अधिक पृष्ठ एक ही प्रश्न के ऊहापोह में बिताता है: शुभ क्या है। और अंतत: इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि शुभ अव्याख्येय है। अद्भुत लेकिन उसने अपना गुह्म पाठ बखूबी किया। उसने जल्दी से निर्णय नहीं ले लिया जैसे कि रहस्यदर्शी लेते है। वह दार्शनिक था। वह आहिस्ता-आहिस्ता कदम-दर-कदम बढ़ता गया। शुभ अव्याख्येय है जैसे कि सौंदर्य है या भगवत्ता है। वस्तुत: जो भी मूल्यवान है वह अव्याख्येय है। ध्यान रहे, जिसकी भी परिभाषा की जा सके वह दो कौड़ी का है। जब तक कि तुम अव्याख्येय तक नहीं पहु्ंचो, तुम किसी मूल्यवान के करीब आये ही नहीं।
ओशो
बुक्स आय हैव लव्ड
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