प्रश्न--हम अपनी मूर्च्छित और अहंकारी अवस्था में, सदा गुरु के संपर्क में नहीं होते। लेकिन गुरु क्या सदा हमारे संपर्क में होता है?
ओशो-- तुम्हारी चेतना परत मात्र एक है चार परतों में। लेकिन यह तभी संभव है जब तुमने समर्पण कर दिया हो और उसे अपने गुरु के रूप में स्वीकार कर लिया हो, उससे पहले यह संभव नहीं है। यदि तुम मात्र एक विद्यार्थी होते हो, सीख रहे होते हो, तब तुम संपर्क में होते हो तभी गुरु संपर्क में होता है; जब तुम संपर्क में नहीं होते तब वह भी संपर्क में नहीं होता।
इस घटना को समझ लेना है। तुम्हारे चार मन होते है—वह परम मन जो भविष्य की संभावना है जिसके तुम केवल बीज लिए हुए हो। कुछ प्रस्फुटित नहीं हुआ; केवल बीज होते है। मात्र क्षमता होती है। फिर होता है चेतन मन—एक बहुत छोटा टुकड़ा जिसके द्वारा तुम विचार करते हो, सोचते हो, निर्णय करते हो, तर्क करते हो, संदेह करते हो, आस्था करते हो। वह चेतन मन गुरु के साथ संपर्क में होता है जिसे तुमने समर्पण नहीं किया है। तो जब भी यह संपर्क में होता है गुरु संपर्क में होता है। अगर यह संपर्क में नहीं, तो गुरु संपर्क में नहीं। तुम एक विद्यार्थी हो, और तुमने गुरु को गुरु के रूप में नहीं धारण किया है। तुम अब भी एक शिक्षक के रूप में ही उसके बारे में सोचते हो।
शिक्षक और विद्यार्थी चेतन मन में अस्तित्व रखते है। कुछ नहीं किया जा सकता क्योंकि तुम खुले हुए नहीं हो। तुम्हारे दूसरे तीनों द्वार बंद है। परम चेतना मात्र एक बीज है। तुम इसके द्वार नहीं खोल सकते।
उप चेतन जरा ही नीचे है चेतन से। वह द्वार खुलना संभव है यदि तुम प्रेम करो। यदि तुम यहां मेरे साथ हो केवल तुम्हारी तर्कणा के कारण तो तुम्हारा चेतना द्वार खुला हुआ है। जब कभी तुम खोलते हो इसे तो मैं वहां होता हूं। यदि तुम इसे नहीं खोलते, तो मैं बहार होता हूं। मैं प्रवेश नहीं कर सकता। चेतन के नीचे ही उप चेतन है। यदि तुम मेरे प्रेम में हो, यदि यह मात्र शिक्षक और विद्यार्थी का संबंध नहीं है बल्कि कुछ ज्यादा आत्मीयता का संबंध है, यदि वह प्रेम-जैसी घटना है, तो उपचेतनिय द्वार खुला होता है। बहुत बार चेतन द्वार तुम्हारे द्वारा बंद हो जायेगा। तुम मेरे विरूद्ध तर्क करोगे; कई बार तुम नकारात्मक हो जाओगे। कई बार तुम मेरे विरूद्ध हो जाओगे। लेकिन वह बात महत्व नहीं रखती। प्रेम का उपचेतनिय द्वार खुला होता है, और मैं सदा रह सकता हूं तुम्हारे संपर्क में।
लेकिन वह भी एक संपूर्ण श्रेष्ठ द्वार नहीं है। क्योंकि कई बार तुम मुझसे घृणा कर सकते हो। यदि तुम मुझे घृणा करते हो, तो तुमने वह द्वार भी बंद कर दिया है। प्रेम है यहां, वह विपरीत बात घृणा भी वहां है। यह हमेशा होती है। प्रेम के साथ। द्वितीय द्वार ज्यादा खुला होता है प्रथम से, क्योंकि पहला तो अपनी मनोदशा इतनी तेजी से बदलता है कि तुम जानते ही नहीं कि क्या घट सकता है। किसी भी क्षण यह बदल सकता है। एक क्षण पहले यह मौजूद था यहां; अगले क्षण यह यहां नहीं होता। क्षण मात्र की घटना होती है।
प्रेम थोड़ी ज्यादा देर बना रहता है। यह भी अपनी भाव दशाएं बदलता है, लेकिन इसकी मनोदशाओं की थोड़ी ज्यादा लंबी तरंगें होती है। कई बार तुम मुझे घृणा करोगे। तीस दिन में करीब आठ दिन ऐसे होते है। कम से कम एक सप्ताह तो होता ही है। जिसके दौरान तुम मुझसे घृणा करते हो। लेकिन तीन सप्ताह के लिए तो वह द्वार खुला होता है। बुद्धि के साथ एक सप्ताह बहुत लंबा है। यह एक अनंतकाल होता है। बुद्धि के संग तुम एक क्षण यहां होते हो, दूसरे क्षण तुम विरूद्ध होते हो। पक्ष में होते हो, फिर विरूद्ध और यही चलता जाता है। यदि दूसरा द्वार खुला होता है और तुम प्रेम में होते हो। चाहे तर्क का द्वार बंद भी हो तो मैं संपर्क में बना रह सकता हूं।
तीसरा द्वार उप चेतन के नीचे होता है—जो है अचेतन। तर्क प्रथम द्वार खोल देता है—यदि तुम मेरे साथ कायल होने का अनुभव करो। प्रेम द्वितीय द्वार खोल देता है। जो पहले से ज्यादा बड़ा होता है। यदि तुम मेरे प्रेम में होते हो। कायल नहीं बल्कि प्रेम में होते हो, एक घनिष्ठ संबंध अनुभव करते हो। एक समस्वरता, एक स्त्रेही भाव अनुभव करते हो।
तीसरा द्वार खुलता है समर्पण द्वारा। यदि तुम मेरे द्वारा संन्यस्त हुए हो, यदि तुम संन्यास में छलांग लगा चुके हो, यदि तुमने छलांग लगा दी है और मुझसे कह दिया है, अब—तुम होओ मेरे मन। अब तुम थाम लो मेरी बागडोर। अब तुम मेरा मार्ग निर्देशन करो। और मेरे पीछे चलूंगा। ऐसा नहीं है कि तुम इसे हमेशा ही कर पाओगे। लेकिन मात्र यह चेष्टा ही कि तुमने समर्पण किया, तीसरा द्वार खोल देता है।
तीसरा द्वार खुला रहता है। हो सकता है तार्किक रूप से तुम मेरे विरूद्ध होओ। इससे फर्क नहीं पड़ता; मैं संपर्क में होता हूं। हो सकता हो तुम मुझसे घृणा करो। इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता है, क्योंकि तीसरा द्वार खुला रहता है। तुमने समर्पण कर दिया है। और तीसरे द्वार को बंद करना मुश्किल है। मुश्किल ही नहीं अति कठिन है। खोलना भी कठिन है, वह बंद करना भी अति कठिन है। पर फिर भी इतना कठिन नहीं की जितना की बंद करना। लेकिन वह भी बंद किया जा सकता है। क्योंकि तुमने इसे खोला है, वह भी किया जा सकता है बंद। किसी दिन तुम निर्णय कर सकते हो तुम्हारे समर्पण को लौटा लेने का। या तुम जा सकते हो और स्वयं का समर्पण किसी दूसरे के प्रति कर सकते हो। लेकिन ऐसा कभी नहीं; करीब-करीब कभी नहीं घटता। क्योंकि इन तीनों द्वारों सहित गुरु चौथे द्वार को खोलने का कार्य कर रहा होता है।
अंत: लगभग असंभव संभावना होती है। कि तुम तुम्हारा समर्पण वापस लौटा लोगे। इससे पहले कि तुमने इसे लौटा लिया हो, गुरु अवश्य चौथा द्वार खोल चुका होता है। जो तुम्हारे बास के बहार होता है। तुम इसे खोल नहीं सकते। तुम इसे बंद नहीं कर सकते। जो द्वार तुम खोलते हो, इसके तुम मालिक रहते हो। और तुम इसे बंद भी कर सकते हो। लेकिन चौथा द्वार का तुम से कुछ लेना देना नहीं होता। वह है परम चेतना। इन तीनों द्वारों को खोलना आवश्यक है। जिससे की गुरु चौथे द्वार के लिए चाबी गढ़ सकता हो। यह एक जालसाजी जैसा है, एक फोर्जरी है, क्योंकि स्वयं मालिक के पास चाबी नहीं होती है।
गुरु का सारा प्रयास यही है कि इन तीनों द्वारों से चौथे में प्रवेश करना और चाबी गढ़ना और इसे खोलना, इसके लिए उसे पर्याप्त समय मिले। एक बार यह खुल जाता है, तो तुम नहीं रहते। अब तुम कुछ नहीं कर सकते। तुम तीनों के द्वार बंद कर सकते हो। लेकिन उसके पास चाबी है चौथे की और वह हमेशा संपर्क में है। तब चाहे तुम मर भी जाओ, इससे कुछ नहीं होता। यदि तुम पृथ्वी के अंत तक चले जाओ। यदि तुम चाँद पर चले जाओ, इस से कोई अंतर नहीं पड़ता। उसके पास चौथे की चाबी है। और वस्तुत: सच्चा गुरु कभी भी चाबी अपने पास रखता नहीं। वह सिर्फ खोलता है, चौथे को और फेंक देता है समुद्र में। अंत: कोई संभावना नहीं होती इसे चुराने की यह कुछ करने की। कुछ नहीं किया जा सकता।
मैंने तुममें से बहुतों के चौथे द्वार की चाबी बढ़ ली और फेंक दी है। अंत: स्वयं को नाहक परेशान मत करो। यह व्यर्थ है। अब कुछ नहीं किया जा सकता। एक बार चौथा द्वार खुल जाता है तो कोई समस्या नहीं रहती। सारी समस्याएं इससे पहले की ही होती है। ठीक अंतिम क्षण गुरु तैयार कर रहा होता है चाबी क्योंकि चाबी अति कठिन है।
लाखों जन्मों से द्वार बंद रहा है, इसने तमाम तरह की जंग इकट्ठी कर ली है। यह दीवार की भांति लगता है। द्वार की भांति नहीं। लाता कहां है, इसे खोजना कठिन होता है। और हर किसी के पास अलग लता है। अंत: कहीं कोई मास्टर की , कोई परम कुंजी नहीं होती। एक चाबी काम न देगी क्योंकि हर कोई उतना ही अनूठा है जितना की तुम्हारे अंगूठे का चिन्ह। कोई दूसरा वह चिन्ह कहीं नहीं पा सकता। न तो अतीत में, न ही भविष्य में। तुम्हारे अंगूठे का चिन्ह तो बस तुम्हारा होगा। एकमेव घटना। यह कभी दोहराई नहीं जाती है।
तुम्हारे अंतर कोष्ठ का ताला भी तुम्हारे अंगूठे के चिन्ह की भांति ही होता है। यह नितांत वैयक्तिक होता है। कोई परम कुंजी मदद नहीं कर सकती। इसीलिए गुरु की जरूरत होती है। क्योंकि परम कुंजी खरीदी नहीं जा सकती है। वरना एक बार चाबी तैयार हो जाये, तो हर किसी का द्वार खोला जा सकता है। नहीं, प्रत्येक व्यक्ति के पास अलग ढंग का द्वार है। अलग प्रकार का ताला। उस ताले के बंद होने खुलने का अपना ढंग होता है। गुरु को ध्यान देना है और खोजना है और चाबी गढ़नी है—कोई विशिष्ट चाबी।
एक बार तुम्हारा चौथा द्वार खुल जाता है तब गुरु सतत तुम्हारे साथ गहन संपर्क में होता है। तुम चाहे उसे बिलकुल भूल जाओं; इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। तुम उसे याद न करो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। गुरु देह छोड़ दे, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। जहां कहीं वह हो, जहां कही तुम हो, द्वार खुला ही होता है। और यह द्वार समय-स्थान के पार रहता है। इसीलिए यह परम मन है, यह परम चेतन है।
‘’हम अपनी मूर्च्छित और अहंकारी अवस्था में, सदा गुरु के संपर्क में नहीं होते। लेकिन गुरु क्या सदा हमारे संपर्क में होता है? –हां लेकिन सिर्फ तभी जब चौथा द्वार खुला हो। अन्यथा तीसरे द्वार पर वह कुछ अंश तक संपर्क में होता है। दूसरे द्वार पर करीब आधे समय वह संपर्क में होता है। पहले द्वार पर वह केवल क्षण मात्र संपर्क में होता है।
अंत: मुझे तुम्हारा चौथा द्वार खोलने दो। और चौथा द्वार एक निश्चित घड़ी में ही खुलता है। वह घड़ी आती है जब तुम्हारे तीनों द्वार खुल हों। यदि एक भी द्वार बंद हो तो चौथा द्वार नहीं खुल सकता। यह एक गणित भरी पहली है। और ऐसी अवस्था की जरूरत होती है। कि तुम्हारा पहला—चेतन द्वार खुला रहना चाहिए। फिर तुम्हारा दूसरा द्वार खुला रहना चाहिए। तुम्हारा उप चेतन तुम्हारा प्रेम। यदि तुमने समर्पण कर दिया है यदि तुमने दीक्षा में एक कदम रख लिया है। तब तुम्हारा तीसरा द्वार, उप चेतन खुला होता है।
जब तीनों द्वार खुले होते है, जब एक निश्चित घड़ी में चौथा द्वार खोला जा सकता है। तो ऐसा घटता है कि जब तुम जागे हुए होते हो, चौथा द्वार कठिन है खोलना। जब तुम सोये होते हो। केवल तभी। अंत: मेरा वास्तविक कार्य दिन में नहीं होता। यह रात्रि में होता है जब तुम कहरी नींद में खर्राटे भर रहे होते हो, क्योंकि तब तुम कोई मुश्किल खड़ी नहीं करते। तुम गहरी नींद में सोय होते हो, इसीलिए तुम उल्टे तर्क नहीं करते। तुम तर्क करने की बात भूल जाते हो।
गहरी नींद में तुम्हारी ह्रदय ठीक कार्य करता है। तुम इस समय ज्यादा प्रेममय होते हो उसकी उपेक्षा जिस समय कि तुम जागे हुए हो। क्योंकि जब तुम जागे होते हो, बहुत सारे भय तुम्हें घेर लेते है। और भय कारण ही प्रेम संभव नहीं हो पाता। जब तुम गहरी नींद में सोये हुए होते हो, भय तिरोहित हो जाते है। प्रेम खिलता है। प्रेम एक रात्रि पुष्प है। तुमने देखा होगा रात की रानी को—वह फूल जो रात्रि में खिलता है। प्रेम रात की रानी है। यह रात में खिलता है—तुम्हारे कारण ही; और कोई दूसरा कारण नहीं। यह खिल सकता है दिन में, लेकिन तब तुम्हें स्वयं को बदलना होता है। इससे पहले कि प्रेम दिन में खिल सके, भरी परिवर्तन की आवश्यकता होती है।
इसीलिए तुम देख सकते हो कि जब लोग नशे की में मस्ती में होते है। चले जाओं किसी मधुशाला में जहां लोगों ने बहुत ज्यादा पी रखी हो। वे लगभग सदा ही प्रेममय होते है। देखना दो शराबियों को सड़क पर चलते हुए। एक दूसरे के कंधों पर झूलते हुए—इतने प्रेममय—जैसे की एक ही हो। वे सोये हुए है।
जब तुम भयभीत नहीं होते, तब प्रेम खिलता है। भय है विष। और जब तुम नींद में गहरे उतरे होते हो, तब में तुम्हारी नींद में प्रवेश कर सकता हूं। क्योंकि तुमने पहले से ही समर्पित किया है, यदि तुम गुरु को समर्पण कर दिया है तो वह अपना कार्य कर सकता है। तुम सून भी न पाओगे उसकी पग ध्वनि को। वह चुपचाप प्रवेश करता है। और अपना कार्य करता है। यह एक कूट-रचना, एक फोर्जरी है, बिलकुल वैसी है जैसे कि चोर उस समय रात में प्रवेश करे, जबकि तुम सोये होते हो। गुरु एक चोर है। जब तुम गहरी निद्रा में होते हो और तुम नहीं जानते कि क्या घट रहा है। वह प्रवेश करता है तुममें और चौथा द्वार खोल देता है।
एक बार चौथा द्वार खुल जाता है तो कोई समस्या नहीं रहती। हर कोशिश और हर मुसीबत जो तुम बना सकते हो तुम उसे निर्मित कर सकते हो केवल चौथे के खुलने से पहले ही। वह चौथा द्वार न वापसी है। एक बार चौथा खुल जाता है, तो गुरु चौबीसों घंटे तुम्हारे साथ रह सकता है। तब कोई मुश्किल नहीं है।
ओशो
पतंजलि: योग-सूत्र
भाग-1, प्रवचन—16,
6 जनवरी, 1975, रजनीश आश्रम पूना।
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