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सोमवार, 2 जनवरी 2012

दि फर्स्‍ट एंड लास्‍ट फ़्रीडम-(जे कृृष्णमूर्ति)-036

दि फर्स्‍ट  एंड लास्‍ट फ़्रीडम-(जे. कृष्णामूर्ति) ओशो की प्रिय पुस्तकें 

The First and Last Freedom-Jiddu Krishnamurti

      यह किताब जे. कृष्णामूर्ति के लेखों का संकलन है। यह उस समय छपी है जब कृष्‍ण मूर्ति आत्म क्रांति से गुजरकर स्‍वतंत्र बुद्ध पुरूष के रूप में स्‍थापित हो चूके थे। लंदन के ‘’विक्‍टर गोलांझ लिमिटेड’’ प्रकाशन ने 1958 में यह पुस्‍तक प्रकाशित की। कृष्‍ण मूर्ति के एक प्रशंसक और सुप्रसिद्ध अमरीकी लेखक अल्‍डुअस हक्‍सले ने इस किताब की विद्वत्तापूर्ण भूमिका लिखी है।

      ओशो ने यह किताब 1960 में जबलपुर के मार्डन बुक स्‍टॉल से खरीदी है। इस पर उनके हस्‍ताक्षर है, सिर्फ ‘’रजनीश’। किताब के दो खंड है। पहले खंड में विविध मनोवैज्ञानिक विषयों पर कृष्‍ण मूर्ति के प्रवचन है और दूसरे खंड में प्रश्‍नोतरी है। प्रवचनों के कुछ विषय इस प्रकार है:
क्‍या हम खोज रहे है?
व्‍यक्‍ति और समाज
विश्‍वास
सादगी
इच्‍छा
समय और रूपांतरण
क्‍या सोचने से सारी समस्‍याएं हल हो जायेगी?
      इन पृष्‍ठों में कृष्‍ण मूर्ति का बुद्धत्‍व सूरज के समान प्रखरता से दीप्‍तिमान हो उठा है। एक-एक वक्‍तव्‍य ऐसा है कि तीर की तरह अंतस में चूभ जाये। मनुष्‍य की हर छोटी-छोटी स्‍थिति पर वे मनातीत शिखर से ऐसी रोशनी डालते है, कि हमारे देखने-सोचने का पूरा ढंग तहस नहस हो गया है। इसलिए आश्‍चर्य नहीं है कि ओशो ने जगह-जगह कृष्‍ण मूर्ति के वचन रेखांकित किए है। इन शब्‍दों में न तो नीति है न धर्म, न आचरण के उपदेश है। यह सत्‍य की सीधी साफ अभिव्‍यक्‍ति है। एक-एक वाक्‍य मर्म भेदन कर पढ़ने वाले को सीधा ध्‍यान में ले जाता है।
     
किताब की झलक:
    
प्रश्न: हम जानते है कि सेक्‍स एक शारीरिक और मानसिक आवश्‍यकता है जिससे बचा नहीं जा सकता। लगता है कि हमारे जीवन में जो अराजकता है उस का यह मूल कारण है। हम इस समस्‍या को कैसे सुलझाएं?
           
कृष्‍ण मूर्ति:       ऐसा क्‍यों है कि हम जिस चीज को छूते है उसे समस्‍या बना देते है? हमने ईश्‍वर को समस्‍या बनाया हुआ है, प्रेम को समस्‍या बनाया हुआ है। और जीने को और संबंधों को समस्‍या बनाया हुआ है। सेक्‍स को भी समस्‍या बनाया हुआ है। हम क्‍यों दूःख झेल रहे है? सेक्‍स समस्‍या क्‍यों बन गया? हम जीने को समस्‍या क्‍यों बना लेते है? हमारा काम, धन कमाना, सोचना, महसूस करना, अनुभव करना—पूरा जीवन व्‍यवहार ही—समस्‍या क्‍यों है?
            क्‍या इसका कारण बुनियादी तौर पर यह नहीं है कि हम हमेशा एक खास दृष्‍टिकोण से देखते है? हम हमेशा केंद्र से परिधि की और सोचते है। इसलिए हम जिसे छूते है वह सतही हो जाता है। लेकिन जीवन सतह पर नहीं है। जीवन संपूर्णता चाहता है। और चूंकि हम सतह पर जी रहे है, हम सिर्फ सतही प्रतिक्रिया से ही अवगत है। हम सतही तौर पर जो भी करें उससे समस्‍या पैदा होने ही वाली है। और यही हमारा जीवन है। हम सतह पर जीते है, और वहीं हम अपनी समस्‍याओं के संग जीने से संतुष्‍ट है। जब तक हम सतह पर जीते है तब तक समस्‍याएं होती है। क्‍योंकि परिधि ही ‘’मैं हूं’’ मेरी संवेदनाएं है। इन संवेदनाओं को मैं संसार के साथ देश के साथ, या किसी और मनगढ़ंत चीज के साथ जोड़ता हूं।
      सेक्‍स की समस्‍या से हमारा क्‍या मतलब है?—सेक्‍स का कृत्‍य, या कृत्‍य के संबंध में हमारी सोच? निश्‍चय ही, कृत्‍य समस्‍या नहीं है। संभोग तुम्‍हारे लिए समस्‍या नहीं है। जैसे भोजन करना समस्‍या नहीं है। लेकिन अगर तुम भोजन के विषय में सारा दिन सोचते रहो, क्‍योंकि सोचने के लिए तुम्‍हारे पास और कुछ नहीं है। तो वह समस्‍या बन जाएगी। तुम सेक्‍स के बारे में क्‍यों सोचते हो? क्‍यों उसकी इमारत खड़ी करते हो? सिनेमा, पत्रिकाएँ, कहानियां, स्‍त्रियों के कपड़े पहनने का ढंग, सब कुछ तुम्‍हारी कामुकता को बढ़ावा देता है। तुम्‍हारा मन सेक्‍स के बारे में इतना क्‍यों सोचता रहता है। वह तुम्‍हारे जीवन में केंद्रीय समस्‍या क्‍यों बन गई है?
      वह एक अंतिम मुक्‍ति है। खुद को भूलने का एक तरीका है। कुछ क्षण, कम से कम उस क्षण तुम अपने आपको भूल सकते हो। स्‍वयं को भूलने का और कोई उपाय नहीं है। तुम्‍हारे पास जीवन में तुम जो भी करते हो उससे तुम्‍हारा ‘’मैं’’ पुष्‍ट होता है। तुम्‍हारा धंधा, तुम्‍हारा धर्म, तुम्‍हारे ईश्‍वर, तुम्‍हारे नेता, तुम्‍हारे राजनैतिक और आर्थिक काम, तुम्‍हारे सामाजिक कार्य, सब कुछ ‘’मैं’’ को मजबूत करते है। एक ही कृत्‍य है (संभोग) जिसमें ‘’मैं’’ पर जोर नहीं है? इसलिए वह समस्‍या बन जाता हैं, है न?
      ...तुम्‍हारा जीवन एक विरोधाभास है, मैं को मजबूत करना और ‘’मैं’’ को भूलना। और मन इस विरोधाभास को समाप्‍त नहीं कर सकता क्‍योंकि मन ही विरोधाभास है। विरोधाभास को तभी समझा जा सकता है। जब तुम अपनी रोज की जिंदगी को समझोगे सिनेमा जाकर परदे पर स्‍त्रियों को धुरना, कामुक चित्रों से भरी पत्रिकाएँ पढ़ना, स्‍त्रियों को देखने को ढंग.... ये सब अनेक उपायों से मन को प्रोत्‍साहन दे रहे है; अहंकार का पोषण कर रहे है। और दूसरी तरफ तुम प्रेमपूर्ण, कोमल, दयालु होने का प्रयास कर रहे हो। ये दो चीजें एक साथ नहीं हो सकती।
      जो आदमी महत्‍वाकांक्षा से भरा हो—आध्‍यात्‍मिक या सांसारिक—वह कभी समस्‍या के बगैर नहीं रह सकता। क्‍योंकि समस्‍या तभी खत्‍म होती है जब तुम अहम् को भूल जाते हो। जब ‘’मैं’’ होता ही नहीं और ‘’मैं’’ का न होना कोई प्रयत्‍नपूर्वक कृत्‍य नहीं है, प्रतिक्रिया नहीं है। तुम्‍हारा सेक्‍स प्रतिक्रिया होता है। जब मन समस्‍या हल करने की कोशिश करता है तब वह समस्‍या को और जटिल, और उलझी हुई और दर्द नाक बना देता है। सेक्‍स का कृत्‍य समस्‍या नहीं है। मन है समस्‍या। मन जो कहता है कि मुझे पवित्र होना है। पवित्रता मन की नहीं हो सकती। पवित्रता कोई गुण नहीं है, उसे विकसित नहीं किया जा सकता। जो व्‍यक्‍ति विनम्रता को विकसित करता है वह विनम्र नहीं है। वह अपने अभिमान को ही विनम्रता कहता है। भीतर से वह घमंडी है, और अपने घमंड को ही विनम्र कहता है। पवित्रता तभी होगी जब प्रेम है। और प्रेम मन का गुण नहीं है।
      इसलिए सेक्‍स के प्रश्‍न को तब तक समझा नहीं जायेगा जब तक मन कोन समझा जाये।....सेक्‍स की अपनी जगह है। न तो वह अपवित्र है, न पवित्र है। जब मन उसे असाधारण महत्‍व देता है तब वह समस्‍या बन जाता है। और मन सेक्‍स को इसलिए समस्‍या बनाता है क्‍योंकि वह थोड़े से सुख के बगैर जी नहीं सकता। जब मन अपनी पूरी प्रक्रिया को समझता है तो वह रूक जाता है। उस क्षण विचार भी रूक जाते है। विचार के रूकने पर ही सृजन है जो कि सुख का स्‍त्रोत है।
ओशो का नज़रिया:   
      मैं इस आदमी से प्रेम करता हूं और उन्‍हें नापसंद भी करता हूं। प्रेम करता हूं क्‍योंकि वह सच बोलते है और नापसंद करता हूं क्‍योंकि वह बहुत बौद्धिक है। वे शुद्ध तर्क है। बुद्धि है। कभी मुझे आश्‍चर्य होता है कि कही वे उस ग्रीक एरिस्‍टोटल के अवतार तो नहीं है। उनके तर्क मुझे नापंसद है। उनके प्रेम के प्रति मुझे सम्‍मान है। लेकिन यह किताब बहुत सुंदर है।
      बुद्धत्‍व के बाद यह उनकी पहली किताब है, और आखरी भी। हालांकि उनकी बहुत किताबें आई है बाद में, लेकिन वे एक ही चीज की सामान्‍य पुनरूक्‍ति है। फर्स्‍ट एंड लास्‍ट फ़्रीडम’’ से बेहतर वे कुछ पैदा नहीं कर सके।
      यह एक आश्‍चर्यजनक तथ्‍य है। खलील जिब्रान ने अपनी मास्ट पीस ‘’प्रॉफेट’’ उस समय लिखी जब वह अठारह साल का था। और पूरी जिंदगी उससे बेहतर लिखने के लिए प्रयास करता रहा। लेकिन सफल नहीं हुआ। ऑस्पेन्सकी गुरजिएफ से मिला, वर्षो तक उसके साथ रहा, फिर भी ‘’टर्शियम ऑर्गेनम’’ के पार नहीं जा पाया। कृष्‍ण मूर्ति की भी यही स्‍थिति है। ‘’दि फर्स्‍ट एंड लास्ट फ़्रीडम’’ वास्‍तव में प्रथम और अंतिम है।
ओशो
दि बुक्‍स आय हैव लव्‍ड

2 टिप्‍पणियां:

  1. कृष्ण मूर्ति जी कुछ भी हो ...अपने ओशो जैसा कोई नहीं ...सब के लिए सब कुछ है उनके पास ..तर्कशील के लिए तर्क ....प्रेमी के लिए प्रेम , भक्त के लिए भगवान .....जो ओशो में मिल गया उसमे तनाव रह ही नहीं सकता
    प्यारे ओशो को नमन
    और स्वामी जी आपको भी ...आपका प्रयास सराहनीय है

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  2. सच कहा आपने ,,जाकी रही भावना जैसी पृभू मूरति देखी तिन तैसी । ओशोजी को नमन,,,,,

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