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बुधवार, 4 जनवरी 2012

तीसरी आँख : स्‍वप्‍न या सत्‍य?—

ध्‍यान के अंतर्यात्रा पर जो भी चल पड़ता है वह अक्‍सर, अध्‍यात्‍म-जगत के गुह्म विज्ञान से बेहद आकर्षित हो जाता है। इससे पहले कि उसके पैर पार्थिव शरीर की भूमि में दृढ़ता से जम जाएं, वह तीसरे-चौथे-पांचवें सूक्ष्‍म शरीरों की खोजबीन करने लगता है। सुदूर आकाश के ये रहस्‍यपूर्ण टिमटिमाते सितारे उसे बुलाने लगते है। इन सितारों में सर्वाधिक आकर्षक सितारा अगर कोई मालूम होता है तो वह है: ‘’तीसरी आँख का।‘’

      न जाने तीसरी आँख में कौन सी कशिश है जो साधकों को बेहद लुभाती रहती है। उसकी अनुभूति तो बहुत कम लोगों को हुई होगी, अधिकांश लोग उसकी रूमानी कल्‍पनाओं से अपने सपने सज़ा लेते है। दो आंखों से अभी ठीक से दुनियां देखी नहीं, और तीसरी आँख को खोलने का महा कठिन प्रयत्‍न करने लगते है।
      लगभग 20-25 साल पहले तिब्‍बत के एक लामा लोब सैंग राम्‍पा की एक दर्जन किताबें एक साथ प्रकाशित हुई थी। वे सारी किताबें विश्‍व भी में बेहद लोकप्रिय हुई थी। फिल्‍मी पत्रिकाओं की तरह वे बाजार में बिक रही थी। क्‍या थ उन किताबों में? तीसरी आँख की आंखों देखी कहानियां, सूक्ष्‍म शरीर के ऑपरेशन, सूक्ष्‍म शरीर की अवकाश यात्राएं। अतीद्रिय शक्‍तियों का लोक....इस प्रकार की गुह्म बातों की जानकारी। उनकी लोकप्रियता देखकर ओशो ने किसी संन्‍यासी से कहा था: ‘’इन किताबों को उपन्‍यास की भांति पढ़ना।‘’ वाकई जासूसी उपन्‍यासों का सा सम्‍मोहन था इन किताबों में।
      ओशो का यह दोहरा काम ध्‍यान देने जैसा है। एक तरफ वे कुंडलिनी, चक्र और इंद्रियातीत शक्‍तियों के रहस्‍य उद्घाटित कर रहे है। और दूसरी और शिष्‍यों को इससे सावधान रहने की चेतावनी दे रहे थे। यदि आम शिष्‍य के लिए यह जानकारी मात्र दंतकथा थी, तो वे क्‍यों इन पर पडा पर्दा उठा रहे थे? क्‍योंकि इनका विज्ञान तो शत प्रतिशत सही है। उसे उच्‍चतर विज्ञान कहा जा सकता है। लेकिन जब तक मनुष्‍य ध्‍यान में पकता नहीं, उसकी वासना और की दौड़ शांत नहीं होती तब तक शक्‍ति के प्रयोग उसके लिए बहुत घातक सिद्ध हो सकते है।
      तीसरी आँख खुलती ही तब है जब समूचा द्वंद्व विलीन हो जाता है, मन को खड़खड़ करनेवाले सारे न्यूरोसिस विदा होते है। अवचेतन में दबी पड़ी भावों की ज़हरीली नागिनें निष्‍प्रभ निर्विष हो जाती है। तब उस स्‍वच्‍छ निर्मल मनोभूमि में, ऊर्जा केंद्रित होने लग जाती है। और इस केंद्रित, अखंडित ऊर्जा को गति करने के लिए एक ही बिंदु बचता है: तीसरी आँख। ठीक ऐसे ही जैसे अग्‍नि की ज्‍वाला ऊपर की और बहने लगती है।
      अभी तो हमारा यह हाल है कि हमारी लौ कंपती ही रहती है। कोई हल्‍की सी अफवाह का झोंका, कहीं से आया हुआ अनर्गल पत्र कि हमारा संदेह फन उठा लेता है। डगमगा जाती है सारी श्रद्धा। कंप गई लौ, जरूर कोई बात है। कुछ गलत हो रहा है। भड़काओं औरों को लगा दो आग।
      नहीं ऐसा कंपित मन निस्कंप बिंदु पर नहीं पहुंच सकता। तीसरी आँख तो अपनी जगह है—गौरी शंकर की भांति अडिग, अचल, अजेय। लेकिन हमारी ऊँचाई क्‍या है? एक टीले के बराबर।
      कुछ फासले है हमारे और उसके बीच।
     
पहला:      हम सदा झुंड में जीते है। अकेले होने का साहस नहीं रखते। भीड़ में रहने की इतनी गहरी आदत है कि ध्‍यान के लिए जाएं तो भी भीड़ को साथ लेकर जाते है। लेकिन भीतर कौन किसका साथ निभा सकता है? अकेले को पाना है तो अकेला होना पड़ेगा।
दूसरा:      हम खंडित है, न जाने कितने टुकड़ों में बंटे हुए है। इन टुकड़ों को समेटना होगा। संगठित करना होगा। एक सूत्र में पिरोना होगा। ध्‍यानी को अपने भीतर एक रीढ़ पैदा करनी होती है। जिसकी रीढ़ ही नहीं है वह क्‍या ध्‍यान करेगा ?
तीसरा:     देखने की कला विकसित करनी होगी। केंद्र को ‘’तीसरी आँख’’ कहते है। तीसरा कान या तीसरी नाक नहीं कहते। यह बहुत अर्थ गर्भित है। दो भौंहों के बीच विराजमान यह केंद्र देखने की अपूर्व क्षमता रखता है। यह देखना विशुद्ध पारदर्शी, सुने मन का देखना है। यह शक्‍ति का जागरण नहीं है। शांति की स्फुरणा है। मन इतना शांत हो जाता है। तृप्‍त हो जाता है कि देखने की इच्‍छा भी शेष रहती। दर्पण कब किसे देखना चाहता है? अब दर्पण में सब कुछ दिख जाता है तो इसके लिए वह क्‍या करे?
      यदि सचमुच किसी को तीसरी आँख को खोलना है तो पूरा ध्‍यान दो आंखों पद केंद्रित करे; देखे मन के पूरे संसार को। दुई की तलवार से विच्‍छिन्‍न लहूलुहान व्‍यक्‍तित्‍व का इलाज करे। उसे स्‍वास्‍थ्‍य प्रदान करे। भय, लोभ, ईर्ष्‍या, अहंकार की क्षुद्र सीमाओं में कैद चेतना को आजाद करे। इन छोटे-छोटे दायरों में बंधी ऊर्जा जब मुक्‍त हो जाती है तो ऊर्जा का विशाल दीप स्‍तंभ उपलब्‍ध हो जाता है। फिर तीसरी आँख खोलनी नहीं पड़ती, खुल जाती है।
      तीसरी आँख एक वैज्ञानिक तथ्‍य है। हो सकता है अभी इसका पूरा राज विज्ञान की पकड़ में न आया हो, लेकिन इससे उसके यथार्थ में कोई फर्क नहीं पड़ता। सत्‍य वैज्ञानिक खोजों पर निर्भर नहीं है। ओशो ने पश्‍चिम के कतिपय वैज्ञानिकों के उदाहरण देकर तीसरी आंख को सिद्ध क्या है। प्राचीन योगी कहानियों और प्रतीकों के माध्‍यम से गहन अनुभवों को प्रकट करते थे। और आज हम इलेक्ट्रानिक उपकरणों द्वारा इन अनुभवों की व्‍याख्‍यायित कर सकते है। पहले कुंडलिनी के लिए सांप का प्रतीक था, अब उसे विद्युत शक्‍ति की उपमा दी जाती है। जो कि अधिक यथार्थ है। शरीर के भीतर विद्युत तो दौड़ सकती है। सांप नहीं। अब हम बच्‍चों के कल्‍पना लोक से बाहर आ रहे है।
      विज्ञान के साथ मनुष्‍य का चित प्रौढ़ हो गया है। अब अंतर जगत के रहस्‍य को समझने के लिए उसे किस्‍से कहानियों की जरूरत नहीं है। अगर हम तीसरी आँख को ‘’पाइनियल ग्रंथि’’ कहें तो उसे समझने का आयाम तत्‍क्षण बदल जाता है। यह ग्रंथि प्रकाश के प्रति अति संवेदनशील है इसलिए प्रकाश को देखती और दिखाती है।
      विज्ञान ने परमात्‍मा को पूरी तरह से इनकार किया और पदार्थ की खोज में डूब गया। और अब पदार्थ को खोजते-खोजते वैज्ञानिक पुन: परमात्‍मा से टकरा गया है। क्‍योंकि पदार्थ को तोड़ते जाओं तो अंत में वह बचता ही नहीं ऊर्जा बन जाता है। और वैज्ञानिक भौंचक्‍का होकर आस्‍तित्‍व के अज्ञेय सागर के किनारे खड़ा रह जाता है। न्‍यूटन, आइंस्टीन ओपेन-हेमर....जितने भी बड़े वैज्ञानिक थे, सब अंतत: रहस्‍यवादी बन गये। हो सकता है एक न एक दिन विज्ञान तीसरी आँख का रहस्‍य भी खोल लेगा।
      अच्‍छा होगा सभी ध्‍यानी और खोजी वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए तत्‍पर हों। वैज्ञानिक अनुसंधान का अर्थ है: कल्‍पना की उड़ानें न भरकर यथार्थ के धरातल पर उत्‍तर आयें। हमारे भीतर पैठे हुए असत्‍य का साक्षात करें, सत्‍य अपनेआप प्रगट हो जायेगा।
मां अमृत साधना
संपादकीय, ओशो टाइम्‍स
सितंबर 2000




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