पहले तो दो बातें समझ लेने की है। एक, तीसरी आँख की ऊर्जा वही है जो ऊर्जा दो सामान्य आंखों को चलाती है। ऊर्जा वही है, सिर्फ वह नई दिशा में नए केंद्र की और गति करने लगती है। तीसरी आँख है; लेकिन निष्क्रिय है। और जब तक सामान्य आंखे देखना बंद नहीं करती, तीसरी आँख सक्रिय नहीं हो सकती है। देख नहीं सकती।
उसी उर्जा को यहां भी बहना है। जब उर्जा सामान्य आँखो में बहना बंद कर देती है तो वह तीसरी आँख में बहने लगती है। और जब ऊर्जा तीसरी आँख में बहती है तो सामान्य आंखों में देखना बंद कर देती है। वब उनके रहते हुए भी तुम उनके द्वारा कुछ नहीं देखते हो। जो ऊर्जा उनमें बहती थी वह वहां से हट कर नये केंद्र पर गतिमान हो जाती है। यह केंद्र दो आँखो के बीच में स्थित है। तीसरी आँख बिलकुल तैयार है; वह किसी भी क्षण सक्रिय हो सकती है। लेकिन इसे सक्रिय होने के लिए ऊर्जा चाहिए। और सामान्य आंखों की ऊर्जा को यहां लाना होगा।
दूसरी बास, जब तुम सामान्य आँखो से देखते हो तब तुम सचमुच स्थूल शरीर से देखते हो। तीसरी आँख स्थूल शरीर का हिस्सा नहीं है। यह दूसरे शरीर का हिस्सा है। तीसरी आँख सूक्ष्म शरीर का हिस्सा है। स्थूल शरीर के भीतर उसके जैसा ही सूक्ष्म शरीर भी है; लेकिन यह स्थूल शरीर का हिस्सा नहीं है। यही वजह है कि शरीर-शास्त्र यह मानने को राज़ी नहीं है कि तीसरी आँख या उसकी जैसी कोई चीज है। तुम्हारी खोपड़ी की खोज-बीन की जा सकती है। एक्सरे के द्वारा उसे देखा-परखा जा सकता है। लेकिन उसमे कहीं भी वह चीज नहीं मिलेगी जिसे तीसरी आँख कहा जा सके। तीसरी आँख सूक्ष्म शरी का हिस्सा है।
जब तुम मरते हो तो तुम्हारा स्थूल शरीर ही मरता है। तुम्हारा सूक्ष्म शरीर तुम्हारे साथ जाता है और वह दूसरा जन्म लेता है। जब तक सूक्ष्म शरीर नहीं मरेगा तुम जन्म मरण के, आवागमन के चक्कर से मुक्त नहीं हो सकते; तब तक संसार चलता रहेगा।
तीसरी आँख सूक्ष्म शरीर का अंग है। जब ऊर्जा स्थूल शरीर में गतिमान रहती है। तो तुम अपनी स्थूल आंखों से देख पाते हो। यही कारण है कि स्थूल आंखों से तुम स्थूल को ही देख सकते हो। पदार्थ को ही देख सकत हो। अन्य किसी चीज को नहीं देख सकते। सामान्य आँख के सक्रिय होते ही तुम एक नए आयाम में प्रवेश करते हो। अब तुम वे चीजें देख सकते हो जो स्थूल आंखों के लिए दृश्य नहीं थी। लेकिन वे सूक्ष्म आंखों के लिए दृश्य हो जाती है।
तीसरी आँख के सक्रिय होने पर अगर तुम किसी आदमी पर निगाह डालोगे तो तुम उसकी आत्मा में झांक लोगे। यह वैसे ही है जैसे स्थूल आंखों से स्थूल शरीर तो दिखाई देगा, लेकिन आत्मा दिखाई नहीं देगी। तीसरी आँख से देखने पर तुम्हें जो दिखाई देगा वह शरीर नहीं होगा; वह-वह होगा जो शरीर के भी रहता है।
इन दो बातों को स्मरण रखो। पहली, एक ही ऊर्जा दोनों जगह गति करती है। उसे सामान्य स्थूल आंखों से हटाकर ही तीसरी आँख में गतिमान किया जा सकता है। दूसरी बात कि तीसरी आँख स्थूल शरीर का हिस्सा नहीं है। वह सूक्ष्म शरीर का हिस्सा है, जिसे हम दूसरा शरीर भी कहते है। क्योंकि तीसरी आँख सूक्ष्म शरीर का हिस्सा है, इस लिए जिस क्षण तुम इसके द्वारा देखते हो तुम्हें सूक्ष्म जगत दिखाई पड़ने लगता है।
तुम यहां बैठे हो अगर एक प्रेत भी यहां बैठा हो तो वह तुम्हें नहीं दिखाई देगा। लेकिन अगर तुम्हारी तीसरी आँख काम करने लगे तो तुम प्रेत को देख लोगे। क्योंकि सूक्ष्म अस्तित्व सूक्ष्म ओखों से ही देखा जा सकता है।
तीसरी आँख देखने की इस विधि से कैसे संबंधित है?
गहन रूप से संबंधित है। सच तो यह है कि यह विधि तीसरी आँख को खोलने की विधि है। अगर तुम्हारी दो आंखें बिलकुल ठहर जाएं, वे स्थिर हो जाएं, पत्थर की तरह स्थिर हो जाएं, तो उनके भीतर ऊर्जा का प्रवाह ठहर जाता है। अगर आँख को ठहरा दो तो उनके भीतर ऊर्जा का प्रवाह ठहर जाता है।
ऊर्जा प्रवाहित है, इससे ही आंखों में गति है। कंपन या गति ऊर्जा के कारण है। अगर ऊर्जा गति न करे तो तुम्हारी आँख मुर्दो की आँख की तरह हो जाएं। पथराई और मृत। किसी स्थान पर दृष्टि करने से, इधर-उधर देखे बिना उस पर टकटकी बांधने से एक गतिहीनता पैदा होती है। जो ऊर्जा दोनों आंखों में गतिमान थी वह अचानक गति बंद कर देगी।
लेकिन गति करना ऊर्जा का स्वभाव है ऊर्जा गतिहीन नहीं हो सकती। आंखें गतिहीन हो सकती है, लेकिन ऊर्जा नहीं। इसलिए जब ऊर्जा इने दो आंखों से वंचित कर दि जाती है। जब उसके लिए आंखों के द्वार अचानक बंद कर दिये जाते है, जब उनके द्वारा ऊर्जा की गति असंभव हो जाती है, तो वह ऊर्जा अपने स्वभाव के अनुसार नए मार्ग ढूंढने में लग जाती है। और तीसरा नेत्र अति निकट होने के कारण, दो भृकुटियों के बीच, आधा इंच अंदर है। उस ऊर्जा के लिए वह निकटतम बिंदु है।
इसलिए जब ऊर्जा दोनों आंखों से मुक्त हो जाती है तो पहली बात यह होती है कि वह तीसरी आँख से बहने लगती है। यह ऐसा ही है जैसे कि पानी बहता हो और तुम उसके एक छेद को बंद कर दो, वह तुरंत निकटतम दूसरे छेद को ढूंढ लेगा। जो निकटतम छेद होगा और जो न्यूनतम प्रतिरोध पैदा करेगा। उसे पानी ढूंढ लेगा। वह छेद अपने आप मिल जाता है। उसके लिए कुछ करना नहीं पड़ता है। ज्यों ही इन दो आंखों से ऊर्जा का बहना बंद करोगे, त्यों ही ऊर्जा अपना मार्ग ढूंढ लेगी। और वह तीसरी आँख से बहने लगेगी।
तीसरी आँख से ऊर्जा का यह प्रवाह तुम्हें रूपांतरित कर दूसरे ही लोक में पहुंचा देगा। तब तुम ऐसी चीजें देखने लगते हो जिन्हें कभी न देखा था; ऐसी चीजें महसूस करने लगोंगे जिन्हें कभी नहीं महसूस किया था। और तब तुम्हें ऐसी सुगंधों को अनुभव होगा जिन्हें जीवन में कभी नहीं जाना था। तब एक नया लोक, एक सूक्ष्म लोक सक्रिय हो जाता है। यह नया लोक अभी भी है। तीसरी आँख भी है। सूक्ष्म लोक भी है; दोनों है; लेकिन अप्रकट है। एक बार तुम उस आयाम में सक्रिय होते हो तो तुम्हें बहुत सी चीजें दिखाई देने लगेंगी। उदाहरण के लिए, अगर कोई आदमी मरणासन्न है और तुम्हारी तीसरी आँख सक्रिय है तो तुम तुरंत जान लोगे कि यह आदमी अब जाने वाला है। कोई भी शारीरिक विश्लेषण कोई भी चिकित्सा-निदान निश्चय पूर्व नहीं बता सकता की यह आदमी मरेगा। वे ज्यादा से ज्यादा संभावना की बात कह सकते है। कह सकते है कि शायद यह आदमी मरेगा। यह वक्तव्य भ सशर्त होगा कि यदि ऐसी-ऐसी हालतें रही तो यह आदमी मरेगा, या यदि कुछ किया जाए तो यह नहीं मरेगा।
चिकित्सा विज्ञान अभी भी मृत्यु के सबंध में इतना अनिश्चित क्यों है? इतने विकास के बावजूद यह मृत्यु के संबंध में अनिश्चित है। असल में चिकित्सा विज्ञान शारीरक लक्षणों के द्वारा मृत्यु के संबंध में अपनी निष्पति निकलता है। लेकिन मृत्यु शारीरिक नहीं है, सूक्ष्म घटना है। यह किसी भिन्न आयाम की एक अदृश्य घटना है।
लेकिन यदि तीसरी आँख सक्रिय हो जाए और कोई आदमी मरने वाला हो तो तुम यह जान लोगे। यह कैसे जाना जाता है।
मृत्यु का अपना प्रभाव होता है। अगर कोई मरने वाला होता है तो समझो कि मृत्यु ने पहले ही उस पर अपनी छाया डाल दी होती है। और तीसरी आँख से इस छाया को महसूस किया जा सकता है। देखा जा सकता है।
जब एक बच्चा जन्म लेता है तो जिन्हें तीसरी आँख के प्रयोग का गहरा अभ्यास है वे उसी क्षण उसकी मृत्यु का समय भी जान ले सकते है। लेकिन उस समय मृत्यु की छाया अत्यंत सूक्ष्म होती है। लेकिन किसी की मृत्यु के छह महीने पहले वह व्यक्ति भी कह सकता है कि यह आदमी मरने वाला है। जिसकी तीसरी आँख थोड़ा भी सक्रिय हो गई है। असल में उस समय तुम्हारे चारों तरफ एक काली छाया सधन हो जाती है। और उसे देखा जा सकता है। लेकिन सामान्य आंखों से उसे नहीं देखा जा सकता है।
तीसरी आँख के खुलते ही तुम लोगों के प्रभामंडल दिखाई देने लगता है। अब कोई आदमी आकर तुम्हें धोखा नहीं दे सकता है; क्योंकि अगर उसकी कथनी उसके प्रभामंडल से मेल नहीं खाती है तो वह कथनी दो कौड़ी की है। वह कह सकता है कि मुझे कभी क्रोध नहीं आता है; लेकिन उसका लाल प्रभामंडल बता देगा की वह क्रोध से भरा है। वह तुम्हें धोखा नहीं दे सकता है। जहां तक उसके प्रभामंडल का सवाल है उसे इसका कुछ पता नहीं है। लेकिन तुम उसका प्रभामंडल देखकर कह सकते हो कि उसका वक्तव्य सही है। या गलत है। तीसरी आँख के खुलते ही सूक्ष्म प्रभामंडल दिखाई देने लगते है।
पुराने जमाने में शिष्य की दीक्षा में प्रभामंडल का उपयोग किया जाता था। जब तक तुम्हारा प्रभामंडल सम्यक न हो तब तक गुरु प्रतीक्षा करेगा। यह तुम्हारे चाहने की बात नहीं है। तुम्हारा प्रभामंडल देख कर जाना जा सकता है कि तुम तैयार हो की नहीं। इसलिए शिष्य को वर्षों इंतजार करना पड़ता था। शिष्यत्व तुम्हारे चाहने पर नहीं तुम्हारे प्रभामंडल पर निर्भर है। चाह यहां व्यर्थ है। कभी-कभी तो शिष्य को कई जन्मों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी।
उदाहरण के लिए, बुद्ध ने वर्षों तक स्त्रियों को दीक्षित करने से अपने को रोके रखा। यद्यपि उन पर बहुत दबाव डाला गया; लेकिन वे राज़ी नहीं हुए। और अंत में जब वे राज़ी भी हुए तो उन्होंने कहा कि अब मेरा धर्म पाँच सौ वर्षों के बाद जीवंत नहीं रहेगा; क्योंकि मैंने समझौता किया है। बुद्ध ने अपने शिष्यों से कहा कि मैं तुम्हारे आग्रह के दबाव के कारण स्त्रियों को दीक्षित करूंगा।
क्या कारण था कि बुद्ध स्त्रियों को दीक्षित नहीं करना चाहते थे?
एक बुनियादी कारण था जिसका संबंध प्रभामंडल से है। पुरूष सरलता से ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो जाता है। लेकिन यह बात स्त्री के लिए कठिन है। स्त्री मासिक धर्म नियमित घटता है—अचेतन, अनियंत्रित और अनैच्छिक। वीर्यपात को तो नियंत्रित किया जा सकता है। लेकिन मासिक स्त्राव को नियंत्रित नहीं किया जा सकता। और यदि उसे नियंत्रित करने की कोशिश जाए तो उसके शरीर पर बहुत बुरे असर होंगे।
और स्त्री जब अपने मासिक काल में होती है, उसका प्रभामंडल बिलकुल बदल जाता है। वह कामुक, आक्रमक और उदास हो जाती है। जो भी नकारात्मक भाव है वह हर महीने स्त्री को एक बार घेरते है। इसी कारण बुद्ध स्त्रियों को दीक्षा देने के पक्ष में नहीं थे। बुद्ध ने कहा कि स्त्री की दीक्षा कठिन है; क्योंकि मासिक धर्म हर महीने वर्तुल में आता रहता है। और उसके साथ ऐच्छिक रूप से कुछ भी नहीं किया जा सकता। अब कुछ किया जा सकता है; लेकिन वह बुद्ध के समय में कठिन था । अब वह क्या जा सकता है।
महावीर ने तो स्त्री पर्याय के लिए मोक्ष की संभावना को बिलकुल ही अस्वीकार कर दिया। उन्होंने कहा कि स्त्री को पहले पुरूष पर्याय में जन्म लेना होगा और तब उसे मोक्ष मिल सकता है। इसलिए पहले तो पूरी चेष्टा यह होनी चाहिए कि वह पुरूष पर्याय में नया जन्म ले।
क्यों? यह भी प्रभामंडल की समस्या थी। अगर तुम किसी स्त्री को दीक्षित करते हो तो हर महीने वह गिरेगी और सारा प्रयत्न व्यर्थ चला जाएगा। इसमें कोई भेदभाव का प्रश्न नहीं था। कोई समानता का सवाल नहीं था। कि स्त्री और पुरूष समान है या नहीं; कोई समानता का सवाल नहीं था कि स्त्री और पुरूष समान है या नहीं। यह समता का प्रश्न नहीं था। महावीर के लिए प्रश्न यह था कि स्त्री की सहायता कैसे कि जाए। तो उन्होंने एक सरल रास्ता निकाला कि स्त्री पुरूष के पर्याय में जन्म ले, इससे उसे सहयोग दिया जाए। वह ज्यादा सरल लगा। इसका मतलब था कि स्त्री को दूसरे जीवन के लिए ठहरना चाहिए। इस बीच उसे पुरूष पर्याय में नया जन्म दिलाने के सभी प्रयत्न किए जाएं। महावीर को यह बात सरल मालूम हुई। स्त्रियों को दीक्षित करना कठिन था; क्योंकि वे हर महीने लुढ़क कर अपनी बुनियादी स्थिति में लौट आती है। और उन पर किया गया सब श्रम व्यर्थ चला जाता है।
लेकिन पिछले दो हजार वर्षों में इस दिशा में बहुत काम हुए है; विशेषकर तंत्र ने बहुत काम किया है। तंत्र ने भिन्न-भिन्न द्वार खोज निकाले है। तंत्र संसार में अकेला व्यवस्था है जो पुरूष और स्त्री में भेद नहीं करती है। बल्कि इसके विपरीत तंत्र का मानना है कि स्त्री अधिक आसानी से मुक्त हो सकती है। और कारण वही है; सिर्फ भिन्न दृष्टिकोण से देखा गया है।
तंत्र कहता है की क्योंकि स्त्री का शरीर समय-समय पर संयमित होता रहता है। इसलिए पुरूष की अपेक्षा स्त्री अपने को शरीर से ज्यादा सरलता से अलग कर सकती है। क्योंकि मनुष्य का चित शरीर से ज्यादा आसक्त है, इसलिए वह शरीर को संयमित कर सकता है। और इसीलिए वह अपनी कामवासना को भी संयमित कर सकता है। लेकिन स्त्री अपने शरीर से उतनी नहीं बंधी है। उसका शरीर स्वचालित यंत्र की तरह चलता है—एक अलग तल पर; और स्त्री इस दिशा में कुछ नहीं कर सकती। स्त्री का शरीर स्वचलित यंत्र की तरह काम करता है। तंत्र कहता है कि इसीलिए स्त्री अपने को अपने शरीर से अधिक आसानी से पृथक कर सकती है। और अगर हय संभव हो—यह अनासक्ति, यह अंतराल—तो कोई समस्या नहीं रह जाती है, कोई भी समस्या नहीं रह जाती है।
क्रमश: अगले पाठ में.......
ओशो
तंत्र-सूत्र भाग: 2 प्रवचन-22
(संस्करण: 1993)
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