दि साइकोलाजी ऑफ-मैन्स पॉसिबल इवोलुशन—पी. डी. ओस्पेंस्की--(मनुष्य का
संभावित विकास)
ओशो की प्रिय पुस्तकें
संभावित विकास)
ओशो की प्रिय पुस्तकें
The Psychology of Man's Possible Evolution-Peter D Ouspensky
पी. डी. ओस्पेंस्की बीसवीं सदी के विख्यात रहस्यदर्शी गुरजिएफ का प्रधान शिष्य था। वह अत्यंत विद्वान और प्रतिभाशाली तो था ही, उसे शब्दों की बादशाहत भी हासिल थी। उसने आध्यात्मिक जगत की खोजों पर एक से एक अद्भुत किताबें लिखी है। यक किताब ‘’दि सॉयकॉलाजी ऑफ मैन्स पॉसिबल इवोलुशन’’ ओस्पेंस्की की सबसे छोटी किताब है। वस्तुत: यह उसके पाँच व्याख्यानों का संकलन है जो उसने लंदन में 1934 के दौरान दिये।
पी. डी. ओस्पेंस्की के व्याख्यानों का विषय है, ‘’मनोविज्ञान का अध्ययन।‘’ बीसवीं सदी से पहले मनोविज्ञान एक स्वतंत्र विषय नहीं था। वह धर्म ओर अध्यात्मिक का हिस्सा था। हजारों साल तक विश्व के सारे पुराने ग्रंथ, भारत के योग सूत्र और छहों दर्शन, सभी कुछ मनोविज्ञान का हिस्सा थे। लेकिन इस नाम से मनोविज्ञान कभी अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो पाया। न जाने क्यों उसके बारे में यही धारण थी कि वह विकृति है और उसमे कुछ गलत है। मनोविज्ञान को दर्शन शास्त्र से घटिया माना जाता था जबकि वे सारे शास्त्र चाहे सांख्य हो, योग हो, सूफी देशना हो, क्या मानवीय मन का ही विज्ञान नहीं बताते?
इसके अलावा काव्य शास्त्र नाटय शास्त्र, कला, सौंदर्य शास्त्र भी मन की विभिन्न स्थितियों का वर्णन ही तो है। फिर भी आज तक मन को एक अलग स्वतंत्र वस्तु की तरह कभी मान्यता प्राप्त नहीं हुई। जो बीसवीं सदी में मिली। पहली बार यह घटना घटी है कि अब धर्म गुरूओं या दार्शनिकों की बनिस्बत मनोवैज्ञानिक की प्रतिष्ठा ज्यादा है। इस सदी में मनोविज्ञान की इतनी शाखाएं और इतने मनोवैज्ञानिक पैदा हुए कि उनकी चकाचौंध ने उन सब धार्मिक संदर्भों को धूमिल कर दिया जिनकी छाया में मनोविज्ञान चलता था।
इस पृष्ठभूमि को साफ-साफ प्रस्तुत करने के बाद ओस्पेंस्की अपने लेखों की दशा-निर्देश करता है। वह दो प्रश्नों की खोज कर रहा है: एक कि मनुष्य का विकास याने क्या? और दूसरा, क्या उसके लिए कोई खास स्थितियों का होना जरूरी है?
डार्विन का विकास सिद्धांत या मनुष्य की उत्पती और विकास की और कोई थ्योरी ऑस्पेन्सकी स्वीकार नहीं करता। क्योंकि मनुष्य की परंपरा, पुराने शास्त्र, अवशेष यही दर्शाते है कि हमसे भी विकसित लोग है पृथ्वी के परे।
फिर मनुष्य के विकास का अर्थ क्या है? एक तो यह विकास अपने आप, यंत्रवत नहीं होता। प्रकृति एक बिंदु तक उसे ले आती है और उसके बाद उसे छोड़ देती है। अगर वह चाहे तो अपने प्रयासों से ऊपर उठ सकता है। या जैसा पैदा हुआ वैसा ही मर सकता है। वक्त के इस चौराहे पर आकर मनुष्य के विकास का मतलब है उसके आंतरिक गुणों, संभावनाओं का विकास और इसके लिए उसे अधिक सावचेत, अधिक सजग होना जरूरी है। क्योंकि मनुष्य सरलता से सजग हो सकता है।
मनुष्य की सजगता को नापने के लिए ओस्पेंस्की ने बड़ा सरल प्रयोग बताया है। एक घड़ी लेकर उसकी सेकंड की सुई पर ध्यान दें और अपने आपको स्मरण करने का प्रयास करें। ध्यान कहीं और न जाने दें। बस स्वयं का होना और घड़ी की सरकती हुई सुई। यदि आप एकाग्र होकर लगे रहे तो मुश्किल से दो मिनट होश रख पाएंगे, उससे अधिक नहीं। यह आपकी सजगता की सीमा है। इस प्रयोग से यही सिद्ध होता है कि मनुष्य को अपना होश नहीं है।
मनुष्य की देह भर से कोई मनुष्य नहीं हो जाता। ओस्पेंस्की सभी मनुष्यों को सात श्रेणियों में बाटता है। उन्हें वह मनुष्य न. 1, मनुष्य न.-2, इस तरह नाम देता है। ये भेद किस आधार पर किये गये है? उनमें जो हिस्सा प्रधान है उसके आधार पर। मनुष्य न.-1, सिर्फ शरीर के तल पर नैसर्गिक प्रवृतियों में जीता है। मनुष्य न.-2, में भावनाओं की प्रबलता होती है। नंबर तीन में—मनुष्य बुद्धि प्रधान होता है, मनुष्य जाती में अकसर ये तीन प्रकार के ही मनुष्य पाये जाते है। चौथे, नंबर का मनुष्य आध्यात्मिक विद्यालयों में, अनेक साधना पद्धतियों से गुजरने के बाद तैयार होता है। उसकी विशेषता यह है कि उसे अपना होश होता है। वह स्वयं के प्रति जागने लगता है।
इसके बाद के तीन नंबर मनुष्य चेतना की उच्चतर विकास की स्थितियाँ है। सातवें नंबर का मनुष्य वह है जिसने वह सब पा लिया जो मनुष्य पा सकता है। उसके बाद कुछ शेष नहीं रहता।
झूठ बोलना क्या है?
जैसा कि सामान्य भाषा में समझा जाता है। झूठ बोलने का अर्थ सच को विकृत करना या कुछ मौक़ों पर सच को, या जिसे लोग सच मानते है उसे छूपाना। जीवन में झूठ बोलने का स्थान बहुत बड़ा है। लेकिन झूठ बोलने के कई बदतर तरीके भी है जब लोगों को पता नहीं चलता कि वे झूठ बोलते है। पिछले व्याख्यान में मैंने कहा था हम जैसे है वैसे सच को नहीं जा सकते और उसे केवल वस्तुगत चेतना की दशा में ही जान सकते है।
फिर हम झूठ कैसे बोल सकते है? यहां विरोधाभास मालूम पड़ता है। लेकिन वास्तव में है नहीं। हम सच को जान नहीं सकते। लेकिन दिखा सकते है। कि जानते है। और यही झूठ बोलना है। झूठ बोलना हमारे पूरे जीवन में छाया हुआ है। लोग दिखावा करते है कि वे हर तरह की बातें जानते है जैसे ईश्वर, भविष्य, विश्व के संबंध में, मनुष्य की उत्पती के बारे में, विकास क्रम—हर चीज के बारे में, लेकिन यथार्थ में वे कुछ भी नहीं जानते, स्वयं के बारे में भी नहीं और हर बार जब वे उस विषय के बारे में ऐसे बात करते है जिसके बारे में नहीं जानते मानो वे जानते है। वे झूठ बोलते है। फलत: झूठ का अध्ययन करना मनोविज्ञान का अहम विषय बनता है।
और उससे मनोविज्ञान की तीसरी परिभाषा भी बन सकती है: झूठ बोलने का अध्ययन।
मनोविज्ञान उन झूठों में रूचि लेता है जो आदमी अपने बारे में बोलता है और सोचता है। ये झूठ मनुष्य को समझना मुश्किल बना देती है। मनुष्य जैसा है वैसा प्रामाणिक चीज नहीं है। वह किसी चीज की नकल है। और बड़ी बुरी नकल।
मनुष्य को लेकिन मनोविज्ञान की यही स्थिति है। उसे नकली मनुष्य का अध्ययन करना पड़ता है यह जाने बगैर कि असली मनुष्य कैसा है। स्वभावत: मनुष्य जैसे जीव का अध्ययन करना आसान नहीं हो सकता। क्योंकि वह यही नहीं जानता कि उसमे असली क्या है। और कल्पनागत क्या है। अंत: मनोविज्ञान को असली और नकली मनुष्य में फर्क करके शुरूआत करनी पड़ेगी। मनुष्य का, एक संपूर्ण इकाई की तरह अध्ययन करना असंभव है, क्योंकि मनुष्य दो हिस्सों में बंटा हुआ है—एक जो कुछ मामलों में लगभग वास्तविक है, और दूसरा हिस्सा, जो कुछ मामलों में लगभग एकदम कल्पनागत होगा। अधिकांश सामान्य जनों में वे दो हिस्से मिले जूले होते है। उन्हें अलग से जानना आसान नहीं होता जबकि वे दोनों ही मौजूद होते है। और उन दोनों का अपना अर्थ और परिणाम होता है।
हम जिस प्रणाली का अध्यन कर रहे है उसके तहत इस स्थिति को इसेंस, अर्क और पर्सनैलिटी, व्यक्तित्व कहा जाता है।
अर्क वह है जो मनुष्य के साथ पैदा होता है। व्यक्तित्व वह है जो अर्जित किया जाता है। अर्क उसका अपना होता है। व्यक्तित्व वह है जो उसका अपना नहीं होता। अर्क खोता नहीं, बदलता नहीं, या उसे आसानी से चोट नहीं पहुँचाई जा सकती। जैसे व्यक्तित्व को पहुंचायी जा सकती है। व्यक्तित्व को करीब-करीब पूरा बदला जा सकता है। अगर हालात बदले जायें। वह खोया जा सकता है या टूट-फूट सकता है।
यदि मैं अर्क का वर्णन करने की कोशिश करूं तो सबसे पहले मुझे कहना होगा कि यह मनुष्य के शारीरिक और मानसिक गठन की बुनियाद है। उदाहरण के लिए एक आदमी स्वभावत: एक अच्छा नाविक है, दूसरा बुरा नाविक है; एक सुरीला है, दूसरा नहीं है, किसी के पास भाषाओं की क्षमता है, दूसरे के पास नहीं है। यह अर्क है।
व्यक्तित्व वह सब है जो किसी ने किसी प्रकार से सीखा गया है—याने कि सामान्य भाषा में चेतन या अचेतन रूप से—‘’अचेतन’’ का अर्थ अधिकतर ‘’नकल’’ होता है। व्यक्तित्व बनाने में नकल का बहुत बड़ा हाथ होता है।
व्यक्तित्व ओर अर्क, इसेंस—ये दो शब्द गुरजिएफ के है। वह अकसर लोगों का इसेंस, उनका वजूद देखने के लिए बहुत से प्रयोग करता था। जिसका कोई वजूद है वही ध्यान की कठिन तपस्या से गुजर सकता है। अकसर देखा गया है कि पढ़े लिखे, सुसंस्कृत लोगों का व्यक्तित्व तो विकसित होता है लेकिन उनका वजूद एकदम बचकाना होता है। ग्रामीण लोगों में कई बार विकसित अर्क या वजूद दिखाई देता है। लेकिन उनका व्यक्तित्व जार भी नहीं होता।
व्यक्तित्व एक यंत्र है, इसलिए विकसित व्यक्तित्व के लोग और आम लोग यंत्रवत जीते है। यदि यंत्रवत जीने से ऊब कर मनुष्य आत्म विकास करना चाहता है तो उसमें उसके बड़े शत्रु है कल्पना और दुर्भाव। ये दोनों उसे स्वयं की सच्चाई जानने नहीं देते। इनकी पर्तें बीच में खड़ी हो जाती है। नकारात्मक भाव इतने प्रबल होते है कि उनका प्रकोप होने पर इनका निरीक्षण करना असंभव होता है। आदमी को ये बहा ले जाते है।
मनुष्य की यांत्रिकता चार बातों में प्रगट होती है—झूठ बोलना, कल्पना करना, नकारात्मक भावों को व्यक्त करना। और व्यर्थ बोलना। इस यांत्रिकता के प्रति वह अपने बलबूते पर जाग नहीं सकता क्योंकि वह बार-बार सो जाता है। उसे कोई जगाने वाला चाहिए।
ओस्पेंस्की के लेखे नकारात्मक भाव एकदम व्यर्थ है—उनकी कोई जरूरत नहीं है। लेकिन यह भी सच है कि वे है, और कुछ लोग तो उन्ही के सहारे जीते है। यदि उनसे उनकी नफरत या क्रोध या दुख छीन लो तो वे टूट जायेगे। जी नहीं पायेंगे। मनुष्य का साहित्य, कला इन भावों का ही काव्यात्मक, सतरंगा चित्रण है।
तो फिर मनुष्य अपना विकास कैसे करे, अपने आप पर काम कैसे करे? एक ही उपाय है—अपना स्मरण करके। अपना स्मरण, सतत स्मरण मुश्किल मालूम होता है। क्योंकि हमारी समझ कम है। यहां पर ओस्पेंस्की ज्ञान और अंतस में फर्क करता है। ज्ञान सूचनाओं के संग्रह से इकट्ठा होता है। लेकिन समझ अंतस से पैदा होती है।
पाँच व्याख्यानों में तरह-तरह से मनुष्य के मनोविज्ञान की चर्चा करने के बाद सबका सार निचोड़ वह एक ही शब्दों में ले आता है और है ‘’Self remembrance” स्वयं का स्मरण। यदि आप पल-पल आत्म स्मरण से भरे है तो आपको मनोविज्ञान जानने समझने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। वह ऐसी चीज है जिसे पाकर सब पा लिया जाता है।
ओशो का नज़रिया:
मुझे ओस्पेंस्की की किताबें हमेशा अच्छी लगी है। हालांकि मुझ वह आदमी कभी अच्छा नहीं लगा। वह स्कूल के शिक्षक जैसा दिखता था। सदगुरू की तरह नहीं।
मुझे ओस्पेंस्की पसंद नहीं है। जब वह गुरजिएफ की देशना पर व्याख्यान देता था तब भी वह ब्लैक बोर्ड के आगे हाथ में खड़िया लेकर खड़ा हो जाता था। सामने एक मेज और कुर्सी, चश्मा चढ़ाकर। कुछ भी बाकी नहीं था। और जिस तरह से वह सिखाता था....मैं समझता हूं कि उसकी और इतने कम लोग आकर्षित क्यों होते थे, जब कि वह स्वर्णिम संदेश ला रहा था।
दूसरी बात, मैं उसे इसलिए पसंद नहीं करता क्योंकि वह जूदास था, उसने धोखा दिया। जो धोखा देता है उसे मैं पसंद नहीं कर सकता। धोखा देना आत्महत्या करने जैसा है, आध्यात्मिक आत्महत्या। ओस्पेंस्की से मुझे कोई इश्क नहीं है। लेकिन मैं क्या करूं? यह एक सक्षम लेखक था, प्रतिभाशाली था, जीनियस था।
यह किताब जिस का में जिक्र करने जा रहा हूं, वह उसके मरणोपरांत प्रकाशित हुई। वह कतई नहीं चाहता था कि उसके जीवन काल में वह छपे। शायद वह डर रहा था कि हो सकता है यह किताब उसकी अपेक्षाओं को पूरा न करे।
यह छोटी सी किताब है, और इसका नाम है ‘’दि सॉयकॉलाजी ऑफ मैन पॉसिबल इवोलुशन’’। उसने अपनी वसीयत में लिखा था कि यह किताब मेरे मरने के बाद प्रकाशित हो। मुझे यह आदमी पसंद नहीं है। लेकिन कहना पड़ेगा मेरे बावजूद कि इस किताब में उसने करीब-करीब मेरी और मेरे संन्यासियों की भविष्यवाणी की थी। उसने भविष्य के मनोविज्ञान के बारे में लिखा, और यहां मैं कर रहा हूं—भविष्य का मनुष्य , नया मनुष्य।
मेरे सभी संन्यासियों को इस छोटी सी किताब का अध्ययन करना चाहिए।
ओशो
बुक्स आय हैव लव्ड
Nice post..Thank you.
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