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गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

जिनसूत्र--(भाग--1) प्रवचन--05


परम औषधि: साक्षी—भाव—प्रवचन—पांचवां

सूत्र:

रागोदोसो वि य कम्‍मवीयं, कम्‍मंमोहप्‍पभवं वयंति
कम्‍मंजाईमरणस्‍य मूलं, दुक्‍खंजाईमरणं वयंति।। 11।।

न य संसारीम्‍मि सुहं, जाइजरामरणदुक्‍खगहियस्‍स
जीवस्‍स अत्‍थि जम्‍हा,तम्‍हा मुक्‍खो उवादेओ।। 12।।

तं जइ इच्‍छसि गंतुं,तीरं भवसायरस्‍स घोरस्‍स
तो तव संजमभंडं, सुविहिय गिण्‍हाहि तूरंतो।। 13।।

जणे विरोगो जायइ, तं तं सव्‍वायरेण करणिज्‍जं
मुच्‍चइ हु संसवेगी, अणतंवो होई असंवेगी।। 14।।

एवं ससंकप्‍पविकप्‍पणासुं, सजायई समयमुवट्ठियस्‍स
अत्‍थेसंकप्‍पयओ तओ से, पहीयए कामगुणेसु तण्‍हा।। 15।।


भावे विरत्‍तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्‍खो परंपंरेण
लिप्‍पई भवमज्‍झे वि संतो, जलेण वा पोक्‍खरिणीपलासं।। 16।।

बुधवार, 9 अप्रैल 2014

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--52)

तू स्‍वयं मंदिर है—प्रवचन—सातवां  

दिनांक 2 दिसंबर, 1976;
श्री रजनीश आश्रम पूना।

प्रश्‍नसार:

पहला प्रश्न :

आपने कहा कि संसार के प्रति तृप्ति और परमात्मा के प्रति अतृप्ति होनी चाहिए। और आपने यह भी कहा कि कोई भी आकांक्षा न रहे; जो है उसका स्वीकार, उसका साक्षी—भाव रहे। इन दोनों वक्तव्यों के बीच जो विरोधाभास है, उसे स्पष्ट करने की अनकंपा करें।

 विरोधाभास दिखता है, है नहीं। और दिखता इसलिए है कि तुम जो भाषा समझ सकते हो वह सत्य की भाषा नहीं। और सत्य की जो भाषा है वह तुम्हारी समझ में नहीं आती।
जैसे समझो.. जो तुम समझ सको वहीं से समझना ठीक होगा।
कहते हैं, प्रेम में हार, जीत है। दिखता है विरोधाभास है। क्योंकि हार कैसे जीत होगी? जीत में जीत होती है। और अगर प्रेम को न जाना हो तो तुम कहोगे, यह तो बात उलटबांसी हो गयी, यह तो पहेली हो गयी। हार में कैसे जीत होगी पृ लेकिन अगर प्रेम की एक बूंद भी तुम्हारे जीवन में आयी हो, जरा—सा झोंका भी प्रेम का आया हो, एक लहर भी उठी हो, तो तुम तत्क्षण पहचान लोगे विरोधाभास नहीं है।

जिनसूत्र--(भाग--1) प्रवचन--04


धर्म: निजी और वैयक्‍तिक—प्रवचन—चौथा

प्रश्‍न सार:

1—कोई आठ वर्षों से आपको सुनती—पढ़ती हूं: लेकिन सिर्फ आप ही है सामने।.......रोना ही रोना। यह क्‍या है?

2—शास्‍त्रीय परंपरा में संन्‍यासी काम—भोग से विमुख और प्रभु—प्राप्‍ति के लिए उन्‍मुख होता है; लेकिन आपके संन्‍यास में विरक्‍ति पर जोर क्‍यों नहीं?.......

3—क्‍या भक्‍ति–मार्ग में बुरे कर्मों का फल भोगना पड़ता है अथवा नहीं?

4—यदि इस पृथ्‍वी पर कहीं स्‍वर्ग है तो वह यहीं है, यहीं है यहीं है। ऐसा क्‍यों हुआ,कृप्‍या समझांए?



पहला प्रश्न: कोई आठ वर्षों से आपको सुनती हूं, पढ़ती हूं; लेकिन सब भूल जाता है, सिर्फ आप ही सामने होते हैं। और अब तो रोना ही रोना रहता है। घर पर आपके चित्र के सामने रोती हूं, यहां प्रवचन में रोती हूं। यह क्या है? तेरी यारी में बिहारी सुख न पायो री!

मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

जिनसूत्र--(भाग--1) प्रवचन--03

बोध—गहन बोध—मुक्‍ति है—प्रवचन—तीसरा

सूत्र:

जाणिज्जइ चिन्तिज्जइ, जन्मजरामरणंसंभवं दुक्खं
न य विसएसु विरज्जई, अहो सुबद्धो कवडगंठी।।6।।

जन्‍मं दुक्‍खं जरा दुक्‍खं, रोगामरणाणि य।
अहो दुक्‍खो हु संसारो, जत्‍थ कीसति जतंवो ।।7।।

हाँ जह मोहियमइणा, सुग्‍गइमग्‍गं अजाणमाणेणं
भीमे भवकंतारे, सुचिरं भमियं भयकरम्‍मि।।8।।

"मिच्छत्तं वेदन्तो जीवो विवरीयदंसणो होइ।
न य धम्म रोचेदु हु, महुरं पि रसं जह जरिदो।।9।।


मच्‍छत्‍तपरिणदप्‍पा तिव्‍वकसाएण सुट्ठ आविट्ठो
जीवं देहं एक्‍कं, मण्‍णतो होदि बहिरप्‍पा।।10।।

सोमवार, 7 अप्रैल 2014

जिन सूत्र--(भाग--1) प्रवचन--02


प्‍यास ही प्रार्थना है—दूसरा—प्रवचन

प्रश्‍न सार:

1—क्‍या यह आरोप सही है कि महावीर और बुद्ध यह कह कर कि जीवन दुःख—ही—दुख है, भारत और एशिया के जीवन को विपन्‍न बना गया?

2—प्रतिक्रमण इतना असहज—सा लगता है?

3—प्रसाद संकल्‍प से मिला या समर्पण से, मालूम नहीं....ओर अयाचित और असमय। उसकी वर्षा हो रही है....... ?

4—श्रवण और पठन—पाठन में क्‍या भेद है?


पहला प्रश्न:

क्या यह आरोप सही है कि महावीर और बुद्ध, यह कहकर कि जीवन दुख ही दुख है, भारत और एशिया के जीवन को सदियों-सदियों के लिए विपन्न और दुखी बना गए? और क्या यह जीवन अस्वीकार की दृष्टि स्वस्थ अध्यात्म कही जा सकती है?

हली बात, न तो कोई तुम्हें आनंदित कर सकता है, न कोई तुम्हें विपन्न कर सकता है। जो भी तुम होते हो, तुम्हारा ही निर्णय है। बहाने तुम कोई भी खोज लो।

जिन सूत्र--(भाग--1) प्रवचन--01

शासन की आधारशिला: संकल्‍पप्रवचनपहला

सूत्र:

जं इच्‍छसि अप्‍पणतो, जं च न इच्‍छसि अप्‍पणतो
तं इच्‍छ परस्‍स वि या, एत्‍तियगं जिणसासणं।। 1।।

अधुवेअसससयम्‍मि, संसारम्‍मि दुक्‍खपउराए
किं नाम होज्‍ज तं कम्‍मयं, जेणाउहं दुग्‍गइगच्‍छेजा।। 2।।

खणामित्‍तसुक्‍खा बहुकालदुक्‍खा, पगामदुक्‍खा अणिगामसुक्‍खा
संसारमाक्‍खस्‍स विपक्‍खभूया, खाणी अणत्‍थाणकामभोगा।। 3।।

सुट्ठवि मग्‍गिज्‍जंतो, कत्‍थवि केलीइ नत्‍थि जह सारो।
इंदियाविसएसु तहां, नत्‍थि सुहं सुट्ठ वि गविट्ठं।। 4।।


जह कच्‍छुल्‍लो कच्‍छुं, कंडयमाणो दुहं मुणइ सुक्‍खं
मोहाउरा मणुस्‍सा, तह कामदुहं सुहं विंति।। 5।।

गीता दर्शन--(भाग--2) प्रवचन--032

परमात्मा के स्वर— 

(अध्याय 4) चौथा प्रवचन


ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।। 11।।

हे अर्जुन! जो मेरे को जैसे भजते हैं, मैं भी उनको वैसे ही भजता हूं। इस रहस्य को जानकर ही बुद्धिमान मनुष्यगण सब प्रकार से मेरे मार्ग के अनुसार बर्तते हैं।
यह वचन बहुत अदभुत है।
कृष्ण कहते हैं, जो मुझे जिस भांति भजते हैं, मैं भी उन्हें उसी भांति भजता हूं। और बुद्धिमान पुरुष इस बात को जानकर इस भांति बर्तते हैं।
भगवान भजता है! इस सूत्र में एक गहरे आध्यात्मिक रिजोनेंस की, एक आध्यात्मिक
प्रतिसंवाद की घोषणा की गई है। संगीतज्ञ जानते हैं कि अगर एक सूने एकांत कमरे में कोई कुशल संगीतज्ञ एक वीणा को बजाए और दूसरे कोने में एक वीणा रख दी जाए--खाली, अकेली।

रविवार, 6 अप्रैल 2014

जिन सूत्र --(महावीर)-भाग--01

जिन सूत्र (महावीर) भाग—1
ओशो

जिन—दर्शन गणित, विज्ञान जैसा दर्शन है। काव्‍य की उसमें कोई जगह नहीं। वही उसकी विशिष्‍टता है।
दो और दो जैसे चार होते है, ऐसे ही महावीर के वक्‍तव्‍य है।
महावीर धर्म की परिभाषा करते है : जीवन के स्‍वभाव के सूत्र को समझ लेना धर्म है। जीवन के स्‍वभाव को पहचान लेना धर्म है। स्‍वभाव ही धर्म है।
इसलिए महावीर के वचन........जैसे महावीर नग्‍न है वैसे ही महावीर के वचन भी नग्‍न है। उनमें कोई सजावट नहीं है। जैसा है वैसा कहा है।

तो जब मैं महावीर के मार्ग पर बोल रहा हूं तो तुम ख्‍याल रखना: मैं चाहता हूं कि शुद्ध महावीर की बात तुम्‍हारी समझ में आ जाए; और जिसको वह यात्रा सुगम मालूम पड़े वह चल सके। वहां भक्‍ति को भूल ही जाना। वहां सूफियों से कुछ लेना—देना नहीं। वहां तो तुम शुद्ध निर्भाव होने की चेष्‍टा करना। क्‍योंकि वहां निर्भाव ही गाड़ी का चाक है।

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--51)

शून्‍य की वीणा: विराट के स्‍वर—प्रवचन—छठवां

दिनांक 1 दिसंबर, 1976;
श्री रजनीश आश्रम पूना।

अष्‍टावक्र उवाच--

कृतार्थोउनेन ज्ञानेनेत्येवं गलितधी कृती।
यश्यंच्छण्वमृशजिं घ्रन्नश्नब्रास्ते यथासुखम्।। 164।।
शून्य द्वष्टिर्वृथर चेष्टा विकलानीन्द्रियाणि न।
न सहा न विरक्तिर्वा क्षीण संसार सागरे।। 165।।
न जागर्ति न निद्राति नोन्यीलति न मीलति।
अहो यरदशा क्यायि वर्तते मुक्तचेतस।। 166।।
सर्वत्र दुश्यते स्वस्थ: सर्वत्र विमलाशय।
समस्तवासनामुक्तो मुक्त: सर्वत्र सजते।। 167।। 
पश्यंच्छण्वनव्यूर्शाब्ज घ्रन्नश्नत्राह्यन्वदन्वव्रजन्।
र्ड़हितानीहितैर्म?क्तो मुक्त एव महाशय:।। 168।।
न निन्दति न न स्तौति न हष्यति न कष्यति।
न ददाति न गृहणाति मुक्त: सर्वत्र नीरस:।। 169।।

गीता दर्शन--(भाग--2) प्रवचन--031

दिव्य जीवन, समर्पित जीवन—
(अध्याय-3)तीसरा प्रवचन


जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।। 9।।

हे अर्जुन! मेरा यह जन्म और कर्म दिव्य अर्थात अलौकिक है। इस प्रकार जो पुरुष तत्व से जानता है, वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को नहीं प्राप्त होता है,
किंतु मुझे ही प्राप्त होता है।
जीवन विपरीत ध्रुवों का संगम है, अपोजिट पोलेरेटीज का। यहां प्रत्येक चीज अपने विपरीत के साथ मौजूद है; अन्यथा संभव भी नहीं है। अंधेरा है, तो साथ में जुड़ा हुआ प्रकाश है। जन्म है, तो साथ में जुड़ी हुई मृत्यु है। जो विपरीत हैं, वे सदा साथ मौजूद हैं।
जो हमें दिखाई पड़ता है, वह लौकिक है। जो हमारी इंद्रियों की पकड़ में आता है, वह लौकिक है। जिसे हमारी आंख देखती और कान सुनते और हाथ स्पर्श करते हैं, वह लौकिक है। हमारी इंद्रियों के जगत का नाम लोक है। लेकिन इंद्रियों की पकड़ के बाहर भी कुछ सदा मौजूद है, वह अलौकिक है।

गीता दर्शन--(भाग--2) प्रवचन--030

भागवत चेतना का करुणावश अवतरण—

(अध्याय—3)  दूसरा प्रवचन


एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्।। 3।।

वह ही यह पुरातन योग अब मैंने तेरे लिए वर्णन किया है, क्योंकि तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है इसलिए। यह योग बहुत उत्तम और रहस्य अर्थात अति मर्म का विषय है।
 जीवन रोज बदल जाता है, ऋतुओं की भांति। जीवन परिवर्तन का एक क्रम है, गाड़ी के चाक की भांति घूमता चला जाता है। लेकिन चाक का घूमना भी एक न घूमने वाली कील पर ठहरा होता है। घूमता है चाक गाड़ी का, लेकिन किसी कील के सहारे, जो सदा खड़ी रहती है। कील भी घूम जाए, तो चाक का घूमना बंद हो जाए। कील नहीं घूमती, इसलिए चाक घूम पाता है।

गीता दर्शन--(भाग--2) प्रवचन--029

गीता दर्शन—(भाग दो)
ओशो

      गीता कई अर्थो में असाधारण है। कुरान एक निष्‍ठा का शस्‍त्र है। दूसरी निष्‍ठा की बात नहीं है। बाइबिल एक निष्‍ठा का शस्‍त्र है; दूसरी निष्‍ठा की बात नहीं। महावीर के वचन एक निष्‍ठा के वचन है; दूसरी निष्‍ठा की बात नहीं। बुद्ध के वचन एक निष्‍ठा के वचन है। दूसरी निष्‍ठा की बात नहीं। गीता असाधारण है। मनुष्‍य के अनुभव में जितनी निष्‍ठाएं है, उन सारी निष्‍ठाओं का निचोड़ है। ऐसी कोई निष्‍ठा नहीं है जो मनुष्‍य—जाति में प्रकट हुई हो, जिसके सूत्र बीज—सूत्र गीता में नहीं है।
कृष्‍ण ने पहले सांख्‍य की बात कहीं, अगर अर्जुन राज़ी हो जाए, तो गीता आगे न बढ़ती। लेकिन अर्जुन समझ ने पाये सांख्‍य की बात। इसलिए फिर दूसरी बात कृष्‍ण को करनी पड़ी। अर्जुन वह भी न समझ पाया; फिर तीसरी बात करनी पड़ी; अर्जुन वह भी न समझ पाया फिर चौथी बात करनी पड़ी।

शनिवार, 5 अप्रैल 2014

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--50)

रसो वै स:--प्रवचन—पाँचवाँ  

दिनांक 30 नवंबर, 1976;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार:

पहला प्रश्न :

काम, क्रोध, लोभ, मोह क्या समय की ही छायाएं हैं? समय का सार क्या है? कृपा करके हमें समझायें।

 मय को दो ढंग से सोचा जा सकता है। एक तो घड़ी का समय है, वह तो बाहर है। उससे तुम्हारा कुछ लेना— देना नहीं है। एक तुम्हारे भीतर समय है। उस भीतर के समय से घड़ी का कुछ लेना—देना नहीं है। तो जब भी मैं कहता हूं कि वासना समय है, कामना समय है, तृष्णा समय है—तो तुम घड़ी का समय मत समझना। तुम्हारे भीतर एक समय है। जब हम कहते हैं, बुद्ध और महावीर कालातीत हो गये, तो ऐसा नहीं है कि घड़ी चलती होती है तो उनके लिए बंद हो जाती है। घड़ी तो चलती रहती hऐ—भीतर की घड़ी बंद हो गयी। ध्यान में, समाधि में, भीतर का समय शून्य हो जाता है।

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014

पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--2) प्रवचन--26

योग : छलांग के लिए तैयार—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक 6 मार्च, 1975;
श्री रजनीश आश्रम पूना।

प्रश्‍नसार:

1—आप जिस किसी भी मार्ग की बात करते है। तो वही लगता है मेरा मार्ग! तो कैसे पता चले कि मेरा मार्ग क्या है?

 2— क्‍या समाधि की सभी अवस्थाओं से गुजरना जरूरी है?
क्या गुरु का सान्निध्य सीधे छलांग लगाने में सहायक हो सकता है?

 3—पतंजलि की तरह ही क्‍या आप स्‍वयं भी कविता, रहस्‍यवाद और तर्क के श्रेष्ठ जोड़ हैं?

 4—प्रार्थना तक पहुंचने के लिए प्रेम से गुजरना क्‍या जरूरी है?

 5—पतंजलि आधुनिक मनुष्‍य की न्‍यूरोसिस (विक्षिप्‍तता) के साथ कैसे कार्य करेंगे?

 6आपके प्रवचनों में नींद की झपकी आने का क्‍या कारण है?

7—पतंजलि की विधियां इतनी धीमी और लंबी है, फिर भी आप इन पर, भागते हुए आधुनिक मनुष्‍य के लिए, क्‍यों बोल रहे है।

गुरुवार, 3 अप्रैल 2014

पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--2) प्रवचन--25

सूक्ष्‍मतर समाधियां: निर्वितर्क, सविचार, निर्विचार—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 5 मार्च, 1975;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।

योगसूत्र: (समाधिपादृृ)

स्‍मृतिपरिशुद्धौ स्‍वरूपशून्‍येवार्थमात्र निर्भासा निर्वितर्का।। 43।।

जब स्मृति परिशुद्ध होती है और मन किसी अवरोध के बिना वस्तुओं की यथार्थता देख हू सकता है, तब निर्वितर्क समाधि फलित होती है।

            एतयैव सविचार निर्विचार च सूक्ष्‍मविषय व्‍याख्‍याता ।। 44।।

सवितर्क और निर्विचार समाधि का जो स्‍पष्‍टीकरण है उसी से समाधि की उच्‍चतर स्‍थितियां भी स्‍पष्‍ट होती है। लेकिन सविचार और निर्विचार समाधि की इन उच्‍चतर अवस्‍थाओं में ध्‍यान के विषय अधिक सूक्ष्म होते है।


सूक्ष्‍मविषयत्‍वं चलिंगपर्यवसानम्।। 45।।

      इन सूक्ष्‍म विषयों से संबंधित समाधि का प्रांत सूक्ष्‍म ऊर्जाओं की निराकर अवस्‍था तक फैलता है।

बुधवार, 2 अप्रैल 2014

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--49)

सहज ज्ञान का फल है तृप्‍ति—प्रवचन—चौथा

दिनांक 29 नवंबर, 1976;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।

अष्‍टावक्र: उवाज:

तेन ज्ञानफलं प्राप्त योगाभ्यासफलं तथा।
तृप्त: स्वच्छेन्द्रियो नित्यमेकाकी रमते तु य:।। 157।।
न कदाचिज्जगत्यस्मिंस्तत्त्वज्ञो हन्त खिद्यति।
यत एकेन तेनेदं पूर्णं ब्रह्मांडमंडलम्।। 158।।
न जातु विषय!: केउपि स्वारामं हर्षयज्यमी।
सल्लकीपल्लवप्रीतिमिवेमं निम्बयल्लवा:।। 159।।
यस्‍तु भोगेषु भुक्तेषु न भवत्याधिवासित।
अभुक्तेषु निराकांक्षी ताइशो भवदुर्लभ:।।160।।
बुभुमुरिह संसारे मुमुमुरपि दृश्यते।
भोगमोक्षनिराकांक्षरई विरलो हि महाशय:।। 161।।

मंगलवार, 1 अप्रैल 2014

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--48)

प्रेम, करूणा, साक्षी और उत्‍सव—लीला—प्रवचन--तीसरा

दिनांक 28 नवंबर, 1976;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।
     
प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्न :

क्राइस्ट का प्रेम, बुद्ध की करुणा, अष्टावक्र का साक्षी और आपकी उत्सव—लीला, इन चारों में क्या फर्क है? क्या ये अलग— अलग चार मार्ग हैं?

 लग— अलग मार्ग नहीं, वरन एक ही घटना की चार सीढ़ियां हैं, एक ही द्वार की चार सीढ़ियां हैं।
क्राइस्ट ने जिसे प्रेम कहा है वह बुद्ध की ही करुणा है, थोड़े से भेद के साथ। वह बुद्ध की करुणा का ही पहला चरण है। क्राइस्ट का प्रेम ऐसा है जिसका तीर दूसरे की तरफ है। कोई दीन है, कोई दरिद्र है, कोई अंधा है, कोई भूखा है, कोई प्यासा है, तो क्राइस्ट का प्रेम बन जाता है सेवा। दूसरे की सेवा से परमात्मा तक जाने का मार्ग है; क्योंकि दूसरे में जो पीड़ित हो रहा है वह प्रभु है। लेकिन ध्यान दूसरे पर है। इसलिए ईसाइयत सेवा का मार्ग बन गई।