स
एवायं मया तेऽद्य
योगः प्रोक्तः
पुरातनः।
भक्तोऽसि
मे सखा चेति
रहस्यं ह्येतदुत्तमम्।।
3।।
वह ही
यह पुरातन योग
अब मैंने तेरे
लिए वर्णन किया
है, क्योंकि
तू मेरा भक्त
और प्रिय सखा
है इसलिए। यह
योग बहुत उत्तम
और रहस्य
अर्थात अति
मर्म का विषय
है।
जीवन
रोज बदल जाता
है, ऋतुओं की भांति।
जीवन
परिवर्तन का
एक क्रम है, गाड़ी के चाक
की भांति
घूमता चला
जाता है। लेकिन
चाक का घूमना
भी एक न घूमने
वाली कील पर
ठहरा होता है।
घूमता है चाक
गाड़ी का, लेकिन
किसी कील के
सहारे, जो
सदा खड़ी रहती
है। कील भी
घूम जाए, तो
चाक का घूमना
बंद हो जाए।
कील नहीं
घूमती, इसलिए
चाक घूम पाता
है।
सारा
परिवर्तन
किसी
अपरिवर्तित
के ऊपर निर्भर
होता है।
जीवन
के परम नियमों
में से एक
नियम यह है कि
दृश्य अदृश्य
पर निर्भर
होता है, मृत्यु
अमृत पर
निर्भर होती
है; पदार्थ
परमात्मा पर
निर्भर होता
है। घूमने वाला
परिवर्तित
जगत, संसार,
न घूमने
वाले
अपरिवर्तित
सत्य पर
निर्भर होता
है। विपरीत पर
निर्भर होती
हैं चीजें।
इसलिए
जो दिखाई पड़ता
है, उस पर ही
जो रुक जाता
है, वह
रहस्य से
वंचित रह जाता
है। जो दिखाई
पड़ता है, उसके
भीतर जो न
दिखाई पड़ने
वाले को खोज
लेता है, वह
रहस्य को
उपलब्ध हो
जाता है।
कृष्ण
कहते हैं, वही योग, वही
सत्य पुरातन
है, सदा से
चला आता है
जो। या कहें
कि सदा से
ठहरा हुआ है
जो; वही जो
पहले भी
ऋषियों ने कहा
था, वही
मैं तुझसे
पुनः कहता
हूं। लेकिन
पुनः कहता हूं
वही, जो
सदा से है।
कुछ नया नहीं
है। कुछ अपनी
ओर से नहीं
है।
सत्य
में अपनी ओर
से कुछ जोड़ा
भी नहीं जा
सकता। सत्य को
नया करने का
भी कोई उपाय
नहीं है। सत्य
है। सत्य के
साथ सिर्फ एक
ही काम किया
जा सकता है और
वह यह कि हम
उसकी तरफ मुंह
करके खड़े हो सकते
हैं, या पीठ
करके खड़े हो
सकते हैं। और
हम सत्य के
साथ कुछ भी
नहीं कर सकते
हैं। एक ही
काम कर सकते
हैं, या तो
हम जानें उसे,
या हम न
जानने की जिद
करें और
अज्ञान में
खड़े रहें।
लेकिन हम न
जानें, तो
भी सत्य बदलता
नहीं हमारे न
जानने से। और
हम जान लें, तो भी सत्य
बदलता नहीं हमारे
जानने से।
हां, बदलते हम
जरूर हैं।
सत्य को न
जानें, तो
हम एक तरह के
होते हैं।
सत्य को जान
लें, तो हम
दूसरे तरह के
हो जाते हैं।
सत्य वही है--जब
हम नहीं जानते
हैं, तब भी;
और जब हम
जानते हैं, तब भी। ऐसा
अगर सत्य न हो,
तो फिर सत्य
और असत्य में
कोई अंतर न रहेगा।
यह
बहुत मजे की
बात है कि
असत्य हमारा इनवेंशन
है, हमारा
आविष्कार है।
सत्य हमारा इनवेंशन
नहीं है। सत्य
को हम निर्मित
नहीं करते, बनाते नहीं।
असत्य को हम
निर्मित करते
हैं और बनाते
हैं।
जो
मेरे द्वारा
बनाया जा सकता
है, वह असत्य
होगा। और
जिसके द्वारा
मैं भी बनाया
गया, और
जिसमें मैं भी
लीन हो जाऊंगा,
वह सत्य है।
कृष्ण नहीं थे,
तब भी जो था;
कृष्ण नहीं
होंगे, तब
भी जो होगा; औरों ने भी
जिसे कहा, और
भी आगे जिसे
कहेंगे--वह
सत्य है।
सत्य
नित्य है। इस
नित्य सत्य को
अर्जुन से कृष्ण
कहते हैं, मैं पुनः
तुझसे कहता
हूं। और क्यों
कहता हूं, उसका
कारण बताते
हैं। वह कारण
समझ लेने जैसा
है। वह कहते
हैं, क्योंकि
तू मेरा सखा
है, मेरा
मित्र है, मेरा
प्रिय है।
ऊपर से
देखने पर यह
बात बड़ी
अजीब-सी लगेगी
कि क्या कृष्ण
भी किसी शर्त
के आधार पर
सत्य को बताते
हैं--मित्र है, सखा है, प्रिय
है! मित्र न हो,
सखा न हो, प्रिय न हो, तो कृष्ण
फिर सत्य को
नहीं बताएंगे?
क्या सत्य
को बताने की
भी कोई शर्त, कोई कंडीशन
है? क्या
कृष्ण उसको
नहीं बताएंगे
जो प्रिय नहीं,
मित्र नहीं,
सखा नहीं? तब तो कृष्ण
भी पक्षपात
करते हुए
मालूम पड़ेंगे।
ऊपर से जो
देखेगा, ऐसा
ही लगेगा।
लेकिन और थोड़ा
गहरा देखना
जरूरी है। और
कृष्ण जैसे
व्यक्तियों
के साथ ऊपर से
देखना खतरनाक
है।
कृष्ण
जब यह कहते
हैं कि मैं
तुझे सत्य की
यह बात बताता
हूं, क्योंकि
तू मेरा प्रिय
है, क्योंकि
तू मेरा सखा
है, मेरा
मित्र है।
इसके पीछे
कारण यह नहीं
है कि कृष्ण
उसे न बताएंगे
जो मित्र नहीं,
सखा नहीं, प्रिय नहीं।
कारण यह है कि
जो मित्र नहीं,
प्रिय नहीं,
सखा नहीं, वह पीठ करके
खड़ा हो जाता
है सत्य की
ओर। प्रिय होने,
सखा होने, मित्र होने
का कुल
प्रयोजन इतना
ही है कि अर्जुन
मुंह करके खड़ा
हो सकता है।
सत्य
को जानने की, सत्य को
समझने की
तैयारी
मैत्री में
संभव है। शत्रु
के साथ हम पीठ
करके खड़े हो
जाते हैं; द्वार
बंद कर लेते
हैं। शत्रु का
हम स्वागत नहीं
कर पाते।
कृष्ण तो
बताने को राजी
हो जाएंगे
शत्रु को भी; लेकिन शत्रु
अपने द्वार
बंद करके खड़ा
हो जाएगा। यह
शर्त कृष्ण की
तरफ से नहीं
है।
सत्य
तो सभी को
उपलब्ध है।
सूर्य निकला
है, सभी को
उपलब्ध है।
लेकिन जिसे
नहीं उपलब्ध
करना है, वह
आंख बंद करके
खड़ा हो सकता
है। नदी बही
जाती है, सभी
को उपलब्ध है।
लेकिन जिसे
नहीं नदी के
पानी को देखना
है, नहीं
पानी को पीना
है, वह पीठ
करके खड़ा हो सकता
है। नदी कुछ
भी न कर
सकेगी। पीठ
करके खड़े होने
में आपकी
स्वतंत्रता
है।
इसलिए
सत्य को जब भी
किसी के पास
समझने कोई गया
हो, तो एक
मैत्री का
संबंध
अनिवार्य है।
अन्यथा सत्य
को पहचाना
नहीं जा सकता,
समझा नहीं
जा सकता, सुना
भी नहीं जा
सकता।
जिसके
प्रति मैत्री
का भाव नहीं, उसे हम अपने
भीतर प्रवेश
नहीं देते
हैं। और सत्य
बड़ा सूक्ष्म
प्रवेश है।
उसके लिए एक रिसेप्टिविटी,
एक
ग्राहकता
चाहिए।
जब आप
अपरिचित आदमी
के पास होते
हैं, तो शायद
आपने खयाल
किया हो, न
किया हो; न
किया हो, तो
अब करें; जब
आप अपरिचित, अजनबी आदमी
के पास होते
हैं, तो क्लोज्ड
हो जाते हैं, बंद हो जाते
हैं। आपके सब
द्वार-दरवाजे
चेतना के बंद
हो जाते हैं।
आप संभलकर बैठ
जाते हैं; किसी
हमले का डर
है। अनजान
आदमी से किसी
आक्रमण का भय
है। न हो
आक्रमण, तो
भी अनजान आदमी
अनप्रेडिक्टिबल
है। पता नहीं
क्या करे!
इसलिए तैयार
होना जरूरी
है। इसलिए
अजनबी आदमी के
साथ बेचैनी
अनुभव होती
है। मित्र है,
प्रिय है, तो आप अनआर्म्ड
हो जाते हैं।
सब शस्त्र छोड़
देते हैं
रक्षा के। फिर
भय नहीं करते।
फिर सजग नहीं
होते। फिर रक्षा
को तत्पर नहीं
होते। फिर
द्वार-दरवाजे खुले
छोड़ देते हैं।
मित्र
है, तो अतिथि
हो सकता है
आपके भीतर।
मित्र नहीं है,
तो अतिथि
नहीं हो सकता।
सत्य तो बहुत
बड़ा अतिथि है।
उसके लिए हृदय
के सब द्वार
खुले होने चाहिए।
इसलिए एक इंटिमेट
ट्रस्ट, एक
मैत्रीपूर्ण
श्रद्धा अगर
बीच में न हो, एक भरोसा
अगर बीच में न
हो, तो
सत्य की बात
कही तो जा
सकती है, लेकिन
सुनी नहीं जा
सकती। और कहने
वाला पागल है,
अगर उससे
कहे, जो
सुनने में
समर्थ न हो।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं कि तू
मित्र है, प्रिय है, सखा है, इसलिए
तुझे मैं यह
पुनः उस सत्य
की बात कहता हूं,
जो सदा है, चिरस्थाई है, सनातन
है, नित्य
है।
एक और
भी बात ध्यान
रख लेनी जरूरी
है। कृष्ण यह
याद क्यों दिलाते
हैं अर्जुन को
कि तू सखा है, प्रिय है, मित्र है? इस बात को
याद दिलाने की
जरूरत क्या है?
अर्जुन
मित्र है, सखा
है, याद
दिलाने की
क्या जरूरत है?
यहां भी एक
बहुत बड़ा
मनोवैज्ञानिक
सत्य खयाल में
ले लेना जरूरी
है।
हम
इतने विस्मरण
से भरे हुए
लोग हैं कि
अगर हमें
निरंतर चीजें
याद न दिलाई
जाएं, तो
हमें याद ही
नहीं रह जाती।
हम प्रतिपल
भूल जाते हैं।
हमारी स्मृति
बड़ी दीन है, और हमारा
विवेक अत्यंत
रुग्ण है।
मित्र को भी हम
भूल जाते हैं
कि वह मित्र
है; प्रिय
को भी हम भूल
जाते हैं कि
वह प्रिय है; निकट को भी
हम भूल जाते
हैं कि वह
निकट है।
दूसरे
को भूल जाना
तो बहुत आसान
है। हम अपने को
ही भूल जाते
हैं। हमें
अपना ही कोई
स्मरण नहीं रह
जाता है। हम
कौन हैं, यही
स्मरण नहीं रह
जाता है। हम
किस स्थिति
में हैं, यह
भी स्मरण नहीं
रह जाता है।
हम करीब-करीब
एक बेहोशी में
जीते हैं। एक
नींद जैसे
हमें पकड़े
रहती है।
क्रोध आ जाता
है, तब
हमें पता चलता
है कि क्रोध आ
गया। आ गया, तब भी पता
बहुत मुश्किल
से चलता है।
सौभाग्यशाली
हैं, जिन्हें
पता चल जाता
है। हो गया, तब पता चलता
है। लेकिन तब
कुछ किया नहीं
जा सकता।
पक्षी हाथ के
बाहर उड़ गया
होता है। लोग क्रोध
कर लेते हैं, फिर कहते
हैं कि हमें
पता नहीं, कैसे
हो गया! आपने
ही किया, आपको
ही पता नहीं? होश में थे, बेहोश थे? नींद में थे?
लेकिन हम
करीब-करीब
नींद में होते
हैं।
कृष्ण
अर्जुन को
गीता में बहुत
बार याद दिलाते
हैं कि तू
मेरा मित्र
है। बहुत बार, परोक्ष-अपरोक्ष,
सीधे भी, कभी घूम-फिर
कर भी वे
अर्जुन को याद
दिलाए चले जाते
हैं कि तू
मेरा मित्र
है। जब भी
कृष्ण को लगता
होगा, अर्जुन
बंद हो रहा है,
खुल नहीं
रहा है, तभी
वे कहते हैं, तू मेरा
मित्र है; स्मरण
कर। प्रिय है।
और इसलिए ही
तो तुझसे मैं
सत्य की बात
कह रहा हूं।
यह सुनकर शायद
क्षणभर को
अर्जुन की
स्मृति लौट आए
और वह खुला हो
जाए, निकट
हो जाए, ओपेन हो जाए, और
कृष्ण जिस
सत्य के संबंध
में उसे जगाना
चाहते हैं, उस जगाने की
कोई किरण उसके
भीतर पहुंच
जाए। इसलिए
कृष्ण बहुत बार
गीता में
बार-बार कहते
हैं उसे कि तू
मेरा मित्र है,
तू मेरा
प्रिय है, तू
मेरा सखा है, इसलिए कहता
हूं।
यह, जब भी हम
किसी के भी
प्रति एक इंटिमेसी,
एक
आंतरिकता से
भरे होते हैं,
तो एक क्षण
में हमारी
चेतना का तल
बदल जाता है।
हम कुछ और हो
जाते हैं। जब
हम किसी के
प्रति बहुत
मैत्री और
प्रेम से भरे
होते हैं, तो
हम बड़ी
ऊंचाइयों पर
होते हैं। और
जब हम किसी के
प्रति घृणा और
शत्रुता से
भरे होते हैं,
तो हम बड़ी नीचाइयों
में होते हैं।
और जब हम किसी
के प्रति
उपेक्षा से
भरे होते हैं,
तो हम समतल
भूमि पर होते
हैं।
सत्य
के दर्शन तो
वहीं हो सकते
हैं, जब हम
शिखर पर होते
हैं, अपनी
चेतना की
ऊंचाई पर।
कृष्ण जो बात
कह रहे हैं, अर्जुन
छलांग लगाए, तो ही समझ
सकता है।
अर्जुन अपनी
जगह खड़ा रहे, तो नहीं समझ
सकेगा।
अर्जुन उछले
थोड़ा, छलांग
लगाए, तो
शायद जो सूर्य
उसे दिखाई
नहीं पड़ रहा
अपनी जगह से, उसकी एक झलक
मिल जाए। कोई
हर्ज नहीं, झलक के बाद
वह अपनी जगह
पर वापस लौट
आएगा। लेकिन
एक झलक भी
जीवन को
रूपांतरित
करने का आधार बन
जाती है।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, अर्जुन, तू मित्र
मेरा, प्रिय
मेरा, इसलिए
तुझसे सत्य की
बात कहता हूं।
यह मित्रता की
स्मृति अर्जुन
को एक छलांग
लगाने के लिए
है, ताकि
अर्जुन किसी
तरह कृष्ण के
पास आ जाए।
ध्यान
रहे, दो ही
उपाय हैं
संवाद के। या
तो कृष्ण
अर्जुन के पास
खड़े हो जाएं
उसी चित्त-दशा
में, जिसमें
अर्जुन है, तो संवाद हो
सकता है।
लेकिन तब सत्य
का संवाद मुश्किल
होगा। और या
फिर अर्जुन
कृष्ण की
चित्त-दशा में
पहुंच जाए, तो फिर
संवाद हो सकता
है। तब संवाद
सत्य का हो सकता
है। दोनों के
बीच पहाड़ और
खाई का फासला
है।
यह
चर्चा एक
पर्वत के शिखर
की और एक गहन
खाई से चर्चा
है। पीक टाकिंग
टु दि एबिस।
एक पर्वत का
शिखर गौरीशंकर, पास में
पहाड़ों के गङ्ढ
में अंधेरे
में दबी हुई
खाई से बात
करता है। कठिन
है चर्चा।
भाषा एक नहीं,
निकटता
नहीं, बहुत
मुश्किल है।
लेकिन खाई डर
न जाए, अन्यथा
और अंधेरे में
छिप जाएगी और
सिकुड़ जाएगी।
तो शिखर
पुकारता है कि
मित्र हूं
तेरा, निकट
हूं तेरे। खुल;
भय मत कर, सिकुड़ मत, संकोच मत
कर। द्वार बंद
मत कर। जो
कहता हूं, उसे
भीतर आ जाने
दे।
अर्जुन
को सब तरह का
भरोसा दिलाने
के लिए कृष्ण
बहुत-सी बात
कहते हैं।
पहली बात तो
उन्होंने यह
कही कि यह
सत्य अति
प्राचीन है
अर्जुन, अति
पुरातन है, सनातन, अनादि,
सबसे पहले,
समय नहीं
हुआ, तब भी
यह सत्य था।
क्यों? इसे
याद न दिलाते,
तो चल सकता
था।
लेकिन
अर्जुन से अगर
कृष्ण कहें कि
यह सत्य मैं
ही दे रहा हूं, तो शायद
अर्जुन
ज्यादा खुल न
पाए, शायद
बंद हो जाए।
शायद इतना
भरोसा न कर
पाए; शायद
इतना ट्रस्ट
पैदा न हो। तो
कृष्ण शुरू करते
हैं अनादि से,
किस-किस ने
किस-किस से
कहा। ऐसे वे
अर्जुन को
राजी करते हैं,
खुलने के
लिए, ओपनिंग
के लिए, द्वार
खुला रखने के
लिए।
फिर
याद दिलाते
हैं कि मित्र
है, प्रिय
है। और जब
अर्जुन को वे
पाएंगे कि वह
ठीक टयूनिंग,
ठीक उस क्षण
में आ गया है, जहां मिलन
हो सकता है, वहीं वे
सत्य कहेंगे।
इसलिए गीता
में कुछ
क्षणों में टयूनिंग
घटित हुई है।
किसी जगह
अर्जुन
बिलकुल कृष्ण
के करीब आ गया,
तब कृष्ण एक
वचन बोलते हैं,
जो
बहुमूल्य है,
जिसका फिर
मूल्य नहीं
चुकाया जा
सकता।
लेकिन
वह उसी समय, जब अर्जुन
और कृष्ण की
चेतना
तादात्म्य को
उपलब्ध होती
है, तभी।
जब बोलने वाला
और सुनने वाला
एक हो जाते
हैं, एक रस
हो जाते हैं, तभी--मैं
आपको कहूंगा,
याद दिलाऊंगा
कि किन क्षणों
में--तब
महावाक्य
गीता में उत्पन्न
होते हैं; तब
जो कृष्ण
बोलते हैं, वह महावाक्य
है। उसके पहले
नहीं बोला जा
सकता।
प्रतीक्षा
करनी पड़ती है।
सत्य
को बोलना हो, तो
प्रतीक्षा
करनी पड़ती है।
सत्य को सुनना
हो, तो भी
प्रतीक्षा
करनी पड़ती है।
आज की दुनिया
तो बहुत जल्दी
में है। इसलिए
शायद, शायद
इसीलिए सत्य
की चर्चा बहुत
मुश्किल हो गई
है।
मैंने
सुना है, एक
फकीर के पास
एक युवक सत्य
की शिक्षा के
लिए आया। पर
उसने कहा, मुझे
जल्दी है, मेरे
पिता बूढ़े हो
गए हैं। और घर
मुझे जल्दी लौट
जाना है। यह
सत्य मैं कब
तक जान लूंगा?
उस गुरु ने
उसे देखा नीचे
से ऊपर तक और
कहा, कम से
कम तीन वर्ष
तो लग ही
जाएंगे। उस
युवक ने कहा, तीन वर्ष!
भरोसा नहीं, मेरे पिता
बचें या न
बचें। कुछ और
जल्दी नहीं हो
सकता है? मैं
जितना आप
कहेंगे, उतना
श्रम करूंगा;
सुबह से
सांझ तक। गुरु
ने कहा, तब
तो शायद दस
वर्ष लग
जाएंगे। उस
शिष्य ने कहा,
आप पागल तो
नहीं हो गए? मैं कहता
हूं, मैं
बहुत श्रम
करूंगा। रात सोऊंगा भी
नहीं, जब
तक आप जगाएंगे
जागूंगा।
रात-दिन सतत, कभी इनकार न
करूंगा। जो भी
करने को
कहेंगे, करूंगा।
लेकिन कुछ
जल्दी न हो
सकेगा? गुरु
ने कहा, बहुत
मुश्किल है।
तीस वर्ष से
कम में होना
मुश्किल है।
उस
युवक ने कहा, आप क्या कह
रहे हैं! मेरे
पिता वृद्ध
हैं और मैं
जल्दी में
हूं। इसके
पहले कि वे
जगत से विदा हों,
मुझे घर लौट
जाना है। उस
गुरु ने कहा, फिर तू लौट
ही जा अभी।
क्योंकि पिता
वृद्ध हैं, उनके लिए तो
मैं कुछ नहीं
कह सकता।
लेकिन तू जब
तक वृद्ध न हो
जाए, तब तक
यह सत्य नहीं
मिलेगा।
इसमें
साठ-सत्तर वर्ष
लग जाएंगे। उस
युवक ने कहा, पुरानी बात
पर वापस लौट
आएं। वह तीन
वर्ष वाली
योजना ठीक है।
गुरु ने कहा, अब लौटना
बहुत मुश्किल
है, क्योंकि
जो इतनी जल्दी
में है, उसे
बहुत देर लग
जाएगी।
वह
शिष्य पूछने
लगा, इतनी देर
क्यों लग
जाएगी जो
जल्दी में है?
तो गुरु ने
कहा, जो
जल्दी में है,
उसके साथ टयूनिंग
बिठानी बहुत
मुश्किल है; उसके साथ
तालमेल, उसके
साथ एक आंतरिक
संबंध बिठाना
बहुत मुश्किल
है। और संबंध
न बैठे, तो
मैं कह ही न
सकूंगा।
क्योंकि जो
मुझे कहना है,
वह तो एक
क्षण में भी
हो सकता है।
लेकिन वह क्षण
कब आएगा, सवाल
यह है। वह
क्षण--तीन
वर्ष भी लग
सकते हैं, तीस
वर्ष भी लग
सकते हैं। और
अगर तू विश्राम
चित्त से, सहजता
से, चुपचाप
प्रतीक्षा से
मेरे पास है, तो शायद वह
क्षण जल्दी आ
जाए। और तू
जल्दी में है,
तो तू इतने
तनाव और इतनी
बेचैनी में है
कि वह क्षण
कभी भी न आए।
क्योंकि
बेचैन चित्त
के साथ संबंध
जोड़ना बहुत
कठिन है।
निश्चित
ही, कृष्ण को
तो अर्जुन के
साथ संबंध
जोड़ना जितना
कठिन हुआ होगा,
इतना कठिन
बुद्ध को अपने
किसी शिष्य के
साथ कभी नहीं
हुआ; महावीर
को अपने किसी
शिष्य के साथ
कभी नहीं हुआ;
जीसस को, मोहम्मद को,
कंफ्यूशियस
को, लाओत्से
को--किसी को
अपने शिष्य के
साथ इतना कठिन
कभी न हुआ
होगा।
क्योंकि
युद्ध के
मैदान पर सत्य
को सिखाने का
मौका कृष्ण के
अलावा और किसी
को आया नहीं।
कितनी
जल्दी न रही
होगी! भेरियां
बज गईं युद्ध
की, शंख-ध्वनियां
हो गई हैं, घोड़े
बेताब हैं दौड़
पड़ने को; अस्त्र-शस्त्र
सम्हल गए हैं;
योद्धा
तैयार हैं
जीवनभर की
उनकी साधना आज
कसौटी पर कसने
को; दुश्मन
आमने-सामने
खड़े हैं। और
अर्जुन ने सवाल
उठाए। ऐसी क्राइसिस,
ऐसे संकट के
क्षण में सत्य
की शिक्षा बड़ी
ही कठिन पड़ी
होगी, बड़ी
मुश्किल गई
होगी।
इसलिए
कृष्ण बहुत
बार जो बातें
कह रहे हैं
अर्जुन से, वह सिर्फ
निकट लाने के
लिए है, उसे
आश्वस्त करने
के लिए है। वह
भूल जाए, युद्ध
है चारों तरफ;
वह भूल जाए,
जल्दी है; वह भूल जाए, संकट है; और
वह सत्य के इस
संवाद को
सुनने को अंतस
से तैयार हो
जाए। इस
आंतरिक
तैयारी के लिए
वे बहुत-सी
बातें
कहेंगे। और जब
अर्जुन तैयार
होता है, तब
वे एक
महावाक्य
कहते हैं।
थोड़े-से
महावाक्य गीता
में हैं, जिनका
सारा फैलाव
है।
अर्जुन
उवाच:
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।।
4।।
अर्जुन
ने पूछा, हे
भगवान! आपका
जन्म तो
आधुनिक
अर्थात अब हुआ
है और सूर्य
का जन्म बहुत
पुराना है।
इसलिए इस योग
को कल्प के
आदि में आपने
कहा था, यह
मैं कैसे
जानूं?
कृष्ण
ने कहा है कि
मैंने ही समय
के पहले, सृष्टि
के पूर्व में,
आदि में
सूर्य को कही
थी यही बात।
फिर सूर्य ने
मनु को कही, मनु ने
इक्ष्वाकु को
कही और ऐसे
अनंत-अनंत लोगों
ने अनंत-अनंत
लोगों से कही।
स्वभावतः, अर्जुन
के मन में सवाल
उठे, आश्चर्य
नहीं है। वह
पूछता है, आपका
जन्म तो अभी
हुआ; सूर्य
का जन्म तो
बहुत पहले
हुआ। आपने
कैसे कही होगी
सूर्य से यह
बात?
कृष्ण
खींचने की
कोशिश करते
हैं अर्जुन को, कि छलांग
ले। अर्जुन सिकुड़कर
अपनी खाई में
समा जाता है।
वह जो सवाल
उठाता है, वे
सब सिकुड़ने
वाले हैं। वह
कहता है, मैं
कैसे भरोसा
करूं?
अब यह
बड़े मजे की
बात है। यह
ध्यान रहे कि
जो आदमी पूछता
है, मैं कैसे
भरोसा करूं, उसे भरोसा
करना बहुत
मुश्किल है।
या तो भरोसा होता
है या नहीं
होता है। कैसे
भरोसा बहुत
मुश्किल है।
जो
आदमी कहता है, कैसे भरोसा
करूं? दूसरी
बात के उत्तर
में भी वह
कहेगा, कैसे
भरोसा करूं? यह कैसे
भरोसे का सवाल,
इनफिनिट रिग्रेस
है। इसका कोई
अंत नहीं है।
भरोसा
किया जा सकता, नहीं किया
जा सकता।
लेकिन अगर
किसी ने पूछा,
कैसे भरोसा
करूं, हाउ टु बिलीव,
कैसे करूं
विश्वास? फिर
कठिन है। कठिन
इसलिए है कि
कैसे का सवाल
ही अविश्वास
में और गैर-भरोसे
में ले जाता
है।
अर्जुन
संदिग्ध हो
गया। यह कैसे
हो सकता है? एब्सर्ड, बिलकुल
व्यर्थ की बात
है; असंगत।
संगति भी नहीं,
तर्क भी
नहीं। कहते
हैं, सूर्य
को कही थी
मैंने यही
बात।
देखें, कैसा मजा है!
कृष्ण चाहते
हैं कि अर्जुन
को भरोसा आ
जाए, इसलिए
वे कहते हैं, सूर्य को भी
मैंने कहा था,
तुझसे भी
वही कहता हूं।
कृष्ण चाहते
हैं जिससे
भरोसा आ जाए; अर्जुन के
लिए वही
गैर-भरोसे का
कारण हो जाता है।
पूछता
है, सूर्य से,
आपने? आप
अभी पैदा हुए,
सूर्य कब का
पैदा हुआ! जो
बात कृष्ण ने
कही है, अर्जुन
उसके संबंध
में सवाल नहीं
उठा रहा। वह सत्य
क्या है, जो
सूर्य से कहा
था आपने, वह
यह नहीं
पूछता। कंटेंट
के बाबत उसका
सवाल नहीं है।
उसका सवाल उस
व्यवस्था और
कंटेनर के
बाबत है, जो
कृष्ण ने
मौजूद किया।
वह कहता है कि
कैसे मानूं?
यह
ध्यान देने की
बात है कि आज
तक जगत में
सत्य को जानने
वाले लोगों ने
न जानने वाले
लोगों के मन
में भरोसे के
लिए जितने
उपाय किए हैं, न जानने
वाले भी कमजोर
नहीं हैं, उन्होंने
उन सब उपायों
को भरोसा न
करने का उपाय
बना लिया।
जानने
वालों ने
जितने भी उपाय
किए हैं कि न
जानने वालों और
उनके बीच में
भरोसे का एक
सेतु, ए
ब्रिज आफ
ट्रस्ट पैदा
हो जाए कि
जिसके आधार पर
सत्य कहा जा
सके; लेकिन
न जानने वाले
भी अपने न
जानने की जिद्द
में उस सेतु
को टिकने ही
नहीं देते। उस
सेतु से जो
आएगा, उसकी
तो बात ही
नहीं है। पहले
तो वे उस सेतु
पर ही संदेह
खड़ा करते हैं
कि यह सेतु हो
कैसे सकता है?
कृष्ण
तो कहते हैं, मैं सखा, मित्र,
प्रिय!
अर्जुन जो
सवाल उठाता है,
वह बहुत
प्रेमपूर्ण
नहीं है।
क्योंकि
प्रेम भरोसा
है। प्रेम
भरोसा है, निष्प्रश्न भरोसा।
जहां सवाल है
भरोसे पर, कि
क्यों? वहां
प्रेम नहीं
है। वहां
प्रेम का अभाव
है।
कभी
आपने खयाल
किया है कि जब
भी जीवन में
प्रेम की घड़ी
होती है, तब
आप क्यों, कैसे,
क्या--सब
भूल जाते हैं।
प्रेम एकदम
भरोसा ले आता
है। और अगर
प्रेम भरोसा न
ला पाए, तो
फिर प्रेम कुछ
भी नहीं ला
सकता। और अगर
प्रेम भरोसा न
ला पाए, तो
प्रेम है ही
नहीं।
अर्जुन
पूछता है, मानने योग्य
नहीं लगती यह
बात! यह भी समझ
लेने जैसा
जरूरी है कि
कृष्ण ने क्या
कहा था!
सुबह
मैंने आपको
कहा था, कृष्ण
जब कह रहे हैं
कि यही मैंने
कहा था, तो
यह तो कृष्ण
भी जानते हैं
कि यह शरीर तो
अभी पैदा हुआ।
यह अर्जुन ही
पूछे, तब
कृष्ण
जानेंगे, ऐसा
नहीं है। यह
कृष्ण भी
जानते हैं कि
यह शरीर तो
अभी पैदा हुआ
है। और अगर
इतना भी कृष्ण
नहीं जानते, तो बाकी और
कुछ पूछना
उनसे व्यर्थ
है।
एक बार
ऐसा हुआ।
रामकृष्ण का
चित्र किसी ने
उतारा। फिर
फोटोग्राफर
चित्र को लेकर
आया, तो
रामकृष्ण उस
चित्र के पैर
पड़ने लगे।
पास-पड़ोस बैठे
शिष्यों ने
कहा, क्या
करते हैं
परमहंस देव? लोग पागल
कहेंगे! अपने
ही चित्र के, और पैर पड़ते
हैं? रामकृष्ण
खूब हंसने
लगे।
उन्होंने कहा,
तुम क्या
सोचते हो कि
मुझे इतना भी
पता नहीं कि
यह मेरा ही
चित्र है? और
अगर इतना भी
मुझे पता नहीं
है, तो लोग
पागल कहेंगे,
तो ठीक ही
कहेंगे। अगर
इतना भी मुझे
पता नहीं, तो
लोग जो कहेंगे,
ठीक ही
कहेंगे।
बहुत
बार
जिन्होंने
जाना है, उन्होंने
न जानने वालों
को तो सलाह दी
ही है; जो
नहीं जानते
हैं, वे भी
जानने वालों
को सलाह देने
पहुंच जाते हैं।
इस बात को भी
भूलकर कि जब
जानने वालों
को भी आपकी
सलाह की जरूरत
पड़ती है, तो
फिर अब उसकी
सलाह की आपको
कोई जरूरत
नहीं रह गई।
रामकृष्ण
ने कहा कि यह
तो मुझे भी
पता है कि तस्वीर
मेरी है। और
यह कहकर फिर
भी पैर पड़े और
खड़े होकर
तस्वीर को
लेकर नाचने
लगे। एक शिष्य
ने कहा, आप
क्या कर रहे
हैं? रामकृष्ण
ने कहा, कुछ
समझने की
कोशिश करो। यह
चित्र मेरा ही
है, इतना
ही नहीं, यह
चित्र साथ
किसी और चीज
का भी है।
उन्होंने कहा,
वह हमें
दिखाई नहीं
पड़ती, आपका
ही चित्र है।
रामकृष्ण ने
कहा, यह
मेरे शरीर की
आकृति है, सो
तो ठीक; लेकिन
जब यह चित्र
लिया गया, तब
मैं गहरी
समाधि में था।
यह समाधि का
भी चित्र है, मेरा ही
नहीं। मैं तो
सिर्फ रूप
हूं। और मेरी जगह
और भी रूप हो
सकता था।
लेकिन भीतर जो
घटना घट रही
थी, उसका
भी चित्र है।
मैं उसी को
नमस्कार कर
रहा हूं।
लेकिन
वह भीतर की
घटना तो हमारी
बाहर की आंखों
को दिखाई नहीं
पड़ती। अर्जुन
को भी न दिखाई
पड़ी, तो
आश्चर्य नहीं
है।
अर्जुन
ठीक हमारे
जैसा सोचने
वाला आदमी है, ठीक तर्क से,
गणित से, हिसाब से।
वह कहता है, आप? स्वभावतः,
जो सामने
तस्वीर दिखाई
पड़ रही है
कृष्ण की, वह
सोचता है, यही
आदमी कहता है?
तो इसकी तो जन्मत्तारीख
पता है। सूर्य
की तो जन्मत्तारीख
कुछ पता नहीं
है। और यह
आदमी जिस दिन
पैदा हुआ, उस
दिन भी सूरज
निकला था।
उसके पहले भी
निकलता रहा
है।
उसका
सवाल ठीक
मालूम पड़ता
है। हमें भी
ठीक मालूम
पड़ेगा। लेकिन
वह इस भीतर के
आदमी को देखने
में असमर्थ है; हम भी
असमर्थ हैं।
कृष्ण
जिसकी बात कर
रहे हैं, वह
इस शरीर की
बात नहीं है।
वह उस आत्मा
की बात है, जो
न मालूम कितने
शरीर ले चुकी
और छोड़ चुकी, वस्त्रों की
भांति। न
मालूम कितने
शरीर जरा-जीर्ण
हुए, पुराने
पड़े और छूटे!
वह उस आत्मा
की बात है, जो
मूलतः
परमात्मा से
एक है। वह
सूर्य के पहले
भी थी। सूर्य
बुझ जाएगा, उसके बाद भी
होगी।
जहां
तक शरीरों का
संबंध है, यह सूर्य
हमारे जैसे न
मालूम कितने
करोड़ों शरीरों
को बुझा देगा
और नहीं बुझेगा।
लेकिन जहां तक
भीतर के तत्व
का संबंध है, ऐसे सूरज
जैसे करोड़ों
सूरज बुझ
जाएंगे और वह
भीतर का तत्व
नहीं बुझेगा।
लेकिन
उसका अर्जुन
को कोई खयाल
नहीं है, इसलिए
वह सवाल उठाता
है। उसका सवाल,
अर्जुन की
तरफ से संगत, कृष्ण की
तरफ से बिलकुल
असंगत।
अर्जुन की तरफ
से बिलकुल
तर्कयुक्त, कृष्ण की
तरफ से बिलकुल
अंधा। अर्जुन
की तरफ से बड़ा
सार्थक, कृष्ण
की तरफ से
अत्यंत मूढ़तापूर्ण।
लेकिन अर्जुन क्या
कर सकता है!
कृष्ण की तरफ
से होगा मूढ़तापूर्ण,
उसकी तरफ से
तो बहुत
तर्कपूर्ण
है। यद्यपि अंततः
सभी तर्क
अत्यंत
मूर्खतापूर्ण
सिद्ध होते
हैं, लेकिन
जब तक वे ऊंचाइयां
नहीं मिलीं, तब तक
अर्जुन की भी
मजबूरी है। और
उसका सवाल उसकी
तरफ से बिलकुल
संगत है।
श्री
भगवानुवाच:
बहूनि
मे व्यतीतानि
जन्मानि
तव चार्जुन।
तान्यहं
वेद सर्वाणि
न त्वं वेत्थ
परंतप।। 5।।
भगवान
बोले: हे
अर्जुन, मेरे
और तेरे
बहुत-से जन्म
हो चुके हैं, परंतु हे
परंतप! उन
सबको तू नहीं
जानता है और मैं
जानता हूं।
कृष्ण
ने अर्जुन से
कहा, मेरे और
तेरे, हे
परंतप!
बहुत-बहुत
अनेक जन्म हो
चुके हैं, लेकिन
उन्हें तू
नहीं जानता और
मैं जानता हूं।
इस
संबंध में दोत्तीन
बातें
स्मरणीय हैं।
एक तो, जो हम नहीं
जानते, वह
नहीं है, ऐसा
मानने की
जल्दी नहीं कर
लेनी चाहिए।
अर्जुन जो
नहीं जानता है,
वह नहीं है,
ऐसी
निष्पत्ति निकाल
लेनी बहुत चाइल्डिश,
जुवेनाइल है, बचकानी
है। बहुत कुछ
है जो हम नहीं
जानते हैं, फिर भी है।
हमारे न जानने
से नहीं नहीं
हो जाता।
लेकिन अर्जुन
की जो भूल है, वह नेचरल
फैलेसी
है, बड़ी
प्राकृतिक
भूल है। हम भी
यही भूल करते
हैं। मनुष्य
की सहज भूलों
में एक भूल है,
जो नहीं
जानते, हम
मानते हैं, वह नहीं है।
न मालूम किस
भ्रांति के
कारण हम ऐसा
सोचते हैं कि
हमारा जानना
ही सब कुछ है।
अगर
हमारा जानना
ही सब कुछ
है--अगर मैं
आपसे पूछूं
कि उन्नीस सौ
इकसठ, एक
जनवरी थी या
नहीं? आप
कहेंगे, थी;
मैं था।
लेकिन अगर मैं
पूछूं कि
एक जनवरी, उन्नीस
सौ इकसठ की
कोई याददाश्त
बताइए, अगर
थी! तो क्या
किया था सुबह
उठकर? दोपहर
क्या किया था?
सांझ क्या
बोले थे? रात
नींद आई थी, नहीं आई थी? स्वप्न
कौन-सा आया था?
आप कहेंगे,
कुछ भी याद
नहीं है। अगर
एक जनवरी, उन्नीस
सौ इकसठ की
कोई भी याद
नहीं है, तो
एक जनवरी, उन्नीस
सौ इकसठ थी, इसके कहने
का हक क्या है?
आप कहेंगे,
थी तो जरूर,
मैं था, लेकिन
याद! याद
बिलकुल नहीं
है।
याद
दिलाई जा सकती
है। क्योंकि
एक गहरा नियम
है मन का कि जो
भी जाना जाता
है, वह कभी
भूलता नहीं।
विस्मृति
असंभव है। जिस
बात को हम
कहते हैं
विस्मृति हो
गई, उसका
भी इतना ही
मतलब है कि हम
उसे पकड़ नहीं
पा रहे हैं।
हम नहीं पकड़
पा रहे हैं, कहां रख गई
वह याद, किस
कोने-कातर में
मन के समा गई!
छोटा
मन है, करोड़ों
स्मृतियां
हैं। मन को
छांटना पड़ता
है स्मृतियों
को।
छांट-छांटकर
काम की बचा
लेता है, बाकी
को कचरेघर
में डाल देता
है। लेकिन कचराघर
भी भीतर ही
है। जैसे अपने
घर में कोई
नीचे, तहखाने में चीजों
को डालता चला
जाता है, जो
बेकार हैं।
लेकिन बिलकुल
बेकार नहीं है,
कभी काम में
आ सकती हैं, इसलिए
इकट्ठी भी
करता चला जाता
है।
हम भी
अपने मन में
सब इकट्ठा
करते चले जाते
हैं। इसलिए जो
आपको एक जनवरी
उन्नीस सौ
इकसठ याद न आती
हो, वह आपको
सम्मोहित
करके, बेहोश
किया जाए, तो
याद आ जाती
है। आप एक
जनवरी उन्नीस
सौ इकसठ का
ऐसे ही वर्णन
कर देंगे, जैसे
एक जनवरी
उन्नीस सौ
इकहत्तर का भी
करना मुश्किल
पड़ेगा।
बिलकुल कर
देंगे।
बेहोशी की, सम्मोहन की
अवस्था में सब
याद आ जाएगा, सब उठ आएगा।
अभी
मनोवैज्ञानिक
सम्मोहन के
द्वारा जन्म के
पहले दिन तक
की स्मृति तक
ले जाने में
समर्थ हो गए
हैं। पहले दिन
जब आपका जन्म
हुआ था, कुछ
भी तो याद न
होगी उसकी।
लोग कहते हैं,
इसलिए मान
लेते हैं कि
हुआ था। अगर
कोई दिक्कत आ
जाए और सारे
प्रमाण पूछे
जाएं, तो
सिवाय उधार
प्रमाणों के
कोई प्रमाण न
मिलेगा आपके
पास। कोई कहता
है, इसलिए
आप कहते हैं
कि मैं पैदा
हुआ था। लेकिन
आपको कोई याद
है? आप
विटनेस हैं? उस घटना के
गवाह हैं? आप
कहेंगे, मैं
तो गवाह नहीं
हूं। तब बड़ी
मुश्किल है।
आपके जन्म की
गवाही आप न दे
सकें, तो
दूसरों की
गवाही का
भरोसा क्या है?
जन्म है
आपका, गवाही
है दूसरे की!
लेकिन
पहले दिन जन्म
की स्मृति भी
भीतर है। और
जिन्होंने और
गहरे प्रयोग
किए हैं, जैसे
तिब्बत में
लामाओं ने और
गहरे प्रयोग
किए हैं, तो
मां के पेट
में भी नौ
महीने आप रहे।
जन्म का ठीक
दिन वह नहीं
है, जिसको
हम जन्म-दिन
कहते हैं।
उसके ठीक नौ
महीने पहले
असली जन्म हो
चुका। जिसे हम
जन्म-दिन कहते
हैं, वह तो
मां के शरीर
से मुक्त होने
का दिन है, जन्म
का दिन नहीं।
नौ महीने तक
सेटेलाइट था
आपका शरीर; मां के शरीर
के साथ घूमता
था, उपग्रह
था। अभी इतना
समर्थ न था कि
स्वयं ग्रह हो
सके। इसलिए
घूमता था; सेटेलाइट
था। अब इस
योग्य हो गया
कि मां से मुक्त
हो जाए, अब
अलग जीवन शुरू
करे। लेकिन
जन्म तो उसी
दिन हो गया, जिस दिन
गर्भ धारण हुआ
है।
तो
लामाओं ने इस
पर और गहरे
प्रयोग किए
हैं और नौ महीने
की स्मृतियां
भी उठाने में
सफल हुए हैं।
जब मां क्रोध
में होती है, तब भी बच्चे
की पेट में
स्मृति बनती
है। जब मां
दुखी होती है,
तब भी बच्चे
की स्मृति
बनती है। जब
मां बीमार होती
है, तब भी
बच्चे की
स्मृति बनती
है। क्योंकि
बच्चे की देह
मां की देह के
साथ संयुक्त
होती है। और
मां के मन और
देह पर जो भी
पड़ता है, वह
संस्कारित हो
जाता है बच्चे
में।
इसलिए
अक्सर तो
माताएं जब बाद
में बच्चों के
लिए रोती हैं
और पीड़ित और
परेशान होती
हैं, उनको
शायद पता नहीं
कि उसमें कोई
पचास प्रतिशत
हिस्सा तो
उन्हीं का है,
जो
उन्होंने
जन्म के पहले
ही बच्चे को
संस्कारित कर
दिया है। अगर
बच्चा क्रोध
कर रहा है, और
गालियां बक
रहा है, और
दुखी हो रहा
है, और
दुष्टता बरत
रहा है, तो
मां सोचती है
कि यह कहां से,
कैसे ये सब
कहां सीख गया!
दिखता है, कहीं
दुष्ट-संग में
पड़ गया है।
दुष्ट-संग
में बहुत बाद
में पड़ा होगा; दुष्ट-संग
में बहुत पहले
नौ महीने तक
पड़ चुका है।
और नौ महीने
बहुत संस्कार
संस्कारित हो
गए हैं। उनकी
भी स्मृतियां
हैं। लेकिन और
भी गहरे लोग
गए हैं। पिछले
जन्मों की
स्मृतियों में
भी गए हैं।
कृष्ण
कहते हैं कि
अर्जुन, जो
तुझे पता नहीं
है, वह
मुझे पता है।
वे इतनी सरलता
से कहते हैं
कि जो तुझे
पता नहीं है, वह मुझे पता
है। वे इतनी
सहजता से कहते
हैं कि उनका
वचन बड़ा
प्रामाणिक और आथेंटिक
मालूम पड़ता
है।
ध्यान
रहे, झिझक
कृष्ण में जरा
भी नहीं है।
जरा-सी भी झिझक
बताती है कि
आदमी को खुद
पता नहीं है।
किसी और से
पता होगा; सेकेंड
हैंड पता
होगा।
कृष्ण
कहते हैं, अर्जुन, जो
तुझे पता नहीं
है, वह
मुझे पता है।
हमारे और भी
जन्म हुए हैं।
मैं इसी जन्म
की बात नहीं
कर रहा हूं।
लेकिन वे इतनी
सरलता से कहते
हैं, जरा
भी झिझक नहीं।
और एक
बात और ध्यान
देने योग्य
है।
दार्शनिकों
और ऋषियों के
वचनों में एक
फर्क दिखाई
पड़ेगा।
दार्शनिक जब
भी बोलेंगे, तो हाइपोथेटिकल
बोलेंगे। वे
बोलेंगे, इफ, यदि
ऐसा हो, तो
ऐसा होगा। ऋषि
जब बोलेंगे, तो उनका
बोलना स्टेटमेंट
का होगा, वक्तव्य
का होगा। वे
कहेंगे, ऐसा
है।
इसलिए
जब पहली बार
उपनिषद का
अनुवाद हुआ
पश्चिम में, तो पश्चिम
के विचारक
बहुत मुश्किल
में पड़े कि उपनिषद
के लोग कैसे
हैं! ये सीधा
कह देते हैं कि
ब्रह्म है।
पहले बताना
चाहिए, क्यों,
क्या कारण
है, क्या
दलील है, क्या
प्रमाण है; फिर
निष्कर्ष
देना चाहिए कि
ब्रह्म है। ये
तो सीधा कह
देते हैं, कैटेगोरिकल,
हाइपोथेटिकल नहीं। सीधा
वक्तव्य दे
देते हैं कि
ब्रह्म है।
इसके आगे-पीछे
कुछ भी नहीं।
ये वक्तव्य
ऐसे दे देते
हैं, जैसे
कोई कहे, सूरज
है।
पश्चिम
के जिन लोगों
को यह चकित
होने का कारण बना, उसका आधार
है। पश्चिम
में ऋषियों की
वाणी बहुत कम
पैदा हुई।
पश्चिम में
दार्शनिक
बोलते रहे, फिलासफर्स बोलते रहे।
वे जो भी कहते
हैं, उसको
दलील, आर्ग्युमेंट से कहते
हैं। लेकिन
ध्यान रहे, दलील और
तर्क इस बात
की खबर देते
हैं कि यह एक निष्कर्ष
है, अनुभव
नहीं। और सत्य
एक अनुभव है, निष्कर्ष
नहीं। ट्रुथ
इज़ नाट ए कनक्लूजन,
बट एन एक्सपीरिएंस।
निष्कर्ष
नहीं है सत्य।
वह दो और दो
चार होते हैं,
ऐसा जोड़ा
गया हिसाब
नहीं है, जाना
गया अनुभव है।
इसलिए
कृष्ण जब कहते
हैं कि अर्जुन, तुझे पता
नहीं और मुझे
पता है। और जब
मैं कहता हूं
कि सूर्य को
मैंने कहा था,
तो मैं किसी
और जन्म की
बात कर रहा
हूं। यह इस जन्म
की बात नहीं
है।
एक और
ध्यान देने की
बात है, कि
ज्ञान कृष्ण
के समय या
बुद्ध के समय
या महावीर के
समय में इतना
झिझकता हुआ
नहीं था, जितना
आज है। बहुत
बोल्ड था, बहुत
साहसी था। जो
कहना है, कहता
था। आज ज्ञान
बहुत झिझकता
हुआ है। जो भी कहना
है, वह
सीधा कहना
मुश्किल है।
क्या कारण
होगा? कारण
एक ही है। आज
जिसे हम ज्ञान
कहते हैं, सौ
में
निन्यानबे
मौके पर उधार
होता है, इसलिए
झिझकता है।
एक
साध्वी ने योग
पर एक किताब
लिखी, मुझे
भेजी। देखा, किताब मुझे
बहुत पसंद पड़ी;
बहुत अच्छी
लिखी। लेकिन
दो-चार जगह
मुझे ऐसा लगा
कि उस साध्वी को
योग का या
ध्यान का कोई
भी अनुभव नहीं
है। क्योंकि
जो फिजूल
बातें थीं, वह तो उसने
बड़े बलपूर्वक
कहीं, और
जो सार्थक
बातें थीं, उनमें बड़ी
झिझक थी।
फिर
दो-चार वर्ष
के बाद वह
साध्वी मुझे
मिली। मैंने
कुछ बात न की
उस किताब की।
थोड़ी देर के बाद
उसने कहा, मुझे अकेले
में कुछ बात
करनी है।
मैंने कहा, पूछें। उसने
कहा, मुझे
ध्यान के
संबंध में कुछ
बताएं कि कैसे
करूं? मैंने
कहा, चार
वर्ष हुए
तुम्हारी
किताब देखी थी,
तब भी मुझे
लगा था कि
ध्यान का
तुम्हें कुछ
पता नहीं होना
चाहिए।
क्योंकि जो-जो
गहरी बात थी, उसमें झिझक
थी। और जो-जो
बेकार बात थी,
बहुत बोल्ड,
बहुत साहस
से कही गई थी!
उसने कहा, मुझे
तो कुछ भी पता
नहीं। फिर, मैंने कहा, वह किताब
क्यों लिखी? उसने कहा, वह तो मैंने
दस-पचास
किताबें पढ़कर
लिखी--लोगों
के लाभ के
लिए। मैंने
कहा, जिस
किताब को
लिखने से भी
तुम्हें लाभ
नहीं हुआ, उस
किताब को पढ़ने
से लोगों को
लाभ होगा? तुम
लिखने के चार
साल बाद भी
अभी ध्यान
कैसे करें, यह पूछती हो;
और तुमने
उसमें ध्यान
के चार प्रकार
होते हैं और
क्या-क्या
होता है, सब
गिनाया हुआ
है! उसने कहा, वह सब
शास्त्रों
में लिखा है।
पर
ध्यान को
शास्त्रों से
जो जानेगा, उसने सूरज
नहीं देखा, सूरज की
तस्वीर देखी।
तस्वीर को हाथ
में रखा जा
सकता है, सूरज
को हाथ में
नहीं रखा
सकता। तस्वीर
जला नहीं सकती,
सूरज के पास
जाना बड़ा कठिन
है। जिसने
शास्त्र से
ध्यान सीखा, उसने कागज
की नाव में
यात्रा करने
का विचार किया
है। खतरनाक है
वह यात्रा।
उधार
है ज्ञान, इसलिए
झिझकता हुआ
है। ज्ञान ने
साहस खो दिया।
बल्कि और मजे
की बात है, अज्ञान
बहुत साहसी है
आज। अज्ञान
इतना साहसी कभी
भी न था।
ध्यान
रहे, अगर
चार्वाक को
कहना पड़ता था
कि ईश्वर नहीं
है, तो
हजार दलीलें
देनी पड़ती थीं,
तब चार्वाक
कहता था, ईश्वर
नहीं है।
ईश्वर नहीं है,
एक कनक्लूजन
था, एक
निष्पत्ति
थी। हजार दलील
देता था और
फिर कहता था, देखो, यह
दलील, यह
दलील, यह
दलील; तब
मैं कहता हूं
कि ईश्वर नहीं
है। हजार दलील
देता था, तब
कहता था कि
देखो, मैं
कहता हूं, आत्मा
नहीं है।
ज्ञान बहुत
शक्तिशाली था,
वह कहता था,
ब्रह्म
है--बिना दलील
के। और अज्ञान
बहुत कमजोर था;
वह हजार
दलील जुटाता
था, तब
कहता था कि शक
होता है आत्मा
पर।
आज
हालत बिलकुल
उलटी है। आज
जिसको कहना है, आत्मा नहीं
है, बिना
दलील के कहता
है, आत्मा
नहीं है, ईश्वर
नहीं है; कोई
दलील देने की
जरूरत नहीं है।
और जिसको कहना
है, ईश्वर
है, वह
हजार दलीलें
इकट्ठी करता
है कि यह कारण,
यह कारण, इसलिए। जैसे
कि कुम्हार घड़े को
बनाता है, ऐसे
भगवान जगत को
बनाता है।
कुम्हार, भगवान
को सिद्ध करने
के लिए दलील
है। बेचारा कुम्हार,
उसका कोई
हाथ नहीं!
इतनी कमजोर
दलीलों पर
कहीं ज्ञान
खड़ा हुआ है?
ज्ञान
अनुभव है।
जब
कृष्ण कहते
हैं, बिना
दलील; कृष्ण
आर्ग्युमेंट
नहीं दे रहे
हैं। कोई आर्ग्युमेंट
ही नहीं देते।
वे कहते हैं, अर्जुन तुझे
पता नहीं और
मुझे पता है, इसलिए मैं
कहता हूं। वे
दलील नहीं
जुटाते।
यह
वक्तव्य सीधा
और साफ है। और
सीधा और साफ
जब भी वक्तव्य
होता है, तो
वह प्राणों के
अंतस्तल को
छेद पाता है।
दलीलें जहां
नहीं पहुंचती
हैं, वहां
सीधे वक्तव्य
पहुंच जाते
हैं। प्रमाण जहां
नहीं पहुंचते,
वहां आंखों
की गवाही
पहुंच जाती
है।
अर्जुन
दलील मांग रहा
है। कृष्ण
दलील नहीं दे रहे।
अर्जुन दलील ही
मांग रहा है, कि कोई
सर्टिफिकेट
दिखाओ कि तुम
थे। तुम सूरज के
पहले थे? कहीं
किसी
कारपोरेशन के
दफ्तर में
कहीं कोई जन्मत्तारीख?
कहीं कुछ
लिखा-पढ़ी है? नहीं; वे
इतना ही कहते
हैं कि अर्जुन,
तू जानता
नहीं और मैं
जानता हूं।
इतना
साहस था जब
सत्य में, तब अगर सत्य परिणाम
लाता था, तो
कुछ आश्चर्य
नहीं है। और
आज अगर अज्ञान
साहसी है, तो
अज्ञान
दुष्परिणाम
लाता है, तो
भी कुछ
आश्चर्य नहीं
है।
आज
नास्तिक सारे
जगत में जिस
भाषा में
बोलता है, वह उसी ताकत
की भाषा है, जिस ताकत
में कभी कृष्ण,
महावीर और
बुद्ध बोले।
आज उस ताकत की
भाषा में
माक्र्स, स्टैलिन
और माओत्से
तुंग बोलते
हैं। उसी ताकत
की भाषा में।
आज अगर पुरी
के
शंकराचार्य
को बोलना है, तो ताकत
नहीं है; तो
फिर शास्त्र,
वेद, पुराण,
उन सबसे
इकट्ठा करके
बोलना है।
पुरी
के
शंकराचार्य
कहते हैं कि
कोई अगर सिद्ध
कर दे कि
शास्त्रों
में लिखा है
कि गौवध
होता था
यज्ञों में, कोई अगर
सिद्ध कर दे
कि शास्त्रों
में लिखा है, तो मैं गौवध
का विरोध छोड़
दूंगा। बड़ी
कमजोर दुनिया
है। कोई अगर
सिद्ध कर दे
कि शास्त्रों
में लिखा है कि
गौवध
होता था, तो
पुरी के
शंकराचार्य, गौवध बंद हो, ऐसा
आंदोलन छोड़ने
को तैयार हैं!
दलील और
प्रमाण कोई दे
दे।
लेकिन
इतना साहस
नहीं सत्य में
कि वह सीधा
कहे कि सब
शास्त्रों
में लिखा हो
कि गौवध
होता था, तो
भी गौवध
नहीं हो सकता
है, क्योंकि
ऐसा हमारी
आत्मा कहती है
कि यह गलत है--ऐसा।
ऐसा नहीं कह
सकता कोई
हिम्मतवर आज,
तब फिर अर्थ
नहीं है। कोई
ऐसा नहीं कह
सकता कि तुम
नहीं जानते और
मैं जानता
हूं। लेकिन
ऐसा कोई कहना
चाहे, तो
नहीं कह सकता।
कहना चाहे, तो बहुत
मुश्किल में
पड़ेगा।
ठीक
ऐसी मुश्किल
में पड़ेगा, मैंने सुना
है, एक
साधक एक गुरु
के पास बहुत
दिन तक था।
गुरु उससे
कहता कि इस
तरह ध्यान करो
कि तुम बचो ही
न, बिलकुल
मर जाओ, तभी
परमात्मा
मिलेगा। उसने
कई तरह की
कोशिशें कीं,
लेकिन मर
कैसे जाए? रोज
गुरु के पास
आता और गुरु
कहता कि तुम
अभी भी हो! फिर
ध्यान क्या
खाक होगा? मिटोगे
नहीं, मरोगे
नहीं, ध्यान
नहीं होगा। वह
बेचारा रोज
लौट जाता। फिर
दूसरे दिन सुबह
आता कि फिर
अपनी खबर कर
दे कि अभी तक
ध्यान हुआ
नहीं। गुरु
उसे देखते से
ही कहता, अरे!
तुम अभी भी
जिंदा हो?
एक दिन
उसने सोचा, यह कब तक
चलेगा! सुबह
वह पहुंचा, गुरु के
दरवाजे पर खड़ा
ही हुआ था; गुरु
ने कहा, अरे!
उसने कहा, मत
कहो। और एकदम
गिरा और मर
गया। वहीं
गिरा और मर
गया। आंखें
बंद कर लीं, सांस रोककर
पड़ रहा। गुरु
पास आया, उसने
कहा कि बिलकुल
ठीक। अच्छा, मैंने
तुम्हें कल एक
सवाल दिया था,
उसका जवाब
तो दो। उस
आदमी ने एक
आंख खोली और
कहा, उसका
जवाब तो अभी
तक नहीं मिला।
उसके गुरु ने कहा,
मूरख, मरे
हुए लोग जवाब
नहीं देते। उठ,
और अपने घर
जा! मर गया था, तो मर जाना
था। जवाब देने
की इतनी क्या
जल्दी थी? लेकिन
मरने का कोई
नाटक नहीं हो
सकता है।
अब यह
जो गुरु कह
रहा है कि मर
जा, वह समझ ही
नहीं पा रहा
है, किस
मृत्यु की बात
हो रही है। जब
गुरु कह रहा है,
अरे, फिर
तू आ गया, तब
भी वह नहीं
समझ पा रहा है
कि किसके आने
की बात हो रही
है। जिस
अहंकार के
मरने के लिए
वह गुरु बात
कर रहा है, वह
उसके खयाल में
नहीं आता।
ज्यादा से
ज्यादा उसे
खयाल में आया
कि इस शरीर को
गिरा दो, आंख
बंद करके पड़े
रह जाओ। और
क्या हो सकता
है?
शरीर
केंद्रित
दृष्टि शरीर
के बाहर की
बातों को सुन
नहीं पाती।
अर्जुन भी
शरीर
केंद्रित है।
उसकी सारी
चिंतना, उसका
सारा संताप
शरीर
केंद्रित, बाडी ओरिएंटेड
है। वह कहता
है, ये
मेरे प्रियजन
मर जाएंगे।
कृष्ण कहते
हैं, ये
कोई नहीं मरने
वाले हैं। ये
पहले भी थे और
फिर भी
रहेंगे।
वही-वही सवाल
लौट-लौटकर चला
आता है। अभी
कृष्ण पहले समझाते
हैं कि कोई ये
मरेंगे नहीं।
ये पहले भी थे,
पीछे भी
रहेंगे। तू
इनकी फिक्र मत
कर। कुछ समझता
नहीं है
अर्जुन। अब वह
फिर वही पूछता
है, आप! आप
सूर्य के पहले
कहां थे? आप
तो अभी पैदा
हुए हैं!
वही
शरीर से बंधी
हुई दृष्टि!
लेकिन कृष्ण
एक सीधा
वक्तव्य देते
हैं। दलील दे
सकते थे।
लेकिन जिनके
पास अनुभव है, वे दलील
हमेशा पीछे
देते हैं, वक्तव्य
पहले दे देते
हैं। जिनके
पास अनुभव नहीं
है, वे
दलील पहले
देते हैं, वक्तव्य
पीछे देते
हैं। जिनके
पास अनुभव है,
वे दलील का
उपयोग सिद्ध करने
के लिए नहीं
करते। वे दलील
का उपयोग
ज्यादा से
ज्यादा
समझाने के लिए
करते हैं।
तो
पहली तो बात
यह समझ लें कि
कृष्ण ने
बेझिझक कहा कि
तू नहीं जानता
और मैं जानता
हूं। इतना बेझिझक
अनुभव ही हो
सकता है।
लेकिन गुरु भी
झिझकते हुए हो
सकते हैं। और
तब अगर शिष्य
झिझकते हुए हो
जाएं, तो
बहुत कठिनाई
क्या है? गुरु
भी सोच-विचार
करके उत्तर
देते हों, तो
फिर शिष्य भी
उत्तर से
वंचित रह जाएं,
तो हैरानी
क्या है?
यह
सोच-विचार
नहीं है कृष्ण
की तरफ, यह
सीधी प्रतीति
है कि तू नहीं
जानता। यह ठीक
वैसे ही है
जैसे एक अंधे
आदमी से कोई
आंख वाला कहे
कि सूरज है; मैं जानता
हूं और तू
नहीं जानता।
यह इतनी ही सरल
और सीधी बात
उन्होंने कही
है।
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा
भूतानामीश्वरोऽपि
सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय
संभवाम्यात्ममायया।।
6।।
मैं
अविनाशी
स्वरूप
अजन्मा होने
पर भी तथा सब भूत
प्राणियों का
ईश्वर होने पर
भी अपनी
प्रकृति को
अधीन करके
योगमाया से
प्रकट होता
हूं।
कृष्ण
यहां चेतना
कैसे प्रकट
होती है
पदार्थ में, परमात्मा
कैसे
आविर्भूत
होता है
प्रकृति में,
अदृश्य
कैसे दृश्य के
शरीर को ग्रहण
करता है, अलौकिक
कैसे लौकिक बन
जाता है, अज्ञात
असीम अनंत
कैसे सीमा और
सांत में बंधता
है, उसका
सूत्र कहते
हैं।
वे
कहते हैं, मैं और
लोगों की
भांति जन्मा
हुआ नहीं हूं।
यहां
एक बात तो
सबसे पहले ठीक
से समझ लें कि
जब वे कहते
हैं, मैं और
लोगों की
भांति जन्मा
हुआ नहीं हूं,
तो इसका
जैसा अब तक
मतलब लिया
जाता रहा है, वैसा मतलब
नहीं है। लोग
कहेंगे कि
यहां वे कह
रहे हैं कि
मैं भगवान का
अवतार हूं, बाकी लोग
नहीं है। ऐसा
नहीं कह रहे
हैं। यहां वे
इतना ही कह
रहे हैं कि
जन्मता तो कोई
भी नहीं है, लेकिन दूसरे
मानते हैं कि
वे जन्मते हैं;
और जब तक वे
मानते हैं कि
जन्मते हैं, तब तक मरते
हैं। उनकी
मान्यता ही
उनकी सीमा है।
यहां वे कह
रहे हैं, मैं
औरों की भांति
जन्मा हुआ
नहीं हूं।
यहां उनका
प्रयोजन है कि
मैं जानता हूं
भलीभांति, जैसा
कि और नहीं
जानते--कि मैं
अजन्मा हूं, मेरा कभी
जन्म नहीं
हुआ।
एक
बहुत सोचने और
खयाल में और
कभी भीतर
खोजने जैसी
बात है। कितना
ही मन में
सोचें, आप
यह कभी सोच न
पाएंगे, इनकंसीवेबल है, इसकी
कल्पना नहीं
बनती कि मैं
मर जाऊंगा।
कितनी ही
कोशिश करें
इसकी कल्पना
बनाने की, कल्पना
भी नहीं बनती
कि मैं मर जाऊंगा।
इसका खयाल ही
भीतर नहीं पकड़
में आता कि
मैं मर जाऊंगा।
इसीलिए तो
इतने लोग चारों
तरफ मरते हैं,
फिर भी आपको
खयाल नहीं आता
कि मैं मर जाऊंगा।
भीतर सोचने
जाओ, तो
ऐसा लगता ही
नहीं कि मैं
मरूंगा। भीतर
मृत्यु के साथ
कोई संबंध ही
नहीं जुड़ता।
कल्पना
करें, अगर
आपको ऐसी जगह
रखा जाए जहां
कोई न मरा हो
और आपने कभी
मरने की कोई
घटना न देखी
हो, आपने
मृत्यु शब्द न
सुना हो, आपको
किसी ने मौत
के बाबत कुछ न
बताया हो, क्या
आप अपने ही
तौर अकेले ही
कभी भी सोच
पाएंगे कि आप
मर सकते हैं? नहीं सोच
पाएंगे। यह
निजी एकांत
में आप न खोज पाएंगे
कि आप मर सकते
हैं, क्योंकि
मृत्यु की
कल्पना ही
भीतर नहीं
बनती।
भीतर
जो है, वह मरणधर्मा
नहीं है। भीतर
जो है, वह मरणधर्मा
नहीं है; वह
अजन्मा भी है।
असल में वही
मरता है, जो
जन्मता है। जो
नहीं जन्मता,
वही नहीं
मरता है।
कृष्ण
कहते हैं, मैं अजन्मा
हूं, अजात,
जो कभी
जन्मा नहीं, अनबॉर्न। और इसलिए अनडाइंग
हूं, मरूंगा
भी नहीं। औरों
की भांति मैं
जन्मा हुआ
नहीं हूं, अर्जुन!
और तो
सभी मानते हैं
कि उनका
जन्मदिन है।
उनके मानने
में ही उनकी
भ्रांति है।
ऐसा नहीं है कि
वे जन्मे हैं, जन्मे तो वे
भी नहीं हैं।
लेकिन जिस दिन
वे जान लेंगे
कि वे जन्मे
नहीं हैं, वे
भी मेरे ही
भांति हो
जाएंगे, वे
भी मेरे ही
रूप हो
जाएंगे।
यह जो
अजन्मा है, जो कभी
जन्मता नहीं
है, वह भी
तो आया है। वह
भी तो उतरा है,
आविर्भूत
हुआ है। वह भी
तो पैदा हुआ
है। वह भी तो
जन्मा ही है।
कृष्ण भी तो
जन्मे ही हैं।
कहानी
है कि
जरथुस्त्र
पैदा हुआ, तो जैसे कि
और बच्चे रोते
हैं, जरथुस्त्र
रोया नहीं, हंसा। अब
जरथुस्त्र
वैसे ही
थोड़े-से लोगों
में एक है, जैसे
कृष्ण। शायद
पृथ्वी पर
अकेला एक ही
बच्चा जन्म के
साथ हंसा है, वह
जरथुस्त्र।
घबड़ा गए लोग।
घबड़ा ही
जाएंगे। बच्चा
पैदा हो और
हंसने लगे
खिलखिलाकर, तो घबड़ा ही
जाएंगे।
क्योंकि
हंसना बच्चे
के लिए स्वाभाविक
नहीं है, रोना
बिलकुल
स्वाभाविक
है।
लेकिन
कभी आपने सोचा
कि बच्चे के
लिए अगर रोना
स्वाभाविक है, तो बूढ़े के
लिए रोते हुए
मरना
स्वाभाविक
नहीं होना
चाहिए।
क्योंकि जो
बच्चे के लिए
स्वाभाविक है,
बूढ़े को कम
से कम अनुभव
से इतना तो हो
जाना चाहिए कि
वह बच्चे के
पार चला जाए।
बच्चा
रोता हुआ पैदा
हो, माफ किया
जा सकता है।
बूढ़ा रोता हुआ
मरे, तो
माफ नहीं किया
जा सकता।
जिंदगी इतना
भी न सिखा पाई
कि बचपन में
जन्म के साथ
जो हुआ था, वह
कम से कम
मृत्यु के साथ
न हो!
लेकिन
बच्चे रोते
हुए पैदा होते
हैं और बूढ़े रोते
हुए मरते हैं।
असल में दोनों
छोर हमेशा मिल
जाते हैं। असल
में दोनों छोर
बराबर एक से
हो जाते हैं।
बूढ़ा रोता हुआ
मरता है, तो
हमारी समझ में
आता है कि
क्यों मरता है
रोता हुआ, जिंदगी
छूट रही है
इसलिए। इसलिए
हम सोचते हैं,
रो रहा है।
जिसे हम
जिंदगी जानते
थे, वह हाथ
से जा रही है, इसलिए रो
रहा है। लेकिन
बच्चा क्यों
रोता है? ठीक
वही बात जो
बूढ़े की है।
उसकी भी कोई
जिंदगी छूटती
है। हमें
दूसरा छोर
दिखाई पड़ रहा
है उसके छूटने
का। बूढ़े का
पहला छोर
दिखाई पड़ रहा है
छूटने का; बच्चे
का दूसरा छोर
दिखाई पड़ रहा
है छूटने का।
असल
में बूढ़ा जो रोता
है, वही रोना
बच्चे के जन्म
तक जारी रहता
है। वे एक ही
चीज के दो छोर
हैं। इधर बूढ़ा
रोता है, यह
एक पर्दा गिरा
नाटक का। यह
आदमी पर्दे के
पीछे गया, रोता
हुआ पर्दे के
पीछे गया।
पर्दे के पीछे
उतरा, रोता
हुआ उतरा। उधर
उसका जन्म हो
रहा है, इधर
उसकी मौत हुई
थी। इधर एक
आदमी मरा, उधर
जन्मा। रोता
हुआ मरता है, रोता हुआ
जन्मता है।
जरथुस्त्र
से किसी ने
बाद में पूछा
कि हमने सुना
है, तुम
हंसते हुए
पैदा हुए! तो
जरथुस्त्र ने
कहा कि ठीक
सुना है, क्योंकि
मैं उसके पहले
हंसता हुआ
मरा। हम हंसते
हुए चले आ रहे
थे पर्दे के
पीछे से।
लोगों ने पूछा,
तुम हंसते
हुए क्यों मरे?
तो
जरथुस्त्र ने
कहा, हंसते
हुए इसलिए मरे
कि लोग रो रहे
थे और हम समझ
रहे थे कि हम
मर ही नहीं
रहे हैं, वे
व्यर्थ रो रहे
हैं; तो
हंसी आ गई।
कृष्ण
कहते हैं, अजन्मा हूं
मैं। यहां जिस
मैं की बात कर
रहे हैं, वह
परम मैं, परमात्मा
का मैं। मेरा
कोई जन्म नहीं;
फिर भी उतरा
हूं इस शरीर
में। तो फिर
इस शरीर में
उतरना क्या है?
उसको वे
कहते हैं, योगमाया
से।
इस
शब्द को समझना
जरूरी होगा, क्योंकि यह
बहुत की, बहुत
कुंजी जैसे
शब्दों में से
एक है, योगमाया।
योगमाया से, इसका क्या
अर्थ है? इसका
क्या अर्थ है?
थोड़ा-सा
सम्मोहन की
दो-एक बातें
समझ लें, तो
यह समझ में आ
सकेगा।
योगमाया
का अर्थ है--या ब्रह्ममाया
कहें या कोई
और नाम दें, इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता--अर्थ
यही है कि अगर
आत्मा चाहे, आकांक्षा
करे, तो वह
किसी भी चीज
में प्रवेश कर
सकती है। आकांक्षा
करे, तो
किसी भी चीज
के साथ
संयुक्त हो
सकती है। आकांक्षा
करे, तो जो
नहीं होना
चाहिए
वस्तुतः, वह
भी हो सकता
है। संकल्प से
ही हो जाता
है।
सम्मोहन
के मैंने कहा
एक-दो सूत्र
समझें, तो
योगमाया समझ
में आ सके। वह
भी एक ग्रेटर
हिप्नोसिस
है। कहें कि
स्वयं
परमात्मा
अपने को
सम्मोहित
करता है, तो
संसार में
उतरता है, अन्यथा
नहीं उतर
सकता।
परमात्मा को
भी संसार में
उतरना है--हम
भी उतरते हैं,
तो
सम्मोहित
होकर ही उतरते
हैं। एक गहरी
तंद्रा में
उतरें, तो
ही पदार्थ में
प्रवेश हो
सकता है, अन्यथा
प्रवेश नहीं
हो सकता।
इसलिए जाग जाएं,
तो पदार्थ
के बाहर हो
जाते हैं। और
सम्मोहन में
डूब जाएं, तो
पदार्थ के
भीतर हो जाते
हैं।
अगर
किसी व्यक्ति
को सम्मोहित
किया जाए--जो
कि दुनिया में
हजारों जगह
प्रयोग किए गए
हैं, खुद
मैंने भी
प्रयोग किए
हैं और पाया
कि सही हैं--आपको
अगर सम्मोहित
करके बेहोश किया
जाए, फिर
आपके हाथ में
एक कंकड़
रख दिया जाए
साधारण सड़क का
उठाकर और कहा
जाए, अंगारा
रखा है आपके
हाथ में। आप
चीख मारकर उस कंकड़
को--मेरे
लिए--और आपके
लिए उस अंगारे
को फेंक देंगे
और चीख
मारेंगे, जैसे
अंगारे में
हाथ जल गया।
यहां
तक तो हम
कहेंगे, ठीक
है। आदमी गहरी
बेहोशी में
है। उसे भ्रम
हुआ कि अंगारा
है। लेकिन बड़ा
मजा तो यह है
कि उस बेहोश
आदमी के हाथ
पर फफोला भी आ
जाएगा। फफोला
होश में आने पर
भी रहेगा, उतनी
ही देर, जितनी
देर असली
अंगारे से पड़ा
हुआ फफोला
रहता है। यह
फफोला क्या है?
यह योगमाया
है। यह फफोला
सिर्फ संकल्प
से पैदा हुआ
है, क्योंकि
अंगारा हाथ पर
रखा नहीं गया
था, सिर्फ
सोचा गया था।
ठीक
इससे उलटा भी
हो जाता है।
अलाव भरे जाते
हैं और लोग
अंगारों पर
कूद जाते हैं
और जलते नहीं।
वह भी संकल्प
है। वह भी
गहरा संकल्प
है, इससे
उलटा।
सम्मोहन में
अंगारा हाथ पर
रख दिया जाए
और कहा जाए, ठंडा कंकड़
रखा है, तो
फफोला नहीं
पड़ेगा। भीतर
हमारी चेतना
जो मान ले, वही
हो जाता है।
कृष्ण
कहते हैं कि
मैं--परमात्मा
की तरफ से बोल
रहे हैं कि
मैं--अपनी
योगमाया से
शरीर में उतरता
हूं।
शरीर
में उतरना तो
सदा ही
सम्मोहन से
होता है।
लेकिन सम्मोहन
दो तरह के हो
सकते हैं। और
यही फर्क
अवतार और साधारण
आदमी का फर्क
है। अगर आप
जानते हुए, कांशसली,
सचेत, शरीर
में
उतरें--जानते
हुए--तो आप
अवतार हो जाते
हैं। और अगर
आप न जानते
हुए शरीर में
उतरें, तो
आप साधारण
व्यक्ति हो
जाते हैं।
सम्मोहन दोनों
में काम करता
है। लेकिन एक
स्थिति में आप
सम्मोहित
होते हैं प्रकृति
से और दूसरी
स्थिति में आप
आत्म-सम्मोहित
होते हैं, आटो-हिप्नोटाइज्ड
होते हैं। आप
खुद ही अपने
को सम्मोहित
करके उतरते
हैं। कोई
दूसरा नहीं, कोई प्रकृति
आपको
सम्मोहित
नहीं करती।
साधारणतः
हमारा जन्म
इच्छाओं के सम्मोहन
में होता है।
मैं मरूंगा।
हजार इच्छाएं
मुझे पकड़े
होंगी, वे
पूरी नहीं हो
पाई हैं। वे
मेरे मन-प्राण
पर अपने
घोंसले बनाए
हुए बैठी हैं।
वे मेरे मन-प्राण
को कहती हैं
कि और शरीर
मांगो, और
शरीर लो; शीघ्र
शरीर लो, क्योंकि
हम अतृप्त हैं;
तृप्ति
चाहिए। जैसे
रात आप सोते
हैं। और अगर
आप सोचते हुए
सोए हैं कि एक
बड़ा मकान
बनाना है, तो
सुबह आप पुनः
बड़ा मकान
बनाना है, यह
सोचते हुए
उठते हैं।
रातभर
आकांक्षा
प्रतीक्षा
करती है कि
ठीक है, सो
लो। उठो, तो
वापस द्वार पर
खड़ी है कि बड़ा
मकान बनाओ।
रात
आखिरी समय, सोते समय जो
आखिरी विचार
होता है, वह
सुबह के समय, उठते वक्त
पहला विचार
होता है। खयाल
करना तो पता
चलेगा। अंतिम
विचार, सुबह
का पहला विचार
होता है। मरते
समय आखिरी विचार,
जन्म के समय
पहला विचार बन
जाता है। बीच
में नींद का
थोड़ा-सा वक्त
है। वह खड़ा
रहता है; इच्छा
पकड़े
रहती है। और वह
इच्छा आपको
सम्मोहित
करती है और नए
जन्म में
यात्रा करवा
देती है।
जब
कृष्ण कह रहे
हैं, औरों की
भांति, तो
फर्क इतना ही
है कि और
अपनी-अपनी
इच्छाओं के
सम्मोहन में
नए जन्म में
प्रविष्ट हुए
हैं। उन्हें
कुछ पता नहीं
है। जानवरों
की तरह गलों में
रस्सियां
बंधी हों, ऐसे
बंधे हुए
खींचे गए हैं
इच्छाओं से।
इच्छाओं के
पाश में बंधे
पशुओं की
भांति बेहोश,
मूर्च्छित
वे नए जन्मों
में प्रविष्ट
हुए हैं। न
उन्हें याद है
मरने की, न
उन्हें याद है
नए जन्म की; उन्हें
सिर्फ याद हैं
अंधी
इच्छाएं। और
वे फिर जैसे
ही शक्ति
मिलेगी, शरीर
मिलेगा, अपनी
इच्छाओं को
पूरा करने में
लग जाएंगे। उन्हीं
इच्छाओं को, जिन्हें
उन्होंने
पिछले जन्म
में भी पूरा
करना चाहा था
और पूरा नहीं
कर पाए।
उन्हीं इच्छाओं
को, जिन्हें
उन्होंने और
भी पिछले
जन्मों में पूरा
करना चाहा था
और पूरा नहीं
कर पाए।
उन्हीं इच्छाओं
को, जिन्हें
उन्होंने
जन्मों-जन्मों
में पूरा करना
चाहा था और
पूरा नहीं कर
पाए। उन्हीं
को वे पुनः
पूरा करने में
लग जाएंगे। एक
वर्तुल की
भांति, एक विसियस
सर्कल की
भांति, दुष्टचक्र घूमता
रहेगा।
कृष्ण
जैसे व्यक्ति
जानते हुए
जन्मते हैं, किसी इच्छा
के कारण नहीं,
कोई अंधी
इच्छा के कारण
नहीं। फिर किसलिए
जन्मते होंगे?
जब इच्छा न
बचे, तो
कोई किसलिए
जन्मेगा?
जब इच्छा न
बचे, तो नए
जन्म को धारण
करने का कारण
क्या रह जाएगा?
इच्छा तो
मूर्च्छित-जन्म
का कारण है।
फिर क्या कारण
रहेगा? अकारण
तो कोई पैदा
नहीं हो सकता।
इसलिए अकारण कोई
पैदा होता भी
नहीं। लेकिन
जब इच्छा
विलीन हो जाती
है--और जब
इच्छा विलीन
हो जाती है
तभी--करुणा का
जन्म होता है,
कम्पैशन का जन्म
होता है।
कृष्ण, बुद्ध या
महावीर जैसे
व्यक्ति
करुणा के कारण
पैदा होते
हैं। जो
उन्होंने
जाना, जो
उनके पास है, उसे बांट
देने को पैदा
होते हैं।
लेकिन यह जन्म
कांशस
बर्थ, सचेष्ट
जन्म है।
इसलिए उनकी
पिछली मृत्यु
जानी हुई होती
है; यह
जन्म जाना हुआ
होता है। और
जो व्यक्ति
अपनी एक
मृत्यु और एक
जन्म को जान
लेता है, उसे
अपने समस्त
जन्मों की
स्मृति वापस
उपलब्ध हो
जाती है। वह
अपने समस्त
जन्मों की
अनंत शृंखला
को जान लेता
है।
इसलिए
जब कृष्ण कह
रहे हैं कि
तुझे पता नहीं, मुझे पता
है। और मैं
औरों की भांति
मूर्च्छित नहीं
जन्मा हूं; सचेष्ट, अपनी
ही योगमाया से,
अपने को ही जन्माने
की शक्ति का
स्वयं ही
सचेतन रूप से
प्रयोग करके
इस शरीर में
उपस्थित हुआ
हूं। तो वे एक
बहुत आकल्ट,
एक बहुत
गुह्य-विज्ञान
की बात कह रहे
हैं।
इस
रहस्य की बात
को ऊपर से
समझा ही जा
सकता है। जानना
हो, तब तो
भीतर ही
प्रवेश करने
के अतिरिक्त
और कोई मार्ग
नहीं है। और
कठिन नहीं है
यह बात कि आप औरों
की भांति की
दुनिया से
हटकर कृष्ण की
भांति दुनिया
में प्रवेश कर
जाएं। औरों से
हटने और कृष्ण
के निकट आने
का एक ही
रास्ता है।
इस
सत्य को पहचान
लेना है कि
भीतर जो है, वह अजन्मा
है, उसका
कोई जन्म नहीं
है। पहचान
लेना, दोहराना
नहीं। नहीं तो
दोहराने की तो
कोई कठिनाई
नहीं है। सुबह
बैठकर हम
दोहरा सकते
हैं कि आत्मा
अजर-अमर है, आत्मा
अजर-अमर है।
दोहराते रहें,
उससे कुछ भी
न होगा। जानना
पड़ेगा कि मेरे
भीतर जो है, वह कभी नहीं
जन्मा है।
कैसे
जानेंगे? पीछे
लौटना पड़ेगा;
भीतर, चेतना
में, एक-एक
कदम पीछे जाना
पड़ेगा। याद
करनी पड़ेगी लौटकर।
अभी अगर लौटकर
याद करेंगे, तो आमतौर से
पांच साल तक
की याद आ
पाएगी, पांच
साल की उम्र
तक की, उसके
पहले की
याददाश्त खो
गई होगी। बहुत
बुद्धिमान और
बहुत
प्रतिभाशाली
व्यक्ति
होंगे, तो
तीन साल तक की
याद आ पाएगी, उसके पहले
की याद खो गई
होगी।
वह जो
आखिरी याद है
आपकी--समझ लें
कि तीन साल की उम्र
की आखिरी याद
आपको आती है
कि वह मेरी
आखिरी याद है, उसके बाद
शून्य हो जाता
है--तो रोज रात
को उस आखिरी
याद को ही याद
करते हुए, करते
हुए सो जाएं, उसी को याद
करते हुए सो
जाएं। पता न
चले कि कब आप
याद करते रहे
और कब नींद आ
गई। उसको ही
याद करते रहें,
याद करते
रहें, करते
रहें, और
नींद को आ
जाने दें।
आपकी याद करने
की प्रक्रिया
चलती ही रहे, जब तक कि आप
सो ही न जाएं।
जब तक होश रहे,
चलाए रखें।
तो वही याद
हुक का काम
करती है। जैसे
कि कोई मछली
को पकड़ता
है कांटा
डालकर। वह
आखिरी याद
आपके अचेतन
चित्त में
अंदर उतर जाती
है। और किसी
और याद को पकड़कर
सुबह तक वापस
आ जाती है।
सुबह आपको
एकाध और याद
आएगी, जो
तीन साल से भी
पीछे की है।
फिर उसका
उपयोग करें।
और रोज
ऐसा उपयोग
करते रहें और
रोज आप पाएंगे
कि आप जन्म के
करीब सरक रहे
हैं। फिर आपको
एक दिन वह भी
याद आ जाएगी, जिस दिन
आपका जन्म
हुआ। फिर उसको
पकड़कर
ध्यान करते
रहें रात सोते
वक्त, और
तब आपको मां
के पेट की याद
आनी शुरू हो
जाएगी। और तब
आपको
गर्भ-धारण की
याद आएगी। फिर
उसको पकड़ लें,
उस पर
प्रयोग करते
रहें। और तब
आपको पिछले
जन्म की
मृत्यु की याद
आएगी।
फिल्म
उलटी चलेगी
निश्चित ही, फिल्म उलटी
चलेगी। पिछले
जन्म की याद
में पहले
मृत्यु की याद
आएगी, फिर
आप बूढ़े होंगे,
फिर जवान
होंगे, फिर
बच्चे होंगे,
फिर जन्म
होगा। याद
उलटी होगी, जैसे फिल्म
की रील को हम
उलटा चला रहे
हों। इसलिए
पहचानने में
थोड़ी कठिनाई
होगी, वैसी
कठिनाई होगी
कि जैसे अगर
फिल्म को हम
उलटा चला दें
या किसी
उपन्यास को
उलटा पढ़ना
शुरू करें, तो कठिनाई
हो। लेकिन अगर
दो-चार दफे
पढ़ें, तो
उलटे पढ़ने का
भी अभ्यास हो
जाएगा। और एक
दफा उलटा पढ़
लें, तो
फिर सीधा भी
पढ़ सकते हैं।
पहली
दफा बहुत
कठिनाई होगी, क्योंकि कुछ
समझ में नहीं
आएगा।
उलटा-उलटा लगेगा
सब। कैसा उलटा
नहीं हो
जाएगा! पहले
मरेंगे, फिर
बूढ़े होंगे, कठिनाई
मालूम पड़ेगी।
फिर जवान
होंगे, बहुत
कठिनाई मालूम
पड़ेगी। फिर
बच्चे होंगे,
बहुत
कठिनाई मालूम
पड़ेगी। सब
उलटा होगा।
लेकिन
एक बार स्मृति
आ जाए, तो
कृष्ण जो कह
रहे हैं, औरों
में आपकी
गिनती न रह
जाएगी। और औरों
में गिनती न
रह जाए, यही
लक्ष्य है।
औरों में
गिनती रही आए,
तो जीवन
व्यर्थ है।
यदा
यदा हि
धर्मस्य ग्लानिर्भवति
भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं
सृजाम्यहम्।।
7।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय
संभवामि युगे
युगे।। 8।।
हे भारत!
जब-जब धर्म की
हानि और अधर्म
की वृद्धि होती
है, तबत्तब ही मैं अपने
रूप को रचता
हूं,
अर्थात
प्रकट करता
हूं।
साधु
पुरुषों का
उद्धार करने
के लिए और
दूषित कर्म
करने वालों का
नाश करने के
लिए तथा धर्म स्थापन
करने के लिए
युग-युग में
प्रकट होता हूं।
अंतिम
श्लोक की बात
कर लें, फिर
कल सुबह।
मैंने कहा, कृष्ण जैसे
लोग करुणा से
पैदा होते
हैं। वासना से
नहीं, करुणा
से। वासना और
करुणा का थोड़ा
भेद समझें, तो यह सूत्र
समझ में आ
जाएगा।
वासना
होती है स्वयं
के लिए, करुणा
होती है औरों
के लिए। वासना
का लक्ष्य होता
हूं मैं, करुणा
का लक्ष्य
होता है कोई
और। वासना
अहंकार केंद्रित
होती है, करुणा
अहंकार
विकेंद्रित
होती है। ऐसा
समझें कि
वासना मैं को
केंद्र बनाकर
भीतर की तरफ दौड़ती
है; करुणा
पर को परिधि
बनाकर बाहर की
तरफ दौड़ती है।
करुणा, जैसे फूल
खिले और उसकी
सुवास चारों
ओर बिखर जाए। करुणा
ऐसी होती है, जैसे हम
पत्थर फेंकें
झील में; वर्तुल
बने, लहर
उठे और दूर
किनारों तक
फैलती चली
जाए।
करुणा
एक फैलाव है, वासना एक सिकुड़ाव
है। वासना
संकोच है, करुणा
विस्तार है।
कृष्ण
कहते हैं, करुणा से; युगों-युगों
में जब धर्म
विनष्ट होता
है, तब
धर्म की पुनर्संस्थापना
के लिए; जब
अधर्म
प्रभावी होता
है, तब
अधर्म को विदा
देने के लिए
मैं आता हूं।
यहां
ध्यान रखें कि
यहां कृष्ण जब
कहते हैं, मैं आता हूं,
तो यहां वे
सदा ही इस मैं
का ऐसा उपयोग
कर रहे हैं कि
उस मैं में
बुद्ध भी समा
जाएं, महावीर
भी समा जाएं, जीसस भी समा
जाएं, मोहम्मद
भी समा जाएं।
यह मैं व्यक्तिवाची
नहीं है। असल
में वे यह कह
रहे हैं कि जब
भी धर्म के
जन्म के लिए
और जब भी
अधर्म के
विनाश के लिए
कोई आता है, तो मैं ही
आता हूं। इसे
ऐसा समझें, जब भी कहीं
प्रकाश के लिए
और अंधकार के
विरोध में कोई
आता है, तो
मैं ही आता
हूं। यहां इस
मैं से उस परम
चेतना का ही प्रयोजन
है।
जो भी
व्यक्ति अपनी
वासनाओं को
क्षीण कर लेता
है, तब वह
करुणा के कारण
लौट आ सकता है;
युगों-युगों
में, कभी
भी, जब भी
जरूरत हो उसकी
करुणा की, कोई
लौट आ सकता
है। उस
व्यक्ति का
कोई नाम नहीं
रह जाता, कि
वह कौन है।
क्योंकि सब
नाम वासनाओं
के नाम हैं। जब
तक मेरी वासना
है, तब तक
मेरा नाम है, तब तक मेरी
एक आइडेंटिटी
है।
इसलिए
कृष्ण मुझसे
नहीं कह सकते
कि तुम कृष्ण हो।
लेकिन अगर
मेरे भीतर कोई
वासना न रह
जाए, निर्वासना
हो जाए, तो
कोई अहंकार भी
नहीं रह जाएगा,
मेरा कोई
नाम भी नहीं
रह जाएगा। तब
मेरा जन्म भी
कृष्ण का ही
जन्म है। अगर
आपके भीतर कोई
वासना न रह जाए,
तो आपका
जन्म भी कृष्ण
का ही जन्म
है।
असल
में ठीक से
समझें, तो
हमारी अशुद्धियां,
हमारे
व्यक्तित्व
हैं। और जब हम
शुद्धतम रह जाते
हैं, तो
हमारा कोई
व्यक्तित्व
नहीं रह जाता।
इसलिए कहीं भी
कोई पैदा हो...।
मोहम्मद
ने कहा है कि
मुझसे पहले भी
आए परमात्मा
के भेजे हुए
लोग और
उन्होंने वही
कहा। उनके ही
वक्तव्य को
पूरा करने मैं
भी आया हूं।
जब
जीसस का जन्म
हुआ, तो सारी
दुनिया से
बुद्धिमान
लोग जीसस के
गांव पहुंचे,
बड़ी हजारों
मील की यात्रा
करके।
क्योंकि जो भी
इस पृथ्वी पर बुद्धिमान
थे और जानते
थे, उनको
तत्काल अनुभव
हुआ कि कोई
करुणा से
प्रेरित
आत्मा फिर
जन्म गई। इसकी
ध्वनियां उन
तक पहुंचीं,
इसकी लहरें
उन तक पहुंचीं।
जब
बुद्ध का जन्म
हुआ, तो
हिमालय से एक
महायोगी उतरकर
बुद्ध के गांव
आया। बुद्ध के
द्वार पर खड़ा
हुआ। बुद्ध के
पिता बुद्ध को
लेकर योगी के
चरणों में रख
दिए और कहा कि
आशीर्वाद दें,
शुभ वचन
कहें, शुभ
कामनाएं
करें। लेकिन
वह योगी रोने
लगा। तो बुद्ध
के पिता बहुत
चिंतित हुए।
उन्होंने कहा,
कोई अपशगुन
है? आप
रोते हैं! उस
योगी ने कहा, मेरे रोने
का कारण दूसरा
है। अपशगुन
नहीं, महाशगुन है। मैं
रोता हूं
इसलिए कि उस
आदमी का जन्म
हुआ फिर, जिसकी
कोई वासना
नहीं है, जो
करुणा से आया
है। लेकिन मैं
उसके चरणों
में बैठने से
वंचित रह जाऊंगा,
क्योंकि
मेरी तो मौत
की घड़ी करीब आ
रही है। उसके
लिए नहीं रोता,
अपने लिए
रोता हूं।
क्योंकि ऐसी
चेतना जन्मी है,
उसी को
खोजते मैं
हिमालय से
यहां तक आया
हूं।
जब भी
कोई महाकरुणावान
चेतना पृथ्वी
पर उतरती है, तो जिनके
हृदय भी
पवित्र हैं, उनके हृदयों
में कंपन शुरू
हो जाते हैं।
उन तक खबरें
पहुंच जाती
हैं। वह लहर, वह झील पर पड़ा
हुआ पत्थर उन
तक लहरें ले
जाता है। वे
उस ध्वनि तरंग
को समझ पाते
हैं, वे
भागे हुए चले
आते हैं।
रोने
लगा वह
महायोगी।
उसने कहा, दुखी हूं, क्योंकि मैं
मर जाऊंगा।
मेरी तो मौत
करीब आ गई, और
मैं बुद्ध के
चरणों में न
बैठ पाऊंगा।
अभी ही
नमस्कार कर
लेता हूं। उस
बच्चे के
पैरों में सिर
रखकर वह योगी
चला गया।
जब
कृष्ण कहते
हैं, तो आमतौर
से लोग भूल
समझ लेते हैं।
वे समझ लेते
हैं कि अगर आज
अधर्म होगा, दुष्ट होंगे,
साधु कष्ट
में होंगे, तो कृष्ण
लौट आएंगे।
कृष्ण नहीं
लौटेंगे। जो भी
लौटेगा, वही
कृष्ण है।
कृष्ण कोई
व्यक्ति नहीं
है। जहां भी
कोई लौटेगा, वही कृष्ण
है। लेकिन जब
भी जरूरत होती
है, अंधेरा
घना होता है, तो कोई
प्रकाश किरण
लौट आती है।
क्यों लौट आती
है? करुणा
के कारण।
जरूरत हो तो
ही लौटती है, अन्यथा कोई
जरूरत नहीं।
आपके
घर में कोई
बीमार हो तो
डाक्टर आता है, न हो तो कोई जरूरत
नहीं। अंधेरा
हो तो ठीक, अंधेरा
न हो तो कोई
जरूरत नहीं।
अगर पिछली पीढ़ी
में ऐसी
आत्माएं मरी
हों जो कि
वासना से मुक्त
हो गई हों, लेकिन
पृथ्वी पर कोई
जरूरत न हो, तो वे न
लौटेंगी।
लेकिन अगर
जरूरत हो, तो
लौट आ सकती
हैं।
जरूरत
सदा है। अब तक
तो ऐसा कोई
समय नहीं आया, जब जरूरत न
रही हो। जरूरत
सदा है।
पृथ्वी सदा ही
अंधेरे से भरी
है। पृथ्वी
सदा ही अधर्म
से भरी है।
लौटना ही पड़ता
है। लेकिन
लौटने का प्रयोजन
स्वयं की कोई
वासना नहीं
है। लौटने का
प्रयोजन
दूसरों पर
करुणा है।
इस
करुणा के दो
कारण
उन्होंने कहे, असाधुओं के विनाश के
लिए, दुष्टों
के विनाश के
लिए; साधुओं
के उद्धार के
लिए। ये जरा
कठिन हैं दोनों
बातें।
इन्हें
थोड़ा-सा खयाल
में ले लेना
जरूरी है।
दुष्टों
के विनाश के
लिए! क्या
दुष्टों की
हत्या कर
देंगे? मार
डालेंगे
दुष्टों को? तब तो खुद ही
दुष्ट हो
जाएंगे। फिर
वह करुणा न
हुई।
दुष्टों
के विनाश का
क्या अर्थ
होता है? दुष्टों
के विनाश का
एक ही अर्थ
होता है कि दुष्टों
में दुष्टता न
रह जाए, तो
दुष्टों का
विनाश हो जाता
है। दुष्टों
के विनाश का
अर्थ यह नहीं
कि तलवार से
दो टुकड़े कर देंगे।
क्योंकि
तलवार से दो
टुकड़े करने
में दुष्ट का
तो कुछ विनाश
न होगा, जिसने
विनाश किया वह
भी दुष्ट हो
जाएगा। दुष्ट
के विनाश का
क्या अर्थ है?
दुष्ट के
विनाश का अर्थ
है, दुष्ट
की दुष्टता खो
जाए। दुष्टता
मिट जाए, तो
ही दुष्ट का
विनाश हुआ।
साधुओं
के उद्धार के
लिए! यह और
कठिन बात है।
साधु का तो
अर्थ ही यही
है कि जिसके
उद्धार की
किसी को जरूरत
न हो। साधु
अगर अपना
उद्धार न कर
सके, तो साधु
कैसा? दुष्ट
न कर सके, समझ
में आता है।
कृष्ण कहें कि
दुष्टों के
उद्धार के लिए,
चलेगा।
लेकिन कृष्ण
कहते हैं, दुष्टों
के विनाश के
लिए और साधुओं
के उद्धार के
लिए। तो
साधारणतः हम
सोचते हैं, शायद साधुओं
को दुष्ट
सताते होंगे,
तो उनके
उद्धार के
लिए।
साधु
बड़ा कमजोर है, अगर दुष्ट
उसे सता पाए।
असल में दुष्ट
अगर साधु को सताए, तो
दुष्ट को ही
बदलना पड़ता है;
साधु को
नहीं बदलना
पड़ता। दुष्ट
साधु को सताकर
अपनी ही
बदलाहट के
उपाय में लग
रहा है। साधु
को नहीं सता
पाता।
साधु
को दुनिया में
कोई भी नहीं
सता पाता। और अगर
साधु को दुष्ट
सता पाते हैं, तो साधु के
नाम से दूसरे
ढंग के दुष्ट
ही बैठे होंगे,
अन्यथा
नहीं। साधु
नहीं होंगे।
साधु को सताने
का उपाय नहीं
है। इसलिए भी
उपाय नहीं है
कि साधु का
मतलब ही यही
है कि जिसे अब
सताओ और चाहे
सम्मान करो, दोनों बराबर
हो गए। उसे सताओगे
कैसे? उसे
जूते की माला
पहना दो कि
फूल की माला
पहना दो, वह
दोनों के लिए
धन्यवाद देकर
अपने रास्ते
पर चल पड़ेगा।
साधु को सताने
का उपाय नहीं
है। जिसे हम
नहीं सता सकते,
वही साधु
है।
फिर यह
कृष्ण कहते
हैं, साधु के
उद्धार के
लिए! और यह भी
बड़े मजे की
बात है कि जिस
युग में साधु
हों, उसमें
भी दुष्टों को
साधु न सुधार
पाएं और कृष्ण
को आना पड़े, तो साधु
बिलकुल
नपुंसक हैं, इम्पोटेंट हैं। फिर
साधु किसलिए
हैं?
नहीं; जिस युग में
दुष्ट होते
हैं, उस
युग में साधु
भी साधु नहीं
होते। असल में
दुष्टता से भरे
हुए युग
दुष्टों के
युग होते हैं
और पाखंडी
साधुओं के युग
होते हैं।
साधु के
उद्धार के लिए
अर्थात पाखंड
से उद्धार के
लिए।
और मजा
यह है कि
दुष्ट का
विनाश करना
पड़ता है। क्योंकि
दुष्टता कुछ
है, जिसका
विनाश किया जा
सके। पाखंड
कुछ है नहीं, जिसका विनाश
किया जा सके।
पाखंड से
सिर्फ उद्धार
किया जा सकता
है। दुष्टता
का विनाश किया
जा सकता है।
दुष्टता का पाजिटिव
अर्थ है।
पाखंड सिर्फ
एक चेहरा है, जिससे
उद्धार किया
जा सकता है।
जिसे उतारकर
रख दिया नीचे,
तो पीछे का
आदमी प्रकट हो
जाता है।
साधु
के उद्धार के
लिए और दुष्ट
के विनाश के लिए!
और जिस युग
में साधु नहीं
होते, उस
युग में दुष्ट
होते हैं।
लेकिन साधु
सदा होते हैं,
तो फिर साधु
पाखंडी होते
हैं।
पाखंडी
साधु के
उद्धार के
लिए! अन्यथा
साधु अगर सच
में साधु है, तो कृष्ण से
कहेगा, क्षमा
करें। आप कष्ट
न करें, मैं
उद्धार कर
लूंगा। अपना
उद्धार तो कर
ही लूंगा।
आपको नाहक
कष्ट न दूंगा।
आप क्यों
परेशान होते
हैं!
अगर
साधु सच में
साधु होगा, तो दुष्ट
उसे दुश्मन
नहीं मालूम
पड़ेगा। दुष्ट
उसे सताता हुआ
भी मालूम नहीं
पड़ेगा। लेकिन
साधु के भीतर
भी दुष्ट ही
छिपा रहता है।
फर्क, साधु
और दुष्ट के
बीच, चेहरों
का होता है।
और इस अर्थ
में दुष्ट
कहीं ज्यादा
ईमानदार, और
साधु कहीं
ज्यादा
बेईमान होता
है।
बेईमानी
से उद्धार
करना पड़े।
धर्म का जब
विनाश होता है, तो साधु
होंगे कहां? क्योंकि अगर
साधु होंगे, तो धर्म का
विनाश कैसे
होगा? धर्म
का विनाश तभी
होता है, जब
साधु नहीं
होते। जब साधु
नहीं होते, तभी धर्म का
विनाश होता
है। और जब
धर्म का विनाश
होता है, तभी
अधर्म
प्रभावी होता
है।
मैं एक
सभा में था।
एक बड़े साधु करपात्री
जी बोले।
बोलने के बाद
उन्होंने
जनता से कुछ नारे
लगवाए।
उन्होंने
पहला नारा
लगवाया, धर्म
की जय हो। तीन
बार लोग
चिल्लाए, धर्म
की जय हो। फिर
पीछे
उन्होंने
नारा लगवाया,
अधर्म का
नाश हो।
मैंने
उनके साथ बैठे
साधु से कहा, जब धर्म की
जय हो गई, तो
अधर्म बचेगा
कैसे? धर्म
की जय हो गई, अधर्म का
नाश हो गया।
यह तो ऐसे ही
हुआ कि लोगों
से हम कहें कि
दीए जलाओ, और
फिर कहें, अंधेरा
हटाओ।
दोनों बातें
बेमानी हैं।
दीया जल गया, तो बात खतम
हो गई। जब
धर्म की जय हो
गई तीन बार, अब कृपा
करके अधर्म का
नाश मत
करवाएं।
अधर्म नाश हो
गया। और अगर
धर्म की जय से
नाश नहीं हुआ,
तो अधर्म के
नाश के नारे लगाने
से नाश होने
वाला नहीं है।
धर्म
नहीं होता, क्योंकि
धर्म के लिए
भी पृथ्वी पर
पैर रखने की
जगह चाहिए।
धर्म को भी
पृथ्वी पर पैर
रखने की जगह
चाहिए। वह जगह
साधुओं के
हृदय हैं। अगर
साधु न हों, तो धर्म को
पैर रखने की
जगह नहीं
मिलती। धर्म तब
अटक जाता है, त्रिशंकु हो
जाता है, आकाश
में भटक जाता
है।
धर्म
को पैर रखने
के लिए साधुओं
के हृदय चाहिए, अधर्म को
पैर रखने के
लिए असाधुओं
के हृदय
चाहिए। अधर्म
भी खड़ा नहीं
हो सकता; अधर्म
भी हमारे
सहारे खड़ा
होता है, हमारे
सहारे प्रकट
होता है। धर्म
भी हमारे सहारे
प्रकट होता
है। साधु हों,
तो धर्म
होता है, उसके
लिए सहारे
होते हैं।
असाधु हों, अधर्म होता
है, उसके
लिए सहारे
होते हैं। और
जब अधर्म होता
है, दुष्ट
होते हैं; साधु
नहीं होते, धर्म नहीं
होता; तो
कृष्ण कहते
हैं कि मैं, अर्थात कोई
भी चेतना जो
अपनी सब
वासनाओं से मुक्त
हो जाती है, लौट आती है करुणावश--साधुओं
के उद्धार के
लिए, असाधुओं के विनाश के
लिए।
शेष
कल सुबह हम
बात करेंगे।
गीता दर्शन भाग १ कृपया उय्प्लाब्ध कराएं
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