दिनांक
1 दिसंबर, 1976;
श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
अष्टावक्र
उवाच--
कृतार्थोउनेन
ज्ञानेनेत्येवं
गलितधी कृती।
यश्यंच्छण्वमृशजिं
घ्रन्नश्नब्रास्ते
यथासुखम्।। 164।।
शून्य
द्वष्टिर्वृथर
चेष्टा
विकलानीन्द्रियाणि
न।
न
सहा न विरक्तिर्वा
क्षीण संसार
सागरे।। 165।।
न
जागर्ति न
निद्राति
नोन्यीलति न
मीलति।
अहो
यरदशा क्यायि
वर्तते
मुक्तचेतस।।
166।।
सर्वत्र
दुश्यते
स्वस्थ:
सर्वत्र
विमलाशय।
समस्तवासनामुक्तो
मुक्त:
सर्वत्र
सजते।। 167।।
पश्यंच्छण्वनव्यूर्शाब्ज
घ्रन्नश्नत्राह्यन्वदन्वव्रजन्।
र्ड़हितानीहितैर्म?क्तो
मुक्त एव
महाशय:।। 168।।
न
निन्दति न न
स्तौति न
हष्यति न
कष्यति।
कताथोंउनेन
ज्ञानेनेत्येवं
गलितधी कृती
पश्यंच्छृण्वन्स्पृशजिं
घ्रब्रश्नत्रास्ते
यथासुखम्।’
इस
ज्ञान से कृतार्थ
अनुभव कर गलित
हो गयी है
बुद्धि जिसकी, ऐसा
कृतकार्य
पुरुष देखता
हुआ, सुनता
हुआ, स्पर्श
करता हुआ, सूंघता
हुआ, खाता
हुआ, सुखपूर्वक
रहता है।’
यह
जो ज्ञान है
कि मैं साक्षी
हूं यह जो बोध
है कि मैं
कर्ता नहीं
हूं—यही
कृतार्थ कर
जाता है। बड़ा
विरोधाभासी
वक्तव्य है।
क्योंकि
कृतार्थ का तो
अर्थ होता है—करके
जो तृप्ति
मिलती है; कृति
से जो अर्थ
मिलता; कुछ
कर लिया। एक
चित्रकार ने
चित्र बनाया;
चित्र बन
गया, तो जो
तृप्ति होती
है। कृतार्थ
का तो अर्थ
ऐसा है. तुम एक
भवन बनाना
चाहते थे, बना
लिया। उसे देख
कर
प्रफुल्लित होते
हो कि जो करना
चाहा था कर
लिया, हजार
झंझटें थीं, रुकावटें
थीं, बाधाएं
थीं—पार कर
गये, विजय
मिली, वासना
पूरी हुई।
तो
कृतार्थ शब्द
का तो
साधारणत: ऐसा
अर्थ होता है
—करने से जो
सुख मिलता है।
अकृतार्थ वही
है जिसने किया
और न कर पाया; हारा,
पराजित हुआ,
गिर गया—तो
विषाद से भर
जाता है।
लेकिन
अष्टावक्र की भाषा
में, ज्ञानियों
की भाषा में
कृतार्थ वही
है जिसने यह
जाना कि कर्ता
तो मैं हूं ही
नहीं। जो कर्ता
बन कर ही
दौड़ता रहा वह
लाख कृतार्थ
होने की धारणाएं
कर ले—कभी
कृतार्थ होता
नहीं। एक चीज
बन जाती है, दूसरी को
बनाने की
वासना पैदा हो
जाती है। एक
वासना जाती
नहीं, दस
की कतार खड़ी
हो जाती है।
एक प्रश्न
मिटता नहीं पू
दस खड़े हो
जाते हैं। एक
समस्या से जूझे
कि दस
समस्याएं
मौजूद हो जाती
हैं। इसे कहा
है
संसार—सागर।
लहर पर लहर
चली आती है।
तुम एक लहर से
जूझो, किसी
तरह एक को शात
करो, दूसरी
आ रही है।
लहरों का अनंत
जाल है। इस
भांति तुम जीत
न सकोगे।
एक—एक
समस्या से लड़
कर तुम कभी
जीत न
सकोगे—यह बहुमूल्य
सूत्र है।
साधारणत:
मनुष्य की
बुद्धि ऐसा
सोचती है, एक—एक
समस्या से
सुलझ लें।
मेरे
पास लोग आते
हैं। कोई कहता
है,
क्रोध की
बड़ी समस्या है;
क्रोध को
जीत लूं तो बस
सब हो गया।
कोई कहता है, कामवासना से
पीड़ित हूं
जाती नहीं; उम्र भी गयी,
देह भी गयी,
लेकिन
वासना
अभी भी
मंडराती है, बस
इससे छुटकारा
हो जाये तो
मुझे कुछ नहीं
चाहिए। कोई
लोभ से पीड़ित
है, कोई
मोह से पीड़ित
है, किसी
की और
समस्याएं
हैं। लेकिन
अधिकतर ऐसा
होता है कि जब
भी कोई एक
समस्या लेकर
आता है तो वह
एक खबर दे रहा
है—वह खबर दे रहा
है कि वह
सोचता है
समस्या एक है।
एक दिखाई पड़
रही है अभी, पीछे लगी
कतार तुम्हें
तभी दिखाई
पड़ेगी जब यह एक
हल हो जाये।
क्यू लगा है।
तो तुम किसी
तरह क्रोध को
हल कर लो, तो
तुम अचानक
पाओगे कि कुछ
और पीछे खड़ा
है। क्रोध ने
नया रूप ले
लिया, नया
ढंग ले लिया।
पश्चिम
में मनस्विद
इसी चेष्टा
में संलग्न हैं.
एक—एक समस्या
को हल कर लो।
जैसे कि
समस्याएं अलग—
अलग हैं! वैसी
दृष्टि ही गलत
है। सब समस्याएं
इकट्ठी जुड़ी
हैं—एक जाल
है। देखा मकड़ी
का जाला? एक
धागे को हिला
दो, पूरा
जाल हिलता है!
ऐसा समस्याओं
का जाल है, संयुक्त
है। क्रोध लोभ
से जुड़ा है, लोभ मोह से
जुड़ा है, मोह
काम से जुड़ा
है—सब चीजें
संयुक्त हैं।
तुम एक को हल न
कर पाओगे। एक
को हल करने
चलोगे, कभी
न हल कर पाओगे,
क्योंकि
अनेक हैं समस्याएं;
एक—एक करके
चले, कभी
हल न होगा। यह
तो ऐसा ही
होगा जैसे कोई
चम्मच—चम्मच
पानी सागर से
निकाल कर सागर
को खाली करने
की चेष्टा
करता हो। यह
तो तुमने बहुत
छोटा मापदंड
ले लिया। इस
विराट को तुम
हल न कर पाओगे।
इसलिए
पूरब ने एक
नयी दृष्टि
खोजी. क्या
कोई ऐसा उपाय
है कि हम सारी
समस्याओं को
एक झटके में
समाप्त कर
दें। इंच—इंच
नहीं, टुकड़ा—टुकड़ा
नहीं, पूरी
समस्या को हल
कर दें।
समस्या मात्र
उखड़ जाये। लहर
से न लड़े; उस
हवा को ही
बहना बंद कर
दें, जिसके
कारण हजारों
लहरें उठती
हैं। वही सूत्र
है साक्षी का.
तुम समस्याओं
को हल मत करो; तुम
समस्याओं के
पीछे खड़े हो
जाओ। तुम बस
देखो।
तुम्हारी
दृष्टि अगर
थिर हो गयी तो
समस्याएं गिर
जायेंगी।
क्योंकि
समस्याएं
पैदा होती हैं
तुम्हारी
दृष्टि की
अथिरता से।
तुम्हारी
दृष्टि का
कंपन ही
समस्याओं को
पैदा करता है।
तो
गहरे में एक
ही समस्या है
कि तुम अंधे
हो। गहरे में
एक ही समस्या
है कि तुम्हारी
दृष्टि थिर
नहीं। गहरे
में एक ही
समस्या है कि
तुम्हारी आंखों
में अंधेरा है, या
तुमने पलक
खोलने की कला
नहीं सीखी। उस
एक को हल कर
लो।
तो
पूरब में हम
कहते हैं. 'एक
साधे सब सधे, सब साधे सब
जाये।’ यह
सदियों की अनुभूति
का निचोड़ है
इन सीधे—सादे
वचनों में : एक
साधे सब सधे, सब साधे सब
जाये। तो तुम
खंड—खंड मत
साधना, नहीं
तो कभी जीत न
पाओगे; पत्ती—पत्ती
मत काटना, अन्यथा
वृक्ष कभी
गिरेगा नहीं।
जड़ को काट डालना।
जड़ है अहंकार।
जड़ है
तादात्म्य।
जड़ है इस बात
में कि मैंने
मान रखा है कि
मैं देह हूं
जो कि सच
नहीं। मैं देह
नहीं हूं।
मैंने मान रखा
है कि मैं मन
हूं जो कि सच
नहीं है। इन
झूठों की
मान्यताओं के
कारण फिर हजार
झूठी की कतार
खड़ी हो गयी
है। तुम मूल
झूठ को हटा लो,
तुम
आधारशिला को
खींच लो—यह
ताशों का भवन
जो खड़ा है, तत्क्षण
गिर जायेगा।
तुम आधार से
जूझ लो। तुम
अनेक से मत लड़ो।
यह अनेक
गुरियों के
बीच पिरोया
हुआ एक ही धागा
है। तुम एक—एक
गुरिये से सिर
मत मारो। तुम
उस एक धागे को
खींच लो, यह
माला बिखर
जायेगी। यह
माला बचेगी
नहीं। और तुम
एक—एक गुरिये
से लड़ते रहे
और भीतर का
धागा मजबूत
रहा, तो
तुम जीत न
पाओगे।
गुरिये अनंत
हैं। तुम्हारी
सीमा है।
तुम्हारा समय
है। तुम्हारी
क्षमता...।
गुरिये अनंत
हैं।
क्या—क्या हल
करोगे? मनुष्य—जाति
हल करने में
लगी है।
दुनिया
में दो ही तरह
के लोग हैं।
एक,
जो
समस्याओं को
अलग—अलग हल कर
रहे हैं; और
एक, जो समस्याओं
के मूल के
प्रति जाग रहे
हैं। जो मूल
के प्रति
जागता है, जीत
जाता है। देख
लो खड़े हो कर।
जरा भी चुनाव
मत करो। क्रोध
है—सही, रहने
दो; तुम
दूर खड़े हो कर
क्रोध को
देखने वाले बन
जाओ। कभी
द्रष्टा का
थोड़ा स्मरण
करो। काम है, लोभ
है—द्रष्टा का
स्मरण करो।
तुम चकित
होओगे। तुम
धन्य— भाव से
भर जाओगे।
जैसे ही तुम
क्रोध को गौर
से देखोगे, क्रोध जाने
लगा।
तुम्हारे
देखते—देखते
क्रोध का धुआ
विलीन हो जाता
है और अक्रोध
की परम शाति
छूट जाती है।
तुम्हारे
देखते—देखते
वासना कहां खो
गयी, पता
नहीं चलता—और
एक निर्वासना
का रस बहने लगता
है।
'साक्षी के
ज्ञान से
कृतार्थ
अनुभव कर गलित
हो गयी है
बुद्धि जिसकी......।’
यह
शब्द 'गलितधी:'
बड़ा
महत्वपूर्ण
है। यह ध्यान
की परिभाषा
है। यह
अनिर्वचनीय
का निर्वचन
है। जो नहीं
कहा जा सकता
है, उसकी
तरफ बड़ा गहरा
संकेत है।
गलितधी:
—जिसकी बुद्धि
गल गयी। ध्यान
यानी गलितधी:
—जिसकी बुद्धि
गल गयी।
बुद्धि
क्या है? सोच—विचार,
ऊहापोह, प्रश्न—उत्तर,
चिंतन—मनन,
तर्क—वितर्क,
गणित— भाग।
बुद्धि का
अर्थ है : मैं
हल कर लूंगा।’बुद्धि गल
गयी' का
अर्थ है. मेरे
हल किये हल
नहीं होता है।
सच तो यह है
जितना मैं हल
करना चाहता
हूं उतना
उलझता है।
मेरे हल करने
से हल तो होता
ही नहीं; मेरे
हल करने से ही
उलझन बढ़ी जा
रही है।
गलितधी:
का अर्थ है कि
मैं अपने को
हटा लेता हूं; मैं
हल न करूंगा; जो है, जैसा
है, रहने
दो। मैं बीच
से हटा जाता
हूँ। और
चमत्कार घटित
होता है.
तुम्हारे
हटते ही सब हल
हो जाता है।
क्योंकि
मौलिक रूप से
तुम्हीं कारण
हो उलझाव के।
कभी
तुमने देखा कि
जिस समस्या के
साथ तुम जुड़ जाते
हो वहीं हल
मुश्किल हो
जाता है!
ऐसा
समझो, किसी
डाक्टर की
पत्नी बीमार
है। आपरेशन
करना है। बड़ा
सर्जन है
डाक्टर, लेकिन
अपनी पत्नी का
आपरेशन न कर
सकेगा। क्या अड़चन
आ गयी? न
मालूम कितनी
स्त्रियों का
आपरेशन किया
है! कभी हाथ न
कंपे। अपनी
पत्नी को टेबल
पर लिटाते ही
हाथ कंपते
हैं। क्यों? अपनी है! जुड़
गया। एक
तादात्म्य बन
गया : 'यह
स्त्री मेरी
पत्नी है, कहीं
मर न जाए! कहीं
भूल—चूक न हो
जाए! आखिर मैं
आदमी ही हूं!
बचा पाऊंगा, न बचा
पाऊंगा।’ दूसरी
स्त्रियों के
आपरेशन किए थे,
तब ये सब
बातें नहीं
थीं। तब वह
शुद्ध सर्जन था।
तब कोई
तादात्म्य न
था। तब बड़ी
तटस्थता थी।
तब वह सिर्फ
अपना काम कर
रहा था। कुछ
लेना—देना न
था। बचेगी न
बचेगी, बच्चों
का क्या होगा,
क्या नहीं
होगा—यह सब
कोई चिंता न
थी। वह बाहर
था। उसने अपने
को जोड़ा नहीं
था। इस पत्नी
के साथ उसने
अपने को जोड़
लिया 'यह
मेरी है।’ बस,
यह मेरे के
भाव ने समस्या
खड़ी कर दी।
तो
बड़े से बड़े
सर्जन को भी
अपने बच्चे या
अपनी पत्नी का
आपरेशन करना
हो,
तो किसी और
सर्जन को
बुलाना पड़ता
है, चाहे
नंबर दो के
सर्जन को
बुलाना पड़े, उससे कम
हैसियत का हो
सर्जन; लेकिन
खुद हट जाना
पड़ता है, क्योंकि
तादात्म्य
है।
जिस
चीज से तुम
जुड़ जाते हो
वहीं समस्या
खड़ी हो जाती
है। जिस चीज
से तुम हट
जाते हो वहीं
समस्या हल हो
जाती है। इसे
तुम अपने जीवन
में पहचानना, परखना।
जहां समस्या
खड़ी हो, वहा
गौर से देखना।
तुम जुड़ गए
हो। जरा
छिटको। जरा
अलग होओ। इस
अलग हो जाने
का नाम ही
साक्षी है। और
जुड़ कर फिर
तुम हल करना
चाहते हो!
आदमी की बड़ी
सीमा है। जगत
विराट है।
समस्या बड़ी
है। और हमारे
पास बड़ी छोटी
बुद्धि है। है
ही क्या हमारे
पास बुद्धि के
नाम पर? कुछ
विचारों का
संग्रह। इसी
के आधार पर हम
जीवन की इस
महालीला को हल
करने चले हैं।
ऐसा
समझो कि एक
चींटी आदमी के
जीवन को समझना
चाहे, तो तुम हंसोगे।
तुम कहोगे, पागल हो
जाएगी। ऐसा
समझो कि एक
चींटी गीता पर
सरक रही है और
गीता को समझने
की चेष्टा करना
चाहे, तो
तुम हंसोगे।
तुम कहोगे, पागल हो
जाएगी। लेकिन
अपनी तो सोचो।
हमारी हैसियत
इस विराट
विश्व पर
चींटी से कुछ
ज्यादा है? शायद चींटी
तो गीता को
समझ भी ले, क्योंकि
गीता और चींटी
में बहुत बड़ा
अंतर नहीं है।
अनुपात, बहुत
बड़ा भेद नहीं
है। लेकिन
हममें और
विराट विश्व
में तो अनंत
भेद है। इतना
विराट है यह विश्व
और हम इतने
छोटे हैं! हम
इससे ही नापने
चले हैं। हम
अपने
छोटे—छोटे
विचारों को
लेकर कल्पना
कर रहे हैं कि
जगत के रहस्य
को हल कर
लेंगे। यहीं
भूल हुई जा
रही है। हल तो
कुछ भी नहीं
होता, उलझन
बढ़ती जाती है।
हमने
जितना हल किया
है उतनी उलझन
बढ़ गयी है। एक
तरफ से हल करते
हैं,
दूसरी तरफ
से उलझन बढ़
जाती है।
पश्चिम
में एक नया आंदोलन
चलता है, इकॉलॉजी—कि
प्रकृति को
नष्ट मत करो, अब और नष्ट
कत करो।
हालांकि हमने
कोशिश की थी हल
करने की। हमने
डी डी टी.
छिड़का, मच्छर
मर जायें।
मच्छर ही नहीं
मरते, मच्छरों
के हटते ही वह
जो जीवन की
श्रृंखला है
उसमें कुछ टूट
जाता है।
मच्छर किसी
श्रृंखला के
हिस्से थे। वे
कुछ काम कर
रहे थे।
हमने
जंगल काट
डाले। सोचा कि
जमीन चाहिए, मकान
बनाने हैं।
लेकिन जंगल ही
काटने से जंगल
ही नहीं कटते,
वर्षा होनी
बंद हो गयी।
क्योंकि वे
वृक्ष बादलों
को भी
निमंत्रण देते
थे, बुलाते
थे। अब बादल
नहीं आते, क्योंकि
वृक्ष ही न
रहे जो
पुकारें। उन
वृक्षों की
मौजूदगी के
कारण ही बादल
बरसते थे, अब
बरसते भी नहीं;
अब ऐसे ही
गुजर जाते
हैं। हमने
जंगल काट डाले,
कभी हमने
सोचा भी नहीं
कि जंगल के
वृक्षों से
बादल का कुछ
लेना—देना
होगा। यह तो
बाद में पता
चला जब हम
जंगल साफ कर
लिये। अब वृक्षारोपण
करो।
जिन्होंने
वृक्ष कटवा
दिये वही कहते
हैं, अब
वृक्षारोपण
करो। अब वृक्ष
लगाओ, अन्यथा
बादल न
आयेंगे। हमने
तो सोचा था
अच्छा ही कर
रहे हैं; जंगल
कट जायें, बस्ती
बस जाये।
हमने
आदमी के जीवन
की अवधि को
बढ़ा लिया, मृत्यु—दर
कम हो गयी। अब
हम कहते हैं, बर्थ
—कंट्रोल करो।
पहले हमने
मृत्यु—दर कम
कर ली, अब
हम मुश्किल
में पड़े हैं, क्योंकि
संख्या बढ़
गयी। अब आदमी
बढ़ते जाते हैं,
पृथ्वी
छोटी पड़ती
जाती है। अब
ऐसा लगता है
अगर यह संख्या
बढ़ती रही तो
इस सदी के
पूरे होते —होते
आदमी अपने हाथ
से खतम हो
जायेगा।
तो
जिन्होंने
दवाएं ईजाद की
हैं और
जिन्होंने
आदमी की उम्र
बढ़ा दी है, पच्चीस—तीस
साल की औसत
उम्र को खींच
कर अस्सी साल
तक पहुंचा
दिया—इन्होंने
हित किया? अहित
किया? —बहुत
कठिन
है तय करना।
क्योंकि अब
बच्चे पैदा न
हों,
इसकी फिक्र
करनी पड़ रही
है। लाख उपाय
करोगे तो भी
झंझट मिटने
वाली नहीं है।
अब अगर बच्चों
को तुम रोक
दोगे तो
तुम्हें पता
नहीं है कि
इसका परिणाम
क्या होगा।
मेरे
देखे, अगर एक
स्त्री को
बच्चे पैदा न
हों तो उस
स्त्री में
कुछ मर
जायेगा। उसकी 'मां' कभी
पैदा न हो
पायेगी। वह
कठोर और क्रूर
हो जायेगी।
उसमें हिंसा
भर जायेगी।
बच्चे जुड़े हैं।
जैसे वृक्ष
बादल से जुड़े
हैं, ऐसे
बच्चे मां से
जुड़े हैं—और
भी गहराई से
जुड़े हैं। फिर
क्या परिणाम
होंगे, मां
को किस तरह की
बीमारियां
होंगी, कहना
मुश्किल है।
क्योंकि अब तक
स्त्रियां
अनेक बच्चे
पैदा करती रही
हैं, तो
हमें पता नहीं
है। अब हम
कहते हैं. 'दो
या तीन बस।’ अब यह 'दो
या तीन बस' कहने
पर स्त्री पर
क्या परिणाम
होंगे, इसका
हमें कुछ पता
नहीं। अभी हम
कहते हैं कि संतति—नियमन
की टिकिया ले
लो। यह टिकिया
स्त्री के
शरीर में क्या
परिणाम लायेगी,
इसका भी
हमें कुछ पता
नहीं है।
कितनी
स्त्रियां
पागल होंगी, कितनी
स्त्रियां
कैंसर से
ग्रस्त होंगी,
क्या
होगा—कुछ भी
नहीं कहा जा
सकता। अभी
हमें पता नहीं
है।
इंग्लैंड
में एक दवा
ईजाद हुई, जिससे
कि स्त्रियों
को बच्चे बिना
दर्द के पैदा
हो सकते हैं।
उसका खूब प्रयोग
हुआ। लेकिन
जितने बच्चे
उस दवा को
लेने से पैदा
हुए—सब अपंग, कुरूप, टेढ़े—मेढ़े.।
मुकदमा चला
अदालत में।
लेकिन तब तक
तो भूल हो गयी
थी; अनेक
स्त्रियां ले
चुकी थीं।
बिना दर्द के
बच्चे पैदा हो
गये, लेकिन
बिना दर्द के
बच्चे बिलकुल
बेकार पैदा हो
गये, किसी
काम के पैदा न
हुए। तब कुछ
खयाल में आया
कि शायद
स्त्री को जो
प्रसव—पीड़ा
होती है, वह
भी बच्चे के
जीवन के लिए
जरूरी है। अगर
एकदम आसानी से
बच्चा पैदा हो
जाये तो कुछ
गड़बड़ हो जाती
है। शायद वह
संघर्षण, वह
स्त्री के
शरीर से बाहर
आने की चेष्टा
और पीड़ा, स्त्री
को और बच्चे
को—शुभ
प्रारंभ है।
पीड़ा
भी शुभ
प्रारंभ हो
सकती है। अगर
फूल ही फूल रह
जायें जगत में
और काटे
बिलकुल न बचें, तो
लोग बिलकुल
दुर्बल हो
जायेंगे; उनकी
रीढ़ टूट
जायेगी, बिना
रीढ़ के हो
जायेंगे।
जीवन
ऐसा जुड़ा है
कि कहना मुश्किल
है कि किस बात
का क्या
परिणाम होगा!
कौन—सी बात
कहां ले
जायेगी! मकड़ी
का जाला, एक
तरफ से हिलाओ,
सारा जाला
हिलने लगता
है।
नहीं, आदमी
बुद्धि से
कहीं पहुंचा
नहीं। बुद्धि
के नाम से
जिसको हम
प्रगति कहते
हैं, वह
हुई नहीं। वहम
है। भ्रांति
है। आदमी पहले
से ज्यादा
सुखी नहीं हुआ
है, ज्यादा
दुखी हो गया
है। आज भी
जंगल में बसा
आदिवासी
तुमसे ज्यादा
सुखी है।
हालांकि तुम
उसे देख कर
कहोगे. 'बेचारा!
झोपड़े में
रहता है या
वृक्ष के नीचे
रहता है। यह
कोई रहने का
ढंग है? भोजन
भी दोनों जून
ठीक से नहीं
मिल पाता, यह
भी कोई बात है?
कपड़े—लत्ते
भी नहीं हैं, नंगा बैठा
है! दरिद्र, दीन, दया
के योग्य।
सेवा करो, इसको
शिक्षित करो।
मकान बनवाओ।
कपड़े दो। इसकी
नग्नता हटाओ।
इसकी भूख
मिटाओ।’ तुम्हारी
नग्नता और भूख
मिट गयी, तुम्हारे
पास कपड़े हैं,
तुम्हारे
पास मकान
हैं—लेकिन सुख
बढ़ा? आनंद
बढ़ा?: तुम
ज्यादा शात
हुए रूम तुम
ज्यादा
प्रफुल्लित
हुए? तुम्हारे
जीवन में
नृत्य आया? तुम गा सकते
हो, नाच
सकते हो? या
कि कुम्हला
गये और सड़ गये?
तो कौन—सी
चीज गति दे
रही है और
कौन—सी चीज
सिर्फ गति का
धोखा दे रही
है, कहना
मुश्किल है।
लेकिन
पूरब के
मनीषियों का यह
सारभूत
निश्चय है, यह
अत्यंत
निश्चय किया
हुआ
दृष्टिकोण है,
दर्शन है कि
जब तक बुद्धि
से तुम चलोगे
तब तक तुम
कहीं न कहीं
उलझाव खड़ा
करते रहोगे।
गलितधी.!
छोड़ो
बुद्धि को! जो
इस विराट को
चलाता है, तुम
उसके साथ
सम्मिलित हो
जाओ। तुम अलग—
थलग न चलो। यह
अलग— थलग चलने
की तुम्हारी
चेष्टा
तुम्हें दुख
में ले जा रही
है।
आदमी
कुछ अलग नहीं
है। जैसे पशु
हैं,
पक्षी हैं,
पौधे हैं, चांद—तारे
हैं, ऐसा
ही आदमी है—इस
विराट का अंग।
लेकिन आदमी अपने
को अंग नहीं
मानता। आदमी
कहता है : 'मेरे
पास बुद्धि
है।
पशु—पक्षियों
के पास तो बुद्धि
नहीं। ये तो
बेचारे विवश
हैं। मेरे पास
बुद्धि है।
मैं बुद्धि का
उपयोग करूंगा
और मैं जीवन
को ज्यादा
आनंद की दिशा
में ले
चलूंगा।’ लेकिन
कहां आदमी ले
जा पाया!
जितना आदमी
सभ्य होता है,
उतना ही
दुखी होता चला
जाता है।
जितनी शिक्षा बढ़ती,
उतनी पीड़ा
बढ़ती चली जाती
है। जितनी
जानकारी और
बुद्धि का
संग्रह होता है,
उतना ही हम
पाते हैं कि
भीतर कुछ खाली
और रिक्त होता
चला जाता है!
गलितधी:
का अर्थ है : इस
धारणा को ही
छोड़ दो कि हम अलग—
थलग हैं। हम
इकट्ठे हैं।
सब जुड़ा है।
हम संयुक्त
हैं। इस
संयुक्तता
में लीन हो
जाओ,
तो गलितधी। तो
तुमने बुद्धि
को जाने दिया।
यही ध्यान है।
बुद्धि के साथ
चलना तनाव
पैदा करना है।
बुद्धि को छोड़
कर चलने लगना
विश्राम में
हो जाना है।
'इस ज्ञान से
कृतार्थ
अनुभव कर गलित
हो गयी है बुद्धि
जिसकी, ऐसा
कृतकार्य
पुरुष देखता
हुआ, सुनता
हुआ, स्पर्श
करता हुआ, सूंघता
हुआ, खाता
हुआ, सुख—पूर्वक
रहता है।’
अष्टावक्र
कहते हैं : फिर
उसे न कुछ
छोड़ना है, न
कुछ पकड़ना है।
जो मिल जाता
है, स्वीकार
है। जो नहीं
मिलता तो नहीं
मिलना स्वीकार
है। जो होता
है, वह
होने देता है।
उसका जीवन सहज
हो जाता है।
इस
सूत्र को खयाल
में लेना।
तुम
जिनको साधु
कहते हो, उनको
साधु कहना
नहीं चाहिए, क्योंकि
उनका जीवन सहज
नहीं है।
तुम्हारा जीवन
असहज है, उनका
जीवन भी असहज
है। तुम्हारा
जीवन एक दिशा में
असहज है, उनका
जीवन दूसरी
दिशा में। तुम
ज्यादा खा लेते
हो, वे
उपवास कर लेते
हैं। मगर
दोनों में कोई
भी सहज नहीं। तुम
जब टेबल पर
बैठे हो भोजन
करने तो तुम
भूल ही जाते
हो कि शरीर अब
कह रहा कि 'कृपा
करो, रुको,
अब ज्यादा
हुआ जाता है।
अब स्थान और
नहीं है पेट
में। अब मत
लो। अब तो
पानी पीने को
भी जगह न रही।’
लेकिन तुम
खाये चले जा
रहे हो। सुनते
ही नहीं। असहज
हो। फिर तुमसे
विपरीत
तुम्हारा
साधु है। साधु
तुमसे विपरीत
का ही नाम है।
तुम एक भूल कर
रहे हो, वह
विपरीत भूल
करता है। वह
बैठा है आसन
जमाये। वह
कहता है, भोजन
करेंगे नहीं,
आज उपवास
है। शरीर कहता
है, भूख
लगी है, पेट
में आग पड़ती
है। पर वह
नहीं सुनता।
वह कहता है. 'मैं शरीर
थोड़े ही हूं।
मैं तो शरीर
का विजेता हो
रहा हूं। मैं जीत
कर रहूंगा।
यहीं तो मेरा
सारा अहंकार
दाव पर लगा है
कि कौन जीतता
है—शरीर जीतता
है कि मैं
जीतता!' यह
भी असहज हो
गया। एक का
शरीर कह रहा
था, बस करो
और उसने बस न
की। और एक का
शरीर कह रहा
था, थोड़ी
कृपा करो, भूख
लगी है, जल्दी
पानी ले आओ, कुछ रोटी
मांग लाओ। वह
कहता है, नहीं
जायेंगे।
अपनी जिद पर
अड़ा है। एक ने
ज्यादा खाने
की जिद की थी, एक ने न खाने
की जिद कर
ली—दोनो हठी
हैं। दोनों में
कोई भी सहज
नहीं। दोनों
असहज हैं।
लेकिन
साधु तुम्हें
सहज मालूम
पड़ता है, क्योंकि
तुम समझ नहीं
पा रहे हो कि
असहज का अर्थ
क्या होता है।
साधु तुम्हें
संयमी मालूम
पड़ता है। तुम्हें
संयम का अर्थ
नहीं मालूम।
संयम का अर्थ होता
है—संतुलित, मध्य में, अति पर जो
नहीं गया।
संतुलित आदमी
तो तुम्हें साधु
ही न मालूम
पड़ेगा। जब तक
अति पर न जाये
तब तक तुम्हें
दिखाई ही न
पड़ेगा। तुम
अति की ही
भाषा समझते
हो। अगर संयमी
आदमी हो—जैसा
मैं संयम का
अर्थ कर रहा
हूं जैसा
अष्टावक्र
करते हैं
—संतुलित आदमी
हो तो तुम्हें
पता ही न
चलेगा कि इसकी
विशेषता क्या
है। अगर कोई
आदमी उतना ही
भोजन करता हो
जितना उसके
शरीर को जरूरत
है, तो
तुम्हें पता
कैसे चलेगा? उपवास न करे
तो पता ही
नहीं चलेगा।
कोई आदमी उतना
ही सोये जितनी
शरीर को जरूरत
है, तो
तुम्हें पता
कैसे चलेगा—जब
तक वह तीन बजे
उठ कर और राम—
भजन न करे! जब
तक वह मुहल्ले
की नींद खराब
न कर दे, तब
तक तुम्हें
पता ही नहीं
चलेगा कि कोई
आदमी धार्मिक
है। जब तक वह
सिर के बल खड़ा
न हो जाये, शीर्षासन
न करे, तब
तक तुम मानोगे
नहीं कि योगी
है। कुछ उल्टा
करे। कुछ ऐसा
करे जो
विशिष्ट
मालूम पड़े, असाधारण
मालूम पड़े।
मैं
तुमसे कहता
हूं, अगर ठीक सहज
आदमी हो, तुम्हारी
पहचान में ही
नहीं आयेगा।
सहज आदमी इतना
शात होगा कि
तुम्हारे पास
से भी निकल
जायेगा, तुम्हें
पता भी न
चलेगा कि कोई
निकल गया।
तुम्हें पता
ही असहज का
चलता है। या
तो आदमी बहुमूल्य
हीरे—जवाहरातो
से लदा हो, राज—सिंहासन
पर बैठा हो, तो तुम्हें
पता चलता है।
या सड़क पर
नग्न खड़ा हो
जाये तो
तुम्हें पता
चलता है। नग्न
खड़ा हो जाये
तो भी पता
चलता है। क्योंकि
यह भी विशिष्ट
हो गया।
सिंहासन पर हो
तो भी पता चल
जाता है, क्योंकि
यह भी विशिष्ट
है। सामान्य,
सीधा—सादा
आदमी, सहज—पता
ही न चलेगा।
क्योंकि जो
चाहिए, वह
वही कपड़े
पहनेगा; जितना
भोजन चाहिए, भोजन करेगा;
जितनी नींद चाहिए,
नींद लेगा।
उसके जीवन में
इतना संयम और
संतुलन होगा
कि वह तुम्हें
चुभेगा नहीं,
किसी भी
कारण से
चुभेगा नहीं।
तुम्हें उसका
बोध .ही न
होगा।
तुम्हें उसका
स्मरण ही न
आयेगा। और मैं
तुमसे कहता
हूं जिस दिन
तुम ऐसे हो जाओ
कि किसी को
तुम्हारा पता
न चले; कब
आये, कब
गये, पता न
चले; कैसे
आये, कैसे
गये, पता न
चले—तभी जानना
कि तुम सहज
हुए। सहज यानी
साधु।
अष्टावक्र
कहते हैं :
'ऐसा
कृतकार्य हुआ
पुरुष देखता
हुआ, सुनता
हुआ, स्पर्श
करता हुआ, सूंघता
हुआ, खाता
हुआ, सुखपूर्वक
रहता है।’
न
तो उपवास के
पीछे पड़ता है, न
त्याग के पीछे
पड़ता है, न
शीर्षासन लगा
कर खड़ा होता
है, न शरीर
पर कोड़े मारता
है।
ईसाई
फकीर हुए हैं, जो
रोज सुबह उठ
कर कोड़े मारते
थे। कौन फकीर
कितने कोड़े
मारता है, उतना
ही बड़ा फकीर
समझा जाता था।
उनके घाव कभी मिटते
ही न थे।
क्योंकि रोज
कोड़े मारेंगे
सुबह, तो
घाव भरेंगे कैसे?
उनसे लहू
बहता ही रहता
था। और भक्त आ
कर देखते कि
किसने कितने
मारे।
जिसने सौ मारे
वह उससे बड़ा
है जिसने नब्बे
कोड़े मारे।
तुम भी अपने
साधुओं की जांच
कैसे करते हो!
किसी ने दस
दिन का उपवास
किया; किसी ने
तीस दिन का
किया—तीस दिन
करने वाला बड़ा।
उसने तीस कोड़े
मारे, किसी
ने दस कोड़े
मारे।
तुमने
कभी यह भी
सोचा कि जो
लोग इन साधुओं
को कोड़े मारते
हुए देखने
जाते थे, ये
बीमार हैं; रुग्ण हैं।
एक तरह की
विक्षिप्तता
है। और ये दुष्ट
हैं। और ये
कारणभूत हैं।
क्योंकि जब
साधु कोड़े मार
रहे हों और
भीड़ देखने आयी,
और भीड़ उसकी
प्रशंसा करती
है जो ज्यादा
कोड़े मार लेता
है—तो
स्वभावत: जो
दस मार सकता
था वह भी बारह
मार लेगा। दो
कोड़े
तुम्हारे
कारण मार
लेगा। और प्रतियोगिता
पैदा हो
जायेगी कि कौन
ज्यादा मारता
है। वहा भी
अहंकार का
संघर्ष शुरू
हो जायेगा।
तुमको भी समझ
में आ जाये, क्योंकि हिंदुस्तान
में कोड़े
मारनेवालों
का संप्रदाय नहीं
है, तो तुम
भी मान लोगे
कि यह बात ठीक
है, ये लोग
कुछ दुखवादी
हैं जो देखने
जाते हैं। लेकिन
तुम जब कोई
मुनि, जैन
मुनि उपवास
करता है और
तुम चरण
स्पर्श करने
जाते हो, तो
तुम क्या करने
जाते हो मे यह
भी कोड़ा मारना
है। शायद कोड़े
मारने से भी
ज्यादा
खतरनाक है।
क्योंकि कोड़ा
तो ऊपर मारा
जाता है चमड़ी
के, यह
उपवास भीतर
गहरे में कोड़ा
मारना है। तुम
कहते हो : 'हमारे
महाराज ने तीन
महीने का
उपवास किया।
तुम्हारे
महाराज ने
कितने दिन का
उपवास किया?' जिस—जिसके
महाराज जरा
पीछे पड़ गये
हैं, वह
जरा दीन हो
जाता है।
मैं
एक दिगंबर घर
में बहुत दिन
तक रहा—स्व
दिगंबर जैन के
परिवार में।
तो मेरे पास
कभी—कभी श्वेतांबर
साधु—साध्वियां
मिलने आते, तो
वह दिगंबर
परिवार उनको
नमस्कार भी
नहीं करता था।
मैंने पूछा, 'मामला क्या
है? ये लोग
जैसे साधु
हैं.।’ उन्होंने
कहा, 'ये भी
कोई साधु हैं?
साधु होते
हैं हमारे, नग्न रहते
हैं! ये कोई
साधु हैं!
कपड़े पहने—जैसे
हम पहने हैं, ऐसे ये पहने
हैं। फर्क
क्या है? साधु
देखना है तो
हमारे देखो, जो नग्न
रहते हैं। धूप
हो, ताप हो,
नग्न रहते
हैं। ये कोई
साधु हैं!
इनको क्या नमस्कार
करना! ये तो
गृहस्थ ही
हैं।’
श्वेतांबर
साधु की
दिगंबर जैन के
मन में कोई प्रतिष्ठा
नहीं है। हो
भी कैसे? क्योंकि
सब दुखवादी
हैं। और सब
देख रहे हैं, कौन कितना
दुख झेल रहा
है—उतना ही।
उतना ही। और
जांच रख रहे
हैं कि कहीं
कोई किसी तरह
से बच तो नहीं
रहा है। आंख
गड़ाये बैठे
हैं। यह
दुष्टों की
जमात है। और
ये दुष्ट
जिसको भी
जितना सताने
में सफल हो
जाते हैं उसकी
उतनी प्रशंसा
करते हैं
स्वभावत:। यह
प्रशंसा सौदा
है।
तुम
किसका आदर
करते हो? कांटे
पर कोई साधु
लेटा है, तुम
आदर करते हो।
अगर कोई
साधारण दरी
बिछाकर बिछौना
करके लेटा है,
तो तुम
कहोगे, ' आदर
की बात ही
क्या है? ऐसे
तो हम भी
लेटते हैं।’ मामला ऐसा
है कि
तुम्हारा
अपने प्रति भी
कोई आदर नहीं
है। क्योंकि
तुम जब तक
कीटों पर न
लेटोगे, आदर
करोगे कैसे? तुम्हारा
आदर ही
विक्षिप्त
है।
रूस
में ईसाइयों
का एक
संप्रदाय था
जो अपनी जननेंद्रिया
काट लेता था।
उसका आदर था।
उसके मानने
वाले दूसरों
के साधु को दो
कौड़ी का समझते
थे—कि तुम्हारा
साधु किस मतलब
का?
पक्का क्या
कि यह
ब्रह्मचारी
है? कहीं
धोखा दे रहा
हो! साधु तो
हमारा पक्का
है, क्योंकि
उसके
ब्रह्मचर्य
में धोखा देने
का कोई कारण
ही नहीं है।
यह
किस तरह के
रुग्ण लोगों
की जमात है!
इसमें तुम
असहज की पूजा
करते हो और
सहज का
तुम्हें पता
ही नहीं चलता।
किसी
ने पूछा है कि
अष्टावक्र ने
इतना महत्वपूर्ण
ग्रंथ जगत को
दिया, लेकिन
उनका
संप्रदाय
क्यों नहीं
बना? अष्टावक्र
का संप्रदाय
तभी बन सकता
है जब जगत में
स्वस्थ लोग
होंगे।
अस्वस्थ
लोगों में अष्टावक्र
का संप्रदाय
बन नहीं सकता।
क्योंकि अष्टावक्र
कहते हैं : 'खाओ,
पीओ, सूंघो,
स्पर्श करो!
जो सहज है
वैसे जीओ। न
यहां असहज, न वहा असहज।
साक्षी भर
रहो।’
तुम
कहोगे : 'साक्षी!
इसमें तो बड़ा
धोखा है। क्या
पता यह आदमी
साक्षी हो या
न हो। मजे से
खा रहा है, सो
रहा है, बैठ
रहा है और
कहता है, हम
साक्षी हैं!
इसका पक्का
क्या? ऐसे
तो कुछ पता
चलता नहीं।
साक्षी तो
भीतर है, बाहर
कैसे पता चले?'
तुम्हें
बाहर प्रमाण
चाहिए कि कोई
आदमी साधु हुआ
कि नहीं। और
प्रमाण क्या
है? तुम जो
कर रहे हो
उससे विपरीत
करे तो प्रमाण
है। तुम पागल
हो। वह तुमसे
विपरीत दिशा
में पागल हो
जाए तो प्रमाण
है।
इस
सूत्र का एक
और अर्थ भी हो
सकता है—इससे
भी ज्यादा
गहरा।
कृतार्थ:
अनेन ज्ञानेन
इति एवम्
गलितधी: कृती
—मैं अद्वैत
आत्मज्ञान
द्वारा
कृतार्थ हुआ हूं
ऐसी बुद्धि भी
जिस ज्ञानी को
उत्पन्न नहीं
होती, वही
कृतकार्य हुआ,
वही
कृतार्थ हुआ।
फिर
वह देखता हुआ
देखता, सुनता
हुआ सुनता, स्पर्श करता,
सूंघता, खाता
हुआ
सुखपूर्वक
रहता है।
इस
वचन का यह
अर्थ भी हो
सकता है कि
जिसको यह भाव
भी नहीं उठता
अब कि मैं
ज्ञान को
उपलब्ध हो गया
हूं—जिसकी ऐसी
बुद्धि भी
गलित हो गई।
कृतार्थ:
अनेन ज्ञानेन
इति एवम्
गलितधी: कृती।
—ऐसी बुद्धि
भी नहीं रही
अब भीतर कि
मैं ज्ञान को
उपलब्ध हो गया
हूं।
क्योंकि
जिसको ऐसी
बुद्धि हो
भीतर कि मैं
ज्ञान को
उपलब्ध हो गया, अभी
द्वंद्व और
द्वैत के बाहर
नहीं गया। अभी
अज्ञानी और
ज्ञानी में
फर्क बना है।
अभी वह कहेगा,
तुम ज्ञान
को उपलब्ध
नहीं हुए, मैं
ज्ञान को
उपलब्ध हो गया
हूं। तो अभी 'मैं' मिटा
नहीं।’मैं'
ने नया रूप
ले लिया। कल
कहता था, तुम
गरीब हो, मैं
अमीर हूं; तुम
गैर—पढ़े—लिखे,
मैं
पढ़ा—लिखा; तुम
कुरूप, मैं
सुंदर; तुम
कमजोर, मैं
सबल। अब कहता
है, मैं
ज्ञानी, आत्मज्ञानी;
तुम
अज्ञानी। मगर
फर्क बना हुउग
है। मैं—तूं का
फर्क मौजूद
है।
इसलिए
दूसरा अर्थ और
भी गहरा है।
पहला ठीक; दूसरा
बहुत—बहुत
ठीक। ऐसी
बुद्धि भी अब
पैदा नहीं
होती। उपनिषद
कहते हैं जो
कहे कि मैंने
जान लिया, जानना
कि अभी जाना
नहीं।
क्योंकि
ज्ञानी यह भी
घोषणा नहीं
करेगा कि
मैंने जान
लिया। यह
घोषणा भी अस्मितापूर्ण
है। ज्ञानी तो
इतना भी नहीं
कहेगा कि पा
लिया।
क्योंकि फिर
भेद खड़ा हो
गया : जिन्होंने
नहीं पाया, उनसे हम ऊपर
हो गये। फिर
हमने खड़ी कर
ली पुरानी
धारणा। अब
दूसरे नीचे रह
गये, अब हम
ऊपर हो गये।
पहले धन के
कारण ऊपर थे, अब
आत्मज्ञान के
कारण ऊपर हो
गये। लेकिन
अहंकार नये
खेल रचाने लगा,
नयी लीला
करने लगा।
'मैं अद्वैत
आत्मज्ञान
द्वारा
कृतार्थ हुआ हूं
ऐसी बुद्धि भी
जिस ज्ञानी को
उत्पन्न नहीं होती..,.।’ जिसमें
बुद्धि ही उत्पन्न
नहीं होती; जिसमें
विचार ही
उत्पन्न नहीं
होता—वही कृतार्थ
हुआ है। जो
अवक्तव्य है।
जो इस तरह की
कोई घोषणा
नहीं करता।
बुद्ध
से लोग जा कर
पूछते हैं कि
ईश्वर है? बुद्ध
चुप रह जाते
हैं। बुद्ध से
किसी ने एक दिन
सुबह आ कर
पूछा, आपको
ज्ञान हुआ? बुद्ध चुप
रह गये। उस
आदमी ने कहा, आप साफ—साफ
कह दें। हुआ
हो तो हौ कह
दें; न हुआ
हो तो ना कह
दें। उलझन में
क्यों डालते हैं?
बुद्ध
फिर भी चुप
रहे। वह आदमी
चला गया। वह
यही सोच कर
गया कि हुआ
नहीं है, तो
कहने की
हिम्मत नहीं
है। उसने
बुद्ध के शिष्यों
को कहा कि अभी
कुछ हुआ नहीं
ज्ञान
इत्यादि, क्योंकि
मैं पूछ कर आ
रहा हूं। अगर
हुआ होता तो
कहते कि हुआ
है। शिष्य
हंसने लगे।
उन्होंने कहा,
तुम पागल
हो। हुआ है
इसीलिए चुप रह
गये। कहने को
क्या है?
और
तब एक बड़ा
उपद्रव संसार
में खड़ा होता
है। तुम
उन्हीं की
सुनते हो जो
दावेदार हैं।
जो जितने जोर
से दावा करता
है,
उसकी ही तुम
मान लेते हो।
और परम ज्ञान
की अवस्था में
कोई दावा नहीं
होता—कोई दावा
नहीं है। परम
ज्ञानी के पास
तो तुम तभी
टिक पाओगे जब
तुम
गैर—दावेदार
को समझने में
सफल और कुशल
हो जाओगे। परम
ज्ञानी के पास
तो तुम तभी
टिक पाओगे जब
ज्ञानी तुमसे
कहे कि मैं
अज्ञानी हूं
और तो भी तुम
समझने में सफल
रहो। ज्ञानी
तुमसे कभी न
कहे कि मैं जानता
हूं तो भी तुम
उसकी सन्निधि
के लिए आतुर
रहो—तो ही तुम
किसी ज्ञानी
का सत्संग पा
पाओगे।
अन्यथा तुम
किसी धोखेधड़ी
में पड़ जाओगे;
किसी
दावेदार की
उलझन में आ
जाओगे। दावेदार
बहुत हैं।
जिनकी
उपलब्धि है, वे बहुत
थोड़े हैं। और
तुम्हारे पास
एक ही उपाय है
जानने का : 'कौन
जोर से चिल्ला
रहा है। कौन
पीट रहा टेबल
को जोर से?' जो
जितने जोर से
चिल्लाता है,
तुम कहते हो
जरूर... अगर हुआ
न होता तो
इतने जोर से
कैसे
चिल्लाता?
जिसको
हो जाता है, वह
चिल्लाता ही
नहीं। निवेदन
करता है, दावा
नहीं करता।
उसके प्राणों
में प्रार्थना
होती है, आग्रह
नहीं होता।
इसलिए
मैं निरंतर
कहता हूं कि 'सत्याग्रह'
शब्द अच्छा
नहीं है। सत्य
का कोई आग्रह
होता ही नहीं।
सब आग्रह
असत्य के होते
हैं। इसलिए तो
महावीर जैसे
परम ज्ञानी ने
स्यादवाद को
जन्म दिया।
स्यादवाद का
अर्थ होता है,
अनाग्रह।
तुम पूछो उनसे
ईश्वर है? वे
कहते हैं : 'स्यात्।
हो, न हो।’ स्यात्! यह
तो अज्ञानी की
भाषा मालूम
पड़ती है। यही
तो महावीर के
विरोधियों ने
उन पर आरोप लगाया
है कि यह तो
अज्ञानी की
भाषा हो गयी।
तुमको पक्का
पता नहीं! तुम
कहते हो : 'स्यात्।
शायद।’ अरे
पता हो तो हा
कह दो, न
पता हो तो ना
कह दो। यह 'शायद'
क्या बात
हुई? या तो
ईश्वर है या
नहीं है।
महावीर
कहते हैं कि
शायद है, शायद
नहीं है।
कठिन
हो गयी बात।
तुम वैसे ही
डावांडोल हो, और
ये महापुरुष
डांवांडोल
किये दे रहे
हैं। तुम वैसे
ही अनिश्चित
थे, अब यह
और महा
अनिश्चय की
घोषणा हो गयी।
तुम इस आशा
में आये थे कि
महावीर के पास
निश्चय हो जायेगा,
पकड़ लेंगे
किसी धारणा को,
घर लौटेंगे
संपत्ति
लेकर—ये और
मुश्किल में डाले
दे रहे हैं।
थोड़े—बहुत
मजबूती से आये
थे, वह भी डावांडोल
कर दिया। ये
कहते
हैं, 'शायद!'
आत्मा है? ये कहते हैं,
'शायद है, शायद नहीं
है।’
महावीर
का विचार बड़ा
अदभुत है!
महावीर यह कह
रहे हैं, मुझसे
निश्चय न
मांगो।
निश्चय तो
तुम्हारे अनुभव
से आयेगा। तुम
उधार अनुभव मत
मांगो। मैं तुम्हें
निश्चित करने
वाला कौन? और
मैंने अगर
तुम्हें
निश्चित कर
दिया तो मैं तुम्हारा
दुश्मन।
मेरे
पास लोग आ
जाते हैं। एक
सज्जन वर्षों
से आते हैं।
मैं उनसे कहता
हूं : 'आते हैं आप, सुनते हैं, कभी ध्यान
करें।’ वे
कहते हैं. 'क्या
ध्यान करना? अब आपको तो
मिल ही गया।
तो जो आप कह
देंगे, हम
तो मानते ही
हैं आपको।
हमें कोई
संदेह थोड़े ही
है। जिनको
संदेह हो वे
ध्यान
इत्यादि करें।
हमें तो
स्वीकार है।
आपको हो गया।
और आप जो कहते
हैं, हम
मानते हैं।
इतना काफी है
कि आपके चरण
छू जाते हैं।
आपका
आशीर्वाद
चाहिए, और
क्या चाहिए!'
मेरा
निश्चय
तुम्हारा
निश्चय कैसे
हो सकता है? मैंने
जाना, यह
तुम्हारा
जानना कैसे
बनेगा? और
मैंने जाना कि
नहीं जाना, यह तुम कैसे
जानोगे? मेरा
दावा ही कुल
भरोसे का कारण
हो सकता है? लेकिन दावा
दावा सत्य का
कोई होता ही
नहीं।
लेकिन
तुम सत्य को
खोजना नहीं
चाहते। तुम
मुफ्त चाहते
हो। तुम श्रम
नहीं उठाना
चाहते। तुम
कहते हो, कोई
कह दे तो झंझट
मिटे। कोई
पक्का कह दे, प्रमाण दे
दे, तो हम
इस खोजबीन के
उलझाव से बच
जायें। ये पहाड़ी
रास्ते और यह
दूर की यात्रा
और यह हमसे हो
नहीं सकता। आप
हो कर आ गये
हैं, आप
बता दें कि
मानसरोवर
कैसा है? सुंदर
है, ठीक है!
हमें आप पर
श्रद्धा है।
हम श्रद्धालु
हैं। यह जगत
श्रद्धालुओं
से भरा हुआ
है। इन झूठे
श्रद्धालुओं
के कारण जगत
में धर्म नहीं
है। कोई हिंदू
बन कर बैठ गया
है, कोई
मुसलमान, कोई
जैन, कोई
बौद्ध, कोई
ईसाई; सब
श्रद्धालु
बने बैठे हैं।
मंदिर, मस्जिद,
गिरजाघर, सब ज्यों से
भरे हैं।
इनमें से कोई
जाना नहीं
चाहता। ईसाई
कहते हैं, बस,
जीसस ने कह
दिया तो ठीक।
अब कोई झूठ
थोड़े ही कहेंगे!
जैन कहते हैं,
महावीर ने
कह दिया तो बस
हो गयी बात।
तुम
क्या कर रहे हो? :
अपने को धोखा
दे रहे हो।
परम
शानी का तो
कोई दावा नहीं
है। परम
ज्ञानी का तो
आमंत्रण है।
आग्रह नहीं है, अनाग्रह।
परम ज्ञानी तो
कहता है. 'देखो
मुझे, आओ
मेरे पास। चखो
मुझे, स्वाद
लो मेरा। और
यात्रा को
तत्पर हो जाओ।’
परम शानी की
मौजूदगी
यात्रा पर
भेजेगी तुम्हें,
निश्चय
नहीं दे
देगी—उस
यात्रा पर
भेजेगी जहां
अंतिम निर्णय
में, अंतिम
निष्कर्ष में
निश्चय होगा।
निश्चय
तुम्हारे
भीतर
जन्मेगा।
कृताथोंउनेन—वही
हुआ कृतार्थ।
ज्ञानेन
इति एवम्—जिसे
'मैं ज्ञानी
हो गया' ऐसी
बुद्धि भी
नहीं पैदा
होती।
गलितधी:
कृती—उसकी ऐसी
बुद्धि भी गल
गयी।
यह
आखिरी बात गिर
गयी। अब कोई
भेद न रहा।
ज्ञान—अज्ञान
में भी भेद न
रहा। संसार और
मोक्ष में भी
भेद न रहा। बंधन—मुक्ति
में भी भेद न
रहा। सब भेद
गिर गये। अभेद
उपलब्ध हुआ।
अभेद में कैसा
विचार? विचार
में हमेशा भेद
आ जाता है।
जहां विचार आया,
दीवाल उठी।
जहां विचार
आया, रेखा
खिंची। भेद
शुरू हुआ।
निर्विचार
में तो कोई
भेद नहीं।
'जिसका
संसार—सागर
क्षीण हो गया
है, ऐसे
पुरुष में न
तृष्णा है, न विरक्ति
है। उसकी
दृष्टि
शून्य
हो गयी है, चेष्टा
व्यर्थ हो गयी
है और उसकी
इंद्रियां विकल
हो गयी हैं।’
शून्या
दृष्टिर्वृथा
चेष्टा
विकलानीन्द्रियाणि
च।
न
स्पृहा न
विरक्तिर्वा
क्षीण संसार सागरे।।
दृष्टि:
शून्या—उस परम
दशा में
दृष्टि शून्य
हो जाती है।
तुम्हारी
आंखें बहुत
भरी हुई हैं, हजार—हजार
विचारों से
भरी हुई हैं।
तुम कुछ भी
निर्विचार
नहीं देखते, खाली आंख से
नहीं देखते।
तुम जब भी
देखते हो
पक्षपात से
देखते हो, निष्पक्ष
नहीं देखते।
तुम कुछ भी देखने
जाते हो, देखने
के पहले ही
कोई निर्णय
करके जाते हौ।
यहां
मेरे पास तुम
सुनने आये।
कोई निर्णय
करके आ जाता
है कि यह आदमी
बुरा है। कोई
निर्णय करके आ
जाता है कि
आदमी अच्छा
है। आये बिना, आने
के पहले
निर्णय कैसे
किया अच्छे का
या बुरे का? कोई निर्णय
करके न आते तो
ही निर्णय हो
सकता था। तुम
निर्णय करके पहले
ही आ गये, अब
निर्णय बहुत
मुश्किल
होगा। अब बहुत
संभावना यह है
कि तुम अपने
ही निर्णय को
पक्का कर के लौट
जाओगे। जो
आदमी तय कर के
आ गया है कि यह
आदमी भला है, वह
उतनी—उतनी
बातें चुन
लेगा जिनसे
उसका निर्णय
मजबूत होता
है। वह चुनाव
कर लेगा। जो
आदमी तय कर के
आ गया है कि
आदमी बुरा है,
वह भी
निर्णय कर के
जायेगा कि
पक्का है, ठीक
सोच कर आये थे :
आदमी बुरा है।
वह अपने हिसाब
से निर्णय कर
लेगा। वह अपनी
बातें चुन
लेगा—अपने
पक्ष में। जो
उसके पक्ष को
मजबूत करे, वह चुन
लेगा। और दोनों
यह सोच कर
जायेंगे, वे
मेरे पास हो
कर गये। वे
आये ही नहीं।
उनका पक्षपात
आने कैसे देगा?
पक्षपात
बीच में खड़ा
था, वे
मुझे देख ही न
पाये।
पक्षपात ने सब
रंग दिया।
उनकी आंख पर
चश्मा था।
तुम्हारी
हालत
करीब—करीब ऐसी
है कि चश्मा
ही चश्मा है, आंख
तो है ही
नहीं। चश्मे
पर चश्मे हैं
और आंख भीतर
है ही नहीं।
क्योंकि आंख
तो शून्य की
ही होती है।
दृष्टि:
शून्या
बड़ी
अपूर्व बात
है। आंख तो
होती ही तब है
जब शून्य होती
है;
जिस पर कोई
राग—रंग नहीं
होता; जिस
पर कोई पक्ष
नहीं होता, कोई धारणा
नहीं होती, कोई सिद्धात,
कोई
शास्त्र, कुछ
भी नहीं होता।
एक
ईसाई वृद्धा
ने मुझे आ कर
कहा कि 'आपके
वचन सुन कर
मैं बहुत
प्रसन्न हुई।
आपने ईसाइयत
में मेरी
श्रद्धा को
मजबूत कर
दिया। आपने जो
कहा वही तो
जीसस ने कहा
है।’
इस
महिला को हुआ
क्या? यह भरी
है जीसस से।
खयाल सब तैयार
है। इसने वही—वही
चुन लिया
जिससे मेल
खाता था, वह
सब छोड़ दिया
होगा जो मेल
नहीं खायेगा।
वह प्रसन्न हो
गयी। वह मुझे
धन्यवाद देने
आयी। मैंने
कहा कि तू आयी
ही नहीं यहां।
तेरा पहुंचना
ही नहीं हुआ।
तूने मुझे
सुना कहां?:
उसने
कहा कि आप
गलती में हैं।
आपने देखा न
होगा, मैं
पंद्रह दिन से
सुनती हूं।
मैंने
कहा कि तू
पंद्रह साल भी
सुन तो भी तू
मुझे सुनेगी
नहीं। खाली आंख
हो कर आ। ईसाई
बन कर मत सुन।
हिंदू बन कर
मत सुन।
मुसलमान बन कर
मत सुन। कुछ
बन कर मत सुन, अन्यथा
सुनना कैसे
होगा? सिर्फ
सुन। और मैं
तुझसे कहता
नहीं कि मुझसे
राजी हो जा।
राजी की भी
क्या
जल्दी
है?
सुन ले पहले,
फिर तू अपना
निर्णय कर
लेना। लेकिन
सुन तो ले।
सुनने के पहले
ही निर्णय कर
लिया तो बहुत
मुश्किल हो
जायेगा।
मुल्ला
नसरुद्दीन
गांव का काजी
हो गया था। पहला
ही मुकदमा
आया। उसने एक
पक्ष को सुना
और उसने कहा
कि बिलकुल ठीक
है। क्लर्क ने
कहा कि
महानुभाव, यह
तो अभी एक ही
पक्ष है; अभी
आप दूसरा तो
सुनें। उसने
कहा कि दूसरा
सुनूंगा तो
बड़ा
डांवांडोल हो
जायेगा
चित्त। फिर निर्णय
करना मुश्किल
हो जायेगा।
अभी आसानी है।
अभी कर लेने
दो।
उस
क्लर्क ने कहा
कि यह अन्याय
हो जायेगा।
आपको पता नहीं
अदालत के नियम
का।
तो
उसने कहा, अच्छा
ठीक है। दूसरे
को सुन लिया।
दूसरे से भी
बोला कि
बिलकुल ठीक
है। उसके
क्लर्क ने कहा
कि आप होश में
हैं? इतनी
जल्दी न करें।
दोनों ठीक
कैसे हो सकते
हैं?
उसने
कहा कि भाई, तू
भी बिलकुल ठीक
है। इस झंझट
में हमें पड़ना
ही नहीं था।
आदमी
जल्दी निर्णय
करने में लगा
है—जल्दी हो
जाये! तुम
ईसाई घर में
पैदा हुए; हिंदू
घर में पैदा
हुए—तुमने एक
ही पक्ष सुना है।
इस संसार में
तीन सौ धर्म
हैं। और तुमने
निर्णय कर
लिया! तुम
हिंदू बन गये।
तुम जैन बन गये!
और तुमने एक
ही पक्ष सुना
है। और यहां
तीन सौ पक्ष
थे। इतनी जल्दी!
नहीं, घबड़ाये
हुए हो तुम कि
कहीं तीन सौ
पक्ष सुन कर ऐसा
न हो कि
निर्णय करना
मुश्किल हो
जाये। जल्दी
कर लो!
छोटा
बच्चा पैदा
नहीं होता कि
मां—बाप उस पर
संस्कार
डालने शुरू कर
देते हैं।’खतना
करो।’ अभी
बच्चे की जान
में जान नहीं,
मुसलमान
बनाने लगे, उसका खतना
कर दो। शुरुआत
की उन्होंने
उपद्रव की। कि
मुंडन—संस्कार
कर दो, कि
जनेऊ पहना दो।
आ गया
ब्राह्मण, पंडित,
पुरोहित—
पूजा—पाठ, सब
शुरू हो गया।
अभी इस बच्चे
को बोध भी
नहीं है। अभी
इसकी आंख भी
ठीक से नहीं
खुली है। अभी
इसे कुछ पता
भी नहीं है।
मगर तुम डालने
लगे। इसके
पहले कि इसका
बोध जगे, तुम
इसको बना
डालोगे। तुम
इसको
संस्कारित कर दोगे।
तो इसका बोध
कभी जगेगा ही
नहीं। इस दुनिया
में इतना
उपद्रव
इसीलिये है कि
यहां बोध नहीं
है; बोध
जगने का मौका
नहीं है।
मां—बाप बड़े
उत्सुक हैं, बड़े जल्दी
में हैं। सारे
धर्मगुरु
सिखाते रहते हैं
कि धर्म की
शिक्षा दो, धर्म की
शिक्षा होनी
चाहिए।
धर्म
की कभी शिक्षा
नहीं होनी
चाहिए! ध्यान
की शिक्षा
होनी चाहिए, धर्म
की नहीं।
ध्यान सिखा
दो। लोगों को
शांत होना
सिखा दो।
लोगों को
निर्विचार
होना सिखा दो।
फिर उनका
निर्विचार
उन्हें जहां
ले जाये, वहीं
उनका धर्म
होगा। फिर
उनका
निर्विचार जहां
ले जाये..।
और
मैं तुमसे
कहता हूं
निर्विचार
कभी किसी को हिंदू
नहीं बनायेगा
और मुसलमान
नही बनायेगा।
निर्विचार
व्यक्ति को
धार्मिक
बनायेगा।
दुनिया
में धर्म हो
सकता है, अगर
बच्चों के मन
हम पहले से ही
विकृत न करें,
जहर न
डालें। लेकिन
हम बड़ी जल्दी
में होते हैं,
हम बड़े
घबड़ाये होते
हैं कि इसके
पहले कि कहीं कोई
और बात मन में
घुस जाये, अपनी
बात घुसा दो।
इस
जगत में जो
बड़े से बड़े
अनाचार हुए
हैं मनुष्य—जाति
पर,
उनमें सबसे
बड़ा अनाचार है
बच्चों के
ऊपर। अबोध, असहाय, तुम्हारे
हाथ में पड़
गये हैं। तुम
जो चाहो—खतना
करो, चोटी
रखवाओ,
चोटी
कटवाओ, जनेऊ
पहनाओ—जो चाहो
करो। बच्चा
कुछ भी तो
नहीं कह सकता।
क्योंकि अभी
कुछ पता ही
नहीं है उसे कि
क्या हो रहा
है। अभी
हां—ना कहने
का उपाय भी नहीं
है। और इसके
पहले कि वह ही
—ना कहे, तुम
वर्षों तक
इतना दीक्षित
कर दोगे उसे
कि हां—ना
कहना मुश्किल
हो जायेगा।
गलितधी: का
अर्थ होता है,
यह जो
संस्कार
तुम्हें
दूसरों ने
दिये हैं, इन
सबका त्याग।
शून्या:— दृष्टि—तब
तुम
शून्य—दृष्टि
हो जाते हो।
चेष्टा
वृथा........।
और
जो साक्षी हो
गया उसे दिखाई
पड़ता है कि
चेष्टा करने
की कोई जरूरत
नहीं है—जो
होना है अपने
से हो रहा है।
नदी चेष्टा
थोड़े ही कर
रही है सागर
जाने की। जा रही
है जरूर, मगर
चेष्टा नहीं
कर रही है।
वृक्ष बड़े
होने की
चेष्टा थोड़े
ही कर रहे
हैं—बड़े हो
रहे हैं जरूर।
बादल बरसने की
चेष्टा थोड़े
ही कर रहे
हैं—बरस रहे
हैं जरूर।
चांद—तारे
घूमने की
चेष्टा थोड़े
ही कर रहे
हैं—घूम रहे
हैं जरूर।
घूमने की
चेष्टा हो तो
किसी दिन सूरज
सुबह देर से
उठे—कि हो गया
बहुत, आज
आराम करेंगे।
सारी दुनिया
में छुट्टी
होती है।
रविवार... सूरज
का दिन है
रविवार। सारी
दुनिया
छुट्टी मना
रही है, मगर
सूरज को छुट्टी
नहीं। वह कह
दे कि आज
रविवार है, आज नहीं आते,
आज आराम
करेंगे। फिर
कभी तो थक
जाये, अगर
चेष्टा हो।
कभी तो
विश्राम करना
पड़े। नहीं, चेष्टा है
ही नहीं। थकान
कैसी? छुट्टी
कैसी?
अवकाश कैसा? कोई कुछ कर
थोड़े ही रहा
है, सब हो
रहा है।
जिसकी
दृष्टि शून्य
हो जाती है, जिसकी
बुद्धि गल
जाती—वह अचानक
जाग कर देखता
है. मैं नाहक
ही पागल बना!
क्या—क्या
करने की योजनाएं
कर रहा था, क्या—क्या
बनाने की
योजनाएं कर
रहा था! सब अपने
से हो रहा है।
मैं व्यर्थ ही
बोझ ढोता था।
कर्ता बन कर
नाहक तनाव और
चिंता ले ली
थी। विक्षिप्त
हुआ जा रहा
था।
'जिसका
संसार—सागर
क्षीण हो गया,
ऐसे पुरुष
में न तृष्णा
है, न
विरक्ति, उसकी
दृष्टि शून्य
हो गयी, चेष्टा
व्यर्थ हो गयी,
और उसकी
इंद्रियां
विकल हो गयीं।’
इंद्रियाणि
विकलानी.......।
अभी
जो ऊर्जा है
हमारी, जीवन
की ऊर्जा, वह
सारी की सारी
इंद्रियों के
साथ जुड़ी है।
जैसे ही
व्यक्ति शात
होता, शून्य
होता, साक्षी
बनता, ऊर्जा
इंद्रियों से
मुक्त होकर
ऊपर की तरफ उठनी
शुरू होती है।
इंद्रियां
ऊर्जा को नीचे
की तरफ लाने
के उपाय हैं।
जिसके
भीतर ऊर्जा
ऊपर नहीं उठ
रही है उसके
लिए प्रकृति
ने उपाय दिया
है कि ऊर्जा
इकट्ठी न हो
जाये, नहीं तो
तुम फूट
जाओगे। तो
ऊर्जा नीचे से
निकल जाये।
जिस दिन ऊर्जा
ऊपर उठने लगती
है, इंद्रियां
अपने— आप शात
हो जाती हैं।
इंद्रियों की
जो प्रबल
चेष्टा है वह
शात हो जाती
है। देखते हो
फिर तुम तब भी,
लेकिन आंख
कहती नहीं कि
देखो सौंदर्य
को, चलो
देखो सौंदर्य
को! सुनते हो
तुम तब भी, पर
कान कहते नहीं
कि चलो सुनो, सुंदर मधुर
संगीत को।
स्वाद तुम तब
भी लेते हो, लेकिन
जिह्वा
तुम्हें
पीड़ित नहीं
करती, परेशान
नहीं करती, सपने नहीं
उठाती, वासना
नहीं जगाती कि
चलो, भोजन
करो; अगर
भोजन नहीं तो
कम से कम सपने
में ही बैठ कर
भोजन करो; कल्पना
ही करो
स्वादिष्ट
भोजनों की।
नहीं, सब
काम चलते रहते
हैं। लेकिन
इंद्रियों से
जो पुराना
पैशन, वह
जो पुरानी
वासना थी, वह
जो बल था, वह
विलीन हो जाता
है।
कृष्ण
ने अर्जुन को
कहा है. 'या
निशा
सर्वभूतानां
तस्यां
जागर्ति
संयमी।
यस्यां
जाग्रति
भूतानि सा
निशा पश्यतो
मुनेः।’ संपूर्ण
भूतो की जो
आत्म—अज्ञानरूपी
रात्रि है और
जिसमें सब भूत
सोये हुए हैं
उसमें ज्ञानी
जागता है। और
जिस
अज्ञानरूपी
दिन में सब
भूत जागते हैं,
उसमें
ज्ञानी सोया
हुआ है।
अज्ञानी जहां
जागता है वहां
ज्ञानी सो
जाता है। और
जहां अज्ञानी
सोया है, वहां
ज्ञानी जाग
जाता है। तुम
इंद्रियों
में जागे हुए
हो, स्वयं
में सोये हुए;
ज्ञानी
स्वयं में जाग
जाता, इंद्रियों
में सो जाता
है। उसकी
इंद्रियां शांत
हो कर शून्य
हो जाती हैं।
उसका साक्षी
जागता है।
ऊर्जा
तो वही है। जब
साक्षी जागता
है तो इंद्रियों
के जायने की
कोई जरूरत
नहीं रह जाती।
उनमें ऊर्जा
नहीं बहती।
साक्षी सारी
ऊर्जा को अपने
में लीन कर
लेता है। तुम
जहां जागे हो, वहा
ज्ञानी सो
जाता है, तुम
जहां सोये हो,
वहां
ज्ञानी जाग
जाता है। जो
तुम्हारा दिन,
उसकी
रात्रि। जो
तुम्हारी
रात्रि, उसका
दिन।
'वह न जागता है,
न सोता है।
न पलक को
खोलता है और
बंद करता है।
अहो, मुक्तचेतस
की कैसी
उत्कृष्ट परम
दशा रहती है!'
समझना।
न
जागर्ति न
निद्राति
नोन्मीलति न
मीलति।
अहो
परदशा क्यापि
वर्तते
मुक्तचेतस।
न
जागर्ति.........
ज्ञानी
कुछ करता ही
नहीं। इसलिए
यह भी कहना ठीक
नहीं कि वह
जागता है। यह
भी कहना ठीक
नहीं कि वह
सोता है। जब
कर्तृत्व ही
खो गया तो
परमात्मा ही
जागता है, और
परमात्मा ही
सोता
है—ज्ञानी
नहीं। इस भेद
को खयाल रखना।
तुम
बडी कोशिश
करते हो, नींद
नहीं आ रही
है। तुम सोने
की कोशिश करते
हो। तुम सोचते
हो शायद सोने
की कोशिश से
नींद आ जायेगी।
कोशिश से नींद
का कोई संबंध
है? जब आती
है, तब आती
है। जब
परमात्मा
सोना चाहता है,
तब सोता है;
तुम्हारे
सुलाने से
नहीं।
परमात्मा कोई
छोटा बच्चा
नहीं है कि
तुमने लोरी गा
दी, थपकी
मार दी और
सुला दिया।
तुम्हारे
भीतर जब सोने
की जरूरत होती
है, तो
नींद आ जाती
है।
मेरे
पास कोई आकर
कहता है कि
नींद नहीं आती
है,
तो उससे मैं
कहता हूं न
आने दो। शात
बिस्तर पर पड़े
रहो। तुम कुछ
करो भी मत।
तुम्हारी
चेष्टा से कुछ
हल होगा भी
नहीं। चेष्टा
से नींद का कोई
संबंध नहीं
है। सच तो यह
है कि चेष्टा
के कारण ही
नींद नहीं आ
रही है। तुम्हारी
चेष्टा ही
बाधा बन रही
है। नहीं आती
तो ठीक है, जरूरत
नहीं होगी।
अब
के आदमी हैं, वे
भी चाहते हैं
कि आठ घंटे
सोये। के आदमी
को आठ घंटे
सोने की जरूरत
नहीं रह गयी।
तीन—चार घंटा
बहुत है। उनको
चिंता होती
है। क्योंकि
पहले वे आठ
घंटा सोते थे।
वे यह भूल ही
गये कि पहले
वे जवान थे।
जरूरतें अलग
थीं। मां के
पेट में बच्चा
चौबीस घंटे
सोता है, तो
क्या बुढ़ापे
में भी चौबीस
घंटे सोओगे? बच्चा पेट
से पैदा हो
जाता है तो
अठारह घंटे सोता
है, बीस
घंटे सोता है,
तो क्या तुम
अठारह—बीस
घंटे सोओगे? बच्चे की
जरूरत अलग है।
जैसे —जैसे
तुम्हारी
उम्र बढ़ने लगी,
नींद की
जरूरत कम होने
लगी।
लेकिन
हमारी अड़चनें
हैं। पैंतीस
साल के पहले आदमी
जितना भोजन
करता है, पैंतीस
साल के बाद भी
करता चला जाता
है। वह यह याद
ही नहीं करता
कभी कि अब
ढलान शुरू हो
गयी। तो फिर
भोजन सारा पेट
में इकट्ठा
होने लगता है।
अब वह कहता है. 'मामला क्या
है? इतना
ही भोजन हम
पहले करते थे,
तब कुछ गड़बड़
न होती थी।’ चालीस के
आसपास ही पेट
बड़ा होना शुरू
होता है। कारण
कुल इतना है
कि पैंतीस तक
तो तुम चढ़ाव
पर थे। अब
उतार पर हो।
सत्तर साल में
मरना है, तो
उतरोगे भी न? पैंतीस साल
लगेंगे उतरने
में। चढ़ तो
गये पहाड़, अब
उतरेगा कौन? अब तुम
उतरने लगे। अब
इतने पेट्रोल
की जरूरत नहीं।
सच तो यह है कि
पेट्रोल की
जरूरत ही नहीं
है। अब तुम
पेट्रोल की
टंकी बंद कर
दे सकते हो, कार उतरेगी।
अब कम भोजन की
जरूरत है।
अल्प भोजन की
जरूरत है।
अल्प निद्रा
की जरूरत है।
लेकिन पुरानी
आदत को हम
खींचते चले जाते
हैं।
हम
सुनते ही नहीं
प्रकृति की।
और प्रकृति
परमात्मा की
आवाज है। तो
हम मरते दमतक
भी जीवन से जकड़े
रहते हैं। अगर
हम चुपचाप
प्रकृति को
सुनते चलें तो
प्रकृति हमें
सब चीजों के
लिए राजी कर
लेती है। जब
नींद कम हो जायेगी
तो हम जानेंगे
कि अब जरूरत
कम हो गयी।
ज्ञानी
का अर्थ है, जो
अपनी तरफ से
कुछ भी नहीं
करता। आ गयी
नींद तो ठीक, नहीं आयी तो
पड़ा रहता है। आंख
खुल गयी तो
ठीक, नहीं
खुली तो भी
पड़ा रहता है।
न तो ज्ञानी
कर्मठ होता, और न आलसी
होता। शानी
कुछ होता ही
नहीं। ज्ञानी उपकरण,
निमित्तमात्र
होता है।
परमात्मा जो
करवा लेता है,
कर देता है।
नहीं करवाता
तो प्रतीक्षा
करता है; जब
करवायेगा तब
कर देंगे।
न
जागर्ति न
निद्राति.....।
वह
न तो अपने से
सोता, न अपने
से जागता।
यहां तक कि—
नोन्मीलति
न मीलति।
पलक
भी नहीं झपकता
अपने से। झपकी
तुमने भी कभी
नहीं है, खयाल
ही तुमको है
कि तुम झपक
रहे हो। अभी
कोई एक जोर से
हाथ तुम्हारे
पास ले आयेगा,
पलक झपक
जायेगी। अगर
तुम सोचविचार
करोगे, तब
तो दिक्कत हो
जायेगी। तब तक
तो आंख
मुश्किल में
पड़ जायेगी।
पलक तो अपने
से झपकती है।
प्राकृतिक
है।
वैज्ञानिक
कहते हैं. 'रिफ्लेक्स
ऐक्यान।’ अपने
से हो रहा है, तुम कर नहीं
रहे हो।
तुमने
नींद में देखा, कीड़ा
चढ़ रहा हो, तुम
झटक देते हो।
तुम्हें पता
ही नहीं है।
सुबह तुमसे
कोई पूछे कि
कीड़ा चढ़ रहा
था चेहरे पर, तुमने झटका?
तुम कहोगे,
हमें याद
नहीं। किसने
झटका? तुम्हें
याद ही नहीं
है! लेकिन कोई
तुम्हारे
भीतर जागा हुआ
था, झटक
दिया। रात
गहरी से गहरी
नींद में भी
तुम्हारा कोई
नाम पुकार
देता है कि
राम! तुम करवट
ले कर बैठ
जाते हो कि
कौन उपद्रव
करने आ गया
ग्र सारा घर
सोया है। किसी
को सुनाई नहीं
पड़ा, तुम्हें
सुनाई पड़ गया।
तुम्हारा नाम
है, तो तुम्हारे
अचेतन से कोई
ऊर्जा उठ गयी।
नींद में भी
तुम सुन लेते
हो। मां सोती
है, तूफान
उठे, बादल
गरजे, बिजली
चमके, उसे
सुनाई नहीं
पड़ता। लेकिन
उसका बच्चा
जरा कुनमुना
दे, वह
तत्कण उठ जाती
है। तुम्हारे
भीतर कोई सूत्रधार
है।
अष्टावक्र
कहते हैं.
अहो
परदशा क्यापि
वर्तते मुक्त
चेतस।
धन्य
है! अहो! कैसी
है मुक्तचेतस
की उत्कृष्ट परमदशा
कि न तो पलक
झपकता, न पलक
खोलता, न
सोता, न
जागता। अपने
से कुछ करता
ही नहीं।
कर्ता— भाव
सारा समाप्त
हो गया।
तुम
जरा सोचो तो
इस परमदशा की
बात। सोच कर
ही तुम
आह्लादित
होने लगोगे।
काश तुम्हारा
कर्ता
विसर्जित हो
जाये, तो कैसी
चिंता! चिंता
पैदा कैसे
होगी? चिंता
कर्ता की छाया
है। कर्ता गया
कि चिंता गयी।
चिंता तो तुम
छोड़ना चाहते
हो, कर्ता
नहीं छोड़ना
चाहते। इसलिए
चिंता कभी छूटती
नहीं। और एक
नयी चिंता पकड़
जाती है कि
चिंता कैसे
छूटे। और
चिंता में नया
जोड़ हो जाता
है। पूर्वीय
मनोविज्ञान मनुष्य
की चेतना की
चार दशाएं
मानता है।
पहली दशा
जागृति, जिसको
हम जागृति
कहते हैं।
जागृति में
अहंकार होता,
कर्ता का
भाव होता, मैं
की बड़ी पकड़
होती।
दूसरी
अवस्था को
स्वप्न कहता
है। स्वप्न
में अहंकार
क्षीण हो जाता
है। रोज तुम
जब रात सो
जाते, सपने
में तुम्हारा
अहंकार क्षीण
हो जाता है। ब्राह्मण
ब्राह्मण
नहीं रह जाता,
शूद्र
शूद्र नहीं रह
जाता।
राष्ट्रपति
को पता नहीं
रहता, राष्ट्रपति
हूं चपरासी को
पता नहीं रहता
कि चपरासी
हूं। अस्मिता
क्षीण हो जाती
है। बिलकुल
समाप्त नहीं
हो जाती—कुछ—कुछ
झलक मारती
रहती है।
धूमिल हो जाती
है। अहंकार तो
नहीं रहता, लेकिन
अहंकार का
प्रतिबिंब रह
जाता है। यह
स्वप्न दूसरी
दशा है।
तीसरी
दशा है
सुषुप्ति—जब
स्वप्न भी खो
गये,
कुछ भी न
बचा। तब
अहंकार का
अभाव हो जाता
है। तब
तुम्हें पता
ही नहीं रहता
कि मैं हूं।
कर्ता का भी
अभाव हो जाता
है। तुम करने
वाले नहीं रह
जाते। श्वास
चलती है, चलती
है। भोजन पचता
है, पचता
है। खून बहता
है, बहता
है। तुम कुछ
करने वाले
नहीं रह जाते।
तुम कुछ नहीं
करते
सुषुप्ति
में। मैं की
छाया भी नहीं
रह जाती, जैसी
सपने में थी।
जागृति में
मैं बहुत
मजबूत था, सपने
में छाया थी, सुषुप्ति
में छाया भी
खो गयी। एक
अंधकार फैल जाता
है। सुषुप्ति
एक नकारात्मक
दशा है, निगेटिव।
कुछ भी नहीं
होता। जैसे
तुम नहीं रहे,
ऐसा हो जाता
है।
फिर
चौथी दशा है, परमदशा,
अहोदशा।
उसका नाम है :
तुरीय। तुरीय
जागृति जैसी
जाग्रत और
सुषुप्ति
जैसी शांत।
तुरीय का अर्थ
है, जैसी
गहरी नींद में
शाति होती है
ऐसी शाति। लेकिन
गहरी नींद में
अंधकार होता
है, तुरीय
में प्रकाश
होता है। गहरी
नींद में अहंकार
खो जाता है, तुरीय में
भी अहंकार खो
जाता है।
लेकिन गहरी नींद
में निरहंकार
पैदा नहीं
होता। गहरी
नींद में
सिर्फ अहंकार
खो जाता है।
वह नकारात्मक
स्थिति है।
तुरीय की
अवस्था में
निरहंकार— भाव
पैदा होता है।
वह विधायक
स्थिति है।
बोध जगता है।
होश जगता है।
अकर्ता का भाव
स्पष्ट हो
जाता है।
तुरीय अवस्था
में व्यक्ति
परमात्मा का
संपूर्ण रूप
से निमित्त हो
जाता है।
व्यक्ति मिट
जाता है और
परमात्मा ही
शेष रहता है।
यह चौथी ही
अवस्था का
वर्णन है, तुरीय
अवस्था का
वर्णन है—
अहो
क्यापि परदशा
मुक्तचेतस
वर्तते।
कैसी
धन्य दशा है
मुक्त चैतन्य
की! कैसी
उत्कृष्ट, कैसी
परम! जहां न तो
वह जागता, न
सोता, न
पलक को खोलता,
न बंद करता—और
सब अपने से
होता है। सब
नैसर्गिक! सब
सहज!
'मुक्त पुरुष
सर्वत्र
स्वस्थ, सर्वत्र
विमल आशय वाला
दिखायी देता
है और वह सब
वासनाओं से
रहित सर्वत्र
विराजता है।’
सर्वत्र
दृश्यते
स्वस्थ:!
वह
जो मुक्त
पुरुष है तुम
उसे हर स्थिति
में,
हर
परिस्थिति
में स्वयं में
स्थित पाओगे।
तुम उसे कभी
विचलित होते न
देखोगे। तुम
उसे कभी अपने
केंद्र से
स्मृत होते न
देखोगे। यह
तुरीय अवस्था
में ही संभव
है—जहां
केंद्र
उपलब्ध हो
जाता है और
केंद्र पर पैर
जम जाते हैं।
जैसे वृक्ष ने
जड़ें जमा लीं
जमीन में, ऐसा
ही मुक्त
पुरुष अपनी तुरीय
अवस्था में
जड़ें फैला
देता है।
सर्वत्र
दृश्यते
स्वस्थ:...।
तुम
उसे हर जगह
स्वस्थ
पाओगे। दुख हो
या कि सुख हो; सफलता
हो कि विफलता
हो, जीवन
आये कि मृत्यु
आये—तुम उसे
स्वस्थ पाओगे।
तुम उसे
मृत्यु में भी
स्वस्थ
पाओगे। तुम उसे
डावांडोल न
देखोगे।
सर्वत्र
विमलाशय:.......
और
हर जगह तुम
पाओगे उसका
आशय निर्मल
है। उसके आशय
को तुम कहीं
भी कठोर न
पाओगे। उसके
आशय को कहीं
विकृत न
पाओगे। उसका
आशय सदा ही
शुभ होगा। ऐसा
नहीं कि वह
शुभ करना
चाहता है। वह
तो बात गयी।
करने इत्यादि
की तो बात
गयी। ऐसा नहीं
कि वह नैतिक
बनने की
चेष्टा करता
है। वह तो बात
गयी। अनीति
नहीं बची, नीति
नहीं बची। अब
तो उसका जो
शुद्ध सहज
व्यवहार है, वही उसका
विमल आशय है।
तुम उसके पास
एक सुगंध पाओगे।
तुम उसके पास
एक शांत
वातावरण
पाओगे। तुम
अगर जरा राजी
हो, तो तुम
उसके वातावरण
में डुबकी ले
सकते हो; जैसे
कोई गंगा में स्नान
कर ले, ताजा
हो जायेगा।
ज्ञानी
पुरुष ही असली
तीर्थ है।
इसलिए जैनों ने
महावीर को
तीर्थंकर
कहा। नदियों
के किनारे
नहीं हैं
तीर्थ, ज्ञानियों
के आसपास हैं।
क्योंकि
ज्ञानियों के
भीतर बह रही
है असली गंगा।
जल की गंगा से
तो ठीक है, तुम्हारी
देह धुल
जायेगी; लेकिन
चैतन्य की
गंगा से
धुलेगा
तुम्हारा
चैतन्य, तुम्हारी
आत्मा भी
स्नान कर
लेगी।
समस्त
वासनामुक्तो।
वह
समस्त
वासनाओं से
मुक्त हो गया
है।
मुक्त:
सर्वत्र सजते।
और
तुम उसे हमेशा
पाओगे राज
सिंहासन पर।
चाहे वह धूल
में बैठा हो, लेकिन
तुम उसकी
बादशाहत
पहचान लोगे।
उसका सम्राट
होना
सिंहासनों पर
निर्भर नहीं
है, उसका
सम्राट होना
बड़ा आंतरिक
है। वह चाहे
नग्न फकीर की
तरह खड़ा हो
रास्ते पर, तुम पहचान
लोगे कि उसका
साम्राज्य
है। जीसस ने
इसी
साम्राज्य की
बात की है. 'किंगडम
ऑफ गॉड'; प्रभु
का राज्य!
जीसस
को बहुत बार
उनके दुश्मन
पकड़ने आये।
लेकिन पास आ
कर बदल गये।
एक बार पुरोहितो
ने आदमी भेजे, दुष्ट
से दुष्ट आदमी
भेजे कि जीसस
को पकड़ लाओ।
वे आकर उनकी
बात सुनने लगे,
मंत्रमुग्ध
हो गये। जब
लौट कर आये और
पुरोहितो ने
पूछा : तुम
लाये नहीं? तो उन्होंने
कहा, बड़ा
मुश्किल है।
यह आदमी बड़ा
अदभुत है।
इसके पास एक
गरिमा है, कि
हम एकदम दब
गये। यह
बादशाहत है
इसके पास कोई,
कि हम एकदम
दीन—हीन मालूम
होने लगे।
कैसे तो इसके
हाथ में
हथकड़ियां
डालें? हमने
अपनी
हथकड़ियां
छुपा लीं। यह
आदमी बहुत अदभुत
है। ऐसा आदमी
कभी हुआ नहीं।
इसलिए
फिर जीसस को
अंधेरी रात
में पकड़ा। दिन
में पकड़ने की
फिर कोशिश
नहीं की; क्योंकि
दिन
में कोशिशें
कीं,
वे व्यर्थ
गयीं।
तुम
देखते हो, महावीर
नग्न खड़े हैं।
लेकिन फिर भी
क्या कोई बादशाह
इनसे बड़ी
बादशाहत को
कभी उपलब्ध
हुआ है?
स्वामी
राम अपने को
बादशाह कहते
थे। उन्होंने
एक किताब लिखी
है : राम
बादशाह के छ:
हुक्मनामे।
था तो उनके
पास कुछ
नहीं—लंगोटी।
छ: हुक्मनामे!
उसमें छ: आदेश
दिये हैं
दुनिया के नाम, फरमान—कि
ऐसा करो। जब
वे अमरीका गये
तो वहां भी
अपने को
बादशाह राम ही
कहते रहे!
लोगों ने उनसे
पूछा कि आप
फकीर हैं, अपने
को बादशाह
क्यों कहते
हैं? उन्होंने
कहा : इसीलिए, क्योंकि
मेरे पास सब
है। जिस दिन
मैंने छोटा घर
छोड़ा, यह
सारा
ब्रह्मांड
मेरा घर हो
गया। मैंने
क्षुद्र क्या
छोड़ा, विराट
मेरी संपदा हो
गयी। अब मेरे
पास सब है, सारी
संपदा है।
सारे जगत की
संपदा मेरी
है। चांद—तारे
मेरे लिए चलते
हैं। सूरज मेरे
लिए उगता है।
यह सब मेरे
इशारे पर हो
रहा है। लोग
समझते कि
दिमाग इनका
थोड़ा कुछ खराब
है। तुम्हारे
इशारे पर हो
रहा है! लेकिन
राम ठीक कह
रहे हैं। एक
ऐसी घड़ी है. जब
तुम मिट जाते
हो, तब
तुम्हारे
भीतर से
परमात्मा ही
बोलता है। किसी
ने उनसे पूछा,
आपके इशारे
से हो रहा है? उन्होंने
कहा, और
किसके इशारे
से होगा? मेरे
अतिरिक्त कोई
है नहीं।
मैंने ही इनको
चलाया। जब
पहली दफा
मैंने इनको
धक्का दिया, तो मैं ही
था। ये
चांद—तारे
मैंने बनाये।
मेरे इशारे से
चल रहे हैं।
पहले ही से
मेरे इशारे से
चल रहे हैं।
यह
किसी और महत
लोक की बात
है। राम में
बादशाहत थी।
समस्त
वासना मुक्तो
मुक्त:
सर्वत्र सजते।
सर्वत्र..
जिसकी वासना
शून्य हो गयी
है वह अपने आंतरिक
सिंहासन पर
विराजमान है।
जो ऐसे
सिंहासन पर विराजमान
है वही
विराजमान है, शेष
सब तो भिखारी
हैं।
'देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता
हुआ, सूंघता
हुआ, खाता
हुआ, ग्रहण
करता हुआ, बोलता
हुआ, चलता
हुआ, प्रयास
और अप्रयास से
मुक्त महाशय
निश्चय ही जीवन—मुक्त
है।’
सब
करता है और
फिर भी कुछ
नहीं करता।
चलता है और
चलता नहीं।
बोलता है और
बोलता नहीं।
खाता है और
खाता नहीं।
जैन
शास्त्रों
में एक उल्लेख
है। एक जैन
मुनि का आगमन
हुआ। वह यमुना
के उस पार
ठहरे। यमुना
में बाढ़ आयी
है। और
रुक्मिणी ने
कृष्ण से पूछा
कि मुनि ठहरे
हैं उस पार, नाव
लगती नहीं, कौन उन्हें
भोजन
पहुंचायेगा? भोजन हमें
पहुंचाना
चाहिए।
कृष्ण
ने कहा, तो
पहुंचाओ। पर
उसने कहा. पार
कैसे जायें? नाव लगती
नहीं।
उन्होंने
कहा : इतना ही
कह देना कि
अगर मुनि सदा
से उपवासे हैं
तो यमुना राह
दे दे। अगर
मुनि उपवासे
हैं तो यमुना
राह दे देगी।
बड़ी
मीठी कहानी
है। रुक्मिणी
ने थाल सजाये।
वह अपनी
सखियों के साथ
पहुंची। उसने
जा कर कहा नदी
को कि हे नदी, मुनि
उस तरफ भूखे
हैं और अगर वे
सदा के उपवासे
हों तो तू राह
दे दे। और कहते
हैं, नदी
ने राह दे दी।
चकित, नदी
से रुक्मिणी
गुजर गयी। उस
तरफ जा कर
मुनि को भोजन
कराया। तब याद
आयी कि यह तो
बड़ी मुश्किल
हो गयी। लौट
कर नदी से
क्या कहेंगे?
क्योंकि अब
तो मुनि ने
भोजन कर लिया।
अब तो वे
उपवासे नहीं
हैं। और कृष्ण
से हमने पूछा
ही
नहीं।
आने की बात तो
पूछ ली थी, जाने
की नहीं पूछी।
आने तक तो ठीक
था कि मुनि सदा
के उपवासे
हैं—तो रहे
होंगे, नदी
ने राह दे दी।
प्रमाण हो
गया। लेकिन अब
तो मुनि को
हमने अपनी आंख
के सामने खुद
ही भोजन करवा
दिया है। अब
कैसे उपवासे
हैं? और वे
बहुत थाल सजा
कर लायी थीं।
मुनि सारे थाल
समाप्त कर
गये। अब वे
बड़ी घबड़ाने
लगीं। उन्हें
बेचैन देख कर
मुनि ने कहा, तुम बड़ी
चिंतित मालूम
पड़ती हो, बात
क्या है? उन्होंने
कहा कि
ऐसा—ऐसा मामला
है। कृष्ण ने
कहा था, यह
सूत्र बोल
देना। हमने
बोला भी, काम
भी पड़ गया।
नदी ने राह भी
दे दी। अब हम
क्या करें? हम लौटने की
बात पूछना भूल
गये।
मुनि
ने कहा. पागल
हुई हो! वही
बात फिर कहना
नदी से कि
मुनि अगर सदा
के उपवासे हों
तो राह दे दो।
अब
तो उन्हें
भरोसा भी नहीं
था इस बात पर।
भरोसा होता भी
कैसे? लेकिन
कोई चारा भी न
था। जाकर कहा,
गैर— भरोसे
से कहा, लेकिन
नदी ने फिर
राह दे दी।
क्या से आकर
उन्होंने
पूछा कि अब
हमारे बिलकुल
सूझ—बूझ के
बाहर बात हो
गयी। तो कृष्ण
ने कहा. मुनि
सदा ही उपवासा
है। भोजन करने
न करने से कोई
संबंध नहीं। उपवास
का अर्थ जानती
हो गु: उपवास
का अर्थ होता
है, जो
अपने भीतर
विराजमान है।
अपने पास
बैठा—उपवास।
इसका भोजन
लेने —देने से
संबंध ही
नहीं। भोजन
नहीं किया, तो अनशन।
उपवास का क्या
संबंध है? उपवास
का अर्थ होता
है : जो अपने
पास है, जो
अपने निकटतम
बैठा है; जो
वहां से हटता
नहीं। यह मतलब
है उपवास का।
जो
अपने भीतर
विराजमान हो
गया है, वह
भोजन करते हुए
भी भोजन नहीं
करता है; क्योंकि
भोजन तो शरीर
में ही जाता, उसमें नहीं
जाता। वह
साक्षी ही बना
रहता है। वह
चलते हुए चलता
नहीं, क्योंकि
चलता तो शरीर
है।
तुम
कभी चले हो आज
तक?
चलोगे कैसे?
तुम्हारे
कोई हाथ—पैर
हैं? शरीर
चलता है। तुम
बोलोगे कैसे?
शरीर बोलता
है। तुम
सोचोगे कैसे?
मन सोचता
है। तुम इन सब
के पार, सारी
क्रियाओं के
पीछे
साक्षी—रूप
हो।
'देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता,
सूंघता, खाता
हुआ, ग्रहण
करता हुआ, बोलता
हुआ, चलता
हुआ, प्रयास
और अप्रयास से
मुक्त......।’
न
तो वह ऐसा
करता, .न ऐसा
नहीं करता। जो
होता है, होने
देता है। सबको
मार्ग देता
है। जो प्रभु
करवा ले, वही
ठीक। उसकी
अपनी कोई
इच्छा नहीं
रही। वह अपना
हिसाब नहीं
रखता। वह हर
हालत में
प्रभु के साथ
है। उसने
तैरना बंद कर
दिया। वह नदी
के साथ बहा
जाता है। इस
बहाव का नाम जीवन—मुक्ति
है।
'ऐसा महाशय
निश्चय ही
जीवन—मुक्त
है।’
ईहितानीहितै
मुक्त: मुक्त:
एव महाशय:।
'मुक्त पुरुष
सर्वत्र
रसरहित है। वह
न निंदा करता,
न स्तुति
करता, न
हर्षित होता,
न क्रुद्ध
होता, न
देता और न
लेता है।’
न
निदति न च
स्तौति न
हृष्यति न
कुप्यति
न
ददाति न गृहणाति
मुक्त:
सर्वत्र
नीरस:।।
इसे
समझना। नीरस
से कुछ गलत
अर्थ मत ले
लेना। मुक्त
पुरुष नीरस है, क्योंकि
उसे परम रस
मिल गया। इस
जगत में अब उसका
रस नहीं रहा।
मुक्त पुरुष
नीरस है, क्योंकि
उसे वह मिल
गया है जिसको
हम कहते हैं : 'रसो वै सः'। उसने परम
धन पा लिया।
तुम्हारे
ठीकरों में
उसे धन नहीं
दिखाई पड़ता।
इसलिए नहीं कि
ठीकरे उसने
छोड़ दिये, त्याग
दिये।
त्यागने
योग्य भी
उनमें कोई मूल्य
नहीं है।
उसमें कुछ है
ही नहीं जो
त्यागा जा सके,
कि भोगा जा
सके। तुम
जिन—जिन चीजों
में रस लेते, उसका रस खो
जाता। तुम
जहां जागे, वहां वह सो
जाता है। तुम
जहां सोये, वहां वह जाग
जाता है। एक
परम रस पैदा
हुआ है। अब
अहर्निश अमृत
की धार बरस
रही है। अब
जहर को कौन
पीये, किसलिए
पीये!
तुम
जिसे रस कह
रहे हो, वह रस
नहीं है।
क्योंकि अगर
रस होता तो
तुम्हारे
जीवन में
रसमुग्धता आ
गयी होती। तुम
रसपूर्ण हो
गये होते।
तुम्हारे
जीवन में
महोत्सव फलता,
फूल खिलते,
नाच होता, उत्सव होता।
कुछ भी तो
नहीं है। तुम
रूखे—सूखे, मरुस्थल
जैसे पड़े हो।
थके—हारे, सर्वहारा,
सब खोये पड़े
हो। तुम्हारे
जीवन में कहीं
भी तो कोई फूल
खिलता मालूम
नहीं होता।
काटे ही कांटे
तुम्हारे
जीवन में फैल
गये हैं।
तुम्हारी
सारी कथा कीटों
की कथा है।
दुख ही दुख और
दंश ही दंश।
और तुम कहते
हो रस! तुम
जरूर किसी गलत
चीज को रस कह
रहे हो। जहां
रस नहीं है
वहां तुम रस
देख रहे हो।
इस रस का तो विसर्जन
हो जाता है।
इसलिए
यह सूत्र कहता
है 'नीरस: '।
वैसा परम शानी
नीरस हो जाता
है। तुम्हारे
रस की दृष्टि
से, तुम्हारी
भाषा में नीरस
हो जाता है।
लेकिन अगर तुम
दूसरी तरफ से
देखो, ज्ञानी
की तरफ से
देखो तो वह
पहली दफा रस
से भरता है।
वह रस का सागर
हो जाता है।
उसके जीवन में
महाकाव्य
पैदा होता है।
उसके जीवन में
बड़ा संगीत जन्म
लेता है। उसके
जीवन में
विराट की वीणा
बजती है और
परमात्मा के
प्रसून खिलते
हैं। उस अर्थ
में वह नीरस
नहीं है।
यह
मैं तुम्हें
स्पष्ट कर दूं
क्योंकि
तुम्हारे साथ
सदा खतरा है।
तुम्हारे साथ
खतरा यह है कि
तुम नीरस
आदमियों को
ज्ञानी समझ
सकते हो। तुमने
ऐसे बहुत से
ज्ञानी बना
बिठा रखे हैं
चारों तरफ, जिनके
भीतर कुछ भी
नहीं है; जो
बिलकुल सूखे
हैं। बाहर का
छोड़ दिया, भीतर
का हुआ नहीं।
और तुमने यह
सोच कर कि
बाहर का छोड़
दिया, नीरस
हो गये, त्यागी
हो गये, विरक्त
हो गये। नहीं,
असली
विरक्ति की
यही पहचान है,
कि बाहर के
सारे रस चले
गये हों और
भीतर से
अहर्निश रस की
धार बह रही
हो। तुम जहां
रस देखते हो, वहां रस न
दिखाई पड़ता हो
और फिर भी
जीवन में एक परम
रस हो। बुद्ध
ने तो इस
अवस्था को
धर्म —मेघ समाधि
कहा है। जैसे
मेघ बरसता है,
रस से भर
जाता है, ऐसे।
कबीर
ने बार—बार
कहा है कि खूब
घने मेघ घिर
गये हैं। अमृत
की वर्षा हो
रही है और कबीर
मगन हो कर नाच
रहा है।
तुम्हारा
रस निश्चित खो
जाता है।
तुम्हारा रस
रस ही नहीं है, पहली
बात। तो
तुम्हारे रस
के खोने से
आदमी नीरस
नहीं होता है।
तुम्हारे रस
के खोने से ही
आदमी के परम
रस का द्वार
खुलता है। अब
दो बातें हैं।
या तो तुम परम
रस का द्वार
खोल लो, तो
इस जीवन से रस
चला जाये। या
तुम इस जीवन
का रस छोड़ दो, तो पक्का
नहीं है कि
परम द्वार
खुलेगा या
नहीं खुलेगा।
अष्टावक्र
की पूरी
प्रक्रिया और
मेरा पूरा उपदेश
यही है कि तुम
पहले उस परम
द्वार को खोल
लो। तुम बड़े
रस को पा लो, छोटा
रस अपने से
छूट जायेगा।
क्षुद्र
छूट ही जाता
है जब विराट
हाथ में आता है।
व्यर्थ छूट ही
जाता है जब
सार्थक की गंध
मिलती है।
जिसको बडी
संपदा मिल
जाती है, वह
फिर छोटी
संपदा की
चिंता कहां
करता! तब त्याग
में एक मजा
है। तब त्याग
में एक सहजता
है। बिना किये
हो जाता है, करना नहीं
पड़ता है। जो
त्याग करना
पड़े वह झूठा
है। उसमें
कर्ता तो बच
ही जायेगा और
अहंकार निर्मित
होगा।
न
निदति न च
स्तौति न
हष्यति न
कुप्यति!
ऐसा
पुरुष
तुम्हारे सब
रसों से रहित
है। वह न निंदा
करता है, न
स्तुति करता
है।
तुम
जरा हैरान होना; रस
की चर्चा में
निंदा—स्तुति
की बात
अष्टावक्र ने
क्यों उठा दी?
निंदा
तुम्हारा रस
है। तुम जब
निंदा का मजा
लेते हो, तुम
जब किसी की
निंदा करते हो,
तब
तुम्हारा
चेहरा देखो, कैसा
रसपूर्ण
मालूम होता
है! जीवन में
बड़ी ऊर्जा
मालूम होती
है। निंदा
करते लोगों को
देखो, कैसे
प्रसन्न
मालूम होते
हैं! दिखता है,
यही उनकी
एकमात्र
प्रसन्नता
है। तुम्हें
अगर निंदा
करने को न
मिले तो तुम
बड़े विरस हो
जाओगे।
तुम
निंदा क्यों
करते हो? आखिर
लोग निंदा में
इतना—इतना मजा
क्यों लेते हैं
पर
काव्यशास्त्र
ने नौ रस
गिनाये हैं, पता नहीं वह
निंदा को
क्यों छोड़ गये
हैं, क्योंकि
वह महारस
मालूम होता
है। कविता
वगैरह तो लोग
कभी—कभी
पढ़ते—सुनते
हैं। और रस तो
ठीक ही हैं, निंदा
बिलकुल
सार्वलौकिक
रस है, सार्वभौम।
अगर कोई
तुम्हारे पास
बैठ कर कुछ कहने
लगे, किसी
की निंदा करने
लगे, तुम
लाख काम छोड़
देते हो। यह
मौका छोड़ते
नहीं बनता।
अगर वह आदमी
बीच में रुक
जाये, कहे
कि अब कल कह
देंगे, तो
बड़ी मुश्किल
हो जाती है।
कल तक समय
बिताना मुश्किल
हो जाता है।
तुम कहते हो :
अरे भाई, कह
ही दो, निपटा
ही दो, नहीं
तो मन में
अटका रहेगा।
आखिर
निंदा में
इतना रस क्या
है?
रस है! निंदा
का अर्थ होता
है दूसरे को
छोटा दिखाना।
दूसरे के छोटे
दिखाने में
तुम्हें अपने
बड़े होने का
मजा आता है।
तुम बड़े तो हो
नहीं। सीधे—सीधे
तो तुम बड़े हो
नहीं। दूसरे
की निंदा करके
तुम एक
छोटा—सा मजा
ले लेते कि
तुम बड़े हो।
सुनी
तुमने कहानी
अकबर की कि एक
लकीर खींच दी
उसने दरबार
में और कहा :
इसे बिना छुए
कोई छोटा कर
दे। सोचा बहुत, बिना
छुए कैसे छोटी
होगी। छूना तो
पड़ेगा, तभी
छोटी होगी।
लेकिन बीरबल
ने उठ कर एक
बड़ी लकीर उसके
नीचे खींच दी।
बीरबल को
निंदा—रस का पता
होगा। उसने
बिना छुए एक
लकीर खींच दी
बड़ी—छोटी हो
गयी लकीर, पहली
लकीर छोटी हो
गयी।
तुम
जब किसी की
निंदा में रस
लेते हो तो
तुम उसकी लकीर
छोटी कर रहे
हो। उसकी छोटी
होती लकीर के
कारण
तुम्हारी
लकीर बड़ी हो
रही है। तुम
प्रफुल्लित
होते हो कि
अरे,
तो हम से भी
बुरे लोग हैं
दुनिया में, कोई हम ही
बुरे नहीं! और
हम तो फिर कुछ
भी बुरे नहीं,
इतने बुरे
लोग हैँ।
धीरे— धीरे
तुम कहते हो, तो हम तो भले
ही हैं। बुरे
लोगों का
संसार है, इसमें
हम नाहक
परेशान हो रहे
थे।
तुमने
एक बात खयाल
की,
अगर कोई
किसी की निंदा
करता हो तो
तुम प्रमाण कभी
नहीं मांगते।
तुम यह नहीं
कहते कि
प्रमाण क्या?
लेकिन कोई
अगर किसी की
प्रशंसा करता
हो तो तुम प्रमाण
मांगते हो।
कोई कहे कि
फला आदमी परम
शान को उपलब्ध
हो गया, तुम
कहते, प्रमाण?
तुम्हारे
कहने से न मान
लेंगे। सबूत
क्या है? कोई
प्रत्यक्ष
प्रमाण लाओ, कहने से
क्या होता है?
लेकिन
कोई अगर कहे
कि फला परम
ज्ञानी
भ्रष्ट हो गया, तो
तुम प्रमाण
नहीं मांगते।
तुम कहते हो, हमको तो
पहले से ही
पता था, यह
होना ही था।
वह भ्रष्ट था
ही।
तुम
अपने मन को
जरा गौर करना।
कोई अगर किसी
की बुराई करे
तो तुम बिना
तर्क मान लेते
हो। कोई किसी
की भलाई करे
तो तुम हजार
तर्क खड़े करते
हो। क्यों? क्योंकि
दूसरे की भलाई
का मतलब है, उसकी लकीर
बड़ी हो रही है,
तुम्हारी
छोटी हो रही
है। बुराई का
अर्थ है, उसकी
लकीर छोटी हो
रही है, तुम्हारी
बड़ी हो रही
है। यह भीतर
का हिसाब है।
ऐसा
नहीं है कि
तुम सदा निंदा
में ही रस
लेते हो; कभी—कभी
तुम स्तुति
में भी रस लेते
हो। तब भी तुम
खयाल रखना कि
वहा भी कुछ
गणित काम करता
है। तुम
स्तुति किसकी
करते हो? जिसके
साथ तुम अपना
तादात्म्य कर
लेते हो, उसकी
स्तुति करते
हो। तुम्हारा
गुरु, तो
तुम उसकी
स्तुति करते
हो। तुम कहते
हो, हमारा
गुरु महागुरु!
दूसरे कहते
हैं, गुरुघंटाल;
तुम कहते हो
महागुरु। तुम
क्यों कहते हो
महागुरु? क्योंकि
महागुरु हो तो
ही तुम
महाशिष्य। अब
तुमने उसकी
लकीर के साथ
अपनी लकीर जोड़
दी। उसकी
जितनी लकीर
बड़ी होती जाये
उतनी
तुम्हारी होती
है; नहीं
तो तुम भी
गये। अब तुम
तो रेल के
डब्बे हो, वह
इंजिन। अब वह
चले तो तुम
चले, नहीं
तो तुम भी
गये।
तो
जिनके साथ तुम
अपना
तादात्म्य कर
लेते हो, उनकी
तुम प्रशंसा
करते हो।
तुम्हारा
बेटा—तुम कहते
हो 'अरे, लाखों में
एक!' और ये
सब लाखों में
एक बेटे कहां
खो जाते हैं, पता नहीं
चलता। हरेक
अपने बेटे की
तारीफ कर रहा
है। क्योंकि
लाखों में एक
बेटा तभी होता
है जब करोड़ों
में एक बाप
हो। क्योंकि
फल से ही
वृक्ष तो
पहचाना जाता
है। तो जब बेटा
सिद्ध नहीं
होता लाखों
में एक, तो
तुम्हें बड़ी
पीड़ा होती है।
जो बेटा
तुम्हारे
अहंकार को बड़ा
नहीं करता, तुम उसकी
चर्चा नहीं
करते। मेरे एक
मित्र थे, उनके
दो बेटे थे। एक
मिनिस्टर हो
गया और एक
साधारण
दूकानदार। वे जब
भी आते अपने
मिनिस्टर
बेटे की चर्चा
करते। मैंने
उनसे कहा कि
आपका दूसरा भी
बेटा है, आप
उसकी कभी
चर्चा नहीं
करते। वे बोले
: उसकी क्या
चर्चा करना? मैंने कहा
कि यह भी कोई
बात हुई? मिनिस्टर
की ही चर्चा
करते हैं। मिनिस्टर
से उनको बड़ी
आशाएं थीं। वे
सोचते थे कि उनका
बेटा जो
मिनिस्टर है,
वह कभी न
कभी प्राइम
मिनिस्टर
होने वाला है;
वह पंडित
जवाहरलाल
नेहरू की जगह
लेने वाला है।
उनकी कल्पना
में..। और वे
मोतीलाल थे।
वह उनके दिमाग
में बैठा था।
अब वे
दूकानदार की
तो बात ही
नहीं करते, क्योंकि
दूकानदार। अब
किराने की
दूकान कोई चलाये,
उस बेटे के
बाप होने में
सार ही क्या
है!
फिर
उनका जो बेटा
मिनिस्टर था
और जवाहरलाल
होने वाला था
मर गया बीच
में। वह मरा
मिनिस्ट्री
की वजह से।
चिंता— भार...
विक्षिप्त हो
गया। फिर विक्षिप्तता
में प्राण भी
चले गये। तो
वे बहुत—बहुत
रोये।
आत्महत्या
करने को उतारू
हो गये। मैंने
उनसे पूछा कि
अगर तुम्हारा
दूसरा बेटा मर
जाता तो तुम
इस तरह के
उपद्रव करते? तो
वे रो रहे थे; आंखों से
उनके आंसू रुक
गये।
उन्होंने कहा
: आप हमेशा
दूसरे बेटे की
बात क्यों
उठाते हैं? मैंने कहा
कि मैं इसलिए
उठाता हूं कि
मुझे पता तो
चले कि यह बाप
का हृदय है या
सिर्फ अहंकार
ही काम कर रहा है।
फिर
संयोग की बात, जब
पहला बेटा मर
गया, तो
दूसरे बेटे को
उन्होंने
धीरे — धीरे
धक्का दिया, उसको
मिनिस्टर
बनवा दिया। तब
से वे दूसरे
बेटे की बात
करने लगे। तब
से वह दूसरा
बेटा भी
सार्थक मालूम
होने लगा।
तुम
जिसके साथ
अपना अहंकार
जोड़ देते हो, बस
उसके साथ तो
तुम्हारी
स्तुति जुड़
जाती है। इसलिए
जैन कहता है
कि महावीर, बस इनसे बड़ा
कोई ज्ञानी
कभी नहीं हुआ।
ईसाई कहता है
जीसस, वे
ईश्वर के
इकलौते बेटे।’इकलौते' पर
जोर देता है।
क्योंकि अगर
दूसरा भी बेटा
हो तो झंझट
खड़ी होगी। फिर
कोई दूसरा
धर्म दावा कर
दे कि यह दूसरा
बेटा है और
जीसस के बड़े
भाई हैं ये।
तो इकलौते पर
जोर देते हैं
कि इकलौता
बेटा! तो
दूसरे का उपाय
ही नहीं
छोड़ते।
मुसलमान
कहते हैं :
मुहम्मद
आखिरी पैगंबर, उनके
बाद अब कोई
नहीं। ईश्वर
ने आखिरी
पैगाम भेज
दिया, अब
इसमें कोई
तरमीम नहीं, कोई सुधार
नहीं। भेज दी
आखिरी बात, आखिरी कितब
आ चुकी। अब
कोई किताब
नहीं आयेगी। क्योंकि
अगर ऐसा आगे
भी दरवाजा
खुला रखें तो
फिर हजारों
लोग हैं, हर
कोई दावा कर
देगा कि हम
दूसरी किताब
ले आये। यह आ गयी
किताब दूसरी।
फिर इलहाम हो
गया हमें। यह
सब रोकना
पड़ेगा।
मुहम्मद को
अप्रतिम
बनाना होगा, आखिरी बनाना
होगा। इनके
ऊपर फिर किसी
को जाने न
देना होगा।
फिर इससे
तुमने जोड़
लिया कि हम मुसलमान
और हमारा
पैगंबर आखिरी
पैगंबर।
हिंदुओं
से पूछो। वे
कहते हैं कि
वेद परमात्मा
की किताब, और
कोई किताब
परमात्मा की
नहीं। और वेद
परमात्मा का
पहला इलहाम।
एक
आर्यसमाजी
मुझसे मिलने
आये। वे कहने
लगे कि आप
बाइबिल की
इतनी प्रशंसा
करते हैं और
जीसस की इतनी
प्रशंसा करते
हैं,
लेकिन आप
हमारी बात पर
ध्यान दें।
परमात्मा ने
सबसे पहले तो
वेद उतारा। तो
वेद सबसे
ज्यादा
प्राचीन है।
और परमात्मा
कुछ गलती थोड़े
ही करता है—जो
एक दफे भेज
दिया, भेज
दिया। फिर
उसमें सुधार
की कोई जरूरत
ही नहीं है।
फिर सारे धर्म
तो बाद में
आये। तो ये सब आदमियों
की ईजाद है।
परमात्मा तो
कोई भूल कर ही
नहीं सकता।
ऐसा श्गेड़े ही
है कि एक भेजा,
फिर दस—पचास
साल बाद उसने
सोचा कि अरे, इसमें कुछ
भूल हो गई, फिर
दूसरा भेजें,
फिर तीसरा
भेजें
तो
वे कहने लगे
कि हमारी
किताब सबसे
पहले आयी—वह
सबूत है इस
बात का कि फिर
बाकी किताबें
सब आदमियों की
हैं।
उनकी
दलील वेद से
अपने को जोड़
लिया। सनातन
धर्म, सबसे
पुराना धर्म,
सबसे
प्राचीन।
परमात्मा की
पहली किताब।
ईसाई
कहते हैं कि
समय के साथ
रोज,
जीवन के साथ
रोज बदलाहट
होती है।
मुसलमान कहते
हैं, समय
के साथ बदलाहट
होती है। तो
पुरानी किताब
तो सड़ चुकी।
वह जिनके लिए
भेजी थी, वे
भी अब नहीं
हैं। वह बात
गयी। वह तो
पहली क्लास की
किताब थी। अब
मनुष्यता
पहुंच गयी है
विश्वविद्यालय
में। अब तुम
वही क ख ग पढ़ते
रहोगे?
सबकी
अपनी दलीलें
हैं—अपनी को
श्रेष्ठतम
सिद्ध करने की
दलीलें हैं।
लेकिन पीछे
बहुत गहरे में
यह भाव छिपा
है कि हम
श्रेष्ठतम से
जुड़े हैं, तो
हम श्रेष्ठतम
हो गये हैं।
स्तुति
में भी तुम रस
लेते हो।
ध्यान रखना, न
निंदा में रस
लेना, न
स्तुति में रस
लेना। दोनों
रुग्ण रस हैं,
बीमार हैं।
दोनों को तुम
छोड़ दो तो
तुम्हारा अहंकार
बेसहारा हो
जाये। धीरे—
धीरे
तुम्हारे अहंकार
की लकीर पूरी
की पूरी
विलुप्त हो
जायेगी। और जब
अहंकार खो
जाता है तो जो
शेष रह जाता
है, वही
पाने योग्य
है। फिर न तो
कुछ देने को
है, न कुछ
लेने को है।
जो है, है।
न
ददाति न
गृहणाति
मुक्त:
सर्वत्र नीरस:।
फिर
न तो मुक्त
पुरुष को कुछ
लेना है किसी
से,
न किसी को
कुछ देना है।
सब उसका है और
कुछ भी उसका
नहीं है। सब
उसे मिला है
और किसी की
उसे आकांक्षा
नहीं है। वह
समस्त के साथ
एक हो गया, सर्व
के साथ एक हो
गया, सर्व—रस
में लीन हो
गया—इसलिए
नीरस है।
इन
सूत्रों पर
ध्यान करना।
और इन सूत्रों
को सिर्फ
सिद्धात की
तरह मत समझना।
ये तुम्हारे जीवन
के लिए स्पष्ट
निर्देश हैं।
इनका जरा उपयोग
करोगे तो
तुम्हारा
अनगढ़ पत्थर
गढ़ा जाने लगेगा।
तुम्हारे
अनगढ़ पत्थर
में तुम्हारी
प्रतिमा
उकरने लगेगी।
धीरे — धीरे
रूप प्रकट होगा।
प्रत्येक
व्यक्ति अपने
भीतर
परमात्मा को छिपाये
बैठा है। थोड़े
निखार की
जरूरत है। थोड़े
स्नान की
जरूरत है। धूल
बह जाये।
गलितधी: —विचार
गिर जायें—तो
परम आनंद
तुम्हारा
स्वभाव है।
हरि ओंम
तत्सत्!
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