दिनांक
6 मार्च, 1975;
श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
प्रश्नसार:
1—आप जिस किसी
भी मार्ग की
बात करते है।
तो वही लगता
है मेरा
मार्ग! तो
कैसे पता चले
कि मेरा मार्ग
क्या है?
2— क्या
समाधि की सभी
अवस्थाओं से
गुजरना जरूरी है?
क्या
गुरु का सान्निध्य
सीधे छलांग
लगाने में
सहायक हो सकता
है?
3—पतंजलि
की तरह ही क्या
आप स्वयं भी
कविता,
रहस्यवाद और
तर्क के
श्रेष्ठ जोड़
हैं?
4—प्रार्थना
तक पहुंचने के
लिए प्रेम से गुजरना
क्या जरूरी है?
5—पतंजलि
आधुनिक मनुष्य
की न्यूरोसिस
(विक्षिप्तता)
के साथ कैसे कार्य
करेंगे?
6—आपके
प्रवचनों में
नींद की झपकी
आने का क्या
कारण है?
7—पतंजलि
की विधियां
इतनी धीमी और
लंबी है,
फिर भी आप इन
पर, भागते
हुए आधुनिक
मनुष्य के
लिए, क्यों
बोल रहे है।
पहला
प्रश्न :
जब
आप पतंजलि पर
बोलते हैं तो
मैं अनुभव
करता हूं कि
वही है मेरा मार्ग
जब आप झेन पर
बोलते हैं तब
मेरे लिए झेन
होता है मार्ग
जब आप बोलते
हैं तंत्र पर
तब तंत्र हो
जाता है मेरा
मार्ग। तो
कैसे पता चले
मुझे कि मेरे
लिए कौन— सा
मार्ग है?
बहुत
सीधी—साफ बात
है—यानि जब
मैं पतंजलि पर
बोलता हूं तुम
अनुभव करते हो
कि पतंजलि
तुम्हारे
मार्ग हैं। और
जब मैं बोलता
हूं झेन पर, तुम
अनुभव करते हो
झेन है
तुम्हारा
मार्ग। और जब
मैं बोलता हूं
तंत्र पर, तुम
अनुभव करते हो
कि तंत्र है
तुम्हारा
मार्ग। तब तो
समस्या
अस्तित्व ही
नहीं रखती—मैं
ही हूं
तुम्हारा
मार्ग।
दूसरा
प्रश्न :
क्या
खोजी के लिए
समाधि की सारी
अवस्थाओं में से
गुजरना जरूरी
है?
क्या गुरु
का सान्निध्य
कुछ अवस्थाओं
को एकाएक पार
करने में मदद
दे सकता है?
नहीं, वैसा
आवश्यक नहीं।
सारी
अवस्थाओं की
व्याख्या
पतंजलि
द्वारा की गई
है क्योंकि
सारी अवस्थाएं
संभव होती हैं,
लेकिन
आवश्यक नहीं।
तुम बहुत को
छोड़ निकल सकते
हो। तुम पहले
चरण से अंतिम
चरण तक भी जा
सकते हो; बीच
के सारे
रास्ते से
बिलकुल बचा जा
सकता है। यह
तुम पर निर्भर
करता है, तुम्हारी
प्रगाढ़ता पर,
तुम्हारी
तीव्र खोज पर,
तुम्हारी
समग्र
प्रतिबद्धता पर।
गति निर्भर
करती है तुम
पर।
इसलिए
अचानक संबोधि
को उपलब्ध
होना भी संभव
होता है। सारी
क्रमिक
प्रक्रिया
गिराई जा सकती
है। बिलकुल
इसी क्षण ही, तुम
हो सकते हो
संबोधि को
उपलब्ध। वैसा
संभव है, लेकिन
यह निर्भर
करेगा इस पर
कि तुम्हारी
खोज कितनी
प्रगाढ़ है, तुम कितने
उतरे हुए हो
उसमें। यदि
तुम्हारा
केवल एक
हिस्सा उसमें
है, तब तुम
प्राप्त
करोगे एक
टुकड़ा, एक
चरण। यदि
तुम्हारा आधा
हिस्सा इसमें
है, तब तुम
तुरंत पार कर
जाओगे आधी
यात्रा, और
फिर वहीं अटक
जाओगे। लेकिन
यदि तुम्हारा
समग्र
अस्तित्व
होता है इसमें
और तुम कोई चीज
रोके हुए नहीं
होते, तुम
सारी चीज को
बस घटित होने
दे रहे होते
हो तो बिलकुल
अभी, तो तुरंत
सकता है वैसा।
समय की कोई
जरूरत नहीं
होती।
समय
की जरूरत होती
है क्योंकि
तुम्हारा
प्रयास अधूरा
होता है, आशिक
होता है। तुम
उसे करते हो, आधे—आधे मन
से। तुम करते
हो उसे, और
तुम करते भी
नहीं उसे। तुम
एक साथ एक कदम
आगे बढ़ते और
एक कदम पीछे
हटते। दायें
हाथ से तुम
करते, और
बायें हाथ से
तुम अनकिया कर
देते। फिर वहां
होंगी बहुत
सारी
अवस्थाएं।
पतंजलि जिनका
वर्णन कर सकते
हैं, उनसे
कहीं ज्यादा
उन्होंने
सारी संभव
अवस्थाओं का
वर्णन कर दिया
है। बहुतों को
गिराया जा
सकता है या
सभी को गिराया
जा सकता है।
संपूर्ण
मार्ग को
गिराया जा
सकता है।
तुम्हारे
प्रयास में
अपना समग्र
अस्तित्व ले
आओ।
और
गुरु का
सान्निध्य
बहुत मदद दे
सकता है, लेकिन
वह भी तुम पर
निर्भर करता
है। तुम
शारीरिक रूप
से गुरु के
निकट रह सकते
हो, और तुम
शायद बिलकुल
ही निकट न हो
उसके।
क्योंकि गुरु
के साथ होने
में बात
शारीरिक निकटता
की नहीं होती,
बात होती है
कि तुम कितने
खुले होते हो
उसके प्रति, कितनी आस्था
रखते हो तुम, कितना
तुम्हारा
प्रेम होता है
उसके प्रति, तुम्हारे
अस्तित्व का
कितना तुम दे
सकते हो उसे।
यदि तुम
वास्तव में ही
निकट होते हो,
उसका अर्थ
है यदि तुम
आस्था रखते हो
और प्रेम करते
हो, तो फिर
दूसरी और कोई
निकटता नहीं।
यह बात स्थान
की दूरी की
नहीं, यह
बात है प्रेम
की। यदि तुम
वास्तव में ही
गुरु के निकट
होते हो, तो
सारे मार्ग, सारी
विधियां
गिराई जा सकती
हैं। क्योंकि
गुरु के निकट
होना परम विधि
है। उसके जैसा
और कुछ
अस्तित्व
नहीं रखता है।
उसकी तुलना
में और कुछ
नहीं है, तब
तुम बिलकुल
भूल सकते हो
तमाम विधियों
को, सारे
पतंजलियों को;
तुम बिलकुल
ही भूल सकते
हो उनके बारे
में। गुरु के
निकट होने
मात्र से और
गुरु को तुम्हारे
अस्तित्व में
प्रवेश करने
देने से ही, यदि तुम बन
जाते हो केवल
एक
ग्रहणशीलता, तुम्हारी ओर
से बिना किसी
चुनाव के, केवल
एक खुला द्वार,
तब एकदम इसी
क्षण घटना
संभव हो जाती
है।
और
मैं तुम्हें
याद दिला देना
चाहूंगा कि उन
सब विधियों
द्वारा जो कि
संसार में
अस्तित्व
रखती हैं, बहुत
सारे लोग नहीं
पहुंच पाए हैं।
बहुत ज्यादा
लोग पहुंचे
हैं गुरु के
निकट होने
द्वारा। वह सब
से बड़ी विधि
है। लेकिन
अंतत: हर चीज
निर्भर करती
है तुम पर।
यही
है समस्या, यही
है समस्या की
असली जड़ कि वह
मुझ पर निर्भर
नहीं। अन्यथा
मैं तुम्हें
दे चुका होता
पहले ही। तब
कहीं कोई
समस्या न होती।
एक बुद्ध ही
काफी होता, और उसने दे
दिया होता
सबको क्योंकि
उसके पास अपरिसीम
है; तुम
उसे निःशेष
नहीं कर सकते।
वे और—और दे
सकते हैं। और
सदा तैयार होते
हैं देने को, क्योंकि
जितना ज्यादा
वे देते हैं, उतना ज्यादा
वे पाते हैं।
जितना ज्यादा
वे बांटते हैं,
उतने
ज्यादा
अज्ञात स्रोत
खुलते जाते
हैं, अशात
नदियां बहने
लगती हैं उनकी
तरफ।
एक
बुद्ध ने ही
संबोधि दे दी
होती सब
प्राणियों को, यदि
यह बात गुरु
पर निर्भर होती
तो। यह निर्भर
नहीं है।
तुम्हारे
अज्ञान में, तुम्हारे मन
की
अहंकारयुक्त
अवस्था में, तुम्हारे
बंद कैद हुए
अस्तित्व में,
तुम
अस्वीकार कर
दोगे यदि
बुद्ध उसे
तुम्हें देना
भी चाहते हों
तो। जब तक तुम
न चाहो तुम
करोगे
अस्वीकार।
उसे तुम्हें
तुम्हारी
इच्छा के विरुद्ध
नहीं दिया जा
सकता है।
तुम्हें उसे
प्रवेश करने
देना होता है,
और तुम्हें
उसे प्रवेश
करने देना
होता है बड़े बोधपूर्वक,
सतर्कता से
और सजगता से।
केवल गहरी
जागरूकता में
और गहरी
ग्रहणशीलता में
उसे ग्रहण
किया जा सकता
है।
गुरु
के समीप होने
से,
प्रेम और
आस्था में
उसके निकट
होने से, और
बिना
तुम्हारे
अपने चुनाव के
जो कुछ वह करना
चाहे करने
देने से फिर
कोई और चीज करने
की कोई जरूरत
नहीं होती।
लेकिन फिर अपेक्षा
मत रखना। तब
अपने मन के
ज्यादा गहरे
में भी कोई
मांग मत रखना,
क्योंकि
वही अपेक्षा
और मांग ही
अड़चन बन जायेगी।
तब तुम केवल
प्रतीक्षा
करना। यदि वह
बहुत—बहुत
जन्मों तक भी
न घटने वाला
हो, यदि
तुम्हें
अनंतकाल तक भी
प्रतीक्षा
करनी पड़े, तो
भी प्रतीक्षा
करना और यह
प्रतीक्षा
उदास घुटी हुई
प्रतीक्षा
नहीं होनी
चाहिए। इसे
होना चाहिए
प्रतीक्षामय
उत्सव। इसे
आनंदमय उत्सव
होना चाहिए।
इसे होना
चाहिए आनंद से
परिपूर्ण।
यही चीजें
बताती हैं कि
तुम और— और
निकट हो सकते
हो।
और
अकस्मात एक
दिन आता है जब
गुरु की
प्रज्वलित लौ
और तुम्हारे
अस्तित्व की
लौ एक हो सकती
है। अचानक एक
छलांग लगती है; तुम
वहां नहीं
होते, और न
ही होता गुरु।
तुम एक हो गए
होते हो। उस
एकमयता में, वह सब जो कि
गुरु तुम्हें
दे सकता है, उसने दे
दिया होता है
तुम्हें।
उसने स्वयं को
उंडेल दिया
होता है
तुममें।
तो
खोजी के लिए
आवश्यक नहीं
होता समाधि की
सारी
अवस्थाओं में
से गुजरना।
ऐसा आवश्यक हो
जाता है इसलिए
क्योंकि तुम
पर्याप्त रूप
से खोजी नहीं
होते हो। तब
बहुत सारी
अवस्थाएं
होती हैं। यदि
तुम सचमुच ही
प्रगाढ़ होते, सच्चे
होते, प्रामाणिक
होते, यदि
तुम मरने को
तैयार होते हो
तो इसी क्षण
वह घट सकता है।
तीसरा
प्रश्न.
आपने
कहा कि पतंजलि
कविता
रहस्यवाद और
तर्क के
श्रेष्ठ जोड़
हैं क्या आपके
पास भी यही
संपूर्ण
संतुलन नहीं
है?
नहीं, मैं
तो बिलकुल
विपरीत हूं
पतंजलि के।
पतंजलि के पास
एक संपूर्ण
जोड़ है कविता,
रहस्यवाद
और तर्क का।
नहीं, मैं
तो केवल हूं 'नेति—नेति'; न तो यह हूं
और न ही वह हूं।
मेरे पास
कविता, रहस्यवाद
और तर्क का
संपूर्ण
संतुलन नहीं
है। वस्तुत:
मेरे पास न तो
संतुलन है और
न ही है असंतुलन,
क्योंकि—संपूर्ण
रूप से
संतुलित
व्यक्ति के
पास असंतुलन
भी साथ में ही
होता है।
संतुलन
केवल तभी
अस्तित्व रख
सकता है जबकि
असंतुलन का
अस्तित्व हो।
सुसंगतता
केवल तभी
अस्तित्व रख
सकती है जब
विसंगति साथ
में ही हो।
मैं तो हूं एक
विशाल
शून्यता की
भांति, बगैर
किसी
समस्वरता के;
कोई
असमस्वरता भी
नहीं। कोई
संतुलन नहीं,
कोई
असंतुलन नहीं;
कोई
पूर्णता नहीं,
कोई
अपूर्णता
नहीं—मात्र एक
शून्यता। यदि
तुम आते हो
मुझ में तो तुम
मुझे बिलकुल
ही नहीं पाओगे
वहां। मैंने
स्वयं नहीं
पाया, तो
तुम कैसे पा
सकते हो मुझे?
ऐसा
हुआ कि सूफी
संत बायजीद के
घर में एक चोर
घुस गया। रात
अंधेरी थी और
बायजीद का घर
था बिलकुल अंधकार
में। क्योंकि
वह बहुत गरीब
था,
वह एक भी
मोमबत्ती का
खर्च नहीं उठा
सकता था। और
कोई जरूरत भी
न थी क्योंकि
वह कभी कुछ
करता नहीं था
रात को, वह
तो बस सो जाता
था। जब चोर
प्रविष्ट हुआ
तो कठिनाई
नहीं हुई क्योंकि
द्वार सदा
खुले रहते थे।
चोर प्रवेश कर
गया। बायजीद
ने किसी की
उपस्थिति
अनुभव करते
हुए कहा, 'मित्र
क्या ढूंढ रहे
हो यहां?'
बायजीद
जैसे गुरु के
निकट होने से
ही,
एक चोर तक
भी झूठ नहीं
बोल सका। वह
मौजूदगी ही ? ऐसी थी कि
उसने अनुभव
किया प्रेम और
जुब बायजीद
बोला, 'मित्र
तुम क्या ढूंढ
रहे हो यहां?' तो वह आदमी
बोला, 'मुझे
ऐसा कहने में
अफसोस होता है,
लेकिन कहना
ही चाहिए
मुझे! मैं
आपसे झूठ नहीं
बोल सकता। मैं
एक चोर हूं और
कुछ पाने आया
हूं।’ बायजीद
बोला, 'प्रयत्न
बेकार है
क्योंकि मैं
इस घर में रह
रहा हूं तीस
वर्षों से, और मैंने
कुछ नहीं पाया
है। लेकिन यदि
तुम कुछ पा
सको, तो
जरा बता देना
मुझे।’
यदि
तुम प्रवेश
करते हो मुझ
में तो तुम
मुझे बिलकुल
ही नहीं पाओगे
वहां, क्योंकि
मैं स्वयं रह
रहा हूं इस घर
में बहुत—बहुत
वर्षों से और
मैंने किसी को
नहीं पाया है वहां।
वही है मेरी
प्राप्ति; वही
है जो पाया है
मैंने—कि वहां
कोई नहीं है
भीतर—वह अंतस
सत्ता है
अनत्ता।
जितना ज्यादा
गहरे जाते हो
तुम भीतर, उतना
ही कम तुम
पाओगे अहं
जैसी कोई चीज।
और जब तुम
पहुंच जाते हो
भीतर के गहनतम
मर्म तक, तो
केवल होती है
शून्यता, शुद्ध
शून्यता, 'कुछ—नहीं—पन'
का विशाल
आकाश मात्र
होता है। तो
संतुलन कैसे
अस्तित्व रख
सकता है वहां,
और कैसे
असंतुलन
अस्तित्व रख
सकता है वहां?
पतंजलि
सर्वाधिक
असाधारण
व्यक्तियों
में से एक हैं, मैं
नहीं। पतंजलि
ठीक विपरीत
हैं। यदि तुम
पतंजलि से
कहते मुझ पर
बोलने के लिए
तो वे नहीं
बोल पाते। वे
बहुत भरे हुए
हैं स्वयं से।
लेकिन यदि तुम
मुझ से कहो
बोलने के लिए—पतंजलि
पर, तिलोपा
पर, बोधिधर्म
पर, महावीर
पर, जीसस
क्राइस्ट पर—तो
यह आसान होता
है, बहुत
आसान, क्योंकि
मैं बिलकुल
शून्य हूं।
मैं किसी के
प्रति उपलब्ध
हो सकता हूं।
मैं किसी को
आने दे सकता
हूं मेरे
द्वारा बोलने
के लिए। मैं
हूं बांस की
खाली पोगरी—कोई
व्यक्ति गीत
गा सकता है
उसके द्वारा,
वह बन सकती
है बांसुरी।
इसलिए
मैं जोड़ नहीं
हूं—कविता, रहस्यवाद
और तर्क का या
किसी भी चीज
का। मैं
संतुलन
बिलकुल नहीं।
पर ध्यान रहे,
मैं
असंतुलन भी
नहीं हूं। मैं
हूं 'नेति—नेति';
जिसे
उपनिषद कहते
हैं—'न तो
यह और न ही वह।’
इसीलिए मैं
उपलब्ध हूं
किसी के लिए
भी। यदि
पतंजलि जोर
देते हैं, चाहते
हैं तो वे बोल
सकते हैं मेरे
द्वारा, कोई
झंझट नहीं, कोई रुकावट
नहीं।
इसलिए
तुम सदा
परेशान रहते
हो कि जब मैं
बोलता हूं
पतंजलि पर, तो
वे समस्त
अस्तित्व का
पूरा
चरमोत्कर्ष
बन जाते हैं।
तब मैं भूल
जाता हूं बुद्ध,
महावीर, जीसस
और मोहम्मद के
बारे में, जैसे
कि वे कभी रहे
ही न थे, जैसे
कि केवल
पतंजलि का ही
अस्तित्व रहा
हो। क्योंकि
उस क्षण मैं
पतंजलि के
प्रति उपलब्ध होता
हूं अपनी
समग्रता में।
केवल 'कुछ—नहीं—पन'
वैसा कर
सकता है।
इसीलिए ऐसा घट
रहा है पहली
बार। अन्यथा,
तुम जीसस को
कृष्ण पर
बोलते हुए, या कि कृष्ण
को बुद्ध पर
बोलते हुए
नहीं पा सकते
थे।
महावीर
और बुद्ध एक
ही समय में
जीए,
एक ही देश
में, देश
के एक ही
हिस्से में।
वे बिहार के
छोटे से
प्रदेश में
निरंतर घूमते
रहे, चालीस
वर्ष तक। वे
समकालीन थे।
कई बार वे
इकट्ठे होते
एक ही गांव
में। एक बार
वे ठहरे एक ही
धर्मशाला में,
पर फिर भी
परस्पर बोले
नहीं। उनके
पास कुछ था
उनके भीतर।
उनके पास कुछ
अपना था कहने
को। वे एक
दूसरे के लिए
उपलब्ध नहीं
थे।
मेरे
पास अपना कुछ
नहीं कहने को—मात्र
एक खाली बांस
की पोंगरी।
यदि तुम कभी
मेरी प्रतिमाएं
बनाना चाहो, तो
बहुत सीधी—सरल
है प्रक्रिया;
प्रयोग
करना खाली
बांस का। वही
होगी मेरी
प्रतिमा; तुम
मेरा स्मरण कर
सकते हो उसके
द्वारा। उससे
कोई और अर्थ
लगाने की
जरूरत नहीं—सिर्फ
एक
शून्यता, सिर्फ
एक विशाल आकाश।
कोई भी पक्षी
उड़ान भर सकता
है और आकाश की
कोई शर्तें नहीं,
जैसे कि
केवल
मानसरोवर झील
में हंसों को
ही आने दिया
जाएगा, लेकिन
कौवे नहीं, उन्हें आने
देने की आज्ञा
नहीं। आकाश
उपलब्ध होता
है हर एक के
लिए; हंस
के लिए या
कौवे के लिए।
एक सुंदर
पक्षी हो या
एक असुंदर
पक्षी—आकाश
कोई शर्त नहीं
बनाता।
पतंजलि
के पास संदेश
है,
मेरे पास
नहीं है। या
फिर, तुम
कह सकते हो कि 'कुछ—नहीं—पन'
है मेरा
संदेश। और उस 'कछ—नहीं' में
रहते हुए तुम
मेरे ज्यादा
निकट हो जाओगे।
और 'ना—कुछ'
में होने से,
तुम मुझे
समझ पाओगे।
चौथा
प्रश्न :
बहुत
सारे लोग
प्रेम को लेकर
काफी निराशा
अनुभव करते
हैं क्या
प्रार्थना तक
पहुंचने के लिए
कोई दूसरा
रास्ता नहीं
है?
नहीं, यदि
तुम प्रेम को
लेकर काफी
निराशा अनुभव
करते हो, तुम
सर्वथा
निराशा अनुभव
करोगे
प्रार्थना के
विषय में, क्योंकि
प्रार्थना और
कुछ नहीं है
सिवाय प्रेम
की खुशबू के।
प्रेम है फूल
की भांति और
प्रार्थना है
सुवास की
भांति। यदि
तुम फूल को
प्राप्त नहीं
कर सकते, तो
कैसे तुम
प्राप्त कर
सकते हो सुवास
को? कोई भी
उपेक्षा नहीं
कर सकता है
प्रेम की। और
किसी को ऐसी
कोशिश करनी
नहीं चाहिए, क्योंकि फिर
वहां विफलता
ही प्रतीक्षा
कर रही होती
है और दूसरी
कोई चीज नहीं।
तुम
प्रेम को लेकर
इतने निराश
क्यों हो? वही
समस्या आ
बनेगी
प्रार्थना
में, क्योंकि
प्रार्थना का
मतलब है
संपूर्ण के साथ,
ब्रह्मांड
के साथ प्रेम।
इसलिए प्रेम
की समस्या के
ज्यादा गहरे
में जाओ, और
उसे सुलझा लो
इससे पहले कि
तुम
प्रार्थना के
बारे में सोचो।
अन्यथा
तुम्हारी
प्रार्थना
झूठी होगी। वह
एक धोखा होगा।
निस्संदेह
तुम्हीं धोखा
पाते हो, कोई
दूसरा नहीं। वहां
कोई ईश्वर
नहीं
तुम्हारी
प्रार्थना
सुनने को, जब
तक कि
तुम्हारी
प्रार्थना
प्रेम न हो, समष्टि बहरी
बनी रहेगी। वह
किसी दूसरे
ढंग से खुल
नहीं सकती—प्रेम
ही है चाबी।
तो
समस्या क्या
है?
क्यों कोई
प्रेम को लेकर
इतनी निराशा
अनुभव करता है?
बहुत
ज्यादा
अहंकार
तुम्हें किसी
से प्रेम न करने
देगा। यदि तुम
बहुत अहं—केंद्रित
हो, बहुत
स्वार्थी हो,
स्वार्थ से
ही जुड़े हो
अहं—अभिभूत हो,
तो प्रेम
संभव न होगा, क्योंकि
व्यक्ति को
थोड़ा झुकना
पड़ता है, और
व्यक्ति को
अपना दायरा
थोड़ा छोड़ना
पड़ता है, व्यक्ति
को थोड़ा
समर्पण करना
पड़ता है प्रेम
में। चाहे
कितना ही थोड़ा
हो, व्यक्ति
को एक हिस्से
का समर्पण
करना ही पड़ता
है। और
किन्हीं
निश्चित
क्षणों में
समर्पण करना होता
है संपूर्ण
रूप से।
दूसरे
को समर्पण
करने की ही है
समस्या। तुम
चाहोगे दूसरा
समर्पण कर दे
तुम्हें, लेकिन
दूसरा भी होता
है उसी अवस्था
में। जब दो
अहंकार मिलते
हैं तो वे
चाहते हैं कि
दूसरे को
समर्पण करना
चाहिए; और
दोनों कोशिश
कर रहे होते
हैं एक ही बात
की। प्रेम बन
जाता है एक
निराशा भरी
चीज।
दूसरे
को समर्पण के
लिए विवश करने
को प्रेम नहीं
कहते हैं। वह
तो घृणा होती
है जो विवश
करती है दूसरे
को तुम्हारे
प्रति समर्पण
करने के
क्योंकि दूसरे
को तुम्हारे
प्रति समर्पण करने
के लिए
विवश
करना दूसरे को
नष्ट करना है।
यही होता है
घृणा का
स्वभाव। यह एक
प्रकार की
हत्या हो जाती
है। प्रेम है
स्वयं का
समर्पण दूसरे
के प्रति।
इसलिए नहीं
करना क्योंकि
तुम विवश किए
गए हो समर्पण
करने को, नहीं।
यह एक ऐच्छिक
चीज होती है; तुम बस
आनंदित होते
उससे। ऐसा
नहीं कि
तुम्हें विवश
किया जाता है।
कभी समर्पण मत
करना उस किसी
के प्रति जो
कि तुम्हें
विवश कर रहा
हो समर्पण
करने को, क्योंकि
वह बात हो
जाएगी
आत्मघात। कभी
समर्पण मत
करना उस किसी
के प्रति जो
चालाकी से
तुम्हारा
इस्तेमाल कर
रहा हो, क्योंकि
वह होगी
गुलामी, प्रेम
नहीं। समर्पण
करना अपने से,
और
गुणवत्ता
तुरंत बदल
जाती है।
जब
तुम समर्पण
करते हो अपने
से,
तो वह उपहार
होता है; हृदय
का उपहार। और
जब तुम समर्पण
करते हो अपने
से, अपनी
ही इच्छा से, तुम बस
स्वयं को दे
देते हो दूसरे
को, तब कोई
चीज पहली बार
खुलती है
तुम्हारे
हृदय में।
पहली बार तुम
झलक पाते हो
प्रेम की।
तुमने केवल
सुन —लिया है
शब्द, तुम्हें
पता नहीं कि
उसका मतलब
क्या है।
प्रेम उन
शब्दों में से
है जिनका
प्रयोग हर व्यक्ति
करता है और
जानता कोई
नहीं कि उनका
मतलब क्या है।
कुछ
शब्द हैं, जैसे
कि 'प्रार्थना',
'प्रेम', 'परमात्मा',
' ध्यान'।
तुम प्रयोग कर
सकते हो इन
शब्दों का, लेकिन तुम
जानते नहीं कि
क्या होता है
उनका अर्थ, क्योंकि
उनका अर्थ
शब्दकोश में
नहीं होता है।
वरना तो तुम
सहायता ले
लेते शब्दकोश
की; वह बात
कठिन नहीं।
उनका अर्थ तो
जीवन के एक
खास ढंग में
निहित रहता है।
उनका अर्थ है
तुम्हारे
भीतर के एक
सुनिश्चित रूपांतरण
में। उनका
अर्थ भाषागत
नहीं है, उनका
अर्थ
अस्तित्वगत
है। जब तक कि
तुम अनुभव से
नहीं जान लेते,
तुम नहीं
जानते—और कोई
दूसरा रास्ता
नहीं है जानने
का।
तुम्हें
समर्पण करना
होता है अपने
से बेशर्त, क्योंकि
यदि कहीं कोई
शर्त होती है
तो वह एक सौदा
होता है। यदि वहां
यह शर्त भी हो
कि 'मैं
तुम्हें
समर्पण कर
दूंगा, यदि
तुम समर्पण कर
दो मेरे प्रति',
तो भी, वह
समर्पण नहीं
होता है। वह
कहला सकता है
व्यापारिक सौदा,
न कि समर्पण।
समर्पण
बाजार की चीज
नहीं। वह
बिलकुल नहीं
है
अर्थशास्त्र
का हिस्सा।
समर्पण का
अर्थ है बिना
किसी शर्त के
यह बात, 'मैं
समर्पण करता
हूं क्योंकि
मैं आनंदित
होता हूं मैं
समर्पण करता
हूं क्योंकि
यह बहुत सुंदर
है; मैं
समर्पण करता
हूं क्योंकि
समर्पण करने
में, अकस्मात
मेरा दुख
तिरोहित हो
जाता है
क्योंकि दुख
अहंकार की
प्रतिच्छाया
है।’ जब
तुम समर्पण
करते हो, अहंकार
नहीं रहता। तो
कैसे बना रह
सकता है दुख? इसीलिए
प्रेम इतना
प्रसन्न होता
है।
जब
कभी कोई प्रेम
में पड़ता है, अकस्मात
ऐसा होता है
जैसे कि बसंत
खिल आया हो
हृदय में। वे
पक्षी जो मौन
थे चहचहाने
लगे, और
तुमने कभी
नहीं सुना था
उन्हें।
अचानक भीतर हर
चीज खिल उठी
और तुम भर
जाते हो उस
सुवास से जो
इस धरती की
नहीं होती है।
प्रेम इस
पृथ्वी की
एकमात्र किरण
होती है जो संबंध
रखती है पार
के सत्य से।
तो
तुम नहीं टाल
सकते प्रेम को
और नहीं पहुंच
सकते प्रार्थना
तक,
क्योंकि
प्रेम है
प्रार्थना का
प्रारंभ। यह
ऐसा है जैसे
कि तुम पूछ
रहे हो, 'क्या
हम आरंभ से बच
कर पहुंच सकते
हैं अंत तक?' वैसा संभव
नहीं। ऐसा कभी
घटा नहीं और
कभी घटेगा
नहीं।
कौन—सी
समस्या होती
है प्रेम में
न: पहली, तुम
समर्पण नहीं
कर सकते। यदि
तुम प्रेम में
समर्पण नहीं
कर सकते, तो
कैसे तुम
समर्पण करोगे
प्रार्थना
में? क्योंकि
प्रार्थना
समग्र—समर्पण
की मांग करती है।
प्रेम तो इतना
नहीं मांगता
है। प्रेम
समर्पण
मांगता है, लेकिन आशिक
समर्पण भी ठीक
है। यदि तुम
कभी—कभी कुछ—कुछ
समर्पण भी
करते हो, तो
उन क्षणों में
भी एक द्वार
खुलता है और
तुम्हें कुछ
अलौकिक की झलक
मिलती है।
प्रेम बहुत
समर्पण की
मांग नहीं
करता। और यदि
तुम प्रेम की
मांगों को
पूरा नहीं कर
सकते, तो
कैसे तुम पूरा
करोगे
प्रार्थना की
मांगों को? प्रार्थना
नितांत रूप से
समर्पण
मांगती है।
यदि तुम एक ही
हिस्से का
समर्पण करते
हो तो वह तुम्हें
स्वीकार नहीं
करेगी। वह
नहीं स्वीकार
करेगी
तुम्हें, यदि
कई बार तो तुम
समर्पण करते
हो और कई बार
नहीं करते।
प्रार्थना
बहुत की मांग
करती है।
व्यक्ति को
गुजरना ही
पड़ता है प्रेम
से। यदि तुम
मुझ से पूछो, तो मैं
कहूंगा कि
प्रेम
पाठशाला है
प्रार्थना के
लिए—स्म
प्रशिक्षण, अनुशासन, ज्यादा ऊंची
छलांग लगाने
की एक तैयारी।
मैं संपूर्ण
रूप से हूं
प्रेम के पक्ष
में।
जो
कह रहे हो तुम
उसके लिए
कोशिश की है
लोगों ने; सदियों
से कोशिश करते
आए हैं लोग।
लोग जो प्रेम
नहीं कर सकते
थे उन्होंने
कोशिश की है
प्रार्थना
करने की। सारे
मठ, धर्म—स्थान
भरे हुए हैं
वैसे ही लोगों
से—प्रेम में
असफल
व्यक्तियों
से। प्रेम में
निराश होकर, उन्होंने
सोचा कि कम से
कम वे
प्रार्थना की
कोशिश तो कर
ही सकते थे।
लेकिन यदि तुम
असफल होते हो
प्रेम में, तो कैसे कर
सकते हो तुम
प्रार्थना? धर्म—स्थानों
में, संसार
भर में हजारों
लोग अपनी
प्रार्थनाएं
कर रहे हैं, लेकिन वे
नहीं जानते कि
प्रेम क्या
होता है। तब
प्रार्थना बन
जाती है मात्र
एक शाब्दिक
बड़बड़ाहट। तब
वे परमात्मा
से बातें किए
जाते हैं सिर
से ही।
परमात्मा के
साथ संप्रेषण
होता है हृदय
का। परमात्मा
के साथ तुम
सिर के द्वारा
बात नहीं कर
सकते, क्योंकि
परमात्मा ऐसी
किसी भाषा को
नहीं जानता
जिसे
तुम्हारा सिर
जानता हो। वह
केवल एक भाषा
जानता है, और
वह है प्रेम।
इसीलिए
जीसस कहते हैं, 'प्रेम
ईश्वर है', क्योंकि
प्रेम
एकमात्र
मार्ग है उस
तक पहुंचने का,
और प्रेम
एकमात्र भाषा
है जिसे वह
समझता है। यदि
तुम बोलते हो
अंग्रेजी में
वह नहीं समझेगा।
यदि तुम बोलते
हो जर्मन में
वह बिलकुल
नहीं समझेगा।
वह पृथ्वी की
कोई भाषा नहीं
समझता है।
यही
कहता हूं मैं, 'यदि
तुम बोलते हो
जर्मन, तो
बिलकुल नहीं! '—क्योंकि
जर्मन अधिक
पुरुष—चित्तमयी
भाषा है।
जर्मन अपने
देश को कहते
हैं, 'फादरलैंड।’
सारा संसार
अपने— अपने
देश को कहता
है, 'मदरलैंड।’
जितनी ज्यादा
पुरुष—चित्त
के अनुकूल
होती है कोई
भाषा, उसे
उतना ही कम
समझ सकता है
परमात्मा।
वस्तुत:
परमात्मा
पुरुष—चित्त
से अधिक
स्त्री—चित्त
को समझता है, क्योंकि
स्त्री—चित्त
पुरुष—चित्त
की अपेक्षा
हृदय के
ज्यादा निकट
होता है। वह
गद्य से
ज्यादा पद्य
को समझता है।
वस्तुत: वह
विचारों से
ज्यादा भावों
को समझता है।
वह आसुओ को, मुस्कानों
को ज्यादा समझ
लेता है
धारणाओं की अपेक्षा।
यदि तुम पूरे
हृदय से रो
सकते हो तो वह
समझ जाएगा।
यदि तुम नृत्य
कर सकते हो, तो वह समझ
लेगा। लेकिन
यदि तुम
शब्दों में
बोले चले जाओ
तो वे मात्र
फेंके जा रहे
होते हैं
शून्यता में—कोई
नहीं समझता।
परमात्मा
समझता है मौन
को और प्रेम
बहुत मौन होता
है। वस्तुत:
जब दो व्यक्ति
प्रेम में
पड़ते हैं तो वे
साथ—साथ
चुपचाप बैठना
चाहेंगे। जब
प्रेम
तिरोहित हो
जाता है, केवल
तभी भाषा बीच
में चली आती
है। पति और
पत्नी निरंतर बोलते
जाते हैं
क्योंकि
प्रेम मिट
चुका होता है।
सेतु अब वहां
नहीं रहा तो
किसी तरह वे
भाषा का सेतु
बना लेते हैं।
वे किसी भी
चीज की बात
करते हैं—अफवाहों
की, गप्पबाजियों
की—क्योंकि
मौन को वे
बरदाश्त नहीं
कर सकते। जब
कभी वे मौन
होते हैं, तो
अकस्मात वे
अकेले पड़ जाते।
पत्नी नहीं
होती है वहां,
पति नहीं
होता है वहां—वहां
बनी होती है
एक विशाल दूरी।
भाषा के
द्वारा वे
स्वयं को धोखा
दे लेते हैं कि
दूरी वहां है
ही नहीं।
गहन
प्रेम में, लोग
मौन रहते हैं।
बोलने की कोई
जरूरत नहीं
होती। परस्पर
बिना कुछ बोले
ही वे समझ
जाते हैं। वे
एक—दूसरे का
हाथ पकड़ सकते
हैं और चुपचाप
बैठे रह सकते
हैं।
प्रार्थना भी
मौन होती है।
लेकिन यदि तुम
प्रेम में कभी
मौन नहीं रहे,
तो कैसे तुम
मौन रहोगे
प्रार्थना
में? वह
मौन है
तुम्हारे और
समष्टि के बीच
का।
प्रेम
है दो व्यक्तियों
के बीच का मौन, प्रार्थना
है समष्टि और
एक व्यक्ति के
बीच का मौन।
वह समष्टि, वह अखंड
संपूर्णता है
परमात्मा।
प्रेम एक
प्रशिक्षण है,
वह एक
पाठशाला है।
मैं कभी नहीं
सुझाऊंगा कि
तुम उससे बचो।
यदि तुम
कतराते हो
उससे तो तुम
कभी नहीं पहुंचोगे
प्रार्थना तक।
और जब तुम
प्रार्थना
करते हो, तुम
इतनी ज्यादा
बातें करोगे
तो भी हृदय
संप्रेषण
नहीं कर पाएगा,
नहीं कर
पाएगा कोई
संवाद।
तो
चाहे कितना ही
कठिन हो पाठ, कितना
ही मुश्किल हो
ठंडेपन को
समाप्त करना,
प्रेम को
टाल जाने की
कोशिश मत करना।
प्रार्थना
प्रेम से किया
पलायन नहीं है।
मत बना लेना
उसे पलायन।
बहुतों नै
किया है वैसा
और विफल हुए
हैं। तुम
संसार के किसी
धर्मस्थान
में जा सकते
हो और जरा देख
सकते हो उन
मूढ़ों को जो
विफल हुए, असफल
हुए, क्योंकि
उन्होंने
प्रेम से बचने
का प्रयत्न किया।
व्यक्ति
को प्रेम में
से गुजरना ही
पड़ता है; अन्यथा
तुम क्रोधित
रहोगे जीवन भर।
कैसे तुम
प्रार्थना कर
पाओगे, यदि
तुम जीवन के
प्रति गहरा
अस्वीकार ही
बनाए रहो? कैसे
तुम करोगे
स्वीकार और
कैसे करोगे
प्रार्थना? तुम निंदा
करने वाले बने
रहोगे; स्वीकृति
संभव न होगी।
प्रेम में, पहली बार
तुम स्वीकार
करते हो।
प्रेम में
पहली बार तुम
जान पाये कि
अर्थ मौजूद है
और जीवन
अर्थपूर्ण है।
प्रेम में, पहली बार
तुम अनुभव
करते हो कि
तुम इस संसार
के अपने ही हो,
न तो अजनबी
हो और न ही कोई
बाहरी आदमी।
प्रेम में, पहली बार एक
छोटा—सा घर
निर्मित होता
है। प्रेम में,
पहली बार तुम
अनुभव करते हो
शांति। कोई
तुम्हें
प्यार करता है
और तुम्हारे
साथ प्रसन्नता
अनुभव करता है।
पहली बार तुम
भी स्वीकार
करते हो स्वयं
को। वरना, कैसे
तुम स्वीकार
करोगे स्वयं
को? जीवन
में एकदम बचपन
से ही तुम्हें
सिखाया गया है
स्वयं को
निंदित करना,
अस्वीकृत
करना।’ऐसा
मत करो, वैसे
मत बनो'—हर
कोई उपदेश
देता रहा है
तुम्हें और हर
कोई कोशिश
करता रहा है
तुम्हें
समझाने की कि
तुम बिलकुल
गलत हो और
तुम्हें
स्वयं को
सुधारना है।
ऐसा
हुआ कि मुल्ला
नसरुद्दीन की
पत्नी बहुत बीमार
थी। वह
अस्पताल में
थी। मुल्ला
रोज आया करता
था। वह डाक्टरों
से और नर्सों
से पूछता रहता
उसके बारे में
और वे कह देते, 'उसकी
हालत सुधर रही
है।’ और
उसकी हालत
ज्यादा और
ज्यादा बिगड़
रही थी रोज, लेकिन
डाक्टर और
नर्सों ने
जारी रखा कहना
कि उसकी हालत
सुधर रही है, उसमें सुधार
हो रहा है। और
मैं पूछा करता
मुल्ला
नसरुद्दीन से,
'कैसी है
तुम्हारी
पत्नी?' वह
कहता, 'डाक्टर
कहते हैं, एकदम
ठीक; उसकी
हालत सुधर रही
है। नर्सें
कहती हैं, उसमें
सुधार हो रहा
है। तो जल्दी
ही वह जरूर घर
आ जाएगी।’ फिर
एक दिन वह
अचानक चल बसी।
तो मैंने पूछा
उससे, 'क्या
हुआ
नसरुद्दीन?' उसने अपने कंधे
उचकादिए और बोला, ‘मैं समझता
हूं वह उस
तमाम सुधार को
सहन नहीं कर
सकी। बहुत
ज्यादा था वह
सब।’
हर
कोई सुधार रहा
है तुम्हें; माता—पिता,
शिक्षक, पंडित—पुरोहित,
समाज, सभ्यता।
हर कोई सुधार
रहा है, और
कोई सह नहीं
सकता उतना
ज्यादा सुधार!
और कुल परिणाम
यह होता है कि
तुम आदर्श
व्यक्ति कभी
नहीं हो पाते,
बस तुम हो
जाते हो स्वयं
के निंदक।
सर्वांग
पूर्णता
असंभव है।
पूर्ण आदर्श
कल्पनात्मक
है। सर्वांग
पूर्णता संभव
ही नहीं; वह
सैद्धांतिक
होती है, स्वाभाविक
नहीं। और हर
किसी को बाध्य
किया जा रहा
है, उसे
सुधारने को
खींचा और
धकेला जा रहा
है हर दिशा से।
हर कहीं से
संदेश आता है
कि जो कुछ भी
तुम हो, तुम
गलत हो—सुधारो।
वह बात
निर्मित करती
है आत्मनिदा;
तुम
अस्वीकार कर
देते हो स्वयं
को, तुम
सुयोग्य नहीं—बेकार
हो, रही हो,
अनाप—शनाप
हो। यही रहता
है मन में।
केवल
प्रेम कभी
कोशिश नहीं
करता तुम्हें
सुधारने की।
वह तुम्हें
स्वीकार करता
है जैसे कि
तुम होते हो।
जब कोई
तुम्हें
प्रेम करता है, तो
तुम बिलकुल
सही होते हो, आदर्श होते
हो जैसे कि
तुम हो। और
यदि प्रेमी भी
एक दूसरे का
सुधार करने की
कोशिश कर रहे
होते हैं तो
वे प्रेमी
नहीं। फिर से
सारा वही खेल
आ बनता है।
प्रेम
तुम्हें
स्वीकार करता
है जैसे कि
तुम हो, और
इस स्वीकृति
द्वारा
रूपांतरण
घटित होता है।
पहली बार तुम
चैन अनुभव
करते हो और
तुम आराम पा सकते
हो और यह बात
अंततः
प्रार्थना हो
जाने वाली है।
केवल
तभी जब कि तुम
चैन अनुभव
करते हो और
विश्रांत
होते हो, तो
उदित होता है
अनुग्रह।
मात्र 'होने'
का अनुग्रह
बहुत सुंदर और
आनंदमय होता
है।
प्रार्थना
में तुम किसी
चीज की मांग
नहीं करते, तुम केवल
अनुगृहीत
होते हो।
प्रार्थना है
अनुग्रह का
अर्पण; वह
परमात्मा से
कुछ मांगने
जैसी बात नहीं।
भिखारी वे लोग
हैं जो
प्रार्थना
कभी नहीं कर सकते।
प्रार्थना एक
अनुग्रह का
भाव है, एक
गहन कृतज्ञता
कि जो कुछ
उसने दिया है
वह बहुत
ज्यादा है।
वास्तव में
तुम कभी उसे
पाने के योग्य
न थे। प्रेम
द्वारा, सारा
जीवन एक उपहार
बन जाता है
परमात्मा का,
और तब तुम
अनुभव करते हो
धन्यभागी। और
अनुग्रह के
भाव से उदित
होती है
प्रार्थना की
सुवास।
यह
एक बहुत
सूक्ष्म
प्रक्रिया
होती है.
प्रेम द्वारा, तुम्हारी
अपने प्रति
तथा दूसरे के
प्रति स्वीकृति;
प्रेम की
स्वीकृति
द्वारा, एक
रूपांतरण और
एक दृष्टि कि
कैसे भी हो जो
भी तुम हो, तुम
बिलकुल सही हो।
और समग्रता
स्वीकार करती
है तुम्हें।
फिर वहां रहता
है अनुग्रह।
तब उमग आती है
प्रार्थना।
वह शाब्दिक
नहीं होती; संपूर्ण
हृदय बस
परिपूरित
होता है
अनुग्रह के
भाव से। प्रार्थना
कोई क्रिया
नहीं है, प्रार्थना
तो होने का एक
ढंग है। जब
वास्तव में ही
प्रार्थना
मौजूद होती है,
तो तुम
प्रार्थना
नहीं कर रहे
होते, तुम
प्रार्थना ही
होते हो, तुम
प्रार्थना
में बैठते, तुम
प्रार्थना
में खड़े होते,
तुम
प्रार्थना
में चलते—फिरते,
तुम सांस
लेते तो
प्रार्थना
में।
झलक
मिलती है
प्रेम द्वारा।
क्या कभी तुम
पड़े हो प्रेम
में?
—तब तुम
सांस लेते हो
प्रेम में, तब तुम चलते
हो तो प्रेम
में। तब
तुम्हारे
चरणों में
नृत्य की
गुणवत्ता होती
है, जो कि
दिखायी पड़
जाती है
दूसरों को भी।
तब तुम्हारी आंखों
में एक चमक होती
है, एक अलग
ही चमक होती
है उनमें। तब
तुम्हारे
चेहरे पर एक
आभा होती है।
तब तुम्हारी
आवाज में
गुनगुनाहट
होती है—किसी
गीत की।
वह
व्यक्ति
जिसने कभी
प्रेम नहीं किया
ऐसे चलता है
जैसे कि वह स्वयं
को घसीट रहा
हो। वह व्यक्ति
जिसने प्रेम
किया है, ऐसे
तिरता है जैसे
कि हवा के
पंखों पर तिर
रहा हो। वह
आदमी जिसने
कभी प्रेम
नहीं किया
नृत्य नहीं कर
सकता है।
क्योंकि वह
अपने अंतरतम
में नहीं
जानता कि नृत्य
क्या है। वह
आनंदपूर्ण
नहीं हो सकता—उदास
होता है, बंद
होता है, लगभग
मरा हुआ, करीब—करीब
कब्र में ही
रह रहा होता
है। प्रेम
दूसरे की ओर
सरकने देता है
और जब ऊर्जा सरकती
है दूसरे की
ओर, तो तुम
सक्रिय हो
जाते हो। जब
ऊर्जा सरकती
है दूसरे तक, दूसरे से
तुम तक, अकस्मात
तुम सेतु
निर्मित कर
लेते हो अपने
और दूसरे के
बीच। और यह
सेतु देगा
तुम्हें इसकी पहली
झलक, इसकी
पहली रूपरेखा
कि प्रार्थना
क्या होती है।
वह एक सेतु
होता है
तुम्हारे और
संपूर्ण के बीच।
मैं
कल्पना नहीं
कर सकता कि
प्रेम में जाए
बिना किसी के
लिए कैसे संभव
होता है
प्रार्थना में
जाना, इसलिए
प्रेम से
भयभीत मत हो
जाना। प्रेम
में मर जाओ, ताकि पुनर्जन्म
ले सको। स्वयं
को मिटा दो
प्रेम में, जिससे कि
तुम फिर से
युवा और ताजा
हो सको।
अन्यथा कहीं
कोई संभावना
नहीं होती है
प्रार्थना की।
और निराश मत
अनुभव करना
प्रेम के विषय
में, क्योंकि
वही है
एकमात्र आशा।
कहा है जीसस
ने, 'यदि
नमक अपनी
नमकीनी छोड़
देता है तो
कैसे वह फिर
से हो सकता है
नमकीन?' और
मैं कहता हूं
तुमसे, यदि
प्रेम निराश
हो जाता है, तो कहीं कोई
आशा नहीं, क्योंकि
प्रेम ही है
एकमात्र आशा।
तो फिर से आशा
कहां पाओगे
तुम?
प्रयास
को मत गिरा
देना, मत
स्वीकार करना
विफलता को।
कोई अस्तित्व
रखता है
तुम्हारे लिए;
तुम
अस्तित्व
रखते हो किसी
के लिए। यदि
प्यास है, तो
पानी भी जरूर
होगा। यदि भूख
है, तो
भोजन भी जरूर
होगा। यदि
आकांक्षा
मौजूद है, तो
उसकी
परिपूर्ति के
लिए कोई मार्ग
जरूर होगा। मत
अनुभव करना
निराशा। फिर
से पुनजावित
कर लेना अपनी
आशा, क्योंकि
केवल एक निराश
व्यक्ति ही
अधार्मिक
होता है। केवल
एक निराश
व्यक्ति होता
है, नास्तिक।
प्रेम
है एकमात्र
आशा। प्रेम
द्वारा, बहुत
सारी नयी
आशाएं उठ खड़ी
होंगी, क्योंकि
प्रेम है बीज
परम आशा का—जो
है परमात्मा।
हर एक कोशिश
कर लेना। उस
आशा—शून्यता
में मत जा
बैठना। ऐसा
कठिन होगा, लेकिन यही
बात उपयुक्त
बैठती है, क्योंकि
इसके बिना तुम
अटके हुए होते
हो और तुम फिर—फिर
वापस फेंक दिए
जाओगे जीवन
में, जब तक
प्रेम का पाठ
न सीख लो। और
एक बार प्रेम
को जान लिया
जाता है, तो
प्रार्थना
बहुत आसान हो
जाती है।
वास्तव में, प्रार्थना
सीखने की तो
कोई जरूरत ही
नहीं रहती। यह
तो अपने से ही
आती है यदि
तुम प्रेम
करते हो तो।
पांचवां
प्रश्न :
पतंजलि
आधुनिक मन की
अविश्वसनीय
न्यूरोसिस ( विक्षिप्तता)
के साथ कैसे कार्य
करेंगे?
मेरी
तरह ही! मैं
क्या कर रहा
हूं यहां पर? —तुम्हारी
न्यूरोसिस
(विक्षिप्तता)
के साथ संघर्ष
कर रहा हूं।
अहंकार सारी
न्यूरोसिस का
मूल स्रोत है,
क्योंकि
अहंकार ही है
सारे झूठों का
केंद्र, सारे
विकारों का
केंद्र। सारी
समस्या
अहंकार की ही
होती है। याद
तुम बने रहते
हो अहंकार के
साथ, तो
देर—अबेर तुम
न्यूरोटिक बन
ही जाओगे। तुम
बनोगे ही, क्योंकि
अहंकार
आधारभूत
न्यूरोसिस।
अहंकार कहता है,
'मैं हूं
संसार का
केंद्र', जो
कि है मिथ्या,
पागल। केवल
यदि परमात्मा
हो वहां तो वह
कह सकता है 'मैं'। हम
तो केवल
हिस्से हैं, हम नहीं कह
सकते 'मैं'। यही दावा 'मैं' का, यह
न्यूरोटिक है।’मैं' को
गिरा दो और
सारी
न्यूरोसिस
तिरोहित हो
जाती है।
तुम्हारे
और पागलखाने
के पागलों के
बीच कोई बहुत
बड़ा भेद नहीं
है। केवल
अवस्था या
परिमाण का ही
अंतर है, किसी
गुणवत्ता का
अंतर नहीं है।
तुम शायद
अठानबे
डिग्री पर
होंगे, और
वे एक सौ के
पार जा चुके
हैं। तुम जा
सकते हो किसी
समय, अंतर
कोई बड़ा नहीं
है।
पागलखानों
में किसी दिन
जाना और जरा
देखना, क्योंकि
वही कुछ बन
सकता है तुम्हारा
भविष्य भी।
देखना जरा
पागल आदमी की
ओर। क्या घटित
हुआ है उसको? वही आशिक
तौर पर तुमको
घटा है। क्या
घटता है पागल
आदमी में? —उसका
अहंकार इतना
वास्तविक हो
जाता है कि हर
दूसरी चीज झूठ
बन जाती है।
सारा संसार
भ्रममय होता
है; केवल
उसका आंतरिक
संसार, अहंकार
और उसका संसार,
सत्य होता
है। तुम जा
सकते हो
पागलखाने में
किसी मित्र से
मिलने, और
शायद वह
तुम्हारी ओर
देखेगा नहीं,
वह तुम्हें
पहचानेगा भी
नहीं। वह
सिर्फ बात
करेगा अपने उस
अदृश्य मित्र
से जो कि उसके
साथ ही बैठा
हुआ है। तुम
नहीं पहचाने
गए, लेकिन
उसके मन का एक
कल्पित तत्व
पहचाना गया है
मित्र के रूप
में। वह बात
कर रहा है और
वही उत्तर दे
रहा है।
पागल
आदमी वह आदमी
है जिसके
अहंकार ने
पूरा आधिपत्य
जमा लिया होता
है। ठीक इसके
विपरीत होती
है अवस्था
बुद्ध—पुरुष
की जिसने
अहंकार गिरा
दिया होता है
पूरी तरह। तब
वह स्वाभाविक
होता है।
अहंकार के
बिना तुम
स्वाभाविक
होते हो, सागर
की ओर बहती
नदी की भांति,
या कि
देवदारों के
बीच से गुजरती
हवा की भांति
या कि आकाश
में तैरते
बादलों की
भांति।
अहंकार के
बिना तुम फिर
से इस विशाल
प्रकृति के
हिस्से होते
हो, निर्मुक्त
और स्वाभाविक।
अहंकार के साथ
तनाव मौजूद
होता है।
अहंकार के साथ
तुम अलग होते
हो। अहंकार
सहित तुमने
सारे संबंधों
से स्वयं को काट
लिया होता है।
यदि तुम संबंध
में सरकते भी
हो, तो तुम
ऐसा क्रमिक—रूप
से करते हो।
अहंकार
तुम्हें किसी
चीज में
पूरेपन से
नहीं जाने
देगा। वह
हमेशा रोक रहा
होता है स्वयं
को।
यदि
तुम सोचते हो
कि तुम
अस्तित्व के
केंद्र हो तो
तुम पागल हो।
यदि तुम सोचते
हो कि तुम
मात्र एक तरंग
हो सागर की, संपूर्ण
के भाग हो, संपूर्ण
के साथ एक हो, तब तुम
कभीनहीं हो
सकते पागल।
यदि पतंजलि
यहां होते, तो वे वही
कुछ करते जो
मैं कर रहा
हूं। और ठीक
से याद रख
लेना कि
स्थितियां
भेद रखती हैं,
लेकिन आदमी
करीब—करीब वही
है।
अब
टेक्यालॉजी आ
पहुंची है। वह
मौजूद नहीं थी
पतंजलि के
दिनों में—नए
घर हैं, नए
साधन हैं।
आदमी के आस—पास
की हर चीज बदल
गयी है, लेकिन
आदमी बना हुआ
है वैसा ही।
पतंजलि के समय
में भी, आदमी
ऐसा ही था, लगभग
ऐसा ही। कुछ
ज्यादा नहीं
बदला है आदमी
में। इस बात
को ध्यान में
रख लेना है।
अन्यथा
व्यक्ति
सोचने लगता है
कि आधुनिक आदमी
एक ढंग से
निंदित है।
नहीं, ऐसा
हो सकता है कि
तुम किसी कार
के पीछे पागल
होते हो; तुम
चाहोगे
स्पोर्ट्स
कार और तुम होते
हो ने बहुत
तनावपूर्ण और
इसके द्वारा
बहुत चिंता
निर्मित हो
जाती है।
निस्संदेह, पतंजलि के
समय में कारें
' इत्यादि
नहीं थीं, लेकिन
लोग
बैलगाड़ियों
के पीछे पागल
हुए जाते थे।
यदि अभी भी
तुम किसी
भारतीय गाव
में चले जाओ, तो जिस
व्यक्ति के
पास तेज
बैलगाड़ी होती
है वह सम्मानित
होता है। एक
तेज बैलगाडी
हो या कि
रॉल्स रॉयस
उससे कुछ अंतर
नहीं पड़ता; अहंकार उसी
ढंग से
परिपूर्ण
होता है। विषय—वस्तुओं
से कुछ ज्यादा
अंतर नहीं
पड़ता। आदमी का
मन यदि
अहंकेंद्रित
होता है, तो
सदा ढूंढ ही
लेगा कुछ न
कुछ, इसलिए
समस्या किसी
चीज की नहीं
है।
आधुनिक
आदमी आधुनिक
नहीं है, केवल
दुनिया
आधुनिक है।
आदमी बना रहता
है बहुत
प्राचीन, पुराना।
तुम सोचते हो
तुम आधुनिक हो?
जब मैं
देखता हूं
तुम्हारे
चेहरों की ओर,
मैं पहचान
लेता हूं
पुराने
चेहरों को।
तुम यहां रहते
रहे हो बहुत—बहुत
जन्मों से और
तुम बने रहे
हो लगभग वैसे
ही। तुमने कुछ
नहीं सीखा है
क्योंकि तुम
फिर वही कर
रहे हो—फिर—फिर
वही लकीर पीट
रहे हो! चीजें
बदल गई हैं, मगर आदमी
बना हुआ है
वैसा का वैसा
ही; कुछ
ज्यादा नहीं
बदला है। कुछ
ज्यादा बदल
नहीं सकता, जब तक कि
रूपांतरण के
लिए तुम कोई
कदम नहीं
उठाते हो।
जब
तक कि
रूपांतरण
तुम्हारा
हृदय ही नहीं
बन जाता, जब तक
कि रूपांतरण
तुम्हारे
हृदय की धड़कन
ही नहीं बन
जाता और तुम
मन की मूढ़ता
को नहीं समझ
लेते। जब तुम
उसकी पीड़ा को
समझ लेते हो—तो
तुम उसके बाहर
लगा देते हो
छलांग।
मन
बहुत पुराना
है। मन बहुत—बहुत
प्राचीन है।
वस्तुत: मन
कभी हो नहीं
सकता नया, वह
कभी हो नहीं
सकता आधुनिक।
केवल अ—मन ही
हो सकता है
नया और आधुनिक
क्योंकि केवल अ—मन
हो सकता है
ताजा—हर घड़ी
ताजा। अ—मन
कभी कुछ संचित
नहीं करता।
दर्पण सदा ही
साफ होता है; धूल—धवांस
एकत्रित नहीं
होती उस पर।
मन एक
संचयकर्ता है।
वह संचय किए
चला जाता है।
मन तो सदा
पुराना होता
है; मन कभी
नहीं हो सकता
है नया। मन
कभी नहीं होता
है मौलिक; केवल
अ—मन होता है
मौलिक।
इसीलिए
वैज्ञानिक भी
अनुभव करते
हैं कि जब कोई
खोज की जाती
है तो वह मन
द्वारा नहीं
की जाती बल्कि
केवल अंतराल
में होती है, जहां
मन अस्तित्व
नहीं रखता है,
जैसा कि कई
बार नींद में
होता है। यह
बिलकुल
आकेंमिडीज की
भांति है जो
गणित की एक
खास समस्या हल
करने की
कोशिशें करता
रहा और' उसे
हल नहीं कर
सका। उसने
कोशिश की और
कोशिश की, निस्संदेह
मन को साथ लेकर
ही, लेकिन
मन केवल दे
सकता है वे
उत्तर
जिन्हें मन
जानता है। वह
तुम्हें कोई
अज्ञात चीज
नहीं दे सकता
है। वह एक
कंप्यूटर
होता है; जो
कुछ पोषण
तुमने उसका
किया होता है,
वह उत्तर दे
सकता है। तुम
कोई नई बात
नहीं पूछ सकते।
बेचारे मन से
कैसे अपेक्षा
रखी जा सकती है
किसी नयी बात
के उत्तर की? ऐसा तो
बिलकुल संभव
ही नहीं होता।
यदि मैं जानता
हूं तुम्हारा
नाम, तो
मैं याद रख
सकता हूं उसे
क्योंकि मन
स्मृति है और
स्मरण शक्ति
है, लेकिन
यदि मैं नहीं
जानता हूं
तुम्हारा नाम
और मैं कोशिश
और कोशिश करता
रहता हूं तो
कैसे मैं याद
रख सकता हूं
उसे जो कि वहां
है ही नहीं!
फिर
अचानक वह घट
गया।
आकेंमिडीज ने
कार्य किया, और
कड़ा परिश्रम
किया क्योंकि
राजा
प्रतीक्षा कर
रहा था उसकी।
एक सुबह वह
स्नान कर रहा
था नग्न, जल
में आराम कर
रहा था, और
अकस्मात बात
बुदबुदा कर
फूट पड़ी, बिना
जाने ही वह
यकायक सतह पर
आ निकली। वह
बाहर कूद गया
स्नान कुंड से।
वह अ —मन की
अवस्था में था।
वह सोच भी न
सकता था कि वह
नग्न था
क्योंकि वह मन
का भाग है। वह
सोच न सका कि
सड़क पर नग्न
जाने से लोग
उसे पागल
समझेंगे। वह
मन जो कि समाज
द्वारा दिया
जाता वहां था
ही नहीं, वह
काम ही नहीं
कर रहा था। वह
अ — मन की
स्थिति में था,
एक प्रकार
की सतोरी में।
वह चिल्लाता
हुआ, गली
में, भाग
चला, 'यूरेका,
यूरेका।’ चीखता
चिल्लाता, 'मैंने उसे
पा लिया, पा
लिया!' निस्संदेह
लोगों ने सोचा
कि वह पागल हो
गया।’क्या
पाया है तुमने
नग्न हो गली
में दौड़ते हुए?'
उसे पकड़
लिया गया
क्योंकि वह 'यूरेका' की
पुकार मचाते
हुए, महल
में प्रवेश करने
की कोशिश कर
रहा था। उसे
तो जेल भेज
दिया जाता।
मित्रों ने
उसे थामा; घर
ले आए उसे और
बोले, 'क्या
कर रहे हो तुम?
यदि
तुम्हें कुछ
मिला भी है तो
जरा उचित
वस्त्रों में
जाओ, वरना
तो तुम मुसीबत
में पड़ जाओगे।’
मन
के दो संवेगमय
क्षणों के बीच
सदा एक अंतराल
होता है अ—मन
का। दो
विचारों के
बीच एक अंतराल
होता है, निर्विचार
का एक विराम।
दो बादलों के
बीच तुम देख
सकते हो नीले
आकाश को।
तुम्हारा
स्वभाव है अ—मन
का। वहां कोई
विचार नहीं
होता, विशाल
शून्यता के
सिवाय, आकाश
की नीलिमा के
सिवाय कुछ
नहीं होता। मन
तो बस तैर रहा
होता है सतह
पर। ऐसा बहुत
लोगों को घटित
हुआ है।
ऐसा
घटा मैडम
क्यूरी को।
उसे नोबल
पुरस्कार मिल
गया अ—मन के
क्षण के लिए।
वह कार्य कर
रही थी गणित
की एक समस्या
पर;
परिश्रम का
कार्य कर रही
थी। कुछ
परिणाम नहीं
निकल रहा था
और महीनों
गुजर गए। फिर
एक रात, अकस्मात
वह अपनी नींद
से जाग पड़ी; मेज तक गयी, उत्तर लिखा;
वापस अपने
बिस्तर पर
जाकर सो गई।
और उसके बारे
में हर चीज
भूल गयी। सुबह
जब वह मेज तक
आयी तो
विश्वास न कर
सकी कि उत्तर वहां
पड़ा था। किसने
लिखा था वह? फिर धीरे—
धीरे उसे याद
आ गया, किसी
सपने की भांति
ही. 'ऐसा
रात्रि में
घटा...' वही
आयी थी और वह
हस्तलिपि उसी
की थी।
गहरी
निद्रा में मन
गिर जाता है
और अ—मन कार्य
करता है। मन
सदा पुराना
होता है, अमन
सदा ताजा, युवा,
मौलिक होता
है। अ—मन सदा
सुबह की ओस की
भांति होता है—नितात
ताजा, स्वच्छ।
मन सदा गंदा
होता है। उसे
होना ही होता है;
वह धूल
इकट्ठी कर
लेता है। धूल
है स्मृति।
जब
मैं देखता हूं
तुम्हारी तरफ, मैं
देखता हूं कि
तुम्हारा मन
बहुत पुराना
है; बहुत
सारे पिछले
जन्म वहां
इकट्ठे हो
चुके हैं।
लेकिन मैं
ज्यादा गहरे
भी देख सकता
हूं। वहां है
तुम्हारा अ—मन,
जो कि
बिलकुल ही
संबंधित नहीं
है समय से, इसीलिए
न तो वह
पुराना है और
न ही आधुनिक।
मनुष्य तो सदा
ही पुराना
होता है तो भी
मनुष्य में
कुछ विद्यमान
होता है—वह
चेतना—जो न तो
पुरानी होती
है और न ही नयी,
या फिर, बिलकुल
नित—नूतन होती
है।
छठवां
प्रश्न :
हम
में से कुछ
लोग आपके
प्रवचन के
दौरान सो जाते
हैं या ऊंघती
अवस्था में
चले जाते हैं
आप जरूर देखते
ही होंगे ऐसा
घटते हुए।
क्या यह बात
किसी
सृजनात्मक
विधायक
प्रक्रिया का
हिस्सा होती
है?
क्या हमें
इसे घटने देना
चाहिए इसके
बारे में कोई
अपराध— भाव
अनुभव किए
बिना या कि
हमें ज्यादा
बड़ा प्रयत्न
करना चाहिए
सजग बने रहने
का?
यह
थोड़ा जटिल है।
पहले तो, बहुत
से प्रकार हैं।
एक प्रकार ऊंघ
वह होती है जो
कि आती है यदि
तुम मुझे
सुनते हो बहुत
ध्यानपूर्वक।
तब वह निद्रा
की भांति नहीं
होती है, वह
हिप्नोसिस की
भांति, सम्मोहन
की भांति अधिक
होती है।
तुम्हारा
मेरे साथ इतना
गहरा तालमेल
बैठ जाता है
कि तुम्हारा
मन अ—क्रियान्वित
होने लगता है।
तुम बस सुनते
हो मुझे और
मुझे सुनते
जाना भर ही
लोरी जैसा हो
जाता है। यदि
ऐसी होती है
अवस्था तो एक
निश्चित
उनींदापन वहां
होगा ही।
लेकिन यह केवल
तभी आएगी, जब
तुम मुझे बहुत
ध्यानपूर्वक
सुनो। तब यह
बात निद्रा
नहीं होती। यह
सुंदर है। और
तुम्हें इसे
लेकर अपराधी
नहीं अनुभव
करना चाहिए।
यदि यह
निर्मित होती
है मुझे सुनने
से, तो कोई
समस्या नहीं।
वस्तुत: यही
होनी चाहिए
अवस्था, क्योंकि
तब तुम ज्यादा
और ज्यादा
गहरे में सुन
रहे होते हो।
तब मैं
तुम्हें बेध
रहा होता हूं
बहुत गहरे रूप
से, और तुम
उनींदापन
अनुभव कर रहे
होते हो, क्योंकि
मन कार्य नहीं
कर रहा होता
है। तुम
विश्राम में
होते। यह 'होने
देने' की
एक अवस्था
होती है। तुम
मुझे अपने में
ज्यादा और
ज्यादा गहरे
व्याप्त होने दे
रहे होते हो।
यह शुभ है।
कुछ गलत नहीं
है इसमें। तुम
इसे उनींदेपन
की भांति
अनुभव करते हो,
क्योंकि यह
एक निष्कि्रयता
होती है। तुम
सक्रिय नहीं
होते, और
वैसा होने की
कोई जरूरत भी
नहीं।
जब
तुम सुन रहे
होते हो मुझे, तो
सक्रिय होने
की कोई जरूरत
नहीं, क्योंकि
यदि तुम
सक्रिय होते
हो तो
तुम्हारा मन
व्याख्या किए
चला जाएगा। यह
सुंदर है—और
कोई जरूरत
नहीं अपराधी
अनुभव करने की—ऐसा
होने दो। इसे
अस्त—व्यस्त
करने के लिए
कोई प्रयास
करने की कोई
आवश्यकता
नहीं। मैं
तुम्हारे
भीतर गहरे में
समा जाऊंगा।
यह बात सहायक
होती है।
भारत
में हमारे पास
एक विशिष्ट
शब्द है इसके
लिए। पतंजलि
इसे कहते हैं 'योग
तंद्रा'—वह
निद्रा जो आती
है योग द्वारा।
कोई चीज यदि
तुम समग्रता
से करते हो, तो तुम बहुत
आराम अनुभवं
करते हो, और
वही आराम लगता
है निद्रा
जैसी। वह
निद्रा नहीं
होती, वह
ज्यादा लगती
है हिम्मोसिस
की तरह।
हिप्नोसिस का
अर्थ भी होता
है निद्रा, लेकिन एक
अलग प्रकार की
निद्रा, जिसमें
दो
व्यक्तियों
का गहन तालमेल
बैठ जाता है।
यदि मैं
तुम्हें
सम्मोहित
करता हूं तो
तुम मुझको सुन
पाओगे, किसी
और चीज को
नहीं।
सम्मोहित
व्यक्ति
सुनता है केवल
सम्मोहनकर्ता
को ही, किसी
दूसरे को नहीं।
वह मात्र
केंद्रित
होता है। इस
एकांतिक
एकाग्रता में,
चेतन मन गिर
जाता है और
अचेतन
क्रियान्वित
हो जाता है।
तुम्हारी
गहराई सुनती
है मेरी गहराई
को, यह एक
संप्रेषण
होता है, गहराई
से गहराई तक
का। मन की
जरूरत नहीं
होती। लेकिन
खयाल में रखने
की बात यह
होती है कि
तुम्हें मुझे
बहुत
ध्यानपूर्वक
सुनना चाहिए,
केवल तभी
ऐसा घटेगा।
फिर
होती है दूसरी
प्रकार की
निद्रा. तुम
मुझे नहीं सुन
रहे होते, और
मुझे न सुनते
हुए इतनी देर
केवल यहां
बैठे रहने से
ही, तुम
नींद अनुभव
करने लगते हो।
या जो मैं कह
रहा हूं वह
तुम्हारे लिए
बहुत ज्यादा
होता है, तुम
कुछ ऊबा हुआ
अनुभव करते हो।
या फिर, जो
मैं कह रहा
होता हूं वह
बहुत एक—रस
लगता है। ऐसा
है क्योंकि जो
मैं कहता हूं
एक स्वर ही होता
है। मैं गा
रहा हूं एक ही
स्वर लाखों—लाखों
ढंग से।
पतंजलि, जीसस,
बुद्ध, तो
बस बहाने हैं।
.मैं गा रहा
हूं एक ही
स्वर, वह
एकरस है। यदि
तुम अनुभव
करते कि वह
एकरस है और
तुम थोड़ी ऊब
अनुभव करते हो
या कि तुम उसे
समझ ही नहीं
सकते, यह
तुम्हारे लिए ,बहुत ज्यादा
हो जाता है, या फिर वह
तुम्हारे सिर
के ऊपर से ही
गुजर जाता है,
फिर तुम
नींद अनुभव करने
लगते हो, लेकिन
वह नींद अच्छी
नहीं होती। तब
कोई जरूरत
नहीं होती
मुझे सुनने के
लिए यहां आने
की; क्योंकि
वस्तुत: तुम
सुन नहीं रहे
होते, तुम
सोए हुए होते
हो। तो क्यों
आना यहां
शारीरिक रूप
से भी? —कोई
जरूरत नहीं।
एक
तीसरा प्रकार
भी होता है।
तुम यदि दूसरे
प्रकार के हो, तो
तुम्हें
सचमुच इस बारे
में अपराधी
अनुभव करना
चाहिए और जब
मुझे सुन रहे होते
हो तो सजग
रहने का
ज्यादा
प्रयास करना।
तो संभव होता
है कि पहला
प्रकार घट जाए।
फिर होता है
तीसरा प्रकार
जो कि न तो
संबंधित होता
है सुनने से
और न संबंधित
होता है
तुम्हारे
अस्तित्व की
ऊबपूर्ण
स्थिति से। वह
आता है
तुम्हारे
शरीर से। शायद
तुम रात को
ठीक से नहीं
सो सकते होओगे।
बहुत थोड़े लोग
ठीक से सोते
हैं। जब तुम
रात को ठीक से
नहीं सोए होते
तो तुम कुछ थके
— थके होते हो।
तुम्हें नींद
की भूख होती
है और यहां एक
मुद्रा में
फिर—फिर एक ही
व्यक्ति के
साथ बैठने से
एक ही आवाज
बार—बार सुनते
हुए, तुम्हारा
शरीर
उनींदापन
अनुभव करने
लगता है, जो
कि आता है
तुम्हारे
शरीर से।
यदि
वैसी होती है
स्थिति तो कुछ
कर लेना अपनी नींद
का। उसे
ज्यादा गहरा
बनाना होगा।
समय की कोई
ज्यादा
समस्या नहीं—तुम
सो सकते हो आठ
घंटे, और यदि
वह सोना गहरा
नहीं होता तो
तुम भूख अनुभव
करोगे—नींद के
लिए भूखे हो
जाओगे—समस्या
गहराई की ही
है।
हर
रात सोने के
पहले तुम एक
छोटी—सी विधि
का प्रयोग कर
सकते हो जो कि
जबर्दस्त मदद
देगी। बिजली
बुझा दो: अपने
बिस्तर में
बैठ जाओ, सोने
के लिए तैयार
होकर, लेकिन
बैठना पंद्रह
मिनट के लिए
ही। आंखें बंद
कर लेना। फिर
शुरू कर देना
कोई भी एकरस
निरर्थक
ध्वनि, उदाहरण
के लिए : ला, ला,
ला—और मन की
प्रतीक्षा
करना कि वह
नयी ध्वनियां
भेजे।
एकमात्र बात
जो ध्यान में
रखने की है वह
यही कि वे
ध्वनियां या
शब्द किसी उस
भाषा के नहीं
होने चाहिए
जिसे कि तुम जानते
हो। यदि तुम
जानते हो
अंग्रेजी, जर्मन
और इतालवी, तब वे
इतालवी, जर्मन,
अंग्रेजी
के नहीं होने
चाहिए। कोई
दूसरी भाषा
जिसे तुम नहीं
जानते
स्वीकार करनी
होती है—तिब्बती,
चीनी, जापानी।
लेकिन यदि
तुम्हें
जापानी आती है,
तो गुंजाइश
नहीं होती, तब इतालवी
सबसे अच्छी
होती है। कोई
वह भाषा बोलो
जिसे तुम नहीं
जानते। केवल
पहले दिन थोड़ी
देर को तुम
कठिनाई में पड़ोगे,
क्योंकि
कैसे तुम वह
भाषा बोलोगे
जो तुम नहीं जानते?
वह बोली जा
सकती है और एक
बार वे शुरू
होती हैं, कोई
भी ध्वनियां
बेतुके शब्द
तो चेतना को
बिलकुल बहा
देने की और
अचेतन को
बोलने देने की
बात घटेगी।
जब
अचेतन बोलता
है,
तो अचेतन
किसी भाषा को
नहीं जानता।
यह एक बहुत
पुरानी विधि
है। यह चली
आती है
प्राचीन
विधान से। उन
दिनों यह
कहलाई जाती थी,
'ग्लोसोलालिया'। अमेरिका
के कुछ चर्च
अभी इसका
प्रयोग करते
हैं। वे इसे
कहते हैं, 'जीभ
में बोलना।’ और यह एक
अदभुत विधि है,
सर्वाधिक
गहन और अचेतन
में उतर जाने
वाली विधियों
में से एक।
तुम शुरू करते
हो, 'ला, ला
ला,' और फिर
तुम चलते चले
जा सकते हो
किसी भी चीज
के साथ जो कि आ
जाती है। केवल
पहले दिन तुम
इसे थोड़ा कठिन
अनुभव करोगे।
एक बार यह आ
जाए तो तुम
जान लेते हो
इसका ढंग। तब
पंद्रह मिनट
को प्रयोग
करना उस भाषा
का जो कि तुम
तक पहुंच रही
हो, और
उसका प्रयोग
करना भाषा की गति।
वस्तुत: तुम
उसमें बोल ही
रहे होते हो।
ये पंद्रह
मिनट तुम्हारे
चेतन को इतने
गहरे रूप से आराम
पहुंचा देंगे,
और फिर तुम
बस लेट जाते
हो और सो जाते
हो। तुम्हारी
नींद ज्यादा
गहरी हो जाएगी।
कुछ सप्ताह के
भीतर तुम गहराई
अनुभव करोगे
तुम्हारी
निद्रा और
सुबह तुम संपूर्ण
रूप से ताजा
अनुभव करोगे।
फिर मैं
प्रयत्न भी
करूं, तो
मैं तुम्हें
नींद में नहीं
ला सकता।
पहला
प्रकार सुंदर
है,
तीसरा
प्रकार एक
प्रकार की
शारीरिक
भुखमरी है, वह रोग है।
तीसरे प्रकार
का उपचार करना
होता है; पहले
प्रकार को आने
देना होता है।
दूसरे प्रकार
के बारे में
तुम्हें
अपराधी अनुभव
करना ही चाहिए
और हर प्रयास
करना चाहिए
उससे बाहर आ
जाने का।
सातवां
प्रश्न.
अब
जिस समय कि
आधुनिक आदमी
इतनी जल्दी
में है और
पतंजलि की
विधियां इतना
समय लेती हैं
तो किसके
प्रति
संबोधित कर
रहे हैं आप ये
प्रवचन?
हां, आधुनिक
आदमी जल्दी
में है, इसीलिए
ठीक विपरीत
बात मदद देगी।
यदि तुम जल्दी
में होते हो, तब पतंजलि
सहायक होंगे
क्योंकि वे
जल्दी में नहीं
हैं। वे
प्रतिकारक
(एंटिडोट) हैं।
तुम्हारे मन
को जरूरत है
एंटिडोट की, विशेषकर
पश्चिमी मन को।
इस बात की ओर
जरा इस ढंग से
देखो : अब और
कोई दूसरा मन
अस्तित्व
नहीं रखता
सिवाय
पश्चिमी मन के,
कमोबेश हर
जगह ऐसा है, पूरब में भी।
पूरब को भी
जल्दी है।
इसीलिए वह
आकर्षित हुआ
है झेन में।
झेन अचानक
संबोधि की आशा
दिलाता है।
झेन जान पड़ता
है इन्स्पेंट
कॉफी की भांति,
और आकर्षण
है उसमें।
लेकिन मैं
जानता हूं कि
झेन मदद न
देगा।
क्योंकि झेन
के कारण नहीं
है आकर्षण, आकर्षण है
जल्दबाजी के
कारण। और तब
तुम नहीं
समझते झेन को।
पश्चिम में जो
खबर उड़ी हुई
है झेन के
बारे में वह
लगभग झूठी है।
वह पूरी करता
है उस मन की
आवश्यकता को
जो जल्दी में
है, लेकिन
यह बात सच
नहीं झेन के
विषय में।
यदि
तुम जापान जाओ
और पूछो झेन
लोगों से, वे
प्रतीक्षा
करते तीस वर्ष
तक, चालीस
वर्ष तक
प्रतीक्षा
करते, सतोरी
के घटने की।
अचानक संबोधि
के लिए भी
व्यक्ति को
कडा परिश्रम
करना होता है।
संबोधि अचानक
होती है, लेकिन
तैयारी लंबी
होती है। यह
बिलकुल ऐसे
होता है जैसे
तुम पानी
उबालते हो :
तुम पानी गर्म
करते हो निश्चित
डिग्री तक, सौ डिग्री
तक, और
पानी अकस्मात
उड़ जाता है।
ठीक—भाप तो
अकस्मात बनती
है लेकिन
तुम्हें ताप
को लाना हाता
है सौ डिग्री
तक। तपने में
वक्त लगेगा, और तपन
निर्भर करती
है तुम्हारी
प्रगाढ़ता पर।
यदि
तुम जल्दी में
होते हो तो
कोई ऊष्मा
नहीं होती है
तुम में, क्योंकि
तुम चाहोगे
झेन सतोरी पा
लेना, या
कि जल्दी से
संबोधि पा
लेना, केवल
प्रासंगिक
रूप से ही, जैसे
कि वह प्राप्त
की जा सकती हो,
जैसे कि वह
खरीदी जा सकती
हो। दौड़ते हुए,
तुम इसे छीन
लेना चाहोगे
किसी के हाथ
से। इस ढंग से
ऐसा नहीं किया
जा सकता है।
फूल होते हैं,
मौसमी फूल
होते हैं। तुम
बीज बोते हो
और तीन सप्ताह
के भीतर पौधे
तैयार हो जाते
हैं। लेकिन
तीन महीनों
में, पौधों
में फूल खिले
और चले गए, मिट
गए।
यदि
तुम जल्दी में
हो,
तो नशों में
रस लेना बेहतर
होगा बजाय कि
ध्यान, योग,
या झेन में
रस लेने के, क्योंकि नशे
तुम्हें सपने
दे सकते हैं, तात्कालिक
सपने; कई
बार नरक के और
कई बार स्वर्ग
के सपने। तब
मारिजुआना
बेहतर होता है
ध्यान से। यदि
तुम जल्दी में
हो, तब कोई
शाश्वत चीज
तुम्हें नहीं
घट सकती, क्योंकि
शाश्वतता की
चाहिए शाश्वत
प्रतीक्षा।
यदि तुम
शाश्वतता की
मांग कर कि वह
तुम्हें घट
जाए तो
तुम्हें तैयार
रहना होगा
उसके लिए।
जल्दबाजी मदद
न देगी।
एक
झेन कहावत है :
यदि तुम जल्दी
में होते हो, तो
तुम कभी न
पहुंचोगे।
तुम बैठने भर
से पहुंच सकते
हो, लेकिन
जल्दी करके
तुम कभी नहीं
पहुंच सकते।
वह अधीरता ही
बाधा है।
यदि
तुम्हें
जल्दी है तो
पतंजलि हैं
प्रतिकारक, एंटिडोट।
यदि तुम्हें
कोई जल्दी
नहीं तो झेन
भी संभव है।
यह कथन
विरोधाभासी
जान पड़ेगा, लेकिन यह
ऐसा ही है।
यही कुछ है
वास्तविकता, विरोधाभासी।
यदि तुम्हें
जल्दी होती है,
तब इससे
पहले कि
संबोधि घटे, तुम्हें
प्रतीक्षा
करनी पड़ती है
कई जन्मों तक।
यदि तुम्हें
कोई जल्दी
नहीं होती, तब बिलकुल
अभी घट सकती
है यह।
मैं
तुमसे एक कथा
कहता हूं जो
कि मुझे बहुत
ज्यादा प्यारी
है। यह
प्राचीन
भारतीय कथाओं
में से एक है।
नारद, पृथ्वी
और स्वर्ग के
बीच के
संदेशवाहक, एक पौराणिक
व्यक्तित्व, वे जा रहे थे
स्वर्ग की ओर।
वे थे डाकिए
की भांति ही।
वे निरंतर ऊपर—नीचे
आते—जाते रहते
थे। ऊपर से संदेश
लाते, नीचे
से संदेश लाते।
उन्होंने
जारी रखा था
अपना काम। वे
स्वर्ग के
मार्ग पर जाते
थे और वे एक
बहुत वृद्ध
मुनि के
बिलकुल पास से
गुजरे जो अपनी
माला के मनके
लिए राम नाम
जपते हुए
वृक्ष के नीचे
बैठा हुआ था।
उसने देखा
नारद की तरफ
और वह बोला, 'कहां जा रहे
हो तुम? क्या
तुम स्वर्ग की
ओर जा रहे हो? तो मेरे ऊपर
एक कृपा करना।
पूछना ईश्वर
से कि और
कितनी
प्रतीक्षा
मुझे करनी
होगी'—इस
प्रश्न में ही
अधैर्य मौजूद
था—'और जरा
यह भी याद
दिला देना
उनको कि तीन
जन्मों से मैं
ध्यान, तप
कर रहा हूं।
जो कुछ भी
किया जा सकता
है, मैंने
कर लिया है।
हर बात की एक
सीमा होती है!'
इसमें मांग
थी, अपेक्षा
थी, अधीरता
थी। नारद बोले,
'मै जा रहा
हूं और मैं
पूछूंगा।’
और
उस वृद्ध मुनि
के एक ओर ही एक
दूसरे वृक्ष के
नीचे, एक युवा
व्यक्ति
नाचते हुए और
गाते हुए
परमात्मा का
नाम ले रहा था।
मात्र मजाक
में ही नारद
ने उस युवा
व्यक्ति से
पूछ लिया, 'क्या
तुम भी चाहोगे
कि मैं
तुम्हारे
बारे में कुछ
पूछूं? कि
कितना समय
लगेगा?' लेकिन
वह युवक इतना
ज्यादा डूबा
हुआ था आनंद में
कि उसने परवाह
नहीं की। उसने
उत्तर न दिया।
फिर
कुछ दिनों के
बाद,
नारद लौट आए।
वे उस वृद्ध
से बोले, 'मैंने
पूछा था ईश्वर
से और वह हंस
पड़ा और बोला—कम
से कम तीन
जन्मों तक और।’
उस के आदमी
ने अपनी माला
फेंक दी, और
बोला, 'यह
तो अन्याय हुआ।
और जो कोई
कहता है कि
ईश्वर न्यायी
है, वह गलत
कहता है।’ वह
बहुत क्रोध
में था। फिर
नारद पहुंचे
उस युवक के
पास जो अभी भी
नाच रहा था और
कहने लगे वे
उससे,. 'हालांकि
तुमने नहीं भी
कहा, मैंने
पूछ लिया।
लेकिन अब मैं
भयभीत हूं
तुमसे कह देने
में, क्योंकि
वह का आदमी
इतना क्रोध
में आ गया कि वह
मुझे पीट भी
सकता था।’ लेकिन
वह युवक तो
अभी भी नाच
रहा था, पूछने
में रुचि न ले
रहा था। नारद
बोले उससे, 'मैने पूछा
था उनसे, और
ईश्वर ने कहा,
कह देना उस
युवक से कि
जिस वृक्ष के
नीचे वह नाच
रहा है उसी के
पत्ते गिन ले;
इससे पहले
कि वह उपलब्ध
हो, उसे
उतनी ही बार
और जन्म लेना
होगा।’ युवक
ने सुना और
बड़े आनंद में
डूब गया—हंसा
और कूदा और
उत्सव मनाने
लगा। वह बोला,
'इतनी जल्दी?
क्योंकि
पृथ्वी तो
पूरी भरी पड़ी
है वृक्षों से,
लाखों—लाखों
वृक्षों से और
बस यही पत्ते
और इतनी ही संख्या?
इतनी जल्दी?
परमात्मा
की असीम करुणा
है, और मैं
इसके योग्य
नहीं।’ और
ऐसा कहा जाता
है कि तुरंत
ही वह उपलब्ध
हो गया। उसी
क्षण शरीर गिर
गया। तत्क्षण
ही वह संबोधि
को उपलब्ध हुआ।
यदि
तुम्हें
जल्दी होती है, तो
समय लगेगा
इसमें। यदि
तुम्हें जल्दी
नहीं होती तो
यह संभव है
बिलकुल इसी
क्षण।
पतंजलि
प्रतिकारक
हैं,
एंटिडोट
हैं उनके लिए
जो जल्दी में
होते हैं, और
झेन है उनके
लिए जो जल्दी
में नहीं हैं।
और इसके ठीक
विपरीत घटता
है; जिन
लोगों को कोई
जल्दी नहीं
होती, वे
पतंजलि की ओर
आकर्षित हो
जाते हैं। यह
गलत है। यदि
तुम्हें
जल्दी है, तो
अनुसरण करो
पतंजलि का, क्योंकि वे
तुम्हें
खींचते—बढ़ाते
चलते चलेंगे
और तुम्हें
तुम्हारे
चेतना—बोध तक
ले आएंगे। वे
इतने लंबे समय
तक मार्ग की
बात करेंगे कि
वे एक प्रघात
होंगे
तुम्हारे लिए।
और यदि तुम
उन्हें
प्रवेश करने
देते हो स्वयं
में, तो
तुम्हारी
जल्दबाजी
तिरोहित हो
जाएगी।
इसीलिए
मैं बात कर
रहा हूं मैं
बात कर रहा
हूं पतंजलि की
तुम्हारे ही
कारण। तुम
जल्दी में हो
और मुझे लगता
है कि पतंजलि
तुम्हारी
अधीरता को
गिरा देंगे।
वे तुम्हें
बढ़ाए चलेंगे; यथार्थ
तक लौटा लायेंगे।
वे तुम्हें
तुम्हारे
विवेक—बोध तक
ले आयेंगे।
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