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सोमवार, 7 अप्रैल 2014

गीता दर्शन--(भाग--2) प्रवचन--032

परमात्मा के स्वर— 

(अध्याय 4) चौथा प्रवचन


ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।। 11।।

हे अर्जुन! जो मेरे को जैसे भजते हैं, मैं भी उनको वैसे ही भजता हूं। इस रहस्य को जानकर ही बुद्धिमान मनुष्यगण सब प्रकार से मेरे मार्ग के अनुसार बर्तते हैं।
यह वचन बहुत अदभुत है।
कृष्ण कहते हैं, जो मुझे जिस भांति भजते हैं, मैं भी उन्हें उसी भांति भजता हूं। और बुद्धिमान पुरुष इस बात को जानकर इस भांति बर्तते हैं।
भगवान भजता है! इस सूत्र में एक गहरे आध्यात्मिक रिजोनेंस की, एक आध्यात्मिक
प्रतिसंवाद की घोषणा की गई है। संगीतज्ञ जानते हैं कि अगर एक सूने एकांत कमरे में कोई कुशल संगीतज्ञ एक वीणा को बजाए और दूसरे कोने में एक वीणा रख दी जाए--खाली, अकेली।
कमरे में गूंजने लगे आवाजें एक बजती हुई वीणा की, तो कुशल संगीतज्ञ उस शांत पड़ी हुई वीणा के तारों को भी झंकृत कर देता है; रिजोनेंस पैदा हो जाता है। वह जो खाली पड़ी वीणा है, जिसे कोई भी नहीं छू रहा है, वह भी उस गूंजते संगीत से गुंजायमान हो जाती है। वह भी गूंजने लगती है; उससे भी संगीत का स्फुरण होने लगता है।
परमात्मा भी रिजोनेंस है; प्रतिध्वनि देता है। जैसे हम होते हैं, ठीक वैसी प्रतिध्वनि परमात्मा भी हमें देता है। हमारे चारों ओर वही मौजूद है। हमारे भीतर जो फलित होता है, तत्काल उसमें प्रतिबिंबित हो जाता है; वह दर्पण की भांति हमें लौटा देता है, हमारे प्रतिबिंबों को।
कृष्ण कहते हैं, जो मुझे जिस भांति भजता है, उसी भांति मैं भी उसे भजता हूं। जो जिस भांति मेरे दर्पण के समक्ष आ जाता है, वैसी ही तस्वीर उस तक लौट जाती है।
परमात्मा कोई मृत वस्तु नहीं है, जीवंत सत्य है। परमात्मा कोई बहरा अस्तित्व नहीं है, कोई डंब एक्झिस्टेंस नहीं है, परमात्मा हृदयपूर्ण है। परमात्मा भी प्राणों के स्पंदन से भरा हुआ अस्तित्व है। और जब हमारे प्राणों में कोई प्रार्थना उठती है और हम परमात्मा की तरफ बहने शुरू होते हैं, तो आप मत सोचना कि यात्रा एक तरफ से होती है। यात्रा दोहरी है। जब आप एक कदम उठाते हैं परमात्मा की तरफ, तब परमात्मा भी आपकी तरफ कदम उठाता है।
यह हमें साधारणतः दिखाई नहीं पड़ता। यह साधारणतः हमारे खयाल में नहीं आता। यह खयाल में हमारे इसीलिए नहीं आता कि हम जीवन की क्षुद्रता में इस भांति उलझे हुए हैं कि उसकी गहरी प्रतिध्वनियों को पकड़ने की क्षमता खो देते हैं। हम इतने शोरगुल में डूबे हुए हैं कि वह जो धीमी-धीमी आवाजें अस्तित्व हमारे पास पहुंचाता है, वे हमें सुनाई नहीं पड़तीं। बहुत स्टिल स्माल वाइस, बड़ी छोटी आवाज है। बड़ी बारीक, महीन आवाज में ध्वनियां हम तक लौटती हैं, लेकिन हमें सुनाई नहीं पड़तीं। हम इतने उलझे होते हैं।
कभी खयाल किया हो; आप अपने कमरे में बैठे हैं, खयाल करें, तो पता चलता है कि बाहर वृक्ष पर चिड़िया आवाज कर रही है। खयाल न करें, तो वह आवाज करती रहती है, आपको कभी पता नहीं चलता। रात के सन्नाटे से गुजर रहे हैं, अपने विचारों में खोए हुए हैं। पता नहीं चलता है कि बाहर झींगुर की आवाज है। होश में आ जाएं, चौंककर जरा रुक जाएं; सुनें, तो पता चलता है कि विराट सन्नाटा आवाज कर रहा है।
ठीक ऐसे ही परमात्मा प्रतिपल हमें प्रतिध्वनित करता है, लेकिन झींगुर की आवाज से भी सूक्ष्म है आवाज। सन्नाटे की आवाज से भी बारीक है। पक्षियों की चहचहाहट से भी नाजुक है। बहुत चुप होकर, मौन होकर जो उसे पकड़ेगा, वही पकड़ पाता है।
गहरे मौन में, कृष्ण जो कहते हैं, उसका निश्चित ही पता चलता है। यहां उठती है एक ध्वनि, चारों ओर से उसकी प्रतिध्वनि लौट आती है और उसकी हमारे ऊपर वर्षा हो जाती है।
मैं एक पहाड़ पर था। कुछ मित्रों के साथ था। उस पहाड़ पर एक जगह थी इकोप्वाइंट। वहां जाकर आवाज करते, तो पहाड़ियों की घाटियां सात बार उस आवाज को लौटा देतीं।
एक मित्र साथ थे, उन्होंने कुत्ते की आवाज में चिल्लाना शुरू किया। पहाड़ चारों तरफ से कुत्ते की आवाज लौटाने लगे। वे खेल में ही कर रहे थे; पर खेल भी तो खेल नहीं है। मैंने उनसे पूछा कि तुम्हें और आवाजें करनी भी आती हैं, फिर कुत्ते की आवाज ही क्यों कर रहे हो? उन मित्र ने कोयल की आवाज करनी शुरू की और पहाड़ की घाटियां कोयल की आवाज से गूंज कर हम पर लौटने लगी। मैंने उनसे कहा, पहाड़ वही लौटा देते हैं, जो हम उन तक पहुंचाते हैं। सात गुना वापस कर देते हैं।
कृष्ण कहते हैं, जो जिस रूप में...।
जिस रूप में भी हम अपने अस्तित्व के चारों ओर अपने प्राणों से प्रतिध्वनियां करते हैं, वे ही हम पर अनंतगुना होकर वापस लौट आती हैं। परमात्मा प्रतिपल हमें वही दे देता है, जो हम उसे चढ़ाते हैं। हमारे चढ़ाए हुए फूल हमें वापस मिल जाते हैं। हमारे फेंके गए पत्थर भी हमें वापस मिल जाते हैं। हमने गालियां फेंकीं, तो वे ही हम पर लौट आती हैं। और हमने भजन की ध्वनियां फेंकीं, तो वे ही हम पर बरस जाती हैं।
अगर जीवन में दुख हो, तो जानना कि आपने अपने चारों तरफ दुख के स्वर भेजे हैं, वे आप पर लौट आए हैं। अगर जीवन में घृणा मिलती हो, तो जानना कि आपने घृणा के स्वर फेंके थे, वे आप पर वापस लौट आए। अगर जीवन में प्रेम न मिलता हो, तो जानना कि आपने कभी प्रेम की आवाज ही नहीं दी कि आप पर प्रेम वापस लौट सके।
इस जीवन के महा नियमों में से एक है, हम जो देते हैं, वह हम पर वापस लौट आता है।
कृष्ण वही कह रहे हैं। वे कहते हैं, जो जिस रूप में मुझे भजता है...।
जिस रूप में, इस शब्द को ठीक से स्मरण रख लेना। जो जिस रूप में मुझे भजता है, मैं भी उसे उसी रूप में भजता हूं। मैं उसे वही लौटा देता हूं, इन दि सेम क्वाइन
वह कहानी तो हम सबको पता है। सभी को पता होगा। एक आदमी पर अदालत में मुकदमा चला। वकील ने उससे कहा कि तू बोलना ही मत। तू तो इस तरह की आवाजें करना कि पता चले, गूंगा है। जब मजिस्ट्रेट पूछे, तभी तू गूंगे की तरह आवाजें करना। कहना, आ। कुछ भी करना, लेकिन बोलना मत।
अदालत में वही किया। फिर मुकदमा जीत गया। वह आदमी बोल ही नहीं सकता था और उस पर जुर्म था कि उसने गालियां दीं, अपमान किया; यह किया, वह किया। मजिस्ट्रेट ने कहा, जो आदमी बोल ही नहीं सकता, वह गालियां कैसे देगा, अपमान कैसे करेगा! वह छूट गया। बाहर आकर वकील ने कहा, मुकदमा जीत गए। अब मेरी फीस चुका दो। उस आदमी ने कहा, आ। इन दि सेम क्वाइन! उसने उसी सिक्के में वापस फीस भी चुका दी। उस वकील ने कहा, बंद करो यह बात। यह अदालत के लिए कहा था। उस आदमी ने कहा, आ। उसने कहा, कुछ समझ आता नहीं कि आप क्या कह रहे हैं? हाथ से इशारा किया, आंख से इशारा किया।
जिंदगी भी उसी सिक्के में हमें लौटा देती है। हमें तब तो पता नहीं चलता, जब हम जिंदगी को देते हैं अपने सिक्के। हमें पता तभी चलता है, जब सिक्के लौटते हैं। हम जब बीज बोते हैं, तब तो पता नहीं चलता; जब फल आते हैं, तब पता चलता है। और अगर फल विषाक्त आते हैं, जहरीले, तो हम रोते हैं और कोसते हैं। हमें पता नहीं कि यह फल हमारे बीजों का ही परिणाम है।
ध्यान रहे, जो भी हम पर लौटता है, वह हमारा दिया हुआ ही लौटता है। हां, लौटने में वक्त लग जाता है। प्रतिध्वनि होने में समय गिर जाता है। उतने समय के फासले से पहचान मुश्किल हो जाती है।
इस जगत में किसी भी व्यक्ति के साथ कभी अन्याय नहीं होता। अन्याय नहीं होता, उसी का यह सूत्र है।
कृष्ण कहते हैं, जो जिस रूप में मुझे भजता है, मैं उसी रूप में उसे भजता हूं।
अगर किसी व्यक्ति ने इस जगत को पदार्थ माना, तो उसे यह जगत पदार्थ मालूम होने लगेगा। क्योंकि परमात्मा उसी रूप में लौटा देगा। अगर किसी व्यक्ति ने इस जगत को परमात्मा माना, तो यह जगत परमात्मा हो जाएगा। क्योंकि यह अस्तित्व उसी रूप में लौटा देगा, जो हमने दिया था।
हमारा हृदय ही अंततः हम सारे जगत में पढ़ लेते हैं। और हमारे हृदय में छिपे हुए स्वर ही अंततः हमें सारे जगत में सुनाई पड़ने लगते हैं। चांदत्तारे उसी को लौटाते हैं, जो हमारे हृदय के किसी कोने में पैदा हुआ था। लेकिन अपने हृदय में जो नहीं पहचानता, लौटते वक्त बहुत चकित होता है, बहुत हैरान होता है कि यह कहां से आ गया? इतनी घृणा मुझे कहां से आई? इतने लोगों ने मुझे घृणा क्यों की? लौटे, खोजे, और वह पाएगा कि घृणा ही उसने भेजी थी। वही वापस लौट आई है।
इसका एक अर्थ और खयाल में ले लें। जिस रूप में भजता है, इसका एक अर्थ मैंने कहा। इसका एक अर्थ और खयाल में ले लें।
अगर कोई न भजता हो, किसी भी रूप में न भजता हो परमात्मा को, तो परमात्मा क्या लौटा देता है? अगर कोई भजता ही नहीं परमात्मा को, तो परमात्मा भी न भजने को ही लौटाता है। अगर कोई व्यक्ति जीवन से किसी भी तरह के संवाद नहीं करता, तो जीवन भी उसके प्रति मौन हो जाता है; जड़ पत्थर की तरह हो जाता है। सब तरफ पथरीला हो जाता है। जिंदगी में जिंदगी आती है हमारे जिंदा होने से। इसलिए जिंदा आदमी के पास पत्थर भी जिंदा होता है और मरे हुए, मुर्दा तरह के आदमी के पास, जिंदा आदमी भी मुर्दा हो जाता है।
एक कवि के संबंध में मैं सुनता हूं कि वह अगर अपने जूते भी पहनता, तो इस भांति, जैसे जूते जीवित हों। अगर वह अपने सूटकेस को बंद करता, तो इस भांति, जैसे सूटकेस में प्राण हों। मैं उसका जीवन पढ़ रहा था। उसका जीवन लिखने वालों ने लिखा है कि हम सब समझते थे, वह पागल है। हम सब समझते थे, उसका दिमाग खराब है। वह दरवाजा भी खोलता, तो इतने आहिस्ते से कि दरवाजे को चोट न लग जाए। वह कपड़े भी बदलता, तो इतने प्रेम से कि कपड़ों का भी अपना अस्तित्व है, अपना जीवन है।
निश्चित ही पागल था, हम तो व्यक्तियों के साथ भी ऐसा व्यवहार नहीं करते कि वे जीवित हैं। आपने कभी अपने नौकर को इस तरह देखा कि वह आदमी है? नहीं देखते हैं। चारों तरफ जीवन है, उसको भी हम मुर्दे की तरह देखते हैं; लेकिन वह कवि, जिन्हें हम साधारणतया मुर्दा चीजें कहते हैं, उन्हें भी जीवन की तरह देखता। मित्र समझते कि पागल है। लेकिन अंत में मित्रों ने जब जीवन उसका उठाकर देखा, तो उन्होंने कहा कि अगर वह पागल था, तो भी ठीक था। और अगर हम समझदार हैं, तो भी गलत हैं। क्योंकि उसकी जिंदगी में दुख का पता ही नहीं है। पूरी जिंदगी में वह कभी दुखी नहीं हुआ।
यह तो बाद में पता चला कि उस आदमी की जिंदगी में दुख की एक भी घटना नहीं है। उस आदमी को कभी किसी ने उदास नहीं देखा। उस आदमी को कभी किसी ने रोते नहीं देखा। उस आदमी की आंखों से आंसू नहीं बहे।
पूरी जिंदगी इतने आनंद की जिंदगी कैसे हो सकी? जब उससे किसी ने पूछा, तो उसने कहा, मुझे पता नहीं। लेकिन एक बात मैं जानता हूं। मैंने अगर पत्थर को भी छुआ, तो इतने प्रेम से कि जैसे वह परमात्मा हो। बस, इसके सिवाय मेरी जिंदगी का कोई राज नहीं है। फिर मुझे सब तरफ से आनंद ही लौटा है।
जिस रूप में हम अस्तित्व के साथ व्यवहार करते हैं, वही व्यवहार हम तक लौट आता है। परमात्मा भी प्रतिपल रिस्पांडिंग है, प्रतिसंवादित होता है। बारीक है उसकी वीणा और स्वर हैं महीन; लेकिन प्रतिपल, जरा-सा हमारा कंपन उसे भी कंपा जाता है। जिस भांति हम कंपते हैं, उसी भांति वह कंपता है। अंततः जो हम हैं, वही हमारी जिंदगी में हमें उपलब्ध होता है।
इसलिए अगर एक आदमी कहता हो कि मुझे कहीं ईश्वर नहीं मिला...मेरे पास लोग आते हैं; वे कहते हैं कि ईश्वर? आप ईश्वर की बात करते हैं। ईश्वर कहां है?
मैं उनकी आंखों में देखता हूं, तो मुझे पता लगता है, उनकी आंखें पथरीली हैं। उन्हें ईश्वर कहीं भी दिखाई नहीं पड़ता। उसका कारण यह नहीं है कि ईश्वर नहीं है। उसका कारण यह है कि उनके पास पत्थर की आंखें हैं। पत्थर की आंखों में ईश्वर दिखाई पड़ना मुश्किल है। उनकी आंखों में देखने की क्षमता ही नहीं मालूम पड़ती; उनकी आंखों में कुछ नहीं दिखाई पड़ता।
हां, उनकी आंखों में कुछ चीजें दिखाई पड़ती हैं; वे उन्हें मिल जाती हैं। धन दिखाई पड़ता है, उन्हें मिल जाता है। यश दिखाई पड़ता है, उन्हें मिल जाता है। जो दिखाई पड़ता है, वह मिल जाता है। जो नहीं दिखाई पड़ता है, वह कैसे मिलेगा? हम जितना परमात्मा को उघाड़ना चाहें, उतना उघाड़ सकते हैं। लेकिन परमात्मा को उघाड़ने के पहले, उतना ही हमें स्वयं भी उघड़ना पड़ेगा।
प्रार्थना, कृष्ण कहते हैं, भजन, भजना यह अपनी तरफ से परमात्मा के लिए पुकार भेजना है। और जब भी कोई हृदयपूर्वक प्रार्थना से भर जाता है, तो आमतौर से हमें पता नहीं है कि प्रार्थना का असली क्षण वह नहीं है जब आप प्रार्थना करते हैं। प्रार्थना का असली क्षण तब शुरू होता है, जब आपकी प्रार्थना पूरी हो जाती है और आप प्रतीक्षा करते हैं।
प्रार्थना के दो हिस्से हैं, ध्यान रखें। एक ही हिस्सा प्रचलित है। दूसरे का हमें पता ही नहीं रहा है। और दूसरे का जिसे पता नहीं है, उसे प्रार्थना का ही पता नहीं है।
आपने प्रार्थना की, वह तो एकतरफा बात हुई। प्रार्थना के बाद अब मंदिर से भाग मत जाएं। अब प्रार्थना के बाद मस्जिद को छोड़ मत दें। अब प्रार्थना के बाद गिरजे से निकल मत जाएं, एकदम दुकान की तरफ। अगर पांच क्षण प्रार्थना की है, तो दस क्षण रुककर प्रतीक्षा भी करें। उस प्रार्थना को लौटने दें। वह प्रार्थना आप तक लौटेगी। और अगर नहीं लौटती है, तो समझना कि आपको प्रार्थना करने का ही कुछ पता नहीं। आपने प्रार्थना की ही नहीं है।
लेकिन आदमी प्रार्थना किया, और भागा! वह प्रतीक्षा तो करता ही नहीं कि परमात्मा को पुकारा था, तो उसे पुकार का जवाब भी तो दे देने दो। जवाब निरंतर उपलब्ध होते हैं। कभी भी कोई प्रश्न खाली नहीं गया। और कभी कोई पुकार खाली नहीं गई। लेकिन की गई हो तब। अगर सिर्फ शब्द दोहराए गए हों, अगर सिर्फ कंठस्थ शब्दों को दोहराकर कोई क्रिया पूरी की गई हो और आदमी वापस लौट गया हो, तो फिर नहीं, फिर नहीं हो सकता।
आज ही कोई मुझे कह रहा था कि आपके ये संन्यासी सड़कों पर नाचते-गाते निकल रहे हैं, इससे फायदा क्या है? मैंने उनसे कहा, जाओ, और नाचो, और देखो! उन्होंने कहा, हमें कुछ फायदा दिखाई नहीं पड़ता। मैंने कहा, बिना नाचे मत कहो। नाचो पूरे हृदय से, फिर प्रतीक्षा करो। फायदे की बड़ी वर्षा हो जाएगी।
निश्चित ही फायदा नोटों में नहीं होगा, कि नोट बरस जाएंगे! लेकिन नोटों से भी कीमती कुछ इस पृथ्वी पर है। और जिसके लिए नोट सबसे कीमती चीज है; उससे ज्यादा दरिद्र आदमी खोजना मुश्किल है। भिखारी है, भिखमंगा है। उसे कुछ भी पता नहीं है।
नाचो प्रभु के सामने और छोड़ दो फिर नाच को उसकी तरफ, फिर लौटेगा। जो नाचकर प्रभु के पास गया है, नाचता हुआ प्रभु उसके पास भी आता है। जिसने गीत गाकर निवेदन किया है, उसने और महागीत में गाकर उत्तर भी दिया है। उसका ही आश्वासन कृष्ण के द्वारा अर्जुन को इस सूत्र में दिया गया है।

कांक्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा।। 12।।

और जो मेरे को तत्व से नहीं जानते हैं, वे पुरुष, इस मनुष्य लोक में, कर्मों के फल को चाहते हुए देवताओं को पूजते हैं और उनके कर्मों से उत्पन्न हुई सिद्धि भी शीघ्र ही होती है।

जीवन के परम सत्य को भी जो नहीं जानते, वे भी जीवन की बहुत-सी शुभ शक्तियों से लाभान्वित हो सकते हैं। परमात्मा परम शक्ति है, लेकिन शक्ति और छोटे रूपों में भी बहुत-बहुत मार्गों से प्रकट होती है।
कृष्ण अर्जुन को इस सूत्र में कह रहे हैं कि जो मुझे उपलब्ध हो जाते हैं, जो मेरी देह को उपलब्ध हो जाते हैं, वे जन्म-मरण से मुक्त हो जाते हैं। लेकिन जो मुझे नहीं भी उपलब्ध होते सीधे, जो परम ऊर्जा से परम स्रोत से सीधे संबंधित नहीं होते, वे भी देवताओं से, उनकी पूजा कर, उनकी सन्निधि में आ, शुभ को उपलब्ध होते हैं। यहां दोत्तीन बातें समझ लेने जैसी हैं।
साधारणतः परम शक्ति के संपर्क में आना अति कठिन है। परम शक्ति के संपर्क में आने के लिए बड़ी छलांग, बड़े साहस की जरूरत है। परम शक्ति के संपर्क में आने का अर्थ अपने को पूरी तरह जलाकर भस्म, राख कर डालना है। जो अपने मैं को जरा भी बचाना चाहे, वह परम शक्ति के संपर्क में नहीं आ सकता। जैसे सूर्य के पास कोई पहुंचना चाहे, तो भस्म हो ही जाएगा। ऐसे ही परम शक्ति के पास कोई पहुंचना चाहे, तो स्वयं को मिटाए बिना कोई रास्ता नहीं है। इसलिए परम साहस है, करेज है।
धार्मिक व्यक्ति ठीक अर्थों में अपने को मिटाने के साहस से ही पैदा होता है। इसलिए अधिक धार्मिक लोग इतना साहस तो नहीं कर पाते हैं। लेकिन फिर भी सूर्य के पास कोई न जा पाए, तो भी अंधेरे में ही रहे, ऐसा जरूरी नहीं है। छोटे मिट्टी के दीए भी जलाए जा सकते हैं। और मिट्टी के छोटे से दीए में जो ज्योति जलती है, वह भी महासूर्यों का ही हिस्सा है। लेकिन वह जलाती नहीं, वह मिटाती नहीं; वह आपके हाथ में उपयोग की जा सकती है।
देवता परम शक्ति के समक्ष दीयों की तरह हैं, छोटे दीयों की तरह हैं। देवता उन आत्माओं का नाम है...इसे थोड़ा-सा समझ लेना जरूरी होगा, तभी यह बात ठीक से खयाल में आ सकेगी।
जैसे ही कोई व्यक्ति मरता है, इस शरीर को छोड़ता है, साधारणतः सौ में निन्यानबे मौकों पर तत्काल ही जन्म हो जाता है। कभी-कभी, यदि व्यक्ति बहुत बुरा रहा हो, तो तत्काल जन्म मुश्किल होता है; या व्यक्ति बहुत भला रहा हो, तो भी तत्काल जन्म मुश्किल होता है। बहुत भले व्यक्ति के लिए भी गर्भ खोजने में समय लग जाता है। वैसा गर्भ उपलब्ध होना चाहिए। बहुत बुरे व्यक्ति को भी। मध्य में जो हैं, उन्हें तत्काल गर्भ उपलब्ध हो जाता है। जो बहुत बुरे व्यक्ति हैं, उन्हें कुछ समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है, करनी पड़ती है; जब तक उनके योग्य उतना बुरा गर्भ उपलब्ध न हो सके। ऐसी आत्माओं को प्रेत पारिभाषिक शब्द है--ऐसी प्रतीक्षा कर रही आत्माओं का, जो नई देह को उपलब्ध नहीं हो पा रही हैं--बहुत बुरी हैं इसलिए। बहुत भली आत्माएं भी शीघ्र जन्म को उपलब्ध नहीं हो पातीं। ऐसी प्रतीक्षा करती आत्माओं का नाम देवता है। वह भी पारिभाषिक शब्द है।
जो सीधे परमात्मा से संबंधित नहीं हो पाते, वे भी चाहें तो देवताओं से संबंधित हो सकते हैं। बुरी आत्माएं बुरा करने के लिए आतुर रहती हैं, देह न हो तो भी। अच्छी आत्माएं अच्छा करने के लिए आतुर रहती हैं, देह न हो तब भी। इन आत्माओं का साथ मिल सकता है। इसका पूरा अलग ही विज्ञान है कि इन आत्माओं का साथ कैसे मिल सके! लेकिन आमंत्रण से, इनवोकेशन से, निमंत्रण से इन आत्माओं से संबंधित हुआ जा सकता है। समस्त यज्ञ आदि शुभ आत्माओं से संबंध स्थापित करने की मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाएं थीं। जिसे दुनिया में ब्लैक मैजिक कहते हैं, उस तरह की प्रक्रियाएं बुरी आत्माओं से संबंध स्थापित करने की प्रक्रियाएं थीं।
कृष्ण कहते हैं, जो सीधा मुझको न भी उपलब्ध हो, वह भी देवताओं की पूजा और अर्चना से शुभ कर्मों को करता हुआ, शुभ को उपलब्ध हो सकता है। जो परम सत्य को उपलब्ध न भी हो, वह भी शुभ को उपलब्ध हो सकता है।
दो कारणों से वह शुभ को उपलब्ध होगा। एक तो, जो शुभ की आकांक्षा करता है, वह शुभ कर्म करता है। आकांक्षा का सबूत और कुछ भी नहीं है सिवाय कर्मों के। हम जो करते हैं, वही गवाही है हमारी आकांक्षाओं की। हमारी डीड, हमारा कर्म ही हमारे प्राणों की प्यास की खबर है।
शुभ कर्मों को करता हुआ।
लेकिन आदमी बहुत कमजोर है और शुभ कर्म भी आदमी अकेला करना चाहे, तो अति कठिन है। वह अपने चारों तरफ व्याप्त जो शुभ की शक्तियां हैं, उनका सहारा ले सकता है। और कई बार जब आप कोई बड़ा शुभ कर्म करते हैं, तो आप खुद भी अनुभव करते हैं, जैसे कोई और बड़ी शक्ति भी आपके साथ खड़ी हो गई। जब आप कोई बहुत बुरा कर्म करते हैं, तब भी आपको अनुभव होता है कि जैसे आप अकेले नहीं हैं। कोई और बुरी शक्ति भी आपके साथ संयुक्त हो गई है।
हत्यारों ने अदालतों में बहुत बार बयान दिए हैं, और उनके बयान कभी भी ठीक से नहीं समझे जा सके, क्योंकि अदालतों की समझ की सीमा है। अदालतों में हत्यारों ने सारी पृथ्वी पर अनेक बार यह कहा है कि यह हत्या हमने नहीं की; जैसे हमसे करवा ली गई है। लेकिन अदालत तो इस बात को नहीं मानेगी। मानेगी कि झूठ है वक्तव्य। झूठ बहुत मौकों पर हो भी सकता है; बहुत मौकों पर झूठ नहीं है।
जो लोग प्रेतात्म-विज्ञान पर थोड़ा-सा श्रम उठाए हैं, उनको इस बात का अनुभव होना शुरू हुआ है कि बुरी आत्माएं दूसरे व्यक्तियों को कमजोर क्षण में प्रभावित कर लेती हैं।
ऐसे मकान हैं पृथ्वी पर, जिन मकानों में निरंतर हत्या होती रही है, पीढ़ियों से। और जब उन मकानों के लंबे इतिहास को खोजा गया है, तो जानकर बड़ी हैरानी हुई कि हर बार हत्या का क्रम वही रहा है, जो पिछली बार हत्या का था। उन घरों में उन आत्माओं का वास है, जो उस घर में आने वाले नए लोगों से हत्या करवाने का प्रयास फिर से करवा लेती हैं।
ऐसे स्थान हैं, जहां आदमी के मन में शुभ फलित होता है। जिन्हें हम तीर्थ कहते थे, उन तीर्थों का कोई और अर्थ नहीं है। जिन स्थानों पर भली आत्माओं के संघट की संभावना अनेक-अनेक रास्तों से निर्मित की गई है, उन स्थानों पर आदमी जाकर अचानक भला कर्म कर पाता है, जो उसके वश के बाहर दिखाई पड़ता है।
हम अकेले नहीं हैं। हमारे चारों ओर और बहुत शक्तियां काम कर रही हैं। जब हम बुरा होना चाहते हैं, तो बुरी शक्तियां हमारे साथ खड़ी हो जाती हैं और हमारे हाथों का बल बन जाती हैं। और जब हम अच्छा कुछ करना चाहते हैं, तब भी अच्छी शक्तियां हमारे साथ खड़ी हो जाती हैं और हमारे हाथों का बल बन जाती हैं।
तो कृष्ण कह रहे हैं, अच्छा कर्म करते हुए, देवताओं की अर्चना, प्रार्थना, पूजा से, जो व्यक्ति सीधा मुझ तक न भी पहुंचे वह भी शुभ को उपलब्ध होता है।

प्रश्न:

भगवान श्री, पिछली चर्चाओं के संबंध में दो चीजें स्पष्ट करें। दूसरे श्लोक के हिंदी अनुवाद में लिखा गया है कि बहुत काल से इस पृथ्वी पर योग लुप्तप्राय हो गया है, किंतु संस्कृत श्लोक में योगो नष्टः, ऐसा कहा गया है; अर्थात योग करीब-करीब लोप नहीं, बल्कि योग नष्ट हो गया है। कृपया इसके बारे में थोड़ा समझाइए

और आठवें श्लोक के हिंदी अनुवाद में लिखा गया है कि साधुओं का उद्धार करने के लिए प्रकट होता हूं, लेकिन संस्कृत में साधुओं के परित्राण के लिए प्रकट होता हूं, ऐसा कहा गया है। कृपया 'साधुओं के उद्धार' के स्थान पर 'परित्राण' का अर्थ स्पष्ट करें।


परित्राण का तो वही अर्थ है, जो उद्धार का है। उसमें कोई भेद नहीं है। नष्टप्राय का या योग नष्ट हो गया, इसका लुप्तप्राय अर्थ करना भी गलत नहीं है। असल में संस्कृत के 'नष्ट होने' का अर्थ, जिस दिन उस शब्द का प्रयोग किया गया, उस दिन नष्ट होने की जो परिभाषा थी, उसको ध्यान में रखकर करना पड़े।
इस देश में कभी भी ऐसा नहीं समझा गया कि कोई चीज पूरी तरह नष्ट हो सकती है। नष्ट होने का इतना ही मतलब होता है कि वह लुप्त हो गई।
आज विज्ञान भी इस बात से सहमति देता है। डिस्ट्रक्शन का अर्थ मिट जाना नहीं, सिर्फ लुप्त हो जाना है। क्योंकि कोई चीज पूरी तरह नष्ट हो ही नहीं सकती। एक रेत के छोटे-से कण को भी हम नष्ट नहीं कर सकते। हम सिर्फ रूपांतरित कर सकते हैं, लुप्त कर सकते हैं। किसी और रूप में वह प्रगट हो जाएगा। नष्ट नहीं हो सकता।
इस पृथ्वी पर कोई चीज नष्ट नहीं होती और न कोई चीज सृजित होती है। जब हम कहते हैं, हमने कोई चीज बनाई, तो उसका मतलब यह नहीं होता है कि हमने कोई नई चीज बनाई। उसका इतना ही मतलब होता है कि हमने कुछ चीजों को रूपांतरित किया। हमने रूप बदला।
पानी है। गर्म किया, भाप हो गई। पानी नष्ट हो गया। लेकिन क्या अर्थ हुआ नष्ट होने का? भाप होकर पानी अब भी है। और अगर थोड़ी ठंडक दी जाए और बर्फ के टुकड़े छिड़क दिए जाएं, तो भाप अभी फिर पानी हो जाए। तो पानी नष्ट हुआ था कि लुप्त हुआ था?
पानी लुप्त हुआ भाप में; रूप बदला। फिर बर्फ छिड़क दी, पानी फिर प्रगट हुआ। नष्ट नहीं हुआ था। नष्ट होता, तो वापस नहीं लौट सकता था। बहुत ठंडा कर दें पानी को, तो बर्फ बन जाएगा। पानी फिर नष्ट हो गया। पानी नहीं है अब, बर्फ है अब। लेकिन बर्फ को गरमा दें, तो फिर पानी हो जाएगा।
इस जगत में, इस अस्तित्व में न तो कोई चीज नष्ट होती और न कोई चीज निर्मित होती है। सिर्फ रूपांतरण होते हैं। इसलिए संस्कृत का जो शब्द है, योग नष्ट हो गया, उसके लिए हिंदी का अनुवाद लुप्तप्राय करना बिलकुल ही ठीक है। ठीक इसलिए है कि अगर आज हिंदी में हम प्रयोग करें, नष्ट हो गया, तो लोग शायद यही समझेंगे कि नष्ट हो गया।
लेकिन जिस दिन इस नष्ट शब्द का प्रयोग कृष्ण ने किया था, उस दिन नष्ट से कोई भी ऐसा नहीं समझता कि नष्ट हो गया। क्योंकि उस दिन की समझ ही यही थी कि कुछ भी नष्ट नहीं होता है। सभी चीजें रूपांतरित होती हैं। इसलिए अनुवादक ने ठीक विवेक का उपयोग किया है। उसने लुप्तप्राय कहा। खो गया; नष्ट नहीं हो गया।
नष्ट कभी कुछ होता ही नहीं है। डिस्ट्रक्शन असंभव है। विनाश असंभव है। सिर्फ चीजें बदलती हैं, नए रूप लेती हैं। कितने ही नए रूपों में मूलतः वे वही होती हैं, जो थीं। लेकिन उनको फिर पुनः नया रूप, पुराने रूप में लाने को, पुराने को प्रगट करने के लिए कुछ उपाय करना होता है।
इसलिए कृष्ण का जो अर्थ है, वह लुप्तप्राय ही है। क्योंकि उस दिन नष्ट का यही अर्थ था। आज हमारे लिए दो अर्थ हैं। अगर हम प्रयोग करते हैं, नष्ट हो गया। जब हम कहते हैं, फलां आदमी मर गया, तो हमारे लिए वही मतलब नहीं होता है, जो कृष्ण के लिए था। कृष्ण के लिए तो मरने का इतना ही मतलब होता है कि उस आदमी ने फिर से जन्म ले लिया। हमारे लिए मरने का मतलब होता है, खतम हो गया; समाप्त हो गया। आगे कोई जन्म हमें दिखाई नहीं पड़ता। हमारी मृत्यु में अगला जन्म नहीं छिपा हुआ है। कृष्ण की मृत्यु में भी अगला जन्म छिपा हुआ है। कृष्ण के लिए मृत्यु एक द्वार है नए जन्म का; हमारे लिए द्वार है अंत का, समाप्ति का। उसके आगे फिर कुछ नहीं है; अंधकार है। सब खो गया; सब नष्ट हो गया।
इसलिए कृष्ण अगर प्रयोग करें, धर्म मर गया, तो भी हर्जा नहीं है। क्योंकि उसका भी मतलब इतना ही होगा कि वह रूपांतरित हो गया किसी और जीवन में; कहीं और से छिप गया, कहीं और चला गया। लेकिन हम अगर कहें कि धर्म मर गया, तो हमारे लिए मतलब होगा, समाप्त हो गया; डेड एंड आ गया।
अंत नहीं आता। कृष्ण की भाषा में कोई शब्द अंतवाची नहीं है। सभी शब्द नए आरंभ के सूचक हैं। मृत्यु नया जन्म है। नष्ट होना नए रूप में खो जाना है। इसलिए नष्ट का अर्थ लुप्त ही है। और परित्राणाय का अर्थ भी उद्धार के लिए ही है, परित्राण के लिए ही है। उसमें कुछ भूल नहीं हो गई है। अनुवाद में कोई भूल नहीं है।

प्रश्न:

भगवान श्री, पिछले एक प्रवचन में आपने कहा है कि प्रत्येक मनुष्य अपने अच्छे और बुरे कर्मों के लिए स्वयं जिम्मेवार है, लेकिन आज सुबह की चर्चा में आपने कहा है कि सब कुछ विराट, ब्रह्म शक्ति के नियमों के आधार पर होता है, तो व्यक्ति स्वयं कर्मों के लिए जिम्मेवार कैसे होगा?


जब तक व्यक्ति है, तब तक अपने कर्मों के लिए जिम्मेवार है। जब व्यक्ति अपने को विराट में छोड़ देता है, तब जिम्मेवार नहीं है।
इसे ठीक ऐसा समझें कि एक छोटा बच्चा अपने बाप का हाथ पकड़कर रास्ते पर चल रहा है। बच्चा गिर पड़े, बाप जिम्मेवार है। लेकिन लड़के ने बाप का हाथ छोड़ दिया और खुद ही चल रहा है; अब गिर पड़े, तो बाप जिम्मेवार नहीं है।
रिस्पांसिबिलिटी, उत्तरदायित्व आपके अपने ऊपर निर्भर है। अगर आप अहंकार के सहारे जीने की कोशिश में लगे हैं, तो आप अपने प्रत्येक कर्म के लिए जिम्मेवार हैं। बुरा किया है, तो आपने किया है; अच्छा किया है, तो आपने किया है। क्योंकि आपके प्रत्येक कर्म के पीछे आपके कर्ता का भाव खड़ा है।
लेकिन एक व्यक्ति ने समर्पण किया है सब विराट को। उसने कहा, जो तेरी मर्जी। बुरा करवाए, तो तू। अच्छा करवाए, तो तू। अगर उसने मंदिर बनाया और गांव में जाकर कहे कि मंदिर मैंने बनाया। और कल चोरी में पकड़ा जाए और कहे कि चोरी परमात्मा ने करवाई, तब फिर उस आदमी ने छोड़ा नहीं। तब फिर वह बेईमानी कर रहा है, अपने साथ भी और परमात्मा के साथ भी।
नहीं, तब वह कहेगा कि परमात्मा ने मंदिर बनवाया, मैं कौन हूं! और तब वह कहेगा, परमात्मा ने चोरी कराई, मैं कौन हूं! और अगर अदालत उसे सजा दे दे, तो वह कहेगा, परमात्मा ने सजा दी। मैं कौन हूं!
तब फिर कठिनाई नहीं है। जब तक व्यक्ति कर्ता के भाव से जीता है, तब तक सारी जिम्मेवारी उसकी है। इसलिए है कि वह खुद अपने हाथ से जिम्मेवारी ले रहा है।
उसकी हालत करीब-करीब ऐसी है कि मैंने सुना है, एक फकीर एक ट्रेन में सवार हुआ। बैठा है सीट पर, लेकिन अपना बिस्तर अपने सिर पर रखे रहा। पास-पड़ोस के लोगों ने जरा चौंककर देखा। फिर किसी ने कहा कि महाशय! बिस्तर नीचे आराम से रखें। आप यह क्या कर रहे हैं? उस फकीर ने कहा, लेकिन टिकट मैंने सिर्फ अपने लिए दिया, तो बिस्तर का बोझ ट्रेन पर डालना ठीक नहीं है। मैं अपने ही ऊपर बोझ रखे हुए हूं। लेकिन लोगों ने कहा कि महाशय, आप अपने सिर पर भी रखें, तब भी कोई फर्क नहीं पड़ता, ट्रेन पर बोझ पड़ ही रहा है। आप नीचे रखें कि सिर पर रखें। हां, सिर पर रखकर आप भर परेशान हो रहे हैं। ट्रेन पर कोई अंतर नहीं पड़ रहा है इससे।
वह फकीर हंसने लगा, उसने कहा कि मैं तो सोचा कि अज्ञानी हैं यहां, इसलिए सिर पर रखूं। मुझे क्या पता कि इस कमरे में ज्ञानी हैं! उसने बिस्तर नीचे रख दिया। लोग और हैरान हुए। उन्होंने कहा, हम तुम्हारा मतलब न समझे! उस आदमी ने कहा, मैं तो यह सोचकर कि तुम सब सारी जिंदगी का भार अपने ऊपर रखते होओगे, ऐसे सब भार परमात्मा पर है! लेकिन मकान बनाओगे तो कहोगे, मैंने बनाया। बोझ तुम अपने ऊपर रखोगे। इसीलिए मैं बिस्तर अपने सिर पर रखकर बैठा कि तुम्हारे बीच यही संगत होगा। लेकिन तुम बड़े ज्ञानी हो; अच्छा हुआ।
इस फकीर ने हम सब की मजाक की, गहरी मजाक की और हृदय के गहरे घाव को छूने की कोशिश की।
जब हम जिम्मेवार हैं, तब भी वस्तुतः तो परमात्मा ही जिम्मेवार है। लेकिन वस्तुतः का कोई सवाल नहीं है। तब तक हम अपने सिर पर बोझा रखने का कष्ट तो भोगेंगे ही। ट्रेन भला ही पूरे बोझ को ढोती हो, लेकिन जो आदमी पेटी अपने सिर पर रखे हुए है, वह तो वजन ढोएगा ही; तकलीफ भोगेगा ही! और सिर पर से पेटी गिर पड़े, तो हाथ-पैर उसका टूटेगा ही। इस बात के होते हुए भी कि ट्रेन पूरा बोझ ढो रही है।
विराट सब चीजों के लिए जिम्मेवार है। लेकिन ध्यान रहे, विराट से समझौता नहीं हो सकता। आप ऐसा नहीं कह सकते कि कुछ के लिए मैं जिम्मेवार, कुछ के लिए तुम जिम्मेवार। जब बुरा हो, तो तुम जिम्मेवार; जब भला हो, तो मैं जिम्मेवार। वैसा नहीं चलेगा। या तो सब छोड़ दो विराट पर, या फिर सब अपने ही ऊपर रखना पड़ता है। अहंकारी सब अपने ऊपर रखकर चलता है। अधार्मिक सब अपने ऊपर रखकर चलता है। धार्मिक सब उस पर छोड़ देता है। लेकिन सब--टोटल। इसमें रत्तीभर बचाया नहीं जा सकता।
तो दोनों ही बातें दो तलों पर सही हैं। जहां तक आम आदमी का संबंध है, वह हर चीज के लिए खुद ही जिम्मेवार होता है। और इसलिए जिम्मेवारी का दुख भोगता है। जिम्मेवारी में दुख है, पीड़ा है, संताप है।
जो जानता है, वह सब छोड़ देता है प्रभु पर। फिर वह दुख नहीं भोगता। फिर वह स्वतंत्रता का सुख भोगता है। फिर वह सब दायित्वों से मुक्त होकर, फूल की तरह हल्का-फुल्का हो जाता है। फिर वह पक्षियों की तरह गीत गा सकता है और नदियों और झरनों की तरह दौड़ सकता है और नाच सकता है। फिर उसकी जिंदगी किसी भी बोझ से दबी हुई नहीं है।
और ध्यान रहे, बड़े मजे की बात है यह कि जो व्यक्ति जितना परमात्मा पर छोड़ देता है, उतना ही बुरा कर्म मुश्किल हो जाता है। क्योंकि बुरे कर्म के लिए अहंकार का होना जरूरी है। जो व्यक्ति जितना परमात्मा पर छोड़ देता है, उतना ही बुरा कर्म मुश्किल हो जाता है। जो पूरा परमात्मा पर छोड़ देता है, उससे बुरा कर्म हो ही नहीं सकता। क्योंकि बुरे कर्म के लिए अहंकार अनिवार्य शर्त है। और जो व्यक्ति जितने अहंकार से भरा होता है, उससे शुभ कर्म हो नहीं सकता। क्योंकि अहंकार शुभ कर्म के लिए अनिवार्य बाधा है।
इसलिए खुद पर जिम्मा लिया हुआ आदमी, पाप की गठरी को सिर पर बढ़ाता ही चला जाता है। असल में गठरी सिर्फ पाप की होती है। पुण्य की गठरी, ऐसा शब्द आपने सुना नहीं होगा। पुण्य की कोई गठरी होती नहीं। पुण्य आया कि गठरी वगैरह से मुक्ति हो जाती है, सिर खाली हो जाता है। पाप की ही गठरी होती है, उसका ही बोझ और बर्डन होता है। पुण्य का कोई बोझ नहीं होता।
जो व्यक्ति सब परमात्मा पर छोड़ देता है, वह हवा-पानी की तरह सरल हो जाता है। फिर जो होता है, होता है। उसके लिए फिर कोई कठिनाई नहीं है। कोई बोझ नहीं, कोई दायित्व नहीं; कोई पुण्य नहीं, कोई पाप नहीं; क्योंकि कोई कर्म नहीं।
कृष्ण पूरे वक्त अर्जुन को यही समझा रहे हैं। अर्जुन पक्के बोझ से दबा हुआ है। बहुत रिस्पांसिबल आदमी मालूम होता है! बहुत दायित्वपूर्ण है। वह कहता है, ये मर जाएंगे, वे मर जाएंगे। जैसे वह बचाएगा, तो वे बच जाएंगे! जैसे वह न मारेगा, तो वे नहीं मरेंगे। वह कुछ ऐसा अनुभव कर रहा है कि जैसे वह कोई सारे अस्तित्व का सेंटर है; सब कुछ उसके ऊपर निर्भर है। वह जमाने की बातें कर रहा है कृष्ण से, कि इससे तो कुल का नाश हो जाएगा। इससे तो संतति विकृत हो जाएगी। इससे तो भविष्य में सब अंधकार हो जाएगा। सधवाएं विधवाएं हो जाएंगी। पापाचरण बढ़ेगा। वह सब बता रहा है। उसके कारण! अगर वह युद्ध करेगा! अगर वह युद्ध से हट जाएगा, तो सब ठीक होगा? तो अब तो अर्जुन कहीं भी नहीं है। लेकिन सब कहीं भी ठीक दिखाई नहीं पड़ता। अर्जुन का भ्रम यही है कि वह सोच रहा है, सारा जिम्मा मेरा है। मैं हूं सारी चीजों के बीच में।
कृष्ण पूरे समय एक ही बात समझा रहे हैं कि तू अपने को सेंटर न मान। तू अपने को केंद्र न मान। तू व्यर्थ की उलझन में मत पड़। जो करवा रहा है, जो कर रहा है, उस पर तू छोड़ दे। उसे मारना है, तो मारेगा। तेरे बहाने से, किसी और के बहाने से, किसी भी कंधे पर तीर रख जाएगा और वे मर जाएंगे। तू फिक्र न कर, तू सिर्फ उसके हाथ में निमित्त मात्र हो जा।
लेकिन उसकी समझ में नहीं आ रहा है। वह कर्ता है। और जो कर्ता है, वह निमित्त मात्र कैसे हो जाए? जिसे खयाल है, मैं करने वाला हूं, वह किसी के हाथ का माध्यम कैसे बन जाए?
वह कबीर की तरह अर्जुन नहीं हो सकता। कबीर कहते हैं कि यह बांसुरी मैं बजा रहा हूं, इसमें मैं बांसुरी हूं, बांस की पोंगरी, स्वर मेरे नहीं हैं। स्वर उसके हैं, परमात्मा के हैं। इसलिए अगर गीत के लिए कोई धन्यवाद देना हो, तो उसी को दे देना। मेरा कोई हाथ नहीं है। मैं तो सिर्फ बांस की पोंगरी हूं, जिसमें से स्वर उसके बहते हैं।
कृष्ण पूरी गीता में अर्जुन को कह रहे हैं, तू बांस की पोंगरी हो जा। स्वर उसके बहने दे। तू यह मत सोच कि तू गा रहा है। तू बीच में मत आ। तू हट जा। तू निमित्त हो जा। वही उसकी समझ में नहीं आ रहा है।
जब ये दो बातें मैं कहता हूं कि व्यक्ति जिम्मेवार है अपने प्रत्येक कर्म के लिए, तो मेरा मतलब है, जब तक आपका अहंकार है, जब तक व्यक्ति है, तब तक आपको जिम्मेवार होना पड़ेगा। व्यर्थ ही आप जिम्मेवार हैं। ट्रेन में चढ़े हैं, गठरी सिर पर रखे हैं! कोई ट्रेन की जिम्मेवारी नहीं है। आप व्यर्थ परेशान हो रहे हैं। लेकिन जैसे ही व्यक्ति ने अपने को छोड़ा, समर्पित किया, वैसे ही व्यक्ति जिम्मेवार नहीं है, विराट ही है। और विराट की कोई जिम्मेवारी नहीं है। क्योंकि विराट किसके प्रति रिस्पांसिबल होगा? किसके प्रति जिम्मेवार होगा? किसी के प्रति नहीं! व्यक्ति को जिम्मेवार होना पड़ेगा। विराट को जिम्मेवारी का कोई सवाल नहीं है। इनमें कोई विरोध नहीं है। यह दो तलों पर चीजों को देखना है।
दो तल हैं। एक अज्ञानी का तल है, अज्ञानी के तल पर समझना पड़ेगा। एक ज्ञानी का तल है, ज्ञानी के तल पर भी समझना पड़ेगा। और बहुत बार बड़ी उलझन होती है कि अज्ञानी होता तो अज्ञानी के तल पर है और ज्ञानी के तल की बातें करने लगता है; तब बड़ी कठिनाई खड़ी हो जाती है। ऐसा रोज होता है। हमारे देश में तो जरूर हुआ है। क्योंकि इस देश में ज्ञान की इतनी बातें थीं कि अज्ञानी भी उनको करना सीख गए। वे भी ज्ञान की बातें करने लगे। रहते अज्ञानी की तरह हैं, जीते अज्ञानी की तरह हैं, बोझ अज्ञानी का लिए रहते हैं। वक्त पर, मौके पर, ज्ञानी की तरह बातें करने लगते हैं।
मेरे पड़ोस में एक आदमी मर गया, तो मैं उनके घर गया। पास-पड़ोस के लोग इकट्ठे थे। सब समझा रहे थे कि आत्मा तो अमर है। मैंने सोचा, इस मुहल्ले में इतने ज्ञानी हैं! कहते हैं, आत्मा अमर है! रोने की क्या जरूरत है? क्यों दुख मना रहे हैं? कोई मरता तो है नहीं; शरीर ही मरता है। मैंने उनके चेहरे गौर से देख लिए कि कभी जरूरत पड़े सलाह-मशविरे की, तो उनके पास चला जाऊंगा
फिर एक दिन पता लगा कि जो सज्जन अगुवा होकर समझाते थे, आत्मा अमर है, उनके घर कोई मर गया। तो मैं भागा हुआ पहुंचा। देखा, तो वे रो रहे हैं। मैं बहुत हैरान हुआ। फिर मैंने कहा, थोड़ी चुप्पी साधकर बैठूं। लेकिन हैरानी और बढ़ी। जिनके घर वे समझाने गए थे, वे लोग समझाने आए हुए थे। और कह रहे थे, आत्मा अमर है। काहे के लिए रो रहे हैं?
अब ये दो तल की बातें हैं। जो आत्मा को अमर जानते हैं, उनकी दुनिया बहुत अलग है। लेकिन बात उनकी चुरा ली गई है। और जो आत्मा को मरने वाला मानते हैं, जानते हैं भलीभांति कि मरेगी; मरे या न मरे, उनका जानना यही है कि मरेगी; उनके पास यह चोरी की बात है। इस बात का वहां बड़ा उपद्रव खड़ा हो जाता है। ज्ञान की चर्चा लोग सुनते हैं...।
एक संन्यासी के आश्रम में मैं कुछ दिन मेहमान था। तो वहां वे रोज समझाते थे कि आत्मा शुद्ध-बुद्ध है। वह कभी अशुद्ध होती ही नहीं। उनके सामने मैं लोगों को बैठे देखता था। वे कहते, जी महाराज, बिलकुल ठीक कह रहे हैं। मैंने उन लोगों से पूछा अकेले में कि तुम कहते हो, जी, बिलकुल ठीक कह रहे हैं! वे बोले कि बिलकुल ठीक बात है; आत्मा बिलकुल शुद्ध है।
लेकिन वे जो लोग उनके सामने पगड़ियां बांधकर और कहते थे, आत्मा बिलकुल शुद्ध है, वे सब तरह के चोर, सब तरह के ब्लैक मार्केटियर, सब तरह के उपद्रवों में सम्मिलित थे। वे उसी ब्लैक मार्केट से वहां मंदिर भी खड़ा करवाते थे। और बैठकर सुनते थे कि आत्मा शुद्ध-बुद्ध है। सदा शुद्ध है। वह कभी पाप करती ही नहीं; कभी पाप उससे होता ही नहीं। आत्मा ने कभी कुछ किया ही नहीं। उनके मन को बड़ी राहत और कंसोलेशन मिलता होगा कि अपन ने ब्लैक मार्केट नहीं किया। अपन ने कोई चोरी नहीं की। आत्मा शुद्ध-बुद्ध है, बड़े प्रसन्न घर लौटे। वे प्रसन्न घर लौट रहे हैं, वे यहां सुनने सिर्फ यही आ रहे हैं कि आत्मा शुद्ध है अर्थात अशुद्ध तो हो ही नहीं सकती। अब कितनी ही अशुद्धि करो, अशुद्ध होने का कोई डर नहीं है। यह ज्ञान की बात और अज्ञान की दुनिया में जाकर बड़ा उपद्रव खड़ा करती है।
भारत के नैतिक पतन का कारण यह है, यहां दो तल की बातें हैं। एक तल पर बहुत ऊंचा ज्ञान था और दूसरे तल पर हमारा आदमी बहुत नीचे है। उस ऊंचे तल की बातें उसके कानों में पड़ गई हैं। वह वक्त-बेवक्त उनका उपयोग करता रहता है। वह कहता है, सब संसार माया है। इधर कहता चला जाता है, सब संसार माया है, और जिस-जिस चीज को माया कहता है, उसके पीछे जी-जान लगाकर दौड़ा भी चला जाता है! ये दो तल।
इसलिए मैंने जो बात कही, वह दो तल पर ही समझ लेनी उचित है। जब तक आपको पता है कि आप हो, तब तक समझना कि सब जिम्मेवारी आपकी है। तब तक ऐसा मत करना कि आप भी बने रहो और जिम्मेवारी परमात्मा पर छोड़ दो। ऐसा नहीं चलेगा। अगर जिम्मेवारी परमात्मा पर छोड़नी हो, तो आपको भी अपने को परमात्मा के चरणों में छोड़ देना पड़ेगा। वह अनिवार्य शर्त है। और जब तक आप अपने मैं को न छोड़ पाओ, उसके द्वार पर, तब तक सारी जिम्मेवारी का बोझ अपने सिर पर रखना। वह ईमानदारी है, सिंसियरिटी है। ठीक है फिर। पाप किया है, पुण्य किया है, मैं जिम्मेवार हूं; क्योंकि जो भी किया है, वह मैंने किया है।
और अगर ऐसा लगे कि नहीं, सब जिम्मेवारी विराट की है, तो फिर इस मैं को उसके चरणों में रख आना। जिस दिन मैं को उसके चरणों में रख दो, और जिस दिन यह हिम्मत आ जाए कहने की कि मैंने कुछ भी नहीं किया, सब उसने कराया है। वही है, मैं नहीं हूं। उसका ही फैला हुआ हाथ हूं। फिर उस दिन से आपकी कोई जिम्मेवारी नहीं है।
लेकिन बड़े मजे की बात है कि उस दिन से आपके जीवन से बुरा एकदम विलीन हो जाएगा। क्योंकि बुरा घटित नहीं हो सकता बिना अहंकार के। उस दिन से आपके जीवन में शुभ के फूल खिलने शुरू हो जाएंगे; सफेद फूलों से भर जाएगी जिंदगी। क्योंकि जहां अहंकार नहीं है, वहां शुभ्र फूल अपने आप खिलने शुरू हो जाते हैं।

चातुरर्‌वण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्।। 13।।

तथा हे अर्जुन! गुण और कर्मों के विभाग से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मेरे द्वारा रचे गए हैं। उनके कर्ता को भी, मुझ अविनाशी परमेश्वर को, तू अकर्ता ही जान।

कृष्ण इस श्लोक में कहते हैं, गुण और कर्म के अनुसार चार वर्ण मैंने ही रचे हैं! एक बात। और तत्काल दूसरी बात कहते हैं कि फिर भी, उन्हें निर्माण करने वाले मुझ कर्ता को, तू अकर्ता ही जान।
बहुत मिस्टीरियस, बहुत रहस्यपूर्ण वक्तव्य है। पहले हिस्से को पहले समझ लें, फिर दूसरे हिस्से को समझें।
वर्ण की बात ही असामयिक हो गई है। कृष्ण के इस सूत्र को पढ़कर न मालूम कितने लोग बेचैनी अनुभव करते हैं। परमात्मा ने रचे हैं वर्ण! कठिनाई मालूम पड़ती है। क्योंकि वर्णों के नाम पर इतनी बेहूदगी हुई है और वर्णों के नाम पर इतना अनाचार हुआ है, वर्णों की ओट और आड़ में इतना सड़ापन पैदा हुआ है, इतनी सड़ांध पैदा हुई है कि भारत का पूरा हृदय ही कैंसर से ग्रस्त अगर हुआ, तो वह वर्णों के सहारे हुआ है।
तो आज कोई भी विचारशील व्यक्ति जब इस सूत्र को पढ़ता है, तो थोड़ा या तो बेचैन होता है या जल्दी इसको पढ़कर आगे निकल जाता है। इस पर ज्यादा रुकता नहीं। ऐसा लगता है कि कुछ ठीक नहीं है; आगे बढ़ो। पर मैं इस पर जरा रुकना चाहूं। क्यों? क्योंकि जीवन में सत्यों के आधार पर भी असत्य चल जाते हैं। सच तो यह है कि असत्य के पास अपने पैर नहीं होते; उसे पैर सदा सत्य से ही उधार लेने पड़ते हैं। इसलिए असत्य बोलने वाला बहुत कसमें खाता है कि जो मैं बोल रहा हूं, वह सत्य है। बेईमानी को भी ईमानदारी के वस्त्र पहनने पड़ते हैं। और दुनिया में जब भी कोई सत्य जीवन-सिद्धांत प्रकट होता है, तो उसका भी दुरुपयोग किया गया है, किया जाता रहा है। लेकिन इससे सिद्धांत गलत नहीं होता।
एटम का विश्लेषण हुआ। परिणाम में हिरोशिमा और नागासाकी का विध्वंस मिला। हिरोशिमा और नागासाकी के कारण एटम के विश्लेषण का सिद्धांत गलत नहीं होता। लाख आदमी मर गए, जलकर राख हो गए। और पीढ़ियों दर पीढ़ियों तक बच्चे प्रभावित रहेंगे। पंगु, अपंग, अंधे, लंगड़े, लूले पैदा होंगे। लेकिन फिर भी अणु के विश्लेषण का सिद्धांत, थिअरी गलत नहीं होती है। गलत उपयोग हुआ, यह हमारे कारण, सिद्धांत के कारण नहीं।
वर्ण के कारण जो-जो हुआ, उसके लिए हम जिम्मेवार हैं, हम गलत लोग। उसके लिए वर्ण की वैज्ञानिक चिंतना जिम्मेवार नहीं है।
कृष्ण जब कहते हैं, तो वे दो शब्दों का उपयोग करते हैं। वे कहते हैं, गुण और कर्म के अनुसार मैंने चार वर्ण बनाए। गुण और कर्म!
व्यक्ति-व्यक्ति में गुणों का भेद है। और दुनिया में कोई समानता का उपाय नहीं है, जिससे हम गुण-भेद मिटा सकें। हम कितनी ही बड़ी कम्युनिस्टिक सोसायटी को पैदा कर लें, कितना ही साम्यवादी समाज निर्मित कर लें, गुण-भेद नहीं मिटा पाएंगे। धन को बराबर बांट दें; कपड़े एक से पहना दें; मकान एक से बना दें; गुण भिन्न ही होंगे। गुण में अंतर नहीं मिटाया जा सकेगा। कोई उपाय नहीं है। गुण व्यक्ति की आत्मा का हिस्सा है; बाह्य समाज व्यवस्था का हिस्सा नहीं है गुण।
इसलिए पहली बात आपसे कहता हूं कि कृष्ण का यह खयाल कि यह वर्ण की व्यवस्था मैंने बनाई, यह व्यक्ति के आंतरिक गुणधर्म की चर्चा है। इसका सामाजिक व्यवस्था से दूर का संबंध है। गहरे में संबंध व्यक्ति के भीतर के निजी व्यक्तित्व से है, इंडिविजुअलिटी से है।
एक-एक व्यक्ति में गुण का भेद है। और गुण हम जन्म से लेकर पैदा होते हैं। गुण निर्मित नहीं होते, बिल्ट-इन हैं; पैदाइश के साथ बंधे हैं। वह जो मां और पिता से जो कण मिलते हैं हमें, हमारे सब गुण उनमें ही छिपे हैं।
आइंस्टीन इतनी बुद्धिमत्ता को उपलब्ध होगा, यह उसके पहले अणु में छिपी हुई है। और आज नहीं कल, वैज्ञानिक पहले अणु की जांच करके खबर कर सकेंगे कि यह व्यक्ति क्या होगा। वैज्ञानिक तो यहां तक पहुंच गए हैं कि उनका खयाल है, जैसे आज बाजार में फलों की और फूलों की दुकान पर फूलों के बीजों के पैकेट मिलते हैं, और अंदर बीज होते हैं और ऊपर फूल की तस्वीर होती है, कि इन बीजों को अगर बो दिया, तो ऐसे फूल पैदा हो जाएंगे। वैज्ञानिक कहते हैं, पच्चीस साल के भीतर, इस सदी के पूरे होते-होते, हम आदमी के जीवाणु को भी पैकेट में रखकर दुकान पर बेच सकेंगे कि यह जीवाणु इस तरह का व्यक्ति बन सकेगा। उसकी तस्वीर भी ऊपर दे सकेंगे। इसका मतलब यह हुआ कि वह जो पहला अणु है, उसमें सारा बिल्ट-इन, सभी भीतर से निर्मित गुणों की व्यवस्था है। वह बाद में प्रकट होगी; मौजूद सदा से है। और उस गुण में बुनियादी भेद है।
उन भेदों को कृष्ण कहते हैं, चार में मैंने बांटा। मैंने अर्थात प्रभु ने, चार में बांटा। प्रकृति ने, परमात्मा ने, जो भी नाम हम पसंद करें, चार मोटे विभाजन किए हैं। और चार मोटे विभाजन हैं। यह बहुत संयोग की बात नहीं है कि दुनिया में जब भी जिन लोगों ने मनुष्यों के टाइप का विभाजन किया, तो विभाजन हमेशा चार में किया; चाहे कहीं भी किया हो।
अभी पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक कार्ल गुस्ताव जुंग ने, इस सदी के बड़े से बड़े मनोवैज्ञानिक ने, जब आदमियों के टाइप बांटे, तो उसने भी चार में बांटे। नाम अलग, लेकिन बांटे चार में ही। इसमें कुछ मजबूरी है। चार ही हैं प्रकार, मोटे। फिर तो एक-एक व्यक्ति में थोड़े-थोड़े फर्क होते हैं, लेकिन मोटे चार ही प्रकार हैं।
कुछ लोग हैं, जिनके जीवन की ऊर्जा सदा ही ज्ञान की तरफ बहती है; जो जानने को आतुर और पागल हैं। जो जीवन गंवा देंगे, लेकिन जानने को नहीं छोड़ेंगे
अब एक वैज्ञानिक जहर की परीक्षा कर रहा है कि किस-किस जहर से आदमी मर जाता है। अब वह जानता है कि इस जहर को जीभ में रखने से वह मर जाएगा, लेकिन फिर भी वह जानना चाहता है। हम कहेंगे, पागल है; बिलकुल पागल है! ऐसे जानने की जरूरत क्या है?
लेकिन हमारी समझ में न आएगा। वह ब्राह्मण का टाइप है। वह बिना जाने नहीं रह सकता। जीवन लगा दे, लेकिन जानकर रहेगा। वह जहर को जीभ में रखकर, उस आनंद को पा लेगा, जानने के आनंद को, कि हां, इस जहर से आदमी मरता है। हम कहेंगे, इसमें कौन-सा फायदा है? उस आदमी को क्या मिल रहा है? हम समझ न पाएंगे। सिर्फ अगर हमारे भीतर कोई ब्राह्मण होगा, तो समझ पाएगा, अन्यथा हम न समझ पाएंगे।
आइंस्टीन को क्या मिल रहा है? सुबह से सांझ तक लगा है प्रयोगशाला में! क्या मिल रहा है? कौन-सा धन? यह सुबह से सांझ तक पागल की तरह ज्ञान की खोज में किसलिए लगा है?
नहीं, किसलिए का सवाल नहीं है। अंत का सवाल नहीं है, मूल का सवाल है। मूल में गुण उसके पास ब्राह्मण का है। वह जानने के लिए लगा हुआ है।
तो कृष्ण कहते हैं, गुण और कर्म।
गुण भिन्न हैं, चार तरह के गुण हैं; चार तरह के आर्च टाइप हैं। जुंग ने आर्च टाइप शब्द का प्रयोग किया है। चार तरह के मूल प्रकार हैं। एक--जो ज्ञान की खोज में, जिसकी आत्मा आतुर है। जिसकी आत्मा एक तीर है, जो जानने के लिए, बस जानने के लिए, अंतहीन यात्रा करती है।
अब जो लोग चांद पर पहुंचे हैं, चांद पर क्या मिल जाएगा? कुछ बहुत मिलने को नहीं है। लेकिन जानने की उद्दाम वासना! चांद पर भी नहीं रुकेंगे--और, और, और आगे। कहीं कोई सीमा नहीं है। ये जो ज्ञान की खोज में आतुर लोग हैं, ये ब्राह्मण हैं--गुण से।
दूसरा एक वर्ग है, जो शक्ति का खोजी है। जिसके लिए पावर, शक्ति सब कुछ है; शक्ति का पूजक है। शक्ति मिली, तो सब मिला। वह कहीं से भी जीवन में शक्ति मिल जाए, तो उसी की यात्रा में लगा रहेगा। यह जो शक्ति का खोजी है, वह भी एक टाइप है। उसे इनकार नहीं किया जा सकता। क्षत्रिय उस गुण का व्यक्ति है।
अर्जुन इसी गुण का व्यक्ति है; कृष्ण ने इसी सिलसिले में यह बात भी कही है। वे उसे यही समझाना चाहते हैं कि तू अपने गुण को पहचान, तू अपनी निजता को पहचान और उसके अनुसार ही आचरण कर, अन्यथा तू मुश्किल में पड़ जाएगा। क्योंकि जब भी कोई व्यक्ति अपने गुण को छोड़कर दूसरे के गुण की तरह व्यवहार करता है, तब बड़ी अड़चन में पड़ जाता है। क्योंकि वह वह काम कर रहा है, जो वह कर नहीं सकता। और उस काम को छोड़ रहा है, जिसे वह कर सकता था।
और जीवन का समस्त आनंद इस बात में है कि हम वही पूरी तरह कर पाएं जो करने को नियति, डेस्टिनी, जो करने को प्रभु ने उत्प्रेरित किया है। अन्यथा जीवन में कभी शांति नहीं मिल सकती, आनंद नहीं मिल सकता। जीवन का आनंद एक ही बात से मिलता है कि जो फूल हममें खिलने को थे, वे खिल जाएं; जो गीत हमसे पैदा होने को था, वह पैदा हो जाए।
लेकिन अगर ब्राह्मण क्षत्रिय बन जाए, तो कठिनाई में पड़ जाएगा। क्योंकि शक्ति में उसे कोई रस नहीं है। इसलिए आप देखें कि इस देश में ब्राह्मणों को इतना आदर दिया गया, लेकिन ब्राह्मण ने उतने आदर, सम्मान, सर्वश्रेष्ठ ऊपर होने पर भी कोई शक्ति पाई नहीं। ब्राह्मण भिखारी का भिखारी रहा। उसने कोई शक्ति पाई नहीं। वह दीन का दीन ही रहा। वह अपने झोपड़े में बैठकर ब्रह्म की खोज करता रहा। आदर उसे बहुत था। सम्राट उसके चरणों पर सिर रखते थे। राज्य उसके चरणों में लोट सकते थे। लेकिन उसे कोई मतलब न रहा। वह अपनी खोज में लगा रहा ब्रह्म की, दूर जंगल में बैठकर। पागल रहा होगा! हम कहेंगे, जब सम्राट ही पैर पर सिर रखने आया था, तो कुछ तो मांग ही लेना था!
कणाद के जीवन में कथा है। कणाद ब्राह्मण का टाइप है। नाम ही कणाद पड़ गया इसलिए कि कभी इतना अनाज भी घर में न हुआ कि संग्रह कर सके; रोज खेत में कण-कण बीन ले; कणों को बीनने की वजह से नाम पड़ गया, कणाद। सम्राट को खबर लगी कि कणाद कण बीन-बीनकर खेतों के खा रहा है। सम्राट ने आज्ञा दी कि भरो रथों को धन-धान्य से! चलो कणाद के पास।
बहुत धन-धान्य को लेकर सम्राट पहुंचा। कणाद के चरणों में सिर रखा और कहा कि मैं बहुत धन-धान्य ले आया हूं। दुख होता है कि मेरे राज्य में आप रहें और आप कण बीन-बीनकर खाएं! आप जैसा महर्षि और कण बीने खेतों में, तो मेरा अपमान होता है।
तो कणाद ने कहा, क्षमा करें! खबर भेज देते; इतना कष्ट क्यों किया? मैं तुम्हारा राज्य छोड़कर चला जाऊंगा। सम्राट ने कहा, आप क्या करते हैं! कैसी बात कहते हैं? आप मेरी बात नहीं समझे! कणाद तो उठकर खड़े हो गए! ज्यादा तो कुछ था नहीं; जो दो-चार किताबें थीं, बांधने लगे।
सम्राट ने कहा, आप यह क्या करते हैं? कणाद ने कहा, तेरे राज्य की सीमा कहां है, वह बता। मैं सीमा छोड़ बाहर चला जाऊं। क्योंकि मेरे कारण तू दुखी हो, तो बड़ा बुरा है। सम्राट ने कहा, यह मेरा मतलब नहीं है। मैं तो सिर्फ यह निवेदन करने आया कि बहुत धन-धान्य लाया हूं, वह स्वीकार कर लें।
कणाद ने कहा, उसे तू वापस ले जा! उसे तू वापस ले जा, क्योंकि उस धन-धान्य की व्यवस्था और सुरक्षा और सुविधा कौन करेगा? उसकी देख-रेख कौन करेगा? हमें फुर्सत नहीं है; हम अपने काम में लगे हैं। थोड़ी-सी फुर्सत मिलती है; सुबह घूमने निकलते हैं; उसी में खेत से कुछ दाने बीन लाते हैं, उससे काम चल जाता है। कोई झंझट हमें है नहीं। तू अपना यह सब वापस ले जा। इसकी फिक्र कौन करेगा? और हम इसकी फिक्र करेंगे कि हम अपनी फिक्र करेंगे, जिस खोज में हम लगे हैं। तू जल्दी कर और वापस ले जा; और दोबारा इस तरफ मत आना। और अगर आना हो, तो खबर कर देना। हम राज्य छोड़कर चले जाएंगे। हम कण कहीं भी बीन लेंगे; सभी जगह मिल जाएंगे।
अब यह जो आदमी है, इसे कण बीनने में सुविधा मालूम पड़ती है, क्योंकि कोई व्यवस्था नहीं करनी पड़ती है; कोई मैनेजमेंट में नाहक समय जाया नहीं करना पड़ता है। नहीं तो बहुत-से मालिक घूम-फिरकर मैनेजर ही रह जाते हैं। लगते हैं कि मालिक हैं, होते कुल-जमा मैनेजर हैं।
एण्ड्रू कार्नेगी, अमेरिका का अरबपति मरा, तो उसने अपने सेक्रेटरी से पूछा--ऐसे ही मजाक में--कि अगर दोबारा जिंदगी फिर से हम दोनों को मिले, तो तू मेरा फिर से सेक्रेटरी होना चाहेगा कि तू एण्ड्रू कार्नेगी होना चाहेगा और मुझको सेक्रेटरी बनाना चाहेगा? उस सेक्रेटरी ने कहा, आप नाराज तो न होंगे? एण्ड्रू कार्नेगी ने कहा कि नाराज क्यों होऊंगा! बिलकुल स्वाभाविक है, तू एण्ड्रू कार्नेगी बनना चाहे। उसने कहा, माफ करें। मैं यह नहीं कह रहा। मैं यह कह रहा हूं कि मैं फिर सेक्रेटरी ही होना चाहूंगा। एण्ड्रू कार्नेगी ने कहा, पागल! तू एण्ड्रू कार्नेगी नहीं बनना चाहता? उसने कहा, बिलकुल भूलकर नहीं। आपको जब तक नहीं जानता था, तब तक तो कभी भगवान से प्रार्थना भी कर सकता था; अब कभी नहीं कर सकता। उसने कहा, कारण क्या है? तो उसने कहा कि मैंने अपनी डायरी में कारण नोट किया हुआ है।
उसने अपनी डायरी में लिख छोड़ा था कि हे परमात्मा, भूलकर मुझे कभी एण्ड्रू कार्नेगी मत बनाना। क्योंकि एण्ड्रू कार्नेगी अपने दफ्तर में सुबह नौ बजे आता। चपरासी दस बजे आते। क्लर्क साढ़े दस बजे आते। मैनेजर ग्यारह बजे आता। डायरेक्टर्स एक बजे आते। डायरेक्टर्स तीन बजे चले जाते। चार बजे मैनेजर चला जाता। फिर क्लर्क चले जाते। फिर चपरासी चले जाते। एण्ड्रू कार्नेगी साढ़े सात बजे शाम को जाता। मुझे कभी एण्ड्रू कार्नेगी मत बनाना।
अब यह एण्ड्रू कार्नेगी दस अरब रुपए छोड़कर मरा है। लेकिन मालिक नहीं था। मैनेजर भी नहीं था। चपरासी भी नहीं था। चपरासी भी दस बजे आता; चपरासी भी साढ़े चार बजे चला जाता। एण्ड्रू कार्नेगी चपरासी से पहले मौजूद है; चपरासी के बाद दफ्तर छोड़ रहे हैं! आखिर यह आदमी मैनेज कर रहा है, किसके लिए?
नहीं, लेकिन इसका भी अपना टाइप है। वह तीसरा टाइप है। वह धन, वैश्य का टाइप है। इसे प्रयोजन नहीं है, न ज्ञान से, न शक्ति से। इसे महाराज्यों से प्रयोजन नहीं है। इसे ब्रह्म से कोई वास्ता नहीं है। इसे ब्रह्मांड से कुछ लेना-देना नहीं है। दूर के तारों से मतलब नहीं है। पास के रुपए काफी हैं। यह तिजोरी बड़ी करता जाए, भरता चला जाए। यह भी इसका टाइप है। यह वैश्य का टाइप है। धन इसकी आकांक्षा है।
चौथा एक शूद्र का टाइप है; श्रम उसकी आकांक्षा है। ऐसा नहीं है, जैसा हम साधारणतः समझाए जाते हैं कि कुछ लोगों को हम मजबूर कर देते हैं श्रम के लिए; ऐसा नहीं है। अगर कुछ लोगों को श्रम न मिले, तो उनके लिए जीना मुश्किल हो जाए। खाली सभी लोग नहीं रह सकते।
अभी अमेरिका में कठिनाई आनी शुरू हुई है। क्योंकि श्रम का काम समाप्त होने के करीब है, मशीनें करने लगी हैं। और अमेरिका के सब बड़े विचारशील लोग--चाहे जेकस ईलूल हो, और चाहे कोई और हों--वे सब इस चिंता में पड़े हैं कि दस-पंद्रह साल में सारा आटोमेटिक इंतजाम हो जाएगा। सब मशीनें काम कर देंगी। तो अब सवाल यह है कि लोग काम मांगेंगे, तो हम काम कहां से देंगे? और लोग काम मांगेंगे, क्योंकि लोग बिना काम रह नहीं सकते। कुछ लोग तो रह ही नहीं सकते बिना काम।
एक दिन मैं ट्रेन में सफर कर रहा था। थका था। किसी गांव से, भीड़-भाड़ से लौट रहा था, तो मैंने सोचा कि अब चौबीस घंटे सोए ही रहना है। पर एक सज्जन और मेरे कंपार्टमेंट में थे। मैं जैसे ही कमरे में आया, मैंने उनकी तरफ देखा नहीं, क्योंकि देखा कि खतरा शुरू हो जाए! वे कुछ बातचीत शुरू कर दें। मैंने जल्दी से आंख बंद की और मैं सोने लगा। उन्होंने कहा, क्या आप इतनी जल्दी सोने लगे? मैंने कहा कि आप समझिए, मैं सो ही गया। मैं तो चादर ओढ़कर सो रहा। घंटा भर, डेढ़ घंटे बाद मैं उठा, तो देखा कि वही अखबार वे पढ़ रहे थे, जब मैं सोया था। फिर उसको ही पढ़ रहे थे, फिर से पहले पेज से शुरू कर दिया था। मुझे देखा, तो उन्होंने जल्दी से अखबार बंद किया। मैंने कहा, आप पढ़िए, मैं तो फिर वापस सो जाने वाला हूं।
सुबह जब उठा, तब वे फिर कल वाला ही अखबार पढ़ रहे थे! न मालूम कितनी बार पढ़ चुके थे! जब मुझे देखा, तो जरा संकोच में उन्होंने अखबार बंद करके रख दिया। मैं करवट लिए पड़ा रहा। कभी वे खिड़की खोलते, कभी सूटकेस खोलते, कभी यह चीज इधर रखते, कभी वह चीज उधर रखते।
दोपहर होते-होते मैंने देखा कि वे बिलकुल पागल हुए जा रहे हैं। दोपहर को जब मैं खाना खाकर फिर सोने लगा, उन्होंने कहा, क्या आप गजब कर रहे हैं! फिर सोइएगा? कुछ बातचीत नहीं करिएगा? मैंने कहा कि आप अपना काम जारी रखिए। मुझे कोई एतराज नहीं है। आप बार-बार खिड़की खोलिए, बंद करिए! सूटकेस दबाइए, उठाइए। जो आपको करना है। आप उसी अखबार को हजार दफे पढ़िए, मुझे कोई एतराज नहीं है। आप मुझे भूलिए। मैं नहीं हूं। वे बोले, आपने खयाल कर लिया क्या? मैं डर रहा था कि आप क्या सोचेंगे कि यह आदमी क्यों बार-बार खिड़की खोलता बंद करता है! लेकिन मैं क्या करूं, मैं खाली बहुत मुसीबत में हूं।
अब यह भी एक टाइप है, जो बिना काम के जी नहीं सकता।
आज अमेरिका में दो दिन की छुट्टी हो गई है सप्ताह में, तो आप जानकर हैरान होंगे कि अमेरिका में एक कहावत है कि दो दिन की छुट्टी के बाद आदमी इतना थक जाता है कि एक सप्ताह विश्राम की जरूरत पड़ती है। यह बड़ी मुश्किल बात है! दो दिन की छुट्टी के बाद आदमी इतना थक जाता है कि सात दिन के विश्राम की जरूरत पड़ती है! तो छुट्टी में विश्राम किया आपने?
नहीं, छुट्टी में लोग सैकड़ों-हजारों मील कार चलाए, बीच पर पहुंचे। एक नहीं पहुंचा; नैक टु नैक कारें, एक-दूसरे से फंसी रहीं। लाखों कारें पहुंच गईं। पूरी बस्ती समुद्र के तट पर पहुंच गई। जिस बस्ती से भागे थे, लेकिन पूरी बस्ती भाग रही है, वह पूरी बस्ती वहां मौजूद हो गई। इससे तो अच्छा घर रह जाते, तो अब घर में थोड़ा सन्नाटा रहता। क्योंकि सारी बस्ती बीच पर आ गई। अब सारी बस्ती बीच पर रही। फिर बीच से भागे!
सारे अमेरिका में छुट्टी के दिन सर्वाधिक दुर्घटनाएं हो रही हैं। क्योंकि छुट्टी के दिन लोग बिलकुल शैतानी के काम में लग जाते हैं। क्या करें? फुर्सत खतरनाक है! जब तक मिली नहीं, तब तक आपको पता नहीं। अगर पूरी फुर्सत मिल जाए, तो खतरनाक है। तब आपको पता चलेगा कि श्रम करने वाला भी एक टाइप है, जो बिना श्रम किए नहीं रह सकता।
कृष्ण कहते हैं, ये चार गुण से विभाजित लोग हैं। शायद इन चारों की जरूरत भी है। क्योंकि सारे लोग ज्ञान खोजें, तो जगत अस्तित्व में नहीं रह जाए। और सारे लोग शक्ति खोजें, तो सिवाय युद्धों के कुछ भी न हो। और सारे लोग धन खोजें, तो आदमी मर जाएं और तिजोरियां बचें। और सारे लोग श्रम करें, तो कोई संस्कृति, कोई सभ्यता, कोई कला, कोई विज्ञान, कोई दर्शन, कोई धर्म--कुछ भी न हो। ये चारों कांप्लिमेंट्री हैं। इन चारों के बिना जगत नहीं हो सकता।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, ये चार, गुण से और कर्म से।
भीतर तो गुण हैं, उन गुणों से जुड़े हुए संयुक्त कर्म हैं। गुण ही बाहर प्रगट होकर कर्म बन जाते हैं। भीतर जिनका नाम गुण है, बाहर उनका नाम कर्म है। जब बीज में होते हैं, तो उनका नाम गुण है; और जब प्रकट होकर संबंधित होते हैं, तो उनका नाम कर्म हो जाता है
गुण-कर्म से मैंने चार में बांटा, कृष्ण कहते हैं।
यह चार का विभाजन, कृष्ण की दृष्टि में ऊंचे-नीचे का विभाजन नहीं है। कृष्ण की दृष्टि में इसमें कोई हायरेरकी नहीं है। इसमें कोई ऊपर और कोई नीचे नहीं है। ये चार जीवन के, शरीर के, चार अंग हैं, समान मूल्य के। एक के भी बिना तीन नहीं हो सकते।
विकृति उस दिन आनी शुरू हुई, जिस दिन हमने हायरेरकी बनाई। जिस दिन हमने कहा कि नहीं कोई ऊपर, और कोई नीचे। नहीं, श्रम भी उतना ही ऊपर है, जितना ज्ञान। और अगर किसी को ज्ञान की पिपासा है और किसी को अगर श्रम की पिपासा है, तो श्रम की पिपासा का भी हकदार है आदमी कि अपनी पिपासा को पूरी करे। ज्ञान की पिपासा का भी हकदार है आदमी कि अपनी पिपासा को पूरी करे। और दोनों ही पिपासाएं विराट से मिली हैं, जन्म से मिली हैं, बिल्ट-इन हैं। इसलिए गौरव की बात क्या है?
अगर मुझे सत्य की खोज की आकांक्षा है, तो इसमें गौरव की बात क्या है? यह मुझे वैसे ही मिली है, गिवेन है, वरदान है परमात्मा का, जैसे एक आदमी को श्रम की क्षमता मिली है। इसमें अगौरव क्या है? कोई नीचे-ऊपर नहीं है। वह उसका बिल्ट-इन प्रोग्रेम है।
एक फूल गुलाब बनने को हुआ है, एक फूल कमल बनने को हुआ है, एक फूल जुही बना है, एक फूल चमेली बना है। दुनिया सुंदर है। जितने ज्यादा फूल हैं, उतनी ही सुंदर है। लेकिन गुलाब गुलाब होने की मजबूरी में है। कमल कमल होने की मजबूरी में है। कमल का कमल होना, कमल का गौरव नहीं है; वह कमल की नियति है, डेस्टिनी है। गुलाब का गुलाब होना भी गुलाब की डेस्टिनी है। और एक घास के फूल का घास का फूल होना भी उसकी अपनी डेस्टिनी है।
और मजे की बात यह है कि जब घास का फूल अपने पूरे सौंदर्य में खिलता है, तो किसी गुलाब के फूल से पीछे नहीं होता। आपके लिए होगा, क्योंकि बाजार में बेचेंगे, तो घास के फूल का दाम नहीं मिलेगा। लेकिन घास के फूल के लिए, खुद घास के फूल के लिए, घास का फूल जब पूरी तरह खिलता है, तो उतनी ही एक्सटैसी में, उतने ही हर्षोन्माद में होता है, जितना जब गुलाब का फूल अपनी पूरी पंखुड़ियों को खिलाकर नाचता है सूरज की रोशनी में। दोनों अपने आनंद में होते हैं। और सूरज घास के फूल से यह नहीं कहता कि शूद्र! हट, मैं सिर्फ गुलाब के फूलों के लिए आया हूं। नहीं, सूरज उतने ही आनंद से बरसता है घास के फूल पर। चांद उतने ही आनंद से अमृत बरसाता है। हवाएं उतने ही आनंद से घास के फूल को भी नृत्य और थपकी देती हैं, जितनी गुलाब के फूल को देती हैं। इसमें कोई भेद-भाव नहीं है।
जगत के, अस्तित्व के भीतर कोई भेद-भाव नहीं है। गुण-भेद है, भेद-भाव नहीं है। कोई नीचे-ऊपर नहीं है। विभाजन है, शत्रुता नहीं है। कोई एक-दूसरे के कांफ्लिक्ट में नहीं है। संघर्ष नहीं है, सहयोग है।
कृष्ण के लिए, जिस दिन वर्ण की उन्होंने बात कही, चारों वर्णों में एक अंतर-सहयोग था, एक इनर को-आपरेशन था। एक आर्गेनिक यूनिटी थी। इन चारों के बीच एक शरीर-संबंध था।
इसलिए कृष्ण ने पीछे शरीर से तुलना भी की है कि कोई सिर है, कोई पैर है, कोई पेट है। अंग की भांति सारे वर्ण हैं। कोई नीचे-ऊपर नहीं है। लेकिन नीचे-ऊपर दिखाई पड़ता है। क्योंकि उन्होंने कहा कि सिर। सिर ऊपर मालूम होता है। पैर! पैर नीचे मालूम होते हैं। लेकिन यह ऊपर-नीचे होना फिजिकल है। यह ऊपर-नीचे होना मूल्यांकन नहीं है। यह मूल्यांकन, इसमें कोई वेल्युएशन नहीं है कि पैर नीच है, ऐसा नहीं है। अगर नीचा है, तो उसका कुल मतलब इतना है कि स्पेस में सिर ऊपर मालूम हो रहा है, पैर नीचे। लेकिन वह भी सब बातचीत काल्पनिक है।
एक आदमी किसी की छत पर खड़े होकर देखे, तो आपका सिर नीचे हो जाता है, उसका सिर ऊंचा हो जाता है। छोटे बच्चे करते हैं। कुर्सी पर खड़े हो जाते हैं बाप के पास और कहते हैं, हम तुमसे बड़े हैं। फिजिकल! हैं भी बड़े, जब ऊपर हो गए। अगर सिर ऊपर है पैर से, तो बेटा कुर्सी पर खड़ा होकर बड़ा है।
तो छिपकली, जो आपके छत पर चल रही है आपके सिर के ऊपर! छिपकली के बाबत क्या खयाल है? ब्राह्मण के ऊपर छिपकली चल रही है! छिपकली बहुत ऊपर है!
ये ऊपर-नीचे की बचकानी बातें हैं। इसमें कुछ भेद, कोई मूल्यांकन कृष्ण के मन में नहीं है; किसी के मन में नहीं था। हमारे मन में पैदा हुआ। हमने थोपा।
कृष्ण कहते हैं, गुण और कर्म के अनुसार मैंने विभाजित किया व्यक्तियों को।
गुण, भीतरी क्षमता; कर्म, बाहरी अभिव्यक्ति; कर्म, मैनिफेस्टेशन
ध्यान रहे, गुण जब कर्म बनता है, तभी दूसरों को पता चलता है। जब तक गुण गुण रहता है, तब तक किसी को पता नहीं चलता। दूसरों को ही नहीं, खुद को भी पता नहीं चलता। खुद को भी पता तभी चलता है, जब गुण कर्म बनता है। जब एक व्यक्ति अपने को प्रकट करता है अपने कर्मों में, तभी आपको भी पता चलता है और उसको भी पता चलता है कि वह क्या है।
गुण, बीज की तरह छिपा हुआ अस्तित्व है। कर्म, वृक्ष की तरह प्रकट अस्तित्व है।
गुण और कर्म के अनुसार विभाजित मनुष्य हैं। इस विभाजन को कभी भी तोड़ा नहीं जा सकता। इस विभाजन को इनकार किया जा सकता है। कानून बनाया जा सकता है कि ऐसा कोई विभाजन नहीं है। विधान बनाया जा सकता है, ऐसा कोई विभाजन नहीं है। लेकिन विभाजन जारी रहेगा।
अगर हम एक कानून बना लें। और कोई कठिन नहीं है, हम एक कानून बना दें कि स्त्री-पुरुषों के बीच कोई विभाजन नहीं है। कानून बनाया जा सकता है, मेजारिटी चाहिए! और हमेशा मेजारिटी हर तरह की बेवकूफी के लिए मिल सकती है। अगर आपकी धारा-सभा में, आपकी असेंबली और पार्लियामेंट में, बहुमत तय कर ले कि स्त्री-पुरुष में कोई फासला नहीं है, तो कानून बन सकता है। लेकिन कानून बनने से प्रकृति नहीं बदल जाती।
कानून बन भी गए हैं करीब-करीब। कानून ही नहीं बन गए, पश्चिम के मुल्कों ने स्त्री और पुरुष के बीच के फासले को गिराना भी शुरू कर दिया है। तो पुरुष स्त्रियों जैसे होने की कोशिश में लग गए हैं; ताकि एक-दूसरे की तरफ थोड़ा-थोड़ा चलें, तो फासला कम हो जाए। स्त्रियां पुरुषों जैसी होने लग गई हैं। स्त्रियां पुरुषों के कपड़े पहन रही हैं; पुरुष स्त्रियों के कपड़े पहनने की कोशिश में लगे हैं। स्त्रियां बाल कटा रही हैं, पुरुष बाल लंबे कर रहे हैं! ऐसा दोनों थोड़ा-थोड़ा चलेंगे, तो कहीं मिलन हो जाएगा, इस आशा में।
लेकिन अगर स्त्रियों और पुरुषों को बिलकुल एक जैसी शकल का भी बनाकर खड़ा कर दिया जाए, तो भी नियति का जो फासला है, वह नहीं गिर जाता। लेकिन उस फासले में कोई ऊंच-नीच नहीं है। वह वर्टिकल नहीं है, हारिजांटल है। वह फासला ऊंचा-नीचा नहीं है।
ठीक गुण और कर्म से भी जो भेद है, वह नियतिगत, स्वभावगत है। उस स्वभावगत भेद को कृष्ण कहते हैं, मैंने ही निर्मित किया।
इस विभाजन को स्वाभाविक, परमात्मा से आया हुआ विभाजन वे कह रहे हैं। इन-बॉर्न, इन-बिल्ट, प्रकृति में ही छिपा हुआ, यही उनका अर्थ है। और यह वे इसीलिए कह रहे हैं, ताकि अर्जुन को ठीक से खयाल आ जाए कि उसका अपना गुणकर्म क्या है। और वह उसके स्मरण को ध्यान में लेकर कर्म में सक्रिय हो सके, गुण को पहचानकर कर्म कर सके।
गुण और कर्म का मेल हो जाए, तो व्यक्ति के जीवन में एक हार्मनी, एक अंतर-संगीत पैदा हो जाता है। गुण और कर्म का भेद टूट जाए, तो व्यक्ति के जीवन में विसंगीत उत्पन्न हो जाता है।
एक प्रश्न है आखिरी। फिर हम सुबह बात करेंगे।

प्रश्न:
भगवान श्री, अभी आपने कहा कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में मूल्यों की श्रेष्ठता, हायरेरकी नहीं है। लेकिन चेतना की ऊंचाइयों एवं चेतना के विकास को खयाल में रखने पर, क्या ब्राह्मण की चेतना शूद्र की चेतना से श्रेष्ठ नहीं है?

नहीं; चेतना किसी की श्रेष्ठ नहीं है। चेतना श्रेष्ठ होती है अपने गुण को पूरा उपलब्ध कर लेने पर; किसी की भी श्रेष्ठ हो जाती है।
अगर ब्राह्मण ज्ञान के साथ आत्मसात हो जाए, तो उसकी चेतना श्रेष्ठ हो जाती है। अगर क्षत्रिय शक्ति के साथ आत्मसात हो जाए, एक हो जाए...। अर्जुन जब तीर चलाए, तो तीर और अर्जुन अलग-अलग न रह जाएं, अर्जुन तीर बन जाए। अर्जुन जब तलवार हाथ में ले, तो हाथ और तलवार के बीच का फासला गिर जाए; हाथ और तलवार एक हो जाएं। तो ब्राह्मण जब ध्यान में पूरा लीन होकर ब्रह्म के साथ एक होता है, तो जिस अनुभव को उसकी चेतना उपलब्ध होती है, उसी अनुभव को अर्जुन की चेतना भी उपलब्ध हो जाएगी, जब वह घूमती हुई तलवार के साथ एक हो जाएगा। अर्जुन के लिए वही ध्यान बन जाएगा।
जापान में मंदिर हैं, जिन मंदिरों पर तलवारों के चिह्न बने हुए हैं। जापान में क्षत्रियों का एक समूह हुआ, समुराई। मंदिरों पर तलवार! और मंदिरों के भीतर तलवार सिखाने के लिए स्कूल हैं। कभी बहुत चौंकने की बात मालूम पड़ती है! मंदिर के भीतर तलवार चलाने का स्कूल? तलवार की ट्रेनिंग? पागल हो गए हैं आप? मंदिर में तलवार चलाना सिखाकर क्या करिएगा?
लेकिन समुराई कहते हैं कि हम क्षत्रिय हैं। हम तो तलवार की चमक पर जब एक हो जाएंगे, जब तलवार और हमारे बीच कोई फासला न रहेगा, तलवार का नृत्य ही जब हमारे प्राणों का नृत्य हो जाएगा, हम बिलकुल एक हो सकेंगे; वही हमारा ध्यान है; वही हमारी समाधि है। वहीं से समाधि मिल जाएगी।
अगर श्रम का आतुर व्यक्ति अपने श्रम में इतना डूब जाए कि पीछे कोई भी न बचे; फावड़े से खोदता है जमीन को या काटता है लकड़ी को कुल्हाड़ी से, उसकी कुल्हाड़ी के उठने के साथ ही उसका भी उठना हो, और कुल्हाड़ी के गिरने के साथ उसका भी गिरना हो, कुल्हाड़ी और उसके बीच कोई अंतर न रह जाए, तो वह उसी ध्यान को उपलब्ध हो जाता है, जो ब्राह्मण अपनी कुटी में बैठकर ध्यान करके उपलब्ध होता है।
ध्यान, चारों वर्ण के लोग अपने-अपने ढंग से उपलब्ध हो सकते हैं। और जो भी चेतना ध्यान को उपलब्ध हो जाती है, वह श्रेष्ठ हो जाती है। श्रेष्ठता का संबंध शूद्र, ब्राह्मण और वैश्य और क्षत्रिय से नहीं है। श्रेष्ठता का संबंध ध्यान से है। जो चेतना ध्यान को उपलब्ध हो जाए, किसी भी मार्ग से, वह चेतना श्रेष्ठता को उपलब्ध हो जाती है।
श्रेष्ठता ध्यान से उपलब्ध होती है। और चार तरह के ध्यान होंगे मोटे--शूद्र के लिए, ब्राह्मण के लिए, क्षत्रिय के लिए, वैश्य के लिए। तल्लीनता! इतनी तल्लीनता कि भीतर से कर्ता मिट ही जाए, एक हो जाए। यह एकता किसी भी भांति आ जाए। यह प्रयोगशाला में आ जाए वैज्ञानिक को; कि नृत्यकार को नाचते हुए आ जाए; यह वाद्य बजाने वाले वीणावादक को वीणा में आ जाए; यह शिक्षक को पढ़ाने में आ जाए; यह गिट्टी फोड़ने वाले को गिट्टी फोड़ने में आ जाए। कहीं भी आ जाए। यह ध्यान जहां भी आ जाए, वहीं श्रेष्ठता चेतना की उपलब्ध हो जाती है।

चेतना की श्रेष्ठता वर्ण पर निर्भर नहीं, चेतना की श्रेष्ठता ध्यान पर निर्भर है।
और कुछ सवाल होंगे, तो कल सुबह। आज की रात की बैठक पूरी हुई।



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