प्रश्न
सार:
1—कोई
आठ वर्षों से आपको
सुनती—पढ़ती हूं:
लेकिन सिर्फ आप
ही है सामने।.......रोना
ही रोना। यह क्या
है?
2—शास्त्रीय
परंपरा में संन्यासी
काम—भोग से विमुख
और प्रभु—प्राप्ति
के लिए उन्मुख
होता है;
लेकिन आपके संन्यास
में विरक्ति पर
जोर क्यों नहीं?.......
3—क्या
भक्ति–मार्ग में
बुरे कर्मों का
फल भोगना पड़ता
है अथवा नहीं?
4—यदि
इस पृथ्वी पर
कहीं स्वर्ग है
तो वह यहीं है,
यहीं है यहीं है।
ऐसा क्यों हुआ,कृप्या समझांए?
पहला
प्रश्न: कोई
आठ वर्षों से
आपको सुनती
हूं, पढ़ती हूं; लेकिन
सब भूल जाता
है, सिर्फ
आप ही सामने
होते हैं। और
अब तो रोना ही रोना
रहता है। घर पर
आपके चित्र के
सामने रोती
हूं, यहां
प्रवचन में
रोती हूं। यह
क्या है? तेरी
यारी में
बिहारी सुख न
पायो री!
प्रेम
जलाता है। और
प्रेम में जो
जलने को राजी
है वही
प्रार्थना को
उपलब्ध भी
होता है।
प्रेम दुख देता
है, क्योंकि
प्रेम काटता
है। जैसे
मूर्तिकार पत्थर
को तोड़ता
है, छैनी-हथौड़ी से; लेकिन तभी
प्रतिमा का
आविर्भाव
होता है। जो प्रेम
के दुख से डर
गया, वह
अप्रेम के
नर्क में
जीयेगा सदा।
जिसने प्रेम
की पीड़ा को
स्वीकार कर
लिया, तो
दुख जल्दी ही
सुख में
रूपांतरित
होगा--और ऐसे
सुख में जिसका
कोई अंत नहीं।
आंसुओं
से भरा है
रास्ता सत्य
की खोज का, लेकिन एक-एक
आंसू के बदले
में करोड़-करोड़
फूल खिलते
हैं। ये आंसू
साधारण आंसू
नहीं हैं। जिसने
पूछा है उसे
मैं जानता
हूं। ये आंसू
साधारण आंसू
नहीं हैं। और
इन आंसुओं का
दुख साधारण दुख
भी नहीं है।
इन आंसुओं में
एक रस है।
इनको आंसू ही
मत समझना, अन्यथा
चूक हो जाएगी।
दूसरे समझें
तो समझने देना।
खुद इन आंसुओं
को अगर आंसू
ही समझ लिया तो
बड़ी चूक हो
जाएगी। यह तो
अनिवार्य चरण
है।
परमात्मा
की खोज में दो
ही उपाय हैं।
या तो आंसू
बिलकुल सूख
जायें, आंख
जरा भी गीली न
रहे, गीलापन
ही न रहे, लकड़ी
सूखी हो जाये
कि आग लगाओ तो
धुआं न उठे, लपट ही लपट
हो। वैसा
महावीर का
मार्ग है।
वहां आंसू
सुखाने हैं।
वहां आंसुओं
को बिलकुल
वाष्पीभूत कर
देना है। वहां
प्रेम को
बचाना नहीं; वहां प्रेम
की सारी
संभावनाओं को
समाप्त कर देना
है--ताकि तुम
ही बचो, निपट
अकेले; बाहर
जाने का कोई
द्वार भी न
बचे। क्योंकि
प्रेम बाहर ले
जाता है।
संसार में भी
ले जाता है, परमात्मा
में भी ले जा
सकता है; लेकिन
साधारणतः तो
संसार में ही
ले जाता है, निन्यान्नबे
मौके पर तो
संसार में ही
ले जाता है।
महावीर
का मार्ग कहता
है, इन
आंसुओं को
सुखा डालो।
न कोई भक्ति न
कोई भाव, न
कोई पूजा न
कोई
प्रार्थना--बुझा
दो ये सब दीप अर्चना
के! निपट अपने
अकेलेपन में
राजी हो जाओ।
तो भी परमात्मा
प्रगट होता
है। इस अति पर
भी परमात्मा
प्रगट होता
है!
फिर
दूसरा मार्ग
है नारद का, चैतन्य का, मीरा का।
जिसने पूछा है
उसका नाम भी
मीरा है। वहां
आंसू ही आंसू
हो जाओ। वहां
तुम न बचो। पिघलो
और बह जाओ, कि
पीछे कोई
रोनेवाला न
बचे, रुदन
ही रह जाये।
इस तरह गलो
कि जरा-सी भी
गांठ न रह
जाये भीतर। सब
आंखों के बहाने
बह जाये। सब
आंसुओं में ढल
जाये। तो भी परमात्मा
तक पहुंचना हो
जाता है।
क्योंकि जब सब
बह जाता है, तुम बचते ही
नहीं, तो
परमात्मा ही
बचता है।
या तो
तुम्हीं बचो
और कुछ न बचे, तो परमात्मा
मिलता है। या
और सब बचे, तुम
न बचो, तो
परमात्मा
मिलता है।
या तो
तुम्हारा आत्मभाव
इतना विराट हो
जाये कि सब
उसमें समा
जाये; या
तुम्हारा आत्मभाव
इतना शून्य हो
जाये कि सबमें
समा जाये।
महावीर
का मार्ग
आत्मा को सुदृढ़
करने का मार्ग
है। नारद का
मार्ग आत्मा
को विसर्जित
कर देने का
मार्ग है।
इसलिए घबड़ाओ
मत। हंसकर रोओ, रोकर नाचो, नाचकर रोओ।
नृत्य को
उत्सव समझो।
हम
पे मुश्तरका
हैं अहसान गमे-उलफत
के
इतने
अहसान कि गिनवाऊं
तो गिनवा
न सकूं
हमने
इस इश्क में
क्या खोया है, क्या पाया
है
जुज तिरे
और को समझाऊं
तो समझा न
सकूं।
हम पे
मुश्तरका हैं
अहसान गमे-उलफत
के! प्रेम की
पीड़ा के इतने
अहसान हैं, प्रेम के
दुख ने इतना
दिया है--गमे-उलफत।
हम
पे मुश्तरका
हैं अहसान गमे-उलफत
के
इतने
अहसान कि गिनवाऊं
तो गिनवा
न सकूं।
अनंत
है उनका
उपकार। एक-एक
आंसू ने भक्त
को निखारा है, स्वच्छ किया
है, ताजगी
दी है, निर्दोष
बनाया है।
एक-एक
आंसू जहर को
लेकर बाहर हो
गया है, पीछे
अमृत ही छूट
गया है।
हम
पे मुश्तरका
हैं अहसान गमे-उलफत
के
इतने
अहसान कि गिनवाऊं
तो गिनवा
न सकूं
हमने
इस इश्क में
क्या खोया है, क्या पाया
है
जुज तिरे
और को समझाऊं
तो समझा न
सकूं।
और कोई
समझ भी न
सकेगा।
बहुत कुछ
खोया भी जाता
है प्रेम में।
बहुत कुछ पाया
भी जाता है
प्रेम में।
खोना मार्ग है
पाने का। खोने
से डरे तो
पाने से वंचित
रह जाओगे। पहले
तो खोया ही
जाता है; पाना
तो बाद में
घटता है। पहले
तो खोना ही
खोना है। सौदा
पहले तो घाटे
का है। जब सब
खो जाता है, तब मिलन के
क्षण आते हैं,
तब वर्षा
होती है। जैसे
गर्मी में सब
सूख जाता है, धरती तपती
है, वृक्ष
रूखे हो जाते,
पत्ते गिर
जाते, वृक्ष
नग्न हो जाते,
धरती
प्यासी और
रोती--तब
मेघ-मल्हार, तब मेघ
घिरते हैं, तब आषाढ़ के
दिवस आते और
वर्षा होती
है।
पहले
तो खोना ही
खोना है। खोना
पाने की
पात्रता है।
पहले तो खाली
होना है, इसलिए
खोना पड़ेगा।
पात्र जब पूरा
खाली होगा तो
बरसेगा
परमात्मा।
हमने
इस इश्क में
क्या खोया है, क्या पाया
है
जुज तिरे
और को समझाऊं
तो समझा न
सकूं।
उस परम
प्यारे के
अतिरिक्त
किसी और को
समझा भी न
सकोगे। कोई
समझेगा भी नहीं, क्योंकि यह
सौदा बड़े
पागलपन का है।
भक्त का रास्ता
दीवाने का
रास्ता है।
महावीर
का रास्ता
अत्यंत विचार
का रास्ता है, अत्यंत
विवेक का, गणित
का। वहां
चीजें
साफ-सुथरी
हैं। इसलिए जैन-शास्त्रों
में रस नहीं
है। पढ़े
जाओ, सुने
जाओ, मरुस्थल
ही मरुस्थल
है। जैन शास्त्रों
में रस नहीं
है--हो नहीं
सकता। वह मार्ग
वैराग्य का है,
विरसता का
है। रस है तो
भक्ति के
शास्त्रों में।
वहां तुम्हें
कोई सूखी जमीन
न मिलेगी। वहां
सब कमलों से ढ़ंका
है। लेकिन वे
कमल मुफ्त
नहीं मिलते।
वे कमल यूं ही
नहीं खिलते; जब कोई सब गंवाता
है, तब खिलते
हैं। तो घबड़ाना
मत। अब रोने
को ही साधना
समझना।
कंजूसी से मत रोना।
रोए और
कंजूसी से रोए
तो व्यर्थ रोए।
दिल भरकर
रोना।
समग्रता से
रोना। और रोने
को प्रार्थना
समझना, अहोभाव
समझना। ये
आंसू कम ही
सौभाग्यशालियों
की आंखों में
आते हैं।
बहुतों की
आंखें तो पथरा
गयी हैं, नकली
हो गयी हैं।
मैंने
सुना है, एक करोड़पति
कंजूस की एक
आंख नकली थी, पत्थर की
थी। एक आदमी
भीख मांगने
आया था। कंजूस
ने कभी किसी
को भीख न दी
थी। लेकिन उस
दिन कुछ शुभ
मुहूर्त में आ
गया था
भिखारी।
कंजूस कुछ प्रसन्न
था। कोई बड़ी
संपदा हाथ लग
गयी थी। अभी-अभी
खबर मिली थी
तो बड़ा
प्रफुल्लित
था। तो रोज से
उस दिन सदय
था। कभी किसी
भिखारी को कुछ
न दिया था। उस
दिन भिखारी से
कहा, "अच्छा
दूंगा कुछ, लेकिन पहले
एक शर्त है।
क्या तू बता
सकता है कि
मेरी कौन-सी
आंख असली है, कौन-सी नकली
है?' उस
भिखारी ने
देखा और उसने
कहा कि बायीं
असली होनी
चाहिए, दायीं नकली। चकित
हुआ धनपति।
उसने कहा, "कैसे
तूने जाना?' तो उसने कहा,
"नकली आंख
में थोड़ी-सी
करुणा मालूम
पड़ती है, थोड़ी
दया का भाव
मालूम पड़ता है,
इससे
पहचाना। असली
तो बिलकुल
पथरा गयी है।'
बहुत
हैं जिनकी
आंखें पथरा
गयी हैं, जिनके
हृदय सूख गये
हैं, रसधार
नहीं बहती।
गंगा खो गयी
है, रूखे-सूखे
रेत के पहाड़
खड़े रह गये
हैं। कहीं कोई
अंकुर नहीं
फूटता, कोई
पक्षी गीत
नहीं गाता।
सौभाग्यशाली
हैं वे जिनकी
आंखें अब भी
तर हो सकती
हैं, भीग
सकती हैं।
उनकी आत्मा के
भीगने का अभी
उपाय है। तो
अगर रोना आता
हो तो आने
देना, सहयोग
करना, साथ
देना, संगी
बनना। लड़-लड़कर
मत रोना।
झिझक-झिझककर
मत रोना।
सकुचाना मत।
शर्माना मत।
नहीं तो चूक
हो जायेगी।
अगर
आंसुओं से तुम
पूरे बह जाओ
तो कुछ कहने
को नहीं बचता।
फिर कोई
प्रार्थना
करने की जरूरत
नहीं है। फिर
कोई शास्त्र
आवश्यक नहीं
है। फिर
तुम्हारे
आंसू सब कह
देंगे--जो
नहीं कहा जा
सकता वह भी; जो कहा जा
सकता है वह तो
निश्चित ही।
फिर तो तुम्हारे
आंसू सब गा
देंगे--जो गेय
है, अगेय है, सभी
गा देंगे; जो
नहीं गाया जा
सकता है, अगेय है,
वह भी गा
देंगे। फिर तो
तुम्हारे
आंसुओं की धुन
में सब प्रगट
हो जाएगा।
तुमसे ज्यादा
ढंग से कह
देंगे वे, परमात्मा
से क्या कहना
है!
वियोगी
होगा पहला कवि
आह
से उपजा होगा
गान
उमड़कर
आंखों से
चुपचाप
बही
होगी कविता
अनजान
सारा
काव्य आंसुओं
का है। हंसी
से कोई काव्य
निर्मित होता
है? सारा
काव्य आंसुओं
का है; क्योंकि
हंसी बड़ी उथली
है, ऊपर-ऊपर
है, खोखली
है। कोई हंसना
आंसुओं की
गहराई नहीं छू
पाता। हंसना
ऊपर-ऊपर लहर
की तरह आता है,
चला जाता
है। आंसू कहीं
गहरे में सघन
हो जाते हैं।
तो आंसू तो
गहराई में
उतरने की
सुविधा है, सौभाग्य है।
और
धीरे-धीरे, पहले तो
आंसू अपने लिए
बहते हैं, फिर
आंसू औरों के
लिए भी बहने
लगते हैं।
पहले-पहले तो
कारण से बहते
हैं, फिर
अकारण बहने
लगते हैं। जब
अकारण बहने
लगते हैं, तब
उनका मजा ही
और है।
अश्रु
अपनी ही व्यथा
का निर्वसन तन
गीत
जग भर के
दुखों की
आत्मा है।
पहले
तो अपनी ही
पीड़ा से बहते
हैं, लेकिन
जल्दी ही तुम
पाओगे कि
तुम्हारी
पीड़ा सारी
मनुष्यता की
पीड़ा है।
जल्दी ही तुम
पाओगे:
तुम्हारी पीड़ा
सारे
अस्तित्व की
पीड़ा है। यह
तुम ही नहीं रोए हो, यह
परमात्मा से बिछुड़ापन
रोया है।
वियोगी
होगा पहला
कवि!
--यह
वियोग रोया
है।
आह से
उपजा होगा
गान!
--और
जल्दी ही
तुम्हारे
आंसुओं से गीत
उतरने
लगेंगे।
मीरा
खूब रोयी।
इसलिए तो मीरा
के गीतों में
जो है, वह
महाकवियों के
गीतों में भी
नहीं। मीरा के
गीत भाषा और
व्याकरण की
दृष्टि से तुकबंदियां
हैं। हृदय की
दृष्टि से तो
वैसे गीत
कभी-कभार पृथ्वी
पर उतरे हैं, किसी दूसरे
लोक से आये
हैं। बहुतों
ने गीत लिखे
हैं, लेकिन
जैसे मीरा के
गीत हृदय-हृदय
में उतरे हैं,
वैसे किसी
के गीत कभी
नहीं उतरे। न
तो भाषा, न
छंद-शास्त्र,
न काव्य की
मात्राओं का
कुछ हिसाब है,
न संगीत का
कोई गणित
है--पर कुछ और
है जो इन सब के पार
है। यह व्यथा
मीरा की अपनी
नहीं है अब!
जैसे मीरा के
कंठ से सारी
मनुष्यता, सारा
अस्तित्व
अपनी पीड़ा को
प्रगट किया
है।
जब
आंसू तुम से
मुक्त हो जाते
हैं, और सबके
हो जाते हैं; तो तुम
समाप्त हुए।
अब तुम कोई
छोटी-मोटी
धारा न रहे जो
सूख जाती है।
वर्षा, गर्मी
में...भर जाती
है वर्षा में,
वर्षा में
बाढ़ आ जाती है,
गर्मी में
पता भी नहीं
चलता कहां खो
गई! जब तुम्हारी
व्यथा सबकी
व्यथा से जुड़
जाती है, तो
तुम सागर हो
गए। तब
तुम्हारे
भीतर सिर्फ व्यथा
ही नहीं रहती,
व्यथा के
गीत उठते हैं,
विरह के गीत
उठते हैं।
सारा
भक्ति-शास्त्र
विरह है, वियोग
है। और भक्त
ने विरह को
दुर्भाग्य
नहीं माना है,
सौभाग्य
जाना है। भक्त
ने अपनी पीड़ा
को भी स्वर्णिम
माना है। है
भी स्वर्णिम,
क्योंकि जब
सब खो जायेगा,
जब कुछ भी न
बचेगा, केवल
एक प्यास
बचेगी; एक
उत्तप्त हृदय
बचेगा--तभी
उसी क्षण में,
उसी परम
सौभाग्य के
क्षण में, उसी
धन्यता की घड़ी
में परमात्मा
का अवतरण होता
है।
"कोई
आठ वर्षों से
आपको सुनती
हूं, पढ़ती हूं; लेकिन
सब भूल जाता
है, सिर्फ
आप ही सामने
होते हैं।'
शुभ हो
रहा है। मैं
क्या कहता हूं, उसका हिसाब
वे रखें जो
मुझे नहीं समझ
पाते। उनके
हाथ कूड़ा-कर्कट
पड़ेगा। वे
उच्छिष्ट को
इकट्ठा कर
लेंगे। जैसे
भोजन की टेबल
के आसपास थोड़े
टुकड़े गिर
जाते हैं, ऐसे
ही शब्द हैं।
टुकड़े भोजन से
गिर गये--रोटी के,
साग-सब्जी
के, मिष्ठान्न
के--ऐसे ही
शब्द हैं।
क्योंकि जो मैं
हूं वह शब्दों
में प्रगट
नहीं हो सकता।
शब्द बड़े छोटे
हैं। तो शुभ
है कि शब्द
भूल जायें और मैं
याद रहूं।
अशुभ होगा कि
शब्द याद रहें
और मैं भूल
जाऊं। बहुतों
को यही होता
है: शब्द याद
रह जाते हैं, मैं भूल
जाता हूं। कुछ
मिला उन्हें,
लेकिन जहां
बहुत मिल सकता
था, वहां
अपने ही हाथ
वे क्षुद्र को
इकट्ठा करके आ
गये। जहां
हीरे मिल सकते
थे वहां से कंकड़-पत्थर
बीन लाये।
अच्छा
है! भूल ही
जाओ। जो सुना
है उसे याद
रखने की जरूरत
नहीं है।
अगर
मुझ से मिलन
हुआ है, अगर
क्षणभर
को भी मुझे
देखा है, मुझमें
झांका है,
तो क्या मैं
कहता हूं, इसकी
क्या फिक्र!
चाहें
तो तुमको
चाहें, देखें
तो तुमको
देखें
ख्वाहिश
दिलों की तुम
हो, आंखों की
आरजू तुम।
जिसे
दर्शन हुआ, जिसे दिखाई
पड़ने लगा, वह
कानों की
फिक्र छोड़
देता है। जब
आंखें भरने
लगीं तो कान
की कौन फिक्र
करता है!
सुनने
पर तो हम तब
भरोसा करते
हैं जब हम
अंधे होते हैं
और देखने का
उपाय नहीं
होता। सुनने
को तो हम तब पकड़ते
हैं, मजबूरी
में, क्योंकि
देख नहीं पाते,
अंधेरे में
टटोलते हैं।
कान से ही
जीना पड़ता है
अंधे को। पर
जिसके पास आंख
है वह आंख से
जीता है। फिर
कौन फिक्र
करता है कान
की!
आंख से
ही जीयो!
तो तुम
डूबोगे। कान
से जो जीते
हैं, वे डूब
नहीं पाते।
ज्यादा से
ज्यादा इतना
हो सकता है कि
मुझे सुनते
समय तुम पर
थोड़ी-सी
बूंदें बरस
जायें, पर
वे तुम्हें डुबा न पायेंगी;
घर
जाते-जाते धूप
में उड़ जायेंगी।
लेकिन तुम अगर
मुझ में डूबो,
मुझे अगर
देख पाओ...।
इसलिए हमने इस
देश में तत्व-चिंतन
की धारा को
दर्शन कहा
है--श्रवण
नहीं, दर्शन
कहा है। कुछ
बात देखने की
है। कुछ आंख
से जुड़ने
की बात है।
मेरी बात
सुनकर तुम मुझ
तक आ जाओ, काफी
है इतना; फिर
मुझे देखो, फिर सुनने
में ही मत
उलझे रह जाओ।
डूबा
जो कोई आह, किनारे पै आ
गया
तुगयाने
बहरे इश्क है
साहिल के
आसपास।
जो कोई
डूबा वह
किनारा पा
गया। क्योंकि
कुछ ऐसा मामला
है कि इश्क का
जो तूफान है, प्रेम का जो
तूफान है, वह
ठीक किनारे के
पास है।
साधारण तूफान
तो किनारे से
दूर होते
हैं--बहुत दूर
होते हैं।
जितना बड़ा
तूफान हो उतना
ही किनारे से
दूर होता है।
किनारे के पास
कहीं तूफान
होते हैं!
लेकिन प्रेम
के नियम उलटे
हैं। इस संसार
के जो नियम
हैं, प्रेम
के नियम उससे
बिलकुल उलटे
हैं। यहां अगर
नदी पार करनी
हो तो डूबना
मत। प्रेम की
दुनिया में
अगर नदी पार
करनी हो तो
डूबने का अवसर
आ जाये तो
चूकना मत।
डूबा
जो कोई आह, किनारे पै आ
गया!
डूबते
ही किनारा मिल
जाता है।
डूबना ही
किनारा है; और कोई
किनारा नहीं।
डूबना ही
मंजिल है; और
कोई मंजिल
नहीं।
क्योंकि डूबे
कि तुम मिटे।
तुम मिटे कि
वही रह गया, जो है, जो
सदा से है।
तुम जरा
ऊपर-ऊपर की
धूल-धवांस
हो, उस पर
छा गया जो
सनातन है, शाश्वत
है। डूबे कि
धूल-धवांस
बह गई; बचा
वही जो सदा
था--तुम्हारे
होने के पहले
था, तुम्हारे
होने के बाद
होगा। बचा वही
जो शाश्वत है,
कालातीत
है।
डूबा
जो कोई आह, किनारे पै आ
गया!
तुगयाने
बहरे इश्क है
साहिल के
आसपास।
ये जो
तूफान हैं, प्रेम की
आंधियां हैं,
ये किनारे
के बहुत आसपास
हैं, इनसे घबड़ाना
मत। और जब
आंधी
तुम्हारे
द्वार पर
दस्तक दे तो
निकल आना, डूबने
को राजी हो
जाना, आंधी
से लड़ना मत।
"सब
भूल जाता है, सिर्फ आप ही
सामने होते
हैं।'
तो वही
हो रहा है जो
होना चाहिए।
"और अब तो
रोना ही रोना
रहता है। घर
आपके चित्र के
सामने रोती
हूं, यहां
प्रवचन में
रोती हूं। यह
क्या है?'
प्रश्न
मत उठाओ, रोओ।
प्रश्न उठाया
कि रोना बंद
हुआ। क्योंकि
प्रश्न जहां से
आता है वहां
से रोना नहीं
आता। प्रश्न
आता है बुद्धि
से, रोना
आता है हृदय
से। प्रश्न
उठाया कि
बुद्धि ने
हृदय के बीच
में बाधा दी।
प्रश्न उठाया
कि बुद्धि ने
कहा, यह
क्या हो रहा
है? प्रश्न
उठाया कि
बुद्धि ने
अड़चन शुरू की,
कि बुद्धि
ने पहरा बांधा,
कि बुद्धि
ने कहा, "बंद
करो यह पागलपन,
यह दीवानगी!
सम्हलो, होशियार
बनो।'
अब
यहीं तुम्हें
खयाल रखना है।
अगर महावीर के
मार्ग पर चलते
हो तो सम्हलो, होशियार
बनो। वहां होश
आखिरी गुण है।
अगर नारद के
मार्ग पर चलते
हो, मीरा
के और चैतन्य
के, तो
वहां बेहोशी
ही मार्ग है।
वहां होशियार
मत बनना। वहां
होशियार बने
कि गंवाया। और
अपनी-अपनी चुन
लेना राह। न
महावीर से कुछ
लेना है, न
नारद से कुछ
लेना
है--देखना है
कि अपनी मौज
कहां, हम
कहां बहे जाते
हैं सरलता से,
जहां कोई
उपाय नहीं
करना पड़ता, जहां हम छोड़
देते हैं और
धारा ले चलती
है। अगर
संकल्प तुम्हारी
वृत्ति हो तो
रोकना; तो
हृदय को तोड़ना
और बुद्धि को
जगाना; तो
हृदय को पोंछ
देना बिलकुल
कि राग का शेष
भी न रहे, न
आंसू हों, न
हंसी हो।
तुमने
देखा महावीर
की प्रतिमा पर? थिर है।
मध्य में है।
न हंसती है न
रोती है।
मूर्तिवत।
मूर्ति ही
मूर्तिवत
नहीं है, महावीर
भी मूर्तिवत
थे। वे ठीक
बीच में खड़े
थे होश को
सम्हालकर। वह
भी मार्ग है।
जिनको संकल्प
में रस हो, उस
मार्ग पर
जायें। उससे
भी लोग पहुंचे
हैं।
लेकिन
अगर तुम्हें
संकल्प में
अड़चन पड़ती हो
तो घबड़ाना
मत, संकल्प
ने कोई ठेका
नहीं लिया।
तुम जिस ढंग
से हो, परमात्मा
तुम्हें उस
ढंग से भी
स्वीकार करता है।
इसलिए तो
हिंदू कहते
हैं, उसके
हाथ अनेक
हैं--सहस्रबाहु।
एक ही हाथ
होता तो बड़ी
मुश्किल हो
जाती; किसी
एक को उठा
लेता, बाकियों का क्या
होता। दो हाथ
होते, दो
को उठा लेता।
उसके उतने ही
हाथ हैं जितने
तुम हो। एक-एक
के लिए एक-एक
हाथ है। उसने
तुम्हारे लिए
जगह रखी है।
तुम्हारा हाथ
तुम्हारे लिए
मौजूद है। तुम
जरा अपने को
पहचानो। और इस
भूल में कभी
मत पड़ना
कि तुम दूसरे
के मार्ग से
पहुंच सकोगे।
अगर तुमने
विपरीत मार्ग
चुन लिया जो
तुम्हारी सहज
वृत्ति के
अनुकूल न आता
था, तो तुम
उलझन में
पड़ोगे, तुम
झंझट में उलझोगे।
तुम अपने ऊपर
व्यर्थ के
अवसाद और
संताप इकट्ठे
कर लोगे। तुम
अपने को
व्यर्थ की प्रवंचनाओं
में, धोखों
में, आत्म-वंचनाओं
में उलझा
लोगे। तुम
पाखंड में पड़
जाओगे। विमुक्ति
तो बहुत दूर
रही, तुम
विक्षिप्त
होने लगोगे।
जो अपने से
अनुकूल न गया,
वह
विक्षिप्त
होने लगता है।
स्वयं के
अनुकूल होना
साधक की पहली
समझ है।
तो जो
तुम्हें लगता
हो, अनुकूल
है; जो
तुम्हें भाता
हो, रुचता
हो; जो
तुम्हारी
रुझान में बैठ
जाता हो--बस
वही। न महावीर
से कुछ लेना
है, न नारद
से कुछ लेना
है--असली सवाल
तो तुम्हें
अपने घर लौटना
है।
अपनी
राह पहचानना।
और अपनी राह
पहचानने का उत्तमतम
उपाय है: अपने
थोड़े झुकाव को
समझना।
जिसने
पूछा है, मैं
जानता हूं, रोना उसके
लिए मार्ग है।
भूल जाओ
महावीर को। गुण
गाओ प्रभु के!
नाचो मस्ती
में! बेहोशी में
डूबो! और
कुछ भी बचा न
रखो। जरा भी
कृपणता मत
करना क्योंकि
परमात्मा
तुम्हें पूरा
का पूरा चाहता
है।
वहां
त्याग है तो
सर्वस्व का
है। वहां
कुछ-कुछ देने
से, अंश-अंश
देने से काम न
चलेगा। वहां
कुछ और देने
से काम न
चलेगा, जब
तक तुम स्वयं
को ही न दे डालो--अशेष
भाव से, बिना
पीछे कुछ
बचाये।
रोओ!
रोना शुभ है।
अगर सरलता से
आता है तो बड़ा
शुभ है। अगर न
आता हो तो
नाहक कोशिश मत
करना। मिर्ची
इत्यादि
पीसकर आंखों
में मत आंजना।
वैसे
भी लोग हैं।
कोई
जबर्दस्ती
संकल्प की चेष्टा
करने लगता है, कोई
जबर्दस्ती
समर्पण की
चेष्टा करने लगता
है। जहां भी
तुम्हें लगे
जबर्दस्ती
करनी पड़ रही
है, वहीं
सचेत हो जाना
कि अपना मार्ग
न रहा। जहां तुम्हें
लगे: अरे खिलने
लगे, सरलता
से पंखुड़ियां
खिलने
लगीं, मस्ती
आने लगी, चित्त
प्रसन्न और
प्रफुल्लित
होने लगा--तब
तुम जानना कि
ठीक-ठीक
रास्ते पर हो।
तुम्हारा अंतरऱ्यंत्र
प्रतिपल
तुम्हें बता
रहा है, कसौटी
दे रहा है। जो
भोजन तुम्हें
रास आता है, उसे खाकर
प्रसन्नता
होती है। जो
भोजन तुम्हें
रास नहीं आता,
उसे खाने के
बाद
अप्रसन्नता
होती है। जो
बात तुम्हें
रास आ जाये
वही तुम्हारा
धर्म है।
धर्म
की परिभाषा
महावीर ने की
है: बत्थु सहाओ
धम्म। वस्तु
का स्वभाव
धर्म है। बड़ी
प्यारी परिभाषा
है। स्वभाव
धर्म है। तुम
धर्म की फिक्र
छोड़ो, स्वभाव की
फिक्र कर लो।
धर्म
पीछे-पीछे चला
आयेगा। बहुत
नासमझ धर्म की
फिक्र करते
हैं और स्वभाव
को पीछे
घसीटते हैं।
महावीर ने यह
नहीं कहा कि
धर्म स्वभाव
है; महावीर
ने कहा, स्वभाव
धर्म है। बड़ा
फर्क है दोनों
में। स्वभाव--जो
अनुकूल आ जाये,
जो
प्रीतिकर लगे,
जो प्रेयस
है, जिसके
पास आते ही
तुम नाचने
लगते हो, जिसके
पास होते ही
गंध तुम्हें
घेर लेती है--तुम्हारी
ही सुगंध!
और
पहले से ही
ऐसे चलोगे, अपने स्वभाव
के अनुकूल तो
तुम्हें
प्रयास न करना
पड़ेगा।
झेन
फकीर कहते हैं, अप्रयास से
जो सध जाये
वही सत्य है; प्रयास से
जो सधे, चेष्टा
से जो सधे, उसमें
कहीं कुछ गड़बड़
है। कली को
फूल बनने में कोई
अड़चन आती है? कली को
खींच-खींचकर
फूल बनाना
पड़ता है? पौधों
को जमीन से
खींच-खींचकर
बाहर निकालना
पड़ता है? अपने
से बढ़े चले
आते हैं।
कलियां लग
जाती हैं।
कलियां खिल
जाती हैं, फूल
बन जाते हैं।
फूल बन जाते
हैं, सुगंध
बिखर जाती
है--हवाओं में,
आकाश की
यात्रा पर
निकल जाती है।
सब चुपचाप होता
चला जाता है।
ऐसा ही आदमी
भी है। पर
आदमी की अड़चन
यह है कि आदमी
के पास
सोच-विचार का
यंत्र है, उससे
अड़चन खड़ी होती
है। जरा किसी
गुलाब के पौधे
को सोच-विचार
का यंत्र दे
दो, बस
मुश्किल हो
जायेगी। फिर
गुलाब
मुश्किल में
पड़ा। फिर हजार
अड़चनें
खड़ी हो जायेंगी।
क्योंकि वह
सोचेगा, कितना
बड़ा फूल
चाहिए। पड़ोसी
गुलाब सेर्
ईष्या भी जगेगी।र्
ईष्या के साथ
राजनीति पैदा
होगी, महत्वाकांक्षा
जगेगी कि मैं
सबसे बड़ा
गुलाब हो
जाऊं। अब अगर
वह बटन गुलाब
है तो बटन
गुलाब है, सबसे
बड़ा गुलाब हो
नहीं सकता; लेकिन सबसे
बड़े गुलाब
होने की
जद्दो-जहद में
बड़ी चिंता खड़ी
होगी, रात
तनाव रहेगा, नींद न आयेगी,
दिनभर उदास रहेगा,
गणित बिठायेगा:
कैसे बड़ा हो
जाऊं! और डर यह
है कि इस सब
चिंता में जो
ऊर्जा नष्ट
होगी उससे वह
वह भी न हो
पायेगा जो हो
सकता था।
मनुष्य
की तकलीफ यही
है--होनी नहीं
चाहिए थी। बुद्धि
का अगर
सदुपयोग हो तो
तुम्हें
सहयोग देगी, लेकिन
दुरुपयोग हो
रहा है। तुम
जैन घर में
पैदा हो गये
अब तुम्हारी
बुद्धि कहती
है, तुम
जैन हो। और
तुम्हारी
आंखें अगर
आंसुओं से भरी
हैं तो बड़ी
कठिनाई होगी।
महावीर के
मंदिर में
आंसुओं के लिए
जगह नहीं है।
उस मंदिर में आंसू
पाप हैं, वर्जित
हैं। तब
तुम्हें
कृष्ण का कोई
मंदिर खोजना
पड़े, जहां
रोने की
छुट्टी है; छुट्टी ही
नहीं, जहां
रोना साधन है।
अब अगर
तुम किसी
भक्ति-मार्गी
के घर में
पैदा हो गये, कृष्ण-मार्गी
के घर में
पैदा हो गये
और तुम्हारी
आंखों में
आंसू नहीं
हैं--नहीं हैं
तो तुम क्या
करोगे? परमात्मा
ने तुम्हें
वैसा नहीं
चाहा। सभी रोनेवाले
नहीं चाहिए, कुछ हंसनेवाले
भी चाहिए। सभी
समर्पणवाले
नहीं चाहिए, कुछ संकल्पवाले
भी चाहिए।
जीवन में
विरोधों का
संतुलन है। जितने
यहां समर्पणवाले
लोग हैं उतने
ही यहां संकल्पवाले
लोग हैं। जीवन
संतुलन से
चलता है। रात
और दिन, अंधेरा
और प्रकाश, जीवन और मृत्यु,
ग्रीष्म और
शीत, यहां
सब चीजें
संतुलित हैं।
दो पैर हैं, दो पंख हैं, ताकि संतुलन
बना रहे।
तो अगर
तुम किसी
भक्ति-मार्गी
के घर में
पैदा हो गये
और बचपन से ही
तुमने नारद के
सूत्र सुने कि
भक्त
भाव-विह्वल हो
जाता है, रोमांचित
हो जाता है, आंखें
आंसुओं से भर
जाती हैं, रोता
है, उसके
गीत गाता है, नाचता है, मदमस्त होता
है, मतवाला
हो जाता
है--अगर तुमने
ये सुने और
तुम्हारी
आंखों में
आंसू नहीं आते,
तुम क्या
करोगे? तुम
जबर्दस्ती
करोगे। तुमने
बुद्धि का
सदुपयोग न
किया।
अपने
को देखो!
तुम्हीं
महत्वपूर्ण
हो; न नारद न
महावीर, न
मैं न कोई और।
तुम्हीं
महत्वपूर्ण
हो, क्योंकि
तुम्हीं
तुम्हारे
गंतव्य हो।
उपयोग कर लो
जिसका उपयोग
करना हो; लेकिन
सदा ध्यान
रखना, तुम्हारे
स्वभाव के
अनुकूल उपयोग
हो, तो तुम
पहुंचोगे, नहीं
तो भटक जाओगे।
"तेरी यारी
में बिहारी
सुख न पायो री!'
बिहारी
ने बड़े सुख
में कहा है
यह। तेरी यारी
में बिहारी
सुख न पायो री!
बड़े प्रेम में
कहा है। यह उलाहना
नहीं है, शिकायत
नहीं है। यह
प्रेमियों का
खेल है, यह
प्रेमियों की क्रीड़ा
है। भक्त
भगवान से कहता
है कि तेरे
प्रेम में कुछ
सुख न मिला।
भगवान ही भक्त
के साथ थोड़े
ही खेलता है, भक्त भी
खेलता है!
भगवान ही थोड़े
ही मजाक करता है
भक्त के साथ, भक्त भी
करता है। जहां
अपनापा है, वहां मजाक
भी चलती है।
बिहारी
कोई शिकायत
नहीं कर रहे
हैं। एक पहेली
दे रहे हैं
परमात्मा को
कि सुनो जी!
खूब उलझाया!
मगर तुम्हारे
प्रेम में कुछ
सुख न पाया!
लेकिन यह कोई
दुख से निकली
आवाज नहीं है।
इस शब्द में पगे प्रेम
को देखते हो!
तेरी यारी में
बिहारी सुख न
पायो री! बड़े
सुख में पगे
शब्द हैं।
नहीं, उसकी याद
में मिला दुख
भी सुख है।
उसकी राह पर मिले
कांटे भी फूल
हैं। उसके
मार्ग पर मर
भी जाना पड़े
तो जीवन है।
और उसके बिना
जीवन भी मिले
तो निरर्थक।
उसके बिना फूल
ही फूल मिलें
और कांटे भी न
हों तो उनसे
मरण-शैय्या
ही बनेगी। वे
तुम्हारी
कब्र पर चढ़ाये
गये फूल सिद्ध
होंगे। उसके
मार्ग पर जो
मिल जाये वही
सुख है--दुख भी
मिलें तो भी।
उसके मार्ग पर
जा रहे हैं!
तुमने
कभी किसी
प्रेमी को
अपनी प्रेयसी
की तरफ जाते
देखा! रास्ते
में गड़े
कांटों की
शिकायत करता
है? पता भी
नहीं चलता।
गिर पड़े, चोट
खा जाये, लहूलुहान
हो जाये, तो
भी पता नहीं
चलता।
तुलसीदास, कथा कहती है,
अपनी पत्नी
के प्रेम में
सांप को पकड़कर
चढ़ गये; समझे
कि रस्सी है।
मुर्दे की लाश
का सहारा लेकर
नदी पार उतर
गये; समझे
कि कोई बहती
हुई लकड़ी है।
उसकी
दीवानगी में
जो डूबे हैं, उन्हें कुछ
दुख, दुख
मालूम नहीं
होता। दुख भी
सुख है उसके
मार्ग पर।
संसार के
मार्ग पर सुख
भी दुख हो
जाते हैं।
प्रभु के
मार्ग पर दुख
भी सुख हो
जाते हैं। यह
आध्यात्मिक
जीवन की
कीमिया है, रसायन है।
दूसरा
प्रश्न:
शास्त्रीय
परंपरा से
संन्यासी
माया और काम-भोग
से विमुख होकर
प्रभु-प्राप्ति
के लिए उन्मुख
होता है; योग और भोग
परस्पर
विरोधी जाने
जाते हैं। लेकिन
आपके संन्यास
में भोग से
विरक्ति पर
जोर नहीं है।
अतः कृपा कर
अपने संन्यास
की धारणा को
स्पष्ट करें!
धर्म
का परंपरा से
कोई संबंध
नहीं है।
परंपरा
यानी वह जो मर
चुका। परंपरा
यानी पिटी-पिटाई
लकीर। परंपरा
यानी अतीत के
चरण-चिह्न। अतीत
जा चुका, चरण-चिह्न
रह गये हैं, राहों पर
बने।
धर्म
परंपरा नहीं
है। धर्म तो
नित-नूतन
है--यद्यपि चिर
पुरातन भी।
मगर धर्म
पुराना नहीं
है, परंपरा
नहीं है।
इसलिए तो धर्म
का शिक्षण नहीं
हो सकता; परंपरा
होती तो
शिक्षण हो
सकता था। गणित
की परंपरा है।
विज्ञान की
परंपरा है।
इसलिए विज्ञान
का शिक्षण हो
सकता है।
आइंस्टीन
ने एक खोज कर
ली, सापेक्षता
के सिद्धांत
की, तो अब
कोई हर आदमी
को खोजने की
जरूरत नहीं है;
अब परंपरा
बन गई। अब तो
सिद्धांत एक
दफा खोज लिया
गया। अब ऐसा
थोड़े है कि हर
विद्यार्थी
जो पढ़ने
जायेगा
विश्वविद्यालय
में उसको
आइंस्टीन के
सिद्धांत को
फिर-फिर खोजना
होगा। बात खतम
हो गयी। खोज
पूरी हो गयी।
एक आदमी ने खोज
दिया, फिर
परंपरा बन
गयी। अब दूसरा
तो सिर्फ पढ़
लेगा।
आइंस्टीन को
जो खोजने में
वर्षों लगे
होंगे, वह
अब किसी
विद्यार्थी
को पढ़ने में
घंटे भी न लगेंगे।
तो
विज्ञान की
परंपरा बनती
है, ट्रेडीशन होती है।
धर्म की कोई
परंपरा नहीं
होती। महावीर
को ज्ञान
उपलब्ध हुआ, इससे तुम
सोचते हो, तुम्हें
खोजना न पड़ेगा?
बुद्ध को
ज्ञान उपलब्ध
हुआ, इससे
क्या तुम
सोचते हो बात
खतम हो गई, अब
तुम पढ़ लोगे
धम्मपद? जैसे
आइंस्टीन की
किताब को पढ़कर
कोई सापेक्षता
का सिद्धांत
समझ लेगा, क्या
वैसे ही तुम
कृष्ण की गीता
पढ़कर कृष्ण के
सिद्धांत को समझ
लोगे, या
महावीर के वचन
पढ़कर महावीर
को समझ लोगे? नहीं, तुम्हें
फिर-फिर खोजना
होगा।
इसे
जरा समझना।
फिर-फिर खोजना
होगा। जो चीज
परंपरा बन
जाती है उसको
दुबारा नहीं
खोजना होता; खोज ली गई, बात खतम हो
गई।
धर्म
परंपरा बनता
ही नहीं। उसका
प्रत्येक व्यक्ति
को पुनः पुनः
आविष्कार
करना होता है।
जो बुद्ध ने
खोजा वह बुद्ध
का अनुभव है।
इतनी ही हमें
मिल सकती है
उनसे खबर कि खोजनेवाले
खोज लेते
हैं--बस इतना
आश्वासन।
सत्य नहीं मिलता, सत्य का
आश्वासन
मिलता है।
सत्य नहीं
मिलता, सत्य
भी संभव है, इसकी
संभावना पर
भरोसा मिलता
है। महावीर ने
खोजा, कृष्ण
ने खोजा, क्राइस्ट
ने खोजा, इससे
हमें केवल
इतनी खबर
मिलती है कि
हम यूं ही
व्यर्थ खोज
में नहीं लगे
हैं, मिल
सकता है। बस, इतनी
श्रद्धा
मिलती है।
सत्य नहीं
मिलता, इतना
आत्म-भरोसा
मिलता है कि
हम यूं ही
अंधेरे में
व्यर्थ नहीं
टटोल रहे हैं,
द्वार है; क्योंकि कुछ
लोग निकल गये।
कुछ जो भीतर
थे बाहर हो
गये हैं, तो
हम भी हो
सकेंगे।
लेकिन इससे यह
मत सोचना कि
उनकी किताब पढ़
ली और चल पड़े
द्वार खोजकर
और निकल पड़े
बाहर। द्वार
तुम्हें अपना
पुनः खोजना
पड़ेगा।
इसलिए
धर्म की कोई
परंपरा नहीं
बनती। और धर्म
का कोई शिक्षण
नहीं हो सकता।
धर्म क्रांति
है, परंपरा
नहीं--रिवोल्यूशन!
और जिस पर
घटती है, बस
उस पर ही घटती
है।
जैसे
समझो, तुम्हें
अगर प्रेम
नहीं हुआ किसी
से, तो तुम
क्या खाक
जानोगे कि
प्रेम क्या
है! प्रेम-शास्त्र
लिखे पड़े हैं,
पुस्तकालय
अटे पड़े हैं।
तुम जाकर पढ़ लो,
मजनू को
क्या-क्या हुआ,
लैला को
क्या-क्या हुआ,
शीरी-फरिहाद और
हीर-रांझा--लेकिन
इससे कुछ होगा
न!
पढ़ी-लिखी
बात कहीं भी
जायेगी न, हृदय में छिदेगी
न, तीर
लगेगा न। तुम
वैसे के वैसे
खाली लौट आओगे,
पांडित्य
से भरकर। हां,
प्रेम पर
अगर कोई कहेगा,
तो तुम
प्रवचन दे
सकोगे। हां, प्रेम पर
कोई कहेगा, तुम पी एच. डी.
कर सकोगे।
लेकिन प्रेम
तुम्हारे
जीवन में कहीं
भी न होगा।
प्रेम तो तुम
करोगे तो
होगा। प्रेम
की कोई परंपरा
नहीं होती। प्रेम
तो हर व्यक्ति
को अपना ही
खोजना होता
है--निजी, वैयक्तिक।
और
अच्छा है कि
प्रेम की
परंपरा नहीं
होती; नहीं
तो सोचो, कैसा
दुर्भाग्य
होता, कैसे
दुर्दिन आते!
लोग प्रेम की
किताब पढ़ लेते
और समाप्त हो
जाते!
सोचो
थोड़ा, परमात्मा
ऐसे उधार
मिलता होता, किसी को मिल
गया था पच्चीस
सौ साल पहले, महावीर को, बस खतम!
उन्होंने
तुम्हारा
सारा अभियान
छीन लिया। तब
तो महावीर ने
तुम्हारे
जीवन का सारा
रस छीन लिया। तब
तो वे मित्र न
हुए, दुश्मन
हो गये। तब तो
तुम्हें
उन्होंने
मौका ही न
छोड़ा कुछ
खोजने का, तुम्हें
यात्रा पर
जाने की जगह
ही न छोड़ी।
नहीं, परमात्मा
कुछ ऐसा है, सत्य कुछ
ऐसा है, प्रेम
कुछ ऐसा है कि
जो खोजता है
बस उसी को
दर्शन होते
हैं। हां, अपने
दर्शन की बात
दूसरे से कह
सकता है।
लेकिन उस बात
से किसी को
दर्शन नहीं
होता। उस बात
से किसी की
सोयी प्यास जग
सकती है। उस
बात से किसी
के भीतर
उन्मेष हो
सकता है कि
चलूं, मैं
भी खोजूं; किसी
के भीतर
चुनौती आ सकती
है कि चलूं, मैं क्या कर
रहा हूं
बैठा-बैठा, उठूं! यह
कहां गंवा रहा
हूं जीवन
बाजार में और दुकान
में, उठूं,
उसे खोजूं!
इसलिए
पहली बात:
धर्म परंपरा
नहीं है। धर्म
चिर-पुरातन, नित-नूतन
है। यह
विरोधाभास
है। सदा से है,
लेकिन फिर
भी हर बार
नया-नया खोजना
पड़ता है। जब
धर्म का
सूर्योदय होता
है तो वह निजी
है, वैयक्तिक
है, वह
सामूहिक नहीं
है। वह समाज
की संपत्ति और
थाती नहीं
बनता। अगर तुम
भरोसा न करो
बुद्ध पर तो
बुद्ध के पास
कोई उपाय नहीं
है तुम्हें
भरोसा दिलाने
का। कभी तुमने
इस पर सोचा? अगर तुम कहो
कि हमें शक है
कि तुम झूठ
बोल रहे हो, कि तुम्हें
हुआ है
परमात्मा का
अनुभव, हम
कैसे मानें? तो बुद्ध भी
कंधे बिचकाकर
रह जायेंगे; वे कहेंगे, अब क्या
उपाय है! जो
हुआ है वह
निजी और
वैयक्तिक है।
उसे तुम्हारे
सामने टेबल पर
फैलाकर रख देने
की कोई सुविधा
नहीं है। जो
हुआ है वह
आंतरिक है; उसे बाहर
लाकर प्रगट करने
का कोई उपाय
नहीं है। जो
हुआ है वह
इतने गहन में
हुआ है कि
उसकी
प्रदर्शनी
नहीं सजाई जा सकती,
कि जो भी
आयें देख लें।
इसीलिए
तो दुनिया में
इतने परम बुद्धपुरुष
हुए, लेकिन
फिर भी
नास्तिकता
नहीं मिटती।
मिट नहीं सकती,
क्योंकि
नास्तिक यह कह
रहा है कि
हमें दिखला
दो। नास्तिक
यह कह रहा है, धर्म को
परंपरा बना
दो। अब यह बड़े
मजे की बात है:
जिनको तुम
धार्मिक कहते
हो वे कहते
हैं, धर्म
परंपरा है।
मैं उनको
नास्तिक कहता
हूं। नास्तिक
भी तो यही कह
रहा है कि
धर्म को परंपरा
बना दो, जैसे
विज्ञान
परंपरा है; हम जायें
प्रयोगशाला में
और देख लें; टेस्ट-ट्यूब
में पकड़ दो
परमात्मा को;
बिछा दो
टेबल पर सर्जन
की तुम्हारी
समाधि को; ताकि
ठीक-ठीक
विश्लेषण हो
सके और हम
काट-पीट करके
जान लें कि
मामला क्या है;
ले आओ
तुम्हारा
अनुभव प्रकाश
का, सत्य
का, बाजार
में, जहां
हम सब देख लें;
क्योंकि जो
निज में घटा
है, क्या
पता सपना हो।
क्योंकि
साधारण अनुभव
में सपने ही
निजी होते हैं,
बाकी सब चीज
तो निजी नहीं
है। सिर्फ
सपने निजी
होते हैं, बाकी
तुम जो सपना
रात देखते हो,
तुम अपनी
पत्नी को भी
तो उसमें नहीं
बुला सकते कि
आओ, आज
निमंत्रण है।
तुम अपनी
पत्नी को भी
तो नहीं कह
सकते कि आज, चलो दोनों
साथ-साथ एक ही
सपना देखें।
दो
आदमी एक
मनोवैज्ञानिक
के पास इलाज
करवा रहे थे।
दोनों ने एक
दिन सोचा, दफ्तर से
बाहर निकलते
हुए, एक
मजाक करने की
बात सोची। एक
अप्रैल आ रही
थी, तो
सोचा कि
अप्रैल के दिन
एक मजाक
करें...मैं भी आऊंगा और एक
सपना कहूंगा।
और दोनों ने
सपना तय कर
लिया मनोवैज्ञानिक
को सुनाने के
लिए। फिर शाम
को तुम आना और
तुम भी वही
सपना कहना।
देखें, इस
पर क्या
गुजरती है!
क्योंकि दो
आदमी एक ही सपना
तो देख ही
नहीं सकते। तो
उन्होंने
सपना तय कर
लिया विस्तार
से; एक-एक
बात कि
क्या-क्या हुआ
सपने में, लिख
लिया, कंठस्थ
कर लिया। सुबह
एक आया और
उसने कहा कि रात
एक सपना देखा,
इसका अर्थ
करें।
मनोवैज्ञानिक
ने उसका सपना सुना।
दोपहर दूसरा
आया। उसने भी
वही सपना दोहराया।
उसने कहा कि
रात एक सपना
देखा--और
विस्तार में
इंच-इंच वही!
और वह देखता
रहा बार-बार
कि
मनोवैज्ञानिक
पर क्या असर
हो रहा है। लेकिन
वह बड़ा हैरान
हुआ कि कुछ
खास असर नहीं
हो रहा है।
पूरा सपना
सुनाने के बाद
उसने पूछा, "आप क्या
सोचते हैं इस
सपने के बाबत?'
मनोवैज्ञानिक
ने कहा कि मैं
बड़ा परेशान
हूं, क्योंकि
तीन आदमी तो
यह सपना मुझे
दिन में सुना
ही चुके हैं।
तीन आदमी! वे
दोनों बड़े
हैरान हुए कि
यह तीसरा कौन
है! क्योंकि
तीसरे को तो
उन्होंने
बताया नहीं
था। सोचते थे,
मजाक
मनोवैज्ञानिक
से कर रहे हैं,
लेकिन
मनोवैज्ञानिक
ने मजाक उनके
साथ कर दी। वे
बड़ी मुश्किल
में पड़ गये कि
अब यह तीसरे
का कैसे पता
चले! और हद्द
हो गई, यह
तो सपना हम
दोनों ने भी
देखा नहीं, सिर्फ तय
किया था, तीसरा
कौन है! दोनों
दूसरे दिन
आये।
उन्होंने कहा,
"माफ करें!
हम मजाक कर
रहे थे। लेकिन
तीसरा कौन है?'
उन्होंने
कहा, "रातभर
हम सो नहीं
सके।'
मनोवैज्ञानिक
ने कहा, "तीसरा
कोई नहीं, वह
मैं मजाक कर
रहा था, क्योंकि
दो आदमी तो
देख ही नहीं
सकते। वह तो मैं
जान ही गया कि
जब दो ने एक
सपना देखा तो
दोनों तय करके
आये हैं एक
अप्रैल की वजह
से। इसलिए मैंने
कहा कि तीन तो
कह ही चुके।
हद्द हो गई!
दो
आदमी एक सपना
देख ही नहीं
सकते। सपना
निजी है।
इसीलिए तो
नास्तिक कहता
है, भगवान
सपना है।
क्योंकि तुम
कहते हो, हमने
देखा, लेकिन
दिखाओ। सपने
में और
तुम्हारे
भगवान के अनुभव
में फर्क क्या
हुआ? सिर्फ
सपना ही ऐसी
चीज है जो
दूसरे को नहीं
दिखाया जा
सकता। इसलिए
भगवान
तुम्हारा
सपना है। यह
कुंडलिनी-जागरण
और प्रकाश के
अनुभव--ये सब
तुम्हारे
सपने हैं।
नास्तिक कहता
है, इसमें
और सपने में
फर्क कहां? फर्क तो एक
ही होता है
सपने में और
सचाई में कि सचाई
सबकी होती है,
सामूहिक
होती है, सार्वजनिक
होती है। और
सपना निजी
होता है। इसलिए
इतने बुद्धपुरुष
हुए और एक
नास्तिक को
सारे बुद्धपुरुष
मिलकर भी राजी
नहीं कर सकते,
क्योंकि जब
तक तुम संदेह
किये चले जाओ,
कोई उपाय
नहीं है, कोई
प्रमाण नहीं
है।
परमात्मा
अनुभव है और
उसका कोई
प्रमाण नहीं छूटता।
जिसको होता है, बस उसको
होता है। और
जिसको होता है,
वह अकेला पड़
जाता है। और
जिनको नहीं
हुआ है, वे
अरबों-खरबों
हैं। इसलिए तो
बुद्ध हों, महावीर हों,
कृष्ण हों,
क्राइस्ट
हों--वे सभी
कहते हैं, श्रद्धा
से सुनोगे
तो शायद कुछ
हो सके; संदेह
से सुनोगे
तो द्वार तो
पहले ही बंद
हो गया।
श्रद्धा पर इतना
जोर क्यों है?
इसीलिए कि
धर्म की
परंपरा नहीं
बन सकती। जिसको
हुआ है, अगर
तुम्हारे मन
में उसके
प्रति थोड़ी
सहानुभूति हो,
लगाव हो, थोड़ी चाहत
का रंग हो, तुम
दोनों में कुछ
तालमेल हो, तुम उस आदमी
को इतना प्रेम
करते हो कि
तुम जानते हो
कि झूठ वह बोल
न सकेगा--तभी।
अगर तुम्हारे
मन में जरा-सा
भी संदेह है
कि हो सकता है,
यह आदमी झूठ
बोल रहा हो; या यह भी हो
सकता है कि
झूठ न बोल रहा
हो, खुद ही
धोखा खा गया
हो; चाहकर झूठ न बोल
रहा हो, लेकिन
खुद ही ने
सपना इतना
गहरा देख लिया
हो कि इसे
भरोसा आ गया
हो; या तो
यह धोखा दे
रहा है या खुद
धोखा खा रहा
है--इतना-सा
संदेह काफी है,
कि सत्य
तुम्हारे लिए
बंद हो गया।
बुद्धपुरुष
तुम्हारे
भीतर केवल
प्यास को जगा
सकते हैं; वह भी
तुम्हारी
श्रद्धा का
सहारा हो तो।
तो
पहली तो बात, धर्म कोई
परंपरा नहीं
है। संन्यास
भी कोई परंपरा
नहीं है।
संन्यास एक-एक
व्यक्ति का
निजी उदघोषण
है; एक-एक
व्यक्ति की
परमात्मा के
द्वारा
स्वीकार की गई
चुनौती
है--अलग-अलग
है। इसलिए हर
व्यक्ति में
जब संन्यास
घटित होगा तो
भिन्न घटित
होगा।
संन्यास बड़ी
निजी बात है।
बड़ी संभावना
है।
क्राइस्ट
हैं, संन्यस्त
पुरुष हैं; पर इनका
संन्यास
महावीर जैसा
नहीं है।
क्राइस्ट को
कोई अड़चन न थी,
कोई मित्र
बुलाये और
शराब पीने को
दे दे तो पी
लेते थे।
महावीर तो
पानी भी न पीयेंगे
ऐसा, शराब
तो दूर की
बात। महावीर
तो कहते हैं, किसी के
बुलाये वे
जायेंगे ही
नहीं; क्योंकि
किसी के
बुलाये गये तो
संबंध निर्मित
होता है। शराब
की तो छोड़ो,
पानी पीने
भी तुमने
महावीर को कहा
कि आज मेरे घर
आ जाना, भरी
दुपहरी है, धूप है, तेज
है, थोड़ा
छाया में बैठ
जाना, पानी
पी लेना--तो वे
न आयेंगे।
क्योंकि वे
कहते हैं कि
जिसका
निमंत्रण
तुमने
स्वीकार किया उससे
संबंध बना
लिया।
तो
महावीर भीख भी
मांगते हैं तो
बड़े अनूठे ढंग
से मांगते थे।
उनकी भीख
मांगने का ढंग
भी अनूठा है; ऐसा दुनिया
में कभी किसी
ने भीख नहीं
मांगी है।
इसलिए कहता
हूं, संन्यास
बड़ा अनूठा है
और प्रत्येक
के लिए अलग-अलग
घटता है।
महावीर
सुबह उठकर
ध्यान में
निर्णय करते
कि आज अगर
किसी घर के
सामने ऐसी
घटना घटी हुई
मिलेगी तो
वहां मैं हाथ
पसार दूंगा।
घटना--कि घर के
सामने गाय खड़ी
हो और उसके
सींग में गुड़
लगा हो। कोई
ऐसा रोज नहीं
घटता ऐसा। एक
दफा यह बात उन्होंने
तय कर ली, क्योंकि
वे कहते थे, अगर
अस्तित्व को
मुझे भोजन
देना है तो वह
मेरी शर्त
पूरी करेगा, नहीं तो
नहीं देगा।
इसका मतलब है
कि मुझे भूखा
रखना चाहता है
तो मैं भूखा
रहूंगा। अगर
मेरे बचने की
कोई भी जरूरत
है अस्तित्व
को, तो
मेरी शर्त
पूरी करेगा; नहीं तो मैं
समझ लूंगा कि
ठीक है, बात
खतम हो गई, अस्तित्व
नहीं चाहता कि
मैं बचूं। तो
मैं अपनी कोई
चेष्टा न
करूंगा। अगर
अस्तित्व ही
चेष्टा करेगा
तो ठीक है।
तो एक
बार ऐसा हुआ
कि तीन महीने
तक उन्होंने
यह ले लिया
व्रत और वे यह
किसी को कहते
नहीं थे। अब
तो जैन मुनि, दिगंबर, जो
इसको अब भी
मानते हैं, वे कहकर
चलते हैं।
उन्होंने सब
बता रखा है।
और उनके सब
बंधे हुए
प्रतीक हैं, वे सबको
मालूम
हैं--उनके
भक्तों को, कि घर के
सामने दो केले
लटके हों, तो
जितने घरों
में दिगंबर
जैन मुनि जाता
है, वह सब
केले लटकाये
रखता है। अब
उनके बंधे हुए
प्रतीक
हैं--दो केले
लटके हों...इस
तरह के कुछ।
चार-छह चीजें
एक मुनि रखता
है, वे
उन्हीं-उन्हीं
को...। तो वह सब
कर देते हैं
इंतजाम। एक ही
घर में सभी
चीजें लटका
देते हैं। तो
स्वीकार हो
गया, यह
बेईमानी है।
महावीर
ने कहा कि गाय
खड़ी हो, गुड़
सींग पर लगा
हो। तीन महीने
तक भोजन न
मिला। पर एक
दिन मिला। बैलगाड़ी
जाती थी गुड़
से भरी और
पीछे से एक
गाय ने आकर गुड़
खाने की
चेष्टा की और
उसके सींग में
गुड़ लग गया।
बस जिस घर के
सामने वह गाय
खड़ी थी, वहां
महावीर ने
अपने हाथ फैला
दिये भोजन के
लिए। तीन
महीने बाद
अस्तित्व ने
चाहा तो ठीक।
तो
महावीर तो
निमंत्रण भी
स्वीकार न
करेंगे। और
जीसस हैं, कि न केवल
निमंत्रण
स्वीकार कर
लेते हैं, अगर
कोई शराब भी पिलाये तो
वह भी पी लेते
हैं। वे कहते
हैं, क्या
अस्वीकार? किस
बात का
अस्वीकार? क्योंकि
सब अस्वीकार
अहंकार
केंद्रित है।
चलो, मित्रों
ने चाहा है, पी लो तो पी
लेते हैं।
अस्वीकार में
उन्हें हिंसा
मालूम होती
है। वे कहते
हैं, "नहीं'
कहना किसी
को दुख
पहुंचाना है।
अब बड़ी
मुश्किल की
बात है।
महावीर
नग्न खड़े हैं, कृष्ण सुंदर
वस्त्रों से सजे हैं।
क्योंकि
कृष्ण कहते
हैं, जब
परमात्मा
अवतरित होता
है तो उसकी
विभूति अवतरित
होती है, उसका
सौंदर्य
अवतरित होता
है, उसके
हजार-हजार रंग
और रूप अवतरित
होते हैं। परमात्मा
एक इंद्रधनुष
है। उसका बड़ा
ऐश्वर्य है।
उसकी बड़ी
महिमा है। इसीलिए
तो हम उसे
ईश्वर कहते
हैं। ईश्वर
यानी जिसका
ऐश्वर्य है।
तो जब कृष्ण
में परमात्मा
उतरा है, तो
वे उसका
स्वागत करते
हैं, सब
तरह से; जैसे
तुम्हारे घर
कोई मेहमान आ
जाये तो तुम
घर को सजाते
हो। तो कृष्ण
कहते हैं, जब
परमात्मा
उतरा हो तो
देह को सजाना
होगा। यह घर
है। इसमें वह
उतरा। उसने
अनुकंपा की।
तो वे बांसुरी
बजाते हैं। वे
मोर-मुकुट
लगाते हैं। महावीर
नग्न खड़े हैं।
सजाने की तो
बात दूर, बाल
बढ़ जाते हैं
तो हाथ से उखाड़ते
हैं। नाई के
पास नहीं जाते,
क्योंकि यह
तो नाई के पास
जाना समाज में
प्रवेश होगा।
इसका अर्थ हुआ
कि तुम्हें
नाई की जरूरत
है। समाज का
क्या अर्थ
होता है? मुझे
दूसरे की
जरूरत
है--यानी
समाज। मैं
अकेला नहीं रह
सकता, नाई
की जरूरत पड़ती
है--तो भी इतना
तो समाज हो ही गया
मेरा। कभी नाई
की जरूरत पड़ती
है, कभी
चमार की जरूरत
पड़ती है, कभी
दर्जी की
जरूरत पड़ती
है। तो यही तो
समाज है। समाज
का अर्थ क्या
है?
इसलिए
मैं कहता हूं, जैनियों का
अब तक कोई
समाज नहीं है।
क्योंकि कोई
जैन न तो चमार
है, न कोई
जैन दर्जी है,
न कोई जैन
भंगी है। तो
जैनियों का
कोई समाज नहीं
है। जैनी तो
हिंदुओं की
छाती पर जीते
हैं, उनका
कोई समाज नहीं
है। क्योंकि
कोई जैन चमार
होने को राजी
नहीं है। तो समाज
तुम्हारा
कैसा? जैनियों
से मैं कहता
हूं तुम एक
बस्ती तो बसाकर
बता दो, सिर्फ
जैनियों की।
तब हम कहेंगे
कि तुम्हारा कोई
समाज है। कोई
जैनी राजी न
होगा भंगी
बनने को। तो
तुम समाज कैसे?
तो तुम्हें
हिंदुओं की
जरूरत है, मुसलमानों
की जरूरत है, ईसाइयों की
जरूरत है। तो
तुम परोपजीवी
हो, तुम्हारा
अपना कोई समाज
नहीं है।
जैन अब
तक केवल
संस्कृति है, समाज नहीं।
वह केवल
वायवीय बातें
हैं।
इसलिए
मैंने पीछे
कहा भी कि ये
पच्चीस सौ
वर्ष महावीर
के पूरे हुए, तुम कुछ भी न
करो, एक
जैनियों की
बस्ती तो बना
दो--सिर्फ
जैनियों की, जो पूरी तरह
जैन हो, उससे
कम से कम एक
नमूना तो
मिलेगा कि
जैनियों का
समाज कैसा
होगा। वहां
बड़ी कलह मच
जायेगी, क्योंकि
भंगी कौन बने,
जूता कौन सिये, खेती
कौन करे!
क्योंकि जैन
को खेती करनी
नहीं चाहिए, हिंसा होती
है। सर्जन कौन
हो, चीरा-फाड़ी कौन
करे! बड़ी
कठिनाई खड़ी हो
जायेगी। बड़ी
मुश्किल हो
जायेगी।
समाज
का अर्थ होता
है: संबंध, जरूरत।
महावीर अकेले जीये--इतने
अकेले जीये
कि अपने पीछे
समाज का कोई
सूत्र नहीं
छोड़ गये।
उन्होंने तो
अकेले जी लिया,
लेकिन जो
उनके पीछे चले,
वे बड़ी
मुश्किल में
पड़े। क्योंकि
यह बिलकुल
निजी, एकांत,
अकेले होने
का आग्रह है
महावीर का।
उन्होंने कोई
समाज बनाया
नहीं; लेकिन
जो पीछे
चलेंगे
अनुयायी, वे
तो समाज के
बिना नहीं जी
सकते। उनको तो
कपड़े भी चाहिए
होंगे, तो कपड़ा कोई बुनेगा, कपास कोई उगायेगा।
उन्हें तो
भोजन भी चाहिए
होगा, तो
खेती कोई
करेगा, वृक्षों
को कोई
काटेगा।
उन्हें तो दवा
भी चाहिए होगी,
ऐलोपेथी की दवा भी
चाहिए होगी, जो पशुओं को
मारकर बनाई
जायेगी, किसी
के खून से
बनेगी, किसी
की हड्डी से
बनेगी--वह भी
कोई करेगा।
उन्हें जूते
भी पहनने
होंगे, तो
चमार भी होगा,
मरे हुए
जानवरों की
चमड़ी भी उधेड़ी
जायेगी; मरे
हुए काफी न
होंगे तो
जिंदा मारे भी
जायेंगे। यह
सब चलेगा।
तो
इसमें तो
महावीर खड़े हो
जाते बाहर, क्योंकि न
उनको जूते की
जरूरत, न
उनको कपड़े की
जरूरत।
जरा
सोचो तो, उनको
समाज की जरूरत
नहीं। वे यह
कह रहे हैं कि यह
हम खड़े हैं हमको
कोई समाज की
जरूरत नहीं।
वे नाई के पास
भी नहीं जाते।
वे एक साथ में
उस्तरा तो रख
सकते थे।
उस्तरा भी
नहीं रखते। वे
कहते हैं, उस्तरा
रखा तो
लोहार...। वे
हाथ से उखाड़ते
हैं बाल।
इससे
ज्यादा
स्वतंत्र
व्यक्ति
पृथ्वी पर दूसरा
नहीं हुआ!
समाज मुक्त!
समाज-शून्य! निपट
समाज-शून्य!
तुम
कहोगे कि भीख
तो मांगते
हैं। मगर
महावीर की
शर्त देखी!
महावीर वहां
भी धन्यवाद
नहीं देते, अगर तुम
उनको भीख देते
हो। वे कहते
हैं कि अस्तित्व
ने चाहा। अगर
तुम न भी
होओगे तो
महावीर कहेंगे
कि वृक्ष के
नीचे खड़ा हो जाऊंगा, अगर फल टपक
जाये अपने से
तो ठीक, पांच
मिनट राह देख
लूंगा, हट जाऊंगा।
वे महीनों
भूखे रहे।
बारह
वर्ष की
तपश्चर्या के
काल में, कहते
हैं केवल तीन
सौ साठ दिन
उन्होंने
भोजन लिया।
बारह वर्ष के
लंबे काल में,
केवल एक
वर्ष भोजन
लिया, ग्यारह
वर्ष भूखे
रहे। कभी
महीना भर भूखे,
फिर एक दिन
भोजन; कभी
पंद्रह दिन
भूखे, फिर
एक दिन भोजन; कभी आठ दिन
भूखे, फिर
एक दिन भोजन; ऐसा मिला-जुलाकर
बारह साल में
एक साल भोजन
और ग्यारह साल
भूखे। औसत
ग्यारह दिन के
बाद उन्होंने
भोजन लिया, बारहवें दिन। मगर यह
भोजन के लिए
वे धन्यवाद
नहीं देते
किसी को। वे
कहते हैं, तुम्हारा
कोई धन्यवाद
नहीं है, तुम्हारा
कोई अनुग्रह
नहीं। मैंने
तुम्हारा
निमंत्रण
स्वीकार नहीं
किया। मैं तो
अपने हिसाब से
चल रहा हूं।
अस्तित्व
देना चाहता है,
ले लेता हूं;
अस्तित्व
नहीं देता तो
मांग भी नहीं
करता हूं। वे
द्वार पर आकर
खड़े हो जाते
हैं, वे
मांग भी नहीं
करते। वे यह
भी नहीं कहते
कि दो; क्योंकि
देने का मतलब
तो होगा,
कर्म की
शुरुआत हो गई,
लेना-देना
शुरू हो गया।
इधर
कृष्ण हैं।
परमात्मा के
लिए जगह बनाते
हैं तो शरीर
सजाते हैं।
उस बात
में भी अर्थ
मालूम पड़ता है
कि जब प्रभु घर
आये हों तो
ऐसा क्या
रूखा-सूखा स्वागत
करना! बंदनवार
बनाओ! स्वागत
द्वार बनाओ!
जो भी हो
फूल-पत्ती, लटकाओ! लेकिन कुछ
तो करो।
साज-संगीत बजाओ।
सुगंध फैलाओ।
धूप-दीप जलाओ।
कुछ तो करो।
प्रभु द्वार
पर आये हैं!
कृष्ण
को बिलकुल न
जंचेगा कि
नंगे खड़े हो
जाओ, प्रभु
द्वार पर आये
हैं। महावीर
को जंचा; क्योंकि
महावीर कहते
हैं कि प्रभु
को किसी ऐश्वर्य
की कोई जरूरत
नहीं है, क्योंकि
वह स्वयं
ऐश्वर्यवान
है। और हम जो
भी करेंगे वह
छोटा ही होगा,
वह काफी न
होगा।
दोनों
के तर्क सही
हैं। मैं
तुमसे यह कह
रहा हूं कि
अगर तुमने एक
का तर्क पकड़
लिया तो तुम
अंधे हो जाओगे, दूसरे का
तर्क न देख
पाओगे। और इस
जगत में जितने
लोग संन्यास
को उपलब्ध हुए,
उन सब का
अपने
संन्यस्त
होने का ढंग
है।
इसलिए
संन्यास की
कोई परंपरा
नहीं है।
संन्यास
व्यक्तिगत
क्रांति है।
अब "संन्यासी
माया और
काम-भोग से
विमुख होकर
प्रभु-प्राप्ति
के लिए उन्मुख
होता है', यह
बात भी सच
नहीं है।
जिसने पूछा है,
उनको
ठीक-ठीक पता
नहीं है; उन्हें
भक्ति मार्ग
का पता नहीं
है। क्योंकि भक्ति
मार्ग का
संन्यासी भोग
से विमुख नहीं
होता, परमात्मा
का ही भोग
शुरू करता है।
जिन मित्र ने
पूछा है, उन्हें
हिंदू, शंकराचार्य,
जैन, महावीर,
गौतम
सिद्धार्थ, बुद्ध--इनकी
परंपरा के
संन्यासियों
का बोध है। और
ऐसा हुआ है कि
इनकी परंपरा
इतनी प्रभावी हो
गयी कि
धीरे-धीरे ऐसा
लगने लगा कि
दूसरी कोई
परंपरा नहीं
है। रामानुज
का भी
संन्यासी है।
निम्बार्क का
भी संन्यासी
है। चैतन्य
महाप्रभु का
भी संन्यासी
है। मगर वे
ओझल हो गये।
बुद्ध, महावीर,
और
शंकराचार्य
इतने प्रभावी
हो गये--और
प्रभावी हो
जाने का कारण
है, क्योंकि
तुम सब भोगी
हो। इसे
तुम्हें जरा
अड़चन होगी
समझने में।
चूंकि तुम सब
भोगी हो, त्यागी
की भाषा
तुम्हें समझ
में आती है।
क्योंकि
त्यागी की
भाषा तुमसे
विपरीत है। जो
तुम्हारे पास
नहीं है, उसमें
आकर्षण पैदा
होता है। गरीब
अमीर होना चाहता
है। तुम भोगी
हो, तुम
त्यागी होना
चाहते हो। तुम
कहते हो, भोग
में तो दुख ही
दुख पाया; इसलिए
महावीर, शंकर
और बुद्ध ठीक
ही कहते होंगे
कि त्याग में
सुख है, क्योंकि
एक तो हमें
अनुभव हो गया
कि भोग में
दुख है।
रामानुज, निम्बार्क,
वल्लभ, चैतन्य--इनकी
भाषा तुमने
नहीं समझी; क्योंकि वे
कहते हैं कि
तुम्हारे भोग
में दुख नहीं
है, तुम्हारा
भोग गलत चीजों
का हो रहा है, इसलिए दुख
है। भोग भगवान
का करो! तुमने
अभी स्त्री को
भोगा है; लेकिन
कभी स्त्री
में भगवान को
देखकर भोगो, फिर दुख
समाप्त हुआ!
तुमने अभी
भोजन को भोगा
है, दुख है;
लेकिन भोजन
में भगवान को
देखकर भोगो, दुख समाप्त
हुआ।
उनकी
बात में भी
सार है। अब
इधर मैं हूं।
मैं कहता हूं
कि दोनों का
संगीत पैदा हो
जाये तो संन्यास
है। मैं कहता
हूं, तुम्हारा
त्याग ऐसा हो
कि भोगी के
भोग से ज्यादा
गहरा और तुम्हारा
भोग ऐसा हो कि
त्यागी के
त्याग से
ज्यादा गहरा।
तो मैं तुमसे
यह कह रहा हूं
कि एक परम समन्वय
हो। तुम
भोगो--त्यागते
हुए, तुम त्यागो--भोगते
हुए।
उपनिषद
कहते हैं, तेन
त्यक्तेन भुंजीथाः।
उन्होंने ही
भोगा, जिन्होंने
त्यागा। या
उसका ऐसा भी
अर्थ कर सकते
हैं कि उन्होंने
ही त्यागा
जिन्होंने
भोगा। वह वचन बड़ा
अपूर्व है।
ऐसा भोगो, ऐसा
गहरा भोगो कि
भोग में ही
त्याग घटित हो
जाये।
अब इसे
थोड़ा समझो। जब
तुम
अधूरा-अधूरा
भोगते हो तो
भोग सरकता है।
जो भी जीवन
में अधूरा
अनुभव है, वह पीछा
करता है। जब
भी अनुभव पूरा
हो जाता है, छुटकारा हो
जाता है। अगर
तुमने स्त्री
को ठीक से न
भोगा, तो
तुम्हारे मन
में स्त्री की
कामना छाया
डालती रहेगी।
अगर तुमने ठीक
से भोग लिया, एक स्त्री
को भी एक
संभोग में भी
ठीक से अनुभव कर
लिया और जान
लिया, क्या
है, तुम
मुक्त हो गये!
उसी क्षण तुम
भोग के बाहर
हो गये।
गहरा
भोग त्याग ले
आता है। और
गहरे त्यागी
के भोग की
चर्चा करनी
मुश्किल है, क्योंकि वही
भोगना जानता
है।
तुम
जरा सोचो! जब
कृष्ण भोजन
करते होंगे या
महावीर भी जब
भोजन करते
होंगे, तो
तुमने ऐसा
भोजन कभी भी
नहीं किया
जैसा महावीर
करते होंगे।
चाहे उन्हें
रूखी-सूखी
रोटी ही मिली
हो, उस
रूखी-सूखी में
से भी ब्रह्म
को निचोड़
लेते होंगे।
उस रूखी-सूखी
रोटी में से
सिर्फ खून और
मांस-मज्जा ही
नहीं आती थी
उनको, ब्रह्म
भी आता था।
इसलिए तो
उपनिषद कहते
हैं: अन्नं
ब्रह्म! अन्न
ब्रह्म है।
जिन्होंने
लिखा है, उन्होंने
खूब भोगकर
लिखा होगा, खूब अन्न को परखकर
लिखा होगा।
एक
संन्यासी
बीमार था।
थोड़ा-थोड़ा
भोजन लेता था।
चिकित्सकों
ने उससे कहा
कि इतने थोड़े
भोजन से काम न
चलेगा, थोड़ा
और भोजन लो।
तो उस
संन्यासी ने
कहा, इतना
काफी है, क्योंकि
इसमें से मैं
वही नहीं ले
रहा हूं जो
दिखाई पड़ता है,
वह भी ले
रहा हूं जो
दिखाई नहीं
पड़ता। और जब
मैं श्वास
लेता हूं, तब
भी मैं भोजन
कर रहा
हूं--क्योंकि
प्राण...। और जब
मैं आकाश को
देखता हूं, तब भी भोजन
कर रहा
हूं--क्योंकि
आकाश...। जब
सूरज की
किरणें मुझ पर
पड़ती हैं, तब
भी भोजन कर
रहा
हूं--क्योंकि
किरणें
प्रवेश करती
हैं। भोजन तो
चौबीस घंटे चल
रहा है। ब्रह्म
चौबीस घंटे
हजार-हजार
मार्गों से
तुम में उतर
रहा है और नाच
रहा है।
जिसने
ठीक से भोगा, वह हर भोग
में ब्रह्म को
खोज लेगा। और
जिसने ठीक से
त्यागा, उसकी
आंख इतनी
शुद्ध और
निर्मल हो
जाती है कि
उसे सिवाय
ब्रह्म के फिर
कुछ दिखाई
पड़ता नहीं।
अब तक
ब्राह्मण और
श्रमण
संस्कृतियां
विपरीत खड़ी
रही हैं।
श्रमण-संस्कृति
त्याग की संस्कृति
है।
ब्राह्मण-संस्कृति
भोग की
संस्कृति है।
ब्राह्मण-संस्कृति
परमात्मा के
ऐश्वर्य की
संस्कृति है, परमात्मा के
विस्तार की।
श्रमण-संस्कृति
त्याग की
संस्कृति है,
वीतराग की,
परमात्मा
के संकोच की, वापसी
यात्रा है।
इसीलिए
रामानुज, वल्लभ
और निम्बार्क;
शंकर को
हिंदू नहीं
मानते। वे
कहते हैं, प्रच्छन्न
बौद्ध, छिपा
हुआ बौद्ध है
यह आदमी।
निम्बार्क, शंकर के बीच;
वल्लभ, शंकर
के बीच; रामानुज,
शंकर के बीच
बड़ा विवाद है।
और मैं भी
मानता हूं, शंकर हिंदू
नहीं हैं--हो
नहीं सकते।
शंकर ने बड़े
छिपे रास्ते
से
श्रमण-संस्कृति
को ब्राह्मण-संस्कृति
की छाती पर
हावी कर दिया।
इसलिए शंकर के
संन्यासी को
तुम जानते हो,
वही
संन्यासी हो
गया खास। वह
संन्यासी
बिलकुल हिंदू
है ही नहीं।
तुमने
उपनिषद के
ऋषि-मुनियों
को देखा है, सुनी है
उनकी बात, उनकी
खबर, उनकी
कहानी सुनी? उपनिषद के
ऋषि-मुनि
गृहस्थ थे।
पत्नी थी उनकी,
बच्चे थे
उनके, घर-द्वार
था उनका, बाग-उपवन
थे उनके, गऊएं
थीं उनकी, धन-धान्य
था; त्यागी
नहीं थे।
बुद्ध और जैन
अर्थों में
त्यागी नहीं
थे। भोगकर
ही भगवान को
उन्होंने
जाना था। शंकर
ने श्रमण-संस्कृति
की बात का
प्रभाव
देखकर...क्योंकि
जब श्रमण साधु
खड़े हुए तो
स्वभावतः
हिंदू ब्राह्मण,
ऋषि-मुनि
फीके पड़ने
लगे। क्योंकि
ये तेजस्वी मालूम
पड़े। सब छोड़
दिया! ये
चमत्कारी
मालूम पड़े, क्योंकि बड़े
उलटे मालूम
पड़े।
स्वभावतः
रास्ते पर सब
लोग चलते हैं,
कोई जरा
शीर्षासन
लगाकर खड़ा हो
जाये, तो
भीड़ इकट्ठी हो
जायेगी। वही
आदमी पैर के
बल खड़ा रहे, कोई न आयेगा;
सिर के बल
खड़ा हो जाये, सब आ
जायेंगे। वे
कहेंगे, क्या
मामला हो गया!
कोई फूल चढ़ाने
लगेगा, कोई
हाथ जोड़ने
लगेगा कि कोई
चमत्कार कर
रहा है, यह
आदमी बड़ा
त्यागी है!
उलटा आकर्षित
करता है।
तो जैन
और बौद्ध
संन्यासियों
ने बड़ा आकर्षण
पैदा किया।
शंकर ने बड़े
छिपे द्वार से
उनकी ही बात
को हिंदू-छाती
पर सवार करवा
दिया। अगर कोई
गौर से देखे
तो हिंदू
संस्कृति को बचानेवाले
शंकर नहीं हैं, नष्ट
करनेवाले
हैं। हालांकि
लोग सोचते हैं,
शंकर ने बचा
लिया--बचाया
नहीं! यह
बचाना क्या बचाना
हुआ? यह तो
नाम का ही
फर्क हुआ।
हिंदू
संस्कृति भोग
का परम
स्वीकार है।
और भोग में ही
परमात्मा का
आविष्कार है।
श्रमण-संस्कृति
त्याग का, संन्यास का,
छोड़ने का, विरक्ति का,
वैराग्य का
मार्ग है। और
उसी से
परमात्मा को पाना
है।
मेरे
देखे, त्याग
और भोग दो
पंखों की तरह
हैं।
श्रमण-संस्कृति
भी अधूरी है, ब्राह्मण-संस्कृति
भी अधूरी है।
मैं उसी आदमी
को पूरा कहता
हूं, उसी
को मैं परमहंस
कहता हूं, जिसके
दोनों पंख सुदृढ़
हैं; जो न
भोग की तरफ
झुका है न
त्याग की तरफ
झुका है; जिसका
कोई चुनाव ही
नहीं है; जो
सहज शांत जो
भी घट रहा है, उसे स्वीकार
किया है; घर
में है तो घर
में स्वीकार
है, मंदिर
में है तो
मंदिर में; पत्नी है तो
ठीक, पत्नी
मर गई तो ठीक; पत्नी होनी
ही चाहिए, ऐसा
भी नहीं है; पत्नी नहीं
ही होनी चाहिए,
ऐसा भी नहीं
है--जिसका कोई
आग्रह नहीं है,
निराग्रही!
संन्यास
का मैं अर्थ
करता हूं:
सम्यक न्यास।
जिसने अपने
जीवन को
संतुलित कर
लिया है; जिसने
अपने जीवन को
ऐसी बुनियाद
दी है जो अपंग
नहीं है, जो
अधूरी नहीं है,
जो
परिपूर्ण है।
भोग और त्याग
दोनों जिसमें
समाविष्ट हैं,
वही मेरे
लिए संन्यासी
है।
और मजा
ही क्या, छोड़कर
भाग गये तब
छूटा तो मजा
क्या! यहां
रहे और छोड़ा, बाजार में
खड़े रहे और
भीतर हिमालय
प्रगट हुआ...!
यह हमीं हैं
कि तेरा दर्द छुपाकर
दिल में
काम
दुनिया के
बदस्तूर किए
जाते हैं।
छोड़
देना आसान है, पकड़ रखना भी
आसान है; पकड़े
हुए छोड़ देना
अति कठिन है।
बड़ी कुशलता
चाहिए। कृष्ण
ने जिसको कहा
है: योगः कर्मसु कौशलम्।
बड़ी कुशलता
चाहिए! योग की
कुशलता चाहिए!
जैसे कि कोई
नट सधी
हुई रस्सी पर
चलता है, दो
खाइयों के बीच
खिंची हुई
रस्सी पर चलता
है। तो देखा, कैसा
सम्हालता है,
संतुलित
करता है; कभी
बायें झुकता
कभी दायें
झुकता; जब
दिखता है, बायें
झुकना ज्यादा
हो गया, अब गिरूंगा, तो दायें
झुकता है, ताकि
बायें की तरफ
जो असंतुलन हो
गया था, वह
संतुलित हो
जाये। फिर
देखता है, अब
दायें तरफ
ज्यादा झुकने
लगा, तो
बायें तरफ
झुकता है।
बायें को
दायें से सम्हालता
है, दायें
को बायें से
सम्हालता है।
ऐसे बीच में तनी
रस्सी पर चलता
है।
और धर्र्म
तो खड्ग की
धार है। वह तो
बड़ा बारीक
रास्ता है, संकीर्ण
रास्ता
है--ठीक खिंची
हुई रस्सी की
तरह दो खाइयों
के बीच में।
इधर संसार है,
उधर
परमात्मा है,
बीच में
खिंची हुई
रस्सी है--उस
पर चलनेवाले
को बड़ा कुशल
होना चाहिए।
तो अगर
तुम्हारे
जीवन में
प्रेम बुझ
जाये और फिर
वैराग्य हो, तो कुछ खास न
हुआ।
प्रेम
जलता रहे और
वैराग्य हो तो
कुछ हुआ।
बुझी
इश्क की राख अंधेर
है
मुसलमां
नहीं राख का
ढेर है
शराबे-कुहन
फिर पिला साकिया
वही
जाम गर्दिश
में ला साकिया
मुझे
इश्क के पर
लगा कर उड़ा
मेरी
खाक जुगनू बना
कर उड़ा
जिगर
में वही तीर
फिर पार कर
तमन्ना
को सीने में
बेदार कर।
बुझी
इश्क की राख
अंधेर है।
प्रेम
का अंगारा बुझ
जाये तो फिर
जिसे तुम
वैराग्य कहते
हो, वह राख ही
राख है।
प्रेम
का अंगारा भी
जलता रहे और
जलाये न, तो
कुछ कुशलता
हुई, तो
कुछ तुमने
साधा, तो
तुमने कुछ
पाया।
बुझी
इश्क की राख
अंधेर है
मुसलमां
नहीं राख का
ढेर है।
--फिर
वह आदमी
धार्मिक नहीं,
मुसलमां नहीं--राख का
ढेर है।
तो एक
तरफ जलते हुए, उभरते हुए
अंगारे
ज्वालामुखी
हैं, और एक
तरफ राख के
ढेर हैं--बुझ
गये, ठंडे
पड़ गये, प्राण
ही खो गये, निष्प्राण
हो गये। तो एक
तरफ पागल लोग
हैं, और एक
तरफ मरे हुए
लोग हैं। कहीं
बीच में...!
पागलपन
इतना न मिट
जाये कि मौत
हो जाये, और
पागलपन इतना
भी न हो कि होश
खो जाये।
पागलपन जिंदा
रहे और फिर भी
मौत घट जाये।
अहंकार मरे, तुम न मरो।
संसार का भोग
मरे, परमात्मा
का भोग न मरे।
त्याग हो, लेकिन
जीवंत हो, रसधार
न सूख जाये।
शराबे-कुहन
फिर पिला साकिया!
--बड़ी
प्यारी
पंक्तियां
हैं।
पंक्तियां यह
कह रही हैं, अगर राख का
ढेर हो गये हम,
तो क्या
सार! हे
परमात्मा, फिर
थोड़ी शराब
बरसा!
शराबे-कुहन
फिर पिला साकिया
वही
जाम गर्दिश
में ला साकिया
--फिर
वही जाम
गर्दिश में
ला। अभी संसार
को प्रेम किया
था, अब
तुझे प्रेम
करेंगे; लेकिन
फिर वही जाम
दोहरा। प्रेम
तो बचे; जो
व्यर्थ के लिए
था वह सार्थक
के लिये हो
जाये। दौड़ तो
बचे; अभी
वस्तुओं के
लिए दौड़े थे, अब परमात्मा
के लिये दौड़
हो जाये।
शराबे-कुहन
फिर पिला साकिया
वही
जाम गर्दिश
में ला साकिया
मुझे
इश्क के पर
लगा कर उड़ा!
--अभी
इश्क के पर तो
थे, लेकिन
खिसकते रहे
जमीन पर, रगड़ते
रहे नाक जमीन
पर। मुझे इश्क
के पर लगाकर
उड़ा! उड़ें
परमात्मा की
तरफ, लेकिन
पर तो इश्क के
हों, प्रेम
के हों।
मेरी
खाक जुगनू बना
कर उड़ा
जिगर
से वही तीर
फिर पार कर।
--वह
जो संसार में
घटा था, वह
जो किसी युवती
के लिए घटा था,
किसी युवक
के लिए घटा था,
वह जो धन के
लिए घटा था, पद के लिए
घटा था--वही
तीर!
जिगर
से वही तीर
फिर पार कर
तमन्ना
को सीने में
बेदार कर!
--वह
जो वासना थी, आकांक्षा थी,
अभीप्सा थी,
वस्तुओं के
लिए, संसार
के लिए--उसे
फिर जगा, लेकिन
अब तेरे लिए!
बहुत
लोग हैं, अधिक
लोग ऐसे ही
हैं--जीते हैं,
भोगते हैं,
लेकिन भोग
करना उन्हें
आया नहीं।
वासना की है, चाहत में
अपने को डुबाया,
लेकिन चाहत
की कला न आयी।
न
आया हमें इश्क
करना न आया
मरे
उम्र भर और
मरना न आया।
जीवन
एक कला है और
धर्म सबसे बड़ी
कीमिया है। इसलिए
मेरे लिए
संन्यासी का
जो अर्थ है, वह है:
संतुलन, सम्यक
संतुलन, सम्यक
न्यास; कुछ
छोड़ना नहीं और
सब छूट जाये; कहीं भागना
नहीं और सबसे
मुक्ति हो
जाये; पैर
पड़ते रहें जलधारों
पर लेकिन गीले
न हों; आग
से गुजरना हो
जाये, लेकिन
कोई घाव न
पड़े। और ऐसा
संभव है। और
ऐसा जिस दिन
बहुत बड़ी
मात्रा में
संभव होगा, उस दिन जीवन
की दो धाराएं,
श्रमण और
ब्राह्मण, मिलेंगी;
भक्त और
ज्ञानी
आलिंगन
करेगा। और उस
दिन जगत में
पहली दफा धर्म
की
परिपूर्णता
प्रगट होगी। अभी
तक धर्म
अधूरा-अधूरा
प्रगट हुआ है,
खंड-खंड में
प्रगट हुआ है।
तीसरा
प्रश्न:
एक
मार्ग भगवान
महावीर का
है--संघर्ष का, संकल्प का; दूसरा मार्ग
शरणागति
का, समर्पण
का। और दोनों
मुक्ति के लिए
हैं।
कृपया
बतायें कि
भक्ति करने से
आदमी को अपने
बुरे कर्मों
का फल भोगना
पड़ेगा अथवा
नहीं?
कर्म
की भाषा भक्त
की भाषा नहीं
है। यह तो ऐसे
ही है, जैसे
तुम पूछो कि बगीचे से
गुजरने पर
मरुस्थल बीच
में पड़ेगा या
नहीं; या
मरुस्थल से
गुजरने पर फूल
कमल के खिले
हुए मिलेंगे
या नहीं। तुम
अलग-अलग
धाराओं की बात
कर रहे हो।
कर्म
की भाषा
समर्पण के
मार्ग की भाषा
नहीं है; संकल्प
के मार्ग की
भाषा है।
संकल्प कहता
है: तुमने जो
किया है वही
तुम पाओगे।
इसलिए महावीर
का तो पूरा
शास्त्र कर्म के
सिद्धांत पर
खड़ा है। भगवान
तो हटा ही
दिया है
महावीर ने; कर्म ही
भगवान हो गया
है--तुम जो
करते हो वही; कार्य-कारण;
सीधा
विज्ञान है।
भक्त
को कर्म की
भाषा ही नहीं
आती। भक्त
कहता है, हमने
कभी कुछ किया
ही नहीं, वही
करवा रहा है।
भक्त कहता है,
हम कर्ता ही
नहीं हैं, कर्ता
वही है; और
उसने जो
करवाया हमने
किया; गुनहगार
हो तो वही हो।
भक्त के सामने
भगवान को
मुश्किल
पड़ेगी; क्योंकि
भक्त कहेगा, "तूने करवाया,
हमने किया,
हमको फंसाता
है?'
इसलिए
भक्त कर्म की
भाषा नहीं
बोलता। भक्त
कहता है, सब
तुझ पर छोड़ा, कर्म भी
छोड़े। अपने को
ही छोड़ा तो अब
कर्म का खाता
कहां अलग रखें?
जब सब छोड़ा
तो
बैंक-बैलेंस
भी तुझे ही
दिया। ऐसा
थोड़े ही है कि
अपना
बैंक-बैलेंस
बचा लिया और
कहा कि बाकी
सब दिया।
तुम्हें
तो जुहद-ओ-रिया
पर बहुत है
अपने गरूर
खुदा
है शेख जी!
हमसे भी
गुनहगारों
का।
भक्त
कहता है, "शेख
जी! तुम्हें
तो बड़ा गरूर
है अपने
कर्मों का, शुभ कर्मों
का, उपासना,
पूजा, प्रार्थना
का, साधना,
तपश्चर्या
का!'
तुम्हें
तो जुहद-ओ-रिया
पर बहुत है
अपने गरूर!
लेकिन
भक्त यह भी
कहता है कि यह
सब जो तुमने
किया है, थोथा
है; क्योंकि
करने का भाव
तो भीतर मौजूद
ही है। इसलिए
यह सब वंचना
है। और हम तुम
से कहते हैं: खुदा
है शेख जी!
हमसे भी
गुनहगारों
का। वह हमारी
भी खबर लेगा।
वह सिर्फ
धार्मिकों का
ही नहीं है, गुनहगारों
का भी है।
फरिश्ते
हश्र में
पूछेंगे पाकबाजों
से
गुनाह
क्यों न किए, क्या खुदा गफूर न था?
वे जो
पुण्यात्मा
हैं, भक्त
कहता है, उनसे
जरूर फरिश्ते
पूछेंगे
स्वर्ग में।
फरिश्ते
हश्र में
पूछेंगे पाकबाजों
से।
--पवित्र
लोगों से, धर्मात्माओं से, पुण्यात्माओं
से।
गुनाह
क्यों न किए, क्या खुदा गफूर न था?
क्या
तुम्हें
भरोसा न था कि
उसकी करुणा
अपरंपार है? तुम्हें कुछ
संदेह था? कर
लेते गुनाह!
ऐसे क्या
डरे-डरे जीये?
नहीं, भक्त की
भाषा अलग है।
ध्यान
रखो, अगर
कर्मों का
हिसाब रखना हो
तो भक्ति का
रास्ता
तुम्हारे लिए
नहीं है। गणित
और काव्य की
भाषा अलग-अलग
है। गणित में
दो और दो चार
ही होते हैं, काव्य में
कभी-कभी दो और
दो पांच भी हो
जाते हैं, कभी
तीन भी रह
जाते हैं।
काव्य तो
रहस्य है।
तो अगर
तुम्हें गणित
की भाषा समझ
में आती हो तो
तुम भक्ति की
भाषा ही छोड़ो, तो फिर
कर्मों का
हिसाब रखो।
जो-जो बुरा
किया है, उसके
ठीक-ठीक तुलना
में गणित की
तरह भला करो। एक-एक
काटो। कठिन
होगा मार्ग, लेकिन किसी
की करुणा पर
तुम्हें
निर्भर न रहना
पड़ेगा। जटिल
होगा, बड़ा
दुर्धर्ष
संघर्ष होगा।
क्योंकि
अनंत-अनंत
जन्मों के पाप
हैं, उन्हें
काटना आसान
नहीं है।
इसलिए तो
महावीर जन्मों-जन्मों
यात्रा करते
हैं।
काटते-काटते,
काटते-काटते,
पच्चीस सौ
वर्ष पहले वह
घड़ी आई, जब
वह काट पाये।
इसलिए महावीर
और बुद्ध
दोनों ने, श्रमण
संस्कृति के
दोनों आधार
हैं, अपने
पिछले जन्मों
की कथा कही
है।
किसी
भक्त ने फिक्र
नहीं की: क्या
करना, हिसाब
क्या रखना
उसका! महावीर
और बुद्ध ने
कही है। दोनों
ने जाति-स्मरण,
पिछले
जन्मों के
स्मरण को एक
खास विधि माना,
खास विधि
बनाया कि पीछे
जन्मों में
जाओ; क्योंकि
हिसाब पूरा
देखना पड़ेगा,
कहां-कहां
भूल-चूक की है,
वहां-वहां
सुधार करना है;
जहां-जहां
गलत किया, उसके
मुकाबले ठीक
करना है; जहां-जहां
पाप हुआ
वहां-वहां
पुण्य रखना
है। धीरे-धीरे-धीरे
तराजू को
बराबर करना है,
दोनों पलड़े
जब बराबर हो
जायेंगे और
कांटा जब बीच
में सम्यकत्व
पर खड़ा हो
जायेगा तब तुम
मुक्त हो
सकोगे। बड़ा हिसाबी-किताबी
मामला है। मगर
कुछ हैं जिनको
इस में रस है।
जरूर वे वैसा
करें।
लेकिन
भक्तों ने कभी
पिछले जन्मों
का हिसाब नहीं
किया।
उन्होंने कहा, "हिसाब कौन
रखे! तू ही रख!
तू ही सम्हाल!
तूने भेजा, हम आये।
तूने चलाया, हम चले! तूने
जैसा रखा, हम
राजी रहे!'
भक्त
की तो पूरी
बात ही इतनी
है कि मैं
नहीं हूं, तू ही है!
इसलिए भक्त को
कोई सवाल नहीं
है।
दोनों
मार्ग पहुंचा
देते हैं।
भक्त छलांग से
पहुंचता है, ज्ञानी
इंच-इंच काटकर
पहुंचता है।
भक्त एकबारगी
पहुंच जाता
है। एक साथ
छोड़ देता है
अपने "मैं' को।
वह पूरा का
पूरा उसके
चरणों में
अपने सिर को
रख देता है--एक
साथ! ज्ञानी
काटता है, पाप
को छोड़ता है, पुण्य को पकड़ता
है--फिर एक ऐसी
घड़ी आती है, तब पुण्य को
भी छोड़ता है।
नहीं तो पुण्य
ही अहंकार बन
जाता है।
इसलिए
महावीर के
मार्ग पर जो
चलते हैं, पहले पाप को
काटो पुण्य से,
फिर एक घड़ी
आयेगी तब
पुण्य को भी
काटो, क्योंकि
वह सोने की
जंजीरें हैं।
पहले पाप को मिटाओ
पुण्य से, एक
कांटे को
दूसरे से निकालो;
फिर दोनों
कांटों को
फेंक दो, फिर
पाप भी पुण्य
भी दोनों चले
जायें। जब
सारे कर्म
शून्य हो जायेंगे
तो कर्ता मिट
जाता है। जब
कर्म ही न बचे
तो कर्ता कौन!
यह महावीर का
मार्ग है।
भक्त
का मार्ग यह
है, वह कहता
है: हम कर्ता
को ही रखे आते
हैं उसके चरणों
में। कर्म से
शुरू नहीं
करता भक्त।
भक्त कर्ता का
समर्पण करता
है।
वह
कहता है, "यह
रहे! बुरे-भले
जैसे भी हैं, तू स्वीकार
कर! पत्र-पुष्पम्।
यह जो कुछ
हमारे पास है;
पत्ते, फूल,
फूल की पंखुड़ी
सही, यह तू
सम्हाल!
ज्यादा कुछ है
नहीं!'
वह
अपने अहंकार
को सीधा रखता
है।
ज्ञानी
के मार्ग पर, संकल्प के
मार्ग पर कर्म
को काट-काटकर
कर्ता मिटाया
जाता है।
भक्ति के
मार्ग पर कर्ता
को छोड़कर ही
सारे कर्म मिट
जाते हैं।
आखिरी
सवाल:
सुनता
था कि इस जहां
से आगे जहां
और भी हैं, इस मकां
से आगे मकां
और भी हैं; लेकिन
अब आप से
मिलने पर ऐसा
प्रतीत होता
है:
गर
बर रूए जमीं
बहिश्त अस्त
हमीं
अस्त हमीं
अस्त हमीं
अस्त।
--यदि
इस पृथ्वी पर
कहीं स्वर्ग
है तो वह यहीं
है, यहीं
है, यहीं
है। ऐसा क्यों
हुआ, कृपापूर्वक
समझायें!
छोड़ो
भी समझ को! समझ
के पीछे क्यों
इतना लट्ठ
लेकर पड़े हो? समझ से ऐसा
क्या
लेना-देना है?
समझ को
खाओगे कि पीयोगे
कि ओढ़ोगे?
जो हुआ है
उसके बीच में
समझ को मत
लाओ। समझ बाधा
डालेगी। समझ ने
सदा ही बाधा
डाली है।
विश्लेषण तोड़
देता है उन
चीजों को, फोड़
देता है उन
चीजों को--जो
विश्लेषण के
पार हैं।
जैसे
मैं एक सुंदर
फूल तुम्हें
दूं, भोगो इसे!
सूंघो
इसे! पीयो
इसके रस को
आंखों से। नाच
लो थोड़ी देर
इसके साथ!
जल्दी ही यह
फूल कुम्हला
जायेगा।
जल्दी ही फूल
फिर जैसे
अदृश्य से आया,
अदृश्य में
लीन हो
जायेगा।
विश्लेषण मत
करो, अन्यथा
तुम भागोगे, काटोगे-पीटोगे
फूल को, सोचोगे
कहां सौंदर्य
है, कहां
छिपा है! उस
काट-पीट में
फूल भी खो
जायेगा, सौंदर्य
भी खो जायेगा।
विश्लेषण
से सौंदर्य का
पता नहीं चलता, न सत्य का
पता चलता है; क्योंकि जो
है, वह
अखंड में है।
इसलिए मैं
कहता हूं, छोड़ो
समझ को! समझ
खंडित करती है
चीजों को। वह
कहती है, काटो-पीटो, जांचो, तोड़ो!
सारा विज्ञान
तोड़-फोड़
से चलता है।
तुम दे दो
वैज्ञानिक को
फूल, वह
फौरन भागेगा
प्रयोगशाला
में। फूल को
देखेगा भी
नहीं। फूल को
थोड़ा मौका भी
न देगा कि फूल
थोड़ा गुनगुना
ले। भागेगा
प्रयोगशाला
में। जल्दी ही
तुम पाओगे, पंखुड़ियां बिखर गईं।
विच्छेद कर
डाला उसने फूल
का। जल्दी ही
तुम पाओगे, लेबिल लगा दिये
गये, अलग-अलग
बोतलों में
उसने फूल से
निकालकर रस
संजो दिये।
बता देगा, कितना
लवण है, कितनी
मिट्टी है, कितनी शक्कर
है, कितना
क्या है। सब
बता देगा, लेकिन
कोई भी ऐसी
बोतल न होगी
जिसमें
सौंदर्य होगा,
और सब चीजें
पकड़ में आ जायेंगी।
पार्थिव पकड़
में आ जायेगा,
अपार्थिव
छूट जायेगा।
तुम पूछोगे, "सौंदर्य कहां
है? हमने
फूल दिया था, एक सुंदर
फूल दिया
था--यह फूल का
विश्लेषण हुआ,
सौंदर्य
कहां है?' वह
कहेगा, "सौंदर्य
था ही नहीं।
मैंने बड़े गौर
से काटा-पीटा,
कोई भी चीज
बाहर नहीं
जाने दी है।
जितना वजन फूल
का था--उतना ही
इन चीजों का
है, तुम
तौल ले सकते
हो। सौंदर्य
कहीं गया
नहीं। था ही
नहीं। होगा ही
नहीं। तुम किसी
भ्रांति में
पड़े होओगे।
तुमने कोई
सपना देखा
होगा।'
समझ
खंड-खंड करती
है। समझ यानी
विश्लेषण। और
सत्य उपलब्ध
होता है
संश्लेषण से, जोड़ से, अखंड
से। तो मैं
तुमसे कहता
हूं, अगर
लगता है कहीं,
यहीं
स्वर्ग है, तो अब समझने
की फिक्र छोड़ो!
स्वर्ग में तो
समझ मत लाओ!
समझ से संसार
चलता है। समझ
से संसार बनता
है। स्वर्ग
में तो समझ मत
लाओ! अगर
काव्य उठा है,
अगर हृदय
अभिभूत हुआ है
तो नाचो! अब
स्वर्ग आ गया
है, तुम
पूछते हो कि
ऐसा क्यों
हुआ! जो हुआ, हुआ।
"क्यों'
में जाने का
अर्थ है: अतीत
में जाओ।
"क्यों' में
जाने का अर्थ
है: कारण में
जाओ। "क्यों' में जाने का
अर्थ है:
विज्ञान में
जाओ। विज्ञान
पूछता है, "क्यों?'
नहीं, धर्म
स्वीकार करता
है। धर्म
पूछता ही
नहीं। धर्म
कोई प्रश्न
नहीं है। धर्म
एक आश्चर्यभाव
है। धर्म कहता
है, अहा!
यही स्वर्ग है,
तो नाच लें,
तो गीत गा
लें। सुनो इस
कोयल को!
स्वर्ग
अगर आ गया तो
आखिरी दरवाजा
आ गया!
तेरी
उम्मीद छुट
नहीं सकती
तेरे
दर के सिवाय
दर ही नहीं।
और
क्या देखने को
बाकी है,
आप
से दिल लगा के
देख लिया।
अगर
परमात्मा से
थोड़ा दिल लग
गया तो वही
स्वर्ग है।
और
क्या देखने को
बाकी है,
आप
से दिल लगा के
देख लिया।
पर अब
बुद्धि को मत दौड़ाओ। अब
बुद्धि के जाल
मत बुनो। छोड़ो भी।
बुद्धि विरस
कर देगी।
बुद्धिमान
स्वर्ग भी चला
जाये, नर्क
को निर्मित कर
लेगा; क्योंकि
वह स्वीकार
नहीं कर सकता
है। घटना घट भी
जाये तो भी
पूछता है, "क्यों!'
"क्यों' का
कोई उत्तर
नहीं है। ऐसा
है। जब भी
तुम्हारा दिल
खुला होता है
और प्यारे को
तुम उपलब्ध होते
हो, घट
जाता है।
तुमने
किसी को भी
प्रेम किया, वहीं से
परमात्मा की
किरणें उतरनी
शुरू हो जाती
हैं, वही
खिड़की हो जाता
है, वही
वातायन हो
जाता है।
तुमने अगर मुझे
प्रेम किया तो
यहां स्वर्ग
बन जायेगा।
जिनका मुझ से
प्रेम नहीं है,
वे तुम्हें
पागल
समझेंगे।
उन्हें सोचने
दो कि क्या
हुआ, क्यों
हुआ, कैसे
हुआ! यह काम उन
पर छोड़ दो, जिनको
नहीं हुआ है।
कुछ काम उनके
लिए भी तो छोड़ो।
और
क्या देखने को
बाकी है,
आप
से दिल लगा के
देख लिया।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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