सूत्र:
रागो य दोसो वि य कम्मवीयं,
कम्मं च मोहप्पभवं
वयंति।
कम्मं
च जाईमरणस्य
मूलं,
दुक्खं
च जाईमरणं
वयंति।। 11।।
न
य संसारीम्मि
सुहं,
जाइजरामरणदुक्खगहियस्स।
जीवस्स अत्थि जम्हा,तम्हा मुक्खो
उवादेओ।।
12।।
तं
जइ इच्छसि
गंतुं,तीरं भवसायरस्स
घोरस्स।
तो
तव संजमभंडं,
सुविहिय गिण्हाहि
तूरंतो।।
13।।
जणे विरोगो जायइ,
तं तं सव्वायरेण
करणिज्जं।
मुच्चइ हु
संसवेगी,
अणतंवो होई
असंवेगी।।
14।।
एवं
ससंकप्पविकप्पणासुं,
सजायई समयमुवट्ठियस्स।
अत्थे
य संकप्पयओ
तओ से,
पहीयए कामगुणेसु
तण्हा।।
15।।
भावे
विरत्तो
मणुओ विसोगो,
एएण दुक्खो
परंपंरेण।
घर
में आग लगी हो
तो बाहर जाने
के दो ही उपाय
हैं: या तो
बाहर आग नहीं
है, ऐसा
दिखाई पड़े; या घर की आग
जीवन-घाती है,
ऐसा दिखाई
पड़े।
या तो
बाहर सुख है, आनंद है, जीवन
है, ऐसी
प्रतीति हो, तो व्यक्ति
घर के बाहर
भागे; और
या घर की पीड़ा,
घर के भीतर
लगी आग जलाने
लगे, अनुभव
में आये, जगाये, तो
व्यक्ति बाहर
भागे।
दुनिया
में दो ही तरह
के धर्म हैं।
एक—जो
परमात्मा के
आनंद का वर्णन
करते हैं; उस परम दशा
के सुख की
महिमा गाते
हैं; समाधि
का सौरभ, उस
सौरभ के गीत
गुनगुनाते
हैं। और दूसरे
धर्म हैं—जो
तुम्हारी
जीवन-दशा की
अग्नि, दुख,
पीड़ा, छाती
में चुभे
कांटों का
विचार करते
हैं।
महावीर
का धर्म दूसरे
प्रकार का
धर्म है; इसलिए
दुख की
बार-बार चर्चा
होगी। पतंजलि
का धर्म पहले
प्रकार का
धर्म है; इसलिए
परमात्मा के
प्रसाद, समाधि
के आनंद, ध्यान
के
हर्षोन्माद
की बार-बार
चर्चा होगी। लेकिन
दोनों का
लक्ष्य एक है
कि तुम घर के
बाहर आ जाओ।
और यदि गौर से
देखो तो
महावीर की पकड़
ज्यादा वैज्ञानिक,
ज्यादा तर्कऱ्युक्त,
ज्यादा
व्यवहारिक
है। क्योंकि
जिस परमात्मा
की हम चर्चा
कर रहे हैं।
उसे देखा
नहीं। चर्चा
में बहुत बल
हो नहीं सकता।
तुम कभी घर के
बाहर आये नहीं।
मैं
तुमसे कहता
हूं, "घर के
बाहर बड़ा
प्रकाश है, क्यों
अंधेरे में
पड़े हो?' लेकिन
तुमने अंधेरे
के सिवा कभी
कुछ जाना नहीं।
प्रकाश की तुम
कल्पना भी
नहीं कर सकते
हो। प्रकाश का
सपना भी नहीं
देख सकते हो।
प्रकाश से
तुम्हारी कोई
पहचान नहीं
हुई। तो तुम सुनोगे, सुन लोगे—लेकिन
इससे
तुम्हारे
जीवन में
रूपांतरण न होगा।
तुम कहोगे, "क्या भरोसा,
प्रकाश
होता भी है?'
तुमसे
मैं फूलों की
बात करूं, फूलों की
कथा कहूं; लेकिन
फूल तुमने
देखे ही न हों
और तुम्हारे
नासापुटों
में कभी गंध
ने आवास न
किया हो, तो
क्या उपाय है?
तुम कैसे आकर्षित
होओगे? तुम
सुन लोगे बात,
लेकिन
तुम्हारे
हृदय को छू न
पायेगी; तुम्हारे
प्राणों में
इससे क्रांति
का जन्म न
होगा। शायद
तुम पंडित हो
जाओ, लेकिन
प्रज्ञावान न
हो सकोगे।
शायद तुम भी
सुन-सुनकर यही
बात औरों से
करने लगो।
शायद शब्द तुम्हें
कंठस्थ हो
जायें, शास्त्र
तुम्हारी
स्मृति में
प्रविष्ट हो
जायें; लेकिन
तुम दौड़ोगे
नहीं घर के
बाहर। तुम
कहोगे, हाथ
की आधी को भी
छोड़कर सपने की
पूरी के लिए
दौड़ना ठीक
नहीं है; ये
बातें सपनीली
हैं, अव्यवहारिक
हैं, कल्पना-जाल
हैं। भीतर तो
तुम यही जानते
रहोगे।
तुम्हारा
शब्द-ज्ञान
बढ़ता जायेगा,
अज्ञान
मिटेगा नहीं।
तुम धर्म के
काव्य में डूब
जाओगे; लेकिन
धर्म
तुम्हारे
जीवन का तथ्य
न बनेगा। तब
तुम एक दुविधा
में भी पड़ोगे।
क्योंकि जो
सुख तुम्हारे
शब्दों में छा
जायेगा और
प्राणों को
आंदोलित न
करेगा, वह
तुम्हें दो
हिस्सों में
तोड़ देगा:
जीवन में तो
दुख होगा, जिह्वा
पर सुख की
बातें होंगी;
प्राणों
में तो कांटे
छिदे होंगे, स्मृति में
कल्पना के फूल
तैरेंगे।
तुम दो
हिस्सों में
खंडित हो
जाओगे।
सारी
मनुष्य जाति
खंडित हो गई
है; क्योंकि
एक तरफ
परमात्मा
खींचता है...और
उसकी खींच में
बहुत बल नहीं
हो सकता। क्योंकि
जिसे जाना
नहीं, चखा
नहीं, जीया
नहीं, उसकी
पुकार सुनोगे
कैसे? वह
बहुत दूर की धुंधली-सी
आवाज, बस
एक गूंज रह
जाती है, प्रतिध्वनि-मात्र,
छाया-मात्र।
और
जीवन की
वासनाएं हैं, वे प्रगाढ़
हैं; वे
तुम्हें खींचेंगी।
तो तुम बंधे
तो रहोगे जीवन
के ही पहिये
से, घसिटते तो रहोगे
जीवन के रथ के
साथ ही, धूल-धवांस तो
जीवन की ही
खाते रहोगे।
हां, सपने
तुम मोक्ष के,
बैकुंठ के
देखने लगोगे।
इससे तुम शांत
न होओगे। इससे
तुम्हारी
अशांति शायद
थोड़ी और बढ़
जायेगी। इससे
तुम परमात्मा
को पा सकोगे, ऐसा तो कम
दिखायी पड़ता
है; इससे
तुम जीवन में
उदास और खिन्न
और विषादऱ्युक्त
हो जाओगे।
इसलिए
महावीर ने
दूसरा मार्ग
चुना। वे
परमात्मा की
बात ही नहीं
करते। उसे अलग
ही कर दिया, बाद ही दे दी;
हाशिये पर
भी नहीं रखा
है, शास्त्र
की तो बात छोड़ो।
उसे हटा ही
दिया। समाधि
के प्रसाद-गुण
की बात नहीं
करते, न
आनंद की बात
करते—वे तो
तुम्हारे
जीवन की, जहां
तुम हो, उसकी
ही बात करते
हैं, और
कहते हैं, यहां
दुख है। वे
तुम्हें जीवन
के दुख की प्रगाढ़ता
से परिचित करा
देना चाहते
हैं। वे
तुम्हारे हृदय
में चुभे
हुए शूलों
से तुम्हारी
पहचान करा
देना चाहते
हैं। उनका सारा
आधार तुम्हारी
वस्तुस्थिति
से तुम्हें
परिचित करा देना
है। तुम्हें
पता चल जाए कि
घर में आग लग गई
है। तुम जल
रहे हो, लपटों
से घिरे हो।
तो महावीर
मानते हैं कि
तुम दौड़कर
बाहर निकल
जाओगे।
निकलोगे बाहर
तो बाहर को जानोगे।
फूल भी
खिले हैं।
नहीं कि फूल
नहीं खिले
हैं। परमात्मा
भी है। नहीं
कि परमात्मा
नहीं है।
समाधि के भी
मेघ बरस रहे
हैं, अमृत की
धार बह रही
है। सब है।
लेकिन महवीर
उसकी बात नहीं
करते। वे तो
सिर्फ
तुम्हारे जीवन
के दुख की
बार-बार
पुनरुक्ति
करते हैं। तुम्हें
जीवन का दुख
दिखाई पड़ जाये
तो तुम जीवन को
छोड़ने लगोगे।
उसी छोड़ने में
मोक्ष उतरता
है।
इसलिए
महावीर का
मार्ग निषेध
का है, नकार
का है। महावीर
का मार्ग
चिकित्सक का
है। तुम
चिकित्सक के
पास जाते हो
तो वह
स्वास्थ्य की
चर्चा नहीं
करता। नहीं कि
स्वास्थ्य
नहीं है, लेकिन
बीमार से
स्वास्थ्य की
क्या चर्चा
करनी! वह
तुम्हारी बीमारी
का निदान करता
है; बीमारियों
को उघाड़कर
रखता है; एक-एक
बीमारी की पकड़
करता है, जांच-परीक्षण
करता है, डायगनोसिस करता है।
बीमारी पकड़
में आ जाती है,
बीमारी समझ
में आ जाती है—औषधि
बता देता है।
स्वास्थ्य की
कहीं कोई चिकित्सक
बात करता है!
बीमारी पकड़
में आ गई, चिकित्सा
का पता चल गया—अब
तुम्हारे ऊपर
है। अगर
तुम्हें
बीमारी दिखाई
पड़ती है, बीमारी
की पीड़ा दिखाई
पड़ती है, तो
औषधि तुम वरण
करोगे; चाहे
औषधि कड़वी
भी क्यों न
हो। बीमारी से
साक्षात्कार
हुआ तो औषधि
तुम अंगीकर
कर लोगे। औषधि
बीमारी को काट
देगी। जो शेष
रह जायेगा
बीमारी के कट
जाने के बाद, वह
अनिर्वचनीय
है; उसकी
बात ही नहीं
की जा सकती; वह
अभिव्यक्ति
के योग्य नहीं
है; उसकी
कोई
अभिव्यंजना
कभी नहीं कर
पाया। कहो "ईश्वर',
तो भी कुछ
पता नहीं
चलता। कहो
"समाधि', तो
भी शब्द ही
हाथ में आता
है। कहो
"कैवल्य', कुछ
शब्द की गूंज
होती है; हृदय
में कोई
अनुभूति का
तालमेल नहीं
बैठता। लेकिन
जब तुम्हारी
सारी बीमारी
हट जाती है, तब अचानक जो
घटता है—जीवंत,
अस्तित्वगत—वही
स्वास्थ्य
है।
स्वास्थ्य
बताया नहीं जा
सकता, अनुभव
किया जा सकता
है।
तो
इसलिए महावीर
के वचनों में
तुम्हें
बार-बार दुख
की चर्चा
मिलेगी। इससे
तुम्हें थोड़ी
बेचैनी भी
होगी।
क्योंकि तुम
सुख की चर्चा
सुनना चाहते
हो।
तुम
कहते हो, यह
क्या दुख का
राग है!
इसलिए
पश्चिम में जब
महावीर के वचन
पहली दफा पहुंचने
शुरू हुए तो
लोगों ने समझा, दुखवादी हैं।
महावीर दुखवादी
नहीं हैं।
इनसे परम सुखवादी
कभी पैदा नहीं
हुआ। क्या
चिकित्सक तुम्हारी
बीमारी की
चर्चा करे, औषधि का
निदान करे, तो तुम यह
कहोगे कि यह
बीमारी का
पक्षपाती है?
वह चर्चा ही
बीमारी की
इसलिए कर रहा
है कि तुम उससे
छूट जाओ। वह
स्वास्थ्य की
चर्चा नहीं कर
रहा है, क्योंकि
चर्चा करने से
कभी कोई
स्वस्थ हुआ!
इसलिए महावीर
दुख का ही
विश्लेषण
करते चले जाते
हैं। हजार तरफ
से एक ही इशारा
है उनका: दुख।
तुम्हें यह
दिखाई पड़ने
लगे कि
तुम्हारा
सारा जीवन दुख
है—सुबह से
सांझ तक, जन्म
से मृत्यु तक—दुख
का ही अंबार
है, राशि
है।
ऐसी
तुम्हारी
पहचान जिस दिन
हो जायेगी...और
यही हो सकता
है, क्योंकि
इसमें तुम खड़े
हो। परमात्मा
तो दूर की
बातचीत है; हो न हो, दुख
है। तो महावीर
इसकी भी चिंता
नहीं करते, सृष्टि कब
बनी; इसकी
भी चिंता नहीं
करते, किसने
बनायी। इन दूर
की बातों में
जाने से फायदा
क्या है? ऐसा
तो नहीं है
कहीं कि तुम
दूर की बातें
कर के पास की
असलियत को
भुलाना चाहते
हो? ऐसा तो
नहीं है कि
सृष्टि किसने
बनायी, कौन
है बनानेवाला,
क्यों
बनायी—इस तरह
के बड़े-बड़े
सवाल उठाकर
जिंदगी के
असली सवालों
को तुम छिपा
और ढांक
लेना चाहते हो?
कहीं ऐसा तो
नहीं है कि ये
सब सांत्वना
के उपाय हैं, ताकि दुख
दिखाई न पड़े; ताकि दुख चुभे
न, छिदे न, ताकि दुख की
पीड़ा न हो।
कहीं
तुम्हारे
मंदिर-मस्जिद,
पूजागृह
तुम्हारी सांत्वनाओं
का जाल तो
नहीं?
महावीर
ऐसा ही जानते
हैं। यह सब
तुम्हारी सांत्वना
का जाल है।
इसलिए महावीर
मित्र भी मालूम
नहीं होते।
इसलिए तो महावीर
बहुत अनुयायी
इकट्ठे न कर
पाये। सुख की
चर्चा की होती, दुखी लोग आ
गये होते।
उन्होंने दुख
की चर्चा की, दुखियों ने
सोचा, "हम
वैसे ही दुखी
हैं, बख्शो!' दुखियों
ने कहा, "हम
वैसे ही दुखी
हैं, तुम्हारे
पास आकर और
दुख की ही
चर्चा, और
दुख की ही
चर्चा...! ऐसे ही
क्या दुख कम
हैं, जो अब
तुम और चर्चा
करके जोड़े जा
रहे हो? हमें
थोड़ी
सांत्वना दो,
भरोसा दो, आश्वासन दो,
आशा दो। कहो
हमें कि आज सब
गलत है, कल
सब ठीक हो
जायेगा। कहो
कि यह संसार
तो माया है।'
महावीर
ने नहीं कहा
कि यह संसार
माया है; क्योंकि
महावीर ने कहा
कि कहीं ऐसा
तो नहीं है कि
तुम दुख को
माया कहकर भुलाना
चाहते हो! जिस
चीज को भी
माया कह दो, उसे भुलाने
में सुविधा हो
जाती है।
संसार माया है,
तो दुख भी
माया है, तो
बीमारी भी
माया है, तो
झेल लो, भोग
लो, कुछ
असलियत तो
इसमें है नहीं,
असली चीज तो
परमात्मा है।
महावीर
ने संसार को
बड़ा सत्य माना
है; परमात्मा
की बात ही
नहीं की। जो
सत्यों का सत्य
है, उसकी
तो बात नहीं
की; और इस
भ्रामक संसार
को बड़ा सत्य
माना है। क्योंकि
महावीर कहते
हैं कि
तुम्हारे मन
को मैं पहचानता
हूं।
तुम्हारे
परमात्मा, तुम्हारे
मोक्ष, सब
मलहम-पट्टियां
हैं; उनसे
तुम घाव को
छिपाते हो। और
यह घाव कुछ
ऐसा है, इसकी
शल्य-चिकित्सा
होनी चाहिए, सर्जरी होनी
चाहिए। तो तुम
सर्जन के पास
जाओगे तो वह
दबायेगा भी
तुम्हारा घाव,
तो तुम
चीखोगे भी, मवाद भी
निकालेगा—तो
तुम यह थोड़ी
कहोगे कि
दुश्मन हो, कि हम वैसे
ही तो दुख में
भरे थे, तुमने
और मवाद निकाल
दी; हम
वैसे ही तो तड़फ
रहे थे, तुमने
यह और क्या
किया; ऐसे
ही क्या दुख
कम था कि तुम
छुरी-कांटे
लेकर खड़े हो
गये हो! नहीं, तुम जानते
हो, सर्जन
मित्र है। वह
उस गलत अंग को
काटकर अलग कर
देगा, जहां
से विष
तुम्हारे
पूरे
जीवन-संस्थान
में फैला जा
रहा है।
महावीर
एक सर्जन हैं; दार्शनिक कम,
तत्वचिंतक कम, चिकित्सक
ज्यादा हैं।
इस शब्द को
खयाल में रखो:
चिकित्सक।
नानक ने अपने
को वैद्य कहा
है। बुद्ध ने
भी अपने को
वैद्य कहा है।
महावीर भी वैद्य
हैं। ये
तुम्हें लोरियां
सुनाने में
उत्सुक नहीं
हैं, कि
तुम्हें थोड़ी
झपकी लग जाये;
तुम रातभर
जागे हो, जन्म-जन्म
जागे हो, थोड़ा
सो लो। नहीं, इनकी
उत्सुकता
तुम्हें
सुलाने में
नहीं है, क्योंकि
सोने के कारण
ही तो
तुम्हारे
जीवन की सारी
पीड़ा और जाल
और प्रवंचना
का फैलाव है।
इसलिए महावीर
तुम्हारे दुख
से भरी रग को
छुएंगे, घबड़ाना
मत। दुखवादी
नहीं हैं वे।
लेकिन तुम दुख
में हो। और
तुम धीरे-धीरे
अपने को इस
तरह की
भ्रांतियों
में डाल लिये
हो कि तुम दुख
को दुख नहीं
मानते; तुम
उसे सुख मानने
लगे हो—तो
तुम्हें
बार-बार जगाना
पड़ेगा कि दुख
दुख है, सुख
नहीं।
जिस
दिन तुम्हारा
सारा जीवन
लपटों से भर
जायेगा—भरा तो
है ही, दिखाई
पड़ जायेगा जिस
दिन; जिस
दिन तुम देखोगे
कि यहां कुछ
भी तो नहीं है,
कीड़े-मकोड़े
हैं, घाव, मवाद, पीड़ा
ही पीड़ा—उसी
दिन छलांग
लगाकर इस घर
के बाहर हो
जाओगे। हां, बाहर खुला
आकाश है; सूरज
का प्रकाश है;
खिले फूल
हैं, पक्षियों
के गीत हैं; बाहर बड़ी
वातास है, बड़ी
मधुरिमा है, बड़ा सौंदर्य
है! लेकिन वह
तो तुम बाहर
आओगे, तो
ही सुनाई
पड़ेगा। वह तो
तुम बाहर आओगे,
तो ही दिखाई
पड़ेगा। इसलिए
बाहर की कोई
बात नहीं।
जहां तुम हो, उसकी बात
है। बड़ी
व्यवहारिक
बात है।
बुद्ध
के जीवन में
एक उल्लेख
है...। और बुद्ध
और महावीर इस
संबंध में एक
ही दृष्टिकोण
के हैं। दोनों
श्रमण-संस्कृति
के आधार हैं।...कहते
हैं बुद्ध को
जब परमज्ञान
हुआ, तो शैतान
प्रगट हुआ। यह
कथा बहुत
धर्मों में आती
है: जब परम
ज्ञान प्रगट
होता है तो
शैतान भी प्रगट
होता है। इस
कथा में जरूर
कोई सार होगा।
यह कथा केवल
प्रतीक नहीं
हो सकती, क्योंकि
यही जीसस के
जीवन में भी
उल्लेख है, कि जीसस जब
ज्ञान के करीब
पहुंचे तो
शैतान प्रगट
हुआ और शैतान
ने उन्हें
उत्तेजित
किया, उकसाया।
और शैतान ने
बड़ी वासनाओं
के प्रलोभन दिये।
और शैतान ने
कहा कि सारे
जगत का तुझे
सम्राट बना
दूं, सारी
धन-राशि तेरी
हो, सुंदरतम
स्त्रियां
तेरी हों, लंबा
तेरा जीवन हो।
क्या चाहिए?
वही
बुद्ध से भी
शैतान ने कहा।
बुद्ध हंसते
रहे। बुद्ध ने
कहा, "मुझे
कुछ चाहिए
नहीं। मैं बचा
नहीं। चाहने वाला
जा चुका, चाह
भी जा चुकी।
चाहा तो मैंने
भी था, बड़े
साम्राज्य
बनाऊं; चाहा
तो मैंने भी
था, चक्रवर्ती
बनूं। उसी चाह
के कारण
भिखारी रहा।
उसी चाह के
कारण भटका
जन्मों-जन्मों
तक। चाह छोड़ी,
तब शांति
मिली। चाह जब
पूरी गई, तो
अब मैं परम
आनंद से भरा
हूं। अब तू
गलत वक्त पर
आया है; पहले
आता तो शायद
तेरे चक्कर
में भी पड़
जाता।'
तो
शैतान ने कहा
कि तुम सोचते
हो तुम्हें परमज्ञान
हो गया है, तुम्हारा
गवाह कौन है? तुम्हारे
कहने से ही
मान लूंगा? तुम्हारी
गवाही कौन दे
सकता है?
तो बड़ी
अनूठी बात है—तुमने
शायद बुद्ध का
चित्र या
प्रतिमा भी
देखी होगी, जिसमें वे
एक अंगुली
जमीन पर रखे
हुए दिखाये
गये हैं।
बुद्ध ने जमीन
पर अंगुली
लगाई और कहा, यह पृथ्वी
मेरा प्रमाण
है, यह
मेरी गवाही
है। बड़ी
हैरानी की बात
है: पृथ्वी को
गवाही बता रहे
हैं! आकाश में
परमात्मा को
बताया होता कि
परमात्मा
मेरा गवाह है
तो समझ में
आता। लेकिन
बुद्ध और
महावीर दोनों
ही परमात्मा
की बात नहीं
करते। वे जीवन
के यथार्थ की बात
कहते हैं। वे
कहते हैं, "इस
पृथ्वी से पूछ
लो। इसी से
मैं बना हूं।
यही पृथ्वी
मेरी देह है।
इसी पृथ्वी ने
मेरे भीतर हजार-हजार
वासनायें
उठायी थीं।
इसी पृथ्वी से
पूछ लो। बहुत
दुख मैंने
झेले हैं, और
अब मैं दुखों
के बाहर हो
गया हूं। और
कौन गवाह हो
सकता है?'
पृथ्वी
से गवाही
दिलवाते हैं
बुद्ध। यह बड़ा
प्रतीकात्मक
है। महावीर के
लिए यह संसार
बड़ा वास्तविक
है। वे इसको
माया नहीं
कहते। वे कहते
हैं, यह सत्य
है। माया कहकर
तुम बचो मत।
बचकर कुछ सार
न पाओगे। इस
सत्य से जूझना
ही पड़ेगा। और
यह सत्य बड़ा कष्टपूर्ण
है। इसलिए मन
करता है, मान
लो यह है ही
नहीं। तुम भी
जानते हो
तुम्हारे मन
की प्रक्रिया
को। जो चीज
बहुत कष्ट
देने लगती है,
तुम मानने
लगते हो यह है
ही नहीं।
मेरे
एक परिचित थे।
उन्हें टी. बी.
की बीमारी थी।
उनकी पत्नी
उन्हें मेरे
पास लायीं
और कहा, कि
आप किसी तरह
इनको समझायें
कि डाक्टर से
चलकर ठीक से
निदान करवा
लें। पति भड़क
उठे। कहा कि
"क्या कहती है?
जब मैं
बीमार ही नहीं
हूं तो मैं
जाऊं क्यों? परीक्षण के
लिए क्यों
जाऊं? परीक्षण
के लिए वह
जाये जो बीमार
है। जब मैं बीमार
ही नहीं हूं
तो जाने की
बात ही क्या
उठाती है?'
लेकिन
उनकी मैंने घबड़ाहट
देखी, उनका
तमतमाया
चेहरा देखा, उनके कंपते
हाथ देखे।
मैंने उनसे
कहा कि आप बिलकुल
ठीक कहते हैं।
आप बीमार ही
नहीं हैं। चिकित्सक
के पास जाने
की कोई जरूरत
ही नहीं है।
वे बड़े
प्रसन्न हुए।
कहा कि जिसके
पास ले जाती
है यह मेरी
पत्नी, वही
कहता है कि
जाइये, जब
यह कहती है तो
परीक्षा करवा
लीजिये।
मैंने कहा कि
नहीं आप
बिलकुल ठीक
कहते हैं। कोई
बीमारी नहीं
है, इसलिए
चिकित्सक के
पास जाने की
कोई जरूरत नहीं
है। लेकिन यह
पत्नी पागल
हुई जा रही है,
जरा इस पर
दया करो! यह मर
जायेगी इसी
घुटन में; तुम
इस पर कृपा
करके
चिकित्सक के
पास चले जाओ! बीमारी
तो है ही नहीं
तो चिकित्सक
भी कहेगा, बीमारी
नहीं है। तुम घबड़ाते
क्यों हो? मगर
इसकी शंका, इसका शल्य
दूर हो
जायेगा।
वे बड़े
उदास हो गये।
कहने
लगे, यह तो
उलझा दिया
आपने। सच यह
है, उनकी
आंख में आंसू
आ गये कि मैं
डरता हूं।
मुझे भी डर है कि
शायद बीमारी
है। मैं किसी
तरह अपने को
समझा रहा हूं
कि नहीं है।
चिकित्सक के
पास तो कैसे छिपा
पाऊंगा कि
नहीं है।
पत्नी को
समझाने की कोशिश
कर रहा हूं, बच्चों को
समझाने की
कोशिश कर रहा
हूं। मैं मौत
से डरता हूं।
टी. बी. शब्द ही
मुझे घबड़ाता
है। अगर
चिकित्सक ने
कहा कि टी. बी.
है तो मैं मर ही
जाऊंगा।
टी. बी. से
मरूंगा या
नहीं, यह
सवाल नहीं है;
बस यह जानकर
कि टी. बी. है, मैं मर जाऊंगा।
मैंने
उनसे कहा, तुम पागल
हुए हो। टी. बी.
से आज कहीं
कोई मरता है।
तुम पुराने
जमाने की बात
कर रहे हो।
घबड़ाहट!
डाक्टर के पास
जाने से लोग
डरते हैं। जब
बीमारी बहुत
ही पकड़ लेती
है, कोई उपाय
ही नहीं रह
जाता है। तब
डाक्टर के पास
जाते हैं।
डाक्टर के पास
जाने के पहले
और तरह के
लोगों के पास
जाते हैं—कोई
ओझा, कोई
मंत्र पढ़नेवाला,
कोई फकीर, कोई ताबीज बांध
देनेवाला—और
जगह जाते हैं,
जहां
सांत्वना है;
लेकिन
डाक्टर के पास
सीधा-सीधा
नहीं जाते। क्योंकि
डाक्टर तो
सीधा कहेगा, फलां-फलां
बीमारी है, इलाज की बात
उठेगी। तो
पहले मंत्र
पढ़ते हैं, ताबीज
बांधते
हैं, भभूत
ले आते हैं।
पहले साईंबाबा;
फिर जब सब साईंबाबा
हार जायें, तब मजबूरी
में चिकित्सक
के पास जाते
हैं।
ठीक
वैसा ही धर्म
के जगत में भी
है। पहले तुम
उनकी बात सुनोगे
जो कहते हैं, संसार माया
है। महावीर के
पास जाने में डरोगे, पैर
कंपेंगे;
क्योंकि
महावीर
तुम्हारी
किसी भ्रांत
आकांक्षाओं
को सहारा देने
में उत्सुक
नहीं हैं।
महावीर तो ठीक
तुम्हारी उस
रग पर हाथ रख देंगे,
जहां पीड़ा
है, जहां
दुख है।
ये
सूत्र
निदान-सूत्र
हैं। ये
चिकित्सक के
वचन हैं।
इन्हें तुम
गौर से सुनना।
चाहे ये कितना
ही कष्ट देते
मालूम पड़ें, इनसे ही
मुक्ति का
मार्ग है।
महावीर के पास
जाकर अगर तुम
कह सको—
फिर
मैं आया हूं
तेरे पास ऐ अमीरे-कारवां
—हे
पथ-प्रदर्शक!
मैं फिर तेरे
पास आया हूं।
छोड़
आया था जिसे
तू, वो मेरी
मंजिल न थी।
—जहां
तू मुझे छोड़
आया था, या
जहां मैंने
तुझे छोड़ दिया
था, वह
मेरी मंजिल न
थी। मैं गलत
पथ-प्रदर्शकों
के साथ भटका।
दुनिया
में जहां एक
ठीक
पथ-प्रदर्शक
होता है, वहां
निन्यानबे
गलत भी होते
हैं। होंगे ही,
क्योंकि
जिंदगी में
इतना दुख है, और दुख से
बचने की इतनी
आकांक्षा है,
कि भ्रांत
और धोखा
देनेवाले लोग
भी पैदा होंगे
ही। जहां इतने
लोग बीमारी से
बचना चाहते
हैं—बीमारी की
चिकित्सा तो
बहुत कम लोग
करना चाहते
हैं; पहली
तो कोशिश यही
होती है कि
कोई समझा दे
कि बीमारी है
ही नहीं—वहां
ऐसे लोग भी
जरूर पैदा हो
जायेंगे जो
समझा देंगे कि
बीमारी है ही
नहीं; यह
ताबीज बांध
लेना, सब
ठीक हो जायेगा;
यह राम-राम
जप लेना, सब
ठीक हो जायेगा;
यह मंत्र की
माला फेर लेना
रोज, सब
ठीक हो
जायेगा। काश,
इतना आसान
होता!
थोड़ा
सोचो भी, कैसी
बचकानी आकांक्षाएं
हैं! क्या तुम
सोचते हो जीवन
इतना आसान है
कि राम-राम
जपने से ठीक
हो जायेगा? जरा जीवन की
जटिलता तो
देखो, उलझन
तो देखो! इतना
आसान है कि एक
माला के गुरिए
सरका देने से
ठीक हो जायेगा?
तुम किन
मंदिरों के
सामने हाथ
जोड़े खड़े हो? प्रतिमाएं
परमात्मा की
तो नहीं हैं—तुम्हारी
ही
आकांक्षाओं
की हैं; तुमने
ही बनायी हैं;
तुमने ही
प्रतिष्ठा दी
है; तुमने
ही पूजा दी है!
पहले तुम
भगवान बनाते
हो, फिर
अपने ही बनाये
भगवान के
सामने हाथ जोड़कर
खड़े हो जाते
हो! थोड़ा जाल
तो देखो! थोड़ी
अपनी चालाकी तो
देखो! पहले
तुम्हीं
भगवान बनाते
हो! तुम्हारी
मान्यता से ही
कोई मूर्ति
भगवान हो जाती
है। कल तक
बाजार में खड़ी
थी, बिकती
थी, तब
भगवान न थी—फिर
तुम ले आते हो,
मंत्रोच्चार
करते हो, पूजा-प्रार्थना
करते हो, पंडित-पुरोहित
इकट्ठे होते
हैं, क्रियाकांड होता है।
फिर पत्थर जो
बाजार में
बिकता था, तुम्हीं
खरीद लाये, तुम्हारे ही
जैसे लोगों ने
बनाया, उसी
मूर्ति के
सामने तुम हाथ
जोड़कर
खड़े हो जाते
हो! तुम
प्रार्थना
करने लगते हो!
तुम भी जानते
हो गहरे में, प्रार्थना
काम न आयेगी।
क्योंकि
परमात्मा ही
तुम्हारा
बनाया हुआ है।
परमात्मा
बनाने के हमने
ग्रामोद्योग
खोले हुए हैं।
बिना
परमात्मा के
रहना मुश्किल
है; क्योंकि
भय है, और
जीवन है, और
कष्ट है और
कांटे ही
कांटे हैं। तो
पृथ्वी से आंख
चुराते हैं।
आकाश की तरफ
देखते हैं। इसलिए
सभी का परमात्मा
आकाश में है।
बुद्ध
ने ठीक किया
कि पृथ्वी की
तरफ हाथ लगाकर
कहा कि यह
मेरी गवाह है।
किसी और से
पूछा होता तो
वह आकाश की
तरफ इशारा
करता कि वहां
मेरा परमात्मा
है, वह मेरा
गवाह है। आकाश
की तरफ तुम
आंख उठाते हो
क्योंकि
पृथ्वी से आंख
चुराना चाहते
हो। लेकिन तुम
जानते हो
कितना ही
झुठलाओ क्या
फर्क पड़ेगा?
मैंने
सुना है:
एक ऐसे
गांव में जहां
बारिश नहीं हो
रही थी, एक
पुजारी ने
घोषणा की कि
वह सब गांववालों
के सामने
भगवान से
प्रार्थना
करेगा कि
वर्षा हो। ठीक
समय पर सब गांववाले
उपस्थित हो
गये, तो
पुजारी ने कहा,
"भाइयो और बहनो!
इससे पूर्व कि
मैं भगवान से
प्रार्थना करूं,
आपसे एक
प्रश्न पूछता
हूं कि आप
लोगों के छाते
कहां हैं?' भगवान
से प्रार्थना
करने इकट्ठे
हुए हैं कि वर्षा
हो—होगी वर्षा—छाते
कहां हैं? लेकिन
जो लोग चले
आये हैं
प्रार्थना
करने, वे
भी जानते हैं
कि कहीं ऐसे
वर्षा होती
है! फिर भी चले
आये हैं! छाते
नहीं लाये हैं!
छाता लाये
होते तो पता
चलता कि
श्रद्धा है।
तुम
मंदिर तो चले
जाते हो—छाता
ले जाते हो? मस्जिद तो
हो आते हो—छाता
ले जाते हो?
तुम्हें
पहले से पता
है कि कहीं
कुछ होना है! लेकिन
कर लो, हर्ज
भी क्या है, शायद हो ही
जाये!
मुल्ला
नसरुद्दीन
के साथ मैं एक
मकान में ठहरा
हुआ था। किसी
ने बता दिया
उसको कि इस
मकान में
भूत-प्रेत का
वास है। तो वह
आया भागा हुआ, उसने जल्दी
से सामान
बांधा। उसने
कहा, "आप
रुकना हो रुको,
मैं चला!
मैं होटल ठहर जाऊंगा, धर्मशाला, कहीं भी, स्टेशन
पर सो जाऊंगा।'
मैंने
कहा, "मामला
क्या है?'
उसने
कहा, "किसी ने
कहा है कि इस
मकान में
भूत-प्रेत का
वास है।' लेकिन
मैंने कहा, "नसरुद्दीन! तुम तो सदा
से कहते रहे
कि तुम
भूत-प्रेत में
भरोसा नहीं
करते!' उसने
कहा कि
निश्चित, "मैं
भूत-प्रेत में
कभी भरोसा
नहीं करता।' तो फिर
मैंने कहा, "फिर क्यों
डरे जा रहे हो?'
उसने कहा, "पर क्या पता,
मेरा भरोसा
गलत हो! मैं
गलत भी तो हो
सकता हूं! झंझट
कौन ले! रात हम
स्टेशन पर सो
लेंगे।'
एक
बहुत बड़ा
वैज्ञानिक
जर्मनी में—अभी-अभी
उसकी मृत्यु
हुई—वह अपनी
टेबल के पीछे
घोड़े के पैर
में लगाए
जानेवाला नाल लटकाये
हुए था।
जर्मनी में
ऐसा खयाल है
कि अगर घोड़े के
पैर का नाल
लटका दो तो
परमात्मा से
जो भी आशीर्वाद
बरसते
हैं, वे नाल
में अटक जाते
हैं, तुम
उनके मालिक हो
जाते हो। कोई
चीज रोकने को चाहिए
न! तो नाल जो है,
प्याली का
काम करता है।
एक अमरीकन उस
वैज्ञानिक को
मिलने गया था।
वह बड़ा हैरान
हुआ। उसने कहा
कि तुम जैसा महावैज्ञानिक,
नोबेल प्राइज़,
पुरस्कार-विजेता
और तुम यह
घोड़े का नाल
लगाये हुए हो।
तुम्हें शर्म
नहीं आती? यह
तो मैं भरोसा
ही नहीं कर
सकता कि तुम
जैसा बुद्धिमान
आदमी और ऐसे
अंध-विश्वास
में भरोसा करता
होगा!
उसने
कहा, यह तो साफ
ही है कि मैं
और
अंध-विश्वास
में भरोसा!
कभी नहीं।
मेरा कोई
भरोसा नहीं
है। मैं यह नहीं
मानता कि इस
नाल से कुछ
होनेवाला है।
फिर
क्यों लटकाये
हो?
उसने
कहा कि लेकिन
जिसने मुझे यह
दिया है, उसने
कहा कि चाहे
तुम भरोसा करो
या न करो, फायदा
तो होता ही
है। उसने कहा
कि भरोसे न
भरोसे का सवाल
ही नहीं है।
आदमी
बड़ा बेईमान
है! प्रार्थना
भी कर लेता है, भीतर-भीतर
जानता भी रहता
है कि कहीं
कुछ होना है!
यह स्वाभाविक
है; क्योंकि
जिसकी तुम
प्रार्थना कर
रहे हो, उससे
परिचय ही नहीं
है; प्रेम
की बातें कर रहे
हो, मुलाकात
हुई ही नहीं।
किसी अजानी
स्त्री से कैसे
प्रेम करोगे?
अपरिचित
पुरुष को कैसे
प्रेम करोगे?
जिसका नाम
नहीं सुना, गांव का पता
नहीं, जिसकी
कभी छवि नहीं
देखी, जिसका
कभी कोई पत्र
भी नहीं मिला,
जिसका
तुम्हें पता
ही नहीं है कि
जो है भी या नहीं—उसे
तुम प्रेम
कैसे करोगे?
तो
महावीर
प्रार्थना की
बात नहीं
करते। वे कहते
हैं, कोई ऐसे
रास्ते मत
खोजो। जीवन
सीधा-साफ है।
और सचाई यह है
कि जिंदगी में
दुख है। इस
दुख से ही जूझना
है, भागना
नहीं, पलायन
नहीं। इस दुख
की चुनौती
स्वीकार करनी
है।
"राग
और द्वेष के
बीज मूल कारण
हैं। कर्म मोह
से उत्पन्न
होता है। यह
जन्म-मरण का
मूल है। और
जन्म-मरण को
दुख का मूल कहा
गया है।'
एक-एक
शब्द को समझने
की कोशिश
करें। यह पहला
सूत्र: "राग और
द्वेष कर्म के
बीज हैं। कर्म
मोह से
उत्पन्न होता
है। और मोह
जन्म-मरण का
मूल है। और
जन्म-मरण को
दुख का मूल
कहा गया है।'
यह
निदान है। यह
चिकित्सक की
भाषा है। यहां
कोशिश चल रही
है कि मूल
कारण को पकड़
लें। राग और द्वेष:
कोई मेरा है, कोई मेरा
नहीं है! राग
और द्वेष:
चाहता हूं कोई
बचे, और
चाहता हूं कोई
नष्ट हो जाये;
कहता हूं यह
अच्छा है, और
कहता हूं यह
बुरा है; चुनाव—जो
अच्छा है वह
हो, जो
बुरा है वह न
हो।
महावीर
कहते हैं, जब तक चुनाव
है; जब तक
तुम कहते हो, यह होना
चाहिए और वह
नहीं होना
चाहिए; स्वास्थ्य
होना चाहिए, बीमारी नहीं
होनी चाहिए; जवानी मिलनी
चाहिए, बुढ़ापा नहीं मिलना
चाहिए; मित्र
घर आये, शत्रु
नष्ट हो जाये...।
इसलिए तो
महावीर वेदों
को धर्म न कह
सके; क्योंकि
वेद की
प्रार्थनाओं
में भी
राग-द्वेष भरा
हुआ मालूम
पड़ता है। ऐसी
प्रार्थनाएं
हैं वेद में
कि कोई
प्रार्थना
करता है इंद्र
से कि हे
इंद्र! मेरे
दुश्मनों को
नष्ट कर दे।
कोई
प्रार्थना
करता है वेद
में कि हे भगवान!
मेरी गउओं
के थनों में
दूध बढ़ जाये
और दुश्मनों
की गउओं
के थनों से
दूध सूख जाये!
भोले-भाले
किसानों की प्रार्थनायें
मालूम पड़ती
हैं, धर्म
कुछ नहीं
मालूम पड़ता।
यही तो हमारी आकांक्षायें
हैं कि मुझे
मिल जाये, दूसरे
को न मिले, मेरा
सुख—दूसरे का
दुख भी हो तो
उस कीमत पर भी!
महावीर
कहते हैं, राग और
द्वेष कर्म के
बीज हैं। और
जहां तुमने चुना,
कर्म शुरू
हुआ। तुमने
कहा, यह
मिलना चाहिए,
कि तुम उसे
पाने की
यात्रा पर
निकले। तुमने
कहा, कि यह
नहीं होना
चाहिए, कि
तुम उसे
मिटाने के लिए
चले।
तुम्हारे मन
में यह विचार
भी उठा कि
दुश्मन मर
जाये तो, महावीर
कहते हैं, हिंसा
हो गयी, कर्म
शुरू हो गया।
विचार
कर्म का पहला
चरण है।
फिर
धीरे-धीरे
विचार घना
होगा, सघन
होगा, कृत्य
बनेगा, और
आज जो
तुम्हारे मन
में सिर्फ एक
भाव की तरह आया
था, वह
कल-परसों घटना
बन जाएगा।
दोस्तोवस्की
का बड़ा प्रसिद्ध
उपन्यास है: "क्राइम
एंड पनिशमेंट', अपराध और
दंड। उसमें रासकलोनिकोव
नाम का एक
पात्र है। वह
एक युवक है
विश्वविद्यालय
का। और उसके
सामने ही एक
बूढ़ी महिला
रहती है—बड़ी
धनपति और
महाकंजूस! और
उसका कुल धंधा
गरीबों को
चूसना है।
ब्याज का काम
करती है, और
जितना ब्याज
ले सकती है
उतना लेती है।
जो एक बार
उसके जाल में
फंस जाता है, वह फिर कभी
निकल नहीं
पाता। ब्याज
ही नहीं चुका
पाता, मूल
के वापिस का
तो सवाल ही
नहीं है।
ब्याज ही बढ़ता
चला जाता है।
इतनी ज्यादा
मात्रा में ब्याज
लेती है कि यह
जो रासकलोनिकोव
है, यह
बैठा-बैठा अपनी
किताब पढ़ता
रहता है, खिड़की
से देखता रहता
है उस बुढ़िया
को। बुढ़िया
अस्सी साल की
हो गयी। मरने
के करीब है।
कोई उसके
आगे-पीछे नहीं
है। लेकिन
उसका शोषण
जारी है।
इसके
मन में ऐसे ही
विचार उठता है
कि यह बुढ़िया
मर ही जाये तो
क्या हर्ज
होनेवाला है!
इसका न तो कोई आगा, न कोई पीछा; न इसके मरने
से कोई
रोनेवाला है,
सारा गांव
खुश होगा उलटे,
प्रसन्न
होंगे लोग, उत्सव मनाया
जायेगा। इसको
भगवान उठा
क्यों नहीं
लेता! और यह किसलिए
जी रही है? न
इसके जीवन में
कोई सुख है, कमर झुक गयी
है, आंखों
से दिखाई नहीं
पड़ता, लकड़ी
टेककर
चलती है। इसे
उठा ही ले
भगवान!
अब
इसमें कुछ
बुरा नहीं हुआ
है, लेकिन यह
विचार का बीज
उसके मन में
पड़ गया, पड़
गया, पड़
गया, यह
बार-बार दोहरने
लगा। जब भी बुढ़िया
को देखे, उसे
यह भाव कि यह
उठ ही जाये...।
धीरे-धीरे
पहले तो सोचता
था, परमात्मा
उठा ले; फिर
सोचने लगा कि
यह गांव भी
कैसा है, कोई
इसको मार ही
क्यों नहीं
डालता? सारा
गांव चूसे जा
रही है! फिर
धीरे-धीरे उसे
यह भी खयाल
उठने लगा कि
मैं यहां
बैठा-बैठा क्या
कर रहा हूं! एक
झटके में यह
खतम हो
जायेगी। तब वह
बड़ा चौंका भी,
कि यह कैसा
मेरा विचार
उठता है!
लेकिन ये विचार
डोलते रहे, ये तरंगें
घूमती रहीं, ये भाव उसके
मन में सरकते
रहे, सरकते
रहे, सघनीभूत होते गये।
परीक्षा उसकी
करीब आती है
और उसे फीस
जमा करनी है
और पैसे नहीं
हैं, तो वह
अपनी घड़ी बुढ़िया
के पास रेहन
रखने जाता है।
सोचा भी नहीं
है कुछ उसने, कोई हत्या
का आयोजन भी
नहीं किया है—बस
वह घड़ी रेहन
रखने गया है।
सांझ का वक्त
है, धुंधला
होता जा रहा
है, धुंधलका
उतर रहा है; अभी लोगों
के दीये भी
नहीं जले। वह बुढ़िया के
हाथ में घड़ी
देता है, बुढ़िया
उसे खिड़की के
पास ले जाकर
रोशनी में
देखने की कोशिश
करती है, कितने
दाम की होगी।
वह पीछे खड़ा है।
अचानक वह पाता
है कि जैसे
आविष्ट हो
गया। एक झटके
में वह कूदा
और उसने बुढ़िया
की गर्दन पकड़कर
दबा दी। वह तो
मरने के करीब
थी ही। उसने
चीख-पुकार भी
न की और मर गई।
वह धड़ाम
से नीचे गिर पडी। तब
इसे होश आया
कि यह मैंने
क्या कर दिया!
तब यह घबड़ाया।
तब यह भागा।
लेकिन किसी को
पता भी नहीं
चला है। और
कोई यह सोच भी
नहीं सकता कि
यह युवक जो
चुपचाप अपनी
किताबों में
उलझा रहता है,
इसकी हत्या
करेगा। पुलिस
खोजबीन करती
है, मगर
कोई पता नहीं
चलता। किसी ने
देखा नहीं, कोई गवाह
नहीं। लेकिन
अब इसके मन के
भीतर एक भय
समा गया है कि
यह मैंने क्या
किया, यह
मैंने क्या
किया! अब वह
दिन-रात न सो
सकता है, न
कुछ और कर
सकता है। वह खिड़कियां
बंद किये बैठा
रहता है। वह
सोचता है: अब
पुलिस आई; अब
यह जूते की
आवाज आने लगी;
अब यह गाड़ी
आ रही है, पुलिस
की ही होगी!
कोई दरवाजे पर
दस्तक देता है,
वह घबड़ा
जाता है, पसीने-पसीने
हो जाता है।
अब एक दूसरा
विचार उसको
पकड़ रहा है कि
मैं पकड़ा जाऊंगा।
जैसे पहला
विचार एक दिन सघनीभूत
होकर कृत्य बन
गया, बिना
सोचे हत्या हो
गई, ऐसा ही
अब दूसरा
विचार घनीभूत
होता चला जाता
है। अब वह
पत्तों से भी
चौंकने लगता
है; कोई
पत्ता खड़कता
है और वह घबड़ा
जाता है।
आसपास के लोग
भी चितिंत
हो गये हैं कि
यह इतना
घबड़ाया-घबड़ाया
क्यों है, रास्ते
पर चलता है तो
बच-बचकर चलता
है, देखकर
चलता है: कौन आ
रहा है, कौन
जा रहा है!
पुलिस दिखाई
पड़ती है, गली
में निकल जाता
है, भाग
खड़ा होता है।
आखिर सारे
गांव में खबर
हो जाती है कि
मामला क्या है!
लोग उससे
पूछने लगते
हैं कि मामला
क्या है। वह
इनकार करता है
कि "मामला
क्या है, कोई
मामला नहीं
है! तुमने
पूछा क्यों? तुम हो कौन पूछनेवाले?
तुमने
संदेह कैसे
किया?'
लोग
बड़े हैरान
होते हैं कि
जरूर कोई बात
है। अब घनी
होने लगती है
बात। आखिर वह
इतनी पीड़ा में
पड़ जाता है कि
सो भी नहीं सकता; रात-दिन एक
ही सपना कि
पुलिस पकड़ती
है! एक दिन वह
पुलिस थाने
पहुंच जाता
है। वह जाकर
वहां कहता है:
पकड़ ही लो, यह
बकवास बंद
करो! रात-दिन, सुबह शाम न
मैं सो सकता, न मैं भोजन
कर सकता। हां,
मैंने ही
हत्या की है।
पुलिस इंसपेक्टर
भला आदमी है।
वह कहता है, "तू पागल हो
गया है? तू
और हत्या
क्यों करेगा?
तुझ से बुढ़िया
का लेना-देना
क्या है?'
पुलिस
उसे समझाती है
कि तेरा दिमाग
तो खराब नहीं
हो गया है! वह
कहता है, "नहीं,
दिमाग खराब
नहीं हो गया
है, मैंने
हत्या की है।'
अदालत में
वह यही बयान
देता है कि
मैंने हत्या
की है, लेकिन
पुलिस कोई
गवाह नहीं
जुटा पाती।
एक
छोटे-से विचार
की तरंग आज
नहीं कल घटना
में रूपांतरित
हो जाती है।
तुम जो सोचते
हो, वही हो
जाते हो। तुम
जो सोचते हो, वही
तुम्हारा
कृत्य बन
जायेगा।
इसलिए
महावीर कहते
हैं, कृत्य को
बदलने के पहले
विचार पर
जागना होगा।
अगर विचार चल
पड़ा तो ज्यादा
देर नहीं है
कृत्य के पूरे
हो जाने में।
महावीर
कहते थे: सोचा, कि आधा हो
गया। महावीर
के बड़े
प्रख्यात
सिद्धांतों
में, बड़े
उलझन-भरे
सिद्धांतों
में एक यह है
कि सोचा कि
आधा हो गया।
इसको तर्क-रूप
से सिद्ध करना
बड़ा मुश्किल
है। महावीर के
दामाद ने इसी
बात को लेकर
महावीर के
खिलाफ बगावत खड़ी
कर दी थी और
पांच सौ
महावीर के
मुनियों को लेकर
अलग भी हो गया
था। क्योंकि
उसने कहा, यह
बात तो गलत है;
महावीर
कहते हैं, सोचा
और आधा हो गया,
यह तो बात
गलत है।
क्योंकि मैं
सोचता हूं कि
यह मकान गिर
जाये, आधा
तो नहीं
गिरता। सोचना
सोचना है; होना
होना है।
सोचने से कैसे
आधा हो जायेगा?
हर आदमी
सोचता है, मैं
धनी हो जाऊं, हो तो नहीं
पाता! आधा भी
नहीं हो पाता!
एक
मालिक ने अपने
नौकर को
समझाया: देखो, यदि किसी
काम की योजना
ठीक तरह से बन
जाये तो समझना
चाहिए कि आधा
काम हो गया।
तत्पश्चात
नौकर को कमरों
की सफाई का
आदेश देकर वे
कहीं चले गये।
दो घंटे बाद
जब वापिस आये
तो उन्होंने
पूछा, "कहो,
काम हो गया?'
"जी,
आधा हो गया,'
नौकर ने
तपाक से कहा।
"अच्छा,
कौन-कौन से
कमरे साफ कर
दिये?' मालिक
ने पूछा। "जी,
सफाई तो अभी
शुरू नहीं की
परंतु योजना
बना ली है कि
किस कमरे की
किस क्रम से
सफाई करनी है,'
नौकर ने
उत्तर दिया।
महावीर
के विरोध में
जो लोग खड़े हो
गये थे, उनकी
बात
तर्कयुक्त
मालूम पड़ती है,
क्योंकि
सोच लेने से
तो नहीं हो
जायेगा कुछ। लेकिन
महावीर बड़ी
गहरी बात कह
रहे हैं। वे
यह कह रहे हैं,
जब पहली
तरंग उठ गई, जब बीज भूमि
में पड़ गया तो
अब यह किसी को
भी दिखाई नहीं
पड़ता कि वृक्ष
हो गया। लेकिन
बीज भूमि में
पड़ गया—आधी
बात हो गई, असली
बात हो गई। अब
तो समय की ही
बात है। अब तो
थोड़े समय की
ही बात है और
थोड़े ऋतु की बात
है, वर्षा
के बादल
आयेंगे, वर्षा
होगी, बीज फूटेगा, अंकुर
बनेगा। अब यह
सब समय की बात
है, लेकिन
बीज जमीन में
पड़ गया—आधी
बात हो गई।
असली बात तो
हो गई।
क्योंकि बिना
बीज के पड़े
वृक्ष कभी
पैदा नहीं हो
सकता। और बीज
पड़ गया है, तो
वृक्ष भी पैदा
हो जायेगा।
महावीर
कहते हैं, अगर वृक्ष
को पैदा होने
से रोकना हो
तो बीज को ही
भूमि में पड़ने
से रोक लेना।
इसलिए वे कहते
हैं, राग
और द्वेष कर्म
के बीज, मूल
कारण हैं।
लोग
कर्म से बचना
चाहते हैं।
लोग कहते हैं, कर्मों से
कैसे छुटकारा
होगा? लोग
कहते हैं, कर्मजाल से कैसे
मुक्त हों? महावीर कहते
हैं, कर्मजाल से मुक्त
होना है तो
बीज को पकड़ो; शुरू से ही
शुरू करो; प्रारंभ
से ही प्रारंभ
करो। मध्य से
कुछ भी नहीं
हो सकता।
राग का
अर्थ है: किसी
चीज से लगाव।
द्वेष का अर्थ
है: किसी चीज
से विरोध। राग
का अर्थ है:
मैत्री
बनाना। द्वेष
का अर्थ है: शत्रुता
बनानी। तो न
तुम्हारा कोई
मित्र हो न कोई
शत्रु। न तुम
कुछ चाहो और न
तुम किसी चीज
से विकर्षित
होओ। जो हो
रहा है, तुम
उसे चुपचाप
बिना किसी
चुनाव के
स्वीकार करते
चले जाओ। यह
महावीर के
ध्यान का
सूत्र है। जो
हो रहा है—सुबह
आये सुबह, सांझ
आये सांझ, सुख
आये सुख, दुख
आये दुख; न
तो तुम सुख को
कहो कि और-और
आना, न तुम
दुख को कहो कि
अब दुबारा मत
आना, न तो
तुम सुख के
गले में फूल मालायें पहनाओ और न
तुम दुख का
अपमान करो—जो
आ जाये द्वार
पर, द्वार
खुला हो! दुख
आये दुख को
बसा लेना, सुख
आये सुख को
बसा लेना; जाता
हो जाने देना,
क्षणभर को भी रोकना
मत! न तो किसी
को धकाना, न
किसी को
बुलाना।
जिसको
कृष्णमूर्ति
"च्वायसलेस
अवेयरनेस' कहते
हैं। महावीर
उसी को
"निर्विकल्प
ध्यान' कहते
हैं।
तुम
चुनाव मत करना, क्योंकि
चुनाव से ही
जकड़ शुरू होती
है। चुनाव से
ही तुम बंध
जाते हो। और
एक दफा चुनाव
की तरंग उठ गई
कि जल्दी ही
समय पाकर कृत्य
भी हो जायेगा।
तो
कहां जागना है? जागना है
जहां से बीज
शुरू होता है।
"कर्म
मोह से
उत्पन्न होता
है।' मोह
का अर्थ होता
है: तंद्रा।
मोह का अर्थ
होता है:
मूर्च्छा, प्रमाद।
हम सोए-सोए
लोग हैं: जैसे
हमने नशा किया
हुआ है। नशे
हमारे अलग-अलग
हैं, शराबें
हमारी अलग-अलग
हैं; लेकिन
हम सबने नशा
किया हुआ है।
कोई आदमी धन के
नशे में है; सबको दिखाई
पड़ता है कि यह
आदमी पागल है,
किसलिए धन इकट्ठा
कर रहा है!
लेकिन जो नशे
में है, उसे
भर दिखाई नहीं
पड़ता। कोई
आदमी पद के
नशे में है; सबको दिखाई
पड़ता है कि
क्यों पागल
हुए जा रहे हो!
बड़ी से बड़ी
कुर्सी पर
बैठकर भी क्या
हो जायेगा? जो बैठे गये
हैं, जरा
उनको तो देखो
कि क्या हुआ!
बहुत धन के
जिन्होंने
अंबार लगा
लिये हैं, उन्होंने
क्या पाया?
एंडरू कारनेगी, अमेरीका का करोड़पति,
मर रहा था, तो उसने
अपने सेक्रेटरी
से पूछा कि एक
बात पूछनी है।
कई बार सोची, फिर मैं
संकोच कर कर
रह गया; अब
तो मरने का
दिन भी आ गया, अब पूछ ही
लूं तुझसे। तू
मेरे पास कोई
तीस साल से
काम करता है।
करीब-करीब जिंदगीभर
का साथ है। एक
बात ईमान से
बता दे, अगर
परमात्मा ने
तुझ से पूछा
होता पैदा
होने के पहले
कि तू एंडरू
कारनेगी
बनना चाहता है
या एंडरू कारनेगी
का सेक्रेटरी
बनना चाहता है,
तो तूने
क्या मांगा
होता?
उसने
कहा, "मैं सेक्रेटरी
ही बनना
मांगता।' एंडरू कारनेगी
उठकर बैठ गया।
उसने कहा, "तेरा
मतलब?' उसने
कहा कि मैं
आपको तीस साल
से देख रहा हूं,
आपने कुछ भी
नहीं पाया।
दौड़े बहुत, पहुंचे कहीं
भी नहीं।
इकट्ठा बहुत
कर लिया, लेकिन
जितनी चिंता
और संताप आपको
है, उसे
देख-देखकर मैं
रोज भगवान को
जब रात प्रार्थना
करता हूं तो
मैं कहता हूं,
हे भगवान!
तेरी बड़ी
कृपा! एंडरू
कारनेगी
तूने मुझे न
बनाया। अच्छा
किया। फंसा
देता तो
मुश्किल हो
जाती।
एंडरू कारनेगी
ने अपने सेक्रेटरी
को कहा कि मैं
तो मर रहा हूं, लेकिन इस
बात को तू
सारी दुनिया
में प्रचारित कर
देना। मैं तुझ
से राजी हूं।
मैं व्यर्थ ही
दौड़ा-धूपा।
इतना
धन! दस अरब नगद
रुपये एंडरू
कारनेगी
छोड़कर मरा और
अरबों का और
फैलाव! कहते
हैं, उससे बड़ा
धनी आदमी
सिवाय निजाम
हैदराबाद को छोड़कर
और कोई न था।
पर पाया क्या?
न तो सो
सकता था ठीक
से। अपने
बच्चों को भी
ठीक से मिल
नहीं सकता था।
पत्नी भी अपनी
अपरिचित जैसी
हो गई थी; क्योंकि
काम से फुर्सत
कहां थी! कहते
हैं कि चपरासी
भी दफ्तर में
नौ बजे
पहुंचता, एंडरू कारनेगी
आठ बजे पहुंच
जाता। चपरासी
नौ बजे आता, क्लर्क दस
बजे आते, मैनेजर
ग्यारह बजे
आते, डायरेक्टरर्स एक बजे आते; डायरेक्टर
तीन बजे गये, मैनेजर चार
बजे गया, क्लर्क
भी पांच बजे
गये, चपरासी
भी साढ़े
पांच बजे चला
गया—एंडरू
कारनेगी
सुबह आठ से
लेकर रात नौ
और दस और
ग्यारह बजे
रात तक दफ्तर
में बैठा है।
यह तो चपरासी
से भी गई-बीती
हालत हो गई।
फिर रात सो न
सके क्योंकि
चिंताओं का
भार, सारी
दुनिया में
फैला हुआ धन
का साम्राज्य!
और मरते वक्त
भी जब किसी ने
उससे पूछा कि
"तुम तृप्त मर
रहे हो?' उसने
कहा, "तृप्ति
कैसी! केवल दस
अरब रुपये
छोड़कर मर रहा हूं,
सौ अरब की
आकांक्षा थी।
पूरा न हो
पाया, यात्रा
अधूरी रह गई।'
पर जो
धन की दौड़ में
है उसे नहीं
दिखाई पड़ता; उसे एक नशा
है। अगर तुम
इतना ही करो
कि तुम अपने
चारों तरफ
दौड़ते हुए
लोगों को गौर
से देख लो, तो
तुम्हारी दौड़
धीमी हो जाये।
जो पहुंच गये
हैं, जरा
उनको तुम देख
लो।
जिन्होंने पा
लिया है, जरा
उनको तुम देख
लो, तो
तुम्हारे सब
सपने गिर
जायें।
उनकी
ऊपरी और झूठी
शक्लों को मत
देखना, उनकी
भीतरी, उनकी
आंतरिक दशा को
देखना।
राष्ट्रपति
है कोई, कोई
प्रधानमंत्री
है—उनकी भीतरी
दशा को देखना,
अखबारों
में छपती
तस्वीर को मत
देखना। वे तस्वीरें
सब झूठी हैं।
वे तस्वीरें
आयोजित हैं।
स्टेलिन
और हिटलर कोई
भी तस्वीर को
ऐसे ही न छपने
देते थे। स्टेलिन
और हिटलर की
तस्वीरें
पहले एक
खुफिया विभाग
से गुजरती थीं, जहां उनकी
जांच की जाती।
वही तस्वीर छप
पाती थी अखबार
में, जो
प्रसन्नता
प्रगट करती हो,
आनंद प्रगट
करती हो, खुशी
प्रगट करती
हो। स्टेलिन
के चेहरे पर
चेचक के दाग
थे; किसी
फोटो में कभी
नहीं छपे। वे
चेचक के दाग कभी
स्वीकार नहीं
किये गये कि छपें।
राजनेता
बीमार पड़ जाते
हैं, महीनों
तक खबर नहीं
दी जाती।
राजनेता
और बीमार कहीं
पड़ता है? उससे
प्रतिमा
खंडित होती
है। हाथ-पैर डगमगाने
लगते हैं, तो
भी इसकी खबर
नहीं दी जाती।
तस्वीर
बनाई हुई है।
भीतर से देखो
उन्हें, तो
बड़े चकित हो
जाओगे। उनसे
ज्यादा नर्क
में कोई भी
जीता नहीं।
लेकिन कठिनाई
उनकी तुम समझ सकते
हो। इतनी
मुश्किल से
नर्क पाया है,
अब यह
स्वीकार भी
कैसे करें कि
यह नर्क है!
इतनी
जद्दोजहद से
पाया है, इतने
संघर्ष से
पाया है; अब
यह कैसे
स्वीकार करें
कि यह नर्क है!
एक
गांव में एक लफंगे
आदमी की लोगों
ने नाक काट
दी। उससे बहुत
परेशान थे। हर
किसी से छेड़-खान...।
गांव की
बहू-बेटियों
का जीना दूभर
हो गया था।
नाक कट गई तो
वह बड़ा परेशान
हुआ, अब क्या
करना! वह साधु
हो गया और
दूसरे गांव चला
गया। दूसरे
गांव में एक
वृक्ष के नीचे
बैठ गया, धूनी
रमा कर। गांव
के
लोग...कुतूहल
जगा, कौन
है भाई! कुछ
विचित्र भी है,
नाक भी नहीं
है, और बड़ी
आंखें बंद
किये हुए, और
ध्यानमग्न
बैठा है! लोग
आये। गांव के
लोग इकट्ठे हो
गये। किसी ने
पूछा, "महाराज!
आप यहां क्या
कर रहे हैं?' उसने कहा कि
परमात्मा का
स्वाद ले रहे
हैं; भोग
कर रहे हैं
प्रभु का।
अहा! कैसा
आनंद बरस रहा
है।
लोगों
ने भी आकाश की
तरफ देखा। कहा
कि हमें दिखाई
नहीं पड़ता।
उसने कहा, "तुम्हें
कैसे दिखाई
पड़ेगा...! उसके
लिए नाक कटवानी
जरूरी है। और
यह तो हिम्मतवरों
का काम है। यह
तो कभी कोई...।
तो धर्म तो
खड्ग की धार
है। खानानिधार!'
एकाध
हिम्मतवर खड़ा
हो गया, क्योंकि
यह तो चुनौती
हो गई। उसने कहा,
"क्या समझा
है तुमने? कोई
नामर्दों का
गांव है! मैं
तैयार हूं।' उसने कहा, "तैयार हो तो
बस ठीक।' वह
उसे पास दूसरे
खेत में ले
गया, झाड़
की छाया के
किनारे जाकर
उसने उसकी नाक
काट दी। चीख
पड़ा वह आदमी।
उसने कहा कि
दिखाई तो कुछ
पड़ता नहीं।
उसने कहा, "पागल!
किसी से कहना
मत! क्या हमको
दिखाई पड़ता
है। मगर जब कट गई
तो अपनी इज्जत
तो बचानी है, अब तुम्हारी
भी कट गई। अब
अगर तुमने
लोगों से जाकर
कहा कि कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता तो वह
लोग हंसेंगे,
तुम बुद्धू
समझे जाओगे।
तुम्हारी
मर्जी! अब तो
तुम हमारे साथ
ही हो जाओ। अब
तो तुम जाकर, नाचते हुए
जाओ और कहना, अहा! जैसे
हजारों सूरज
एक साथ निकले
हों, करोड़ों
कमल खिले हों।
हे प्रभु!
कैसा आनंद दिखला
रहा है, कभी
भी दिखाई न
पड़ा था। अब तो
तुम यही कहो।'
"वैसे
तुम्हारी
मर्जी', उसने
कहा, "तुमको
मैं कहता नहीं
कि यही कहो।
तुम्हें सचाई
कहनी हो सचाई
कह दो।'
उसने
कहा, "अब क्या
खाक सचाई
कहेंगे! अब
नाक तो कट ही
गई है, अब
और कटवानी
है क्या, सचाई
कहकर?'
उसने
जाकर गांव में
शोरगुल मचा
दिया। वह नाचता
हुआ गया। गांव
में कई लोग
तैयार हो गये
नाक कटवाने
को। कहते हैं, धीरे-धीरे
उस पूरे गांव
की नाक कट गई।
खबर राजा तक पहुंची।
राजा भी आया
देखने, गांव
में लोग नाच
रहे हैं, चीख
रहे हैं, बड़े
प्रसन्न हैं।
राजा ने कहा,
"हद्द हो गई!
ईश्वर को पाने
की इतनी सरल
तरकीब! न सुनी,
न
शास्त्रों
में पढ़ी।'
मगर जब
इतने लोगों को
हो गया है तो
राजा तक तैयार
हो गया। उसके
वजीर ने कहा, "ठहरो महाराज!
इतनी जल्दी मत
करो, क्योंकि
इस आदमी को
मैं...इसकी
शक्ल मुझे
पहचानी मालूम
पड़ती है। यह
तो दूसरे गांव
का आदमी है और
वहां के लोगों
ने इसकी नाक
काटी थी। तुम
जरा रुको। नाक
मत कटवा
लेना।
तुम्हारे
कटवाने पर तो
बड़ा उपद्रव हो
जायेगा। फिर
तो यह पूरा
राज्य कटवा
लेगा।'
जिसकी
कट जाती है, वह फिर उसकी
बचाने की भी
चेष्टा करता
है। मैंने अब
तक कोई धनपति
नहीं देखा
जिसकी नाक कट
न गई हो; न
कोई राजनेता
देखा जिसकी
नाक कट न गई
हो। लेकिन अब
किससे कहें!
अब यह दुख
अपना किससे
कहें, किससे
रोयें! अब
जो हो गया, हो
गया। और अपनी
इज्जत यही है,
इसी में है
कि कहे चले
जाओ कि बड़े
आनंदित हैं, बड़े प्रसन्न
हैं।
तुम, जिन्होंने
पा लिया है, उनकी तरफ
जरा गौर से
देखना।
जिन्होंने
बड़े महल बना
लिये हैं, उनकी
तरफ जरा गौर
से देखना।
जिनके पास तिजोड़ियां
भर गई हैं, उनको
जरा गौर से
देखना। कुछ
मिला है?
उनको
गौर से देखकर
तुम्हारा
राग-द्वेष
क्षीण होगा। और
तुमने भी
राग-द्वेष
करके बहुत देख
लिया है—थोड़ा
और ज्यादा, मात्रा में
भेद होगा—लेकिन
तुमने पाया
क्या?
राग से
भी दुख मिलता
है, द्वेष से
भी दुख मिलता
है। जो अपने
हैं वे भी दुख
ही दे जाते
हैं; जो
पराये हैं वे
तो दे ही जाते
हैं। दुश्मन
तो दुख देता
ही है, मित्रों
से तुम्हें
कुछ सुख मिला?
"राग
और द्वेष कर्म
के बीज हैं।
कर्म मोह से
उत्पन्न होता
है। वह
जन्म-मरण का
मूल है।'
और फिर
जब इस जीवन
में तुम अधूरे
मरते हो, अतृप्त,
तो
आकांक्षा
रहती है मरते
वक्त और नया
जीवन पाने की।
क्योंकि कुछ
पूरा न हुआ; खाली के
खाली, रिक्त
के रिक्त आ
गये; हाथ
भिक्षा के
पात्र ही बने
रहे, कभी
कुछ भरा नहीं।
तो वह जो
याचना है, वह
जो अधूरी
वासना है, वह
जो मांगने की
और होने की
अतृप्त कामना
है, वह फिर
नया जन्म
देगी। तुम
जन्मते हो, क्योंकि
तुम्हारा
जीवन अतृप्त
है। और तुमने
यह नहीं देखा
कि जीवन का अतृप्त
होना स्वभाव
है। बहुत बार
हम जन्मते हैं—कोई
हमें जन्माता
नहीं।
महावीर
परम
वैज्ञानिक
हैं। वे यह
नहीं कहते कि
परमात्मा
जन्माता है, कि वह लीला
कर रहा है।
क्योंकि यह
"लीला' जरा
बेहूदी मालूम
पड़ती है। यह
लीला तो बताती
है कि
परमात्मा कोई मेसोचिस्ट
होगा, कोई
पर-पीड़नकारी।
और पाप की
परिभाषा यही
है: "पापं
पर-पीड़नम्!'
पाप की
परिभाषा यही
है कि दूसरे
को सताना पाप है।
तो परमात्मा
से बड़ा तो
पापी कोई नहीं
हो सकता, क्योंकि
इतने लोगों को
पैदा कर रहा
है, और सता
रहा है। तो
महावीर कहते
हैं, ऐसे
परमात्मा की
बात ही मत
उठाओ; ऐसा
कोई परमात्मा
नहीं है।
परमात्मा हो
तो यह पीड़ा हो
नहीं सकती, क्योंकि
परमात्मा
पर-पीड़न में
थोड़े ही रस
लेगा!
दूसरे
को दुख देने
में क्या लीला
हो सकती है? लोग सड़
रहे हैं, गल
रहे हैं, रो
रहे हैं, संताप
से भरे हैं—और
परमात्मा मजा
ले रहा है!
नहीं, यह
बात सच नहीं
हो सकती। यह
मजा जरा रुग्ण
है, परवर्टिड। यह मजा
विक्षिप्त का
है। पागल होगा
परमात्मा, अगर
यह उसकी लीला
है। बच्चा
पैदा नहीं हुआ
और मर जाता है,
मां रो रही
है, चीख
रही है, बेटे
रो रहे हैं, बेटियां रो रही हैं, पति रो रहा
है, पत्नी
रो रही है, सब
तरफ रोना मचा
है, हाहाकार
है, युद्ध
हैं, लाखों
लोग मर रहे
हैं, गल
रहे हैं, सड़ रहे
हैं, सब
तरफ संघर्ष है,
सब तरफ
खून-पात है, सब तरफ
छीना-झपटी है—और
फिर भी पाता
कोई कुछ नहीं,
हाथ खाली के
खाली! यह लीला
कैसी है? यह
तो दुख-स्वप्न
है।
महावीर
कहते हैं, नहीं, परमात्मा
को बीच में मत
लाओ। चीजें
सीधी देखो।
परमात्मा को
बीच में लाने
से अड़चन हो
जाती है।
परमात्मा को
बीच में लाने
से ऐसा ही हो
जाता है जैसे
प्रिज्म में
से सूरज की
किरण निकले, सात टुकड़ों
में टूट जाती
है, खंड-खंड
हो जाती है। हटाओ प्रिज्म
को बीच से; सूरज
की किरण को
सीधा ही देखें;
उसके
स्वभाव को
सीधा ही पहचानें।
महावीर
कहते हैं, तुम ही अपने
जीवन के कारण
हो। महावीर
तुम्हारा
उत्तरदायित्व
तुम्हें
परिपूर्णता
से देते हैं।
महावीर कहते
हैं, कोई
और नहीं है
तुम्हारे ऊपर
जो तुम्हें
भटका रहा है; तुमने भटकना
चाहा है, इसलिए
भटक रहे हो।
उत्तरदायित्व
गहन है, गंभीर
है; लेकिन
साथ ही इसी
उत्तरदायित्व
में छिपी हुई सूरज
की किरण भी है,
सुबह भी है।
इसी
उत्तरदायित्व
में स्वतत्रंता
का बीज भी है।
क्योंकि अगर
मैं ही अपने
दुखों का कारण
हूं तो बात
खतम हो गई। तो
जिस दिन मैं
निर्णय
करूंगा, उसी
दिन दुख
समाप्त हो
जायेंगे। जिस
दिन मैं पैदा
न करूंगा और, उसी दिन
विलुप्त हो
जायेंगे। अगर
मैंने ही इस जीवन-जन्म
के फैलाव को
स्वीकार किया
है, अपने
ही हाथों से
निर्मित किया
है, तो जिस
दिन मेरा
सहारा छूट
जायेगा उसी
दिन यह धारा
खंडित हो
जायेगी।
"मोह
जन्म-मरण का
मूल है, और
जन्म-मरण को
दुख का मूल
कहा है।'
सब कुछ
अदीब! इश्क ने
जी से भुला
दिया
जाना
कहां है और
आये थे कहां
से हम!
मोह की
तंद्रा में सब
भूल जाता है:
कहां से आये, कहां जा रहे
हैं, कौन
हैं!
हैं
कुछ खराबियां
मेरी तामीर
में जरूर
सौ
मर्तबा बनाकर
मिटाया गया
हूं मैं।
भक्ति-मार्ग
के लोग कहेंगे, परमात्मा
तुम्हें
बनाता है, मिटाता
है, क्योंकि
कुछ खराबियां
हैं तुम्हारी
तामीर में।
जैसे कोई
चित्रकार
चित्र को
बनाता है, फिर-फिर
बनाता है; कोई
मूर्तिकार
मूर्ति बनाता
है, फिर-फिर
बनाता है, क्योंकि
मूर्ति बन
नहीं पाती, पूरी नहीं
बन पाती।
हैं
कुछ खराबियां
मेरी तामीर
में जरूर!
—मेरे
होने में ही
कुछ खराबी है।
सौ
मर्तबा बनाकर
मिटाया गया
हूं मैं।
—और
इसीलिए तो
इतने जन्म, इतनी मृत्युएं,
इतनी बार
बनना, इतनी
बार मिटना...।
लेकिन
महावीर कहते
हैं, कोई बना और
मिटा नहीं रहा
है। क्योंकि
अगर परमात्मा
तुम्हें बना
रहा है और फिर
भी तुम में
खराबी रह जाती
है, तो
खराबी
परमात्मा में
है, तुम
में नहीं। एक
मूर्तिकार
मूर्ति बनाता
है और मूर्ति
नहीं बन पाती,
तो खराबी
मूर्ति में
थोड़े ही है, मूर्तिकार
में है। फिर
बनाता है, फिर
भी कमी रह
जाती है, तो
फिर भी खराबी
मूर्तिकार
में है। अगर
परमात्मा है
तो सारी जुम्मेवारी
परमात्मा की
है और फिर
मनुष्य
परतंत्र है।
मनुष्य की
स्वतंत्रता
की परिपूर्ण
घोषणा महावीर
ने की है।
इससे बड़ी
घोषणा मनुष्य
की स्वतंत्रता
की न पहले कभी
हुई, न बाद
में कभी हुई।
कहा कि मनुष्य
सब के ऊपर है।
कहा, मनुष्य
से ऊपर कोई भी
नहीं। बड़ी
स्वतंत्रता, बड़ा
दायित्व!
एक-एक कदम
सम्हालकर
रखने की बात है
फिर! क्योंकि
अगर परमात्मा
है तो हम चले
जा सकते हैं, उसकी
प्रार्थना
करते हुए, वह
हाथ पकड़े
रहेगा; उसकी
जुम्मेवारी
है!
महावीर
ने मनुष्य को
एक अर्थ में
अनाथ कर दिया, क्योंकि कोई
नाथ न रहा
ऊपर। जैसे
किसी बच्चे के
मां-बाप छीन
लिए। लेकिन
तुमने देखा!
जैसे ही तुम्हारे
ऊपर से कल्पना
के जाल हट
जायें, कोई
नहीं ऊपर, तुम
अकेले हो—वैसे
ही तुम
सम्हलकर चलने
लगते हो।
तुमने कभी बच्चे
को मां के साथ
चलते और अकेले
चलते देखा?
मैं एक
घर में मेहमान
था। एक छोटा
बच्चा खेल रहा
था, वह गिर
पड़ा। उसने
चारों तरफ
उठकर देखा।
मां उसकी पास
न थी, वह
बाजार गई थी।
उसने मेरी तरफ
भी देखा, फिर
सोचा कि पता
नहीं...। मैंने
उसकी तरफ देखा
ही नहीं; जैसे
वह गिरा, फिर
मैंने कहा, अब देखना
ठीक नहीं। मैं
दूसरी तरफ ही
देखता रहा। वह
उठ आया। वह
अपने खेल में
फिर लग गया।
आधा घंटे बाद
जब उसकी मां
आई, दरवाजे
पर देखकर एकदम
चीखकर
रोने लगा।
मैंने उससे
पूछा कि देख, बेईमानी कर
रहा है तू! आधा
घंटा पहले
गिरा था। उसने
कहा, उससे
क्या होता है?
कोई यहां था
ही नहीं, तो
रोने से फायदा
क्या! और आप
दूसरी तरफ देख
रहे थे; आप
देख ही नहीं
रहे थे इस
तरफ। फायदा
क्या!
पीड़ा
के कारण नहीं
रो रहा है; मां आ गई है
इसलिए रो रहा
है!
महावीर
ने ऊपर से
सारा छत्र हटा
लिया। कहा, कोई
परमात्मा
नहीं है। आदमी
को अकेला छोड़
दिया। अब तो
तुम्हें अपने
पैर अपने ही
हाथ सम्हालने
हैं। इससे बड़े
होश की
संभावना पैदा
हुई। इससे बड़ी
जागरूकता की
संभावना पैदा
हुई। जैसे कि
तुम कभी पहाड़
के कगार पर
चलते हो, तो
कितने
सम्हलकर चलते
हो! अंधेरी
रात में चलते
हो अकेले, कितने
सम्हलकर चलते
हो! कितने
चौकन्ने! कितने
सावधान! कितने
सावचेत!
महावीर
ने परमात्मा
को हटा लिया
ताकि तुम सावधान
हो सको। कोई
सहारा न होगा
तो तुम सावधान
होओगे ही; क्योंकि फिर
सावधानी ही
सहारा है। और
कोई दूसरा
तुम्हें जन्म
नहीं दे रहा
है; तुम ही
अपने
राग-द्वेष
से...।
"इस
संसार में
जन्म, जरा
और मरण के दुख
से ग्रस्त जीव
को कोई सुख
नहीं है। अतः
मोक्ष ही उपादेय
है।'
रत्तीभर
भी सुख नहीं
है। इस संबंध
में महावीर अत्यंत
अतिवादी हैं।
वे कहते हैं, रत्तीभर भी
सुख नहीं है।
और तुम्हें
अगर कभी-कभी
सुख मालूम
होता है तो
तुम्हारी
धारणा है, तुम्हारी
मान्यता है।
इसलिए जल्दी
ही तुम्हारी
मान्यता टूट
जायेगी। तुम
पाओगे: सुख
गया।
दुनिया
में कोई गम के
अलावा खुशी
नहीं
वो
भी हमें नसीब
कभी है, कभी
नहीं।
दुख
इतना गहन है
कि दुख भी सदा
नसीब नहीं
होता। कभी-कभी
तुम ऐसी हालत
में होते हो
कि दुख भी नहीं
होता—इतने
खाली, इतने
रिक्त! इसलिए
तो लोग दुख को पकड़े रखते
हैं: सुख न सही,
दुख तो है, कुछ तो है!
कभी-कभी ऐसी
घड़ियां भी आती
हैं: सुख तो है
ही नहीं, दुख
भी नहीं है।
तब महादुख
की घड़ी आती
है। तब तुम
एकदम राख हो
जाते हो। जीने
में कुछ भी
सार नहीं रह
जाता—इतना भी
सार नहीं रह
जाता कि दुख
है, कम से
कम इससे लड़ना
है, इसे
मिटाना है।
दुख भी नहीं
है। एक बड़ी
गहन ऊब, एक
गहन बोरडम, राख-राख सब
हो जाता है!
हृदय में कोई
धड़कन नहीं।
श्वासों में
कोई कंपन
नहीं। जीवन का
कोई प्रवाह
नहीं, कोई
ऊर्जा नहीं।
उठ आते हो, एक
धक्के में!
उठना पड़ता है,
सुबह हो गई।
रात सो जाते
हो, क्योंकि
रात हो गई।
जिंदा रहते हो,
क्योंकि
रहना ही पड़ेगा
जब तक मौत न
आये। करोगे
क्या? ऐसे
धक्के में
चलते चले जाते
हो।
महावीर
कहते हैं, यहां कोई भी
सुख नहीं है।
क्योंकि
रत्तीभर भी तुम्हें
आशा रहे कि
थोड़ा भी है, एक प्रतिशत
भी है, तो
भी तुम जकड़े
रहोगे।
वह एक
प्रतिशत भी
काफी रहेगा
तुम्हें
रोकने को।
ऐसा
समझो कि तुम
कारागृह में
बंद हो। अगर
तुम मानते हो
कि कारागृह
में थोड़ी-सी
जमीन है जो कारागृह
नहीं है, तो
फिर तुम
कारागृह के
बाहर न जा
सकोगे; कम
से कम उसी
जमीन में अटके
रहोगे।
कारागृह या तो
पूरा कारागृह
है और या फिर
पूरा घर है।
इससे कम में
काम न चलेगा।
अगर तुमने कहा
कि माना, पूरा
कारागृह तो
कारागृह है, लेकिन यह
दीवाल
कारागृह नहीं
है। इसके पास
बैठकर बड़ी
शांति मिलती
है। मगर यह
दीवाल भी कारागृह
के भीतर है।
तुमने कहा, "और सब तो
बुरा है, लेकिन
यह पहरेदार
बड़ा भला है, मुस्कुराता
है कभी-कभी, कभी दो बात
भी कर लेता
है।' और सब
तो बुरा है, लेकिन यह
पहरेदार भी तो
इसी कारागृह
का हिस्सा है!
तो
जिंदगी में
कभी-कभी मुस्कुराहटें
भी होंगी।
खयाल रखना, ये भी
कारागृह के ही
हिस्से हैं।
और कभी-कभी प्रसन्नतायें
भी होंगी; लेकिन
ये भी कारागृह
के ही हिस्से
हैं। कभी-कभी
दीये जले हुए
भी मालूम
पड़ेंगे, क्योंकि
अगर दीये
बिलकुल न जलें
तो तुम सभी
अंधेरे को
छोड़कर बाहर
भाग जाओगे। थोड़ी
आशा का दीप
जलता रहना
चाहिए।
तुम्हीं जलाये
रहते हो—अपनी
ही वासना का
तेल डाल-डालकर,
ईंधन
डाल-डालकर।
तुम्हीं
सोचते रहते
हो।
तुमने
कारागृह में
देखा! मैं
कभी-कभी
कारागृह जाया
करता था—कैदियों
से मिलने। एक
प्रांत के
गवर्नर मेरे मित्र
थे, तो
उन्होंने
मुझे पास दिया
हुआ था, उस
प्रांत के
सारे
कारागृहों
में मैं जा
सकता था। वहां
मैं बड़ा चकित
होता! लोग
कारागृह में अपनी
कोठरी को भी
सजा लेते हैं।
कुछ न मिले, अखबार से
फिल्म ऐक्टर-ऐक्ट्रेस
की फोटो
निकालकर
चिपका लेते
हैं। सोचो
थोड़ा! उसको भी
घर बना लेते
हैं।
साफ-सुथरा
रखते हैं अपनी
कोठरी को। कोई
अपनी रामायण
ले आता है अपने
साथ, कोई
अपनी बाइबिल
रख लेता है—मगर
यह सब कारागृह
का हिस्सा है।
यह
पूरा कारागृह
ही छोड़ने
योग्य है।
पूरा छोड़ने
योग्य है, तो ही छोड़ने
योग्य क्षमता
पैदा होगी
तुममें, अन्यथा
नहीं पैदा
होगी।
इसलिए
महावीर कहते
हैं, "इस
संसार में
जन्म, जरा
और मरण के दुख
से ग्रस्त जीव
को कोई सुख नहीं
है। अतः मोक्ष
ही उपादेय
है।'
मोक्ष
का अर्थ है:
कारागृह से
मुक्ति; राग-द्वेष
के बंधन से
मुक्ति; मूर्च्छा,
मोह से
मुक्ति।
"यदि तू घोर
भवसागर के पार
जाना चाहता है
तो हे सुविहित!
शीघ्र ही
तप-संयम रूपी
नौका को ग्रहण
कर।'
इस
सूत्र में कुछ
बातें समझने
जैसी हैं।
"यदि
तू भवसागर के
पार जाना
चाहता है...।'
इस
संसार को हमने
भवसागर कहा
है। भवसागर का
अर्थ होता है:
जहां होने की
तरंगें उठती
रहती हैं। भव
यानी होना।
जहां हम मिट-मिटकर
होते रहते
हैं। जहां लहर
मिटती नहीं कि
फिर उठ आती
है। जहां एक
वृक्ष गिरा
नहीं कि हजार
बीज छोड़ जाता
है। जहां तुम
जाने के पहले
ही अपने आने
का इंतजाम बना
जाते हो। जहां
मरते-मरते तुम
जीवन के बीज
बो देते हो।
जहां एक
असफलता मिलती है, वहां तुम दस
सफलताओं के
सपने देखने
लगते हो। जहां
एक द्वार बंद
होता है, तुम
दूसरा खोलने
लगते हो।
भवसागर
का अर्थ है:
जहां होने की
तरंगें उठती रहती
हैं, उठती
रहती हैं—अंतहीन!
"यदि
तू इस घोर
भवसागर के पार
जाना चाहता है'...यदि तुझे
दिखाई पड़ने
लगा है कि
जीवन दुख है, पीड़ा है, संताप
है; अगर
तूने इससे
मुक्त होना
चाहा है..."तो
हे सुविहित!
शीघ्र ही तप-संयमरूपी
नौका को ग्रहण
कर।' शीघ्र
ही...।
तं
जइ इच्छसि
गंतुं, तीरं भवसायरस्स
घोरस्स।
तो
तव संजमभंडं, सुविहिय गिण्हाहि
तूरंतो।।
तुरंत!
शीघ्र! एक
क्षण भी खोये
बिना! क्योंकि
जितनी देर भी
तू क्षण खोता
है निर्णय
करने में, उतनी ही देर
में भवसागर
नयी तरंगें
उठाये जाता
है। जितना तू
स्थगित करता
है उतनी देर
खाली नहीं
जाता संसार; नयी इच्छायें,
नयी
वासनायें, तेरे
घर में घोंसला
बना लेती हैं,
तेरे वृक्ष
पर डेरा बना
लेती हैं।
शीघ्र ही! तत्क्षण!
जिस क्षण यह
समझ में आ
जाये कि जीवन
दुख है, उसी
क्षण तप-संयम
रूपी नौका को
ग्रहण कर।
तप का
अर्थ महावीर
की भाषा में
क्या है? दुख
को स्वीकार कर
लेना तप है।
दुख को
अस्वीकार
करना भोगी की
मनोदशा है।
भोगी कहता है,
दुख को मैं
स्वीकार न कर
सकूंगा, मुझे
सुख चाहिए!
तपस्वी कहता
है, दुख है
तो दुख को
स्वीकार
करूंगा, मुझे
अन्यथा नहीं
चाहिए! जो है
वह मुझे
स्वीकार है।
इसे
थोड़ा समझना, क्योंकि
महावीर की
परंपरा, महावीर
के अनुयायी
इसे बड़ा गलत
समझे। महावीर
के अनुयायी
समझे कि जैसे
दुख पैदा करना
है। दुख पैदा
करने की जरूरत
नहीं है—दुख
काफी है, काफी
से ज्यादा है।
होना ही दुख
है; अब और
दुख की थोड़े
ही जरूरत है
कि तुम दुख का
आयोजन करो कि
तुम भूखे खड़े
रहो, कि
धूप में खड़े
रहो, कि
शरीर को गलाओ,
कि सड़ाओ,
इस सब की
कोई जरूरत
नहीं है। यह
तो फिर तुमने
एक नया
राग-द्वेष बो
दिया। पहले
तुम सुख
मांगते थे, अब तुम दुख
मांगने लगे—मगर
मांग जारी
रही। पहले तुम
कहते थे, महल
चाहिए; अब
अगर तुम्हें
महल में ठहरना
पड़े तो तुम
रुक नहीं सकते
महल में, तुम
कहते हो, अब
तो सड़क चाहिए—मगर
चाहिए कुछ
जरूर! पहले
तुम कहते थे, सुस्वादु
भोजन चाहिए; अब अगर
सुस्वादु
भोजन मिल जाये
तो तुम लेने
को तैयार नहीं
हो। तुम कहते
हो, अब तो कंकड़-पत्थर,
मिट्टी
उसमें मिला ही
होना चाहिए, तो ही हमें
सुपाच्य
होगा।
दुख को
चुनना नहीं
है। आये दुख
को स्वीकार कर
लेना तप है।
आये दुख को
ऐसे स्वीकार
कर लेना कि
दुख भी मालूम
न पड़े, तप
है। अगर तुमने
मांगा तो मांग
तो जारी रही। कल
तुम सुख
मांगते थे, अब दुख
मांगने लगे; कल तुम कहते
थे धन मिले, अब तुम कहते
हो कि त्याग; कल तुम कहते
थे संसार, अब
तुम कहते हो, नहीं संसार
नहीं; हिमालय
भाग रहे हो—लेकिन
कहीं जाना रहा,
कोई दिशा
रही!
महावीर
के तप का अर्थ
है: जो अपने से
होता हो उसे
तुम स्वीकार
कर लेना। दुख
तो हो ही रहा
है—दुख ही हो
रहा है, और
कुछ भी नहीं
हो रहा है।
तुम स्वीकार
भर कर लेना।
उसी स्वीकार
में तुम्हारा
याचक रूप तिरोहित
हो जायेगा, तुम्हारा
भिखमंगा मिट
जायेगा, तुम
सम्राट हो
जाओगे।
जिसने
दुख स्वीकार
कर लिया, उसके
भीतर एक
महाक्रांति
घटित होती है।
उसकी सुख की
मांग तो रही
नहीं; नहीं
तो दुख
स्वीकार न कर
सकता था। और
जिसने दुख
स्वीकार कर
लिया, उसे
दुख दुख न
रहा।
इसे
तुम थोड़ा
प्रयोग करना।
सिर में दर्द
हो तो तुम उसे स्वीकार
करके किसी दिन
देखना। बैठ
जाना शांत, लेट जाना, स्वीकार कर
लेना कि सिर
में दर्द है, उससे भीतर
कोई संघर्ष मत
करना, भीतर
यह भी मत कहना
कि न हो। है तो
है। जो है वह है।
उसे स्वीकार
कर लेना। उसे
साक्षी-भाव से
देखते रहना।
तुम चकित
होओगे:
कभी-कभी
साक्षी-भाव
सधेगा, उसी
क्षण में तुम
पाओगे
सिरदर्द खो
गया! जब साक्षी-भाव
छूट जायेगा, तुम पाओगे, फिर सिरदर्द
आ गया! एक बड़ा
क्रांतिकारी
अनुभव होगा कि
जब तुम बिलकुल
स्वीकार कर
लेते हो सिरदर्द
को, तभी वह
खो जाता है।
और जैसे ही फिर
इच्छा उठती है
कि नहीं, यह
सिरदर्द नहीं
होना चाहिए, कितनी तकलीफ
हो रही है—वैसे
ही सिरदर्द
फिर घना हो
जाता है।
इसे
तुम छोटे-छोटे
प्रयोग करके
देखो। कोई भी
दुख आए—और दुख
तो रोज आ रहे
हैं और सभी को
आ रहे हैं। यह तो
भवसागर है, यहां तो दुख
पैदा हो ही
रहे हैं, तरंगें
उठ ही रही
हैं। और नयी
तरंगें पैदा
करने की जरूरत
नहीं है, जो
अपने से आ रहा
है, जो
तुम्हारे
अतीत में किये
कर्मों से आ
रहा है—उसके
ही तुम साक्षी
हो जाओ। तो
तुमने
तप-संयम-रूपी
नौका को ग्रहण
कर लिया। और
इस तपसंयमरूपी
नौका में
चारों तरफ
भवसागर के
तूफान उठेंगे
और हर तूफान
तुम्हें सुदृढ़
कर जायेगा, और हर तूफान
तुम्हें भीतर
एकजुट, इकट्ठा
कर जायेगा। और
हर तूफान, और
हर तूफान की
चुनौती
तुम्हारे
भीतर आत्मा को
जन्म
देनेवाली
बनेगी।
तूफां से
खेलना अगर
इंसान सीख ले
मौजों
से आप उभरें
किनारे
नये-नये।
एक बार
तूफान से
जूझना, एक
बार तूफान से
खेलना, एक
बार तूफान के
साक्षी बन
जाना—फिर
लहरों में ही
नये-नये
किनारे उठने
लगते हैं। सुख
खोजकर किसी ने
कभी कुछ नहीं
पाया; लेकिन
जिसने दुख का
साक्षी बनना
सीख लिया, उसने
महासुख
पाया है।
"जिससे
विराग
उत्पन्न होता
है, उसका
आदरपूर्वक आचरण
करना चाहिए।
विरक्त
व्यक्ति
संसार बंधन से
छूट जाता है
और आसक्त
व्यक्ति का
संसार अनंत
होता चला जाता
है।'
"जिससे
विराग
उत्पन्न हो
उसका
आदरपूर्वक
आचरण करना
चाहिए!' महत्व
है
"आदरपूर्वक' पर। तुम
जबर्दस्ती भी
विराग कर सकते
हो। तुम बेमन
से भी विराग
कर सकते हो। तुम
दिखावे के लिए
भी विराग कर
सकते हो। जैसे
समझो, उपवास
कर लेते हो
तुम—पर्यूषण
आए, आठ या
दस दिन के
उपवास कर
लिये। अब कैसी
चीजें विकृत
हो जाती हैं!
तुम उपवास
करते हो, फिर
तुम्हारा आदर
किया जाता है,
शोभाऱ्यात्रा निकलती है, बैंड-बाजे
बजते हैं, लोग
प्रशंसा करने
आते हैं कि
बड़ा काम किया,
समाज में
बड़ा सम्मान
मिलता है। यह
तो बड़ी चूक हो
गई।
महावीर
ने यह नहीं
कहा था कि तुम
विराग करो—और
दूसरे आदर
करें।
महावीर
कहते हैं, तुम
आदरपूर्वक
विराग करना।
जब तुम उपवास
करो तो परम
आदर से करना।
यह बड़ी घड़ी
है। यह बड़ी
महिमा की घड़ी
है; क्योंकि
साधारणतः
मनुष्य की
जीवन-आकांक्षा
भोजन की है, तुम उपवास
कर रहे हो।
तुम बड़ी
पवित्र भूमि
पर यात्रा कर
रहे हो। यह
तीर्थयात्रा
है। उन दस दिनों
में तुम जितने
सम्मानपूर्वक,
जितने
अहोभाव से, जितने
कृतज्ञता-भाव
से उपवास कर
सको, उतनी
ही उपवास की
महिमा होगी।
दूसरों
को तो पता भी
मत चलने देना; क्योंकि
दूसरों से आदर
पाने की
आकांक्षा उपवास
का अनादर है।
यह तो तुमने
उपवास को भी
बाजार में बेच
दिया। यह तो
तुमने उपवास
से भी कुछ और
खरीद लिया—समाज
का सम्मान, रिस्पेक्टेबिलिटी। यह तो
तुमने उपवास
को भी बाजार
की चीज बना
दिया; इसको
भी बेच दिया, इसको तो कम
से कम चुपचाप
करते।
मुहम्मद
ने कहा है: जब
तुम
प्रार्थना
करो तो तुम्हारी
पत्नी को भी
पता न चले।
जीसस ने कहा है: एक
हाथ से दान दो, दूसरे हाथ
को खबर न हो।
तो सम्मान है।
सम्मान
का अर्थ है:
तुम जो कर रहे
हो, वही
साध्य है; उसका
तुम साधन की
तरह उपयोग न
करोगे। अगर
तुमने उपवास
और तप का भी
साधन की तरह
उपयोग कर लिया
कि अखबार में
फोटो छपेगी, चलो किसी
तरह दस दिन
गुजार दो—तो
तुम उपवास से
वंचित रह गये।
तुमने अनशन
किया, उपवास
नहीं। तुम
भूखे मरे, लेकिन
तुम उपवास के
आनंद से वंचित
रह गये। यह तो
किसी को
कानों-कान खबर
न हो।
तुम्हारी
तपश्चर्या
साध्य बने, साधन नहीं।
तुम्हारी
पूजा-प्रार्थना,
अर्चना, तुम्हारा
ध्यान, सामायिक;
साध्य बने।
रात के अंधेरे
में जब सारा
जगत सोया हो, चुपचाप उठकर
कर लेना अपनी
सामायिक।
लेकिन तुमने
देखा, लोग
मंदिर में
जाकर करेंगे!
लोगों को
तुमने
सामायिक और
ध्यान करते देखा!
करते भी
जायेंगे, माला
भी फेरते
जायेंगे—चारों
तरफ देखते
जायेंगे, कोई
देख रहा है कि
नहीं! अगर कोई
न देख रहा हो
तो जल्दी माला
फिर जाती है, दो-दो गुरिए
एक साथ चले
जाते हैं। कोई
अगर देख रहा
हो तो
आहिस्ता-आहिस्ता
चलती है। यह
बगुला-भगति
है। वह बगुले
को देखा, खड़ा
एक पैर पर, कैसा
भगत, शुभ्र-वेश
में, हिलता
भी नहीं, लेकिन
नजर मछली पर
लगी है!
तुम्हारी
नजर अगर अभी
आदर और सम्मान
दूसरों से
पाने पर लगी
है, तो यह तो
अहंकार की ही
पूजा हुई, इससे
धर्म का कोई
संबंध नहीं
है।
महावीर
कहते हैं, आदरपूर्वक...।
जिससे विराग
उत्पन्न होता
है उसका
आदरपूर्वक
आचरण करना
चाहिए। एक-एक
कृत्य विराग
का इतने
सम्मान और
अहोभाव से
करना कि उसके
करने में ही
तुम्हारे
भीतर फूल बरस
जायें, तुम्हारे
भीतर सुगंध
फैल जाये।
साधन की तरह नहीं,
साध्य की
तरह। वही अपने
आप में गंतव्य
है। उससे कुछ
और नहीं पाना
है।
उपवास
करके स्वर्ग
नहीं पाना है।
उपवास स्वर्ग
है—यह आदर
हुआ। ध्यान
करके पुण्य
नहीं पाना है।
ध्यान पुण्य
है—यह आदर
हुआ। तो जो भी
तुम
आदरपूर्वक
करोगे, वही
तुम्हें धर्म
की दिशा में
गतिमान
करेगा।
"विरक्त
व्यक्ति संसार-बंधन
से छूट जाता
है।'
विरक्त
का अर्थ है:
जिसने विराग
को आदर दिया। विरक्ति
ओढ़ी, ऐसा
नहीं—विराग को
आदर दिया।
विरक्ति ओढ़नी
बड़ी आसान है।
तुम नग्न खड़े
हो जाओ, छोड़
दो वस्त्र, एक दफा भोजन
करने लगो—लेकिन
अगर तुम्हारी
आंखों में
प्रसाद न आये,
तुम्हारी
वाणी में
माधुर्य न आये,
तुम्हारे
उठने-बैठने
में प्रतिपल
धन्यता न बरसे—तो
तुम कर लो यह
सब, इससे
कुछ हल न होगा,
कुछ लाभ न
होगा।
एक
मुनि के संबंध
में मैंने
सुना है।
क्रोधी थे वे, जब मुनि
नहीं थे। महाक्रोधी
थे। इतने
क्रोधी थे कि
अपने बेटे को
क्रोध में आकर
कुएं में फेंक
दिया था। उसकी
मौत हो गई थी।
उसी से पश्चात्ताप
हुआ। गांव में
कोई मुनि ठहरे
थे, वे
गये। मुनि ने
कहा कि
पश्चात्ताप
अगर सच में
हुआ है तो छोड़
दो संसार।
क्रोधी आदमी
थे, छोड़
दिया। लेकिन
ध्यान रखना, छोड़ा भी
क्रोध में। जिद्द पकड़
गई। "अरे, तुमने
कहा और हम न
छोड़ें! तुमने
समझा क्या है?'
और लोगों ने
समझाया कि कभी
तुमने त्याग
साधा नहीं है,
कभी ध्यान
किया नहीं है,
एक दम से
छलांग मत लो, आहिस्ता
चलो। जिद्द
पकड़ गई। हठी
थे। वही हठ
पुराना। जिस
आदमी ने कुएं
में धक्का दे
दिया था बेटे
को और हत्या
कर दी थी, उसी
ने अपने को भी धक्का
दे दिया
वैराग्य में।
वे मुनि हो
गये।
दिगंबर
जैनों में
पांच सीढ़ियां
हैं, वे एक साथ
छलांग लगा
गये। एक-एक
कदम महावीर ने
बड़े आहिस्ता
बढ़ने को कहा
है। क्योंकि
महावीर कहते
हैं, जीवन
एक क्रम है।
जैसे वृक्ष
धीरे-धीरे
बढ़ता है, ऐसे
ही धीरे-धीरे
बढ़ने की जरूरत
है। क्योंकि
धीरे-धीरे शाखायें
ऊपर उठती हैं।
उसी आधार से
धीरे-धीरे
जड़ें भी नीचे
गहरी जाती
हैं। वृक्ष
अगर एकदम ऊपर
चला जाये और
जड़ें गहरी
भीतर न जा पायें,
तो गिरेगा,
मरेगा। यह
बढ़ना न हुआ, यह तो मौत हो
जायेगी। पांच सीढ़ियां
बनाई हैं।
एक-एक कदम
बढ़ना है। मुनि
होने की सीढ़ी पांचवीं
सीढ़ी है, जब
वस्त्र भी छूट
जायेंगे, सब
छूट जायेगा।
वह
एकदम से मुनि
हो गया! उसने
जाकर मंदिर
में वस्त्र
फेंक दिये।
क्रोधी आदमी
था, जिद्दी
आदमी था। जिन
मुनि ने
दीक्षा दी, वे बड़े
प्रभावित
हुए।
उन्होंने कहा,
"व्याख्यान
देते-देते
जन्म हो गया
मेरा, अनेक
लोग मिले; मगर
लोग कहते हैं,
सोचेंगे।
तू एक
करनेवाला है।
तू बड़ा
धार्मिक है।'
लेकिन वह
आदमी धार्मिक
नहीं था। उनको
नाम मिला:
शांतिनाथ। वह
आदमी क्रोधी
था।
राजधानी
उनका आगमन हुआ, तो पुराने
बचपन का एक
मित्र भी
राजधानी आया
था, तो
उनसे मिलने
गया। देखा कि
वह महाक्रोधी,
क्रोधनाथ शांतिनाथ
हो गये हैं।
देखें। जाकर
देखा तो कुछ
कहीं शांति तो
दिखाई न पड़ी, वही तमतमाया
चेहरा था, वही
जलती हुई
आंखें थीं, वही क्रोध
और अहंकार था।
उसने परीक्षा
लेनी चाही। वह
पास गया। उसने
कहा कि
महाराज...! मुनि
पहचान तो गये
क्योंकि वे
बचपन से
परिचित थे
उससे; लेकिन
जब कोई आदमी
पद पर पहुंच
जाता है—मुनि
पद—तो फिर
पहचान कैसी! एरे-गैरे
नत्थू-खैरों
से पहचान
कैसी! पहचान
तो गये और वह
आदमी भी पहचान
गया कि पहचान
गये हैं।
आंखें सब कह
देती हैं। मगर
ऊपर से ऐसे ही
रूप रखा कि
नहीं पहचाने हैं।
उसने पूछा, "महाराज!
क्या आपका नाम
पूछ सकता हूं?'
उसने कहा, "हांऱ्हां! अखबार नहीं
पढ़ते? रोज
तो अखबार में
छपता है। कौन
ऐसा है जो
मुझे नहीं
जानता? और
तू मुझ से नाम
पूछता है? मुनि
शांतिनाथ
मेरा नाम है।'
उस
आदमी ने कहा
कि यह कुछ
बदला नहीं है।
वह थोड़ी देर
चुप रहा।
उसने
फिर पूछा कि
"महाराज! मैं
भूल गया। आपका
नाम क्या है?' उन्होंने
डंडा उठा
लिया। कहा, "तू होश में
है? कह
दिया एक दफे
कि मेरा नाम
शांतिनाथ है।'
वह आदमी
थोड़ी देर फिर
चुप रहा। उसने
कहा, "महाराज!'
वह महाराज
ही कह पाया था
कि उन्होंने
डंडा उस के
सिर पर लगा
दिया! उन्होंने
कहा कि कह तो
चुका इतनी
बार! बुद्धि
है कि मूढ़
है बिलकुल? "शांतिनाथ' मेरा नाम
है।
उसने
कहा कि
महाराज! लेकिन
शांति कहीं
पता नहीं
चलती। मैं तो
वही रूप देख
रहा हूं, जिससे
बचपन से
परिचित हूं, कहीं कोई
फर्क नहीं
दिखाई पड़ता।
ऊपर के आवरण बदल
गये, भीतर
की अंतरात्मा
वही है।
विरक्ति
ओढ़ना मत!
विरक्ति कोई
वस्त्र नहीं
है, आवरण
नहीं है कि
तुम ओढ़ लो; भीतर
तुम वही रहो
और ऊपर से
वस्त्र बदल
लो। विरक्ति
तो भीतर की
भाव-दशा है।
धीरे-धीरे
सम्मान करना।
एक-एक उस घड़ी
का जिससे
विराग आता हो,
उसका
सम्मान करना।
एक-एक इंच
विराग की भूमि
पर अपने को
जमाना, चलाना।
धीरे-धीरे
संसार का बंधन
छूट जाता है। क्योंकि
बंधन राग के
कारण है। जब
विरक्ति आती है,
छूट जाता
है। गांठ जैसे
बंधी है, जब
उससे उलटा
करने लगते हो,
गांठ खुल
जाती है।
"और
आसक्त
व्यक्ति का
संसार अनंत
होता चला जाता
है।' आसक्त
व्यक्ति का संसार
अनंत होता चला
जाता है, क्योंकि
एक वासना दस
वासनाओं को
जन्म देती है।
वासना
संतति-नियमन
में भरोसा
नहीं रखती। वासना
की बड़ी संतान
होती है। एक
वासना दस को
जन्मा देती
है। दस
वासनायें सौ
को जन्मा देती
हैं—ऐसा ही
गणित फैलता
चला जाता है।
तुमने
कभी एक कंकड़
फेंककर देखा
पानी में! एक कंकड़
फेंकते हो
जरा-सा, कितनी
लहरें उठती
हैं! एक लहर
उठती है, एक
दूसरी को
उठाती है, दूसरी
तीसरी को उठती
है। दूर
कूल-किनारों
तक सारा लहरों
से भर जाता है
सरोवर। एक
जरा-सा कंकड़
फेंका था। एक
जरा-सा कंकड़
वासना का और
तुम्हारा
सारा जीवन
लहरों से
विक्षुब्ध हो
जाता है।
तो
महावीर कहते
हैं, आसक्त
व्यक्ति का
संसार अनंत
होता चला जाता
है। अनासक्त
व्यक्ति का
संसार इसी
क्षण टूटने लगता
है, बिखरने
लगता है; जैसे
किसी ने भूमि
ही खींच ली, बुनियाद अलग
कर ली।
"अपने
राग-द्वेषात्मक
संकल्प ही सब
दोषों के मूल
हैं।'
जो इस
प्रकार के
चिंतन में
उद्यत होता है
तथा इंद्रिय-विषय
दोषों के मूल
नहीं हैं, इस प्रकार
का संकल्प
करता है—उसके
मन में समता
उत्पन्न होती
है। और उससे
उसकी
काम-गुणों में
होनेवाली
तृष्णा
प्रक्षीण हो
जाती है।'
एक और
महत्वपूर्ण
बात महावीर इस
सूत्र में कहते
हैं। वे कहते
हैं, कामवासना
के विषय कारण
नहीं हैं। धन
कारण नहीं है धनासक्ति
का। धन पड़ा
रहे तुम्हारे
चारों तरफ, आसक्ति न हो
तो धन मिट्टी
है। मिट्टी
में भी आसक्ति
लग जाये, तो
मिट्टी धन है।
धन तुम्हारी
आसक्ति से
निर्मित होता
है। तुम महल
में रहो, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। महल
किसी को नहीं बांधता
है। तुम झोपड़े
में रहो और
तुम्हारी
आसक्ति गहन हो
झोपड़े
में तो झोपड़ा
ही बांध लेगा।
एक छोटी-सी
लंगोटी बांध
ले सकती है, और एक बड़ा
साम्राज्य भी
न बांधे।
सूत्र
है: "अपने
राग-द्वेषात्मक
संकल्प ही सब दोषों
के मूल हैं।' तुम्हारे
भीतर ही हैं
सारे मूल।
विषय भोगों के
मूल नहीं हैं।
इंद्रिय-विषय-भोग
दोषों के मूल
नहीं हैं। जो
इस प्रकार का
संकल्प करता
है, उसके
मन में समता
उत्पन्न होती
है।'
जैसे-जैसे
तुम जानोगे और
इस धारणा में
गहरे जमोगे, जड़ें फैलाओगे
कि वस्तुएं
नहीं हैं, बाहर
कुछ भी नहीं
है जो मुझे बांधता
है—मैंने ही
बंधना चाहा है;
मेरे बंधने
की चाह ही
मुझे बांधती
है, मेरे
भीतर ही मूल
है। फिर बाहर
के संसार को
छोड़कर भाग
जाने का बड़ा
सवाल नहीं है।
अगर कोई भाग
भी जाये तो वह
केवल
प्रशिक्षण
है।
महावीर
चले गये छोड़कर
राजपाट।
लेकिन बड़ी मीठी
कथा है।
महावीर छोड़ना
चाहते थे, मां ने कहा,
"अभी मैं न
छोड़ने दूंगी।
जब तक मैं
जिंदा हूं, मत छोड़ो!'
महावीर ने
फिर बात ही न
उठाई। यह बड़ी
हैरानी की बात
है। बुद्ध तो
भाग गये एक
रात, बिना
किसी को कहे, पत्नी को भी
न कहा कि मैं
जा रहा हूं।
बारह वर्ष बाद
जब आये थे तो पत्नी
ने यही शिकायत
की थी कि
तुम्हें जाना
ही था, तो
मैं कैसे रोक
पाती? जानेवाले
को कौन रोक
पाया है! तुम
जाना ही चाहते
थे तो तुम गये
ही होते, लेकिन
कम से कम मुझे
कहा तो होता!
तुमने मुझे इस
योग्य भी न
समझा! इसी बात
का मुझे दुख
रहा है।
यशोधरा
ने बारह वर्ष
बाद कहा कि
तुमने मुझ पर
इतना भी भरोसा
न किया! इतना
तो सम्मान
दिया होता
मुझे भी! मुझ
से पूछ तो लिया
होता! मैं
रोकती, फिर
भी तुम्हें
जाना होता तो
तुम गये होते!
लेकिन तुमने
यह कैसे मान
लिया कि मैं
रोकती ही? क्या
जरूरी था कि
रोकती ही? मेरे
मन में यह घाव
की तरह रहा है
कि तुमने
मुझसे पूछा भी
नहीं, रात
तुम चोर की
तरह भाग गये!
जिसके साथ
संबंध जोड़ा था,
जिसके साथ
प्रेम के नाते
बनाये थे, उससे
कम से कम पूछ
तो लेते, विदा
तो ले लेते!
महावीर
ने ऐसा न
किया। महावीर
जाना चाहते थे
और मां से
पूछा।
स्वाभाविक, जिसने जीवन
दिया, अब जीवन
को छोड़ते हैं,
कम से कम
उससे तो पूछ
लें!
और मां
ने कहा कि
नहीं, मेरे
सामने यह बात
ही मत उठाना।
मैं मर जाऊंगी
दुख से। उसका
पाप तुम्हीं
को लगेगा। फिर
तुम्हारी
अहिंसा कहां
रहेगी?
तो
महावीर, कहते
हैं, चुप
हो गये। यह
बड़ी अनूठी
घटना है
मनुष्य के इतिहास
की, कि
महावीर ने फिर
विवाद भी न
किया, तर्क
भी न किया, दुबारा
आग्रह भी न
किया। जब मां
मर गई, मरघट
से लौटते वक्त
अपने बड़े भाई
को कहा कि अब क्या
खयाल है? अब
तो जा सकता
हूं?
घर भी
न आ पाये थे।
बड़े
भाई ने कहा कि
तुम थोड़ा सोचो
तो! मां को दफनाकर
लौट रहे हैं, अभी घर भी नहीं
पहुंचे हैं, छाती पर
पत्थर पड़ा है,
तुम्हें
त्याग की पड़ी
है! यह कोई
मौका है?
महावीर
ने कहा, "इससे
और अच्छा मौका
कहां होगा?' इसको वे
कहते हैं, वैराग्य
की जहां भी
संभावना हो
उसको सम्मान देना।
मृत्यु से बड़ी
वैराग्य की
संभावना क्या होगी।
मां मर गई, इससे
बड़ी और क्या जगानेवाली
घटना हो सकती
है? जब मां
मर गई, मुझे
जन्म
देनेवाली मर
गई, तो मैं
भी मरूंगा।
मुझे जन्म
देनेवाली न बच
सकी तो मेरे
बचने का क्या
उपाय है? उसी
शृंखला की कड़ी
हूं। जाने दो
मुझे! भाई ने कहा
कि नहीं, तुम
न जा सकोगे।
जब तक मैं
तुम्हें
आज्ञा न दूं, न जा सकोगे।
बड़े भाई की
आज्ञा का खयाल
रखना।
कहते
हैं, महावीर
फिर चुप हो
गये। दो-चार
वर्ष बीत गये,
लेकिन वे
ऐसे रहने लगे
उस महल में
जैसे न हों। चलते
जैसे छाया
चलती हो, धूल
भी न हिलती।
उठते-बैठते, लेकिन किसी
के बीच में न
आते। घर के, परिवार के, लोगों को
पता ही न चलता
कि वे हैं या
नहीं हैं! ऐसे
चुप हो गये। ऐसे
गुमसुम हो
गये। ऐसे "ना'
हो गये। शून्यवत
घूमने लगे उस
घर में। आखिर
घर के लोगों
ने भाई से कहा,
बड़े भाई से,
कि अब
व्यर्थ है
रोकना। यह तो
जा ही चुका।
रोककर भी हम
क्या रोकें? हम सोचते
हैं कि यह है, मगर है नहीं।
महीनों बीत
जाते हैं, किसी
को पता ही
नहीं चलता, न किसी बात
में भाग लेता,
न किसी
चर्चा में भाग
लेता, न
अपना कोई
मंतव्य देता,
न किसी को
बाधा डालता।
तो अब "न होने'
का और क्या
अर्थ होता है?
होने से सार
क्या है? हम
इसे व्यर्थ
रोक रहे हैं
और हम व्यर्थ
ही पाप के
भागी हो रहे
हैं।
तो भाई
और परिवार के
लोग इकट्ठे
हुए। उन्होंने
महावीर से कहा, तुम जा ही
चुके हो, अब
हम तुम्हें न
रोकेंगे। ऐसे
उन्होंने घर
छोड़ा। घर
छोड़ने के बहुत
पहले महावीर
ने घर छोड़ दिया
था। घर से
निकलने के
बहुत पहले, घर से निकल
गये थे। और
मैं जानता हूं
कि अगर भाई ने
न कहा होता तो
वे सदा घर में
रहे आते। क्या
फर्क पड़ता था?
इसलिए
महावीर का
वैराग्य बड़ा
गहन है। वह भगोड़ापन
नहीं है। वह
क्रांति है, रूपांतरण
है। फिर जंगल
भी चले गये।
बारह वर्ष एक
गहरा
प्रशिक्षण
था। जंगल में
बहुत साधा। बहुत
निखारा अपने
को। सब तरह से
शून्य किया।
शब्द गंवाये।
मौन में उतरे।
शब्द छोड़ ही
दिये। वाणी खो
ही गई। तब फिर
वापिस लौटे।
क्योंकि जंगल
में पाया जा
सकता है, लेकिन
बांटना तो
बस्ती में ही
होगा।
वृक्षों, पशुओं
के पास पाया
जा सकता है, देना तो
मनुष्य को ही
होगा। और जब
मिलता है तो देना
होगा। महावीर
ने धन ही नहीं
छोड़ा; जब
उन्होंने परम
धन पाया, उसको
भी लुटाया। एक
बार छोड़ने का
मजा आ जाये तो
परम धन पाकर
भी आदमी
लुटाता है।
"अपने
राग-द्वेषात्मक
संकल्प ही सब
दोषों के मूल
हैं, जो इस
प्रकार के
चिंतन में
उद्यत होता है
तथा इंद्रिय-विषय
दोषों के मूल
नहीं हैं, इस
प्रकार का
संकल्प करता
है, उसके
मन में समता
उत्पन्न होती
है।'
तत्क्षण
भी समता का
स्वाद आ
जायेगा। तुम
जरा घर में
बैठे-बैठे ऐसे
सोचो कि घर के
बाहर हो। तुम
पत्नी के पास
बैठे-बैठे जरा
ऐसे सोचो, कौन किसका
है! तुम बाजार
में बैठे-बैठे
जरा ऐसा सोचो,
सब सन्नाटा
है! बाजार में
भी समता आ
जाती है। घर
में भी समता आ
जाती है। सब
काम-धाम करते
हुए भी भीतर तुम
थिर होने लगते
हो। भीतर
बुद्धि स्थिर
होने लगती है।
भीतर की
ज्योति
डगमगाना
छोड़ने लगती है।
समता
का अर्थ है:
अकंप चैतन्य
का हो जाना।
"और
उससे उसकी
काम-गुणों में
होनेवाली
तृष्णा
प्रक्षीण हो
जाती है।'
हस्ती
के मत फरेब
में आ जाइयो
"असद'
आलम
तमाम हल्कए-दामे-खयाल
है।
चीजों
के चक्कर में
बहुत मत पड़
जाना। लेकिन
चीजें उलझाती
नहीं हैं।
कल्पना ही
उलझाती है।
आलम
तमाम हल्कए-दामे-खयाल
है।
यह जो
सारा चारों
तरफ फैलाव
दिखाई पड़ रहा
है, यह
तुम्हें नहीं फांसता—तुम्हारी
कल्पना का जाल
फांस लेता है।
"भाव
से विरक्त
मनुष्य
शोक-मुक्त हो
जाता है। जैसे
कमलिनी का
पत्र जल में
लिप्त नहीं
होता, वैसे
ही वह संसार
में रहकर भी
अनेक दुखों की
परंपरा से
लिप्त नहीं
होता है।'
महावीर
संसार छोड़ने
को नहीं कह
रहे हैं। यह
सूत्र प्रमाण
है। कहते हैं, कमलिनी के
पत्र जैसे हो
जाओ!
भावे
विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खो परंपरेण।
न
लिप्पई भवमज्झे
वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं।।
जैसे
पोखर में, तालाब में, खिला हुआ
कमलिनी का
फूल! उसके
पत्ते जल में
ही होते हैं, जल की बूंदें
भी उन पर पड़ी
होती हैं, लेकिन
जल स्पर्श भी
नहीं कर पाता—ऐसी
ही चैतन्य की
एक दशा है, विराग
की एक दशा है।
ठीक संसार में
खड़े हुए भी, ठीक गृहस्थी
में रुके हुए
भी, कुछ छू
नहीं पाता।
महावीर
ने चार तीर्थ
कहे हैं:
श्रावक-श्राविका, साधु-साध्वी।
किसी अनजानी
दुर्घटना के
कारण
साधु-साध्वी
महत्वपूर्ण
हो गये। लेकिन
महावीर का
पहला जोर
श्रावक-श्राविका
पर है।
श्रावक
का अर्थ है:
ऐसी सम्यक
स्थिति का
व्यक्ति जो
सुनकर ही सत्य
को उपलब्ध हो
जाता है; सुनने
मात्र से ही
जो जाग जाता
है। साधु का
अर्थ है:
सुनना मात्र
जिसे काफी
नहीं; सुनने
के बाद जो
साधना भी
करेगा, प्रयत्न
की भी जरूरत
रहेगी—तब
मुक्त हो पाता
है। श्रावक की
गरिमा बड़ी महिमापूर्ण
है।
श्रावक
का अर्थ है:
जिसने सत्य को
सुना, सुनते
ही जाग गया।
बुद्ध
कहते थे, घोड़े
कई तरह के
होते हैं। एक
घोड़ा होता है
कि जब तक उसको
मारो-पीटो
न, तब तक
चले न। एक
घोड़ा होता है
कि
मारने-पीटने
की धमकी दो, गाली-गलौज
दो, उतने
से ही चल जाता
है, मारने-पीटने
की जरूरत नहीं
पड़ती। एक घोड़ा
होता है, गाली-गलौज
की भी जरूरत
नहीं पड़ती; हाथ में कोड़ा
हो, इतना
घोड़ा देख लेता
है, बस
काफी है। और
बुद्ध कहते
हैं, एक
ऐसा भी घोड़ा
होता है कि कोड़े
की छाया भी
काफी होती है।
श्रावक का
अर्थ है: जिसे कोड़े की
छाया भी काफी
है।
तुम
यहां मुझे सुन
रहे हो। सुनने
से तुम्हारे लिए
पहला तीर्थ
खुलता है। अगर
तुम ठीक से
सुन लो, हृदयपूर्वक सुन लो, निमज्जित
हो जाओ सुनने
में, तो
करने को कुछ
बचता नहीं, सुनने में
ही गांठें
खुल जाती हैं;
सुनकर ही
बात साफ हो
जाती है, गांठ
खुल जाती है।
कुछ अंधेरा था,
छंट जाता
है। कुछ उलझन
थी, गिर
जाती है।
द्वार खुल गया,
नाव तैयार
है: तुम इसी
तीर्थ से पार
हो सकते हो!
कुछ हैं
जो सुनने से
ही पार न हो
सकेंगे; उन्हें
कोड़े की छाया
काफी न होगी, उनके लिए कोड़े
काफी होंगे, कोड़े मारने
पड़ेंगे।
साधु
का अर्थ है: जो
सुनने से न
पार हो सका, सत्य की समझ
काफी न हुई, सत्य के लिए
प्रयास भी
करना पड़ा।
वस्तुतः
श्रावक की
महिमा साधु से
ज्यादा है।
लेकिन
साधुओं को यह
बरदाश्त न
हुआ। साधुओं
के अहंकार को
यह भला न लगा।
तो कोई जैन
साधु जैन
श्रावक को
नमस्कार नहीं
करता। साधु और
श्रावक को
कैसे नमस्कार
कर सकता है!
साधु ऊपर है, श्रावक नीचे
है! साधु को, श्रावक को
नमस्कार करनी
चाहिए!
हां, यह बात जरूर
है कि श्रावक
कहां हैं? पर
दूसरी बात भी
तो है, साधु
कहां हैं? सुनकर
पहुंचनेवाले
बहुत मुश्किल
हैं, कोड़े की छाया से चलनेवाले
बहुत मुश्किल
हैं। कोड़ों
से भी अपने को
मार-पीट करके
कहां कौन चल
पाता है! उनकी
भी आदत हो
जाती है।
"भाव
से विरक्त
मनुष्य
शोक-मुक्त हो
जाता है। जैसे
कमलिनी का
पत्र जल में
लिप्त नहीं
होता, वैसे
ही वह संसार
में रहकर भी
अनेक दुखों की
परंपरा से लिप्त
नहीं होता है।'
भाव से
मुक्त होते ही—राग
और द्वेष के
भाव से मुक्त
होते ही; चुनाव
से मुक्त होते
ही; संकल्प-विकल्प
से मुक्त होते
ही—यह सत्य पहचानकर
कि सारा खेल
मेरे भीतर है,
अपने को
सिकोड़ लेता है;
जैसे कछुआ
अपने को सिकोड़
लेता है!
दूर
जा पहुंचा गुबारे-कारवां
मेरी
मुश्ते-खाक
तनहा रह गयी,
सब तमन्नाएं
हमारी मर
चुकीं
एक
मरने की
तमन्ना रह
गयी।
अपने
को सिकोड़ता
जाता है।
जीवन-जीवेषणा
से अपने को
हटा लेता है।
अब जीने की
कोई आकांक्षा
नहीं रह जाती।
जीता है, क्योंकि
जब तक पुराने
कर्मों का जाल
है, हिसाब-किताब
है, चुकतारा है, निपटाता
है। नया जाल
खड़ा नहीं करता;
पुराना
लेन-देन तो
चुकाना ही
पड़ेगा। जीता
है, लेकिन
अब जीने पर
जोर नहीं है।
अब उसने एक
राज सीखा है—और
वह यह: परम
मृत्यु! कैसे
पूरी तरह मर
जाये, ताकि
दुबारा पैदा न
होना पड़े! और
जिसके भीतर
ऐसी भाव-दशा आ
जाती है, उसकी
सुबह ज्यादा
दूर नहीं है।
हो
चली सुबह
फसाना है करीबेत्तकमील
घुल
चली शमा बस अब
है उसे ठंडा
होना।
जिसके
भीतर जीवेषणा
ठंडी हो गई, वह खोने
लगा।
हो
चली सुबह
फसाना है करीबेत्तकमील
कहानी
पूरी होने के
करीब आ गई, सुबह होने
लगी। घुल चली
शमा—दीया
बुझने लगा; बस अब है उसे
ठंडा होना। वह
ठंडक, वह
शीतलता जो
जीवेषणा के
बुखार के बुझ
जाने पर पायी
जाती है, उसी
का नाम मोक्ष
है।
दुख पर
ध्यान करना!
दुख को सब तरफ
से पहचानना, निदान करना।
दुख दिख जाये
तो औषधि पानी
बड़ी कठिन नहीं
है। दुख दिख
जाये तो छूटने
की परम
आकांक्षा
पैदा होती है,
अभीप्सा
पैदा होती है।
साक्षी-भाव
औषधि है। दुख
है निदान—साक्षी-भाव
औषधि है—मोक्ष
स्वास्थ्य
है।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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