सूत्र:
जाणिज्जइ चिन्तिज्जइ, जन्मजरामरणंसंभवं दुक्खं।
न
य विसएसु विरज्जई, अहो सुबद्धो
कवडगंठी।।6।।
जन्मं दुक्खं जरा
दुक्खं,
रोगा य मरणाणि य।
अहो
दुक्खो हु
संसारो,
जत्थ कीसति जतंवो
।।7।।
हाँ
जह मोहियमइणा,
सुग्गइमग्गं
अजाणमाणेणं।
भीमे भवकंतारे,
सुचिरं भमियं भयकरम्मि।।8।।
"मिच्छत्तं वेदन्तो
जीवो विवरीयदंसणो
होइ।
न
य धम्म रोचेदु
हु, महुरं पि रसं
जह जरिदो।।9।।
मच्छत्तपरिणदप्पा तिव्वकसाएण
सुट्ठ आविट्ठो।
पहला
सूत्र:
जाणिज्जइ चिन्तिज्जइ, जन्मजरामरणंसंभवं दुक्खं।
न
य विसएसु विरज्जई, अहो सुबद्धो
कवडगंठी।।
"जीव
जरा, जन्म और
मरण से
होनेवाले दुख
को जानता है, उसका विचार
भी करता है; किंतु
विषयों से
विरक्त नहीं
हो पाता है।
अहो, माया
की गांठ कितनी
सुदृढ़ है!'
जीवन
में गुजरते तो
हम सभी एक ही
राह से हैं।
उसी राह से
महावीर भी
गुजरते हैं।
राह में कोई
भेद नहीं है।
जीवन का
ताना-बाना एक
जैसा है।
विस्तार में
थोड़े फर्क
होंगे। कोई इस
गांव में पैदा
होता कोई उस
गांव में, कोई इस देह
में कोई उस
देह में, कोई
स्त्री की तरह
कोई पुरुष की
तरह, कोई
गरीब कोई
अमीर--ये
विस्तार के
भेद हैं, लेकिन
जीवन का
ताना-बाना एक
ही है।
जन्म, जीवन, मृत्यु--और
सब में
अनुस्यूत दुख
की धारा है। कहां
जन्मे, इससे
फर्क नहीं
पड़ता। कहां
मरे, इससे
फर्क नहीं
पड़ता। जन्म और
मृत्यु का
स्वाद तो एक
ही है।
सभी एक
ही रास्ते से
गुजरते हैं।
फिर भी उसी
रास्ते से सभी
अलग-अलग अनुभव
और निष्कर्ष
लेते हैं।
घटनाएं तो
एक-सी घटती
हैं, लेकिन
जीवन के
निष्कर्ष बड़े
अलग हो जाते
हैं। और जब तक
कोई घटना
अनुभव न बने, तब तक घटी न
घटी बराबर।
दुख
आता है--सभी को
आता है। दुख
भोगा जाता है।
लेकिन दुख
भोगना दो ढंग
से हो सकता है:
कोई जागकर
भोगता है, कोई सोए-सोए
भोगता है। जो
सोए-सोए भोगता
है वह फिर-फिर भोगेगा, क्योंकि जो
पाठ लेना था
लिया नहीं, जो सीखना था
सीखा नहीं।
उसे पुनः पुनः
उसी विद्यालय
में वापिस लौट
आना पड़ेगा।
दुख को
कोई जागकर
भोगता है, तो अनुभव
हाथ आता है।
अनुभव हाथ आता
है कि दुख को
मैंने ही पैदा
किया था, कैसे
पैदा किया था,
अब दुबारा
वैसा न
करूंगा। इसकी
कोई कसम नहीं
लेनी पड़ती, न कोई व्रत
लेना पड़ता है;
क्योंकि
व्रत और कसमें
तो सब नासमझी
के हिस्से हैं,
वे तो सोनेवाले
आदमी की
तरकीबें हैं।
जिसने एक बार
देख लिया कि
आग में हाथ
डालने से हाथ
जल जाता है, वह किसी
मंदिर में, किसी साधु
के सत्संग में
प्रतिज्ञा
नहीं लेता कि
अब आग में हाथ
दुबारा न
डालूंगा। समझ
आ गयी।
समझ
काफी है।
प्रतिज्ञा से
समझ का कोई
संबंध नहीं
है। नासमझ
प्रतिज्ञा
लेते हैं।
नासमझ व्रत
लेते हैं।
समझदार तो समझ
से जीना शुरू
कर देता है। वही
उसका व्रत है, वही उसकी
प्रतिज्ञा
है।
एक बार
देखा कि हाथ
जल गया, अब
दुबारा जलना
मुश्किल हो
जाएगा, क्योंकि
हाथ मैं ही डालूं
तभी जलता है।
आग का
स्वभाव जलाना
है। लेकिन आग
तुम्हारे पीछे
नहीं दौड़ती; तुम ही आग
में हाथ डालो
तो ही जलते
हो। तो अपनी
ही बात है, अपना
ही निर्णय है,
अपना ही
दायित्व है।
डालें तो जलेंगे,
न डालें तो
नहीं जलेंगे।
यद्यपि जीवन
इतना सरल नहीं
है। आज हाथ
डालते हो, हो
सकता है कल
पता चले, जला।
खबर आते-आते
देर लग जाए।
बीज की तरह जो
आज घटा है, वृक्ष
बनते-बनते समय
लग जाए। यह हो
सकता है कि
तुम्हारे
कृत्य में और
तुम्हारे फल
में थोड़ा समय
का फासला हो।
तो शायद तुम
जोड़ भी न पाओ
कि किस कारण से
दुख मिला।
जो समझ
नहीं पाते, जाग नहीं
पाते, दुख
को जागकर
भोगते नहीं, वे चिंतन तो
बहुत करते हैं,
मनन तो बहुत
करते हैं कि
दुख न हो। ऐसा
कौन होगा
मनुष्य जो
चाहता है दुख
हो! दुख न हो, ऐसा तो सभी
चाहते हैं।
लेकिन चाह से
थोड़े ही दुख
रुकता है! जो
समझे हैं, उन्होंने
तो पाया है कि
चाह से ही दुख
पैदा होता है!
दुख न हो, इस
चाह से भी दुख
पैदा होता है।
चाह मात्र दुख
के बीज बोती
है। फिर फसल काटनी
होती है। चाह
मात्र जहर है।
चिंतन, विचार तो
बहुत लोग करते
हैं।
महावीर
कहते हैं: जाणिज्जइ
चिन्तिज्जइ!
लोग जानते भी
हैं। ऐसा भी
नहीं कि नहीं
जानते। लोग
जानते हैं, कहां-कहां
दुख होता है, लेकिन फिर
भी सो-सो जाते
हैं। शायद
जहां-जहां दुख
होता है, वहां-वहां
मोह का बड़ा
आवरण है। ऐसे
ऊपर से लगता
है कि आग में
हाथ डालने से
हाथ जलता है, लेकिन भीतर
कोई प्रबल
वासना है जो
बार-बार आग के
पास ले आती है;
जो कहती है
आग में हाथ डालो,
बड़ा सुख
होगा। तो यह
जानकारी
ऊपर-ऊपर रह
जाती है। तो
जब भीतर की
वासना प्रबल
नहीं होती, तब तो तुम
बड़े समझदार
होते हो।
वासना के अभाव
में कौन
समझदार नहीं
होता!
जब तुम
पर क्रोध का
तूफान नहीं है, तब तुम भी
समझदार होते
हो; तुम भी
समझा सकते हो,
सलाह दे
सकते हो कि
क्रोध व्यर्थ
है, जहर है,
अपने लिए
दुख का
निमंत्रण है।
लेकिन जब
क्रोध का आवेश
उठता है, जब
तुम आविष्ट
होते हो, जब
तुम तूफान में
घिर जाते हो
और क्रोध का
बवंडर
तुम्हारे
चारों तरफ
होता है, तब
सब समझ खो
जाती है। तो
ऐसा लगता है, तुम्हारी
समझ तो
ऊपर-ऊपर है और
क्रोध का
उत्पात बहुत
गहरा है; वहां
तक तुम्हारा
जानना नहीं
है।
सोचते
हो, विचारते
हो, पर सब
सतह पर है, लहरों-लहरों
में है। सागर
की गहराई में
तुम्हारा
उतरना नहीं
हुआ। वह जागने
से ही संभव
होता है, क्योंकि
तुम चैतन्य
हो। जितने
जागोगे, जितने
चेतन बनोगे,
उतने ही
भीतर जाओगे।
चैतन्य
तुम्हारा
स्वभाव है।
चैतन्य
तुम्हारी
गहराई, तुम्हारी
ऊंचाई है। तो
जितने चेतोगे
उतने ही गहरे
उतरोगे। जिस
दिन तुम्हारी
चेतना उतनी ही
गहरी हो जाएगी
जितनी
तुम्हारी
वासना, उसी
क्षण मुक्ति
हो जाएगी। जिस
क्षण, आग
में हाथ डालने
से हाथ जलता
है, यह
सत्य उतना ही
गहरा उतर
जाएगा जितना
आग में हाथ
डालने की
प्रबल वासना
गहरी है, उसी
दिन वासना कट
जाएगी।
वृक्ष
की शाखाओं को
मत काटते रहो।
उससे कुछ भी न
होगा। जड़ें काटनी
होंगी। जमीन
में गहरे
उतरना होगा।
अपनी ही चेतना
के अंधकार में
दीये ले जाने
होंगे।
तो
महावीर कहते
हैं, सोचते
हैं लोग, जानते-से
भी लगते हैं, किंतु
विषयों से
विरक्त नहीं
हो पाते हैं। अहो,
माया की
गांठ कितनी सुदृढ़
होती है!
बड़े
आश्चर्यचकित
हो महावीर
कहते हैं: अहो!
कैसी
आश्चर्यचकित
करनेवाली है
यह माया की
गांठ! जानते, सोचते, सूझते
हुए लोग भी
अंधे हो जाते
हैं। आंखवाले
अंधे हो जाते
हैं! समझवाले
भ्रांत हो
जाते हैं!
शांति के
क्षणों में जो
सलाह तुम
दूसरे को दे
सकते हो, अशांति
के क्षणों में
खुद के ही काम
नहीं आती।
अपना ही दीया
बुझा लेते हो।
अपनी ही सलाह
के विपरीत चले
जाते हो। अपनी
ही समझ को
फिर-फिर खंडित
कर देते हो।
आश्चर्यचकित
करनेवाली बात
है।
महावीर
का वचन, "अहो!
माया की गांठ
कितनी सुदृढ़
है'--बड़ा
सोचने जैसा है,
बड़ा ध्यान
करने जैसा है।
महावीर दुखित
होते हैं
तुम्हारे लिए,
करुणा से
भरे हैं। पर
हंसते भी हैं
कि मूढ़ता
बड़ी गहरी है!
तुमने
कभी किसी
व्यक्ति को
सम्मोहित दशा
में देखा? किसी को
सम्मोहित कर
दिया जाता है,
मूर्च्छित
कर दिया जाता
है। कठिन नहीं,
बड़ा सरल है।
कोई भी होने
को राजी हो तो
तुम भी कर
सकते हो।
कभी
छोटा प्रयोग
करके देखना।
तुम्हारा
छोटा बच्चा भी
तुम्हें
सम्मोहित कर
सकता है, तुम
भर राजी हो
जाना। वह
तुमसे दोहराए
जाए कि तुम
गहरी तंद्रा
में जा रहे हो,
मूर्च्छा
में जा रहे हो,
बेहोश होते
जा रहे हो--तुम
स्वीकार करते
जाना। तुम
इनकार मत करना
कि नहीं। तुम
यह मत कहना कि
अरे, छोड़!
तेरे कहने से
कि हम सोये जा
रहे हैं, कहीं
हम सो जाएंगे?
तुम
प्रतिरोध मत
करना। तुम
सहयोग करना।
तुम उसके
सुझाव के साथ
बहे जाना। वह
जो कहे, माने
चले जाना।
थोड़ी देर में
तुम पाओगे कि
खो गये किसी
बड़ी गहरी
तंद्रा में।
तब तुम्हारा
छोटा-सा बच्चा
भी अगर कहे कि
यह लो, यह
आम है मीठा, और प्याज दे
दे हाथ में, तो तुम चखोगे;
होगी प्याज,
लेकिन तुम
कहोगे, बड़ा
स्वादिष्ट आम
है! तुम्हारा
सब स्वाद, प्याज
की दुर्गंध, कुछ भी काम न
आएगी।
क्योंकि
तंद्रा की
गहराई में
सुझाव उससे
ज्यादा गहरे
पहुंच गया
जहां तक प्याज
की गंध
पहुंचती। तुम
शांत भाव से
स्वीकार कर
लिये।
तो
तुमने अगर
सम्मोहन
करनेवाले को, बाजार में
मदारी को देखा
हो तो तुम
चकित हो जाओगे;
वह जो कह
देता है, लोग
वैसा ही
व्यवहार करने
लगते हैं!
खासा तगड़ा
जवान है, चौड़ी
छाती है, बलिष्ठ
भुजाएं
हैं, चलता
है तो मंच
हिलता
है--उसको वह
बेहोश कर देता
है और कहता है,
"तुम एक
कोमल तन्वंगी,
एक सुंदर
युवती हो गये।
इस किनारे से
मंच के उस
किनारे तक
चलो।' तुम
चकित हो जाओगे,
वह ऐसे चलने
लगता है जैसे
स्त्री चलती
हो, जो कि अति
कठिन है पुरुष
को चलना।
पुरुष के पास
वैसे कूल्हे
नहीं हैं।
स्त्री के पेट
में गर्भ के लिए
जगह है। उस
जगह के कारण
उसकी
अस्थियों का ढांचा
अलग है। इसलिए
उसकी चाल अलग
है। लेकिन वह
पुरुष चलने
लगता है
स्त्री की चाल
से, जो कभी
जीवन में न
चला होगा। उसे
कुर्सी के सामने
बिठा देता है
और कहता है, यह गाय खड़ी
है, दूध
लगाओ। वह
कुर्सी के पास
उकडू
बैठकर--उसी
आसन में
जिसमें
महावीर ज्ञान
को उपलब्ध हुए
थे, गो-दुग्ध-आसन
में महावीर
ज्ञान को
उपलब्ध हुए थे,
पता नहीं
क्या करते थे,
बैठे थे उकडू--दूध
खींचने लगता
है। बिलकुल
वैसे ही कृत्य
करेगा जैसे
गाय सामने खड़ी
हो। तुम सब
हंसोगे कि
कैसा पागल बन
रहा है यह।
लेकिन
सम्मोहन ने
इतने गहरे डाल
दिया है विचार
कि इतने गहरे आंख
का विचार भी
नहीं जाता।
आंख से तो
उसको भी कुर्सी
दिखायी पड़ती
है। लेकिन
जहां तक कुर्सी
दिखायी पड़ती
है उससे भी
गहरा सम्मोहन
का विचार
पहुंच गया। तो
अब कुर्सी के
ऊपर गाय
आरोपित हो
जाती है।
सम्मोहन
के सत्य को
समझना जरूरी
है, क्योंकि
मनुष्य का
जीवन
करीब-करीब
सम्मोहित जीवन
है।
जन्मों-जन्मों
में तुमने
अपने को ही आत्म
सम्मोहित
किया है।
जन्मों-जन्मों
में तुमने कहा
है, स्त्री
सुंदर है--स्त्री
सुंदर हो गयी
है।
जन्मों-जन्मों
में तुमने
दोहराया है, "स्त्री
सुंदर है'--स्त्री
सुंदर हो गयी
है। यह
तुम्हारा
सम्मोहन है।
बहुत बार तुम
स्त्री की
कुरूपता के
करीब भी आ
जाते हो। बहुत
बार पुरुष की
कुरूपता के करीब
आ जाते हो।
बहुत बार जीवन
में सिवाय
व्यर्थता के
कुछ भी नहीं
दिखायी पड़ता
है। लेकिन जन्मों-जन्मों
का सम्मोहन
है। तुमने ही
अपने को समझाया
है, जीवन
बड़ा बहुमूल्य
है। तुमने ही
अपने को समझाया
है कि जीने का
बड़ा मूल्य है।
किसी भी कीमत
पर जीना है, जीये चले जाना
है। जीवेषणा!
नर्क में भी
पड़े हों तो भी जीये चले
जाना है; जीवन
का जैसे
अपने-आप में
ही मूल्य है।
कुछ भी न घटता
हो, हाथ-पैर
गल गये हों
कोढ़ में, सड़क
पर घिसटते होओ,
तो भी कोई
आशा, कोई
बड़ी गहन
आकांक्षा पकड़े
रहती है कि जीये
चले जाओ, जीये
चले जाओ।
यह जो
जीने की
आकांक्षा है, इस पर
पुनर्विचार, इस पर पुनर्ध्यान
तुम्हें जगायेगा
और तुम्हें बतायेगा
कि यह तुमने
ही अपने मन
में धारणा बना
ली, धारणा
बना ली तो
मजबूत हो गयी।
अलग-अलग
जातियों में,
अलग-अलग
समयों में, अलग-अलग
धारणाएं
महत्वपूर्ण
हो गयी हैं।
जो धारणा
महत्वपूर्ण
हो जाती है
वही तुम्हारे
जीवन का सत्य
हो जाती है।
जैसे अफ्रीका
में, मध्य
अफ्रीका में,
सदियों से
स्त्रियां
बाल घोट लेती
रही हैं। अब
तुमने
सिर-घुटी
स्त्री में
सौंदर्य कभी न
देखा होगा।
कोई स्त्री
राजी न होगी
सिर घोंटने
को। हमने मान
रखा है, बाल
सुंदर हैं।
अफ्रीका में
उन्होंने मान
रखा है कि
घुटा हुआ सिर
सुंदर है।
करोगे क्या? वहां जिस
स्त्री के बाल
हों, उसको
पति मिलना
मुश्किल हो
जाएगा; जैसे
यहां घुटे-सिर
स्त्री को पति
मिलना
मुश्किल हो
जाए, लोग
दूर से ही
छिटकेंगे।
घुटा हुआ सिर
तो हमें
मुर्दे की याद
दिलाता है।
इसलिए तो
संन्यासी सिर
घोंटते रहे।
वे यह कहते
हैं कि हम मर
गये संसार से,
अब तुम हमें
मुर्दा समझो।
न केवल उतने
से ही अफ्रीका
में सौंदर्य
का बोध पूरा
नहीं होता, तो आड़ी-तिरछी
लकीरें, आग
की सलाखों
से शरीर पर, मुंह पर, आंख
पर, सिर पर
लोग सजा लेते
हैं। तुम तो
पाओगे, ये
तो घाव बना
लिये। लेकिन
वह सौंदर्य
है। उन्होंने
सदियों तक इसी
को सौंदर्य
माना है, यही
उनका सम्मोहन
हो गया है।
जो तुम
मान लो वही
सत्य हो जाता
है। इस जीवन
के सत्य माने
हुए सत्य हैं।
दस रुपये का
नोट कागज का
टुकड़ा है, लेकिन
मान्यता है कि
दस का नोट है; सम्हालकर रख
लेते हो। छोटे
बच्चे को दस
रुपये का नोट
और एक पैसा, दोनों बताओ,
वह पैसा चुन
लेगा। अभी
पैसे तक ही
उसकी मान्यता
है, दस
रुपये का नोट
वह जानता ही
नहीं।
मैंने
सुना है, अमरीका
के एक समुद्र
तट पर एक आदमी
था, बूढ़ा
हो गया था और
लोग उसके
सामने रुपये
लाते, पैसे
लाते, लेकिन
वह हमेशा पैसे
चुन लेता।
कभी-कभी सौ-सौ
डालर का नोट
उसके सामने
रखते, कहते,
चुन लो जो
भी चुन लो दो
हाथों में से।
वह पैसे चुन
लेता। ऐसा
वर्षों से हो
रहा था। और जो
भी आते समुद्रत्तट
पर, यह
प्रयोग करते,
और हंसते
हुए जाते। एक
दिन एक आदमी
ने उससे पूछा
कि कोई बीस
साल से मैं
तुम्हें देख
रहा हूं, तुम्हें
अब तक अकल
नहीं आई? जब
लोग तुम्हारे
सामने सौ डालर
का नोट करते
हैं और पैसे
करते हैं, तुम
पैसे चुन लेते
हो। उसने कहा,
अकल तो मुझे
भी है। लेकिन
जिस दिन भी
मैंने नोट
चुना, खेल
बंद हुआ! यह
खेल चल रहा
है। पैसे
चुन-चुनकर मैंने
हजारों डालर
चुन लिये
धीरे-धीरे। कोई
मैं मूर्ख, कोई पागल
नहीं हूं।
लेकिन उनको
मजा आता है
समझकर कि मैं
पागल हूं, इसी
बहाने वे पैसे
मेरे सामने
लाते हैं।
छोटा
बच्चा पैसा
चुन लेगा।
पैसे का उसके
लिए मूल्य है।
यह आदमी भी
पैसा चुन रहा
है, क्योंकि
जानता है, जिस
दिन इसने नोट
चुना उसी दिन
खेल बंद हुआ, फिर कोई
नहीं लाएगा।
चुन तो यह भी
नोट ही रहा है,
लेकिन
तुमसे ज्यादा
चालाक है। तुम
समझे कि यह नासमझ,
बुद्धू है।
तुम मजा ले
रहे हो इसके
बुद्धूपन में,
यह
तुम्हारे
बुद्धूपन में
मजा ले रहा
है।
मान्यताएं
हैं। जो हम
मान लेते हैं
सुंदर, वह
सुंदर हो जाता
है। जो हम मान
लेते हैं
कुरूप, वह
कुरूप हो जाता
है। जो हम मान
लेते हैं मूल्यवान,
वह
मूल्यवान हो
जाता है।
अफ्रीका
में हड्डियों
का आभूषण
बनाते हैं, तो मूल्यवान
है।
एक
युवक
संन्यासी
हिमालय से
वापस लौटा और
एक माला ले
आया, किसी
तिब्बतन लामा
ने उसे दे दी।
उसने मेरे हाथ
में रखी, मैंने
कहा, "पागल!
तू यह कहां से
उठा लाया?' वह
तो किसी जानवर
के दांतों की
बनी माला थी, बड़ी गंदी और
बेहूदी थी। पर
उसने कहा, एक
तिब्बती लामा
ने मुझे दी है
और उसने कहा
कि यह बड़ी
बहुमूल्य है।
तिब्बत में
माना जाता है कि
बड़ी बहुमूल्य
है। हड्डी की
माला, हड्डी
के गुरिये
बना लेते हैं,
उनकी माला।
तुम्हें कोई
हाथ में देगा
तो तुम हाथ धोओगे,
तिब्बती
उसे सम्हालकर
रखते हैं।
तुम्हारी
भी मान्यताएं
ऐसी ही हैं।
लेकिन सदियों
तक जो हम
मानते हैं वह
संस्कार हो
जाता है।
इसलिए
महावीर कहते
हैं, लोग
जानते भी
मालूम पड़ते
हैं, फिर
भी अनजाने की
तरह व्यवहार
करते हैं, क्योंकि
जानना ऊपर-ऊपर
है। गहरे में
वासना पड़ी है,
विषय-भोग की
आकांक्षा पड़ी
है, जीवेषणा
पड़ी है।
विचार
करता है, चिंतन
करता है, जानता
मालूम होता है,
फिर भी
विरक्त नहीं
होता। ऐसे
विचार का क्या
अर्थ जो विराग
न ले आए! विचार
की यह कसौटी
है महावीर के
लिए कि जिससे
वैराग्य पैदा
हो, वही
विचार। यह
उनका मापदंड
है। इसी पर वे
कसते हैं। वे
कहते हैं, जिससे
वैराग्य आ जाए,
वही विचार।
जिससे
वैराग्य न आए,
उसे क्या
विचार कहना!
वही तो अविचार
है। पतंजलि भी
यही कहते हैं,
विवेक वही
जिससे वैराग्य
आ जाए। विचार
वही जिससे
वैराग्य आ
जाए। फल से ही
तो वृक्ष जाना
जाता है--आम
लगे तो आम, नीम
के कड़वे
फल लग जाएं तो
नीम। वृक्ष से
थोड़े ही वृक्ष
जाना जाता है,
फल से जाना
जाता है!
वैराग्य फल है
विचार का।
तो तुम
विचारवान हो
या नहीं, तुम्हारे
जीवन के
वैराग्य से पता
चलेगा। तुम
लाख बैठकर
ऊहापोह करते
हो। तुम्हारे
सिर में बड़ी
दौड़-धूप मचती
है विचारों की।
तुम बड़े
शास्त्र लिख
सकते हो। इससे
कुछ हल न
होगा। असली
प्रमाण यह
होगा कि
तुम्हारे जीवन
में वैराग्य
फला, वैराग्य
के फल लगे, वैराग्य
के मीठे फल आए?
तुमने
वैराग्य की
फसल काटी? चीजों
की व्यर्थता
तुम्हें
दिखायी पड़ी? तुम्हारा
ज्ञान वासना
से गहरा गया? इतना गहरा
गया कि वासना
उठनी असंभव हो
गयी? नहीं
कि तुम्हें
नियंत्रण
करना पड़ा।
नियंत्रण तो
सब थोथे हैं।
अनुशासन तो सब
ऊपरी हैं। बोध,
इतना गहरा
बोध कि बोध ही
मुक्ति बन जाए,
तो वैराग्य!
तो अब
तुम सोचना कि
विचार करने का
अर्थ, तार्किक
विचार करना
नहीं है।
विचार करने का
अर्थ, सम्यक
विचारणा है।
विचार करने का
अर्थ है, सत्य
जैसा है वैसा
ही जानने की
क्षमता।
वासना
और विचार के
फर्क को समझो।
वासना प्रक्षेपण
है। तुम जो
चाहते हो वही
तुम प्रक्षेपण
कर लेते हो।
तुम वह नहीं
देखते, जो
है--कृष्णमूर्ति
जिसे कहते हैं,
दैट व्हिच इज। जो है,
उसे तुम
नहीं देखते।
तुम वही देख
लेते हो, जो
तुम देखना
चाहते हो।
तुम्हारी आंख
केवल ग्राहक
नहीं होती, प्रक्षेपक
होती है।
एक
रुपया पड़ा है
रास्ते पर या
कि एक हीरा
पड़ा है रास्ते
पर। हीरा एक
पत्थर है, जैसे और
पत्थर हैं।
अगर आदमी न हो
जमीन पर तो हीरे
और दूसरे
पत्थरों में
कोई फर्क
मूल्य का न
होगा। हीरे भी
वहीं पड़े
रहेंगे, साधारण
कंकड़ भी
वहीं पड़े
रहेंगे। हीरा
यह न कह सकेगा
कि "हटो कंकड़ो,
मैं
कोहिनूर हूं!
रास्ता दो!
सिंहासन बनाओ!'
कोहिनूर भी
साधारण पत्थर
है, आदमी न
हो तो। आदमी
आया कि झंझट
आयी। आदमी आया
कि वह कहता है,
हटो कंकड़ो!
तुम तो शूद्र
रहे, यह
सम्राट है। यह
है कोहिनूर!
इसे सिंहासन
पर बिठाओ!
आदमी
मूल्य लाता
है। कोहिनूर
में कोई मूल्य
नहीं है--हो
नहीं सकता।
सदियों तक पड़ा
था जमीन में।
न कंकड़-पत्थरों
ने उसकी फिक्र
की, न कीड़े-मकोड़ों ने
फिक्र की, न
सांप-बिच्छुओं
ने कोई आदर
दिया, न
पशु-पक्षियों
ने कोई चिंता
ली--किसी ने
कोई फिक्र न
की। फिर आदमी
के हाथ पड़
गया। जिस आदमी
के हाथ पड़ा, वह भी
सीधा-सादा
आदमी था। वह
उसे ले आया और
उसने अपने
बच्चों को
खेलने को दे
दिया। करता भी
क्या, पत्थर
ही था!
बड़ी
प्यारी कहानी
है, उस घर में
एक संन्यासी
मेहमान हुआ।
और उस गरीब
किसान को
देखकर उसे बड़ी
दया आ गयी। और
उसने कहा कि
"तू यहां कब तक
इस गोलकुंडा
की सूखी जमीन
पर अपना श्रम गंवाता
रहेगा? मैंने
ऐसी जगहें
देखी हैं कि
जहां तू
जरा-सी मेहनत
कर कि
हीरे-जवाहरात
इकट्ठे कर ले।
इतनी
खोदा-खादी, इतनी
मुश्किल--क्या
पैदा कर पाता
है? पेट भी
तो नहीं भरता।
बच्चे तेरे
सूख रहे हैं।'
संन्यासी
तो दूसरे दिन
सुबह चला गया
अपनी यात्रा
पर, लेकिन
किसान के मन
में वासना पकड़
गयी। सम्मोहित
हो गया किसान।
उसने अपना
खेत-वेत
सब बेच दिया।
छोटी-सी नदी
के किनारे
उसका खेत था।
वह उसने बेच
दिया, मकान
बेच दिया।
निकल पड़ा
हीरों की खोज
में। कहते हैं,
वर्षों
भटकता रहा, कहीं कोई
हीरे न मिले, घर आ गया।
लेकिन इस
बरसों के
भटकाव में, हीरे क्या
होते हैं, यह
समझ आ गयी, यह
सम्मोहन आ
गया। कई जौहरियों
को मिला। हीरे
जिनके पास थे
उनको मिला।
हीरे देखे। जो
था उसके पास
पैसा, उसने
इसी में गंवा
दिया। घर
लौटकर आया तो
चकित हो गया, बच्चा उस
हीरे से खेल
रहा था जिसकी
वह खोज में था।
कोहिनूर! और
तब रोया, छाती
पीटी, क्योंकि
खेत उसने बेच
दिया। वही खेत
बाद में गोलकुंडा
की सबसे बड़ी
खदान बना।
हैदराबाद
निजाम के महलों
में जो हीरे
हैं, वे सब
उसी गरीब आदमी
के खेत से
निकले हैं। वह
बेच दिया
उसने।
लेकिन
तब तक सम्मोहन
न था, मन पर कोई
परत न
थी--सीधा-सादा
आदमी था, प्राकृतिक
आदमी था, सभ्य
न हुआ था, जौहरी
पैदा न हुआ
था।
हीरा
भी कंकड़-पत्थर
है। आदमी न हो
तो हीरे का
कोई विशेष सम्मान
न होगा। जब
तुम हीरे को
विशेष सम्मान
देते हो, राह
पर पड़ा हीरा
तुम्हें
मिलता है, झपटकर
उठा लेते हो, कंकड़ को तो नहीं
उठाते--तब
तुमने वह नहीं
देखा जो था; तुमने वह
देख लिया जो तुम
देखना चाहते
थे। तुमने
अपनी वासना को
आरोपित किया।
तुम्हारी
आंखें शुद्ध
ग्राहक न रहीं।
तुम्हारी
आंखों ने हीरे
के पर्दे पर
कुछ फेंका, कोई वासना
फेंकी।
साधारण कंकड़-पत्थर
भी वासना से
अभिभूत हो जाए,
महिमावान हो जाता है।
जहां तुमने
वासना रख दी, वहीं महिमा
आ गयी।
यह
संसार इतना
महत्वपूर्ण
मालूम पड़ता है, क्योंकि
तुमने जगह-जगह
वासना को
नियोजित कर दिया
है। किसी ने
धन में रख दी
है वासना, तो
धन बहुमूल्य
हो गया है। तब
वह अपने जीवन
को गंवाये
चला जाता है, लेकिन धन
कमाये चला
जाता है। वह
मरेगा। तिजोड़ी
यहीं रहेगी, भरकर छोड़
जाएगा। ठीक से
भोजन भी न
करेगा, कपड़े
भी न पहनेगा।
धन इकट्ठा
करना है!
वासना रख दी
धन में तो
जीवन से
बहुमूल्य हो
गया धन। तुमने
अगर पद में
वासना रख दी, पद बहुमूल्य
हो गया।
तुम्हें
कभी-कभी
हैरानी नहीं
होती देखकर!
राजनीति के
दीवाने हैं, पदों के
पागल हैं, भीख
मांगते फिरते
हैं: सहारा दो,
वोट दो, मत
दो, साथ दो!
हाथ जोड़ते
फिरते हैं।
कभी तुम चकित
नहीं हुए, तुम
सोचे नहीं कि
क्या पागलपन
चढ़ा है! और जो
पद पर पहुंच
जाते हैं
उन्हें कुछ
मिलता दिखायी
नहीं पड़ता।
गालियां
मिलती हैं, निंदाएं मिलती हैं।
सम्मान भी
मिलता है, लेकिन
सम्मान सब
झूठा है; पद
से उतरते ही
खो जाता है।
फिर कोई नहीं
पूछता। फिर
कोई विचार
नहीं करता।
फिर कोई
नमस्कार भी
करने नहीं
आता। लेकिन
इतना क्या
पागलपन है? पद में
वासना रख दी!
तुमने नहीं
रखी तो तुम्हें
हंसी आएगी कि
यह भी क्या
पागलपन है!
देखा
तुमने! कोई
फुटबाल के
पागल हैं, कोई क्रिकेट
के पागल हैं।
एक सज्जन को
मैं जानता हूं,
जब क्रिकेट
चल रही हो तो
वे रेडियो पर
सारी दुनिया
का सब काम
छोड़कर बैठ
जाते हैं। एक
बार उनकी जो
टीम जीतनी
चाहिए थी, हार
गयी तो
उन्होंने
रेडियो उठाकर
पटक दिया। नाराजगी
में! इतना
क्रोध आ गया। दंगे
हो जाते हैं।
तुम्हारी टीम
हार गयी, दंगे
हो जाते हैं।
लूट-पाट हो
जाती है। मारे
जाते हैं लोग।
जो नहीं हैं
उस जगत में, वह हंसेंगे
कि मामला क्या
है! आखिर यह हो
क्या रहा है? फुटबाल है
क्या? कुछ
लोग गेंद को
उधर ले जा रहे
हैं, कुछ
लोग इधर ला
रहे हैं, कुछ
लोग उधर ले जा
रहे हैं--मगर
है क्या? मामला
क्या है? ऐसा
इतना...और
लाखों लोग
देखने क्या
चले आये हैं? क्या देख
रहे हैं! और
बड़े उत्तेजित
हैं! पागल हुए
जा रहे हैं।
हां, जो वासना के
बाहर है उसे
हंसी आएगी। जो
वासना के भीतर
है, वह
मूर्च्छित
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक रात घर
लौटा, नशे
में धुत्त।
बड़ी उसने
चेष्टा की।
चाबी तो हाथ
में है, ताला
न मिले। पत्नी
ऊपर से देख
रही है। उसने
कहा, "बहुत
हो चुका। अगर
चाबी खो गयी
हो तो बोलो, दूसरी चाबी
फेंक दूं।' उसने कहा, "चाबी तो है, ताला खो गया
है, दूसरा
ताला फेंक दे।'
लेकिन
कभी तुम अगर
बेहोश रहे हो, तो तुम्हें
पता चलेगा कि
हंसने की बात
नहीं है। ऐसी
ही दशा हो
जाती है। वह
जो बेहोश है, वह किसी और
ही दुनिया में
है--अविचार की
दुनिया में।
जो तुम्हारी
वासना नहीं है,
वहां तुम
विचारवान
मालूम पड़ोगे।
बूढ़े विचारवान
हो जाते हैं, जवानों को
समझाने लगते
हैं कि यह सब
पागलपन है, यह जवानी दो
दिन का नशा
है। यही उनके
बूढ़ों ने भी
उनसे कहा था, तब उन्होंने
नहीं सुना था।
कोई किसी की
सुनता ही
नहीं।
जब तक
नशा है तब तक
विचार पैदा
नहीं होता; या विचार
पैदा हो जाए
तो नशा टूटने
लगता है। समझने
की बात यह है
कि वासना में
तुम वही देखते
हो जो तुम
देखना चाहते
हो। तुमने कभी
देखा, शतरंज
के खिलाड़ी
बैठे हैं! कुछ
भी नहीं है, लकड़ी के, हड्डियों
के या
प्लास्टिक के
हाथी-घोड़े, राजा-रानी
हैं--और
तलवारें चल
गयी हैं शतरंज
पर, लोग कट
गये हैं। जो
नहीं है खेल
में, वह
हंसता है। वह
हंसता हुआ
निकल जाएगा कि
पागल हो गये
हो, कहां
हाथी-घोड़े कुछ
भी नहीं है!
जिसकी समझ गहरी
है उसे तो
असली
हाथी-घोड़े में
भी हाथी-घोड़े
नहीं दिखायी
पड़ते; असली
राजा-रानी में
भी राजा-रानी
नहीं दिखायी पड़ते।
मगर जहां
वासना हो...।
मैंने
सुना है, एक
बिल्ली
इंग्लैंड
गयी। सांस्कृतिक
मिशन पर गयी।
तो इंग्लैंड
की रानी ने
मिलने के लिए
बुलाया। फिर
वह लौटी, तो
दिल्ली में
बिल्लियों ने
बड़ी सभा की।
उन्होंने
पूछा कि "अरे,
कहो।
क्या-क्या हुआ?
रानी को
मिलने गयी थी
कि नहीं?'
उसने
कहा, "गयी थी।'
"क्या देखा?'
उसने
कहा कि बड़ा
गजब देखा!
कुर्सी के
नीचे चूहा
बैठा था।
रानी
से क्या
लेना-देना
बिल्ली को! जो
दिखा वह चूहा
था। जहां
वासना है, वहीं दर्शन
है। तुम्हें
रानी दिखायी
पड़ती, चूहा
दिखायी न पड़ता,
क्योंकि
तुम्हारी
वासना बिल्ली
की वासना नहीं
है। रानी भी
तुम्हें तभी
दिखायी पड़ती
जब तुम्हारी
पद की वासना हो,
राज्य की
वासना हो; नहीं
तो रानी में
देखने जैसा
क्या है!
साधारण स्त्री
है। चाहे
कितना ही
मोर-मुकुट बांधो,
इससे क्या
होता है!
कितने ही बड़े
सिंहासन पर बैठ
जाओ, इससे
क्या होता है!
अगर महावीर
जैसा व्यक्ति
जाए तो न तो
चूहा दिखायी
पड़े न रानी
दिखायी पड़े।
तुमको रानी
दिखायी पड़ती,
बिल्ली को
चूहा दिखायी
पड़ा। जो-जो
वासना थी, वह
दिखायी पड़ा।
अगर कोई हीरों
का पारखी हो, तो उसे रानी
न दिखायी
पड़ेगी, उसके
मुकुट में लगे
हीरे दिखायी
पड़ेंगे। अगर कोई
चमार चला जाए
तो रानी के
जूते दिखायी
पड़ेंगे, और
कुछ दिखायी न
पड़ेगा। चमार
को जूते ही
दिखायी पड़ते
हैं; वह
जूते ही देखता
रहा जिंदगीभर।
वहीं उसकी
वासना लिप्त
है। राह पर
देखता रहता है
लोगों के
जूते। जूते को
ही देखकर वह
आदमियों की
परख करता है।
जूते की कहानी
पढ़ लेता है तो
आदमी की कथा
प्रगट हो जाती
है। जूते में
उसे सारी आदमी
की आत्मकथा
लिखी मालूम
पड़ती है। जूते
पर चमक है तो
वह जानता है, जेब गर्म
है। जूता
मुर्झाया, पिटा-पिटाया है
तो वह जानता
है कि आगे बढ़ो,
यहां लाने
की जरूरत नहीं
है।
वासना
का अर्थ है: हम
अपने सम्मोहन
के अनुसार जगत
को देखते हैं।
विचार का अर्थ
है: सम्मोहन को
हटाकर देखते
हैं, जो है उसे
वैसा ही देखते
हैं जैसा है।
आम को आम देखते
हैं, नीम
को नीम देखते
हैं। जहर को
जहर देखते हैं,
अमृत को
अमृत देखते
हैं; अपनी
वासना डालकर,
कुछ और नहीं
देखते।
तो
महावीर कहते
हैं, लगते हैं
लोग सोच रहे, विचार रहे, फिर भी
विरक्त नहीं
हो पाते। कहीं
कुछ धोखा है।
क्योंकि अगर
कोई जीवन को
ठीक से देख ले
तो विरक्त
होगा ही। यहां
कुछ भी तो
नहीं है। यहां
उलझाने
योग्य कुछ भी
तो नहीं है।
जो तुम्हें
अटका ले, ऐसा
कुछ भी तो
नहीं है।
दोरंगियां
यह जमाने की
जीते जी हैं
सब
कि
मुर्दों को न
बदलते हुए कफन
देखा।
ये
सब रंगरेलियां, ये बदलाहटें,
ये फैशनें...।
दोरंगियां
यह जमाने की
जीते जी हैं
सब
कि
मुर्दों को न
बदलते हुए कफन
देखा।
जो
जीवन को बहुत
गौर से देखेगा, दोरंगियों को हटाकर
गहराई में
देखेगा, वह
पायेगा: यहां
सब मरा ही हुआ
है, समय की
बात है।
ऋषियों
ने कहा है, क्षरति इति शरीरम्।
जो क्षीण होता
जाता उसी का
नाम शरीर। क्षरति
इति शरीरम्।
जो प्रतिपल
क्षीण होता
जाता है, जीर्ण
होता जाता, वही शरीर
है। यह घर
नहीं है। जो
खंडहर होता जाता
है, वही
शरीर है।
इसीलिए शरीर
नाम दिया उसे,
क्योंकि वह
क्षीण होता है,
जीर्ण होता
है, सड़ता है; मरा
ही है, समय
की बात है; क्यू
में खड़ा ही है,
जब नंबर आ
जाएगा गिर
जाएगा।
अगर
शरीर को कोई
गौर से देखे
तो क्या
पाएगा! मृत्यु
को रूप धरते
देखेगा वहां।
मृत्यु को गर्भ
में पाएगा
वहां।
रोएं-रोएं में
शरीर के मृत्यु
को छिपा
पाएगा। प्रगट
होने की
प्रतीक्षा चल
रही है। आज
नहीं कल प्रगट
हो जाएगी। जो
शरीर को गौर
से देखेगा, वह मृत्यु
को देख लेगा।
फिर तुम शरीर
से बंधोगे
कैसे, आसक्त
कैसे होओगे? मुर्दे से
तो कोई बंधता
नहीं। मुर्दे
से तो कोई
संबंध नहीं
रखता।
मैंने
सुना है, एक
मुसलमान फकीर
के पास एक
युवक आता था।
वह युवक कहता
था कि मुझे भी
संन्यास की
यात्रा करनी
है। मुझे भी
सूफियों के
रंग-ढंग मन को
भाते हैं।
लेकिन क्या
करूं, पत्नी
है और उसका
बड़ा प्रेम है!
क्या करूं बच्चे
हैं, और
उनका मुझसे
बड़ा लगाव है।
मेरे बिना वे
न जी सकेंगे।
मैं सच कहता
हूं, वे मर
जाएंगे। मैं
पत्नी से
संन्यास की
बात भी करता
हूं तो वह
कहती है, फांसी
लगा लूंगी।
उस
फकीर ने कहा, "तू ऐसा कर...।
कल सुबह मैं
आता हूं। तू
रातभर, एक
छोटा-सा तुझे
प्रयोग देता
हूं, इसका
अभ्यास कर ले
और सुबह उठकर
एकदम गिर पड़ना।'
प्रयोग
उसने दिया
सांस को साधने
का कि इसका रातभर
अभ्यास कर ले,
सुबह तू सांस
साध कर पड़
जाना। लोग
समझेंगे, मर
गया। फिर बाकी
मैं समझ
लूंगा।
उसने
कहा, "चलो!
क्या हर्ज है...?
देख लें
करके। क्या
होगा इससे?'
उसने
कहा कि तुझे
दिखायी पड़
जाएगा, कौन-कौन
तेरे साथ मरता
है। पत्नी
मरती है, बच्चे
मरते, पिता
मरते, मां
मरती, भाई
मरते, मित्र
मरते--कौन-कौन
मरता है, पता
चल जाएगा। एक
दस मिनट तक
सांस साध कर
पड़े रहना है, बस। सब
जाहिर हो
जाएगा। तू
मौजूद रहेगा,
तू देख लेना,
फिर दिल
खोलकर सांस ले
लेना, फिर
तुझे जो करना
हो कर लेना।
वह मर
गया सुबह।
सांस साध ली।
पत्नी छाती
पीटने लगी, बच्चे रोने
लगे, मां-बाप
चिल्लाने-चीखने
लगे, पड़ोसी
इकट्ठे हो
गये। वह फकीर
भी आ गया इसी
भीड़ में भीतर।
फकीर को देखकर
परिवार के
लोगों ने कहा
कि आपकी बड़ी
कृपा, इस
मौके पर आ
गये।
परमात्मा से
प्रार्थना
करो। हम तो सब
मर जाएंगे!
बचा लो किसी
तरह! यही हम सबके
सहारे थे।
फकीर
ने कहा, घबड़ाओ मत! यह बच
सकता है।
लेकिन मौत जब
आ गयी तो किसी
को जाना
पड़ेगा। तो तुम
में से जो भी
जाने को राजी
हो, वह हाथ
उठा दे। वह
चला जाएगा, यह बच
जाएगा। इसमें
देर नहीं है, जल्दी करो।
एक-एक
से पूछा। पिता
से पूछा। पिता
ने कहा, अभी
तो बहुत
मुश्किल है।
मेरे और भी
बच्चे हैं।
कोई यह एक ही
मेरा बेटा
नहीं है।
उनमें कई अभी
अविवाहित
हैं। कोई अभी
स्कूल में पढ़
रहा है। मेरा
होना तो बहुत
जरूरी है, कैसे
जा सकता हूं!
मां ने
भी कुछ बहाना
बताया। बेटों
ने भी कहा कि
हमने तो अभी
जीवन देखा ही
नहीं। पत्नी
से पूछा, पत्नी
के आंसू एकदम
रुक गये। उसने
कहा, अब ये
तो मर ही गये, और हम किसी
तरह चला
लेंगे। अब आप
झंझट न करो और।
फकीर
ने कहा, अब
उठ! तो वह आदमी
आंख खोलकर उठ
आया। उसने कहा,
"अब तेरा
क्या इरादा है?'
उसने कहा, अब क्या
इरादा है, आपके
साथ चलता हूं।
ये तो मर ही
गये। अब ये
लोग चला
लेंगे! देख
लिया राज। समझ
गये, सब
बातों की बात
थी। कहने की
बातें थीं।
कौन
किसके बिना
रुकता है! कौन
कब रुका है!
कौन किसको रोक
सका है!
दृष्टि
आ जाए तो
वैराग्य
उत्पन्न होता
है। उस घड़ी उस
युवक ने देखा।
इसके पहले
सोचा था बहुत।
उस घड़ी दर्शन
हुआ। इसके
पहले विचार
बहुत किया था, लेकिन वे
विचार विचार न
थे, विवेक
न था; क्योंकि
उनसे वैराग्य
न फलित होता
था, उलटा
राग फलित होता
था।
तो
कसौटी है:
जिसमें राग
लगे, वह विचार
नहीं; वह
भीड़-भाड़ है
विचारों की।
थोथा है सब, असार है, राख
है। उसमें
अंगार नहीं
है। जिसमें
वैराग्य की
लपट
उठे--अंगार है,
जीवन है, विचार है, विवेक है।
जिंदगी
एक हादिसा
है और कैसा हादिसा
मौत से
भी खत्म जिसका
सिलसिला होता
नहीं।
यह
जिसे हम
जिंदगी कहते
हैं, यह हमारी
जीवेषणा है।
जिसे हम
जिंदगी कहते
हैं, यह
हमारे
जन्मों-जन्मों
का संकलित
सम्मोहन है।
जिंदगी
एक हादिसा
है और कैसा हादिसा
मौत से
भी खत्म जिसका
सिलसिला होता
नहीं।
मौत
आती है, जाती
है, लेकिन
सम्मोहन चलता
रहता है।
जीवेषणा को
मौत नहीं मार
पाती। शरीर
छूट जाता है, हम नया शरीर
ग्रहण कर लेते
हैं। तुम शरीर
में इसलिए
नहीं हो कि
शरीर ने
तुम्हें चुना
है; तुम
शरीर में
इसलिए हो कि
तुमने शरीर को
चुना है। तुम
दुख में इसलिए
नहीं हो कि
दुख तुम पर
आया है; तुम
दुख में इसलिए
हो कि तुमने
दुख को बुलाया
है।
महावीर
का मौलिक
सूत्र है कि
तुम्हारा
उत्तरदायित्व
आत्यंतिक है।
न कोई भाग्य, न कोई
भगवान--तुम ही
जिम्मेवार
हो। सार-सूत्र
महावीर का यह
है कि तुम
अपनी बागडोर
अपने हाथ में
ले लो। दुख है
तो तुम कारण
हो। अंधेरा है
तो तुमने ही
दीया छिपाकर
रखा है। अगर
कांटों में चल
रहे हो तो तुमने
ही कांटे बोए
हैं।
महावीर
ने मनुष्य को
सीधा मनुष्य
के ऊपर फेंक दिया; कोई सहारा न
दिया, कोई
सांत्वना न दी;
नहीं कहा कि
भगवान है, खेल
खेल रहा है, उसका खेल है,
घबड़ाओ मत, प्रार्थना
करो, उसका
सहारा
मिलेगा। कोई
सांत्वना न
दी।
महावीर
का धर्म
सांत्वना-रहित
है। अति कठोर
मालूम पड़ता
है। लेकिन
उतनी कठोरता
हो तो ही कोई
घर वापिस
लौटता है।
कैदे-हस्ती
की भी तारीक
बदल दूं तो
सही
खेल
समझे हो मेरा
दाखिले-जिंदा
होना।
कारागृह
में आ गया हूं
तो अगर
कारागृह का
ढंग ही न बदल
दूं तो मेरे
आने का अर्थ
ही नहीं है।
कैदे-हस्ती
की भी तारीक
बदल दूं तो
सही! यह जो
जिंदगी और
जिंदगी का जाल
है और जिंदगी
के बंधन हैं, इनका भी
इतिहास बदल
दूं तो सही।
खेल समझे हो
मेरा
दाखिले-जिंदा
होना। एक बार
कारागृह में आ
गया, तो अब
कारागृह को भी
स्वतंत्रता
बनाकर छोडूंगा।
ऐसा
महावीर का भाव
है। और महावीर
ने ऐसा किया।
कोई सहारा न
लिया, कोई
भीख न मांगी।
महावीर जैसा
अकेला कोई भी
जीवन के पथ पर
नहीं चला है।
कोई न कोई
सहारा आदमी खोज
लेता है।
सहारे के
सहारे संसार आ
जाता है। सहारे
के सहारे फिर
सब उतर आता
है। एक के बाद
एक सिलसिला लग
जाता है।
फक्र को
मेरे वैर है जज्बए-इकसार
से
जिंसे-जुनूं
भी हो तो मैं
भीख न लूं
बहार से।
स्वाभिमान
के विपरीत है।
अगर
प्रेमियों का
पागलपन भी
बहार से मिलता
हो, अगर
भक्तों का भी
पागलपन बहार
से मिलता हो, तो भी मैं
भीख न लूं।
स्वाभिमान के
विपरीत है।
महावीर
कहते हैं, भीख मत
लेना।
क्योंकि भीख
में जो मिलेगा
वह भीख ही
होगी, स्वामित्व
न मिलेगा।
इसलिए
महावीर के
विचार में
प्रार्थना की
कोई जगह नहीं
है, विचार
काफी है।
विचार का ही
सम्यक रूप
ध्यान बन जाता
है। ध्यान का
सम्यक रूप
समाधि बन जाता
है। समाधि
यानी समाधान!
तुम जीवन को
ठीक से देख लो,
वहीं
मुक्ति है।
"अहो!
माया की गांठ
कितनी सुदृढ़
होती है!' सब
लोग जानते हुए
मालूम पड़ते
हैं। सब लोग
सोचते हुए
मालूम पड़ते
हैं। यहां
बुद्धिहीन खोजना
तो बहुत
मुश्किल है, सभी
बुद्धिमान
हैं। फिर भी
जब माया पकड़ती
है तो सभी
उसकी पकड़ में
आ जाते हैं, गांठ बड़ी सुदृढ़
मालूम होती
है। और गांठ
कहीं इतने
गहरे है! तुम
जहां हो अभी
वहां से कहीं
ज्यादा गहरी
तुम्हारी
गांठ है। जब
तुम गांठ से
ज्यादा गहरे
हो जाओगे तभी
गांठ खुल
जाएगी। इसलिए
असली सवाल
भीतर यात्रा
का है। अपनी
गहराई से
गहराई खोजनी
है। तुम जिस
चीज के ज्यादा
गहरे उतर गये,
उससे ही
मुक्त हो गये।
"जन्म दुख है,
बुढ़ापा दुख है, रोग
दुख है, मृत्यु
दुख है। अहो!
संसार दुख ही
है, जिसमें
जीव क्लेश पा
रहे हैं।'
"जन्मं दुक्खं
जरा दुक्खं,
रोगा या मरणाणि
य।
अहो
दुक्खो
हु संसारो, जत्थ की संति जंतवो।।'
आश्चर्य
है, महावीर
कहते हैं, सब
दुख है, फिर
भी लोग पकड़े
हैं। दुख ही
दुख है, फिर
भी लोग छोड़ते
नहीं।
मूर्च्छा बड़ी
गहरी होगी।
इसलिए कहते
हैं, आश्चर्य
है। लोग अपने
ही पैरों से
कारागृह में
चले आ रहे हैं,
आश्चर्य!
लोग अपने ही
हाथों से अपनी
जंजीरें ढाल
रहे हैं, आश्चर्य!
और लोग रोते
भी हैं, चिल्लाते
भी हैं कि
मुक्त होना है,
कि आनंदित
होना है। और
जो करते हैं, वह बिलकुल
विपरीत है। जो
करते हैं उससे
बंधन निर्मित
होता है।
तो लोग
जो कहते हैं, उस पर मत
ध्यान देना; लोग जो करते
हैं, उस पर
ध्यान देना।
लोग क्या कहते
हैं, यह तो
छोड़ ही देना।
अकसर तो ऐसा
है, लोग
उलटा ही कहते
हैं। उसका भी
कारण समझ लेना
चाहिए। लोग
उलटा कहते हैं,
क्योंकि उस
तरह से वे
अपने को संतोष
बंधाए
रखते हैं।
अपने हाथों से
तो वे बनाते
जाते हैं
कारागृह और
अपनी वाणी से
गीत गाते रहते
हैं स्वतंत्रता
का। यह
स्वतंत्रता
कारागृह के मिटाने
के काम नहीं
आती। यह
स्वतंत्रता
की बातचीत
कारागृह को
बनाने में
सुविधापूर्ण
है। कारागृह
भी बनता जाता
है, स्वतंत्रता
की बात भी
चलती चली जाती
है।
तुम
देखते हो, दुनिया में
सब तरफ ऐसा
होता है!
राजनीतिज्ञ
शांति की बात
करते हैं, युद्ध
की तैयारी
करते हैं।
सारे
राजनीतिज्ञ कबूतर
उड़ाते हैं
शांति
के--शांति-कपोत!
और हर राज्य
अपनी संपत्ति
का साठ, सत्तर,
अस्सी
प्रतिशत
युद्ध की
तैयारी पर खर्च
करता है।
कबूतर भी उड़ाये
चले जाते हैं,
अणु-बम भी
बनाये चले
जाते हैं।
किसको सच
मानें? यह
जो शांति की
चर्चा है, यह
युद्ध को करने
में सहायता
देती है। यह
विपरीत नहीं
है। अगर यह
विपरीत होती
और ये कबूतर सच्चे
होते, तो
कोई कारण न था,
लोग क्यों
युद्ध के लिए तैयारियां
करें।
शांति
की तुमने कहीं
कोई तैयारी
होते देखी? कोई शांति
की कहीं
तैयारी नहीं
होती। शांति की
लोग सिर्फ बात
करते हैं, शांति
चाहिए! युद्ध
की तैयारी
करते हैं।
ध्यान रखना, जिसकी
तैयारी करते
हैं वही चाहते
हैं। अगर शांति
चाहते होते तो
कुछ शांति पर
भी खर्च करते,
शांति की
सेनाएं खड़ी
करते, लोगों
को शांति का
प्रशिक्षण
देते। लेकिन
वैसा तो कहीं
कुछ नहीं
होता। सब
प्रशिक्षण
युद्ध का है।
सब प्रशिक्षण
लड़ने, मरने,
मारने का
है। और कौन
कितना कुशल है
मारने में, उसकी दौड़
है। अमरीका है,
रूस है, चीन
है--नीचे तो
अणु-बम के ढेर
लगाये चले
जाते हैं, ऊपर
से
शांति-कांफ्रेंस
करते चले जाते
हैं। वह जो
शांति-कांफ्रेंस
है, वह उस
ढेर को छुपाने
की तरकीब है; वह तंबू है
शांति का, जिसके
अंदर बम छिप
जाएंगे और पता
भी न चलेगा। आदमी
ऐसा धोखेबाज
है! और ऐसा
राज्यों के
संबंध में ही
नहीं है, सभी
के संबंध में
यही है।
तुमने
कभी खयाल किया, तुम जो कहते
हो उससे
तुम्हारा
जीवन बिलकुल
विपरीत है! और
अगर ऐसा ही
चलते जाना है
तो कृपा करो, कहना बंद
करो। क्योंकि
कहने से क्या
सार है? क्यों
उतनी शक्ति
व्यय करते हो?
व्यर्थ
कबूतर मत उड़ाओ।
उतना पैसा और
बम बनाने में
लगा दो! कम से
कम सफाई तो हो,
सचाई तो हो,
सीधी-सीधी
बात तो हो।
अब तक
जितने युद्ध
हुए दुनिया
में, थोड़े
नहीं हुए, कोई
तीन हजार साल
में पांच हजार
युद्ध हुए हैं।
जितने युद्ध
हुए वे सभी
युद्ध इसीलिए
हुए कि दुनिया
में शांति
होनी चाहिए।
इससे तो बेहतर
है, शांति
की बकवास बंद
करो। अगर
शांति के लिए
पांच हजार युद्ध
करने पड़े तीन
हजार सालों
में तो छोड़ो
यह शांति काम
की नहीं है, यह तो बड़ी
खतरनाक है, बड़ी महंगी
है। सारी
दुनिया के
राज्य अपने
युद्ध के
इंतजाम का
नाम--देखा, "सुरक्षा-मंत्रालय',
"डिफेंस' कहते हैं! सब अटैक करते
हैं और सब
डिफेंस कहते
हैं। सब
आक्रामक हैं,
लेकिन किसी
राज्य
का...हिटलर का
भी जो
युद्ध-मंत्रालय
था वह
सुरक्षा...।
कहते हैं, हम
अपनी रक्षा के
लिए तैयारियां
कर रहे हैं।
बड़े मजे की
बात है, अगर
सभी रक्षा के
लिए तैयारियां
कर रहे हैं तो
हमला कौन कर
रहा है? डर
किसका है फिर?
सभी
सुरक्षा
चाहते हैं तो
फिर तो भय का
कोई कारण नहीं
है।
लेकिन
झूठी हैं ये
बातें।
सुरक्षा
ऊपर-ऊपर है, बातचीत है, दिखावा है।
और इसलिए आज
तक यह भी तय
नहीं हो पाया
कि किसने कब
आक्रमण किया।
किसने किया? हिटलर कहता
है, हमने
नहीं किया; दूसरों ने
किया। दूसरे
कहते हैं, हिटलर
ने किया। जो
जीत जाता है
अंततः वह
इतिहास लिखता
है। इसलिए वह
इतिहास में
लिख देता है कि
दूसरे ने
किया। जो हार
जाता है, वह
तो इतिहास लिख
नहीं सकता।
इसलिए बड़ा मजा
चलता है।
पक्का नहीं है
कि जो हार गया
है, हो
सकता है
सुरक्षा ही कर
रहा हो, जो
जीत गया वही
आक्रामक हो।
आक्रामक बड़े
कुशल हैं, आक्रमण
करने के पहले
वे ऐसा इंतजाम
करते हैं कि
ऐसा प्रतीत हो
कि वे सुरक्षा
कर रहे हैं।
और ऐसा
समाज, राष्ट्र
और व्यक्ति, सभी के
संबंध में सही
है। तुम अपनी
तरफ सोचना।
तुम जरा अपने
दांव-पेंच
पहचानना। तुम
जरा अपनी स्टे्रटेजि,
वह जो
तुम्हारी
कूटनीति है
भीतर, उसको
देखना।
तुम
अपने बेटे को
मारते हो, तुम कहते हो,
"तेरे ही
लिए, तेरे
ही हित के
लिए...।' यही तो
राजनीति है।
क्रोध
आया था, बेटे
ने घड़ी तोड़ दी;
या तुमने
चाहा था बेटा
चुप बैठे और
वह चुप नहीं
बैठा; या
तुमने चाहा था
वह सिनेमा न
जाए और चला
गया--चोट
तुम्हारे
अहंकार को
लगती है।
लेकिन तुम
कहते हो, तेरे
सुधार के लिए।
अब यह बड़े मजे
की बात है, हर
बाप सुधार रहा
है, लेकिन
कोई बेटा
सुधरता नहीं
मालूम होता।
तो जरूर कहीं
सुधार में कुछ
भूल है, नहीं
तो कुछ तो
सुधरते। इतना
बड़ा आयोजन चलता
है!
नहीं, कोई किसी को
सुधारने में
उत्सुक नहीं
है; लोग
अपनी चलाने
में उत्सुक
हैं। अपना
अहंकार! बाप
का भी अहंकार
है। उसकी
आज्ञा तुमने
तोड़ी, यह
बरदाश्त के
बाहर है।
सिनेमा गये, यह बड़ा सवाल
नहीं है; यह
तो बहाना है, सिनेमा तो
वे खुद भी
जाते हैं।
एक
सज्जन को मैं
जानता हूं।
अपने बेटे को
मना किए थे, क्योंकि कोई
गंदी फिल्म
आयी थी, कोई
अमरीकन। बेटे
को मना किए थे,
लेकिन बेटे
को मना किया
तो बेटा भी
उत्सुक हुआ।
बेटा पहुंच
गया। घर लौटकर
बहुत नाराज
हुए, नाराज
हुए क्योंकि
वे भी खुद
वहां थे। बड़ा
कष्ट जो हुआ
वह यह हुआ कि
बेटे ने उनको
भी वहां पा
लिया। उनके
बेटे से मैंने
पूछा, फिर
कहा क्या
उन्होंने? बेटा
हंसने लगा।
कहने लगा, "कहते
क्या! कहने
लगे, मैं
यही देखने आया
था कि तुम आये
तो नहीं हो!' इसके लिए
तीन घंटे
फिल्म में
बैठे रहे!
पर ऐसा
ही चलता है।
तुम अपने को
देखना शुरू करो।
जागना शुरू
करो। लंबी और
कठिन यात्रा
है। सहारे और सांत्वनाओं
से काम न
चलेगा।
पूजा-प्रार्थनाओं
से काम न चलेगा।
एक-एक इंच
अपने जीवन को
रूपांतरण
करना होगा। एक
प्रामाणिकता
चाहिए।
"जन्म दुख है,
बुढ़ापा दुख है, रोग
दुख है, मृत्यु
दुख है!' और
है क्या जीवन
में? यहां
विफलता मिले
तो दुख है, यहां
सफलता मिलती
है तो भी दुख
लाती है। यहां
गरीब रह जाओ
तो दुख है, यहां
अमीर हो जाओ
तो भी सुख
नहीं आता।
यहां हार जाओ
तो, तो दुख
है ही, यहां
जीत जाओ तो भी
हाथ में कुछ
लगता नहीं। यहां
हारे और जीते
सब बराबर हैं;
सफल और असफल
सब बराबर हैं।
"अहो!
संसार दुख है, जिसमें जीव
क्लेश पा रहा
है। अहो दुक्खो
हु संसारो।'
महावीर
कहते हैं, आश्चर्य!
चकित होकर
कहते हैं, आश्चर्य!
इतना दुख है, फिर भी लोग
उसमें डुबकी
लगाये जा रहे
हैं। इस दुख
की धारा को
गंगा समझा है!
डुबकी लगा रहे
हैं!
यहां
दरख्तों
के साये में
धूप लगती है
चलो
यहां से चलें
और उम्र भर के
लिए।
यहां
तो दरख्तों
का जो साया है
उसके पास भी
धूप ही खड़ी
है। यहां तो
साये में भी
धूप लगती है।
यहां तो सुख
के साथ भी दुख
ही खड़ा है।
यहां तो शांति
के आसपास भी अशांति
ने ही घेरा
बांधा है।
यहां
दरख्तों
के साये में
धूप लगती है
चलो
यहां से चलें
और उम्र भर के
लिए।
जो
जीवन को
देखेंगे, जो
जरा आंख खोलकर
जीवन को
देखेंगे, जो
विचार करके
जीवन को
देखेंगे, जो
विवेक से जीवन
को देखेंगे, वे कहेंगे:
"चलो। चलो
यहां से चलें
और उम्र भर के
लिए, सदा
के लिए।'
यही
वैराग्य है।
मुझे
जिंदगी की दुआ
देनेवाले
हंसी
आ रही है तेरी
सादगी पर।
लोग
जिंदगी की दुआ
देते हैं कि
खूब जीयो, जुग-जुग जीयो!
जरा पूछो भी
तो किसलिए
दुआ दे रहे हो?
क्या पाया
तुमने जुग-जुग
जीकर? जुग-जुग
जीयो
यानी जुग-जुग
दुख भोगो।
सीधी कहो न
बात, काहे
छिपाते हो?
मैं
विश्वविद्यालय
से घर लौटा, तो मेरी मां,
मेरे पिता,
परिवार के
लोग बड़े
चिंतित थे:
शादी! शादी!
शादी! डरते भी
थे मुझसे
पूछने में, क्योंकि वे
जानते रहे सदा
से कि मैं "हां'
कह दूं तो
"हां' और
"ना' कह दूं
तो "ना'--फिर
"हां' करना
मुश्किल है।
तो पूछते नहीं
थे सीधा; यहां-वहां
से खबर
भेजते--कोई
रिश्तेदार, कोई मित्र।
तो मेरे पिता
के एक मित्र
थे, वकील
थे। उन्होंने
सोचा कि वकील
आदमी है, यही
ठीक रहेगा।
उनको कहा कि
तुम ही कुछ
समझाओ। वकील
ने कहा, "समझा
लेंगे। बड़े
मुकदमे जीते
हैं, यह भी
कोई बात है।' वकील तैयार
होकर आए। वे
मुझसे विवाद करने
लगे कि शादी
के क्या-क्या
लाभ हैं।
मैंने सब
सुना। मैंने
कहा, "सुनो।
अगर तुमने
सिद्ध कर दिया
कि शादी में
लाभ हैं तो
मैं शादी कर
लूंगा; अगर
तुम सिद्ध न
कर पाए तो
तुम्हारी तरफ
से दांव पर
क्या है? तुम
छोड़ोगे
पत्नी-बच्चे,
अगर सिद्ध
हो गया कि
शादी ठीक
नहीं...? एकतरफा
तो मत करो।'
वे
थोड़े चौंके।
आदमी ईमानदार
थे। उन्होंने
कहा, यह मैंने
सोचा न था कि
मेरा भी कुछ
दांव पर लगेगा।
तो फिर मुझे
सोचने दो।
मैंने कहा कि
तुम सोच कर ही
आना। अगर मैं
हार गया तो
उसी वक्त तैयार
हो जाऊंगा,
फिर यह भी
फिक्र न
करूंगा, किससे
शादी करते हो।
कर देना किसी
से भी। लेकिन
अगर नहीं हरा
पाए तो फिर घर
लौटकर नहीं
जाने दूंगा।
छुट्टी लेकर
ही आना।
वे कभी
आए ही नहीं।
रास्ते पर
मुझे मिलते थे, इधर-उधर
बचकर निकलते
थे। दो-चार
बार मैं उनके घर
भी गया तो वे
कहने लगे, "क्यों
मेरे पीछे पड़े
हो?' मैंने
कहा, "मैं
क्यों पीछे
पड़ा हूं। तुम
ही मेरे पीछे
पड़े थे!'
एक बार
गया तो पत्नी
को बाहर भेज
दिया। पत्नी ने
कहा कि "आप किसलिए
आते हो
बार-बार?' मैंने
कहा, "तुमको
भी पता होना
चाहिए, तभी
तुम नाराज
मालूम होती
हो। वह एक
दांव की बात
है।'
कहने
लगी कि हमारे
छोटे बच्चे
हैं, क्यों
फिजूल के...? क्योंकि
जब से तुमसे
मिलना उनका
हुआ है, वे
बड़े चिंतित
रहते हैं और
उदास रहने लगे
हैं।
मेरी
मां ने मुझे
कहा, तो मैंने
कहा, "तू
ऐसा कर, पंद्रह
दिन तू भी सोच
ले। अगर तुझे
तेरे जीवन में
और तेरी शादी
से और तेरे
बच्चों से कोई
सुख मिला हो
--ऐसा सुख जो तू
चाहे कि तेरे
बेटे को भी
मिलना चाहिए,
अगर ऐसा कुछ
तूने पाया हो,
जो कि तेरे
मन में दुख
रहेगा कि तेरे
बेटे को न मिला--तो
पंद्रह दिन
बाद मुझे कह
देना, मैं
शादी कर
लूंगा। और अगर
ऐसा कुछ भी न
पाया हो, दुख
ही पाया हो तो
इतनी तो कृपा
कर कि मुझे
चेता दे, मुझे
बता दे कि दुख
ही पाया है, तो किसी
भूल-चूक से
मैं न उलझ
जाऊं।'
मेरी
मां, सीधी-सादी!
उसने पंद्रह
दिन बाद कहा
कि यह झंझट की
बात है।
तुम्हें करना
हो करो, न
करना हो न
करो। और हमें
सोचने को मत
कहो, क्योंकि
सोचने से और घबड़ाहट
होती है, सच
में पाया तो
कुछ भी नहीं। मैं
तुमसे न कह
सकूंगी कि तुम
शादी करो, क्योंकि
ऐसा कुछ भी
मुझे नहीं
मिला है।
जीवन
में हम अगर
गौर से देखें
तो हम बहुत
चकित होंगे।
दुख में लोग
जी रहे हैं, हम दुख में
और लोगों को
भी धकेले
चले जाते हैं।
मुझे
जिंदगी की दुआ
देनेवाले
हंसी
आ रही है तेरी
सादगी पर!
जिंदगी
की लंबाई का
कोई मूल्य
नहीं है।
जिंदगी के
विस्तार का
कोई मूल्य
नहीं है।
जिंदगी की
गहराई का कुछ
मूल्य है।
वासना से
जिंदगी लंबी
होती है, विचार
से जिंदगी
गहरी होती है।
लंबे होने से
संसार मिलता
है, गहरे
होने से स्वयं
की सत्ता
मिलती है, भगवत्ता
मिलती है।
"हां!
खेद है कि
सुगति का
मार्ग न जानने
के कारण मैं मूढ़मति
भयानक तथा घोर
भव वन में
चिरकाल तक
भ्रमण करता
रहा।'
जब भी
कोई जागा है, जब भी कोई
महावीर जैसी जिनावस्था
में पहुंचा है,
तो उसे यह
लगा ही है कि
हा! खेद! अब तक
क्यों न जागा!
इतना समय कैसे
सोया रहा!
कैसे-कैसे दुखस्वप्नों
में दबा रहा, फिर भी आंख न
खोली!
"हां!
खेद है कि
सुगति का
मार्ग न जानने
के कारण मैं मूढ़मति
भयानक तथा घोर
भव वन में
चिरकाल तक
भ्रमण करता
रहा।'
यहीं
श्रमण और
ब्राह्मण-संस्कृति
के बुनियादी
भेद साफ होते
हैं।
ब्राह्मण-संस्कृति
कहती है, राम
अवतरित हुए, कृष्ण
अवतरित हुए।
वे भगवान के
अवतार हैं। ऊपर
से नीचे आये।
वे मनुष्य
नहीं हैं, वे
भगवान हैं।
महावीर
ऊपर से नीचे
नहीं आए, नीचे
से ऊपर आए। वे
उसी जगह से
गुजरे जहां से
तुम गुजर रहे
हो। उन्होंने
वही दुख भोगे
जो तुमने
भोगे।
उन्होंने वही पीड़ाएं जानीं जो तुमने
जानी हैं। तुम
उनके लिए
अपरिचित नहीं
हो। तुम्हारा
जो वर्तमान है
वह उनका अतीत
था। और उनका
जो वर्तमान है,
वह
तुम्हारा
भविष्य है।
उनकी कड़ी
तुमसे जुड़ी है।
इसलिए
अगर जैन तीर्थंकरों
की भाषा
मनुष्य के
हृदय के बहुत
करीब है और जैन
तीर्र्थंकरों
और मनुष्यों
के बीच कोई
खाई-खंदक नहीं
है, तो कारण
साफ है। जैन
तीर्थंकर उसी
जगह से आए जहां
से तुम गुजर
रहे हो।
तुम्हारे दुख
उन्होंने
जाने हैं।
तुम्हारे
कष्ट
उन्होंने
जाने हैं।
तुम्हारा
अनुभव उनका
अनुभव भी है।
इसलिए जब
कृष्ण कुछ
कहते हैं तो
अर्जुन और
कृष्ण की बातचीत
में बड़ा अंतराल
है। ऐसा लगता
है, कृष्ण
किसी और ही
जगत की कह रहे
हैं, अर्जुन
किसी और ही
जगत की कह रहा
है--जैसे संवाद
हो ही नहीं
पाता। राम का
महिमापूर्ण
चरित्र! लेकिन
उसमें महिमा
कुछ भी नहीं
है, क्योंकि
वह ईश्वर का
चरित्र है।
लेकिन
महावीर का
चरित्र
महिमापूर्ण
है, क्योंकि
वह मनुष्य का
चरित्र है।
राम भगवान से
मनुष्य हो रहे
हैं। उन्हें
मनुष्यों का
क्या पता, कुछ
भी पता नहीं
है। महावीर
मनुष्य से
भगवान हुए हैं;
उन्हें
मनुष्यों का
रत्ती-रत्ती
पता है; उसका
दुख, उसकी
पीड़ा, उसका
संकट, उसकी
मूढ़ता, अज्ञान, भ्रांतियां,
माया-मोह, उसका भटकना
उन्हें पूरी
तरह पता है।
इसलिए
महावीर के
वचनों की एक
वैज्ञानिकता
है। कृष्ण के
वचनों में एक
दार्शनिकता
है। बड़ी ऊंची
हवा ही बात है, आकाश की बात
है। लेकिन
महावीर के पैर
जमीन में अड़े
हैं; उनका
सिर आकाश में
उठा है, लेकिन
पैर उनके जमीन
पर हैं। बड़ा
यथार्थ, बड़ा
अनुभव-पूरित,
अनुभव-गम्य
मार्ग है।
इसलिए महावीर
के वचनों में
रहस्यवाद
नहीं है। वे
कोई मिस्टिक
नहीं हैं। वे
किसी धुंधले
लोक की, किसी
आकाश की बात
नहीं कर रहे
हैं, वे
तुम्हारी बात
कर रहे हैं।
और जब वे
तुमसे बात कर
रहे हैं, तो
उनके मन में
ऐसा भाव नहीं
है कि तुम
क्षुद्र...। वे
जानते हैं कि
वे भी यही थे।
वे चकित होते
हैं तुम पर, लेकिन तुम
पर क्रोधित
नहीं हैं। यह
समझने जैसी
बात है।
उनके
मन में
तुम्हारी
निंदा नहीं है, करुणा है, गहन करुणा
है। आश्चर्य
से भरे हैं, लेकिन उस
आश्चर्य में
तुम पर ही
आश्चर्य नहीं है,
स्वयं पर भी
आश्चर्य है।
इसलिए
तत्क्षण जैसे ही
उन्होंने कहा
कि अहो! संसार
में दुख ही
दुख है, फिर
भी जीव क्लेश
पा रहे
हैं--उसके बाद
ही वे कहते
हैं, "हा!
खेद है कि
सुगति का
मार्ग न जानने
के कारण मैं मूढ़मति
भयानक तथा घोर
भव-वन में
चिरकाल तक
भ्रमण करता
रहा।' वे
यह नहीं कह
रहे हैं कि
तुमसे मैं कुछ
ऊपर हूं, पवित्र
हूं, श्रेष्ठ
हूं--मैं तुम
में से हूं।
मैं तुम्हारी
ही भीड़ से आया
हूं, मैं
अपरिचित, अनजान
नहीं। मैं कोई
परदेशी नहीं।
मैं तुम्हारे
ही देश का
वासी हूं। और
जो तुम भोग
रहे हो, वह
मैंने भी भोगा
है। तुम्हारी मूढ़ता
मेरी भी मूढ़ता
है। तुम्हारा
अज्ञान मेरा
भी अज्ञान है।
"सुगति का
मार्ग न जानने
के कारण...।'
सुगति
का मार्ग है:
ध्यान, विवेक,
विचार, जागरूकता,
अमूर्च्छा,
अप्रमाद। न
जानने के
कारण--
रोती
है शबनम कली दिलतंग है
गुल सीनाचाक
क्या
इसी
मजमूआ-ए-गम का
गुलिस्तां नाम
है।
रोती
है शबनम--आंसू
हैं शबनम में।
आंसू ही शबनम
है। कली दिलतंग
है--कली
सिकुड़ी है
अपने में, खुल नहीं
पाती। कली दिलतंग
है गुल
सीनाचाक। फूल
का हृदय टूट
गया है। पंखुड़ियां
बिखरी जा रही
हैं। क्या इसी
मजमूआ-ए-गम का
गुलिस्तां
नाम है। क्या इसीको
गुलिस्तां
कहें। जहां
जन्म भी दुख
है, जहां
जीवन भी दुख
है, जहां
मृत्यु भी दुख
है, जहां
एक दुख के बाद
दूसरे दुख की
शृंखला है--इसको
जीवन कहें, गुलिस्तां
कहें। नहीं, इसमें जीवन
जैसा कुछ भी
नहीं है। एक
गहन स्वप्न है,
स्वप्न भी
मधुर नहीं।
स्वप्न भी
दुख-स्वप्न है,
नाइटमेयर!
लेकिन
महावीर कहते
हैं, क्या करो?
अनंत जन्म
ऐसे गये, क्योंकि
सुगति का कोई
मार्ग पता न
था।
थोड़ा
सोचो! सुगति
का मार्ग पता
न था, क्या ऐसे
लोग न थे जो
सुगति का
मार्ग बता रहे
थे? महावीर
के पहले जैनों
के भी तेईस
तीर्थंकर हो गये।
महिमावान
पुरुष हुए।
सुगति का मार्ग
तो था, बतानेवाले थे--सुना
नहीं महावीर
ने। उसी लिए
आज रोते हैं।
सुगति का
मार्ग तो था, लेकिन उस पर
चले नहीं।
क्योंकि यह
मार्ग कुछ ऐसा
है कि चलने से
ही बनता है।
यह कोई
बना-बनाया मार्ग
नहीं है। कोई
पी. डब्ल्यू.
डी. नहीं है कहीं
आकाश में कि
रास्ते बनाती
है कि तुम बस
तैयार रास्ते
हैं, चल पड़ो।
जब मौज आ जाए, निकाल लो
गैरेज से अपनी
गाड़ी और चल पड़ो।
नहीं, बने-बनाये
रास्ते नहीं
हैं। रास्ता
चल-चलकर बनता
है।
पगडंडियों
जैसा है, राजपथ
नहीं। चलते हो,
उतना ही
बनता है।
सुनो
उनकी
जिन्होंने
पाया हो। गुनो
उनकी
जिन्होंने
पाया हो। पीयो
उनको
जिन्होंने
पाया हो। और
फिर थोड़ा-सा
जो तुम्हारे
गले में घूंट
उतर जाए, उसको
सिर्फ ज्ञान
बनाकर मत रह
जाना। उसको पचाओ।
पचाने का अर्थ
है: चलो। जो
तुमने सुना और
समझा, थोड़ा
उसका जीवन में
प्रयोग करो।
उतना रास्ता बनता
है। और एक कदम
उठता है तो
दूसरे कदम के
लिए सुविधा
बनती है।
दूसरा कदम
उठता है तो तीसरे
कदम की सुविधा
बनती है। और
एक-एक कदम से आदमी
हजारों मील की
यात्रा कर
जाता है।
"हा,
खेद है कि
सुगति का
मार्ग न जानने
के कारण मैं मूढ़मति
भयानक तथा घोर
भव वन में
चिरकाल तक
भ्रमण करता
रहा।'
"जो
जीव
मिथ्यात्व से
ग्रस्त हो गया
है, उसकी
दृष्टि
विपरीत हो
जाती है। उसे
धर्म भी रुचिकर
नहीं लगता; जैसे
ज्वरग्रस्त
मनुष्य को
मीठा रस भी
अच्छा नहीं
लगता।'
महावीर
कहते हैं, नहीं कि
मैंने नहीं
सुना था; नहीं
कि सदगुरु
नहीं थे।
लेकिन बुद्धि
विपरीत थी।
सुनता था कुछ,
गुनता था कुछ। जो
कहा जाता था
उससे विपरीत
सुन लेता था।
जो बताया जाता
था, उससे
उलटा चल पड़ता
था।
एक
वकील के दफ्तर
में ऐसा घटा।
एक बहुत बड़े
वकील अपने
दफ्तर में
कार्य
करनेवाले
लड़के को सुधारने
की कोशिश कर
रहे थे। एक
दिन लड़का अपनी
टोपी उछालते
हुए कमरे में
आया और बोला, "मिश्रा जी, आज एक बहुत
अच्छा नाटक हो
रहा है और मैं
वहां जाना
चाहता हूं।' मिश्रा जी
भी चाहते थे
कि लड़का नाटक
देख ले, पर
उसे कुछ तमीज
सिखाने के
खयाल से
उन्होंने कहा,
"छोटे!
पूछने का यह
कोई तरीका है?
टोपी
उछालते हुए
चले आ रहे हो
दफ्तर में। यह
कोई ढंग है? तुम मेरी
कुर्सी पर
बैठो, मैं
तुम्हें सही
तरीका सिखाता
हूं।'
लड़का
कुर्सी पर बैठ
गया और वकील
साहब कमरे के बाहर
चले गये।
फिर
उन्होंने
अंदर आने के
लिये धीरे से
दरवाजा खोला
और कहा, "साहब!
आज दोपहर को
एक बहुत अच्छा
नाटक हो रहा है,
यदि आप मुझे
छुट्टी दे दें
तो मैं उसे देख
आऊं!'
"क्यों नहीं',
कुर्सी पर
बैठे लड़के ने
कहा, "और
छोटे! यह
लो टिकट के
पांच रुपये।'
बड़ा
मुश्किल है
सिखाना!
क्योंकि जिसे
तुम सिखाने
चले हो, वह
पहले से ही
सीखा बैठा हुआ
है। इस संसार
में शिष्य
खोजना बड़ा
मुश्किल है, क्योंकि
शिष्य पहले से
ही गुरु बना
बैठा है। लोग
जानते ही हैं।
उसी जानकारी
के कारण अगर कोई
जाननेवाला भी
मिल जाए तो
उससे चूक जाते
हैं।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं, हमारे
शास्त्र में
तो ऐसा लिखा
है और आपने
ऐसा कहा। तो
मैं उनसे कहता
हूं, तुम्हें
शास्त्र ठीक
लगता हो तो उस
पर चलो! चलो!
तुम्हें मैं
ठीक लगता हूं,
मुझ पर चलो।
कृपा करके इस
झंझट में तो न पड़ो कि
शास्त्र ठीक
कि मैं ठीक।
क्योंकि ठीक
का पता
सोच-विचार से
न चलेगा, चलने
से चलेगा।
मैंने तुमसे
कहा, पूर्व
से जाओ तो नदी
पहुंच जाओगे।
कोई तुमसे कहता
है, पश्चिम
से जाओ तो नदी
पहुंच जाओगे।
तो मैं कहता हूं,
कैसे तय
करोगे यहीं
खड़े-खड़े, कौन
ठीक कहता है? चलो, जिस
पर तुम्हें
भरोसा हो।
शास्त्र पर
भरोसा हो, चलो।
अगर नदी न
मिले तो
हिम्मत रखना
स्वीकार करने
की कि शास्त्र
गलत। अगर मेरी
बात मानकर चलो
और नदी न मिले,
तो हिम्मत
रखना यह बात
स्वीकार करने
की कि जिसको
गुरु समझा था
वह गलत था।
फिर ऐसा मत
करना कि जब एक
दफा मान लिया
किसी की बात
को कि पूरब
में नदी है, तो अब चाहे
पूरब में नदी
मिले या न
मिले, चाहे
जन्म-जन्म भटक
जाएं लेकिन हम
पूरब में ही
खोजेंगे, क्योंकि
मान लिया सो
मान लिया।
ऐसी हठग्राहिता
से कुछ अर्थ
नहीं है। लोग
माने बैठे हैं, चले भी नहीं,
कभी प्रयोग
करके भी नहीं
देखा।
सैद्धांतिक बकवास
लोगों के मन
में गूंजती
रहती है। उसके
कारण अगर कोई जतानेवाला
भी मिल जाए, कोई जगानेवाला
भी मिल जाए, कोई
तुम्हारी
ज्योति को
थोड़ा सहारा भी
देनेवाला मिल
जाए, तो
तुम उसे सहारा
नहीं देने
देते। तुम
कहते हो, "ठहरो!
हमारी
मान्यता के
विपरीत तो
नहीं है?' तुम
मान्यताओं को
क्या संपत्ति
समझे हुए हो? तो फिर तुम न
सीख पाओगे।
तो
महावीर कहते
हैं, जो जीव
मिथ्यात्व से
ग्रस्त होता
है उसकी दृष्टि
विपरीत हो
जाती है। नहीं
कि सदपुरुष
न थे। नहीं कि
ज्योतिर्मय
पुरुष न थे।
लेकिन कहते
हैं, "मैं मूढ़मति! जो
उन्होंने कहा,
उससे उलटा
समझा। जो
उन्होंने
बताया वह तो
सुना ही न, कुछ
और सुन लिया।
जो उन्होंने
कहा, वह तो
कभी किया न, उसे
सैद्धांतिक
बोझ बना लिया।'
"उसे
धर्म भी
रुचिकर नहीं
लगता।' और
धर्म की बात
रुचिकर नहीं
लगती।
क्योंकि धर्म
की बात को अगर
रुचि से सुनो
भी, तो
तुम्हारे
जीवन में
क्रांति
सुनिश्चित है।
लेकिन
क्रांति से घबड़ाहट
होती है।
तुमने बहुत-से
न्यस्त
स्वार्थ बना रखे
हैं। तुम एक
बड़ा मकान बना
रहे हो, अब
कोई कहता है
कि ये सब
खंडहर हो
जाएंगे। तो तुम
कहते हो, यह
बातचीत सुनो
ही मत, अब
यह बना तो
लेने दो। अभी
अगर यह बीच
में बात सुन
ली तो यह
बनाने का जो
उपक्रम चल रहा
है, बंद हो
जाएगा।
मेरे
एक मित्र के
साथ, इंदौर के
पास मांडू
में मैं
मेहमान था। मांडू की
संख्या कभी नौ
लाख
थी--ज्यादा
दिन नहीं, सात
सौ साल पहले; और आज नौ सौ भी
नहीं है। बड़ी
विराट नगरी थी
मांडू। मांडवगढ़
उसका नाम था।
जब बस्ती
सिकुड़ गयी तो मांडवगढ़ "मांडू' हो
गया--हो ही
जाना चाहिए। मांडवगढ़
अब कहने का
कोई मतलब नहीं
है! इतनी-इतनी
बड़ी मस्जिदें
हैं, उनके
खंडहर हैं, जहां दस-दस
हजार लोग
इकट्ठे नमाज
पढ़ सकते थे। इतनी
बड़ी धर्मशालाएं
हैं कि जहां
दस-दस हजार
लोग इकट्ठे
उतर सकते थे। मांडव बड़ी
नगरी थी। उन जमानों की
बंबई थी।
क्योंकि ऊंटों
का सारा
आवागमन था और मांडू
मध्य में था।
सारा मुल्क मांडू से
गुजरता था।
मुल्क के बाहर
के यात्री भी,
चाहे अफगानिस्तान
से आते हों, चाहे काबुल
से आते हों, चाहे ईरान
से आते हों, मांडू से ही
गुजरते थे। तो
हजारों
यात्री बने
रहते थे। सैकड़ों
मस्जिदें
थीं, सैकड़ों मंदिर थे, सैकड़ों धर्मशालाएं
थीं। ऊंटों
के ठहरने के
लिए इतने-इतने
बड़े स्थान थे
कि हजारों ऊंट
इकट्ठे ठहर
सकें। फिर
अचानक सब खो
गया। आज मांडू
में नौ सौ
आदमी हैं।
खंडहर पड़े
हैं। विशाल
खंडहर हैं।
बड़े महल हैं।
मीलों तक
विस्तार है।
जिन
मित्र के साथ
मैं ठहरा था, वे इंदौर
में एक बड़ा
मकान बना रहे
थे। वे इतनी धुन
से भरे थे
अपने बड़े मकान
की कि सुबह उठें
तो उसकी बात
करें। नये-नये
विचार, नयी-नयी
तरंगें कि ऐसा
कर लेंगे। तो स्विमिंगपूल
कैसा बनाना...!
कौन-सा पत्थर
लगाना, रात
सोते-सोते भी
वे वही बात
करते, सुबह
उठकर भी। दोत्तीन
दिन के बाद
मैंने उनसे
कहा कि तुम
जरा मांडू
भी तो देखो!
कहने लगे, क्या
देखना मांडू
में? मैंने
कहा, जरा
चारों तरफ नजर
भी तो फैलाओ, कितने बड़े
महल थे, सब
खंडहर हो गये!
उन्होंने कहा,
रहने दो
बाबा! पहले
मुझे मकान तो
बना लेने दो। जब
होगा खंडहर तब
होगा! अभी मत छेड़ो बीच
में यह बात।
वे
मुझसे उस दिन
बोले कि
कभी-कभी
तुम्हारे साथ
होकर डर लगता
है। हो तो
जाने दो पहले
मकान पूरा, तुम अभी से
खंडहर की बात
करने लगे! अपशगुन
तो मत करो! कोई
शुभ कार्य में
ऐसी बात तो
नहीं कहनी
चाहिए!
वे
घबड़ा गये।
स्वभावतः कोई
महल बना रहा
हो, उसको तुम
खंडहर की बात
बताओ, नाराज
होगा। समझ में
भी आ जाए...समझ
में क्यों न आएगा?
समझने की
क्या अड़चन है
इसमें? इतना
फैलाव पड़ा है,
इतने खंडहर
हो गये मकान--तुम्हारा
मकान भी खंडहर
हो ही जाएगा।
तुम बना-बनाकर
मर जाओगे, मिट
जाओगे। तुम
अपने को गंवा
दोगे ईंटें
रखने में। फिर
पछताओगे।
लेकिन
आदमी के
न्यस्त
स्वार्थ हैं।
इसलिए
महावीर कहते
हैं:
"मिच्छत्तं वेदन्तो
जीवो विवरीयदंसणो
होइ।
न
य धम्म रोचेदु
हु, महुरं पि रसं
जह जरिदो।।'
जैसे
ज्वरग्रस्त
आदमी को मीठा
रस भी मीठा
नहीं मालूम
पड़ता, ऐसे
वासना के ज्वर
से भरे
व्यक्ति को
धर्म की बात
भी सुनायी
नहीं पड़ती, उलटी सुनायी
पड़ती है।
एक
छोटा बच्चा एक
बगीचे
में आम तोड़ता
हुआ पकड़ा गया।
माली ने उसे
पकड़ा, पुलिस-थाने
ले गया। लड़का
भोला-भाला था।
भोला-भालापन
देखकर दरोगा
ने कहा, "बेटे,
तुम्हें
बुरे लोगों से
बचना चाहिए।'
उस लड़के ने
कहा, "अजी
मैंने तो माली
से बचने की
बहुत कोशिश की, पर
उसने मुझे पकड़
ही लिया।'
दरोगा
कह रहा है, बुरे सत्संग
से बचो, ताकि
चोरी न सीखो।
लड़का सुन रहा
है कि यह माली
बुरा आदमी है;
मैं तो
भागने की
कोशिश कर ही
रहा था; इससे
बचने की कोशिश
कर ही रहा था, फिर भी इसने
पकड़ लिया।
तुम
अपनी वासना के
आधार से सुनते
हो। इसलिए अपने
सुने हुए पर
बहुत भरोसा मत
करना। बहुत
गौर से सुनना।
सुन भी लो तो
भी पुनः पुनः
विचार करना, यही कहा गया
था। तुमने
कहीं कुछ
मिश्रित तो
नहीं कर लिया
है, तुमने
कहीं कुछ जोड़
तो नहीं लिया,
तुमने कहीं
कुछ घटा तो
नहीं दिया है!
एक शब्द भी
घटा देने से
बड़ा फर्क पड़
जाता है। एक
शब्द भी जोड़
लेने से बड़ा
फर्क पड़ जाता
है। जरा-सा
जोर एक शब्द
पर ज्यादा दे
दो, बड़ा
फर्क पड़ जाता है।
"और
मिथ्यात्व से
भरा हुआ
व्यक्ति, उसकी
दृष्टि
विपरीत हो
जाती है।'
"मिथ्यात्व'
महावीर का
विशेष शब्द
है। जैसे
"माया' शंकर
का, ऐसे
"मिथ्यात्व' महावीर का।
मिथ्यात्व
बड़ा बहुमूल्य
शब्द है। इसका
अर्थ समझना
चाहिए।
मिथ्यात्व का
अर्थ है: जैसा
है, उसको
वैसा न देखना।
जैसा है, उसको
वैसा देख
लेना--सम्यकत्व।
जैसा है, उसको
वैसा न
देखना--मिथ्यात्व।
कुछ को कुछ
देख लेना...।
अंधेरे
में चल रहे हो, दूर से
दिखता है कि
कोई चोर खड़ा
है; पास
आते हो तो
पाते हो कि
बिजली का खंभा
है। तो वह जो
चोर दिखायी पड़
गया
था--"मिथ्यात्व'। नहीं कि
चोर वहां था, तुम्हें
दिखायी पड़ गया
था।
रस्सी
पड़ी है।
अंधेरे में
गुजर रहे हो, घबड़ाकर छलांग लगा
जाते हो, लगता
है सांप है।
रोशनी लाते हो,
देखते हो:
कोई सांप नहीं,
रस्सी पड़ी
है। रस्सी
सांप जैसी
दिखायी कैसे पड़
गयी? तुम्हारे
भीतर के भय ने
लगता है सांप
निर्मित कर
लिया। रस्सी
मिलती-जुलती
है सांप से
थोड़ी; सांप
जैसी लहरें
लिये पड़ी है।
उस मिलते-जुलतेपन
के कारण
तुम्हारे
भीतर के भय का
तूफान उठ गया,
आंधी उठ
गयी। और
तुम्हारे भय
ने सांप देख
लिया। इतना ही
समझो कि
तुम्हारे
भीतर सांप का
भय पड़ा हुआ
है। रस्सी में
सांप दिख गया,
क्योंकि
तुम्हारे
भीतर सांप का
भय पड़ा हुआ है।
तुम
थोड़ा सोचो, ऐसा कोई
आदमी जिसने
सांप कभी देखा
ही न हो, या
सुना ही न हो, क्या वह
आदमी भी इस
रस्सी में
सांप देख
सकेगा? कैसे
देखेगा? असंभव!
एक
मनोवैज्ञानिक
प्रयोग कर रहा
था। वह अपने विद्यार्थियों
को ले गया काशी
के मंदिर में, विश्वनाथ के
मंदिर में।
शंकर जी की
पिंडी के पास
वह अपना हैट
रख आया और
दरवाजे पर
उसने खड़े होकर
शिष्यों को
पूछा कि क्या
है, शंकर
जी की पिंडी
के पास क्या
रखा है?
उन सब
ने गौर से
देखा और सब ने
कहा कि शंकर
जी का घंटा।
क्योंकि हैट
और शंकर जी का
संबंध ही नहीं
जुड़ता।
तो वह जो हैट
था, घंटे
जैसा दिखायी
पड़ने लगा।
तुमने
कभी देखा, आकाश में
बादल बनते
हैं! तुम जो
देखना चाहते हो,
देख लेते
हो। कभी-कभी
वर्षा की
बूंदें
दीवालों पर
चित्र अंकित
कर जाती हैं, तुम जो
देखना चाहते
हो देख लेते
हो। वहां कुछ भी
नहीं है।
कभी-कभी चेहरा
दिखायी पड़ता
है। दीवाल पर
पानी की
रेखाएं बह गयी
हैं। वहां कुछ
भी नहीं है। लेकिन
तुम आरोपित कर
लेते हो।
मिथ्यात्व
का अर्थ है: जो
नहीं है वह
तुमने देख
लिया; और जो
था उससे तुम
चूक गये। जब
तुम उसे देख
लोगे जो नहीं
है तो उससे
तुम चूक ही
जाओगे जो है।
दृष्टि
को साधना है।
दृष्टि को
निर्मल करना है।
और धीरे-धीरे
दृष्टि के साथ
जल्दी
निष्कर्ष
नहीं लेने
हैं।
निष्कर्ष
करने में थोड़ा
धैर्य करो।
सुनो, देखो,
जल्दी
निष्कर्ष मत
लो। मेरे पास
तुम आए हो, सुनते
हो। इधर तुम
सुन रहे हो, साथ-साथ तुम
निष्कर्ष भी
लेते जाते हो।
तुम
में से कई हैं
जो सिर हिलाते
हैं; वे कहते
हैं, बिलकुल
ठीक। उनके
भीतर मेल खा
रही है बात।
वे जो मानते
रहे हैं उससे
मेल खा रही
है। कोई सिर हिलाता
है कि नहीं।
वह उसे पता भी
नहीं कि वह सिर
हिला रहा है; मुझे दिखाई
पड़ता है कि वह
कह रहा है कि
नहीं। यह बात जंचती
नहीं।
इतनी
जल्दी मत करो, पहले मुझे
सिर्फ सुन लो।
सिर्फ शुद्ध
सुनना काफी
है। फिर सुनने
के बाद, समझने
के बाद फिर
तालमेल बिठा
लेना। अभी
तुमने अगर साथ
ही साथ दो
प्रक्रियाएं
जारी रखीं कि
तुम अपने भीतर
विचार भी
चलाते रहे, तर्क भी
करते रहे, विवाद
भी करते रहे, तालमेल भी
बिठाते रहे, तो तुम मुझे
न सुन पाओगे।
तुम्हारा
शोरगुल इतना
ज्यादा होगा,
तुम कैसे
मुझे सुन
पाओगे? फिर
तुम जो
निष्कर्ष
लोगे वह
मिथ्यात्व
होगा।
"मिथ्या-दृष्टि
जीव तीव्र
कषाय से पूरी
तरह आविष्ट
होकर जीव और
शरीर को एक
मानता है। वह बहिरात्मा
है।'
महावीर
कहते हैं, आत्मा की
तीन अवस्थाएं
हैं: बहिरात्मा--जब
तुम वासना से
बाहर बहे जाते
हो; अंतरात्मा--जब
तुम ध्यान से
भीतर चले आते
हो; और
परमात्मा--जब
बाहर-भीतर
दोनों खो गये।
हो तो
तुम वही। हो
तो तुम
परमात्मा ही।
लेकिन जब
परमात्मा
बाहर की तरफ
बह रहा है तो बहिरात्मा।
जब पदार्थ में
रुचि है, वस्तु
में रुचि है, दूसरे में
रुचि है, विषय-वस्तु
में रुचि है; जब तुम अपने
को इतना भूल
गये हो कि बस
पदार्थ ही सब
कुछ हो गया, धन के
दीवाने हो, पद के
दीवाने हो--तब
तुम बहिरात्मा।
बहिरात्मा
यानी आत्मा
बाहर की तरफ
बहती हुई। फिर
विचार शुरू
हुआ। बहुत जले,
इतने जले कि
दूध का जला
छाछ भी फूंक-फूंककर
पीने लगा!
विचार का जन्म
हुआ, विवेक
उठा, तब
तुम भीतर
लौटने लगे, अंतर्यात्रा
शुरू हुई--तब
अंतरात्मा।
हो तो
तुम वही--दिशा
बदली, आयाम
बदला, तुम्हारा
गुणधर्म बदला;
अभी तुम घर
के बाहर जाते
थे, अब तुम
घर की तरफ आने
लगे; अभी
संसार की तरफ
मुंह था, अब
पीठ हो गयी; अभी सन्मुख
संसार था, अब
तुम
आत्म-सन्मुख
हुए; फिर
पहुंच गये घर;
फिर तुम
अपने में लीन
हो गये; फिर
स्वभाव
उपलब्ध हो
गया--तब
परमात्मा।
अब न
कुछ बाहर है, अब न कुछ
भीतर है।
द्वंद्व गया,
दुई मिटी। द्वंद्वात्मकता
खोयी, निर्द्वंद्व
हुए।
निर्ग्रंथ
हुए। इसको महावीर
कहते हैं
मोक्ष-अवस्था।
बहिरात्मा
को अंतरात्मा
बनाना है, अंतरात्मा
को परमात्मा
बनाना है।
परमात्मा तुम
हो ही, सिर्फ
यात्रा के रुख
बदलने हैं, दिशा बदलनी
है। जो तुम हो,
वही हो सकते
हो। जो तुम हो
ही, वही
होओगे। लेकिन
अगर विपरीत
चले जाओ, मिथ्यात्व
में खो जाओ, तो तुम
रहोगे भी
परमात्मा, लेकिन
अपने को कीड़ा-मकोड़ा
समझने लगोगे;
आदमी, स्त्री,
हिंदू, मुसलमान,
ब्राह्मण, शूद्र समझने
लगोगे। रहोगे
परमात्मा और
किसी छोटी-सी
चीज से अपना
संबंध बना
लोगे; कहोगे--यही
मैं हूं, यही
मैं हूं, यही
मैं हूं!
लौटो
भीतर की तरफ!
ध्यानस्थ होओ!
धीरे-धीरे
तुम्हारी
दृष्टि
क्षुद्र से छूटेगी।
जैसे अपनी तरफ
लौटोगे, अचानक
पाओगे: न तो
मैं शरीर हूं
न मैं मन हूं, न मैं हिंदू
न मैं मुसलमान,
न ब्राह्मण
न शूद्र्र,
न जैन न
ईसाई, न
स्त्री न पुरुष,
न गरीब न
अमीर, न
सुखी न दुखी।
जैसे-जैसे
भीतर आने
लगोगे, द्वंद्व
छूटने
लगे--दूर खोने
लगे, आकाश
में कहीं! रह
गए स्वप्नवत।
स्मृति रह गयी।
फिर एक दिन
अचानक घर में
प्रवेश हो
जाएगा। तुम
अपने स्वरूप
में थिर हो
जाओगे।
स्वरूप
में थिर हो
जाना स्वस्थ
हो जाना है।
स्वस्थ यानी
स्वयं में
स्थित!
परमात्मा हुए, परमात्मा
प्रगट हुआ।
महावीर
की विचार-सरणी
में परमात्मा
प्रकृति के
प्रारंभ में
नहीं है।
परमात्मा, जब प्रकृति
का परिपूर्ण
उन्मेष और
विकास हो जाता
है, तब है।
और परमात्मा
एक नहीं है; उतने ही
परमात्मा हैं,
जितने जीवन-बिंदु
हैं। हर बिंदु
सागर हो जाता
है। उतने ही
सागर हैं
जितने बिंदु
हैं।
इसलिए
परमात्मा, महावीर ही
दृष्टि में, कोई
तानाशाही की
धारणा नहीं है;
बड़ी
लोकतांत्रिक
धारणा है।
प्रत्येक
व्यक्ति
परमात्मा है।
प्रत्येक
व्यक्ति की
नियति परमात्मा
है, स्वभाव
परमात्मा है।
महावीर
ने तुम्हारे
भीतर के
परमात्मा को
पुकारा
है--किसी
परमात्मा की
पूजा के लिए
नहीं; किसी
परमात्मा की
अर्चना के लिए
नहीं--अपने परमात्मा
को पाने के
लिए। और जब तक
कोई परमात्मा
की अवस्था को
उपलब्ध न हो
जाए...ध्यान
रखना, परमात्मा
अवस्था है, व्यक्ति
नहीं...तब तक
जीवन दुख से
भरा रहता है; तब तक
अंधेरी रात
नहीं टूटती।
उठो!
चलें! उस सूरज
की खोज करें
जो तुम्हारे
भीतर छिपा है! जागो! थोड़ा
हलन-चलन करो!
थोड़ी गति करो!
उसकी खोज करो
जो तुम्हारे
भीतर पड़ा ही
है; जिसे तुम
सदा ही अपने
भीतर छिपाये
रहे हो, लेकिन
नजर नहीं दी, उस तरफ आंख
नहीं फेरी।
जैसे ही तुम
भीतर की तरफ
नजर को फेरते
हो, मिथ्यात्व
सरकने लगता है,
खोने लगता
है।
जैसे
दीये के जलने
पर अंधेरा
विसर्जित
होता है--सम्यकत्व
का जन्म होता
है। और जब तुम
पहुंच गये, तो वहां न
मिथ्यात्व है
न सम्यकत्व,
दोनों
द्वंद्व गये!
फिर वहां तो
केवल-ज्ञान, केवलत्व,
कैवल्य है।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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