जन्म
कर्म च मे दिव्यमेवं
यो वेत्ति
तत्त्वतः।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म
नैति मामेति
सोऽर्जुन।।
9।।
हे
अर्जुन! मेरा
यह जन्म और
कर्म दिव्य
अर्थात
अलौकिक है। इस
प्रकार जो
पुरुष तत्व से
जानता है, वह शरीर को
त्यागकर फिर
जन्म को नहीं
प्राप्त होता
है,
किंतु
मुझे ही
प्राप्त होता
है।
जीवन
विपरीत
ध्रुवों का
संगम है, अपोजिट पोलेरेटीज
का। यहां
प्रत्येक चीज
अपने विपरीत
के साथ मौजूद
है; अन्यथा
संभव भी नहीं
है। अंधेरा है,
तो साथ में
जुड़ा हुआ
प्रकाश है।
जन्म है, तो
साथ में जुड़ी
हुई मृत्यु
है। जो विपरीत
हैं, वे
सदा साथ मौजूद
हैं।
जो
हमें दिखाई
पड़ता है, वह
लौकिक है। जो
हमारी
इंद्रियों की
पकड़ में आता
है, वह
लौकिक है।
जिसे हमारी
आंख देखती और
कान सुनते और
हाथ स्पर्श
करते हैं, वह
लौकिक है।
हमारी
इंद्रियों के
जगत का नाम लोक
है। लेकिन
इंद्रियों की
पकड़ के बाहर
भी कुछ सदा
मौजूद है, वह
अलौकिक है।
इंद्रियां
जिसे नहीं पकड़तीं, हाथ जिसे
स्पर्श नहीं
कर पाते, वाणी
जिसे प्रकट
नहीं करती, मन जिसे समझ
नहीं पाता, वह भी सदा
मौजूद है; उस
मौजूद का नाम
अलौकिक है। वह
लोक के साथ ही
निरंतर
उपस्थित है।
जो
व्यक्ति
इंद्रियों पर
ही अपने को
समाप्त कर
लेता है, उसे
अलौकिक का कोई
संस्पर्श
नहीं हो पाता।
जो ऐसा मानकर
बैठ जाता है
कि इंद्रियां
ही सब कुछ हैं,
वह अलौकिक
से वंचित रह
जाता है।
कृष्ण
कहते हैं, मेरा यह
जीवन अलौकिक
है।
जीवन
सभी का अलौकिक
है। जन्म और
मृत्यु लौकिक
है, जीवन
अलौकिक है।
शरीर में जीवन
है, लेकिन
शरीर जीवन
नहीं है। फूल
में सौंदर्य
है, लेकिन
सौंदर्य फूल
नहीं है। दीए
में ज्योति है,
लेकिन
ज्योति दीया
नहीं है।
यद्यपि
ज्योति दीए के
बिना प्रकट न
हो सकेगी; इंद्रियों
की पकड़ में न आ
सकेगी।
सौंदर्य फूल के
बिना तिरोहित
हो जाएगा, खोजे से
भी मिलेगा
नहीं।
जीवन
भी जन्म और
मृत्यु के दो
तटों के बीच
बहती हुई धारा
है। दोनों तट
न होंगे, धारा
दिखाई पड़नी
बंद हो जाएगी।
लेकिन फिर भी
स्मरण रखें, तट धारा
नहीं है। और
ऐसा भी हो
सकता है कि
धारा सूख जाए;
तट बने रहें
और धारा न हो।
तट बिना धारा
के भी हो सकते
हैं। तट स्थूल
हैं, दिखाई
पड़ते हैं; धारा
सूक्ष्म है, अगर तट न हों
तो दिखाई पड़नी
बंद हो जाएगी।
जीवन
सभी का अलौकिक
है, लेकिन
कृष्ण जोर
देकर कहते हैं,
मेरा जीवन
अलौकिक है। इस
जोर का कारण
क्या है? इस
जोर के दो
कारण हो सकते
हैं। एक तो यह
कि दूसरों का
जीवन अलौकिक
नहीं है, कृष्ण
का जीवन
अलौकिक है; ऐसा जो अर्थ
लेंगे, वे
भूल में
पड़ेंगे। जीवन
तो सभी का
अलौकिक है, कृष्ण का ही
नहीं। फिर
कृष्ण क्यों
जोर देकर कहते
हैं कि मेरा
जीवन अलौकिक
है?
वे
इसलिए जोर
देकर कहते हैं
कि जिस दिन
कोई अपने भीतर
के अलौकिक
जीवन को
जानेगा, उस
दिन वह मुझसे
भिन्न नहीं रह
जाता; वह
मुझसे एक ही
हो जाता है।
उस दिन से
उसका जीवन
उसका नहीं रह
जाता, परमात्मा
का ही हो जाता
है। मेरा जीवन
अलौकिक है, ऐसा जानते
ही, जीवन
मेरा नहीं रह
जाता। इस तथ्य
को ठीक से समझ
लेना जरूरी
है।
जैसे ही
बूंद ने जाना
कि वह सागर है, वैसे ही
बूंद बूंद
नहीं रह जाती;
सागर ही हो
जाती है। जैसे
ही व्यक्ति ने
जाना कि मेरे
भीतर कुछ असीम
भी मौजूद है, वैसे ही वह
व्यक्ति नहीं
रह जाता, असीम
हो जाता है।
यहां
कृष्ण उस असीम
की तरफ से ही
कहते हैं कि मेरा
जीवन अलौकिक
है। इसलिए जो
भी इस अलौकिक
का दर्शन कर
लेता है, वह
मुझे उपलब्ध
हो जाता है।
इसलिए वे कहते
हैं, मरकर
वह व्यक्ति नए
जन्म को नहीं
उपलब्ध होता,
वह मुझे
उपलब्ध हो
जाता है।
जन्म
का अर्थ है, बूंद अभी
अपने को बूंद
ही मानती है; बूंद अभी
अपने को सीमा
में बंधा हुआ
मानती है। न
जन्म होने का
अर्थ है कि
बूंद ने अब
सीमाओं के
बाहर
अतिक्रमण
किया, ट्रांसेंडेंस हुआ। अब
बूंद अपने को
बूंद नहीं
मानती; अब
बूंद अपने को
सागर ही जानती
है।
कृष्ण
कहते हैं, जो भी
अलौकिक जीवन
के अनुभव को
उपलब्ध हो
जाता है, वह
फिर मुझे ही
उपलब्ध हो
जाता है। फिर
उसका जन्म
नहीं होता; फिर उसका
जीवन ही होता
है।
जन्म
और मृत्यु का
भ्रम जिन्हें
है, उन्हें
जीवन का अनुभव
नहीं है।
जिन्हें जीवन का
अनुभव है, उन्हें
जन्म और
मृत्यु का
भ्रम नहीं है।
जब तक हमें
लगता है, मैं
जन्मा और मैं
मरा, तब तक
मुझे उसका पता
नहीं चलेगा, जो जन्म और
मृत्यु के तट
के बीच अदृश्य
बहता था, जो
जीवन था। मुझे
किनारों का
पता है, बीच
की धारा का
कोई भी पता
नहीं है। इन
दोनों किनारों
के बीच में
तीसरी चीज भी
थी; जीवन
भी था। जन्म
से शुरू हुआ, मृत्यु से
तिरोहित हुआ,
लेकिन इन
दोनों के बीच
में जीवन भी
था। वह जीवन, उसका हमें
कोई पता नहीं
है, वह
अलौकिक है।
अलौकिक
का अर्थ यह
हुआ, इंद्रियों
से पकड़ में
आने योग्य
नहीं है। अलौकिक
का अर्थ यह
हुआ कि पदार्थ
को जिस भांति
हम जानते हैं,
उस भांति
उसे जानने का
उपाय नहीं है।
पत्थर
को मुझे हाथ
में उठाकर
देखना है, तो मैं
स्पर्श करके
देख सकता हूं।
आपको अगर मुझे
देखना है, तो
आपके शरीर के
स्पर्श से मैं
आपको नहीं
जानता; केवल
आपके गृह को, आपके घर को
जानता हूं। आप
भीतर अछूते, अनटच्ड छूट जाते
हैं। शरीर छू
जाता है, आपको
नहीं छू पाता
हूं। स्पर्श
की सीमा है; वह पदार्थ
के पार नहीं
जाती।
इसलिए
विज्ञान
कठिनाई में पड़
गया है।
क्योंकि विज्ञान
का खयाल है, जो
इंद्रियों के
भीतर है, वही
रियलिटी है, वही यथार्थ
है; जो
इंद्रियों के
भीतर नहीं है,
वह यथार्थ
नहीं है।
लेकिन अब
विज्ञान को
रोज-रोज उन
चीजों का पता
चल रहा है, जो
इंद्रियों की
सीमा के भीतर
नहीं हैं।
जैसे
आज तक किसी ने
भी इलेक्ट्रिसिटी
नहीं देखी। आप
कहेंगे, हम
रोज देखते
हैं। घर हमारे
बल्ब जलता है,
पंखा चलता
है, रेडियो
बजता है; हम
रोज देखते
हैं। लेकिन जो
आप देख रहे
हैं, वह
सिर्फ परिणाम
है, विद्युत
नहीं है। वह
सिर्फ
कांसिक्वेंस
है, रिजल्ट
है, काज़
नहीं है। आप
जो देख रहे
हैं, वह
विद्युत का
परिणाम है, काम है; विद्युत
नहीं है। जब
आप बल्ब को फोड़
देते हैं, तो
विद्युत नहीं
फूटती, सिर्फ
विद्युत को
प्रकट करने
वाला उपकरण
टूट जाता है, इंस्ट्रूमेंट टूट जाता है;
विद्युत
नहीं टूट
जाती। आप
बिजली के तार
को काट देते
हैं, तब
बिजली नहीं
कटती; सिर्फ
बिजली का तार
कटता है, जिससे
बिजली बहती
थी। जब आप
बिजली के तार
को पकड़ लेते
हैं, तो जो
झटका, जो
शॉक आपको लगता
है, वह भी
बिजली नहीं है;
वह भी बिजली
का परिणाम है।
हम सिर्फ
बिजली का परिणाम
जानते हैं, बिजली को
नहीं जानते; वह अदृश्य है।
अगर हम
जीवन को इसी
तरह खोजें, तो हम
पाएंगे कि हम
सिर्फ परिणाम
जानते हैं। मूल
कारण भीतर
अदृश्य रह
जाता है। जड़ें
दिखाई नहीं पड़तीं, शाखाएं
दिखाई पड़ती
हैं। जड़ें
अदृश्य में रह
जाती हैं। उस
अदृश्य का नाम
अलौकिक है।
इस
अलौकिक को जो
पुरुष जान
लेता है, कृष्ण
कहते हैं, वह
फिर शरीर में
जन्म नहीं
लेता।
क्योंकि वह विराट
शरीर के साथ
एक हो जाता
है। फिर उसे
छोटे-छोटे
शरीरों में
जन्म लेने की
जरूरत नहीं रह
जाती। फिर वह
मेरे साथ ही
एक हो जाता
है। यहां जब
कहते हैं
कृष्ण, मेरे
साथ, तो
उसका अर्थ है
अस्तित्व के
साथ। वन विद
दि एक्झिस्टेंस;
वह जो समस्त
अस्तित्व है,
उसके साथ एक
हो जाता है।
फिर उसे
अलग-अलग छोटे-छोटे
घर बनाने की
जरूरत नहीं
पड़ती।
बुद्ध
को ज्ञान हुआ, तो ज्ञान की
घड़ी के बाद
आनंदमग्न हो
उन्होंने जोर
से कहा, मेरे
मन! मेरे
अहंकार! अब तक
तुझे मेरे लिए
छोटे-छोटे घर
बनाने पड़े; लेकिन अब
तुझे मैं काम
से मुक्त करता
हूं। अब तुझे
मेरे लिए
छोटे-छोटे घर
न बनाने
पड़ेंगे।
कृष्ण
उसी का दूसरा
हिस्सा कह रहे
हैं। कह रहे
हैं, छोटे घर
इसलिए नहीं
बनाने पड़ेंगे
कि घर नहीं रहेगा;
छोटे घर
इसलिए नहीं
बनाने पड़ेंगे
कि सारा विश्व,
सारा
अस्तित्व, वैसी
चेतना का घर
हो जाता है।
फिर छोटे की
जरूरत नहीं रह
जाती।
स्वभावतः, जिसे हीरे
मिल जाएं, वह
कंकड़-पत्थर
मुट्ठी से छोड़
देता है; और
जिसे महल मिल
जाएं, वह झोपड़ियों
को भूल जाता
है। जिसे
अलौकिक का
दर्शन हो जाए,
लौकिक कंकड़-पत्थर
जैसा हो जाता
है; फिर
उसमें प्रवेश
की आकांक्षा
नहीं रह जाती।
यहां
कृष्ण का यह
जोर कि मेरा
जीवन दिव्य और
अलौकिक है, इस बात का ही
जोर है कि
जीवन दिव्य और
अलौकिक है।
यहां कृष्ण
जीवन के
प्रतिनिधि की
तरह बोलते
हैं। और इससे
बड़ी भ्रांति
होती है। उनकी
भी मजबूरी है।
जीसस
भी इसी तरह
बोलते हैं, और इसीलिए
जीसस को सूली
पर लटका दिया।
क्योंकि
समझने वालों
ने समझा कि यह
तो गलत बात
बोलते हैं।
जीसस ने कहा
कि वह
परमात्मा जो
आकाश में है
और मैं, हम
दोनों एक हैं।
लोगों ने कहा,
यह तो कुफ्र
हो गया, यह
आदमी तो काफिर
मालूम होता
है! परमात्मा
के साथ अपने
को एक बताता
है! यह तो बड़ा
अहंकारी
मालूम होता
है।
नहीं; वे नहीं समझ
सके, नहीं
समझ पाए।
जब
जीसस ने कहा
कि मैं और
परमात्मा एक
है, तो जीसस
यही कह रहे
हैं कि मैं अब
कहां हूं? परमात्मा
ही है। सूली
पर लटका दिया
लोगों ने। सूली
पर लटके आखिरी
क्षण में जीसस
ने कहा, हे
प्रभु! इन्हें
माफ कर देना, क्योंकि ये
नहीं जानते कि
क्या कर रहे
हैं! क्या कर
रहे हैं, यह
तो जानते ही
नहीं; क्या
समझ रहे हैं, यह भी नहीं
जानते। गलत ही
समझ रहे हैं।
कृष्ण
को हमने सूली
नहीं लगाई; उसका कारण
था। कृष्ण के
पीछे कोई
पांच-दस हजार
साल की ऐसे
लोगों की
परंपरा थी, जिन्होंने
बहुत बार यह
कहा था कि हम
परमात्मा हैं।
हम इसे सुनने
के आदी हो गए
थे। जीसस ने
पहली दफा, पहली
दफा यहूदी जगत
में घोषणा की
कि मैं और परमात्मा
एक हैं। लोगों
की बर्दाश्त
के बाहर हो गया।
ऐसा नहीं कि
हम समझ गए
कृष्ण की बात,
हम भी नहीं
समझे। हमने
नासमझी और तरह
की की। जीसस
को सुनने
वालों ने
नासमझी और तरह
की की।
जीसस
को सुनने
वालों ने पहली
दफा यह बात
सुनी कि कोई
आदमी कहता है, मैं
परमात्मा हूं,
मैं दिव्य
हूं, मैं
डिवाइन हूं।
उन्होंने कहा,
यह तो
ज्यादती हो
गई! यह आदमी
अहंकारी है, सूली पर
लटका दो!
हमने
बहुत बार यह
बात सुनी थी।
उपनिषद कह गए
थे; वेद कह गए
थे; कृष्ण
की बात हमें
नई नहीं थी।
लेकिन हमने भी
भूल की। हमने
कहा, यह
आदमी भगवान है;
इसकी पूजा
करो।
सूली
पर लटकाओ
या पूजा करो, दोनों में
ही भूल हो गई।
उन्होंने भूल
की कि यह आदमी
अपने को भगवान
कह रहा है, सूली
पर लगा दो।
हमने भूल की
कि यह आदमी
अपने को भगवान
कहता है, पूजा
करो। हम दोनों
नहीं समझे।
जीसस
का भी मतलब
यही था कि जिस
दिन तुम भी जानोगे
कि तुम कौन हो, तब तुम जानोगे
कि तुम भी
परमात्मा हो।
और कृष्ण का
भी मतलब यही
है कि अगर तुम खोजोगे, झांकोगे
भीतर, तो
पाओगे कि तुम भी
परमात्मा हो।
मैं तुम्हारी
संभावनाओं की आहट
हूं। मैं
तुम्हारी
संभावनाओं की
सूचना हूं।
मैं तुम्हारी पोटेंशियलिटीज
की तरफ से
बोलता हूं।
तुम जो हो
सकते हो, मैं
उसका
प्रतिनिधि
हूं।
इस बात
को ठीक से समझ
लें। कृष्ण
कहते हैं, तुम जो हो
सकते हो, मैं
उसका प्रतिनिधि
हूं। तुम जो
हो सकते हो, वह मैं हो
गया हूं। तुम
जो कल होओगे, वह मैं आज
हूं। मैं
तुम्हारा कल
हूं। मैं तुम्हारा
भविष्य हूं।
मैं तुम्हारे
भविष्य की तरफ
से बोलता हूं।
लेकिन
यह हम न समझे।
हम समझे कि
कृष्ण कह रहे
हैं, वे भगवान
हैं; ठीक
है; पूजा
करो। हम यह न
समझे कि वे
हमारे भविष्य
के प्रतिनिधि
हैं, वे
हमारी तरफ से
बोल रहे हैं।
जो हमारे बीज
में छिपा है, वह उनका
वृक्ष हो गया
है। जो हमारे
भीतर अभी अप्रगट
है, वह
उनके भीतर
प्रगट हो गया
है। जो अभी हम
नहीं जानते
अपने ही खजाने
को, वह
उन्होंने जान
लिया है। वे
हमारे सारे
भविष्य, हमारी
सारी
संभावनाओं की
आवाज हैं।
हमने
पूजा की; हम
भी गलत समझे।
जीसस को सूली
लगाई; वे
भी गलत समझे।
मंसूर को
मुसलमानों ने
काट डाला; वे
भी न समझे।
क्योंकि
मंसूर ने कहा,
अनलहक! मैं ही
ब्रह्म हूं।
लोगों ने कहा,
यह तो
ज्यादती है; यह आदमी
अहंकारी है।
हमने
आज तक दुनिया
में दो तरह की
भूलें की हैं।
न समझे, तो
सूली लगा दी।
न समझे, तो
पूजा कर ली।
पूजा में हम
सिंहासन पर
बिठा देते हैं
और दूर कर
देते हैं।
सूली पर हम
सूली पर लटका
देते हैं और
दूर कर देते
हैं। लेकिन दोनों
हालत में हम
यह बात मानने
को राजी नहीं
होते कि यह
आदमी हमारे
भीतर की छिपी
हुई
संभावनाओं की
आवाज है।
इसलिए
कृष्ण दूसरे
ही वचन में
कहते हैं कि
जो यह अनुभव
कर लेगा, फिर
उसे जन्म की
जरूरत नहीं; वह फिर
मुझको उपलब्ध
हो जाता है।
बड़ी
कठिनाई है।
उनकी कठिनाई
भी है। आदमी
के पास जो
भाषा है, उसी
भाषा में
बोलना पड़ता
है। उस भाषा
में मैं के
बिना बोले काम
नहीं चल सकता,
या फिर
हमारी समझ में
कुछ भी न
आएगा।
अगर
परमात्मा भी
जमीन पर उतरकर
खड़ा हो, तो
भी हमारी भाषा
में ही उसे
बोलना पड़ेगा।
अगर वह अपनी
भाषा में
बोलेगा, तो
हमें पागल
मालूम पड़ेगा।
उसे हमारी
भाषा में ही
बोलना पड़ेगा।
और मजा
यह है कि
हमारी भाषा
में बोले, तो भी हम
नहीं समझ पाते;
अपनी भाषा
में बोले, तो
भी नहीं समझ
सकते। हमारी
भाषा में भी
बोले, तो
भी हम नहीं
समझ पाते; लेकिन
अपनी भाषा में
बोले, तब
तो हम बिलकुल
ही न समझ
पाएंगे।
हमारी भाषा में
बोले, तो
कम से कम हम
नासमझी कर
पाते हैं। वह
भी समझने का
एक गलत ढंग
है। लेकिन कोई
शायद समझ ले, इसलिए कृष्ण
हमारी भाषा
में बोलते हैं,
मैं का
प्रयोग करते
हैं।
कृष्ण
जैसे
व्यक्तियों
के भीतर मैं
बचता नहीं।
बचे, तो गीता
बेकार है; फिर
गीता पैदा
नहीं हो सकती।
लेकिन कृष्ण
बार-बार मैं
शब्द का
प्रयोग करते
हैं।
हमारी
भी कठिनाई है।
जब वे मैं का
प्रयोग करते
हैं, तो हम
समझते हैं, जिस भांति
हम मैं का
प्रयोग करते
हैं, उसी
भांति वे भी
करते होंगे।
हमारे और उनके
प्रयोग में
बिलकुल ही कोई
साम्य नहीं
है।
कृष्ण
जब कहते हैं
मैं, तो उनके
मैं में सब तू समाए हुए
हैं। और जब हम
कहते हैं मैं,
तो हमारे
मैं में सब तू
अलग हैं, बाहर
हैं; कोई
भी समाया हुआ
नहीं है।
कृष्ण के मैं
में तू इनक्लूसिव
है। हमारे मैं
में तू
एक्सक्लूसिव
है, बाहर
है।
हम जब
बोलते हैं मैं, तो हम तू से
फासला बताने
के लिए बोलते
हैं। कृष्ण जब
बोलते हैं मैं,
तो वे तू को ढांक लेने
के लिए बोलते
हैं। लेकिन यह
हमारे खयाल में
नहीं आ सकता।
उनका
मैं इतना बड़ा
है कि उस मैं
के बाहर और
कोई भी नहीं।
और हमारा मैं
इतना छोटा है
कि उस मैं के
भीतर हमारे
सिवाय और कोई
भी नहीं। इस
फर्क को खयाल
में रखेंगे, तो बार-बार
उनके मैं का
प्रयोग ठीक से
समझ में आ
सकता है।
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः।
बहवो ज्ञानतपसा
पूता मद्भावमागताः।।
11।।
और हे
अर्जुन! पहले
भी राग, भय
और क्रोध से
रहित, अनन्य
भाव से मेरे
में स्थित
रहने वाले, मेरे शरण
हुए बहुत से
पुरुष, ज्ञानरूप तप से
पवित्र हुए
मेरे स्वरूप
को प्राप्त हो
चुके हैं।
और
पहले भी राग
के ऊपर उठे, क्रोध से
मुक्त हुए, मोह के पाश
के बाहर, तप
से पवित्र हुए
पुरुष मेरे
शरीर को
उपलब्ध हो
चुके हैं!
राग के
पार हुए, वीतराग
हुए। वीतराग
शब्द गहरा है
और बहुत अर्थपूर्ण
है। वीतराग का
अर्थ वैराग्य नहीं
है। वीतराग का
अर्थ विराग
नहीं है। विराग
का अर्थ है, राग के
विपरीत हुआ।
वीतराग का
अर्थ है, राग
के पार हुआ।
राग का
अर्थ है, एक
आदमी धन के
पीछे पागल है।
धन को पकड़ता
है। धन देखता
है, तो लार
टपक-टपक जाती
है। रात-दिन
गिनता ही रहता
है! विराग का
अर्थ है, धन
के विपरीत हुआ;
धन से भागता
है। कोई धन
उसके सामने
करे, तो
आंख फेर लेता
है। कोई रुपया
उसके पास रखे,
तो छलांग
लगाकर खड़ा हो
जाता है।
राग धन
को पकड़ता
है, विराग धन
को छोड़ता है।
विराग, विपरीत
राग है; उलटा
हुआ राग है।
राग स्त्री के
पीछे दौड़ता,
पुरुष के
पीछे दौड़ता;
विराग
स्त्री से
भागता, पुरुष
से भागता; लेकिन
दोनों का
केंद्र एक ही
है। हां, कोई
उसकी तरफ
भागता, कोई
उससे पीठ करके
भागता, लेकिन
वही दोनों के
ध्यान में है।
दोनों की अटेंशन,
दोनों की
एकाग्रता वही
है। दोनों की
एकाग्रता में
भेद नहीं है।
जो
आदमी स्त्री
के पीछे भागता, उस आदमी की
एकाग्रता, और
जो आदमी
स्त्री को
छोड़कर भागता,
उस आदमी की
एकाग्रता में
भेद नहीं है।
उनका कनसनट्रेशन
एक
है--स्त्री।
जो आदमी
स्त्री के लिए
पागल है, उसके
मन में भी
स्त्री के
चित्र चलते
हैं। या जो
स्त्री आदमी
के लिए पागल
है, उसके
मन में पुरुष
के चित्र चलते
हैं। और जो
छोड़कर भागता
है, विपरीत
रूप से पागल
हो जाता है, उसके मन में
भी चित्र चलते
हैं।
वीतराग
का अर्थ है, पार हुआ।
वीतराग तीसरी
बात है। न राग,
न विराग। जो
राग और विराग
दोनों के पार
होता है, वह
वीतराग है।
जिसके लिए बात
बस व्यर्थ हो
जाती है।
ध्यान
रहे, जो आदमी
कहता है, मैं
धन का त्याग
कर रहा हूं, धन उसे
व्यर्थ नहीं
हुआ; धन
उसे अभी भी
सार्थक है। जो
आदमी कहता है,
मैं लाखों
त्याग किया
हूं, उसके
लिए भी व्यर्थ
नहीं हुआ; अभी
उसके लिए भी
धन सार्थक है,
मीनिंगफुल है। हां, मीनिंग बदल गया, अर्थ
बदल गया। पहले
तिजोरी में
बंद करने का
अर्थ था, अब
त्याग करने का
अर्थ है; लेकिन
अर्थ है। जो
आदमी तिजोरी
में बंद कर
रहा था, वह
भी कह रहा था, मेरे पास
इतने लाख हैं;
और जिस आदमी
ने त्याग किया,
वह भी कह
रहा है, मैंने
इतने लाख का
त्याग किया।
लेकिन धन दोनों
के लिए
मूल्यवान है,
वेल्युएबल है।
वीतराग
वह है, जो
कहता है, धन
में कुछ अर्थ
ही नहीं। न
मैं तिजोरी
में बंद करता,
न मैं
त्यागता। धन
में कुछ अर्थ
नहीं। जिसके लिए
धन बस मिट्टी
जैसा हो गया।
जिसके लिए धन
मिट्टी जैसा
हो गया, वह
त्याग के
अहंकार से भी
नहीं भरता है।
बड़ी
मीठी कथा है, याज्ञवल्क्य
घर छोड़कर जाने
लगा। उसकी दो पत्नियां
हैं, कात्यायिनी और
मैत्रेयी।
उसने उन दोनों
को बुलाकर कहा
कि मेरी
धन-संपदा
आधी-आधी बांट
देता हूं। मैं
जाता हूं अब
त्याग करके।
अब मैं प्रभु
की खोज में
निकलता हूं।
मैत्रेयी
राजी हो गई; साधारण
स्त्री थी।
साधारण स्त्री
का मतलब, जिसे
पति भी इसीलिए
मूल्यवान
होता है कि
उसके पास
संपत्ति है।
ठीक है, पति
जाता है, संपत्ति
दे जाता
है--कुछ भी
नहीं जाता।
मैत्रेयी
राजी हो गई।
वह ठीक स्त्री
थी।
लेकिन कात्यायिनी
ने एक सवाल
उठाया। वह
साधारण
स्त्री न थी। कात्यायिनी
ने कहा कि जो धन
तुम्हें
व्यर्थ हो गया, तो तुम मुझे किसलिए दे
जाते हो? अगर
व्यर्थ है, तो बोझ मुझे
मत दे जाओ। और
अगर सार्थक है,
तो तुम भी
छोड़कर क्यों
जाते हो?
कात्यायिनी
ने बड़ा ठीक
सवाल उठाया।
अगर व्यर्थ है, राख है, धूल
है, तो
मुझे देकर
इतने
गौरवान्वित
क्यों होते हो?
अगर सार्थक
है, तो
छोड़कर कहां
जाते हो? रुको!
अगर सार्थक है,
तो हम
साथ-साथ भोगें।
और अगर व्यर्थ
है, तो
मुझे भी उसी
धन की खबर दो, जो सार्थक
है, जिसकी
खोज में तुम
जाते हो।
याज्ञवल्क्य
मुश्किल में
पड़ गया होगा।
अभी याज्ञवल्क्य
सिर्फ विराग
में जा रहा
था। कात्यायिनी
ने उसे वीतराग
के डायमेंशन
में, वीतराग
के आयाम में
उन्मुख किया।
अभी उसे सार्थक
था धन, इसीलिए
तो बांटने को
उत्सुक था।
अभी कुछ न कुछ
अर्थ था उसे
धन में। छोड़ता
था जरूर, लेकिन
सार्थक था।
अभी वह विराग
की दिशा में मुड़ता था।
लेकिन कात्यायिनी
ने उसे एक नई
दिशा में, एक
नए आयाम का
इशारा किया।
उसने कहा कि
छोड़कर जाते हो,
देकर जाते
हो, गौरवान्वित
हो कि काफी दे
जा रहे हो, तो
फिर तुम छोड़कर
जाते नहीं। धन
तुम्हें सार्थक
है; धन
तुम्हें पकड़े
ही हुए है!
कृष्ण
कहते हैं, जो राग के
पार हो जाता
है--बियांड।
वीतराग का
अर्थ है, बियांड अटैचमेंट;
डिटैचमेंट नहीं।
वीतराग का
अर्थ है, आसक्ति
के पार; विरक्त
नहीं। विरक्त
विपरीत
आसक्ति में
होता है, पार
नहीं होता। वह
एक ध्रुव से
दूसरे ध्रुव
पर चला जाता
है; दोनों
ध्रुव के पार
नहीं होता। वह
एक द्वंद्व के
छोर से
द्वंद्व के
दूसरे छोर पर
सरक जाता है, लेकिन द्वंद्वातीत
नहीं होता।
कृष्ण
कहते हैं, जो वीतराग
हो जाता है, वह मेरे
शरीर को
उपलब्ध हो
जाता है।
वीतराग, वीतभय,
वीतक्रोध;
जो इन सबके
पार हो जाता
है। वीतलोभ।
वह तीसरा ही
आयाम है। थर्ड
डायमेंशन है।
तीन
आयाम हैं जगत
में। किसी चीज
के प्रति राग, अर्थात उसे
पास रखने की
इच्छा। किसी
चीज के प्रति
विराग, अर्थात
उसे पास न
रखने की
इच्छा। और
किसी चीज के
प्रति वीतराग,
अर्थात वह
पास हो या दूर,
अर्थहीन; उससे भेद
नहीं पड़ता।
बुद्ध
ने कहा है, राग का अर्थ
है, प्रियजन
घर आता, सुख
मालूम पड़ता। अप्रियजन
घर आ जाता, तो
दुख मालूम
पड़ता। मित्र
घर से जाता, तो दुख
मालूम पड़ता।
शत्रु घर से
जाता, तो
सुख मालूम
पड़ता। शत्रु
के प्रति तो
सभी विरागी
होते हैं; मित्र
के प्रति सभी
रागी होते
हैं।
वीतराग
का अर्थ है, जिसका न कोई
मित्र है, न
कोई शत्रु।
वीतराग का
अर्थ है, जिसका
चित्त किसी भी
चीज से, किसी
भी कारण से
बंधा हुआ नहीं
है। मित्रता
से भी बंधा
हुआ नहीं; शत्रुता
से भी बंधा
हुआ नहीं।
और
ध्यान रहे, मित्र भी
बांध लेते हैं
और शत्रु भी
बांध लेते
हैं। मित्रों
की भी याद आती
है, शत्रुओं
की भी याद आती
है। सच तो यह
है, शत्रुओं
की थोड़ी
ज्यादा आती
है। मित्रों
को भूलना आसान;
शत्रुओं को
भूलना कठिन
है। राग को
भूलना आसान; विराग को
भूलना कठिन है,
बहुत कठिन
है। प्रेम को
भूलना आसान; घृणा को
भूलना कठिन
है। शत्रु
पीछा करते हैं,
छाया की
भांति पीछे
होते हैं और
बदला लेते हैं।
सब विराग बदला
लेता है।
इसलिए
एक बहुत अदभुत
घटना घटती है
मनुष्य के मन
में। और वह
घटना यह घटती
है कि जो धन को पकड़ते हैं, वे कभी-कभी इंटरवल्स
में, बीच-बीच
में छुट्टी भी
लेते हैं।
बीच-बीच में उनका
मन आता है, छोड़ो सब;
कुछ सार
नहीं है। तेईस
घंटे दुकान पर
होते हैं; कभी
घंटेभर
मंदिर भी हो
आते हैं।
लेकिन
ध्यान रहे, इससे उलटी
घटना भी घटती
है। जो चौबीस
घंटे मंदिर
में रहता है, उसका मन भी
घंटे दो घंटे
को बाजार में
आ जाता है। वह
भी छुट्टी
लेता है। भला
हिम्मत न हो, खुद न आ पाता
हो, लेकिन
मन आ जाता है।
विरागी
भी छुट्टी पर
होते हैं।
चौबीस घंटे विरागी
होना मुश्किल
है। चौबीस
घंटे रागी
होना मुश्किल
है। क्योंकि
मन थक जाता है, ऊब जाता है
एक ही चीज से।
इसलिए जो रागी
हैं, वे
अक्सर विराग
के सपने देखते
हैं; और जो
विरागी हैं, वे राग के
सपने देखते
हैं। जो रागी
हैं, वे कई
बार सोचते हैं,
सब छोड़-छाड़कर
चले जाएं; सब
बेकार है। जो
विरागी हैं, वे कई बार
सोचते हैं कि
बड़ी मुश्किल
में पड़ गए; नाहक
छोड़-छाड़कर
आ गए। इसमें
कुछ सार नहीं
है, इस
छोड़ने-छाड़ने
में कुछ अर्थ
नहीं है।
मन
द्वंद्वों
में डोलता
रहता है।
विश्राम चाहता
है मन। इसलिए
बुरे आदमियों
के भी अच्छे
क्षण होते हैं, और अच्छे
आदमियों के भी
बुरे क्षण
होते हैं। ऐसा
बुरा आदमी
खोजना मुश्किल
है, जिसके
अच्छे क्षण न
होते हों। और
कभी-कभी बुरे
आदमी अच्छे
क्षणों में
साधुओं को पार
कर जाते हैं।
और अच्छे आदमी
भी खोजने
मुश्किल हैं,
जिनके बुरे
क्षण न होते
हों। और अच्छे
आदमी भी, जब
उनके बुरे
क्षण होते हैं,
तो असाधुओं
को पार कर
जाते हैं।
उसका
कारण है।
क्योंकि जो
आदमी तेईस
घंटे कोशिश
करके अच्छा है, जब वह एक
घंटे बुरा
होगा, तो
साधारण बुरा
नहीं होगा।
तेईस घंटे का
बदला एक घंटे
में चुकाना
पड़ेगा। और जो
आदमी तेईस घंटे
बुरा है, वह
जब एक घंटे के
लिए अच्छा
होगा, तो साधारण
अच्छा नहीं
होगा; अतिशय
अच्छा हो
जाएगा। तेईस
घंटे की रुकी
हुई अच्छाई
बदला मांगती
है।
कृष्ण
इन दोनों की
बात नहीं कर
रहे हैं।
कृष्ण कहते
हैं, वीतराग।
वीतराग को कभी
छुट्टी नहीं
लेनी पड़ती है,
क्योंकि
वीतराग
द्वंद्व में
नहीं होता।
इसलिए सिर्फ
वीतरागी पुरुष
चौबीस घंटा
एक-रस हो सकता
है; न रागी
हो सकता है, न विरागी हो
सकता है।
सिर्फ वीतराग
एक-रस हो सकता
है।
वीतराग
ऐसा होता है, जैसे हम
सागर को कहीं
से भी चखें, और वह नमकीन
है। बस, ऐसा
वीतरागी होता
है; उसे हम
कहीं से भी
चखें, वह
एक ही स्वाद
है उसका। वह
वेश्या के गृह
में बैठकर भी
वही होता है, जो प्रभु के
मंदिर में
बैठकर होता
है। वह वेश्यागृह
से भी नहीं
डरता, मंदिर
के लिए भी
लोलुप नहीं
होता। असल में
इतना आश्वस्त
होता है अपने
में कि अब
उसका न कोई भय
है, न कोई
लोभ है। इतना
आश्वस्त, अपने
में इतना
भरोसे से भरा
हुआ कि छुट्टी
का उसे डर ही
नहीं है।
एक बार
ऐसा हुआ कि
बुद्ध के एक
भिक्षु को, गांव में
गया था, एक
वेश्या ने
निमंत्रण दे
दिया। और कहा
कि इस वर्षाकाल
में भिक्षु, मेरे ही घर
चार महीने रुक
जाओ! साधारण
भिक्षु होता,
विरागी
होता, दुबारा
लौटकर उस घर
के सामने न
जाता। वेश्या
ने सोचा था कि
भिक्षु इनकार
कर देगा।
कहेगा, तू
वेश्या! और
मैं तेरे घर रुकूं? नहीं;
यह नहीं हो
सकता। कहां
भिक्षु, कहां
संन्यासी, कहां
वेश्या का घर!
उस
भिक्षु ने कहा, आ जाऊंगा,
लेकिन
बुद्ध से
आज्ञा लेनी
पड़ेगी। तो मैं
कल आज्ञा लेकर
जवाब दे
दूंगा। उस
वेश्या ने कहा,
और अगर
बुद्ध ने
आज्ञा न दी? उस भिक्षु
ने कहा, इतना
आश्वस्त हूं
अपने प्रति कि
बुद्ध इनकार नहीं
करेंगे। कहा,
इतना
आश्वस्त हूं
अपने प्रति कि
बुद्ध इनकार न
करेंगे, बुद्ध
मुझे जानते
हैं। मंदिर और
वेश्यागृह में
मेरा स्वाद एक
ही रहेगा।
उसका भय न कर।
नियम है, इसलिए
आज्ञा मांगनी
जरूरी है, अन्यथा
कोई जरूरत
नहीं है; मैं
भी रुक जा
सकता हूं।
दूसरे
दिन भिक्षुओं
के बीच उस
भिक्षु ने खड़े
होकर कहा कि
एक बहुत
मजेदार घटना
घट गई। राह पर जाता
था, एक
वेश्या ने
निमंत्रण
दिया कि चार
महीने वर्षाकाल,
आने वाले
वर्षाकाल में
उसके घर
मेहमान बनूं।
आज्ञा मांगता
हूं। बुद्ध ने
कहा, आज्ञा
मांगने की
क्या जरूरत? जो संन्यासी
वेश्या से डर
जाए, वह
संन्यासी ही
नहीं है। जाओ!
जब उसने
निमंत्रण
दिया, तो
विश्राम करो।
चार महीने
वहीं रुको।
अनेक
भिक्षुओं के
प्राणों में
लहरें दौड़ गईं।
सुंदरी थी
बहुत वेश्या।
सारे
भिक्षुओं की
नजर उस पर थी।
गांव में
गुजरते थे, तो किसी न
किसी बहाने उस
रास्ते जरूर
निकल जाते थे;
उस रास्ते
पर भिक्षा
जरूर मांग
लेते थे। कौंध
गई होंगी बिजलियां।
मुश्किल खड़ी
हो गई।
एक
भिक्षु ने खड़े
होकर कहा कि
यह तो अनुचित
है, संन्यासी
का और वेश्या
के घर में
रुकना! और आप
आज्ञा देते
हैं?
बुद्ध
ने कहा, अगर
तुम आज्ञा
मांगो, तो
नहीं दूंगा।
क्योंकि
संन्यासी और
वेश्या से डरे,
तो फिर
वेश्या जीत गई,
फिर हम हार
गए। यह तो
चुनौती है; चैलेंज है।
एक वेश्या ने
निमंत्रण
दिया और वेश्या
नहीं डरती कि
संन्यासी उसे
बदल लेगा और
संन्यासी डरे
कि वेश्या उसे
बदल लेगी, तो
हम हार गए।
तुम्हें
आज्ञा न
दूंगा। लेकिन
जिसने आज्ञा
मांगी है, उसने
कहा कि बड़ी
मजेदार घटना
घट गई है, एक
वेश्या ने
निमंत्रण
दिया है। उसे
आज्ञा है। वह
अपने प्रति
आश्वस्त है।
चार
महीने वह
भिक्षु
वेश्या के घर
था। वेश्या
जैसा भोजन
कराती, वैसा
भोजन कर लेता।
वेश्या भी
बहुत चिंतित
हुई। नाचने
लगती, तो
नाच देख लेता।
गीत गाने लगती,
तो गीत सुन
लेता। वेश्या
बहुत चिंतित
हुई। सब उपाय
उसने किए।
अर्धनग्न
होकर नाचती, तो भी देखता
रहता। बहुत
मुश्किल में
पड़ी।
एक
महीना बीता, दो महीने
बीते। वेश्या
सब तरह की
कोशिश करके थक
गई; लेकिन
न तो उस
भिक्षु ने कोई
रस लिया, और
न विरस प्रकट
किया। न तो
उसने यह कहा
कि सुंदर; खूब।
न तो उसने
वाह-वाह की; न उसने यह
कहा कि बंद
करो, बेकार
है, हमें
ठीक नहीं लगता;
आंख बंद की।
नहीं, यह
भी नहीं किया।
नाचती, तो
देखता। न
नाचती, तो
कभी यह भी न
कहता कि आज
नाचो! आज नाचोगी
नहीं? बस, घर में ऐसा
रहा, जैसे
हो ही न।
दो
महीने बीत गए, वेश्या उसके
पैरों पर गिर
गई और उसने
कहा कि मुझे
राज बताओ। तुम
तो कंपते ही
नहीं! यहां न
वहां। अगर तुम
विपरीतता भी
दिखाओ, तो
मैं कुछ कोशिश
करूं। अगर तुम
यह भी कहो कि
यह गलत है, तो
भी कुछ रास्ता
बने। तुम कुछ
तो कहो। तुम
कोई वक्तव्य
तो दो! तुम कोई
निर्णय तो लो।
तुम इस पक्ष
में या उस
पक्ष में कुछ
भी तो कहो
उस
भिक्षु ने कहा, पक्ष में
गया कि तू
जीती और मैं
हारा। हम निष्पक्ष
ही रहेंगे।
तुझे जो करना
है, तू कर; हमें जो
करना है, हम
करते हैं। जब
तू हमारे बाबत
कोई पक्ष और
विपक्ष नहीं
लेती, हम
क्यों लें?
चार
महीने बीत गए।
भिक्षुओं में
तो बड़ी बेचैनी
थी। न मालूम
कितनी खबरें
भिक्षु लेकर
बुद्ध के पास
आते। कोई खबर
लाता कि गया
वह आदमी। हमने
नाचते देखा है
कि वह वेश्या
नाच रही है और
वह देख रहा है!
कोई कहता कि सुना
आपने! वेश्या
उसे बहुत ही
मिष्ठान्न
खिला रही है
और वह खा रहा
है! कोई कहता, सुना आपने!
वेश्या ने उसे
रेशम के
वस्त्र दे दिए
हैं और वह
पहने हुए है!
कोई कहता, सुना
आपने! सब नियम,
सब मर्यादाएं
टूट गई हैं।
बुद्ध सुनते
और कहते कि
ठीक है। लेकिन
तुम चिंतित क्यों
हो? तुम उस
भिक्षु में
उत्सुक हो या
उस वेश्या में?
और डूबेगा
वह, तो वह
डूबेगा; तुम्हारी
परेशानी क्या
है? खोएगा,
तो वह खोएगा;
तुम इतने
आतुर क्यों हो?
चार
महीने बाद वह
भिक्षु आया, लेकिन अकेला
नहीं था। साथ
में एक
भिक्षुणी भी
थी; वह
वेश्या
भिक्षुणी हो
गई थी। बुद्ध
ने अपने भिक्षुओं
को कहा कि
देखो! भिक्षु
लौट आया, साथ
में एक
भिक्षुणी भी
लौट आई है।
वेश्या से पूछा
कि तुझे क्या
हुआ? उसने
कहा, हुआ
कुछ भी नहीं; मैं हार गई।
पहली बार मैं
कहीं हारी।
सदा मैं जीतती
रही; अब
मैं हार गई।
और अकंप इस
आदमी को जाना।
वीतराग इस मनुष्य
को जाना। और
इसकी वीतरागता
में जो शांति
और जो आनंद
अनुभव हुआ, वही खोजने
मैं भी चली आई
हूं। बुद्ध ने
कहा, देखो!
संन्यासी
जीतकर लौट आया
है, वीतराग
था, इसलिए।
तुम हार जाते।
तुम विरागी हो,
तुम्हारे
हारने का डर था।
कृष्ण
कहते हैं, जो वीतराग
होता, वह
मेरे शरीर को
उपलब्ध हो
जाता है।
इसमें बड़े मजे
की बात है। वे
कह रहे हैं, मेरे शरीर
को। अच्छा न
होता क्या कि
वे कहते, मेरी
आत्मा को!
लेकिन वे कहते
हैं, मेरे
शरीर को, टु
माई बाडी।
अच्छा होता न
कि वे कहते, मेरी आत्मा
को उपलब्ध हो
जाता है।
लेकिन कृष्ण
कहते हैं, मेरे
शरीर को
उपलब्ध हो
जाता है।
क्या
राज है? राज
बड़ा है।
यह जो
ब्रह्मांड है, यह जो विश्व
है, यह
शरीर है
परमात्मा का।
यह जो दृश्य
चारों ओर फैला
है, यह
शरीर है। ये चांदत्तारे,
यह सूरज, यह
अरबों-अरबों
प्रकाश वर्ष
की दूरियों
तक फैला हुआ एक्सपैंशन
जो है, यह
जो विस्तार
है...।
क्या
कभी आपने सोचा
कि ब्रह्म
शब्द का अर्थ
होता है, विस्तार,
वृहत, जो
फैलता ही चलता
गया; जिसके
फैलाव का कोई
अंत नहीं है।
ब्रह्म बड़ा साइंटिफिक
शब्द है, बहुत
वैज्ञानिक--धार्मिक
बहुत कम।
ब्रह्म शब्द
धार्मिक जरा
भी नहीं, बिलकुल
वैज्ञानिक टरमिनालाजी
है। ब्रह्म का
मतलब है, जो
फैलता ही गया
है, दि एक्सपैंडिंग,
जो फैलता ही
चला जाता है; जिसके फैलाव
का कोई अंत ही
नहीं है। इस
फैले हुए का
नाम ब्रह्म
है।
इस
फैले हुए, दिखाई पड़ने
वाले
अस्तित्व को
कृष्ण कहते
हैं, मेरा
शरीर। जो
वीतराग हो
जाता है, वह
मेरे शरीर को
उपलब्ध हो
जाता है।
क्यों? आत्मा को तो
हम उपलब्ध ही
हैं, हमारी
भूल सिर्फ
शरीर की है।
कृष्ण की
आत्मा को तो
हम अभी भी
उपलब्ध हैं, लेकिन हम
अपने-अपने
शरीरों में
अपने को बंद
मान रहे हैं, वह हमारी
भूल है। इसलिए
कृष्ण आत्मा
की बात नहीं
करते। उसको तो
हम उपलब्ध ही
हैं, सिर्फ
यह शरीर की
भूल भर टूट
जाए हमारी।
हमें किसी दिन
यह पूरा
ब्रह्मांड
अपना शरीर
मालूम पड़ने
लगे, बस।
आत्मा
तो हम अभी भी
हैं। आत्मा तो
हमारी इस अज्ञान
के क्षण में
भी कृष्ण का
हिस्सा है।
हमारी
भ्रांति है
शरीर की सीमा
की। अगर शरीर
की सीमा की
भ्रांति टूट
जाए, और हम
कृष्ण के शरीर
को--कृष्ण का
शरीर अर्थात ब्रह्मांड
को--उपलब्ध हो
जाएं, तो
बात पूरी हो
जाती है।
इसलिए कृष्ण
कहते हैं, मेरे
शरीर को
उपलब्ध हो
जाता है।
शरीर
का क्या अर्थ
है? शरीर का
अर्थ है, आत्मा
का आवरण। शरीर
का अर्थ है, आत्मा का
गृह।
अंग्रेजी का
शब्द बाडी
बहुत अच्छा
है। जिसके
भीतर आत्मा एंबाडीड
है, जिसके
भीतर शरीर
छिपा है।
यह जो
हमारा शरीर, हमें लगता
है, मेरा
शरीर! यह हमें
क्यों लगता है?
राग के कारण,
विराग के
कारण। अगर राग
और विराग
दोनों छूट जाएं,
तो यह मेरा
शरीर है, ऐसा
नहीं लगेगा।
तब सब शरीर
मेरे हैं। तब चांदत्तारे
मेरे शरीर के
भीतर हो
जाएंगे; तब
मेरी जो चमड़ी
है, वह
असीम को छू
लेगी।
राम
कहते थे कि
मैंने चांदत्तारों
को अपने शरीर
के भीतर
परिभ्रमण
करते देखा। पागलपन
की बात है।
बिलकुल
पागलपन की बात
है! लेकिन ठीक
कहते थे। जब
भी कोई राग और
विराग के एक
क्षण को भी
पार हो जाए, उसी क्षण
अपने शरीर का
स्मरण भूल
जाता है, बाडीलेसनेस आ जाती है, शरीरहीन हो
जाता है। और
ये दोनों
बातें एक ही हैं।
ब्रह्म
के शरीर को
उपलब्ध होना
या अपने शरीर
को भूल जाना, एक ही बात
है। जो
व्यक्ति अपने
शरीर की सीमा
को भूल जाता
है, वह
ब्रह्म के
शरीर की सीमा
के स्मरण से
भर जाता है।
यह
शरीर मेरा है, यह हमारे
राग और विराग
के कारण है।
जब तक कोई चीज
मेरी है और
कोई चीज तेरी
है, तब तक
यह शरीर मेरा
है। अगर ठीक
से समझें, तो
मेरे का भाव
ही मेरा शरीर
है। बहुत मनोवैज्ञानिक
अर्थों में
मेरे का भाव
ही मेरा शरीर
है। जहां तक
मेरे का भाव
है, वहां
तक शरीर है।
अगर मेरे का
भाव बड़ा हो
जाए, इतना
बड़ा हो जाए कि
वह ब्रह्म को
घेर ले, ब्रह्मांड
के साथ एक हो
जाए, तो
फिर सभी कुछ
मेरा शरीर है।
वस्तुतः सभी
कुछ शरीर
है--वस्तुतः।
लेकिन हमारी
एक भ्रांति
है।
किस
जगह आप अपने
शरीर को
समाप्त मानते
हैं? किस जगह?
चमड़ी पर
अपने शरीर को
आप समाप्त
मानते हैं। लेकिन
आपकी चमड़ी हवा
के बिना एक
क्षण जी सकती
है? नहीं
जी सकती। तो
हवा भी आपकी
चमड़ी के पार
की एक पर्त है
आपके शरीर की।
उसके बिना आप
नहीं जी सकते।
हवा की पर्त
अगर हटा ली
जाए, तो आप
जी नहीं सकते।
जिसके बिना आप
नहीं जी सकते,
वह आपका
शरीर है।
जिसके बिना
जीना मुश्किल
हो जाएगा, वह
आपका शरीर है।
रोआं-रोआं
श्वास ले रहा
है। आप इस
भ्रांति में
मत रहना कि
आपकी सिर्फ
नाक ही श्वास
ले रही है।
अगर आपके पूरे
शरीर को पेंट
कर दिया जाए, और सब रोएं
बंद कर दिए
जाएं, और
सिर्फ नाक
खुली छोड़ दी
जाए, तो आप
पांच-सात मिनट
में मर
जाएंगे।
कितना ही फिर
आप जोर से
श्वास लो, कुछ
न होगा।
क्योंकि
रोआं-रोआं
श्वास ले रहा
है; पूरा
शरीर श्वास ले
रहा है।
यह
चारों तरफ हवा
की जो पर्त है, वह भी आपकी
चमड़ी है। उसके
बिना आप नहीं
जी सकते। दो
सौ मील तक
पृथ्वी के
चारों तरफ हवा
की पर्त है।
लेकिन वह हवा
की पर्त भी
नहीं जी सकती,
अगर उसके
पास सूरज की
किरणों का जाल
न हो। वह हवा
भी नहीं जी
सकती। फिर दस करोड़ मील
दूर तक सूरज
की किरणों का
जाल है; वह
भी आपकी चमड़ी
है। उसके बिना
भी आप नहीं जी
सकते।
वहां
सूरज ठंडा हो
जाए, तो हम
यहां अभी ठंडे
हो जाएंगे।
हमको पता भी नहीं
चलेगा कि हम
ठंडे हो गए, क्योंकि पता
चलने के लिए
भी हमारा बचना
जरूरी है।
इसलिए सूरज जब
ठंडा होगा, तो हम लिखने
के लिए बचेंगे
नहीं; अखबार
में खबर न
निकाल पाएंगे
कि सूरज ठंडा
हो गया। सूरज
ठंडा हुआ कि
हम ठंडे हुए।
सूरज दस करोड़
मील दूर है, लेकिन सूरज
की गर्मी
हमारी पर्त है
शरीर की। हम एंबाडीड
हैं; सूरज
की पर्त के
भीतर हम हैं; एक बड़ा शरीर
है।
लेकिन
सूरज भी न बचे, अगर महासूर्यों
से उसे
दिन-रात शक्ति
न मिलती हो।
हमारा सूरज
बड़ा छोटा है।
ऐसे बहुत बड़ा है;
हमसे बहुत
बड़ा लगता है।
पृथ्वी से कोई
साठ हजार गुना
बड़ा है। लेकिन
और सूर्यों के
मुकाबले बहुत मीडियाकर
है, बहुत
छोटा सूरज है।
रात को जो
तारे दिखाई
पड़ते हैं, वे
महासूर्य
हैं। हमारा
सूरज कोई
तीन-चार अरब महासूर्यों
की भीड़ में एक
छोटा-सा सूरज
है, बहुत मीडियाकर,
बहुत
मध्यमवर्गीय।
कोई बहुत बड़ा
सूर्य नहीं है।
उससे करोड़ों
बड़े सूर्य
हैं। अगर उन
सूर्यों से
उसे दिन-रात
ऊर्जा न मिलती
हो, तो वह
कभी का ठंडा
हो जाए। वे भी
हमारा शरीर हैं।
हमारा
शरीर समाप्त
कहां होता है? जहां ब्रह्मांड
समाप्त होता
हो, वहीं
समाप्त होता
है। उसके पहले
समाप्त नहीं होता।
एक
छोटे-से फूल
के खिलने
में पूरा
ब्रह्मांड
सहयोगी है। एक
छोटा-सा फूल
खिलता है घास
का। इस घास के
फूल के खिलने
में
अरबों-खरबों
मील दूर बैठे
हुए महासूर्यों
का हाथ है; वे इसका
शरीर हैं। उनके
बिना यह न हो
सके।
तों
कृष्ण कहते
हैं कि जो
वीतराग हो
जाता है, जो मेरेत्तेरे
के भाव से उठ
जाता है; जो
आकर्षण-विकर्षण
के पार हो
जाता है, वह
मेरे शरीर को
उपलब्ध हो
जाता है।
मेरे
शरीर का अर्थ
है, समस्त
ब्रह्मांड
उसका शरीर बन
जाता है। और
जब ब्रह्मांड
शरीर बनता है,
तभी हमें
ब्रह्म का पता
चलता है कि हम
कौन हैं! मैं
कौन हूं, हमें
तब तक पता न
चलेगा--निश्चित
ही, जिन्हें
अपने शरीर का
भी पता नहीं, उन्हें अपनी
आत्मा का क्या
पता होगा? जिन्हें
शरीर का ही
पता नहीं, उन्हें
आत्मा का पता
न हो सकेगा।
जो अपने शरीर
के संबंध में
ही अज्ञानी
हैं, वे
अपनी आत्मा के
संबंध में
ज्ञानी कैसे
हो सकेंगे?
इसलिए
कृष्ण का कहना
बहुत
अर्थपूर्ण है
कि वे मेरे
शरीर को
उपलब्ध हो
जाते हैं। और
अर्जुन से वे
कहते हैं कि
तुझसे जो मैं
कह रहा हूं, उससे पहले
भी जिन-जिन
पुरुषों ने वीतरागता
पाई, वे
मेरे शरीर को
उपलब्ध हो गए
हैं, वे
मेरे साथ एक
हो गए हैं।
दुई, दो का भाव
भ्रम है, लेकिन
बड़ा गहरा है।
बड़ा गहरा है।
लगता है कि हम
अलग हैं। यह
हमारा अलग
होना बड़ी से
बड़ी भ्रांति,
दि ग्रेटेस्ट
इलूजन है। हम
अलग जरा भी
नहीं हैं। एक
क्षण को भी
नहीं हैं। एक
क्षण को भी
हमें अलग कर
दिया जाए, और
हम विलीन हो
जाएंगे; हम
बचेंगे नहीं।
हमारे
अलग होने की
भ्रांति वैसी
है, जैसे कि
नदी की छाती
पर एक बबूला।
पानी का बबूला
उठ आया। तैर
रहा है, चल
रहा है, फिर
रहा है, सूरज
की किरणों में
चमक रहा है।
उस बबूले को भी
लगता है, मैं
अलग।
जरा भी
अलग नहीं है।
जरा अलग करें
नदी से और पता
चलेगा, कहीं
भी न रहा। नदी
के पानी की
जरा पतली-सी
पर्त उसका
शरीर थी; वह
पानी में खो
गई। हवा का
छोटा-सा आयतन
उसके भीतर कैद
था, वह
मुक्त होकर
हवा में मिल
गया। बस, हम
नदी पर तैरते
हुए बबूलों की
भांति अलग
हैं।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं कि जो
तुझसे पहले भी, कभी भी, जिसने
भी जान लिया
है इस सत्य को,
वह मेरे
शरीर को, वह
ब्रह्मांड के
साथ एक हो
जाता है।
प्रश्न:
भगवान
श्री, अनन्य
भाव से मेरी
शरण हुए और ज्ञानरूपी
तप से शुद्ध
हुए--इन दो
दशाओं का अर्थ
और अधिक स्पष्ट
करने की कृपा
करें।
अनन्य
रूप से मेरी
शरण हुए--बहुत
मजेदार है, बहुत
कंट्राडिक्टरी
है, बहुत
विरोधाभासी
है।
धर्म
के सभी सत्य पैराडाक्सेस
हैं, विरोधाभासी
हैं। विरोध
आभास भर है।
कृष्ण
कहते हैं, अनन्य रूप
से मेरी शरण
हुए।
अनन्य
का अर्थ है, जो अपने को
मुझसे अन्य न
माने। जो
मुझको और अपने
को भिन्न न
माने, अन्य
न माने, अदरनेस न रहे--अनन्य
हो। अनन्य भाव
से मेरे साथ
एक हो गया हो।
लेकिन
फिर दूसरी बात
कहते हैं। जब
एक ही हो गया
हो, तो शरण
होने की
गुंजाइश कहां
रही! क्योंकि
शरण तो हम उसी
के जा सकते
हैं, जो
अन्य है, दि
अदर। शरण तो
हम उसी की जा
सकते हैं, जो
दूसरा है। जो
दूसरा नहीं है,
उसकी शरण हम
कैसे जाएंगे?
कृष्ण
कहते हैं, अनन्य रूप
से मेरी शरण।
एक हो जाओ
मुझसे और मेरी
शरण आ जाओ।
बड़ी उलटी बात
कहते हैं। एक
हो जाएंगे, तो शरण कौन
जाएगा? और
किसकी शरण
जाएगा? इसीलिए
मजेदार है यह
वक्तव्य।
असल
में जिस दिन न
वह बचे, जो
शरण जाता है; और न वह बचे, जिसकी शरण
जाता है, उसी
दिन शरणागत
होता है
व्यक्ति। उसी
दिन शरण पूरी
हुई। जब तक आप
बचे हैं और
दूसरा बचा है,
तब तक आप
सिर रख दें
चरणों में, आपका अहंकार
चरणों में
नहीं रखा जाता;
वह भीतर खड़ा
रहता है।
मंदिरों
में जाकर
देखें; सिर
रखे हैं
पत्थरों के
चरणों में और
अहंकार अकड़कर
खड़े हैं। सिर
जमीन पर झुका
है, अहंकार
आकाश में उठा
है। सिर चरणों
में झुका है, अहंकार
चारों तरफ देख
रहा है कि कोई
देखने वाला भी
मंदिर में है
या नहीं? हम
कितनी शरण चले
गए हैं! अनन्य
भाव से, जब
न मैं बचे, न
तू बचे, तभी
शरण होती है।
शरण का
अर्थ, समर्पण,
सरेंडर। जब तक मैं
बचता है, तब
तक समर्पण
नहीं होता।
इसलिए ध्यान
रहे, कोई
आदमी यह नहीं
कह सकता कि
मैं शरण जाता
हूं। कोई आदमी
शरण नहीं जा
सकता, क्योंकि
जब तक कहने
वाला मौजूद है
कि मैं शरण जाता
हूं, तब तक
शरण नहीं
होगी। जब मैं
नहीं रह जाता,
तब आदमी
अनुभव करता है
कि शरण जा
चुका, शरणागत
हो गया।
अनन्य
भाव से, नहीं
कोई दूसरा है
उस तरफ, न
कोई यहां, जिस
दिन कोई ऐसी
भाव-दशा में
आता है--जो
मैंने कहा कि
वीतराग होने
से फलित होती
है--उस दिन शरणागति,
उस दिन शरण,
उस दिन वह
मेरी शरण आ
पाता है, कृष्ण
कहते हैं।
मेरी शरण, वही
भाषा उपयोग
करनी पड़ रही
है, जो
नहीं करनी
चाहिए, क्योंकि
वहां कोई मेरात्तेरा
नहीं है।
दूसरी
बात वे कहते
हैं, ज्ञानरूपी तप से शुद्ध
हुए।
यह भी
बहुत मजेदार
वक्तव्य है, यह भी पैराडाक्सिकल
है--ज्ञानरूपी
तप से शुद्ध
हुए। ज्ञानरूपी
तप, इसे जोड़ने
की क्या जरूरत
थी? तप से
शुद्ध हुए, इतना कहना
काफी न होता
क्या?
अक्सर
ऐसा होता है
कि अज्ञानी
बहुत तप कर
पाते हैं। असल
में अहंकारी
बहुत तप कर
सकता है, क्योंकि
अहंकारी हठी
होता है। वह
कहता है कि हम
रहेंगे साठ
दिन भूखे, तो
रह सकता है।
जरा अहंकार
कमजोर हो, तो
साठ दिन भूखा
रहना मुश्किल
हो जाए।
अहंकार कमजोर
हो, तो साठ
दिन भूखा रहना
मुश्किल हो
जाए; अहंकार
मजबूत हो, तो
आदमी साठ दिन
भूखा रह सकता
है।
अहंकारी
तय कर ले कि हम
पैर पर ही खड़े
रहेंगे, अब
कभी बैठेंगे न,
तो खड़ा रह
सकता है। गैर-अहंकारी
तय कर ले, तो
थोड़ी-बहुत देर
में सोचेगा कि
बहुत से बहुत लोग
यही कहेंगे न
कि अपना वचन
पूरा नहीं कर
पाया! बैठ
जाते हैं।
अहंकारी
कहेगा कि अब
चाहे प्राण
चले जाएं, लेकिन
अब बैठ नहीं
सकता। एक
अहंकार की कसम
हो गई।
तो
ध्यान रहे, अहंकारी
अक्सर
तपश्चर्या
में उत्सुक हो
जाते हैं।
इसलिए तपस्वी
अगर अहंकारी
मिलते हों, तो आश्चर्य
नहीं है।
आमतौर से
तपस्वी
अहंकारी
मिलते हैं।
उसका कारण यह
नहीं कि
तपस्वी अहंकारी
होते हैं, उसका
बुनियादी
कारण यह है कि
अहंकारी
आसानी से
तपस्वी हो
जाते हैं। असल
में अहंकार जो
भी जिद्द
पकड़ ले, उसको
पूरा करने की
कोशिश करता
है।
तो सौ
में अट्ठानबे
तपस्वियों
का मौका यह है
कि वे अहंकार
से तपश्चर्या
के रास्ते पर
आते हैं।
इसलिए हम
तपस्या की खूब
प्रशंसा करते
हैं, शोभायात्रा
निकालते हैं।
कोई उपवास कर
ले, तो
शोभायात्रा
निकलती है, जुलूस
निकलता है; बैंड-बाजे
बजाते हैं।
उपवास
के लिए
बैंड-बाजों की
कोई जरूरत
नहीं। लेकिन
जिस अहंकार से
उपवास फलित
हुआ है, वह
बैंड-बाजे के
बिना शिथिल हो
जाएगा। उसके
लिए बैंड-बाजा
बिलकुल जरूरी
है, उसको
जगाए रखने के
लिए, फुसलाने
के लिए।
क्योंकि उस
आदमी ने उपवास
के लिए उपवास
नहीं किया।
अंत में यह
बैंड-बाजा
बजने वाला है,
बहुत गहरे
में इसकी
आकांक्षा है।
तो हम
अहंकार को
प्रोत्साहित
करते हैं, क्योंकि
अहंकार के
आधार पर तप हो
सकता है। लेकिन
जो तप अहंकार
के आधार पर
होता है, उससे
आत्मा पवित्र
नहीं होती और
अपवित्र हो जाती
है।
इसलिए
कृष्ण को कंडीशन
लगानी पड़ी, ज्ञानरूपी तप। अकेला
तप काफी नहीं
है; क्योंकि
अज्ञानरूपी
भी हो सकता
है। अकेला तप
काफी नहीं है,
तप अज्ञान
से भी निकल
सकता है। और
जब तप अज्ञान
से निकलता है,
तो आत्मा को
और भी अपवित्र
कर जाता है।
ज्ञान से
निकलना
चाहिए।
ज्ञान
से निकलने का
क्या अर्थ हुआ? ज्ञान से तप
कैसे निकलेगा?
अज्ञान से
तो निकल सकता
है; बहुत
आसान है।
हमारी पूरी
जिंदगी, अज्ञान
के केंद्र, अहंकार पर
खड़ी होती है।
बाप
अपने बेटे से
कहता है कि
देखो पड़ोस का
लड़का आगे
निकला जा रहा
है! हमारे कुल
की इज्जत खतरे
में है। बेटे
के अहंकार को
जगाता है।
बेटा और रातभर
पढ़ने में लग
जाता है कि किसी
तरह गोल्ड मेडल
ले आए, क्योंकि
इज्जत का सवाल
है।
हम
अच्छी बात
लाने के लिए
भी अहंकार का
उपयोग करते
हैं। बाप अपने
बेटे से कहता
है कि देखो, ऐसा आचरण
करोगे, तो
हमारे कुल की
बड़ी बदनामी
होगी। आचरण
बुरा है, ऐसा
नहीं कह रहा
है। वह यह कह
रहा है कि ऐसा
आचरण करने से कुल
की बड़ी बदनामी
होगी। लोग
क्या कहेंगे
कि मेरा बेटा!
और ऐसा कर रहा
है? उसके
बेटे के
अहंकार को परसुएड
किया जा रहा
है।
चारों
तरफ ग्रेट परसुएडर्स
बैठे हुए हैं; चारों तरफ
फुसलाने वाले
बैठे हुए हैं।
वे अहंकार को
फुसला रहे
हैं। वे उस
अहंकार को तरकीबत्तरकीब
से फुसलाकर
हमसे काम करवा
रहे हैं।
हमारी
पूरी जिंदगी
अहंकार के
आधार पर होने
वाली
तपश्चर्या
है।
एक
आदमी धन कमाता
है, तो कोई कम
तप नहीं करता।
जंगल में बैठे
तपस्वियों
से कम नहीं
होता तप उसका;
एक अर्थ में
ज्यादा ही होता
है। करता क्या
है बेचारा? दिनभर सुबह से
सांझ तक धन
इकट्ठा करने
में लगा हुआ है।
पागल की तरह
दौड़ रहा है। जिंदगीभर दौड़ता है; तिजोरी भरकर
मर जाता है।
लेकिन धन
अहंकार के लिए
सुख है। जितना
ज्यादा, उतना
सुख है। बस, अहंकार धन
को इकट्ठा
करवा देता है।
एक
आदमी दिल्ली
की तरफ दौड़ता
रहता है। अभी
बहुत-से लोग
दौड़ रहे हैं।
दिल्ली में
ऐसा कुछ रस
नहीं है।
अहंकार में रस
है। कितना
पागलपन चलता
है! कितना
बेचारा
हाथ-पैर जोड़ता
है किसी के भी
कि किसी तरह
मुझे दिल्ली
पहुंचाओ! सब
दांव पर लगा
देता है, किसी
तरह दिल्ली
पहुंचाओ! एक
अहंकार है।
दिल्ली
पहुंचकर वह समबडी हो
जाता है, कुछ
हो जाता है।
फिर और दौड़ पर
दौड़ चलती जाती
है। वर्तुल के
भीतर वर्तुल
हैं। फिर
दिल्ली पहुंचकर
केबिनेट
में कैसे
प्रवेश कर
जाए! फिर सब
सिद्धांतों की
बात करता है, लेकिन सिर्फ
सिद्धांत
अहंकार है, और कोई
सिद्धांत
नहीं है। न
कोई समाजवाद
है, न कोई
लोकतंत्र है,
न कुछ है।
दुनिया
में कोई
सिद्धांत
नहीं है आदमी
के लिए। आदमी
का गहरा
सिद्धांत एक
है, ईगो। फिर
उस अहंकार के
लिए
आभूषण--समाजवाद,
लोकतंत्र, और-और न
मालूम
क्या-क्या! वे
सब आभूषण हैं
उस एक सिद्धांत
के।
सारी
दुनिया
अहंकार की
तपश्चर्या
में रत है।
इन्हीं तपस्वियों
को हम धर्म की
तरफ भी लगा
देते हैं। ये
ही तपस्वी
धर्म में लग
जाते हैं। बैठ
जाते हैं
उपवास करके!
अगर लोग न
जाएं, तो
बड़ी मुश्किल
हो जाती है।
मेरे
एक मित्र हैं।
बड़े राजनैतिक
नेता हैं। लोगों
ने उनसे अनशन
करवा दिया।
लेकिन कुछ
हालात ऐसे हो
गए गांव के कि
अनशन तो उन्होंने
किया, लेकिन
लोग ज्यादा
देखने-दाखने
नहीं आए। मैं
उनके गांव गया
था, उनको
मिलने गया।
पता चला अनशन
करते हैं, तो
मैंने कहा, देख आऊं।
बड़ी मुश्किल
में होंगे।
गया तो
सच में
मुश्किल में
थे मुझसे दिल
की बात कही।
कहा कि बड़ी
मुश्किल में
पड़ गया हूं; कुछ हालात
ऐसे उलझ गए
हैं कि कोई
देखने तक नहीं
आ रहा है। और
लोग आते-जाते
रहते, कैमरामैन
फोटो उतारता
रहता, अखबार
में फोटो छपती
रहती, तो
झेल भी लेते।
अब सिवाय भूख
के और कुछ नजर
नहीं आता
चौबीस घंटे।
किसी तरह
उपवास तुड़वाने
का इंतजाम
करवा दें।
क्या
रास्ता होगा?
कोई भी
रास्ता निकाल
लें। मेरी
मांगें पूरी हों
या न हों। मगर
अहंकार
रास्ते खोजता
है। फिर भी
उन्होंने कहा
कि इक्कीस दिन
हो गए हैं मुझे।
अब एकदम से
तोड़ भी नहीं
सकता। इज्जत
का भी सवाल
है। तो प्रांत
के चीफ
मिनिस्टर आ
जाएं, मोसंबी का एक गिलास
पिला दें और
इतना ही कह
दें कि हम आपकी
मांगों
पर विचार
करेंगे!
मैंने
कहा, यह हो
सकता है।
इसमें बहुत
कठिनाई नहीं
है। क्योंकि
विचार करने
में कोई झंझट
नहीं है। विचार
करेंगे! बस, उन्होंने
कहा, इतना
ही हो जाए तो
काफी है। अब
और मुझे कोई
झंझट नहीं
करनी है। मुझे
उलझा दिया है शरारतियों
ने और वे खुद
भी दिखाई नहीं
पड़ रहे हैं कि
कहां हैं!
लोग
आते रहते, भीड़-भड़क्का
बना रहता, तो
उनको कष्ट न
होता। भूख
झेली जा सकती
थी। अगर
अहंकार भरता
हो, तो बड़ी
से बड़ी भूख
झेली जा सकती
है। लेकिन अगर
अहंकार भी न
भरता हो, तो
फिर कठिनाई हो
जाती है।
तपस्वियों
को जरा आदर
देना बंद कर
दें, फिर आप
देखेंगे, सौ
में से
निन्यानबे
विदा हो गए
हैं। वे नहीं हैं
अब कहीं। आदर
मिले, तो
वे बढ़ते चले
जाते हैं।
कृष्ण
बहुत जानकर
कहते हैं कि ज्ञानरूपी
तप से शुद्ध
हुई आत्मा। और
ज्ञानरूपी
तप से ही
शुद्ध होती है।
ज्ञानरूपी
तप कैसा होगा? क्योंकि अज्ञानरूपी
तप में तो
अहंकार का
शोषण है; अहंकार
पर निर्भर है अज्ञानरूपी
तप। ज्ञानरूपी
तप किस बात पर
निर्भर होगा?
ज्ञानरूपी तप समर्पण
पर निर्भर
होगा, अहंकार
पर नहीं, सरेंडर
पर।
इस
फर्क को ठीक
से समझ लें।
इसलिए पहले
उन्होंने कहा, अनन्य रूप
से जो मेरी
शरण; फिर
कहा कि जो ज्ञानरूपी
तप से शुद्ध
हुए हैं।
ज्ञानरूपी
तप सदा ही
समर्पित है। ज्ञानरूपी
तप के पीछे यह
भाव नहीं है
कि मैं तप कर
रहा हूं; ज्ञानरूपी तप के पीछे
यही भाव है कि
परमात्मा जो
करवा रहा है, वह मैं कर
रहा हूं। वह
अगर आग में
डाल देता है, तो आग में
जलने को तैयार
हूं। मैं नहीं
जल रहा हूं।
एक ईसून
करके एक फकीर
औरत हुई जापान
में--समर्पित
जीवन की एक
प्रतिमा।
भोजन भी करती, तो पहले आंख
बंद करके आकाश
की तरफ, थाली
सामने रखी हो,
तो भी आंख
बंद करके आकाश
की तरफ देख
लेती। कभी कहती
कि ले जाओ।
नहीं, आज
भोजन नहीं
होगा। लोग
कहते, क्या
बात है? अभी
तक तो तुमने
कुछ भी नहीं
कहा था। पहले
ही कह देना
था। उसने कहा,
जब तक भोजन
सामने न आए, तब तक मैं
प्रभु से पूछूं
भी कैसे! मैं
पूछी कि क्या
करूं? क्या
इरादे हैं? भोजन करूं, न करूं? आज
हां में उत्तर
नहीं आता।
भोजन ले जाओ।
किसी दिन भोजन
कर लेती; कहती,
हां में
उत्तर आता है।
मरने के एक
दिन पहले आंख
बंद कर आकाश
की तरफ...।
पर
लोगों को कभी
भरोसा नहीं
आया कि पता
नहीं, ऊपर
से कोई उत्तर
आता है कि
नहीं आता! यह
अपने ही मन से
उत्तर दे लेती
है! कभी खाना
हो, तो खा
लेती हो; कभी
न खाना हो, तो
न खाती हो।
लेकिन
उस ईसून
ने साठ वर्ष
की उम्र तक
कभी यह नहीं
कहा कि मैंने
एक भी उपवास
किया।
क्योंकि वह
अहंकार से तो
उठता न था।
मेरे का तो
कोई सवाल न
था। उसने कोई हिसाब
भी न रखा; जैसा
कि साधु रखते
हैं कि
उन्होंने इस
बार इतने
उपवास किए, उतने उपवास
किए। इस
चौमासे में फलाने ने
इतने उपवास
किए। इसका कुछ
हिसाब न था।
ये कोई
खाते-बही नहीं
हैं कि इनके
हिसाब रखे जा
सकें। लेकिन
अहंकार
खाते-बही रखता
है।
साठ
साल! कभी कोई
उससे कहता भी
कि तूने कितने
उपवास किए! वह
कहती कि मैंने? मैंने एक भी
उपवास नहीं
किया। हां, कभी-कभी
प्रभु ने भोजन
का आनंद दिया
और कभी-कभी
उपवास का आनंद
दिया।
फिर
साठ वर्ष उसके
पूरे हुए। एक
दिन उसने आकाश
की तरफ--थाली
सामने रखी
थी--आकाश की
तरफ देखकर कहा, भोजन ही
नहीं; आज
तो खबर आती है
कि यह मेरा
आखिरी दिन है।
सांझ सूरज के
ढलने के साथ मैं
विदा हो
जाऊंगी। और
ठीक सांझ सूरज
के ढलने के
साथ वह विदा
हो गई। सांझ
सूरज ढला, वह
आंख बंद करके
बैठी थी और
श्वास उड़ गई।
तब लोगों को
पता चला कि जो
आवाज उसे आती
थी, वह ऐसी
ही नहीं थी, जैसा हम
सोचते थे।
क्योंकि भोजन
के मामले में धोखा
हो सकता है, मौत के मामले
में तो धोखा
नहीं हो सकता।
समर्पित
तपश्चर्या ज्ञानरूपी
तप है।
परमात्मा के
हाथों में जो
जीए, वह जो ले
आए--दुख तो दुख,
सुख तो सुख,
अंधेरा तो
अंधेरा, उजेला
तो उजेला, भोजन
तो भोजन, भूख
तो भूख--वह जो
ले आए, उसके
लिए राजी होकर
जो जीए, उसकी
जिंदगी ज्ञानरूपी
तप है। उसका
सारा जीवन एक
तप है, लेकिन
ज्ञानरूपी।
वह ईगोइस्ट,
वह अहंकार
की जिद नहीं
है कि मैं कर
रहा हूं ऐसा।
साक्रेटीज
एक सांझ अपने
घर के बाहर
गया। रात देर
तक लौटा नहीं; लौटा नहीं!
घर के लोग
परेशान। बहुत
खोजा, मिला
नहीं। फिर
सुबह तक राह
देखने के
सिवाय कोई रास्ता
न रहा।
सुबह
सूरज निकला, तब लोग
खोजने गए।
देखा कि बर्फ
जम गई है उसके
घुटनों तक।
रातभर गिरती
बर्फ में खड़ा
रहा। एक वृक्ष
से टिका हुआ
खड़ा है! आंखें
बंद हैं। हिलाया!
लोगों ने पूछा,
यह क्या कर
रहे हो? उसने
आंख खोलीं;
उसने कहा कि
क्या हुआ? नीचे
देखा। जैसे दूसरे
लोग चकित थे, वैसा ही
चकित हुआ। कहा
कि अरे! बर्फ
इतनी जम गई! रात
गई? सूरज
निकल आया? तो
लोगों ने कहा
कि तुम कर
क्या रहे हो? होश में हो
कि बेहोश? तुम
रातभर करते
क्या रहे?
उसने
कहा, मैं कुछ
भी न करता
रहा। आज रात
सांझ को जब
यहां आकर खड़ा
हुआ, तारों
से आकाश भरा
था, दूर तक
अनंत रहस्य; मेरा मन
समर्पित होने
का हो गया।
मैंने आंख बंद
करके अपने को
छोड़ दिया इस
विराट के साथ।
फिर मुझे पता
नहीं क्या
हुआ। करवाया
होगा उसने, मैंने कुछ
किया नहीं है।
यह हुआ
ज्ञानरूपी
तप--समर्पित
तपश्चर्या, सरेंडर्ड एटिटयूड।
फिर जो हो
जाए। फिर उसकी
मर्जी।
जीसस
सूली लटकाए जा
रहे हैं। एक
क्षण को उनके मुंह
से ऐसा निकला
कि हे
परमात्मा! यह
क्या दिखला
रहा है? क्या
तूने मुझे छोड़
दिया? फिर
एक क्षण बाद
ही उन्होंने
कहा, माफ
कर। कैसी बात
मैंने कही!
तेरी मर्जी
पूरी हो। दाई
विल बी डन।
तेरी मर्जी
पूरी हो। फिर
हाथ पर खीलियां
ठोंक दी गईं; गर्दन सूली
पर लटक गई; लेकिन
फिर जीसस, तेरी
मर्जी पूरी हो,
उसी भाव में
हैं। जीसस की
यह सूली ज्ञानरूपी
तपश्चर्या हो
गई। समर्पित,
तेरी मर्जी
पूरी हो। बात
समाप्त हो गई।
जब तक
मेरी मर्जी से
तपश्चर्या
होती है, तब
तक अज्ञानरूपी
है। और जब
उसकी मर्जी से
तपश्चर्या
होती है, तब
ज्ञानरूपी
हो जाती है।
वह अनन्य शरण
का ही दूसरा
रूप है।
और जब
कोई समर्पित
होकर तप से
गुजरता है, तब आत्मा
पवित्र हो
जाती है, तब
भीतर सब शुद्ध
हो जाता है।
क्योंकि बड़ी
से बड़ी
अशुद्धि
अहंकार है और
बाकी सब अशुद्धियां
अहंकार की ही
बाई-प्रोडक्ट्स
हैं। वे
अहंकार से ही
पैदा हुई हैं।
कभी
आपने खयाल
किया, अहंकार
न हो, तो
क्रोध पैदा हो
सकता है? अहंकार
न हो, तो
क्रोध कैसे
पैदा हो सकता
है! कभी आपने
खयाल किया है
कि अहंकार न
हो, तो लोभ
पैदा हो सकता
है? अहंकार
न हो, तो
लोभ कैसे पैदा
हो सकता है!
कभी आपने खयाल
किया कि
अहंकार न हो, तोर् ईष्या पैदा
हो सकती है? अहंकार न हो,
तोर् ईष्या कैसे
पैदा हो सकती
है!
अहंकार
मूल रोग है, मूल अशुद्धि
है। बीमारी की
जड़ है। बाकी
सारी बीमारियां
उसी पर आए हुए
पत्ते और
शाखाएं हैं। इसलिए
समर्पण मूल
साधना है। समर्पण
का अर्थ है, अहंकार की
जड़ काट दो! अज्ञानरूपी
तपश्चर्या
पत्ते काटती
है--पत्ते, शाखाएं।
लेकिन
ध्यान रखें, जैसा नियम बगीचे का
है, वैसा
ही नियम मन के बगीचे का
भी है। आप
पत्ता काटें;
पत्ता
समझता है कि
कलम हो रही
है। एक पत्ते
की जगह चार
निकल आते हैं।
आप शाखा काटें;
शाखा समझती
है, कलम की
जा रही है! एक
शाखा की जगह
चार अंकुर निकल
आते हैं। आप
क्रोध काटें
अहंकार को
बिना काटे, और आप
पाएंगे कि
क्रोध चार
दिशाओं में
निकलना शुरू
हो गया। आप
लोभ काटें
बिना अहंकार
को काटे, और
आप पाएंगे, लोभ ने
पच्चीस नए
मार्ग खोज
लिए!
अज्ञानरूपी
तपश्चर्या
शाखाओं से
उलझती रहती है
और मूल को
पानी देती
रहती है।
अहंकार की जड़
को पानी डालती
रहती है और
अहंकार से
पैदा हुई
शाखाओं को काटती
रहती है।
शाखाएं फैलती
चली जाती हैं।
अहंकार की जड़
मजबूत होती
चली है।
ज्ञानरूपी
तपश्चर्या
पत्तों से
नहीं लड़ती, शाखाओं से
नहीं लड़ती,
मूल जड़ को
काट देती है।
वह अनन्य भाव
से अपने को
समर्पित कर
देती है। वह
कह देती है, परमात्मा, तू ही
सम्हाल। अब न
क्रोध मेरा, न क्षमा
मेरी। अब न
सुख मेरा, न
दुख मेरा। अब
न जीवन मेरा, न मृत्यु
मेरी। अब तू
ही सम्हाल। अब
तू ही जो करे, कर। अब न मैं
छोडूंगा, न
पकडूंगा।
अब न मैं भागूंगा;
न मैं राग
करूंगा, न
विराग
करूंगा। अब तू
जो करवाए, मैं
राजी हूं।
इस राजीपन
का नाम, इस
एक्सेप्टेबिलिटी
का नाम समर्पण
है। इस समर्पण
से सब शुद्ध
हो जाता है, क्योंकि जड़
कट जाती है।
जहां अहंकार
नहीं, वहां
अपवित्रता
नहीं। और जहां
अहंकार है, वहां
अपवित्रता
होगी ही। उसके
रूप कुछ भी हो
सकते हैं। और
धार्मिक
अपवित्रता
अधार्मिक अपवित्रता
से बदतर होती
है।
साधारण
अहंकार से
तपस्वी
अहंकार
ज्यादा खतरनाक
होता है।
साधारण
आदमियों के
क्रोध से दुर्वासा
के क्रोध की
हम क्या तुलना
कर सकते हैं? दुर्वासा के
क्रोध की बात
ही और है; वह
क्रोध है चरम।
ऐसा साधारण
आदमी ऐसा
क्रोध नहीं कर
सकता।
क्योंकि
साधारण आदमी
ने तपश्चर्या
से अहंकार को
इतना पानी भी
नहीं दिया है
कि इतना क्रोध
कर सके।
अज्ञानरूपी
तपश्चर्या
प्राणों को और
अशुद्ध कर
जाती है। ज्ञानरूपी
तपश्चर्या
शुद्ध कर जाती
है।
शेष, संध्या हम
बात करेंगे।
(अभी
आप रुकेंगे।
एक पांच-सात
मिनट एक
समर्पित
कीर्तन में
सम्मिलित
हों।)
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