ओशो
जिन—दर्शन
गणित, विज्ञान
जैसा दर्शन है।
काव्य की उसमें
कोई जगह नहीं।
वही उसकी विशिष्टता
है।
दो और दो
जैसे चार होते
है, ऐसे ही महावीर
के वक्तव्य है।
महावीर
धर्म की परिभाषा
करते है : जीवन के
स्वभाव के सूत्र
को समझ लेना धर्म
है। जीवन के स्वभाव
को पहचान लेना
धर्म है। स्वभाव
ही धर्म है।
इसलिए महावीर
के वचन........जैसे महावीर
नग्न है वैसे
ही महावीर के वचन
भी नग्न है। उनमें
कोई सजावट नहीं
है। जैसा है वैसा
कहा है।
तो जब मैं
महावीर के मार्ग
पर बोल रहा हूं
तो तुम ख्याल
रखना: मैं चाहता
हूं कि शुद्ध महावीर
की बात तुम्हारी
समझ में आ जाए; और
जिसको वह यात्रा
सुगम मालूम पड़े
वह चल सके। वहां
भक्ति को भूल
ही जाना। वहां
सूफियों से कुछ
लेना—देना नहीं।
वहां तो तुम शुद्ध
निर्भाव होने की
चेष्टा करना।
क्योंकि वहां
निर्भाव ही गाड़ी
का चाक है।
महावीर
का मार्ग शुद्धतम
मार्गों में एक
है। लेकिन उसे
शुद्ध रखना। महावीर
के मार्ग पर पूजा
को मत ले आना, प्रार्थना
को मत ले आना।
महावीर
तुम्हें वहां
ले जाना चाहते
है। जहां न कोई
विचार रह जाता
है। और न कोई भाव
रह जाता है। न कोई
चाह रह जाती है।
न कोई परमात्मा
रह जाता है—जहां
बस तुम एकांत, अकेले
अपनी परिपूर्ण
शुद्धता में बच
रहते हो। निर्धूम
जलती है तुम्हारी
चेतना।
महावीर
ने जैसी महिमा
का गुणगान आत्मा
का किया है, किसी
ने भी नहीं किया।
महावीर ने सारे
परमात्मा को आत्मा
में उंडेल दिया
है। महावीर ने
मनुष्य को जैसे
महिमा दी है, और किसी ने भी
नहीं दी। महावीर
ने मनुष्य को
सर्वोतम सबसे ऊपर
रखा है।
और यह जो
दुर्लब क्षण
तुम्हें मिला
है मनुष्य होनेका इसे
ऐसे ही मत गंवा
देना। इसे ऐसे
भूले—भूले ही मत
गंवा देना। इसे
दूसरों के द्वार
खटखटाते—खटखटाते
ही मत गंवा देना।
बहुत मुश्किल
से मिलता है यह
क्षण। और बहुत
जल्दी खो जाता
है। बड़ा दुर्लभ
है यह फूल; सुबह
खिलता है, और
सांझ मुरझा जाता
है। फिर हो सकता
है सदियों—सदियों
तक प्रतीक्षा करनी
पड़े।
इसलिए मनुष्य
होना महिमा ही
नहीं है, बड़ा उत्तरदायित्व
है। अस्तित्व
ने तुम्हारे भीतर
से कोई बहुत बड़ा
कृत्य पूरा करना
चाहा है। साथ दो, सहयोग दो, अस्तित्व
ने तुम्हारे भी
से कोई बहुत बड़ी
घटना घटने का आयोजन
किया है। साथ दो, सहयोग दो। और
जब तक तुम खिल
न पाओगे, नियति
तुम्हारी पूरी
न होगी।
ओशो
जिन—सूत्र
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