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गुरुवार, 3 अप्रैल 2014

पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--2) प्रवचन--25

सूक्ष्‍मतर समाधियां: निर्वितर्क, सविचार, निर्विचार—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 5 मार्च, 1975;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।

योगसूत्र: (समाधिपादृृ)

स्‍मृतिपरिशुद्धौ स्‍वरूपशून्‍येवार्थमात्र निर्भासा निर्वितर्का।। 43।।

जब स्मृति परिशुद्ध होती है और मन किसी अवरोध के बिना वस्तुओं की यथार्थता देख हू सकता है, तब निर्वितर्क समाधि फलित होती है।

            एतयैव सविचार निर्विचार च सूक्ष्‍मविषय व्‍याख्‍याता ।। 44।।

सवितर्क और निर्विचार समाधि का जो स्‍पष्‍टीकरण है उसी से समाधि की उच्‍चतर स्‍थितियां भी स्‍पष्‍ट होती है। लेकिन सविचार और निर्विचार समाधि की इन उच्‍चतर अवस्‍थाओं में ध्‍यान के विषय अधिक सूक्ष्म होते है।


सूक्ष्‍मविषयत्‍वं चलिंगपर्यवसानम्।। 45।।

      इन सूक्ष्‍म विषयों से संबंधित समाधि का प्रांत सूक्ष्‍म ऊर्जाओं की निराकर अवस्‍था तक फैलता है।

न स्मृति है; वह कंप्यूटर की भांति है—ठीक—ठीक कहो तो जैविक—कंप्यूटर। यह वह सब संचित कर लेता है जो कि अनुभव किया जाता है, जाना जाता है। बहुत जन्मों द्वारा, लाखों अनुभवों द्वारा मन एकत्रित कर लेता है स्मृति। यह एक विशाल घटना है। लाखों—लाखों स्मृतियां इसमें संग्रहीत हुई होती हैं। यह एक बड़ा संग्रहालय है। तुम्हारे सारे पिछले जन्म इसमें संचित हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि एक क्षण में भी हजारों स्मृतियां निरंतर एकत्रित हो रही होती हैं। तुम्हारे जाने बिना, मन क्रियान्वित होता ही रहता है। जब तुम सोए होते हो, तब भी स्मृतियां बन रही होती हैं। जब तुम सोए भी हो, यदि कोई चीखता और रोता है, तो तुम्हारी इंद्रियां काम कर रही होती हैं और अनुभव को इकट्ठा कर रही होती हैं। शायद सुबह तुम इसे फिर याद न कर पाओ क्योंकि तुम्हें होश नहीं था लेकिन गहन सम्मोहन में इसे याद किया जा सकता है। गहरे सम्मोहन में, हर वह चीज जिसका तुमने कभी अनुभव किया होता है, जाने में या अनजाने में, वह सब याद किया जा सकता है। तुम अपने पिछले जन्मों को भी याद कर सकते हो। मन का सहज स्वाभाविक विस्तार सचमुच ही विशाल है। ये स्मृतियां अच्छी होती हैं यदि तुम उनका प्रयोग कर सको, लेकिन ये स्मृतियां खतरनाक होती हैं यदि वे तुम्हारा ही प्रयोग करने लगें।
शुद्ध मन वह होता है जो कि अपनी स्मृतियों का मालिक हो। अशुद्ध मन वह मन है जो कि निरंतर प्रभावित होता है अपनी स्मृतियों द्वारा। जब तुम किसी सत्य की ओर देखते हो, तब तुम देख सकते हो बिना उसकी व्याख्या किए हुए। तब चेतना वास्तविकता के साथ सीधे संपर्क में होती है। या, तुम देख सकते हो मन के द्वारा, व्याख्याओं के द्वारा। तब तुम वास्तविकता के संपर्क में नहीं होते। उपकरण के रूप में मन ठीक ही है, लेकिन यदि मन एक ग्रस्तता बन जाता है और चेतना दब जाती है मन के द्वारा तो सत्य भी दब जाएगा मन के द्वारा। तब तुम जीते हो माया में; तब तुम जीते हो भ्रम में।
जब कभी तुम देखते हो सत्य को, यदि तुम देखो उसे सीधे तौर पर प्रत्यक्ष रूप से, बिना मन और स्मृति को बीच में लाए हुए केवल तभी वह होती है वास्तविकता। अन्यथा, वह बन जाती है एक व्याख्या। और सारी व्याख्याएं झूठी होती हैं। क्योंकि सारी व्याख्याएं बोझिल हुई होती हैं, तुम्हारे पुराने अनुभव से। तुम केवल उन चीजों को देख सकते हो जिनका तुम्हारे अनुभव से तालमेल बैठा होता है। तुम वे चीजें नहीं देख सकते जिनका तुम्हारे पिछले अनुभव से तालमेल नहीं होता है, और तुम्हारा पिछला अनुभव ही सब कुछ नहीं है। जीवन कहीं ज्यादा बड़ा है तुम्हारे पिछले अनुभव की अपेक्षा। चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो मन, वह मात्र एक छोटा हिस्सा ही होता है यदि तुम संपूर्ण अस्तित्व की सोचो तो। बहुत छोटा है वह। ज्ञात बहुत छोटा होता है; अज्ञात होता है विशाल और अपरिसीम। जब तुम कोशिश करते हो अज्ञात को ज्ञात द्वारा जानने की, तो तुम चूक जाते हो सार को ही। यही है अशुद्धता। जब तुम अज्ञात को जानने की कोशिश करते हो तुम्हारे भीतर के अज्ञात द्वारा, तब उतरता है एक रहस्योद्घाटन।
ऐसा हुआ. मुल्ला नसरुद्दीन ने नदी में एक बहुत बड़ी मछली पकड़ी। भीड़ इकट्ठी हो गयी, क्योंकि किसी ने देखी न थी कभी इतनी बडी मछली। मुल्ला नसरुद्दीन ने देखा मछली की तरफ, विश्वास न कर सका कि ऐसा संभव था—इतनी बड़ी मछली! खुली—फटी दृष्टि सहित वह घूम लिया मछली के चारों ओर लेकिन फिर भी विश्वास न कर सका। उसने छुआ मछली को लेकिन फिर भी विश्वास न कर सका, क्योंकि उसने सुना—पढा था इतनी बड़ी मछली के बारे में केवल मछेरों की अविश्वसनीय कथाओं में ही। भीड़ भी वहां आ खड़ी हुई थी—अविश्वसनीय दृष्टि सहित ही। तब मुल्ला नसरुद्दीन कहने लगा, 'कृपया मेरी मदद करें इस बड़ी मछली को वापस नदी में फेंकने में। यह मछली ही नहीं है, यह एक झूठ है।'
कोई चीज सच होती है यदि वह तुम्हारे पिछले अनुभव के अनुकूल बैठती हो। यदि वह अनुकूल नहीं पड़ती, तो वह झूठ होती है। तुम परमात्मा में विश्वास नहीं कर सकते क्योंकि वह तुम्हारे पिछले अनुभव के अनुरूप नहीं है। तुम ध्यान में विश्वास नहीं कर सकते क्योंकि तुम रहते आए हो सदा बाजार में, और तुम केवल बाजार की वास्तविकता को जानते हो, गणनापरक मन की, व्यापारिक मन की वास्तविकता को ही। तुम उस उत्सव के बारे में कुछ नहीं जानते—जो है शुद्ध, स्वाभाविक, बिलकुल कारण रहित, अहेतुक।
यदि तुम जीए हो वैज्ञानिक संसार में, तो तुम विश्वास नहीं कर सकते कि कोई चीज सहज—स्फूर्त हो सकती है, क्योंकि वैज्ञानिक जीता है कार्यकारण के संसार में। प्रत्येक चीज सकारण होती है; कोई चीज सहज—स्फूर्त नहीं है। अत: जब वैज्ञानिक सुनते हैं कि कुछ ऐसा संभव है जो कि सहज—स्फूर्त है—जब हम कहते हैं सहज—स्फूर्त, तो हमारा मतलब होता है कि उसका कोई कारण नहीं, अचानक बिना किसी वजह, बिना जाने—बूझे हुआ है वह—वैज्ञानिक तो विश्वास ही नहीं कर सकता। वह तो कहेगा, 'यह मछली बिलकुल नहीं है, यह एक झूठ है। उसे वापस फेंक दो नदी में।
लेकिन वे जिन्होंने कि काम किया है आंतरिक संसार में, जानते हैं कि ऐसी घटनाएं हैं जो कि अकारण होती हैं। न ही केवल वे यही जानते हैं, वे जानते हैं कि सारा अस्तित्व ही अकारण है। वह भिन्न होता है, उस वैज्ञानिक मन से समग्रतया विभिन्न संसार होता है वह।
जो कुछ भी तुम देखते हो, इससे पहले कि तुम ठीक से देखो भी, व्याख्या प्रवेश कर चुकी होती है। निरंतर मैं देखता हूं लोगों को। मैं बात कर रहा होता हूं उनसे और यदि वह अनुकूल बैठता है, चाहे उन्होंने अभी कुछ कहा भी नहीं होता है, तो वे मुझे दे देते हैं एक आंतरिक सहमति, 'हौ' वे कह रहे होते हैं, 'ठीक।यदि वह नहीं अनुकूल बैठता उनके दृष्टिकोणों के साथ, चाहे उन्होंने कुछ कहा ही नहीं होता, तो 'नहीं' लिख दिया गया होता है उनके चेहरों पर। गहन तल पर उन्होंने कहना शुरू कर दिया, 'नहीं, यह सच नहीं।
 अभी उस रात मैं बात करता था एक मित्र से। वह कुछ ही दिन पहले आया था; वह बहुत नया था। वह विश्वास करता था उपवास करने में, और मैं कह रहा था उससे, 'उपवास खतरनाक हो सकता है। तुम्हें अपने से ही नहीं चलना चाहिए; तुम्हें किसी विशेषज्ञ से पूछ लेना चाहिए। और यदि तुम मेरी सुनते हो, तो मैं उपवास के हक में बिलकुल नहीं हूं क्योंकि उपवास एक प्रकार का दमन है। शरीर सत्य है। शरीर की भूख सत्य है, शरीर की जरूरत ही सच्ची होती है। बहुत ज्यादा मत खाओ, क्योंकि वह भी शरीर के विरुद्ध है और एक प्रकार का दमन है। और उपवास मत करो, क्योँकि वह भी असत्य है और वह भी दमनात्मक है। वह भी स्वभाव के साथ मेल नहीं खाता है। इसीलिए मैं इसे कहता हूं असत्य।
कोई भोजन करते जाने की बात से वशीभूत होता है—पागल है वह, और कोई वशीभूत होता है भोजन न करने की बात से—वह भी पागल होता है। दोनों अपने शरीरों को नष्ट कर रहे होते हैं—वे शत्रु हैं—और उपवास का प्रयोग किया जाता रहा है एक चालाकी की भांति।
जब कभी तुम उपवास करते हो, तुम्हारी ऊर्जा क्षीण हो जाती है। वह दुर्बल हो ही जाती है। क्योंकि इसके निरंतर बहने के लिए भोजन की आवश्यकता होती है। उपवास करने के तीन—चार दिन बाद, तुम्हारी ऊर्जा इतनी क्षीण हो जाती है कि मन इसमें से अपना नियतांश नहीं ले पाता है, क्योंकि मन एक ऐश्वर्य है। जब शरीर के पास बहुत ज्यादा होता है, तब वह मन को दे देता है। मन बाद की चीज है, संसार में बहुत बाद में पहुंची चीज है। शरीर मूलभूत और प्राथमिक है। पहले शारीरिक आवश्यकताएं परिपूर्ण होनी चाहिए, और केवल इसके बाद ही आती हैं मन की आवश्यकताएं।
यह ऐसा है जैसे कि जब तुम भूखे होते हो, तुम नगर के दार्शनिक को बरदाश्त नहीं कर सकते। जब तुम भूखे होते हो तो दार्शनिक को वहां से सरकना ही होता है। वह नहीं रह सकता है वहां। दार्शनिकता तभी आती है जब समाज धनवान होता है, समृद्ध होता है। धर्म तभी आता है जब समाज समृद्ध हो, जब मूलभूत आवश्यकताएं परिपूर्ण हों। और यही व्यवस्था होती है शरीर की : पहले तो शरीर, फिर दूसरा है मन। यदि शरीर मुसीबत में होता है और अपना आवश्यक नियताश नहीं पा रहा होता है, तब मन का ऊर्जा—नियतांश तुरंत कम हो जाएगा।
और यही है चालाकी जिसे चलाते रहे हैं लोग अपने शरीरों के साथ : जब मन के लिए ऊर्जा—अंश में कटौती हो जाती है, तो मन नहीं सोच सकता क्योंकि सोच—विचार को आवश्यकता होती है ऊर्जा की। और लोग सोचते हैं कि वे ध्यानी बन गए हैं, क्योंकि मन के पास विचार रहे नहीं। यह सच नहीं होता। उन्हें भोजन दे दो और विचार वापस लौट आएंगे। जब ऊर्जा नहीं बह रही होती, तो मन हो जाता है ग्रीष्म के नदी — तल की भांति—नदी बह नहीं रही है, लेकिन किनारे हैं वहां, हर चीज तैयार है। जब कभी वर्षा हो तो फिर से नदी बहने लगेगी। जब कभी वहां ऊर्जा होती है, तो फिर से सांप अपना फन उठा लेगा। सांप मरा नहीं है मात्र मूर्च्छा में है, क्योंकि ऊर्जा उपलब्ध नहीं हो रही है।
उपवास एक चालाकी है झूठी ध्यानमयी अवस्था निर्मित करने की। और उपवास बनावटी ब्रह्मचर्य निर्मित करने की चालाकी भी है—क्योंकि जब तुम उपवास रखते हो, तो ऊर्जा प्रबल नहीँ होती, और काम —केंद्र ऊर्जा नहीं पा सकता।
फिर प्रश्‍न उठ खड़ा होता है व्यवस्था—विज्ञान का : व्यक्ति भोजन द्वारा जीवित रहता है; समाज जीवित है कामवासना द्वारा, जाति जीती है कामवासना द्वारा। तुम यहां पर हो क्योंकि तुम्हारे माता—पिता ने परस्पर प्रेम किया, कामवासना में सरके। यदि तुम सरकते हो कामवासना में तो तुम्हारे बच्चे यहां होंगे, तुम चले जाओगे। यदि तुम नहीं सरकते कामवासना में तब कहीं कोई भविष्य न रहा। तुम जाति के यहां बने रहने में कोई मदद नहीं देते। यदि हर कोई ब्रह्मचारी बन जाता है, तब समाज तिरोहित हो जाएगा। भोजन द्वारा व्यक्ति का शरीर बना रहता है; कामवासना द्वारा जाति का शरीर बना रहता है। लेकिन पहले है व्यक्ति, क्योंकि यदि व्यक्ति ही न हो, तो जाति कैसे बनी—बची रह सकती है? अत: व्यक्ति प्राथमिक होता है, जाति है द्वितीय। जब तुम भरे हुए होते हो ऊर्जा से और शरीर ठीक अनुभव कर रहा होता है, तब तुरंत ऊर्जा भेजी जाती है काम—केंद्र की ओर। अब तुम्हारे पास पर्याप्त है और तुम उसे बांट सकते हो जाति के साथ। जब ऊर्जा—प्रवाह क्षीण होता है तो कामवासना तिरोहित हो जाती है।
जरा दस दिन का उपवास रखना, और दसवें दिन तक तुम्हें लगेगा कि तुम्हें स्त्री में कोई रस ही नहीं रहा है। यदि तुम पंद्रह दिन का और ज्यादा लंबा उपवास रखते हो, तो पंद्रहवें दिन, चाहे कोई बहुत सुंदर प्लेब्बाय और प्लेगर्ल पत्रिकाएं भी वहां पड़ी हों, तुम उन्हें खोल न पाओगे। वे पड़ी रहेंगी वहीं और धूल जम जाएगी उन पर। तुम आकर्षित नहीं होओगे। इक्कीसवें दिन, यदि तुमने उपवास जारी रखा, तो चाहे नग्न स्त्री भी वहां नृत्य कर रही हो, तुम बुद्ध की भांति ही बैठे रहोगे। ऐसा नहीं है कि तुम बुद्ध की भांति हो गए। एक दिन को एकदम ठीक भोजन मिलते ही तुम रस लेने लगोगे प्लेब्बाय में और प्लेगर्ल में। तीसरे दिन ऊर्जा फिर से बह रही होती है; तुम स्त्री में रस लेने लगोगे।
वस्तुत: मनस्विद इसे एक कसौटी बना चुके हैं कि यदि कोई पुरुष स्त्रियों में रुचि नहीं लेता, तो कुछ गलत बात होती है। यदि स्त्री पुरुषों में रुचि नहीं लेती, तो कोई गलत बात होती है। ऊर्जा—प्रवाह क्षीण होता है। और सौ अवस्थाओं में से, निन्यानबे अवस्थाओं में यह बात. सच होती है; वे ठीक कहते हैं। केवल सौवीं अवस्था में वे सही नहीं होंगे क्योंकि वह होगा बुद्ध। बुद्ध के साथ, ऐसा नहीं है कि ऊर्जा क्षीण प्रवाहित हो रही होती है। ऊर्जा उच्चतम होती है, अपने शिखर पर, अपनी सबसे बड़ी विशालता में होती है। लेकिन अब वे एक अलग ही व्यक्ति होते हैं, एक अलग दिशा में बढ़ते हुए जहां दूसरे में उनका रस नहीं, क्योंकि वे पूर्ण परितृप्त हो गए हैं अपने साथ। दूसरे की ओर कोई गति नहीं है, और ऐसा नहीं है कि ऊर्जा का कुछ अभाव है।
जब मैं बात कर रहा था इस नवागत से, तो मैं देख सकता था उसके चेहरे पर कि वह कह रहा है, 'नहीं।उसने एक भी शब्द नहीं कहा, लेकिन मैं जानता था कि वह कह रहा है, 'मैं इसमें आस्था नहीं रख सकता।और फिर वह कहने लगा, 'मैं उपवास में ही विश्वास करने वाला हूं। जो कुछ भी आप कह रहे हो, मैं उसके साथ कोई तालमेल अनुभव नहीं कर सकता।
स्मृति के कारण तुम सुन नहीं सकते, स्मृति के कारण तुम देख नहीं सकते; स्मृति के कारण तुम संसार की तथ्यता की ओर नहीं देख सकते। स्मृति आ जाती है बीच में—तुम्हारा अतीत, तुम्हारा ज्ञान, तुम्हारी शिक्षा, तुम्हारे अनुभव—और वह रंग देती है यथार्थ को। संसार माया नहीं है, लेकिन जब उसकी व्याख्या की जाती है तो तुम जीते हो मायामय संसार में। याद रखना इसे।
हिंदू कहते हैं कि संसार माया है, भ्रम है। जब वे कहते हैं ऐसा, तो उनका अर्थ उस संसार से नहीं जो कि वहां होता है, उनका मात्र इतना ही अर्थ होता है. वह संसार जो तुम्हारे भीतर है—तुम्हारी व्याख्याओं का, तुम्हारे अपने अर्थों का संसार। तथ्य का संसार असत्य नहीं है; वह तो स्वयं ब्रह्म है। वह परम सत्य है। लेकिन वह संसार जिसे तुम्हारे द्वारा निर्मित किया गया है, तुम्हारे मन और स्मृति द्वारा, और जिसमें कि तुम रहते हो, जो तुम्हें घेरे रहता है वातावरण की भांति, वह होता है असत्य। और तुम इसके साथ बढ़ते और इसी में बढ़ते हो। जहां कहीं तुम जाते हो, तुम इसे तुम्हारे चारों ओर लिए रहते हो। यह तुम्हारा वातावरण रूपी घेरा होता है, और इसके द्वारा तुम संसार की ओर देखते हो। तब जो कुछ भी तुम देखते हो, वह सत्य नहीं होता, वह व्याख्या होती है। पतंजलि कहते हैं :

 जब स्मृति परिशुद्ध होती है और मन किसी अवरोध के बिना वस्तुओं की यथार्थता देख सकता है तब निर्वितर्क समाधि फलित होती है।

व्याख्या अवरोध ही है। व्याख्या करते हो और सत्य खो जाता है। बिना व्याख्या बनाए देखो, और सत्य वहां होता है, और वहां सदा से है ही। सत्य हर पल मौजूद होता है। वह किसी दूसरी तरह से हो कैसे सकता है? सत्य का अर्थ है. वह जो कि सचमुच है। जो अपनी जगह से नहीं सरका है क्षण भर को भी। तुम तो बस तुम्हारी व्याख्याओं में जीते हो और तुम निर्मित कर लेते हो तुम्हारा अपना संसार। वास्तविकता लोकगत है, भ्रम व्यक्तिगत है।
तुमने सुनी ही होगी बहुत पुरानी प्राचीन भारतीय कथा। पांच अंधे आदमी एक हाथी को देखने आए। उन्होंने कभी देखा न था किसी हाथी को; वह बिलकुल नयी चीज थी शहर में। उस देश के उस भाग में हाथियों का कोई अस्तित्व न था। उन सबने हाथी को छुआ और महसूस किया, और उन सबने उसकी व्याख्या की जो कुछ भी उन्होंने महसूस किया था उस आधार पर। उन्होंने व्याख्या की अपने — अपने अनुभव द्वारा। एक आदमी कहने लगा, 'हाथी एक खंभे की भांति है।’—वह हाथी की टागों को छू रहा था। —और वह सही था। उसने अपने हाथों से छुआ था, और फिर उसने याद किया था, खंभों को; वह तो ठीक खंभों की भांति ही था। और इसी तरह ही, उन सबने व्याख्याएं कीं।
ऐसा हुआ कि अमरीका में एक प्राथमिक पाठशाला में एक शिक्षिका ने लड़के—लड़कियों को एक कहानी सुनाई, बिना उन्हें बताए हुए कि वे पांच आदमी जो हाथी के पास आए थे, वे अंधे थे। कहानी मर तनी ज्यादा जानी—पहचानी थी, और शिक्षिका ने अपेक्षा रखी थी कि बच्चे समझ ही जाएंगे। फिर वह पूछने लगी, 'अब मुझे जरा बताओ वे पांच आदमी कौन थे, जो हाथी को देखने के लिए आए थे?' एक स्ढ़ौटे बच्चे ने अपना हाथ उठा दिया और बोला, 'विशेषज्ञ।
विशेषज्ञ सदा ही अंधे होते हैं। वह लड़का वस्तुत: एक खोजी था। यही है सारी कहानी का सार—तत्‍व। वास्तव में, वे विशेषज्ञ थे। क्योंकि एक विशेषज्ञ बहुत थोड़े के बारे में बहुत ज्यादा जानता है। वह अधिकाधिक संकुचित और संकुचित होता जाता है। विशेषज्ञ लगभग अंधा ही हो जाता है सारे संसार के प्रति,  केवल एक खास दिशा में ही वह दृष्टि—संपन्न होता है। अन्यथा वह अंधा ही होता है। उसकी दृष्‍टि ज्‍यादा सीमित और ज्यादा सीमित और ज्यादा सीमित होती जाती है। जितना ज्यादा बड़ा होता है। विशेषज्ञ, उतनी ही सीमित होती है दृष्टि। एक परम विशेषज्ञ को संपूर्ण रूप से अंधा होना होता है। वे  कहते है एक विशेषज्ञ वह आदमी होता है जो थोड़े के बारे में ज्यादा और ज्यादा जानता है।
कुछ शताब्‍दियों पूर्व केवल हुआ करते थे चिकित्सक, डाक्टर, जो शरीर के बारे में सब कुछ जानते थे। विशेषज्ञ नहीं होते थे। अब, यदि तुम्हारे हृदय का कुछ बिगड़ा होता है तो तुम विशेषज्ञ के पास जाते हो, दात में कुछ बिगड़ा होता है, तो तुम चले जाते हो किसी दूसरे विशेषज्ञ के पास।
मैंने सुनी है एक कथा कि एक आदमी आया डाक्टर के पास और बोला, 'मैं बहुत कठिनाई में हूं। मैं ठीक से देख नहीं सकता। हर चीज धुंधली जान पड़ती है।डाक्टर कहने लगा, 'पहले आती हैं पहली चीजें। पहले तो मुझे बताओ तुम कि कौन सी आंख कठिनाई में है, क्योंकि मैं विशेषज्ञ हूं केवल दायीं आंख का ही। यदि तुम्हारी बायीं आंख मुसीबत में है तो तुम दूसरे विशेषज्ञ के पास चले जाओ जो बस मुझसे अगले द्वार पर ही रहता है।जल्दी ही बायीं आंख के विशेषज्ञ और दायीं आंख के विशेषज्ञ अलग हो जायेंगे। ऐसा ही होना है क्योंकि विशेषज्ञता होती जाती है ज्यादा सीमित, और ज्यादा सीमित, और ज्यादा सीमित। सारे विशेषज्ञ अंधे होते हैं। और अनुभव तुम्हें बना देता है एक विशेषज्ञ।
सत्य जानने के लिए तुम्हें विशेषज्ञ नहीं होना है। सत्य को जानत्रे के लिए तुम्हें संकुचित, एकांतिक नहीं होना होता है। सत्य के साथ तालमेल बैठाने के लिए तुम्हें अलग रख देना होता है तुम्हारा सारा ज्ञान, एक ओर रख देना होता है उसे। और उसकी ओर देखना होता है एक बच्चे की आंखों द्वारा, किसी विशेषज्ञ की आंखों द्वारा नहीं, क्योंकि वे आंखें तो सदा ही अंधी होती हैं। केवल एक बच्चे के पास होती हैं वास्तविक आंखें—पूरा—पूरा देखती हुई, हर कहीं, सभी ओर, सभी दिशाओं में देखती हुई। क्योंकि वह कुछ जानता नही है। वह सारे समय सारी दिशाओं में बढ़ रहा होता है। जिस क्षण तुम जान जाते हो, तुम कहीं न कहीं पकड़ में आ गए होते हो। यदि तुम फिर से बालक बन सकी और वास्तविकता को देख सकी बिना किसी अवरोध के, व्याख्या के, बिना किसी अनुभव के, ज्ञान के, विशेषज्ञता के—तो पतंजलि कहते हैं, 'निर्वितर्क समाधि उपलब्ध हो जाती है।क्योंकि जब कोई व्याख्या नहीं होती, तब स्मृति शुद्ध हो जाती है और मन चीजों के सच्चे स्वभाव को देखने योग्य हो जाता है।
पतंजलि समाधि को बहुत सारी परतों में बांट देते हैं। पहले तो वे बात करते हैं 'सवितर्क' समाधि के बारे में। इसका अर्थ होता है तर्कयुक्त समाधि। तुम अभी भी तार्किक व्यक्ति होते हो, तर्कयुक्त समाधि। फिर वे दूसरी समाधि को कहते हैं 'निर्वितर्क', तर्करहित समाधि। अब तुम वास्तविकता के बारे में तर्क नहीं कर रहे होते हो। तुम सत्य की ओर भी तुम्हारे ज्ञान सहित नहीं देख रहे होते। तुम तो बस देख रहे होते हो सत्य की ओर।
वह व्यक्ति जो यथार्थ कौ देखता है तर्कसहित, विवेचना सहित, कभी नहीं देखता सत्य को। वह अपना मन प्रक्षेपित करता है यथार्थ पर। अपने को प्रक्षेपित करने के लिए यथार्थ उसके लिए एक परदे की भांति काम करता है। और जो कुछ भी तुम प्रक्षेपित करते हो, तुम पाओगे वहां। पहले तुम वहां रखते हो उसे, और फिर तुम उसे पा लेते हो वहां। यह एक वंचना है क्योंकि तुम स्वयं रखते हो उसे वहां, और फिर तुम उसे पा लेते हो वहां। वह सच नहीं होता।
नसरुद्दीन एक बार कहने लगा मुझसे, 'मेरी पत्नी संसार की सर्वाधिक सुंदर स्त्री है।मैंने पूछा उससे, 'मुल्ला तुमने इसके बारे में जाना कैसे?' वह बोला, 'कैसे? बहुत सीधी बात है। मेरी पत्नी ने कहा था मुझसे।इसी तरह बात चलती रहती है मन में : तुम इसे यथार्थ पर प्रक्षेपित कर देते हो, और फिर इसे तुम पा लेते हो वहां। यह होता है सवितर्क मन का दृष्टिकोण। निर्वितर्क मन, निर्विकल्प मन, कुछ प्रक्षेपित नहीं करता है। वह तो मात्र देखता है उसे जो भी अवस्था होती है।
क्यों तुम अपने मन द्वारा कुछ प्रक्षेपित किए जाते हो यथार्थ पर? —क्योंकि तुम सत्य से भयभीत होते हो। सत्य के प्रति बना एक गहरा भय होता है वहां। ऐसा हो सकता है कि वह तुम्हारी पसंद का न हो। ऐसा हो सकता है कि वह तुम्हारे विरुद्ध हो, तुम्हारे मन के विरुद्ध हो। क्योंकि सच्चाई स्वाभाविक होती है, इसकी परवाह नहीं करती कि तुम कौन हो—तो तुम भयभीत होते हो। सत्य तुम्हारी आकांक्षा पूर्ति नहीं कर सकता, तो बेहतर होता है उसे न देखना। तुम उसे देखते चले जाते हो, जिस किसी बात की तुम आकांक्षा करते हो। इसी तरह तुमने बहुत सारे जन्म गंवा दिए हैं—इधर—उधर की मूर्खताओं में। और तुम किसी दूसरे को मूर्ख नहीं बना रहे हो, तुम स्वयं को ही मूर्ख बना रहे हो। क्योंकि तुम्हारी व्याख्या और प्रक्षेद्यी द्वारा सत्य परिवर्तित नहीं किया जा सकता। तुम केवल पीड़ित होते हो अनावश्यक रूप से। तुम सोचते हो कि द्वार है और द्वार है नहीं; वह दीवार है। तुम कोशिश करते हो उसमें से गुजरने की। फिर तुम पीड़ित होते हो, फिर तुम जड़ हो जाते हो।
जब तक तुम वास्तविकता नहीं देख लेते हो, तब तक तुम उस कारागृह का द्वार कभी न खोज पाओगे जिसमें कि तुम हो। द्वार का अस्तित्व है, लेकिन द्वार का अस्तित्व तुम्हारी आकांक्षाओं के अनुरूप नहीं हो सकता है। द्वार अस्तित्व रखता है, यदि तुम इच्छाओं को गिरा देते हो तो तुम उसे देख पाओगे। यही है अड़चन : तुम इच्छापूर्ति की धारणा बनाए जाते हो। तुम तो बस विश्वास किए जा रहे हो, और प्रक्षेपित किए जा रहे हो, और हर बार विश्वास टुकड़े—टुकड़े हो जाता है और प्रक्षेपण गिर जाता है। ऐसा बहुत बार घटेगा, क्योंकि तुम्हारे दिवास्वप्न यथार्थ द्वारा परिपूर्ण नहीं किए जा सकते। जब कभी कोई स्वप्न चूर—चूर होता है, एक इंद्रधनुष नीचे जा गिरता है, एक इच्छा मरती है, तुम पीड़ित होते हो। लेकिन तुरंत ही तुम एक और इच्छा, अपनी इच्छाओं का एक और इंद्रधनुष निर्मित करने लगते हो। फिर से तुम बनाने लग जाते हो एक नया इंद्रधनुष जो सेतु होता है तुम्हारे और यथार्थ के बीच।
कोई कहीं चल सकता इंद्रधनुषी सेतु पर? वह लगता है सेतु की भांति; वह होता नहीं है सेतु। वस्तुत: इंद्रधनुष अस्तित्व नहीं रखता; उसकी केवल प्रतीति होती है। यदि तुम जाओ वहां पर तो तुम कोई इंद्रधनुष नहीं पाओगे। यह एक स्वप्न—सदृश घटना होती है। परिपक्वता बनती है इस बोध तक आने में कि, ' अब और प्रक्षेपण और व्याख्या नहीं। अब मैं तैयार हूं उसे देखने को जो कुछ है वस्तुस्थिति।
विटगेस्टीन, इस युग के बड़े प्रखर विचारकों में से एक, उसने अपनी अद्भुत महत्वपूर्ण पुस्तक ' ट्रेक्‍टैटस' आरंभ की इस वाक्य सहित, 'वर्ल्ड इज आल, दैट इज दि केस।तुम स्वप्न देखते जा सकते हे। इसके चारों ओर; उससे मदद न मिलेगी। तुम बंद कर देते हो सपने देखना और समझते हो. 'वर्ल्ड इज आल रन, दैट इज दि केस।क्या तुम बेकार ही अपना जीवन और समय और ऊर्जा नहीं गंवा देते वह कुछ देखने में जो कि वहां है ही नहीं। बंद करो सपने देखना और देखो सत्य को।
यही अर्थ निर्वितर्क समाधि का, समाधि जो होती है बिना तर्क की। यह मात्र एक शुद्ध दृष्टि होती है। तुम इसको लेकर तर्क नहीं करते, तुम्हें तो बस प्रतीति होती है इसकी। तुम कुछ नहीं करते हो इसके बारे में, तुम तो बस इसे वहां होने देते हो और व्यापने देते हो तुममें। सवितर्क समाधि में तुम प्रयत्न करते हो सत्‍य में उतरने का। निर्वितर्क समाधि में तुम सत्य को उतरने देते हो तुम में। सवितर्क समाधि में तुम वास्‍वविकता को उतरने अनुसार बनाने का प्रयत्न करते हो। निर्वितर्क समाधि में तुम प्रयत्न करते हो स्वयं सत्य के अनुसार होने का।

सवितर्क और निर्वितर्क समाधि का जो स्पष्टीकरण है उसी से समाधि की उच्चतर स्थितियां भी स्पष्ट होती हैं। लेकिन सविचार और निर्विचार समाधि की उन उच्चतर अवस्थाओं में ध्यान के विषय अधिक सूक्ष्म होते हैं।

फिर पतंजलि ले आते हैं दो और शब्द, सविचार और निर्विचार। सविचार का अर्थ होता है चिंतन— मनन सहित, और निर्विचार का अर्थ होता है बिना चिंतन—मनन के। वे उच्चतर अवस्थाएं हैं उसी घटना की जिसे वे कहते सवितर्क और निवितर्क। सवितर्क समाधि का यदि अनुसरण किया जाए, तो बन जाएगा सविचार।
यदि तुम तर्कपूर्ण ढंग से सोचो और सोचते ही चले जाओ, तो तर्क के पास एक सीमा होगी। वह अपरिसीम नहीं है। तर्क अपरिसीम हो नहीं सकता। वस्तुत: तर्क सारी असीमताओ को नकारता है। तर्क सदा सीमा के भीतर होता है। केवल तभी यह तार्किक बना रह सकता है, क्योंकि असीम के साथ तो प्रवेश कर जाता है अतर्क। असीम के साथ प्रवेश करते हैं रहस्य, गढ़ताएं, असीम के साथ प्रविष्ट होती हैं अद्भुत बातें। इस प्रवेश के साथ, पडोरा—बाक्स खुल जाता है। अत: तर्क कभी बात नहीं करता असीम की। तर्क कहता है कि हर चीज सीमित है और व्याख्यायित की जा सकती है। हर चीज सीमाओं के भीतर है और समझी जा सकती है। तर्क सदा भयभीत होता है असीम द्वारा। वह जान पड़ता है विशाल अंधकार की भांति, तर्क कंपता है उसमें उतरने से। तर्क स्वयं को रखता है राजमार्ग पर, वह कभी शून्य में नहीं सरकता। राजमार्ग पर हर चीज सुरक्षित होती है और तुम जानते हो कि तुम कहां जा रहे होते हो। एक बार तुम अलग कदम रखते हो और शून्य में सरकते हो, तो तुम नहीं जानते कि तुम जा कहां रहे होते हो। तर्क एक बहुत गहरा भय है।
यदि तुम मुझसे पूछो, तो तर्क सब से बड़ा कायर होता है। लोग जो कि साहसी होते हैं सदा तर्क के पार जाते हैं। लोग जो कायर होते हैं तर्क की काराओं के भीतर बने रहते हैं। तर्क सुंदरतापूर्वक सजायी गयी कैद है, वह किसी विशाल आकाश की भांति नहीं है। आकाश सजा हुआ बिलकुल नहीं है। वह अनसजा है, तो भी वह विशाल है। वह है निर्मुक्तता और निर्मुक्तता का अपना सौंदर्य होता है; उसे किसी सजधज की जरूरत नहीं होती। आकाश अपने में ठीक पर्याप्त है। उसे चित्रित करने को किसी चित्रकार की जरूरत नहीं है, उसे सजाने को किसी साज—सज्जा करने वाले की जरूरत नहीं है। संपूर्ण विस्तार ही इसका सौंदर्य है। लेकिन विस्तार भयभीत करने वाला भी होता है, क्योंकि वह इतना विशाल होता है कि मन बिलकुल ठिठक जाता है उसके सामने; मन तो बहुत छोटा जान पड़ता है। अहंकार बिखर—बिखर जाता है उसके सामने, इसीलिए अहंकार तर्क का, परिभाषाओं का, एक खूबसूरत कारागार बना लेता है —हर चीज सुनिश्चित—स्पष्ट होती है। हर चीज होती है अनुभव किए ज्ञात की—और अपने द्वार बंद कर देता है अज्ञात के प्रति। वह बना लेता है एक अपना ही संसार, एक अलग संसार, एक निजी संसार। वह संसार संबंधित नहीं होता है संपूर्ण से; वह अलग किया जा चुका होता है। संपूर्ण के साथ सारे संबंध कट चुके होते हैं।
इसलिए तर्क किसी को नहीं ले जाएगा परमात्मा की ओर, क्योंकि तर्क मानवीय है, और उसने परमात्मा के साथ के सारे सेतु तोड़ लिए हैं। परमात्मा, दिव्य और बीहड़ है; वह है बड़ा रहस्यपूर्ण और बड़ा विशाल। वह एक बड़ा रहस्य होता है जिसकी थाह नहीं पायी जा सकती है। वह कोई पहेली नहीं जिसे तुम हल कर सको, वह एक रहsy है। उसका स्वभाव ऐसा है कि उसे हल नहीं किया जा सकता है। लेकिन यदि तुम निरंतर तर्कपूर्ण ढंग से सोचते चले जाते हो, तो एक घड़ी आ पहुंचेगी जब कि तुम जा पहुंचोगे तर्क की सीमा तक। यदि तुम अधिक और अधिक सोचते चले जाते हो, तो तर्कपूर्ण सोच परिवर्तित हो जाएगी चिंतन—मनन में, विचार में।
पहला चरण है तर्कयुक्त सोच, और यदि तुम जारी रखते हो उसे, तो अंतिम चरण होगा मनन। यदि दार्शनिक आगे बढता जाए, चलता चला जाए, कहीं रुके नहीं, तो किसी न किसी दिन उसे बनना ही होता है कवि, क्योंकि जब सीमा पार की जा चुकी होती है, तो अचानक वहां होती है कविता। कविता है अवलोकन, मनन; वह है विचार।
इसे ऐसे समझो : एक तार्किक दार्शनिक बैठा हुआ है बाग में और देख रहा है गुलाब के फूल को। वह व्याख्या करता है उसकी। वह वर्गीकरण करता है उसका—वह जानता है किस प्रकार का गुलाब है वह, कहां से आया है वह—गुलाब का शरीर—विज्ञान, गुलाब का रसायन। वह हर चीज के बारे में सोचता है तर्कपूर्ण ढंग से। वह वर्गीकृत करता है उसे, परिभाषित करता है उसे, और चारों तरफ कार्य करता है। वस्तुत: वह गुलाब को छूता बिलकुल नहीं है। सिर्फ चारों तरफ—और चारों तरफ घूमता है उसके आसपास चक्कर और चक्कर लगाता है, तमाम इधर—उधर छूता है झाड़ी को, पर गुलाब को छोड़ देता है।
तर्क नहीं छू सकता है गुलाब को। वह काट सकता है उसे, वह रख सकता है उसे खानों में, वह कर सकता है वर्गीकरण, वह लगा सकता है उस पर लेबल—लेकिन वह छू नहीं सकता है उसे। गुलाब तर्क को छूने नहीं देगा। और यदि तर्क चाहे भी तो ऐसा संभव नहीं। तर्क के पास कोई हृदय नहीं, और केवल हृदय छू सकता है गुलाब को। तर्क केवल सिर की बात है। सिर नहीं छू सकता है गुलाब को। गुलाब अपने रहस्य को उद्घाटित नहीं होने देगा सिर के सामने, क्योंकि सिर है बलात्कार की भांति। और गुलाब खोलता है स्वयं को केवल प्रेम के लिए, किसी बलात्कार के लिए नहीं।
विज्ञान बलात्कार है : कविता प्रेम है। यदि कोई व्यक्ति चलता चला जाता है, आइंस्टीन की भांति तो दार्शनिक हो या कि वैज्ञानिक हो या कि तार्किक हो वह बन जाता है कवि। आइंसटीन अपने अंतिम दिनों में कवि बन गया था। एडिंगटन कवि बन गया था अपने अंतिम दिनों में। वे बोलने लगे थे रहस्यों के बारे में। वे आ पहुंचे थे तर्क की सीमा पर। लोग जो सदा तार्किक बने रहते हैं, वे लोग होते हैं जो बिलकुल चरम सीमा तक नहीं गए होते; वे अपनी तर्कपूर्ण तर्कना के एकदम अंत तक नहीं गए होते। वे वस्‍तुत: तर्कपूर्ण होते ही नहीं। यदि वे वास्तव में तर्कपूर्ण हो जाएं, तो एक घड़ी जरूर आती ही है जहां कि तर्क समाप्‍त हो जाता है और कविता आरंभ होती है।
विचार यानी मनन। एक कवि करता क्या है? —मनन करता है। वह मात्र देखता है फूल की ओर वह उसके बारे में सोचता नहीं है। यही है भेद, पर है बड़ा सूक्ष्म। तार्किक सोचता है फूल के बारे में कवि फूल की ही सोचता है, उसके बारे में नहीं। तार्किक चलता है, चक्कर—दर—चक्कर में।
एक कवि सीधे तौर पर चलता है और साक्षात्कार करता है फूल के पूरे सत्य को ही। एक कवि के लिए, एक गुलाब तो गुलाब ही होता है —तेरे में घिरा विषय नहीं होता। वह सरकता है भीतर की और फूल में। अब स्मृति साथ ही भीतर नहीं लायी जाती है। मन एक ओर रख दिया जाता है; वहां होता है एक सीधा संपर्क।
यह उसी घटना की उच्चतर अवस्था है। गुणवत्ता परिष्कृत हो चुकी है तो भी घटना वही है।
इसीलिए पतंजलि कहते हैं, 'सवितर्क और निर्वितर्क समाधि का जो स्पष्टीकरण है, उसी से समाधि की उच्चतर स्थितियां भी स्पष्ट होती हैं। लेकिन सविचार और निर्विचार समाधि की उच्चतर अवस्थाओं में ध्यान के विषय अधिक सूक्ष्म 'होते हैं।
कवि होता है सविचार में, और कोई भी जो सविचार में प्रवेश करता है कवि हो जाता है। वह फूल की सोचता है, उसके बारे में नहीं सोचता। वह प्रत्यक्ष होता है और तात्कालिक होता है, लेकिन अब भी भेद होता है वहां। कवि फूल से अलग रहता है। कवि होता है व्यक्ति और फूल होता है विषय। द्वैत अस्तित्व रखता है। द्वैत को पार नहीं किया गया है : कवि फूल नहीं बना है, फूल कवि नहीं बना है। द्रष्टा है द्रष्टा ही, और दृश्य अभी भी दृश्य है। द्रष्टा नहीं बना है दृश्य, दृश्य नहीं बना है द्रष्टा। द्वैत अस्तित्व रखता है।
सविचार समाधि में तर्क गिराया जा चुका होता है पर द्वैत नहीं। निर्विचार समाधि में द्वैत भी गिर जाता है। व्यक्ति बस देखता है फूल को, न स्वयं की सोचते हुए और न फूल की सोचते हुए; बिलकुल ही कुछ न सोचते हुए। वह है निर्विचार. बिना सोच—विचार के, चिंतन—मनन के पार। व्यक्ति होता भर है फूल के साथ, नहीं सोच रहा होता है उसके बारे में। वह न तो होता है तार्किक की भांति और न ही होता है कवि की भांति।
अब आता है रहस्यवादी संत, जो कि बस होता है फूल के साथ। तुम नहीं कह सकते कि वह उसके बारे में सोचता है, या कि वह सोचता है। नहीं, वह मात्र उसके साथ होता है और वहां होने देता है स्वयं को। उस होने देने की घड़ी में, अकस्मात वहां चली आती है एकमयता। फूल फूल नहीं रह जाता, और द्रष्टा एक द्रष्टा नहीं रहता। अकस्मात, ऊर्जाएं मिलतीं और घुलमिल जातीं और एक हो जाती हैं। अब द्वैत का अतिक्रमण हो गया। संत नहीं जानता फूल कौन है और कौन देख रहा है उसे। यदि तुम पूछो संत से, रहस्यवादी से, तो वह कहेगा, 'मैं नहीं जानता। हो सकता है वह फूल ही हो जो कि देख रहा हो मुझे। हो सकता है वह मैं ही हूं जो देख रहा हूं फूल को। बात परिवर्तनशील है।वह कहेगा, 'निर्भर करता है और कई बार, वहां न तो मैं होता हूं और न ही फूल। दोनों मिट जाते हैं। एकमयी ऊर्जा ही बच रहती है केवल। मैं बन जाता हूं फूल और फूल बन जाता है मैं।यह होती है निर्विचार की अवस्था, किसी चिंतन—मनन की नहीं, बल्कि अस्तित्व की।
सवितर्क है प्रथम चरण, निर्वितर्क है उसी दिशा में अंतिम चरण। सविचार है प्रथम चरण; उसी दिशा में, निर्विचार है अंतिम चरण, दो धरातल हैं। तो भी पतंजलि कहते हैं कि वही व्याख्या प्रयुक्त होती है। अब तक सर्वोच्च है निर्विचार।
पतंजलि ज्यादा ऊंची अवस्थाओं तक भी पहुंचेंगे, क्योंकि थोड़ी और बातें स्पष्ट करनी हैं, और वे चलते हैं बहुत धीरे — धीरे —क्योंकि यदि वे बहुत तेज चलें तो तुम्हारे लिए समझना संभव न होगा। हर क्षण वे जा रहे हैं ज्यादा और ज्यादा गहरे में। धीरे — धीरे, कदम—दर—कदम, वे तुम्हें ले जा रहे हैं अपरिसीम सागर की ओर। वे नहीं विश्वास रखते है अचानक—संबोधि में, बल्कि विश्वास रखते हैं
क्रमिक—संबोधि में, इसीलिए उनका आकर्षण बहुत बड़ा है।
बहुत सारे लोग हुए हैं जिन्होंने बातें की हैं अचानक—संबोधि के बारे में, लेकिन वे नहीं आकर्षित कर पाए हैं अधिकांश लोगों को, क्योंकि यह बात बिलकुल अविश्वसनीय है कि अचानक संबोधि संभव होती है। तिलोपा कह सकते हैं ऐसा, लेकिन तिलोपा क्या कहते हैं, बात उसकी नहीं। बात है. क्या कोई समझ लेता है इसे? इसीलिए बहुत से तिलोपा मिट गए, लेकिन पतंजलि का आकर्षण जारी रहता है, क्योंकि कोई नहीं समझ सकता तिलोपा के उन जंगली फूलों को। वे अचानक प्रकट हो जाते हैं अविश्वसनीय रूप से और वे कहते हैं, ' अचानक तुम भी बन सकते हो हम जैसे।यह बात समझ में आने जैसी नहीं होती। उनके चुंबकीय व्यक्तित्व के प्रभाव में तुम सुन सकते हो उन्हें, लेकिन तुम विश्वास नहीं कर सकते उनका। जिस क्षण तुम छोड़ते हो उन्हें तो तुम कहोगे, 'यह आदमी कुछ कह रहा है जो मेरे पार का है। यह बात गुजर जाती है मेरे सिर के ऊपर से!'
कई तिलोपा हुए हैं, बोले हैं, प्रयत्न करते रहे हैं, लेकिन वे नहीं कर पाते रहे बहुत सारे लोगों की मदद। कभी—कभार ही कोई समझा होगा उन्हें। इसीलिए तिलोपा को तिब्बत जाना पड़ा था शिष्य खोजने के लिए। यह इतना विशाल देश, और वे नहीं खोज सके एक भी शिष्य। और बोधिधर्म को चीन जाना पड़ा शिष्य खोजने के लिए। यह प्राचीन देश, हजारों साल से कार्य करता रहा है धार्मिक आयामों पर, और उन्हें नहीं मिल सका एक भी शिष्य। हौ, यह कठिन था तिलोपा के लिए, कठिन था बोधिधर्म के लिए एक भी शिष्य को खोजना। कठिन होता है किसी ऐसे को खोजना जो कि समझ सके तिलोपा को, क्योंकि वे बात करते .हैं लक्ष्य की। वे कहते हैं, 'कोई मार्ग नहीं है, और कोई विधि नहीं है।वे खड़े हुए हैं पहाड़ की चोटी पर और वे कहते हैं, 'कोई मार्ग नहीं है।और तुम अपने दुख में खड़े हुए हो अंधकार में और सीलन भरी घाटी में। तुम देखते हो तिलोपा को और तुम कहते हो, 'शायद—पर कैसे, कोई कैसे पहुंचता है?' तुम पूछते चले जाते हो, 'कैसे?'
कृष्णमूर्ति लोगों से कहे चले जाते हैं कि कोई विधि नहीं है, और प्रत्येक प्रवचन के बाद लोग पूछते हैं, 'फिर कैसे? फिर पहुंचें कैसे?' वे कंधे उचका भर देते हैं और क्रोधित हो जाते हैं, 'मैंने कहा है न तुमसे कि कोई विधि है ही नहीं, तो मत पूछना कैसे, क्योंकि कैसे की बात पूछना फिर विधि की बात पूछना ही है।और जो पूछते हैं, ये कोई नए लोग नहीं हैं। कृष्णमूर्ति के पास लोग हैं जो उन्हें सुनते आ रहे हैं तीस या चालीस वर्षों से। तुम उनके प्रवचनों में पाओगे बहुत पहले के पुराने लोग। वे निरंतर गुनते रहे हैं उन्हें, धार्मिक भाव से; निष्ठापूर्वक वे सुनते हैं उन्हें। वे हमेशा जाते है—जब कभी वे वहां तो रो है, वे हमेशा जाते और सुनते हैं। तुम करीब—करीब वही चेहरे पाओगे वहां वर्षों —वर्षों तक, और फिर—फिर पूछते हैं अपनी घाटियों से, 'लेकिन कैसे? '—और कृष्णमूर्ति केवल अपने कंधे झटक देते और कह देते हैं, कोई 'कैसे' है नहीं। तुम बस समझो, और तुम पहुंच जाओ। कहीं कोई मार्ग नहीं है।
तिलोगा, बोधिधर्म, कृष्णमूर्ति—वे आते और चले जाते हैं। उनसे कोई बहुत मदद नहीं आती। लोग थी जो उन्‍हें सुनते हे, आनंद उठाते हैं उन्हें सुनने का। वे एक निश्चित बौद्धिक समझ तक भी पहुंच जाते हैं, लेकिन वे बने रहते  है घाटी में। मैंने स्वयं बहुत से लोगों को देखा है, जो सुनते हैं कृष्णमूर्ति को, लेकिन एक भी ऐसा व्‍यक्‍ति मेरे देखने में नहीं आया जो उन्हें सुन कर अपनी घाटी के पार चला गया हो। वे बने रहते हैं घाटी में और बोलने लगते हैं कृष्णमूर्ति की भांति ही, बस इतना ही। वे कहने लगते हैं दूसरे लोगों को कि कोई रास्ता नहीं और वे बने रहते हैं घाटी में ही।
पतंजलि रहे हैं बड़ी अद्भुत मदद, अतुलनीय। लाखों गुजर चुके हैं इस संसार से पतंजलि की सहायता से, क्योंकि वे अपनी समझ के अनुसार बात नहीं कहते, वे तुम्हारे साथ चलते हैं। और जैसे—जैसे तुम्हारी समझ विकसित होती है, वे ज्यादा गहरे और गहरे और गहरे जाते हैं। पतंजलि पीछे हो लेते हैं शिष्य के; तिलोपा चाहेंगे शिष्य का उनके पीछे चलना। पतंजलि तुम तक आते हैं; तिलोपा चाहेंगे तुम्हारा उन तक चले आना। और निस्संदेह, पतंजलि तुम्हारा हाथ थाम लेते हैं और धीरे— धीरे, वे तुम्हें संभावित उच्चतम शिखर तक ले जाते हैं, वे शिखर जिनकी बात तिलोपा करते हैं लेकिन उस ओर तुम्हें ले नहीं जाते, क्योंकि वे कभी नहीं आएंगे तुम्हारी घाटी तक। वे बने रहेंगे अपने शिखर पर और चिल्लाते रहेंगे वहीं से। वस्तुत: वे क्षुब्ध कर देंगे बहुत सारे लोगों को क्योंकि वे रुकेंगे नहीं।. वे चोटी पर से चिल्लाते रहेंगे, 'ऐसा संभव है। और कोई रास्ता नहीं है, और कोई विधि नहीं है। तुम बस आ सकते हो। वह घटता है, तुम कर नहीं सकते!' वे क्षुब्ध कर देते हैं।
जब कहीं कोई विधि नहीं होती, तो लोग क्षुब्ध हो जाते हैं और वे रोक देना चाहेंगे उनको, कि चिल्लाएं नहीं। क्योंकि यदि कोई राह नहीं, तो कैसे कोई बढ़े घाटी से शिखर तक? वह व्यक्ति तो नासमझी की बात कह रहा है। लेकिन पतंजलि बहुत युक्तियुक्त हैं, बहुत समझदार। वे बढ़ते हैं चरण—चरण, वे तुम्हें ले चलते वहां से जहां कि तुम हो। वे आते हैं घाटी तक, तुम्हारा हाथ थाम लेते हैं और कहते हैं, 'एक—एक करके कदम उठाओ।
पतंजलि ने कहा, 'मार्ग है; विधियां हैं।और वे वास्तव में बहुत ही बुद्धिमान हैं। बाद में, अंत में वे तुम्हें राजी कर लेंगे विधि को गिरा देने के लिए और मार्ग को गिरा .देने के लिए। न मार्ग है, न विधि; कुछ नहीं है; लेकिन केवल अंत पर।
उस वास्तविक शिखर पर जब कि तुम बिलकुल पहुंच चुके होते हो, जब पतंजलि भी तुम्हें छोड़ देते हैं, तो वहां कोई अड़चन नहीं होती। तुम पहुंचोगे अपने से ही। अंतिम घड़ी में वे बन जाते हैं निरर्थक। अन्यथा, वे होते हैं युक्तियुक्त। और वे बने रहे हैं इतने युक्तियुक्त सारे मार्ग पर कि जब वे बन जाते हैं निरर्थक, तो भी वे आकर्षित करते हैं, तो भी वे बहुत उचित जान पड़ते हैं। क्योंकि पतंजलि जैसा आदमी नासमझी की बात कह नहीं सकता है। वे विश्वसनीय हैं।

 सवितर्क और निर्वितर्क समाधि का जो स्पष्टीकरण है उसी से समाधि की उच्चतर स्थितियां भी स्पष्ट होती हैं लेकिन सविचार और निर्विचार समाधि की उच्चतर अवस्थाओं में ध्यान के विषय अधिक सूक्ष्म होते हैं।

 बाद में, ध्यान के विषय को बना देना होता है ज्यादा और ज्यादा सूक्ष्म। उदाहरण के लिए तुम ध्यान कर सकते हो चट्टान पर, या कि तुम ध्यान कर सकते हो फूल पर, या तुम ध्यान कर सकते हो ध्यानी पर। और तब चीजें ज्यादा और ज्यादा सूक्ष्म होती जाती हैं। उदाहरण के लिए, तुम ध्यान कर सकते हो ओम की ध्वनि पर। पहला ध्यान है इसे जोर से कहने का, जिससे कि वह प्रतिध्वनित हो सके तुम्हारे चारों ओर। वह तुम्हारे चारों ओर एक ध्वनि—मंदिर बन जाए। ओम, ओम, ओम! तुम अपने चारों ओर निर्मित करते हो प्रदोलित तरंगें—अपरिष्कृत; पहला चरण। फिर तुम बंद कर लेते हो तुम्हारा मुंह। अब तुम इसे जोर—जोर से नहीं कहते। भीतर तुम कहते हो, ' ओम, ओम, ओम।होंठों को नहीं हिलने देना, जीभ को भी नहीं हिलाना। बिना जीभ और बिना होंठों के तुम कहते हो, ' ओम'। अब तुम निर्मित कर लेते हो एक आंतरिक वातावरण, एक अंतर्जलवायु ओम की। विषय सूक्ष्म हो गया है। फिर है तीसरा चरण : तुम उसका पाठ भी नहीं करते, तुम मात्र सुनते हो उसे। तुम बदल देते हो स्थिति कर्ता की, तुम सरक जाते हो सुनने वाले की निश्चेष्टता की ओर। तीसरी अवस्था में तुम भीतर भी नहीं उच्चारित करते, 'ओम'। तुम बस बैठ जाते हो और तुम सुनते हो उस ध्वनि को, नाद को। वह पहुंचता है क्योंकि वह वहां होता है। तुम मौन नहीं हो, इसीलिए तुम सुन नहीं सकते उसे।
'ओम' किसी मानवी भाषा का शब्द नहीं। उसका कोई अर्थ नहीं है। इसीलिए हिंदू इसे सामान्य वर्णमाला में नहीं लिखते। नहीं, उन्होंने एक अलग रूपाकार बना लिया है इसके लिए, मात्र भेद बतलाने को ही कि वह वर्णमाला का हिस्सा नहीं है। वह अलग से, अपने से ही अस्तित्व रखता है, और उसका कोई अर्थ नहीं है। यह मानवी भाषा का शब्द नहीं। यह स्वयं अस्तित्व का ही नाद है। निःशब्द का नाद है, मौन का नाद है। जब हर चीज मौन होती है तब सुनाई पड़ता है वह। तो तुम बन जाते हो श्रोता। यह इसी भांति बढ़ता जाता है, ज्यादा और ज्यादा सूक्ष्म ढंग से। और चौथी अवस्था में तुम भूल ही जाते हो हर चीज को, कर्ता को, श्रोता को, और नाद को—हर चीज को। चौथी अवस्था में वहां कुछ नहीं होता।
तुमने देखे होंगे झेन के दस ऑक्सहर्डिंग (बैल की खोज) चित्र। पहले चित्र में एक व्यक्ति खोज रहा है अपने बैल को। बैल कहीं चला गया है घने जंगल में। कहीं कोई चिह्न नहीं, कोई पदचिह्न नहीं। बस चारों ओर देख रहा है, वहां वृक्ष और वृक्ष और वृक्ष हैं। दूसरे चित्र में वह ज्यादा खुश जान पड़ता है—पदचिह्न खोज लिए गए हैं। तीसरे में वह थोड़ा चकित है—बैल की पीठ भर ही वृक्ष के निकट दिखाई दी है, पर फिर भी मुश्किल है भेद कर पाना। जंगल बीहड़ है, घना है। शायद यह एक भ्रम ही हो जो कि वह देख रहा है बैल की पीठ को? हो सकता है वह वृक्ष का हिस्सा भर हो। और शायद वह प्रक्षेपण कर रहा हो। फिर चौथे में, उसने पकड़ ली है बैल की पूंछ। पांचवें में, उसने उसे नियंत्रित कर लिया है। चाबुक के साथ। अब बैल उसके अधीन है। छठे में, वह सवारी कर रहा है बैल की। सातवें में, बैल है गौशाला में और वह है घर में। वह प्रसन्न है, बैल खोज लिया गया है। आठवें में, कुछ नहीं है वहां पर; बैल खोज लिया गया। बैल और उसे खोजने वाला, खोजी और जो खोजा गया है, वे दोनों ही तिरोहित हो चुके हैं। तलाश समाप्त हुई।
प्राचीन काल में यही आठ चित्र थे। यह एक पूरा सेट था। शून्यता अंतिम होती है। लेकिन फिर एक बड़े गुरु ने दो चित्र और जोड़ दिए। नौवां : वह व्यक्ति वापस आ गया है। वह फिर से है वहां पर। और दसवें में वह व्यक्ति केवल वापस ही नहीं आया है, वह बाजार में चला गया है, कुछ चीजें खरीदने के लिए। न ही केवल चीजें खरीद रहा है वह, शराब की बोतल भी पकड़ रखी है उसने! यह वस्तुत: ही सुंदर है। यह संपूर्ण है। यदि समाप्ति हो जाती है शून्यता पर, तो कुछ असंपूर्ण रहता है। आदमी फिर वापस लौट आया है, और केवल वापस ही नहीं लौटा है, वह बाजार में है। न ही केवल बाजार में है, उसने खरीद ली है शराब की बोतल।
संपूर्णता बनती जाती है अधिकाधिक सूक्ष्म, अधिक और अधिक सूक्ष्म। एक घडी आती है जब तुम अनुभव करोगे सर्वाधिक सूक्ष्म ही संपूर्ण है। जब हर चीज खाली हो जाती है और वहां कोई चित्र नहीं होता, खोजी और खोजा हुआ दोनों मिट चुके होते हैं। लेकिन यही सच्चा अंत नहीं है। अभी भी वहां सूक्ष्मता है। आदमी वापस चला जाता है संसार में समग्र रूप से रूपांतरित होकर। वह अब पुराना व्यक्ति न रहा। बल्कि पुनर्जन्म होता है उसका। और जब तुम पुनजार्वित होते हो तो, संसार भी वही नहीं रहता। मदिरा अब मदिरा न रही, विष अब विष न रहा, बाजार नहीं रहा बाजार। अब हर चीज स्वीकृत हो गई है। यह बात सुदर है। अब वह उत्सव मना रहा है। यही है प्रतीक : वह शराब।
तलाश जितनी ज्यादा और ज्यादा सूक्ष्म होती जाती है, और ज्यादा और ज्यादा शक्तिपूर्ण होती जाती है चेतना। और एक क्षण आता है जब चेतना इतनी शक्तिशाली हो जाती है कि तुम सहज स्वाभाविक व्यक्ति की भांति जीते हो संसार में, बिना किसी भय के। लेकिन पतंजलि के साथ चरण—चरण बढ़ना। ध्यान के विषय अधिकाधिक सूक्ष्म होते हैं।

इन सूक्ष्म विषयों से संबंधित समाधि का प्रांत सूक्ष्म ऊर्जा की निराकार अवस्था तक फैलता है।
यही है आठवां चित्र। समाधि का आयाम जो कि जुडा हुआ है, इन ज्यादा सूक्ष्म विषयों के साथ, वह अधिकाधिक सूक्ष्म होता जाता है, और एक घड़ी आती है जब आकार मिट जाता है और वहां होता है निराकार।
'……. —सूक्ष्म ऊर्जा की निराकार अवस्था तक फैलता है।
ऊर्जाएं इतनी सूक्ष्म होती हैं कि तुम उनका चित्र नहीं बना सकते। तुम मूर्ति नहीं बना सकते उनकी। केवल शून्यता ही दर्शा सकती है उन्हें, एक शून्य; .वह आठवां चित्र। धीरे— धीरे, तुम समझ जाओगे कि कैसे बाकी के ये दूसरे दो चित्र आ पहुंचे।
पतंजलि को मैं धार्मिक जगत का वैज्ञानिक कहता हूं रहस्यवाद का गणितज्ञ कहता हूं अतर्क्य का तार्किक कहता हूं। दो विपरीतताए मिलती हैं उनमें। यदि कोई वैज्ञानिक पढ़ता है पतंजलि के योग—सूत्रों को तो वह तुरंत ही समझ जाएगा। एक विटगेन्क्रीन, एक तार्किक मन तुरंत एक घनिष्ठ संबंध अनुभव करेगा पतंजलि के साथ।
वे पूर्णतया तर्कयुक्त हैं। और यदि वे ले जाते हैं तुम्हें अतर्क्य की ओर, तो वे ले चलते हैं तुम्हें ऐसे तर्कयुक्त सोपानों द्वारा कि तुम हरगिज नहीं जानते कि कब उन्होंने छोड़ दिया तर्क को और वे ले जा चुके तुम्हें उसके पार।
वे बढ़ते हैं दार्शनिक की भांति, चिंतक की भांति। और वे बनाते हैं इतने सूक्ष्म भेद कि जिस क्षण वे तुम्हें ले जाते हैं निर्विचार में, अ—चितन में, तो तुम नहीं जान पाओगे कि कब लग गई छलांग। उन्होंने उस छलांग को बहुत सारे छोटे सोपानों में काट दिया है।
पतंजलि के साथ तुम कभी भी भय अनुभव नहीं करोगे, क्योंकि वे जानते हैं कि कहां तुम अनुभव करोगे भय। वे सोपानों को ज्यादा और ज्यादा छोटा तराश देते हैं, लगभग ऐसे ही जैसे कि तुम समतल भूइम पर चल रहे होओ। वे इतने धीरे — धीरे तुम्हें ले चलते हैं कि तुम नहीं देख सकते कि कब घट गई छलांग, कब पार कर ली तुमने सीमा।
और वे एक कवि भी हैं और एक रहस्यवादी भी हैं—एक बहुत ही विरल सम्मिलन। रहस्यवादी हुए हैं तिलोपा की भांति; महान कवि हुए हैं उपनिषदों के ऋषियों की भांति; महान तार्किक हुए हैं अरस्तु की भांति, लेकिन तुम दूसरे पतंजलि को नहीं पा सकते। वे ऐसे सम्मिलन हैं कि उनके बाद कोई हुआ ही नहीं जिसकी की तुलना की जा सके उनके साथ।
बहुत आसान है कवि होना क्योंकि तुम एक खंड से बने हुए होते हो। यह लगभग असंभव है पतंजलि होना, क्योंकि तुम्हें समझना होता है इतनी सारी विपरीतताओं को, और इतनी सुंदर सुसंगतता में—वे उन सबको संयुक्त किए रहते हैं।
इसीलिए वे आरंभ और अंत बन गए हैं योग की संपूर्ण परंपरा के।
वस्तुत: यह वे नहीं थे जिन्होंने आविष्कार किया योग का। योग तो बहुत ज्यादा पुराना है। योग वहां था बहुत सदियों से पतंजलि से पहले ही। वे आविष्कारक न थे, लेकिन वे करीब—करीब बन गए आविष्कारक और प्रवर्तक—मात्र अपने व्यक्तित्व के दुर्लभ संयोग के कारण। उनसे पहले बहुत से लोगों ने काम किया है और लगभग हर चीज ज्ञात थी, लेकिन योग तो प्रतीक्षा कर रहा था किसी पतंजलि की। और अकस्मात, पतंजलि उस पर बोले, तो हर चीज एक दिशा में उतर गयी और वे बन गए प्रवर्तक। वे प्रवर्तक नहीं थे, लेकिन उनका व्यक्तित्व विपरीत तत्वों का एक सम्मिलन था, उन्होंने स्वयं में सम्मिलित किए इतने अबोधगम्य तत्व, कि वे हो गए प्रवर्तक या हो गए लगभग प्रवर्तक ही। अब योग सदा जाना जाएगा पतंजलि सहित।
पतंजलि के बाद, फिर बहुतों ने काम किया और बहुत से पहुंच गए योग के अंतरंग की नयी भूमियों तक, लेकिन पतंजलि शिखर बने रहते हैं एवरेस्ट की भांति। यह लगभग असंभव जान पड़ता है कि कभी कोई पतंजलि से ज्यादा ऊंचा शिखर बन पाएगा—लगभग असंभव लगता है। ऐसा विरल संयोग असंभव होता है। तार्किक होना और कवि होना साधारण प्रतिभाओं के लिए संभव है। तुम हो सकते हो तार्किक, एक महान तार्किक, और एक साधारण कवि। तुम हो सकते हो महान कवि और एक बड़े साधारण तार्किक—तीसरे दर्जे के तार्किक। वैसा संभव है; वह कोई बहुत कठिन नहीं। पतंजलि एक प्रतिभावान तार्किक हैं, एक प्रतिभावान कवि हैं, और एक प्रतिभावान रहस्यवादी हैं। अरन्त कालिदास और तिलोपा—सभी एक ही में उतर आए हैं। इसीलिए है आकर्षण।
जितना संभव हो उतने गहरे रूप से समझने की कोशिश करो पतंजलि को, क्योंकि वे मदद करेंगे तुम्हारी। झेन गुरुओं से ज्यादा मदद न मिलेगी। तुम आनंदित हो सकते हो उनसे—ख्य सुंदर घटना होती है वह। तुम श्रद्धा, विस्मय से भर सकते हो; तुम भर सकते हो आश्चर्य से, लेकिन वे मदद न देंगे तुम्हें। दुष्प्राय होगा कि कोई तुम्हारे भीतर पहुंचे जो कि तुम्हें साहस दे सके और तुम्हारी मदद कर सके अतल शून्य में छलांग लगाने में।
पतंजलि देंगे बहुत मदद। वे बन सकते हैं तुम्हारे अस्तित्व की सच्ची नींव, और वे तुम्हें ले जा सकते हैं, धीरे — धीरे। वे तुम्हें ज्यादा समझते हैं किसी और दूसरे व्यक्ति की अपेक्षा। वे देखते हैं तुम्हारी तरफ और वे उस भाषा को बोलने का प्रयत्न करते हैं, जिसे तुम में से कोई भी समझ पाएगा। वे केवल गुरु ही नहीं हैं, वे एक महान शिक्षक भी हैं।

 'शिक्षाविद जानते हैं कि एक महान णि वह नहीं होता जो कि कक्षा के केवल थोड़े से सर्वोच्च
विद्यार्थियों द्वारा समझा जाता हो—मात्र आगे की बैंच पर बैठे हुए विद्यार्थियों द्वारा—पचास की कक्षा में केवल चार या पांच विद्यार्थियों द्वारा। वह कोई बड़ा शिक्षक नहीं होता। बड़ा शिक्षक वह होता है, जिसे कि अंतिम बैंच पर बैठे हुए भी समझ सकते हों।
पतंजलि केवल गुरु ही नहीं हैं, वे हैं एक शिक्षक भी। कृष्णमूर्ति गुरु हैं, तिलोपा गुरु हैं, लेकिन, वे शिक्षक नहीं हैं। वे समझे जा सकते हैं केवल शिखर व्यक्तित्वों द्वारा। यही है समस्या—सर्वोच्च को जरूरत ही नहीं समझने की। वे अपने से ही बढ़ सकते हैं। कृष्णमूर्ति के बिना भी वे उतरेंगे सागर में और पहुंच जाएंगे दूसरे किनारे तक; थोड़े दिन पहले या बाद में, बात यही होती है। अंतिम बैंच पर बैठे हुए जो कि अपने से नहीं बढ़ सकते, पतंजलि हैं उनके लिए। वे आरंभ करते हैं निम्नतम से और, जा पहुंचते हैं उच्चतम तक। उनकी मदद है सबके लिए। वे केवल थोडे से चुने हुओं के लिए नहीं हैं।

आज इतना ही।





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