शासन की आधारशिला: संकल्प—प्रवचन—पहला
सूत्र:
जं इच्छसि अप्पणतो, जं च न इच्छसि
अप्पणतो।
तं इच्छ परस्स
वि या, एत्तियगं
जिणसासणं।।
1।।
अधुवेअसससयम्मि, संसारम्मि
दुक्खपउराए।
किं
नाम होज्ज
तं कम्मयं, जेणाउहं दुग्गइ न गच्छेजा।।
2।।
खणामित्तसुक्खा बहुकालदुक्खा, पगामदुक्खा
अणिगामसुक्खा।
संसारमाक्खस्स विपक्खभूया, खाणी अणत्थाण
उ कामभोगा।।
3।।
सुट्ठवि मग्गिज्जंतो, कत्थवि केलीइ नत्थि
जह सारो।
इंदियाविसएसु
तहां, नत्थि
सुहं सुट्ठ
वि गविट्ठं।।
4।।
जह कच्छुल्लो
कच्छुं, कंडयमाणो दुहं मुणइ
सुक्खं।
वेद कहते
हैं,
परमात्मा
अकेला था।
एकाकीपन उसे
खला, अकेलेपन
से ऊबा। सोचा
उसने, बहुत
हो जाऊं। फिर
उसने बहुत रूप
धरे। ऐसे संसार
निर्मित हुआ।
सृष्टि की यह
कथा है।
स
एकाकी न रेमे, एकोऽहं बहुस्याम्!
अकेला
वह ऊबने लगा।
सोचा बहुत
रूपों को सृजूं, बहुत
रूपों में रमूं।
ब्राह्मण-संस्कृति
इसी सूत्र का
विस्तार है--परमात्मा
का अवतरण, परमात्मा
का फैलाव।
ब्रह्म शब्द
का यही अर्थ है:
जो फैलता चला
जाए, जो
बहुत रूप धरे,
जो बहुत
लीला करे, जो
अनेक-अनेक
ढंगों से
अभिव्यक्त हो,
सागर जैसे
अनंत-अनंत
लहरों में
विभाजित हो जाए।
एक
अनेक बनता है, एक
अनेक में
उत्सव मनाता
है। एक अनेक
में डूबता है,
स्वप्न
देखता है।
माया सर्जित
होती है।
संसार
परमात्मा का
स्वप्न है।
संसार परमात्मा
के गहन में
उठी विचार की
तरंगें हैं।
ब्राह्मण-संस्कृति
ने परमात्मा
के इस फैलाव के
अनूठे गीत
गाए। उससे
भक्ति-शास्त्र
का जन्म हुआ।
भक्ति-शास्त्र
का अर्थ है:
परमात्मा का
यह फैलता हुआ
रूप,
अहोभाग्य
है। परमात्मा
का यह फैलता
हुआ रूप परम
आनंद है।
इसलिए भक्ति
में रस है, फैलाव
है। एक शब्द
में कहें तो
महावीर का जो
बचपन का नाम
है, वह
ब्राह्मण-संस्कृति
का सूचक है।
महावीर का बचपन
का नाम था: वर्द्धमान--जो
फैले, जो
विकासमान हो।
फिर महावीर को
दूसरी ऊर्जा का,
दूसरे
अनुभव का, दूसरे
साक्षात का
सूत्रपात
हुआ। वह ठीक
वेद से उलटा
है।
वेद
कहते हैं, वह
अकेला था, ऊबा,
उसने बहुत
को रचा।
महावीर बहुत
से ऊब गए, भीड़
से थक गए और
उन्होंने
चाहा, अकेला
हो जाऊं।
परमात्मा का
उतरना संसार
में, फैलना
और महावीर का
लौटना वापिस
परमात्मा में!
इसलिए
श्रमण-संस्कृति
के पास अवतार
जैसा कोई शब्द
नहीं है।
तीर्थंकर!
अवतार का अर्थ
है: परमात्मा
उतरे, अवतरित
हो। तीर्थंकर
का अर्थ है: उस
पार जाए, इस
पार को छोड़े।
अवतार का अर्थ
है: उस पार से
इस पार आए।
तीर्थंकर का
अर्थ है: घाट बनाए
इस पार से उस
पार जाने का।
संसार कैसे
तिरोहित हो
जाए, स्वप्न
कैसे बंद हो, भीड़ कैसे
विदा हो; फिर
हम अकेले कैसे
हो जाएं--वही
श्रमण-संस्कृति
का आधार है। वर्द्धमान
कैसे महावीर
बने, फैलाव
कैसे रुके; क्योंकि जो
फैलता चला जा
रहा है उसका
कोई अंत नहीं
है। वह पसारा
बड़ा है। वह
कहीं समाप्त न
होगा। स्वप्न
फैलते ही चले
जाएंगे, फैलते
ही चले
जाएंगे--और हम
उनमें खोते ही
चले जाएंगे।
जागना होगा!
भक्ति-शास्त्र
ने परमात्मा
के इस संसार
के अनेक-अनेक
रूपों के गीत
गाए,
महावीर ने
इस फैलती हुई
ऊर्जा से
संघर्ष
किया--इसलिए
"महावीर' नाम--लड़े,
धारा के
उलटे बहे।
गंगा
बहती है
गंगोत्री से
गंगासागर
तक--ऐसी ब्राह्मण-संस्कृति
है।
ब्राह्मण-संस्कृति
का सूत्र है:
समर्पण; छोड़
दो उसके हाथ
में, जहां
वह जा रहा है; चले चलो; भरोसा
करो; शरणागति!
महावीर
की सारी
चेष्टा ऐसी है
जैसे गंगा
गंगोत्री की
तरफ
बहे--मूलस्रोत
की तरफ, उत्स
की तरफ। लड़ो!
दुस्साहस
करो--संघर्ष, समर्पण
नहीं। महान
संघर्ष से
गुजरना होगा,
क्योंकि
धारा को उलटा
ले जाना है, विपरीत ले
जाना है।
धारा
का अर्थ है:
जाए गंगोत्री
से गंगा सागर
की तरफ। धारा को
उलटा करना
है--राधा
बनाना है।
गंगा चले, बहे
उलटी, ऊपर
की तरफ, पानी
पहाड़ चढ़े। मूल
उदगम की खोज
हो।
ब्राह्मण-संस्कृति
आधी है।
श्रमण-संस्कृति
भी आधी है।
दोनों से
मिलकर पूरा
वर्तुल निर्मित
होता है। और
इसलिए इस देश
में ब्राह्मण
और श्रमणों के
बीच जो संघर्ष
चला,
उसने दोनों
को पंगु किया।
तब
ब्राह्मणों
के पास फैलने
के सूत्र रह
गए, श्रमणों
के पास सिकुड़ने
के सूत्र रह
गए! दोनों ही
अधूरे हो गए; सत्य
आधा-आधा कट
गया। मेरे
देखे, जहां
ब्राह्मण और
श्रमण राजी
होते हैं, सहमत
होते हैं, मिल
जाते हैं, वहीं
परिपूर्ण
धर्म का आविर्भाव
होता है।
निश्चित
ही परमात्मा
थक गया
अकेलेपन से, बहुत
रूप उसने धरे;
लेकिन फिर
बहुत रूप से
भी तो थकेगा,
फिर
विश्राम भी तो
मांगेगा।
इसलिए महावीर
के वचन
वेद-विरोधी
मालूम होंगे;
क्योंकि
वेद बह रहा है
गंगोत्री से
गंगासागर की
तरफ। इसलिए
हिंदुओं ने
समझा कि महावीर
वेद-विरोधी
हैं--प्रतीत
होते हैं।
परमात्मा
अपने घर वापिस
लौटने लगा। ऊब
गया बाजार से,
देख ली
भीड़-भाड़, बहुत
रूप धर लिये, थक गया उनसे
भी। उसने फिर
कहा, अब हो
गया बहुत अनेक,
अब एक होना
चाहता हूं।
इसलिए महावीर
के पास एक
शब्द है जो
बड़ा बहुमूल्य
है। महावीर ने
कहा, मनुष्य
बहुचित्तवान
है; बहुत-बहुत
खंडों में
विभाजित
है--उसे एक
होना है। बहुत
रूपों में
बंटा है--उसे
संगृहीत होना
है। इस
संगृहीत
चैतन्य का नाम
ही महावीर की
भाषा में
परमात्मा है। वर्द्धमान
को महावीर
होना है।
फैलते को
वापिस लौटना
है, क्योंकि
सब फैलाव कामना
का है।
परमात्मा भी
फैला संसार
में कामना से।
कामना ही
फैलती है। तो
जिसे मुक्त
होना है, उसे
सिकुड़ना
होगा। उसे मूल
स्वभाव में
लौट आना होगा।
परमात्मा
उतरा है, हिंदू
विचार
में--अवतरण
हुआ। महावीर
कहते हैं, ऊर्ध्वगमन,
वापिस
लौटना है घर; देख लिया
संसार!
इसलिए
महावीर के
सूत्र
भक्ति-सूत्र
से बिलकुल
विपरीत मालूम
होंगे। घबड़ाना
मत। श्रवण और
ब्राह्मण
मिलकर ही
पूर्ण संस्कृति
का जन्म होता
है। नहीं हो
पाया ऐसा, होना
चाहिए था। अब
भी कुछ देर
नहीं हुई, हो
सकता है। जहां
नारद और वर्द्धमान
महावीर राजी
हो जाते हैं, वहां पूर्ण
वर्तुल पैदा
होता है।
पर
महावीर की
भाषा संघर्ष
की है। महावीर
के पास शरणागति
जैसा कोई शब्द
ही नहीं है।
महावीर कहते
हैं,
अशरण-भावना।
किसी की शरण
मत जाना। अपनी
ही शरण लौटना
है। घर जाना
है। किसी का
सहारा मत पकड़ना।
सहारे से तो
दूसरा हो
जाएगा। सहारे
में तो दूसरा
महत्वपूर्ण
हो जाएगा।
नहीं, दूसरे
को तो त्यागना
है, छोड़ना
है, भूलना
है। बस एक ही
याद रह जाए, जो अपना
स्वभाव है, जो अपना
स्वरूप
है--इसलिए कोई शरणागति
नहीं।
महावीर
गुरु नहीं
हैं। महावीर कल्याणमित्र
हैं। वे कहते
हैं,
मैं कुछ
कहता हूं, उसे
समझ लो; मेरे
सहारे लेने की
जरूरत नहीं
है। मेरी शरण
आने से तुम
मुक्त न हो
जाओगे। मेरी
शरण आने से तो
नया बंधन निर्मित
होगा, क्योंकि
दो बने
रहेंगे। भक्त
और भगवान बना
रहेगा। शिष्य
और गुरु बना
रहेगा। नहीं,
दो को तो
मिटाना है।
इसलिए
महावीर ने
भगवान शब्द का
उपयोग ही नहीं
किया। कहा कि
भक्त ही भगवान
हो जाता है।
इसे
समझना।
विपरीत दिखाई
पड़ते हुए भी
ये बातें
विपरीत नहीं
हैं।
नारद
कहते हैं, भक्त
भगवान में लीन
हो जाता है।
भगवान ही बचता
है, भक्त
खो जाता है।
महावीर कहते
हैं, भक्त
जाग जाता है
अपनी
परिपूर्णता
में, भगवान
खो जाता है, भक्त में
लीन हो जाता
है। भक्त ने
पहचान लिया
अपना
स्वरूप--भगवान
हो गया।
स्वरूप को
पहचान लेना
भगवत्ता है।
इसलिए महावीर
के धर्म में
भगवान नहीं है,
शरणागति नहीं है।
शरण जाने को
ही कोई नहीं
है, जिसकी
शरण चले जाओ।
कोई
प्रार्थना
नहीं, कोई
पूजा नहीं--हो
नहीं सकती; क्योंकि
पूजा में तो
दूसरा जरूरी
होगा। "पर' चाहिए
पूजा को।
महावीर
की भाषा ध्यान
की है, पूजा की
नहीं। और
ध्यान और
प्रार्थना
में यही फर्क
है।
प्रार्थना
में दूसरा
चाहिए। ध्यान में
दूसरे को
मिटाना है, भुलाना है।
इस तरह भुला
देना है कि बस
अकेले तुम ही
बचो, शुद्ध
चैतन्य बचे; दूसरे की
रेखा भी न रहे,
छाया भी न
पड़े। पर दोनों
ही रास्तों से
वहीं पहुंचना
हो जाता है।
जो समर्पण से
बहते हैं, जो
धारा बनते हैं,
आखिर सागर
से बादलों पर
चढ़ कर
गंगोत्री
पहुंच ही जाते
हैं।
उन्होंने
सुगम मार्ग
चुना।
नारद
की यात्रा बड़ी
सरल है।
महावीर की
यात्रा बड़ी
कठिन है।
इसीलिए तो
"महावीर'! वह
योद्धा का
मार्ग है, प्रेमी
का नहीं; संघर्ष
का। लेकिन कुछ
हैं जिनके लिए
वही स्वाभाविक
है। इसलिए
अपने भीतर
देखना। इसकी
फिक्र मत करना
कि किस घर में
पैदा हुए। वह
तो सांयोगिक
है। जैन घर
में पैदा हुए
कि हिंदू घर
में कि
मुसलमान घर
में कि ईसाई
घर में, वह
तो सांयोगिक
है। अपने जीवन
की अंतर्दशा
समझना।
योद्धा बनने
की रुझान है? योद्धा बनने
की तरफ सहज
प्रवाह है? योद्धा होने
में लगता है
स्वरूप
खिलेगा? तो
योद्धा बनना!
तो फिर महावीर
के पीछे चलना।
और लगे कि
लड़ना अपने से
न होगा, वह
अपनी भाषा नहीं
है, लगे कि
समर्पण ही
उचित है, तो
फिर नारद को
चुन लेना।
नारद
एक छोर हैं, महावीर
दूसरे छोर
हैं। और कहीं
न कहीं नारद
और महावीर के
बीच सारे
महापुरुष
हैं--बुद्ध
हों, कृष्ण
हों, राम
हों, मुहम्मद
हों, जरथुस्त्र
हों, जीसस
हों--महावीर
और नारद के
बीच कहीं न
कहीं! लेकिन
महावीर और
नारद परम छोर
हैं। और इसलिए
जैसा नारद ने
भक्ति को उसकी
परम प्रगाढ़ता
में प्रगट
किया है, शरणागति को आखिरी
रूप दिया, आखिरी
परिभाषा दे
दी--उसके पार
परिष्कार
संभव नहीं
है--वैसे
महावीर ने
संघर्ष को
आखिरी रूप दिया
है। अब उसको
और ऊपर उठाने
का कोई उपाय
नहीं है।
महावीर ने
आखिरी बात कह
दी है संघर्ष
के रास्ते पर।
चुनाव
तुम्हें यह
नहीं करना है
कि कौन ठीक
है। दोनों ठीक
हैं। चुनाव तुम्हें
यह करना है कि
कौन हमें जंचता
है।
फूल, गुल,
शम्मोकमर सारे ही थे
पर
हमें उनमें
तुम्हीं भाए
बहुत।
--इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता, कितने
फूल खिले!
फूल, गुल,
शम्मोकमर सारे ही थे!
चंपा
है,
चमेली है, जूही है, केतकी
है, गुलाब
है, कमल
है।
फूल, गुल,
शम्मोकमर सारे ही थे
पर
हमें उनमें
तुम्हीं भाए
बहुत!
फिर
तुम्हें जो भा
जाए वही
तुम्हारा फूल
है। तुम्हें
कमल भा जाए, तुम्हारे
बेटे को गुलाब
भा जाए, तो झगड़ा मत
करना। जो
तुम्हें भा
जाए, वही
तुम्हारे लिए
मार्ग है।
लोग
अकसर उलटा
करते हैं। लोग
सोचते हैं, "कौन
ठीक?' गलत
प्रश्न उठा
लिया।
"महावीर ठीक
कि नारद ठीक?'--तुमने
प्रश्न ही गलत
पूछ लिया। यही
पूछो, कौन जंचता है।
ठीक-गलत, तुम
कैसे निर्णय
करोगे? उस
परम की बातें,
वे ही जानें
जो परम को
उपलब्ध हुए
हैं। तुम तो इतना
ही तय कर लो, कौन-सा
तुमको जंचता
है, कौन-सा
तुम्हारे मन
को भा जाता
है।
मैं, अगर
मुझसे पूछो, तो कहूंगा, सभी ठीक।
लेकिन सभी ठीक
से तो हल न
होगा। क्योंकि
सभी रास्तों
पर तो तुम चल न
सकोगे। द्वार
तो तुम्हें
चुनना ही
होगा। सभी
द्वार उसी के मंदिर
के हैं। लेकिन
फिर भी तुम एक
ही द्वार से
गुजर सकोगे, सभी द्वारों
से न गुजर
सकोगे। सभी
द्वारों से गुजरने
में तो तुम
बड़ी मुश्किल
में पड़ जाओगे।
एक पैर एक
द्वार में डाल
दोगे, एक
हाथ दूसरे
द्वार में डाल
दोगे--तुम अटक
जाओगे। एक से
ज्यादा द्वार
चुन लिये तो द्वार
पहुंचाएंगे
न, अटकाएंगे। तुम अपना
द्वार चुन
लेना। तुम
अपना फूल चुन लेना।
तुम अपनी
रुझान को
पहचानो।
तुम्हें जो भा
जाए वही सत्य
है। जो
तुम्हारे काम
आ जाए वही
सत्य है। जो
द्वार
तुम्हें
पहुंचा दे वही
गुरुद्वारा है।
पहुंचकर तो
तुम भी पाओगे,
अरे! सभी
द्वार यहीं आ
गए। पहुंचकर
तो तुम मिलोगे
उनसे जो दूसरे
द्वारों से
आते थे और
दुश्मन मालूम
पड़ते थे।
क्योंकि
मैंने तो उस
मंदिर में महावीर
और नारद को
आलिंगन करते
देखा है। लेकिन
तुम चुन लेना।
तुम्हारा
चुनाव यह न हो
कि कौन ठीक है।
वह तो बात ही
अभद्र हो गई।
तुम्हारा
चुनाव तो बस
इतना हो:
फूल, गुल,
शम्मोकमर सारे ही थे
पर
हमें उनमें
तुम्हीं भाए
बहुत!
जब
देखिए कुछ और
ही आलम है
तुम्हारा
हर बार
अजब रंग है, हर
बार अजब रूप!
बहुत
रूपों में
सत्य प्रगट
हुआ है। बहुत
रंगों में, बहुत
ढंगों में
प्रगट हुआ है।
और हर बार जब
प्रगट हुआ है
तो अजब ही! तो
बड़ा
आश्चर्यचकित
करनेवाला है,
अवाक कर
जानेवाला है।
नारद को
समझोगे, अवाक
रह जाओगे।
महावीर को
समझोगे, ठगे
रह जाओगे।
जब
देखिए कुछ और
ही आलम है
तुम्हारा
हर बार
अजब रंग है, हर
बार अजब रूप
मगर ये
रूप सब एक के
ही हैं। यह
यात्रा एक ही
है।
ईसाइयत
कहती है, अदम
को परमात्मा
ने स्वर्ग से
बहिष्कृत
किया। निकाला
स्वर्ग के
राज्य से; क्योंकि
आज्ञा उसने न
मानी थी, अनाज्ञाकारी
था। फिर जीसस
ने आज्ञा
मानी। जीसस
वापिस
समारोहपूर्वक
स्वर्ग में
प्रविष्ट
हुए। जिसे अदम
में निकाला था,
वही जीसस
में लौटा। अदम
पहला आदमी है,
जीसस आखिरी
आदमी हैं। अदम
संसार की तरफ
यात्रा
है--धारा।
जीसस संसार से
विपरीत
यात्रा है--राधा।
यहूदियों
की कथाएं थोड़ी
कठोर हैं।
पूरब में लोग
ज्यादा कोमल
भाषा बोलते
हैं।
यहूदी
कहते हैं, परमात्मा
ने बहिष्कृत
किया अदम को।
हम ऐसा नहीं
कहते। हम कहते
हैं, स
एकाकी न रेमे।
वह अकेला था। एकोऽहं
बहुस्याम।
उसने कहा, बहुत
को रचूं।
बहिष्कृत
नहीं हुआ, अवतरित
हुआ। आया, मर्जी
से आया।
और इसे
भी समझ लेना
जरूरी है। तुम
जहां हो, अपनी
मर्जी से हो।
संसार में हो
तो अपनी मर्जी
से हो।
तुम्हारे भीतर
के परमात्मा
ने यही चुना।
कुछ परेशान होने
की बात नहीं। बेमर्जी
से तुम नहीं
हो। अपने ही
कारण हो। अपनी
ही आकांक्षा
से हो। और यह
बड़े सौभाग्य
की बात है कि बेमर्जी
से नहीं हो।
क्योंकि जिस
दिन चाहो, उसी
दिन घर का
द्वार खुला है,
लौट आ सकते
हो। जब तक
चाहो, जा सकते
हो दूर। जिस
दिन निर्णय
करोगे, उसी
दिन लौटना
शुरू हो
जाएगा।
ब्राह्मण-संस्कृति
परमात्मा के
फैलाव की कथा
है।
श्रमण-संस्कृति
परमात्मा के
घर लौटने की
कथा है। तो
निश्चित ही, जो
अकेले में थक
गया था, वह
भीड़ में भी थक
ही जाएगा।
तुमने
अपने भीतर भी
देखा! यही होता
है। बाजार में
थक जाते हो, मंदिर
की आकांक्षा
पैदा होती है।
भीड़ में ऊब जाते
हो, बस्ती
से ऊब जाते हो,
हिमालय
जाने की
आकांक्षा
पैदा होती है।
हिमालय पर जो
बैठे हैं, एकांत
में, उनके
मन में बाजार
आकर्षण
निर्मित करता
है।
मैं
कुछ मित्रों
को लेकर
कश्मीर की
यात्रा पर था।
कश्मीर के
पहाड़ों में, झरनों
में, वे
बड़ा आनंद
अनुभव कर रहे
थे। डल झील पर
उनके साथ मैं
ठहरा था।
हमारा जो माझी
था, जब हम
लौटने लगे तो
वह कहने लगा,
"ऐसा
आशीर्वाद दें
कि एक दफा
बंबई देखनी
है!'
"तू
बंबई देखकर
क्या करेगा?'
उसने
कहा,
"यहां मन
नहीं लगता। और
बंबई बिना
देखे मर गए तो
एक आस रह
जाएगी।'
जो
मेरे साथ आए
थे,
वे बंबई के
मित्र थे। वे चौंके। वे
आए थे कश्मीर।
वे आए थे
हिमालय की शरण
में। और जो
हिमालय की शरण
में पैदा हुआ
था, वह
बंबई आना चाह
रहा था।
तुम
अगर अपने मन
को भी पहचानोगे
तो यही पाओगे।
परमात्मा की
कथा वस्तुतः
तुम्हारी ही
कथा है। कोई
परमात्मा और
तो नहीं। तुम
कोई और तो
नहीं।
परमात्मा की कथा
शुद्ध चेतना
के स्वभाव की
कथा है। ठीक
ही कहते हैं
वेद,
"ऊब गया, अकेला
था। कहा, बहुत
को रचूं।
उसने बहुत
रचे।'
महावीर
कहते हैं, अब
हम बहुत से ऊब
गए; अब घर
वापिस जाने की
आकांक्षा
पैदा होती है।
इसलिए
महावीर के
सूत्रों में
लौटती यात्रा
के सूत्र हैं।
निश्चित ही वे
भिन्न होंगे।
रस की बात न
होगी यहां।
यहां विरसता
की बात होगी। यहां
कामना की, वासना
की बात न
होगी। यहां
त्याग, वैराग्य
की बात होगी।
यहां राग नहीं,
वीतरागता लक्ष्य होगा।
मगर ध्यान
रखना, राग
ही वीतरागता
बनता है। वही
है ऊर्जा, जो
सागर की तरफ
जाती है। वही
है ऊर्जा, जो
गंगोत्री की
तरफ जाती है।
ऊर्जा वही है।
पर महावीर का
मार्ग थोड़ा
कठिन है, क्योंकि
धारा के
विपरीत लड़ना
होगा।
किश्ती
को भंवर में घिरने दे, मौजों
के थपेड़े
सहने दे
जिंदों
में अगर जीना
है तुझे, तूफान
की हलचल रहने
दे
धारे
के मुआफिक
बहना क्या, तौहीने-दस्तो-बाजू है
परवर्द-एत्तूफां
किश्ती को
धारे के
मुखालिफ बहने
दे!
किश्ती
को भंवर में घिरने दे!
महावीर
कहते हैं, संघर्ष
न हो तो सत्य
आविर्भूत न
होगा। जैसे सागर
के मंथन से अमृत
निकला, ऐसे
जीवन के मंथन
से सत्य
निकलता है।
सत्य कोई
वस्तु थोड़े ही
है कि कहीं
रखी है, तुम
गए और उठा ली, कि खरीद ली, कि पूजा की, प्रार्थना
की और मांग ली!
सत्य तो
तुम्हारे जीवन
का परिष्कार
है। सत्य तो
तुम्हारे ही
होने का
शुद्धतम ढंग
है। सत्य कोई
संज्ञा नहीं
है, क्रिया
है। सत्य कोई
वस्तु नहीं है,
भाव है। तो
तुम जितने
संघर्ष में
उतरोगे, जितने
मथे
जाओगे, जितने
जलोगे, जितने तूफानों
की टक्कर लोगे,
उतना ही
तुम्हारे
भीतर सत्य
आविर्भूत
होगा; उतनी
ही तुम्हारी
धूल झड़ेगी;
गलत अलग
होगा; निर्जरा
होगी व्यर्थ
से। झाड़-झंखाड़
ऊग गए हैं, घास-फूस
ऊग आया है--आग
लगानी होगी, ताकि वही
बचे, जिसके
मिटने का कोई
उपाय नहीं।
अमृत ही बचे; मृत्यु को
तो खाक कर
देना होगा। यह
बैठे-बैठे न
होगा। इसके
लिए बड़े प्रबल
आह्वान की, बड़ी प्रगाढ़
चुनौती की
जरूरत है।
किश्ती
को भंवर में घिरने दे, मौजों
के थपेड़े
सहने दे!
भंवर
दुश्मन नहीं
है। महावीर के
रास्ते पर भंवर
मित्र है, क्योंकि
उसी से लड़कर
तो तुम जगोगे;
उसी से उलझकर
तो तुम उठोगे।
उसी की टक्कर
को झेलकर, संघर्ष
करके, विजय
करके, तुम
उसके पार हो
सकोगे। इसलिए
महावीर का
मार्ग कहा
जाता है, "जिन
का मार्ग', जिनों
का मार्ग; उनने,
जिन्होंने
जीता। जिन
शब्द का अर्थ
है: जिसने जीता।
जैन शब्द उसी
जिन से बना।
जिन का अर्थ
है: जिसने
जीता।
सभी
शब्द बड़े
अर्थपूर्ण
होते हैं।
बुद्ध का अर्थ
है: जो जागा।
जिन का अर्थ
है: जो जीता।
जिंदों
में अगर जीना
है तुझे, तूफान
की हलचल रहने
दे।
--यह
प्रार्थना मत
कर कि तूफान
को हटा लो! फिर
तू क्या करेगा?
धारे
के मुआफिक
बहना क्या, तौहीने-दस्तो-बाजू है।
--यह तो
तेरे बाहुओं
का अपमान हो
जाएगा, अगर
तू धारा के
साथ बहा।
धारे
के मुआफिक
बहना क्या.. .
--फिर
तेरे हाथों का
क्या होगा? फिर
तेरी बाजुओं
का क्या होगा?
फिर तेरे बल
को चुनौती
कहां मिलेगी?
यह तो अपमान
होगा तेरी
ऊर्जा का! समर्पण--नहीं!
परवर्द-एत्तूफां
किश्ती को
धारे के
मुखालिफ बहने
दे!
यह
किश्ती तो
तूफान से ही
पैदा होती है।
यह किश्ती तो
तूफान में ही
पलती है। यह
किश्ती तो जन्मती
ही तूफान में
है।
परवर्द-एत्तूफां
किश्ती को...
--इस
तूफान में
पैदा हुई जीवन
की किश्ती को,
धार के
मुखालिफ बहने
दे, उलटा
चलने दे। चल
गंगोत्री की
यात्रा पर!
महावीर
का मार्ग
योद्धा का
मार्ग
है--क्षत्रिय
थे,
स्वाभाविक
है! जैनों के
चौबीस ही
तीर्थंकर क्षत्रिय
थे। लड़ाकों
की बात है। लड़ना
ही जानते थे।
तूफान में ही
किश्ती पली
थी। तलवार ही
उनकी भाषा थी।
युद्ध ही उनका
अनुभव था।
यद्यपि सब
युद्ध छोड़
दिया, अहिंसक
हो गए; पर
क्या होता है,
इससे क्या
फर्क पड़ता है?
चींटी को भी
नहीं मारते थे,
लेकिन
योद्धा होना
तो जारी रहा।
अपने स्वभाव से
कोई भिन्न हो
नहीं पाता।
संसार भी छोड़
दिया, प्रतियोगिता
के सारे स्थान
भी छोड़ दिये, जहां-जहां
संघर्ष, युद्ध
की बात थी, हिंसा
थी, सब छोड़
दिया--लेकिन
फिर भी योद्धा
तो नहीं मिट पाता।
जैनों
के सारे
तीर्थंकर
क्षत्रिय
हैं। यह आकस्मिक
नहीं है। एक
भी ब्राह्मण
तीर्थंकर न हुआ।
ब्राह्मण की
भाषा लड़ने की
भाषा नहीं है; समर्पण
की भाषा है; शरणागति की भाषा है।
बड़ी
मधुर कहानी
है। झूठ ही
होगी, पर मधुर
है। और
माधुर्य इतना
गहरा है उसमें
कि झूठ की मैं
फिक्र नहीं
करता; मेरे
लिए मधुर ही
सत्य है। इतनी
सुंदर है कि सत्य
होनी ही
चाहिए। वही
कसौटी है सत्य
की।
कहानी
है कि महावीर
का जन्म तो
हुआ था एक
ब्राह्मणी के
गर्भ में; पैदा
तो हुए थे
ब्राह्मणी के
गर्भ
में--लेकिन देवताओं
ने कहा, "ऐसा
कभी हुआ है कि
जैन तीर्थंकर
और ब्राह्मण के
घर पैदा हो? ऐसा तो कभी
सुना नहीं। और
ब्राह्मण के
घर पैदा होगा
तो फिर जिन तीर्थंकर
कैसे होगा? फिर तूफान
में किश्ती पल
ही न पाएगी।
फिर संघर्ष की
भाषा ही न
होगी। फिर
उसके जीवन में
तलवार की धार
और चमक न
होगी। देवता
बड़े बिबूचन
में पड़े। और
दुनिया का
पहला आपरेशन
हुआ। उन्होंने
निकाल लिया
ब्राह्मणी के
गर्भ से
महावीर को।
तीन या चार
महीने के थे, तब उन्होंने
गर्भ निकाल
लिया। बदल
दिया गर्भ एक
क्षत्राणी के
गर्भ से। वहां
एक लड़की पैदा
होने को थी, उसे निकालकर
ब्राह्मणी के
गर्भ में रख
दिया, महावीर
को एक
क्षत्रिय के
गर्भ में रख
दिया।
यह भी
बड़ी सूचक है
बात। स्त्री
स्वभावतः
समर्पण की
भाषा जानती
है। इसलिए ठीक
ही किया कि
स्त्री को
निकाल लिया
क्षत्रिय के
गर्भ से, ब्राह्मण
के गर्भ में
रख दिया।
स्त्रैण भाषा समर्पण
की है।
जिनके
मन कोमल हैं, फूल
जैसे कोमल हैं,
उनके लिए
नारद का ही
मार्ग है। पर
जिनके हृदय में
तलवार की चमक
और कौंध है, उनके लिए
महावीर का
मार्ग है।
कहानी सुंदर
है, अर्थपूर्ण
है। इतना कहती
है कहानी कि
"ब्राह्मण के
घर कभी कोई
योद्धा पैदा
हुआ? योद्धा
पैदा होने के
लिए रोएं-रोएं
में, खून-खून
में, हड्डी-मांस-मज्जा
में युद्ध का
स्वर चाहिए।
दूसरी
मजे की बात है
कि चौबीस ही
जैनों के तीर्थंकर
क्षत्रिय घर
में पैदा हुए
और चौबीस ही
तीर्थंकर
अहिंसक हो गए, उन्होंने
हिंसा छोड़ दी।
तलवार लेकर भी
क्या लड़ना! वह
कमजोर के लड़ने
का ढंग है; कमजोरी
को तलवार से
पूरा कर लेता
है। इसलिए आदमी
जितना कमजोर
होता गया है, उतने ही
उसके शस्त्र
मजबूत होते
चले गए हैं। अब
आज तो लड़ने के
लिए कमजोर और
ताकत का कोई
सवाल ही नहीं
है; एटमबम गिराना हो, बच्चा भी
गिरा दे सकता
है। एक बटन
दबा देगा हवाई
जहाज में से, एटमबम गिर
जाएंगे। जिस
आदमी ने एटम
गिराया
हिरोशिमा, नागासाकी
पर, वह कोई
बलशाली आदमी
थोड़े ही था; साधारण
आदमी! और एक
लाख आदमी क्षण
में मार डाले! यह
कमजोर की बात
हो गई।
महावीर
कहते हैं, जो
जितना ही
योद्धा होता
जाएगा उतने ही
शस्त्र छोड़
देगा; उसका
खुद होना ही
पर्याप्त है।
फिर वह मारेगा
भी नहीं, क्योंकि
मारने की भाषा
भी कमजोर की
भाषा है। तुम
दूसरे को
मिटाना चाहते
हो, क्योंकि
तुम दूसरे से
डरते हो--कहीं उसे
जीवित छोड़
दिया, हानि
न करे; कहीं
तुम्हें न मार
डाले! तुम उसी
को मारते हो जिससे
तुम्हें डर है
कि कहीं
तुम्हारी मौत
न आ जाए।
महावीर ने कहा,
वह भी कमजोर
की भाषा है, हम किसी को
मारेंगे
नहीं। अगर कोई
मारने भी आएगा
तो हम मरने को
राजी रहेंगे,
भागेंगे नहीं, लड़ेंगे
भी नहीं।
साधारणतः
दो उपाय हैं:
जब भी तुम पर
कोई हमला करे
तो या तो भागो
या जूझो--दोनों
ही कमजोर के
हैं। जो बहुत
कमजोर है, वह
भाग जाता है; जो उतना
कमजोर नहीं है,
वह लड़ता है।
लेकिन हैं
दोनों ही
कमजोर।
महावीर
कहते हैं, जो
सच में कमजोरी
के पार हो गया,
अभय हो गया,
वह न तो
भागता है न
लड़ता है। वह
कहता है, "खड़े
हैं! हम यहीं
खड़े हैं।
तुम्हें
मारना हो मार डालो।' वह
मर जाता है, लेकिन उसके
हृदय में
हिंसा का भाव
नहीं उठता। वह
मर जाता है, लेकिन उसके
हृदय में
प्रतिहिंसा
नहीं उठती।
यहां
एक बात और समझ
लें,
क्योंकि
फिर सूत्रों
को समझना आसान
होता जाएगा।
जब
परमात्मा ने
सोचा कि अकेला
हूं,
थक गया हूं,
बहुत हो
जाऊं, तो
जीवन पैदा
हुआ। निश्चित
ही महावीर
मृत्यु का
साधन करेंगे।
उलटे लौटना
है। तो जिस
तरह परमात्मा
ने जीवन के
धागे फैलाए थे,
उसी तरह
उनको मृत्यु
के धागे
फैलाने हैं, या जीवन के
धागे काटने
हैं। वृक्ष
खड़ा है, तो
वासना की जड़ें
फैलती हैं
पृथ्वी में, तो ही खड़ा
है। रस लेता
है, आकाश
में फैलाता है
शाखाओं को, सूरज की
किरणें पीता
है। वृक्ष को
मरना हो, वृक्ष
को सिकुड़ना
हो, बीज
में डूबना हो,
वापिस
लौटना हो, तो
फिर जड़ों को
खींच लेगा, फिर शाखाओं
को झुका लेगा,
क्योंकि
फिर सूर्य की
ऊर्जा की कोई
जरूरत न रही।
फिर पृथ्वी के
रस की कोई
जरूरत न रही।
महावीर
के सारे सूत्र
एक गहन अर्थ
में आत्मघात
के सूत्र हैं।
इसलिए तुम
चकित होओगे कि
महावीर अकेले
जाग्रत पुरुष
हैं
जिन्होंने
अपने संन्यासी
को आत्मघात की
भी आज्ञा दी
है। दुनिया
में किसी ने
नहीं दी।
आत्मघात की भी
आज्ञा! दुनिया
का कोई कानून और
दुनिया का कोई
शास्त्र
स्वीकार नहीं
करता कि आदमी
को हक है कि वह
मरना चाहे तो
मर जाए; महावीर
स्वीकार करते
हैं--करना ही
पड़ेगा। यह तर्कयुक्त
है, क्योंकि
वे सिकुड़ने
की तरफ जा रहे
हैं, लौट
रहे हैं वापिस,
तो जीवन के
सब तरफ से
संबंध तोड़
देने हैं। अगर
कोई यह भी
चाहे कि मुझे
पूरे संबंध
अभी छोड़ देने
हैं, तो
कौन दूसरा उसे
रोकने का
हकदार है!
महावीर ने
आखिरी
स्वतंत्रता
आदमी को दी है
कि वह आत्मघात करना
चाहे तो भी
निर्णायक
स्वयं है। अगर
वह मरना चाहे
तो भी हक है
उसका! मृत्यु
मनुष्य का
जन्म-सिद्ध
अधिकार है।
लेकिन ये सब
बातें संगत
हैं उनके साथ।
और उनके सारे
सूत्र, कैसे
जीवन से हमारे
संबंध
छिन्न-भिन्न
हो जाएं, कैसे
यह फैलाव बंद
हो जाए, कैसे
हम वापिस घर
की तरफ लौट
पड़ें, इसके
ही सूत्र हैं।
यह सारा
शास्त्र
मृत्यु का
शास्त्र है।
तबीबों से
मैं क्या पूछूं
इलाजे-दर्दे-दिल।
मरज जब
जिंदगी खुद हो
तो फिर उसकी
दवा क्या है!
महावीर
के लिए जीवन
ही रोग है। और
रोग तो गौण हैं।
और रोग तो मूल
रोग की छायाएं
हैं। जीवन ही रोग
है। जीवन ही
बंधन है। उसी
से मुक्त हो
जाना है।
तो
महावीर का जो
मोक्ष है, वह
महामृत्यु
है--जहां तुम
बिलकुल ही मिट
गए हो; जहां
कुछ भी नहीं
बचा; जहां
परम शून्य
अवतरित होता
है।
अब हम
सूत्रों को
लें:
महावीर
ने कहा है, "जो
तुम अपने लिए
चाहते हो वही
दूसरों के लिए
भी चाहो। और
जो तुम अपने
लिए नहीं चाहते,
वह दूसरों
के लिए भी मत
चाहो। यही जिन
शासन है।
तीर्थंकर का
यही उपदेश है।
समझें!
साधारणतः तुम
जो अपने लिए
चाहते हो, वह
तुम दूसरों के
लिए नहीं
चाहते; क्योंकि
फिर तो अपने
लिए चाहने का
कोई अर्थ ही न
रहा। तुम एक
महल बनाना
चाहते हो अपने
लिए, तो
बहुत गहरे में
तुम पाओगे कि
तुम चाहते हो
कि दूसरा कोई
ऐसा महल न बना
ले, अन्यथा
मजा ही गया।
अगर सभी के
पास महल हों
तो तुम्हारे
पास महल होने
का अर्थ ही
क्या रहा! तुम
एक सुंदर
स्त्री चाहते
हो कि सुंदर
पुरुष चाहते
हो, तो तुम
भीतर यह भी
चाहते हो कि
ऐसी सुंदर
स्त्री किसी
और को न मिल
जाए, अन्यथा
कांटा चुभेगा।
तुम ऐसी सुंदर
स्त्री चाहते
हो जो बस
तुम्हारी हो,
और वैसी
सुंदर स्त्री
किसी के पास न
हो। सुंदर
स्त्री में भी
तुम अपने
अहंकार को ही
भरना चाहते
हो। अपने महल
में भी अहंकार
को भरना चाहते
हो।
तुम जो
अपने लिए
चाहते हो, वह
तुम दूसरे के
लिए कभी नहीं
चाहते। उससे
विपरीत तुम दूसरे
के लिए चाहते
हो--अपने लिए
सुख, दूसरे
के लिए दुख।
लाख तुम कुछ
और कहो, लाख
तुम ऊपर से
कहो कि नहीं, ऐसा नहीं है,
हम सब के
लिए सुख चाहते
हैं--लेकिन
जरा गौर से खोजना!
सब के लिए सुख
तो तुम तभी
चाह सकते हो
जब तुमने जीवन
से अपनी जड़ें तोड़नी
शुरू कर दीं, उसके पहले
नहीं।
क्योंकि जीवन
प्रतिस्पर्धा
है, प्रतियोगिता
है, महत्वाकांक्षा
है, पागलपन
है, छीन-झपट
है, गलाघोंट संघर्ष है।
बड़ी
पुरानी कहानी
है कि एक आदमी
ने बड़ी प्रार्थना-पूजा
की और किसी
देवता को
प्रसन्न कर
लिया। वर्षों
की साधना के
बाद देवता
बोला और देवता
ने कहा, "क्या
चाहते हो?' उसने
कहा, "जो भी
मैं मांगू
वह मुझे मिल
जाए।' देवता
ने कहा, "निश्चित
मिलेगा।
लेकिन एक शर्त
है: तुमसे दुगुना
तुम्हारे पड़ोसियों
को भी मिल
जाएगा।' बस
सब
पूजा-प्रार्थना
व्यर्थ हो गई।
वह आदमी उदास
हो गया। यह भी
क्या
आशीर्वाद हुआ!
क्योंकि मजा
ही इसमें था
कि जो मेरे
पास हो, मेरे
पड़ोसियों
के पास न हो।
आशीर्वाद तो
मिल गया।
आशीर्वाद में
कोई कमी न थी।
देवता ने कहा,
जो तू
चाहेगा उसी
क्षण पूरा
होगा। इसमें
कुछ रुकावट न
थी। लेकिन मन
सुखी न हुआ, प्रसन्न न
हुआ, फूल
खिले नहीं।
बड़ा उदास हो
गया। बड़े उदास
मन से देखा कि
देखें, वरदान
काम भी करता
है या नहीं।
यह कोई वरदान
हुआ! यह तो
खाली, चली
हुई कारतूस
जैसा वरदान
हुआ। इसमें
कुछ रस ही न
रहा।
फिर भी
उसने कहा, देखें
शायद...। कहा कि
एक महल बन
जाए। एक महल
बन गया। लेकिन
जब बाहर आकर
देखा तो बड़ा
मुश्किल में
पड़ गया: दो-दो
महल बन गए थे पड़ोसियों
के। छाती पीट
ली। यह कोई
वरदान हुआ! यह
तो अभिशाप हो
गया। इससे तो
पहली ही भले
थे। अपनी ही
मेहनत से कर
लेते। लेकिन
उसने रास्ते
खोज लिये। आदमी
की हिंसा बड़ी
गहन है! उसने
कहा, "ठीक
है! देवता
धोखा दे गये, हम भी
रास्ता खोज
लेंगे!' मिला
होगा वकीलों
से, सलाह
ली होगी। किसी
वकील ने सुझा
दिया कि इसमें
कुछ घबड़ाने
की बात नहीं
है। जहां-जहां
कानून हैं
वहां-वहां
निकलने का
उपाय है। तू
ऐसा कर, तू
जाकर मांग कि
मेरे घर के
सामने दो कुएं
खुद जाएं।
उसने कहा, "इससे
क्या होगा?' उसने कहा, "तू पहले
कोशिश तो कर।'
दो कुएं
उसके घर के
सामने खुद गए,
पड़ोसियों के सामने
चार-चार कुएं
खुद गए। वकील
ने कहा, "अब
तू प्रार्थना
कर कि मेरी एक
आंख फूट जाए।'
तब समझा वह
राज। उसने कहा,
अरे! मुझे
खयाल में ही न
आया। एक आंख फोड़ने का
वरदान मांग लिया,
पड़ोसियों की दोनों
आंखें फूट
गईं। अब अंधे
पड़ोसी और चार-चार
कुएं घर के
समाने; जो
हुआ, वह हम
समझ सकते हैं।
लेकिन
सुख हमारा
दूसरे के दुख
में है। और
जीवन हमारा
दूसरे की मौत
में है। और
हमारी सारी प्रसन्नता
किसी की उदासी
पर खड़ी है।
हमारा सारा धन
दूसरे की निर्धनता
में है। लाख
तुम दूसरे के
दुख में
सहानुभूति
प्रगट करो, जब
भी दूसरा दुखी
होता है, कहीं
गहरे में तुम
सुखी होते हो।
और तुम्हारी सहानुभूति
में भी
तुम्हारे सुख
की भनक होती है।
तुमने
कभी पकड़ा अपने
को सहानुभूति
प्रगट करते
हुए?
किसी का
दिवाला निकल
गया, तुम
सहानुभूति
प्रकट करने
जाते हो। कहते
हो, बड़ा
बुरा हुआ!
लेकिन कभी
अपना चेहरा
आईने में देखा,
जब तुम कहते
हो, बड़ा
बुरा हुआ, तो
कैसी रसधार
बहती है! तुम
कभी गए, जब
किसी को लाटरी
मिल गई हो, तब
तुम कहने गए
कि बहुत अच्छा
हुआ?
जब कोई
सुखी होता है
तब तुम अपना
सुख प्रगट करने
नहीं जाते; तब
तोर्
ईष्या पकड़ती
है, जलन पकड़ती
है। अंगारे
छाती में बैठ
जाते हैं।
फफोले उठ आते
हैं भीतर, घाव
महसूस होते
हैं, पीड़ा
होती है कि
फिर कोई आगे
निकल गया। तब
तो तुम दूसरी
बातें करते
हो। तुम तो
कहते हो, धोखेबाज
है, बेईमान
है। तब तो तुम
परमात्मा से
कहते हो, "यह
क्या हो रहा
है तेरे जगत
में? अन्याय
हो रहा है!
यहां पापी और
व्यभिचारी
जीत रहे हैं
और
पुण्यात्मा
हार रहे हैं।'
पुण्यात्मा
यानी तुम!
पापी यानी वे
सब जो जीत रहे
हैं!
तुमने
कभी खयाल किया, जब
भी कोई जीत
जाता है, तुम
अपने को
समझाते हो, सांत्वना
देते हो कि
जरूर किसी गलत
ढंग से जीत
गया होगा, कोई
बेईमानी की
होगी, रिश्वत
दी होगी, चालबाजी
की होगी, कोई
रिश्तेदारी
खोज ली होगी
कहीं।
एक
महिला मेरे
पास आई। उसका
बच्चा फेल हो
गया। वह कहने
लगी कि बड़ा
अन्याय हो रहा
है। ये सब शिक्षक
और यह सब
शिक्षा की
व्यवस्था, सब
धोखेबाज, बेईमान
हैं।
जिन्होंने
शिक्षकों को
रिश्वतें
खिला दीं, वे
तो सब
उत्तीर्ण हो
गए, मेरा
लड़का फेल हो
गया। मैंने
कहा, इसके
पहले भी तेरा
लड़का पास होता
आया था, तब
तू कभी भी न आई
कहने कि मेरा
लड़का पास हो
गया, जरूर
किसी न किसी
ने रिश्वत
खिलाई होगी।
जब तेरा लड़का
पास होता है, तब अपनी
मेहनत से पास
होता है; जब
दूसरों के
लड़के पास होते
हैं, तब
रिश्वत से पास
होते हैं!
तुमने
कभी देखे ये
दोहरे मापदंड? जब
तुम सफल होते
हो तो होना ही
था, तुम
प्रतिभाशाली
हो। और जब
दूसरा सफल
होता है, बेईमान!
कहीं कोई धोखे
का रास्ता निकाल
लिया। कोई
चालबाजी कर
गया। जब तुम
हारते हो तो
अपने
पुण्यात्मा
होने की वजह
से हारते हो।
और जब दूसरा
हारता है तो
पापी है, अपने
कर्मों की वजह
से हारता है।
तुमने कभी ये
दोहरे मापदंड
देखे? पर
यह मापदंड ठीक
हैं फैलाव के
रास्ते पर, क्योंकि
फैलाव यानी
प्रतिस्पर्धा।
फैलाव यानी गलाघोंट
संघर्ष।
फैलाव यानी
लड़ना है दूसरे
से। एक-एक इंच
जमीन के लिए
लड़ना है।
एक-एक इंच पद
के लिए लड़ना
है। एक-एक इंच
धन के लिए
लड़ना है।
महावीर
इस पहले सूत्र
में ही
तुम्हें मौत
का पहला पाठ
देते हैं। वे
कहते हैं, जो
तुम अपने लिए
चाहते हो, वही
दूसरों के लिए
भी चाहो। चाह
मरेगी ऐसे।
फिर चाह जी न
सकेगी। चाह की
जड़ ही काट दी।
जो तुम अपने लिए
चाहते हो, वही
दूसरों के लिए
भी चाहो।
जरा
सोचो तुम
चाहते थे कि
एक महल बन
जाए--दूसरों
के लिए भी! उस
चाह में ही
तुम पाओगे कि
तुम्हारे महल
बनाने की चाह
गिर गई। तुम चाहते
थे,
ऐसा हो वैसा
हो, वही
सबको भी हो
जाए--अचानक
तुम पाओगे, पैरों के
नीचे से किसी
ने जमीन खींच
ली।
और जो
तुम अपने लिए
नहीं चाहते, वह
दूसरों के लिए
भी मत चाहो।
लोगों ने अपने
लिए तो स्वर्ग
की कल्पनाएं
की हैं, और
दूसरों के लिए
नर्क का
इंतजाम किया
है। जब भी तुम
सोचते हो अपने
लिए तो स्वर्ग
में सोचते हो,
कल्पना
करते हो। नहीं,
अगर तुम
अपने लिए नर्क
नहीं चाहते तो
दूसरे के लिए
भी मत चाहो।
क्यों
महावीर इस
सूत्र को इतना
मूल्य देते हैं? यह
उनका
आधार-सूत्र
है। यह बड़ा
सीधा और सरल
दिखता है ऊपर,
लेकिन इसका
जाल बहुत गहरा
है और सूत्र
बड़ी गहराई में
तुम्हारे
अचेतन को
रूपांतरित
करने वाला है।
अगर तुम एक
सूत्र को भी
पालन कर लो तो
तुम्हें पूरा
धर्म उपलब्ध हो
जाएगा। अपने
लिए वही चाहो
जो तुम दूसरे
के लिए भी
चाहते हो और
जो तुम अपने
लिए नहीं
चाहते वह
दूसरे के लिए
भी मत
चाहो--अचानक तुम
पाओगे, तुम्हारे
जीवन की
आपाधापी खो
गई। अचानक तुम
पाओगे, प्रतिस्पर्धा
मिट गई, महत्वाकांक्षा
को जगह न रही, बीज सूखने
लगे, जलने
लगे।
यही
जिन शासन है।
एतियगं जिणसासणं।
यही तीर्थंकर
का उपदेश है।
जिन्होंने
जीता है स्वयं
को,
उनका यह
उपदेश है।
"अध्रुव,
अशाश्वत और दुखबहुल
संसार में ऐसा
कौन-सा कर्म
है जिससे मैं
दुर्गति में न
जाऊं?'
महावीर
पूछते हैं, अध्रुव,
अशाश्वत...।
सभी चीजें
प्रतिक्षण
बदली जाती हैं।
यहां कुछ भी
तो शाश्वत
नहीं। पानी पर
खींची लकीर
जैसा है जीवन।
यहां तुम खींच
भी नहीं पाते
लकीर कि मिट
जाती है। यहां
तुम बना भी
नहीं पाते महल
कि विदा होने
का क्षण आ
जाता है।
साज-सामान
जुटा पाते हो,
गीत गा भी
नहीं पाते कि
विदाई
उपस्थित हो
जाती है। जीवन
की तैयारी ही
करने में जीवन
बीत जाता है
और मौत आ जाती
है।
"अध्रुव,
अशाश्वत, दुखबहुल...।' और
जहां दुख
ज्यादा है और
सुख तो केवल
आशा है जहां; जहां सुख के
केवल सपने हैं,
सत्य तो
जहां दुख
है--यहां ऐसे
इस जगत में
कौन-सा ऐसा
कर्म है, जिससे
मैं दुर्गति
में न जाऊं? क्योंकि
कहीं ऐसा न हो
कि व्यर्थ
लकीरें खींचने
में मैं अपने
लिए दुर्गति
बना रहा होऊं।
हम बना रहे
हैं। व्यर्थ
की आकांक्षा
में हम अपने
लिए ऐसा जाल
बुन रहे हैं, जैसे
कभी-कभी मकड़ा
जाल बुनता है
और खुद ही
उसमें फंस
जाता है। और जो
हम बुन रहे
हैं उससे कुछ
मिलने का नहीं
है। उससे कुछ
खो जाता है।
धन
पाने के लिए
लोग कितना
दौड़ते हैं!
पाकर भी क्या
पाते हैं? क्या
मिल पाता है? हाथ तो खाली
के खाली रह
जाते हैं।
मरते वक्त
निर्धन के निर्धन
ही रहते हैं।
मगर सारा जीवन
गंवा देते हैं।
वही जीवन
ध्यान भी बन
सकता था, जिसे
तुमने धन
बनाया। वही
जीवन-ऊर्जा
ध्यान भी बन
सकती थी, जिसे
तुमने धन में
गंवाया। वही
जीवन-ऊर्जा तुम्हारे
जीवन का
आत्यंतिक
समाधान बन सकती
थी, समाधि
बन सकती थी, और तुम
व्यर्थ सामान
जुटाने में
लगे रहे। और सामान
भी ऐसा जुटाया
जो मौत के
क्षण में साथ
न ले जा सकोगे,
मौत जिसे
छीन लेगी। और
सामान भी ऐसा
जुटाया कि न
मालूम कितनों
को दुख दिया, न मालूम
कितनों की
पीड़ा निर्मित
की, न
मालूम कितनों
के लिए नर्क
बनाया। इतना
दुख देकर तुम
सुखी हो कैसे सकोगे?
इतना दुख
तुम पर
लौट-लौट आएगा,
अनंत गुना
होकर बरसेगा।
क्योंकि जगत
तो एक प्रतिध्वनि
है। तुम गीत
गाओ, तुम्हारा
ही गीत
प्रतिध्वनित
होकर तुम पर
बरस जाता है।
तुम गालियां बको, तुम्हारी
ही गालियां
लौटकर तुम पर
बरस जाती हैं,
छिद जाती
हैं।
यह जगत
तो एक
प्रतिध्वनि
मात्र है।
तो
महावीर कहते
हैं,
मौलिक सवाल
यह है कि मैं
कौन-सा कर्म
करूं! इस दुखबहुल
संसार में, इस अशाश्वत
संसार में, जहां सभी
कुछ क्षण-क्षण
में बदला जा
रहा है, जहां
न तो वस्तुओं
का भरोसा है, न देह का
भरोसा है, न
मन का भरोसा
है...।
मुझे
दिल की धड़कनों
का नहीं एतिबार
"माहिर'
कभी हो
गईं शिकवे, कभी
बन गईं दुआएं।
यहां
अपने ही दिल
का भरोसा नहीं
है। क्षणभर में
प्रसन्न है, क्षणभर
में रोता है।
क्षणभर पहले दुआएं दे
रहा था, क्षणभर
बाद शिकायतों
से भर गया।
क्षणभर पहले ऐसा
प्रकाशोज्ज्वल
मालूम होता था
और क्षणभर बाद
गहन अंधकार से
घिर गया। यहां
अपने ही दिल
का भरोसा नहीं,
जो इतने
करीब है! दिल
यानी तुमसे जो
करीब से करीब
है। उसका भी
भरोसा नहीं
है। यहां किस
और चीज का
भरोसा करें!
कलियों
के जिगर अफसुर्दा
हैं,
कांटों की जबानें
सूखी हैं
हम बाग
के धोखे में
शायद, जंगल के
किनारे आ
बैठे।
कहीं
कुछ धोखा हो
गया है। सभी
लोग सुख चाहते
हैं,
मिलता दुख
है। सभी लोग
फूल मांगते
हैं, मिलते
कांटे हैं।
सभी लोग आनंद
के लिए आतुर
और व्यथित हैं,
पाते संताप
हैं।
कलियों
के जिगर अफसुर्दा
हैं,
कांटों की जबानें सूखी
हैं
हम बाग
के धोखे में
शायद, जंगल के
किनारे आ
बैठे।
कहीं
कुछ भूल हो गई
है। कहीं कोई
बुनियादी चूक
हो गई है। हम
शायद समझ नहीं
पा रहे। हम
शायद रेत से
तेल निकालने
की चेष्टा में
संलग्न हैं, अन्यथा
इतना दुख कैसे
होता? सभी
सुख चाहते हों,
इतना दुख
कैसे होता? सभी लोग
अमृत चाहते
हों और मौत ही
घटती है, अमृत
तो घटता दिखाई
नहीं पड़ता।
सभी लोग चाहते
हैं कि नाचते,
प्रसन्न
होते; लेकिन
रसधार रोज-रोज
सूखती चली
जाती है। न
नाच है जीवन
में, न
उमंग है, न
कोई उत्सव है।
"ऐसा
कौन-सा कर्म
करूं, जिससे
इस दुर्गति से
बचूं।'
क्या
करूं? क्या
करना मुझे इस उपद्र्रव
के बाहर ले
जाएगा?
"ये
काम-भोग
क्षणभर सुख और
चिरकाल तक दुख
देनेवाले हैं;
बहुत दुख और
थोड़ा सुख
देनेवाले हैं;
संसार-मुक्ति
के विरोधी, और अनर्थों
की खान हैं।'
थोड़ा-सा
सुख! ऐसे ही है
जैसे कोई
मछलियों को पकड़ने
जाता है, कांटे
पर आटा लगा
देता है। मछलियां
आटे के लिए
आती हैं, कांटे
के लिए नहीं; मिलता कांटा
है। ऐसा ही
लगता है कि
जैसे कोई मछुआ
मजाक किए जा
रहा है। सभी
दौड़ते हैं सुख
के लिए और
आखिर में पाते
हैं, कांटे
छिद गए।
तुमने
भी कितनी बार
सुख नहीं
चाहा! पाया है? महावीर
कहते हैं, शायद
थोड़ा-सा आभास
मिला हो, प्रथम
क्षण में, शायद
उल्लास के
क्षण में कि
मिल गया, तुमने
अपने को धोखा
दे लिया हो; पर जल्दी ही
झूठी पर्तें उघड़ जाती
हैं। जल्दी ही
पता चल जाता
है।
मैंने
सुना, मुल्ला नसरुद्दीन
अपने दफ्तर
में अपने
मालिक से बोला
कि शादी की है,
हनीमून के
लिए पहाड़ जाना
चाहता हूं--दो
सप्ताह, तीन
सप्ताह की
छुट्टी! मालिक
ने कहा, हनीमून
कितने दिन
चलेगा--एक
सप्ताह, दो
सप्ताह, तीन
सप्ताह! उतनी
छुट्टी ले लो।
मुल्ला ने कहा,
आप ही बता
दें। मालिक ने
कहा, मैंने
तुम्हारी
पत्नी को अभी
देखा ही नहीं,
मैं बताऊं
कैसे कितनी
देर चलेगा?
देर-अबेर
हो सकती है, पर
जल्दी ही घड़ी
आ जाती है, जब
प्रेम राख हो
जाता है। कोई
थोड़ी देर तक
अपने को भुलाए
रखता है, कोई
थोड़ी जल्दी
जाग जाता है।
पर देर-अबेर
सभी जाग जाते
हैं। इस संसार
में जो भी
प्रेम है, वह
चाहे धन का हो,
चाहे रूप का
हो, चाहे
पद का हो, वह
देर-अबेर उखड़
ही जाता है।
असलियत कब तक
छिपाए छिपेगी?
असलियत
दुख है। सुख
तो ऊपर का
रंग-रोगन है; जरा
वर्षा पड़ी, बह गया
रंग-रोगन। वह
तो कागज के
फूलों जैसा है;
जरा वर्षा
पड़ी, बिखर
गये, गल
गए।
"ये
काम-भोग
क्षणभर सुख और
चिरकाल तक दुख
देनेवाले हैं;
बहुत दुख और
थोड़ा सुख
देनेवाले हैं;
संसार-मुक्ति
के विरोधी...' संसार से
मुक्त होने के
विरोधी हैं, क्योंकि
इन्हीं की आशा
में तो लोग
अटके रहते हैं,
क्यू लगाए
खड़े रहते हैं:
अब मिला, अब
मिला! अब तक
नहीं मिला, मिलता ही
होगा! लोग राह
ही देखते रहते
हैं, बिना
यह सोचे कि
जिस क्यू में
खड़े हैं उसमें
किसी को भी
कभी मिला? माना
कि कुछ लोग
क्यू में
बिलकुल आगे
पहुंच गए
हैं--कोई
सिकंदर--मगर
सिकंदर से भी
तो पूछो, मिला?
सिकंदर
मर रहा था तो
उसने अपने
चिकित्सकों
से कहा कि मैं
अपनी मां को
बिना देखे
नहीं मरना चाहता
हूं। लेकिन
मां दूसरे
गांव में थी।
या तो वह आए या
सिकंदर वहां
तक पहुंचे। चौबीस
घंटे की कम से
कम जरूरत थी।
और सिकंदर ने
कहा कि मैं सब
कुछ देने को
तैयार हूं; जो
भी तुम्हारी
फीस हो ले लो, लेकिन चौबीस
घंटे मुझे और
जिला लो; जिससे
मैं पैदा हुआ
हूं उससे विदा
तो ले लेने दो;
मां को
देखकर जाना
चाहता हूं।
चिकित्सकों
ने कहा, असंभव
है। सिकंदर ने
कहा, अपना
आधा
साम्राज्य दे
दूंगा। उदास
खड़े चिकित्सक!
उसने कहा, पूरा
ले लो। काश!
मुझे पहले पता
होता कि पूरा
साम्राज्य
देकर भी एक
सांस नहीं
मिलती, तो
अपने जीवनभर
की सांसें इस
साम्राज्य के
लिए क्यों
खराब करता!
लेकिन
इसी आपा-धापी
में,
इसी दौड़-धूप
में सब गया।
एक-एक
सांस इतनी
बहुमूल्य है, तुम्हें
पता नहीं।
इसलिए महावीर
कहते हैं, सोच
लो, कहां
लगा रहे हो
अपनी श्वासों
को! जो मिलेगा,
वह पाने
योग्य भी है? कहीं ऐसा न
हो कि गंवाने
के बाद पता
चले कि जो मूल्य
दिया था, बहुत
ज्यादा था, और जो पाया
वह कुछ भी न
था। असली
हीरों के धोखे
में नकली हीरे
ले बैठे!
कम से
कम मौत से ऐसी
मुझे उम्मीद
नहीं
जिंदगी
तूने तो धोखे
पे दिया है
धोखा!
जिंदगी
सिलसिला है:
धोखे पर धोखा।
"बहुत
खोजने पर भी
जैसे केले के
पेड़ में कोई
सार दिखाई
नहीं देता, वैसे ही
इंद्रिय-विषयों
में भी कोई
सुख दिखाई नहीं
देता।'
लगता
है--लगता है, मूर्च्छा
के कारण।
कभी
किसी कुत्ते
को देखा, सूखी
हड्डी को
चबाते! चबाता
है कितने रस
से! तुम बैठे
चकित भी होओगे
कि सूखी हड्डी
में चबाता
क्या होगा!
सूखी हड्डी
में कोई रस तो
है नहीं। सूखी
हड्डी में
चबाता क्या
होगा! लेकिन
होता यह है कि जब
सूखी हड्डी को
कुत्ता चबाता
है तो उसके ही जबड़ों, जीभ
से, तालू
से लहू--सूखी
हड्डी की
टकराहट से लहू
बहने लगता है।
उसी लहू को वह
चूसता है।
सोचता है, हड्डी
से रस आ रहा
है। हड्डी से
कहीं रस आया
है! अपना ही
खून पीता है।
अपने ही मुंह
में घाव बनाता
है। भ्रांति यह
रखता है कि
हड्डी से रस
आता है। हड्डी
से खून आ रहा
है।
जिन्होंने भी जागकर
देखा है, थोड़ा
अपना मुंह
खोलकर देखा है,
उन्होंने
यही पाया है
कि
इंद्रिय-सुख
सूखी हड्डियों
जैसे हैं, उनसे
कुछ आता नहीं।
अगर कुछ आता
भी मालूम पड़ता
है तो वह
हमारी ही जीवन
की रसधार है।
और वह घाव हम
व्यर्थ ही
पैदा कर रहे
हैं। जो खून हमारा
ही है, उसी
को हम घाव
पैदा कर-कर के
वापिस ले रहे
हैं।
काम-भोग
में जो सुख
मिलता है, वह
सुख तुम्हारा
ही है जो तुम
उसमें डालते
हो। वह
तुम्हारे
काम-विषय से
नहीं आता।
स्त्री को
प्रेम करने
में, पुरुष
को प्रेम करने
में तुम्हें
जो सुख की झलक
मिलती है, वह
न तो स्त्री
से आती है न
पुरुष से आती
है, तुम्हीं
डालते हो। वह
तुम्हारा ही
खून है, जो
तुम व्यर्थ
उछालते हो। पर
भ्रांति होती
है कि सुख मिल
रहा है।
कुत्ते को कोई
कैसे समझाए!
कुत्ता
मानेगा भी
नहीं। कुत्ते
को इतना होश नहीं।
लेकिन तुम तो
आदमी हो! तुम
तो थोड़े होश के
मालिक हो सकते
हो! तुम तो
थोड़े जाग सकते
हो!
"बहुत
खोजने पर भी
जैसे केले के
पेड़ में कोई
सार दिखाई
नहीं देता, वैसे ही
इंद्रिय-विषयों
में भी कोई
सुख दिखाई नहीं
देता।'
"खुजली
का रोगी जैसे खुजलाने
पर दुख को भी
सुख मानता है,
वैसे ही मोहातुर
मनुष्य
काम-जन्य दुख
को सुख मानता
है।'
खुजली
हो जाती है।
जानते हो, खुजलाने से और दुख
होगा, लहू
बहेगा, घाव
हो जाएंगे, खुजली बिगड़ेगी
और, सुधरेगी न। सब जानते
हुए, फिर
भी खुजलाते
हो। एक अदम्य वेग
पकड़ लेता है खुजलाने
का। जानते हुए,
समझते हुए,
अतीत के
अनुभव से
परिचित होते
हुए, पहले
भी ऐसा हुआ है,
बहुत बार
ऐसा हुआ है; फिर भी कोई
तमस, कोई
मोह-निद्रा, कोई अंधेरी
रात, कोई
मूर्च्छा मन
को पकड़ लेती
है, फिर भी
तुम खुजलाए
चले जाते हो!
तुमने
कभी खयाल किया, लोग
जब खुजली को
खुजलाते हैं
तो बड़ी तेजी
से खुजलाते
हैं। क्योंकि
वे डरते हैं।
उन्हें भी पता
है कि अगर
धीरे-धीरे खुजलाया
तो रुक
जाएंगे। बड़े
जल्दी खुजला
लेते हैं, अपने
को ही धोखा दे
रहे हैं। मांस
निकल आता है, लहू बह जाता
है। पीड़ा होती
है, जलन
होती है। फिर
वही अनुभव!
लेकिन दुबारा
फिर खुजली
होगी तो तुम भरोसा
कर सकते हो कि
तुम न खुजलाओगे?
कितनी
बार तुमने
क्रोध किया, कितनी
बार क्रोध से
तुम विषाद से
भरे, कितनी
बार तुम काम
में गए, कितनी
बार हताश
वापिस आए, कितनी
बार आकांक्षा
की और हर बार
आकांक्षा टूटी
और बिखरी, कितनी
बार स्वप्न
संजोए--हाथ
क्या लगा? बस
राख ही राख
हाथ लगी। फिर
भी, दुबारा
जब आकांक्षा पकड़ेगी, दुबारा जब
क्रोध आएगा, दुबारा जब
काम का वेग
उठेगा, तुम
फिर भटकोगे।
मनुष्य
अनुभव से
सीखता ही
नहीं। जो सीख
लेता है, वही
जाग जाता है।
मनुष्य अनुभव
से निचोड़ता
ही नहीं कुछ।
तुम्हारे
अनुभव ऐसे हैं
जैसे फूलों का
ढेर लगा हो, तुमने उनकी
माला नहीं
बनाई। तुमने
फूलों को किसी
एक धागे में
नहीं पिरोया
कि तुम्हारे
सभी अनुभव एक
धागे में
संगृहीत हो
जाते और
तुम्हारे
जीवन में एक
जीवन-सूत्र
उपलब्ध हो
जाता, एक
जीवन-दृष्टि आ
जाती।
अनुभव
तुम्हें भी
वही हुए हैं
जो महावीर को।
अनुभव में कोई
भेद नहीं।
तुमने भी दुख
पाया है, कुछ
महावीर ने ही
नहीं। तुमने
भी सुख में
धोखा पाया है,
कुछ महावीर
ने ही नहीं।
फर्क कहां है?
अनुभव तो एक
से हुए हैं।
महावीर ने
अनुभवों की
माला बना ली।
उन्होंने एक
अनुभव को
दूसरे अनुभव
से जोड़ लिया।
उन्होंने
सारे अनुभवों
के सार को पकड़
लिया।
उन्होंने उस
सार का एक धागा
बना लिया। उस
सूत्र को हाथ
में पकड़कर
वे पार हो गए।
तुमने अभी
धागा नहीं
पिरोया। अनुभव
का ढेर लगा है,
माला नहीं
बनाई। माला
बना लेना ही
साधना है। उसी
की तरफ ये
इशारे हैं।
"खुजली
का रोगी जैसे खुजलाने
पर दुख को भी
सुख मानता है,
वैसे ही मोहातुर
मनुष्य
काम-जन्य दुख
को सुख मानता
है।'
थोड़ा
समझो। हमारी
मान्यता से
बड़ा फर्क पड़ता
है। हमारी
मान्यता से, हमारी
व्याख्या से
बहुत फर्क
पड़ता है।
तुमने
कभी खयाल किया? एक
स्त्री को तुम
आलिंगन कर
लेते हो, सोचते
हो, सुख
मिला। सोचने
का ही सुख है।
ऐसा ही तो
सपने में भी
तुम सोच लेते
हो, तब भी
सुख मिल जाता
है। सपने में
कोई स्त्री तो
नहीं होती, तुम्हीं
होते हो। सपने
में कोई
स्त्री तो नहीं
होती, तुम्हारी
ही धारणा होती
है। हो सकता
है, अपनी
ही दुलाई को
छाती से
चिपटाए पड़े हो,
सपना देख
रहे हो। जागकर
हंसते हो कि
कैसा पागलपन
है!
लेकिन
सपने में भी
उतना ही सुख
मिल जाता है; शायद
थोड़ा ज्यादा
ही मिल जाता
है, जितना
कि जागने की
स्त्री से
मिलता है।
क्योंकि
जागते हुए
स्त्री की
मौजूदगी कुछ
बाधा भी पैदा
करती है। सपने
में तो कोई भी
नहीं, तुम
अकेले ही हो, तुम्हारा ही
सारा भावनाओं
का खेल है।
सपने
में तुम सुख
ले लेते हो
स्त्री को
आलिंगन करने
का,
तो थोड़ा
सोचो तो! सुख
तुम्हारी ही
धारणा का होगा।
जागते में भी
इतना सुख नहीं
मिलता, क्योंकि
जागते में एक
जीवित स्त्री
उस तरफ खड़ी
है। जीवित
स्त्री में
पसीने की बदबू
भी है। जीवित
स्त्री में
कांटे भी हैं।
जैसे तुममें
हैं, ऐसे
उसमें हैं।
जीवित स्त्री
की मौजूदगी
थोड़ी बाधा भी
डालती है।
दूसरे
व्यक्ति की
मौजूदगी
परतंत्र भी
करती है।
परतंत्रता की
पीड़ा भी होती
हैं। स्त्री
हो सकता है, अभी राजी न
हो कि आलिंगन
करो, हाथ
से हटा दे।
लेकिन सपने
में तो कोई
तुम्हें हाथ
से न हटा
सकेगा।
एक
आदमी एक
मनोवैज्ञानिक
के पास गया और
उसने कहा कि
मेरी बड़ी
मुसीबत है, मेरी
सहायता करें।
मैं रात सपना
देखता हूं कि हजारों
सुंदरियां
नग्न मेरे
चारों तरफ
नाचती हैं।
मनोवैज्ञानिक
अपनी कुर्सी
से टिका बैठा
था, सम्हलकर
बैठ गया। उसने
कहा, "यह
परेशानी है? अरे पागल! और
क्या चाहता है?
इसमें
परेशानी कहां
है? तू
अपना राज बता,
कैसे तू यह
सपना पैदा
करता है? क्या
तेरी फीस है, बोल!'
उस
आदमी ने कहा, "परेशानी
यह है कि सपने
में मैं भी
लड़की होता हूं।
यही झंझट है।
मुझे किसी तरह
सपने में आदमी
रहने दो। यही
पूछने आया
हूं।'
सपनों
में सुख मिल
जाता है। सपने
में तुम कभी सम्राट
हुए?
जरूर हुए
होओगे। कोई
कमी नहीं रह
जाती।
चीन
में एक बड़ा
सम्राट हुआ।
उसका एक ही
लड़का था। वह
मरणासन्न पड़ा
था। वह उसके
पास तीन दिन से
बैठा था, तीन
रात से बैठा
था। सारी आशा
वही था। सारी
महत्वाकांक्षा
वही था। फिर
झपकी लग गई
उसकी; तीन
दिन का जागा
हुआ सम्राट, बैठे-बैठे
सो गया। उसने
एक सपना देखा
कि उसके बारह
लड़के हैं--एक
से एक सुंदर, बलिष्ठ, प्रतिभाशाली,
मेधावी।
बड़ा उसका
स्वर्ण से बना
हुआ महल है।
महल के रास्ते
पर
हीरे-जवाहरात
जड़े हैं। बड़ा
उसका
साम्राज्य
है। वह
चक्रवर्ती
है। तभी बाहर
जो बेटा
बिस्तर पर पड़ा
था, वह मर
गया। पत्नी
चीख मारकर
चिल्लाई, सपना
टूटा और
सम्राट ने
सामने मरे हुए
लड़के को पड़ा
देखा। पत्नी
को चीखते
देखा। पत्नी
जानती थी कि
पति को बड़ा
सदमा
पहुंचेगा।
घबड़ा गई, क्योंकि
पति देखता ही
रहा। न केवल
रोया नहीं, हंसने लगा।
पत्नी समझी कि
पागल हो गया।
उसने कहा, "यह
तुम्हें क्या
हुआ? तुम
हंस क्यों रहे
हो?'
उसने
कहा,
"मैं हंस
रहा हूं इसलिए
कि अब किसके
लिए रोऊं! अभी
सपने में बारह
लड़के थे, बड़े
सुंदर थे, यह
कुछ भी नहीं!
बड़े स्वस्थ, बलिष्ठ थे।
जैसे उनकी मौत
कभी आएगी ही न,
ऐसे थे।
अमृत-पुत्र
थे। और बड़ा
महल था, यह
महल झोपड़ा
है! सोने का
बना था। राह
पर
हीरे-जवाहरात
लगे थे। तेरी
चीख ने सब
गड़बड़ कर दिया।
न तेरा मुझे पता
था, न इस
बेटे का मुझे
पता था; सपने
में तुम ऐसे
ही खो गए थे, जैसे अब
सपना खो गया।
अब मैं सोचता
हूं, किसके
लिए रोना! उन
बारह के लिए
रोऊं पहले कि
इस एक के लिए
रोऊं? इसलिए
हंसी आती है।
हंसी आती है
कि रोना व्यर्थ
है। हंसी आती
है कि वह भी एक
सपना था, यह
भी एक सपना
है। वह
आंख-बंद का
सपना था, यह
आंख-खुली का
सपना है।'
तुम
जिसे सुख मान
लेते हो, वह
सुख मालूम
पड़ता है। कई
दफा दुख को भी
तुम सुख मान
लेते हो, सुख
मालूम पड़ता
है। पहली दफा
जब कोई सिगरेट
पीता है तो
सुख नहीं
मिलता, दुख
ही मिलता है, खांसी आ
जाती है, धुआं
सिर में चढ़
जाता है, चक्कर
मालूम होता है,
घबड़ाहट लगती है।
आखिर धुआं ही
है--गंदा धुआं
है। उसको भीतर
ले जाने से
सुख कैसे हो
सकता है? लेकिन
फिर धीरे-धीरे
अभ्यास करने
से...
"रसरी आवत जात है,
सिल पर पड़त
निशान।' फिर
घिसते-घिसते
रस्सी के, अभ्यास
करते-करते..."करत-करत
अभ्यास के जड़मति
होत सुजान।' पहले जड़मति
थे, अकल न
थी, इसलिए
धुआं पीया
और मजा न आया।
फिर बुद्धि आ
जाती है
अभ्यास से।
फिर मजे से
पीने लगते
हैं। फिर बिना
पीए कष्ट
मिलने लगता
है। शराब पहली
दफे पीकर देखी,
बेस्वाद है,
तिक्त है।
फिर धीरे-धीरे
वही मधुर होने
लगती है। शराब
जैसी तिक्त
वस्तु मधु
जैसी मधुर
मालूम होने
लगती है।
अभ्यास...।
तुम
अगर अपने जीवन
के सुख-दुख की
ठीक से छानबीन
करोगे तो तुम
पाओगे: जो
तुमने सुख मान
लिया, वह सुख; जो तुमने
दुख मान लिया,
वह दुख।
पूरब, सुदूर
पूर्व में कुछ
छोटे-छोटे
कबीले हैं। वे
चुंबन नहीं
करते। उन्हें
पता ही न था जब
तक वे सभ्यता के
संपर्क में न
आए कि लोग
चुंबन भी करते
हैं। और जब
उन्होंने
देखा कि
स्त्री-पुरुष
चुंबन करते
हैं तो वे
बहुत घबड़ाए,
बड़ा वीभत्स
उन्हें मालूम
हुआ। यह भी
कोई बात हुई!
ओंठ, झूठे
ओंठ, गंदे
ओंठ, लार
और थूक से सने
ओंठ, एक-दूसरे
पर रगड़ रहे
हैं और कहते
हैं, मजा आ
रहा है!
उन्होंने कभी
सदियों में
चुंबन नहीं
लिया। उन्हें
पता ही न था।
वे जो करते
हैं, अगर
तुम करोगे तो
बहुत हैरान
होओगे। वे
एक-दूसरे से
नाक रगड़ते
हैं। तुमने
कभी रगड़ी
नाक? रगड़ोगे तो पागल
मालूम पड़ोगे,
यह क्या कर
रहे हो! कोई
देख न ले! अपनी
प्रेयसी से भी
नाक न रगड़ोगे,
क्योंकि वह
भी सोचेगी कि
तुम्हारा
दिमाग खराब है,
नाक रगड़ते
हो! लेकिन वह
कबीला सदियों
से नाक रगड़ता
रहा है। वही
उनका चुंबन
है। ज्यादा हाइजिनिक!
अगर चिकित्साशास्त्रियों
से पूछो तो
तुमसे बेहतर
है। कम से कम
नाक ही रगड़ते
हैं, कोई कीड़ों का
और कीटाणुओं
का आदान-प्रदान
तो नहीं करते।
अब चुंबन में
तो कोई लाखों कीटाणुओं
का
आदान-प्रदान
हो जाता है।
मैंने
सुना, एक आदमी
अपने डाक्टर
के पास गया।
बड़ा घबड़ाया हुआ
था। और उसने
कहा कि यह
चेचक की
बीमारी बड़े जोर
से फैल रही
है। और मेरे
लड़के को भी लग
गई है।
डाक्टर
ने कहा, "घबड़ाने की कोई बात
नहीं है। फैली
है। महाकोप
उसका है। सावधान
रहो, संक्रामक
है, पर घबड़ाने
की कोई बात
नहीं। लड़का भी
ठीक हो जाएगा।'
उसने कहा, "ठीक हो
जाएगा जब, बात
अलग। लड़का
मेरी नौकरानी
को चूमता है, इससे मुझे घबड़ाहट हो
गई है।'
"और
तुम समझाये
नहीं?'
उसने
कहा कि "अब समझाने
का क्या है, मैं
भी उसको चूम
लिया हूं। और
इतना ही नहीं
है...।'
फिर भी
डाक्टर ने कहा, "घबड़ाओ मत, ठीक
हो जाएगा।'
पर
उसने कहा, "इतना
ही मामला नहीं
है, मैंने
पत्नी को भी
चूम लिया है।'
डाक्टर
घबराया। उसने
कहा कि "रुको
जी, बकवास
बंद करो!
पत्नी को भी
चूमा है? पहले
मैं अपनी जांच
करवाऊं, क्योंकि
तुम्हारी
पत्नी को मैं
भी चूम बैठा हूं!'
अब तक
शांत था।
बीमारियां...लेन-देन
हो रहा है! लोग
कह रहे हैं, बड़ा
सुख मिल रहा
है। चुंबन
जैसा सुख...! पर
कभी तुमने
सोचा, कभी जागकर
देखा? सुख
क्या हो सकता
है? तुम भी चौंकोगे, क्योंकि तुमने
कभी जागकर
सोचा नहीं, ध्यान नहीं
किया। तुमने
जिन-जिन बातों
में सुख माना
है, उनमें
फिर से तो
विचार करो!
फिर से एक बार
पुनर्विचार
करो। तटस्थ
भाव से, वैज्ञानिक
दृष्टि से
निरीक्षण
करो। तुम बहुत
हैरान हो
जाओगे, तुम्हारे
सुख तुम्हारी
मान्यताओं के
सुख हैं। जो
मान लिया, जो
पकड़ लिया
अचेतन में, वही सुख
मालूम हो रहा
है। जैसे ही
जागोगे, वैसे
ही तुम्हारे
सुख विदा हो
जाएंगे। तुम
इस जीवन में
दुख ही दुख
पाओगे।
महावीर
का सारा
साधना-शास्त्र
इस अनुभूति पर
निर्भर है कि
तुम्हें जीवन
में परम दुख
का अनुभव हो
जाए।
खुदा
की देन है
जिसको नसीब हो
जाए
हर एक
दिल को गमे-जाविंदा
नहीं मिलता
--यह जो
परम दुख है, यह परमात्मा
की अनुकंपा से
मिलता है। यह
परम दुख, यह
स्थायी दुख का
बोध कि यहां
सब दुख है--"गमे-जाविंदा'--यह स्थायी
गम...
खुदा
की देन है
जिसको नसीब हो
जाए
हर एक
दिल को गमे-जाविंदा
नहीं मिलता
महावीर
को मिला।
तुम्हें भी
मिल सकता है।
है तो, मिला तो
है। तुम देखते
ही नहीं। तुम
छिटकते हो।
तुम देखने से
बचना चाहते
हो।
लोग
अपने जीवन के
सत्य को देखने
से बचना चाहते
हैं,
क्योंकि
डरते हैं। और
डर उनका
स्वाभाविक
है। डरते हैं
कि कहीं जीवन
का सत्य देखा
तो कहीं दुख
ही दुख हाथ
में न रह जाए।
इसलिए पीठ किए
रहते हैं।
इसलिए आंख
बचाए चले जाते
हैं। इसलिए
आंख बंद कर
लेते हैं। मगर
ऐसे तुम किसे
धोखा दे रहे
हो? यह
धोखा स्वयं को
ही दिया गया
धोखा है।
एक
कहानी मैंने
सुनी है। एक
शहर में एक नई
दुकान खुली।
जहां कोई भी
युवक जाकर
अपने लिए एक
योग्य पत्नी
ढूंढ़ सकता था।
एक युवक उस
दुकान पर
पहुंचा।
दुकान के अंदर
उसे दो दरवाजे
मिले। एक पर
लिखा था, युवा
पत्नी; और
दूसरे पर लिखा
था, अधिक
उम्र वाली
पत्नी! युवक
ने पहले द्वार
पर धक्का
लगाया और अंदर
पहुंचा। फिर
उसे दो दरवाजे
मिले। पत्नी
वगैरह कुछ भी
न मिली। फिर
दो दरवाजे!
पहले पर लिखा
था, सुंदर;
दूसरे पर
लिखा था, साधारण।
युवक ने पुनः
पहले द्वार
में प्रवेश किया।
न कोई सुंदर
था न कोई
साधारण, वहां
कोई था ही
नहीं। सामरे
फिर दो दरवाजे
मिले, जिन
पर लिखा था:
अच्छा खाना
बनानेवाली और
खाना न बनानेवाली।
युवक ने फिर
पहला दरवाजा
चुना। स्वाभाविक,
तुम भी यही
करते। उसके
समक्ष फिर दो
दरवाजे आए, जिन पर लिखा
था: अच्छा
गाने वाली और
गाना न गाने
वाली। युवक ने
पुनः पहले
द्वार का
सहारा लिया और
अब की उसके
सामने दो दरवाजों
पर लिखा था:
दहेज लानेवाली
और न दहेज लानेवाली।
युवक ने फिर
पहला दरवाजा
चुना। ठीक
हिसाब से चला।
गणित से चला।
समझदारी से
चला। परंतु इस
बार उसके
सामने एक
दर्पण लगा था,
और उस पर
लिखा था, "आप
बहुत अधिक
गुणों के
इच्छुक हैं।
समय आ गया है
कि आप एक बार
अपना चेहरा भी
देख लें।'
ऐसी ही
जिंदगी है:
चाह,
चाह, चाह!
दरवाजों
की टटोल। भूल
ही गए, अपना
चेहरा देखना
ही भूल गए!
जिसने अपना
चेहरा देखा, उसकी चाह
गिरी। जो चाह
में चला, वह
धीरे-धीरे
अपने चेहरे को
ही भूल गया।
जिसने चाह का
सहारा पकड़
लिया, एक
चाह दूसरे में
ले गई, हर
दरवाजे दो दरवाजों
पर ले गए, कोई
मिलता नहीं। जिंदगी
बस खाली है।
यहां कभी कोई
किसी को नहीं
मिला। हां, हर दरवाजे
पर आशा लगी है
कि और दरवाजे
हैं। हर दरवाजे
पर तख्ती मिली
कि जरा और
चेष्टा करो। आशा
बंधाई। आशा
बंधी। फिर
सपना देखा।
लेकिन खाली ही
रहे। अब समय आ
गया, आप भी
दर्पण के
सामने खड़े
होकर देखो।
अपने को
पहचानो!
जिसने
अपने को
पहचाना वह
संसार से फिर
कुछ भी नहीं
मांगता।
क्योंकि यहां
कुछ मांगने
जैसा है ही
नहीं। जिसने
अपने को
पहचाना, उसे
वह सब मिल
जाता है जो
मांगा था, नहीं
मांगा था। और
जो मांगता ही
चलता है, उसे
कुछ भी नहीं
मिलता है।
इस
जिंदगी में
तुम न केवल अपने
को धोखा दे
रहो हो; तुम्हारे,
जिनको तुम
अपने कहते हो,
उनको भी
धोखा दे रहे
हो। घर में एक
बच्चा पैदा होता
है। तुम तो
धोखे में जीए
ही, तुम
यही धोखा उसको
भी सिखाते हो।
तुम तो दुख में
जीए ही, तुम
इसी दुख का
शिक्षण उसे भी
देते हो। ऐसे
पागलपन हटता
नहीं संसार से,
बढ़ता है। हम
अपनी
बीमारियां
दूसरों को
दिये चले जाते
हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
ने अपने लड़के
पर रौब गांठने
के लिए एक दिन
शिकार पर उसे
साथ ले गया।
वहां एक पक्षी
पर निशाना
साधते हुए
लड़के से बोला, "देख
बेटे! मेरा
निशाना कितना
अचूक होता है!'
यह कहकर
उसने गोली
दागी। हमेशा
की तरह, निशाना
चूक गया। यह
देखकर कि लड़का
बहुत ध्यान से
उड़ते पक्षी की
ओर देख रहा है,
मुल्ला नसरुद्दीन
ने कहा, "देख
बेटे, देख!
आश्चर्य देख!
मरकर भी पक्षी
उड़ान भर
रहा है!'
मगर
कोई मानने को
राजी नहीं है
कि निशाना
अपना चूक गया
है। बाप का
निशाना चूक
गया है, लेकिन
बेटे से कह
रहा है, "देख,
बेटे देख!
निशाना तो लग
गया, चमत्कार
देख! फिर कभी
मौका मिले न
मिले। पक्षी
मरकर भी उड़
रहा है!'
अगर
तुम्हारा
निशाना चूक
गया हो तो
किसी को भूलकर
भी यह आभास मत
देना कि लग
गया है। अपनी
हार को
स्वीकार कर
लेना। इससे
तुम्हें भी लाभ
होगा, औरों को
भी लाभ होगा।
अपनी पराजय को
मान लेना, क्योंकि
तुम्हारी
पराजय ही
तुम्हारी विजयऱ्यात्रा
का पहला कदम
बनेगी। धोखा
मत दिये चले
जाना। यह अकड़
व्यर्थ है। इस
अकड़ का कोई
सार नहीं है।
महावीर
इस अकड़ को
तोड़ने के लिए
ही ये सूत्र
कह रहे हैं।
हम वही-वही
मांगे चले
जाते हैं। हर
बार हारते हैं, फिर
वही मांगते
हैं। कभी-कभी
तो हमारी
मांगें ऐसी
असंगत और मूढ़तापूर्ण
होती हैं, लेकिन
चूंकि हमारी
मांगें हैं, हम न तो उनकी मूढ़ता
देखते, न
असंगति देखते
हैं।
एक
भिखारी ने
लाटरी का टिकट
खरीदा और
भगवान से
प्रार्थना की
कि हे प्रभु!
मुझे लाटरी का
पहला इनाम दे
दो,
जिससे मैं
कार खरीद
सकूं। पैदल
भीख मांगते-मांगते
तो मेरी
टांगें टूटी
जाती हैं।
कार
में भी भीख ही मांगेगा!
जैसे हमें कोई
होश ही नहीं
है। तुम क्या
मांग रहे हो? तुम
जो मांगते हो,
उसमें फिर
तुम वही मांग
रहे हो, वही
पुराना ढांचा
जिसमें तुम
जन्मों-जन्मों
से जी रहे हो; और जिसमें
सिवाय दुख, सिवाय पीड़ा
और संताप के
कुछ भी नहीं
पाया है।
एक
छोटे शहर के
चौधरी घूमने
के खयाल से
दिल्ली
पहुंचे। तो एक
मामूली से
परिचित सज्जन
के घर जा धमके
और बातें करने
लगे।
बहुत
देर तक, जब
उसने वहां से
जाने का नाम न
लिया तो घर
वाले सज्जन ने
अपने नौकर को आवाज
देकर बुलाया
और कहा, "भाई
सामान बांधो
और चलने की
तैयारी करो।'
चौधरी
और नौकर दोनों
आश्चर्य में
पड़ गए कि एकाएक
कहां जाने की
तैयारी है।
आखिर में
चौधरी के
पूछने पर कि
इस वक्त कहां
जा रहे हैं, सज्जन
ने कहा, "भाई!
मकान पर तो
आपने अधिकार
कर ही लिया
है। क़हीं
सामान भी हाथ
से न जाता रहे,
इसलिए यहां
से भागना
अच्छा है।'
इससे
उलटी हालत
तुम्हारी है।
मकान पर तो
अधिकार हो ही
गया है संसार
का,
सामान पर भी
अधिकार हो गया
है! तुम ही बचे
हो, और तो
सब खो दिया
है। अब अपने
को ही खो रहे
हो। भागो!
महावीर की
साधना-विधि
जीवन में आग
लगी है, ऐसा
देखकर
तुम्हें
जगाने की और
इस घर को छोड़ देने
के लिए है।
बाहर आओ! लोग
तुमसे कहेंगे,
"पलायनवादी
हो रहे हो?'
महावीर
कहते हैं, घर
में जब आग लगी
हो तो पलायन
ही समझदारी
है। जहां दुख
हो, वहां
से भाग जाना
ही समझदारी
है।
और
ध्यान रखना, अगर
तुम दुख से बच
सको तो सुख की
संभावना का द्वार
खुलता है।
लेकिन सुख
कहीं बाहर
नहीं है। सुख
तुम्हारा
स्वभाव है।
संसार बाहर
है। सुख तुम्हारा
स्वभाव है।
जितने तुम
बाहर जाओगे उतने
सुख से दूर
होते चले
जाओगे। जितने
तुम बाहर न
जाओगे उतनी ही
सुख की धुन
बजने लगेगी।
सुख का सितार
बजने को तैयार
रखा है, सिर्फ
तुम घर आओ।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक धनपति के
घर नौकरी करता
था। एक दिन
उसने कहा, "सेठ
जी, मैं
आपके यहां से
नौकरी छोड़
देना चाहता
हूं। क्योंकि
यहां मुझे काम
करते हुए कई
साल हो गए, पर
अभी तक मुझ पर
आप को भरोसा
नहीं है।' सेठ
ने कहा, "अरे
पागल! कैसी
बात करता है! नसरुद्दीन
होश में आ!
तिजोरी की सभी
चाबियां तो
तुझे सौंप रखी
हैं। और क्या
चाहता है? और
कैसा भरोसा?'
नसरुद्दीन ने
कहा,
"बुरा मत
मानना, हुजूर!
लेकिन उसमें
से एक भी ताली
तिजोरी में लगती
कहां है!'
जिस
संसार में तुम
अपने को मालिक
समझ रहे हो, तालियों
का गुच्छा
लटकाए फिरते
हो, बजाते
फिरते हो, कभी
उसमें से ताली
कोई एकाध लगी,
कोई ताला
खुला? कि
बस तालियों का
गुच्छा लटकाए
हो। और उसकी
आवाज का ही
मजा ले रहे
हो। कई
स्त्रियां
लेती हैं, बड़ा
गुच्छा लटकाए
रहती हैं।
इतने ताले भी
मुझे उनके घर
में नहीं दिखाई
पड़ते जितनी
तालियां
लटकाई हैं।
मगर आवाज, खनक
सुख देती है।
जरा
गौर से देखो, तुम्हारी
सब तालियां
व्यर्थ गई
हैं। क्रोध करके
देखा, लोभ
करके देखा, मोह करके
देखा, काम
में डूबे, धन
कमाया, पद
पाया, शास्त्र
पढ़े, पूजा
की, प्रार्थना
की--कोई ताली
लगती है?
महावीर
कहते हैं, संसार
की कोई ताली
लगती नहीं। और
जब तुम सब तालियां
फेंक देते हो,
उसी क्षण
द्वार खुल
जाते हैं।
संसार से सब
तरह से वीतराग
हो जाने में
ही ताली है, चाबी है।
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI FOR THIS BLOG
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