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मंगलवार, 1 अप्रैल 2014

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--48)

प्रेम, करूणा, साक्षी और उत्‍सव—लीला—प्रवचन--तीसरा

दिनांक 28 नवंबर, 1976;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।
     
प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्न :

क्राइस्ट का प्रेम, बुद्ध की करुणा, अष्टावक्र का साक्षी और आपकी उत्सव—लीला, इन चारों में क्या फर्क है? क्या ये अलग— अलग चार मार्ग हैं?

 लग— अलग मार्ग नहीं, वरन एक ही घटना की चार सीढ़ियां हैं, एक ही द्वार की चार सीढ़ियां हैं।
क्राइस्ट ने जिसे प्रेम कहा है वह बुद्ध की ही करुणा है, थोड़े से भेद के साथ। वह बुद्ध की करुणा का ही पहला चरण है। क्राइस्ट का प्रेम ऐसा है जिसका तीर दूसरे की तरफ है। कोई दीन है, कोई दरिद्र है, कोई अंधा है, कोई भूखा है, कोई प्यासा है, तो क्राइस्ट का प्रेम बन जाता है सेवा। दूसरे की सेवा से परमात्मा तक जाने का मार्ग है; क्योंकि दूसरे में जो पीड़ित हो रहा है वह प्रभु है। लेकिन ध्यान दूसरे पर है। इसलिए ईसाइयत सेवा का मार्ग बन गई।

बुद्ध की करुणा एक सीढ़ी और ऊपर है। इसमें दूसरे पर ध्यान नहीं है। बुद्ध की करुणा में सेवा नहीं है; करुणा की भाव—दशा है। यह दूसरे की तरफ तीर नहीं है, यह अपनी तरफ तीर है। कोई न भी हो, एकांत में भी बुद्ध बैठे हैं, तो भी करुणा है। फर्क समझ लेना।
राह से तुम गुजरे। एक अंधा आदमी भीख मांग रहा है तो तुमने जो दो पैसे दिए वह करुणा नहीं है; सेवा है। क्षण भर पहले, जब तक तुमने अंधे भिखारी को नहीं देखा था तब तक तुम्हारे मन में कोई करुणा का उदय न हुआ था। अंधे भिखारी को देख कर हुआ, यह तुम्हारी अवस्था नहीं है; सांयोगिक घटना है। अगर अंधा भिखारी न मिलता तो सेवा का भाव पैदा न होता, सहानुभूति पैदा न होती। यह प्रेम दूसरे पर निर्भर है; यह दया है। बुद्ध ने करुणा उस दशा को कहा है जब कोई हो न हो, तुम्हारे भीतर करुणा की तरंग उठती ही रहती है। अंधे को देख कर तो उठती ही है, आंख वाले को देख कर भी उठती है; बीमार को देख कर तो उठती ही है, स्वस्थ को देख कर भी उठती है; गरीब को देख कर तो उठती ही है, अमीर को देख कर भी उठती है।
इस फर्क को खयाल में ले लेना। अमीर को देख कर दया नहीं उठती; स्वस्थ आदमी को देख कर दया उठने का क्या कारण है? शायद ईर्ष्या उठती है, जलन उठती है, द्वेष उठता है। अंधे को देख कर दया उठती है। बुद्ध कहते हैं, करुणा होनी चाहिए चैतन्य की दशा; इसका दूसरे से संबंध न हो। और इस भेद को समझना। यही भेद पूरब और पश्चिम का भेद बन गया।
ईसाई को समझ में नहीं आता कि पूरब के धर्म सेवा—उन्मुख क्यों नहीं हैं? जैसा ईसा ने अंधों को आंखें दीं, कोढ़ियों के पैर दबाये, भूखों को रोटी दी, ऐसा बुद्ध या महावीर करते दिखाई नहीं पड़ते। ईसाई को लगता है कि कुछ चूक हो रही है; बुद्ध और महावीर में कुछ कमी मालूम पड़ती है ईसाई को। सचाई और है। सचाई यह है कि बुद्ध और महावीर के लिए करुणा किसी के प्रसंग में नहीं है, अप्रासंगिक है। करुणा भाव—दशा है। अंधा हो तो, न हो तो, आदमी हो तो, वृक्ष हो तो, पहाड़ हो पर्वत हो तो, कोई न हो तो, शून्य में भी करुणा बरसती रहेगी। जैसे कि स्वात में, निर्जन में किसी वृक्ष पर एक फूल खिला, न कोई यात्री वहा से गुजरता, न कोई प्रशंसक आता, न कोई संभावना है कि चित्रकार आएगा और चित्र बनायेगा, न कोई गायक आएगा और गीत गाएगा, लेकिन फिर भी फूल की सुरभि तो फैलती ही रहेगी, शून्य एकांत में फैलती रहेगी। बुद्ध की करुणा एकांत में खिले फूल जैसी है। कोई आये तो ठीक, न आये तो ठीक। बुद्ध की करुणा में किसी का पता—ठिकाना नहीं लिखा है, वह किसी की तरफ उन्‍मुख नहीं है। वह चित्त की दशा है। यह एक कदम ऊपर है।
क्योंकि जो करुणा दूसरे से बंधी हो, वह करुणा बहुत गहरी नहीं है। समझो, अगर दुनिया में कोई दुख न रह जाए तो फिर ईसाई मिशनरी क्या करेगा? उसकी करुणा तिरोहित हो जायेगी। तो यह तो बड़ी उलझन की बात हुई। इसका मतलब हुआ कि तुम्हें करुणावान बनाये रखने के लिए अंधों और कोढ़ियों का होना जरूरी है। तब तो तुम्हारी करुणा बड़ी महंगी हो गई। तब तो तुम्हारी सेवा के लिए बीमार चाहिए, नहीं तो अस्पताल कैसे खोलोगे? तब तो तुम्हारे परमात्मा तक जाने के लिए अंधे —लूले—लंगड़े भिखारी सीडी की तरह काम कर रहे हैं। नहीं, बुद्ध की करुणा एक कदम ऊपर है। इसका कोई संबंध किसी के दुख से नहीं है। इसका कोई संबंध ही किसी से नहीं है। यह असंबंधित है, असंग है। इसके लिए दूसरे की जरूरत ही नहीं है। इसलिए यह ऊपर है।
जहां तक दूसरे की जरूरत है वहा तक हम संसार के बहुत करीब हैं, बहुत दूर नहीं गये। जहां दूसरे से संबंध मुक्त हो गया, असंग हुए, वहां हम उड़ने लगे आकाश में, पृथ्वी से नाता टूटा। मगर थोड़ी सूक्ष्म है। जीसस की दया, जीसस का प्रेम, जीसस की करुणा सभी की समझ में आ जायेगी; जो बिलकुल अंधे हैं उनको भी समझ में आ जाएगी। कम्मुनिस्ट को भी समझ में आ सकती है। जिसके पास बोध की कोई धारणा नहीं है, जिसके पास ध्यान की कोई किरण नहीं है—उस भौतिकवादी को भी समझ में आ सकती है। क्योंकि बुद्ध की करुणा तो बड़ी अभौतिक है, और जीसस की करुणा बड़ी भौतिक है। इसलिए ईसाई मिशनरी अस्पताल बनायेगा, स्कूल खोलेगा, दवा बांटेगा।
बौद्ध भिक्षु कुछ और बांटता है; वह दिखाई नहीं पड़ता। वह जरा सूक्ष्म है। वह ध्यान बांटेगा, समाधि की खबर लायेगा। वह भी आंखें खोलता है, लेकिन कहीं गहरी; बाहर की नहीं। और वह भी स्वास्थ्य के विचार को तुम तक लाता है, लेकिन आंतरिक स्वास्थ्य के, असली स्वास्थ्य के। क्योंकि वह जानता है, शरीर तो बीमार हो कि स्वस्थ, शरीर तो बीमारी ही है। इसे तुम स्वस्थ भी रखो तो वह भी तो बीमारी है। और आज नहीं कल जाएगा। मौत आने को है। इसलिए पानी पर लकीरें खींचने का कोई बहुत प्रयोजन नहीं है। लिखना ही हो कुछ तो आत्मा पर लिखो। अस्पताल क्या बनाना; बनाना हो कुछ तो मंदिर बनाओ, बनाना हो कुछ तो चैत्यालय बनाओ। ध्यान की कोई लकीरें खींचो जो साथ जायेंगी, जिनको मौत मिटा न पायेगी।
तो प्रेम....... क्राइस्ट जिसे प्रेम कहते हैं, वह पहली सीढ़ी है।
बुद्ध जिसे करुणा कहते हैं वह दूसरी सीढ़ी है। लेकिन अभी भी करुणा है। गंध का पता नहीं है अब किस पते पर जा रही है, लेकिन जा रही है। किस तक पहुंचेगी, इसका पता नहीं है; लेकिन किसी तक पहुंचेगी, फैल रही है, बिखर रही है।
अष्टावक्र का साक्षी और एक कदम आगे है। अब कहीं कुछ आता—जाता नहीं, सब ठहर गया है, सब शांत हो गया है। जाने में थोड़ी —सी लहर तो होगी ही। अष्टावक्र कहते हैं. आत्मा न जाती है न आती है, अब गंध अपने में ही रम गई है। यह जो आत्मरमण है। क्राइस्ट की करुणा दूसरे के प्रति निवेदित है; बुद्ध की करुणा अनिवेदित, असंग है, लेकिन फिर भी उड़ती हुई हवाओं में किसी नासापुट तक पहुंच जायेगी। न भी पहुंचे, लेकिन उड़ रही है। साक्षी— भाव जाता ही नहीं, ठहर गया, सब शून्य हो गया। क्राइस्ट के प्रेम में दूसरा महत्वपूर्ण है; बुद्ध की करुणा में स्वयं का होना महत्वपूर्ण है, साक्षी में न दूसरा रहा न स्वयं रहा, मैं —तू दोनों गिर गये। जाग कर देखा कि मैं भी झूठ है, तू भी झूठ है। और पूछा है कि ' और आपकी उत्सव—लीला में.?'
वह आखिरी बात है। साक्षी में सब ठहर गया, लेकिन अगर यह ठहरा रहना ही आखिरी अवस्था हो तो परमात्मा सृजन क्यों करे? परमात्मा तो ठहरा ही था! तो यह लीला का विस्तार क्यों हो? तो यह नृत्य, यह पक्षियों की किलकिलाहट, ये वृक्षों पर खिलते फूल, ये चांद—तारे, यह विराट विस्फोट! परमात्मा तो साक्षी ही है! तो जो साक्षी पर रुक जाता है वह मंदिर के भीतर नहीं गया। सीढ़ियां पूरी पार कर गया, आखिरी बात रह गई। अब न तू बचा न मैं बचा, अब तो नाच होने दो। अब तो नाचो। कभी तू के कारण न नाच सके, कभी मैं के कारण न नाच सके। अब तो दोनों न बचे, अब तुम्हें नाचने से कौन रोकता है? अब कौन—सा बंधन है? कौन—सी कारागृह की दीवाल तुम्हें रोकती है? अब तो नाचो; अब तो रचाओ रास; अब तो होने दो उत्सव! अब क्यों बैठे हो? अब लौट आओ!
यह लौट आना बिलकुल नये ढंग का है। वहीं लौट आओ जहां से गये थे—उसी बाजार में। लेकिन अब तुम शून्य की भांति आ रहे हो। साक्षी तुम्हारे भीतर है, बुद्ध की करुणा तुम्हारे भीतर है, क्राइस्ट का प्रेम तुम्हारे भीतर है। और एक नई घटना घट गई है : अब तुम्हारे भीतर दुख है ही नहीं, अशांति है ही नहीं, अब तो नाचो। पहले तो नाचने से थक जाते थे और नाचने में भी ज्वर था, ताप था, अब तो सब शीतल हो गया है, अब तो सब चंदन हो गया है, अब तो नाचो! यह जो विराट नृत्य चल रहा है परमात्मा का, इसमें सम्मिलित हो जाओ। अब किनारे क्यों बैठे हो? जरूरी था एक दिन किनारे बैठ जाना, नहीं तो तुम पागल ही बने रहते। एक दिन किनारे बैठ जाना जरूरी था—तटस्थ हुए, कूटस्थ हुए। लेकिन अब!
बहुत—से धर्म रुके हैं। जैसे ईसाइयत जीसस के प्रेम पर रुक जाती है; बहुत गहरी नहीं जाती। बुद्ध का धर्म करुणा पर रुक जाता है। जैन कूटस्थ भाव पर रुक जाते हैं, साक्षी पर रुक जाते हैं। इसलिए तुम पूछो कि जैनों के मोक्ष में क्या हो रहा है? सब पहुंचे हुए सिद्ध पुरुष अपनी— अपनी सिद्धशिलाओं पर बैठे हैं। मगर जरा सोचो इस हालत को, कब से बैठे हैं, और बैठे ही हैं, बैठे ही हैं।
बर्ट्रेंड रसेल ने बड़ा मजाक उड़ाया है, उसने कहा है कि अगर ऐसा सदा बैठे रहना हो अनंत काल तक तो मैं नहीं जाता। इसको तुम थोड़ा विचार करो, सिद्धशिला पर पहुंच गये, आखिरी अवस्था आ गई, अब बैठे हैं, न कोई तरंग उठती है, न कोई गीत, न कोई गुनगुनाहट, न कोई नृत्य, न कोई वीणा बजती है, कुछ भी नहीं होता है। अब कुछ होता ही नहीं है। अब बस बैठे हैं; अब बस बैठे हैं। और यह अब रहेगा अनंत काल तक, अब इससे लौटना संभव नहीं है। यह तो हो गई बात।
जैन कहते हैं, बस पहुंच गये। अब लौटना संभव नहीं है। यह तो फांसी लग गई। अगर इसे गौर से देखोगे तो यह तो संसार से क्या छूटे, और मुश्किल में पड़ गये। रसेल ने ठीक लिखा है कि इससे तो मैं नरक जाना पसंद करूंगा; कम से कम वहा से छूटने का उपाय तो है। कम से कम वहां कुछ तो होता होगा; गपशप तो चलती होगी; समाचार—पत्र तो निकलते होंगे; कुछ होता तो होगा! लेकिन यह मोक्ष तो बड़ा जड़ मालूम पड़ता है।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं मोक्ष के बाद भी एक अवस्था है; वही परमात्मा की पूरी अवस्था है। वही कृष्ण की दशा है; वहां लीला—उत्सव शुरू हो जाता है। तुम्हारी धारणा यह है कि लीला—उत्सव तो अज्ञानी के लिए है। यह तो अज्ञानी है जो अभी राग—रंग कर रहा है। तो तुमने अभी राग—रंग का पूरा अर्थ नहीं जाना। अज्ञानी करने की कोशिश करता हो भला, हो कहां पाता है? राग—रंग में ही तो कांटे चुभ जाते हैं; फूल खिलते कहा? आशा है, सपना है; होता कहां है? देखते हो भोगी को, कुछ सुखी दिखाई पड़ता है? चेष्टा कर रहा है; चेष्टा में ही दबा जा रहा है, टूटा जा रहा है, बिखरा जा रहा है। नाचना चाहता है, नाच कहां पाता है? हजार बाधायें आ जाती हैं। सोचता है, कल नाचूंगा, परसों नाचूंगा। बाधाओं का अंत नहीं होता; रोज बाधायें बढ़ती जाती हैं। और आखिर में पाता है कि यह तो मौत द्वार पर खड़ी हो गई। नाचने का समय ही न मिला; तैयारी ही करने में समय बीत जाता है। तैयारी कभी हो नहीं पाती। भोगी भोग कहां पाता?
उपनिषद कहते हैं : तेन त्यक्तेन भुंजीथा; उन्होंने ही भोगा जिन्होंने छोड़ा। यह किसी भोग की नई धारणा की बात है। जिसने पकड़ा वह क्या खाक भोगेगा? वह भोगता कहां दिखाई पड़ता है?
फिर योगी हैं; वे डर गये भोग से और भाग कर खड़े हो गये। अब वे चलते ही नहीं; हिलते ही नहीं। उनको तुम टस से मस नहीं कर सकते; वे अपनी जगह पत्थर हो कर बैठ गये हैं। वे कहते हैं, हिलने में डर है; हिल गये, कैप गये, लहर आ गई; फिर क्या होगा? फिर संसार शुरू हो जायेगा। यह तो भयभीत अवस्था है और भय में अगर कोई ठहर भी गया है तो इस ठहरने में बहुत आनंद नहीं हो सकता। हो सकता है सांसारिक दुख न हो, सांसारिक अशांति न हो, लेकिन इस ठहरने में तो एक तरह की जड़ता होगी। गत्यात्मकता खो गई, गति खो गई। धार नहीं बहती अब, रस नहीं बहता अब। नहीं, आखिरी अवस्था में जब तुम सबसे पार हो गये, तब फिर एक नृत्य की दशा है—वह जो भोगी चाहता है और नहीं कर पाता और वह जो योगी चाहता है और भोग में कहीं उतर न जाये, इस डर से रुका रहता है, और नहीं कर पाता है। भोगी और योगी के पार कोई दशा होनी चाहिए जहां योगी और भोगी दोनों की आकांक्षाएं पूरी हो जाती हैं। अन्यथा जगत में कोई अर्थ न होगा, अर्थहीन होगा जगत। भोगी अकड़ा खड़ा है डर के मारे, वह भी नहीं भोग पाता; योगी अकड़ा खडा है। भोगी भाग—दौड़ में है, ज्वर में है; वह भी नहीं भोग पाता; भाग—दौड़ के कारण नहीं भोग पाता। फुरसत कहां? और योगी डर के मारे नहीं भोग पाता है। फुरसत तो बहुत है। चौबीस घंटे खड़ा है। समझ में नहीं आता क्या करें। माला फेरता है, कुछ समझ में नहीं आता तो माला ही फेरता रहता है। कुछ न कुछ करता रहता है, जिसमें उलझा रहे। राम, राम, राम, राम जपता रहता है। दोनों नहीं कर पाते। होना तो चाहिए किसी घड़ी में; नहीं तो जगत अर्थहीन है। फिर इसमें कोई प्रयोजन नहीं है; फिर यह एक वितण्डा—जाल है। ए टेल टोल्ड बाय एन इडिएट; फुल आफ क्यूरी एंड न्वाइज़, सिग्निफाइंग नथिंग। कोई मूर्ख कहता है कहानी; शोरगुल बहुत मचाता है, हाथ—पैर बहुत तड़फड़ाता है, लेकिन अर्थ कुछ नहीं निकलता। फिर इस जगत में कोई परमात्मा नहीं, फिर कोई सत्य नहीं।
इसलिए चौथी बात : उत्सव—लीला। पहुंच गये। योगी रुकने के कारण नहीं नाच पाता था, भोगी भागने के कारण नहीं नाच पाता था। अब न तो भागना रहा, न रुकना रहा। अब न तो तू रहा, न मैं रहा। अब तो सिर्फ ऊर्जा रही; अब इस ऊर्जा को नाचने से कौन रोके? क्यों रोके? कौन है रोकने वाला? अब एक नये ढंग का नृत्य शुरू होता है। इस नृत्य को ही हमने रास कहा है। यह नृत्य बड़ा अनूठा है। इसमें नाचने वाला होता ही नहीं, सिर्फ नाच होता है। इसमें भोगने वाला होता ही नहीं, भोग ही होता है; सिर्फ रस बहता है शुद्ध। और ऐसी दशा में ही तुम परमात्मा हुए। तो जीवन सार्थक हुआ; यात्रा कहीं पहुंची, कोई मंजिल मिली।
मगर ये चारों एक—दूसरे से जुड़े हुए हैं। तुम्हारी जितनी हिम्मत हो उतना चलना। सबसे कमजोर के लिए ईसाइयत है। वह वहां रुक जाये, दबाता रहे हाथ—पैर मरीजों के, गरीबों को रोटी बांटता रहे; उस तरह के काम में लगा रहे। इसलिए ईसाइयत राजनीति से बहुत दूर नहीं जा पाती, क्योंकि संसार के बहुत करीब है। ईसाइयत वस्तुत: एक तरह की राजनीति ही हो गई है—संसार से बहुत दूर नहीं। बस एक ही कदम तो; संसार बहुत करीब है। खिंच—खिंच आती है संसार में। इसलिए ईसाइयत धन भी बांटती, दवा भी बांटती, सेवा भी करती और इसी तल पर जीती है। ईसाइयत के पास ध्यान जैसी कोई प्रक्रिया नहीं बची। खो गया ध्यान; समाज—सेवा रह गई। समाज—सेवा बुरी बात नहीं है, लेकिन जो समाज—सेवा में ही समाप्त हो गया, उस पर दया करना। वह बहुत कुछ पा सकता था; नहीं पाया, बहुत कुछ हो सकता था, नहीं हुआ। वह क्षुद्र से तृप्त हो गया।
और तुम्हें ऐसा व्यक्ति महात्मा भी मालूम पड़ेगा; क्योंकि तुम्हें भी लगेगा कितना काम कर रहा है। गरीबों के लिए कितना काम कर रहा है, बीमारों के लिए! अशिक्षितों को शिक्षित कर रहा है, रुग्णों का इलाज कर रहा है, अस्पताल खोल रहा है; स्कूल खोल रहा है; धर्मादय चला रहा है; प्याऊ खोल रहा है; प्यासों को पानी मिला रहा है। सीधी बात है, अच्छा काम कर रहा है।
अच्छा काम निश्चित ही है, लेकिन धर्म अच्छे काम पर समाप्त नहीं हो जाता। धर्म जरा ऊंची उड़ान है, अच्छे के भी पार है। इसलिए अगर तुम्हारी महात्मा की यही धारणा हो गई तो तुम्हारा महात्मा बस ईसाई मिशनरी के तल का हो जाएगा, इससे ज्यादा नहीं। तुमने गांधी को महात्मा कहा इसी अर्थ में।
तुम्हें जान कर यह हैरानी होगी कि गांधी ने कई बार अपने जीवन में यह सोचा कि ईसाई हो जायें। जब वे अफ्रीका में थे तो एक बार तो बिलकुल ही तैयार हो गये थे ईसाई होने को। उनके ऊपर ईसाइयत का बड़ा प्रभाव था। वे कहते भला हों कि गीता उनकी माता है, वह सच नहीं है बात। अगर उनके जीवन की धारणा को पूरा समझा जाये तो वे ईसाई ही हैं। क्योंकि उनके जीवन की सारी धारणा ईसाइयत से ही पैदा हुई है। उनके असली गुरु टालस्टाय, रस्किन, थोरो तीनों ईसाई हैं। इन तीन को उन्होंने गुरु कहा है। उनके ऊपर ईसाइयत का भारी प्रभाव है।
बुरा नहीं है ईसाइयत में कुछ भी। यह मैं कह नहीं रहा हूं। ध्यान से सुनना। लेकिन यात्रा वहा समाप्त नहीं होती, शुरू होती है। और जिसने समझ लिया कि यहां समाप्त हो गई, वह अटक गया। खूब करो सेवा, लेकिन सेवक बनकर अगर समाप्त हो गये तो तुमने कुछ पाया नहीं। ध्यानी कब बनोगे?
गांधी के शिष्य विनोबा कहते हैं, सेवा धर्म है। यह जरा गलत पर्याय है। यह तो गलत जोड़ है, गलत गणित है। मैं कहता हूं धर्म सेवा है, पर सेवा धर्म नहीं। धार्मिक व्यक्ति सेवा कर सकता है, लेकिन सेवा ही करने से कोई धार्मिक नहीं हो जाता। सेवा बड़ी छोटी बात है। तो धार्मिक व्यक्ति के जीवन में सेवा भी हो, यह ठीक है। समझ में आती है बात। लेकिन कोई सिर्फ सेवक हो गया हो तो धार्मिक हो गया तो तुमने धर्म को बड़े संकीर्ण दायरे में बंद कर दिया। तब तो फिर नास्तिक भी अगर सेवा करता हो तो धार्मिक हो गया। क्योंकि सेवा करने के लिए ईश्वर को मानना तो जरूरी नहीं है। बीमार के पैर दाबने में कोई ईश्वर की मान्यता बाधा डालती है? कि ईश्वर को मानोगे तब दाबोगे पैर! तब तो कम्यूनिस्ट भी धार्मिक है, शायद ज्यादा धार्मिक है। अगर सेवा ही धर्म है तो मार्क्स, ऐंजिल्स, लेनिन, स्टेलिन, माओ, ये बड़ी धार्मिक लोग हैं।
लेकिन सेवा पर धर्म को समाप्त करने की बात ही भ्रांत है। धर्म बड़ा है; सेवा एक छोटा अंग बन सकती है। और धर्म के बड़े विस्तार के साथ सेवा जुड़ी हो तो सेवा में भी एक सुगंध होती है। अन्यथा सेवा में भी कोई अर्थ नहीं रह जाता। बड़े के साथ जुड़ कर छोटा भी महत्वपूर्ण हो जाता है, लेकिन छोटे को ही बड़े करने का दावा करना तो बड़े को भी व्यर्थ कर देना है।
बुद्ध की करुणा सेवा से विराट है, बड़ी है। एक और कदम आगे उठा। अब तुम दूसरे से नहीं बंधे हो; अब तुम मुक्त हो। और तुम्हारे भीतर से मुक्त अहर्निश वर्षा होती है। लेकिन इतने पर ही समाप्त धर्म नहीं हो जाता। आधी यात्रा हो गई, लेकिन अभी आधी बाकी है।
फिर तीसरा चरण है—जो कि करीब—करीब लगता है कि धर्म की अंतिम मंजिल आ गई; लेकिन फिर भी अंतिम नहीं है—साक्षी— भाव। अब न तो दूसरा न मैं, बस दोनों को देखने वाला, दोनों के पार जो अतिक्रमण कर जाता, अनुभवातीत साक्षी, वही रहा। यहां लगता है कि धर्म की आखिरी पराकाष्ठा हो गई। नहीं हुई; अभी एक कदम और बाकी है। अभी वर्तुल पूरा नहीं हुआ। जहां से चले थे, अभी वहीं वापिस नहीं आये तो वर्तुल पूरा नहीं हुआ। स्रोत ही मंजिल है। बीज चला, पौधा बना, वृक्ष बना, फूल लगे, फल लगे, फिर बीज आये, तब वर्तुल पूरा हुआ, तब यात्रा पूरी हुई। जहां से चले वहीं आ गये। बच्चा पैदा हुआ, जवान हुआ, का हुआ, हजार—हजार उपद्रवों में पड़ा, और फिर बालवत हो गया; यात्रा पूरी हो गई।
स्रोत ही मंजिल है। जहां से चले थे वहीं पहुंच जाना है। कहां से चलती है यात्रा? संसार से, बाजार से, भीड़— भाड़ से। फिर एक दिन तुम उसी भीड़— भाड़ में आ जाओ। भीड़— भाड़ वही रहेगी, तुम वही नहीं रह गये। फिर तुम नाचो।
अब यह नाच गुणात्मक रूप से और है। इसको मैं उत्सव—लीला कहता हूं। लीला का यही अर्थ होता है। और परमात्मा नाच रहा है। अगर साक्षी पर परमात्मा रुक गया होता तो जगत में इतना नृत्य नहीं हो सकता था। इस रासलीला को देखते हो? चांद नाच रहा, सूरज नाच रहे, पृथ्वी नाच रही, तारे नाच रहे, पूरा ब्रह्मांड नाच रहा है। किसी गहन अहोभाव में लीन, किसी प्रार्थना में डूबा सारा अस्तित्व नाच रहा है। सुनो इसकी झनकार, जगत के पैरों में बंधे अर की आवाज सुनो! तो मीरा ठीक कहती है पद घुंघरू बांध नाची!
यह चौथी अवस्था हुई। चैतन्य नाचने लगे; मीरा नाचने लगी। बाउल नाचते हैं, पागल हो कर नाचते हैं। भीतर कोई बचा नहीं, भीतर शून्य हो गये। साक्षी तो शून्य पर ले आता है. जब तुम नाचोगे तब पूर्ण होओगे। साक्षी तो तुम्हें कोरा कर देता है, खाली कर देता है। तुम गये। अब परमात्मा उतरेगा तो नाचेगा।
ध्यान रखना। या फिर परमात्मा को रोकना, उतरने मत देना। इसलिए जैन परमात्मा को इनकार करते हैं। वह लीला से बचने की व्यवस्था है। नहीं तो तुम शून्य हो गये, अब क्या करोगे? अब परमात्मा उतरेगा, और जैसा कि उसकी आदत है नाचने की, वह नाचेगा। वह गीत गायेगा; वह हजार खेल करेगा। लीला उसका स्वभाव है। वह माया रचेगा। माया उसकी छाया है। तो अगर तुम डर गये तो अटक गये। साक्षीभाव में एक तरह का सूखापन रह जायेगा; रसधार न बहेगी, फूल न खिलेंगे, हरियाली न उगेगी, नये—नये अंकुर न आएंगे, वसंत की ऋतु न आएगी।
साक्षी तो एक तरह का पतझड़ है, वह पतझड़ की अवस्था है। फिर वसंत तो आने दो। पतझड़ तो उसी की तैयारी थी; उस पर रुक मत जाना। ही, पतझड़ में भी कभी—कभी वृक्ष सुंदर लगते हैं। नग्न खड़े वृक्ष, आकाश की पृष्ठभूमि में, कभी नग्न वृक्षों के पीछे उगता सूरज, उनकी नंगी शाखायें फैली आकाश में, कभी सुंदर लगती हैं। माना, उनका भी अपना सौंदर्य है। लेकिन वह सौंदर्य रुकने जैसा नहीं है। आने दो पत्ते, उगने दो नये पल्लव, फिर गाने दो पक्षियों को, बनाने दो घोंसलों को, लेकिन अब बड़े और ढंग से बनेगी बात। अब कोई चिंता न होगी, अब कोई तनाव न होगा। यह सब सहज होगा।
मेरी सीमायें बतला दो
यह अनंत नीला नभमंडल
देता मूक निमंत्रण प्रतिपल
मेरे चिर चंचल पंखों को
इनकी परिमिति परिधि बता दो
मेरी सीमायें बतला दो
आदमी सदा सीमा चाहता है, कहीं न कहीं सीमा आ जाये। यह आदमी की चाह सीमा की उसे रोक लेती है। मैं तुमसे कहता हूं; तुम असीम हो, तुम्हारी कोई सीमा नहीं है। आकाश की सीमा ही तुम्हारी सीमा है—अगर आकाश की कोई सीमा हो। आकाश की कोई सीमा नहीं है, तुम्हारी भी कोई सीमा नहीं है। तुम कहीं रुकना मत। तुम जहां रुके वहीं सीमा बन जाएगी! तुम चलते ही रहना, तुम बहते ही रहना। तुम्हारी कोई सीमा नहीं है। तुम असीम से असीम की ओर, पूर्ण से पूर्ण की ओर चलते ही रहना।
यह यात्रा अनंत है। परमात्मा यात्रा है। इसमें बहुत पड़ाव पड़ते हैं, पर यात्रा रुकती नहीं। और आगे, और आगे! और जो आखिरी घटना है वह घटना है लीला की। जब तुम्हें यह दिखाई पड़ता है कि सब खेल है तो तनाव खो जाता है। फिर तुम खेल की तरह लीन हो जाते हो। फिर तुम्हारे भीतर
कोई गंभीरता नहीं रह जाती, तुम बालवत हो जाते हो, छोटे बच्चे की तरह खेलने लगते हो।
वह जो साक्षी पर रुक गया, खतरा है उस रुकने में। उस रुकने में अहंकार फिर खड़ा हो सकता है। मेरे देखे तुम जहां रुके वहीं अहंकार खड़ा हो जाएगा। रुकने का नाम अहंकार है। अहंकार का अर्थ है. सीमा बन गई। यह आ गई जगह, पहुंच गये। जहां तुमने कहा पहुंच गये, वहीं अहंकार है। तुमने कहा नहीं पहुंचे, पहुंचना होता ही नहीं यहां, चलो—चलो, बहो, पहुंचना होता ही नहीं, तो फिर अहंकार निर्मित नहीं हो सकता।
सोचते हो, कोई तुम्हें इस हरी घास पर अकेला बैठा हुए देखे?
सारी दुनिया से तुमको कुछ अलग लेखे!
उठो इस एकांत से दामन छुडाओ, इस महज शांत से
चलो उतर कर नीचे की सड़क पर
जहां जीवन सिमट कर बह रहा है साहस की दिशा में
जहां अतर्कित प्रेम कठोरताओं पर तरल है
सबके बीच में जीवन सरल है
उठो इस एकांत से दामन छुडाओ, इस महज शांत से
जो न शक्ति देता है, न श्रद्धा, सिर्फ उदास बनाता है।
तुमने देखा, जो आदमी साक्षी पर अटका, वह उदास हो जाएगा, सूखे लक्कड़ की भांति हो जाएगा। पल्लव उसमें नहीं फूटते, गीत उसमें नहीं पैदा होते, उसके प्राणों में कोई रुनझुन नहीं रह जाती। मुर्दे की भांति महज शांत है, लेकिन शांति में कोई संगीत नहीं है। शांति निर्जीव है। जीवन नहीं है। कब की शांति, मरघट की शांति। ऐसी शांति नहीं जो बोलती है; ऐसी शांति नहीं जो नाचती है। क्या तुम मरघट की भांति शांत होना चाहते हो?
कन्‍फ्यूशियस से उसके एक शिष्य ने पूछा कि मुझे शांत होना है। तो कन्‍फ्यूशियस ने पूछा. कैसी शांति चाहता है, मरघट की शांति? तो वह तो तू मर कर हो ही जाएगा, उसकी जल्दी क्या है? वह तो हो ही जायेगा। अपनी कब में जब पड़ जायेगा तो शांत हो जायेगा, उसकी जल्दी क्या है? ऐसी क्या जल्दी मरने की? अभी दूसरी शांति खोज, जीवंत!
इस भेद को समझना। मुर्दा शांति को तुम वास्तविक शांति मत समझ लेना। मुर्दा शांति तो एक जड़ अवस्था है। भय के कारण तुमने अपने को सब भांति सिकोड़ लिया; हिलते—डुलते भी नहीं। कभी—कभी तुमने भय में देखा, ऐसा हो जाता है। अक्सर ऐसा होता है कि जब सिंह किसी जानवर पर हमला करता है तो वह जानवर वैसे का वैसा ठिठुर कर खड़ा हो जाता है, जैसे बर्फ जम गई। जो लोग इसका अध्ययन करते रहे हैं वे बड़े हैरान होते हैं कि मामला क्या है। यह मौका तो भागने का था और इस वक्त तो जड़ हो जाना खतरनाक है। लेकिन भय इतना है कि भागने में घबड़ाहट है; भय इतना है कि जड़ हो गया है।
कभी तुमने भी देखा होगा, गहरे भय में तुम एकदम ठहरे रह जाते हो, अवाक; हिलडुल भी नहीं पाते। कभी भय इतना जोर से पकड़ लेता है जैसे पक्षाघात लग गया, लकवा मार गया, खड़े रह गये हिल भी नहीं पाते। जो लोग भयभीत हो गये हैं संसार की अशांति से, वे भय के कारण खडे रह जाते हैं। तुम्हारे तथाकथित साधु—संन्यासी भय के कारण बैठे रह गये हैं; पदासन में बैठे हैं। उसे तुम पदासन मत समझना; उस पदासन में पद्य तो है ही नहीं—पद्य यानी कमल—वह खिलाव तो है ही नहीं, फूल तो है ही नहीं, सुवास तो है ही नहीं, कहने को पद्यासन है, कमल कहां खिल रहा! कमल के खिलने से तो वे घबड़ा गये हैं; उन्होंने सब पंखुड़ियां समेट ली हैं।
एक साधु मेरे पास मेहमान हुए। सुबह तीन बजे उठ कर वे पदासन में ध्यान करने बैठ गये। मैंने उनसे पूछा : क्या कर रहे हैं? उन्होंने कहा कि पद्यासन में बैठ कर ध्यान कर रहा हूं। मैंने कहा. यह पदासन है ही नहीं। तुमने कभी किसी कमल को किसी आसन में बैठे देखा है? डोलता है हवा के साथ, सूरज की किरणों के साथ खुलता, जीवंत होता है। आसन में देखा किसी कमल को कभी? आसन में चट्टानें होती हैं, फूल कहीं आसन में होते हैं; डोलते हैं। तो मैंने कहा, अगर कमल जैसा होना है तो डोलो थोड़ा, नाचो थोड़ा, गीत गुनगुनाओ, ऐसे जड़ हो कर मत बैठ जाओ। अगर ऐसा जड़ हो कर ही बैठना है तो कम से कम पद्यासन तो मत कहो, कुछ और नाम खोज लो—जडासन। उठो इस स्वात से दामन छुडाओ, इस महज शांत से।
महज शांत भी कोई शांति है? तुम फर्क समझते हो? एक हरियाली शांति होती है—हरी— भरी, फुदकती—नाचती, धड़कती, श्वास चलती। जगत को देखो, यहां शांति बहुत है! ये वृक्ष शांत खड़े हैं, लेकिन फिर भी जड़ नहीं हैं। हवायें निकलेंगी इनके बीच से और ये डोलेंगे मस्ती में। अस्तित्व शांत है, फिर भी एक गुनगुन है, एक गीत है। झरने शांत हैं, फिर भी एक नाद है, एक नृत्य है। तुम्हारी शांति अगर मुखर न हो, तुम्हारा मौन अगर बोले नहीं, तो सावधान रहना कि यह तुमने एक नई जड़ता पकड़ी। फिर तुम अकड़ कर बैठते हो। उस बैठने में भी तुम बैठे नहीं हो, तुम प्रतीक्षा कर रहे हो कि तुम्हें कोई विशिष्ट समझे।
सोचते हो कोई तुम्हें इस हरी घास पर अकेला बैठा हुआ देखे?
सारी दुनिया से तुमको कुछ अलग लेखे!
इसलिए मैं कहता हूं जब तक संन्यासी वापिस संसार में न आ जाये, भूल ही जाये अलग होना कि कोई अलग लेखे, यह बात ही मिट जाये, तब तक परम संन्यासी न हुआ। इसलिए महावीर की मैं तुमसे बात करता हूं लेकिन कृष्ण की प्रशंसा करता हूं। महावीर को तुम्हें समझाता हूं लेकिन अभीप्सा यही करता हूं कि किसी दिन तुम कृष्ण जैसे हो सकोगे। बाकी सब पड़ाव हैं। वहां से डेरा उखाड़ लेना पड़ेगा; वहा तंबू बांध कर सदा के लिए घर मत बांध लेना। तंबू गड़ा लेना, रात रुक जाना, थक जाओ विश्राम कर लेना, लेकिन चल पड़ना।
चलो उतर कर नीचे की सड़क पर
जहां जीवन सिमट कर बह रहा है साहस की दिशा में
जहां अतर्कित प्रेम कठोरताओं पर तरल है।
सबके बीच में जीवन सरल है।
वह जो दूर—दूर भाग कर बैठा है जंगल में, वह सरल नहीं हो सकता। वह तो जटिल है। उसकी जटिलता ही उसे यहां ले आई है। अब वह यहां जो अकड़ कर बैठा है, यह भी अहंकार है। लौट चलो वहा जहां साधारण जन हैं—सीधे—साधे, जरा भी विशिष्ट नहीं।
आदमी विशिष्टता खोज रहा है। कोई विशिष्टता खोजता है धन के द्वारा कि मेरे पास करोड़ों रुपये हैं तो विशिष्ट हो जाता है—स्वभावत:। क्योंकि करोड़ों रुपये बहुत लोगों के पास नहीं हैं, कुछ लोगों के पास हैं। आकांक्षा होती है धनी की कि वह इतना धनी हो जाये कि आखिरी हो जाये, उसके ऊपर कोई न रहे।
एण्ड्रू कारनेगी की आत्मकथा मैं पढ़ता था। वह अमरीका का सबसे बड़ा धनपति आदमी था। वह अपने सेक्रेटरी से एक दिन पूछता है कि मैं बार—बार सुनता हूं कि यह निजाम का हैदराबाद दुनिया में सबसे बड़ा धनी है, इससे मुझे चोट लगती है। तुम पता लगाओ, इसके पास है कितना?
अब यह जरा मुश्किल बात थी। क्योंकि निजाम हैदराबाद के पास धन तो नहीं था, हीरे—जवाहरात थे; उनका कोई हिसाब—किताब नहीं कि वे कितने के हैं। एण्ड्रू कारनेगी कहता है, जरा पता लगाओ कि कितना है इसके पास तो मैं इसे भी हरा कर बता दूं। मगर कुछ पता तो चले कि है कितना! बस यह कोरी बात चलती है कि सबसे ज्यादा है।
दस अरब रुपया छोड़ कर मरा एण्ड्रू कारनेगी, लेकिन फिर भी उसके मन में एक जरा—सी खटक रह गई थी कि निजाम हैदराबाद, पता नहीं इसके पास ज्यादा हो!
आदमी धन की चेष्टा करता है ताकि विशिष्ट हो जाये। कोई पद की चेष्टा करता है कि राष्ट्रपति हो जाऊं, प्रधानमंत्री हो जाऊं, तो विशिष्ट हो जाऊं। साठ करोड़ के देश में राष्ट्रपति एक ही होगा तो विशिष्ट हो जाता है। कोई ज्ञान इकट्ठा करता है और विशिष्ट हो जाता है। कोई नोबल प्राइज पा लेता है और विशिष्ट हो जाता है। तुम इतना तो कर ही सकते हो न कि किसी पहाड़ पर जा कर आंख बंद करके बैठ जाओ, पद्यासन लगा लो। इतना तो कर ही सकते हो, तो भी विशिष्ट हो जाते हो। और कभी—कभी तो ऐसा होता है, मजेदार है यह दुनिया, राष्ट्रपति तुम्हारे चरण छूने आ सकते हैं, और एण्ड्रू कारनेगी तुम्हारी प्रशंसा कर सकते हैं।
साक्षी होने में भी कहीं विशिष्ट होने का ही भाव न बना रहे। इसलिए मैं तुमसे आखिरी बात कहता हूं : लौट आओ। साक्षी तक जाओ, फिर तो कोई डर न रहा लौटने का। अब तो तुमने जान लिया कि तुम्हारी निष्कलुषता परम है, उसमें कलुष हो ही नहीं सकता। अब तो तुमने जान लिया कि तुम्हारी पवित्रता आत्यंतिक है, तुम पापी हो ही नहीं सकते। अब तो तुमने जान लिया कि तुम किसी कालकोठरी से भी गुजरो तो भी कालिख तुम्हें लग नहीं सकती। अब तो तुम जानते हो; अब तो तुमने देख लिया भीतर का खुला निरभ्र आकाश; अब तो तुमने परम से पहचान कर ली; अब तो तुम्हें स्वास्थ्य के दर्शन हो गये, स्वयं के दर्शन हो गये; अब क्या भय है? अगर तुम रुके हो अभी भी तो शक है कि तुम्हें अभी भी भय है और अभी भी तुमने स्वभाव को पूरा नहीं देखा। अभी भी कहीं कुछ डर किसी कोने —कातर में बैठा है जो कहता है, जाना मत वहां, कहीं उलझ न जाओ, कहीं फिर जंजाल में, संसार में न पड़ जाओ। तो मैं परम शानी उसी को कहता हूं जिसका यह भी भय चला गया। अब जो लौट आता है जगत में वह सरल हो जाता है, सहज हो जाता है।
जापान का एक सम्राट किसी ज्ञानी की तलाश करता था अपनी वृद्धावस्था में। तो वह गया जिन—जिन के बड़े नाम थे उन—उन के दर्शन करने गया। लेकिन कहीं उसे तृप्ति न हुई। उसका का वजीर उसके साथ जाता था। एक दिन उसने कहा कि ऐसे तो आप भटकते रहेंगे और कभी भी तृप्ति
न होगी, क्योंकि जिनके पास आप जाते हैं इनमें से कोई भी सरल नहीं है। ये सब चेष्टारत हैं, प्रयास अभी भी इनका जारी है, भय अभी भी मौजूद है। मैं एक आदमी को जानता हूं, लेकिन मैंने कभी आपसे कहा नहीं है क्योंकि शायद आप मानेंगे भी न। वह राजधानी में ही रहता है, आपके पड़ोस में ही। आपके महल में कई दफे काम भी कर गया है। गरीब आदमी है, मगर मैं कहता हूं कि अगर तुम सच में ही गुरु की तलाश में हो तो उसके चरण गहो।
सम्राट ने कहा, तो मुझे अब तक पता कैसे नहीं चला? और उसकी किसी को खबर क्यों नहीं है? उस वजीर ने कहा, वह इतना सरल है कि खबर भी कैसे हो! और वह संसार में लौट आया है, इसलिए भोगी तो उसको गिनती में ही नहीं लेते और योगी उसकी निंदा करते हैं। वह वापिस आ गया है। अब योगी होने का भी दंभ नहीं है उसके पास।
सम्राट उसके पास गया। उसे तो कुछ भी दिखाई न पड़े कि इसमें खूबी क्या है! क्योंकि वह बिलकुल वैसा साधारण आदमी दिखाई पड़ा जैसे साधारण आदमी होते हैं। वह अपने वजीर से कहने लगा, मुझे कुछ खूबी नहीं दिखाई पड़ती है।
वजीर ने कहा, यही खूबी है। तुम इसी खूबी को जरा गौर से देखो। तुमने कभी आदमी देखा है जो बिलकुल साधारण हो? साधारण से साधारण आदमी भी चेष्टा तो यही करता है कि मैं असाधारण हूं। साधारण से साधारण आदमी भी दंभ तो यही पालता है कि मैं साधारण नहीं हूं। यह आदमी बिलकुल साधारण है। इसकी साधारणता आत्यंतिक है। इसके भीतर विशिष्ट होने की धारणा नहीं रही है। यही इसका संतत्व है।

            सबके बीच में जीवन सरल है
उठो इस एकांत से दामन छुडाओ, इस महज शांत से,
जो न शक्ति देता है, न श्रद्धा, सिर्फ उदास बनाता है,
, तटस्थ होने लायक कमजोर तुम अभी नहीं हुए
लहरें गिनने के दिन भी आ सकते हैं
मगर हाथ जब तक पतवार उठा सकते हैं
कंठ—स्वर जब तक हैया—हो गा सकते हैं
तब तक ऐसी अनंत तटस्थता शर्मनाक है
तटस्थता की तुम्हारे मन पर कैसी बुरी धाक है
उठो सिमट कर बहते हुए जीवन में उतरो
घाट से हाट तक, हाट से घाट तक आओ—जाओ
तूफान के बीच में गाओ
मत बैठो ऐसे चुपचाप तट पर
परमात्मा हैया—हो गा रहा है
तुम्हें उसकी आवाज सुनाई नहीं पड़ती!
माना कि तुम बहरे हो मगर इतने तो नहीं,
और अंधे हो मगर इतने तो नहीं,
परमात्मा सब तरफ हैया—हो गा रहा है
पतवार चला रहा है।
और मैं तुमसे कहता हूं—इस कविता के लेखक ने तो कहा. न, तटस्थ होने लायक कमजोर तुम अभी नहीं हुए—मैं तुमसे कहता हूं कभी नहीं होओगे।
लहरें गिनने के दिन भी आ सकते हैं
मगर हाथ जब तक पतवार उठा सकते हैं
मैं तुमसे कहता हूं कभी नहीं ऐसा होता है कि लहरें गिनने के दिन आयें। तुम सदा ही ऊर्जा से भरे हो, तुम परमात्म—स्वरूप हो; लहरें गिनने के दिन आते ही नहीं।
किनारे पर बैठने का भी एक मजा है। मैं तुमसे कहता नहीं कि उसे तुम मत लो; लेकिन किनारे पर बैठे मत रह जाना। जब किनारे पर बैठ कर तुम अपने स्वभाव को पहचान लो, तटस्थ हो कर जब तुम अपने को जान लो, कूटस्थ हो कर जब भीतर की प्रत्यभिज्ञा हो जाये, तो लौट आना, उठा लेना पतवार!
मगर हाथ जब तक पतवार उठा सकते हैं,
कंठ—स्वर जब तक हैया—हो गा सकते हैं
तब तक ऐसी अनंत तटस्थता शर्मनाक है।
और मैं तुमसे कहता हूं सदा ही हाथ पतवार उठा सकते हैं। और अगर साक्षी के हाथ न उठा सके तो किसके उठायेंगे त्र' क्योंकि साक्षी नहीं उठाता—साक्षी तो देखता है—परमात्मा उठाता है। साक्षी नहीं नाचता—साक्षी तो देखता है—परमात्मा नाचता है। लेकिन अब वह परमात्मा को रोक नहीं रखता है। वह कहता है, नाचो; हैया—हों करना है हैया—हो करो। अब जैसा हो हो। इसी को अगर तुम ठीक से समझो तो अष्टावक्र बार—बार कहते हैं. जो होता है हो, जैसा होता है वैसा हो—बालवत। खयाल रखना, छोटे बच्चे जैसा होना साक्षी के पार चले जाना है। फिर लीला में उतर आना है।
चलो प्रेम से; रुको करुणा पर; बढ़ो साक्षी तक। साक्षी— भाव में रुक जाने की, ठहर जाने की बड़ी प्रबल आकांक्षा पैदा होती है। खयाल रखना। क्योंकि बड़ा सुखद है साक्षी— भाव; परम शांत है; कोई लहर नहीं उठती; जन्मों—जन्मों का सताया हुआ आदमी जब वहां पहुंचता है तो सोचता है आ गये! मगर मैं तुमसे कहता हूं अभी भी नहीं आये। अगर सोचा कि आ गये तो अभी भी नहीं आये।
यह आने का जो भाव पैदा होता है, यह बहुत—बहुत जन्मों की पीड़ा, चक्कर, उपद्रव, शोरगुल के कारण होता है। यह उसकी प्रतिक्रिया है। थोड़ी देर जब बैठोगे साक्षी की छाया में, विश्राम कर लोगे थोड़ा—अष्टावक्र कहते हैं चित्तविश्रांति—जब चैतन्य में विश्राम कर लोगे, विराम कर लोगे, फिर ऊर्जा उठेगी। विश्राम का अर्थ ही होता है कि तुम फिर श्रम करने को तैयार हो गये। जिस विश्राम से श्रम करने की क्षमता न आये वह विश्राम नपुंसक है। वह विश्राम ही नहीं है। तुम रात भर सोये, तुम कहते हो रात गहरी नींद आई, बड़ा विश्राम हुआ। इसका प्रमाण क्या है? इसका प्रमाण है कि सुबह तुम गड्डा खोदने लगे, कि लकड़ियां काटने लगे। तुम कहते हो रात भर खूब विश्राम किया, अब ऊर्जा भर गई, अब कुछ करने का मन होता है।
साक्षी विश्राम है। लेकिन विश्राम का प्रमाण क्या कि तुम वस्तुत: विश्राम को उपलब्ध हुए? जो आदमी रात विश्राम को उपलब्ध होता है, सुबह काम पर चला जाता है, और जो आदमी रात भर करवट बदलता है, सुबह भी उठने का मन नहीं करता; वह आदमी कहता है विश्राम हो ही नहीं पाया, कैसे जाऊं काम पर? आज तो पूरे दिन बिस्तर में पड़े रहने का मन होता है। जो आदमी सुबह बिस्तर में ही पड़ा रहे, क्या तुम यह कहोगे कि इसने विश्राम कर लिया! तुम भी मानोगे यह बात कि इसका विश्राम पूरा नहीं हो पाया, इसीलिए पड़ा है। जो उठ गया सुबह, उठा ली कुदाली, उठा लिया फावड़ा, चल पड़ा काम पर, तुम भी कहोगे कि रात खूब विश्राम कर लिया मालूम होता है। गीत ग्गुनगुनाते हो और गड्डा खोदने चले हो!
साक्षी तो विश्राम है। इसका प्रमाण कहां मिलेगा? तुम्हारी लीला में; तुम्हारे जगत में फिर वापिस लौट आने में। तुम्हारा नृत्य सबूत होगा, गवाही होगा कि साक्षी का भाव उपलब्ध हुआ। और वर्तुल पूरा हो जाता है।

 दूसरा प्रश्न :

बाल—बोध और सम्यक बोध को कृपा करके समझाइये।

 तीन शब्द खयाल में लो. अबोध, सम्यक बोध और बाल—बोध।
छोटा बच्चा अबोध है; उसके पास अभी कोई बोध नहीं है। अभी उसे होश नहीं है, बेहोश है। अभी उसका यह अबोध उसे खतरे में ले जाएगा, झंझटें पालेगा; झंझटें पालने के दिन करीब हैं। धन कमायेगा; महत्वाकांक्षा में 'दौड़ेगा; पागल होगा पद के लिए। प्रेम में पड़ेगा; विवाह करेगा। हजार तरह की झंझटें आने वाली हैं, क्योंकि अबोध है। अभी कुछ बोध तो नहीं है।
फिर जैसे—जैसे झंझटें गहरी होने लगेंगी, वैसे—वैसे समझ बढ़ेगी, प्रौढ़ता आयेगी और धीरे — धीरे यह दिखाई पड़ेगा कि क्या करने से झंझट हो जाती है ज्यादा और क्या करने से झंझट कम होती है। तो सम्यक बोध पैदा होगा। तब वह चुनाव करने लगेगा। वह कहेगा : यह करूं और यह न करूं; यह शुभ है, यह अशुभ है, यह ठीक, यह गलत। सम्यक का अर्थ है ठीक, जो ठीक है वह करूं। ठीक क्या है? जिससे झंझट नहीं बढ़ती, शांति रहती है, सुख रहता है। गैर ठीक क्या है? जिससे झंझट बढ़ती है, उपद्रव बढ़ते हैं और जीवन की शांति छिन जाती है, चैन छिन जाता है। तो सम्यक
बोध पैदा हुआ।
सम्यक बोध ऐसा हो गया गहन कि अब चुनाव भी नहीं करना पड़ता। अब तो जो ठीक है वह सहज ही होता है। अब सम्यक बोध ऐसे गहरे उतर गया प्राणों में, रोएं—रोएं में समा गया, श्वास—श्वास में भिद गया कि अब तो जो ठीक है वही होता है। अब गलत होता ही नहीं। अब चुनाव नहीं करना पड़ता है कि यह गलत और यह ठीक, यह ठीक है इसको करूं और यह गलत इसको न करूं। जब तक चुनाव करना पड़े तब तक सम्यक बोध, जब तक चुनाव की क्षमता ही न हो तब तक अबोध; और जब चुनाव के बिना ठीक होने लगे, सहज ही ठीक होने लगे, तब स्व—बोध, या बाल—बोध, या सहज बोध—जो भी नाम देना चाहो।
तब एक खयाल में ले लेना। जैसा छोटा बच्चा है, उसे कुछ पता नहीं है कि क्या करना क्या नहीं करना, ऐसे ही संत को भी कुछ पता नहीं है कि क्या करना और क्या नहीं करना। इसलिए दोनों में एक समानता है। मगर एक बड़ा भेद भी है। छोटे बच्चे को पता नहीं है कि क्या करना और क्या नहीं करना, क्योंकि वह अबोध है, अभी बुद्धि जागी नहीं है, अभी भेद आया नहीं है। संत को भी पता नहीं कि क्या करना और क्या नहीं करना; बुद्धि जाग भी गई और गई भी। अब जागरण ऐसा स्वाभाविक हो गया है कि जो होता है होता है, जो होता है वही ठीक होता है। सम्यक बोध में हमें ठीक करना पड़ता है और सहज बोध में ठीक होता है।
जैसे तुमने देखा कि दरवाजा है, निकल गये; ऐसा सोचते थोड़े ही हो खड़े हो कर कि निकलें दरवाजे से कि दीवाल से निकलें, कि दीवाल से निकलेंगे तो याद है पहले निकले थे तो सिर में ठोकर खाई थी और निकल भी न पाये थे, और दरवाजे से जब भी निकले तो निकल भी गये, ठोकर भी न खाई, इसलिए चलो दरवाजे से ही निकलना ठीक है। ऐसा तुम इतना हिसाब थोड़े ही करते हो दरवाजे के सामने खड़े हो कर! और जो ऐसा हिसाब करे उस पर तुम्हें शक होगा कि यह निकलेगा दरवाजे से कि नहीं? निकल पाएगा कि नहीं? क्योंकि यह बात ही ऐसी सोच रहा है जिससे शक होता है, इसके मन में दीवाल से निकलने का अभी आकर्षण है।
यह समझा रहा है। यह कहता है, क्रोध बुरा है, पाप है, नरक जाना पड़ता है, क्रोध करना ठीक नहीं है। लेकिन जिसका बोध परिपूर्ण हो गया, वह ऐसा थोड़े ही कहता है कि क्रोध करना ठीक नहीं, कि क्रोध करने से नरक जाना पड़ता है, वह क्रोध करता नहीं है; जैसे दीवाल से नहीं निकलता। वहां सिर्फ सिर टकराता है, कुछ सार नहीं है। सारे अनुभवों का निचोड़ हाथ आ गया है, कुंजी मिल गई है। तुम सुनते हो इस तरह की बातें कि बुद्ध ने कभी क्रोध नहीं किया, कि महावीर ने कभी क्रोध नहीं किया, मगर ये हमारे वक्तव्य हैं। ऐसा कहना कि महावीर ने कभी क्रोध नहीं किया, ठीक नहीं है। इससे तो ऐसा लगता है, क्रोध करना चाहते थे और नहीं किया। जैसे कि करने का दिल था और रोक लिया, सम्हाल लिया। अगर रोक लिया, सम्हाल लिया, तो महावीर अभी कहीं पहुंचे ही नहीं। नहीं, क्रोध हुआ नहीं। ऐसी चैतन्य की एक दशा है जहां क्रोध होता नहीं है, जहां तुम्हारा चैतन्य ही इतना गहरा होता है कि यह असंभव हो जाता है कि क्रोध करो या सोचो भी या विचार भी करो।
अबोध; बोध, सहज बोध। अबोध अशान की अवस्था है; बोध मध्य की, ज्ञान और अज्ञान मिश्रित; सहज बोध शुद्ध ज्ञान की। और जहां से चीजें चलती हैं वहीं पहुंच जाती हैं। फिर संत छोटे
बच्चे जैसा हो जाता है—बड़े नये अर्थों में।
तुम कभी पहाड़ गये? पहाड़ कभी चढ़े? गोल—गोल चढ़ता है रास्ता। कई दफे तुम उसी जगह फिर आ जाते हो— थोड़ी ऊंचाई पर आते। वही दृश्य, वही खाई, लेकिन थोड़ी ऊंचाई पर। नीचे तुम देख सकते हो रास्ता। तुम ट्रेन से जाते हो माथेरान, चढ़ने लगती तुम्हारी छोटी—सी गाड़ी; कई बार तुम्हें नीचे की पटरियां दिखाई पड़ती हैं जहां से तुम अभी गुजर गये थोड़ी देर पहले। थोड़े ऊपर आ गये, मगर जगह वही, ऊंचाई बदल गई।
संत शिखर पर पहुंच जाता है, बच्चा खाई में खड़ा होता है, लेकिन दृश्य दोनों एक ही देखते हैं। बच्चा अज्ञान के कारण देखता है; संत ज्ञान के कारण देखता है।
जान सकता हूं अगर साहस करूं
श्रृंखला वह जो पवन में वहि में तूफान में है
और चल उत्ताल सागर में
जान सकता हूं अगर साहस करूं
चेतना का रूप वह
जिसमें वृक्ष से झर कर
मही पर पत्ते गिरते हैं
सातवें के बाद और पहले के रंग के पहले
अंधेरा ही अंधेरा है
शब्द के उपरात केवल स्तब्धता है
गज उसकी जतुक सुनते हैं
कि सुनते मीन सागर के हृदय के
इंद्रियों की स्पर्श रेखा के पार
घूमते हैं चक्र अणुओं तारकों परमाणुओं के
जिंदगी जिनसे बुनी जाती
जिन अगम गहराइयों से भागते हैं
छोड़ कर उनको कहीं आश्रय नहीं मिलता।
भागना भर मत। बचपन से भागना भर मत। जीवन की अबोध अवस्था से भागना भर मत। जाग कर देखंऐ?ना, अनुभव करना; भागना किसी चीज से मत। जिस चीज से भी भागोगे उससे कभी मुक्त न हो पाओगे। क्योंकि जिससे भी भाग जाओगे अधूरा अनुभव होगा, अपरिपक्व अनुभव होगा कच्चा अनुभव होगा। तुम तो जो जीवन दिखाये उसे पूरा—पूरा देख लेना, पूरा कर लेना, पक जाना। और फिर तुम्हें लौट कर देखने की जरूरत न रहेगी, फिर तुम जब छोड़ दोगे एक जगह तो छोड़ दोगे, लौट कर देखोगे भी नहीं। कुछ बचा ही नहीं, तुमने सब सार—सार ले लिया। जो छूट गई जगह, अब वहां कुछ बचा ही न था पीछे लौटने को, देखने की कोई बात नहीं। उसकी तुम्हें याद भी न आएगी, स्मरण भी न होगा।
तो हर जीवन की स्थिति को ठीक—ठीक देख लेना। अंततः हाथ में, जो तुम बार—बार ठीक—ठीक
देखते रहे, ठीक—ठीक देखते रहे तो ठीक देखना बच रहता है, और सब चला जाता है। ठीक देखने की कला बच रहती है और सब चला जाता है। वही ठीक देखने की कला का नाम सम्यक बोध है। लेकिन उसको भी तभी तक हम ठीक कहते हैं जब तक गलत होने की थोड़ी—सी संभावना शेष है। जिस दिन गलत होने की संभावना गिर गई, पूरी की पूरी गिर गई, अब गलत की वासना उठती ही नहीं, उस दिन तो सिर्फ बोध रह गया। सहज बोध, सहज समाधि—बालवत!

 तीसरा प्रश्न :

इस देश में राम की लीला को रामलीला कहते हैं और कृष्ण की लीला को रासलीला। रामलीला और रासलीला में क्या भेद है?

रामलीला में राम महत्वपूर्ण हैं रासलीला में कोई महत्वपूर्ण नहीं। रामलीला राम का चरित्र है; राम की गरिमा है वहां; राम मध्य में हैं, केंद्र पर हैं। वे मर्यादा, अनुशासन, धर्म, संस्कार, संस्कृति—इन सबसे घिरे बीच में खड़े हैं। कृष्ण की लीला में कृष्ण नहीं हैं—कोई नहीं है। कृष्ण की लीला में परमात्मा है; राम की लीला में राम हैं। कृष्ण की लीला रासलीला है। यह जो अनंत रास चल रहा है परमात्मा का, यह जो अनंत रस बह रहा है, यह जो अनंत नृत्य चल रहा है—इस नृत्य में राम की तो अपनी पसंदगिया—नापसदगिया हैं; कृष्ण की कोई पसंदगी—नापसंदगी नहीं है।
इसलिए मैं फिर से दोहराऊं. राम का चरित्र है; कृष्ण का कोई चरित्र नहीं। चरित्र का अर्थ होता है. योजना, व्यवस्था, चुनाव। राम ने एक ढंग से जीवन को बनाना चाहा है और सफल हुए; जीवन को वैसा बना कर दिखा दिया है। लाख कठिनाइयां थीं, लाख कुर्बानी करनी पड़ी, कुर्बानी कर दी। पिता का घर छोड़ना पड़ा, तो पिता का घर छोड़ दिया। लेकिन पिता ने आज्ञा दी तो आशा का उल्लंघन न किया। जानते हुए भी कि अन्याय हो रहा है, फिर भी अन्याय का प्रतिकार न किया।
राम परंपरागत हैं। रघुकुल रीत सदा चली आई, प्राण जायें पर वचन न जाई! दे दिया वचन तो पूरा करना है। जैसा सदा होता रहा है वैसा ही करना—कुल के अनुसार चलना! राम के पास एक समादृत व्यक्तित्व है—परंपरागत! राम में कोई बगावत नहीं है, कोई क्रांति नहीं है। राम ट्रेडिशनल हैं। राम परंपरा हैं, जैसा होना चाहिए वैसा ही किया है। जो समाज को स्वीकार है वैसा ही किया है,
उससे अन्यथा नहीं गये—चाहे कुछ भी, कितनी ही पीड़ा भीतर झेलनी पड़ी हो। सीता को छोड़ा होगा जंगल में जिस दिन तो पीड़ा हुई होगी, लेकिन स्वयं को कुर्बान किया है समाज के लिए। इसलिए समाज ने भी खूब मूल्य चुकाया! समाज ने भी खूब याद किया। जैसा राम का समादर है वैसा किसी का समादर नहीं है। राम ने समाज को समादर दिया, समाज ने राम को समादर दिया।
मुझसे लोग पूछते हैं कि राम के प्रति लोगों का इतना भाव क्यों है? करोड़—करोड़ जनों का राम के प्रति इतना भाव क्यों है? यह पारस्परिक है। राम ने भीड़ के प्रति समादर दिखाया, भीड़ राम के प्रति समादर दिखा रही है। यह लेन—देन है, यह सीधा हिसाब है, यह सौदा है। इसमें कुछ खूबी नहीं है। राम ने अपने को समर्पित कर दिया समाज के लिए। सही और गलत की भी बात न उठाई। यह भी न पूछा कि समाज जो कहता है, वह ठीक है? ठीक की बात उठाओ तो समाज नाराज होता है। राम ने समाज को नाराज किया ही नहीं। उनमें क्रांति का कोई स्वर नहीं—मर्यादा है, व्यवस्था है, शील है। तो राम की लीला में राम बहुत महत्वपूर्ण हैं, चरित्र है। ठीक ही तुलसी ने अपनी राम की कथा को नाम दिया है. रामचरितमानस। वह राम के चरित्र की कथा है। चरित्र का अर्थ होता है. लोगों की मान्यता के अनुसार।
कृष्ण का कोई चरित्र नहीं है। कृष्ण तो मान्यताओं के बिलकुल विपरीत हैं; किसी मान्यता को मानने का कोई आग्रह नहीं है। राम ने अपनी पत्नी छोड़ दी जंगल में; कृष्ण दूसरे की पत्नियों को भी ले आये—जो अपनी थीं भी नहीं! तो समाज इसको क्षमा तो कर नहीं सकता। तो कृष्ण का लोग नाम भी लेते है—तो भी कभी श्री कृष्ण भारत की अंतर्धारा नहीं बन पाये, कभी भीड़ कृष्ण के प्रति बहुत आदर नहीं रखती। और अगर कभी तुम कृष्ण को थोड़ा—बहुत आदर भी देते हो तो वह इसीलिए कि राम उबाने वाले हैं। तो कृष्ण राम हैं भोजन; कृष्ण चटनी हैं। थोड़ा। मगर रस राम में है, पुष्टि उन्हीं से लेते हो। ऐसा कृष्ण का भी थोड़ा रस ले लेते हो कभी—कभी, लेकिन ये राह के किनारे हैं, ये राह पर नहीं पड़ते। राजपथ तो राम का है। कृष्ण तो ऐसा है—पगडंडी जंगल में खो जाने वाली; कभी—कभी टहलने चले जाते हो, कभी रस भी ले लिया। लेकिन खतरनाक हैं कृष्ण!
और जो कृष्ण को मानता है, वह भी कभी ध्यानपूर्वक नहीं देखता कि कृष्ण का जीवन क्या कह रहा है। कृष्ण का जीवन कह रहा है : चरित्र से मुक्त होने की सूचना। कृष्ण के सारे जीवन की प्रस्तावना इतनी है कि चरित्र से मुक्त हो जाओ। चरित्र बंधन है। इसको तो कौन समाज मानेगा! कृष्ण का भक्त भी नहीं मान सकता। वह तो तुम कृष्ण की पूजा कर लेते हो घर में मोर—मुकुट बांध कर और सब.. लेकिन कृष्ण अगर आ जायें एक दिन अचानक तो तुम एकदम घबड़ा जाओगे। राम आयेंगे तो तुम बिलकुल स्वागत कर लोगे, पैर पर गिर पड़ोगे; कृष्ण आ जायेंगे तो तुम थोड़े दिग्म्रमित हो जाओगे, किंकर्तव्यविमूढ़ कि अब क्या करना, इस आदमी को घर में ले चलना कि नहीं! क्योंकि तुम्हारी पत्नी को ले कर भाग जाये..। यह भरोसे का नहीं है। तुम दफ्तर जाओ और यह रास रचाने लगे। एक मूर्ति बना कर पूजा कर लेना एक बात है। लेकिन तुम थोड़ा सोचो, कृष्ण तुम्हारे घर आ जायें तो तुम ठहरा सकोगे? तुम कहोगे. 'महाराज आप ब्‍लू डायमंड में ठहर जाइये, खर्चा हम उठा लेंगे। मगर हमें बक्यग्ने! बाल—बच्चे वाले हैं! अब आप...।
पूजा एक बात है। राम की पूजा से तुम्हारा मेल है। राम से तुम्हारा मेल है। राम परंपरागत हैं; सामाजिक हैं, भीड़ के पीछे हैं। तो भीड़ ने राम का खूब आदर किया। राम ने भीड़ का खूब आदर किया। राम में कोई क्रांति नहीं है। राम क्रांतिविरोधी हैं। और स्वभावत: जब कोई व्यक्ति अपने को समाज के लिए बलिदान कर देता है तो समाज उसके व्यक्तित्व को खूब ऊपर उठाता है। तुम्हारे लिए जो मर जाये, स्वभावत: तुम कहोगे शहीद है। तुम भरोसा दिलाते हो लोगों को कि 'अगर तुम समाज के लिए मरे तो स्वर्ग निश्चित है। शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले! तुम घबड़ाओ मत मर जाओ, हम मेला चलाते रहेंगे! कुंभ मेला भर देंगे तुम्हारी चिता पर।सदियों—सदियों तक तुम उन्हें चुकाते हो।
लेकिन क्या कोई शहीद नहीं हैं। और कृष्ण ने तुम्हारे लिए कोई कुर्बानी नहीं की है। तुम उनको पूजते हो जो तुम्हारे लिए मरने को राजी हैं। कृष्ण जीये हैं। कृष्ण जीये हैं। जैसा जीवन सहज भाव से प्रगटा है; जो हुआ है होने दिया है। तुम्हारी दो कौड़ी की धारणाओं का कोई मूल्य नहीं माना है। तुम्हारी सब धारणायें तोड़ दी हैं। तुम्हारी धारणा तुम्हारी है, कृष्ण उसके लिए झुके नहीं। तुम्हारी लकीर पर चलने के लिए कृष्ण राजी नहीं हुए। अमर्याद हैं। उनकी लीला व्यक्ति की लीला नहीं है; उनकी लीला प्रभु—लीला है, वह रासलीला है।
दो ही बातें हैं—या तो कृष्ण लंपट हैं, या तो कृष्ण अपराधी हैं, और या कृष्ण स्वयं परमात्मा हैं। दो के बीच में तुम कहीं नहीं रख सकते उनको। राम बीच में हैं। निश्चित ही बुरे तो हैं ही नहीं। लेकिन तुम ठीक परमात्मा की जगह भी नहीं रख सकते। इसलिए हिंदुओं ने उन्हें कभी पूर्ण अवतार नहीं कहा, कह भी नहीं सकते, क्योंकि पूर्ण अवतार हमारी धारणाओं को मान कर चलेगा? पूर्ण की कोई सीमा होती है? पूर्ण पर कोई हम अपना ढांचा बिठा सकेंगे? पूर्ण तो बहेगा बाढ़ की तरह, हमें तोड़ देगा। पूर्ण कोई नहर थोड़े ही है—बाढ़ आई गंगा है!
राम तो नहर हैं—सरकारी नहर! जितना पानी चाहो, बहाओ, और जहां बहाना चाहो वहा बहाओ। वे आशा के अनुसार चलते हैं। सरकार भी प्रसन्न, समाज भी प्रसन्न! व्यवस्था, स्थिति—स्थापक हैं। जो व्यवस्थित है, जिसके हाथ में स्वार्थ है, न्यस्त स्वार्थ है, उसके पक्ष में हैं। वह कोई भी हो..।
तो राम की तो अस्मिता है। राम अहंकार के पार नहीं हैं। क्योंकि अहंकार के अगर पार हों तो कौन मान कर चले, किसकी मान कर चले! अहंकार के जो पार हो उसका कैसा चरित्र होगा पू बिंदु ही नहीं, केंद्र ही नहीं, तो उसके आसपास चरित्र का चाक कैसे चलाओगे? उसकी कील ही टूट गई तो चाक कैसे चलेगा?
कृष्ण अहंकार—शून्य हैं। अपूर्व हैं! बहुत पार के हैं! बहुत दूर हैं! तुम जब तक अपनी क्षुद्र धारणाओं से मुक्त न होओ—चरित्र की, शुभ की, अशुभ की, द्वंद्व की, द्वैत की; जब तक तुम्हारी तार्किक धारणा न छूटे; जब तक तुम जीवन जैसा है उसको वैसा ही न देखने को समर्थ हो जाओ—तब तक कृष्ण तुम्हारी पकड़ में न आयेंगे। इसलिए कृष्ण की लीला को रासलीला कहा है। वह परमात्मा की लीला है। वह अबूझ है, रहस्यमय है।
राम बिलकुल बूझ के भीतर हैं। राम बिलकुल गणित और तर्क की तरह साफ—सुथरे हैं। तुम इंच भर गलत न पाओगे और इंच भर बेबूझ न पाओगे। राम की कथा बहुत साफ कथा है—स्वच्छ, धुंआ बिलकुल नहीं है। क्या की कथा बड़ी रहस्यपूर्ण है, सब उलझा—उलझा है। कृष्ण की कथा तो जैसे परमात्मा की ही छोटी—सी झलक है।
तुम परमात्मा को देखो, परमात्मा में तुम्हें कोई चरित्र दिखाई पड़ता है? अगर परमात्मा में चरित्र हो तो बुरे आदमी दुनिया में जीने ही नहीं चाहिए।
एक सूफी फकीर बायजीद हुआ। उसके गांव में एक बड़ा दुष्ट आदमी था। सारा गांव उससे परेशान था और फकीरों को तो वह खास तौर से सताता था। एक दिन बायजीद ने रात प्रार्थना की कि 'हे प्रभु, किसी चीज की सीमा होती है! इतनो को उठाता है, भलों को उठा लिया, अच्छे— भले आदमी हट गये, उठ गये, नर्क चले गये, कहां गये कुछ पता नहीं—यह कहीं नहीं जाता! तू इसको भेज। इसको क्यों रोक रखा है मे और भले सताये जा रहे हैं और यह बुरा फल रहा है। एक सीमा होती है।कहते हैं, बायजीद ने आवाज सुनी हृदय के अंतर्तम से आती कि बायजीद, मैं उसे साठ साल से बर्दाश्त कर रहा हूं और जब मैं उसे बर्दाश्त कर रहा हूं तो तू शिकायत करने वाला कौन? तू भी उसे स्वीकार कर।
अगर परमात्मा बुरों के विपक्ष में हो तो बुरे मिट जाने चाहिए, क्योंकि उसकी तो मर्जी काफी है। तुम कहते हो न कि उसकी बिना मर्जी के पत्ता नहीं हिलता, तो रावण कैसे सीता चुरा ले गया? पता नहीं हिलता उसकी बिना मर्जी के तो रावण के पीछे उन्हीं की सांठगांठ रही, उन्हीं का इशारा रहा कि रावण चला जा। इशारा कर दिया होगा कि..। अगर उसकी बिना मर्जी के कुछ भी नहीं होता तो बुरा भी उसकी मर्जी से हो रहा है, यह तो मानोगे न! इसको कैसे इनकार करोगे?
इससे बचने के किए धर्मों ने बड़ी तरकीबें खोजी हैं। पारसियों ने दो तत्व मान लिए हैं एक शुभ का तत्व—परमात्मा, एक अशुभ का तत्व, वह परमात्मा का विरोधी है। वह कर रहा बुरे काम। लेकिन वह जो परमात्मा का विरोधी तत्व है, वह परमात्मा की बिना मर्जी के है? तब तो परमात्मा की सर्वशक्तिमत्ता खत्म हो गई। यह कोई तरकीब हुई बचने की?
ईसाई कहते हैं. यह जो बुरा काम हो रहा है, यह शैतान कर रहा है। यही मुसलमान कहते हैं कि बुरा काम शैतान कर रहा है और भले काम परमात्मा कर रहा है। अगर तुमने चोरी की तो यह शैतान ने तुम्हारे दिमाग में रख दिया! मगर शैतान को किसने इस अस्तित्व में रखा है 3: चलो यह भी मान लो कि शैतान ने तुम्हारे दिमाग में रख दिया, उन्होंने यह दफ्तर उनके हाथ में छोड़ दिया होगा; लेकिन शैतान को किसने इस अस्तित्व में रखा दिया है? शैतान को रखा जाना चाहिए, परमात्मा की खोपड़ी में यह किसने रख दिया है?
तुम इससे भाग न सकोगे। कहीं तो तुम्हें परमात्मा की आत्यंतिक जिम्मेदारी स्वीकार करनी पड़ेगी। तुम्हें यह मानना ही पड़ेगा कि किसी न किसी अर्थ में—या तो परमात्मा सर्वशक्तिमान नहीं है, उसकी शक्ति सीमित है, और अगर उसकी शक्ति सीमित है तो पूजा इत्यादि बंद करो। फिर तो बेहतर है शैतान को ही राजी कर लो, क्योंकि हजारों—हजारों साल, करोड़ों—करोड़ों साल से शैतान अभी तक हारा नहीं है; हारेगा कभी, दिखाई नहीं पड़ता। और दुनिया में राम को मानने, परमात्मा को मानने वाला तो एक चलता होगा, शैतान को मानने वाले करोड़ों हैं। उसके अनुयायी ज्यादा हैं निश्चित। उसका धर्म बड़ा है। उसकी शक्ति भी बड़ी दिखाई पड़ती है। फिर तो कोई सार नहीं है परमात्मा की पूजा करने में। अगर सब शक्ति उसकी नहीं है तो जगत में द्वंद्व है, द्वैत है; और दूसरा जो है शैतान, वह बड़ा शक्तिशाली है। या तो यह मानो कि परमात्मा शक्तिशाली नहीं। अगर मानते हो कि परमात्मा शक्तिशाली है, सर्वशक्तिशाली है, सर्वशक्तिमान है तो फिर यह स्वीकार करो कि उसका कोई चरित्र नहीं।
कृष्ण की लीला में उसी परमात्मा की चरित्रहीनता का पूरा प्रतिबिंब है। शुभ को भी वही जिला रहा, अशुभ को भी वही जिला रहा। दिन भी वही बनाता रात भी वही। और जन्म भी वही देता और मौत के द्वार से भी वही तुम्हें ले जाता है। सुख भी वही बरसाता और दुख भी वही। फूल भी उसके हैं और काटे भी उसके। समग्र उसका है। मगर यह बड़ी खतरनाक बात हो गई। इसका मतलब यह हुआ कि तुम्हारी सब धारणायें—शुभ और अशुभ की—व्यर्थ हैं। अगर परमात्मा को जानना है तो धारणाओं से मुक्त हो जाना जरूरी है।
कृष्ण का पूरा जीवन धारणा—मुक्त है। और जिसको कृष्ण के पीछे चलना हो, उसको सारी धारणाओं से मुक्त हो जाना जरूरी है। धारणा—शून्य हो कर ही तुम आह्लाद से भर सकोगे। और तब तुम देखोगे कि जो हो रहा है, ठीक है। बुरा भी ठीक है अपनी जगह। वह भी चाहिए। उसके बिना भी जीवन विरस हो जायेगा। उसके बिना भी जीवन नहीं हो सकेगा। काटे भी चाहिए। कीटों के बिना फूल इतने सुंदर न रह जायेंगे। कीटों के कारण ही फूल इतने सुंदर हैं। फूल ही फूल हों तो बेस्वाद हो जायेंगे। कुरूपता भी चाहिए, तो ही सौंदर्य में कुछ अर्थ है। संसार भी चाहिए, तो ही मोक्ष में कुछ रस है, अन्यथा कोई रस न रह जायेगा अगर मोक्ष ही मोक्ष हो। जीवन में जो संगीत है वह विपरीत स्वरों के बीच सामंजस्य से है।
कृष्ण की लीला कृष्णलीला नहीं कही जाती, रासलीला कही जाती है। वह परम सत्य है। उसमें कृष्ण का कोई चरित्र नहीं है, इसलिए कृष्ण को बीच में नहीं रखा जा सकता। उसमें कृष्ण के नाम से परमात्मा ही बीच में है।
मगर कृष्ण को स्वीकार करना बड़ा कठिन मामला है—उतना ही कठिन मामला है जितना परमात्मा को स्वीकार करना कठिन है। इसलिए तो तुमने छोटी—छोटी मूर्तियां बना ली हैं परमात्मा की—अपने—अपने हिसाब से, क्योंकि पूरे परमात्मा को तो स्वीकार करना बहुत कठिन है। सबने अपने— अपने घर—पूले बना लिए हैं। अपना—अपना घर में ग्रामोद्योग खोल लिया है भगवान बनाने का। अपना बना लिया, मिट्टी के गणेश जी रख लिए, पूजा इत्यादि कर ली, सिरा भी आये, झंझट मिटाई। तुमने अपना भगवान बना लिया है, क्योंकि पूरा भगवान तुम्हें घबड़ाता है, तुम्हें कंपाता है, तुम्हारे प्राण संकट में पड़ जाते हैं!
गांधी कहते थे, गीता उनकी मां है। लेकिन कृष्ण को वे कभी पूरा स्वीकार नहीं कर पाये। और उन्होंने कभी गीता के अलावा कृष्ण की कोई बात नहीं की। चुन लिया। भागवत के कृष्ण नहीं, क्योंकि वहां तो बड़ा उपद्रव है, वहां तो गांधी को बड़ी अड़चन होगी। वहां तो मोर—मुकुट बांधे हुए बांसुरी बजाते कृष्ण से गांधी का क्या मेल होगा! जरा गांधी के ओठों पर बांसुरी रख कर देखो, तो तुम खुद ही कहोगे कि आप कृपा कर बांसुरी वापस दें—या तो आप बांसुरी को नहीं जंचते या आपको बांसुरी नहीं जंचती, मगर बांसुरी वापिस करिए।
गांधी के साथ बांसुरी का कोई मेल नहीं होगा। गीता की वे बात करते थे, लेकिन वह राजनीतिक चाल थी। क्योंकि गीता पर इतने लोगों का भाव है, इसलिए उसे छोड़ नहीं सकते थे। कहते थे 'गीता—माता'! लेकिन जब मरे तो मुंह से जो नाम निकला, वह था. हे राम! उस वक्त कृष्ण नहीं निकला। कृष्ण की कोई जगह नहीं थी हृदय में।
अब तुम थोड़ा सोचो, जीवन भर कहा. अल्ला ईश्वर तेरे नाम। मरते वक्त अल्लाह भी नहीं निकला—निकला : हे राम! जिन्ना ने फौरन सोचा होगा : 'देख लो! यही तो मैं कह रहा था जिंदगी भर से कि 'अल्लाह ईश्वर तेरे नाम', यह सब राजनीति है, क्योंकि मरते वक्त अल्लाह क्यों न निकला? 'हे राम' क्यों निकला?'
मरते वक्त आदमी में राजनीति नहीं रह जाती। मरते क्षण में तो वही निकल आता है जो भीतर था। राजनीति तो जिंदा होने का खेल है, हिसाब—किताब है—अब गोली लग गई, अब कहां फुरसत सोचने की कि क्या निकले! सोचने का मौका मिलता अगर गांधी खाट पर मरते, बीमारी से मरते साधारणत: मरते—तो 'अल्ला ईश्वर तेरे नाम' कहते हुए मरते। लेकिन गोली ने सब मामला गड़बड़ कर दिया। हिंदू की गोली थी और वहां भी हिंदू को प्रगट कर गई. हे राम! अनजाने क्षण में निकल गया। उस वक्त कृष्ण भी नहीं निकला। क्यों राम?
गांधी की पकड़ भी मर्यादा की थी—ऐसी छोटी—छोटी चीज में मर्यादा! ऐसी छोटी—छोटी चीज में मर्यादा कि तुम कभी हंसोगे भी। उनके सेक्रेटरीज को यह भी खयाल रखना पड़ता था छोटी—छोटी चीजों का। जिस सेविका ने उनके कपड़े धोये, चादर धोई, वह रस्सी पर डाल आती तो वह पीछे जा कर बता आते कि इसको कैसा डालो। चादर रस्सी पर कैसी डालनी, इरछी—तिरछी न हो—उसकी भी मर्यादा है! उसको सीधा करके डालो। किचिन में पहुंच जाते और समझाते कि सब्जी भी कैसे काटो —उसकी भी मर्यादा है।.. टमाटर को ऐसा सीधा नहीं काट देना चाहिए, क्योंकि हो सकता है जहां से टमाटर वृक्ष से जुड़ा होता है वहां कोई छोटा —मोटा कीड़ा—मकोड़ा छिपा हो, हत्या हो जायेगी! तो पहले उस हिस्से को अलग काट कर करो। .......ऐसी छोटी — मोटी मर्यादा। हर चीज का हिसाब। चिट्ठी आये तो लिफाफे को फेंक मत दो, खोल कर उलटा जोड़ कर फिर लिफाफा बना लो!
ये बातें तो खूब चंजी। जंचने वाली हैं, क्योंकि यही तुम्हारी बुद्धि है। लगा कि यह आदमी तो बड़ा गजब का है! कैसा चरित्र!
कृष्ण बेक हैं। गांधी में सीधा तर्क है—वे राम की ही श्रृंखला में हैं। वे उसी परंपरा में आते हैं। कृष्ण .बेबूझ हैं। कृष्ण की लीला परमात्मा की लीला का छोटा—सा प्रतिबिंब है। अगर तुम कृष्ण को समझ पाये तो तुम सारे अस्तित्व की कथा को समझ लोगे। अगर राम को समझ पाये तो तुम इतना ही समझ पाओगे कि अच्छे आदमी का जीवन कैसा होता है। रावण को समझो तो बुरे आदमी का जीवन कैसा होता है, यह समझ में आ जायेगा। राम को समझो तो अच्छे आदमी का जीवन कैसा होता है, यह समझ में आ जायेगा। कृष्ण को अगर समझो तो तुम समझोगे पारमात्मिक जीवन कैसा होता है, भागवत जीवन कैसा होता है! अच्छा—बुरा दोनों वहां मिलते हैं। अच्छा—बुरा दोनों ही किनारे की तरह हैं, परमात्मा की नदी दोनों के बीच बहती है, दोनों को छूती बहती है। कृष्ण के जीवन में अच्छा भी है, बुरा भी है। कृष्ण का जीवन समग्र है, खंडित नहीं, चुना हुआ नहीं, पूरा का पूरा है, कच्चा है! इसमें चुनाव नहीं है, अनगढ़ है।
इसलिए कृष्ण के चरित्र को हम चरित्र भी नहीं कहते—रासलीला, खेल! और खेल भी कृष्ण का नहीं; जिसका सारा रास चल रहा है, उसी का! उसी बड़ी रासलीला की यह छोटी—सी अनुकृति है।

 आखिरी प्रश्न :

प्रभ आप मिले और 'किती सांगू मी सांगू तुम्हाला, आज आनदी आनंद झाला!' कितना बताऊं, आज आनंद ही आनंद घटित हुआ है!

ह तो बस शुरुआत है। बढ़े चलें तो जो अभी बूंद की तरह घटा है, कल सागर की तरह हो सकता है। इतने से तृप्त मत हो जाना, राजी मत हो जाना। यह तो केवल भूमिका है। जो मैं तुमसे कह रहा हूं उसे सुन कर तुम्हें जो आनंद होता है, यह तो केवल भूमिका है; असली किताब तो अभी शुरू ही नहीं हुई है। असली किताब तो अनुभव की है। मेरे शून्य को सुनोगे तो समझ में आयेगी। मेरे शब्द को सुनने से इतना ही हो जाये कि तुम्हें भरोसा बैठे कि ही, इस आदमी के साथ थोड़ी देर चलें, कि चलें देखें थोड़ी देर इस आदमी की आंखों से, कि जिन दृश्यों की यह बात कर रहा है शायद सच हों! इतना भी पैदा हो जाये तुम्हारे भीतर तो भी महाआनंद मालूम होगा, क्योंकि एक किरण उतरी, एक बूंद गिरी। लेकिन यह शुरुआत है।
और जल्दी से अपने को बंद मत कर लेना, क्योंकि बहुत, मैं जानता हूं शब्द में ही उलझे रह गये हैं। उन्हें आनंद हुआ था, फिर वे सुनने में ही आनंद ले रहे हैं। मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं कि हमें तो आपको सुनने में आनंद आता है; ध्यान इत्यादि में हमारा कोई रस नहीं है।
अब यह बड़े मजे की बात हो गई। यह तो ऐसा हुआ कि तुम डाक्टर के पास गये और तुमने कहा. 'आप जो प्रिस्कि्रप्शन लिखते हैं, आपके हस्ताक्षर बड़े प्यारे हैं! बड़ा मजा आ जाता है। सम्हाल कर फाइल में रखते हैं। दवा इत्यादि लेने में हमें कोई रस है ही नहीं।तो डाक्टर भी सिर फोड़ लेगा। तो क्यों मेहनत करवा रहे? प्रिस्कि्रप्शन सम्हाल कर रख लेते हैं, फाइल में जड़वा लेते हैं फोटो। तुम कहते हो. दवा इत्यादि में हमें कोई रस नहीं।
मैं तुमसे बोल रहा हूं सिर्फ इसलिए, ताकि तुम ध्यान कर सको। मैं तुमसे बोल रहा हूं सिर्फ इसलिए, ताकि तुम प्रेम कर सको। मैं बोलने के लिए नहीं बोल रहा हूं। यह बात जरूर सच है कि जब डाक्टर किसी बीमार को देखने आता है तो डाक्टर को देखते ही बीमार पचास प्रतिशत ठीक हो
जाता है। वे हमारे डाक्टर ललित बैठे हैं, उनसे तुम पूछ सकते हो। मरीज डाक्टर को देखने से पचास प्रतिशत ठीक हो जाता है। डाक्टर का आना ही पर्याप्त है, भरोसा आ गया।
गुरु के मिलते ही पचास प्रतिशत तो सब ठीक हो जाता है—मिलते ही! मगर यहीं मत रुक जाना। जब शब्द सुन कर ऐसा हो सकता है तो सत्य के अनुभव से कैसा होगा! याद रखना, भूलना मत। अनेक शब्द में ही उलझ कर रह जाते हैं, इसलिए तुम्हें चेताता हूं।
यह एक रश्मि!
पर छिपा हुआ है इसमें ही
ऊषा बाला का अरुण रूप
दिन की सारी आभा अनूप
जिसकी छाया में सजता है
जग राग—रंग का नवल साज
यह एक रश्मि!
यह एक बिंदु!
पर छिपा हुआ है इसमें ही
जल श्यामल मेघों का वितान
विद्युत बाला का बज गान
जिसको सुन कर फैलाता है
जग पर पावस निज सरस राज
यह एक बिंदु!

 जो कहा जा रहा है, वह तो एक बूंद है। जिसकी तरफ बूंद इशारा कर रही है, वह महासागर है। बूंद तो निमंत्रण है, बुलावा है। अगर बूंद का बुलावा तुम्हें सुनाई पड़ गया तो चल पड़ना नाचते हुए सागर की तरफ—अनुभव के सागर की तरफ! तब बहुत होगा, अपार होगा। तुम सम्हाल न सकोगे, इतना होगा। इतना होगा कि तुम उसमें बह जाओगे। तुम बचोगे ही नहीं, इतना होगा।
और एक बूंद भी सुख देती है। गर्मी के उत्ताप के बाद, जब भूमि फट गई होती है, दरारें पड़ गई होती हैं, और प्रतीक्षा होती है आषाढ़ की और आकाश में पहले बादल घिरते हैं और छोटी—सी बूंदा—बांदी हो जाती है, तो भी एक तृप्ति की लहर फैल जाती है। अभी प्राणों तक पहुंच भी तो नहीं सकती बूंद, क्योंकि बूंद अभी नई—नई आई, थोड़ी—सी आई; अभी तो ऊपर की धूल को भी गीला न कर पायेगी, अभी तो पृथ्वी के प्राणों तक कैसे पहुंचेगी! लेकिन खबर आ गई, वर्षा करीब है।

            यह भूमि भली
यह बहुत जली
यह और न अब
जल को तरसे घन बरसे
घन बरसे
भीग धरा गमके
घन बरसे
पर्वत भीगे
घर छत भीगे
भीगे बन
खेत कुटी झरसे
घन बरसे
घन बरसे
भीग धरा गमके
घन बरसे!
बूंद पर रुकना मत। बूंद की आहट सुन कर खोल देना अपने प्राण मेघों के लिए, घनों के लिए। बूंद आ गई है तो मेघ करीब हैं। हो जाना नग्न, ताकि दूर—दूर तक, गहरे—गहरे तक, तुम्हारे अंतरतम
तक प्रवेश हो जाये!

            जो भेंट चला था मैं ले कर
हाथों में, कबकी कुम्हलाई
नैनों ने सींचा उसे बहुत
लेकिन वह फिर भी मुरझाई
तब से पथ पुष्पों से निर्मित
कितनी मालायें सूख चुकीं
जिस पग से मैं आया उस पर
पाओगे बिखरी बिखराई
कुम्हला न सकी मुरझा न सकी
लेकिन अर्चन की अभिलाषा!
मैं चुनता हूं हर फूल
अटल विश्वास लिए
ये पूज न पायें प्रेय चरण
लेकिन दुनिया इनकी श्रद्धा को
एक समय पूजेगी ही!
बहुत—बहुत जन्मों से तुम न मालूम कितने पूजा के थाल बना कर चल रहे हो, सजा कर चल रहे हो! बहुत जन्मों से न मालूम कितनी जलती आकांक्षाएं ले कर तुम खोज रहे हो! जब कभी प्रभु का कोई मंदिर करीब तुम्हें दिखाई पड़ेगा, मंदिर का घटनाद सुनाई पड़ेगा, मंदिर से उठती हुई धूप की धुएं की रेखा तुम्हारी नासापुटों को छुएगी—तुम नाच उठोगे! तुम्हारी सदा से अर्चना की जो अभिलाषा थी—हारी बहुत बार, पर हार न पाई—पुनरुज्जीवित हो उठेगी; नये प्राण पड़ जायेंगे।
लेकिन वहीं रुक मत जाना। मंदिर के बाहर बहुत रुक गये हैं, इसलिए कहता हूं। मंदिर के भीतर प्रवेश करना। बाहर इतना है तो भीतर कितना न होगा! शब्द में इतना है तो निःशब्द में कितना न होगा! शब्द तो उधार है। मैं कितना ही कहूं, लाख तुम्हें ठीक से कहूं तो भी ठीक—ठीक तुम तक पहुंचेगा नहीं। शब्द मार डालता है। शब्द सीमा दे देता है असीम को। शब्द के भीतर सिकुड़ना पड़ता है सत्य को। लेकिन अगर तुम आनंदित होने लगो मेरे साथ, सच ही मेरे और तुम्हारे बीच एक रास रचने लगे; मेरा शून्य तुम्हारे शून्य से मिलने लगे; मेरे शून्य के हाथ में तुम हाथ डाल कर नाचने लगो—तो अपूर्व आनंद घटित होगा! महाआनंद होगा!! सच्चिदानंद घटित होगा!!!
छोटे से तृप्त मत होना। इस सूत्र को सदा याद रखना. संसार में तृप्ति; परमात्मा में अतृप्ति। संसार में जो मिले राजी हो जाना। यहां कुछ परेशान होने को है नहीं। रोटी—रोजी मिल जाये, छप्पर मिल जाये—बहुत! खूब प्रसन्न हो जाना। तृप्त हो जाना। और परमात्मा में कितना ही मिले, राजी मत होना, क्योंकि और— और मिलने को है। तुम जहां राजी हो जाओगे, वहीं रुक जाओगे। परमात्मा में तो अतृप्त ही बने रहना। संसार में तृप्त और परमात्मा में अतृप्त—ऐसी साधक की परिभाषा है। परमात्मा में तृप्त और संसार में अतृप्त—ऐसी संसारी की परिभाषा है।
लोग परमात्मा में बिलकुल तृप्त मालूम होते हैं। इतने लोग हैं दुनिया में, उनको परमात्मा से कुछ लेना—देना नहीं। वे कहते हैं : 'बिलकुल तृप्ति है। आप वहां भले, हम यहां भले! सब ठीक चल रहा है। परमात्मा ऊपर, हम पृथ्वी पर; सब ठीक चल रहा है। अब और करना क्या है। आप भले हम भले।कभी जरूरत पड़ती है तो मंदिर में दो फूल चढ़ा देते हैं—औपचारिक कि कोई झंझट खड़ी न करना। सब ठीक ही चल रहा है आपकी कृपा से। लेकिन परमात्मा से कोई अतृप्ति नहीं है कि और मिले कि और मिले; कि बूंद बरसी, अब सागर बरसे! नहीं, कोई जरूरत ही नहीं है।
संसार में बड़ी अतृप्ति है। हजार हैं तो दस हजार हों; दस हजार हों तो लाख हों; लाख हों तो करोड़ हो—वहा अतृप्ति की कोई सीमा नहीं है। कितना ही हो जाये, तो और हो!
तुमसे मैं कहता हूं : साधक का लक्षण है—संसार में तृप्ति और परमात्मा में निरंतर अतृप्ति। ऐसा दिव्य असंतोष तुममें जग जाये तो परमात्मा तुमसे ज्यादा देर दूर नहीं रह सकता। जो इतने प्राणों से पुकारता है, उससे मिलना ही होगा, मिलना ही होता है!

 हरि ओंम तत्सत्!

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