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बुधवार, 24 दिसंबर 2025

41 - पोनी - एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा -(मनसा-मोहनी)

 पोनी – एक  कुत्‍ते  की  आत्‍म  कथा

अध्‍याय - 41

पड़ोस का मकान खरीदना

पड़ोस में जो मामा—मामी रहते थे उनके गुजर जाने से उनका मकान किसी उनके रिश्तेदार ने कब्‍जा लिया था। ये जग कहां खाली रहता है...आप हटे नहीं की किसी और का अधिकार, किसी के बच्‍चे, किसी के रिश्तेदार, किसी का प्यारा। मामा—मामी के बाद उनकी सभी गायें तो पहले ही जंगल चली गई थी। क्‍योंकि मामा ने अपने जीते जी उन्‍हें मुक्‍त कर दिया था। वह जंगल में जंगली गायों के साथ प्रसन्न रहने लगी थी। मामा-मामी में ये संवेदना थी वो पशुओं के प्रति अति ही प्रेम पूर्ण थे। आज कल कम ही लोगों में इस तरह की संवेदना आप पाओगे। मामा का पूरा जीवन एक सादगी से भरा था। उनके अंदर एक तृप्ति थी, एक आदर सम्‍मान था। आम लोगों की तरह मारे—मारे नहीं फिरते थे। न जाने मनुष्‍य किस तेजी से बदल रहा था। जिस तरह के लोग मर रहे है, क्यों उस तरह के मनुष्‍य पैदा नहीं हो रहे। न जाने किस तरह कि चेतनाए पृथ्‍वी पर आ रही थी। अब इस पड़ोसी को ही ले लो रोज कुछ न कुछ कलेश होता रहता था। रोज रात को बहुत जोर—जोर से शराब पीकर अंट-शंट न जाने क्या-क्या बकता रहता था। सारे मोहले की शांति को भंग कर दिया था  इस एक आदमी ने। आस पास के लोग यहां का माहौल पहले कितने शांत था। कभी पत्ते के खड़केने की आवाज तक नहीं सुनाई देती थी। जब यह पागल आदमी रात को शोर-शराबा करता तो उस समय मुझे भी बहुत गुस्सा आता था और मैं छत पर खड़ा होकर उसे भौंकने लग जाता था। पता नहीं वह मेरी भाषा समझ पाता था या नहीं परंतु मैं तो उसे डांट देता था। मैं किसी से डरता थोड़े ही था गलत है तो गलत कहा ही जायेगा।

एक दिन देखता हूं कि कुछ पड़ोसी मामा-मामी के घर में कुछ गहमागहमी हो रही थी। पापा जी और राम रतन पड़ोसी के घर में आ जा रहे थे। मैं छत से ये सब देखता था और सोचता था कि जरूर कुछ गड़बड़ होनी वाली है। पापा जी तो बहुत कम जाते है वहां पर कभी न जाने क्या माजरा था। और एक दो दिन से रात का शोर-शराबा भी बंद हो गया था। तब मुझे पता चला की पड़ोस का मकान पापा जी ने खरीद लिया था। मम्‍मी जी तो मना कर रही थी कि हम नहीं लेंगे। क्‍या पूरी जिंदगी इसी तरह से कटते मरते रहेंगे।

सोमवार, 22 दिसंबर 2025

07-सदमा - (उपन्यास) - मनसा - मोहनी दसघरा

अध्याय-07

(सदमा - उपन्यास) 

काफी लम्बा रास्ता तय कर के सब लोग ऊटी से आये थे। इस लिए तन के साथ मन भी बहुत थक गया होगा। इसलिए खाना खाकर सब विश्राम करने के जल्दी ही अपने-अपने कमरों में चले गये। जब श्याम के चार बजे की चाय का समय हुआ, तब जाकर गिरधारी ने आवाज दी कि चाय तैयार है सब लोग आ जाओ। मानो ये इतना समय पल में ही इतना गुजर गया। इस बात का सब को अचरज हो रहा था। अगर आज गिरधारी चाय के लिए नहीं जगाता तो ने जाने और कितनी देर वो सब सोते ही रह जाते। परंतु आज गिरधारी भी उन्हें नहीं जागना चाहता की चलो चाय कहां भागी जा रही है। कितने दिनों बाद सब सूख की नींद सो रहे है। बच्चा, लौकी व तुरई सोते में ही अपना विकास करते है। ये बात गिरधारी लाल के पिता ने उनको बचपन में बतलाया करते थे। इसलिए कम ही गिरधारी सोते हुओं को जगता था। जब तक की कोई खास मजबूरी न हो।

नेहालता तो न कभी थकती थी और न कभी रुकती थी। वह तो हमेशा मोज मस्ती के लिए तैयार रहती थी। उसकी चहल पहल के बिना कैसे पूरा घर सूना-सूना बे रौनक सा हो गया था। न किसी का खाने का मन करता था। कुछ भी बना लो उस भोजन में स्वाद ही नहीं आता था। आज इस तरह से सब को विश्राम करते देख कर गिरधारी को कितना अच्छा लग रहा था। पिछले दो-तीन साल से घर में मानो शनि की ढैय्या लग गई थी। जिस भी काम में हाथ डालों वही सब टूट कर बिखर जाता या बेकार हो जाता। अब कहीं जाकर घर-घर जैसा लगता है। वो सब अधूरा पन जो सालों से यहां वहां पूरे घर को घेर हुए था अब कही नेहालता के आने से छिन्न-भिन्न हो कर शायद पूर्ण हो जायेगा।

रविवार, 21 दिसंबर 2025

06-सदमा - (उपन्यास) - मनसा - मोहनी दसघरा

अध्याय-06

(सदमा - उपन्यास) 

तीन चार दिन के बाद भी सोम प्रकाश की हालत में कुछ सुधार नहीं आ रहा था। और मजे की बात तो यह की एम आर आई से पता चला की उसके सर के अंदर कोई चोट या खून के जमा होने का कोई चिन्ह दिखाई दे रहे थे। एक तरफ तो ये खुशी की बात थी, डा. के लिए परंतु दूसरी और ये चिंता खड़ी हो जाती है कि तब अचानक ये याददाश्त को क्या हो गया। ऐसा तो कम ही देखने को मिलता है। ये संवेदना के कारण भी हो सकता है। लेकिन ये केवल एक अनुमान मात्र ही समझो बीमारी का पता तो समय पाकर ही चल सकता है। इसलिए तीन चार दिन और अस्पताल में डा. ने और सोम प्रकाश को रखा और फिर कहां की आप नानी इसे घर ले जा सकती है। नानी बेचारी क्या करती। वह तो बस यही देख कर प्रसन्न थी की उसका सोमू जीवित तो है। और एक दिन नानी बूझे मन से सोम प्रकाश को घर ले कर आ जाती है। मन से ही नहीं वह शरीर से भी लाचार हो गया था। बूढ़ी नानी अब कैसे उसे उठा सकती है। कैसे उसे नहला धुला सकती है। कैसे उसकी देख भाल करेंगी।

उधर स्कूल के मालिक को जब ये पता चला की सोम प्रकाश अब स्कूल नहीं आ सकता है। तो उसे चिंता हुई की अब अचानक स्कूल का कार्य कौन सम्हालेगा। अपनी पति कि चिंतित देख कर उनकी पत्नी जो युवा थी जिसने उम्र ने देख कर पैसे से ही शादी की थी। अब उसे उसकी अंतस की वासना परेशान कर रही थी। वह बीच-बीच में सोम प्रकाश को अपने जाल में फंसाने के लिए कई पैंतरे बदल चूकि थी। अब उसने सोचा ये मोका अच्छा है। सो उसने अपने पति को कहा की ड्रिलिंग कुछ परेशान से दिखाई दे रहे हो। एक बनावटी छद्म रूप बना कर। तब उनके पति ने कहां की नहीं बस स्कूल के विषय में सोच रहा था। की सोम प्रकाश के बाद अब एक दम नया टीचर कहां से लाया जाये। उस के ठीक होने में पता नहीं कितना समय लगेगा।

40 - पोनी - एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा -(मनसा-मोहनी)

पोनी – एक  कुत्‍ते  की  आत्‍म  कथा-अध्याय-40

स्वामी नरेंद्र जी का आगमन

इस तरह इस जीवन मैं चौथी बार मृत्यु के द्वार को छूकर लोट आया था। ये एक नादानी नहीं तो और क्‍या थी मेरी। क्‍या अभी भी मेरे अंदर बालपन लड़कपन चल रहा था। क्या सभी प्राणियों के जीवन में मृत्यु का झूला इसी तरह से झूलता रहता होगा। या ये सब मेरी नादानी या किसी मूर्खता के कारण घट रहा था। कितने कम पशुओं के जीवन में इतना सुंदर वातावरण होगा। मेरे जैसे जीवन का रस्‍सास्‍वाद अनुभव बड़े भाग्य से किसी-किसी को ही मिलेगा। मेरी नज़रों में इस कीमती जीवन की कोई कदर नहीं थी। मैं इस अमूल्य अवसर को यू ही फेंकता फिर रहा हूं। इस वरदान की अगर मैं कदर नहीं करूंगा तो कब—कब मेरे पास फिर लोट कर आयेगा। कब—कब कुदरत मुझे मौके देती रहेगी। जीवन में मैंने जरूर कुछ अच्छा किया होगा....तो ये स्थान, इतने प्यारे मनुष्य मुझे मिले है। मुझे इस सब की कदर करनी चाहिए अगर आप प्रकृति की कदर नहीं करते तो प्रकृति भी थक हार कर एक दिन तटस्थ हो जायेगी।

अपने इस अनमोल जीवन की कदर ने देख कर वह इसे मुझसे छिन लेगी। और मैं तो खुद ही इसे फेंकने के लिए तैयार था। मैं कितना पागल हूं, कितना मूर्ख हूं, ये सब बातें सोच कर मेरा मन कितना उदास हो गया था। इन सब बातों के कारण मुझे अंदर से अपने ऊपर क्रोध और ग्लानि भी हो रही थी। मन में एक पश्चाताप भी भरा था कहीं, कि अब ऐसा कभी नहीं करूंगा। परंतु ऐसा पहली बार नहीं उन पहली दुर्घटनाओं के बाद भी शायद मैंने इस तरह से सोचा था।

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2025

39 - पोनी - एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा -(मनसा-मोहनी)

पोनी – एक  कुत्‍ते  की  आत्‍म  कथा-

अध्‍याय -39

मेरा घर पहुंचना

अब जगह मैंने पहचान ली थी। धुंधली यादें जो गहरे में कहीं दबी पड़ी थी या शायद कहीं सो गई थी। वह अब धीरे—धीरे जग रही थी। जैसे-जैसे मन शांति और खुशी से भर रहा था सब बहुत अच्‍छा लग रहा था। लग रहा था वहीं समय फिर से लोट आयेगा और सच कहूं तो वहीं नहीं होगा उससे कहीं अधिक कीमती होगा। क्योंकि खोने के बाद अगर आप उस वस्‍तु या समय की कीमत नहीं जान पाते तो आप जी नहीं रहे आप केवल अपने को ढो रहे हो। मुझे सब साफ दिखाई देने का मतलब यह नहीं है कि आपने उसे पा लिया। अभी भी एक लंबी दूरी और बँधायें थी जो मुझे पार करनी थी। कितने ही मेरे साथी कुत्‍ते मेरा मार्ग रोकेंगे और मुझे उनसे अपने आप को बचाते हुए घर जाना होगा। और इस हालत में देख कर पता नहीं घर के प्राणी मुझे पहचानेंगे या नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं की वह मुझे घर से ही निकाल दे। कि अब तुम्‍हारी जरूरत नहीं रही। अनेकों विचार मेरे मस्तिष्क में आ जा रहे थे...न जाने आगे क्या होगा कहा नहीं जा सका था। क्‍योंकि में कितनी ही बार उन लोगो को परेशान कर चूका हूं। परंतु मन में भगवान से दुआ कर रहा था कि एक बार—बस इस बार मुझे उस घर में रहने दे फिर देखना मैं कितने अच्‍छे बच्‍चे की तरह रहूंगा। कोई शरारत नहीं करूंगा। अगर वह जंगल न भी ले जायेंगे तो में घर पर ही रह लूंगा। एक अच्छे बच्चे की तरह।

05-सदमा - (उपन्यास) - मनसा - मोहनी दसघरा

अध्याय-05

(सदमा - उपन्यास) 

श्याम होते न होते सोम प्रकाश की हालत में सुधार दिखाई दे रहा था। सुबह जिस इंस्पेक्टर कि ड्यूटी थी उनके चले जाने के बाद वही पहले वाला इंस्पेक्टर ड्यूटी पर था जो सोम प्रकाश को ढूंढता हुआ नानी के घर तक पहुंच गया था। नानी सुबह से सोम प्रकाश के पास ही बैठी थी। अब तो श्याम ढल रही थी। इंस्पेक्टर ने नानी को बैठे देखा तो वह उसके पास जाकर कहां नानी आप अब यहां नाहक परेशान हो रही हो। चलों आप को अब मैं घर छोड़ आता हूं। परंतु नानी है कि जाना नहीं चाह रही थी। परंतु इस उम्र में इस तरह से तो उसकी खूद की तबीयत खराब होने का भय था। सो ये बात इंस्पेक्टर ने नानी के पास बैठते हुए कहां। बेटा घर पर जाकर भी क्या करूंगी। मन तो यहीं सोमू के पास पड़ा रहेगा। तब इंस्पेक्टर ने कहां की अम्मा आप घर चलो अब डरने की कोई बात नहीं है। परंतु बेटा....मैं वहां क्या करूंगी। यहां कम से कम अपने सोमू को देख तो रही हूं। परंतु डा. और इंस्पेक्टर ने उसे घर जाने के लिए मना लिया की आज आप घर चली जाओ। थोड़ा रात आराम कर के कल सुबह फिर से आ जाना कल तक आपका सोमू बात चीत भी करने लायक शायद हो जायेगा। अभी तो आप उसे केवल देख सकती है। तब जाकर नानी घर जाने को तैयार हुई।

उदास मन और भारी कदमों से नानी घर जाने के लिए तैयार हुई। करती भी क्या बेचारी यहां केवल अपने तन मन को सता सकती थी। बेचारे इंस्पेक्टर अच्छे स्वभाव का था। उसने कहां की नानी चलों में तुम्हें छोड़ कर आता हूं। नानी ने इस बार उसे मना नहीं किया। नानी को घर छोड़ते हुए इंस्पेक्टर ने कहां आप आराम से खाना खा कर सो जाओ भगवान सब पर मेहरबान है भला ऐसी हालत में भी इतनी रात में इस तरह से खुले में पड़ा रह कर कोई बच सकता है। जबकि उसका खून काफी बह गया था। स्कूल के मालिक को पहले दिन ही खबर पहुंचा दी थी। ताकि वह अपने नये अध्यापक का इंतजार न करें। क्योंकि अभी सोम प्रकाश को तो ठीक होने में समय लगेगा। फिर ये भी देखना था उसके शरीर पर इस तरह की चोट कैसे आई किसी ने उस पर हमला या उसे मारा तो नहीं था।

बुधवार, 17 दिसंबर 2025

04-सदमा - (उपन्यास) - मनसा - मोहनी दसघरा

अध्याय-04

(सदमा -उपन्यास)

ऊटी का रेलवे स्टेशन एक दम से वीरान था। कहीं-कहीं दूर-दराज हल्की-हल्की लाईट जल रही थी। सर्दी की रात होने के कारण एक आधा कुत्ता भी कहीं पास छूप सुकड़ कर सोया हुआ था। कही दूर कुछ कुत्तों के भौंकने की भी आवाज जरूर आ रहा थी। परंतु अपने साथियों की आवाज का इस सर्दी में कौन जवाब दे। हां झींगुर अपनी अविरल ताने निर्दोष भाव से गाये जा रहे थे। तभी सोम प्रकाश के शरीर ने थोड़ी सी हरकत की। उसी समय अचानक स्टेशन मास्टर अपने कमरे से बाहर निकला उसने देखा की दूर कोई परछाई सी हिली। पहाड़ी स्टेशन होने के कारण यहां पर हमेशा जंगली जानवरों का भय बना ही रहता है। इसलिए इस खतरे इस बचने के लिए सब के हाथ में लकड़ी और टार्च जरूर होती है। तभी उसने टार्च की लाईट उस परछाई पर मारी तो उसे लगा की नहीं रे ये तो कोई मनुष्य है। परंतु मनुष्य इतनी शरद रात में वहां कैसे हो सकता है। इतनी रात में तो सड़क पर सफर करना भी खतरनाक होता है। एक तो यहां की सर्दी जो गर्मी के मौसम में भी बहुत खतरनाक होती है। आप जरा बहार सोए नहीं की आपकी छाती को पकड़ लेगी। तभी स्टेशन मास्टर ने खड़े होकर बड़े ही ध्यान से देखा। और वह उस परछाई की और चल दिया जैसे-जैसे वह आगे बढ़ रहा उसे दूर खंबे के पास एक मनुष्य का पेर नजर आये। शायद फिर उस परछाई ने पैर हिलने की कोशिश की। जिसे स्टेशन मास्टर का भय एक दया में बदल गया। ये तो कोई मनुष्य दिखाई दे रहा है।

तभी अचानक उनके दिमाग में बिजली कौंधी अरे ये तो कोई भला मानस लग रहा है। परंतु इतनी रात को यहां कैसे। उसने पास ही सो रहे कुली को आवाज दे कर जगाया और अपने साथ ले कर सोम प्रकाश की और चल दिया। सच वहां एक आदमी बेहोश अवस्था में पड़ा था। उसके सर और मुंह से खून भी निकल कर जम गया था। जिससे कारण लगता था, वह काफी देर का यहां पर पड़ा है। राम-राम कर के दोनों ने उसके सर को उठा कर जगना चाहा। भाई कौन हो....उठो बहार कितनी ठंड है तुम यहां कैसे आ गये। इस सब के कारण सोम प्रकाश ने आंखें खोली और कहां.....रेशमी.....रेशमी.....।

38 - पोनी - एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा -(मनसा-मोहनी)

पोनी – एक  कुत्‍ते  की  आत्‍म  कथा-(अध्‍याय 38)

लोट के बुद्धू घर को आये

मैं कितनी देर तक वहां अर्धचेतन अवस्था में पड़ा रहा या की सोता रहा कह नहीं सकता। परंतु ये तो पक्‍का था कि नींद बहुत गहरी आयी था। और गहरी नींद में कुदरत शरीर की बिगड़ी हुई संरचना को ठीक करने की विधि को अति उत्तम समझती है। आपका विरोध खत्म हो गया और कुदरत आप पर अपना आपरेशन कर सकती है। शायद इसलिए हजारों रोगों का एक राम बाण है गहरी नींद।  उठा तो सर का भार कुछ कम महसूस हो रहा था। अंदर से लगा की उठ कर चल दूं। रात कितनी बीती थी इस बात का अंदाजा मैं तारों को देख कर समझने की कोशिश कर रहा था। लेकिन अब तो चांद भी आसमान में काफी ऊपर तक चढ़ आया था। इसलिए तारों से अधिक विश्वास चाँद की चाल से किया जा सकता था। लेकिन वह कभी-कभी बादलों के बीच जाकर छुप जाता था। बादल जब आकर उसे ढक लेते तो वह किस अंदाज में पृथ्वी को निहारता होगा। कि देखो क्या मैं आप को दिखाई देता हूं जरा मुझे ढूंढो। प्रकृति के अपने ही निराले खेल थे। फिर भी वह बादलों से बाहर निकल कर रोशनी बिखेर देता था।

मैं उस चटक चाँद की रोशनी में मैं दूर तक देख पा रहा था। चारों और गहरी शांति थी, दूसरा कोई नहीं दिखाई दे रहा था। केवल दूर कहीं पर उल्‍लू के बोलने की कर्क नाद सुनाई दे रही थी। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि किधर चलू कहां जाऊं, चलने में अभी भी मुझे कमजोरी महसूस हो रही थी। मैं याद करने की कोशिश भी कर रहा था कि मैं कौन हूं?

सोमवार, 15 दिसंबर 2025

03-सदमा - (उपन्यास) - मनसा - मोहनी दसघरा

 अध्याय-03

(सदमा-उपन्यास)

अंदर ड्राइंग रूम में कुछ देर बैठ कर नेहालता के सभी यार दोस्त हंसी मजाक कर रहे थे। देखते ही देखते चाय नाश्ता मेज पर लग गया। सब चाय नाश्ता करने की तैयारी करने लगे। नेहालता को एक बार तो घबराहट हुई की ये सब क्या हो रहा है? कुछ ही पल में सब वहां से चले जायेंगे और वह फिर अकेली हो जायेगी। परंतु कहीं अचेतन एकांत भी चाहता था। परंतु ये कैसा द्वंद्व था। वह उसे अच्छी तरह से समझ नहीं पा रही थी। सब यार दोस्त चाय नाश्ता कर लेने के बाद ये कहते हुए खड़े हो गए की अब तुम आराम करो थक गई होगी। बहुत लम्बा सफर तय कर के आई हो। कल फिर से मिलते है। कहीं दूर चलने का प्रोग्राम बनाते है। तुम्हारे बिना तो हमारी पार्टी अधुरी-अधुरी रह जाती थी। अब तुम आ गई हो तो देखना अब हम कितनी मोज मस्ती करते है। परंतु नेहालता कहती है, नहीं नवीन अभी कुछ दिन के लिए मैं विश्राम करना चाहती हूं, बहुत थक गई हूं। इस बात से सब को कुछ अचरज तो जरूर होता है। परंतु वह सब नेहालता की हालत को जाने है। तब यही उचित समझा गया की कुछ दिन के लिए नेहालता को विश्राम करने दिया जाये।

अच्छा अंकल आंटी अब हम जाते है। कह कर सब यार दोस्त खड़े हो गए, श्रीमति राजेश्वरी मल्होत्रा को बाये-बाये कहते हुए सब गेट से बाहर चले गए। नेहालता बाहर बाल कॉनी में खड़ी हो सब यार दोस्तों को जाता हुआ देख रही थी। सब ने कार के अंदर बैठने से पहले हाथ हिला कर नेहा को फलाईंग किस किया। और देखते ही देखते कार दूर-और दूर होती चली गई। जब तक वह मोड़ नहीं आया नेहालता अपलक उन्हें निहारती रही। सब कितना बेगाना सा लगता था।

37 - पोनी - एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा -(मनसा-मोहनी)

पोनी – एक  कुत्‍ते  की  आत्‍म  कथा-

अध्‍याय -37

मेरा जीवन संघर्ष

पता नहीं मैं वहां उस स्थान पर कितनी देर तक बेहोश पड़ा रहा या केवल सांस चलती रही। इस बात का मुझे कुछ पता नहीं था न ही अंदाज था कि अब मैं कहां पर हूं। क्योंकि मैं अर्धचेतन अवस्था में एक गहरे मदहोशी में चल रहा था। अगर यही जीवन का नाम है तब तो मैं जीवित था। मैं कौन हूं, कहां पर हूं इस बात का मुझे कुछ भी भान नहीं था। मैंने आंखें खोल कर इधर उधर देखने कि कोशिश की मगर चारों और कुछ भी नजर नहीं आया। मैं उठा और उठ कर फिर चल दिया। कहां जाना किधर जाना ये मेरे पेर मुझे लिए चले जा रहे थे। बस एक रास्ता जो मेरे सामने था, परंतु उस का वो दूसरा छोर कहां है, मुझे नहीं पता कितनी ही देर मैं चलता रहा, एक बेहोशी कहो या नशा कहो। परंतु मैं ये देख कर अचरज कर रहा था की मेरे अंदर इतनी हिम्मत कहां से आ गई जब मैं यहां पर आकर लेटा था तो मेरे अंदर जान ही नहीं थी।

काफी दूर चलने के बाद एक जगह मैं पहुंच कर रूक गया असल में थक भी बहुत गया था। सामने एक सुंदर सा प्रांगण था, जहां साफ-सुथरी जगह लगी। मैं वहां पर पास ही एक नल था जिससे बहकर कुछ पानी जमा था उसे पिया और एक कोने में जाकर लेट गया। चहल पहल की आवाज सून कर मेरी आंखें खुली। कुछ लोग हाथों में थालियां लिए हुए इधर उधर जा रहे थे। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि ये सब क्‍या है? ये सब कौन है और क्या कर रहे थे?

रविवार, 14 दिसंबर 2025

02-सदमा - (उपन्यास) - मनसा - मोहनी दसघरा


अध्याय-02

(सदमा-उपन्यास)

रेल गाड़ी ऊटी स्टेशन को छोड़ अपने अगले गंतव्य की और जा रही थी। रात की नीरवता में वृक्ष भी कैसे साधु भाव को अपने में समेटे खड़े कितने गौरवशाली लग रहे थे। जब गाड़ी किसी पेड़ के पास से गुजरती तो वह वृक्ष पल के लिए लहरा कर कांप जाता। उस के उपर बैठ पक्षी पल भर के लिए अपनी आंखें तो खोलते परंतु वह जानते थे की अब इस वीरान काली रात में उनका कोई और ठोर-ठिकाना नहीं हो सकता। इसलिए वह खतरा महसूस करने पर भी अपने पंजों से उस डाल को पकड़ कर केवल बैठे रह जाते है। वह वहीं पर अडिग रहे थिर रहे जिस डाली पर अभी-अभी वह गहरी तंद्रा में सो रहे थे। परंतु पेड़ भी उस रेल की गति को अपने में समेट कर केवल झूम भर गया था। जिससे उसके उपर बैठे पक्षी डरे ना, जैसे वह एक मां के आँचल में हो। जब वह वृक्ष खुद नहीं डर रहा था, तो भला उस पर सहारा लिए उन पक्षियों डरने की क्या जरूरत है? जब तक आशियाना ही सुरक्षित है, तब उस पर रेन बसेरा करने वालों को भला क्यों भय-भीत होना चाहिए। ये सब पल में घटा और फिर वहां पर वही गहरी शांति लौट आई। पक्षी अपने को सुरक्षित समझ, परों को सुकेड़-समेट कर गहरी निंद्रा में लीन हो गये। ये सब देख कर पेड़ ही नहीं आस पास की पूरी प्रकृति एक गहरी श्वास ले कर फिर उसी मौन में लोट आई जो पल भर पहले उस वातावरण में फैला बिखरा था।

परंतु दूर कही किसी मोर की भय कांत पिहूं....पिहूं....वातावरण में एक नीरवता, एक क्रंदन भर रही थी। मोर के कान इस धरा पर सबसे ज्यादा संवेदन शील होते है। उसके कान महीन से महीन ध्वनि या कंपन की संवेदना को महसूस कर सकते है। चारों और शांति को चीरती रेल अपने गंतव्य की और बढ़ रही थी। ये बात उस में बैठा प्रत्येक प्राणी जानता था। चाहे वह सोया हुआ हो या जाग रहा हो। परंतु नहीं जानती थी तो वह रेशमी (नेहालता) उसका चेतन अचेतन एक द्वन्द्व में प्रवेश करता सा लग रहा था। क्योंकि वह अब रेशमी नहीं है वह तो अपने मां बाप की दुलारी नेहालता है। रेशमी तो दूर कहीं उस ऊटी की पहाड़ियों में पीछे रह गई। शायद नेहालता को अपने उस कान से सूने नाम की याद भी नहीं होगी। वह नाम तो आपूरित सा उसे मिला था।

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2025

36 - पोनी - एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा -(मनसा-मोहनी)

 पोनी – एक  कुत्‍ते  की  आत्‍म  कथा-(अध्‍याय-36)

अध्‍याय-(दवा की गोलियां खाना)

ये भय और अभय हमारे शरीर में किस तरह से जमा रहे है यह भी एक रहस्य ही है। जिसे केवल होश से जीने वाला ही जान और समझ सकता है। जैसे—जैसे हम बड़े होते चले जाते है हमारे चेतन या अचेतन में जमा सब भाव हमारे मन पर प्रकट होने शुरू हो जाते है। न जाने क्यों अचानक मुझे बीमार आदमी से अधिक भय लगने लग गया था। जब भी कोई घर में बीमार होता तो मैं उसके पास जाने से कतराने लग गया था। जिसका कारण मैं खुद भी नहीं जानता था, हां इतना जरूर जानता था कि जब मैं बीमार होता था तो मुझे ऐसा लगता कि अब मैं भी मर जाऊंगा। पहले इस बात का मुझे कुछ भी पता नहीं चलता था, न ही उस समय कोई भय ही था। अचानक यह भय मेरे मन में कहां से आ गया, परंतु इतना मैं जानता था की यह अभी कुछ ही दिनों से ऐसा होना शुरू हुआ था। कभी—कभी तो अचानक ध्‍यान का संगीत सुनते-सुनते मैं अंदर तक कांप जाता था। लगता था मुझे कोई किसी गहरी खाई में गिरा रहा है। तब मैं भय और डर कर सुबकने लग जाता था। वह संगीत ऐसा मेरे अंदर घंसता चला जाता, जैसे वह मुझे अंदर तक चीर रहा हो। कभी मुझे लगता की मैं दो टुकड़ों में विभाजन हो रहा हूं। मैं चाह कर भी उस समय अपने शरीर को हिला-झूला नहीं सकता था। परंतु एक जागरण मेरे अंदर जन्म लेता सा मुझे महसूस हो रहा था। मैं ये देख रहा होता की डर रहा हूं और में हिल नहीं सकता हूं। जैसे मुझे कोई बहुत जोर से दबा रहा है एक पतली सुरंग की भांति धकेल रहा हो।  सच ही मुझे डर लगता की में इसमें फंस गया तो कैसे निकलूंगा। एक भय के साथ विचार की लहर भी मेरे मन-मस्तिष्क में चलती रहती थी।

रविवार, 7 दिसंबर 2025

57-धम्मपद–बुद्ध का मार्ग–(The Dhammapada: The Way of the Buddha, Vol-06)–(का हिंदी अनुवाद )

धम्मपद: बुद्ध का मार्ग, खंड -06 –(The Dhammapada: The Way of the Buddha)–(का हिंदी अनुवाद )

अध्याय-07

अध्याय का शीर्षक: विस्मृति, एकमात्र पाप

27 अक्टूबर 1979 प्रातः बुद्ध हॉल में

सूत्र:  

आनंद को अपना ध्यान भटकाने न दें

ध्यान से, मार्ग से।

अपने आप को सुख और दुःख से मुक्त करो।

सुख की लालसा में या दर्द सहने में

वहाँ केवल दुःख है।

कुछ भी पसंद नहीं, कहीं ऐसा न हो कि आप इसे खो दें,

कहीं ऐसा न हो कि यह आपको दुःख और भय दे।

पसंद और नापसंद से परे जाएं.

जुनून और इच्छा से,

कामुकता और वासना,

दुःख और भय उत्पन्न होते हैं।

अपने आप को आसक्ति से मुक्त करें.

वह पवित्र है और देखता है।

वह सत्य बोलता है, और उसे जीता है।

वह अपना काम स्वयं करता है,

इसलिए उसकी प्रशंसा की जाती है

और उससे प्रेम किया जाता है।

दृढ़ निश्चयी मन और निष्काम हृदय से

वह स्वतंत्रता चाहता है।

उसे उद्धमसोतो कहा जाता है --

"वह जो धारा के विपरीत जाता है।"

जब एक यात्री अंततः घर लौटता है

एक दूर यात्रा से,

कितनी खुशी के साथ

उसका परिवार और उसके मित्र उसका स्वागत करते हैं!

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2025

35 - पोनी - एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा -(मनसा-मोहनी)

 पोनी – एक  कुत्‍ते  की  आत्‍म  कथा-(अध्‍याय-35)

अध्‍याय-35

मां के अवशेष

आज मैं दिन भर खूब सोता रहा, परंतु पापा जी का काम तो आज अधिक बढ़ गया था। उन्हें तो वरूण भैया को जाकर स्‍कूल से भी लाना और दुकान के लिए दूध भी लाना होता था। परंतु पापाजी मेहनत से कभी नहीं डरते थे। रात को जब पापा जी दुकान से आये तो आज शनिवार था और कल बच्‍चों के स्‍कूल की छुट्टी थी। इसलिए आज वह रात का ध्‍यान भी नहीं कर सकते थे। आज दिन का ध्‍यान मैंने खराब कर दिया और अब रात के ध्‍यान को बच्‍चे नहीं करने देंगे क्‍योंकि वह कहानी सुनाने की जिद्द जरूर ही करेंगे। इतने बड़े हो गये है फिर भी कहानी बच्‍चों की तरह से सुनने की जिद्द करते थे। सच पापा जी कहानी बहुत मजेदार सुनाते थे। मैं भी उस संगत का आनंद लेता था। पापा जी शब्‍दों के साथ जो भाव और उत्तेजना भरते थे उस सब को केवल लेटा-लेटा पीता रहता था। सब के बीच अपना अधिकार समझ अपनी जगह बना लेता था। एक बात और है अगर अपने कहानी का आनंद लेना है तो आपको उसमें डुबना ही होगा। तब आपको पानी के बहार अपनी गर्दन नहीं निकालनी अपनी बुद्धि को एक तरफ ताक पर रखना होगा। एक सरलता एक सहजता ही आपको उसमें डुबो सकती थी। तब आपको एक बच्‍चा बनना ही होगा।

पापा जी शब्‍द बोलते थे, वो तो कम ही मेरी समझ में आते थे, परंतु वो संगत बहुत ही सुंदर होती थी। छत पर बि‍खरी बिलौरी चांद की चांदनी, दूर कही कभी किसी पक्षी की आवाज शांति को और गहरा कर देती थी। बच्‍चों के मन में एक टीस थी कि आज पोनी और पापा अकेले जंगल में गए थे। पापा जी की तो कोई बात नहीं परंतु पोनी ये तो हमसे बाजी मार ले गया। हमें तो इसे स्‍कूल जाने का गर्व दिखाते थे, कि हम कुछ है।

गुरुवार, 4 दिसंबर 2025

13-महान शून्य- (THE GREAT NOTHING—का हिंदी अनुवाद)

महान शून्य-(THE GREAT NOTHING—का हिंदी अनुवाद) ओशो

अध्याय -13

01 अक्टूबर 1976 अपराह्न, चुआंग त्ज़ु ऑडिटोरियम में

[एक पत्रकार ने ओशो से पूछा कि क्या वे कोई ध्यान तकनीक या सम्मोहन बता सकते हैं जो उस व्यक्ति की मदद कर सके जो सफलता के विरुद्ध अभ्यस्त हो, जो सफल होने की किसी भी संभावना को विफल करने के लिए सब कुछ करने को तैयार हो।

ओशो ने उनसे पूछा कि क्या उन्होंने कभी ध्यान किया है, जिस पर उन्होंने जवाब दिया कि वे एक फ्रीमेसन हैं और वर्तमान में उस संगठन के लिए ध्यान की एक प्रणाली पर एक ग्रंथ लिख रहे हैं जिससे वे जुड़े हुए हैं। उन्होंने कहा कि उन्होंने कोई समूह नहीं बनाया है, लेकिन मनोविज्ञान और दर्शनशास्त्र के बारे में बहुत कुछ पढ़ा है।]

56-धम्मपद–बुद्ध का मार्ग–(The Dhammapada: The Way of the Buddha, Vol-06)–(का हिंदी अनुवाद )

धम्मपद: बुद्ध का मार्ग, खंड-06 –(The Dhammapada: The Way of the Buddha)–(का हिंदी अनुवाद )

अध्याय-06

अध्याय का शीर्षक: पीछे मुड़कर नहीं देखना

26 अक्टूबर 1979 प्रातः बुद्ध हॉल में

पहला प्रश्न: प्रश्न -01

प्रिय गुरु,

अकल्पित परमानंद, अकल्पित पीड़ा।

योग सुधा, यह स्वाभाविक है। परमानंद और महापीड़ा एक साथ घटित होते हैं, क्योंकि यह एक नया जन्म है: जन्म लेने का आनंद, अज्ञात में प्रवेश का आनंद, ईश्वर की ओर एक महान साहसिक यात्रा। लेकिन पीड़ा भी है, महापीड़ा: पुराने, परिचित, ज्ञात को छोड़ने की पीड़ा; सुरक्षित, निरापद को छोड़ने की पीड़ा; मरने की पीड़ा -- अहंकार के रूप में मरने की पीड़ा। यदि परमानंद सच्चा है, तो महापीड़ा अवश्य होगी। यह उन मानदंडों में से एक है जिसके द्वारा यह तय किया जाता है कि परमानंद सच्चा है या नहीं।

यह एक पेड़ को उसकी जानी-पहचानी ज़मीन से उखाड़कर उसे एक नए वातावरण, एक नए देश में रोपने जैसा है। पेड़ को एबीसी से फिर से जीना सीखना होगा; उसे भूलना मुश्किल है और फिर से सीखना भी मुश्किल है। दर्द तो होगा ही। महान आनंद से पहले गहरा दर्द और पीड़ा होती है। यह महीनों, सालों तक भी जारी रह सकता है -- यह सब आप पर निर्भर करता है।

बुधवार, 3 दिसंबर 2025

34 - पोनी - एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा -(मनसा-मोहनी)

पोनी – एक  कुत्‍ते  की  आत्‍म  कथा-(अध्‍याय-34)

गीदड़ों से मुठभेड़

कल जंगल के उस आनंद को मैं रात भर भूल नहीं पाया था। उसको अपनी सुंदर स्‍मृतियों में सजो रखना चाहता था। परंतु मुझे क्‍या मालूम था कि अगले दिन भी फिर से जंगल में जाने का आनंद मिलेगा। क्‍योंकि अभी राम रतन अंकल तो आये नहीं थे इसलिए पापा जी दुकान से जल्‍दी आ जाते और हम नियम से जंगल में जाने लगे। जब हम दुकान के पास से जा रहे होते तो मम्‍मी जी मुझे अपने पास बुलाना चाहती परंतु में कन्‍नी काट जाता था। क्योंकि मम्मी जी रोज जंगल नहीं जाती थी वह थक जाती थी फिर उन्हें घर का भी काम करना होता था। सोचता की अब दोस्‍ती ठीक नहीं है,  जंगल में जाने के दावे को में किसी पनीर या किसी दोस्‍ती की कीमत पर छोड़ना नहीं चाहता था। तब मेरी इस हरकत से मम्‍मी बहुत जोर से हंसती और मेरे पास आकर मुझे प्‍यार करती थी। एक पनीर का टूकड़ा जबरदस्‍ती मेरे मुंह में ठूस देती थी। मैं डर सहमा सा वहां से जल्‍दी जंगल की और जाने के छटपटाने लग जाता था। बीच—बीच में गली के चम्‍मच कुत्‍ते भी पास आकर मुंह चाटते और समर्पण कर के लेट जाते तब भी मुझे गुस्‍सा आता की नाहक टाइम खराब कर रहे हो।

सुबह का घूमना कितना अनमोल है यह मैंने पहली बार जाना था। वैसे हम अकसर तो दिन में 10—11 बजे ही जंगल जाते थे या श्‍याम 4—5 बजे परंतु आजकल हम सुबह सात बजे ही जा रहे थे, कई दिन से। पहले जब घूमने जाते तो जिस दिन घूमने जाते उस दिन तो बहुत अच्‍छा लगता परंतु अगले दिन बदन बहुत दुखता था। परंतु रोज—रोज जाने से थकावट महसूस नहीं होती। अभी प्रकृति पूरी तरह से जगी नहीं होती, दूर सूर्य की किरणें वक्षों के कोमल पत्तों को छूकर सहला रही थी। उन पर जमे उस ओस के लिबास को छू रही होती। तब वृक्ष के पत्ते की सोई आंखों में एक चुभन सी महसूस होती और वह करवट बदलने की नाहक सोने की कोशिश करते। पास का पीला पत्‍ता खड़खड़ाता और तब हवा भी मानो उस कोमल पत्‍ते को हिला जाती की उठो जनाब अब कितना सोओगे। लेकिन सच सोते में ही हर प्राणी का विकास होता है। इस कुदरत को विकास के लिए एक खास बेहोशी चाहिए।

मंगलवार, 2 दिसंबर 2025

55-धम्मपद–बुद्ध का मार्ग–(The Dhammapada: The Way of the Buddha, Vol-06)–(का हिंदी अनुवाद )

धम्मपद: बुद्ध का मार्ग, खंड -06 –(
The Dhammapada: The Way of the Buddha)–(
का हिंदी अनुवाद )

अध्याय-05

अध्याय का शीर्षक: आनंद में जियो

25 अक्टूबर 1979 प्रातः बुद्ध हॉल में

सूत्र:    

आनंद में जियो,

प्यार में,

यहां तक कि नफरत करने वालों के बीच भी.

आनंद में जियो,

स्वास्थ्य में,

यहाँ तक कि पीड़ितों के बीच भी।

आनंद में जियो,

शांति से,

यहाँ तक कि परेशान लोगों के बीच भी.

आनंद में जियो,

बिना संपत्ति के,

चमकते हुए लोगों की तरह.

 विजेता नफरत बोता है

क्योंकि हारने वाला कष्ट उठाता है।

जीत और हार को छोड़ दो

और आनंद पाओ.

जुनून जैसी कोई आग नहीं है,

घृणा जैसा कोई अपराध नहीं,

वियोग जैसा कोई दुःख नहीं,

भूख जैसी कोई बीमारी नहीं,

और स्वतंत्रता के आनंद जैसा

कोई आनंद नहीं।

स्वास्थ्य, संतोष और विश्वास

आपकी सबसे बड़ी संपत्ति हैं,

और स्वतंत्रता आपका सबसे बड़ा आनंद है।

अपने अंदर देखो।

अभी भी हो।

54-धम्मपद–बुद्ध का मार्ग–(The Dhammapada: The Way of the Buddha, Vol-06)–(का हिंदी अनुवाद )

धम्मपद: बुद्ध का मार्ग, खंड-06–(The Dhammapada: The Way of the Buddha)–(का हिंदी अनुवाद )

अध्याय-04

अध्याय शीर्षक: यह भी बीत जाएगा

24 अक्टूबर 1979 प्रातः बुद्ध हॉल में

पहला प्रश्न: प्रश्न -01

प्रिय गुरु,

भयानक राजनीतिक आपदाओं के बावजूद, दुनिया में अन्याय के खिलाफ लड़ने का एकमात्र साधन राजनीतिक कार्रवाई ही प्रतीत होती है। क्या आप जिस खोज को प्रेरित कर रहे हैं, उसमें राजनीतिक कार्रवाई शामिल नहीं है?

जीन-फ़्राँस्वा हेल्ड, मैं जीवन से उसकी संपूर्णता में प्रेम करता हूँ। मेरा प्रेम किसी भी चीज़ को बाहर नहीं रखता; इसमें सब कुछ समाहित है। हाँ, इसमें राजनीतिक गतिविधियाँ भी शामिल हैं। इसे शामिल करना सबसे बुरी बात है, लेकिन मैं कुछ नहीं कर सकता! लेकिन मेरे जीवन-दर्शन में जो कुछ भी शामिल है, वह एक अलग रूप में शामिल है।

अतीत में, मनुष्य जीवन के सभी पहलुओं में बिना जागरूकता के जीता रहा है। उसने बिना जागरूकता के प्रेम किया है और उसमें असफल रहा है, और प्रेम से केवल दुख ही मिला है, और कुछ नहीं। उसने अतीत में हर तरह के काम किए हैं, लेकिन सब कुछ नर्क साबित हुआ है। राजनीतिक कार्रवाई के साथ भी यही स्थिति रही है।

सोमवार, 1 दिसंबर 2025

12-महान शून्य- (THE GREAT NOTHING—का हिंदी अनुवाद)

महान शून्य-(THE GREAT NOTHING—का हिंदी अनुवाद)

अध्याय -12

30 सितम्बर 1976 सायं चुआंग त्ज़ु ऑडिटोरियम में

देव का अर्थ है दिव्य और नवीन का अर्थ है नया। दिव्य कभी पुराना नहीं होता और जो पुराना है वह कभी दिव्य नहीं होता। दिव्य हमेशा नया रहता है - यह अपनी शाश्वत नवीनता के कारण दिव्य है।

इसलिए संन्यास का पूरा प्रयास, पूरा उद्देश्य, आपको बिना किसी शर्त के नया बनाना है। यह ऐसा कुछ नहीं है जो एक बार और हमेशा के लिए होता है - यह ऐसा कुछ है जो आपके जीवन के हर पल में होने वाला है। हर पल आपको कल को छोड़ना होगा, हर पल आपको अतीत को छोड़ना होगा। मन की प्रवृत्ति इसे इकट्ठा करने, इस पर पनपने, इस पर मजबूत बनने की है - अतीत, सभी कल।

शनिवार, 29 नवंबर 2025

11-महान शून्य- (THE GREAT NOTHING—का हिंदी अनुवाद)

महान शून्य-(THE GREAT NOTHING—का हिंदी अनुवाद)

अध्याय -11

29 सितम्बर 1976 सायं चुआंग त्ज़ु ऑडिटोरियम में

[एक आगंतुक से]

एक बात हमेशा याद रखनी चाहिए -- कि हमें ऊर्जा को नियंत्रित नहीं करना है। हमें बस उसकी मदद करनी है, चाहे वह कहीं भी जा रही हो। हमें उसे किसी खास दिशा में निर्देशित नहीं करना है। हमें बस उसकी मदद करनी है, चाहे वह कहीं भी जा रही हो। हमें उसके साथ चलना है। आम तौर पर मन नियंत्रण करने की कोशिश करता है। वह दिशा देने की कोशिश करता है, वह अनुशासन देने की कोशिश करता है, उसके पास ऊर्जा पर थोपने के लिए कुछ आदर्श होते हैं। वे आदर्श सबसे खतरनाक चीजें हैं; उन्हीं ने दुनिया में इतना दुख पैदा किया है।

मेरा पूरा प्रयास आपको स्वाभाविक, सहज बनाना है, और ऊर्जा को आपको नियंत्रित करने देना है, न कि इसके विपरीत। यह आप नहीं हैं, आपका मन नहीं है, जिसे ऊर्जा को नियंत्रित करना है - यह ऊर्जा है जिसे आपको नियंत्रित करना है, ऊर्जा को आपको अपने वश में करना है।

[ओशो ने उसे ताओ और तथाता समूह में शामिल होने की सलाह दी, कहा कि इससे उसे ऊर्जा में आराम पाने में मदद मिलेगी।]