अध्याय - 41
पड़ोस का मकान खरीदना
पड़ोस में जो
मामा—मामी रहते थे उनके गुजर जाने से उनका मकान किसी उनके रिश्तेदार ने कब्जा
लिया था। ये जग कहां खाली रहता है...आप हटे नहीं की किसी और का अधिकार, किसी
के बच्चे, किसी के रिश्तेदार, किसी का
प्यारा। मामा—मामी के बाद उनकी सभी गायें तो पहले ही जंगल चली गई थी। क्योंकि
मामा ने अपने जीते जी उन्हें मुक्त कर दिया था। वह जंगल में जंगली गायों के साथ
प्रसन्न रहने लगी थी। मामा-मामी में ये संवेदना थी वो पशुओं के प्रति अति ही प्रेम
पूर्ण थे। आज कल कम ही लोगों में इस तरह की संवेदना आप पाओगे। मामा का पूरा जीवन
एक सादगी से भरा था। उनके अंदर एक तृप्ति थी, एक आदर सम्मान
था। आम लोगों की तरह मारे—मारे नहीं फिरते थे। न जाने मनुष्य किस तेजी से बदल रहा
था। जिस तरह के लोग मर रहे है, क्यों उस तरह के मनुष्य पैदा
नहीं हो रहे। न जाने किस तरह कि चेतनाए पृथ्वी पर आ रही थी। अब इस पड़ोसी को ही
ले लो रोज कुछ न कुछ कलेश होता रहता था। रोज रात को बहुत जोर—जोर से शराब पीकर
अंट-शंट न जाने क्या-क्या बकता रहता था। सारे मोहले की शांति को भंग कर दिया
था इस एक आदमी ने। आस पास के लोग यहां का
माहौल पहले कितने शांत था। कभी पत्ते के खड़केने की आवाज तक नहीं सुनाई देती थी।
जब यह पागल आदमी रात को शोर-शराबा करता तो उस समय मुझे भी बहुत गुस्सा आता था और
मैं छत पर खड़ा होकर उसे भौंकने लग जाता था। पता नहीं वह मेरी भाषा समझ पाता था या
नहीं परंतु मैं तो उसे डांट देता था। मैं किसी से डरता थोड़े ही था गलत है तो गलत
कहा ही जायेगा।
एक दिन देखता हूं कि कुछ पड़ोसी मामा-मामी के घर में कुछ गहमागहमी हो रही थी। पापा जी और राम रतन पड़ोसी के घर में आ जा रहे थे। मैं छत से ये सब देखता था और सोचता था कि जरूर कुछ गड़बड़ होनी वाली है। पापा जी तो बहुत कम जाते है वहां पर कभी न जाने क्या माजरा था। और एक दो दिन से रात का शोर-शराबा भी बंद हो गया था। तब मुझे पता चला की पड़ोस का मकान पापा जी ने खरीद लिया था। मम्मी जी तो मना कर रही थी कि हम नहीं लेंगे। क्या पूरी जिंदगी इसी तरह से कटते मरते रहेंगे।




















