लोट के बुद्धू घर
को आये
मैं कितनी देर तक
वहां अर्धचेतन अवस्था में पड़ा रहा या की सोता रहा कह नहीं सकता। परंतु ये तो पक्का
था कि नींद बहुत गहरी आयी था। और गहरी नींद में कुदरत शरीर की बिगड़ी हुई संरचना
को ठीक करने की विधि को अति उत्तम समझती है। आपका विरोध खत्म हो गया और कुदरत आप
पर अपना आपरेशन कर सकती है। शायद इसलिए हजारों रोगों का एक राम बाण है गहरी नींद। उठा तो सर का भार कुछ कम महसूस हो रहा था। अंदर
से लगा की उठ कर चल दूं। रात कितनी बीती थी इस बात का अंदाजा मैं तारों को देख कर
समझने की कोशिश कर रहा था। लेकिन अब तो चांद भी आसमान में काफी ऊपर तक चढ़ आया था।
इसलिए तारों से अधिक विश्वास चाँद की चाल से किया जा सकता था। लेकिन वह कभी-कभी
बादलों के बीच जाकर छुप जाता था। बादल जब आकर उसे ढक लेते तो वह किस अंदाज में
पृथ्वी को निहारता होगा। कि देखो क्या मैं आप को दिखाई देता हूं जरा मुझे ढूंढो।
प्रकृति के अपने ही निराले खेल थे। फिर भी वह बादलों से बाहर निकल कर रोशनी बिखेर
देता था।
मैं उस चटक चाँद की रोशनी में मैं दूर तक देख पा रहा था। चारों और गहरी शांति थी, दूसरा कोई नहीं दिखाई दे रहा था। केवल दूर कहीं पर उल्लू के बोलने की कर्क नाद सुनाई दे रही थी। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि किधर चलू कहां जाऊं, चलने में अभी भी मुझे कमजोरी महसूस हो रही थी। मैं याद करने की कोशिश भी कर रहा था कि मैं कौन हूं?
धीरे—धीरे मुझे कुछ अच्छा लग रहा था। लग रहा था मैं चल सकता हूं, परंतु रास्ते का मुझे कोई भान नहीं था कि किधर जाना है। एक अंजान शक्ति मुझे चलने के लिए मजबूर कर रही थी। सो उठा और चल दिया उस शक्ति के हाथों अपने को सौंप कर। जब आप कुछ न कर सके तो अपने अंदर की उस मंद आवाज को सून ही लेना चाहिए। चाँद की चांदनी मस्तिष्क में एक ठंडक एक शीतलता भर रही थी। दूर दराज तक फैला पहाड़ी जंगल जो बहुत ही उबड़-खाबड़ था। कहीं-कहीं अधिक गहराई थी सो जरा मुझे सम्हल कर चलना पड़ रहा था। एक पगडंडी को पकड़ मैं धीरे-धीरे नीचे की और उतरने लगा।रात का खाना खाने
के कारण और वह पेय पदार्थ पीने से मेरे शरीर में एक नई उर्जा का संचार हुआ था। मैं
चलता ही रहा कुछ दूर चलने पर मुझे रेलगाड़ी की आवाज सुनाई दी। मेरी समझ में नहीं आ
रहा था कि आते समय तो कहीं रेल गाड़ी या उसकी पटरी मुझे नहीं मिली थी। परंतु यह सच
ही था। दूर से आती रेलगाड़ी का प्रकाश मेरी आंखों में चुभ रहा था। उसकी
छूक...छूक....छूक लयवदिता कितनी मधुर लग रही थी, उस रात की नीरवता
में। मैं उसे कुछ देर यूं ही खड़ा होकर देखता रहा। सच जिस पहाड़ी पर मैं खड़ा था
ठीक उसके नीचे से गहरी खाई से होकर वह रेलगाड़ी गुजर रही थी। किस तरह से वह जाती
हुई धड़....धड़....घड़ पूरी जमीन को थरथरा रही थी। वह कितनी लंबी लग रही थी चले जा
रही थी। अगले मोड़ पर कैसे बल खाकर मुड़ी और विजयी चाल चलती कितनी मन मोहक लग रही
थी, फिर उसका पिछला छोटा डिब्बा आने के बाद....वह मोड़ पर
मुड़ी और उसके बाद वह पहाड़ी की गहराई में जाकर लुप्त हो गई थी।
धीरे—धीरे गिरने से
बचता बचाता मैं नीचे की और उतरने लगा। कुछ ही देर में मैं उस जगह पहुंच गया था, जहां
से अभी वह रेलगाड़ी गुजरी थी। अभी भी दूर जाती रेल का कंपन उप पटरियों पर मैं
महसूस हो रही थी। सोचा इसे पार करूं या दूसरी और चलूं। और तो कोई रास्ता ही नहीं
थी। इस पहाड़ी से तो मैं उतर कर अभी आया ही था। सो मैंने रेल की पटरी पार कर ली और
अपने मस्तिष्क पर जोर डाल कर सोचने लगा की जब मैं इधर आया था तो क्या मुझे रेल
की पटरी मिली थी। परंतु मुझे कुछ याद नहीं आ रहा था। लेकिन मैं हिम्मत कर के चलता
ही रहा। कुछ दूरी पर एक सपाट मैदान दिखाई दे रहा था। वहां कहीं-कहीं झाड़ियां उग
आई थी। कोई-कोई खास ऊंचे वृक्ष भी खड़े हुए अपने रंग-रूप पर इतराते से दिख रहे थे।
परंतु कुछ दूरी पर फिर पहाड़ी चढ़ाई थी। वह कुछ अधिक ही ऊंची थी। सो मैं हिम्मत
कर के उस पर चढ़ता चला गया। बीच—बीच में कहीं-कहीं गहरी खानें आ जाती थी। ऊंचे
चिकने पत्थर जिन पर सम्हलकर चलना पड़ रहा था।
कोई जल्दी तो नहीं
थी परंतु सुरक्षा का तो ख्याल रखना ही था। चलते-चलते जब मैं कभी भी बैठ जाता और
अपनी थकान को मिटाने की कोशिश करता। कुछ विश्राम के बाद फिर चल पड़ता कितनी देर
चला इस बात का मुझे कुछ भी ज्ञान नहीं। परंतु चंद्र की सीतलता मेरे मस्तिष्क में
एक ठंड़ापन पर भर रही थी। जैसे-जैसे में चल रहा था मुझे कुछ—कुछ याद आ रहा था।
वहीं साधु महात्मा जैसे पापा जी बच्चे, पिंजरा, वह सीढ़ियां, धीरे-धीरे मन अपने विस्तार को पा रहा
था। लोग कहते है चाँद मार, परंतु चाँद तो देखो आज एक मरे हुए
को नव जीवन दे रहा था। ये कैसा संयोग था या कुदरत की हर वस्तु आपने लिए उतनी ही
महत्व पूर्ण है जिस तरह से जीवित रहने के लिए ये शरीर।
चढ़ाई-चढ़ने में
मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। कभी-कभी खड़ा हो कर चारों और देख भी लेता था। आसमान
पर कुछ चमगादड़ अभी तक उड़ कर अपना शिकार कर रहे थे। कोई-कोई चमगादड़ तो बहुत बड़ा
था, उसे देख कर किसी गिद्ध होने का भ्रम हो जाता था। परंतु रात के समय गिद्ध
नहीं उड़ते शायद चांद की रोशनी में उन्हें कम दिखाई देता होगा। इसी तरह से कुछ
प्राणी है, जो चाँद की रोशनी में ही देख पाते है। उन्हीं
में चमगादड़, उल्लू और न जाने कितने ही होगे। इसी तरह आज
चाँद की रोशनी मुझे बहुत सुखद लग रहा थी। दूर मंदिर में घंट नाद हुआ, मैंने देखा वह मंदिर जिसके पास से मैं अभी आया हूं, दूर
एक चमकता सितारा सा लग रहा था। तो क्या मैं इतनी दूर आ गया। ठीक सामने की पहाड़ी
पर बने मंदिर से वह घंटों का नाद सुनाई दे रहा था। रात के सन्नाटे में इस पहाड़ी
से टकरा कर उसकी ध्वनि कैसे अनुगूंज बन कर मंद से मंद तर होती जा रही थी। तभी
अचानक मेरे मस्तिष्क में वह संगीत गुंजा, जिसके सुनने पर
मुझे भय घेर लेता था। वह भी इसी तरह से बजता था, परंतु उसमें
एक लयवदिता थी। वह अंतस के प्राणों में छेदता सा लगता था। मानो उस शांत मधुर
क्षणों में तुम्हें कोई एक तीव्र भाले से भेद रहा हो। उस दर्द के साथ एक माधुर्य
भी वह आप में भरता सा महसूस हो रहा होता था।
परंतु ये नाद उस
जैसा होते हुए भी वैसा बिलकुल नहीं था, पहाड़ी से टकरा कर वह
घंटियां, कितने धीरे प्रकृति में धूल कर विलीन हो रही थी।
कैसे संगीत अपना आस्तित्व रखते हुए भी समाविष्ट में एक अनुगूँज, एक प्रतिध्वनि बन कर उसी में समाविष्ट हो जाता है। पूरी प्रकृति किस तरह
से लय के तारों से जुड़ी हुई चल रही थी। कोई किसी का विरोध नहीं करता दिखता है। सब
एक दूसरे को मानो आलिंगन में भर विभेद खत्म कर रहे थे। परंतु हम कैसे अपनी ही जाति
को देख कर भोंकते है। घंटों के नाद की गूंज मंद से मंदतर होती जा रहा थी फिर दूसरी
गूंज पीछे से कैसे अविरल आती महसूस होती थी। मानो ध्वनि के डिब्बे भी उस गुजरी
रेलगाड़ी की तरह से आ रहे थे। वह अनुगूँज टकरा कर वापस लौटने के कारण फिर वापस लौट
कर अपनी नियति में विलीन हो रही थी। जहां से लोटी थी वापस उसी में विलीन हो उसी
में समा रही थी। दूर मंदिर को देख कर मुझे लगा क्या मैं सच ही इतनी दूर आ गया था?
परंतु मुझे थकावट बिलकुल नहीं हो रहा थी। आसमान पर चमकते तारों के गुच्छे
अब धूमिल हो रहे थे। शायद दूर कहीं से सूर्य कि किरणों को देख लिया होगा उन्होंने।
और अब वह छुप जाना चाहते होंगे, अपनी मां की गोद में जहां इस
सूर्य का प्रखर प्रकाश उन तक न पहुंचे। उसकी उष्णता से बचने के लिए, ताकि ये प्रकाश की चमक उनकी नन्हीं-नन्हीं आंखों में न चुभे। अब वह एक
विश्राम की अवस्था में जाकर सो जाना चाहते थे।
कुछ देर विश्राम
करने के बाद मैं फिर चढ़ने लगा, यहां पर पहाड़ी ढलान कुछ अधिक ही खड़ा
था। नीचे बारीक बजरी के कण बिछे पड़े थे। जिनमें पैर जमाना कठिन होता जा रहा था।
मैं बहुत सम्हल कर चल रहा था। एक—एक कदम बहुत सहज और होश से रख रहा था। अगर गिर
गया तो फिर लेने के देने पड़ जायेंगे। एक तो मुझे यह पता नहीं की मैं कहां पर हूं?
फिर दूसरा मुझे कहां जाना है? उस पर गिरना
बहुत अधिक धातक हो सकता था। ये सब मैं समझ रहा था और बहुत सावधानी से चढ़ रहा था।
जैसे-जैसे ऊपर चढ़ रहा था पहाड़ी का ढलान एक दम खड़ी होती जा रही थी। मैं घूम...घूम
कर लंबे किनारों जो गहरी खाने के कारण बन गये थे पर से चल रहा था। इतना प्रकाश हो
गया था कि मुझे दूर तक दिखाई देने लगा था। बस कुछ ही ऊपर पहाड़ी खत्म होती नजर आ
रही थी। परंतु शायद मैं अधिक खतरनाक रास्ते से आ गया। घूम कर जाता तो दूसरा
रास्ता इतना चढ़ाईदार नहीं था। वह कुछ लम्बा तो जरूर था, लेकिन
इस रास्ते से जरा सरल और सपाट था।
किसी तरह से मैं
पहाड़ी के ठीक ऊपर पहुंच गया। ऊपर बहुत बड़े—बड़े चिकने पत्थर थे। शायद मिट्टी के
कटाव के कारण छोटे पत्थर नीचे गिर गये। और बहुत भारी अभी तक थिरता के साथ जमे हुए
थे। मैं उनमें से एक पत्थर पर चढ़ने की कोशिश करने लगा। रात की सीतलता के कारण वह
पत्थर एक दम ठंडा था। उसका नीलापन कैसा चांद की चांदनी में चमक रहा था। कुदरत किस
तरह से अपने हर रूप में एक अद्भुत सौंदर्य समेटे रहती है। मैं उसके ऊपर पहुंच कर
देखता हूं,
कहीं दूर सूर्य कि किरणें निकली दिखाई दे रही थी। उसकी रोशनी बादलों
को चिरती उनके आरपार एक लम्बी रेखा बनती सी गुजरती कितनी खूबसूरत लग रही थी।
वहां से चारों और
देखना कितना जीवन दाई महसूस हो रहा था। आप जब ऊपर चढ़ कर दूर दराज निहारते है तो
आपको अपने अंदर एक विस्तार कैसा फैलने जैसा अनुभव होने लगता है। ऐसा क्यों होता है
ये मैं नहीं जानता था,
परंतु जहां तक आपकी नजर जा रही था वहां तक अपना विस्तार पाओगे। क्या
जहां तक हमारी आंखें निगार रही होती है, वहीं तक आपकी देह का
विस्तार हो गया होता है। लगेगा की दूर उन नन्हे वृक्षों को यूं ही हाथ बढ़ा कर छू
सकते हो आप। ये सोचने मात्र से मन कैसा पाखी की भांति उस नीलाभ अंबर में उड़ चला
था। दूर उन पेड़ पौधों की एक-एक पत्ती छूकर ही लोटना चाहेगा मन कितना प्रसन्न लगता
था।
मैं उस ठंडे पत्थर
पर बैठ कर चारों और के दृश्य का आनंद लेने लगा। उसकी ठंडक मेरी तेज चलती सांस को
राहत दे रही थी। जीभ को बहार निकाल कर अपने शरीर को ठंडा करने की कोशिश कर रहा था।
दूर अम्बर में सूर्य का आगमन हो रहा था। पक्षियों के झूंड के झूंड आसमान में इधर
से उधर आ जा रहे थे। चाँद अपने अंतिम चरण में विदा होने की तैयारी कर रहा था। अब
तो इक्का-दूक्का कोई साहसी तारा ही नजर आ रहा था। बाकी अपनी मां के आँचल में
जाकर विश्राम करने के लिए चले गये थे। मैं उस पल का क्षण—क्षण को पी लेना चाहता
था। इसके बाद पता नहीं मेरा क्या होगा? मैं फिर अपने परिवार के
लोगों से मिल भी सकूंगा या नहीं। कौन है मेरे परिवार के लोग? अब कहां है कैसे पता करूं? वह भी क्या मुझे ढूंढ
रहे होगे। मैं अपने दिमाग पर जोर डाल कर यह सोचने की कोशिश कर रहा था! न जाने
कितने दिन हो गये मुझे घर से चले हुए। इस सब विचारों में खोया और अपने अतीत में
गोते लगा कर याद करने की कोशिश कर रहा था।
तभी मेरी नजर नीचे
की और गई। मुझे कुछ जाना पहचाना सा ढांचा नजर आया। सूर्य की रोशनी आंखों को
चौंधिया जरूर रही थी। परंतु वह चीजों को कितना साफ कर रही थी। जैसे—जैसे सूर्य ऊपर
उठ रहा था। मेरा मस्तिष्क भी उस सोये स्नायु को जगा रहा था। जिन के अंदर मेरे
अतीत की स्मृति छिपी हुई थी। जिसे तरह से सूर्य पूरी प्रकृति को प्रकाश से भर रहा
था ठीक उसी तरह से मेरे जीवन की स्मृतियों को भी लगता है दोबारा भर देगा। मैं उस
भराव को अपने अंतस में महसूस कर रहा था। जैसे वह प्रत्येक पेड़-पौधे को तरो ताजा
कर रहा था उसी तरह वह मेरे अंतस के अंधकार को भी रोशन कर रहा था। ठीक मेरे सामने
बड़े—बड़े गोल खम्भों का एक विशाल आलीशान ढांचा बना दिखाई दे रहा था। वो मेरी
स्मृति के पटल से ऊपर आ रहा था, ये तो वही जगह है.. मैं समझ गया ये कहां
पर है। उसके ठीक सामने से गुजरती वह सड़क...जिस पर बच्चों के साथ न जाने मैं
कितनी ही बार यहाँ आया था। यही से तो मैंने दीदी को आवाज दी थी...पापा जी और
हिमांशु भैया हम उस सामने वाले पत्थर पा बैठे कर ही तो नीचे देख रहे थे।
तब मेरे जीवन में
एक नई किरण फूटी। और मैंने एक गहरी सांस ली। अब मुझे एक उम्मीद की किरण दूर एक
हलके धब्बे की तरह नजर आई। वारसिमेट्री के सामने लगे गुलमोहर के वृक्ष फूलों से
लदे थे। वार सिमेट्री की दीवार भी हेज से बनी थी। कतार से खड़ी अनगिनत पत्थर की वे
कबरे,
आज मुझे कितनी अच्छी लग रही थी। आज भी मुझे ऐसा लगा रहा था की वो
मुलायम हरी घास मेरे पैरों को छू रही है। कैसे कतार से खड़े वे कब्र के पत्थर किसी
सेना के खड़ा होने का एक आभास एक एहसास दे रहे थे। बीच में उगी मुलायम घास और पास
ही फूलों के रंगीन पौधे कैसे उस अशुभ सी जगह में भी रमणीयता भर रहे थे। बीच में
बनी एक कब्र थी जो एक राजा के सिंहासन की तरह कुछ ऊंची थी। उनकी सफेद दुधिया कतार
आज मुझे कितनी प्रिय लग रही थी आपको मैं बता नहीं सकता। लगता था इन कब्रों में
सोये लोग मेरे अति प्रिय है। और मैं अपने खोये हुओं से मिल रहा हूं। ऐसा क्यों
लगा क्योंकि मैं तो इतना भावुक पहले कभी नहीं था। कब्रों के अंदर जाकर घुमता रहता
परंतु मुझे इन पत्थरों से क्या लेना देना मेरे लिए तो यह एक खेल था। परंतु आज वह
मेरे जीवन को एक मार्ग दे रहे थे। वह मेरे लिए संजीवनी का कार्य कर रहे थे। कितने
अपने पन का भाव भर जाता है जब आप एक निरीह से लुटे पिटे खड़े हो।
तभी अचानक मुझे प्यास
लगी। और मेरी आंखें दूर दराज तक पानी को ढूंढ़ने लगी। तभी अचानक मुझ याद आया की
वारसिमेट्री के पिछले गेट के पास एक नल है। इसके दाई और चलने पर जो बड़ा सा मैदान
है उस में एक पानी से भरा तालाब भी है। जिसमें एक बार मैंने और पापाजी ने सांप को
भी देखा था। तो वह सांप कैसे पानी पर तैरता हमारे बीच से गुजर गया था। सच एक रस्सी
की तरह लम्बी वह किस सरलता से तैर रहा था। इस का मुझे बड़ा अचरज भी हुआ। क्योंकि
मैं तो पूरे शरीर को पानी में डूबा अनुभव कर रहा था। केवल मेरी गर्दन ही बहार थी।
पापा जी भी कुछ इसी तरह से तैर रहे थे। बस पापाजी के भी हाथ पीठ और कंधे नजर आ रहे थे। परंतु यह सांप
तो अपने पूरे शरीर को पानी पर रख कर किस सहजता से तैर रहा था। एक बार तो मेरे
प्राण ही सूख गये थे जब वह मेरे पास से गुजरा। मैं बहुत डर गया था पापाजी के पास
से होता हुआ वह कितनी तेजी से आगे निकल गया था। उसका पीला और चमकीला रंग पानी में
कैसा सुनहरे होने का आभास दे रहा था। स्वर्णिम चमक देखने में जितनी सुंदर थी उतनी
ही खतरनाक भी। वह धीरे-धीरे हम से दूर चला गया। उसने हमें कुछ नहीं कहा। पापा जी
भी उसे अपने पास से जाता देख कर पल भर के लिए रूक गये थे। और फिर हम उस किनारे न
जाकर अपने वापस इसी किनारे की और लोट गये। नाहक साहसी बनने में क्या सार है। हमारी
हिम्मत नहीं हुई उस और जाने कि पापा जी भी उसे जाते देख कर रूक गये और एक बार
मेरी और देख कर कहने लगे चलों वहां से बाहर निकल जाते है। और हम दोनों ने एक साथ
कैसी गहरी स्वांस ली थी। और किनारे की और लोट चले थे।
ये वार सिमेट्री
अंग्रेजों ने जो रगूंन में 1913 और 1943 के बीच में शहीद अंग्रेज सैनिकों की याद
में बनाई थी। उन पर उन सैनिकों की उम्र और नाम तक खुदे हुए थे। अंग्रेज दुनियां
में ऐसी वैसी कौम नहीं है,
वह भारतीय की तरह लावारिस नहीं है उनका नाम पता मरने के बाद भी अमर
होना चाहिए। तब मैं नीचे उतरने के लिए अपने शरीर को इकट्ठा करने लगा। इतनी देर में
मेरा शरीर जाम हो गया था। उसमें जगह—जगह दर्द हो रहा था। फिर एक पगडंडी को पकड़ कर
जो कुछ घुमावदार थी में नीचे की और उतरने लगा। नीचे उतरने के लिए भी ताकत लग रही
थी क्योंकि आपको अपने शरीर को नीचे जाती ढलान से रोकना होता है। अब आपका सर और
शरीर नीचे की और होता है। इसलिए खून का दबाव आपके सर की और हो जाता है। जो आपको
अधिक थका देता है। लेकिन इस और की पहाड़ी थोड़ा विस्तार ले कर फैली हुई थी। जिस पर
चढ़ाई अधिक नहीं थी। कुछ ही देर में मैं नीचे मैदान के सामने आ गया। वहाँ की
मुलायम रेत पर जब मेरे पैर पड़ते ही मुझे बहुत सुखद एहसास हो रहा था। पास ही एक
अमलतास का वृक्ष था जिस पर अभी पीले रंग के गुच्छों में फूल लटक रहे थे। और उसकी
छांव बहुत गहरी थी। उसके आस पास रोड तक घास और जंगली फूलों की छोटी-छोटी बेले उगी
थी। मानो किसी ने पृथ्वी को फूलों से सज़ा रखा था, झूम-झूम
कर वह फूल मानो किसी का इंतजार करते हुए।
मैंने सोचा कुछ
थोड़ा इस रेत में विश्राम कर लूं। मैं रेत में बैठ गया। मैं महसूस करने लगा की जो
रेत रात के समय विश्राम और तनाव से राहत दे रही थी। वहीं अब उसमें एक बेचैनी और
उत्ताप्त भर रही थी। क्या सूर्य और चंद्र की किरण जल, थल
और नथ के साथ अपने गुण धर्म भर देती है। उसमें आमूल चूल परिवर्तन कर जाती है।
वृक्ष अधिक जीवित हो जाते थे। क्या ये बात उन सोये पत्थरों पर भी लागू होती
होगी। तभी मुझे लगा में इस तरह से सोचता रहा तो जरूर एक दिन पागल हो जाऊंगा।
मैं उठा और
वारसिमेट्री जो सामने ही खड़ी थी। सड़क पार कर में उसके पीछे की और जाने लगा। वह
आम रास्ता नहीं था इसलिए उस रास्ते से बहुत कम मुसाफिर गुजरते थे। क्योंकि वह
प्रतिबंधित क्षेत्र था,
सेना का। तब मैं सोच रहा था नल तो है परंतु पानी का पता नहीं उस से
आता होगा या नहीं। काफी दिन हो गये इधर आये हुए इसलिये जगह काफी बदल गई थी। परंतु
कुछ चीजें तो जैसे की तैसी थी। पहले बच्चे जब साइकिल चलाते थे तो रोज ही आते थे।
एक—एक जगह मेरी जानी पहचानी थी। नल के पास जाकर मैं खड़ा ही हुआ था कि इतनी देर
में वार सिमेट्री के अंदर से दो कुत्ते जिसमें एक काले रंग का जिसके बड़े—बड़े
बाल थे और एक बादामी रंग का जो कुछ मोटा था। मेरी और भागे....वह मुझे वहां से भगा
देना चाहते थे। परंतु भले आदमी तुम ये क्यों सोचते हो कि मैं यहां रहूंगा। तुम्हें
नहीं पता की मेरा एक घर है मेरा एक बिस्तरा है। नरम मुलायम...फिर भला यहां मैं क्यों
रहने वाला हूं? पर ये बात उनकी समझ में आने वाली नहीं थी,
वह तो एक ही भाषा जानते थे मारने कूटने की सो वह दोनों मुझ पर आ
झपटे। मेरा शरीर कमजोर था।
इसलिए मैंने दीवार
की और पीठ कर ली ताकी दोनों मेरे सामने ही रहे। मैं उन दोनों को सामने से ही
मुकाबला करना चाहता था। सो वह काला कुत्ता मुझ पर झपटा। मैं दायें की और घूम कर
उसके ऊपर जाकर उसकी पीठ से पकड़ लिया वह तो इसके लिए तैयार ही नहीं था। जब मेरे
दाँत उसकी पीठ पर गड़े तो वह लगा चीखने इतनी देर में उस दूसरे ने मेरी टाँग को
पकड़ लिया....अब में एक झटका देकर उसकी और मुड़ा और पहले कुत्ते को छोड़ दिया और
उसकी गर्दन पर हमला बोल दिया। वह मोटा था इसलिए अपना संतुलन खो बैठा और जमीन पर
गिर पड़ा। पहले कुत्ते ने देखा की उसे छोड़ दिया तो वह हमला करने की बजाय इतनी
तेजी से प्या..ऊं....प्या्..ऊं करता भागा। की मोटा कुत्ता तो मेरे बिना मारे ही
रोने लगा। मैं लड़ना नहीं चाहता था। बस अपना बचाव चाहता था। मैंने उस मोटे कुत्ते
को छोड़कर एक कदम पीछे की और खड़ा हो गया। वह उठ कर किस तेजी से भगा। ये सब देख कर
मेरा हंसने को मन कर रहा था।
पास जो नल थी मैं
उसकी और बढ़ा....उससे बूंद—बूंद पानी गिर रहा था। जिसके आस पास कुछ मधुमक्खियां भी
मंडरा रही थी। शायद वह भी पानी पीनी चाहती थी। परंतु मैं जानता हूं की ये बड़ी ही
खतरनाक होती है जहां पर भी काटेगी वहाँ सूजन आ जायेगी और आग की तरह से जलन शुरू हो
जायेगी। इससे भी खतरनाक पीले रंग की ततैया भी वहीं मंडरा रही थी। मैं सोच रहा था
कि ये घर पर भी पानी के आस पास क्यों मंडराती रहती थी। शायद इनके जहर में अधिक
गर्मी होती होगी। जिससे इन्हें प्यास भी अधिक लगती होगी। क्योंकि वहीं जहर तो
हमारे शरीर में आकर कैसे आग और जलन पैदा कर देता होगा तो क्या इनका कंठ नहीं जलता
होगा।
इसलिए मैं पास ही
बहकर जो एक गढ़ा भर गया था,
उसमें जाकर पानी पीने लग गया। पानी कुछ गंदा व अकबका सा था परंतु
जीने के लिए तो पीना ही था। उसके बाद मुझे उसी और जाना था जहां वे कुत्ते भागे थे।
मुझे जरा भी डर नहीं लग रहा था। मैं चल दिया अपनी मंजिल की और उस सिमेट्री के पीछे
की और जो दीवार है वहां पर बहुत से नीम के वृक्ष एक कतार में लगाये गए थे। जो सुबह
की हवा में नाच रहे थे। उनके पुराने पीले पत्ते जमीन पर इधर उधर बिखरे पड़े थे।
कैसी चारों और पीत रंग की छटा बिखरी हुई थी जो पैरो के नीचे कैसे चिरमिराने की ध्वनि
कर रहे थे। अब वही वृक्ष अपने पर कुछ महरून और लाल रंग के कोमल पत्ते उगा कर कैसे
इतराते से नाचते कितने सुंदर लग रहे था।
हमारी अपनी जाति के
प्राणी ही आपने दुश्मन हो जाते है देखो ये कैसा विरोधाभास है। बिना कारण ही एक
दूसरे से लड़ रहे है। जबकि हम जानते है हमारा क्या है। परंतु नहीं सभी संसार
हमारा है। हम यहां के राजा है एक छोटा सा पिल्ला भी आप को जाते देख कर किस तरह से
भोंकने लग जाता मानो वह वहां का राजा हो। एक छोटा पिल्ला मुझे देख कर बहुत जोर-जोर
से भौंक रहा था,
मुझे कितना अचरज हो रहा था...अरे वाह क्या कहने तेरे साहस के बड़ा
होकर जरूर ही तु तीस मारखां बनेगा...और मैं मन ही मन हंस रहा था। और जब उसकी और
मेरे दो कदम बढ़ाए वह तो एक दम से दस कदम रोता और भोंकता ऐसे भोगेगा जैसे आपने
उसकी गर्दन मरोड़ दि हो। कितना फंडी होते है ये पिलुरे....कहां से सीखते है ये सब
ये उनकी जीवन रेखा का कवच है। पहले डराओ न डरे तो भाग जाओ।
ये लगभग सभी
प्राणियों की आदत होती है। आदमी भी इससे अछूता नहीं है। पास ही कचरे का ढेर था जिस
पर कुछ आवारा गाय और सुअर अपना अधिकार जमाना चाह रहे थे। शायद इस दौड़ में वो दो
मेरे भाई कुत्ते भी होंगे जो न जाने कहां छूप गये। अब सारा अधिकर उन गायों और
सूअरों के पास आ गया था। मुझे वहां से आगे जाना था इसलिए मुझे अपनी और आते देख कर
कुछ गाये खड़ी हो कर मुझे घूरने लगा। मैं जब उनके पास से गुजरा तो कैसे गर्दन घूमा
कर कुछ इस तरह से फूफकारा की तुम इधर मत आना। वरना तो तुम्हारी खेर नहीं। मुझे
लगा ये सब एक खेल है,
हम सब इसे खेलते है जीवन के भरण पोषण के लिए और ये करना जरूरी भी है
इस पर किसी का बस नहीं है।
और मैं उन गायों और
सूअरों को निहारते हुए उनके पास से आगे बढ़ गया। जानता था इसके पार वह मैदान है, फिर
तालाब और उसके कुछ आगे वह पीली कोठी....और तब तो मानो में अपने घर ही पहुंच गया।
और मेरा पूरा शरीर खुशी के मारे पुलकित हो रहा था। मानो मेरे शरीर को पृथ्वी ने
निर्भार कर दिया और मैं महसूस कर रहा था कि मेरे पैर जमीन पर रखे जरूर जा रहे है।
परंतु मैं चला जा रहा था पवन वेग में। किसी सुकोमल छंद की तरह....जो मेरे पूरे
शरीर में मादकता फैला रहे थे। मेरी आंखों में खुशी और ह्रदय में उमंग के हिलोरे को
समेटे आगे लिए बढ़ चला। अब मैं देख रहा था.....सब साफ....वह तालाब वह दूर पहाड़ी
के इस छोर पर वह टूटी सड़क जिसके उस किनारे पर बना वह है वह पीला मकान जिसे पीली
कोठी कहते है।
दूर नीम के उस
वृक्षों के नीचे वही दो कुत्ते मुझे देख रहे थे। उन को देख कर मैंने अपनी चाल बदल
ली। और एक अकड़ और गर्व से उसको देखता एक विजेता की तरह जा रहा था। और वह बेचारे
अपने गर्दन को झुकाये डरे सहमे से मुझ देखते रहे थे। किसने कहा था तुम्हें दादा
गिरी करने के लिए...नाहक लड़ते फिरते हो। मैं दूर तक उन्हें देखता रहा की कही
दुबारा तो हमला नहीं कर देंगे। लेकिन शायद वे इस बात से खुश थे कि मैं खुद ही उनके
इलाके से दूर जा रहा हूं.....।
आज इतना ही।

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