(सदमा - उपन्यास)
काफी लम्बा रास्ता तय कर के सब लोग ऊटी से आये थे। इस लिए तन के साथ मन भी बहुत थक गया होगा। इसलिए खाना खाकर सब विश्राम करने के जल्दी ही अपने-अपने कमरों में चले गये। जब श्याम के चार बजे की चाय का समय हुआ, तब जाकर गिरधारी ने आवाज दी कि चाय तैयार है सब लोग आ जाओ। मानो ये इतना समय पल में ही इतना गुजर गया। इस बात का सब को अचरज हो रहा था। अगर आज गिरधारी चाय के लिए नहीं जगाता तो ने जाने और कितनी देर वो सब सोते ही रह जाते। परंतु आज गिरधारी भी उन्हें नहीं जागना चाहता की चलो चाय कहां भागी जा रही है। कितने दिनों बाद सब सूख की नींद सो रहे है। बच्चा, लौकी व तुरई सोते में ही अपना विकास करते है। ये बात गिरधारी लाल के पिता ने उनको बचपन में बतलाया करते थे। इसलिए कम ही गिरधारी सोते हुओं को जगता था। जब तक की कोई खास मजबूरी न हो।
नेहालता तो न कभी थकती थी और न कभी रुकती थी। वह तो हमेशा मोज मस्ती के लिए तैयार रहती थी। उसकी चहल पहल के बिना कैसे पूरा घर सूना-सूना बे रौनक सा हो गया था। न किसी का खाने का मन करता था। कुछ भी बना लो उस भोजन में स्वाद ही नहीं आता था। आज इस तरह से सब को विश्राम करते देख कर गिरधारी को कितना अच्छा लग रहा था। पिछले दो-तीन साल से घर में मानो शनि की ढैय्या लग गई थी। जिस भी काम में हाथ डालों वही सब टूट कर बिखर जाता या बेकार हो जाता। अब कहीं जाकर घर-घर जैसा लगता है। वो सब अधूरा पन जो सालों से यहां वहां पूरे घर को घेर हुए था अब कही नेहालता के आने से छिन्न-भिन्न हो कर शायद पूर्ण हो जायेगा।
सब के उठने तक
सूर्य भगवान अस्ताचल की और चला गया था। पहले अगर इतनी देर होती तो नेहालता सर
आसमान पर उठा लेती। देखा नहीं काका कितनी देर हो गई। सब यार दोस्त वहां पर मेरा
इंतजार कर रहे होंगे। और तुम हो की दाँत नीपोर रहे हो। परंतु आज वो सब कितना
पराया-पराया सा लग रहा था। सब के उठ जाने के बाद लॉन में लाकर चाय रख दी। सब
बारी-बारी से आकर बैठने लगे। चाय की चुस्की लेते हुए नेहालता ने कहां की आज हम सब
कितनी देर तक सोते रहे। हमें पता ही नहीं चला कितनी गहरी नींद आई, इतनी
गहरी तो मां मुझे बचपन में आती थी। जब तुम सुबह स्कूल के लिये उठती थी। लगता था
नींद से सुंदर कोई दूसरी वस्तु इस संसार में नहीं है। परंतु आज पता चला की शरीर के
लिए ही नहीं, मन के लिए गहरी नींद जरूरी है।
बेटा कुछ दिन
विश्राम करने के बाद क्या कहीं घूमने के लिए जाओगी। कहो तो ड्राइवर को बोल दूं। तब
नेहालता ने कहां नहीं मां कहीं जाने का मन नहीं कर रहा। और वह उठ कर बागीचे में
यहां वहां टहलने लगी। फूलों को देख कर उसके मन में कुछ विचार उठ रहे थे। कि ये
फूलो के रंग इतने सुंदर क्यों होते है। उसका पौधा तो इतना सुंदर नहीं होता। फिर उस
में इतने सुंदर महीन रंग कौन और कब भर देता है। दूर सूर्य अपना तांबा रंग बदल कर
नारंगी होता जा रहा था। नेहालता ने सूर्य की और देखा तो वह एक टक उसे देखती रही।
उसके अचेतन में कहीं सूर्य को देख कर उसे लग रहा था, कि लगाता है इस तरह
का सूर्य तो मैंने पहले भी कहीं देखा था। कहां देखा था। वो उसकी समझ से परे था।
परंतु देखा होगा यहीं घर की छत से या समुद्र के किनारे से। और पल में ही मन ने उसे
दूसरी और मोड़ दिया।
परंतु आज उसका चित
अंदर से बहुत शांत था। उसे हर चीज देखने में अति सुंदर लग रही थी। चीजों को जब हम
प्यार से,
भाव से उन के साथ तारतम्य से जुड़ कर देखते है। तो उनमें कैसे अपने
पन का भाव छिपा होता है। मानो वह सब भी आपसे चार बाते करना चाहती है। परंतु कहां
हमारे पास समय होता है, इन सब बातों के लिए। परंतु ये
सोच-विचार उसके अचेतन में कहां से आ रहे है। उसके मन में एक खुशी तो भर रही थी।
परंतु वो जानती है की ये विचार उसके नहीं हो सकते। इससे पहले वह इस तरह से कभी
सोचती-विचारती नहीं थी। सब कुछ जो जीवन पर से गुजरता था उसे कितनी उड़ती नजरों से
ही वह सब देखती थी। आज उसके देखने में एक ठहराव सा आ गया है। अब आपके देखने में एक
होश भर रहा था। और होश ही तो जीवन का आनंद है। चाहे फिर वह किसी कार्य से ही क्यों
ने मिले जाये। परंतु सब कितना अजीब सा घट रहा था। वह खड़ी होकर कभी अपने हाथ को
कभी अपने चलने को देख रही थी। की क्या मैं सही में वही नेहालता हूं। अपने इस होने
पर नेहालता को यकीन नहीं आ रहा था। धीरे-धीरे दूर सूर्य और छोटा और छोटा हो रहा
था। यहां वहां न जाने कहां से बादलों ने आकर अचानक सूर्य को घेर लिया था। अभी तक
एक भी बादल आसमान पर कहीं दिखलाई नहीं दे था। मनुष्य जब रूक कर अपने अंतस की और
झांकता है तो अपने अंदर की जमा परतें उसे दिखाई देनी शुरू हो जाती है। यहीं तो मन
की घबराहट है। वह मन तो केवल उलझाना चाहता इधर उधर की बातों में विचारों में।
मनोरंजन के नाम पर नहीं तो मन जब अपने अंदर डूबना शुरू हो जायेगा तो उसका वो मन
रंजन-भंजक बनना शुरू हो जाता है। फिर उस मन की धीरे-धीरे उसकी सारी ताकत खत्म होती
जाती है। जन्म-जन्म उसने जो इन अनेक शरीरों पर राज्य किया है वह उससे अलग होना
शुरू हो जाता है। यही से स्वतंत्रता की पहली झलक पाता है मनुष्य।
तब ये बादल अचानक
कहां से बन गये और क्या ठीक इसी तरह ये जीवन बनता और बिगड़ता ही रहता है। क्या इसे
हम स्थाई नहीं कर सकते यही से मनुष्य की दुविधा शुरू हो जाती है। मन या जीवन थिरता
चाहता है। परंतु प्रकृति पल-पल क्षण-क्षण बदलाव का आनंद लेती है। उसमें रह कर हम
थिरका को कैसे उपलब्ध हो सकते है। यही तो अध्यात्मिक का रहस्य है। आज न जाने
नेहालता वो सब सोच रही है जिसके विषय में उसने केवल पढ़ा था। जब पापा कभी इस रहस्य
के विषय में बात करते तो वह ना नू कर के उस विषय को टाल जाती थी। परंतु आज अचेतन
से उसे ये सब क्यों अपनी और खिंच रहा था। श्याम घिर आई थी हवा में ठंडक शुरू हो गई
थी। वैसे तो मुम्बई में जिसे शरद कहा जाता है वह तो कभी गिरती ही नहीं। परंतु आज
हवा में ठंडक कुछ अधिक लग रही थी। नेहालता ने सोचा, शायद हिमालय पर कहीं
बर्फ गिरी होगी। प्रकृति भी क्या है। सब कुछ को कैसे जोड़ कर रखती है। इतनी देर
में दूर नेहालता की मम्मी ने आवाज दी रात घिरने वाली है। और तुमने शाल भी नहीं ले
रखी। चलों अब अंदर चलते है।
तब अचानक नेहालता
का ध्यान टूटा और वह मन में एक खुशी को संजोए घर के अंदर की और चल दी। आज जब वह घर
के अंदर प्रवेश कर रही थी तो उसे आलू की तरकारी की बहुत भिन्नी-भिन्नी सी महक आ
रही थी। वह सीधी किचन की और चल दी। वैसे इससे पहले वह कब किचन में गई थी इस बात का
उसे जरा भी याद नहीं था। परंतु किचन में जब गिरधारी ने नेहालता को देखा तो एक बार
तो उसे आश्चर्य हुआ। परंतु अंदर एक खुशी भी। आ बेटा देख मैंने तेरे लिये आज क्या
बनाया है। जानती है ना। हां काका इसकी खुशबु ही तो मुझे अंदर खिंच कर ले आई है।
बचपन से ही जब भी आलू की भाजी और पूरी की खुशबु से मेरा मन बहुत प्रसन्न हो उठता
था। आज खाने का मजा आयेगा। साथ में कुछ हरी मिर्ची तो रखना। हां बेटी आज कल जो
मिर्ची आ रही है। वह देखने में बहुत मोटी है, परंतु खाने का आनंद ही अलग
है। उनमें चर-चरा हट जरा भी नहीं होती। बस हरि मिर्ची का स्वाद सुगंध और मुख भी
नहीं जलता। और इस बात से दोनों हंस दिये।
रात के खाने के बाद
सब ने थोड़ी काफी पी। तब सब गुड़ नाईट कर के अपने-अपने कमरों में सोने के लिए चले
गए। लेकिन नेहालता को नींद नहीं आ रही थी। वह अपने कमरे की बाल कॉनी में बैठ कर
कुछ पढ़ने लगी। उसने एक पुरानी सी पुस्तक उठाई। उसके कुछ पन्ने उलट-पलट कर देखे और
उसे रख दिया। और फिर दूर गगन में चाँद को देखने लगी। सोच रही थी, जब
दिन के समय सूर्य होता है तो ये चाँद कोई महत्व नहीं रखता। परंतु अगर रात काली
अमावस की हो तो जब चाँद भी अंबर में नहीं होता तो तारे अपने प्रभुत्व जमा कर सारी
प्रकृति को रोशन करने में लग जाते है। परंतु ये मनुष्य कैसा है। कौन आदमी था वह
स्टेशन पर जो पगलों की तरह रह-रह कर हरकत कर रहा था? रह-रह
कर उसकी वो छवि नेहालता चित से उतरती ही नहीं। बार-बार वह भूलना चाहती थी। क्योंकि
वह तो उसे जानती नहीं थी। परंतु उसका अचेतन बार-बार उसे उपर फेंक रहा था। वह लाख
उसे भूलना चाहता थी परंतु वह उसके विषय में वह सोचती ही रही।
कुछ देर बाद जब
उसका दिमाग सोचते-सोचते थक गया तो वह सोने के लिए चली गई। वह बिस्तरे पर लेट कर
महसूस कर रही थी की यह उसकी का बिस्तरा
है। उसकी सुगंध उसका मुलायम पन। कभी वह आंखें बंद कर उसे महसूस करती। कभी वह गहरी
श्वास लेती। इस उधेड़ बुन और बिस्तरे की मुलायम पन और गर्मी को महसूस करती हुई वह
कुछ पल में नींद की गोद में चली गई।
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