20
सितंबर, 1976
ओशो
आश्रम,
कोरेगांव
पार्क,
पूना।
पहला
प्रश्न : आपने
कल बताया कि
तप्क्षण
संबोधि, सडन
एनलाइटेनमेंट
किसी भी
कार्य— कारण
के नियम से
बंधा हुआ नहीं
है; लेकिन
यदि अस्तित्व
में कुछ भी
अकस्मात, दुर्धटना
की तरह नहीं
घटता, तो
संबोधि जैसी
महानतम घटना
कैसे इस तरह
घट सकती है?
अस्तित्व
में कुछ भी
अकारण नहीं
घटता,
यह
सच है, लेकिन
अस्तित्व
स्वयं अकारण
है। परमात्मा
स्वयं अकारण
है, उसका
कोई कारण नहीं
है। संबोधि
यानी परमात्मा।
संबोधि यानी
अस्तित्व।
फिर और सब
घटता है, परमात्मा
घटता नहीं—है।
ऐसा कोई क्षण
न था, जब
नहीं था; ऐसा
कोई क्षण नहीं
होगा, जब
नहीं होगा। और
सब घटता
है—आदमी घटता
है, वृक्ष
घटते हैं, पशु—पक्षी
घटते हैं; परमात्मा
घटता
नहीं—परमात्मा
है। संबोधि घटती
नहीं। संबोधि
घटना नहीं है;
अन्यथा
अकारण घटती, तो दुर्घटना
हो जाती।
संबोधि घटती
नहीं है, संबोधि
तुम्हारा
स्वभाव है; संबोधि तुम
हो। इसलिए
तत्क्षण घट
सकती है, और
अकारण घट सकती
है।
कहा
है कि 'संबोधि
जैसी महानतम
घटना कैसे इस
तरह घट सकती है?'
महानतम
है—इसीलिए।
क्षुद्र तो
सभी सकारण घटता
है। अगर समाधि
भी और ही
वस्तुओं की
तरह सकारण
घटती होती, तो
वह भी क्षुद्र
और साधारण हो
जाती। पानी को
सौ डिग्री तक
गर्म करो, भाप
बन जाता
है—ऐसी ही अगर
समाधि भी होती
कि सौ डिग्री
तक तपश्चर्या
करो और समाधि
घट जाती है, तो विज्ञान
की
प्रयोगशाला
में पकड़ ली
जायेगी फिर
तुम्हारी
समाधि; फिर
ज्यादा देर
धर्म के बचने
का कोई उपाय
नहीं।
क्योंकि जो भी
सकारण घटता है,
वह विज्ञान
के हाथ के
भीतर आ ही
जायेगा; जिसका
कारण है, वह
विज्ञान की
सीमा में घिर
जायेगा।
संबोधि
अकारण है।
इसलिए धर्म, धर्म
रहेगा; विज्ञान
उसे कभी भी
आच्छादित न कर
सकेगा। जो भी
सकारण घटता है,
सब धीरे—धीरे
वैज्ञानिक हो
जायेगा; सिर्फ
एक चीज रह
जायेगी, जो
कभी
वैज्ञानिक न
होगी, वह
स्वयं
अस्तित्व है।
क्योंकि
अस्तित्व अकारण
है; बस है।
विज्ञान के
पास उसका कोई
उत्तर नहीं। विराट,
समग्र का
कारण हो भी
कैसे सकता है?
क्योंकि जो
भी है, सब
उसमें समाहित
है, उसके बाहर
तो कुछ भी
नहीं। समाधि
इसीलिए नहीं
घटती, क्योंकि
क्षुद्र नहीं
है, विराट
है।
तुमने
पूछा है कि 'संबोधि
जैसी महानतम
घटना...।'
महानतम
इसीलिए है, उसके
महान होने का
और कोई कारण
नहीं कि
तुम्हारे
क्षुद्र
कार्य—कारण के
नियम के बाहर
है। इतना
पुण्य करो और
समाधि घटती हो;
इतना दान दो
और समाधि घटती
हो; इतना
त्याग करो और
समाधि घटती
हो—तो समाधि
गणित के भीतर
आ जायेगी, खाते—बही
में आ जायेगी,
महान न रह
जायेगी।
अकारण घटती
है।
भक्त
इसीलिए कहते
हैं.
प्रसाद—रूप
घटती है। तुम्हारे
घटाये नहीं
घटती। बरसती
है तुम पर—अनायास, भेंट—रूप,
प्रसाद—रूप!
फिर
श्रम और
चेष्टा, जो हम
करते हैं, उसका
क्या परिणाम?
अगर
अष्टावक्र
तुम्हें समझ
में आ जाते
हों, तब तो
तुम व्यर्थ ही
श्रम करते हो,
तब तो तुम
व्यर्थ ही
अनुष्ठान
करते हो।
अनुष्ठान की
कोई भी जरूरत
नहीं; समझ
पर्याप्त है।
इतना समझ लेना
कि परमात्मा
तो है ही, और
उसकी खोज छोड़
देना। इतना
समझ लेना कि
जो हम हैं वह
मूल से जुड़ा
ही है इसलिए
जोड़ने की चेष्टा
और दौड़—धूप
छोड़ देनी
है—और मिलन घट
जायेगा। मिलन
घट
जायेगा—मिलने
के प्रयास से
नहीं, मिलने
के प्रयास को
छोड़ देने से।
मिलने के प्रयास
से तो दूरी बढ़
रही है—जितनी
तुम मिलन की
आकांक्षा
करते हो, उतना
ही भेद बढ़ता
जाता है।
जितना तुम
खोजने निकलते
हो, उतने
ही खोते चले
जाते हो; क्योंकि
जिसे तुम
खोजने निकले
हो, उसे
खोजना ही नहीं
है। जागकर
देखना है; वह
मौजूद है, वह
द्वार पर खड़ा
है, वह
मंदिर के भीतर,
तुम्हारे
भीतर विराजमान
है। एक क्षण
को उसने
तुम्हें छोड़ा
नहीं, एक
क्षण को जुदा
हुआ नहीं। जो
जुदा नहीं हुआ,
जिससे कभी
विदाई नहीं
हुई, जिससे
विदाई हो ही
नहीं सकती, उसे तुम
खोज—खोजकर खो
रहे हो।
तो
तुम्हारे
अनुष्ठानों
का एक ही
परिणाम हो सकता
है कि तुम थक
जाओ,
कि
तुम्हारी सारी
चेष्टा एक दिन
ऐसी जगह आ
जाये कि
चेष्टा कर—करके
ही तुम ऊब जाओ;
तुम उस ऊब
के क्षण में
चेष्टा छोड़ दो,
और तत्कण
तुम्हें
दिखाई पड़े.
अरे! मैं भी
कैसा पागल था!
कल
मैं किसी की
जीवनकथा पढ़
रहा था। उस
व्यक्ति ने
लिखा है कि वह
एक अनजान नगर
में यात्रा पर
गया हुआ था और
एक अनजान नगर
में खो गया।
वहां की भाषा
उसे समझ में
नहीं आती। तो
वह बड़ा घबड़ा
गया। और उस घबड़ाहट
में उसे अपने
होटल का नाम
भी भूल गया, फोन
नंबर भी भूल
गया। तब तो
उसकी घबड़ाहट
और बढ़ गई कि अब
मैं पूछूंगा
कैसे? तो
वह बड़ी
उत्सुकता से
देख रहा है
रास्ते पर चलते—चलते
कि कोई आदमी
दिखाई पड़ जाये
जो मेरी भाषा
समझता हो।
पूरब का कोई
देश, सुदूर
पूर्व का, और
यह अमरीकन! यह
देख रहा है कि
कोई सफेद चमड़ी
का आदमी दिख
जाये, जो
मेरी भाषा
समझता हो, या
किसी दुकान पर
अंग्रेजी में
नाम—पट्ट दिख
जाये, तो
मैं वहा जाकर
पूछ लूं। वह
इतनी आतुरता
से देखता चल
रहा है, और
पसीने—पसीने
है कि उसे
सुनाई ही न
पड़ा कि उसके
पीछे पुलिस की
एक गाड़ी लगी
हुई है और
बार—बार हार्न
बजा रही है।
क्योंकि उस
पुलिस की गाड़ी
को भी शक हो
गया है कि यह
आदमी भटक गया
है। दो मिनिट
के बाद उसे
हार्न सुनाई
पड़ा। चौंक कर
वह खड़ा हो गया,
पुलिस उतरी
और उसने कहा, तुम होश में
हो कि बेहोश
हो? हम दो
मिनिट से
हार्न बजा रहे
हैं, हमें
शक हो गया है
कि तुम भटक
गये हो, खो
गए हो, बैठो
गाड़ी में!
उसने
कहा,
यह भी खूब
रही! मैं खोज
रहा था कि कोई
बताने वाला
मिल जाये, बताने
वाले पीछे लगे
थे। मगर मेरी
खोज में मैं
ऐसा तल्लीन था
कि पीछे से
कोई हार्न बजा
रहा है, यह
मुझे सुनाई ही
न पड़ा। पीछे
मैंने लौटकर
ही न देखा।
जिसे
तुम खोज रहे
हो,
वह
तुम्हारे
पीछे लगा है।
निश्चित ही
परमात्मा
हार्न नहीं
बजाता, जोर
से चिल्लाता
भी नहीं, क्योंकि
जोर से
चिल्लाना
तुम्हारी स्वतंत्रता
पर बाधा हो
जायेगी।
फुसफुसाता है,
कान में
गुपचुप कुछ
कहता है। मगर
तुम इतने व्यस्त
हो, कहां
उसकी
फुसफुसाहट
तुम्हें
सुनाई पड़े!
तुम इतने
शोरगुल से भरे
हो, तुम्हारे
मन में इतना
ऊहापोह चल रहा
है, तुम
खोज में इस
तरह संलग्न
हो।
स्वामी
रामतीर्थ ने
कहा है, एक
छोटी—सी कहानी
कही कि एक
प्रेमी दूर
देश गया। वह
लौटा नहीं
वापिस। उसकी
प्रेयसी राह
देखती रही, देखती—देखती
थक गई। वह
पत्र लिखता है,
बार—बार
कहता है. अब
आता हूं तब
आता हूं; इस
महीने, अगले
महीने। वर्ष
पर वर्ष बीतने
लगे, एक
दिन वह
प्रेयसी तो
घबड़ा गई।
प्रतीक्षा की
भी एक सीमा
होती है। उसने
यात्रा की और
वह परदेश के
उस नगर पहुंच
गई, जहां
उसका प्रेमी
है। पूछताछ
करके उसके घर
पहुंच गई।
द्वार खुला है,
सांझ का
वक्त है, सूरज
ढल गया है, वह
द्वार पर खड़े
होकर देखने
लगी। बहुत दिन
से अपने
प्यारे को
देखा नहीं। वह
बैठा है सामने,
मगर किसी
गहरी
तल्लीनता में
डूबा है, कुछ
लिख रहा है! वह
इतना तल्लीन
है कि प्रेयसी
को भी लगा कि
थोड़ी देर
रुकुं उसे
बाधा न दूं र न मालूम
किस
विचार—तंतु
में है.. कौन—सी
बात खो जाए।
वह ऐसा
भाव—विभोर है,
उसकी आंखों
से आंसू बह
रहे हैं, और
वह कुछ लिख
रहा है, और
वह लिखता ही
चला जाता है।
घड़ी बीत गई, दो घड़ी बीत
गई, तब
उसने आंख उठा
कर देखा, उसे
भरोसा न आया, वह घबड़ा
गया।
वह
अपनी प्रेयसी
को ही पत्र
लिख रहा था।
इसी को पत्र
लिख रहा था, जो
दो घड़ी से
उसके सामने
बैठी थी, और
प्रतीक्षा कर
रही थी कि तुम आंख
उठाओ! उसे तो
भरोसा न आया, वह तो समझा
कि कोई धोखा
हो गया, कोई
भ्रम हो गया, शायद कोई
आत्म—सम्मोहन!
मैं इतना
ज्यादा भावातिरेक
में भरा हुआ
इस प्रेयसी के
संबंध में सोच
रहा था, शायद
इसीलिए एक
सपने की तरह
वह दिखाई पड़
रही है। कोई
भ्रम तो
नहीं.। उसने
आंखें
पोंछीं। वह
प्रेयसी
हंसने लगी।
उसने कहा कि
क्या सोचते हो?
मुझे क्या
भ्रम समझते हो?
वह
कैप गया। उसने
कहा,
तू लेकिन आई
कैसे और मैं
तुझी को पत्र
लिख रहा था।
पागल, तूने
रोका क्यों
नहीं? तू
सामने थी और
मैं तुझी को
पत्र लिख रहा
था।
परमात्मा
सामने है और
हम उसी से
प्रार्थना कर
रहे हैं कि
मिलो, हे
प्रभु तुम
कहां हो? आंखों
से आंसू बह
रहे हैं, लेकिन
हमारी आंसुओ
की दीवाल के
कारण, जो
सामने है, दिखाई
नहीं पड़ रहा
है। हम उसी को
तलाश रहे हैं।
तलाश के कारण
ही हम उसे खो
रहे हैं।
अष्टावक्र
की बात तो बड़ी
सीधी—साफ है।
वे कहते हैं.
बंद करो यह
लिखा—पढ़ी! बंद
करो अनुष्ठान!
समाधि
घटती नहीं। ही, अगर
समाधि भी एक
घटना होती, तो फिर
कार्य—कारण से
घटती।
कार्य—कारण से
घटती तो बाजार
की चीज हो
जाती। समाधि
अछूती और कुंआरी
है; बाजार
में बिकती
नहीं। तुमने
कभी खयाल किया,
तुम्हारा
बाजारू दिमाग
परमात्मा को भी
बाजार में रख
लेता है! तुम
सोचते हो कि
इतना करेंगे
तो परमात्मा
मिल जाएगा, जैसे कोई
सौदा है!
पुण्य करेंगे
तो परमात्मा मिल
जाएगा।
तुम्हारे
तथाकथित
साधु—संत भी
तुमसे यही कहे
चले जाते हैं :
पुण्य करो, अगर
परमात्मा को
पाना है। जैसे
परमात्मा को पाने
के लिए कुछ
करना पड़ेगा!
जैसे
परमात्मा
बिना किये
मिला हुआ नहीं
है! जैसे
परमात्मा को
खरीदना है, मूल्य
चुकाना
पड़ेगा। इतने
पुण्य करो, इतनी
तपश्चर्या, इतना ध्यान,
इतना मंत्र,
जप, तप—तब
मिलेगा! बाजार
में रख लिया
तुमने। बिकने
वाली एक चीज
बना दी।
खरीददार खरीद
लेंगे। जिनके
पास है पुण्य,
वे खरीद
लेंगे। जिनके
पास पुण्य
नहीं है वे वंचित
रह जायेंगे।
पुण्य के
सिक्के चाहिए;
खनखनाओ
पुण्य के
सिक्के, तो
मिलेगा।
अष्टावक्र
कह रहे हैं.
क्या पागलों
जैसी बात कर
रहे हो? पुण्य
से मिलेगा
परमात्मा? तब
तो खरीददारी
हो गई। पूजा
से मिलेगा
परमात्मा? तो
तुमने तो खरीद
लिया। प्रसाद
कहां रहा? और
जो कारण से
मिलता है, वह
कारण अगर खो
जायेगा, तो
फिर खो
जायेगा। जो
अगर कारण से
मिलता हो, तो
कारण के मिट
जाने से फिर
छूट जायेगा।
तुमने
धन कमा लिया।
तुमने खूब
मेहनत की, तुमने
खूब स्पर्धा
की बाजार
में—धन कमा
लिया। लेकिन
क्या तुम
सोचते हो, धन
कमाया हुआ
टिकेगा? चोर
इसे चुरा सकते
हैं। चोर का
मतलब है, जो
तुमसे भी
ज्यादा जीवन
को दाव पर लगा
देता है।
दुकानदार भी
मेहनत करता है,
लेकिन चोर
अपने जीवन को
भी दाव पर लगा
देता है। वह
कहता है, लो
हम मरने—मारने
को तैयार हैं,
लेकिन लेकर जायेंगे।
तो वह ले जाता
है।
जो
कारण से मिला
है,
वह तो छूट
सकता है।
परमात्मा
अकारण मिलता
है। लेकिन
हमारा अहंकार
मानता नहीं।
हमारा अहंकार
कहता है, अकारण
मिलता है, तो
इसका मतलब यह
कि जिन्होंने
कुछ भी नहीं
किया, उनको
भी मिल जायेगा?
यह बात हमें
बड़ी कष्टकर
मालूम होती है
कि जिन्होंने
कुछ भी नहीं
किया, उनको
भी मिल
जायेगा।
वहां
सामने 'अरूप'
बैठे हंस
रहे हैं। वे
कल मुझसे कह
रहे थे कि कुछ
करने का मन
नहीं होता।
मैंने कहा, चलो न करने
में डूबो।
परमात्मा को
पाने के लिए
करने की जरूरत
क्या है? कहो
भी तो भरोसा
नहीं आता।
क्योंकि
हमारा मन कहता
है, बिना
किये? बिना
किये तो
क्षुद्र
चीजें नहीं
मिलतीं— मकान
नहीं मिलता, कार नहीं
मिलती, दुकान
नहीं मिलती, धन, पद, प्रतिष्ठा
नहीं
मिलती—परमात्मा
मिल जायेगा बिना
किये? भरोसा
नहीं आता।
करना तो पड़ेगा
ही। कोई तरकीब
होगी इसमें।
इस 'न करने'
को भी करना
पड़ेगा। इसलिए
तो हम ऐसे—ऐसे
शब्द बना लेते
हैं—कर्म में
अकर्म, अकर्म
में कर्म—मगर
हम कर्म को
डाल ही देते
हैं। 'अकर्म
में कर्म'—करेंगे
इस भांति, मगर
करेंगे जरूर!
बिना किये
कहीं मिलेगा?
मैं
तुमसे कहता
हूं वही
अष्टावक्र कह
रहे हैं. मिला
ही हुआ है।
मिलने की भाषा
ही गलत है।
मिलने की भाषा
में तो दूरी आ गई; जैसे
छूट गया। छूट
जाये तो तुम
क्षण भर जी
सकते हो ई
परमात्मा से
छूट कर कैसे
जीयोगे? परमात्मा
से छूट कर तो
तुम्हारी वही
गति हो जायेगी
जो मछली की
सागर से छूट
कर हो जाती
है। फिर मछली
तो सागर से
छूट भी सकती
है, क्योंकि
सागर के अलावा
कुछ और स्थान
भी है, लेकिन
तुम परमात्मा
से कैसे
छूटोगे—वही है,
बस वही है, सब जगह वही
है, सब जगह
उसी में है, तुम छूटोगे
कहां, तुम
जाओगे कहा? किनारा है
कोई परमात्मा
का? सागर
ही सागर है।
उसके बाहर
होने का उपाय
नहीं है।
अष्टावक्र
तुमसे कह रहे
हैं कि तुम
उससे कभी दूर
गए ही नहीं हो, इसलिए
घट सकता है
अकारण। खोया
ही न हो तो
मिलना हो सकता
है अकारण।
संबोधि
कोई घटना नहीं
है,
स्वभाव है।
लेकिन, ऐसा
कहीं हो सकता
है कि बिना
किये प्रसाद
बरस जाये?
हम
बड़े दीन हो गए
हैं। दीन हो
गए हैं जीवन
के अनुभव से।
यहां तो कुछ
भी नहीं मिलता
बिना किये, तो
हम बड़े दीन हो
गए हैं। हम तो
सोच भी नहीं
सकते कि
परमात्मा, और
बिना किये मिल
सकता है।
हमारी दीनता
सोच नहीं
सकती।
हम
दीन नहीं हैं।
इसलिए तो जनक
कहते हैं कि 'अहो!
मैं आश्चर्य
हूं! मुझको
मेरा नमस्कार!
मुझको मेरा
नमस्कार! इसका
अर्थ हुआ कि
भक्त और भगवान
दोनों मेरे
भीतर हैं। दो
कहना भी ठीक
नहीं, एक
ही मेरे भीतर
है, भूल से
उसे मैं भक्त
समझता हूं; जब भूल छूट
जाती है तो
उसे भगवान जान
लेता हूं।
ऐसा
ही समझो कि
तुम्हारे
कमरे में
तुमने दो कुर्सियां
ले जा कर रखीं, फिर
और दो
कुर्सियां ले
जा कर रखीं, गलती से तुम
ने जोड़ लीं
पांच, मगर
कमरे में तो
चार ही हैं।
तुम चाहे गलती
से पांच जोड़ो
चाहे छह, चाहे
पचास जोड़ो, तुम्हारे
गलत जोड़ने से
कमरे में
कुर्सियां पांच
नहीं होतीं; कुर्सियां
तो चार ही हैं,
तुम चाहे
तीन जोड़ो चाहे
पांच जोड़ो।
तुम्हारा तीन—पांच
तुम जानो, कुर्सियों
को इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता, कुर्सियां
तो चार ही
हैं।
यह
तुम जो सोच
रहे हो कि
परमात्मा को
खोजना है, यह
तुम्हारा
तीन—पांच है।
परमात्मा तो
मिला ही हुआ
है; कुर्सियां
तो चार ही
हैं। जब भी
गणित ठीक बैठ जायेगा,
तुम कहोगे,
अहो! पहले
पांच कुर्सियां
थीं, अब
चार हो
गईं—ऐसा तुम
कहोगे? तुम
कहोगे, बड़ी
भूल हो रही थी,
कुर्सियां
तो सदा से चार
थीं, मैंने
पांच जोड़ ली
थीं। भूल
सिर्फ जोड़ने
की थी।
भूल
अस्तित्व में
नहीं है—भूल
केवल स्मरण
में है। भूल
अस्तित्व में
नहीं है—भूल
केवल तुम्हारे
गणित में है।
भूल ज्ञान में
है।
इसलिए
अष्टावक्र
कहते हैं, कुछ
करने का सवाल
नहीं है। पांच
कुर्सियों को चार
करने के लिए
एक कुर्सी
बाहर नहीं ले
जानी है, या
तीन तुमने
जोड़ी हैं, तो
चार करने को
एक बाहर से
नहीं लानी
है—कुर्सियां
तो चार ही
हैं। सिर्फ
भूल है
जोड़—तोड़ की। जोड़—तोड़
ठीक बिठा लेना
है। तो जब जोड़
ठीक बैठ
जायेगा, तब
तुम क्या
कहोगे कि
अकारण तीन से
कुर्सियां चार
हो गईं, अकारण
पांच से चार
हो गईं? नहीं,
तब तुम
हसोगे। तुम
कहोगे, होने
की तो बात ही
नहीं, वे
थीं ही; भूल
सिर्फ हम
सोचने की कर
रहे थे, सिर्फ
भूल मन की थी, अस्तित्व की
नहीं थी।
भक्त
तुम अपने को
जानते हो—यह
जोड़ की भूल।
इसलिए तो जनक
कह सके. अहो!
मेरा मुझको
नमस्कार! कैसा
पागल मैं!
कैसा आश्चर्य
कि अपने ही
माया—मोह में
भटका रहा! जो
सदा था उसे न
जाना, और जो
कभी भी नहीं
था, उसे
जान लिया!
रस्सी में
सांप देखा!
सीपी में चांदी
देखी! किरणों
के जाल से
मरूद्यान के
भ्रम में पड़
गया, जल
देख लिया! जो
नहीं था, देखा!
जो था, वह
इस माया में, झूठे भ्रम
में छिप गया
और दिखाई न
पड़ा!
संबोधि
महान घटना है, क्योंकि
घटना ही नहीं
है। संबोधि
महान घटना है,
क्योंकि
कार्य—कारण के
बाहर है।
संबोधि घटी ही
हुई है।
तुम्हें जिस
क्षण तैयारी आ
जाये, तुम्हें
जिस क्षण
हिम्मत आ जाये,
जिस क्षण
तुम अपनी
दीनता छोड़ने
को तैयार हो
जाओ, और
जिस क्षण तुम
अपना अहंकार
छोड़ने को
तैयार हो
जाओ—उसी क्षण
घट जायेगी। न
तुम्हारे तप
पर निर्भर है,
न तुम्हारे
जप पर निर्भर
है। जप—तप में
मत खोये रहना।
मैं
एक घर में
मेहमान हुआ एक
बार। तो वह
पूरा घर
पुस्तकों से
भरा था। मैंने
पूछा कि बड़ा
पुस्तकालय है? घर
के मालिक ने
कहा, बड़ा
पुस्तकालय
नहीं है; बस
इन सब किताबों
में राम—राम
लिखा है। बस
मैं जनम भर से
यही कर रहा
हूं पुस्तकें
खरीदता हूं,राम—राम—राम—राम
दिन भर
ल्रिखता रहता
हूं। इतने
करोड़ बार लिख
चुका हूं!
इसका कितना
पुण्य होगा, आप तो कुछ
कहें।
इसका
क्या पुण्य
होगा? इसमें
पाप भला हो!
इतनी कापियां
बच्चों के काम
आ जातीं स्कूल
में, तुमने
खराब कर
दीं—तुम पूछ
रहे हो पुण्य?
तुम्हारा
दिमाग खराब है?
यह राम राम लिखने
से किताबों
में.!
उनको
बड़ा धक्का लगा, क्योंकि
संत और भी
उनके यहां आते
रहते थे, वे
कहते थे. बड़े
पुण्यशाली हो!
इतनी बार राम
लिख लिया, इतनी
बार माला जप
ली, इतनी
बार राम का
स्मरण कर
लिया—अरे एक
बार करने से
आदमी स्वर्ग
पहुंच जाता है,
तुमने इतना
कर लिया! मुझसे
नाराज हुए, तो फिर मुझे
कभी दोबारा
नहीं
बुलाया—यह
आदमी किस काम
का, जो
कहता है पाप
हो गया? उनको
बड़ा धक्का
लगा।
उन्होंने कहा
आप हमारे भाव
को बड़ी चोट
पहुंचाते
हैं।
तुम्हारे
भाव को चोट
नहीं
पहुंचाता; सिर्फ
इतना ही कह
रहा हूं कि यह
क्या पागलपन है?
राम—राम लिखने
से क्या मतलब?
जो लिख रहा
है, उसको
पहचानो, वह
राम है, उसको
कहां के काम
में लगाए हुए
हो, राम—राम
लिखवा रहे हो!
बोलो, राम
को फंसा दो, बिठा दो कि
लिखो, छोड़ो
धनुष—बाण, पकड़ो
कलम, लिखो
राम—राम, यह
कहां फिर रहे
हो सीता की
तलाश में और
यह क्या कर
रहे हो—तो पाप
होगा कि पुण्य?
और
रामचंद्र जी
अगर भले आदमी
मान लें कि
चलो ठीक है, अब यह आदमी
पीछे पड़ा है, न लिखें तो
बुरा न मान
जाये, तो
बैठ राम—राम
लिख रहे
हैं—तों उनका
जीवन तुमने
खराब किया।
तुम
भी जब लिख रहे
हो तो तुम राम
से ही लिखवा
रहे हो। यह
कौन है जो लिख
रहा है? इसे पहचानो।
यह कौन है जो
रटन लगाये हुए
है राम—राम की?
यह कहां उठ
रही है रट? उसी
गहराई में
उतरो।
अष्टावक्र
कहते हैं, वहां
तुम राम को
पाओगे।
दूसरा
प्रश्न :
कल
आपने कहा कि
हृदय के भाव
पर बुद्धि का
अंकुश मत
लगाओ। लेकिन मुझे
तो भगवान श्री, आपके
प्रवचन बहुत—
बहुत
तर्कपूर्ण
लगते हैं। तो
क्या तर्क की
संतुष्टि से
दिमाग की
पुष्टि होती
है? तो
क्या मेरे लिए
को दबा डाले? यह खतरा
नहीं है कि
तर्क—पोषित
दिमाग, दिल
पर हावी हो
जाये और भावों
की अनुभूति
कृपाकर मुझे
राह बताएं।
मैं जो
बोल रहा हूं
वह निश्चित ही
तर्कपूर्ण है; लेकिन
सिर्फ
तर्कपूर्ण ही
नहीं है, थोड़ा
ज्यादा भी है।
तर्कपूर्ण
बोलता हूं—तुम्हारे
कारण, थोड़ा
ज्यादा जो
है—वह मेरे
कारण।
तर्कपूर्ण न बोलूंगा,
तुम समझ न
पाओगे। वह जो
तर्कातीत है,
वह न
बोलूंगा, तो
बोलूंगा ही
नहीं, बोलने
में सार क्या
फिर?
तो
जब मैं बोल
रहा हूं तो
मेरे बोलने
में दो हैं, तुम
हो और मैं हूं;
सुनने वाला
भी है और
बोलने वाला भी
है।
अगर
मेरा बस चले, तब
तो मैं
तर्कातीत ही
बोलूं तर्क
बिलकुल छोड़ दूं;
लेकिन तब
तुम मुझे पागल
समझोगे। तब
तुम्हारी समझ
में कुछ भी न
आयेगा। तब तो
तुम्हें
लगेगा, यह
तो तर्क—शून्य
शोरगुल हो
गया।
तुम्हारी
तर्क—सरणी में
बैठ सके, इसलिए
तर्कपूर्ण
बोलता हूं।
लेकिन अगर
उतना ही
तुम्हें समझ
में आये, तो
तुम बेकार आए
और गए।
ऐसा
समझो कि जैसे
चम्मच में हम
दवा भरते हैं
और तुम्हारे
मुंह में डाल
देते
हैं—चम्मच
नहीं डाल
देते। तर्क की
चम्मच में जो
तर्कातीत है, वह
डाल रहा हूं।
तुम चम्मच मत
गटक जाना; नहीं
तो और झंझट
में पड़ जाओगे।
चम्मच का
उपयोग कर लो र
लेकिन चम्मच
में जो भरा है,
उस रस को
पीयो। तर्क की
तो चम्मच है, तर्क का तो
सहारा है; क्योंकि
तुम अभी इतनी
हिम्मत में
नहीं हो कि तर्कातीत
को सुन सको।
अगर
तर्कातीत ही
सुनना है तो
पक्षियों के
गीत सुन कर भी
वही काम हो
जायेगा जो
अष्टावक्र की
गीता सुनने से
होता है! वे
तर्कातीत
हैं। हवाओं का
वृक्षों से
गुजरना, सरसराहट
की आवाज; सूखे
पत्तों का राह
पर उड़ना, खड़खड़ाहट
की आवाज; नदी
की धारा में
उठती आवाज; आकाश में
मेघों का
गर्जन—वह सब
तर्कातीत है।
अष्टावक्र
बोल रहे आठों
दिशाओं से, सब ओर से! मगर
वहां तुम्हें
कुछ समझ में न
आयेगा। यह
चिड़ियों की
चहचहाहट, तुम
कितनी देर सुन
सकोगे? तुम
कहोगे, हो
गई बकवास; थोड़ा
बहुत सुन लो, ठीक
है—लेकिन इस
चहचहाहट में
कुछ अर्थ तो
है ही नहीं! वह
जो तर्कातीत
है, वह तो
चिड़ियों की
चहचहाहट जैसा
ही है; लेकिन
तुम्हारे तक
पहुंचाने के
लिए सेतु बनाता
हूं तर्क का।
अब
अगर तुम सेतु
को ही पकड़ लो
और मंजिल को
भूल जाओ, शब्द
को ही पकड़ लो, और शब्द से
जो पहुंचाया
था वह भूल
जाओ—तो तुम कंकड़—पत्थर
बीन कर चले गए,
जहां से
हीरे— जवाहरात
से झोली भर
सकते थे।
मित्र
ने पूछा है, 'हृदय
के भाव पर
बुद्धि का
अंकुश मत लगाओ,
ऐसा आप कहते
हैं।'
निश्चित।
बुद्धि से
समझो, लेकिन
हृदय को मालिक
रहने दो।
बुद्धि को
गुलाम बनाओ, हृदय को
मालिक के
सिंहासन पर
विराजमान
करो। नौकर बहुत
दिन सिंहासन पर
बैठ चुका है।
बुद्धि के
लिये तुम नहीं
जीते हो, जीते
तो हृदय के
लिए हो। इसलिए
तो बुद्धि से
कभी भराव नहीं
आता। कितने ही
बड़े गणितज्ञ
हो जाओ, उससे
थोड़े ही हृदय
को शांति
मिलेगी! और
कितने ही बड़े
तर्कनिष्ठ
विचारक हो जाओ,
उससे थोड़े
ही
प्रफुल्लता
जगेगी! और
कितना ही
दर्शन—शास्त्र
इकट्ठा कर लो,
उससे थोड़े
ही समाधि
बनेगी! हृदय
मांगेगा प्रेम,
हृदय
मांगेगा
प्रार्थना।
हृदय की अंतिम
मांग तो समाधि
की रहेगी, कि
लाओ समाधि, लाओ समाधि!
बुद्धि
ज्यादा से
ज्यादा समाधि
के संबंध में
तर्कजाल ला
सकती है, समाधि
के संबंध में
सिद्धात ला सकती
है; लेकिन
सिद्धातों से
क्या होगा?
कोई
भूखा बैठा है, तुम
पाक—शास्त्र
देते हो उसे
कि इसमें सब
लिखा है, पढ़
लो, मजा
करो! वह पढ़ता
भी है कि भूख
लगी है, चलो
शायद यही काम
करे। बड़े—बड़े
सुस्वादु
भोजनों की
चर्चा है—कैसे
बनाओ, कैसे
तैयार करो—मगर
इससे क्या
होगा? वह
पूछता है कि
पाक—शास्त्र
से क्या होगा?
भोजन
चाहिए। भूखे
को भोजन
चाहिए।
प्यासे को पानी
चाहिए।
तुम
प्यासे आदमी
को लिख कर दे
दो—उसको लगी
है प्यास और
तुम लिख कर दे
दो 'एच टू ओं'—यह
पानी का
सूत्र! वह
आदमी कागज
लेकर बैठा रहेगा,
क्या होगा?
ऐसे ही तो
लोग राम—राम
लिए बैठे हैं।
सब मंत्र 'एच
टू ओ' जैसे
हैं। निश्चित
ही पानी
आक्सीजन और
हाइड्रोजन से
मिल कर बनता
है, लेकिन
कागज पर 'एच
टू ओ' लिखने
से प्यास नहीं
बुझती।
तर्क
से समझो, हृदय
से पीयो। तर्क
का सहारा ले
लो, लेकिन
बस सहारा ही
समझना; उसी
को सब कुछ मत
मान लेना।
मालिक हृदय को
रहने दो। प्रेम
और प्रार्थना
में, पूजा
और अर्चना में,
ध्यान और
समाधि में, बुद्धि बाधा
न दे, इसका
स्मरण रखना।
सहयोगी जितनी
बन सके, उतना
शुभ है। इसलिए
तो तर्क के
सहारे तुमसे
बोलता हूं कि
तुम्हारी
बुद्धि को
फुसला लूं राजी
कर लूं। तुम
दो कदम राजी
होकर हृदय की
तरफ चले जाओ।
वहां थोड़ा—सा
भी स्वाद आ
जायेगा, तो
मगन हो जाओगे।
फिर तुम खुद
ही बुद्धि की
चिंता छोड़
दोगे। स्वाद
जब आ जाता है
तो शब्दों की
कौन फिक्र
करता है!
'लेकिन मुझे
तो भगवान श्री,
आपके
प्रवचन
बहुत—बहुत
तर्कपूर्ण
लगते हैं। '
वे
तर्कपूर्ण
हैं। मेरी
पूरी चेष्टा
है कि तुम से
जो कहूं वह
तर्कपूर्ण हो, ताकि
तुम राजी हो
सको मेरे साथ
चलने को। एक
बार राजी हो
गए, फिर तो
गड्डे में गए,
फिर तो
तुम्हारी
पटरी उतार
दूंगा! एक बार
राजी भर हो
जाओ, एक
बार हाथ में
हाथ आ जाये, फिर कोई
चिंता नहीं
है। एक दफे
तुम्हारा हाथ
हाथ में आ गया
तो तुम ज्यादा
देर हाथ के
बाहर न रहोगे।
पहुंचा पकड़ा,
फिर कलाई
पकड़ ली, फिर...
आदमी गया!
तो
तर्क से तो
पहला संबंध
बनाता हूं
क्योंकि वहा
तुम जी रहे हो, वहीं
से संबंध बन
सकता है; वहां
तुम हो। इसलिए
मेरे पास
नास्तिक भी आ
जाते हैं; मुझसे
नास्तिक भी
राजी हो जाते
हैं। मुझसे नास्तिक
को कोई झगड़ा
नहीं होता, क्योंकि मैं
नास्तिक की
भाषा बोलता
हूं। मगर वह
तो जाल है। वह
भाषा तो जाल
है। वह तो ऐसे
ही है जैसे हम
मछली पकड़ने
जाते हैं, तो
काटे पर आटा
लगा देते हैं।
वह तो आटा है।
अगर बचना हो
तो आटे ही से
बच जाना, क्योंकि
आटा मुंह में
लिया, तब
पता चलेगा कि
यह तो काटा
था।
तर्क
तो आटा है, तर्कातीत
काटा है।
तुम्हें
फुसलाते हैं,
कड़वी भी दवा
पिलानी हो तो
शक्कर की पर्त
चढ़ाते हैं।
छोटे—छोटे
बच्चों जैसी
हालत है आदमी
की, वह
शक्कर के रस
में कड़वी दवा
भी गटक जाता
है। जहर भी पी
सकते हो तुम।
लेकिन अगर सीधा
ही तुम्हारे
सामने
तर्कातीत को
खड़ा कर दिया जाये
तो तुम भाग
खड़े होओगे।
तुम कहोगे, 'नहीं इस पर
तो हमारी
बुद्धि को
भरोसा नहीं
आता। ' तो
मैं तुम्हारी
बुद्धि को
भरोसा लाना
चाहता हूं।
लेकिन अगर
वहीं तुम रुक
गए और तुमने
सोचा कि आ गया
बुद्धि को
भरोसा, अब
घर जायें—तो
तुम चूक गए।
तो तुमने ऐसा
समझो कि दवा
के ऊपर तो चढ़ी
शक्कर थी, उसको
तो उतार कर पी
लिया और दवा
को फेंक दिया।
'तर्क की
संतुष्टि से
क्या दिमाग की
पुष्टि होती
है?'
तुम
पर निर्भर है।
अगर सिर्फ
तर्क ही तर्क
को सुनोगे, तो
दिमाग की
पुष्टि होगी;
लेकिन
तर्कों के बीच
में अगर तुमने
अतर्क्य को भी
थोड़ा—सा जाने
दिया, बूंद—बूंद
सही, तो वह
बूंद
तुम्हारे
मस्तिष्क में,
हृदय की क्रांति
को उपस्थित कर
देगी।
यह
तुम पर निर्भर
है। कुछ लोग
हैं,
जो सिर्फ
तर्क ही तर्क
को सुनते हैं,
जो—जो तर्क
के बाहर पड़ता
है, उसे वे
हटा देते हैं।
फिर वे मेरे
पास आये ही नहीं,
आये या न
आये, बराबर।
वे जैसे आये
थे, वैसे
ही वापस गए—और
मजबूत होकर
गए। उन्होंने
अपने—अपने
हिसाब का चुन
लिया, मतलब
की बात चुन
ली। जो उनके
तर्क के साथ
बैठती थी, वह
चुन ली; जो
नहीं बैठती थी,
वह छोड़ दी।
जो नहीं बैठती
थी तुम्हारे
तर्क के साथ, वही
तुम्हारे
भीतर क्रांति
की चिनगारी
बनती। जो
तुम्हारे
तर्क के साथ
बैठती थी, वह
तो तुम्हीं को
मजबूत करेगी।
तुम्हारी बीमारी,
तुम्हारी
चिंता, तुम्हारा
संताप, और
मजबूत हो
जाएगा।
तुम्हारा
अहंकार और
मजबूत हो
जाएगा।
तो
थोड़ी कुशलता
बरतना। इसलिए
तो जनक कहते
हैं अष्टावक्र
से : कैसी
कुशलता! कि
क्षण में दिखाई
पड़ गया! कैसी
मेरी दक्षता!
कैसी मेरी
निपुणता!! उस
निपुणता को
ध्यान में
रखना, उस
दक्षता को
ध्यान में
रखना। तुम पर
निर्भर है।
यहां
जो मैं बोल
रहा हूं बोलना
मुझ पर निर्भर
है,
लेकिन
सुनना तो तुम
पर निर्भर है।
बोलने के बाद
तो फिर मैंने
जो कहा, उस
पर मेरी कोई
मालकियत नहीं
रह जाती। इधर
बोला कि वह
मेरे हाथ के
बाहर हुआ।
छूटा तीर! फिर
तो तुम्हारे
हाथ में है कि
कहां लगेगा, कहां तुम
लगने दोगे? लगने दोगे
कि बच जाओगे? बुद्धि में
लगने दोगे? —तो तुम यहां
से और भी
पंडित होकर
लौट जाओगे, और
तर्क—कुशल हो
जाओगे, विवाद
में और प्रवीण
हो जाओगे। मगर
चूक गए तुम।
हृदय में लगने
देते तो तुम
और आनंदित
होते, तुम
और अहोभाव से
भरते; तो
धन्यता का
द्वार खुलता;
तो प्रसाद
की वर्षा की
थोड़ी संभावना
बढ़ती; तो
अमृत की तरफ
तुम थोड़े
सरकते; दो
कदम तुमने
उठाये होते उस
अंतिम पड़ाव की
तरफ।
पंडित
होकर मत लौट
जाना। थोड़े
प्रेमी होकर
लौटना।
ढाई आखर
प्रेम का, पढ़े
सो पंडित होय।
वे
ढाई अक्षर जो
प्रेम के हैं, वह
मत भूलना।
तो
सुनो मेरे
तर्क को, राजी
होओ मेरे तर्क
से—पर साधन की
भांति। साध्य
यही है कि एक
दिन तुम हिम्मत
जुटा लोगे, और तर्कातीत
में छलांग लगा
दोगे। तर्क के
माध्यम से
तुम्हें वहां
तक ले चलूंगा,
जहां तक
तुम्हारी
बुद्धि जा
सकती है; फिर
सीमांत आयेगा,
फिर सीमा
आयेगी, फिर
तुम्हारे ऊपर
निर्भर होगा।
सीमा पर खड़े होकर
तुम देख
लेना—अपना
अतीत और अपना
भविष्य। फिर
तुम देख
लेना—पीछे जिस
बुद्धि में
तुम चल कर आये हो,
वह; और
आगे जो
संभावना
खुलती है, वह।
आगे की
संभावना हृदय
की है।
विचार
से कभी कोई
जीवन की संपदा
को उपलब्ध नहीं
हुआ ध्यान से, साक्षी—
भाव से, प्रेम
से, प्रार्थना
से, भक्ति
के रस से, कोई
उपलब्ध हुआ
है। फिर
तुम्हारे हाथ
में है, अगर
तुम्हें बंजर
रेगिस्तान रह
जाना हो, तुम्हारी
मर्जी, तुम
मालिक हो
अपने।
लेकिन
एक बार
तुम्हें मैं
किनारे तक ले
आऊं,
जहां से
तुम्हें
सुंदर उपवन
दिखाई पड़ने
लगें, हरियालियां,
घाटियां और
वादियां, और
पहाड़, हिम—शिखर!
बस एक दफे
तुम्हें दिखा
देना है वहा तक
लाकर, फिर
तुम्हारी मौज!
फिर लौटना तो
लौट जाना। लेकिन
तब तुम जानोगे
कि अपने ही
कारण लौटे हो।
तब उत्तरदायित्व
तुम्हारा है।
तो
तुम्हारे
तर्क को मैं
वहां तक ले
चलता हूं जहां
से तुम्हें
पहली झलक मिल
जाये स्वर्ण—शिखरों
की;
जहां से
तुम्हें पहली
दफा आकाश का
थोड़ा—सा दर्शन
हो जाये, फिर
वह दर्शन
तुम्हारा
पीछा करेगा।
फिर वह मंडरायेगा
तुम्हारे
भीतर। फिर वह
पुकार बढ़ती चली
जायेगी। फिर
धीरे—धीरे जो
बूंद—बूंद
गिरा था, वह
बड़ी धार की
तरह गिरने
लगेगा; तुम
बच नहीं
सकोगे। क्योंकि
एक बार हृदय
की थोड़ी—सी भी
झलक मिल जाये
तो फिर बुद्धि
कूड़ा—कचरा है।
जब तक झलक नहीं
मिली, तब
तक कूडा—कचरा
ही
हीरा—जवाहरात
मालूम होता है।
'क्या मेरे
लिए यह खतरा
नहीं है कि
तर्क—पोषित दिमाग
दिल पर हावी
हो जाये?'
खतरा
है। जरा सजगता
रखना। हम
चाहें तो राह
में पड़े हुए
पत्थर को बाधा
बना सकते हैं, और
वहीं रुक
जायें, और
हम चाहें तो
राह में पड़े
पत्थर को सीढ़ी
बना सकते हैं,
उस पर चढ़
जायें और पार
हो जायें। तुम
पर निर्भर है
कि तुम
तर्क—पोषित
मस्तिष्क को
बाधा बनाओगे
कि सीढ़ी
बनाओगे।
जिन्होंने
सीढ़ी बनाई, वे
महायात्रा पर
निकल गए; जिन्होंने
बाधा बना ली, वे डबरे बन
कर रह गए।
नास्तिक
एक डबरा है।
आस्तिक सागर
की तरफ दौड़ती
हुई सरिता है।
नास्तिक सड़ता
है। जैसे ही
पानी की धारा
बहने से रुक
जाती है, वैसे
ही सड़ांध शुरू
हो जाती है।
पानी निर्मल होता
है, जब
बहता रहता है।
लेकिन बहने के
लिये तो सागर
चाहिए; नहीं
तो बहोगे
क्यों? बहने
के लिए
परमात्मा
चाहिए; नहीं
तो बहोगे
क्यों? कुछ
है ही नहीं
पाने को, कुछ
है ही नहीं
होने को—जो हो
गया, बस
वही काफी है...।
इसे
खयाल रखना, दुनिया
में दो तरह के
लोग हैं, दुनिया
दो तरह के
वर्गों में
विभाजित है।
एक वर्ग है, जो बाहर की
चीजों से कभी
संतुष्ट
नहीं—यह मकान,
तो दूसरा
चाहिए; इतना
धन, तो और
धन चाहिए; यह
स्त्री, तो
और तरह की
स्त्री
चाहिए—जो बाहर
की चीजों से
कभी संतुष्ट
नहीं, और
भीतर, जिसके
भीतर कोई
असंतोष नहीं।
भीतर, जिसके
भीतर असंतोष
उठता ही नहीं,
बस बाहर ही
बाहर असंतोष
है। यह
सांसारिक
आदमी है। फिर
एक और दूसरी
तरह का आदमी
है, जो
बाहर जो भी है,
उससे
संतुष्ट है; लेकिन भीतर
जो है, उससे
संतुष्ट नहीं
है। उसके भीतर
एक ज्वाला है—एक
दिव्य
असंतोष। वह
सतत
प्रक्रिया
में, सतत
रूपांतरण में,
सतत क्रांति
में जीता है।
तर्क—निष्ठता
तुम्हारी क्रांति
में सहयोगी
बने,
तुम्हें
रूपांतरित
करे—इतना खयाल
रखना। जहां
तर्क पत्थर
बनने लगे और क्रांति
में रुकावट
डालने लगे, वहा तर्क को
छोड़ना, क्रांति
को मत छोड़ना।
मैं कह सकता
हूं अंतिम
निर्णय तुम्हारे
हाथ में है।
अक्ल
की सतह से कुछ
और उभर जाना
था,
इश्क
को
मंजिले—परस्ती
से गुजर जाना
था;
ये तो
क्या कहिए, चला
था मैं कहां
से हमदम,
मुझको
ये भी न था
मालूम, किधर
जाना था।
बुद्धि
को कुछ भी पता
नहीं है कि
कहां जाना है! इसलिए
बुद्धि कहीं
जाती ही नहीं, घूमती
रहती है कोल्हू
के बैल की
तरह। कोल्हू का
बैल देखा? आंख
पर पट्टी बंधी
रहती, घूमता
रहता है! आंख
पर पट्टी बंधी
होने से उसे
लगता है कि चल
रहे हैं, कहीं
जा रहे हैं, कुछ हो रहा
है।
तुमने
देखा, तुम
कैसे घूम रहे
हो! वही सुबह, वही उठना, वही दिन का
काम, वही
सांझ, वही
रात, वही
सुबह फिर, फिर
वही सांझ—यूं ही
उम्र तमाम
होती है, फिर
सुबह होती है,
फिर शाम
होती है! एक कोल्हू
के बैल की तरह
तुम घूमते चले
जाते हो।
ये तो
क्या कहिए, चला
था मैं कहां
से हमदम,
मुझको
ये भी न था
मालूम, किधर
जाना था।
अक्ल
की सतह से कुछ
और उभर जाना
था,
इश्क
को
मंजिले—परस्ती
से गुजर जाना
था।
जब
तुम बुद्धि की
सतह से थोड़ा
ऊपर उठते हो, तब
आकाश में उठते
हो, पृथ्वी
छूटती है; सीमा
छूटती है, असीम
आता है; बंधन
गिरते, मोक्ष
की थोड़ी झलक
मिलती।
इश्क
को
मंजिले—परस्ती
से गुजर जाना
था।
फिर
एक ऐसी घड़ी भी
आती है—पहले
तो बुद्धि से
तुम हृदय की
तरफ आते हो—फिर
एक ऐसी घड़ी
आती है, हृदय
से भी गहरे
जाते हो।
इश्क
को
मंजिले—परस्ती
से गुजर जाना
था।
फिर
प्रेम, प्रेम—पात्र
से भी मुक्त
हो जाता है।
फिर भक्त, भगवान
से भी मुक्त
हो जाता है।
फिर पूजक, पूजा
से भी मुक्त
हो जाता है।
तो
पहले तो तर्क
से चलना है
प्रेम की तरफ और
फिर प्रेम से
चलना है शून्य
की तरफ। उस
महाशून्य में
ही हमारा घर
है।
बुद्धि
में तुम हो, हृदय
में तुम्हें
होना है।
इसलिए बुद्धि
से मैं शुरू
करता हूं हृदय
की तरफ
तुम्हें ले
चलता हूं। जो
हृदय में
पहुंच गए हैं,
उनको वहां
भी नहीं बैठने
देता। उनको
कहता हूं. चलो
आगे, और
आगे!
हर नये
क्षण को
पुराने की तरह
एक
परिचित
प्रीति गाने
की तरह
वक्ष
में भर, तार
पर तार बोते
चलो!
और
बीती रागिनी
रीते नहीं
इस तरह
हर तार के
होते चलो!
नये
कदम अज्ञात
में,
अनजान में,
अपरिचित
में उठाना है!
परिचित में ही
मत अटके रह
जाना। बुद्धि का
क्या अर्थ
होता है, तुमने
सोचा कभी? —जो
तुम जानते हो
उसका जोड़।
बुद्धि का
क्या अर्थ
होता है? —इतना
ही कि
तुम्हारा
अतीत का
संग्रह।
बुद्धि में
वही तो
संगृहीत है जो
तुमने सुना, पढ़ा, जाना,
अनुभव किया;
जो हो चुका,
वही तो
संगृहीत है।
जो अभी होने
को है, उसका
तो बुद्धि को
कोई भी पता
नहीं।
तो
बुद्धि तो
अतीत है—जा
चुका, मृत!
बुद्धि तो राख
है! बुद्धि
में ही अटक गए,
तो तुम अतीत
के ही रास्तों
पर भटकते
रहोगे; ज्ञात
में ही चलते
रहोगे।
अज्ञात में
गति है; ज्ञात
में गति नहीं
है, कोल्हू
के बैल की तरह
भ्रमण है।
हृदय
का अर्थ है.
अज्ञात, अनजान,
अपरिचित, अभियान! पता
नहीं क्या
होगा? पक्का
नहीं, क्योंकि
जाना ही नहीं
कभी तो पक्का
कैसे होगा? नक्यग़ हाथ
में नहीं, अज्ञात
की यात्रा है।
न मील के
पत्थर हैं
वहां, न
राह पर खड़े
पुलिस के
सिपाही हैं
मार्ग बताने
को।
लेकिन
जो आदमी
अज्ञात की तरफ
यात्रा करता
है,
वही
परमात्मा की
तरफ यात्रा
करता है।
परमात्मा इस
जगत में सबसे
ज्यादा
अज्ञात घटना
है—जिसे हम
जान कर भी कभी
जान नहीं पाते;
जो सदा
अनजाना ही रह
जाता है, जानते
जाओ, जानते
जाओ, फिर
भी अनजाना रह
जाता है।
जितना जानो, उतना ही
लगता है, और
जानने को शेष
है। चुनौती
बढ़ती ही जाती
है। शिखर पर
नये शिखर
उभरते ही आते
हैं। एक शिखर
पर चढ़ते वक्त
लगता है कि आ
गई मंजिल, जब
शिखर पर
पहुंचते है, तो सिर्फ और
बड़ा शिखर आगे
दिखाई पड़ता
है। एक द्वार
से गुजरते हैं,
नये द्वार
सामने आ जाते
है।
इसलिए
तो हम
परमात्मा को
अनंत रहस्य
कहते हैं।
रहस्य का अर्थ
है. जिसे हम
जान भी लेंगे, फिर
भी जान न
पायेंगे।
इसलिए तो हम
कहते हैं, परमात्मा
बुद्धि से कभी
उपलब्ध नहीं
होता। क्योंकि
बुद्धि तो उसी
को जान सकती
है, जो
जानने में चुक
जाता है; परमात्मा
चुकता नहीं।
तो
तुम चुक मत
जाना बुद्धि
के साथ। तुम
मुर्दा अतीत
के साथ बंधे
मत रह जाना।
तुम किसी लाश
से अपने को
बांध लो, तो
तुमको समझ में
आयेगा कि
बुद्धि की
क्या हालत है।
एक लाश से
अपने शरीर को
बांध लो, तो
वह लाश तो मरी
हुई है, उसकी
वजह से तुम भी
न चल पाओगे, उठ न पाओगे, बैठ न पाओगे;
क्योंकि वह
लाश सड़ रही है,
गल रही है
और वह बोझ बनी
है। बुद्धि
लाश है, हृदय
नया अंकुर
है—नव अंकुर
जीवन के! और
जाना तो है
हृदय के भी
पार।
हर नये
क्षण को
पुराने की तरह
एक
परिचित
प्रीति गाने
की तरह
वक्ष
में भर, तार
पर तार बोते
चलो!
और
बीती रागिनी
रीते नहीं
इस तरह
हर तार के होते
चलो!
हर
नये कदम के
होते चलो। और
हर आने वाली
संभावनाओं के
लिए वक्ष खुला
रखो— स्वागतम!
हृदय तैयार
रखो!
अनजान
जब पुकारे तो
सकुचाना मत।
अपरिचित जब बुलाये
तो ठिठकना मत।
अज्ञेय जब
द्वार पर दस्तक
दे तो भयभीत
मत होना, चल
पड़ना। यही
धार्मिक
व्यक्ति का
लक्षण है।
तीसरा
प्रश्न :
आपकी
जय हो! मैं
हजार जन्मों में
भी इतना नहीं
प्राप्त कर
सकता था, जितना
आपने
अनायास मुझे
दे दिया है।
मुझे अपने शिष्य
के रूप में
स्वीकार करें!
लिया
तुमने, तो
शिष्य हो गये।
शिष्य का होना
मेरी
स्वीकृति पर
निर्भर नहीं है,
शिष्य का
होना तुम्हारी
स्वीकृति पर
निर्भर है।
शिष्य का अर्थ
होता है : जो
सीखने को
तैयार है।
शिष्य का अर्थ
होता है : जो
झुकने को, झोली
भरने को राजी
है। शिष्य का
अर्थ होता है : विनम्रता
से सुनने को, शांत भाव से
मनन करने को, ध्यान करने
को उत्सुक।
तुम
शिष्य हो
गए—अगर तुमने लिया, तो
लेने में ही
तुम शिष्य हो
गए।
शिष्य
का होना मेरी
स्वीकृति पर
निर्भर नहीं होता।
मैं स्वीकार
भी कर लूं और
तुम अगर न लो, तो
मैं क्या
करूंगा? मैं
स्वीकार न भी
करूं और तुम
लेते चले जाओ,
तो मैं क्या
करूंगा?
शिष्यत्व
तुम्हारी
स्वतंत्रता
है। यह किसी का
दान नहीं है।
शिष्यत्व
तुम्हारी
गरिमा है।
इसके लिए किसी
प्रमाण—पत्र
की जरूरत नहीं
है। इसलिए तो
एकलव्य जंगल
में भी जाकर
बैठ गया था।
देखा!
द्रोणाचार्य
ने तो इनकार
भी कर दिया था, फिर
भी उसने फिक्र
न की। गुरु ने
तो इनकार ही कर
दिया; लेकिन
शिष्य, शिष्य
बनने को राजी
था, तो
गुरु क्या कर
सका? एक
दिन गुरु ने
पाया कि गुरु
को हरा दिया
शिष्य ने।
एकलव्य तो
मिट्टी की
मूर्ति बनाकर
बैठ गया, उसी
के सामने
अभ्यास करने
लगा; उसी
की आज्ञा
मानने लगा, उसी के चरण
छूने लगा।
जब
द्रोण को खबर
लगी कि एकलव्य
बहुत निष्णात
हो गया है तो
वे देखने गए।
चकित हो गए; चकित
ही न हुए, घबड़ा
भी गए। इतने
घबड़ा गए, क्योंकि
एकलव्य ने इस
तरह साधा था
कि अर्जुन फीका
पड़ता था।
द्रोण कोई
बहुत बड़े गुरु
न रहे होंगे, एकलव्य बहुत
बड़ा शिष्य था।
द्रोण तो
साधारण गुरु
रहे होंगे—अति
साधारण! गुरु
कहे जा सकें, ऐसे गुरु
नहीं। कुशल
होंगे, पारंगत
होंगे, लेकिन
गुरुत्व की
बात नहीं थी
कुछ भी। पहले
तो इसलिए
इनकार कर दिया
कि वह शूद्र
था। यह भी कोई
गुरु की बात
हुई? अभी
भी गुरु को
ब्राह्मण और
शूद्र दिखाई
पड़ते हैं!
नहीं, दुकानदार
रहे होंगे, बाजारी बुद्धि
रही होगी।
क्षत्रियों
के गुरु, शूद्र
को कैसे
स्वीकार करें!
समाज से बहुत
घबड़ाये हुए
रहे होंगे।
समाज—पोषक, और समाज के
नियंत्रण में
रहे होंगे।
क्षुद्र बुद्धि
के रहे होंगे।
जिस
दिन द्रोण ने
एकलव्य को
इनकार किया कि
वह शूद्र था, उसी
दिन द्रोण
शूद्र हो गए।
यह कोई बात
हुई? लेकिन
अदभुत था
एकलव्य! गुरु
के इनकार की
भी फिक्र न
की। उसने तो
मान लिया था
हृदय में
गुरु—बात हो
गई थी। गुरु
के इनकार ने
भी उसकी गुरु
की प्रतिमा
खंडित न की।
अनूठा शिष्य
रहा होगा।
और
फिर बेईमानी
की हद हो गई
एकलव्य को जब
प्रतिष्ठा
मिल गई और जब
उसकी कुशलता
का आविर्भाव हुआ, तो
द्रोण कैप गए;
क्योंकि वे
चाहते थे, उनका
शिष्य अर्जुन
जगत में
ख्यातिलब्ध
हो। यह भी
उनका ही शिष्य
था, लेकिन
उनकी
अस्वीकृति से
था, इसमें
तो गुरु की
बड़ी हार थी।
गुरु जिसको
सिखा—सिखा कर,
प्राणपण
लगाकर, सारी
चेष्टा में
संलग्न थे, वह भी फीका
पड़ रहा था इस
आदमी के
सामने—जिसने सिर्फ
मिट्टी की
अनगढ़ प्रतिमा
बना ली थी
अपने ही हाथों
से और उसी के
सामने अभ्यास
कर—करके कुशलता
को उपलब्ध हुआ
था। उससे
अंगूठा मांग
लिया।
बड़ी
आश्चर्य की
बात है दीक्षा
देने को तैयार
न हुए थे, दक्षिणा
लेने पहुंच
गए! लेकिन
अदभुत शिष्य
रहा होगा
एकलव्य. जिसने
दीक्षा देने
से इनकार कर
दिया था, उसको
उसने दक्षिणा
देने से इनकार
न किया। एकलव्य
जैसा शिष्य ही
शिष्य है।
उसने तत्क्षण
अपना अंगूठा
काट कर दे
दिया। दाये
हाथ का अंगूठा
मांगा
था—चालबाजी थी,
राजनीति थी
कि अंगूठा कट
जायेगा, तो
एकलव्य की
धनुर्विद्या
व्यर्थ हो
जायेगी।
ये
द्रोण
निश्चित ही
दुष्ट
प्रकृति के
व्यक्ति रहे
होंगे। गुरु
तो दूर, इनको
सज्जन कहना भी
कठिन है। यह
भी क्या चाल खेली
और भोले — भाले
शिष्य से
खेली! और फिर
भी हिंदू
द्रोण को गुरु
माने चले जाते
हैं, गुरु
कहे चले जाते
हैं। सिर्फ
ब्राह्मण
होने से थोड़े
ही कोई ब्राह्मण
होता है?
ब्राह्मण
था एकलव्य और
द्रोण शूद्र
थे। उनकी वृत्ति
शूद्र की है।
उस ब्राह्मण
एकलव्य ने काट
कर दे दिया
अपना अंगूठा, जरा
भी ना—नुच न
की। यह भी न
कहा कि यह
क्या मांगते
हैं आप? देते
वक्त इनकार
किया था। तुमसे
मैंने कुछ
सीखा भी नहीं
है।
नहीं, लेकिन
यह बात ही गलत
थी। यह तो
उसके मन में
भी न उठी।
उसने तो कहा, सीखा
तुम्हीं से
है। तुम्हारे
इनकार करने से
क्या फर्क
पड़ता है? सीखा
तो तुम्हीं से
है! तुम इनकार
करते रहे, फिर
भी तुम्हीं से
सीखा। देखो
तुम्हारी
प्रतिमा बनाये
बैठा हूं तो
तुम्हारा ऋणी
हूं। अंगूठा मांगते
हो, अंगूठा
तो क्या प्राण
भी मांगो तो
दे दूंगा। अंगूठा
दे दिया।
शिष्य
होना तुम पर
निर्भर है। यह
किसी की स्वीकृति—अस्वीकृति
की बात नहीं।
तो अगर
तुम्हें लगता
है कि खूब
तुम्हें मिला, तो
बात हो गई।
इसी भाव में
गहरे बने
रहना। शिष्य
का भाव कभी
खोना मत, तो
अपूर्व
तुम्हारा
विकास होगा, मिलता ही
चला जायेगा।
शिष्यत्व तो
सीखने की कला
है।
चौथा
प्रश्न :
सुना
था कि शराब
कड़वी होती है
और सीने को
जलाती है; पर
आपकी शराब का
स्वाद ही कुछ
और है।
तो
जिस
शराब से तुम
परिचित रहे, वह
शराब न रही
होगी, क्योंकि
शराब न तो
कड़वी होती और
न सीने को जलाती।
और जो सीने को
जलाती है और
कड़वी है, वह
शराब का धोखा
है, शराब
नहीं। तो
तुम्हें शराब
का पहली दफे
ही स्वाद आया।
अब
झूठी शराब में
मत उलझना। अब
तुम पहली दफा
मधुशाला में
प्रविष्ट
हुए। अब अपने
हृदय को पात्र
बनाना और जी
भर कर पी लेना; क्योंकि
इसी पीने से क्रांति
होगी। यह शराब
विस्मरण नहीं
लायेगी; यह
शराब स्मरण
लायेगी। वह
शराब भी क्या
जो बेहोश बना
दे? शराब
तो वही, जो
होश में ला
दे। यह शराब
तुम्हें
जगायेगी। यह
शराब तुम्हें
उससे परिचित
करायेगी, जो
तुम्हारे
भीतर छिपा
बैठा है। यह
शराब तुम्हें
तुम बनायेगी।
बाहर
से शायद तुम
दूसरे लोगों
को पियक्कड़
मालूम
पड़ो—घबड़ाना
मत! तुम्हारी
मस्ती शायद
बाहर के लोग
गलत भी समझें, पागल
समझें, बेहोश
समझें—तुम
फिक्र मत करना;
कसौटी
तुम्हारे
भीतर है। अगर
तुम्हारा होश
बढ़ रहा हो तो
दुनिया कुछ भी
समझे, तुम
फिक्र मत
करना।
मजाज
की कुछ
पंक्तियां
हैं—
मेरी
बातों में
मसीहाई है
लोग
कहते हैं कि
बीमार हूं मैं
खूब
पहचान लो
असरार हूं मैं
जिन्से—उल्फत
का तलबगार हूं
मैं
इश्क
ही इश्क है
दुनिया मेरी
फितना—ए—अक्ल
से बेजार हूं
मैं
ऐब जो हाफिज—ओ—खय्याम
में था
ही, कुछ
उसका भी
गुनहगार हूं
मैं
जिंदगी
क्या है
गुनाहे—आदम
जिंदगी
है तो गुनहगार
हूं मैं
मेरी
बातों में
मसीहाई है
लोग
कहते हैं कि
बीमार हूं
मैं!
जीसस
को भी लोग
बीमार ही कहते
थे,
मसीहा तो
बड़ी मुश्किल
से कहा।
सुकरात को भी
लोग पागल ही
कहते थे, तभी
तो जहर दिया।
मैसूर को
लोगों ने
बुद्धिमान
थोड़े ही माना,
अन्यथा
फासी लगाते? और
अष्टावक्र की
कथा तो मैंने
तुमसे कही :
खुद बाप ही
इतने नाराज हो
गए कि अभिशाप
दे दिया, कि
आठ अंगों से
तिरछा हो जा।
जीसस
तो तैंतीस साल
जमीन पर रहे
तब सूली लगी; सुकरात
तो बूढ़ा होकर
मरा, तब
जहर दिया गया;
महावीर और
बुद्ध पर
पत्थर फेंके
गए, ठीक—लेकिन
अष्टावक्र की
तो पूछो : अभी
जन्मा भी नहीं
और अभिशाप
मिला; अभी
गर्भ में ही
था कि जीवन
विकृत कर दिया
गया। और किसी
दूसरे ने किया
होता तो भी
ठीक था, क्षमा—योग्य
था—खुद अपने
ही बाप ने कर
दिया; जो
जन्म देने जा
रहा था वही
नाराज हो गया।
ज्ञान
की बात लोगों
को जमती नहीं।
ज्ञान की बात
लोगों को कष्ट
देती है।
मस्ती में आया
हुआ आदमी
लोगों को
बेचैनी से
भरता है। तुम
दुखी हो, किसी
को कोई अड़चन
नहीं, मजे
से दुखी रहो।
लोग कहते हैं :
दिल खोल कर
दुखी रहो, कोई
हर्जा नहीं।
बिलकुल जैसा
होना चाहिए
वैसा हो रहा
है! तुम हैंसे
कि लोग बेचैन
हुए। हंसी
स्वीकृत नहीं
है। लोगों को
शक होता है कि
पागल हुए!
कहीं होशियार आदमी
हंसते हैं? कहीं समझदार
आदमी हंसते
देखे? कहीं
बुद्धिमान
आदमियों को
नाचते देखा, गीत
गुनगुनाते
देखा? बुद्धिमान
आदमी गंभीर
होते, लंबे
उनके चेहरे
होते, उदास
उनकी वृत्ति
होती। उनको हम
साधु—संत कहते,
महात्मा
कहते। जितना
रुग्ण आदमी हो,
उतना बड़ा
महात्मा हो
जाता है।
मुर्दे की तरह
कोई बैठ जाये,
रुग्ण, दीन—हीन—लोग
कहते हैं, कैसी
तपश्चर्या!
कैसा त्याग!! एक गांव
में मैं गया
था। कुछ लोग
एक महात्मा को
ले आये मुझसे
मिलाने। वे
कहने लगे, बड़े
अदभुत हैं, भोजन तो
कभी—कभार लेते
हैं, सोते
भी ज्यादा
नहीं। बड़े
शांत हैं।
बोलते—करते भी
ज्यादा नहीं।
और तपश्चर्या
का ऐसा प्रभाव
कि चेहरा
कुंदन जैसा
निखर आया है, स्वर्ण
जैसा!
जब
वे लाये तो
मैंने कहा, इस
आदमी को क्यों
तुम परेशान
किये हो? यह
बीमार है। यह
चेहरा कुंदन
जैसा नहीं है,
यह केवल
भूखा—प्यासा
आदमी है—चेहरा
पीला पड़ गया
है; अनीमिया
हो गया है।
तुम महात्मा
समझ रहे हो? और यह बोले
क्या खाक!
इसमें बोलने
की शक्ति भी नहीं
है। यह आदमी
थोड़ा मूढ़
प्रवृत्ति का
मालूम होता
है। आंखों में
कोई तेज नहीं
है, कोई
व्यक्तित्व
नहीं है, कोई
उमंग नहीं है।
हो भी कैसे? न सोता है
ठीक से, न
खाता—पीता है
ठीक से। और
तुम इसकी पूजा
कर रहे हो! बस
इसको एक ही रस
आ गया है कि यह
जो काम कर रहा
है, उससे
इसे पूजा
मिलती है। बस
उसी पूजा की
खातिर यह किये
चला जा रहा है।
तुम
जरा पूजा देना
बंद करो। और
तुम पाओगे
तुम्हारे सौ
में से
निन्यानबे
प्रतिशत
महात्मा विदा
हो गए, उसी रात
विदा हो गए, तुम पूजा
देना बंद करो।
क्योंकि वे
पूजा की खातिर
सब तरह की
नासमझिया कर
रहे हैं, तुम
जो करवाओ वही
कर रहें हैं।
तुम कहो, बाल
लोचो, तो
वे बाल लोच
रहे हैं, केश—लुंच
कर रहे हैं।
तुम कहो, नंगे
रहो, तो वे
नंगे खड़े हैं।
तुम कहो, भूखे
रहो, तो वे
भूखे हैं। एक
बात भर तुम
पूरी करो कि
तुम सम्मान दो,
उनके
अहंकार को
पुष्ट करो।
वास्तविक
धर्म तो सदा
हंसता हुआ है।
वास्तविक
धर्म तो सदा
स्वस्थ है, प्रफुल्लित
है, जीवन—
स्वीकार का
है। वास्तविक
धर्म तो फूलों
जैसा है, उदासी
वहां नहीं है।
उदासी को लोग शांति
समझते हैं!
उदासी शांति
नहीं है। शांति
तो बड़ी
गुनगुनाती
होती है। शांति
तो बड़ी मगन
होती है।
शांति तो बड़ी
शराबी है—पैर लड़खड़ाते
हैं; एक
मस्ती घेरे
रहती है, चलते
जमीन पर हैं, और जमीन पर
नहीं चलते, आकाश में
चलते हैं; जैसे
पंख उग आते
हैं; अब
उड़े तब उड़े की
हालत होती है।
ठीक
हुआ,
अगर मेरी
शराब का स्वाद
आ जाये, तो
असली शराब का
स्वाद आ गया, अब किसी और
मधुशाला में
जाने की जरूरत
न पड़ेगी।
खूब
पहचान लो
असरार हूं मैं,
जिन्से—उल्फत
का तलबगार हूं
मैं।
बस
एक ही प्यास
रखो—जिन्से—उल्फत—प्रेम
नाम की वस्तु
की। बस एक ही
मांग रखो—
प्रेम नाम की
वस्तु!
जिन्से—उल्फत
का तलबगार हूं
मैं।
इश्क
ही इश्क है
दुनिया मेरी।
और
तुम्हारी
सारी दुनिया, और
तुम्हारा
सारा
अस्तित्व
प्रेममय हो
जाये, बस
काफी है।
फितना—ए—अक्ल
से बेजार हूं
मैं।
और
बुद्धि के
उपद्रव को
छोड़ो, उतरो
प्रेम की छाया
में।
इश्क
ही इश्क है
दुनिया मेरी
फितना—ए—अक्ल
से बेजार हूं
मैं
ऐब जो
हाफिज—ओ—खय्याम
में था
हां, कुछ
उसका भी
गुनहगार हूं मैं
ऐब
जो,
जो बुराई
हाफिज और खय्याम
में थी, उमरखय्याम
में.......।
उमरखय्याम
को समझा नहीं
गया। उमरखय्याम
के साथ बड़ी
ज्यादती हुई
है। एक दिन
बंबई में मैं
निकल रहा था
एक जगह से, होटल
पर लिखा हुआ
था. 'उमरखय्याम'। उमरखय्याम
के साथ बड़ी
ज्यादती हुई
है।
फिट्जराल्ड
ने जब उमरखय्याम
का अंग्रेजी
में अनुवाद
किया तो बड़ी
भूल—चूक हो
गई।
फिट्जराल्ड
समझ नहीं सका
उमरखय्याम
को। समझ भी
नहीं सकता था,
क्योंकि
उमरखय्याम को
समझने के लिए
सूफियों की
मस्ती चाहिए,
सूफियों की
समाधि चाहिए।
उमरखय्याम एक
सूफी संत है।
थोड़े—से
पहुंचे हुए
महापुरुषों
में एक, बुद्ध
और अष्टावक्र
और कृष्ण और
जरथुस्त्र की
कोटि का आदमी!
उसने
जिस शराब की
बात की है, वह
परमात्मा की
शराब है। उसने
जिस हुस्न की
चर्चा की है, वह परमात्मा
का हुस्न है।
लेकिन
फिट्जराल्ड नहीं
समझा।
पश्चिमी बुद्धि
का आदमी, उसने
समझा. शराब
यानी शराब।
उसने अनुवाद
कर दिया।
फिट्जराल्ड
का अनुवाद खूब
प्रसिद्ध हुआ।
अनुवाद बड़ा
सुंदर है, काव्य
बड़ा सुंदर है।
फिट्जराल्ड
निश्चित बड़ा
कवि है। लेकिन
वह समझ नहीं
पाया।
सूफियों की जो
खूबी थी, वह
खो गई कविता
में से। और
उमरखय्याम
जाना गया
फिट्जराल्ड
के माध्यम
से।
तो
उमरखय्याम के
संबंध में बड़ी
भूल हो गई।
उमरखय्याम ने
शराब कभी पी
ही नहीं, किसी
मधुशाला में
कभी गया नहीं,
लेकिन उसने
कोई एक शराब
जरूर पी, जिसको
पी लेने के
बाद और सब शराबें
फीकी पड़ जाती
हैं। गया एक
मधुशाला में,
जिसको हम मंदिर
कहें, जिसको
हम प्रभु का
ऐब जो
हाफिज—ओ—खय्याम
में था
हां, कुछ
उसका भी
गुनहगार हूं
मैं।
'मजाज' खुद
भी, जिनकी
ये पंक्तियां
हैं, उमरखय्याम
को गलत समझा।
वह भी यही
समझा कि शराब
यानी शराब।
मजाज शराब
पी—पी कर मरा।
जिस शराब की
तुम बात कर
रहे हो कि जो
हृदय को जलाती,
और कड्वी और
तिक्त होती है,
मजाज उसी को
पी—पीकर जवानी
में मरा। बुरी
तरह मरा! बड़ी
बुरी मौत हुई!
मैं
जिस शराब की
बात कर रहा
हूं कहीं गलती
से तुम कुछ और
मत समझ लेना।
जो भूल
उमरखय्याम के
साथ हुई वह
मेरे साथ मत
कर लेना। उसकी
संभावना है।
मैं
तुमसे कहता हूं
: भोगो जीवन को
साक्षी— भाव
से। साक्षी—
भाव को छोड़
देने का मन
होता है; भोगने
की बात पकड़
में आ जाती
है। भोगो जीवन
को; लेकिन
अगर बिना
साक्षी— भाव
के भोगा तो
भोगा ही नहीं।
साक्षी— भाव
से भोगा, तो
ही भोगा। पीयो
शराब लेकिन
अगर होश खो
गया तो पी ही
नहीं शराब। अगर
पी—पी कर होश
बढ़ा तो ही पी।
तो समाधि के
अतिरिक्त कोई
शराब नहीं है।
मेरे
देखे, मनुष्य—जाति
में तब तक
शराब का असर
रहेगा, जब
तक समाधि का
असर नहीं
बढ़ता। जब तक
असली शराब
उपलब्ध नहीं
है लोगों को, तब तक लोग
नकली शराब
पीते रहेंगे।
नकली सिक्के
तभी तक चलते
हैं, जब तक
असली सिक्के
उपलब्ध न हों।
सारी दुनिया
की सरकारें
कोशिश करती
हैं कि शराब
बंद हो जाये, यह होगा
नहीं। यह तो
सदा से वे
कोशिश कर रहे
हैं।
साधु—महात्मा
सरकारों के
पीछे पड़े रहते
हैं कि
शराबबंदी करो,
अनशन कर
देंगे, यह
कर देंगे, वह
कर देंगे, शराब
बंद होनी
चाहिए! लेकिन
कोई शराब बंद
कर नहीं पाया।
अलग— अलग नामों
से, अलग—
अलग ढंगों से
आदमी मादक
द्रव्यों को
खोजता रहा है।
मेरे
देखे, सरकारों
के बस के बाहर
है कि शराब
बंद हो सके। लेकिन
अगर समाधि की
शराब जरा
फैलनी शुरू हो
जाये, असली
सिक्का उतर
आये पृथ्वी पर,
तो नकली बंद
हो जाये। अगर
हम मंदिरों को
मधुशालाएं
बना लें, और
वहां मस्ती और
गीत और आनंद
और उत्सव होने
लगें, और
अगर हम जीवन
को गलत
धारणाओं से न
जीये, स्वस्थ
धारणाओं से
जीये, और
जीवन एक
अहोभाग्य हो
जाये—तो शराब
अपने —आप खो
जाएगी।
आदमी
शराब पीता है
दुख के कारण।
दुख कम हो जाये, तो
शराब कम हो
जाये। आदमी
शराब पीता है
अपने को
भुलाने के लिए;
क्योंकि
इतनी चिंताएं
हैं, इतनी
तकलीफें हैं,
इतनी पीड़ा
है—न भुलाये
तो क्या करें?
अगर चिंता,
दुख, पीड़ा
कम हो जाये तो
आदमी की शराब
कम हो जाये।
और
एक अनूठी घटना
मैंने घटते
देखी, कई बार
कुछ शराबियों
ने आकर मुझसे
संन्यास ले
लिया। फंस गए
भूल में। सोच
कर यह आये कि
यह आदमी तो
कुछ मना करता ही
नहीं है, कि
पीओ कि न पीओ, कि खाओ, कि
यह न खाओ, वह
न खाओ, कोई
हर्जा नहीं।
वे बड़े
प्रसन्न हुए।
उन्होंने कहा
कि आप की बात
हमें बिलकुल
जंचती है, यह
किसी ने बताई
ही नहीं।
लेकिन
जैसे—जैसे
ध्यान बढ़ा, जैसे—जैसे
संन्यास का
रंग छाया, वैसे—वैसे
उनके पैर
मधुशाला की
तरफ जाने बंद
होने लगे, दूसरी
मधुशाला
पुकारने लगी।
एक
शराबी ने छह
महीने ध्यान
करने के बाद
मुझे कहा कि
पहले मैं शराब
पीता था
क्योंकि मैं
दुखी था, तो
दुख भूल जाता
था; अब मैं
थोड़ा सुखी हूं
शराब पीता हूं?
तो सुख भूल
जाता है। अब
बड़ी मुश्किल
हो गई। सुख तो
कोई भुलाना
नहीं चाहता।
यह आपने क्या
कर दिया?
मैंने
कहा,
अब तुम चुन
लो।
वह
कहने लगा कि
अब शराब पी
लेता हूं,तो
ध्यान खराब हो
जाता है, नहीं
तो ध्यान की
धीमी— धीमी
धारा भीतर बहती
रहती है, शीतल—शीतल,
मंद—मंद
बयार बहती
रहती है। शराब
पी लेता हूं तो
दो—चार दिन के
लिए ध्यान की
धारा
अस्तव्यस्त
हो जाती है; फिर
बामुश्किल
सम्हाल पाता
हूं। अब बड़ी
मुश्किल हो गई
है।
तो
मैंने कहा, अब
तुम चुन लो, तुम्हारे
सामने है।
ध्यान छोड़ना
है, ध्यान
छोड़ दो, शराब
छोड़नी है, शराब
छोड़ दो। दोनों
साथ तो चलते
नहीं, तुम्हें
दोनों साथ
चलाना हो, साथ
चला लो।
उसने
कहा,
अब मुश्किल
है। क्योंकि
ध्यान से जो
रसधार बह रही
है, वह
इतनी पावन है
और वह मुझे
ऐसी ऊंचाइयों
पर ले जा रही
है, जिनका
मुझे कभी
भरोसा न था कि
मुझ जैसा पापी
और कभी ऐसे
अनुभव कर
पायेगा! आपको
छोड़ कर किसी
दूसरे को तो
मैं कहता ही
नहीं, क्योंकि
मैं दूसरों को
कहता हूं तो
वे समझते हैं
कि शराबी है, ज्यादा पी
गया होगा। वे
कहते हैं. होश
में आओ, होश
की बातें करो।
मैं भीतर के
भाव की बात
करता हूं तो
वे समझते हैं
कि ज्यादा पी
गया होगा।
उन्हें भरोसा
नहीं आता।
मेरी पत्नी तक
को भरोसा नहीं
आता। वह कहती
है कि बकवास
बंद करो। तुम
ये ज्ञान—वान
की बातें नहीं,
तुम ज्यादा
पी गए हो। मैं
कहता हूं,मैंने
आज महीने भर
से छुई नहीं
है।
तो
आप से ही कह
सकता हूं वह
शराबी कहने
लगा,
आप ही समझेंगे।
और अब छोड़ना
मुश्किल है
ध्यान।
जीवन
को विधायक
दृष्टि से लो।
तुम सुखी होने
लगो,
तो जो चीजें
तुमने दुख के
कारण पकड़ रखी
थीं, वे
अपने— आप छूट
जायेंगी।
ध्यान आये तो
शराब छूट जाती
है। ध्यान आये
तो मासाहार
छूट जाता है।
ध्यान आये तो
धीरे — धीरे
काम—ऊर्जा
ब्रह्मचर्य
में
रूपांतरित
होने लगती है।
बस ध्यान आये।
तो मैं ध्यान
की शराब पीने
को तुमसे कहता
हूं; समाधि
की मधुशाला
में
पियक्कड़ों की
जमात में सम्मिलित
हो जाने को
कहता हूं।
सुख की
यह घड़ी, एक तो
जी लेने दो
चादर
यह फटी स्वप्न
की,
सी लेने दो
ऐसी तो
घटा,
फिर न कभी छाएगी,
प्याला
न सही, आंख से
पी लेने दो।
इस
सत्संग में
तुम
पीयो—प्याला न
सही,
आंख से! इस
सत्संग में
तुम पीयो, इस
सत्संग से तुम
मदहोश होकर
लौटो। लेकिन
यह जो मदहोशपन
है, इसमें
तुम्हारा होश
न खोये। मस्ती
हो, और
भीतर होश का
दीया जला हो।
ऐसी तो
घटा,
फिर न कभी छाएगी;
प्याला
न सही, आंख से
पी लेने दो।
पांचवां
प्रश्न :
क्या
धारणा और
स्व—सुझाव या
आटो—सजेशन एक
ही हैं? धारणा
और स्वभाव या
बोध में क्या
भेद है? रामकृष्ण
परमहंस की
काली क्या
सर्वथा धारणा
की बात थी, या
उनका अपना
अस्तित्व है?
विभूति या भगवान
के साथ संवाद
क्या संभव
नहीं है?
धारणा
और सुझाव, आटो—सजेशन,
एक ही बात
हैं।
आटो—सजेशन
वैज्ञानिक
नाम है धारणा
का दोनों में
कोई भेद नहीं।
और स्वभाव और धारणा
बड़ी भिन्न बात
है। स्वभाव तो
वही है, जो
सभी धारणाओं
के छूट जाने
पर प्रगट होता
है। स्वभाव तो
वही है, जब
तुम्हारे मन
से सभी विचार
और सभी
धारणाएं
तिरोहित हो जाती
हैं; तब
उसका दर्शन
होता है।
स्वभाव की
धारणा नहीं करनी
होती।
एक
संन्यासी
मेरे घर
मेहमान हुए।
तो वे सुबह—सांझ
बैठ कर बस एक
ही धारणा
करते—अहं
ब्रह्मास्मि
मैं ब्रह्म
हूं मैं देह
नहीं; मैं मन
नहीं; मैं
ब्रह्म हूं—ऐसा
दो—चार दिन
मैंने उन्हें
सुना। मैंने
कहा कि अगर
तुम हो, तो
हो, यह
बार—बार क्या
दोहराते हो? अगर नहीं हो,
तो बार—बार
दोहराने से
क्या होगा? भ्रांति हो
सकती है।
बार—बार
पुनरुक्ति
करने से 'अहं
ब्रह्मास्मि,
' ऐसा
पुनरुक्ति
करते रहो, करते
रहो तो
भ्रांति हो
सकती है कि हो
गए ब्रह्म; लेकिन यह
भ्रांति
स्वभाव का
दर्शन नहीं
है। अगर
तुम्हें पता
है कि तुम
ब्रह्म हो, तो दोहरा
क्या रहे हो? अगर कोई
पुरुष रास्ते
पर दोहराता
चले कि मैं पुरुष
हूं मैं पुरुष
हूं तो सभी को
शक हो जायेगा
कि कुछ गड़बड़
है! लोग
कहेंगे : रुको,
कुछ गड़बड़ है!
यह क्या दोहरा
रहे हो? अगर
हो तो बात
खत्म हो गई।
शक है तुम्हें
कुछ?
अहं
ब्रह्मास्मि, इसको
दोहराना थोड़े
ही है! यह तो एक
बार का उदघोष
है। यह तो बोध
की एक बार उठी
उदघोषणा है।
बात खत्म हो
गई। यह कोई
मंत्र थोड़े ही
है। मंत्र तो
सुझाव ही है।
मंत्र शब्द का
अर्थ भी सुझाव
होता है।
इसलिए तो हम
सलाह देने वाले
को, सुझाव
देने वाले को
मंत्री कहते
हैं। मंत्र यानी
सुझाव, बार—बार
दोहराना।
बार—बार
दोहराने से मन
पर एक लकीर
खिंचती जाती
है। और उस
लकीर के कारण
हमें
भ्रांतियां
होने लगती
हैं।
'रामकृष्ण को
जो काली के
दर्शन हुए, क्या सर्वथा
धारणा की बात
थी?'
सर्वथा
धारणा की बात
थी। न कहीं
कोई काली है, न
कहीं कोई
पीली। सब मन
की धारणा है।
और सब धारणायें
गिरनी चाहिए।
इसलिए तो जब
रामकृष्ण की काली
की धारणा गिर
गई तो
उन्होंने कहा
: अंतिम बाधा
गिर गई। अपनी
ही धारणा थी।
और जब रामकृष्ण
ने तलवार
उठाकर अपनी
काली की धारणा
को काटा, तो
क्या तुम
सोचते हो खून
वगैरह निकला?
कुछ नहीं
निकला। धारणा
भी झूठी थी, तलवार भी
झूठी थी, झूठ
से झूठ की
टकराहट हुई, कुछ और हुआ
नहीं।
'विभूति या
भगवान के साथ
संवाद क्या
संभव नहीं है?'
नहीं!
जो भी संवाद
तुम करोगे, वह
कल्पना होगी।
क्योंकि जब तक
तुम हो, तब
तक भगवान नहीं;
और जब भगवान
है, तब तुम
नहीं—संवाद
कैसे होगा? संवाद के
लिए तो दो
चाहिए। तुम और
भगवान साथ—साथ
खड़े होओ, तो
संवाद हो सकता
है। जब तक तुम
हो, तब तक
कहां भगवान? और जब भगवान
है, तब तुम
कहां?
प्रेम—गली
अति सीकरी
तामें दो न
समाये। उस गली
में दो तो
नहीं समाते एक
ही बचता है, संवाद
कैसा? संवाद
के लिए तो दो
चाहिए, कम
से कम दो तो
चाहिए ही।
तो
तुम जिससे
बातें कर रहे
हो,
वह
तुम्हारी ही
कल्पना का जाल
है, वह
वास्तविक
भगवत्ता
नहीं।
भगवत्ता जब
घटती है तो
संवाद नहीं
होता; निनाद
होता है, संवाद
नहीं। एक, जिसको
पूरब के
मनीषियों ने
अनाहत—नाद कहा
है, वह
होता है। एक
गुनगुनाहट! पर
एक में ही
होती है वह
गुनगुनाहट; कोई दूसरे
से बातचीत
नहीं हो रही
है। वह ओंकार
की ध्वनि का
उठना है।
लेकिन वह किसी
दूसरे से बातचीत
नहीं हो रही
है; दूसरा
तो कोई बचता
नहीं।
कभी
किसी भक्त ने
भगवान का
दर्शन नहीं
किया। जब तक
भगवान का
दर्शन होता
रहता है, तब तक
भक्त भी मौजूद
है; तब तक
कल्पना का ही
दर्शन है।
इसलिए तो ईसाई
जीसस से मिल
लेता है, जैन
महावीर से मिल
लेता है, हिंदू
राम से मिल
लेता है।
तुमने कभी
हिंदू को जीसस
से मिलते देखा?
— भूल—चूक से
कहीं रास्ते
पर जीसस मिल
जाये मिलते ही
नहीं। जो अपनी
धारणा में
नहीं है, वह
मिलेगा कैसे?
तुमने कभी
ईसाई को कहते
देखा कि बैठे
थे ध्यान करने
और बुद्ध
भगवान प्रगट
हो गए? वे
होते ही नहीं।
वे होंगे कैसे?
जिसका बीज
धारणा में
नहीं है, वह
कल्पना में
कैसे होगा? जो तुम्हारी
धारणा है, उसी
का
कल्पना—विस्तार
हो जाता है।
अष्टावक्र
का सूत्र तो
यही है कि तुम
सब धारणाओं, सब
मान्यताओं, सब कल्पनाओं,
सब
प्रक्षेपों
से मुक्त हो
जाओ, सब
अनुष्ठान—मात्र
से!
अनुष्ठान—मात्र
बंधन है। जब
कोई भी नहीं
बचता तुम्हारे
भीतर—न भक्त, न भगवान—एक
शून्य
विराजमान
होता है। उस
शून्य में
अहर्निश एक
आनंद की वर्षा
होती है। उस
घड़ी कैसा
संवाद, कैसा
विवाद? नहीं,
सब संवाद
कल्पना के ही
हैं। कभी रात
मुझे घेरती है
कभी
मैं दिन को
टेरता हूं
कभी एक
प्रभा मुझे
हेरती है
कभी
मैं प्रकाश—कण
बिखेरता हूं
कैसे
पहचानूं कब
प्राण—स्वर
मुखर है
कब मन
बोलता है?
मैं
तुमसे कहूंगा, पहचान
सीधी है. जब भी
कुछ बोले, मन
ही बोलता है।
जब भी कुछ
दिखाई पड़े, मन ही दिखाई
पड़ता है। जब
कुछ भी दिखाई
न पड़े, कुछ
भी न बोले—तब
जो बचा, वही
अ—मन है, वही
समाधि है। जब
तक अनुभव हो, तब तक मन है।
इसलिए
परमात्मा का
अनुभव, ये
शब्द ठीक नहीं;
क्योंकि
अनुभव—मात्र
तो मन के होते
हैं। अनुभव—मात्र
तो द्वंद्व और
द्वैत के होते
हैं, द्वि
के होते हैं।
जब अद्वैत बचा,
तो कैसा
अनुभव? इसलिए
'आध्यात्मिक
अनुभव' यह
शब्द ठीक नहीं
है।
जहां
सब अनुभव
समाप्त हो
जाते हैं, वहा
अध्यात्म है।
नहीं तो तुम
खेल खेलते रह
सकते हो। यह
खेल धूप—छाया
का खेल है।
जो तुम
श्रद्धा नमन
बनो तो
मैं
सुरभित चंदन
बन जाऊं
यदि
तुम पावन
प्रतिमा हो तो
मैं
जीवन का
अर्ध्य चढ़ाऊं
तुम तो
छिपे
सीप—मोती—से
मैं
सागर का ज्वार
बन गया
जो तुम
स्वाति—बूंद
बन बरसों
मैं
सौ—सौ सावन पी
जाऊं
अंजुरी
भर सपनों की
आशा
खोज
रही
जीवन—परिभाषा
जो तुम
मंगल—दीप बनो
तो
मैं
जीवन की
ज्योति जलाऊ
मौन
साध आतुर
अभिलाषा
खोल
रही नैनों की
भाषा
जो तुम
चरण धरो धरणी
पर
मैं
मोतिन से हंस
काऊ
कस्तूरी
मृग की सी
छलना
झुला
रही मायावी
पलना
जो तुम
मानस—दीप धरो
तो
मैं
सौ—सौ बदन बन
जाऊं!
पर यह सब
कल्पना का खेल
है। खेलना हो, खेलो।
सुखद कल्पना
का खेल है, बड़ा
प्रतिकर, बड़ा
रसभरा—पर है
कल्पना का
खेल! इसे सत्य
मत मान लेना।
सत्य तो वहा
है जहां न मैं,
न तू। सत्य
तो वहां है
जहां द्वि गई,
द्वंद्व
गया, द्वैत
गया, बचा
एक—एक ओंकार
सतनाम।
आखिरी
प्रश्न :
भगवान
श्री, कोटि—कोटि
नमन! आबू की
पावन पहाड़ी पर,
आपके
वरदहस्त की
छाया में आने
का सौभाग्य
हुआ, तब से
कितना खोया है,
कितना पाया
है, उसका
हिसाब नहीं
है। धन्य—
धन्य हो गया
है जीवन!
प्रश्न बनता
नहीं, जबर्दस्ती
बना रहा हूं।
आपके
मुखारविंद से
शिविर—समापन
के दिन दो
शब्द सुनने के
लिए बेचैन हो
रहा हूं? भिक्षा—पात्र
में दो फूल
डालने की
अनुकंपा आज जरूर
करें!
दो क्यों, तीन
सही—
हरि
ओंम तत्सत्!
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