मन के
पार— प्रवचन—ग्यारहवां
ध्यान
शिविर, आनंद
शिला, अंबरनाथ
रात्रि
14 फरवरी, 1973
जब
तू विराग की
उस अवस्था को
प्राप्त कर
चुकेगा, तब
वे द्वार, जिन्हें
तुझे मार्ग पर
चल कर जीतना
है, तुझे
अपने भीतर
लेने के लिए
अपना हृदय
पूरे-का-पूरा
खोल देंगे।
प्रकृति की
बड़ी से बड़ी
शक्तियां भी
तब गति को
नहीं रोक
सकेंगी। तब तू
सप्तवर्णी
मार्ग का
स्वामी हो
जाएगा; लेकिन,
ओ परीक्षा
के प्रत्याशी!
उसके पहले यह
संभव नहीं है।
तब
तक एक बहुत
कठिन काम तुझे
करना है: तुझे
अपने को एक
साथ
सर्व-विचार भी
अनुभव करना है
और अपनी आत्मा
से सर्व-विचारों
को निष्कासित
भी करना है।
तुझे
मन की उस
स्थिरता को
उपलब्ध होना
है, जिसमें
तेज से तेज
हवा भी किसी
पार्थिव
विचार को उसके
भीतर
प्रविष्ट न
करा सके। इस
तरह परिशुद्ध
होकर मंदिर को
सभी सांसारिक
कर्म, शब्द
व पार्थिव
रोशनी से
रिक्त हो जाना
है। जिस
प्रकार पाला
की मारी तितली
देहली पर ही
गिर कर ढेर हो
जाती है, उसी
प्रकार सभी
पार्थिव
विचारों को
मंदिर के सामने
ढेर हो जाना
चाहिए।
यह
जो लिखित है, इसे पड़
"इसके
पहले कि
स्वर्ण-ज्योतिशिखा
स्थिर प्रकाश
के साथ जले, दीप को
वायुरहित
स्थान में
सुरक्षित
रखना जरूरी
है। बदलती
हवाओं के
सामने होकर
प्रकाश की
धारा हिलने लगेगी
और उस हिलती
शिखा से आत्मा
के उज्जवल
मंदिर पर
भ्रामक काली और
सदा बदलने
वाली छाया पड़
जाएगी।''
अस्तित्व
का एक गहरा
नियम समझ लेना
जरूरी है। देखा
भी होगा उस
नियम को जीवन
के बहुत
अनुभवों में, लेकिन शायद
उसकी सारभूत
अंतरात्मा
खयाल में न आई
हो।
एक
जिंदा आदमी
नदी में डूब
सकता है, अगर
उसे तैरना न
आता हो; लेकिन
मुर्दा बिना तैरे ही
नदी पर तैर
जाता है।
मुर्दा आदमी
को कौन सी कला
आती है, जो
कि जिंदा आदमी
को नहीं आती
थी। मुर्दा
डूबता नहीं, नदी खुद उसे
ऊपर उठा लेती
है। निश्चित
ही जिंदा आदमी
कोई भूल कर
रहा है, जो
मुर्दा नहीं
कर रहा है।
जिंदा आदमी
कोई गलती कर
रहा था, जो
मुर्दा नहीं
कर रहा है।
क्योंकि
मुर्दा कुछ
ठीक तो नहीं
कर सकता, मुर्दा
कुछ कर ही
नहीं सकता।
इतना ही हो
सकता है कि
जिंदा आदमी जो
कर रहा था, वह
मुर्दा न कर
रहा हो, और
इसलिए नदी पर
तैर गया।
जिंदा
आदमी नदी से
लड़ रहा था, जिंदा आदमी
नदी को दुश्मन
समझ रहा था, जिंदा आदमी
नदी के विपरीत
अपनी
आकांक्षाओं के
बल पर कुछ
करने की कोशिश
कर रहा था।
नदी ने उसे डुबा
दिया, तोड़
डाला। उल्टी
हो गई बात; चाहता
था बचना और
मिट गया। और
मुर्दा अपने
को बचाना नहीं
चाहता, क्योंकि
मुद के पास अब
बचाने को कुछ
है भी नहीं।
बचाने का उपाय
भी नहीं है, शक्ति भी
नहीं है, जीवन
भी नहीं है।
जो मुर्दा
अपने को बचाना
नहीं चाहता, नदी खुद ही
उसे ऊपर तैरा
देती है और
बचा लेती है।
फ्रांस
के एक बहुत
बड़े मनसविद
कुए ने इस
नियम को "ला आफ
रिवर्स
इफेक्ट' कहा
है, उल्टे
परिणाम का
नियम। जो आप
चाहते हैं, उससे उल्टा
हो जाता है।
आपके चाहने के
कारण ही उल्टा
हो जाता है।
और हमारी पूरी
जिंदगी इसी नियम
से भरी हुई
है। सुख चाहते
हैं, दुख
मिलता है।
सफलता चाहते
हैं, असफलता
हाथ लग जाती
है। जीतना
चाहते हैं, हार के
सिवाय कुछ भी
नहीं होता! हर
जगह जो हम चाहते
हैं, उल्टा
होता हुआ
दिखाई पड़ता
है। फिर हम
चीखते हैं, चिल्लाते
हैं, रोते
हैं। और
प्रार्थना भी
करते हैं कि
हे परमात्मा,
क्या भूल हो
रही है, कौन
सा कसूर है; कौन से कर्म
का फल है कि जो
भी मैं चाहता
हूं, वह
नहीं होता है
और उल्टा हो
जाता है! और जो
मैं कभी नहीं
चाहता, वह
हो जाता है! और
जो मैं सदा
चाहता हूं और
जिसके लिए
श्रम किया हूं,
वह नहीं हो
पाता!
इस
नियम को ठीक
से समझें। जब
भी आप
अस्तित्व के
सामने अपनी
चाह रखते हैं, तभी आप उसके
विपरीत हो
जाते हैं।
अस्तित्व की
मर्जी के
खिलाफ आप कुछ
भी करेंगे, उसमें
हारेंगे और टूटेंगे।
और सभी चाह
उसके खिलाफ
हैं। ऐसी कोई
चाह नहीं है, जो अस्तित्व
के खिलाफ न
हो। होगी ही।
हम तो परमात्मा
से भी
प्रार्थना
करते हैं
मंदिर में, उसके ही
खिलाफ। घर में
कोई बीमार है,
हम परमात्मा
से कहते हैं
कि इसे ठीक कर
दे। अगर
परमात्मा ही
सब कुछ करता
है, तो यह
बीमारी भी
उसके द्वारा
है। और जब हम
कहते हैं कि
इसे ठीक कर दे,
तो हम यह कह
रहे हैं कि हम
तुमसे ज्यादा
समझदार हैं और
तूने हमसे
सलाह क्यों
नहीं ले ली इस
आदमी को बीमार
करने के पहले।
इसे बदल दे।
हमारी सब मांग,
हमारी सब
प्रार्थनाएं,
अस्वीकृतियां
हैं। जो है, उसका हमें
स्वीकार नहीं
है। और ध्यान
रहे, जो है,
उसका जब तक
हमें स्वीकार
नहीं है, तब
तक जो भी हम
चाहेंगे, उससे
उल्टा होगा।
और जिस दिन जो
भी है, उसका
हमें पूरा
स्वीकार
है--तो इस
स्वीकार को ही
मैं आस्तिकता
कहता
हूं।
आस्तिकता का
अर्थ ईश्वर को
मान लेना नहीं
है, क्योंकि
ईश्वर को बिना
माने भी कोई
आस्तिक हो सकता
है। और ईश्वर
को मानते हुए
भी लाखों लोग नास्तिक
हैं, करोड़ों
लोग नास्तिक
हैं।
आस्तिकता
का अर्थ है:
सर्व स्वीकार
का भाव--जो है, उसके साथ
राजी होना।
जैसे
मुर्दा नदी
में बहता है
जहां नदी ले
जाए, तो नदी
उसे खुद ऊपर
उठा लेती है।
और जिस दिन कोई
व्यक्ति इस
अस्तित्व में
मुद की भांति
हो जाता है, जहां ले जाए
यह अस्तित्व,
उस दिन यह
अस्तित्व खुद
ही उसे उठा
लेता है। और
जब तक
अस्तित्व से
करते हैं
छीना-झपटी, तब तक उसके
सब
रहस्य-द्वार
बंद होते हैं;
हम इस योग्य
नहीं।
शत्रु
के लिए
अस्तित्व का
रहस्य खुल भी
नहीं सकता है।
दुश्मनी से इस
दुनिया में
क्या खुला है? सब चीजें
बंद हो जाती
हैं।
अस्तित्व के
साथ अस्तित्व
के हृदय को
खोलने के लिए
वही कुंजी काम
आती है, जो
किसी भी
व्यक्ति के
हृदय को खोलने
के काम आती
है। जब हम
किसी व्यक्ति
को स्वीकार कर
लेते हैं प्रेम
के किसी क्षण
में, उसका
हृदय अपनी सब
सुरक्षा हटा
लेता है, उसका
हृदय खुल जाता
है; अब हम
उसके हृदय में
प्रवेश कर
सकते हैं। अब
हमसे उसे कोई
भी भय नहीं
है।
प्रार्थना का
यही अर्थ है।
श्रद्धा का
यही अर्थ है।
गहरे प्रेम का
यही अर्थ है।
अस्तित्व
तभी खुलता है
हमारे सामने, अपने सब
रहस्य खोल
देता है, जिस
दिन पाता है
कि अब हम
संघर्ष नहीं
कर रहे हैं, विरोध नहीं
कर रहे हैं; अब हमारी
कोई चाह नहीं
है।
अब हम
इस सूत्र को
समझें।
"जब
तू विराग की
उस अवस्था को
प्राप्त कर
चुकेगा, तब
वे द्वार, जिन्हें
तुझे मार्ग पर
चल कर जीतना
है, तुझे
अपने भीतर
लेने के लिए
अपना हृदय
पूरा का पूरा
खोल देंगे।
'
लेकिन
जब तू विराग
की अवस्था को
प्राप्त कर चुका
होगा! विराग
की अवस्था का
अर्थ है, जब
तूने चाह छोड़
दी होगी। जब
तक तू चाहता
है, ऐसा हो,
ऐसा न हो; तब तक राग
है। और जिस
दिन तू कहता
है कि जो हो रहा
है वही मैं
चाहता हूं। जो
नहीं हो रहा
है, वह मैं
नहीं चाहता
हूं।
अभी हम
कहते हैं: चाह
मेरी है। अगर
उसके अनुकूल
हो, तो मैं
सुखी होऊंगा
और प्रतिकूल
हो, तो
दुखी हो जाऊंगा।
हम दुखी ही
दुखी होते हैं,
सुखी कभी भी
नहीं होते।
विराग की
अवस्था का अर्थ
है कि हमने
पूरी चीज को
बदल दिया। अब
मैं यह नहीं
कहता हूं कि
मेरी चाह के
अनुकूल हो। अब
मैं कहता हूं,
जो भी हो, मैं उसके
अनुकूल हूं।
या जो भी हो, मेरी चाह
उसके अनुकूल
है।
विराग
का अर्थ है
अस्तित्व से
अब मेरी कोई
मांग, कोई
अपेक्षा नहीं
है, अब मैं
राजी हूं।
जैसा भी है, जो भी है, उसके
साथ पूरी तरह
एक होने की
मेरी तैयारी
है। अब मेरा
कोई राग नहीं
है।
यह
सूत्र कहता है, विराग की
ऐसी अवस्था के
घटते ही
प्रकृति, परमात्मा
के सब
रहस्य-द्वार खुल
जाते हैं और
वे जो बंद
द्वार थे, अपने
में लेने को
पूरी तरह राजी
हो जाते हैं।
बहुत
कुछ बंद है, हमारे चारों
तरफ दीवालें
हैं, द्वार
नहीं। और वे
दीवालें
हमारे कारण
हैं, क्योंकि
हम इतने जोर
से संघर्ष कर
रहे हैं उन्हें
खोलने का।
स्वामी
राम कहा करते
थे, एक बार
अमरीका के एक
दफ्तर में
उनसे बड़ी भूल
हो गई।
संन्यासी थे,
द्वार-दरवाजों
का कुछ पता
नहीं था। जिस झोपड़ी में
रहते आए थे
हिमालय में, उसमें कोई
द्वार-दरवाजा
भी न था। एक
दफ्तर में
प्रवेश करने
के लिए बड़े
जोर से
उन्होंने
धक्का
दिया--बिना
देखे कि
दरवाजे पर
"पुल' लिखा
है या "पुश',
अपनी तरफ
खीचों या धकाओ
क्या लिखा है,
यह देखा
नहीं--और जोर
से धक्का
दिया। दरवाजा
नहीं खुला, दरवाजा सख्त
दीवाल हो गया।
तब उन्होंने
नीचे देखा, लिखा था, खींचो,
पुल।
खींचते ही
द्वार खुल
गया। फिर वे
बहुत बार कहा
करते थे कि
परमात्मा के
द्वार पर भी पुश नहीं
लिखा है, पुल
लिखा है।
"धक्का दो' नहीं
लिखा
है--खींचो
अपनी ओर।
अपनी
ओर खींचने की
कला क्या है?
अपनी
ओर खींचने की
कला समर्पण
है।
पहाड़
पर भी वर्षा
होती है, लेकिन
पहाड़ वर्षा को
रोक नहीं पाता;
क्योंकि
पहाड़ पहले से
ही भरा हुआ है,
जगह भी नहीं
है कि अब कुछ
और वर्षा
उसमें समा
जाए। होती है
पहाड़ पर वर्षा,
उतर आती है
नीचे, भर
जाती है
खाई-खड्डों
में, झीलों
में; क्योंकि
झीलें खाली
हैं, खींच
लेती हैं।
समर्पण
खींचता है, क्योंकि आप
जब भीतर खाली
होते हैं, झुके
होते हैं, ग्राहक
होते हैं, गर्भ
बन जाते हैं।
तब आप खींचना
शुरू कर देते
हैं, उस
खिंचाव में ही
दीवालें, दरवाजे
बन जाते हैं।
प्रेम
खींचता है, संघर्ष
धकेलता है, समर्पण
खींचता है, संघर्ष
धकेलता
है।
और हम
सब संघर्षरत
हैं। वही
हमारी तकलीफ
है, वही
हमारी पीड़ा
है। और हम
अपने ही हाथों
से दरवाजे को
दीवाल बना लिए
हैं। और फिर
छाती पीटते
हैं, सिर
पटकते हैं, रोते हैं कि
यह क्या हो
रहा है--कितनी
मैं मेहनत कर
रहा हूं, दरवाजा
खुलता नहीं
है। लेकिन इस
दरवाजे पर सनातन
नियम है कि धकाओ
मत, खींचो।
और
खींचने की कला
गहरी है।
धकाना बहुत
आसान है, खींचना
बहुत मुश्किल
है। क्योंकि
धकाने में
हिंसा है, और
हिंसा हममें
काफी है। और
खींचने के लिए
प्रेम चाहिए,
और प्रेम
हममें बिलकुल
नहीं है।
धकाना आसान है;
क्योंकि
धकाने में
आक्रमण है और
हमारा अहंकार
बहुत आक्रमक
है। खींचना
मुश्किल है, क्योंकि
खींचने में
समर्पण है और
हमारा अहंकार
समर्पित नहीं
होने देता।
आज ही
कोई मित्र
मेरे पास आए
थे और कह रहे
थे कि आपसे
बहुत कुछ
सीखना चाहता
हूं, लेकिन
समर्पण नहीं
कर सकता हूं।
तो मैंने उनको
कहा कि मत
करें, और
सीखने की
कोशिश करें।
लेकिन सीख न
पाएंगे; क्योंकि
सीखने की जो
वृत्ति है, वह समर्पण
के पीछे ही
फलित होती है,
उसके पहले
फलित नहीं
होती।
समर्पण
का मतलब ही यह
होता है कि अब
आप कुछ दें, तो मैं लेने
को राजी
हूं--कि मैं गङ्ढा
बन गया हूं, अगर वर्षा
होगी, तो
मैं भर जाऊंगा,
और झील बन
जाएगी। यह ऐसी
ही बात है, जैसे
कोई पहाड़ कहे
कि मैं वर्षा
की झील तो बनने
को राजी हूं, लेकिन गङ्ढा
बनने को राजी
नहीं हूं। तो
क्या कहेंगे
हम उस पहाड़ से
कि मत बन।
लेकिन तब झील
बनने का खयाल
छोड़ दो।
सीखना
संभव है, जब
कोई झुकने को
राजी हो। और
जितना झुकता
है, उतना
ही सीख लेता
है। और यह
सवाल भी नहीं
कि किसके
सामने झुकता
है। झुकने की
कला आनी चाहिए,
झुके होने
का भाव होना
चाहिए, फिर
सब तरह से
आदमी सीख लेता
है। और यह
सवाल भी नहीं
है कि कोई महा
गुरु के पास
ही सीखने जाना
पड़ेगा। असल
में झुकना आता
हो, तो
पूरा
अस्तित्व
गुरु हो जाता
है। और झुकना
न आता
हो, तो
परमात्मा भी
आपके सामने
खड़ा रहे--वह
गुरु नहीं है।
आप झुककर किसी
भी चीज को
गुरु बना लेते
हैं। और आप झुककर
किसी भी चीज
को दरवाजा कर
देते हैं।
यह
अस्तित्व
अपनी संपत्ति
को लुटाने को
सदा तैयार है; जरा सी भी
कंजूसी नहीं
है। और
अस्तित्व जरा
भी कोशिश नहीं
कर रहा है कि
आप वंचित रह
जाएं। अगर आप
वंचित हैं, तो समझना कि आपकी
ही कुशलता, आपकी ही कला,
आपकी ही
समझदारी, आपकी
ही
बुद्धिमानी
कारण रही है।
धक्के दे रहे
हैं--वहां, जहां
खींचना है। लड़
रहे होंगे
वहां, जहां
हारना ही
जीतने की कला
है। सभी जगह
जीत कर जीत
नहीं मिलती।
और जितनी गहन
हो यात्रा, उतनी ही
मुश्किल हो
जाती है जीत--जीतने
की आशा से।
कुछ जगह तो
जीतने वाले
बुरी तरह
हारते हैं।
एक
अनुभव जो
सामान्यतः
सबको है, शायद
नहीं भी है, लेकिन हो
सकता था--वह है
प्रेम का
अनुभव। प्रेम
में अगर किसी
ने जीतने की
कोशिश की, तो
वह प्रेम से
वंचित रह
जाएगा। अगर
उसने जबर्दस्ती
की, तो सब
द्वार प्रेम
के बंद हो
जाएंगे। अगर
छीना-झपटी की,
तो कुछ भी न
मिलेगा; उसका
भिक्षा-पात्र
खाली रह जाएगा,वह भिखारी
ही मरेगा।
जिन्हें
प्रेम की थोड़ी
सी भी झलक है, वे समझ सकते
हैं कि वहां
हार जाना ही
जीतने की कला
है। और जो
जितना हार
जाता है, उतना
जीता हुआ हो
जाता है।
प्रार्थना
प्रेम का ही
विस्तार है।
पूजा प्रेम का
ही विराट रूप
है। वहां
समस्त के
सामने हम अपने
को हारा हुआ
छोड़ रहे हैं।
हम कह रहे हैं
कि हम पराजित
हो गए, हम
झुकते हैं, हम मिटने को
राजी हैं। और
जो मिटने को
राजी है, वह
कभी नहीं
मिटेगा। और जो
अकड़ा रहने की
कोशिश कर रहा
है, वह
प्रतिपल मिट
रहा है, और
खंडहर होता जा
रहा है। जब
कोई मर जाता
है, नदी
उसे संभाल
लेती है; और
जब कोई लड़ता
है, तब उसे डुबा देती
है। यह
अस्तित्व की
नदी के संबंध
में खयाल रहे।
"विराग
की अवस्था को
जब तू प्राप्त
कर चुकेगा, तब वे द्वार,
जिन्हें
तुझे मार्ग पर
चल कर जीतना
है, तुझे
अपने भीतर
लेने के लिए
अपना हृदय
पूरा-का-पूरा
खोल देंगे, प्रकृति की
बड़ी से बड़ी
शक्तियां भी
तब गति को रोक
नहीं सकेंगी। '
अभी
हमें प्रकृति
की छोटी से
छोटी
शक्तियां भी
खींच लेती
हैं। क्योंकि
कोई और बड़ा
खिंचाव हमारे
भीतर नहीं है, जो सुरक्षा
बन सके। अभी
क्षुद्र सी
बात भी हमें
आकर्षित कर
लेती है, क्योंकि
हमारे पास
विराट से
आकर्षित होने
की सुविधा, मार्ग, द्वार
अभी बंद हैं।
हम
क्षुद्र से
प्रभावित भी
इसलिए होते
हैं, उसका
कारण कुल इतना
है कि हमने
विराट से
प्रभावित
होने का
रास्ता ही बंद
कर रखा है। और
लोग लड़ते ही
रहते हैं। या
तो क्षुद्र
पाने को लड़ते
हैं या
क्षुद्र से
छूटने को लड़ते
हैं।
एक
व्यक्ति मेरे
पास आया और
कहने लगा
कि--और व्यक्ति
उस भांति के
आते हैं--कि बस
मुझे क्रोध से
छुटकारा
चाहिए। मैंने
उसे कहा कि
क्रोध से छुटकारा
सीधा नहीं हो
सकता। क्रोध
होता ही इसलिए
है कि तुझे
शांति का कोई पता
ही नहीं है।
और शांति का
तुझे पता होना
शुरू हो जाए, तो क्रोध
अपने आप
गिरेगा और
शांत हो
जाएगा। तू
क्रोध की
फिक्र छोड़ दे।
इस चिंता से
भी क्रोध बढ़ेगा,
घटेगा
नहीं। इस
निरंतर खयाल
से कि क्रोध
से कैसे बचूं,
तेरा ध्यान
और भी क्रोध
पर एकाग्र हो
गया।
और
जहां चित्त
एकाग्र हो
जाता है, वही
चीज
शक्तिशाली हो
जाती है।
वह
आदमी चौबीस
घंटे कोशिश कर
रहा है कहीं
क्रोध न हो
जाए, और चौबीस
घंटे क्रोध
में उलझा हुआ
है। और दिन भर
बचा-बचा कर
किसी तरह
संभाल पाता
है। संभाल क्या
पाता है, वह
जो दिन में
अलग-अलग फूट
कर क्रोध
निकलता है, वह इकट्ठा
हो जाता है और
सांझ सबेरे
कभी न कभी वह
फूट पड़ता है।
यह क्रोध और
खतरनाक हो गया;
इससे तो
छोटा-छोटा
निकल जाना
बेहतर था, कम
घातक था। यह
तो जहर इकट्ठा
हो कर निकला, बहुत भयंकर
हो गया। और
इसकी ही लपटें
बन जाती हैं।
आपको
शायद पता न हो, जो लोग
धीरे-धीरे रोज
क्रोध करते
हैं, वे
कभी कोई बड़ा
उपद्रव नहीं
कर पाते हैं।
आप पक्का
समझें कि वे
किसी की हत्या
नहीं कर सकते,
न
आत्महत्या कर
सकते हैं।
लेकिन जो लोग
संभाले रखते
हैं, वे
खतरनाक हैं।
ऐसा कोई आदमी
आसपास हो, तो
उससे सावधान
रहना, जो
क्रोध संभाले
रखता है, क्योंकि
वह जहर इकट्ठा
कर रहा है, और
जहर में से
सत्व इकट्ठा
कर रहा है। वह
छोटा उपद्रव
नहीं करेगा।
जब भी होने
वाला है, बड़ा
ही उपद्रव
होने वाला है।
उसके निकास के
द्वार बंद हो
गए, जहां
से गंदगी रोज
निकल जाती थी,
और रेचन हो
जाता था। अब
तो गंदगी तभी
निकलेगी जब वह
संभाल ही न
पाएगा। अब तो
गंदगी तभी
निकलेगी, जब
उससे ज्यादा
हो जाएगी, उसके
वश के बाहर
होगी।
छोटा
क्रोध बुरा
नहीं है, रेचक
है। पर बड़ा
क्रोध खतरनाक
है। लेकिन
छोटा हो या
बड़ा, क्रोध
से सीधा नहीं
छूटा जा सकता।
क्रोध की फिक्र
ही छोड़ दें।
शांत होने की
कला क्या है, इसकी चिंता
करें।
जैसे-जैसे
शांति की
लहरें भीतर
उतरने लगेंगी,
और शांति का
संगीत गूंजने
लगेगा, और
शांति के थोड़े
से फूल खिलने
लगेंगे; अचानक
आप पाएंगे कि
वह जो क्रोध
की क्षमता थी,
वह तिरोहित
हो गई। वह अब
नहीं है। वह
थी ही इसलिए।
क्षुद्र
इसलिए खींचता
था, क्योंकि
विराट का
द्वार बंद था।
व्यर्थ इसलिए
सार्थक मालूम
होता था कि
सार्थक का
हमें कोई पता
नहीं था।
सार्थक का पता
होते ही
व्यर्थ, व्यर्थ
हो जाता है।
व्यर्थ होते
ही कोई उसे नहीं
पकड़ता।
जब तक हम उसे पकड़ते हैं,
तब तक वह
सार्थक है। और
हमें सार्थक
की कोई
प्रतीति नहीं
हो रही है, इसलिए
वह सार्थक है।
यह
सूत्र कहता है, प्रकृति की
बड़ी से बड़ी
शक्तियां भी
तब तेरी गति
को रोक नहीं
सकेंगी। तब तू
सप्तवर्णी
मार्ग का
स्वामी हो
जाएगा; लेकिन,
ओ परीक्षा
के प्रत्याशी,
उसके पहले
यह संभव नहीं
है, विराग
के पहले यह
संभव नहीं है।
क्षुद्र
शक्तियों में
हम जी रहे
हैं। जीना पड़ता
है, कोई उपाय
भी नहीं है और
क्योंकि
विराट शक्तियां
हमें उपलब्ध
नहीं हैं।
निकट ही उनके
स्रोत हैं कि
हम थोड़ा
खटखटाएं, तो
वे स्रोत
हमारे हो
जाएं। लेकिन
या तो हमें खटखटाने
का खयाल ही
नहीं आता, या
हम गलत
खटखटाते हैं।
जीसस
ने कहा है:
"नॉक एण्ड दि
डोर शैल बी ओपन्ड
अनटू यू', "खटखटाओ और द्वार
खुल जाएंगे। '
सच तो यह है
कि द्वार बंद
ही नहीं हैं।
लेकिन हमें
खटखटाना ही
नहीं आता। और
जो भी हम करते
हैं, उससे
हम उल्टा कर
लेते हैं।
हमारी अवस्था ऐसी
है, जैसे
किसी आदमी को
नींद न आती हो,
तो वह हजार
उपाय करता है
नींद लाने के।
जितने उपाय
करता है, उतनी
नींद और
मुश्किल हो
जाती है
क्योंकि उपायों
से नींद और
नहीं आ सकती
है। उपाय और
नींद में
विरोध है।
जिसको नींद
नहीं आती, उससे
कहें कि उपाय
मत करो, तो
वह नाराज
होगा। वह कहता
है, वैसे
तो मुझे नींद
नहीं आती, उपाय
करके भी नहीं
आती और तुम
कहते हो कि
उपाय मत करो।
वह उपाय क्या
करता है?
सुना
है मैंने कि
मुल्ला नसरुद्दीन
को नींद नहीं
आती थी। हजार
उपाय कर चुका
था। जो भी
बताता था, वह करता था।
उपायों की वजह
से और मुसीबत हो
गई क्योंकि
रात उपाय करने
में बीत जाती
थी। और उपाय
करके वह इतना एक्साइटेड,
इतना
उत्तेजित हो
जाता था कि
उसकी वजह से
और भी नींद
मुश्किल हो
जाती थी।
आखिर
उसकी पत्नी ने
कहा कि मुल्ला, तुम फिजूल
के बड़े जटिल
उपायों में
पड़े हो। मैंने
तो सुना है
बचपन से कि
कुछ ज्यादा
करने की जरूरत
नहीं है, तुम
ऐसा करो कि भेड़ों
की गिनती किया
करो। घर में भेड़ें
हैं। गिनती
करो एक से सौ
तक। जब तक तुम
सौ पर पहुंचोगे,
सारा खयाल
छोड़कर--एक भेड़,
दो भेड़,
तीन भेड़
गिनती करते गए,
भेड़ों को देखते गए,
सौ तक भी
नहीं पहुंच
पाओगे कि नींद
लग जाएगी।
मुल्ला
ने वह भी
कोशिश आजमाई।
सुबह उसकी
पत्नी ने पूछा, कैसा हाल है?
उसने कहा कि
मूरख, तूने
मुझे ऐसा
उलझाया कि एक
रात तो क्या
कई रात न सो
सकूंगा। क्या
हुआ? उसने
कहा, मैं
गिनती करता ही
गया, लाखों
के पार गिनती
निकल गई, सिर
चकराने लगा।
फिर मैंने
सोचा यह ठीक
नहीं है, फिर
मैंने सोचा
कुछ और करूं, तो लाखों भेड़ें
थीं घर
में--क्या
करूं? ऊन
काट डाला। ऊन
कट गया लाखों भेड़ों का।
फिर इस ऊन का
क्या करना? कोट सिला
डाले, फिर
एक मुसीबत आई
कि लाखों कोट
इकट्ठे हो गए,
इनको खरीदेगा
कौन? बिकेंगे कहां? और
अभी मैं इसी
चिंता में पड़ा
था कि तू आकर
पूछ रही है।
वह जो
नींद है, उसका
अर्थ ही है कि
वह तब आती है, जब आप कुछ कर
नहीं रहे हों।
जब आप कुछ कर
रहे होते हैं,
तब वह नहीं
आती। करना ही
उसमें बाधा है,
प्रयत्न ही
विरोध है, चेष्टा
ही उपद्रव है।
नींद आती है
तब, जब आप
कुछ कर नहीं
रहे हैं; नींद
लाने की कोशिश
भी नहीं कर
रहे हैं। जब
सब कोशिश नहीं
हो जाती है, अचानक आप
पाते हैं, नींद
उतर गई।
अगर हम
जीवन के
द्वारों को
गलत ढंग से
खटखटाएं, तो
भी मुसीबत हो
जाएगी। और
जितना सूम में
प्रवेश होता
है, उतनी
ही जटिलता
बढ़ती चली जाती
है। क्योंकि
स्थूल को तो
हम समझ भी लें,
सूम को
समझना और भी
मुश्किल हो
जाता है। बड़ी
से बड़ी तकलीफ
यही है कि हम
क्षुद्र के
साथ उलझे हुए
हैं। चाहे हम
गृहस्थ हों, चाहे हम
संन्यासी
हों। गृहस्थ
उलझे हैं क्षुद्र
के साथ कैसे
क्षुद्र को
इकट्ठा कर
लें--धन को
कैसे इकट्ठा
कर लें, मकान
कैसे बना लें,
जायदाद
कैसे बड़ी हो, जमीन कैसे
बड़ी हो--इसमें
उलझा है।
संन्यासी
भी इसी
क्षुद्र में
उलझा है कि
मकान का मोह
कैसे छूटे, धन की
तृष्णा कैसे
छूटे, कैसे
मुक्त हो जाऊं
जमीन-जायदादों
के उपद्रव से।
वह भी उससे
उलझा है।
दोनों के भाव
विपरीत हैं, लेकिन दोनों
का केंद्र एक
है। दोनों ही
क्षुद्र में
ग्रसित हैं।
एक पीठ किए
खड़ा है और एक
मुंह किए खड़ा
है। एक क्षुद्र
की तरफ भाग
रहा है और एक
क्षुद्र की
तरफ से भाग
रहा है। लेकिन
क्षुद्र
दोनों के
प्राणों में
समाया है।
वास्तविक
संन्यासी
क्षुद्र की
चिंता नहीं करता, विराग की
चिंता करता
है।
क्षुद्र का
विचार ही नहीं
करता है। उसको
इतना भी मूल्य
नहीं देता कि
उसका विरोध
करना है।
विरोध करना भी
मूल्य देना है, विरोध करना
भी क्षुद्र की
शक्तियों को
स्वीकार करना
है। विराग का
अर्थ है, क्षुद्र
की शक्ति की
हम कोई चिंता
ही नहीं करते--पक्ष
या विपक्ष दोनों
में। हम खोज
करते हैं
विराट की।
और जिस
दिन भी विराट
की किरण टूटनी
शुरू हो जाती
है, क्षुद्र
तिरोहित हो
जाता है। वह
आपके हृदय में
तभी तक है, जब
तक विराट का
संस्पर्श
नहीं है।
इसलिए नकार में
न पड़ें, संसार
के नकार में न
पड़ें। दुनिया
के अधिक धर्म
इसलिए व्यापक
नहीं हो पाए
कि वे संसार
के नकार में
पड़ गए, क्षुद्र
की लड़ाई में
पड़ गए।
मैं
ऐसे संन्यासी
को जानता हूं, जिनका चौबीस
घंटे चिंतन
इसी में बीतता
है--यह नहीं
खाना, यह
नहीं पीना; ऐसे उठना, ऐसे बैठना; इतनी रात
सोना, इतनी
सुबह उठना।
इसमें बुरा
कुछ भी नहीं
है। लेकिन
चौबीस घंटे
अगर इसी में
बीतता हो, तो
यह आदमी अति
क्षुद्र में
गिर गया। ठीक
है कि कोई
सुबह पांच बजे
उठ आए, और
ठीक है कोई
रात नौ बजे सो
जाए। कुछ
हर्जा नहीं; बहुत अच्छा
है। लेकिन यह आब्सैसन
बन जाए, चौबीस
घंटा यही
चिंतन चलने
लगे कि अगर नौ
बजे न सोएं
तो कोई पाप हो
गया, कि
सुबह पांच बजे
ब्रह्ममुहूर्त
में नींद न खुली,
तो नरक में
पड़ जाएंगे, तो फिर यह
अतिशय हो गई
बात। यह आदमी
बीमार है। मनसविद
इस तरह के
आदमी को रुग्ण
कहते हैं। यह
रोग अलग-अलग
तरह से प्रकट
होता है।
मैं एक
सज्जन को
जानता हूं, जो घर की
सफाई में पागल
हैं। सफाई
अच्छी चीज है
और कोई नहीं
कहेगा कि बुरी
है, लेकिन
सफाई पागलपन
बन जाए! उनके
घर वे मित्रों
को नहीं
बुलाते; उनके
सोफा, कुर्सी
गंदे हो सकते
हैं। जब भी
कोई उनके घर जाता
है तो वे नीचे
से ऊपर तक
पहले देखते
हैं कि आदमी
बिठाने लायक
है या नहीं!
जरा सा कचरे
का टुकड़ा घर
में प्रवेश
नहीं कर सकता।
घर उनका बिलकुल
साफ-सुथरा है
कि रहने के
योग्य नहीं!
वे खुद ही
मुश्किल से
उसमें रहते
हैं, क्योंकि
उनसे भी तब
थोड़ी गंदगी
कुछ हो जाए, तो वे बच-बच
कर जीते हैं!
जैसे कि वे
सफाई करने के
लिए इस घर की, पैदा हुए
हैं। सफाई ठीक
है, लेकिन
सफाई रोग हो
जाती है, जब
वही जीवन का
लय हो जाए।
विवेकानंद
ने कहा है कि
मेरे मुल्क का
धर्म चौके-चूल्हे
में नष्ट हो
गया है। पूरे
वक्त चिंता
लगी है कि
किसी ने भोजन
तो नहीं छू
दिया, पानी
किसी ने
स्पर्श तो
नहीं कर दिया।
किसने स्पर्श
किया है?
एक
मित्र को मैं
जानता हूं, कभी एक बार
उनके साथ मुझे
यात्रा करने
का मौका आया, तो उनकी
चिंताएं देख
कर मैं बहुत
हैरान हुआ। मैंने
कहा कि अगर इन
चिंताओं से
कोई आदमी
मोक्ष की तरफ
जाता है, तो
फिर नरक जाना
बेहतर है।
क्योंकि उनकी
चिंताएं ऐसी
हैं कि नरक से
बदतर--नारकीय
हैं। और चौबीस
घंटे उन्हीं
चिंताओं में
हैं वे। वे
मुझसे कहने
लगे कि चल तो
रहे हैं, लेकिन
खबर नहीं कर
पाए क्योंकि
मैं सफेद गाय
का दूध पीता
हूं। सफेद गाय
का, काला-चिट्ठा
भी हो, तो
नहीं पीते।
शुभ्र, अच्छी बात
है। लेकिन
किसने कहा? यह पागलपन
हो गया। और
शुभ्र गाय
अच्छी होती है,
काली गाय
बुरी होती है,
यह किसने
कहा? काले
रंग की बुराई
इतनी गहरी पकड़
गई दिमाग में।
और दूध के
सिवा कुछ लेते
नहीं हैं!
सिर्फ दूध लेते
हैं, वह भी
सफेद गाय का
दूध लेते हैं!
जिसके घर में
वे रुक जाते
हैं, वह घर
भी उनके साथ
पगला जाता है।
यह अतिशय है। तीन
बजे रात को उठ
जाते हैं।
जिनके घर में
रुकते हैं, उस घर के
सारे लोगों को
भी तीन बजे
रात उठ जाना पड़ता
है। तीन बजे
रात से वे जोर
से मंत्रोच्चारण
शुरू करते
हैं। उनकी
पत्नी ने
मुझसे शिकायत
की, तब
मुझे उनका
परिचय हुआ।
उनकी पत्नी ने
मुझे आकर कहा
कि आपके पास
कभी-कभी आते
हैं, थोड़ा
उनको समझाइए
कि आधी रात मंत्रोच्चारण
ठीक नहीं है।
घर में बच्चे
भी हैं, मैं
भी हूं और सब
मुश्किल में
पड़ गए हैं।
लेकिन वे
धार्मिक हैं,
और हम कुछ
भी कहें, तो
वे समझते हैं,
यह
नास्तिकता
है। और उनकी
आंखों में ऐसा
भाव आ जाता है
कि हम सब नरक
जा रहे हैं और
वे स्वर्ग जा
रहे हैं। और
आधी रात से शुरू
कर देते हैं।
मैंने
उनसे पूछा कि
आपको आधी रात
से मंत्रोच्चारण
करने को किसने
कहा? तीन बजे
सुबह, आधी
रात नहीं है? और कुछ गलत
नहीं कर रहे
हैं, पर
तीन बजे सुबह!
और जो सो रहा
है तीन बजे, वह गलती कर
रहा है। उनकी
हालत
धीरे-धीरे
खराब होती चली
गई और इन
छोटी-छोटी
बातों में घिर
कर करीब-करीब
रोग-ग्रस्त हो
गए हैं। और
परमात्मा और
मोक्ष तो बहुत
दूर रहे, इन
सब बातों से
कुछ लेना-देना
भी नहीं।
मैंने
सुना है, कि
कहीं एकनाथ
ने कहा है कि
जब मेरी नींद
खुल जाती है, तब
ब्रह्ममुहूर्त
है, क्योंकि
जब ब्रह्म
मुझे जगा देता
है तभी ब्रह्ममुहूर्त
है। मैं अपनी
तरफ से न
जागने की कोशिश
करता हूं, न
अपनी तरफ से
सोने की कोशिश
करता। जब
ब्रह्म मुझे
सुला देता है,
तो सो जाता
हूं, और जब
ब्रह्म मुझे
जगा देता है, तो उठ जाता
हूं। मैं
क्यों फिक्र
करूं, जब
वही फिक्र ले
रहा है?
हम तो
इस तरह के लोग
हैं कि अगर
रेलगाड़ी में
भी बैठे हैं
तो सिर पर
अपना बिस्तरा
रख लेते हैं कि
रेलगाड़ी पर
ज्यादा वजन न
पड़े। जिस
अस्तित्व में
हम बहे जा रहे
हैं, वह हम
सबको, हमारे
भार को लिए जा
रहा है। अब हम
और भार अपने सिर
पर रखकर क्यों
बैठ जाएं? इसका
मतलब यह नहीं
कि मैं आपको
कह रहा हूं कि
घर को गंदगी
से भर दें।
वैसे लोग भी
हैं और ये सब लोग
अब तक धार्मिक
समझे जाते रहे
हैं, ये सब मनस्चिकित्सा
के योग्य हैं।
ऐसे लोग भी
हैं, जिनको
आपने सुना
होगा, इन
लोगों को लोग
परमहंस कहते
हैं, वे
वहीं पाखाना
कर लेंगे और
वहीं बैठ कर
खाना खाएंगे!
तब लोग कहते
हैं ये हुए
परमहंस; अब
भेद मिट गया।
पर इनकी
चिकित्सा की
जरूरत है।
स्वच्छता भी
इतना पकड़ सकती
है कि आप पागल
हो जाएं, और
गंदगी भी इतना
पकड़ सकती है
कि आप पागल हो
जाएं। और
दोनों छोरों
पर संत
विराजमान
हैं। आप मध्य
में रहना। और
समझ, बोध।
और किसी भी
चीज को रोग मत
बना लेना।
क्षुद्र से
बचना, उसका
मतलब यह नहीं
है कि क्षुद्र
को छोड़ने में
लग जाना। उसका
इतना ही मतलब
है कि क्षुद्र
को मूल्य ही
मत देना।
ठीक है, फिकर करना
विराग की।
अपनी चेतना, अपना ध्यान,
अपनी ऊर्जा
विराट की तरफ
लगाना। जल्दी
ही द्वार खुल
सकते हैं। और
जिस दिन विराट
की शक्ति आपको
मिलनी शुरू हो
जाती है, क्षुद्र
ऐसे ही बह
जाता है, जैसे
जोर की बाढ़ आ
जाए और सब
गंदगी बह जाए।
जैसे सुबह का
सूरज निकले और
ओस के कण
तिरोहित हो जाएं।
कोई पागल है, जो ओस के
कणों को साफ
करता फिरे।
कोई जरूरत
नहीं है। सूरज
के निकलने की
प्रतीक्षा
करें। या ऐसा
समझें कि कोई
अंधेरे को
हटाने की
कोशिश कर रहा
है, तो
पागल है। दीया
जलाना
काफी है; दीया
जलाते ही
अंधेरा नहीं
पाया जाता।
"तब
तू सप्तवर्णी
मार्ग का
स्वामी हो
जाएगा। लेकिन,
ओ परीक्षा
के प्रत्याशी,
उसके पहले
यह संभव नहीं
है। '
किसके
पहले?
विराग
के पहले यह
संभव नहीं है।
विराग
के संबंध में
एक बात और, फिर आगे
प्रवेश करें।
विराग
एक विधायक
अवस्था है, नकारात्मक
नहीं। शब्द
नकारात्मक है,
इससे झंझट
होती है। और
शब्दों के
नकारात्मक होने
का कारण है; क्योंकि
शब्द आदमी को
देखकर बने हैं,
जैसे हिंसा
विधायक शब्द
है और अहिंसा
नकारात्मक।
होना नहीं
चाहिए ऐसा।
बड़ी भूल है।
अहिंसा बड़ी
विधायक
स्थिति है, पॉजिटिव। हिंसा
नकारात्मक
है।
लेकिन
फिर ये शब्द
उल्टे क्यों
हैं?
ये
शब्द उल्टे
इसलिए हैं कि
जैसा आदमी है, उसमें हिंसा
विधायक है। और
अहिंसा का तो
वहां कोई पता
नहीं है। आदमी
ने शब्द बनाए
हैं। आदमी ने
अपने काम के
लिए शब्द बनाए
हैं। हिंसा
आदमी में विधायक
है, और
अहिंसा का तो
कुछ पता नहीं
है। कभी किसी
बुद्ध, महावीर
में विधायक
होती है। और
जब बुद्ध, महावीर
में अहिंसा
प्रगट होती है
तब पता चलता
है कि हिंसा
नकारात्मक
है। अहिंसा का
अभाव है--कहना
ठीक है। हिंसा
का अपना कोई
अस्तित्व
नहीं है।
लेकिन
हमारे सब
कीमती शब्द
नकारात्मक
हैं। क्रोध
विधायक है, अक्रोध
नकारात्मक
है। परिग्रह
विधायक है, अपरिग्रह
नकारात्मक
है। राग
विधायक है, विराग नकारात्मक
है। जब कि सब
स्थिति
बिलकुल उल्टी
है। राग सिर्फ
इसलिए है कि
आपके जीवन में
विराग मौजूद
नहीं है।
अंधेरा
इसीलिए है कि
प्रकाश मौजूद
नहीं है।
अंधेरे का
अपना होना
नहीं है। प्रकाश
होगा और
अंधेरा नहीं
हो जाएगा।
विराग होगा और
राग शून्य हो
जाएगा।
यह बात
ठीक से समझ
लें कि विराग
चित्त की एक
विधायक
स्थिति है।
राग का विरोध
नहीं है, राग
का अभाव है, राग की
समाप्ति है।
और सिर्फ राग
की समाप्ति और
अभाव ही नहीं
है, विराग
का अपना होना
है।
क्या
हुआ मतलब
विराग का?
राग का
मतलब है चित्त
भागता है, किसी के
पीछे। विराग
का अर्थ हुआ
चित्त रुका
हुआ है, भागता
नहीं है किसी
के पीछे। राग
है भागता हुआ
मन, विराग
है ठहरा हुआ
मन। राग है
मांगता हुआ
भिखारी, विराग
है सम्राट।
लेकिन हमारे
तो सम्राट भी
भिखारी हैं।
कभी-कभी ऐसा
भी हुआ है कि
हमारे कुछ
भिखारी
सम्राट हो गए
हैं।
बुद्ध
भिखारी हैं।
और अपने
संन्यासियों
को उन्होंने
भिक्षु नाम दे
दिया। भिखारी
का नाम दे
दिया, जानकर।
क्योंकि
सम्राट इतने
भिखारी मालूम
पड़ रहे हैं, तब उचित यही
है कि सम्राट
अपने को
सम्राट न कहें
और भिखारी
कहें। जहां
भिखारी अपने
को सम्राट कह
रहे हैं, वहां
यही उचित है
कि वह जो सम्राट
है, वह
अपने को
सम्राट न कहे।
इसलिए
हिंदुओं का शब्द
स्वामी बुद्ध
ने उपयोग नहीं
किया। क्योंकि
स्वामी का
अर्थ होता है
सम्राट। तो
बुद्ध ने कहा,
जहां सब
भिखारी अपने
को सम्राट
समझे बैठे हैं,
अब वहां
असली सम्राट
अपने को
सम्राट कहे, तो बड़ी विबूचन
होगी; विडंबना
हो जाएगी।
इसलिए मैं
अपने स्वामी
को, अपने
संन्यासी को,
अपने
सम्राट को
भिक्षु
कहूंगा।
यह
हमारे मुंह पर
चोट थी, मगर
समझी नहीं जा
सकी। हमारा
सम्राट भी
भिखारी है; क्योंकि राग
में है, मांग
रहा है।
सुना
है मैंने, एक मुसलमान
फकीर हुआः
फरीद। उसका
गांव बड़ी
मुसीबत में
था। और गांव
के लोगों ने
फरीद से कहा
कि अकबर तुझे
इतना मानता है,
तू एक बार
जाकर इतना कह
कि इस गांव के
लिए कुछ इंतजाम
कर दें, कम
से कम एक
पाठशाला खुलवा
दें।
फरीद
ने कभी मांगा
नहीं था किसी
से। गांव के लोगों
ने कहा, तो
फरीद इंकार भी
न कर सका।
इंकार करने की
उसकी आदत भी न
थी। तो चल पड़ा
दिल्ली की
तरफ। सुबह-सुबह
पहुंचा, तो
पता चला कि
सम्राट अभी
नमाज पढ़ रहे
हैं, प्रार्थना
कर रहे हैं।
तो फरीद पीछे
जाकर खड़ा हो
गया कि ठीक
मौके पर आ गया
हूं।
प्रार्थना करने
के बाद आदमी
में दान करने
की वृत्ति
थोड़ी ज्यादा
होती है।
इसलिए
भिखारी
सुबह-सुबह
आपके पास आते
हैं। शाम को
कोई भिखारी
भिक्षा
मांगने आपसे
नहीं आता है।
शाम तक आप
इतने पिट
चुके हैं, और इतने
नाराज हैं
दुनिया से कि
आप दे नहीं सकते।
भिखारी से कुछ
छीन लें, इसका
डर है। एकांत
पाकर अकेले
में, अंधेरे
में, भिखारी
के पास जो है, वह ले लें, इसका डर है।
भिखारी सुबह
की रोशनी में
आता है। रात
भर के थोड़े
ताजे, संसार
से थोड़े शांत,
सुबह डर कम
है, आशा
ज्यादा है।
तो
सोचा फरीद नेः
चलो, पीछे खड़ा
हो जाऊं, जैसे
ही सम्राट की
पूजा, प्रार्थना
पूरी हो, तत्क्षण
कहूंगा कि एक
छोटा सा मदरसा
मेरे गांव में
खुलवा
दें। लेकिन जब
पीछे जाकर खड़ा
हुआ, तो
सुना कि अकबर
हाथ जोड़ कर कह
रहा है कि हे
परमात्मा, मेरा
धन बढ़ा, मेरी
दौलत बढ़ा, मेरे
साम्राज्य को
बड़ा कर। तो
फरीद की श्वास
ही घुट गई। अब
यह खुद ही
मांग रहा है, इस गरीब
आदमी से और एक
पाठशाला खुलवानी,
नाहक और
गरीब हो
जाएगा! लौटने
लगा कि कहीं
देख न ले, नहीं
तो मुझे बताना
पड़ेगा कि किसलिए
आया था। भागने
लगा।
अकबर
ने लौटकर देखा
कि क्या हुआ।
देखा--फरीद। फरीद
का बड़ा सम्मान
था अकबर के मन
में। उसने कहा, आए और चले!
कैसे? फरीद
ने कहा, पूछो
ही मत; क्योंकि
झूठ मैं बोल
नहीं सकता, और सच कहना
अब योग्य नहीं
है, अशिष्टता
हो जाएगी। तुम
मुझे माफ करो,
गलती से आ
गया हूं, मैं
जा रहा हूं।
अकबर ने हाथ
पकड़ लिए कि
ऐसे नहीं जाने
दूंगा, कम
से कम पता तो
चले। तुम तो
कभी आए नहीं
आज तक, क्या
है बात, कहो?
मेरी
सामर्थ्य में
होगी, तो
जरूर पूरा
करूंगा। फरीद
ने कहा कि
तेरे
सामर्थ्य में
नहीं है, बड़ी
कठिन बात है।
और गलती से हम
आ गए। और
जिसकी सामर्थ्य
में है, उसका
भी पता हमें
आकर चल गया; इतना लाभ
हुआ।
अकबर
ने कहा कि फिर
भी सुनूं
तो मैं। न भी
पूरा कर सकूं, तो भी यह
चिंता मेरे मन
पर मत छोड़ जाओ
कि तुम क्यों आए।
उसने कहा कि
कोई बात थी, जरा जटिल
है। गांव के
लोग पीछे पड़
गए हैं, एक
पाठशाला खुलवाने
को। वे कहते
हैं अकबर से
कहो। नहीं
नहीं, पर
तू इसकी चिंता
में पत पड़
अकबर, क्योंकि
मैंने अभी
तुझे भीख
मांगते देख
लिया। अब अगर
मांगना ही है,
तो उसी से
मांग लेंगे, जिससे तू
मांग रहा था।
और अब बीच के
भिखारी को
क्यों दलाल बनाएं?
सम्राट
भी हमारा
भिखारी है, मांग रहा है,
चाह रहा है।
राग
भीख है, विराग
स्वामित्व
है।
वह
विधायक
अवस्था है, जब हम मांग
नहीं रहे हैं।
और जब तक हम
मांग रहे हैं,
तब तक
प्रकृति से
कुछ भी न
मिलेगा। और
जिस दिन नहीं
मांगते, उस
दिन प्रकृति
की सारी संपदा
बरस पड़ती है।
ला आफ रिवर्स
इफेक्ट, विपरीत
परिणाम का
नियम है।
"तब
तक एक बहुत
कठिन काम तुझे
करना है: तुझे
अपने को एक
साथ
सर्व-विचार भी
अनुभव करना है
और अपनी आत्मा
से सर्व
विचारों को
निष्कासित भी
करना है। '
यह
जटिल काम है
थोड़ा। यह थोड़ा
जटिल इसलिए
है। अगर समझने
की कोशिश
करेंगे, तो
जटिल है। अगर
करने की कोशिश
करेंगे, तो
इतना जटिल
नहीं है। अभी
तो विचार से
भरे हैं, ग्रसित
हैं। लेकिन
कुछ विचार को
अपना मानते हैं,
कुछ विचार
को अपना नहीं
मानते! कुछ को
अपना दुश्मन
मानते हैं। एक
हिंदू है, तो
हिंदू-विचार
को अपना मानता
है; एक
मुसलमान है, तो मुसलमान
विचार को अपना
मानता है।
किसी का कुरान
है अपना, किसी
की गीता! किसी
की बाइबिल
अपनी है! और
जिसकी बाइबिल
अपनी है, कुरान
उसके लिए
शत्रु है, गीता
उसके लिए
शत्रु है।
तो
विचार में
हमने चुनाव कर
लिया है। जैसे
पूरी पृथ्वी
पर हमने एक
छोटा सा मकान
बना लिया, और कहते हैं
कि यह जमीन
मेरी है!
हालांकि जमीन अविभाजित
है, और
जमीन को
बांटने का कोई
उपाय नहीं है।
सब जमीन का बंटाव
नक्शों
में है, और
जमीन पर नहीं
है। चाहे आप
कहें कि भारत
मेरा है, और
पाकिस्तान मेरा
नहीं है। तो
भी जमीन पर
भारत और
पाकिस्तान एक
हैं। आपके
नक्शे में अलग
होंगे। आदमी
के नक्शों
में बंटाव
है, प्रकृति
अविभाज्य है।
जैसे जमीन
नहीं बंटती,
और बांटने
का कोई उपाय
नहीं है; खंड
नहीं हो सकती,
लेकिन हमारीफ्लड़ाई
ऐसी है।
सुना
है मैंने कि
एक गुरु दोपहर
को सोया। उसके
दो थे शिष्य, वे दोनों
सेवा के लिए
बड़े उत्सुक
थे। और दोनों
एक साथ सेवा
करना चाहते
थे। तो गुरु
ने कहा कि तुम
ऐसा करो कि
मुझे आधा-आधा
बांट लो, एक
का बायां, एक
का दायां।
शिष्य बड़े
प्रसन्न हुए।
इससे ज्यादा
शिष्य और क्या
पसंद करेंगे,
गुरु को
बांट लें! एक
ने बायां पैर
और बायां अंग
ले लिया। एक ने
दायां पैर और
दायां अंग ले
लिया। गुरु
बड़ी मुसीबत
में पड़ गया; क्योंकि
गुरु बंट तो
नहीं सकता था।
गुरु ने करवट
ली, बाएं
पैर के ऊपर
दायां पैर आ
गया। बाएं पैर
वाले शिष्य ने
कहा, हटा
अपने पैर को।
अलग करो उस
पैर को, यह
नहीं चलेगा, मेरे पैर पर,
और तेरा
पैर! मार-पीट
की नौबत आ गई, गुरु पिट
गया।
बामुश्किल बच
पाया शिष्यों
से। उसने कहाः
रुको भी, ठहरो
भी, यह भी
तो देखो कि
मैं अविभाज्य
हूं!
जमीन अनबंटी
है। विचार का
जगत भी अनबंटा
है। विचार का
जो जगत है, वह जमीन की
भांति ही अनबंटा
है। उसमें
हिंदू और
मुसलमान, और
मेरा और तेरा,
यह विचार
अच्छा और यह
विचार बुरा, और यह
दुश्मन का और
यह मित्र का, यह मेरे
संप्रदाय का
और यह तेरे
संप्रदाय का,
ये सारे के
सारे, जैसे
जमीन के नक्शे
पर हम बांट
लेते हैं, ऐसे
ही विचार के
नक्शे पर हमने
बांट लिया है।
ये सब झूठे बंटाव
हैं। विचार का
जगत एक है, जैसे
जमीन एक है।
अभी इस
युग में डिल्लार
डी चार्जन ने, एक बड़े
वैज्ञानिक ने,
एक खयाल
दिया। वह खयाल
इस संदर्भ में
समझने जैसा
होगा। वह खयाल
यह है कि जैसे
जमीन है, तो
यह पहली पर्त
फिर जमीन के
बाद वायुमंडल
है, हवा है;
वह कोई दो
सौ मील जमीन
को चारों तरफ
से घेरे हुए
है--हवा का
वायुमंडल, एट्मासफियर। फिर
चार्जन ने एक
खयाल दिया कि
हवा के इस मंडल
के पास
विचारों का एक
मंडल है। उसको
उसने नो-स्फीयर,
विचार-मंडल
कहा है।
वायुमंडल, फिर
विचार-मंडल।
यह बात बहुत
दूर तक सच है।
इस जगत
में जो भी
विचार है, वह भी
संगृहीत होता
चला जाता है।
नष्ट तो कुछ भी
होता नहीं है;
नष्ट कुछ हो
नहीं सकता।
चीजें बदलती
हैं, नष्ट
नहीं होतीं।
कुछ समाप्त
नहीं होता, कुछ पैदा
नहीं होता; सतत प्रवाह
है। एक जगह जो
चीज हमें नष्ट
होती दिखाई
पड़ती है, वह
केवल अदृश्य हो
गई है; किसी
दूसरी जगह फिर
प्रकट हो जाती
है। जैसे नदी
की धारा जमीन
के नीचे बहने
लगी और हमें
लगा कि समाप्त
हो गई। या
समझो कि नदी
की धारा सागर
में मिल गई और
हमने समझा कि
समाप्त हो गई।
कुछ समाप्त
नहीं होता।
क्योंकि फिर
बनेंगे बादल,
और फिर
उठेगा आकाश
में नदी का जल,
फिर बरसेगा
उसी हिमालय पर;
फिर
गंगोत्री, फिर
गंगा, फिर
सागर; एक
वर्तुल है। एक
जगह से प्रकट
और एक जगह से
अप्रकट; लेकिन
नष्ट कुछ भी
नहीं होता।
विचार भी
इकट्ठे होते
चले जाते हैं।
वायुमंडल के
चारों तरफ विचार
का मंडल, इकट्ठा
होता जा रहा
है।
यह
सूत्र कहता है
कि तू अपने को
विचार में मत
बांटना, तू
सर्व विचार
अपने को
मानना। तू
समझना कि तेरा
मन सर्व विचार
है।
क्यों?
क्योंकि
अगर सर्व
विचार कोई
अपने मन को
मान ले, और
समझ ले कि मैं
सर्व विचार
हूं, तो
विचार से
छुटकारा शुरू
हो गया।
क्योंकि विचार
से बंधने के
लिए जरूरी है
कि कुछ विचार
मेरा हो और
कुछ मेरा न
हो। तभी बंधन
हो सकता है।
अगर पूरी ही
पृथ्वी मेरी
हो, तो
कहां उठाऊंगा
दीवाल, कहां करूंगा
सुरक्षा? छोटा-मोटा
टुकड़ा हो, तो
दीवाल उठा लूं,
आंगन घेर
लूं। अगर पूरी
पृथ्वी मेरी
है, तो
कैसे उठाऊंगा
दीवाल, कहां
उठाऊंगा दीवाल?
किसके लिए
उठाऊंगा, जब
बांटना ही कुछ
नहीं है? किसके
लिए दीवाल
उठाऊंगा?
सर्व
विचार मैं हूं, ऐसी जिसकी
प्रतीति है, वह संप्रदाय
से मुक्त हो
जाएगा, संकीर्णता
से मुक्त हो
जाएगा। और एक
अनूठी बात
घटित होगी; अगर सर्व
विचार मैं हूं,
तो आपको
दिखाई पड़ेगा
कि जो विपरीत
विचार दिखाई
पड़ते हैं, वे
भी विपरीत
नहीं हैं, वे
भी जुड़े हुए, संयुक्त
हैं। जो उल्टा
मालूम पड़ता है,
जो दुश्मन
मालूम पड़ता है,
वह भी आपका
ही हिस्सा है।
जहां कंट्राडिक्शन
दिखाई पड़ता है,
विरोधाभास
दिखाई पड़ता है,
वह भी आभास
ही है। विरोध
वहां भी नहीं
है। लेकिन जब
सर्व के साथ
एकता होगी, तब होगा। और
इतनी एकता हो
जाए, तो
छोड़ने में
कठिनाई नहीं
होगी।
यह बड़े
मजे की बात
है। अगर मेरे
पास एक छोटा
सा मकान है और
जमीन का छोटा
सा घेरा है, तो उसको
घेरा बना कर
मुझे रक्षा
करनी भी पड़ती है।
क्योंकि
दूसरों से
बचाना है। और
फिर छोड़ने में
भी बड़ी
मुश्किल हो
जाती है।
जिसकी इतनी
रक्षा की, इतना
घेरा बनाया, उसके साथ
राग, आसक्ति-भाव
निर्मित हो
जाता है।
उसमें मैं प्रविष्ट
हो जाता हूं, वह जमीन का
टुकड़ा मुझमें
प्रविष्ट हो
जाता है।
यह बड़ी
हैरानी की बात
है कि क्षुद्र
को छोड़ना बहुत
मुश्किल बात है।
लेकिन अगर
पूरी पृथ्वी
मेरी है, तो
छोड़ना बहुत
आसान है।
क्योंकि पूरी
पृथ्वी मेरी
है, या
पूरी पृथ्वी
मेरी नहीं है,
दोनों में
कोई फर्क नहीं
पड़ेगा। इसे
खयाल में ले
लें। अगर छोटा
टुकड़ा मेरा है,
और छोटा
टुकड़ा मेरा
नहीं है, तो
बहुत फर्क
पड़ेगा। पूरी
पृथ्वी मेरी
है, या
पूरी पृथ्वी
मेरी नहीं है,
क्या फर्क
पड़ता है? दोनों
बराबर हैं।
अगर पूरा आकाश
मेरा है, और
पूरा आकाश
मेरा नहीं है
तो भी दोनों
बराबर हैं।
पूर्ण को
छोड़ना बहुत
आसान है।
इसलिए
अगर बुद्ध और
महावीर जैसे
व्यक्ति धन का
त्याग कर सके, तो उसका
कारण है।
क्योंकि वे
दरिद्र नहीं
थे, उनके
पास बहुत था, और बहुत को
छोड़ना आसान
है। क्षुद्र
को छोड़ना बहुत
मुश्किल है।
सम्राट अपने
साम्राज्य को
छोड़ सकते हैं,
फकीर अपनी
लंगोटी को
नहीं छोड़
पाते।
सम्राटों के
साम्राज्य से
लंगोटी बड़ी
सिद्ध होती
है। है ही
इतना कम कि और
अब क्या छोड़ा
जाए? और
इतना कम है कि
छूटा कि प्राण
निकल जाते हैं।
जितना
ज्यादा हो, उतना छोड़ना
आसान हो जाता
है।
यह बात
सुन कर बहुत
हैरानी होगी।
और अगर वह पूर्ण
हो, तो छोड़ना
बिलकुल ही
सुगम है।
क्योंकि दो पूर्णताओं
में कोई भेद
नहीं है। अगर
पूरी पृथ्वी
मेरी है और
पूरी पृथ्वी
मेरी नहीं है,
इन दोनों
में कोई भेद
नहीं है।
दोनों पूर्ण
हैं। अगर सर्व
विचार मेरे
हैं, तो
फिर सर्व
विचार का
त्याग आसान
है।
यह
सूत्र कहता
है: तब तक एक
बहुत कठिन
कार्य तुझे
करना है। तुझे
अपने को एक
साथ
सर्व-विचार भी
अनुभव करना है, और अपनी
आत्मा से सर्व
विचारों को
निष्कासित भी
करना है।
ये
दोनों बातें
घटित हो जाती
हैं। अगर सर्व
विचार मेरे
हैं, तो सर्व
विचार का
त्याग भी इतनी
ही आसानी से हो
जाता है। पहले
काम की फिक्र
करें, तो
दूसरा काम
छाया की तरह
आसान है। पहला
काम ही कठिन
है।
एक
आदमी वेद को पकड़े हुए
है, छोड़ना
मुश्किल है।
क्योंकि वेद
मेरे हैं।
कुरान तुम्हारा
है, कुरान
को छोड़ सकता
हूं। बाइबिल
को छोड़ सकता
हूं, वे
मेरे नहीं
हैं। वेद मेरा
है, या
बाइबिल मेरी
है तो कुरान
छोड़ सकता हूं।
छोड़ा ही हुआ
है। पर बाइबिल
को पकड़े
हुए हैं।
लेकिन यदि सभी
शास्त्र मेरे
हैं, तो
छोड़ने में कोई
अड़चन नहीं रही;
अब कोई लगाव
ही न रहा। सब
बराबर हो गया।
अब कोई तुलना
न रही कि कौन
छोटा है, कौन
बड़ा है; कौन
मेरा है, कौन
मेरा नहीं है।
सभी मेरे हैं
और छोड़े जा सकते
हैं।
जो
व्यक्ति
संप्रदाय
नहीं छोड़ पाता, वह कभी
धार्मिक नहीं
हो पाता।
सांप्रदायिक
व्यक्ति
कितना ही
धार्मिक होने
की चेष्टा करे,
धार्मिक
नहीं हो सकता।
सीमा रोक लेती
है। और सीमा
जहां हो, वहां
असीम से मिलन
नहीं हो पाता।
सब विचारों को
समझ लें कि
मेरा है। ऐसा
सोचते ही आप
पाएंगे, चित्त
का बोझ हल्का
हो गया।
मस्जिद भी
मेरी, मंदिर
भी मेरा, शिवालय
भी मेरा, गिरजा
भी मेरा, बात
ही खतम हो गई।
कहीं जाने की
जरूरत ही नहीं
है। फिर आप
जहां बैठे हैं,
वहीं मंदिर,
वहीं गिरजा,
वहीं
शिवालय, और
वहीं मस्जिद
है।
"तुझे
मन की उस
स्थिरता को
उपलब्ध होना
है, जिसमें
तेज से तेज
हवा भी किसी
पार्थिव
विचार को उसके
भीतर प्रविष्ट
न करा सके। इस
तरह परिशुद्ध
होकर मंदिर को
सभी सांसारिक
कर्म, शब्द
व पार्थिव
रोशनी से
रिक्त करना
है। जिस प्रकार
पाला की मारी
तितली देहली
पर ही गिर कर ढेर
हो जाती है, उसी प्रकार
सभी पार्थिव
विचारों को
मंदिर के सामने
ढेर हो जाना
चाहिए। '
तुझे
मन की उस
स्थिरता को
उपलब्ध होना
है, जिसमें
तेज से तेज
हवा भी किसी
पार्थिव
विचार को उसके
भीतर
प्रविष्ट न
होने दे।
स्थिरता को जीएं।
हमारा
मन है कंपित, प्रतिपल
कंपा हुआ।
उसके कंपन के
कारण ही कुछ भी
इसमें प्रवेश
कर जाता है।
उसके कंपन के
कारण ही संध
हो जाते हैं, छिद्र हो
जाते हैं।
उसके कंपन के
कारण ही हमारे
भीतर कोई एक
मजबूत अवस्था
नहीं होती, कोई एक
स्थिर अवस्था
नहीं होती।
इसे
थोड़ा ऐसा
समझें, कि
जब आपका मन
बहुत चिंतित
होता है, तब
खयाल करें, तब आप में न
मालूम
कितने-कितने
विचार भीतर
आने लगते हैं।
जब आपका मन
शांत होता है,
तब आप पर
विचारों का
कोई प्रभाव
नहीं पड़ता, विचार चारों
तरफ आपके
आस-पास हैं
ठीक ऐसे ही हैं,
जैसे आपके
पास मक्खियां
भिनभिना रही
हों; जब भी
छिद्र मिल
जाता है, वे
प्रवेश कर
जाती हैं। और
छिद्र मिल
जाता है आपके
कंपित होने
से। अगर आप
अकंप हैं भीतर,
मन कंपता
नहीं, तो
कोई विचार
भीतर प्रवेश
नहीं करेगा।
इसे
थोड़ा अनुभव से
देखें तो आपको
खयाल में आ जाएगा, कि जब आप
शांत होते हैं,
तब एक अभेद
दीवाल जैसी
आपके भीतर खड़ी
हो गई। अब कुछ
आपके भीतर
प्रवेश नहीं
करता। जब आप
अशांत होते
हैं, तो
ऐसा लगता है
कि सब कुछ
प्रवेश कर रहा
है। कूड़ा-करकट,
कुछ भी
आपमें प्रवेश
कर रहा है। और
आप असमर्थ हैं
रोकने में।
स्थिरता
मन की कैसे हो
उपलब्ध? क्या
हम करें कि मन
स्थिर हो जाए,
रुक जाए?
दोत्तीन
बातें खयाल
रखें। उसी का
हम यहां
प्रयोग भी कर
रहे हैं।
एक, जैसे ही यह
खयाल आए कि मन
अतीत में गया,
तत्क्षण
उसे वापिस
वर्तमान में
ले आएं। सोचने
लगे बचपन की, कोई अर्थ
नहीं है। बचपन
गंवाया होगा,
बुढ़ापे की
सोचने में, कि जवानी की
सोचने में। अब
जवानी गंवाएं
बचपन को सोचने
में। कोई अर्थ
नहीं है, जो
गया, वह
गया; जो
बीत चुका, वह
बीत चुका। मत
सोचें। उसमें
अब कुछ भी
किया नहीं जा
सकता। और उसके
संबंध में सोच
कर वह जो समय
अभी हाथ में
है, वह
खोया जा रहा
है। कल उसके
लिए पछताएंगे।
मैं एक
जगह गीता पर
बोल रहा था, दूसरे
अध्याय पर बोल
रहा था। एक
सज्जन आए, दसवें
अध्याय का
सवाल लेकर!
मैंने उनसे
कहा, रुकें,
दूसरा तो
समझ लें। और
दसवें पर जब बोलूंगा,
तो देखा
जाएगा। संयोग
की बात अभी
मैं दसवें पर
बोल रहा था, कि वही
सज्जन दूसरे
अध्याय का
सवाल लेकर आ
गए। मैं उनको
बोला, आप
भूल गए, मैं
नहीं भूला
हूं। जब मैं
दूसरे पर बोल
रहा था, तब
तुम दसवें का
सवाल लेकर आए;
अब मैं
दसवें पर बोल
रहा हूं, तो
तुम दूसरे का
सवाल लेकर आए!
जो है, उसको नहीं
समझोगे; जो
नहीं है, उसकी
चिंता में पड़े
हो! तो ऐसे तो
तुम सभी चूक जाओगे।
और हम यही कर
रहे हैं। यह
क्षण
पर्याप्त है।
मत पीछे जाएं।
आदत बन गई है, तो जैसे ही
खयाल आ जाए, फौरन
वर्तमान में
लौट आएं। कोई
उपाय कर लें
और वर्तमान
में आएं। अगर
खयाल आ गया
बचपन का तो
छोड़ें। सामने पड़ा
हुआ पत्थर है,
उसको उठाकर
उसको ही देखने
लगें; आकाश
में चांद है, उसको देखने
लगें; वृक्ष
में फूल खिले
हैं, उसी
को देखने लगें;
हवा एक
सुगंध ला रही
है, उसको
सूंघने लगें।
कुछ न हो, लेट
जाएं जमीन पर,
वह जो जमीन
उत्तप्त है, या शीतल है, उसकी ही
संवेदना
अनुभव करें।
लेकिन
वर्तमान में
लौट आएं। अभी
यहां कुछ हो
रहा हो, उसमें
हो जाएं।
ऐसे ही
जब भविष्य में
मन भागे, तो
तत्क्षण
वर्तमान में
ले जाएं। अतीत
और भविष्य से
बचें। आप थोड़े
दिन में पाने
लगेंगे कि मन
स्थिर होने
लगा। क्योंकि
वर्तमान में
कंपन का कोई
उपाय नहीं है।
सब कंपन पीछे
से या आगे से
आते हैं। अतीत
जो नहीं है अब
और भविष्य जो
हुआ नहीं है, उसकी चिंता
आपको कंपाती
है।
एक
दूसरी बात
खयाल रखें, कि जब भी मन
बहुत कंपने
लगे, तो
उसके साक्षी
हो जाएं।
देखें जैसे
दूर खड़े हो गए
अपने ही मन से,
और देखने
लगे। जैसे मन
एक नदी की धार
है और बही जा
रही है। या मन
जैसे एक
पक्षियों की
कतार है, और
आकाश में उड़ी
जा रही है। या
मन जैसे सड़क
का ट्रैफिक है
कि चला जा रहा
है और आप
किनारे खड़े
हैं, और
उसे देखते हैं
दूर खड़े होकर,
चुपचाप
देखते हैं।
अपने मन को
दूर खड़े होकर
देखने लगें।
जल्दी ही
पाएंगे, मन
स्थिर हो गया,
शांत हो
गया। और यह
कला जैसे बढ़ती
जाएगी, वैसे
ही तत्क्षण, जैसे ही आप
साक्षी होंगे,
विटनेस
होंगे, कि
मन स्थिर हो
जाएगा।
तीसरी
बात खयाल में
रखें, जो भी
काम कर रहे
हों, उसमें
पूरी तरह
तल्लीन हो
जाएं। चाहे वह
काम कितना ही
क्षुद्र हो।
भोजन कर रहे
हों, पूरी
तरह तल्लीन हो
जाएं, जैसे
अब जगत में
कुछ और करने
को नहीं है, बस भोजन ही
करने को है।
और इस भोजन
में जितने उपाय
हो सकें लीन
होने के, सब
उपाय कर लें, इसका स्वाद
लें ठीक से।
आप
कहेंगे, इसका
तो स्वाद हम
ठीक से लेते
हैं। मैं नहीं
मान सकता, क्योंकि
आप भोजन करते
वक्त भोजन में
लीन होते ही
कब हैं; दफ्तर
में होते हैं;
दुकान में
होते हैं, बाजार
में होते हैं,
मित्र के
पास होते हैं,
किसी से झगड़
रहे होते हैं,
या कुछ और
कर रहे होते
हैं, हजार
काम कर रहे
होते हैं, जब
आप भोजन कर
रहे होते हैं।
स्वाद इतने
कामों के साथ
आपको नहीं आ
सकता है।
स्वाद लें, आहिस्ता चबाएं।
स्वाद लें, गंध अनुभव
करें। आंख से
भी देखें, हाथ
से भी स्पर्श
करें, सभी
इंद्रियों को
लीन कर दें।
और मन
में एक ही
खयाल रह जाए
कि अभी मैं
भोजन कर रहा
हूं तो भोजन
ही करूंगा।
स्नान कर रहा
हूं तो स्नान
ही करूंगा।
दुकान पर हूं
तो दुकान पर
ही रहूंगा। और
मकान पर जाऊंगा, तो मकान पर आ जाऊंगा।
जो कर रहे हैं,
उसमें अपने
को डुबा
दें। आप
पाएंगे कि मन
स्थिर हो जाता
है।
ये तीन
बातें खयाल
में रहें, तो जल्दी मन
स्थिर हो जाता
है। फिर उसमें
कोई तेज से
तेज हवा भी एक
विचार को प्रवेश
नहीं करवा
सकती। और तब
इस स्थिर मन
के बाहर विचार
अगर बाहर फेंक
भी जाएं, तो
ऐसे ही गिर
जाते हैं, जैसे
पाला की मारी
तितली, देहली
पर ही गिर कर
ढेर हो जाती
है। ऐसे ही
आपकी देहली पर
भी विचार गिर
कर ढेर हो
जाते हैं। यह
प्रतीक नहीं
है, यह
वास्तविक
यथार्थ है। आप
विचार का ढेर
देख सकते हैं,
अपनी देहली
पर पड़ा हुआ।
अगर यह
स्थिरता आपके
अंदर आ गई, और
तब आप पाएंगे
कि आप विचारों
के न मालूम
कितने दिन से
शिकार हैं। न
मालूम
कैसे-कैसे
विचार आप में
प्रवेश करते
रहे हैं। घर
असुरक्षित था,
द्वार पर
कोई पहरेदार
नहीं था। अब
साक्षी का पहरेदार
बैठ गया है।
और वे जो हवाएं
बहती थीं अतीत
और भविष्य की
वे भी, आपने
उनका भी त्याग
कर दिया। और
वह जो आप वर्तमान
के क्षण के
कृत्य को छोड़
कर यहां-वहां
भाग जाते थे, उसका भी
आपने त्याग कर
दिया। अब कोई
उपाय नहीं है।
अब विचार आपकी
देहली पर गिर
कर ढेर होते
जाएंगे। और
भीतर
निर्विचार
बढ़ता जाएगा। यह
निर्विचार ही
समाधि की तरफ
रास्ता बनता
है।
यह जो
लिखित है उसे
पढ़
"इसके
पहले कि
स्वर्ण-ज्योति-शिखा
स्थिर प्रकाश
के साथ जले, दीप को
वायु-रहित
स्थान में
सुरक्षित
रखना जरूरी
है। बदलती
हवाओं के
सामने होकर
प्रकाश की धारा
हिलने लगेगी
और उस हिलती
शिखा से आत्मा
के उज्जवल
मंदिर पर
भ्रामक, काली
और सदा बदलने
वाली छाया पड़
जाएगी। '
ऐसा
बना लें अपने
मन को, जैसे
वायु-रहित कोई
कक्ष हो, जिसमें
कोई दीया
जलता
हो, तो कंपता
न हो।
विचार-रहित कक्ष
जिस दिन आपके
भीतर हो जाएगा,
वायु-रहित
हो गया।
विचार-रहित
जिस दिन कक्ष
हो जाएगा, भीतर
की
ज्योति-शिखा
जलेगी पूर्ण
प्रकाश में, बिना जरा भी
कंपित हुए। और
एक भी विचार
अगर उसमें
आएगा, तो
इस
ज्योति-शिखा
के आसपास आया
विचार तत्क्षण
मन की दीवाल
पर छाया बन
जाएगा। बहुत
विचार आ जाते
हैं, तो
दीवाल अंधेरी
हो जाती है, क्योंकि
ज्योति-शिखा
बिलकुल रंग
जाती है। एक भी
विचार न होगा,
तो मंदिर की
अंतस् दीवाल
बिलकुल
स्वच्छ, शुद्ध,
निर्दोष
होगी। एक छाया
जरा सी भी
नहीं बनेगी। इस
छाया-रहित मन
में, इस
अकंप
वायु-रहित
कक्ष में वह
घटना घटती है,
जिसको हम
ब्रह्म ज्ञान
कहते हैं।
इसके लिए यह सब
तैयारी से
गुजरना जरूरी
है।
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