आंतरिक
संपदा (अध्याय—6)
प्रवचन—बीसवां
तत्र
तं बुद्धिसंयोगं
लभते पौर्वदेहिकम्।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन।।
43।।
और
वह पुरुष वहां
उस पहले शरीर
में साधन किए
हुए बुद्धि के
संयोग को
अर्थात समत्वबुद्धि
योग के
संस्कारों को
अनायास ही
प्राप्त हो जाता
है। और हे कुरुनंदन, उसके प्रभाव
से फिर अच्छी
प्रकार भगवत्प्राप्ति
के निमित्त
यत्न करता है।
जीवन
में कोई भी
प्रयास खोता
नहीं है। जीवन
समस्त
प्रयासों का
जोड़ है, जो
हमने कभी भी
किए हैं। समय
के अंतराल से
अंतर नहीं
पड़ता है।
प्रत्येक
किया हुआ कर्म,
प्रत्येक
किया हुआ
विचार, हमारे
प्राणों का
हिस्सा बन
जाता है। हम
जब कुछ सोचते
हैं, तभी
रूपांतरित हो
जाते हैं; जब
कुछ करते हैं,
तभी
रूपांतरित हो
जाते हैं। वह
रूपांतरण हमारे
साथ चलता है।
हम जो
भी हैं आज, हमारे
विचारों, भावों
और कर्मों का
जोड़ हैं। हम
जो भी हैं आज, वह हमारे अतीत
की पूरी
शृंखला है। एक
क्षण पहले तक,
अनंत-अनंत
जीवन में जो
भी किया है, वह सब मेरे
भीतर मौजूद
है।
कृष्ण
कह रहे हैं, इस जीवन में
जिसने साधा हो
योग, लेकिन
सिद्ध न हो
पाए अर्जुन, तो अगले
जीवन में
अनायास ही, जो उसने
साधा था, उसे
उपलब्ध हो
जाता है।
अनायास ही!
उसे पता भी
नहीं चलता।
उसे यह भी पता
नहीं चलता कि
यह मुझे क्यों
उपलब्ध हो रहा
है। इसलिए कई
बार बड़ी
भ्रांति होती
है। और इस जगत
में सत्य
अनायास मिल
सकता है, इस
तरह के जो
सिद्धांत
प्रतिपादित
हुए हैं, उनके
पीछे यही
भ्रांति काम
करती है।
कोई
व्यक्ति अगर
पिछले जन्म
में उस जगह
पहुंच गया है, जहां पानी
निन्यानबे
डिग्री पर उबलने
लगे, और एक
डिग्री कम रह
गया है, वह
अचानक कोई
छोटी-मोटी
घटना से इस
जीवन में परम
ज्ञान को
उपलब्ध हो
सकता है।
आखिरी तिनका रह
गया था ऊंट पर
पड़ने को और
ऊंट बैठ जाता
है। पर एक
छोटा-सा तिनका,
अगर आप कभी
वजन तौलते हैं
तराजू पर रखकर,
तो आपको पता
है, एक
छोटा-सा तिनका
कम हो, तो
तराजू का पलड़ा
ऊपर रहता है।
एक तिनका बढ़ा,
तो तराजू का
पलड़ा
नीचे बैठ जाता
है; दूसरा
ऊपर उठ जाता
है। एक तिनके
की भी प्रतिष्ठा
होती है। एक
तिनके का क्या
मूल्य है! इसे
ऐसा समझने की
कोशिश करें।
एक
साध्वी, झेन
साध्वी
वर्षों तक
अपने गुरु के
पास थी। सब
तरह के प्रवचन
सुने, सब
तरह के
शास्त्र समझे,
सब तरह के
सिद्धांतों
को जान लिया।
लेकिन बस, कहीं
कोई चीज अटकी
थी और द्वार
नहीं खुलते
थे। ऐसा लगता
था, चाबी
हाथ में है, फिर भी ताला
अनखुला ही रह
जाता था। ऐसा
लगता था कि
मैं जानती हूं,
फिर भी कुछ
अंतराल था, कोई बाधा थी,
कुछ दीवाल
थी। कितनी ही
बारीक और महीन
पर्त थी, पर
उस पार नहीं
निकल पाती थी।
गुरु
से बार-बार
पूछती है कि
कौन-सी बाधा
है? कैसे टूटेगी?
गुरु
कहता है, तू
प्रतीक्षा
कर। बहुत ही
छोटी-सी बाधा
है, अनायास
ही टूट जाएगी।
और बाधा इतनी
छोटी है कि तू
प्रयास शायद न
कर पाए। बाधा
बहुत छोटी है,
अनायास ही
टूट जाएगी।
थोड़ी
प्रतीक्षा कर;
थोड़ी
प्रतीक्षा
कर।
वर्ष
पर वर्ष बीत
गए। वह वृद्ध
भी हो गई। फिर
एक दिन उसने
कहा कि कब टूटेगी
वह बाधा? गुरु
ने आकाश की
तरफ देखा और
कहा कि इस पखवाड़े
में शायद चांद
के पूरे होने
तक टूट जाए।
पांच-सात दिन
बचे थे चांद
की पूरी रात
आने को, पूर्णिमा
आने को। और
पूर्णिमा की
रात बाधा टूटी।
और ऐसी अनायास
टूटी कि झेन फकीरों के
इतिहास में वह
कहानी बन गई।
सांझ
सूरज डूब गया।
चांद निकल
आया। रोशनी
उसकी फैलने
लगी। गुरु ने, कोई दस बजे
होंगे रात, उस साध्वी
को कहा, मुझे
प्यास लगी है,
तू जाकर
कुएं से पानी
ले आ। जैसा
जापान में करते
हैं, यहां
भी करते हैं।
एक बांस की
डंडी पर दोनों
तरफ बर्तन
लटका देते हैं
और कुएं से
पानी लाते हैं।
बांस
की डंडी पर
लटके हुए
मिट्टी के
बर्तनों को
लेकर कुएं पर
पानी भरने गई।
पानी भरकर
लौटती थी।
सोचती थी कि
पूर्णिमा भी आ
गई। चांद भी
पूरा हो गया।
आधी रात भी हुई
जाती है। और
गुरु ने कहा
था कि शायद इस
बार चांद के
पूरे
होते-होते बात
हो जाए। अभी
तक हुई नहीं।
और कोई आशा भी
नहीं दिखाई पड़ती!
और अब तो सोने
का वक्त भी आ
गया। अब गुरु
को पानी
पिलाकर, और
मैं सो
जाऊंगी। कब
घटेगी यह बात!
और तभी
अचानक उसकी
बांस की डंडी
टूट गई। उसके दोनों
बर्तन जमीन पर
गिरे; फूट
गए; पानी
बिखर गया। और
घटना घट गई।
उसने एक गीत
लिखा है कि जब
बर्तन नीचे
गिरा, तब
मैं बर्तन में
देखती थी कि
चांद का
प्रतिबिंब बन
रहा है--पानी
में। फिर
मिट्टी का घड़ा
था; गिरा, फूटा। घड़ा
भी फूट गया।
पानी बिखर
गया। चांद का
प्रतिबिंब
कहां खो गया, कुछ पता न
चला। और घड़े
के फूटते ही
कोई चीज मेरे
भीतर फूट गई।
और जैसे चांद
का प्रतिबिंब
खो गया, ऐसे
ही मैं खो गई। घड़े के
फूटते ही, कुछ
मेरे भीतर भी
फूट गया। और
जैसे चांद का
प्रतिबिंब खो
गया पानी में,
ऐसे ही मैं
खो गई। ऊपर
देखा तो चांद
था, भीतर
देखा तो
परमात्मा था। घड़े के
बर्तन का
प्रतिबिंब
टूट गया, चांद
नहीं टूट गया।
हम
परमात्मा के
प्रतिबिंब से
ज्यादा नहीं हैं।
और हमारे
अहंकार का घड़ा
है, और राग का
पानी है, उसमें
सब प्रतिबिंब
बनता है वहां।
दौड़ी
हुई गुरु के
पास पहुंची, और कहा, कभी
सोचा भी न था
कि घड़े के
फूटने से
ज्ञान होगा!
गुरु ने कहा, घड़े
के फूटने से
ही होता है।
घड़ा कैसे फूटेगा,
यही सवाल
है। और तेरा
घड़ा तो बहुत
कमजोर था, फूटने
को फूटने को
ही था। कभी भी
फूट सकता था। कोई
ऐसे निमित्त
की जरूरत थी, जिसमें कि
वह जो तेरे
भीतर आखिरी
तिनका रखना है,
वह पड़ जाए।
वजन तो पूरा
था, पलड़ा नीचे बैठने
को था। बस, आखिरी
तिनका, वह
एक घड़े के
फूटने से हो
गया।
बहुत
लोगों के जीवन
में अनायास
घटना घटती है।
एक
बहुत अदभुत
साधक और
मिस्टिक, एडमंड
बक ने एक
किताब लिखी है,
कास्मिक
कांशसनेस। वह
बड़ा हैरान है।
न उसने कभी
कुछ साधा, न
कभी कोई
प्रार्थना की,
न कभी कोई
पूजा की, न
प्रभु में
विश्वास करता
है। अचानक एक
दिन रात, अंधेरी
रात में जंगल
से निकल रहा
है। एकांत है,
झींगुरों
की आवाज के
सिवाय कोई
आवाज नहीं है।
धीमी सी
चांदनी है।
हवा के झोंके
वृक्षों में आवाज
कर रहे हैं।
अचानक, घड़ा भी नहीं
फूटा--इस
महिला के
मामले में तो
घड़ा फूटा, इसलिए
घटना
घटी--अचानक, बक ने लिखा
है कि बस, न
मालूम क्या
हुआ। मेरी समझ
में न पड़ा कि
क्या हुआ, लगा
कि जैसे मैं
मर रहा हूं।
बैठ गया। एक
क्षण को ऐसा
लगा, सिंकिंग,
जैसे कोई
पानी में डूब
रहा हो, ऐसा
डूबता जा रहा
हूं। बहुत घबड़ाहट
हुई।
चिल्लाने की
कोशिश की।
लेकिन जैसा
कभी-कभी सपने
में हम सबको
हो जाता है।
चिल्लाने की कोशिश
करते हैं, आवाज
नहीं निकलती।
हाथ उठाने की
कोशिश करते हैं,
हाथ नहीं
उठता। तो बक
ने लिखा है, न हाथ उठे, न चिल्लाने
की आवाज
निकले। फिर यह
भी खयाल आया, कोई सुनने
को भी
झींगुरों के
अतिरिक्त
वहां है नहीं।
आवाज करने से
भी क्या होगा?
कब आंखें
बंद हो गईं।
कब मैं नीचे
गिर पड़ा। लगा
कि मर गया।
कब
मुझे होश आया, कोई आधी रात
हो गई, और
मैंने देखा कि
मैं दूसरा
आदमी हूं। वह
आदमी जा चुका
जो कल तक था।
वह संदेह करने
वाला, वह
अश्रद्धालु, वह
अविश्वासी, वह नास्तिक
नहीं है। कोई
और ही मेरे
भीतर आ गया
है। वृक्ष के
पत्ते-पत्ते
में परमात्मा
दिखाई पड़ रहा
है। झींगुरों
की आवाज ब्रह्मनाद
हो गई। और बक
जीवनभर कहता
रहा कि मेरी
समझ के बाहर
है कि उस दिन
क्या हुआ!
अनायास!
कृष्ण
कहते हैं, पिछले
जन्मों की
यात्रा, अगर
थोड़ी-बहुत
अधूरी रह गई
हो, कहीं
हम चूक गए हों,
तो किसी दिन
अनायास, किसी
जन्म में
अनायास बीज फूट
जाता है; दीया
जल जाता है; द्वार खुल
जाता है। और
कई बार ऐसा
होता है कि इंचभर
से ही हम चूक
जाते हैं। और इंचभर से
चूकने के लिए
कभी-कभी
जन्मों की
यात्रा करनी
पड़ती है।
कोलेरेडो
में अमेरिका
में जब पहली
दफा सोने की
खदानें मिलीं, तो एक बहुत
अदभुत घटना
घटी, मुझे प्रीतिकर
रही है। जब
पहली दफा सोना
मिला अमेरिका
के कोलेरेडो
में--और आज
सबसे ज्यादा
सोना कोलेरेडो
में है, सबसे
ज्यादा सोने
की खदानें
हैं--तो
किसानों को
ऐसे ही खेत
में काम करते
हुए सोना
मिलना शुरू हो
गया। पहाड़ों
पर लोग चढ़ते,
और सोना मिल
जाता। लोगों
ने जमीनें
खरीद लीं और अरबपति हो
गए।
एक
आदमी ने सोचा
कि छोटी-मोटी
जमीन क्या खरीदनी
है; एक पूरा
पहाड़ खरीद
लिया। सब
जितना पैसा था,
लगा दिया।
कारखाने थे, बेच दिए।
पूरा पहाड़
खरीद लिया। खरबपति हो
जाने की
सुनिश्चित
बात थी। जब
छोटे-छोटे खेत
में से खोदकर
लोग सोना
निकाल रहे थे,
उसने पूरा
पहाड़ खरीद
लिया।
लेकिन
आश्चर्य, पहाड़
पर खुदाई के
बड़े-बड़े यंत्र
लगवाए, लेकिन सोने
का कोई पता
नहीं! वह पहाड़
जैसे सोने से
बिलकुल खाली
था। एक टुकड़ा
भी सोने का
नहीं मिला।
कोई तीन करोड़
रुपया उसने
लगाया था पहाड़
खरीदने में, बड़ी मशीनरी
ऊपर ले जाने
में। लोग कुदालियों
से खोदकर सोना
निकाल रहे थे कोलेरेडो
में। सारी
दुनिया कोलेरेडो
की तरफ भाग
रही थी। और वह
आदमी बर्बाद
हो गया कोलेरेडो
में जाकर।
उसकी हालत ऐसी
हो गई कि
मशीनों को पहाड़
से उतारकर
नीचे लाने के
पैसे पास में
न बचे कि
मशीनें बेच
सके। ठप्प हो
गया।
अखबारों
में खबर दी
उसने कि मैं
पूरा पहाड़ मय
मशीनरी के
बेचना चाहता
हूं। उसके
मित्रों ने
कहा, कौन खरीदेगा!
सारे अमेरिका
में खबर हो गई
है कि उस पहाड़
पर कुछ नहीं
है। पर उसने
कहा कि शायद
कोई आदमी मिल जाए,
जो मुझसे
ज्यादा
हिम्मतवर हो।
कोई इतना पागल
नहीं है, लोगों
ने कहा। लेकिन
उसने कहा, एक
कोशिश कर लूं।
क्योंकि मैं
सोचता हूं, कोई मुझसे
हिम्मतवर मिल
सकता है।
और एक
आदमी मिल गया, जिसने तीन करोड़ रुपए
दिए और पूरा
पहाड़ और पूरी
मशीनरी
खरीदी। जब
उसने खरीदी, तो उसके घर
के लोगों ने
कहा कि तुम
बिलकुल पागल
हो गए हो।
दूसरा आदमी बर्बाद
हो गया; अब
तुम बर्बाद
होने जा रहे
हो! उस आदमी ने
कहा, जहां
तक पहाड़ खोदा
गया है, वहां
तक सोना नहीं
है, यह साफ
है। इसलिए
मामला काफी हो
चुका है। अब सोना
नीचे हो सकता
है। जहां तक
खोदा गया है, वहां तक
नहीं है। हम
भी इस झंझट से
बचे। वह आदमी
मेहनत कर चुका,
जो बेकार
मेहनत थी। अब
आगे मेहनत
करनी है। बहुत-सा
तो कट चुका है
पहाड़। कौन
जाने नीचे
सोना हो!
लोगों ने कहा
कि इस झंझट
में मत पड़ो।
और जमीनें
बहुत हैं, जिन
पर ऊपर ही
सोना है। पर
उस आदमी ने वह
पहाड़ खरीद ही
लिया।
और
आश्चर्य की
बात कि पहले
दिन की खुदाई
में ही कोलेरेडो
की सबसे बड़ी
सोने की खदान
मिली--सिर्फ
एक फुट मिट्टी
की पर्त और।
एक फुट मिट्टी
की पर्त और! और कोलेरेडो
का सबसे बड़ा
सोने का भंडार
उस पहाड़ पर
मिला। और वह
आदमी कोलेरेडो
का सबसे बड़ा खरबपति हो
गया।
एक
फुट! कभी-कभी
एक इंच से भी
चूक जाते हैं।
कभी-कभी आधा
इंच से भी चूक
जाते हैं।
तो
कृष्ण कहते
हैं, भय न करना
अर्जुन! कितना
ही चूक जाओ, जो तूने
किया है, वह
निष्फल नहीं
जाएगा। जितना
तूने किया है,
वह निष्फल
नहीं जाएगा।
जितना तूने
किया है, वह
अगले जन्म में
पुनः वहीं से
यात्रा शुरू
होगी। समय का
व्यवधान जरूर
पड़ जाएगा। शायद
तू समझ भी न
पाए, जब
अनायास घटना
घटे। शायद
तुझे प्रतीति
भी न हो सके कि
यह क्या हो
रहा है। लेकिन
जो तेरे साथ है,
जो तेरा
किया हुआ है, वह तेरे साथ
होगा।
योग की
दिशा में किया
गया कोई भी
प्रयत्न कभी खोता
नहीं। प्रभु
की दिशा में
उठाया गया कोई
भी कदम व्यर्थ
नहीं जाता है।
उतनी यात्रा
हो जाती है।
हम दूसरे हो
जाते हैं।
प्रभु की दिशा
में सोचा गया
विचार भी
व्यर्थ नहीं
जाता है, हम
उतने तो आगे
बढ़ ही जाते
हैं।
आश्वासन
दे रहे हैं
अर्जुन को कि
तू इन बातों में
मत पड़। तू इस
भांति मत सोच
कि कहीं पूरा
न हो सका, तो
क्या होगा!
जितना भी होगा,
उसकी भी
अपनी
अर्थवत्ता
है। जितना भी
तू कर लेगा, उतना भी
काफी है।
एक
मित्र मेरे
पास आए। वे
कहते हैं कि
उनका नब्बे
प्रतिशत मन
संन्यास लेने
का है, दस
प्रतिशत मन
संन्यास लेने
का नहीं है।
तो मैंने कहा,
फिर क्या
खयाल है? उन्होंने
कहा कि तो अभी
नहीं लेता
हूं। तो मैंने
कहा कि थोड़ा
सोच रहे हैं, कि न लेना भी
एक निर्णय है।
और दस प्रतिशत
के पक्ष में
निर्णय ले रहे
हैं, और
नब्बे
प्रतिशत के
पक्ष में
निर्णय नहीं
ले रहे हैं।
वे
कहते हैं कि
नब्बे
प्रतिशत
संन्यास लेने
का मन है, दस
प्रतिशत
संदेह मन को पकड़ता है, तो अभी नहीं
लेता हूं। पर
उनको पता नहीं
है कि यह भी
निर्णय है। न
लेना भी
निश्चित
निर्णय है। यह
निर्णय दस
प्रतिशत मन के
पक्ष में लिया
जा रहा है। और
नब्बे
प्रतिशत मन के
पक्ष में जो निर्णय
है, वह
नहीं लिया जा
रहा है। यह
नब्बे
प्रतिशत मन, मालूम होता
है, उनका नहीं
है; दस
प्रतिशत मन
उनका है।
मेरा
मतलब समझे! यह
नब्बे
प्रतिशत मन, मालूम पड़ता
है, उनका
नहीं है, कम
से कम इस जन्म
का नहीं है।
अन्यथा यह
कैसे हो सकता
था कि आदमी
नब्बे
प्रतिशत को
छोड़े और दस
प्रतिशत को पकड़े! दस
प्रतिशत उनका
है, इस
जन्म का है।
नब्बे
प्रतिशत उनके
पिछले जन्मों
की यात्रा का
है। उससे उन्हें
कोई कांशस
संबंध नहीं
मालूम पड़ता कि
वह मेरा है।
वह ऐसा लगता
है कि कोई
मेरे भीतर
नब्बे
प्रतिशत कह रहा
है कि ले लो।
लेकिन मैं रुक
रहा हूं। मैं
दस प्रतिशत के
पक्ष में हूं।
वे ज्यादा देर
न रुक पाएंगे,
क्योंकि वह
नब्बे
प्रतिशत
धक्के मारता
ही रहेगा। और
दस प्रतिशत
कितनी देर जीत
सकता है? कैसे
जीतेगा?
लेकिन
समय का
व्यवधान पड़
जाएगा। जन्म
भी खो सकते
हैं। और वह
नब्बे
प्रतिशत
प्रतीक्षा
करेगा; और
हर जन्म में
धक्का देगा।
हर दिन, हर
रात, हर
क्षण वह धक्के
मारेगा।
क्योंकि वह
नब्बे
प्रतिशत आपका
बड़ा हिस्सा है,
जिसे आप
नहीं पहचान पा
रहे हैं कि
आपका है। और यह
दस प्रतिशत, जिसको आप कह
रहे हैं मेरा,
यह सिर्फ इस
जन्म का
संग्रह है।
ध्यान
रहे, पिछले
जन्मों और इस
जन्म के बीच
में जो संघर्ष
है, उसी के
कारण मनुष्य
के कांशस
और अनकांशस
में फासला पड़ता
है। फ्रायड को
अंदाज नहीं है,
जुंग को
अंदाज नहीं
है। क्योंकि
जुंग और फ्रायड
की बहुत गहरी
पकड़ नहीं है।
बहुत ऊपर-ऊपर
उनकी खोज है।
फ्रायड के पास
जो उत्तर है, वह बहुत साफ
नहीं है, कि
मनुष्य के
चेतन और अचेतन
में फर्क
क्यों पड़ता है?
व्हाइ देअर इज़ डिस्टिंक्शन?
यह चेतन और
अचेतन जैसे दो
हिस्से क्यों
हैं मनुष्य के
मन के?
फ्रायड
इतना ही कह
सकता है कि
अचेतन वह
हिस्सा है, जिसको हमने
दबा दिया।
लेकिन क्यों
दबा दिया? और
फ्रायड यह भी
जानता है कि
वह अचेतन
हिस्सा नौ
गुना बड़ा है
चेतन से। तो
एक हिस्सा नौ गुने को
दबा सकेगा? इसमें बड़ी
भूल मालूम
पड़ती है।
फ्रायड कहता
है कि अचेतन
नौ गुना बड़ा
है। अनकांशस
नौ गुना बड़ा
है कांशस
से। जैसे कि
बर्फ का टुकड़ा
पानी में
तैरता हो, तो
जितना नीचे
डूब जाता है, उतना अचेतन
है, नौ
गुना ज्यादा।
जरा-सा ऊपर
निकला रहता है,
उतना चेतन
है। अगर नौ
गुना अचेतन
वही हिस्सा है
जो आदमी ने
दबा दिया है, तो बड़े
आश्चर्य की
बात है कि
चेतन छोटी-सी
ताकत बड़ी ताकत
को दबा पाती
है?
नहीं; फ्रायड की
थोड़ी भूल
मालूम पड़ती
है। यह बात सच है,
यह दमन की
बात में थोड़ी
सच्चाई है।
लेकिन अचेतन
असल में वह
हिस्सा है मन
का, जो
हमारे अतीत जन्मों
से निर्मित
होता है; और
चेतन वह
हिस्सा है
हमारे मन का, जो हमारे इस
जन्म से
निर्मित होता
है।
इस
जन्म के बाद
हमने जो अपना
मन बनाया है, शिक्षा पाई
है, संस्कार
पाए हैं, धर्म,
मित्र, प्रियजन,
अनुभव, उनका
जो जोड़ है, वह
हमारा मन है, कांशस माइंड है।
और उसके पीछे
छिपी हुई जो
अंतर्धारा है
हमारे अचेतन
की, अनकांशस
माइंड की, वह
हमारा अतीत
है। वह हमारे
अतीत जन्मों
का समस्त
संग्रह है।
निश्चित
ही, वह
ज्यादा
ताकतवर है, लेकिन
ज्यादा
सक्रिय नहीं
है। इन दोनों
बातों में
फर्क है।
ज्यादा ताकत
से जरूरी नहीं
है कि
सक्रियता ज्यादा
हो। कम ताकत
भी ज्यादा
सक्रिय हो
सकती है। असल
में जो हमने
इस जन्म में
बनाया है, वह
ऊपर है; वह
हमारे मन का
ऊपरी हिस्सा
है, जो
हमने अभी
बनाया है। और
जो हमारे अतीत
का है, वह
उतना ही गहरा
है। जो हमने
जितने गहरे
जन्मों में
बनाया है, उतना
ही गहरा दबा
है।
जैसे
कोई आदमी के
घर में धूल की
पर्त जमती चली
जाए वर्षों तक, तो आज सुबह
जो धूल उसके
घर में आएगी, वह ऊपर होगी,
दिखाई
पड़ेगी। और अगर
हवा का झोंका
आएगा, तो
वर्षों की
नीचे जो जमी
धूल है, उसको
पता भी नहीं
चलेगा। ऊपर की
हवा ही सक्रिय
होती दिखाई
पड़ेगी, ऊपर
की ही धूल उड़ने
लगेगी। नीचे
की धूल तो
निश्चिंत
विश्राम करेगी।
वह बहुत गहरी
बैठ गई है; बहुत
गहरी; अब
वहां कोई
झोंका नहीं
पहुंचता है।
कभी-कभी कोई
झोंका वहां तक
पहुंच जाता
है। जब हम
कहते हैं कि
कोई विचार
हमारे जीवन
में प्रवेश
करता है, कोई
प्रेरणा, कोई
इंसपेरेशन,
कोई घटना, कोई व्यक्ति,
कोई शब्द, कोई ध्वनि, कोई चोट जब
हमारे जीवन
में गहरी
प्रवेश करती है
और हमारी
पर्तों को फाड़कर
भीतर चली जाती
है, तब उस
भीतर की आवाज
आती है।
उन
मित्र को
नब्बे
प्रतिशत की जो
आवाज आ रही है, वह किसी
गहरी चोट के
कारण से आ रही
है। लेकिन वे
चोट को झुठलाने
में लगे हैं।
वे बड़े दुख
में पड़ गए
हैं। दुख भारी
है। और मन में
विचार आता है
कि आत्महत्या
कर लें।
ध्यान
रहे, जब किसी
आदमी के जीवन
में
आत्महत्या का
विचार आता है,
वही क्षण
संन्यास में
रूपांतरित
किया जा सकता
है। तत्काल!
क्योंकि
संन्यास का
अर्थ है, आत्मरूपांतरण।
जब
आदमी
आत्महत्या
करना चाहता है, तो उसका
मतलब यह है कि
इस आत्मा से
ऊब गया है, इससे
ऊब गया है, इसको
खतम कर दूं।
इसके दो ढंग
हैं। या तो
शरीर को काट
दो; इससे
आत्मा खतम
नहीं होती, सिर्फ धोखा
पैदा होता है।
वही आत्मा नए
शरीर में
प्रवेश करके
यात्रा शुरू
कर देगी।
दूसरा जो सही
रास्ता है, वह यह है कि
इस आत्मा को
ट्रांसफार्म
करो, रूपांतरित
करो, नया
कर लो। शरीर
को मारने से
कुछ न होगा, आत्मा को ही
बदल डालो,
वह योग है।
इसलिए
एक बहुत मजे
की बात आपको
कहूं, जिस
देश में
ज्यादा
संन्यासी
होते हैं, उस
देश में आत्महत्याएं
कम होती हैं।
और जिस देश
में संन्यासी
कम होते हैं, उसमें उतनी
ही मात्रा में
आत्महत्याएं
बढ़ जाती हैं।
आप
जानकर यह
हैरान होंगे
कि अगर
अमेरिका और भारत
की आत्महत्या
और
संन्यासियों
का आंकड़ा
बिठाया जाए, तो बराबर
अनुपात होगा,
बराबर, एक्जेक्ट! जितने लोग
यहां ज्यादा
मात्रा में
संन्यास लेते
हैं, उतने
ज्यादा लोग
वहां
आत्महत्या
करते हैं। क्योंकि
आत्महत्या का
क्षण दो तरफ
जा सकता है। वह
एक क्राइसिस
है, एक
संकट है। या
तो शरीर को मिटाओ,
या स्वयं को
मिटाओ।
और ये दो
दिशाएं हैं।
शरीर
को मिटाने से
कुछ भी नहीं
होता। सिर्फ
तीस-पैंतीस
साल के बाद आप
वहीं फिर खड़े
हो जाएंगे। एक
व्यर्थ की
लंबी यात्रा
होगी। गर्भाधारण
होगा। फिर
बच्चे
बनेंगे। फिर
शिक्षा होगी।
फिर उपद्रव सब
चलेगा। और फिर
एक दिन आप
पाएंगे कि ठीक
यही क्षण आ
गया, आत्महत्या
का। हां, तीस-चालीस
साल बाद आएगा।
यह इतना समय
व्यर्थ जाएगा।
संन्यास
का अर्थ है, आ गई वह घड़ी, जहां हम
जैसे हैं, उससे
हम तृप्त न
रहें। जैसे हम
हैं, अब
उसी को आगे
खींचने में
कोई प्रयोजन न
रहा। उसमें
बदलाहट जरूरी
है। तो स्वयं
को बदल डालो।
लेकिन
नब्बे
प्रतिशत मन
कहता है, बदल
डालो। पर
वह पर्त गहरी
है, नीचे
की है, उसको
आप अपनी नहीं
मान पाते। वह
जो ऊपर की पर्त
है, उससे
आपकी पहचान
है। अभी ताजी
है। वह आपको
अपनी लगती है।
मन का ऐसा
नियम है।
मन का
ऐसा नियम है, जो ऊपर है, वह अपना
मालूम पड़ता
है। क्योंकि
मन ऊपर-ऊपर जीता
है, सतह पर,
लहरों पर।
जो गहरा है, वह अपना
नहीं मालूम पड़ता
है।
इसलिए
बहुत दफे
भ्रांति होती
है। जब बहुत
गहरे से आवाज
आती है--वह
स्वयं के ही
भीतर से आती
है--जब बहुत
गहरे से आवाज
आती है, तो
साधक को लगता
है, कोई
ऊपर से बोल
रहा है।
परमात्मा बोल
रहा है।
परमात्मा
कभी नहीं
बोलता।
परमात्मा तो
पूरा अस्तित्व
है, वह कभी नहीं
बोलता, वह
सदा मौन है।
लेकिन स्वयं
के ही इतने
भीतर से आवाज
आती है कि वह
लगती है, किसी
और की आवाज है,
इतने दूर से
आती मालूम
पड़ती है। हम
ही अपने से इतने
दूर चले गए
हैं। अपने घर
से हम इतने
दूर चले गए
हैं कि अपने
ही घर के भीतर
से आई हुई
आवाज कहीं दूर,
किसी और की
आवाज मालूम
पड़ती है। वह
अपनी ही आवाज
है, अपनी
ही गहरे की
आवाज है, अपनी
ही गहराइयों
की आवाज है।
पर हमारी
आइडेंटिटी, हमारा
तादात्म्य
होता है ऊपर
की पर्त से, उसको हम
कहते हैं, मैं।
कृष्ण
कहते हैं, अर्जुन, तू
भयभीत न हो।
जो तू कर सकता
है इस जीवन
में, कर। अगले
जीवन में वह
तुझे अनायास
मिल जाएगा।
इसलिए
भी कहते हैं, यह भी मैं
आपको याद दिला
दूं, कि
अगर कृष्ण
जैसा आदमी यह
बात कह दे, तो
यह बहुत गहरे
प्रवेश कर
जाती है। और
संभावना यह
है--और इसका एक
नियम और एक
सूत्र और एक
व्यवस्था और
एक तकनीक है।
कृष्ण क्यों
कहते हैं यह
बात? महावीर
क्यों कहते
हैं? बुद्ध
क्यों कहते
हैं? क्यों
दोहराते हैं
ये सारे लोग
कि तुम जितना
करोगे, वह
अगले जन्म में
अनायास
तुम्हें मिल
जाएगा?
वे
इसलिए कहते
हैं कि बुद्ध, महावीर या
कृष्ण जैसे
व्यक्ति के
संपर्क में आपके
मन की जो ऊपरी
पर्त है, वह
खुल जाती है
और भीतर तक आप
सुन पाते हैं।
उनकी मौजूदगी कैटेलिटिक
एजेंट का काम
करती है। उनकी
मौजूदगी में,
आपके भीतर
जो दरवाजे आप
नहीं खोल पाते,
खुल जाते
हैं। उनकी
मौजूदगी आपको
बल दे जाती है,
शक्ति दे
जाती है, साहस
दे जाती है, भरोसा दे
जाती है।
तो
कृष्ण जब यह
कह रहे हैं कि
इस जन्म का जो
है अगले जन्म
में अनायास मिल
जाएगा, यह
बात अगर
अर्जुन के मन
में बैठ जाए, तो अगले
जन्म में जब
अनायास
मिलेगा, तो
उसे याद भी आ
जाएगी। इसलिए
भी यह बात कही
जाती है। तब
अगले जन्म में
वह याद कर
सकेगा कि निश्चित
ही, आज
अनायास यह घट
रहा है, यह कृष्ण
ने कहा था। वह
पहचान पाएगा;
ये शब्द
उसके भीतर बैठ
जाएंगे।
शब्दों
की भी
गहराइयां
हैं।
व्यक्तियों
की गहराइयों
के साथ शब्दों
की गहराइयां
बढ़ती हैं। जब
कोई आदमी कंठ
से बोलता है, तो आपके कान
से गहरा कभी
नहीं जाता है।
जब कोई आदमी
हृदय से बोलता
है, तो
आपके हृदय तक
जाता है। जब
कोई आदमी
प्राण से
बोलता है, तो
आपके प्राण तक
जाता है। जब
कोई आदमी
आत्मा से
बोलता है, तो
आपकी आत्मा तक
जाता है। और
जब कोई
व्यक्ति अपने
परमात्मा से
बोलता है, तो
आपके
परमात्मा तक
जाता है।
गहराई
उतनी ही होती
है आपके भीतर, जितनी कि
बोलने वाले की
गहराई होती
है। बोलने
वाले की गहराई
से ज्यादा
आपके भीतर
नहीं जा सकता।
हां, बोलने
वाले की गहराई
तक भी न जाए, यह हो सकता
है। यह हो
सकता है कि
कोई आत्मा से
बोले, लेकिन
आपके कानों तक
जाए, क्योंकि
आपके कानों के
आगे मार्ग ही
बंद है।
तो
ध्यान रखना, बोलने वाले
की गहराई से
ज्यादा गहरा
आपके भीतर
नहीं जा सकता,
लेकिन
बोलने वाले की
गहराई से कम
गहरा आपके भीतर
जा सकता है।
इसलिए
पुराने दिनों
में एक
व्यवस्था थी
कि गुरु के
पास शिष्य
बहुत निकट में
रहे। निकट में
रखने का और
कोई कारण न था; सिर्फ यही
कारण था कि
किसी क्षण में,
किसी
मोमेंट में
शिष्य जब इतने
तालमेल में आ
जाए गुरु से, इतनी
हार्मनी और टयूनिंग
में आ जाए कि
गुरु अपनी
गहरी से गहरी
बात उससे कह
सके। वह क्षण
कब आएगा, कहा
नहीं जा सकता।
आप
चौबीस घंटे
प्रेम के क्षण
में नहीं
होते। चौबीस
घंटे में कोई
क्षण होता है, जब आपको
लगता है, आप
ज्यादा
प्रेमपूर्ण
हैं। चौबीस
घंटे में कई
क्षण ऐसे होते
हैं, जब
आपको लगता है
कि आप ज्यादा
क्रोधपूर्ण
हैं।
भिखारी
सुबह आपके
दरवाजे पर भीख
मांगते हैं, वे जानते
हैं कि सुबह
दया की ज्यादा
संभावना है
सांझ की बजाय।
सांझ को
भिखारी भीख
मांगने नहीं
आता, क्योंकि
वह जानता है
कि सांझ तक आप दिनभर भीख मांगकर
खुद इतने
परेशान हो गए
हैं कि आपसे
कोई आशा नहीं
की जा सकती
है। सुबह आप आ
रहे हैं एक
दूसरे लोक से,
स्वयं के
भीतर की
गहराइयों से,
जहां मालिक
का निवास है, जहां प्रभु
रहता है।
सुबह-सुबह के
क्षण में आपमें
भी थोड़ी मालकियत
होती है, थोड़ा
स्वामित्व
होता है। आप
भी भिखारी
नहीं होते।
सांझ तक, बाजार
के धक्के, दफ्तर
की दौड़, सड़कों
की चोट, सब
उपद्रव सहकर
आप भिखारी की
हालत में
पहुंच जाते
हैं। सांझ आपकी
हैसियत नहीं
होती कि दे
सकें।
इसलिए
सांझ, दुनिया
में किसी कोने
में भीख नहीं
मांगी जाती।
भिखारी भी समझ
गए हैं लंबे
अनुभव से मनसविज्ञान,
कि आदमी की
बुद्धि कब काम
कर सकती है
दया के लिए।
ठीक
ऐसे ही गहराई
के क्षण भी
होते हैं।
इसलिए गुरु, पुराना गुरु
चाहता था कि
शिष्य निकट
रहे, बहुत
निकट रहे।
ताकि किसी ऐसे
क्षण में, जब
भी उसे लगे कि
अभी द्वार
खुला है, वह
कुछ डाल दे।
और वह भीतर की
गहराई तक
पहुंच जाए।
कृष्ण
को लगा है कि
यह क्षण
अर्जुन का
गहरा है।
क्यों? क्योंकि
अर्जुन पहली
दफा उत्सुक हो
रहा है कुछ
करने को। भय
उसका
उत्सुकता की
वजह से ही है। अगर
उत्सुक न होता,
तो वह यह भी
न पूछता कि
कहीं मैं बिखर
तो न जाऊंगा!
कहीं ऐसा तो न
होगा कि मेरी
नाव रास्ते
में ही डूब
जाए! इसका
पक्का अर्थ यह
है कि दूसरी
तरफ जाने की
पुकार उसके मन
में आ गई।
दूसरे किनारे की
खोज का आह्वान
मिल गया।
चुनौती कहीं
स्वीकार कर ली
गई है। इसीलिए
तो भय उठा रहा
है। इसीलिए भय
उठा रहा है।
नहीं तो भय भी
नहीं उठाता।
वह कहता कि
ठीक है, आप
जो कहते हैं, बिलकुल ठीक
है।
अक्सर
जो लोग एकदम
से कह देते
हैं कि बिलकुल
ठीक है, वे
वे ही लोग
होते हैं, जिन्हें
कोई मतलब नहीं
होता। मतलब हो,
तो एकदम से
नहीं कह सकते
कि ठीक है।
क्योंकि तब
प्राणों का
सवाल है, कमिटमेंट है। फिर तो
एक गहरा कमिटमेंट
है। आदमी कहता
है, बिलकुल
ठीक है। घर
चला जाता है।
अक्सर जो लोग कहते
हैं, बिलकुल
ठीक है बिना
सोचे-समझे, बिना भयभीत
हुए--और यह
मामला ऐसा है
कि भयभीत होगा
ही कोई। यह
पूरी जिंदगी
के बदलने का
सवाल है। यह
जिंदगी और मौत
का दांव है, और भारी
दांव है।
अर्जुन
जब चिंतित हो
गया, यह
चिंतित होना
शुभ लक्षण है।
यह चिंता शुभ
लक्षण है।
इसलिए कृष्ण
ने समझा कि
अभी वह द्वार खुला
है, अब वे
उससे कह दें।
कह दें उससे
कि घबड़ा मत।
भरोसा रख। जो
तू करेगा, वह
अगले जन्म में
तुझे मिल
जाएगा, अगर
यात्रा पूरी
भी न हुई तो।
कुछ खोता
नहीं। अगले
जन्म में
सुगति मिल
जाती है। वैसा
वातावरण मिल
जाता है, जहां
वह फूल अनायास
खिल जाए। वैसे
लोग मिल जाते
हैं।
तिब्बत
में एक बहुत
पुरानी
योगियों की
कहावत है, डू नाट सीक
दि मास्टर, गुरु को
खोजो मत।
व्हेन दि डिसाइपल
इज़ रेडी,
दि मास्टर एपियर्स।
जब शिष्य
तैयार है, तो
गुरु मौजूद हो
जाता है। बहुत
पुरानी, कोई
छः हजार वर्ष
पुरानी किताब
में यह सूत्र
है इजिप्त की।
खोजना मत गुरु
को। जब शिष्य
तैयार है, तो
गुरु मौजूद हो
जाता है।
क्योंकि
जीवन के बहुत
अंतर्नियम
हैं, जिनका
हमें खयाल भी
नहीं होता, जिनका हमें
पता भी नहीं
होता। वे नियम
काम करते रहते
हैं। आपकी
जितनी
योग्यता होती
है, उस
योग्यता की
व्यवस्था के
लिए परमात्मा
सदा ही साधन
जुटा देता है।
हां, आप ही उनका
उपयोग न करें,
यह हो सकता
है। यह हो
सकता है कि आप
कहें कि नहीं,
अभी नहीं।
आपका ही वह जो
ऊपर का मन है, बाधा डाल
दे। आपके भीतर
के मन को
देखकर तो अस्तित्व
ने व्यवस्था
जुटा दी, लेकिन
आपका ऊपर का
मन बाधा डाल
सकता है।
बुद्ध आपके
गांव से गुजरें
और आप कहें कि
आज तो मुश्किल
है। आज तो
दुकान पर
ग्राहकों की
भीड़ ज्यादा
है।
कैसे
आश्चर्य की
बात है! ऐसा हुआ
है। बुद्ध
गांव से गुजरे
हैं। पूरा
गांव सुनने
नहीं आया है।
आखिरी वक्त; बुद्ध के
पास एक आदमी
भागता हुआ
पहुंचा, सुभद्र।
बुद्ध अपने
भिक्षुओं से
विदा ले चुके
थे। और
उन्होंने कहा
कि अब मैं
शांत होता हूं,
शून्य होता
हूं, निर्वाण
में प्रवेश
करता हूं। अब
मैं समाधि में
जाता हूं।
तुम्हें कुछ
पूछना तो नहीं
है?
भिक्षु
इकट्ठे थे, कोई लाख
भिक्षु
इकट्ठे थे।
उन्होंने कहा,
हमने इतना
पाया, हम
उसको ही नहीं
पचा पाए। हमने
इतना समझा, हम उसको ही
कहां कर पाए!
अब हम विदा
होते आपको और
कष्ट न देंगे।
हमें कुछ
पूछना नहीं
है। आपने सब बिना
पूछे दिया है।
बिना मांगे
आपने बरसाया है।
सलाह नहीं
मांगी थी, तो
भी सलाह दी
है। आपके हम
सिर्फ ऋणी हैं,
अनुगृहीत
हैं। हम सिर्फ
रो सकते हैं, और कुछ कह
नहीं सकते।
बुद्ध
ने तीन बार
पूछा। बुद्ध
का नियम था, हर बात तीन
बार पूछते थे।
अनुकंपा
अदभुत है बुद्ध
लोगों की। वे
तीन बार पूछते
थे। पूछना है
कुछ? सामने
वाला कहता, नहीं। तो भी
बुद्ध कहते, पूछना है
कुछ? सामने
वाला कहता, नहीं। तो भी
बुद्ध कहते, पूछना है
कुछ? सामने
वाला कहता, नहीं। तब
बुद्ध कहते, अब तू ही
जिम्मेवार
होगा अपनी
नहीं का। तीन
बार बहुत हो
गया। तीन बार
पूछकर बुद्ध
वृक्ष के पीछे
चले गए। आंखें
बंद करके वे
अपने प्राणों
को विसर्जित
करने लगे।
जो लोग
भी स्वयं को
जान लेते हैं, उनके लिए
मृत्यु अपने
ही हाथ का खेल
है। वे मृत्यु
में ऐसे ही
प्रवेश करते
हैं, जैसे
आप किसी
पुराने मकान
को छोड़कर नए
मकान में
प्रवेश करते हैं।
आप नहीं करते
ऐसा। आपको तो
एक मृत्यु से दूसरी
मृत्यु में
घसीटकर ले
जाना पड़ता है,
बड़ी
मुश्किल से।
क्योंकि आप
पुराने मकान
को ऐसा जोर से पकड़ते हैं
कि छोड़ते ही
नहीं।
हालांकि वह
मकान बेकार हो
चुका है; सड़ चुका
है; अब
उसमें जीवन
संभव नहीं है।
मृत्यु आती ही
तभी है, जब
जीवन एक मकान
में असंभव हो
जाता है।
लेकिन
आप कहते हैं, चाहे असंभव
हो जाए, चाहे
मुझे अस्पताल
में उलटा-सीधा
लटका दो; चाहे
मेरी आंख बंद
रहे, नलियां मेरी नाक
में पड?ी
रहें आक्सीजन
की, लेकिन
मुझे बचाओ।
देखा है
अस्पताल में!
लटके हैं लोग!
सिर नीचा है, पैर ऊपर
हैं। वजन बंधे
हैं, नाक
में नलियां
लगी हैं।
इंजेक्शन दिए
जा रहे हैं।
मगर वे कहते
हैं कि बचाओ।
मकान सड़
गया है बिलकुल;
बचने के
योग्य नहीं।
मौत कृपा करती
है कि चलो, ले
चलें।
तुम्हें नया
मकान दे दें।
वे कहते हैं, पुराना
मकान। पता
नहीं पुराना
भी छूट जाए और नया
न मिले! बेहोश
पड़े रहेंगे, लेकिन बचाओ।
मरना नहीं है।
जो
आदमी जान लेता
है, वह अपने
को सहज, सहज,
मकान पूरा
हुआ तो वह मौत
को खुद कहता
है, अब ले
चल। यह मकान
बेकार हो गया।
तो
बुद्ध अपने को
विसर्जित
करने लगे। नए
मकान में अब
वे जाने को
नहीं हैं, क्योंकि अब
नए मकान का
कोई सवाल नहीं
रहा। मकानों
की जरूरत मन
को रहती है।
अब मन
विसर्जित हो
चुका है। अब बुद्ध
परिनिर्वाण
में प्रवेश कर
रहे हैं। महाशून्य
में, अस्तित्व
में उनकी
यात्रा हो रही
है। सरिता सागर
में गिर रही
है, सदा के
लिए।
तब
सुभद्र नाम का
आदमी भागा हुआ
पहुंचा और
उसने कहा कि
बुद्ध कहां
हैं? वे दिखाई
नहीं पड़ते? लोग रो रहे
हैं। क्या
उनका अंत हो
गया? एक
भिक्षु ने कहा,
अंत तो नहीं
हुआ है। लेकिन
वे अंत में
प्रवेश कर रहे
हैं। पर, सुभद्र
ने कहा, मुझे
कुछ पूछना है।
उन लोगों ने
कहा, तूने
बड़ी देर कर दी
सुभद्र! और
जहां तक हमें
याद है, बुद्ध
तेरे गांव से
कम से कम तीन
या चार बार गुजरे
होंगे, तब
तू नहीं आया!
उसने
कहा, दुकान पर
बड़ी भीड़ थी।
बुद्ध आते थे
जरूर, लेकिन
कभी ग्राहक
होते; कभी
पत्नी बीमार
पड़ जाती; कभी
बेटे को कुछ
काम आ जाता; कभी शादी हो
जाती। कभी तो
ऐसा भी होता
कि बहुत धूप
होती, तो
सोचता कि कौन
जाए इतनी धूप
में; कभी
शीतकाल में
आएंगे, तब
चला जाऊंगा।
फिर कभी
शीतकाल में भी
आए, तो
इतनी सर्दी
होती कि घर
में बिस्तर
में पड़े रहने
का मन होता।
सोचता कि कौन
जाए। अब की
दफा जब धूप
में आएंगे, तब चला जाऊंगा।
ऐसे ही तीस
साल बुद्ध
मेरे गांव से
निकले जरूर।
मेरे गांव के
पास से निकले।
मैं उन गांवों
से निकला
जिनमें बुद्ध
ठहरे हुए थे।
लेकिन नहीं; मैंने सोचा,
फिर, फिर
मिल लेंगे। आज
मुझे खबर मिली
कि बुद्ध तो विसर्जित
हो रहे हैं।
तो मैं भागा
हुआ आया हूं।
मुझे पूछ लेने
दें।
भिक्षुओं
ने कहा, सुभद्र,
इसमें
किसका कसूर है?
लेकिन
बुद्ध की
अनुकंपा, कि
बुद्ध वृक्ष
के पास से
उठकर बाहर आ
गए। और उन्होंने
कहा कि मेरे
जीते जी कोई
आदमी खाली हाथ
लौट जाए, पूछने
आए और लौट जाए!
अभी मैं सुन
सकता था। तो मेरे
ऊपर सदा के
लिए एक इल्जाम
रह जाएगा कि
कोई जानने आया
था, और मेरे
पास था, जो
मैं उसे कह
देता। कोई
हर्ज नहीं
सुभद्र, तीस
साल में भी
आया, तो
जल्दी आ गया।
कुछ लोग तीस
जन्मों में भी
नहीं आते!
कृष्ण
एक शुभ क्षण
देखकर अर्जुन
को कहते हैं कि
उसके भीतर चली
जाए यह बात।
नहीं; कुछ
नष्ट नहीं
होगा अर्जुन!
तू जो भी कमाएगा,
वह तेरी संपत्ति
बन जाएगी।
और
ध्यान रहे, और सब तरह की संपत्तियां
इसी जन्म में
छूट जाती हैं,
सिर्फ योग
में कमाई गई
संपत्ति अगले
जन्म में यात्रा
करती है। और
सब संपत्तियां
इसी जन्म में
छूट जाती हैं।
कमाया हुआ धन
छूट जाएगा।
बनाए हुए मकान
छूट जाएंगे।
इज्जत, यश
छूट जाएगा।
लेकिन जो बहुत
गहरे तल पर
किए गए कर्म
हैं, शुभ
या अशुभ; योग
के पक्ष में
या योग के
विपक्ष
में--पक्ष में,
तो संपत्ति
बन जाएगी; विपक्ष
में, तो
विपत्ति बन
जाएगी। अगर
योग के विपक्ष
में जीए हैं, तो दिवालिया
निकलेंगे और
अगले जन्म में
अनायास
पाएंगे कि
दिवालिया हैं।
और योग के
पक्ष में कुछ
किया है, तो
एक महासंपत्ति
के मालिक होकर
गुजरेंगे और
अगले जन्म में
पाएंगे कि
सम्राट हैं।
भिखारी
के घर में भी
योग की
संपत्ति वाला
आदमी पैदा हो, तो सम्राट
मालूम होता
है। और सम्राट
के घर में भी
योग की
संपत्ति से
हीन आदमी पैदा
हो, तो भिखारी
मालूम होता
है। एक आंतरिक
संपदा, उसकी
ही बात कृष्ण
ने कही है और
अर्जुन को भरोसा
दिलाया है।
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते
ह्यवशोऽपि
सः।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते।।
44।।
और
वह विषयों के
वश में हुआ भी
उस पहले के
अभ्यास से ही, निःसंदेह
भगवत की ओर
आकर्षित किया
जाता है, तथा
समत्वबुद्धि
रूप योग का
जिज्ञासु भी
वेद में कहे
हुए सकाम कर्मों
के फल का
उल्लंघन कर
जाता है।
दो
बातें कृष्ण
और जोड़ते
हैं। वे कहते
हैं कि पिछले
जन्मों में
जिसने थोड़ी-सी
भी यात्रा
प्रभु की दिशा
में की हो, वह उसकी
संपदा बन गई है।
अगले जन्मों
में विषय और
वासना में
लिप्त हुआ भी
प्रभु की कृपा
का पात्र बन
जाता है।
अगले
जन्म में
विषय-वासना
में लिप्त हुआ
भी--वैसा
व्यक्ति
जिसके पिछले
जन्मों की
यात्रा में
योग का
थोड़ा-सा भी
संचय है, जिसने
थोड़ा भी धर्म
का संचय किया,
जिसका थोड़ा
भी पुण्य अर्जन
है--वह
विषय-वासनाओं
में डूबा हुआ
भी, प्रभु
की कृपा का
पात्र बना
रहता है। वह
उतना-सा जो
उसका किया हुआ
है, वह
दरवाजा खुला
रहता है। बाकी
उसके सब
दरवाजे बंद
होते हैं। सब
तरफ अंधकार
होता है, लेकिन
एक छोटे-से
छिद्र से
प्रभु का
प्रकाश उसके
भीतर उतरता
है।
और ध्यान
रहे, गहन
अंधकार में
अगर छप्पर के
छेद से भी
रोशनी की एक
किरण आती हो, तो भी भरोसा
रहता है कि
सूरज बाहर है
और मैं बाहर
जा सकता हूं!
अंधकार
आत्यंतिक
नहीं है, अल्टिमेट नहीं है।
अंधकार के
विपरीत भी कुछ
है।
एक
छोटी-सी किरण
उतरती हो
छिद्र से घने
अंधकार में, तो वह
छोटी-सी किरण
भी उस घने
अंधकार से
महान हो जाती
है। वह घना
अंधकार उस
छोटी-सी किरण
को भी मिटा
नहीं पाता; वह छोटी-सी
किरण अंधकार
को चीरकर
गुजर जाती है।
कितना
ही
विषय-वासनाओं
में डूबा हो
वैसा आदमी अगले
जन्मों में, लेकिन अगर
छोटे-से छिद्र
से भी, जो
उसने निर्मित
किया है, प्रभु
की कृपा उसको
उपलब्ध होती
रहे, तो
उसके
रूपांतरण की
संभावना सदा
ही बनी रहती है।
वह सदा ही
प्रभु-कृपा को
पाता रहता है।
जगह-जगह, स्थान-स्थान,
स्थितियों-स्थितियों
से प्रभु की
कृपा उस पर बरसती
रहती है। न
मालूम कितने
रूपों में, न मालूम
कितने आकारों
में, न
मालूम कितने
अनजान
मार्गों और
द्वारों से, और न मालूम
कितनी अनजान
यात्राएं
प्रभु की कृपा
से उसकी तरफ
होती रहती
हैं। बाहर वह
कितना ही उलझा
रहे, भीतर
कोई कोना
प्रभु का
मंदिर बना
रहता है। और
वह बहुत बड़ा
आश्वासन है।
कृष्ण
कहते हैं, अर्जुन, वह
छोटा-सा छिद्र
भी अगर
निर्मित हो
जाए, तो
तेरे लिए बड़ा
सहारा होगा।
और एक
दूसरी बात, और भी
क्रांतिकारी,
बहुत
क्रांतिकारी
बात कहते हैं।
कहते हैं, योग
का जिज्ञासु
भी, जस्ट एन इंक्वायरर;
योग का
जिज्ञासु
भी--मुमुक्षु
भी नहीं, साधक
भी नहीं, सिद्ध
भी
नहीं--मात्र
जिज्ञासु; जिसने
सिर्फ योग के
प्रति
जिज्ञासा भी
की हो, वह
भी वेद में
बताए गए सकाम
कर्मों का
उल्लंघन कर
जाता है, उनसे
पार निकल जाता
है।
वेद
में कहा है कि
यज्ञ करो, तो ये फल
होंगे। ऐसा
दान करो, तो
ऐसा स्वर्ग
होगा। इस
देवता को ऐसा
नैवेद्य चढ़ाओ,
तो स्वर्ग
में यह फल मिलेगा।
ऐसा करो, ऐसा
करो, तो
ऐसा-ऐसा फल
होता है सुख
की तरफ। वेद
में बहुत-सी
विधियां बताई
हैं, जो
मनुष्य को सुख
की दिशा में
ले जा सकती
हैं। कारण है
बताने का।
वेद
अर्जुन जैसे
स्पष्ट
जिज्ञासु के
लिए दिए गए
वचन नहीं हैं।
वेद इनसाइक्लोपीडिया
है, वेद
विश्वकोश है। समस्त
लोगों के लिए,
जितने तरह
के लोग पृथ्वी
पर हो सकते
हैं, सब के
लिए सूत्र वेद
में उपलब्ध
हैं। गीता तो स्पेसिफिक
टीचिंग है, एक विशेष
शिक्षा है। एक
विशेष
व्यक्ति
द्वारा दी गई;
विशेष
व्यक्ति को दी
गई। वेद किसी
एक व्यक्ति के
द्वारा दी गई
शिक्षा नहीं
है; अनेक
व्यक्तियों
के द्वारा दी
गई शिक्षा है।
एक व्यक्ति को
दी गई शिक्षा
नहीं, अनेक
व्यक्तियों
को दी गई
शिक्षा है।
और वेद
विश्वकोश है। क्षुद्रतम
व्यक्ति से
श्रेष्ठतम
व्यक्ति के
लिए वेद में
वचन हैं। क्षुद्रतम
व्यक्ति से!
उस आदमी के
लिए भी वेद
में वचन हैं, जो कहता है
कि हे प्रभु, हे देव, हे
इंद्र! बगल का
आदमी मेरा
दुश्मन हो गया
है; तू
कृपा कर और
इसकी गाय के
दूध को नदारद
कर दे। उसके
लिए भी
प्रार्थना है!
कुछ ऐसा कर कि
इस पड़ोसी की
गाय दूध देना
बंद कर दे।
सोच भी
न पाएंगे।
दुनिया का कोई
धर्मग्रंथ इतनी
हिम्मत न कर
पाएगा कि इसको
अपने में
सम्मिलित कर
ले। लेकिन वेद
उतने ही इनक्लूसिव
हैं, जितना इनक्लूसिव
परमात्मा है।
जब
परमात्मा इस
आदमी को अपने
में जगह दिए
हुए है, तो
वेद कहते हैं,
हम भी जगह
देंगे। जब
परमात्मा
इनकार नहीं
करता कि इस
आदमी को हटाओ,
नष्ट करो; यह आदमी
क्या बातें कर
रहा है! यह कह
रहा है कि हे
इंद्र, मैं
तेरी पूजा
करता हूं, तेरी
प्रार्थना, तेरी अर्चना,
तेरे
नैवेद्य चढ़ाता
हूं, तेरे
लिए यज्ञ करता
हूं, तो
कुछ ऐसा कर कि
पड़ोसी के खेत
में इस बार
फसल न आए।
दुश्मन के खेत
जल जाएं, हमारे
ही खेत में
फसलें पैदा
हों।
दुश्मनों का
नाश कर दे।
जैसे बिजली
गिरे किसी पर
और वज्राघात
होकर वह नष्ट
हो जाए, ऐसा
उस दुश्मन को
नष्ट कर दे।
धर्मग्रंथ, और ऐसी बात
को अपने भीतर
जगह देता है!
शोभन नहीं
मालूम पड़ता।
कृष्ण को भी
शोभन नहीं
मालूम पड़ा
होगा। इसलिए
कृष्ण ने कहा
है कि वेदों
में जिन सकाम
कर्मों की--सकाम
कर्म का अर्थ
है, किसी
वासना से किया
गया पूजा-पाठ,
हवन, विधि;
किसी वासना
से, किसी
कामना से, कुछ
पाने के लिए
किया गया--जो
भी वेदों में
दी गई
व्यवस्था है,
जो
कर्मकांड है,
उसको
कर-करके भी
आदमी जहां
पहुंचता है, योग की
जिज्ञासा
मात्र करने
वाला, उसके
पार निकल जाता
है। सिर्फ
जिज्ञासा
मात्र करने
वाला! इसका
ऐसा अर्थ हुआ,
अकाम भाव से
जिज्ञासा
मात्र करने
वाला, सकाम
भाव से साधना
करने वाले से
आगे निकल जाता
है।
अकाम
का इतना अदभुत
रहस्य, निष्काम
भाव की इतनी
गहराई और
निष्काम भाव
का इतना
शक्तिशाली
होना, उसे
बताने के लिए
कृष्ण ने यह
कहा है।
कृष्ण
भी वेद से
चिंतित हुए, क्योंकि वेद
इस तरह की
बातें बता
देता है। वेद
से बुद्ध भी
चिंतित हुए।
सच तो यह है कि
हिंदुस्तान
में वेद की
व्यवस्थाओं
के कारण ही
जैन और बौद्ध
धर्मों का भेद
पैदा हुआ, अन्यथा
शायद कभी न
पैदा होता।
क्योंकि तीर्थंकरों
को, जैनों
के तीर्थंकरों
को भी लगा कि
ये वेद किस
तरह की बातें
करते हैं!
महावीर
कहते हैं कि
दूसरे के लिए
भी वैसा ही सोचो, जैसा अपने
लिए सोचते हो;
और वेद ऐसी
प्रार्थना को
भी जगह देता
है कि दुश्मन
को नष्ट कर दो!
बुद्ध कहते
हैं, करुणा
करो उस पर भी, जो तुम्हारा
हत्यारा हो।
और वेद कहते
हैं, पड़ोसी
के जीवन को
नष्ट कर दे हे
देव! और इसको
जगह देते हैं।
बुद्ध या
कृष्ण या
महावीर, सभी
वेद की इन
व्यवस्थाओं
से चिंतित हुए
हैं।
लेकिन
मैं आपसे कहूं, वेद का अपना
ही रहस्य है।
और वह रहस्य
यह है कि वेद इनसाइक्लोपीडिया
है, वेद
विश्वकोश है।
विश्वकोश का
अर्थ होता है,
जो भी धर्म
की दिशा में
संभव है, वह
सभी संगृहीत
है। माना कि
यह आदमी
दुश्मन को
नष्ट करने के
लिए
प्रार्थना कर
रहा है, लेकिन
प्रार्थना कर
रहा है। और
प्रार्थना संकलित
होनी चाहिए।
यह भी आदमी है;
माना बुरा
है, पर है।
तथ्य है, तथ्य
संगृहीत होना
चाहिए। और जब
परमात्मा इसे
स्वीकार करता
है, सहता
है, इसके
जीवन का अंत
नहीं करता; श्वास चलाता
है, जीवन
देता है, प्रतीक्षा
करता है इसके
बदलने की, तो
वेद कहते हैं
कि हम भी इतनी
जल्दी क्यों
करें! हम भी
इसे स्वीकार
कर लें।
वेद
जैसी किताब
नहीं है
पृथ्वी पर, इतनी इनक्लूसिव।
सब किताबें चोजेन
हैं। दुनिया
की सारी
किताबें चुनी
हुई हैं। उनमें
कुछ छोड़ा गया
है, कुछ
चुना गया है।
बुरे को हटाया
गया है, अच्छे
को रखा गया
है।
धर्मग्रंथ का
मतलब ही यही
होता है।
धर्मग्रंथ का
मतलब ही होता
है कि धर्म को
चुनो, अधर्म
को हटाओ।
वेद सिर्फ
धर्मग्रंथ
नहीं है; मात्र
धर्मग्रंथ
नहीं है। वेद
पूरे मनुष्य की
समस्त
क्षमताओं का
संग्रह है।
समस्त क्षमताएं!
जान्सन
ने, डाक्टर जान्सन ने
अंग्रेजी का
एक विश्वकोश
निर्मित
किया। विश्वकोश
जब कोई
निर्मित करता
है, तो उसे
गंदी गालियां
भी उसमें
लिखनी पड़ती
हैं। लिखनी
चाहिए, क्योंकि
वे भी शब्द तो
हैं ही और लोग
उनका उपयोग तो
करते ही हैं।
उसमें गंदी, अभद्र, मां-बहन
की गालियां, सब इकट्ठी
की थीं।
बड़ा
कोश था। लाखों
शब्द थे।
उसमें
गालियां तो दस-पच्चीस
ही थीं, क्योंकि
ज्यादा
गालियों की
जरूरत नहीं होती,
एक ही गाली
को जिंदगीभर
रिपीट
करने से काम
चल जाता है।
गालियों में
कोई ज्यादा इनवेंशन
भी नहीं होते।
गालियां
करीब-करीब
प्राचीन, सनातन
चलती हैं।
गाली, मैं
नहीं देखता, कोई नई गाली
ईजाद होती हो।
कभी-कभी कोई
छोटी-मोटी
ईजाद होती है;
वह टिकती
नहीं। पुरानी
गाली टिकती है,
स्थिर रहती
है।
एक
महिला भद्रवर्गीय
पहुंच गई जान्सन
के पास। खोला
शब्दकोश उसका
और कहा कि आप
जैसा भला आदमी
और इस तरह की
गालियां
लिखता है!
अंडरलाइन
करके लाई थी! जान्सन ने
कहा, इतने बड़े
शब्दकोश में
तुझे इतनी
गालियां ही देखने
को मिलीं! तू
खोज कैसे पाई?
मैं तो
सोचता था, कोई
खोज नहीं
पाएगा। तू खोज
कैसे पाई? जान्सन
ने कहा, मुझे
गाली और पूजा
और प्रार्थना
से प्रयोजन नहीं
है। आदमी
जो-जो शब्दों
का उपयोग करता
है, वे
संगृहीत किए
हैं।
वेद आल
इनक्लूसिव
है। इसलिए वेद
में वह क्षुद्रतम
आदमी भी मिल
जाएगा, जो
परमात्मा के
पास न मालूम
कौन-सी
क्षुद्र
आकांक्षा
लेकर गया है।
वह श्रेष्ठतम
आदमी भी मिल
जाएगा, जो
परमात्मा के
पास कोई
आकांक्षा
लेकर नहीं गया
है। वेद में
वह आदमी भी
मिल जाएगा, जो परमात्मा
के पास जाने
की हर कोशिश
करता है और
नहीं पहुंच
पाता। और वेद
में वह आदमी
भी मिल जाएगा,
जो
परमात्मा की
तरफ जाता नहीं,
परमात्मा
खुद उसके पास
आता है। सब
मिल जाएंगे।
इसलिए
वेद की निंदा
भी करनी बहुत
आसान है। कहीं
भी पन्ना
खोलिए वेद का, आपको उपद्रव
की चीजें मिल
जाएंगी। कहीं
भी। क्यों? क्योंकि
निन्यानबे
प्रतिशत आदमी
तो उपद्रव है।
और वेद इसलिए
बहुत रिप्रेजेंटेटिव
है, बहुत
प्रतिनिधि
है। ऐसी
प्रतिनिधि
कोई किताब
पृथ्वी पर
नहीं है। सब
किताबें
क्लास रिप्रेजेंट
करती हैं, किसी
वर्ग का। किसी
एक वर्ग का
प्रतिनिधित्व
करती हैं सब
किताबें। वेद
प्रतिनिधि है
मनुष्य का, किसी वर्ग
का नहीं, सबका।
ऐसा आदमी
खोजना
मुश्किल है, जिसके
अनुकूल
वक्तव्य वेद
में न मिल
जाए।
इसीलिए
उसे वेद नाम
दिया गया है।
वेद का अर्थ है, नालेज। वेद का
अर्थ और कुछ
नहीं होता।
वेद शब्द का अर्थ
है, ज्ञान,
जस्ट नालेज।
आदमी को जो-जो
ज्ञान है, वह
सब संगृहीत
है। चुनाव
नहीं है। कौन
आदमी को रखें,
किसको छोड़
दें, वह
नहीं है।
कृष्ण, बुद्ध, महावीर
सबको इसमें
अड़चन रही है।
अड़चन के भी अपने-अपने
रूप हैं।
कृष्ण ने वेद
को बिलकुल
इनकार नहीं
किया, लेकिन
तरकीब से वेद
के पार जाने
वाली बात कही।
कृष्ण ने कहा
कि ठीक है वेद
भी; सकाम
आदमी के लिए
है। लेकिन
निष्काम की
जिज्ञासा
करने वाला भी,
इन हवन और
यज्ञ करने
वाले लोगों से
पार चला जाता
है। महावीर और
बुद्ध ने तो
बिलकुल इनकार
किया, और
उन्होंने कहा
कि वेद की बात
ही मत चलाना।
वेद की बात
चलाई, कि
नर्क में
पड़ोगे। इसलिए
वेद के विरोध
में अवैदिक
धर्म भारत में
पैदा हुए, बुद्ध
और महावीर के।
पर, मेरी समझ यह
है कि वेद को
ठीक से कभी भी
नहीं समझा गया,
क्योंकि
इतनी आल इनक्लूसिव
किताब को ठीक
से समझा जाना
कठिन है।
क्योंकि आपके
टाइप के
विपरीत बातें
भी उसमें
होंगी, क्योंकि
आपका विपरीत
टाइप भी
दुनिया में
है। इसलिए वेद
को पूरी तरह
प्रेम करने वाला
आदमी बहुत
मुश्किल है।
वह वही आदमी
हो सकता है, जो परमात्मा
जैसा आल इनक्लूसिव
हो, नहीं
तो बहुत
मुश्किल है।
उसको कोई न
कोई खटकने
वाली बात मिल
जाएगी कि यह
बात गड़बड़ है।
वह आपके पक्ष
की नहीं होगी,
तो गड़बड़ हो
जाएगी।
वेद
में कुरान भी
मिल जाएगा।
वेद में
बाइबिल भी मिल
जाएगी। वेद
में धम्मपद भी
मिल जाएगा। वेद
में महावीर के
वचन भी मिल
जाएंगे। वेद इनसाइक्लोपीडिया
है। वेद को
प्रयोजन नहीं
है।
इसलिए
महावीर को
कठिनाई पड़ेगी, क्योंकि
महावीर के
विपरीत टाइप
का भी सब संग्रह
वहां है। और
वह विपरीत
टाइप को भी
कठिनाई पड़ेगी,
क्योंकि
महावीर वाला
संग्रह भी
वहां है। और
अड़चन सभी को
होगी।
इसलिए
वेद के साथ
कोई भी बिना
अड़चन में नहीं
रह पाता। और
अड़चन मिटाने
के जो उपाय
हुए हैं, वे
बड़े खतरनाक
हैं। जैसे
दयानंद ने एक
उपाय किया
अड़चन मिटाने
का। वह अड़चन
मिटाने का
उपाय यह है कि
वेद के सब
शब्दों के अर्थ
ही बदल डालो।
और इस तरह के
अर्थ निकालो
उसमें से कि
वेद विश्वकोश
न रह जाए, धर्मशास्त्र
हो जाए; एक
संगति आ जाए, बस।
यह
ज्यादती है
लेकिन। वेद
में संगति
नहीं लाई जा
सकती। वेद
असंगत है। वेद
जानकर असंगत
है, क्योंकि
वेद सबको
स्वीकार करता
है, असंगत
होगा ही।
शब्दकोश
संगत नहीं हो
सकता।
विश्वकोश, इनसाइक्लोपीडिया संगत नहीं
हो सकता। इनसाइक्लोपीडिया
को अपने से
विरोधी
वक्तव्यों को
भी जगह देनी ही
पड़ेगी।
लेकिन
कभी ऐसा आदमी
जरूर पैदा
होगा एक दिन
पृथ्वी पर, जो समस्त को
इतनी
सहनशीलता से
समझ सकेगा, सहनशीलता से,
उस दिन वेद का
पुनर्आविर्भाव
हो सकता है।
उस दिन वेद
में दिखाई
पड़ेगा, सब
है। कंकड़-पत्थर
से लेकर
हीरे-जवाहरातों
तक, बुझे
हुए दीयों से
लेकर जलते हुए
महासूर्यों
तक, सब है।
तो
कृष्ण अर्जुन
से कहते
हैं--वह उनका
अर्थ है कहने
का और कारण
है--वे कहते
हैं कि वेदों
की समस्त
साधना भी तू
कर डाल, सब
यज्ञ कर ले, हवन कर ले, फिर भी इतना
न पाएगा, जितना
सिर्फ योग की
जिज्ञासा से
पा सकता है। और
योग को साधे, तब तो बात ही
अलग है। तब तो
प्रश्न ही
नहीं उठता।
अर्जुन को
भरोसा दिलाने
के लिए कृष्ण
की चेष्टा सतत
है।
प्रयत्नाद्यतमानस्तु
योगी संशुद्धकिल्बिषः।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां
गतिम्।। 45।।
अनेक
जन्मों से
अंतःकरण की शुद्धिरूप
सिद्धि को
प्राप्त हुआ
और अति
प्रयत्न से
अभ्यास करने
वाला योगी, संपूर्ण
पापों से
अच्छी प्रकार
शुद्ध होकर उस
साधन के
प्रभाव से परम
गति को
प्राप्त होता है
अर्थात
परमात्मा को
प्राप्त होता
है।
इस
सूत्र में दो
बातें कृष्ण
और जोड़ते
हैं।
जैसे-जैसे
अर्जुन, उन्हें
प्रतीत होता
है कि समझ
पाएगा, समझ
पाएगा, वैसे-वैसे
वे कुछ और जोड़
देते हैं। दो
बातें कहते
हैं। वे कहते
हैं, शुद्ध
हुआ चित्त
साधन के
द्वारा परम
गति को उपलब्ध
होता है।
शुद्ध
हुआ चित्त
साधन के
द्वारा परम
गति को उपलब्ध
होता है। क्या
शुद्ध होना
काफी नहीं है? कठिन सवाल
है। जटिल बात
है। क्या
शुद्ध होना काफी
नहीं है? और
साधन की भी
जरूरत पड़ेगी?
इतना ही
उचित न होता
कहना कि शुद्ध
हुआ जिसका अंतःकरण,
वह परम गति
को उपलब्ध
होता है?
लेकिन
कृष्ण कहते
हैं, अनंत
जन्मों में भी
शुद्ध हुआ
अंतःकरण वाला
व्यक्ति साधन
की सहायता से
परम गति को
उपलब्ध होता
है। मेथड,
विधि की
सहायता से।
साधारणतः
हमें लगेगा, जो शुद्ध हो
गया पूरा, अब
और क्या जरूरत
रही साधन की? क्या
परमात्मा उसे
बिना किसी
साधन के न मिल
जाएगा?
एक
छोटी-सी बात
समझ लें, तो
खयाल में आ
जाएगी। जो
शुद्ध हो जाए
सब भांति और
साधन का
प्रयोग न किया
हो, तो एक
ही खतरा है, जो अंतिम
बाधा बन जाता
है। पायस ईगोइज्म,
एक पवित्र
अहंकार भीतर
निर्मित होता
है।
अपवित्र
अहंकार तो
होते ही हैं।
एक आदमी कहता है
कि मुझसे
ज्यादा दुष्ट
कोई भी नहीं।
कि मैं छाती
में छुरा भोंक
दूं, तो हाथ
नहीं धोता और
खाना खा लेता
हूं। अब इसके
भी दावे करने
वाले लोग हैं!
यह असात्विक
अहंकार की
घोषणा है।
ध्यान
रखना कि आमतौर
से हम समझते
हैं कि सभी अहंकार
असात्विक
होते हैं, तो गलत
समझते हैं।
सात्विक
अहंकार भी
होते हैं। और
सात्विक
अहंकार सटल, सूक्ष्म हो
जाता है।
एक
आदमी कहता है, मुझसे दुष्ट
कोई भी नहीं; एक आदमी
कहता है, मैं
तो आपके चरणों
की धूल हूं।
अब जो आदमी
कहता है, मैं
आपके चरणों की
धूल हूं। मैं
तो कुछ भी नहीं
हूं। इसका भी
अहंकार है; बहुत सूक्ष्म।
इसका भी दावा
है। बहुत दावा
शून्य मालूम पड़ता
है, लेकिन
दावा है। कोई
दावा दिखाई
नहीं पड़ता, क्योंकि यह
भी कोई दावा
हुआ कि मैं
आपके चरणों की
धूल हूं!
लेकिन
उस आदमी की
आंखों में झांकें।
अगर आप उससे
कहें कि तुम
तो कुछ भी
नहीं हो, तुमसे
भी ज्यादा
चरणों की धूल
मैंने देखी है
एक आदमी में।
एक आदमी मैंने
देखा, तुमसे
भी ज्यादा।
तुम कुछ भी
नहीं हो उसके
सामने। तो आप
देखना कि उसके
भीतर अहंकार तड़पकर रह
जाएगा; बिजली
कौंध जाएगी।
उसकी आंखों
में झलक आ
जाएगी। वही
झलक, जो
आदमी कहता है
कि मुझसे
ज्यादा दुष्ट
कोई भी नहीं।
मैं छाती में
छुरा भोंक
देता हूं, और
बिना हाथ धोए
पानी पीता
हूं। वही झलक!
अहंकार
बहुत चालाक है, दि मोस्ट कनिंग
फैक्टर।
बहुत चालाक
तत्व है हमारे
भीतर। वह हर
चीज से अपने
को जोड़ लेता
है, हर चीज
से! वह कहता है,
धन है
तुम्हारे पास,
तो अकड़कर
खड़े हो जाओ, और कहो कि
जानते हो, मैं
कौन हूं! मेरे
पास धन है। अब
तुमने अगर सोचा
कि धन की वजह
से अहंकार है।
छोड़ दो धन। तो
वह अहंकार
कहेगा, तेरे
से बड़ा त्यागी
कोई भी नहीं।
घोषणा कर दे कि
मैं त्यागी
हूं, महान!
आपको
पता नहीं कि
वही अहंकार, जो धन के
पीछे छिपा था,
अब त्याग के
पीछे छिप गया
है; त्याग
को ओढ़ लिया
है। और ध्यान
रहे, धन
वाला अहंकार
तो बहुत स्थूल
होता है, सबको
दिखाई पड़ता
है। त्याग
वाला अहंकार
सूक्ष्म हो
जाता है और
दिखाई नहीं
पड़ता।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं कि अर्जुन, सब भांति
शुद्ध हुआ
व्यक्ति भी, साधन की
सहायता से
प्रभु को
उपलब्ध होता
है।
अब ये
साधन की इसलिए
जरूरत पड़ी।
शुद्धि हो जाए, सत्व आ जाए, सब अंतःकरण
बिलकुल
पवित्र मालूम
होने लगे, लेकिन
यह प्रतीति एक
चीज को बचा
रखेगी, वह
है मैं। उस
मैं को बिना
साधन के काटना
असंभव है। उस
मैं को साधन
से काटना
पड़ेगा।
और योग
की जो परम
विधियां हैं, वे इस मैं को
काटने की
विधियां हैं,
जिनसे यह
मैं कटेगा।
बहुत तरह की
विधियां योग उपयोग
करता है, जिनसे
कि यह मैं
काटा जाए।
अलग-अलग तरह
के व्यक्ति के
लिए अलग-अलग
विधि उपयोगी
होती है, जिससे
यह मैं कट
जाए। एक-दो
घटनाएं मैं
आपसे कहूं, तो खयाल में
आ जाए।
सूफी
फकीर हुआ
बायजीद।
बायजीद के पास, जिस राजधानी
में वह ठहरा
था, उस
राजधानी का जो
सबसे बड़ा
धनपति था, नगर
सेठ था, वह
आया। उसने आकर
लाखों रुपए
बायजीद के
चरणों में डाल
दिए और कहा
बायजीद, मैं
सब त्याग करना
चाहता हूं।
स्वीकार करो!
बायजीद ने कहा
कि अगर तू
त्याग को
त्याग करना
चाहे, तो
मैं स्वीकार
करता हूं।
त्याग को
स्वीकार नहीं
करूंगा।
त्याग को भी
त्याग करना
चाहे, तो
स्वीकार करता
हूं। उस आदमी
ने कहा, मजे
की बात कर रहे
हैं आप। धन तो
त्यागा जा सकता
है; त्याग
को कैसे त्यागेंगे!
त्याग क्या
कोई चीज है?
बायजीद
ने कहा, साधन
का उपयोग
करेंगे; त्याग
को भी त्याग
करवा देंगे।
उस आदमी ने
कहा, करो
साधन का उपयोग,
लेकिन मेरी
समझ में नहीं
आता। यह त्याग
तो है ही नहीं!
समझिए कि एक
कमरे में मैं
मौजूद हूं, तो मुझे
बाहर निकाला
जा सकता है।
लेकिन अगर मैं
मौजूद नहीं
हूं, तो
मेरी
गैर-मौजूदगी
को कैसे बाहर
निकाला जा
सकेगा!
बायजीद
ने कहा, प्यारे,
जिसे तू
गैर-मौजूदगी
कह रहा है, वह
गैर-मौजूदगी
नहीं है। वह
सिर्फ जो
प्रकट अहंकार
था, उसका
अप्रकट हो
जाना है। तू
टेबल-कुर्सी
के नीचे छिप
गया है; गैर-मौजूद
नहीं है। हम
निकालेंगे।
साधन का उपयोग
करेंगे।
उसने
कहा, अच्छा
भाई। मैं तो
सोचता था कि
सब धन
छोड़कर--अंतःकरण
इस धन की वजह
से अशुद्ध
होता
है--अशुद्धि
के बाहर हो जाऊंगा।
तुम कहते हो
कि और! और क्या
चाहते हो तुम?
उस
फकीर ने कहा
कि तू कल से एक
काम कर। रोज
सुबह सड़क पर
बुहारी लगा, कचरे को ढो।
फिर जब जरूरत
होगी, आगे
साधन का उपयोग
करेंगे।
बड़ा
कष्ट हुआ उस
आदमी को। धन
छोड़ देने में
कष्ट न हुआ
था। यह सड़क पर
बुहारी लगाने
में बहुत कष्ट
हुआ। कई दफा
मन में खयाल
आता कि क्या
सड़क पर बुहारी
लगाना, यह
कोई योग है? यह कोई साधन
है? कई दफा
आता बायजीद के
पास, पूछने
का मन होता।
बायजीद कहता
कि रुक, रुक।
अभी पूछ मत।
थोड़ा और
बुहारी लगा।
बुहारी
लगाते-लगाते
एक महीना बीत
गया, तब
बायजीद एक दिन
सड़क के किनारे
से निकल रहा था।
वह धनपति इतने
आनंद से
बुहारी लगा
रहा था कि
जैसे प्रभु का
गीत गा रहा
हो। उसने उसके
कंधे पर हाथ
रखा। उसने
लौटकर भी नहीं
देखा बायजीद
को। वह अपनी
बुहारी लगाता
रहा। बायजीद
ने कहा, मेरे
भाई, सुनो
भी! उसने कहा, व्यर्थ मेरे
भजन में बाधा
मत डालो।
बायजीद ने कहा,
चल, अब
बुहारी लगाने
की कोई जरूरत
न रही। बुहारी
लगाना भजन बन
गया। एक साधन
का उपयोग हुआ।
योग
हजार विधियों
का प्रयोग
करता है। योग
ने जब पहली
दफा
संन्यासियों
को कहा कि तुम
भिक्षा मांगो, तो उसका
कारण सिर्फ
साधन था।
भिखारी बनाने
के लिए नहीं
था। बुद्ध खुद
सड़क पर भिक्षा
मांगने जाते
हैं। बुद्ध को
भिक्षा
मांगने की
क्या जरूरत थी?
और जब बुद्ध
के पास बड़े से
बड़ा सम्राट भी
दीक्षित होता
है, तो वे
कहते हैं, भिक्षा
मांग। कई बार
लोग कहते भी
थे कि भिक्षा
की क्या जरूरत
है, हमारे
घर से इंतजाम
हो जाएगा!
बुद्ध कहते, जिस घर को
छोड़ दिया, उससे
इंतजाम लेगा,
तो साधन न
हो पाएगा।
उससे इंतजाम
मत ले। तू तो सड़क
पर भीख मांग।
वह आदमी कहता
कि कई दफा लोग
ऐसा हाथ का
इशारा कर देते
हैं, आगे
जाओ, तो
बड़ा दुख होता
है। बुद्ध
कहते, जिस
दिन दुख न हो, उस दिन तेरी
भिक्षा छुड़वा
देंगे। साधन
हो गया।
इसलिए
बुद्ध ने अपने
संन्यासियों
को भिक्खु कहा; भिक्षु, मांगने
वाले। और
अधिकतर बड़े
परिवार के लोग
थे बुद्ध के
भिक्षुओं में,
क्योंकि
सम्राट वे खुद
थे। उनके सारे
संबंधी, उनके
सब मित्र, उनकी
पत्नी के
संबंधी, वे
सब दीक्षित
हुए थे। उन
सबको भीख
मंगवाई रास्तों
पर।
बुद्ध
जब खुद अपने
गांव में आए
और भीख मांगने
निकले, तो
उनके पिता ने
उनको जाकर
रोका और कहा
कि अब हद हुई
जाती है! क्या
कमी है तेरे
लिए? कम से
कम इस गांव
में तो भीख मत
मांग! मेरी
इज्जत का तो
कुछ खयाल कर।
बुद्ध ने कहा,
मैं अपनी
इज्जत तो गंवा
चुका।
तुम्हारी भी
गंवा दूं, तो
साधन हो जाए।
इसे कहां तक
बचाए रखोगे? इसको छोड़ो!
बुद्ध के पिता
ने फिर भी
नहीं समझा।
बुद्ध के पिता
ने कहा कि
नासमझ, तुझे
पता नहीं है।
उस
बुद्ध को
बुद्ध के पिता
नासमझ कह रहे
हैं, जिससे
समझदार आदमी
इस जमीन पर
मुश्किल से
कभी कोई होता
है! लेकिन बाप
का अहंकार
बेटे को समझदार
कैसे माने!
लाखों लोग
उसको समझदार
मान रहे हैं।
लाखों लोग
उसके चरणों
में सिर रख
रहे हैं लेकिन
बुद्ध के बाप अकड़कर खड़े
हैं।
कहा, नासमझ, हमारे
परिवार में, हमारी
कुल-परंपरा
में कभी किसी
ने भीख नहीं
मांगी। बुद्ध
ने कहा, आपकी
कुल-परंपरा
में न मांगी
होगी। लेकिन
जहां तक मैं
याद करता हूं
अपने पिछले
जन्मों को, मैं सदा का
भिखारी हूं।
मैं सदा ही
भीख मांगता
रहा हूं। उसी
भीख मांगने की
वजह से
तुम्हारे घर
में पैदा हो
गया था; और
कोई कारण न
था। मगर
पुरानी आदत, मैंने फिर
अपना
भिक्षा-पात्र
उठा लिया।
जब
बुद्ध अपने घर
पहली बार गए
बारह वर्ष के
बाद, तो उनकी
पत्नी ने बहुत
क्रोध से अपने
बेटे को कहा
कि मांग ले
बुद्ध से! ये
तेरे पिता
हैं। देख तेरे
बेशर्म पिता
को, ये सब
छोड़कर भाग गए
हैं। ये मुझे
छोड़कर भाग गए हैं।
ये मुझसे बिना
पूछे भाग गए
हैं। तू एक दिन
का था, तब
ये भाग गए
हैं। ये तेरे
पिता हैं, इनसे
अपनी वसीयत
मांग ले। गहरा
व्यंग्य कर रही
थी पत्नी।
पत्नी को पता
नहीं कि किससे
व्यंग्य कर
रही है। वह
आदमी अब मौजूद
ही नहीं है।
शून्य में यह
व्यंग्य खो
जाएगा। लेकिन
पत्नी को तो
अभी भी पुराना
पत्नी का भाव
मौजूद था। उसे
बुद्ध दिखाई
नहीं पड़ रहे थे।
वह जो सामने
खड़ा था सूर्य
की भांति, वह
उसकी अंधी
आंखों में
नहीं दिखाई पड़
सकता था।
राग
अंधा कर देता
है; सूर्य भी
नहीं दिखाई
पड़ता है।
बुद्ध भी
बुद्ध की
पत्नी को नहीं
दिखाई पड़ रहे
हैं। पत्नी
अपने बेटे से
व्यंग्य करवा
रही है कि
मांग। हाथ
फैला। बुद्ध
से मांग ले कि
संपत्ति क्या
है? मेरे
लिए क्या छोड़े
जा रहे हैं? गहरा
व्यंग्य था।
बुद्ध के पास
तो कुछ भी न था।
लेकिन
उसे पता नहीं।
बुद्ध के बेटे
ने, राहुल ने,
हाथ फैला
दिए। बुद्ध ने
अपना
भिक्षा-पात्र
उसके हाथ में
रख दिया, और
कहा, मैं
तुझे भिक्षा
मांगने की
वसीयत देता
हूं, तू
भिक्षा मांग।
पत्नी
रोने-चिल्लाने
लगी कि आप यह
क्या करते हैं? बाप घबड़ा गए
और कहा कि तू
गया, अब घर
का एक ही दीया
बचा, उसे
भी बुझाए
देता है!
बुद्ध ने कहा,
मैं इसी के
लिए आया हूं
इतनी दूर।
इसकी संभावनाओं
का मुझे पता
है। इसकी
पिछली
यात्राओं का मुझे
अनुभव है। तुम
इसे जानते हो
कि छोटा-सा बच्चा
है, मैं
नहीं जानता।
मैं जानता हूं
कि इसकी अपनी
यात्रा है, जो काफी आगे
निकल गई है।
जरा-सी चोट की
जरूरत है।
बाप
नहीं समझ पाए; पत्नी नहीं
समझ पाई; पर
बारह साल का
राहुल
भिक्षा-पात्र
लेकर भिक्षुओं
में सम्मिलित
हो गया। बहुत
मां ने बुलाया;
बहुत पिता
ने कहा कि
बेटे, तू
लौट आ। इस बात
में मत पड़। पर
राहुल ने कहा,
बात पूरी हो
गई। मेरी
दीक्षा हो गई।
साधन
का अर्थ है, वह जो
सात्विक होने
का भी अहंकार
बच रहेगा, उसे
भी काटना पड़ता
है।
अगर
कोई सिर्फ
शुद्ध होने की
कोशिश करे, सिर्फ नैतिक
होने की, तो
उसको साधन की
जरूरत पड़ेगी।
लेकिन अगर कोई
योग के साथ
शुद्ध होने की
कोशिश करे, तो फिर साधन
की जरूरत नहीं
पड़ती, क्योंकि
योग का साधन
साथ ही साथ
विकसित होता
चला जाता है।
आज
इतना ही। फिर
शेष हम सांझ
बात करेंगे।
अब थोड़ी देर
साधन में
प्रवेश करें।
कीर्तन
भी एक साधन
है। जो कर
पाते हैं, उनके भीतर
का अहंकार
गिरेगा, टूटेगा।
और आप नहीं कर
पाते हैं, तो
और कोई कारण
नहीं; वह
अहंकार भीतर
बैठा है। वह
कहता है, मैं
पढ़ा-लिखा आदमी,
युनिवर्सिटी
से शिक्षित
हूं, बड़ी
नौकरी पर हूं,
मैं ताली
बजाऊं, मैं
नाचूं! यह
ग्रामीणों
जैसा काम, मैं
करूं!
वह
बैठा है, साधन से
टूटेगा। नहीं
तो वह बड़ा
होता जाएगा।
सम्मिलित
हों कीर्तन
में। जब सारे
संन्यासी नाच
रहे हैं, गीत गा रहे
हैं, तब
उनके साथ
जुड़ें; आनंदित
हों; सम्मिलित
हों; गीत दोहराएं।
thank you guruji
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