बोधिसत्व
बन!—प्रवचन—पंद्रहवां
ध्यान-शिविर, आनंद-शिला,
अंबरनाथ; रात्रि, 16
फरवरी, 1973
हां, वह
शक्तिशाली
है। वह जीवंत
शक्ति, जो
उसमें मुक्त
हुई है और जो
शक्ति वह
स्वयं है, माया
के मंडप को
देवताओं के भी
ऊपर महान
ब्रह्मा और
इंद्र के ऊपर
भी उठा सकती
है। अब वह
निश्चित ही
अपने महा
पुरस्कार को
उपलब्ध करेगा।
क्या
वह, जिसने
महा माया को
जीत लिया है, इन वरदानों
को अपने ही
विश्राम और
आनंद के लिए, अपने ही सुअर्जित
सुख और गौरव
के लिए उपयोग
नहीं करेगा?
नहीं, ओ निसर्ग के
गुह्य-विद्या
के साधक, यदि
कोई पवित्र
तथागत के चरण-चिह्नों
पर चले तो वे
वरदान और
शक्तियां उसके
लिए नहीं हैं।
क्या
तू उस नदी को
बांध देगा, से उसके मूल
उद्गम को वापस
भेज देगा?
यदि
तू कठिन श्रम
से उपलब्ध
ज्ञान की उस
स्रोतस्विनी
को, स्वर्ग
में जन्मी
प्रज्ञा को
प्रवाहमान
रहने देना
चाहता है, तो
तुझे उसे एक
ठहरा हुआ
सरोवर बनने से
बचाना होगा।
जान
कि यदि तुझे
अमित युग के
अमिताभ का
सहयोगी बनना
है, तो तुझे
प्राप्त
प्रकाश को, जुड़वें बोधिसत्वों
की तरह तीनों
लोक पर विकीर्णित
करना होगा।
जान
कि
अति-मानवीय-ज्ञान
और
देव-प्रज्ञा
की इस धारा को, जिसे तूने
अर्जित किया
है, स्वयं
से, आलय
(परम सत्ता) की
नहर के द्वारा,
दूसरी नदी
में प्रवाहित
कर देना है।
ओ, गुह्य-मार्ग
के यात्री, नारजोल (सिद्ध) जान
कि इसके शुद्ध
व ताजे जल से
समुद्र की
तीखी लहरों
को--उस शोक
समुद्र की
खारी लहरों को
जो मनुष्य के आसुंओं से
बना है--मधुर
बनाना है।
आह, जब तू एक बार
उस सबसे ऊंचे
आकाश का ध्रुव
तारा बन गया
है, तब उस
स्वर्गीय
प्रभा-मंडल को
अंतरिक्ष की
गहराइयों से,
अपने सिवाय
सब के लिए
बिखेरना है।
प्रकाश सबको
दे, किसी
से भी ले मत।
आह, जब एक बार तू
पर्वत की
घाटियों में
शुद्ध तुषार
जैसा हो गया
है, जो
ठंडा है और
स्पर्श के लिए
संवेदना-शून्य
है, किंतु
जो उसके हृदय
में सोने वाले
बीज के लिए गर्म
और रक्षाकारी
है, तब उस
तुषार को
स्वयं ही
हड्डियों को छेदनेवाले
उन उत्तर के हिमपातों
को पी जाना
होगा ताकि
उनके तीखे व
क्रूर दांतों
से धरती की
रक्षा की जा
सके। उसी धरती
में वह फसल
छिपी पड़ी है, जिससे भूखों
को भोजन
मिलेगा।
सूत्र
के पहले एक
प्रश्न--
पूछा
है किसी नेः
बुद्ध
और महावीर, कृष्ण और
जीसस, मुहम्मद,
लाओत्से, रजनीश, मतलब
सभी पुरुष ही!
तो किसी
स्त्री ने
बुद्धत्व की
खबर दुनिया तक
क्यों नहीं पहुंचाई? क्या
बोधिसत्व
बनना स्त्री
की दृष्टि से
कठिन है?
इस
संबंध में
बहुत-सी बातें
समझनी
पड़ेंगी।
एक तो
स्त्री और
पुरुष
बुनियादी रूप
से भिन्न हैं।
भिन्न से अर्थ
ऊंचे-नीचे हैं, ऐसा नहीं है;
दोनों समान
हैं, लेकिन
विपरीत हैं।
ऊंचा-नीचा कोई
भी नहीं है। दोनों
समान हैं; लेकिन
विपरीत ध्रुव
हैं। एक-दूसरे
से बिलकुल
विपरीत हैं।
और यह उनकी विपरीतता
जरूरी है। इन
दो
विपरीतताओं
से मिलकर ही
तो जन्म होता
है, जीवन
की धारा बहती
है। वे विपरीत
हैं, इसलिए
उनमें आकर्षण
है। वे विपरीत
हैं, इसलिए
उनमें प्रेम
भी है और कलह
भी है। प्रेम है,
क्योंकि
आकर्षण है।
कलह है, क्योंकि
वे विपरीत
हैं। स्त्री
और पुरुष के बीच
कभी भी सुलह
नहीं हो पाती
है। हो नहीं
सकती है। उनकी
विपरीतता के
कारण खिंचाव
है, और
विपरीतता के
कारण ही
आकर्षण भी है।
पुरुष
अधूरा है, स्त्री के
बिना; स्त्री
अधूरी है, पुरुष
के बिना।
पुरुष पूरा
होना चाहता है
स्त्री के
साथ। स्त्री
पूरी होनी
चाहती
है--पुरुष के
साथ। अकेले
पूरा होना
बहुत कठिन है।
जब तक कि भीतर
की यात्रा
शुरू न हो जाए,
तब तक बाहर
की पूर्णता की
खोज चलती है।
लेकिन जिससे
हम पूरे होना
चाहते हैं, वह हमारे
विपरीत है।
विपरीत है, तो एक
निश्चित कलह
भी मौजूद है, एक तनाव भी
है। पास भी
आते हैं, और
दूर भी जाते
हैं। दूर जाते
हैं, और
पुनः पास भी
आते हैं। और
हर पास आना, फिर पुनः
दूर जाने का
उपाय हो जाता
है।
स्त्री
और पुरुष के
बीच कोई स्थिर
संबंध निर्मित
नहीं हो पाता।
हो भी नहीं
सकता। सब
संबंध अस्थिर
होंगे। इसलिए
सारा संसार
स्त्री-पुरुष
के संबंध जैसा
है, अस्थिर
है--अभी कुछ, अभी कुछ।
क्षण भर पहले
सुखद मालूम
पड़े जो संबंध,
क्षण भर में
दुखद हो
जाएगा। क्षण
भर पहले जहां
प्रेम है, क्षण
भर बाद घृणा
हो जाएगी। यह
स्वाभाविक
है। इसको
बदलने का भी
कोई उपाय नहीं
है, ऐसा है;
जब तक कि व्यक्ति
अंदर की तरफ
यात्रा पर न
निकल जाए। तो
पहली बात यह
समझ लेना
जरूरी है कि
स्त्री और पुरुष
विपरीत हैं और
भिन्न हैं।
इसलिए उनके गुण
भी विपरीत हैं
और भिन्न हैं।
शरीर
से समझें, तो भीतर की
बात भी समझ
में आ जाएगी।
क्योंकि शरीर
का जो ढंग है, वही भीतर के
व्यक्तित्व
का भी ढंग है।
पुरुष आक्रमक
है और स्त्री अनाक्रमक
है। पुरुष
सक्रिय है और
स्त्री
निष्क्रिय है।
पुरुष प्रेम
करता है और
स्त्री प्रेम
लेती है।
जैविक तल पर
भी, बायोलाजी
के तल पर भी, पुरुष देता
है वीर्यकण,
स्त्री
अंगीकार करती
है। वहां भी
देनेवाला पुरुष
है, लेनेवाली स्त्री है।
वहां भी पुरुष
पहल करता है, इनिशिएटिव लेता है।
कोई
स्त्री किसी
पुरुष से जा
कर सीधा नहीं
कहती कि मैं
तुम्हें
प्रेम करती
हूं।
प्रतीक्षा करती
है कि पुरुष
उससे कहे।
उसका
निमंत्रण भी मौन
है, निष्क्रिय
है। पुरुष को
ही पहल करनी
पड़ती है। सक्रिय
पुरुष को ही
होना पड़ता है।
पुरुष को ही
निवेदन करना
पड़ता है कि
मुझे प्रेम
है। स्त्री उस
निवेदन पर हां
या ना भरेगी।
लेकिन निवेदन
नहीं करेगी।
और जो स्त्री
किसी पुरुष से
निवेदन करेगी
कि मुझे तुमसे
प्रेम है, उस
पुरुष की
उत्सुकता उस
स्त्री में
नहीं हो सकती
है। क्योंकि
वह स्त्री
पुरुष जैसा
व्यवहार कर रही
है। वह स्त्री
ही न रही, आक्रमक
हो गई।
पुरुष
और स्त्री के
व्यक्तित्व
का तालमेल चीन
में बहुत
पुराने दिनों
से दो शब्द
उपयोग में आते
रहे हैं--यिन
और यांग।
यिन स्त्री है
और यांग
पुरुष।
स्त्री है खाई
की तरह, पुरुष
है पर्वत-शिखर
की तरह।
स्त्री
है ग्राहक।
जरूरी है कि
वह ग्राहक हो, क्योंकि
गर्भ उसमें
निर्मित
होगा। पुरुष
गर्भ नहीं
खींच सकता है,
गर्भ नहीं
रख सकता है।
बच्चे के जन्म
में पुरुष का
एक क्षण का
संबंध होता
है। स्त्री का
संबंध बहुत
गहरा है।
बच्चा उसके
भीतर बड़ा होगा।
बढ़ेगा, उसका
अंग है; उसका
खून, हड्डी,
मांस, मज्जा
है। इसलिए मां
और बच्चे के
बीच जो निकटता
है और
आत्मीयता है,
वह पिता और
बच्चे के बीच
नहीं हो सकती
है। मां और
बच्चे जैसे एक
ही चीज का
विस्तार हैं।
तो उसे ग्राहक
होना तो जरूरी
है। वह आक्रमक
नहीं है। वह
गर्भ धारण
करती है।
यह मैं
इसलिए कह रहा
हूं, क्योंकि
यही उसके भीतर
का भी ढंग है।
अब इसे समझें,
कि इसका
अध्यात्म से
क्या
लेना-देना है।
स्त्री
अगर शिष्य हो, तो उससे
श्रेष्ठ
शिष्य खोजना
मुश्किल है।
स्त्री का
शिष्यत्व
श्रेष्ठतम
है। कोई पुरुष
उसका मुकाबला
नहीं कर सकता
है। क्योंकि
समर्पण की जो
क्षमता उसमें
है, वह
किसी पुरुष
में नहीं है।
जिस संपूर्ण
भाव से वह
अंगीकार कर
लेती है, ग्रहण
कर लेती है, उस तरह से
कोई पुरुष कभी
अंगीकार नहीं
कर पाता, ग्रहण
नहीं कर पाता।
इधर
मेरा भी रोज
का अनुभव है।
स्त्रियों के
समर्पण से कोई
पुरुष के
समर्पण की
तुलना नहीं की
जा सकती। और जब
कोई स्त्री
स्वीकार कर
लेती है, तो
फिर उसमें
रंचमात्र भी
उसके भीतर कोई
विवाद नहीं
होता है, कोई
संदेह नहीं
होता है; उसकी
आस्था
परिपूर्ण है।
अगर वह मेरे
विचार को या
किसी के विचार
को स्वीकार कर
लेती है, तो
वह विचार भी
उसके गर्भ में
प्रवेश कर
जाता है। वह
उसके हड्डी, मांस का
हिस्सा हो
जाता है। वह
उस विचार को
भी, बीज की
तरह, गर्भ
की तरह अपने
भीतर पोसने
लगती है। कोई
पुरुष यह नहीं
कर सकता।
पुरुष
अगर स्वीकार
भी करता है, तो बड़ी
जद्दो-जहद
करता है, बड़े
संदेह खड़ा
करता है, बड़े
प्रश्न उठाता
है। और अगर
झुकता भी है, तो वह यही कह
कर झुकता है
कि आधे मन से
झुक रहा हूं, पूरे मन से
नहीं झुक रहा
हूं। क्या
करूं, कोई
उपाय नहीं है।
मेरे
पास आकर पुरुष
कहते
हैं--सीधी
सच्ची बात है, वे कहते
हैं--पूरे मन
से समर्पण
नहीं हो रहा
है। एक हिस्सा
विरोध में है,
एक हिस्सा
पक्ष में है।
क्योंकि
पुरुष आक्रमक
है, समर्पण
उसके लिए अति
कठिन है। और
स्त्री ग्राहक
है, समर्पण
उसके लिए अति
सरल है। तो
शिष्यत्व की जो
ऊंचाई स्त्री
को उपलब्ध
होती है, वह
पुरुष को कभी
नहीं उपलब्ध
होती।
पुरुष
में जो
श्रेष्ठतम
शिष्य है, वह भी
स्त्रियों
में
निकृष्टतम
शिष्य के करीब
पहुंच पाता
है। इसलिए
शिष्य तो बहुत
अदभुत स्त्रियों
ने पैदा किए
हैं। लेकिन
शिष्यों के नाम
तो जाने नहीं
जाते इतिहास
में, नाम
तो गुरुओं के
जाने जाते
हैं। महावीर
के पास चार
शिष्य अगर थे,
तो उसमें
तीन शिष्याएं
थीं और एक
शिष्य था।
चालीस हजार
महावीर के
संन्यासी थे।
उसमें तीस
हजार
संन्यासिनियां
थीं, और दस
हजार
संन्यासी थे।
बुद्ध के पास
भी शिष्यों का
अनुपात यही
था। चार में
तीन
स्त्रियां, एक पुरुष!
जीसस
को जिस दिन
सूली लगी, उस दिन सारे
पुरुष छोड़ कर
चले गए।
जिन्होंने जीसस
को सूली पर से
उतारा, वे
दो स्त्रियां
थीं। यह बड़ी
मजे की बात
है। मेरी मेग्दालिन
एक वेश्या थी।
उसकी वजह से
ही जीसस को
बहुत परेशानियां
झेलनी पड़ीं।
क्योंकि
लोगों ने कहा कि
जीसस जैसा
महापुरुष और
मेरी मेग्दालिन
के घर रुक
जाए--वेश्या
के घर! तो समाज
की नीति, आचार
को बड़ा धक्का
लगा था। जिन
शिष्यों ने
जीसस से कहा
था कि इस मेरी मेग्दालिन
को छोड़ दें, इस एक के
पीछे अकारण
हमारे विचार
को नुकसान पहुंच
रहा है, तो
जीसस हंसे थे,
मुस्कुराए
थे, कुछ
बोले नहीं थे।
और जिस रात
जीसस पकड़े
गए, उस रात
वे ही शिष्य, जिन्होंने
कहा था मेरी मेग्दालिन
को हटा दें
मार्ग से, इसके
पीछे विचार को
नुकसान
पहुंचता है, तो जीसस ने
कहा था, सुबह
होने के पहले,
उसके पहले
कि मुर्गा
बांग दे, तुम
सब मुझे छोड़
कर चल जाओगे
और जिसे तुम
छोड़ने को कह
रहे हो, वही
भर शेष रह
जाएगी। और ऐसा
हुआ। जिस रात
जीसस पकड़े
गए और जब दुश्मन
उन्हें ले
जाने लगे, तो
उनका एक शिष्य
ल्यूक
पीछे-पीछे भीड़
में हो लिया।
बाकी सब तो हट
गए, क्योंकि
खतरा था--उनकी
जान का भी। एक,
ल्यूक,
पीछे-पीछे
हो लिया।
दुश्मन ने
देखा कि कोई
एक अजनबी आदमी
हमारे बीच है।
उन्होंने
पूछा कि तू
कौन है? तू
जीसस का साथी
तो नहीं? तो
ल्यूक ने
कहा कि कौन
जीसस? मैं
तो पहचानता ही
नहीं। जीसस ने
पीछे मुड़कर--उनके
हाथ बंधे थे, दुश्मन
उन्हें पकड़े
हुए थे--पीछे मुड़कर कहा:
सुन, अभी
मुर्गे ने
बांग भी नहीं
दी और तूने एक
दफे इनकार कर
दिया। सूली से
भी जिस स्त्री
ने उतारा, वह
मेरी मेग्दालिन
थी।
शिष्यत्व
की जिस ऊंचाई
पर स्त्रियां
पहुंच सकती
हैं, पुरुष
नहीं पहुंच
सकते।
क्योंकि
निकटता की जिस
ऊंचाई पर
स्त्रियां
पहुंच सकती
हैं, पुरुष
नहीं पहुंच
सकता--स्वीकार
की, समर्पण
की। पर शिष्याओं
के नाम तो
बहुत जाहिर
नहीं हो सकते
हैं। शिष्य
आखिर शिष्य
हैं। नाम तो
गुरुओं के ही
होंगे।
और
चूंकि
स्त्रियां
बहुत अदभुत
रूप से, गहन
रूप से, श्रेष्ठतम
रूप से, शिष्य
बन सकती हैं, इसलिए गुरु
नहीं बन
सकतीं।
क्योंकि
शिष्य का जो
गुण है, वही
गुरु के लिए
बाधा है। गुरु
को तो आक्रमक
होना पड़ेगा।
गुरु तो
शिष्यों को मिटाएगा, तोड़ेगा,
नष्ट
करेगा। वह
स्त्री के बस
की बात नहीं
है। स्त्री
बना सकती है, ग्रहण कर
सकती है, संभाल
सकती है; बीज
को अपने भीतर
आरोपित करके
गर्भ बना सकती
है, जन्म
दे सकती है, नष्ट नहीं
कर सकती।
आक्रमक नहीं
हो सकती है।
और
गुरु का तो
सारा कृत्य ही
आक्रमण है। वह
तो तोड़ेगा, मिटाएगा,
नष्ट करेगा;
क्योंकि
पुराने को न
मिटाए, तो
नए का जन्म
नहीं हो सकता
है। तो गुरु
तो अनिवार्य
रूप से
विध्वंसक है;
क्योंकि
उसी से सृजन
लाएगा। वह
आपकी मृत्यु न
ला सके, तो
आपको नया जीवन
न दे सकेगा।
स्त्री की वह
क्षमता नहीं
है। वह आक्रमण
नहीं कर सकती,
समर्पण कर
सकती है।
समर्पण उसे
शिष्यत्व में
तो बहुत ऊंचाई
पर ले जाता है,
लेकिन
स्त्री कितनी
ही बड़ी शिष्या
हो जाए, वह
गुरु नहीं बन
सकती। उसका
शिष्य होने का
जो गुणधर्म है,
जो खूबी है,
वही तो बाधा
बन जाती है कि
वह गुरु नहीं
हो सकती है।
अगर
स्त्री कभी
गुरु बने, तो पुरुषों
में जो
निकृष्टतम
गुरु होता है,
स्त्रियों
में
श्रेष्ठतम
गुरु उसके पास
पहुंचता है, उससे ज्यादा
नहीं। पुरुष
की अड़चन है
शिष्य बनने
में। लेकिन
अगर वह शिष्य
बन जाए--बहुत
अड़चन है--अगर
बन जाए तो
उसके गुरु
बनने की
क्षमता है।
शिष्य बनने
में उसे बहुत
कठिनाई होगी,
लेकिन गुरु
बनने में उसे
जरा भी कठिनाई
नहीं होगी।
स्त्री को
शिष्य बनना
एकदम सुगम है,
लेकिन गुरु
बनना एकदम
कठिन है।
इसी
कारण से बुद्ध
ने, और भी
कारणों के साथ
यह भी एक
महत्वपूर्ण
कारण था कि
बहुत समय तक
स्त्रियों को
दीक्षा न दी। और
इनकार किया कि
मैं स्त्रियों
को दीक्षा न
दूंगा। कारण
बहुत थे, एक
कारण यह था कि
बुद्ध का खयाल
था और बात सही
है कि स्त्री
को कितना ही
श्रम लो, उसके
साथ उसका श्रम
उसी के साथ
समाप्त हो
जाएगा। वह
गुरु नहीं बन
सकती है।
जल्दी शिष्य
बन जाती है, जल्दी
समर्पित हो
जाती है, जल्दी
उपलब्ध भी हो
सकती है, लेकिन
उपलब्धि उसी
के साथ खो
जाती है। वह
उपलब्धि
विस्तीर्ण
नहीं हो सकती
है। एक पुरुष
को निर्मित कर
लो तो, तो
एक पुरुष
करोड़ों लोगों
के लिए
दान-दाता हो जाएगा।
करोड़
स्त्रियों को
भी तैयार कर
लो, तो भी
वे अपने में
ही खो जाएंगी
और शांत हो
जाएंगी। उनसे
दान नहीं मिल
सकता।
तो
बुद्ध का यह
खयाल दूर तक
सही था कि
मेरा श्रम
पुरुषों पर ही
होने दें।
उतना ही श्रम
करके मैं
पुरुष को
तैयार कर लूं, तो वे दूर तक
इन बीजों को
ले जाएंगे और
फैला देंगे।
सीधा मुझे
स्त्रियों से
मेहनत नहीं
करना है।
इसमें
और भी बातें
समझ लेने जैसी
हैं।
स्त्री
की उत्सुकता
स्वयं के बाहर
ना के बराबर
होती है, होती
ही नहीं।
पुरुष की
उत्सुकता
दूसरे में बहुत
ज्यादा होती
है। पुरुष है एक्सट्रोवर्ट,
स्त्री है इंट्रोवर्ट।
स्त्री होती
है अंतर्मुखी,
पुरुष है
बहिर्मुखी।
सामान्यतः
इसे हम ऐसा समझें।
अगर आप
स्त्री को
प्रेम भी करते
हैं, तो
स्त्री, कभी
प्रकाश में
प्रेम किया
जाए, वह
पसंद नहीं
करती है; अंधेरा
चाहिए। और
स्त्री को जब
आप प्रेम करते
हैं, तो वह
तत्क्षण आंख
बंद कर लेती
है; वह आंख
खुली नहीं
रखती। पुरुष
चाहता है:
प्रेम का क्षण
प्रकाश में
हो। और पुरुष
यह भी चाहता
है कि उसकी
आंखें खुली
रहें। पुरुष
प्रेम के क्षण
में भी, संभोग
के क्षण में
भी आंखें खुली
रखता है। वह स्त्री
के चेहरे को
भी देखना
चाहता है, जिसे
वह प्रेम करता
है। संभोग के
क्षण में भी उसके
चेहरे को
देखना चाहता
है। क्यों? क्योंकि अगर
उस चेहरे पर उसे
प्रसन्नता
दिखाई पड़ती है,
तो ही वह
प्रसन्न होता
है। वह
बहिर्मुखी
है। स्त्री
अपनी आंख बंद
कर लेती है, और भीतर अपन
स्वार्थ, होता है।
उसके
व्यक्तित्व
में वह बात है,
इसमें
भला-बुरा कुछ
भी नहीं है।
तथ्य इतना है कि
वह अपने में
उत्सुक है। तो
अगर स्त्री को
हम किसी दिन
परम-ज्ञान पर
भी पहुंचा दें,
तो
परम-ज्ञान के
बाद वह
बोधिसत्व
नहीं बन सकती
है, क्योंकि
परमज्ञान
के बाद वह लीन
हो जाएगी, उस
महाशून्य
में।
बुद्धत्व
की दो
अवस्थाएं
हैं। दो
प्रकार से व्यक्ति
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो
जाता है। एक
है, जिसको
अर्हत कहा है,
और दूसरा, जिसे
बोधिसत्व कहा
है।
अर्हत
का मतलब होता
है, ऐसा
बुद्ध, जो
बुद्ध होने के
बाद जगत की
चिंता नहीं
करेगा, महा-निर्वाण
में लीन हो
जाएगा। उसके
बंधन गिर गए, उसका दुख
समाप्त हो गया,
पीड़ित हैं।
उसके शत्रुओं
का नाश हो गया,
इसलिए उसको
नाम दिया
अर्हत। उसके
जितने शत्रु
थे, वह
नष्ट हो गए।
अब वह
महाशून्य में
लीन हो जाएगा।
बुद्धत्व में
कोई कमी नहीं
है उसके, लेकिन
वह दूसरों के
लिए नाव नहीं
बनता है। उसका
काम पूरा हो
गया।
स्त्री
प्रेम में आंख
बंद कर लेती
है, समाधि
में भी आंख
बंद कर लेती
है। और जब परम
समाधि उपलब्ध
होती है, तो
वह बिलकुल भूल
जाती है कि
कोई बाहर बचा
है, वह
भीतर लीन हो
जाती है।
बुद्धत्व तो
उपलब्ध हो
जाता है
स्त्री को, लेकिन
बोधिसत्व
नहीं बनती है।
बोधिसत्व
का मतलब है, ऐसा बुद्ध, जो स्वयं
जान गया हो, लेकिन अभी
लीन नहीं
होगा। पीठ फेर
लेगा लीनता की
तरफ और पीछे
जो लोग रह गए, उनके लिए
रास्ता
बनाएगा, उनको
साथ देगा, उनके
लिए नाव
निर्मित
करेगा, उनको
नाव में बिठाकर
मांझी बनेगा,
उनको
यात्रा-पथ पर
लगाएगा।
तो
बोधिसत्व
स्त्री अब तक
नहीं हो सकी, और कभी हो भी
नहीं सकेगी।
वह स्त्री के
व्यक्तित्व
में बात नहीं।
अर्हत हो सकती
है, बुद्ध
हो सकती है।
लेकिन
समझें। जो
व्यक्ति
स्वयं लीन हो
जाएगा शून्य
में, उसका
इतिहास में
कोई चिह्न
नहीं छूटेगा।
क्योंकि
इतिहास में
उसका चिह्न छूटेगा, जो दूसरों
को उस शून्यता
की तरफ ले
जाएगा। इतिहास
तो वे लोग
निर्मित करते
हैं, जो
दूसरों में
उत्सुक हैं।
जो खुद में
उत्सुक हैं, वे इतिहास
निर्मित नहीं
करते हैं।
उनका कोई पता
नहीं चलेगा, वे खो जाते
हैं। इसलिए
हमें बुद्धों
का पता है, बुद्ध
स्त्रियों का
पता नहीं है।
स्त्रियां
भी बुद्धत्व
को उपलब्ध हुई
हैं, लेकिन वे
गुरु नहीं बन
सकीं। गुरु
बनना उनके लिए
वैसे ही असंभव
है, जैसे
पुरुष को मां
बनना असंभव
है। कोई नहीं
पूछता कि अब
तक कोई पुरुष
मां क्यों
नहीं बन सका? बनने की कोई
बात ही नहीं
है। पुरुष
पिता बन सकता
है, मां
नहीं बन सकता।
स्त्री शिष्य
बन सकती है, गुरु नहीं
बन सकती है।
यही
स्वाभाविक है,
और इससे
अन्यथा होने का
उपाय नहीं है।
इसी
अंतर्मुखता
के कारण स्त्री
बहुत क्षुद्र
मालूम पड़ती है,
निम्न
मालूम पड़ती
है। उसके जो
सोच-विचार के
ढंग हैं, वह
संकीर्ण, नैरो
मालूम पड़ते
हैं। पर इसमें
उसका कोई कसूर
नहीं है। उसकी
उत्सुकता
अपने पड़ोस में,
अपने घर में,
अपने बच्चे
में ऐसी होती है।
पुरुष
की उत्सुकता न
पड़ोस में होती
है ज्यादा; न बच्चों
में होती है, न घर में
होती है। वह
स्त्री के
दबाव में इनमें
उत्सुकता
लेता है। उसकी
उत्सुकता
होती है--वियतनाम
में क्या हो
रहा है, रूस
में क्या हो
रहा है, अमरीका
में क्या हो
रहा है? दूर,
विस्तीर्ण।
इसमें कुछ गुण
नहीं है। बस, मैं यह कह
रहा हूं, यह
स्वभाव है, यह तथ्य है।
स्त्री को
फिकर होती है,
पड़ोस की
स्त्री कैसे
कपड़े पहने हुए
है, और वह
इसलिए फिकर
होती है कि
उसके कपड़े से
वह अपने को
तोल रही है।
स्त्री अपने
से केंद्रित है।
और इसलिए
कभी-कभी उसे
हैरानी होती
है पुरुषों की
बातें सुनकर
कि ए कहां की
बातें कर रहे
हैं! वियतनाम
से क्या
लेना-देना? दिल्ली में
क्या हो रहा
है, इसमें
क्या अर्थ है?
ए फिजूल की
बातें हैं। और
इसलिए कोई
पुरुष, स्त्री
से बातचीत में
रस नहीं लेता।
क्योंकि स्त्री
की बातचीत
क्षुद्र होती
है, सीमित
होती है।
बर्नार्ड
शा ने कहीं
कहा है कि
सुंदरतम
स्त्री से भी
बातचीत करो, तो ऊब पैदा
होती है। वह
चुप रहे, उतना
ही अच्छा है।
उसका कारण है,
क्योंकि
पुरुष की
बातचीत में जो
रस है, वह
स्त्री को उस
बातचीत में रस
नहीं है। उनके
जो आयाम हैं, अलग-अलग
हैं। स्त्री
भी परेशान
होती है
पुरुषों की
बातें सुनकर
कि कहां की
बकवास में लगे
हुए हैं। और
इतना विवाद करते
हैं ऐसी बातों
पर, जिनमें
कोई सार ही
नहीं है। क्या
सार है कि कम्यूनिज्म
ठीक है, कि
सोशलिज्म ठीक
है; कि
बाइबल ठीक है,
कि कुरान
ठीक है? इसमें
सार क्या है? स्त्री को
लगता है: ए
व्यर्थ हवाई
बातें हैं, और इनमें
समय खोना, और
इनमें सिर
खपाना, और
इन पर लड़-मर
बैठना और
विवाद
करना--स्त्री
की बिलकुल पकड़
में नहीं आता
है। पुरुष को
बिलकुल समझ
में नहीं आता
है कि कपड़े!
स्त्रियों की
बातचीत दो-चार
चीजों पर
सीमित होती
है--कपड़े हैं, बच्चे हैं, मकान है, कार
है, जेवर
हैं--ए उनकी
बातचीत है! इस
बातचीत से
बाहर वह कहीं
नहीं जातीं।
लेकिन ए भी जो
हमारी अंतर्मुखता
और
बहिर्मुखता
है उसके
संदर्भ में है,
उसके कारण
ऐसा होता है।
स्त्री
जब परम-ज्ञान
की तरफ भी
चलती है, तब
भी वह
अंतर्मुखी ही
होती है। और
जिस दिन
परम-ज्ञान
घटित होता है,
उस दिन बात
समाप्त हो गई।
अब उसे क्या
चिंता कि और
कितने लोग
अज्ञान में
पड़े हैं, और
कितने लोग
पीड़ा में हैं,
और कितने
लोग इस संघर्ष
में लगे हैं
कि उनको भी
ज्ञान मिल
जाए। स्त्री
को फिर इसकी
कोई चिंता
नहीं, बात
पूरी हो गई।
पुरुष को इसकी
बड़ी चिंता है,
उसकी
दृष्टि सदा
दूसरे पर पड़
रही है। इसके
फायदे हैं, इसके नुकसान
हैं।
हर
फायदे के साथ
नुकसान जुड़ा
है, और हर
नुकसान के साथ
फायदा है।
चूंकि स्त्री
की दूसरे में
उत्सुकता
नहीं है, ध्यान
उसे शीघ्रता
से घटित होता
है। अपने में ही
उसकी
उत्सुकता है,
इसलिए उसके
मस्तिष्क में
ज्यादा
उपद्रव नहीं
होता है। और
जो उपद्रव
होता है, वह
इतना साधारण
होता है कि
उसे छोड़ने में
अड़चन नहीं
पड़ती है। न
सिद्धांत, न
वाद, न
शास्त्र--यह
सब उपद्रव
नहीं होता है।
स्त्री का मन
एक लिहाज से
हलका-फुलका
होता है। उस
पर बहुत बोझ
नहीं होता है।
स्त्री एक
लिहाज से सरल
होती है, और
बच्चों जैसी
होती है।
इसलिए ध्यान
उसे बहुत
आसानी से घटित
हो जाता है; क्योंकि
ध्यान एक तरह
का स्वार्थ
है। जब मैं यह
कहता हूं तो
आपको कठिनाई
होती है--एक
तरह की सेलफिशनेस
है! है भी, क्योंकि
जहां इतना दुख
है।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे कहते
हैं कि "गांव
में गरीबी है,
फलां जगह
अकाल पड़ा है, यहां ए हो
रहा है, और
आप कहते हैं
कि ध्यान करो!
अभी कैसे
ध्यान करें? अभी गरीबी
है, अभी
अकाल है, अभी
देश में
समाजवाद लाना
है। अभी--अभी
कैसे ध्यान
करें!' यह
पुरुष की
स्वाभाविक
जिज्ञासा है।
उसको लगता है
कि इतनी
मुसीबतें
चारों तरफ हैं,
पहले इनको
हल करें, फिर
ध्यान कर
लेंगे।
लेकिन
ध्यान रहे, ए मुसीबतें
तो सदा हैं, और सदा
रहेंगी। ऐसा
दुनिया में
कोई क्षण नहीं
आया, जब
बाहर
बोधिसत्व बन!
मुसीबतें न
थीं। ऐसा कभी
कोई क्षण नहीं
आएगा, जब
बाहर मुसीबतें
न होंगी। हां,
मुसीबत
दूसरी होगी, यह हो सकता
है। मुसीबतें
होंगी। और अगर
कोई आदमी यह
कहता है कि
ध्यान हम तब
करेंगे, जब
कि दुनिया में
कोई मुसीबत न
होगी, तो
समझना वह
ध्यान कभी भी,
अनंतकाल
में भी न कर
सकेगा। लेकिन
पुरुष को यह
भाव उठता है
कि कैसे ध्यान
करें। अभी
इतना चारों
तरफ काम करने
को बाकी है।
तुम समाप्त हो
जाओगे, काम
तो बाकी
रहेगा।
स्त्री
को यह सवाल
कभी नहीं
उठता। मेरे
पास इतनी
स्त्रियां
आती हैं, उनमें
से कोई भी
नहीं कहती कि
यह मुसीबत है,
फलां है, ढिकां है।
उसकी
उत्सुकता
अपने में है।
अगर उसे आनंद
और शांति मिल
सकती है, तो
वह ध्यान को
तैयार है।
इससे सुविधा
उसको एक है कि
वह ध्यान में
शीघ्रता
से जा
सकती है, उसके
बाहरी उलझाव
नहीं हैं।
लेकिन तब एक
नुकसान भी है।
जिस दिन ध्यान
उपलब्ध हो
जाएगा, जिसको
पहले से बाहरी
उलझाव नहीं
हैं, ध्यान
की पूर्ण
उपलब्धि पर वह
इसकी चिंता
में नहीं
पड़ेगी कि बाहर
दुनिया को शांति
देनी है, आनंद
देना है, ध्यान
देना है, वह
लीन हो जाएगी।
पुरुष
को बहुत
उपद्रव
हैं--यह ठीक
होना, वह
ठीक होना; सारी
दुनिया ठीक
करने का खयाल
उसे है। जब
सारी दुनिया
ठीक होगी, तब
वह ध्यान
करेगा। तो
इसलिए ध्यान
वह कभी कर नहीं
पाता। और अगर
कभी कर पाता
है, तो
स्वभावतः जिस
दिन उसको
ध्यान का फल
उपलब्ध होता
है, उस दिन
वह उसे उन
लोगों तक
पहुंचाना
चाहता है, जिनके
लिए वह सदा से
चिंतित रहा
था।
तो
पुरुष अगर
ध्यानी हो, तो बोधिसत्व
हो सकता है
आसानी से।
स्त्री अगर
ध्यानी हो, तो अर्हत हो
सकती है आसानी
से। ए दोनों स्थितियां
समान हैं।
स्थितियों
में कोई भेद
नहीं है, लेकिन
स्थितियों के
परिणाम संसार
पर भिन्न होंगे।
बोधिसत्व
संसार को भी
इस मार्ग पर
ले जाने की
चेष्टा
करेगा। अर्हत
इस मार्ग पर
ले जाने के
लिए कोई
चेष्टा नहीं
करेगा। वह
शांति से शून्य
में विलीन हो
जाएगा।
बौद्धों
के दो धर्म
हैं। एक का
नाम है हीनयान
और एक का नाम
है महायान।
महायान
बोधिसत्वों को
स्वीकार करता
है, वह कहता
है कि इतनी
बड़ी नाव बनाओ
कि सारा संसार
उसमें पार कर
सके। महायान
का मतलब है
बड़ी नाव।
हीनयान
का मतलब है
छोटी नाव, डोंगी, जिसमें
एक ही आदमी
बैठे और पार
हो जाए।
हीनयान कहता
है कि यह सब
व्यर्थ की
बातचीत है कि
दूसरे को तुम
पार करो; क्योंकि
कौन किसको पार
कर सकता है? और जो पार
नहीं होना
चाहता, उसे
पार करने का
कोई उपाय नहीं
है। तुम्हीं पार
हो जाओ, काफी
है। कहीं
दूसरों की
चिंता में
तुम्हीं इस
किनारे पर मत
रह जाना। और
उचित यही है
कि तुम्हें
लोग पार होते
देख लें, तो
शायद उनको भी
जाग जाए खयाल
पार होने का।
कहीं तुम भी
इसी किनारे पर
उलझे रहो उनके
साथ, उनको
पार करने में,
तुमको भी
इसी किनारे पर
देखकर उनको
जिज्ञासा भी न
हो, अभीप्सा
भी न जगे।
तो हीनयान
कहता है कि
तुम्हें नाव
मिल गई, कृपा
करो, तुम
पार हो जाओ।
इस किनारे पर
जिनको
उत्सुकता है,
वह तुमको
पार जाते
देखकर, पार
होने की खोज
कर लेंगे। तुम
उनकी चिंता
में समय नष्ट
मत करो।
महायान
कहता है कि
इतनी
छोटी-छोटी नाव
में अगर लोग
पार भी होते
रहे तो इस
विराट सागर
में कब शांति
होगी, कब
आनंद होगा? कभी नहीं हो
पाएगा। यह तो
एक चम्मच से
जैसे कोई सागर
को शुद्ध कर
रहा हो, तो
एक-एक चम्मच
से सागर कब
शुद्ध हो
पाएगा? इस
पूरे सागर को
विराट आयोजन
से शुद्ध करना
है। वह विराट
आयोजन
बोधिसत्व का
आयोजन है। वह
उस महाकरुणावान
का है, जो
किनारे पर रुक
जाता है, अपनी
नाव को ठोंक
देता वहीं और
कहता है, मेरी
नाव तैयार है;
लेकिन मैं
तब तक न जाऊंगा,
जब तक मैं
और लोगों को
राजी न कर लूं,
चाहे मुझे
अनंतकाल तक
रुकना पड़े।
इसलिए उस धर्म
का नाम महायान
है। महायानः
बड़ी नाव का
धर्म।
मेरी
दृष्टि में
हीनयान वाले
लोग कहते
हैं--वह
बोधिसत्वों
की सब बातचीत
व्यर्थ है, कोई किसी को
पार नहीं करवा
सकता है।
इसमें भी सचाई
मालूम पड़ती
है। किसी को
पार करवाने की
कोशिश करो, तब पता चलता
है कि कितना
उपद्रव का
मामला है। जब
मैं आपके साथ
मेहनत करता
हूं, तो
मुझे हीनयान
वालों की बात
बिलकुल ठीक लग
रही है। वे
ठीक कहते हैं,
सच ही कहते
हैं। यह कैसा
उपद्रव है, किसी को पार
करवाने की
कोशिश!
क्योंकि जिसे
तुम मुक्त
करना चाहते हो,
वह मुक्त
होना ही नहीं
चाहता है।
बल्कि तुम उसे
मुक्त करना
चाहते हो, तो
वह तुम्हें
समझता है कि
तुम उसे
परेशान कर रहे
हो, तुम
उसे हैरान कर
रहे हो, कि
तुम उसकी नींद
में बाधा डाल
रहे हो, कि
तुम उसके सपने
तोड़ रहे हो।
और फिर वह
तुमसे बदला
लेने की कोशिश
करता है, अगर
उसका कोई सपना
टूट जाए, उसे
कोई अड़चन हो
जाए। और अड़चन
पच्चीस होंगी;
क्योंकि
तुम उसे उखाड़
रहे हो जड़ों
सहित; जहां
से वह जमा है, वहां से हटा
रहे हो। उसको
तो लगता है कि
तुम मिटाने
में लगे हो, दुश्मन हो।
वह हजार तरह
की अड़चनें
खुद खड़ी करता
है कि कहीं
तुम उसे उखाड़
ही न दो
बिलकुल। तो
हीनयान वाले
भी ठीक कहते मालूम
पड़ते हैं, दूसरे
को पार कराना
बडा मुश्किल
है।
महायान
वाले भी बात
ठीक करते
मालूम पड़ते
हैं कि जब एक
व्यक्ति पार
हो ही गया और
उसे आनंद मिल ही
गया, तो इस
आनंद से
ज्यादा आनंद
उस शून्य में
खोने से भी
नहीं
मिलनेवाला
है। बात तो
पूरी हो गई। अब
कुछ हर्जा
नहीं कि वह
थोड़ी देर इस
किनारे पर रुक
जाए। इस
किनारे से
उसको अब कोई
पीड़ा नहीं
होनेवाली। जो
उसने पा लिया
है, वह अब
छिन नहीं सकता
है। क्या हर्ज
है कि वह थोड़ी
देर रुक जाए; लोग उसे
अड़चन भी दें, तो उसे कोई
खास अड़चन हो
नहीं पाती है,
भीतर तो उसे
कोई पीड़ा
पहुंच नहीं
पाती है। लोग
देर भी
लगाएं--तब
देर-अबेर भी
क्या है उसके
लिए। जिसने पा
लिया है, उसके
लिए समय मिट
गया। और लोग
अगर अनंत
जन्मों तक उसे
रोक रखें, तो
भी हर्ज क्या
है? क्योंकि
अब समय का उसे
कोई सवाल ही
नहीं है। और
अगर इस चेष्टा
में कोई पार
हो जाए, तो
लाभ ही लाभ है;
हानि कुछ भी
नहीं है।
बोधिसत्व
को कोई हानि
नहीं हो रही
है रुक कर। अगर
लाभ भी न हुआ
लोगों को, तो भी कोई
हानि नहीं है।
और अगर कोई
लाभ भी हुआ, तो लाभ है।
यह सौदा करने
जैसा है, जिसमें
हानि तो
होनेवाली
नहीं; अगर
हो तो लाभ ही
हो सकता है। न
भी हो, तो
हानि नहीं हो
सकती है। तो
महायान की भी
बात ठीक लगती
है। लेकिन महायान
और हीनयान
दोनों लड़ते
हैं और
एक-दूसरे को
कहते हैं कि
दूसरा गलत है।
मैं नहीं
कहता।
मैं
मानता हूं कि
मनुष्य में दो
तरह के लोग हैं।
और कोई गलत और
सही नहीं है।
कुछ लोग है
स्त्रैण
वृत्ति के, जिनमें
स्त्रियां स्वभावतः
ज्यादा हैं।
अंतर्मुखी, जिनमें
स्त्रियां
स्वभावतः
ज्यादा हैं।
वे अपनी नाव
पा जाएंगे, तो पार हो
जाएंगे और मैं
कहता हूं कि
उन्हें पार हो
जाना चाहिए।
उस तरह की
वृत्ति के
लोगों को तट
पर रुकने का
कोई कारण नहीं
है, कोई
अर्थ भी नहीं
है। पर कुछ
लोग हैं, जो
बहिर्मुखी
हैं, पुरुष
प्रकृति के।
स्वभावतः
पुरुषों में
उस तरह के लोग
ज्यादा हैं।
वे रुकना
चाहेंगे। यह सवाल
नहीं है कि
क्या करना
चाहिए; सवाल
यह है कि आपकी
नियति, आपका
स्वभाव जो
करवाए वही ठीक
है। अगर आपका
स्वभाव यह कहे
कि मैं जब
पहुंच गया
अंतिम क्षण में,
तो अब मैं
नहीं रुकूंगा,
मैं खो जाऊंगा,
तो बिलकुल
खो जाएं। आपका
स्वभाव कहे कि
रुक जाएं, खोने
के पहले कुछ
खबर पहुंचा
दें, कोई
और भी शायद
तैयार हो जाए,
तो बराबर
रुक जाएं। मैं
न कहता हूं कि
यह ठीक है, और
न कहता हूं कि
वह गलत है।
इतना ही कहता
हूं कि अपनी
नियति के अनुकूल
चलना ठीक है।
इसलिए
स्त्रियां
गुरु नहीं हो
सकीं। और जब
भी स्त्रियां
गुरु होने की
कोशिश करती
हैं, तो बहुत
क्षुद्र और
साधारण गुरु
हो पाती हैं। और
बड़ी हैरानी की
बात है कि अगर
स्त्री
गुरुओं के पास
भी लोग जाते
हैं, तो
समझना चाहिए
कि संसार से
छुटकारा बहुत
मुश्किल है।
क्योंकि एक
स्त्री का
गुरु होना मुश्किल
है, और हो
तो बहुत
साधारण कोटि
की होनेवाली
है। और फिर
उसके भी तो
शिष्य अगर लोग
बन जाते हैं, तो फिर बहुत
अड़चन है--बहुत
अड़चन है।
इसलिए बुद्ध
और महावीर, कृष्ण, क्राइस्ट
पुरुष हैं।
किसी और कारण
से नहीं हैं।
पुरुष के होने
में गुरु होने
की सुविधा है।
स्त्री के
होने में
शिष्य होने की
सुविधा है।
दोनों
के फायदे हैं, दोनों के
नुकसान हैं।
ध्यान यही
रखना कि अगर आप
स्त्री हैं, तो अपनी
नियति को
स्वीकार करके
उसी के अनुसार
चलना। अगर आप
पुरुष हैं, तो अपनी
नियति को
स्वीकार करके,
उसी के
अनुसार चलना।
क्योंकि जो आप
हैं, वहीं
से यात्रा
सुगम, सरल,
और सहज है।
अन्यथा होने
की कोशिश से
कष्ट और उपद्रव
है। और परिणाम
निश्चित नहीं
हैं, संदिग्ध
हैं।
इस
सूत्र में
प्रवेश के
पहले थोड़ी सी
बातें छठवें
द्वार ध्यान
के संबंध में
और:
ध्यान
का अर्थ है
चैतन्य की ऐसी
दशा, जहां
विचार की कोई
तरंग कोई लहर
न हो। जैसे सागर
है, झील है
और झील पर
तरंगें हैं।
यह एक दशा है।
जब झील पर
तरंगें हैं, इसे हम कहें
तूफान, अशांति।
ऐसे ही जब
चेतना पर
तरंगें हैं, विचार की, तो जो
अवस्था है
उसका नाम है
मन। मन कोई
अलग वस्तु नहीं
है तरंगित
चेतना का नाम
है। जब झील
शांत हो गई, लहरें सो गई
और झील की
छाती पर कोई
कंपन न रहा, निष्कंप हो
गई, एक मौन
दर्पण बन गई
या ऐसा समझें
कि जम गई, बर्फ
हो गई, अब
कोई लहर नहीं
उठती, अब
कोई लहर उठ भी
नहीं
सकती--ऐसी ही
जब चेतना विचार
से शून्य और
तरंग से रहित
हो जाती
है--बर्फ जम गई
है झील की, तो
जो अवस्था है,
उसका नाम
ध्यान है।
मन
ध्यान का अभाव
है।
ध्यान
मन का अभाव
है।
मन है
तरंगित चेतना, ध्यान है निस्तरंगित
चेतना।
यह छठवां
द्वार है: निस्तरंग
हो जाना।
क्योंकि जब तक
हम निस्तरंग
न हो जाएं, तब तक
तरंगें हमें
बाहर की तरफ
ले जाती हैं।
हर तरंग हमें
बाहर की तरफ
ले जाती है।
जैसे हर लहर
किनारे की तरफ
जाती है, ऐसे
ही हर तरंग
संसार की तरफ
जाती है।
जितनी बड़ी
तरंग, उतनी
जोर से संसार
की तरफ जाती
है। जब कोई
तरंग नहीं रह
जाती, तो
हमारा संसार
की तरफ जाना
बंद हो जाता
है। हमारी
चेतना फिर
संसार की तरफ
नहीं जा सकती;
क्योंकि
जाने के लिए
तरंगों का
सहारा चाहिए। और
जब चेतना बाहर
नहीं जाती, तो फिर भीतर
रह जाती है।
जब बाहर जाने
का द्वार नहीं
मिलता, चेतना
अपने में ठहर
जाती है। उस
अपने में ठहरी
हुई चेतना का
नाम है ध्यान।
हम जो
भी यहां कर
रहे हैं, वह
यही कोशिश है
कि मन कैसे निस्तरंग
हो जाए। और जो
मैं आपको कह
रहा हूं कि
आपके भीतर जो
भी तरंगें हों,
उनको बाहर
निकाल दें, इसलिए कह
रहा हूं।
क्योंकि उनको
भीतर दबाए रखें,
तो मन निस्तरंग
न हो सकेगा।
उन्हें निकाल
ही दें, उनको
फेंक ही दें, उनको उलीच
दें; कुछ
बचे ही न भीतर तरगें
पैदा करने को;
हल्के हो
जाएं, कोई
उपद्रव भीतर न
रह जाए। सब
उपद्रव बाहर
डाल दें, तो
मन निस्तरंग
हो सकेगा। इस
मन की निस्तरंग
अवस्था के
बिना कोई
स्वयं के
ज्ञान को
उपलब्ध नहीं
होता है।
इसलिए
दुनिया में
इतने धर्म हैं, इतने पंथ
हैं, इतने
मार्ग हैं।
उनमें
हजार-हजार
सिद्धांतों
के भेद हैं, लेकिन ध्यान
के संबंध में
मतैक्य है!
कोई यह नहीं
कह सकता है कि
ध्यान के बिना,
धर्म
उपलब्ध होगा।
मस्जिद में
करो ध्यान, कि मंदिर
में करो, कि
गिरजे में करो,
कि
गुरुद्वारा
में, इससे
फर्क नहीं है
कोई--ध्यान
करो।
क्राइस्ट का
सहारा लो, कि
कृष्ण का; महावीर
का सहारा लो, कि मुहम्मद
का इससे कोई
अंतर नहीं
पड़ता है--ध्यान
करो। कुरान पर
सिर टेको,
कि गीता पर,
इससे बहुत
फर्क नहीं
है--ध्यान
करो।
सारी
दुनिया के
धर्म अगर एक
बात पर सहमत
हैं, तो वह है
ध्यान। और
ध्यान का मतलब
है निस्तरंग
करो चित्त को।
मन को कर दो
शून्य।
विचारों से।
कोई लहर आती न
हो। उस लहरहीन
अवस्था में जो
घटित होगा, वह छठवां
द्वार है।
अब हम
सूत्र को लें।
"हां,
वह
शक्तिशाली
है। वह जीवंत
शक्ति, जो
उसमें मुक्त
हुई है और जो
शक्ति वह
स्वयं है, माया
के मंडप को
देवताओं के भी
ऊपर महान
ब्रह्मा और
इंद्र के ऊपर
भी उठा सकती
है। अब वह
निश्चित ही
अपने महा
पुरस्कार को
उपलब्ध करेगा। '
ध्यान
के साथ ही
महाशक्ति
उपलब्ध होती
है। वह पुरस्कार
है। जो मन से लड़ा, जिसने
मन को जीता, जिसने मन को
विसर्जित
किया, वह
अब स्वयं को
उपलब्ध होने
के करीब पहुंच
रहा
है। अब
तक उसके पास
जितनी
शक्तियां थीं, सब उधार
थीं। धन की थी,
तो बाहर से
मिली थी; शास्त्रों
की थी, तो
बाहर से मिली
थी; शरीर
की थी, तो
भी बाहर से
मिली थी। अब
तक जितनी
शक्तियां थीं,
सब बाहर से
मिली थीं। अब
पहली दफा निस्तरंग
होकर बाहर की
शक्तियों से
संबंध छूट गया
है। अब उसका संबंध
अपनी स्वयं की
शक्ति से
है--जिससे
उसका जीवन
जन्मा है।
उससे जो उसके
भीतर बह रही
है और जीवंत
है। अब प्राण
के मूल से
उसका संबंध
निर्मित
होगा। वह
महाशक्ति के
द्वार पर खड़ा
है। ध्यान का
वही पुरस्कार
है।
"क्या वह, जिसने
महा माया को
जीत लिया है, इन वरदानों
को अपने ही
विश्राम और
आनंद के लिए, अपने ही सुअर्जित
सुख और गौरव
के लिए उपयोग
नहीं करेगा?'
यहीं
से फर्क शुरू
होता है। इस
क्षण में ही
पता चलेगा कि
आप अर्हत होने
के मार्ग पर
हैं या बोधिसत्व
होने के मार्ग
पर।
ब्लावट्स्की
का झुकाव
बोधिसत्व की
तरफ है। इसलिए
सूत्र में
यहां से मार्ग
बोधिसत्व का
हो जाएगा, अर्हत का
नहीं। यहां तक
अर्हत और
बोधिसत्व दोनों
समान हैं, ध्यान
की उपलब्धि
तक। ध्यान की
उपलब्धि होते ही
महाशक्तियां
उपलब्ध होती
हैं।
ब्लावट्स्की
यही सवाल उठाती
है कि क्या वह,
जिसने
महामाया को
जीत लिया है, इन वरदानों
को अपने ही
विश्राम और
आनंद के लिए, अपने ही सुअर्जित
सुख और गौरव
के लिए उपयोग
नहीं करेगा?
"नहीं,
ओ निसर्ग के
गुह्य-विद्या
के साधक, यदि
कोई पवित्र
तथागत के
चरण-चिह्नों
पर चले तो वे
वरदान और
शक्तियां
उसके लिए नहीं
हैं। '
"नहीं,
ओ निसर्ग के
गुह्य-विद्या
के साधक'
गुरु
शिष्य को कह
रहा है कि
नहीं। यहां से
अर्हत और
बोधिसत्व का
मार्ग अलग-अलग
हो जाता है। इसके
पहले तक दोनों
एक जैसे हैं।
इसके बाद यह किताब, बोधिसत्व
विचारों के
अनुकूल है।
महायान का विचार
है। ध्यान के
साथ जब शक्तियां
उपलब्ध होंगी,
तो सवाल यह
है कि क्या इन
शक्तियों के
आनंद में मैं
स्वयं लीन हो
जाऊं? गुरु
कह रहा है, नहीं।
यदि कोई
पवित्र तथागत
के चरण
चिह्नों पर
चले, तो वे
वरदान और
शक्तियां
उसके लिए नहीं
हैं।
"नहीं,
ओ निसर्ग के
गुह्य-विद्या
के साधक, यदि
कोई पवित्र तथागत
के
चरण-चिह्नों
पर चले, तो
वे वरदान और
शक्तियां
उसके लिए नहीं
हैं।
"क्या तू उस
नदी को बांध
देगा, जिसका
जन्म सुमेरु
पर हुआ है?'
"क्या
तू बांध लेगा
अपने ही साथ
उस महाशक्ति
को। क्या तू
अपने स्वार्थ
में उसकी सीमा
बना लेगा।
"क्या तू
उसके स्रोत को
अपने लिए और
अपनी ओर बहाएगा,
या उसे शिखरशृंग
के पथ से उसके
मूल उदगम को
वापस भेज देगा?'
क्या
तू सबमें बांट
देगा? क्या
अपने ही लिए
संचित कर लेगा?
क्या तू इस
महानदी को एक
बांध बना लेगा
अपने ही सुख
के लिए, या
भेज देगा इसको
वहां जहां
अनेकों का सुख
उससे फलित हो
सके?
"यदि
तू कठिन श्रम
से उपलब्ध
ज्ञान की उस
स्रोतस्विनी
को, स्वर्ग
में जन्मी
प्रज्ञा को
प्रवाहमान
रहने देना
चाहता है, तो
तुझे उसे एक
ठहरा हुआ
सरोवर बनने से
बचाना होगा। '
तेरे
आनंद के लिए
तो इतना काफी
है कि यह
स्रोत एक
सरोवर बन जाए, तू इसमें
डूब जाए, लीन
हो जाए। लेकिन
तू इसे एक
सरोवर मत
बनाना, तू
इसे एक नदी
बनाना, जो
बहे, जो
प्रवाहमान
हो। और न
मालूम कितने
लोगों के गांवों
के किनारे से,
और न मालूम
कितने लोगों
के प्राणों के
किनारे से
निकले, और
न मालूम कितने
लोगों को इसके
शीतल जल का, इसके आनंद
जल का अनुभव
हो सके। इसकी
एक बूंद भी
किसी के पास
पहुंच जाए, तो अच्छा
है।
"जान
कि यदि तुझे
अमित युग के
अमिताभ का
सहयोगी बनना
है
"अगर
तुझे बुद्धों
का सहयोगी
बनना है तो
तुझे प्राप्त
प्रकाश को, जुड़वें बोधिसत्वों
की तरह तीनों लोकों पर विकीर्णित
करना होगा।
'
चीन
में, जापान
में, दो
बोधिसत्वों
की कथा
है--जिन्होंने
परम-ज्ञान को
पाने के बाद
तत्क्षण सारे
ज्ञान को जगत
में बांट दिया,
और खुद
शून्य होकर
खड़े रह गए। जो
आनंद उन्हें मिला
था, सब बांट
दिया। खुद
बिलकुल दीन हो
कर खड़े रह गए।
इतने श्रम से
जो पाया था, वह बांट
दिया। अपने
पास कुछ भी न
रखा। ऐसे दो
बोधिसत्वों
की कथा चीन और
जापान में है।
यह सूत्र कहता
है कि क्या तू
भी उन जुड़वां
बोधिसत्वों
की तरह अपने
आनंद को, अपनी
समाधि को, अपनी
प्रज्ञा को
बांट नहीं
देगा? तुझे
विकीर्णित
करना होगा, अगर तू
चाहता है कि
तू भी बुद्धों
का सहयोगी और
साथी हो सके।
"जान
कि अति-मानवीय-ज्ञान
और
देव-प्रज्ञा
की इस धारा को,
जिसे तूने
अर्जित किया
है, स्वयं
से, आलय
(परमात्मा) की
नहर के द्वारा,
दूसरी नदी
में प्रवाहित
कर देना है।
'
यह जो
तुझे मिला है, उसे प्रवाह
देना है। उसे
रोक नहीं लेना
अपने लिए।
"ओ
गुह्य-मार्ग
के यात्री, नारजोल (सिद्ध), जान
कि इसके शुद्ध
व ताजे जल से
समुद्र की तीखी
लहरों को--उस
शोक समुद्र की
खारी लहरों को,
जो मनुष्य
के आंसुओं से
बना है--मधुर
बनाना है। '
सारा
जगत एक खारा
सागर
है--लोगों के
आंसू और पीड़ाओं
से निर्मित।
क्या तू इस
खारे सागर की
फिक्र छोड़
देगा? और इस
दुख से भरे
लोगों के
संसार की तरफ
बिलकुल पीठ कर
लेगा? क्योंकि
तुझे आनंद मिल
गया, तो
क्या तू सोचता
है, सभी को
आनंद मिल गया?
क्या औरों
की पीड़ा तुझे
न छुएगी? और तुझे न
दिखाई पड़ेगा
कि सागर जैसे
लोगों के आसुंओं
से ही भरा हो, ऐसा यह
संसार है? क्या
तू अपने
पवित्र जल से
इस सागर की
लहरों को मीठा
नहीं बनाएगा?
"आह,
जब तू एक
बार उस सबसे
ऊंचे आकाश का
ध्रुव तारा बन
गया है, तब
उस स्वर्गीय
प्रभा-मंडल को
अंतरिक्ष की
गहराइयों से,
अपने सिवाय
सबके लिए
बिखेरना है।
प्रकाश सबको
दे, किसी
से भी ले मत।
'
और जब
कि तू ध्रुव
तारे की तरह
हो गया और
ऊंचाई के
आखिरी शिखर पर
पहुंच गया, जिसके पार
कोई ऊंचाई
नहीं है। जो
भी तुझे पाना
था, पा
लिया, और
जो भी तुझे
होना था, वह
तू हो गया। अब
तेरे लिए न
पाने को कुछ, न कुछ होने
को। क्या तू
अब इसमें ही
अपने को लीन
कर लेगा? क्या
तू मान लेगा
कि यात्रा
समाप्त हो गई?
निश्चित
तेरी यात्रा
समाप्त हो गई, लेकिन औरों
की यात्रा शेष
है। क्या तू
इनको प्रकाश
देना न चाहेगा?
शून्य में
खोने के पहले,
महाशून्य
में मिल जाने
के पहले, ब्रह्म
के साथ एक हो
जाने के पहले,
क्या तू
ठिठक नहीं
जाएगा द्वार
पर ही, और
इनकार नहीं कर
देगा कि अभी
मैं भीतर नहीं
आता? क्योंकि
अभी बाहर
भटकते हुए लोग
हैं, और
मैं इनको
मार्ग बता
सकता हूं।
क्योंकि मार्ग
मैंने द्वार
तक देख लिया
है। अब मैं
लौट जाऊंगा
और उनको खबर
दूंगा कि वे
भी द्वार तक आ
जाएं, द्वार
का मुझे पता
है।
और अगर
द्वार के भीतर
कोई प्रविष्ट
हो जाए, तो
फिर वापिस
नहीं लौट
सकता।
क्योंकि
द्वार के भीतर
प्रवेश का
मतलब ही यह है
कि वे सब साधन,
जो संसार
में काम आते
थे, द्वार
पर ही नष्ट हो
जाते हैं।
द्वार तक सारी
चीजें शेष
रहती हैं, शुद्ध
होकर। यह
आखिरी मौका है,
एक क्षण कोई
द्वार के भीतर
प्रविष्ट हुआ
कि फिर वापिस
नहीं लौट
सकता। द्वार
पर ही ठहर
जाना होगा।
"आह,
जब एक बार
तू पर्वत की
घाटियों में
शुद्ध तुषार
जैसा हो गया
है, जो
ठंडा है और
स्पर्श के लिए
संवेदन-शून्य
है, किंतु
जो उसके हृदय
में सोनेवाले
बीज के लिए
गर्भ और रक्षाकारी
है।'
तू
बाहर से तो
ठंडा हो गया
है, शीतल, शून्य
हो गया; लेकिन
भीतर तेरे पास
एक बीज है महाप्रज्ञा
का, तो
उसके लिए तू
बहुत गर्भ है,
उष्ण है, उसे तू बचाए
हुए है अपने
हृदय में। "तब
उस तुषार को
स्वयं ही
हड्डियों को छेदनेवाली
उन उत्तर के हिमपातों
को पी जाना
होगा, ताकि
उनके तीखे और
क्रूर दांतों
से धरती की
रक्षा की जा
सके। उसी धरती
में वह फसल छिपी
पड़ी है, जिससे
भूखों को भोजन
मिलेगा। '
तू
अपने लिए तो
शांत और शून्य
हो गया तुषार
की भांति, लेकिन तुझे
बीजों को घेर
लेना होगा, और उनके लिए
उतप्त रहना
होगा। और उन
बीजों को उस
भूमि तक
पहुंचा देना
होगा--लोगों की
हृदय-भूमि तक।
क्योंकि अगर
वह बीज उन तक न
पहुंचा, तो
वे भूखे पड़े
हैं, वे
भूखे हैं, वे
जन्मों-जन्मों
से भूखे हैं
इस भोजन के
लिए, जो
तेरे हाथ में
है, और तू
बांट सकता है।
यह
सूत्र
बोधिसत्व-मार्ग
का सूत्र है।
उचित है कि
कोई ज्ञान के
उस महासागर के
किनारे खड़े होकर
न खोए, लौट
आए। लेकिन फिर
भी मैं आपसे
कहता हूं कि
जो आपके लिए
सहज हो, स्वाभाविक
हो, वही
उचित है। यह
ब्लावट्स्की
की आकांक्षा
मधुर है, प्रीतिकर
है, सुखद
है कि कोई लौट
आए, और
बांट दे।
लेकिन जो लौट
सकता है, वही
लौटता है; जो
नहीं लौट सकता
है, वह
नहीं लौटता है।
यह बात भी उसी
को जमेगी मन
में, जो
लौट सकता है।
यह बात उसको
नहीं जमेगी मन
में, जो
लौट नहीं
सकता। इससे
अभिप्राय तो
पता चलता है--कि
सुखद है; पीछे
संसार में
इतने लोग दुखी
हैं और पीड़ित
हैं, वहां
तक जाना जरूरी
है। लेकिन खुद
बुद्ध को ऐसा
हुआ था।
बुद्ध
को समाधि
उपलब्ध हुई, वे
परम-द्वार पर
खड़े हो गए, सात
दिन तक मौन
रहे! मीठी कथा
है कि इंद्र
और ब्रह्मा
उनके चरणों
में आकर गिर
पड़े, देवता
उनके पास भीड़
लगाकर शोरगुल
करने लगे और प्रार्थना
करने लगे कि
आप उठें
और बोलें।
क्योंकि जिस
ज्ञान को
सुनने के लिए
सदियों-सदियों
से लोग
प्रतीक्षा कर
रहे हैं वह
तुम्हें मिल
गया, अब
तुम चुप क्यों
हो? अब तुम
बोलो, और
कह दो तुमने
क्या पा लिया
है?
ब्रह्मा
भी, इंद्र भी
वैसे ही
प्यासे हैं।
पूरा
अस्तित्व प्यासा
है--इस जीवन के
परम-रहस्य को
जान लेने के
लिए। तुम्हें
पता लग
गया--कहो, हम
भी उसे जान
लें।
बुद्ध
ने कहा, कोई
सार नहीं। कोई
सार नहीं है
कहने में।
क्योंकि जो
मैंने जाना है,
एक तो वह कह
कर कहा नहीं
जा सकेगा। और
अगर मैंने अथक
चेष्टा करके
कहा भी, तो
उसे केवल वे
ही लोग समझ
सकेंगे, जो
मेरे बिना कहे
भी उसे जान ले
सकते हैं। जो
मेरे बिना कहे
उसे जान नहीं
सकते, वे
समझ नहीं
सकेंगे, इसलिए
कहने में सार
क्या है? जो
मेरे बिना भी
पहुंच जाएंगे,
वही केवल
समझ पाएंगे।
बात ऐसी जटिल
है। और उनको
कहने का कोई
अर्थ नहीं है,
क्योंकि वे
पहुंच ही
जाएंगे, दिन-दो-दिन
की देर लगेगी।
मुझे व्यर्थ
कष्ट में मत डालो। और
जो मेरे बिना
नहीं पहुंच
सकते, वे
मेरी बात समझ
ही नहीं
सकेंगे।
इसलिए किससे मैं
कहूं?
देवता
उदास हो गए, उनकी आंखों
में उदासी छा
गई। तर्क ठीक
था, उसे झुठलाया
नहीं जा सकता
था। फिर
उन्होंने
विचार-विमर्श किया
आपस में कि हम
किस तरह बुद्ध
को राजी करें।
फिर वे एक
तर्क खोज कर
लाए। और तर्क
कीमती था, और
बुद्ध को मान
लेना पड़ा।
उन्होंने
कहा: हम आपसे
राजी हैं। सौ
में अधिक लोग
ऐसे ही हैं, जो आपकी बात
समझ नहीं
सकेंगे, उनसे
कहना व्यर्थ
है, हम
राजी हैं। सौ
में थोड़े से
दो-चार ऐसे
हैं, जो
आपके बिना भी
समझ ही लेंगे,
उनसे भी
कहना फिजूल
है। लेकिन सौ
में एकाध ऐसा
भी है, जो
दोनों के मध्य
में खड़ा है, जिससे आप न
कहेंगे, तो
वह
जन्मों-जन्मों
तक भटक जाएगा।
और जिससे आप
कहेंगे, तो
वह उपलब्ध भी
हो सकता है।
जो बिलकुल
किनारे पर आ
खड़ा है, जिसे
जरा से धक्के
की जरूरत है।
ऊंट पर आखिरी तिनका
है, बैठने के
करीब है, बस
आखिरी तिनके
का बोझ न मिला,
तो हो सकता
है
जन्मों तक भटक
जाए, आप उस एक
के लिए बोलें।
बात
ठीक लगी बुद्ध
को कि अगर ए
दोनों हैं तो
इनके बीच में
कोई न कोई
जरूर होगा।
जहां दो होते हैं, वहां तीसरा
भी होता ही
है। दोनों के
बीच में कोई
मध्य में खड़ा
ही होगा। वह
मध्यवर्ग जो
है, उसके
लिए बोलें।
इसलिए बुद्ध
बोले।
यह जो
क्षण है
समाधिस्थ
स्थिति का, उस क्षण में
प्रत्येक को
ऐसा लगता है
कि अब क्या
सार है--क्या
कहना, क्या
सुनना, किसको
बताना? अब
मुझे मिल
गया--गूंगे का
गुड़, उसका
स्वाद लेना, और स्वाद
में ही खो
जाना।
यह
सूत्र कहता
है: उस समय
सावधानी
रखना। जो महाशक्ति
मिली है, अगर
उपयोग आ सके, तो इसे
बांटना। इसका
सरोवर मत
बनाना; इसको
एक बहता
प्रवाह बना
देना।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें