तंत्र
और योग (अध्याय—6)
प्रवचन—अठारहवां
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप
इति मे मतिः।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः।।
।।
मन
को वश में न
करने वाले
पुरुष द्वारा
योग दुष्प्राप्य
है अर्थात
प्राप्त होना
कठिन है और
स्वाधीन मन
वाले
प्रयत्नशील
पुरुष द्वारा साधन
करने से
प्राप्त होना
सहज है, यह
मेरा मत है।
कृष्ण
ने दोत्तीन
बातें इस
सूत्र में कही
हैं, जो समझने
जैसी हैं।
एक, मन को वश में
न करने वाले
पुरुष द्वारा
योग की उपलब्धि
अति कठिन है; असंभव नहीं
कहा। बहुत
मुश्किल है; असंभव नहीं
कहा। नहीं ही
होगी, ऐसा
नहीं कहा।
होनी अति कठिन
है, ऐसा
कहा है। तो एक
तो इस बात को
समझ लेना
जरूरी है।
दूसरी
बात कृष्ण ने
कही, मन को वश
में कर लेने
वाले के लिए
सरल है, सहज
है उपलब्धि
योग की।
और
तीसरी बात कही, ऐसा मेरा मत
है। ऐसा नहीं
कहा, ऐसा
सत्य है। ऐसा
कहा, दिस इज़ माइ
ओपीनियन,
ऐसा मेरा मत
है। ये तीन
बातें इस
श्लोक में
खयाल ले लेने
जैसी हैं।
पहली
बात तो यह, जो बहुत
अजीब मालूम
पड़ेगी कि
कृष्ण ऐसा
कहें। कहना था
कि मन को जो वश
में नहीं करता,
उसके लिए
योग की
उपलब्धि
असंभव है, इंपासिबल
है; नहीं
होगी। लेकिन
कृष्ण कहते
हैं, कठिन
है, असंभव
नहीं। इसका
अर्थ? इसका
अर्थ यह हुआ
कि कठिन हो, लेकिन किसी
स्थिति में, किसी
व्यक्ति के
लिए, मन को
वश में बिना
किए भी
उपलब्धि संभव
हो सकती है।
कठिन है, लेकिन
संभव हो सकती
है। अति कठिन
है, लेकिन
फिर भी हो
सकती है।
मन को
वश में करने
वाला कैसे
उपलब्धि को
प्राप्त होता
है, उसकी
हमने बात की।
अब थोड़ा हम उस
थोड़े-से अल्पवर्ग
के संबंध में
बात कर लें, जिसकी वजह
से कृष्ण
असंभव न कह
सके।
बहुत
ही छोटा वर्ग
है। कभी करोड़
में एकाध आदमी
ऐसा होता है, जो मन को
बिना वश में
किए योग को
उपलब्ध हो जाता
है। बहुत रेयर
फिनामिनन
है; बहुत
करीब-करीब न
घटने वाली
घटना है; लेकिन
घटती है। खुद
कृष्ण भी
उन्हीं लोगों
में से एक
हैं।
इसलिए
कृष्ण ने
जानकर कहा है
यह, बहुत
समझकर कहा है।
खुद कृष्ण भी
उन्हीं लोगों
में से एक
हैं। क्योंकि
अर्जुन जरूर
ही पूछ लेता
कि हे मधुसूदन,
आपको कभी
आसन लगाए नहीं
देखा! आपको
कभी
प्राणायाम
करते नहीं
देखा। आपको
कभी प्रभु-स्मरण
करते नहीं
देखा। आपको
किसी तपश्चर्या
में से गुजरते
नहीं देखा।
जिस योग-साधना
की आप बात कर
रहे हैं, जिस
अभ्यास की आप
बात कर रहे
हैं, वह
कभी आपके
आस-पास दिखाई
नहीं पड़ा। और
जिस वैराग्य
की आप बात कर
रहे हैं, उसका
तो आपके
आस-पास कोई भी
अंदाज नहीं
मिलता, अनुमान
नहीं लगता।
मोर पंख
बांधकर, बांसुरी
बजाकर आप
नाचते हैं।
सुंदरतम बृज
की गोपियां
आपके चारों
तरफ रास करती
हैं। वैराग्य
कहीं दिखाई
नहीं पड़ता, मधुसूदन!
अर्जुन
निश्चित ही
ऐसा पूछता।
लेकिन अर्जुन को
पूछने का उपाय
कृष्ण ने नहीं
छोड़ा। इसलिए
अर्जुन ने
नहीं पूछा।
क्योंकि
कृष्ण ने कहा, बहुत कठिन
है अर्जुन, असंभव नहीं
है।
तो उस
थोड़े-से वर्ग, जिसमें
कृष्ण भी आते
हैं और कभी
एकाध-दो आदमी आ
पाते हैं
सदियों में, उस छोटे-से
वर्ग की भी हम
बात कर लें, क्योंकि
उसका भी खतरा
बड़ा है।
क्योंकि जो उस
वर्ग में नहीं
आता, वह
अगर सोच ले कि
यह होगा कठिन,
लेकिन हम
कठिन मार्ग से
ही जाएंगे, तो बहुत डर
यह है कि वह
कभी नहीं
पहुंचेगा, भटकेगा,
व्यर्थ समय
और जीवन को कर
लेगा।
ऐसा
हुआ इस देश
में। इस देश
ने बड़े गहरे
प्रयोग किए
हैं। तंत्र उन
प्रयोगों में
से है, जो
उनके लिए है
वस्तुतः, जो
मन को वश में न
करें। इसलिए
तंत्र जब इसोटेरिक
था, कुछ
थोड़े-से लोग
उस पर प्रयोग
करते थे, तब
वह बड़ी अदभुत
प्रक्रिया
थी। लेकिन और
लोगों को भी
लगा कि यह तो
बहुत अच्छा
है। मन को वश
में भी न करना
पड़े और योग
उपलब्ध हो
जाए!
तंत्र के
तो सभी सूत्र
उलटे हैं।
यह जो
थोड़ी-सी जगह छोड़ी है
कृष्ण ने, वह तंत्र के
लिए छोड़ी
है। उसकी बात
करनी
उन्होंने
उचित नहीं
समझी है, क्योंकि
उसकी बात करनी
सदा ही खतरे
से भरी है।
क्योंकि हम
सबका मन ऐसा
होगा कि अपने
को अपवाद मान
लें। और हम
सबका मन ऐसा
होगा कि जब मन
को बिना वश
में किए हो
सकता है, तो
होगा लंबा
मार्ग, लेकिन
यही ज्यादा
आनंदपूर्ण
रहेगा। मन को
वश में भी न
करेंगे और
पहुंच भी
जाएंगे योग
को। दूसरे न
पहुंचते
होंगे, हम
तो पहुंच ही
जाएंगे!
इसलिए
तंत्र जब
व्यापक फैला, तो अति
कठिनाई उसने
पैदा की।
हजारों लोग यह
सोचकर कि ठीक
है, क्योंकि
तंत्र कहता
है...। तंत्र के
पंच मकार प्रसिद्ध
हैं। वह कहता
है, पांच म
का जो सेवन
करेगा--सेवन, त्याग
नहीं--वही योग
को उपलब्ध
होगा। मदिरा
का त्याग नहीं,
सेवन।
मैथुन का
त्याग नहीं, सेवन। मांस
का त्याग नहीं,
सेवन। जो
उसको भोगेगा,
वही योग को
उपलब्ध होगा।
यह बहुत ही
छोटा-सा अल्पवर्ग
है, जिसके
लिए यह बात
बिलकुल सही
है।
और
ध्यान रहे, वह अल्पवर्ग
अति कठिन
मार्ग से
गुजरता है।
दिखता सरल
पड़ता है कि
शराब पीने से
ज्यादा सरल और
क्या हो सकता
है! शराबी
सड़कों पर पीकर
रास्तों पर
पड़े हैं। शराब
पीने से ज्यादा
सरल क्या होगा?
लेकिन
तंत्र की
प्रक्रिया
बहुत कठिन है,
अति दूभर
है।
तंत्र
कहता है, शराब
पीना, लेकिन
बेहोश मत
होना। यह
साधना है।
शराब पीए जाना
और बेहोश होना
मत। अगर बेहोश
हो गए, तो
साधना का
सूत्र टूट
गया। तो शराब
पीना और बेहोश
मत होना, शराब
पीना और होश
को कायम रखना।
हम तो
होश बिना शराब
पीए कायम नहीं
रख पाते। शराब
पीकर कायम रख
पाएंगे? बिना
ही पीए पीए-सी
हालत रहती है
दिन-रात! जरा में
होश खो जाता
है। तंत्र
कहता है, शराब
पीना, उसकी
मनाही नहीं
है। लेकिन होश
कायम रखना।
तो
तंत्र की अपनी
विधि है, कि
जब शराब पीयो,
कितनी
मात्रा में पीयो, कहां
रुक जाओ; होश
को कायम रखो।
फिर धीरे-धीरे
मात्रा बढ़ाते जाओ।
वर्षों की
लंबी यात्रा
में वह घड़ी
आती है कि
कितनी ही शराब
कोई पी जाए, होश कायम
रहता है। फिर
तो तंत्र को
यहां तक करना
पड़ा कि कोई
शराब काम नहीं
करती, तो
सांप पालने
पड़ते थे। अभी
भी आसाम में
कुछ तांत्रिक
सांप पालते
हैं और जीभ पर
सांप से कटाएंगे।
और साधना की
आखिरी कसौटी
यह होगी कि
सांप काट ले, और होश कायम
रहे।
है
प्रक्रिया
अदभुत, पर
बड़ी दूभर है।
शराब छोड़ने को
तंत्र नहीं
कहता। तंत्र
बहुत साहसियों
का मार्ग है।
वे कहते हैं, हम छोड़ेंगे
नहीं। अगर
कीचड़ में से
कमल हो सकता
है, तो हम
शराब में से
होश पैदा
करेंगे। और
बेहोशी में
अगर होश न रह
सका, तो
होश की कीमत
कितनी है! और
अगर शराब पीकर
सारी बुद्धि
नष्ट हो जाए, तो ऐसी
बुद्धि को
बचाने में भी
कितना सार है!
तंत्र
कहता है, मैथुन
का हम त्याग न
करेंगे; ब्रह्मचर्य
हम न साधेंगे।
हम तो मैथुन
में प्रवेश
करेंगे, और
वीर्य को अस्खलित
रखेंगे।
बहुत
कठिन है
मामला। पर
तंत्र ने इसके
प्रयोग किए।
पर इसोटेरिक
थे, गुप्त
थे। साधारणतः
वे समूह में
नहीं किए जा सकते
थे। पर
धीरे-धीरे खबर
तो फैलनी शुरू
हुई। और उनको
भी पता चल गया,
जो शराब
पीकर नालियों
में पड़े रहते
थे। उन्होंने
सोचा कि हम भी
तंत्र की
साधना क्यों न
करें? यह
तो बहुत ही
उचित है। फिर
कोई यह भी
नहीं कह सकता
कि शराब पीना
पाप है। फिर
तो शराब पीना
पुण्य हो गया।
तो
नाली में शराब
पीकर जो पड़ा
था, उसने जब
शराब पीकर
तंत्र की
साधना शुरू की,
तो मंदिर
में नहीं
पहुंचा, वह
और नाली में, और नाली में
चला गया। और
मैथुन तो सारा
जगत कर रहा
है। तंत्र ने
जब कहा कि
मैथुन में ही
उपलब्धि हो
जाएगी
परमात्मा की,
कहीं भागने
की जरूरत नहीं,
त्यागने की
जरूरत नहीं।
तो लोगों ने
कहा, फिर
ठीक ही है।
कहीं कुछ करने
की जरूरत
नहीं। मैथुन तो
हम कर ही रहे
हैं। लेकिन
तंत्र की शर्त
है।
एक
घटना मुझे याद
आती है। एक
तांत्रिक के
पास एक त्यागी
साधु गया।
वहां बड़ी-बड़ी मटकियों
में भरी हुई
शराब रखी थी
और एक युवा
तांत्रिक बैठकर
ध्यान कर रहा
था। साधु बहुत
घबड़ाया। शराब
की बास चारों
तरफ थी। उस
साधु ने कहा कि
मटके-मटके
भरकर शराब कौन
पीता है यहां? उस तांत्रिक
गुरु ने कहा
कि यह जो युवक
बैठा है, इसके
लिए रखी है।
एक मटका तो यह
एक ही गटक में
पी जाता है, एक सांस
में। उस आदमी
ने कहा कि
मुझे भरोसा नहीं
आता। फिर इसकी
हालत क्या
होती है? उसके
गुरु ने कहा
कि हालत वही
रहती है, जो
थी। शराब
अछूती गुजर
जाती है।
आर-पार निकल जाती
है, बीच
में नहीं
पहुंचती है, केंद्र को
नहीं छूती है।
उसने कहा, मैं
मानूंगा
नहीं, मैं
देखना
चाहूंगा। एक
सांस में पानी
की एक मटकी
पीना मुश्किल
है, और
शराब...!
उस
तांत्रिक
गुरु ने युवक
को कहा कि एक
मटकी शराब पी
जा। उसने कहा
कि एक मिनट का
मुझे मौका दें, मैं अभी
आया। गुरु
थोड़ा हैरान
हुआ कि एक
मिनट का मौका
उसने क्यों
मांगा? एक
मिनट बाद वह
आया और एक
मटकी उठाकर पी
गया। वह साधु
भी चकित हुआ।
एक सांस में!
साधु
के जाने पर
गुरु ने उससे
पूछा कि एक
मिनट का समय
तूने क्यों
मांगा था? उसने कहा कि
मैंने कभी एक
दफे में पीया
नहीं था, तो
मैं अंदर जाकर
अभ्यास करके
आया, एक
मटकी अंदर
पीकर, कि
मैं पी पाऊंगा
कि नहीं पी
पाऊंगा। कभी
मैंने एकदम से
ऐसा किया नहीं
था, इसलिए
जरा अभ्यास के
लिए अंदर गया।
एक मटकी पीकर
देखी, कि
ठीक है; हो
जाएगा।
यह जो
वर्ग था
साधकों का, यह बहुत
कठिन वर्ग है।
मैथुन हो, स्खलन
नहीं। और
मैथुन की
यात्रा पर
आदमी निकलता
ही इसलिए है
कि स्खलन हो।
तो आप यह मत
सोचना कि
तंत्र मैथुन
के पक्ष में
है। तंत्र तो
मैथुन के
अतिक्रमण की बात
है।
मैथुन
के लिए जाता
ही आदमी इसलिए
है कि स्खलन हो।
जो बोझ उसके
चित्त पर और
शरीर पर है, वह फिंक
जाए। और तंत्र
कहता है, मैथुन
सही, स्खलन
नहीं। और अगर
कोई व्यक्ति
मैथुन की स्थिति
में अस्खलन
को उपलब्ध हो
जाए, तो
इससे बड़ा
ब्रह्मचर्य
और क्या होगा?
उन ब्रह्मचारियों
से, जो कि
स्त्री को
देखने में
डरते हैं, इस
आदमी के
ब्रह्मचर्य
की बात ही और
है।
मगर यह
मार्ग है अति
संकीर्ण, इसलिए
कृष्ण ने उसकी
सिर्फ
निगेटिव खबर
देकर सूत्र
छोड़ दिया।
कुछ
लोग हैं, जो
मन को बिना
किसी तरह वश
में किए, मन
को पूरी छूट
दे देते हैं।
पूरी छूट! मन
से कहते हैं, जो तुझे
करना है कर, लेकिन उस
करने में वे
पार खड़े हो
जाते हैं। मन को
नहीं रोकते, लगाम नहीं पकड़ते मन
की। घोड़ों
को कह देते
हैं, दौड़ो,
जहां दौड़ना
है। लेकिन
दौड़ते हुए घोड़ों
में, भागते
हुए रथ में, गङ्ढों में, खाई
में, खड्ड
में, वह जो
ऊपर रथ पर
बैठा है वह, वह अकंप
बैठा रहता है।
तंत्र
कहता है कि
लगाम
सम्हालकर और
आप अकंप बैठे
रहे, तो कुछ
मजा नहीं है।
छोड़ दो लगाम; घोड़ों को दौड़ने दो;
रथ को
खड्डों में, खाइयों में
गिरने दो; और
तुम अकंप रथ
पर बैठे रहो, तो ही असली
मालकियत है।
पर वह
मालकियत बहुत
थोड़े-से लोगों
का मार्ग है।
भूलकर आप लगाम
छोड़कर मत बैठ
जाना, नहीं
तो पहले ही गङ्ढे
में प्राणांत
हो जाएगा!
दूसरे संतुलन
के लिए नहीं
बचेंगे आप।
इसलिए
कृष्ण ने
असंभव नहीं
कहा। असंभव
नहीं है, कृष्ण
भलीभांति
जानते हैं। और
कृष्ण से बेहतर
कोई भी नहीं
जानता। यह
असंभव नहीं है,
बिलकुल
संभव है।
लेकिन बहुत ही
थोड़े-से लोगों
के लिए है, अत्यल्प,
न के बराबर;
उन्हें
गिनती के बाहर
छोड़ा जा सकता
है। और उनकी
गिनती करनी
ठीक भी नहीं
है, क्योंकि
गिनती करने का
कोई फायदा
नहीं है। अपवाद
को बाहर छोड़ा
जा सकता है।
नियम
की बात कर रहे
हैं वे अर्जुन
से। और अर्जुन
उन लोगों में
से नहीं है, जो कि तंत्र
के मार्ग पर
जा सके।
इसीलिए कहा, दुष्प्राप्य
है। बड़ी
कठिनाई से
मिलने वाला है;
मिल सकता
है। यह
वैज्ञानिक
चिंतक का
लक्षण है।
वैज्ञानिक
चिंतक अल्प भी
शेष हो कुछ
मार्ग की
सुविधा, उसे
छोड़कर चलता
है। उसे छोड़कर
चलता है।
दूसरी
बात कृष्ण ने
कही, सरल है
उसके लिए, जो
मन को वश में
कर ले। कठिन
है उसके लिए, जो मन को
बिना वश में
किए यात्रा
करे। सरल है उसके
लिए, जो मन
को वश में कर
ले।
सरल
इसलिए है मन
को वश में कर
लेने के बाद, कि मन ही
व्यवधान
डालता है। वह
व्यवधान
डालने वाला अब
आपके काबू में
है। आप सरलता
से उसका अतिक्रमण
कर सकते हैं, बाधाएं आपके
काबू में हैं।
करीब-करीब
ऐसा समझें कि
कोई चाहे तो
मकान की सीढ़ियों
से नीचे उतर
सकता है, कोई
चाहे तो छलांग
भी लगाकर मकान
से नीचे उतर सकता
है। छलांग
लगाने में
खतरा है।
हाथ-पैर टूट
जाने का खतरा
है। जब तक कि
हाथ-पैरों की
ऐसी कुशलता न
हो, जैसी
कि होती नहीं
है, हाथ-पैर
टूटने को सदा
तैयार रहते
हैं। और जब आप
मकान पर से
कूदते हैं और
आपके हाथ-पैर
टूटते हैं, तो न तो मकान
की लंबाई तुड़वाती
है हाथ-पैर, न जमीन तुड़वाती
है; आपके
ही हाथ-पैर का
ढंग हाथ-पैर
को तुड़वा
देता है।
कभी
आपने खयाल
किया होगा कि
एक बैलगाड़ी
में अगर आप
बैठकर जा रहे
हों, साथ में
एक शराबी धुत
बैठा हो, और
आप होश में
बैठे हों। और
गाड़ी उलट जाए,
तो आपको चोट
लगे, धुत
शराबी को न
लगे। आप समझते
हैं! कोई आसान
बात है! शराबी
रोज नालियों
में गिरता है,
लेकिन न
कहीं चोट है, न हड्डी
टूटती, न फ्रैक्चर
होता! बात
क्या है? आप
जरा गिरकर
देखें! शराबी
के पास कौन-सी
तरकीब है, जिससे
कि गिरता है
और चोट नहीं
खाता?
तरकीब
शराबी के पास
नहीं है। असल
में शरीर जब भी
गिरने के करीब
होता है, तो रेसिस्टेंट
हो जाता है, अकड़ जाता
है। अकड़ी
हुई हड्डी टूट
जाती है। वह
शराबी बेहोश
है, वह रेसिस्ट
नहीं करता।
उसको पता ही
नहीं कि कब
गाड़ी उलट गई।
जब उलट गई, तब
भी वे गाड़ी
में ही बैठे
हुए हैं! तब भी
वे हांक रहे
हैं नाली में
पड़े हुए। उनको
पता ही नहीं, गाड़ी कब उलट
गई। शरीर को
मौका नहीं मिलता
है कि अकड़
जाए। अकड़ न
पाए, तो
जमीन चोट नहीं
पहुंचा पाती।
चोट पहुंचती है
अकड़ी चीज
पर।
इसलिए
बच्चे इतने
गिरते हैं और
चोट नहीं खाते।
आप जरा बच्चों
की तरह गिरकर
देखें, तब
आपको पता
चलेगा। एक दफे
गिर गए, तो
फैसला हुआ! और
बच्चा दिनभर
गिर रहा है और
उठकर फिर चल पड़ा
है। बात क्या
है? बच्चे
के पास
सीक्रेट क्या
है?
सीक्रेट
इतना ही है कि
जब वह गिरता
है, तब शरीर
को इस बात का
कोई पक्का पता
ही नहीं चलता
कि गिर रहे
हैं, सम्हल
जाएं।
सम्हलता नहीं,
इसलिए चोट
नहीं खाता है।
सम्हलेगा,
तो चोट खा
जाएगा। सम्हलने
में ही चोट खा
जाता है आदमी।
मकान
से उतरना हो, तो सीढ़ियां
ही ठीक हैं।
सम्हलता है जो
आदमी, उसको
सीढ़ियां
ही ठीक हैं।
क्योंकि
सीढ़ियों पर
सम्हलकर उतर सकते
हैं। सम्हलकर
छलांग लगाई तो
खतरा है।
छलांग
तो वह लगा
सकता है, जो
गैर-सम्हले
लगाता है। जो
गिरता हो मकान
से जमीन की
तरफ, लेकिन
इतना भी न अकड़े
कि गिर रहा
हूं। शरीर पर
जिसके पता ही
न चले। जो ऐसा
ही गिरे मकान
से, जैसा
छत पर खड़ा था, ठीक वैसा ही
गिरे, जरा
फर्क न पड़े।
शराब पी जाए, और वैसा ही
रहे, जैसा
शराब पीने के
पहले था।
मैथुन कर जाए,
और चित्त
वैसा ही रहे, जैसा मैथुन
करने के पहले
था। क्रोध कर
जाए, और
क्रोध के बीच
वैसा ही रहे, जैसा क्रोध
करने के पहले
था। जरा अंतर
न पड़े। तो फिर
वह जो छोटा-सा
संकीर्ण
मार्ग है, यात्रा
की जा सकती
है।
लेकिन
वह कभी जनपथ
नहीं बन सकता; वह पब्लिक
हाई-वे नहीं
है। वह बहुत, अति संकीर्ण
है। जनपथ पर, जहां सबको
चलना है, वहां
सीढ़ियां
हैं।
कभी
आपने खयाल
किया है कि
सीढ़ियों पर भी
आप छलांग ही
लगाते हैं, उतरते नहीं
हैं। उतर तो
कोई सकता ही
नहीं। चाहे
पूरे मकान की
छलांग लगाएं,
चाहे सीढ़ी
पर। सीढ़ी पर
कोई आप उतर
सकते हैं? एक
सीढ़ी से दूसरी
पर छलांग
लगाते हैं। एक
आदमी एक मंजिल
से दूसरी
मंजिल पर
लगाता है। बड़ी
सीढ़ी है, और
कोई फर्क नहीं
है। लेकिन
छोटी सीढ़ी
होने की वजह
से आपको अड़चन
नहीं आती, आप
सम्हलकर उतर
आते हैं। इतना
ही फर्क पड़ता
है।
मन को
वश में करना
सीढ़ियों वाला
मार्ग है। और मन
को निरंकुश
छोड़कर छलांग
लगा जाना
गैर-सीढ़ियों
वाला मार्ग है।
जापान
में बौद्ध
धर्म की दो
शाखाएं हैं।
एक शाखा को
कहते हैं, सोटो झेन। और एक
शाखा का नाम
है, रिंझाई
झेन। एक शाखा
है, जो
मानती है कि सडेन
एनलाइटेनमेंट,
अचानक
निर्वाण की
उपलब्धि। वह
छलांग वाला रास्ता
है। दूसरी
मानती है, ग्रेजुअल
एनलाइटेनमेंट;
वह क्रमशः,
एक-एक क्रम,
एक-एक सीढ़ी
चलने वाला
मार्ग है।
मोझर्ट
के पास एक
आदमी गया। और
उस आदमी ने मोझर्ट
से पूछा कि
जिस भांति
तुमने सात
वर्ष की उम्र में
संगीत की
समस्त कला
उपलब्ध कर ली
थी, मैं भी
किस भांति
उसको उपलब्ध
करूं, उसी
तरह? मोझर्ट ने कहा, तुम्हारी
उम्र कितनी है?
उस आदमी ने
कहा, मेरी
उम्र तो
पैंतालीस पार
कर गई है।
उसने कहा, तुमको
सात वर्ष में
आना चाहिए था,
एक। और
दूसरी बात
ध्यान रखना, यह तुमसे न
हो सकेगा।
उसने कहा, लेकिन
क्यों न हो
सकेगा? तुमसे
हो सका, मुझसे
क्यों न हो
सकेगा? मोझर्ट ने कहा, इसलिए
कि मैं किसी
से कभी पूछने
नहीं गया। तुम
पूछने आए हो!
पूछने
वाला तो सीढ़ियां
ही चढ़ सकता
है। पूछने
वाला सडेन
नहीं हो सकता।
पूछने का मतलब
ही है कि सीढ़ियां
पूछने गया है
कि सम्हलकर
कैसे चढ़ जाएं, उतर जाएं। न
पूछने वाला
छलांग लगाता
है।
मोझर्ट
ने कहा, मुझमें
तुममें फर्क
है। मैं किसी
से पूछने नहीं
गया। तुम
पूछने आए हो।
पूछने
वाले को सीढ़ियां
बतानी
पड़ेंगी। जो
लोग छलांग लगा
सकते हैं, वे बिना
गुरु के
यात्रा कर
सकते हैं।
लेकिन जिसको
गुरु की जरूरत
हो, वह
छलांग नहीं
लगा सकता।
बिना
गुरु के वही
आदमी चल सकता
है, जो छलांग
लगा सकता हो।
क्योंकि गुरु
की कोई जरूरत
नहीं है। हम न
कोई मार्ग पूछ
रहे हैं, न
हम कोई सीढ़ियां
पूछ रहे हैं। सीढ़ियां
और मार्ग
पूछने का मतलब
यह है कि
कुशलता से, बिना तकलीफ
के, बिना
अड़चन के, सरलता
से, बिना
किसी झंझट के,
बिना किसी
उपद्रव में
पड़े, बिना
किसी खतरे में
पड़े, मैं
कैसे निकल
जाऊं? गुरु
ढूंढ़ने का यही
मतलब है।
इसलिए
छलांग लगाने
वाले के लिए
मार्ग बताने की
कोई जरूरत
नहीं है। जो
छलांग लगाने
वाला है, वह
लगा जाता है।
यही तो
झंझट होती है।
कृष्णमूर्ति
के पास लोग जाते
हैं और पूछते
हैं, हाउ टु बी अवेयर?
और
कृष्णमूर्ति
कहते हैं, डोंट आस्क मी हाउ। मत
पूछो, कैसे!
नहीं, कृष्णमूर्ति
को पता नहीं
है कि जो
पूछता नहीं है
कैसे, वह
आएगा काहे के
लिए आपके पास!
वह जो आया है, वह कैसे
पूछने वाला ही
है। असल में
कैसे पूछने के
लिए ही तो कोई
आता है। नहीं
तो आने की कोई
जरूरत नहीं।
आप जहां हैं, वहीं से
छलांग लगा
जाएं, पूछने
की जरूरत क्या
है, किस
दिशा में
लगाएं? कैसे
लगाएं? जिसने
पूछा, किस
दिशा में, कैसे,
किस विधि से,
वह आदमी सीढ़ियां
उतरेगा।
मन को
वश में करना
सीढ़ियों वाला
उपाय है। एक-एक
कदम उठाया जा
सकता है।
धीरे-धीरे
अभ्यास किया
जा सकता है।
छलांग लगाने
वाला मामला
बहुत उलटा है।
कभी-कभी कोई
आदमी छलांग लगा
पाता है।
बुद्ध
के जीवन में
उल्लेख है कि
बुद्ध एक गांव
से गुजरते
हैं। लोग कहते
हैं, मत जाओ, आगे एक डाकू
है, वह
हत्या कर रहा
है लोगों की।
रास्ता
निर्जन हो गया
है। वह
अंगुलिमाल
किसी को भी
मार देता है।
तुम मत जाओ इस
रास्ते से।
बुद्ध कहते
हैं, अगर
मुझे पता न
होता, तो
शायद मैं
दूसरे रास्ते
से भी चला
जाता। लेकिन
अब जब कि मुझे
पता है, इसी
रास्ते से
जाना होगा।
लोग कहते हैं,
लेकिन किसलिए?
बुद्ध कहते
हैं, इसलिए
कि वह बेचारा
प्रतीक्षा
करता होगा। लोग
मिल न रहे
होंगे; उसको
बड़ी तकलीफ
होती होगी।
कोई गर्दन तो
मिलनी चाहिए गर्दन
काटने वाले
को! और अपनी
गर्दन का इतना
भी उपयोग हो
जाए कि किसी
को थोड़ी शांति
मिल जाए, तो
बुरा क्या है!
बुद्ध आगे बढ़
जाते हैं।
अंगुलिमाल
देखता है, कोई आ रहा है
दूर से, तो
अपने पत्थर पर,
अपने फरसे
पर धार रखने लगता
है। बहुत दिन
हो गए, जंग
खा गया फरसा।
कोई निकलता ही
नहीं रास्ते से।
उसने कसम खा
ली है कि एक
हजार लोगों की
गर्दन काटकर,
उनकी
अंगुलियों का
हार बनाना है,
इसलिए वह
अंगुलिमाल
उसका नाम पड़
गया। उसने नौ सौ
निन्यानबे
आदमी मार दिए,
एक की ही
दिक्कत है।
उसी में वह अटका
हुआ है। कोई
निकलता ही
नहीं! रास्ता
करीब-करीब बंद
हो गया है!
किसी को आते
देखकर, अति
प्रसन्न होकर
वह अपने फरसे
पर धार रखता
है।
लेकिन
जैसे-जैसे
बुद्ध करीब
आते हैं, और
जैसे-जैसे वह
साफ देख पाता
है, उसको
थोड़ा लगता है
कि निरीह आदमी,
सीधा-सादा
आदमी, शांत
आदमी! इस
बेचारे को
शायद पता नहीं
है कि यहां
अंगुलिमाल है
और रास्ता
निर्जन हो गया
है। इसको एक
चेतावनी दे
देनी चाहिए।
इसको एक दफा
कह देना चाहिए
कि तू खतरनाक
रास्ते पर आ
रहा है।
अंगुलिमाल
के पास जब
बुद्ध पहुंच
जाते हैं, तो वह
चिल्लाता है
कि हे भिक्षु!
लौट जा वापस।
शायद तुझे पता
नहीं, तू
भूल से आ गया
है। इस मार्ग
पर कोई आता
नहीं। और तेरी
शांत मुद्रा
को देखकर, तेरी
धीमी गति को
देखकर, तेरे
संगीतपूर्ण
चलने को देखकर
मुझे लगता है
कि तुझे माफ
कर दूं। तू
लौट जा। एक
शर्त, अगर
तू लौट जाए, तो मैं फरसा
न उठाऊं।
लेकिन अगर एक कदम
भी आगे बढ़ाया,
तो तू अपने
हाथ से मरने
जा रहा है।
फिर मेरा कोई
जिम्मा नहीं
है।
लेकिन
बुद्ध आगे बढ़े
चले जाते हैं।
अंगुलिमाल और
हैरान होता
है। ठिठके
भी नहीं वे।
एक दफे उसकी
बात के लिए
रुककर सोचा भी
नहीं कि विचार
कर लें। वे
आगे ही बढ़ते
चले आते हैं।
अंगुलिमाल
कहता है कि
देखो, सुना?
समझे कि
नहीं? बहरे
तो नहीं हो!
बुद्ध
कहते हैं, भलीभांति
सुनता हूं, समझता हूं।
अंगुलिमाल
कहता है, रुक
जाओ। मत बढ़ो!
बुद्ध कहते
हैं, अंगुलिमाल,
मैं बहुत
पहले रुक गया।
तब से मैं चल
ही नहीं रहा
हूं। मैं
तुझसे कहता
हूं, अंगुलिमाल,
तू रुक जा, मत चल।
अंगुलिमाल
बोला कि बहरे
तो नहीं हो, लेकिन पागल
मालूम होते
हो। मैं खड़ा
हुआ हूं। मुझ
खड़े हुए को
कहते हो कि
रुक जाओ! तुम
चल रहे हो।
चलते हुए को
कहते हो कि
खड़े हो!
तो
बुद्ध ने कहा, मैंने जब से
जाना कि मन ही
चलता है, और
जब मन रुक
जाता है, तो
सब रुक जाता
है। तेरा मन
बहुत चल रहा
है। इतनी दूर
से तू मुझे
देख रहा है, और तेरा मन
चल रहा है।
फरसे पर धार
रख रहा है, तेरा
मन चल रहा है।
अभी तू सोच
रहा है, तेरा
मन चल रहा है। मारूं, न
मारूं।
यह आदमी लौट
जाए, आए।
तेरा मन चल
रहा है। तेरे
मन के चलने को
मैं कहता हूं,
अंगुलिमाल,
तू रुक जा।
अंगुलिमाल
ने कहा, मेरी
किसी की बात
मानने की आदत
नहीं है। तो
ठीक है। तुम
आगे बढ़ो, मैं भी फरसे
पर धार रखता
हूं। वह फरसे
पर धार रखता
है; बुद्ध
आगे आ जाते
हैं। बुद्ध
सामने खड़े हो
जाते हैं। वह
अपना फरसा
उठाता है।
बुद्ध
कहते हैं, लेकिन मरते हुए
आदमी की एक
बात पूरी कर
सकोगे? अंगुलिमाल
ने कहा, बोलो।
कोई बात पूरी
करने के लिए
तो हजार आदमी मैंने
काटे! तुम
बोलो; बात
पूरी करूंगा।
मेरे वचन का
भरोसा कर सकते
हो। बुद्ध ने
कहा, वह
मैं जानता
हूं। कोई दिया
गया वचन ही
हजार आदमी
मारने के लिए
उसको मजबूर
किया है। तो
बुद्ध ने कहा,
इसके पहले
कि मैं मरूं, एक छोटी-सी
बात जानना
चाहता हूं। यह
सामने जो वृक्ष
लगा है, इसके
दो-चार पत्ते
मुझे काटकर दे
दो।
उसने
फरसा वृक्ष
में मारा।
दो-चार पत्ते
क्या, दो-चार
शाखाएं कटकर
नीचे गिर गईं।
बुद्ध ने कहा,
यह आधी बात
तुमने पूरी कर
दी। अब इनको
वापस जोड़ दो!
उस अंगुलिमाल
ने कहा, तुम
निश्चित पागल
हो। तोड़ना
संभव था, जोड़ना
संभव नहीं है।
तो
बुद्ध ने कहा, अंगुलिमाल,
तोड़ना तो
बच्चे भी कर
सकते हैं। अगर
जोड़ सको, तो
कुछ हो, अन्यथा
कुछ भी नहीं।
तोड़ना तो
बच्चे भी कर
सकते हैं। अगर
जोड़ सको, तो
कुछ हो। हजार
गर्दन भी काट
ली, तो मैं
कहता हूं, कुछ
भी नहीं हो।
एक गर्दन जोड़
दो, तो मैं
समझूंगा, कुछ
हो।
अंगुलिमाल
ने फरसा नीचे
पटक दिया। वह
बुद्ध के
पैरों पर गिर
गया। और बुद्ध
ने कहा, अंगुलिमाल,
तू आज से
उपलब्ध हुआ।
तू आज से
ब्राह्मण
हुआ। तू आज से
संन्यासी
हुआ।
बुद्ध
के भिक्षु
पीछे खड़े थे।
उन्होंने कहा
कि हम वर्षों
से आपके साथ
हैं। हम से
कभी आपने ऐसे
वचन नहीं बोले
कि तुम
ब्राह्मण हुए, कि तुम
उपलब्ध हुए, कि तुम पा
गए। और
अंगुलिमाल
हत्यारे से, जो अभी क्षणभर
पहले गर्दन
काटने को
तैयार था, और
फरसा फेंककर
सिर्फ पैर पर
गिरा है, उससे
आप ऐसे वचन
बोल रहे हैं!
बुद्ध
ने कहा, यह
उन थोड़े-से
लोगों में से
है, जो
छलांग लगा
सकते हैं। यह
छलांग लगा गया
है। और जब
अंगुलिमाल को
उठाकर खड़ा
किया, तो
लोग उसका
चेहरा भी न
पहचान सके। वह
क्रूर हत्यारा
न मालूम कहां
विदा हो गया
था। उन आंखों
में जहां आग
जलती थी, वहां
फूल खिल गए
थे। वह
व्यक्ति, जिसके
हाथ में फरसा
था, कोई
भरोसा न कर
सकता था कि इस
हाथ में कभी
फरसा रहा
होगा। इस हाथ
ने कभी फूल भी
तोड़े होंगे, इतनी भी इस
हाथ में
कठोरता नहीं
है।
लेकिन
बुद्ध के
भिक्षुओं को तोर्
ईष्या होनी
स्वाभाविक
थी। आज का नया
आदमी एकदम
सीनियर हो
गया। एकदम
सीनियर! सब
छलांग लगा
गया! सब
व्यवस्था तोड़
दी! अंगुलिमाल
बुद्ध के बगल
में चलने लगा।
गांव में प्रवेश
किया। भिक्षुर्
ईष्या से भर
गए। उन्होंने
कहा, यह
अंगुलिमाल
हत्यारा है।
बुद्ध
ने कहा, थोड़ा
ठहरो। उस आदमी
को तुम नहीं
जानते हो। वह
उन थोड़े-से
लोगों में से
है, जो
छलांग लगा
लेते हैं। वह
हत्या कर-करके
हत्या से
मुक्त हो गया।
और तुम हत्या
बिना किए हत्या
से मुक्त नहीं
हो पाए हो।
मैं तुमसे
पूछता हूं भिक्षुओ,
तुम्हारे
मन में
अंगुलिमाल की
हत्या का खयाल
तो नहीं उठता?
एक
भिक्षु जो
पीछे था, वह घबड़ाकर हट
गया। उसने कहा,
आपको कैसे
पता चला? मेरे
मन में यह
खयाल आ रहा था
कि इसको तो
खतम ही कर
देना चाहिए।
नहीं तो मुफ्त,
यह नंबर दो
का आदमी हो
गया! बुद्ध के
बाद ऐसा लगता
है कि यही
आदमी है! और
अभी-अभी आया!
तो
बुद्ध ने कहा
कि मैं तुमसे
कहता हूं, तुम हत्या
छोड़-छोड़कर भी
नहीं छोड़ पाए।
यह हत्या कर-करके
भी मुक्त हो
गया। इसके लिए
मन को वश में करने
की कोई
प्रक्रिया
नहीं है। और
जब गांव में
गए, तो
बुद्ध ने कहा,
अब तुम्हें
अभी, जल्दी
ही प्रमाण मिल
जाएगा। थोड़ी
प्रतीक्षा करो,
जल्दी
प्रमाण मिल
जाएगा।
गांव
में जब सब
भिक्षु गए, तो बुद्ध ने
कहा, अंगुलिमाल,
भिक्षा
मांगने जा।
सम्राट
भी डरते थे।
अंगुलिमाल का
नाम कोई ले दे, तो उनको भी
कंपन हो जाता
था। सारे गांव
में खबर फैल
गई कि
अंगुलिमाल
भिक्षु हो
गया। लोगों ने
दरवाजे बंद कर
लिए। क्योंकि
भरोसा क्या, कि वह आदमी
एकदम किसी की
गर्दन दबा दे!
दरवाजे बंद हो
गए। दुकानें
बंद हो गईं।
गांव बंद हो
गया। लोग अपनी
छतों पर, छप्परों
पर चढ़ गए।
अंगुलिमाल
जब नीचे
भिक्षा का
पात्र लेकर
भिक्षा
मांगने निकला, तो कोई
भिक्षा देने
वाला नहीं था।
हां, लोगों
ने ऊपर से
पत्थर जरूर
फेंके। और
इतने पत्थर
फेंके कि
अंगुलिमाल
सड़क पर
लहूलुहान
होकर गिर पड़ा।
और जब लोगों
ने पत्थर
फेंके, तो
अंगुलिमाल ने
सिर्फ अपने
भिक्षा-पात्र
में पत्थर
झेलने की
कोशिश की। न
उसने एक
दुर्वचन कहा,
न एक क्रोध
से भरी आंख
उठाई।
और जब
वह लहूलुहान, पत्थरों में
दबा हुआ नीचे
पड़ा था, बुद्ध
उसके पास गए।
और उन्होंने
कहा, अंगुलिमाल,
इन लोगों के
इतने पत्थर
खाकर तेरे मन
में क्या होता
है? तो
अंगुलिमाल ने
कहा, मेरे
मन में यही
होता है कि
जैसा नासमझ
मैं कल तक था, वैसे ही
नासमझ ये हैं।
परमात्मा, इनको
क्षमा कर। और
मेरे मन में
कुछ भी नहीं
होता। तो
बुद्ध ने अपने
भिक्षुओं से
कहा कि इसको
देखो, यह
बिना विधि के
छलांग लगा गया
है।
कृष्ण
इसलिए उस
छोटे-से
हिस्से में
छोड़ देते हैं, दुष्प्राप्य
कहते हैं, असंभव
नहीं कहते
हैं। सरल कहते
हैं उसको, जिसने
मन को वश में
किया, क्योंकि
मन को इंच-इंच
वश में किया
जा सकता है।
अगर हजार घोड़े
हैं आपके मन
के रथ में, तो
आप एक-एक घोड़े
को धीरे-धीरे
लगाम पहना
सकते हैं।
एक-एक घोड़े को
धीरे-धीरे
ट्रेन कर सकते
हैं, प्रशिक्षित
कर सकते हैं।
और एक दिन ऐसा
आ सकता है कि
रथ ऐसा चलने
लगे कि आप
समता को
उपलब्ध हो जाएं।
विपरीत
के बीच समता
को उपलब्ध
होना कठिन है, सानुकूल के
बीच समता को
उपलब्ध होना
आसान है। अनुकूल
के बीच समता
को उपलब्ध
होना आसान है,
प्रतिकूल
के बीच समता
को उपलब्ध
होना अति कठिन
है।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, मन को वश
में करके, अनुकूल
स्थिति बनाकर,
शांत हो
जाना सरल है।
अगर
चारों तरफ
हरियाली भरे
वृक्ष हों, पक्षियों के
मधुर गीत हों,
सुबह की
ताजी हवा हो, सूरज का
उठता हुआ, जागता
हुआ नया रूप
हो, तो
उसके बीच
बैठकर ध्यान
करना आसान है।
बाजार हो, चारों
तरफ उपद्रव चल
रहा हो, आग
लगी हो, उसके
बीच बैठकर, प्रतिकूल के
बीच ध्यान में
उतरना कठिन
है।
लेकिन
असंभव नहीं
है। ऐसे लोग
हैं, जो मकान
में आग लगी हो,
और ध्यान
में उतर सकते
हैं। ऐसे लोग
हैं, जो
बीच बाजार में
बैठकर ध्यान
में उतर सकते
हैं।
कृष्ण
उन लोगों में
से ही हैं।
नहीं तो कृष्ण
युद्ध के
मैदान पर जाने
को राजी न
होते। राजी हो
जाते हैं, क्योंकि कोई
अड़चन नहीं है।
वहां भी चित्त
वैसा ही
रहेगा। युद्ध
होगा, लाशें
पट जाएंगी, खून की
धाराएं बहेंगी--चित्त
वैसा ही
रहेगा।
इसीलिए तो वे
अर्जुन को कह
पाते हैं कि
अर्जुन, तू
बेफिक्री से
काट, कोई
कटता ही नहीं।
बस, तू एक
खयाल छोड़ दे
कि तू काटने
वाला है, बस।
कटने वाला कोई
भी नहीं है
यहां। तेरी
भ्रांति भर तू
छोड़ दे कि मैं
किसी को मार
डालूंगा, कि
कोई मेरे
द्वारा मार
डाला जाएगा, कि मेरे
द्वारा किसी
को दुख पहुंच
जाएगा।
कृष्ण
कहते हैं, दुख सदा
अपने ही
द्वारा
पहुंचता है, किसी और के
द्वारा नहीं।
तू भर यह खयाल
छोड़ दे कि
तेरे द्वारा!
अन्यथा तेरा
यह खयाल तुझे दुख
पहुंचा जाएगा,
और कुछ नहीं
होगा। सब अपने
ही कारण से
मरते हैं, निमित्त
कुछ भी बन
जाए। तू
निमित्त से
ज्यादा नहीं
होगा, कर्ता
नहीं होगा।
इसलिए तू
मारने-काटने
की फिक्र छोड़
दे। और फिर
कौन कब कटता
है! शरीर ही
कटता है। वह
जो भीतर है, अनकटा रह जाता है।
उसे तो शस्त्र
भी नहीं छेद
पाते; उसे
तो कोई काट
नहीं पाता। आग
जला नहीं पाती,
पानी डुबा
नहीं पाता।
यह जो
कृष्ण ऐसा कह
सकते हैं, ऐसा जानते
हैं इसलिए।
इसलिए युद्ध
के मैदान पर
खड़े हो सके
हैं। ये वे
थोड़े-से जो
लोग हैं करोड़ों
में, उनमें
से एक आदमी
युद्ध के
मैदान पर खड़ा
हो सकता है।
नहीं तो
अहिंसावादी
भागेगा युद्ध
के मैदान से।
सिर्फ वही
अहिंसावादी
युद्ध के मैदान
पर भी खड़ा
होकर अहिंसक
हो सकता है, जिसने मन को
वश में करने
की विधि से
पार नहीं पाया,
मन को
स्वच्छंद
छोड़कर पाया
है। जिसने मन
को वश में
किया है, वह
अहिंसावादी
युद्ध से दूर
भागेगा। वह
कहेगा, कहीं
कोई मेरी लगाम
टूट जाए!
युद्ध का
उपद्रव, कोई
घोड़ा छूट जाए!
कोई झंझट हो
जाए! तो मेरी
सारी
व्यवस्था बनी
बनाई, कभी
भी विशृंखल हो
सकती है।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, सरल है।
और सरल से ही
जाना उचित है।
सरल का अर्थ
ही यही है कि
जो अधिकतम लोगों
के लिए सुगम
पड़ेगा, अनुकूल
पड़ेगा, स्वभाव
के साथ पड़ेगा।
सहज है।
लेकिन
तीसरी बात, और
महत्वपूर्ण, कृष्ण कहते
हैं, यह
मेरा मत है।
ऐसा कहने की
क्या जरूरत है
कृष्ण को कि
यह मेरा मत है?
कह सकते थे,
यह सत्य है।
सत्य और मत का
थोड़ा फर्क समझ
लें।
ट्रुथ
का मतलब होता
है, ऐसा है, मैं कहूं या
न कहूं। कोई
जाने न जाने; कोई माने न
माने--ऐसा है।
मत का अर्थ
होता है, जैसा
है, उसके
बाबत मेरा
विचार, ओपीनियन अबाउट दि ट्रुथ,
सत्य के
संबंध में
मेरा विचार।
सत्य नहीं, मेरा विचार।
विचार में
भूल-चूक हो
सकती है।
विचार में कमी
भी हो सकती
है। विचार में
अभिव्यक्ति-दोष
भी हो सकता है।
विचार में
भाषा के कारण,
जो कहा गया,
वह अन्यथा
भी समझा जा
सकता है। शब्द
बोलते ही आपके
हाथ में चला
जाता है।
मैंने शब्द
बोला, तो
आपके हाथ में
चला जाता है।
व्याख्या आप करेंगे।
इसलिए
कृष्ण बहुत ही
ठीक बात कह
रहे हैं। वे कहते
हैं, यह मेरा
मत है अर्जुन।
मत का अर्थ है
कि जैसे ही
सत्य को शब्द
दिया गया, वह
मत हो जाता है,
सत्य नहीं
रह जाता। सत्य
जब निःशब्द
होता है, तभी
सत्य होता है।
इसलिए
जो लोग शब्दों
में सत्य का
आग्रह करते हैं, उनको सत्य
का कोई भी पता
नहीं है।
शब्दों में जो
सत्य का आग्रह
करता है, उसे
सत्य का कोई
भी पता नहीं
है। शब्दों
में ज्यादा से
ज्यादा, बस
मत की बात कही
जा सकती है, कि मेरा ओपीनियन
है अर्जुन।
फर्क
है बहुत। अगर
कहें कि सत्य
है यह, तो
मानने का
आग्रह वजनी हो
जाता है। मत
है यह, तो
मानो न मानो, स्वतंत्रता
कायम रहती है।
सत्य को तो
मानना ही
पड़ेगा। मत को
अस्वीकार भी
किया जा सकता
है।
फिर और
भी कारण हैं।
जैसे ही सत्य
को हम प्रकट करते
हैं, वह मत हो
जाता है।
इसलिए सभी
शास्त्र मत
हैं, ओपीनियन का संग्रह
हैं। कोई
शास्त्र सत्य
का संग्रह
नहीं है, न
हो सकता है।
काश, दुनिया के
सभी धर्म यह
समझ पाएं कि
उनका जो शास्त्र
है, वह एक
मत है, सत्य
नहीं है, तो
झगड़ा न
हो। क्योंकि
सत्य के संबंध
में हजार मत
हो सकते हैं।
हजार सत्य
नहीं हो सकते।
लेकिन चूंकि
प्रत्येक
शास्त्र दावा
करता है सत्य
का, इसलिए
दो सत्यों
में--दो सत्य
कैसे
मानें--कलह खड़ी
हो जाती है।
मत है!
अर्जुन को कहा
गया कृष्ण का
यह वक्तव्य बड़ा
कीमती है, यह मेरा मत
है। कृष्ण
जैसा आदमी कहे
कि यह मेरा मत
है, अदभुत
है। क्योंकि
कृष्ण जैसा
आदमी सहज ही
कह पाता है, यह सत्य है।
बिना फिक्र
किए, बिना
सोचे-समझे
उससे निकलता
है, यह
सत्य है, क्योंकि
वह सत्य को
जानता है। यह
बहुत कंसीडर्ड
वक्तव्य है, बहुत सोचकर
कहा गया कि यह
मत है अर्जुन।
इसको तुम ऐसा
मत समझ लेना
कि यही सत्य
है। अन्यथा शब्दों
पर गांठ बन
जाएगी और
शब्दों की
व्याख्या तुम
करोगे।
अगर मत
है, तो इसका
अर्थ यह हुआ
कि सत्य
तुम्हें पाना
पड़ेगा, इस
मत से सत्य
नहीं मिलेगा।
मत से सिर्फ
सूचना मिलती
है कि मुझे
सत्य मिला।
अगर तुम्हें
भी सत्य पाना
है, तो
तुम्हें भी
चेष्टा और
श्रम और
अभ्यास और साधना
करनी पड़ेगी, तब तुम सत्य
पाओगे। अगर
मैं कहूं कि
जो मैं कह रहा
हूं, यही
सत्य है, तो
आपको शब्द से
ही सत्य मिल
गया। अब साधना
की और क्या
जरूरत रह गई
है! साधना की
सुविधा बनी रहे।
अर्जुन को पता
रहे कि सत्य
अभी पाना है।
जो मिला है, वह मत है।
भगवान भी बोले,
तो जो
मिलेगा, वह
मत होगा, सत्य
नहीं होगा।
साधना के लिए
उपाय शेष रहेगा
ही।
फिर
साथ में यह भी
जरूरी है समझ
लेना कि मत को
विचारा जा
सकता है।
इसलिए जब तक
जो आदमी विचार
में पड़ा है, उससे मत की
ही बात की जा
सकती है, सत्य
की बात नहीं
की जा सकती
है। क्योंकि
वह इस पर
सोचेगा।
अर्जुन जो
सुनेगा, उस
पर सोचेगा भी,
उसका अर्थ
भी निकालेगा,
व्याख्या
भी करेगा। और
अर्थ और
व्याख्याएं! अर्थ
और
व्याख्याएं
हमारी होती
हैं।
जब
अर्जुन अर्थ
निकालेगा, तो वह कृष्ण
का नहीं होगा,
वह अर्जुन
का होगा। हां,
अगर अर्जुन
इस हालत में आ
जाए कि सोचना
छोड़ दे, व्याख्या
करना छोड़ दे, अर्थ
निकालना छोड़
दे, सिर्फ
सुन सके; इतना
शून्य और खाली
हो जाए कि
अपने मन को
विदा कर दे--तो
फिर मत सत्य
की तरह प्रवेश
कर सकता है।
लेकिन ऐसा अति
कठिन है। ऐसा
अति कठिन है।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, यह मत है।
अर्जुन
उवाच
अयतिः श्रद्धयोपेतो
योगाच्चलितमानसः।
अप्राप्य
योगसंसिद्धिं
कां गतिं
कृष्ण गच्छति।।
37।।
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि।। 38।।
एतन्मे संशयं
कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः।
त्वदन्यः संशयस्यास्य
छेत्ता न ह्युपपद्यते।।
39।।
इस
पर अर्जुन
बोला, हे
कृष्ण, योग
से चलायमान हो
गया है मन
जिसका, ऐसा
शिथिल यत्न
वाला
श्रद्धायुक्त
पुरुष, योग-सिद्धि
को अर्थात
भगवत-साक्षात्कार
को न प्राप्त
होकर, किस
गति को
प्राप्त होता
है।
और
हे महाबाहो, क्या वह भगवत्प्राप्ति
के मार्ग में
मोहित हुआ आश्रयरहित
पुरुष
छिन्न-भिन्न
बादल की भांति
दोनों ओर से
अर्थात भगवतप्राप्ति
और सांसारिक
भोगों से
भ्रष्ट हुआ
नष्ट तो नहीं
हो जाता है।
हे
कृष्ण, मेरे
इस संशय को
संपूर्णता से
छेदन करने के
लिए आप ही
योग्य हैं, क्योंकि
आपके सिवाय
दूसरा इस संशय
का छेदन करने
वाला मिलना
संभव नहीं है।
सुना
अर्जुन ने
कृष्ण की बात
को; जो उठना
चाहिए था संशय,
वही उसके मन
में उठा।
अर्जुन बहुत
प्रेडिक्टेबल
है। अर्जुन के
संबंध में
भविष्यवाणी
की जा सकती है
कि उसके मन
में क्या
उठेगा। जो
मनुष्य के मन
में उठता है
सहज, वह
उठा उसके मन
में।
उठा यह
सवाल कि योग
से चलायमान हो
जाए जिसका चित्त, प्रभु-मिलन
से जो विचलित
हो गया है, खो
चुका है जो उस
निधि
को--यद्यपि
श्रद्धायुक्त
है, चाहता
भी है कि पा ले,
कोशिश भी
करता है कि पा
ले, फिर भी
मन थिर नहीं
होता--तो ऐसे
व्यक्ति की गति
क्या होगी?
यह डर
स्वाभाविक
है। तत्काल
पीछे पूछता है
कि कहीं ऐसा
तो न होगा कि
जैसे कभी आकाश
में वायु के
झोंकों में
बादल
छितर-बितर
होकर नष्ट हो
जाता है। कहीं
ऐसा तो न होगा
कि दोनों ही
छोरों को खो गया
आदमी! यहां
संसार को
छोड़ने की
चेष्टा करे कि
परमात्मा को
पाना है, और
वहां मन थिर न
हो पाए और
परमात्मा
मिले नहीं! तो
कहीं ऐसा तो न
होगा कि राम
और काम दोनों
खो जाएं और वह
आदमी एक बादल
की तरह हवाओं
के दोनों तरफ
के झोंकों में
छितर-बितर
होकर नष्ट हो
जाए। कहीं ऐसा
तो न होगा?
संसार
को छोड़ते समय
मन में यह
सवाल उठता ही
है कि कहीं
ऐसा तो न हो कि
मैं संसार की
तरफ वैराग्य
निर्मित कर
लूं, तो संसार
भी छूट जाए, और परमात्मा
को पा न सकूं, क्योंकि मन
बड़ा चंचल है।
तो संसार भी
छूट जाए और
परमात्मा भी न
मिले; तो
मैं घर का न
घाट का; धोबी
के गधे जैसा न
हो जाऊं!
अभी
कहीं तो हूं, संसार में
सही। अभी कुछ
तो मेरे पास
है। माना कि
भ्रामक है, माना कि
सपने जैसा है,
फिर भी है
तो। सपना ही
सही, झूठा
ही सही, फिर
भी भरोसा तो
है कि मेरे
पास कुछ है।
कोई मेरा है।
पत्नी है, पति
है, बेटा
है, बेटी
है, मित्र
हैं, मकान
है। माना कि
झूठा है। कल
मौत आएगी, सब
छीन लेगी।
लेकिन मौत जब
तक नहीं आई है,
तब तक तो
है। और माना
कि कल सब राख
में गिर जाएगा।
लेकिन जब तक
नहीं गिरा, तब तक तो है; तब तक तो
सांत्वना है।
कहीं
ऐसा तो न होगा, हे महाबाहो,
कि इसे भी
छोड़ दे आदमी, और जिसकी
तुम बात करते
हो, उस राम
को पाने की
वासना से
मोहित हो जाए,
तुम्हारा
आकर्षण पकड़
ले। और तुम
जैसे आदमी खतरनाक
भी हैं। उनकी
बातें आकर्षण
में डाल देती हैं।
मोह पैदा हो
जाता है कि पा
लें इस ब्रह्म
को, पा लें
इस आनंद को, मिले यह
समाधि, हो
जाए निर्वाण
हमारा भी, हम
भी पहुंचें उस
जगह, जहां
सब शून्य है
और सब मौन है, और जहां परम
सत्य का
साक्षात्कार
है। तुम्हारे
मोह में पड़ा, तुम्हारी
बात के आकर्षण
में पड़ा आदमी
संसार को छोड़
दे, खूंटी
तोड़ ले यहां
से, और नई
खूंटी न गाड़
पाए। यह तट भी
छूट जाए संसार
का, उस तट
की कोई खबर
नहीं। नाव
कमजोर है, हवा
के झोंके तेज
हैं, कंपती
है बहुत।
पतवार कमजोर,
हाथ चलते
नहीं, और
दूसरे किनारे
भी न पहुंच
पाएं, तो
कहीं दोनों
किनारों से
भटक गई नौका
की तरह, हवा
के तूफानी थपेड़ों
में नाव डूब
तो न जाए! कहीं
ऐसा तो न हो कि
यह भी छूटे और
वह भी न मिले!
धर्म
की यात्रा पर
निकले हुए
आदमी को यह
सवाल उठता ही
है। उठेगा ही।
यह बिलकुल
स्वाभाविक है।
जब भी हम कुछ
छोड़ते हैं, तो यह सवाल
उठता है कि यह
छूटता है, दूसरा
मिलेगा या नहीं?
एक सीढ़ी से
पैर उठाते हैं,
तो भरोसा
पक्का कर लेते
हैं कि दूसरी
सीढ़ी पर पैर
पड़ेगा या नहीं?
दूसरी सीढ़ी
पक्की हो जाए,
तो हम उस पर
पैर रख लें।
कि जब भरोसा
है पूरा, तब
पहले से उठाते
हैं।
इसलिए
अर्जुन कहता
है, हे कृष्ण,
मेरे संशय
को पूर्ण रूप
से छेद डालें।
मुझे पक्का
करवा दें
आश्वासन, कि
मिल ही जाएगा
दूसरा तट, ताकि
मैं निःसंशय
इस तट को छोड़
सकूं। छेद कर
दें, छेद
डालें मेरे इस
संदेह को। जरा
भी बाकी न रहे।
यह अगर जरा भी
बाकी रहा, तो
तट छोड़ने में
मुझे कठिनाई
होगी। एकाध
जंजीर को मैं
तट से बांधे
ही रहूंगा।
एकाध लंगर नाव
का मैं डाले
ही रहूंगा।
दूसरे तट पर
जाने की मेरी
हिम्मत कमजोर
होगी। डर
लगेगा कि पता
नहीं, पता
नहीं दूसरा
किनारा है भी
या नहीं! होगा
भी, तो
मिलेगा भी या
नहीं! और जैसा
मन मेरा है, उसे मैं
भलीभांति
जानता हूं। और
जो शर्तें तुमने
कहीं, वे
भी मैंने ठीक
से सुन लीं कि
मन बिलकुल थिर
हो जाए। और
मैं भलीभांति
जानता हूं कि
क्षण को मन
थिर होता
नहीं। सब घोड़े
वश में आ जाएं!
और मैं
भलीभांति
जानता हूं कि
एक भी घोड़ा वश
में आता नहीं।
सब इंद्रियों
के मैं पार
चला जाऊं! और
भलीभांति
जानता हूं कि
इंद्रियों के
अतिरिक्त
मेरा कोई पार
का अनुभव नहीं
है।
तो
कहीं ऐसा न हो
कि तुम्हारी
शर्तें! और कल
तुम तो कह
दोगे कि
शर्तें तुमने
पूरी नहीं कीं, तो तुम्हें
किनारा नहीं
मिला। लेकिन
मेरा क्या
होगा? यह
तट भी छूट जाए,
वह तट भी न
मिले, तो
कहीं बिखर तो
न जाऊंगा!
टूट ही तो न जाऊंगा!
गति क्या होगी
मेरी? इस
संशय को पूरा
ही छेद डालो
कृष्ण! पूरा
ही।
और
कृष्ण से वह
कहता है, तुम
जैसा आदमी
दूसरा मिलना
मुश्किल है।
संभव नहीं कि
तुम जैसा आदमी
मैं फिर पा
सकूं, जो
मेरे इस संशय
को छेद डाले।
ऐसा
अर्जुन ने
क्यों कहा
होगा?
संशय
को वही छेद
सकता है, जिसकी
आंखों में
स्वयं संशय न
हो। जो असंदिग्धमना
हो, जो
निःसंशय हो, जो अपने ही
भीतर इतने
भरोसे से
भरपूर हो कि
उसका भरोसा ओवरफ्लो
करता हो, बाहर
बहता हो।
जिसके
रोएं-रोएं से
पता चलता हो
कि उस आदमी के
मन में कोई
संशय, कोई
प्रश्न नहीं
हैं।
कृष्ण
जैसे आदमी
प्रश्न नहीं
पूछते कभी।
कृष्ण जैसे
आदमी कभी किसी
के पास शंका
निवारण के लिए
नहीं जाते।
अर्जुन
भलीभांति
जानता है कि
कृष्ण कभी
किसी के पास
शंका निवारण
को नहीं गए।
भलीभांति
जानता है, इनके मन में
कभी प्रश्न
नहीं उठा।
भलीभांति जानता
है कि ये
बिलकुल
निःसंशय में
जीते हैं। ऐसा
आदमी खोजना
मुश्किल है, कठिन है।
सदियां बीत
जाती हैं, तब
कभी ऐसा आदमी
उपलब्ध होता
है।
जिसके
मन में कोई
संशय नहीं है, वही तो
दूसरे के संशय
को काट पाएगा।
जिसके मन में
स्वयं ही बहुत
तरह के संशय
हैं, वह
दूसरे के संशय
को काटने भला
जाए, और
जड़ों को पानी सींचकर
लौट आएगा।
हम सब
यही करते हैं।
हम सब
एक-दूसरे का
संशय काटते
हैं। बेटे का
संशय बाप काट
रहा है; और
बाप खुद
संदिग्ध है!
उसे खुद पता
नहीं कि मामला
क्या है! बेटा
पूछता है, यह
पृथ्वी किसने
बनाई? बाप
कहता है, भगवान
ने। और
भीतर-भीतर
डरता है कि
बेटा अब आगे न
पूछे कि भगवान
किसने बनाए? और कहीं
बेटा जोर से न
पूछ ले कि
भगवान कहां है?
देखा है? क्योंकि
बेटे आमतौर से
नहीं पूछते, इसलिए बाप
अपने झूठ कहे
चले जाते हैं।
लेकिन
थोड़े ही दिन
में बेटा जवान
होगा और जान लेगा
कि बाप को भी
पता नहीं है।
लेकिन वह यह
भी जान लेगा
कि बेटों के
सामने जानने
का मजा लिया
जा सकता है।
अपने बेटों के
सामने वह भी
लेगा। और ऐसा
चलता है। गुरु
असंदिग्ध भाव
से जवाब देता
मालूम पड़ता है, लेकिन भीतर
संदेह खड़ा
होता है।
कृष्ण
जैसा आदमी
अर्जुन को
मिले, तो
स्वाभाविक है
उसका कहना कि
हे महाबाहो,
तुम जैसा
आदमी फिर नहीं
मिलेगा। तुम
काट ही डालो।
अगर तुम न काट
पाए मेरे
संदेह को, तो
फिर मैं आशा
नहीं करता कि
कुछ हो सकता
है। फिर मैं होपलेस
हालत में हो जाऊंगा, बिलकुल आशारहित।
फिर मेरी कोई
आशा नहीं है।
क्योंकि जैसा
मैं अपने को
जानता हूं, वैसा तो मैं
इसी किनारे से
बंधा रहूंगा।
कम से कम कुछ
तो मुट्ठी में
है। और जो तुम
कह रहे हो, वह
बात जंचती
है, लेकिन
मेरे संशय को
काट डालो।
यहां दोत्तीन
बातें खयाल
में ले लेनी
जरूरी हैं।
एक तो
बात यह खयाल
में ले लेनी
जरूरी है कि
सांसारिक मन
का यह लक्षण
है कि वह किसी
चीज को छोड़ सकता
है किसी चीज
के पाने के
भरोसे। सहज
नहीं छोड़
सकता। पाने का
भरोसा हो, तो छोड़ सकता
है किसी चीज
को। त्याग
करने में सांसारिक
मन मुश्किल
नहीं पाता, लेकिन त्याग
इनवेस्टमेंट
होना चाहिए।
त्याग कुछ और
पाने के लिए
सिर्फ व्यवस्था
बनाना चाहिए।
और जब
त्याग किसी और
को पाने के
लिए होता है, तो त्याग
नहीं होता, सिर्फ सौदा
होता है।
इसलिए
सांसारिक मन
त्याग को समझ
ही नहीं पाता,
सिर्फ बार्गेनिंग
समझता है, सौदा
समझता है। वह
कहता है कि
ठीक है; पक्का
है कि मैं
यहां कुछ दान
करूं, तो
स्वर्ग में
उत्तर मिल
जाएगा? पक्का
है कि यहां एक
मंदिर बना दूं,
तो भगवान के
मकान के पास
ही ठहरने की
जगह मिलेगी? पक्का है? तो मैं कुछ
त्याग कर सकता
हूं।
सांसारिक
मन, पाने का
पक्का हो जाए,
तो छोड़ सकता
है। पाने के
लिए ही छोड़
सकता है। बड़ा
अदभुत है यह।
बड़ा
कंट्राडिक्टरी
है यह। यह हो
नहीं सकता।
अगर पाने के
लिए ही छोड़
रहे हैं, तो
छोड़ना नहीं हो
सकता। और
कठिनाई यह है
कि जो छोड़ता
है, वही
पाता है।
अब इस
वक्तव्य को, इस पैराडाक्स
को, इस उलटबांसी
को ठीक से समझ
लेना चाहिए।
कबीर
के पास लोग
जाते थे, तो
वे उलटबांसियां
कहते थे। कोई
उनसे पूछता था
कि उलटी-सीधी
बातें आप कहते
हैं, हमारी
कुछ समझ में
नहीं पड़तीं!
तो वे कहते, तुम जाओ।
क्योंकि फिर
आगे की जिस
यात्रा पर मुझे
तुम्हें ले
जाना है, वे
सब उलटबांसियां
हैं। उलटबांसी
का मतलब होता
है, पैराडाक्स।
जैसे
कबीर के पास
कोई जाएगा और
पूछेगा, परमात्मा
है? तो
कबीर उसको
इसका उत्तर न
देंगे। वे
कहेंगे, समुंद
लागी आगि,
नदियां जल भईं
राख। वह आदमी
कहेगा, आप
क्या कह रहे
हैं! समुद्र
में आग लग गई
है और नदियां
जलकर राख हो
गई हैं? कबीर
कहेंगे, तू
जा। अगर राजी
हो, तो
रुक। क्योंकि
आगे फिर और
उपद्रव होगा।
कोई
आकर पूछेगा, आत्मा क्या
है? और
कबीर कहेंगे,
जाग कबीरा
जाग। माछी चढ़
गई रूख! मछली
जो है, वह
झाड़ पर चढ़ गई
है; कबीर
जाग! वह आदमी
कहेगा, मैं
आत्मा के
संबंध में
समझने आया।
कहां की मछलियां!
कहां के रूख!
कभी मछलियां
झाड़ों पर चढ़ी हैं? कबीर कहेंगे,
तू जा।
क्योंकि आगे
की बातें और
कठिन हैं।
यह जो
कृष्ण से
अर्जुन पूछ
रहा है, उसका
उत्तर, उसकी
दुविधा असल
में यही है।
दुविधा त्याग
की यही है कि
त्याग बिना
पाने की आशा
के किया जाए, तो होता है।
और जो बिना
पाने की आशा
के त्याग करता
है, वह
बहुत पाता है।
जो पाने की
आशा से त्याग
करता है, वह
पाने की आशा
से करता है, इसलिए त्याग
नहीं हो पाता।
और चूंकि त्याग
नहीं हो पाता,
इसलिए वह
कुछ भी नहीं
पाता है।
जिसे
पाना हो, उसे
पाने की बात
छोड़ देनी
चाहिए। जिसे न
पाना हो, उसे
पाने की बात
करते चले जाना
चाहिए।
सांसारिक मन
नहीं समझ
पाएगा यह, वह
कहेगा कि पाने
की बात छोड़
दूं! अच्छा
छोड़े देते
हैं। लेकिन
पाना क्या सच
में छोड़ने से
हो जाएगा? उसका
भीतरी, भीतरी
जो सांसारिक
मन की बनावट
है, जो इनर
स्ट्रक्चर है,
जो मेकेनिज्म
है, वह यह
है।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे कहते
हैं कि हम
ध्यान बहुत
करते हैं, शांति
नहीं मिलती।
तो मैं उनसे
कहता हूं, तुम
शांति की
फिक्र छोड़ दो।
तुम शांति
चाहो ही मत।
फिर तुम ध्यान
करो। और शांति
मिल जाएगी, बट दैट विल
बी ए
कांसिक्वेंस।
वह परिणाम
होगा सहज। तुम
मत मांगो। डोंट
मेक इट ए
रिजल्ट, इट
बिल बी ए
कांसिक्वेंस।
तुम फल मत
बनाओ उसे, वह
परिणाम होगा।
वह हो ही
जाएगा; उसकी
तुम फिक्र न
करो। वे कहते
हैं, तो
फिर हम शांति का
खयाल छोड़ दें,
फिर शांति
मिल जाएगी?
वे
शांति का खयाल
भी छोड़ने को
राजी हैं, एक ही शर्त
पर, कि
शांत मिल
जाएगी?
अब
शांति की तलाश
अशांति है।
इसलिए शांति
का तलाशी कभी
शांति नहीं पा
सकता। तलाश
अशांति है। और
शांति की तलाश
महा अशांति
है।
ऐसा
है। दिस इज़
दि फैक्टिसिटी, यह ऐसा तथ्य
है, ऐसा
अस्तित्व है,
इसमें कोई
उपाय नहीं है।
इस अस्तित्व
की शर्तों को
मानें तो ठीक,
न मानें तो
दुख भोगना
पड़ता है। इस
अस्तित्व की
शर्त ही यह
है। उस पार
जाने की शर्त
यह है कि यह किनारा
छोड़ो। और
यह भी शर्त है
कि उस किनारे
की बात मत
करो।
अर्जुन
कहता है, मुझे
निःसंदिग्ध
कर दें। हे महाबाहो,
तुम्हारी
बांहें बड़ी
विशाल हैं।
तुम दूर के तट
छू लेते हो।
तुम असीम को
भी पा लेते
हो। तुम मुझे
कह दो, भरोसा
दिला दो।
लेकिन
सच ही क्या
कृष्ण का
भरोसा अर्जुन
के लिए भरोसा
बन सकता है? क्या कृष्ण
यह कह दें कि
हां, मिलेगा
दूसरा किनारा,
तो भी क्या
संदेह करने
वाला मन चुप
हो जाएगा? क्या
वह मन नया
संदेह नहीं
उठाएगा? कि
अगर कृष्ण के
कहने से नहीं
मिला, तो? फिर कृष्ण
जो कहते हैं, वह मान ही
लिया जाए, जरूरी
क्या है? फिर
हम कृष्ण की
मानकर चले भी
गए और कल अगर
खो गए, तो
किससे शिकायत
करेंगे? कहीं
बादल की तरह
बिखर गए, तो
फिर किससे
कहेंगे? और
अगर गति बिगड़
गई, तो कौन
होगा
जिम्मेवार? कृष्ण होंगे
जिम्मेवार?
अजीब
है आदमी का
मन। असल बात
यह है कि
संदेह करने
वाला मन संदेह
करता ही चला
जाएगा। ऐसा
नहीं है कि एक
संदेह का
निरसन हो जाए, तो निरसन हो
जाएगा। एक
संदेह का
निरसन होते ही
दूसरा संदेह
खड़ा हो जाएगा।
दूसरे का
निरसन होते ही
तीसरा संदेह
खड़ा हो जाएगा।
फिर कृष्ण
क्यों संदेहों
को तृप्त करने
की कोशिश कर
रहे हैं? क्या
इस आशा में कि
संदेह तृप्त
हो जाएंगे?
नहीं, सिर्फ इस
आशा में कृष्ण
अर्जुन के
संदेह दूर
करने की कोशिश
करेंगे कि
धीरे-धीरे हर
संदेह के
निरसन के बाद
भी जब नया
संदेह खड़ा होगा,
तो अर्जुन
जाग जाएगा, और समझ
पाएगा कि
संदेहों का
कोई अंत नहीं
है।
खयाल
रखिए, संदेह
के निरसन से
संदेह का
निरसन नहीं
होता। लेकिन
बार-बार संदेह
के निरसन करने
से आपको यह स्मृति
आ सकती है कि
कितने संदेह
तो निरसन हो गए,
मेरा संदेह
तो वैसा का
वैसा ही खड़ा
हो जाता है! यह
तो रावण का
सिर है। काटते
हैं, फिर
लग जाता है।
काटते हैं, फिर लग जाता
है! काटते हैं,
फिर लग जाता
है! कृष्ण अथक
काटते चले
जाएंगे।
पूरी
गीता संदेह के
सिर काटने की
व्यवस्था है।
एक-एक संदेह
काटेंगे, जानते
हुए कि संदेह
से संदेह होता
है। संदेह किसी
भी भरोसे, आश्वासन
से कटता नहीं
है। लेकिन
अर्जुन थक जाए
कट-कटकर, और हर बार
खड़ा हो-होकर
गिरे, और
फिर खड़ा हो
जाए। संदेह
मिटे, और
फिर बन जाए; जवाब आए, और
फिर प्रश्न बन
जाए। ऐसा करते-करते
शायद अर्जुन
को यह खयाल आ
जाए कि नहीं, संदेह
व्यर्थ है; और आश्वासन
की तलाश भी
बेकार है।
किसी क्षण यह
खयाल आ जाए, तो तट छूट
सकता है।
मगर
अर्जुन की
प्यास बिलकुल
मानवीय है, टू ह्यूमन, बहुत मानवीय
है। इसलिए
कृष्ण नाराज न
हो जाएंगे।
जानते हैं कि
मनुष्य जैसा
है, तट से
बंधा, उसकी
भी अपनी
कठिनाइयां
हैं।
किसी
का सपना हम
तोड़ दें। सुखद
सपना कोई
देखता हो; माना कि
सपना था, पर
सुखद था; तोड़
दें। तो वह
आदमी पूछे कि
सपना तो आपने
मेरा तोड़ दिया,
लेकिन अब? अब मुझे
कहां! अब मैं
क्या देखूं?
अभी जो देख
रहा था, सुखद
था। आप कहते
हैं, सपना
था, इसलिए तुड़वा
दिया। अब मैं
क्या देखूं?
कुछ
देखने की उसकी
प्यास
स्वाभाविक
है। मगर उस
प्यास में
बुनियादी
गलती है। आदमी
के होने में
ही बुनियादी
गलती है।
प्यास मानवीय
है, लेकिन
मानवीय होने
में ही कुछ
गलती है। वह
गलती यह है कि
सपना देखने
वाला कहता है
कि मैं सपना
तभी तोडूंगा,
जब मुझे कोई
और सुंदर
देखने की चीज
विकल्प में
मिल जाए।
और
कृष्ण जैसे
लोगों की
चेष्टा यह है
कि हम सपना भी तोड़ेंगे, विकल्प भी न
देंगे, ताकि
तुम उसको देख
लो, जो
सबको देखता
है। देखने को
बंद करो।
दृश्य को छोड़ो।
तुम एक दृश्य
की जगह दूसरा
दृश्य मांगते
हो। अगर कृष्ण
की भाषा में
मैं आपसे कहूं,
तो कृष्ण
कहेंगे, दूसरा
किनारा है ही
नहीं। यह
किनारा भी झूठ
है; और झूठ
के विकल्प में
दूसरा किनारा
नहीं होता।
अगर यह किनारा
सच होता, तो
दूसरा किनारा
सच हो सकता
था। एक किनारा
झूठ और एक सच
नहीं हो सकता।
दोनों ही
किनारे सच
होंगे, या
दोनों ही झूठ
होंगे।
आप
समझते हैं! एक
नदी का एक
किनारा सच और
एक झूठ हो
सकता है? या
तो दोनों ही
झूठ होंगे, या दोनों ही
सच होंगे। अगर
दोनों झूठ
होंगे, तो
नदी भी झूठ
होगी। अगर
दोनों ही सच
होंगे, तो
नदी भी सच
होगी। अब ऐसा
समझ लें कि
तीनों ही सच
होंगे, या
तीनों ही झूठ
होंगे। तीसरा
उपाय नहीं है,
अन्य कोई
उपाय नहीं है।
ऐसा नहीं हो
सकता कि नदी
सच हो और
किनारे झूठे
हों। तो नदी
बहेगी कैसे? और ऐसा भी
नहीं हो सकता
कि एक किनारा
सच और दूसरा
झूठा हो। नहीं
तो दूसरे झूठे
किनारे का सहारा
न मिलेगा।
तीनों सच
होंगे, या
तीनों झूठ
होंगे।
अब
अर्जुन कहता
है, यह
किनारा तो झूठ
है। कृष्ण, मैं समझ गया,
तुम्हारी
बातें कहती
हैं। तुम पर
मैं भरोसा करता
हूं। और मेरी
जिंदगी का
अनुभव भी कहता
है, यह
किनारा झूठ
है। दुख ही
पाया है इस
किनारे पर, कुछ और मिला
नहीं। इस
वासना में, इस मोह में, इस राग में
पीड़ा ही पाई, नर्क ही
निर्मित किए।
मान लिया, समझ
गया। लेकिन
दूसरा किनारा
सच है न!
कृष्ण
क्या कहेंगे? अगर वे कह
दें, दूसरा
किनारा भी
नहीं है, तो
अर्जुन कहेगा,
इसी को पकड़
लूं। कम से कम
जो भी है, सांत्वना
तो है, आशा
तो है कि कल
कुछ मिलेगा।
तुम तो बिलकुल
निराश किए देते
हो।
बुद्ध
जैसे व्यक्ति
ने यही उत्तर
दिया कि दूसरा
किनारा भी
नहीं है, मोक्ष
भी नहीं है।
बड़ी कठिन बात
हो गई फिर। मोक्ष
भी नहीं है! और
संसार छोड़ने
को कहते हो, और मोक्ष भी
नहीं है! धन भी
छोड़ने को कहते
हो, और
धर्म भी नहीं
है! तो फिर
कहते किसलिए
हो?
इसलिए
बुद्ध बिलकुल
सही कहे, लेकिन
काम नहीं पड़ा
वह सत्य।
दूसरा किनारा
भी नहीं है, तो लोगों ने
कहा, फिर
हमें पकड़े
रहने दो।
दूसरा
किनारा नहीं
है, जोर इस
बात पर है कि
मझधार में डूब
जाना ही किनारा
है। लेकिन वह उलटबांसी
की बात हो गई।
मझधार में डूब
जाना ही
किनारा है।
लेकिन वह उलटबांसी
की बात हो गई, वह पैराडाक्स
हो गया।
किनारा तो हम
कहते हैं, जो
मझधार में कभी
नहीं होता।
किनारा तो
किनारे पर
होता है।
लेकिन
यह किनारा भी
छोड़ दो, वह
किनारा भी छोड़
दो, बीच
में कौन रह
जाएगा? दोनों
किनारे जहां
छूट गए--संसार
भी नहीं है, मोक्ष भी
नहीं है--फिर
वासना की धारा
को बहने का
उपाय नहीं रह
जाएगा। वासना
की नदी फिर बह
न सकेगी, और
कामना की
नावें फिर तैर
न सकेंगी, और
अहंकार के
सेतु फिर
निर्मित न हो
सकेंगे। तब एक
तरह की डूब, एक तरह का
विसर्जन, एक
तरह की मुक्ति,
एक तरह का
मोक्ष, एक
तरह की
स्वतंत्रता
फलित होती है।
और वही उपलब्धि
है।
लेकिन
अर्जुन कैसे
समझे उसे? कृष्ण कोशिश
करेंगे। वे
अभी, दूसरा
किनारा है, सही है, पहुंचेगा
तू, आश्वासन
देता हूं
मैं--इस तरह की
बातें करेंगे।
यह किनारा तो
छूटे कम से कम;
फिर वह
किनारा तो है
ही नहीं। और
जिसका यह छूट
जाता है, उसका
वह भी छूट
जाता है।
कई बार
एक झूठ छुड़ाने
के लिए दूसरा
झूठ निर्मित
करना पड़ता है, इस आशा में
कि झूठ छोड़ने
का अभ्यास तो
हो जाएगा कम
से कम। फिर
दूसरे को भी छुड़ा
लेंगे।
और दो
तरह के शिक्षक
हैं पृथ्वी
पर। एक, जो
कहते हैं, जो
तुम्हारे हाथ
में है, वह
झूठ है। और हम
तुम्हारे हाथ
में कुछ देने
को राजी नहीं।
क्योंकि कुछ
भी हाथ में
होगा, झूठ
होगा। ऐसे
शिक्षक
सहयोगी नहीं
हो पाते।
दूसरे
शिक्षक
ज्यादा करुणावान
हैं। वे कहते
हैं, तुम्हारे
हाथ में जो
झूठ है, उसे
छोड़ दो। हम
तुम्हारे लिए
सच्चा हीरा
देते हैं।
हालांकि कोई
सच्चा हीरा
नहीं है। हीरा
मिलता है उस
मुट्ठी को, जो खुल जाती
है और कुछ भी
नहीं पकड़ती,
अनक्लिंगिंग। खुली
मुट्ठी कुछ
नहीं पकड़ती,
उसको हीरा
मिलता है। जो
कुछ भी पकड़ती
है, वह
पत्थर ही पकड़ती
है। पकड़ना
ही--पत्थर आता
है पकड़ में।
हीरा तो खुले
हाथ से पकड़
में आता है।
अब खुले हाथ
की पकड़--उलटबांसी
हो जाती है।
जाग कबीरा जाग,
माछी चढ़ गई
रूख। समुंद
लागी आग, नदियां
जल भईं
राख।
कृष्ण
कबीर की भाषा
कभी-कभी बोलते
हैं बीच-बीच
में, जांचने के लिए, कि
शायद अर्जुन
राजी हो। नहीं
तो फिर वे
अर्जुन की
भाषा बोलने
लगते हैं।
अभी
इतना। फिर हम
सांझ...।
अब
थोड़ी देर--जाग
कबीरा जाग, मछली चढ़ गई
रूख!
thank you guruji
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