जिन सूत्र--(भाग--2)
सारसूूूूत्र::
सारसूूूूत्र::
कीण्हा णीला काऊ,
तेऊ पम्मा
या सुक्कलेस्सा
य।
लेस्साणं णिद्देसा,
छच्चेव हवंति णियमेण।।
134।।
कीण्हा णीला काऊ,
तिण्णि वि
एयाओ अहम्मलेसाओ।
एयाहि तिहि वि जीवो,
दुग्गइं
उववज्जई
बहुसो।। 135।।
तेऊ पम्हा सुक्का,
तिण्णिवि
एयाओ धम्मलेसाओ।
एयाहि तिहि वि जीवो,
सुग्गइं
उववज्जई
बहुसो।। 136।।
पहिया
जे छ प्पुरिसा,
परिभट्टारण्णमज्झदेसम्हि।
फलभरियरूक्खमेगं,
पेक्खित्ता
ते विचिंतंति।।
णिम्मूललखंधसाहू—बसाहं छितुं
चिणितुपडिदाइं।
आज
के सूत्र:
"लेश्याएं
छह प्रकार की
हैं: कृष्णलेश्या,
नील लेश्या,
कापोत
लेश्या, तेजो
लेश्या (पीत
लेश्या), पद्म
लेश्या और
शुक्ल
लेश्या।'
"कृष्ण,
नील और
कापोत, ये
तीनों अधर्म
या अशुभ
लेश्याएं
हैं। इनके कारण
जीव विभिन्न दुर्गतियों
में उत्पन्न
होता है।'
"पीत
(तेज), पद्म
और शुक्ल; ये
तीनों धर्म या
शुभ लेश्याएं
हैं। इनके कारण
जीव विविध सुगतियों
में उत्पन्न
होता है।'
"छह
पथिक थे। जंगल
के बीच जाने
पर वे भटक गए।
भूख सताने
लगी। कुछ देर
बाद उन्हें
फलों से लदा
एक वृक्ष
दिखाई दिया।
उनकी फल खाने
की इच्छा हुई।
वे मन ही मन
विचार करने
लगे। एक ने
सोचा कि पेड़
को जड़मूल
से काटकर उसके
फल खाए जाएं।
दूसरे ने सोचा,
केवल स्कंध
ही काटा जाए।
तीसरे ने
विचार किया कि
शाखा को तोड़ना
ठीक रहेगा।
चौथा सोचने
लगा कि उपशाखा
ही तोड़ी जाए।
पांचवां
चाहता था कि
फल ही तोड़े
जाएं। छठे ने
सोचा कि वृक्ष
से टपककर
फल जब नीचे गिरें
तभी चुनकर खाए
जाएं।'
"इन
छह पथिकों के
विचार, वाणी
तथा कर्म, क्रमशः
छहों
लेश्याओं के
उदाहरण हैं।'
लेश्या
महावीर की
विचार-पद्धति
का पारिभाषिक
शब्द है। उसका
अर्थ होता है:
मन, वचन, काया
की काषाययुक्त
वृत्तियां।
मनुष्य की
आत्मा बहुत-से
पर्दों में
छिपी है। ये
छह लेश्याएं
छह पर्दे हैं।
पहला
पर्दा है:
कृष्ण
लेश्या। बड़ा
अंधकार, काला,
अमावस की
रात जैसा। जिस
पर कृष्ण
लेश्या पड़ी है,
उसे अपनी
आत्मा का कोई
पता नहीं
चलता। इतने अंधेरे
में दबे हैं
प्राण, कि
प्राण हो भी
सकते हैं, इसका
भी भरोसा नहीं
आता। स्वयं ही
पता नहीं चलती
आत्मा तो
दूसरे को तो
पता कैसे
चलेगी?
हमारा
युग कृष्ण
लेश्या का युग
है। लोग अमावस
में जी रहे
हैं।
पूर्णिमा खो
गई है।
पूर्णिमा तो
दूर, दूज का
चांद भी कहीं
दिखाई नहीं
पड़ता। इसीलिए आत्मा
पर भरोसा नहीं
आता।
भरोसा
आए भी कैसे? पर्दा इतना
काला है कि
भीतर प्रकाश
का स्रोत छिपा
है, इसकी
प्रतीति कैसे
हो? जब तुम
दूसरे को भी
देखते हो, तब
भी देह ही
दिखाई पड़ती
है। स्वयं को
देखते हो, तब
भी देह ही
दिखाई पड़ती
है।
दर्पण
के सामने खड़े
होकर तुम अपने
को देखते हो, वह तुम्हारा
होना नहीं है;
तुम्हारी
देह की छाया
है। न तुम्हें
अपना पता चलता
है, न
दूसरों की
आत्मा का कोई
बोध होता है।
कृष्ण
लेश्या उठे, तो ही
आत्मदर्शन हो
सकते हैं।
ऐसी
महावीर ने छह
पर्दों की बात
कही है--कृष्ण लेश्या, फिर नील
लेश्या, फिर
कापोत
लेश्या...क्रमशः
अंधेरा कम
होता जाता है।
कृष्ण
के बाद नील।
अंधेरा अब भी
है, लेकिन
नीलिमा जैसा
है। फिर
कापोत--कबूतर
जैसा है। आकाश
के रंग जैसा
है।
जैसे-जैसे
पर्दे उठते
हैं, वैसे-वैसे
भीतर की झलक
स्पष्ट होने
लगती है। लेकिन
एक बात खयाल
रखना। महावीर
कहते हैं, शुभ्र
लेश्या भी
पर्दा है। वह
अंतिम लेश्या
है। जब तक रंग
हैं, तब तक
पर्दा है। जब
तक रंग हैं, तब तक राग
है।
राग
शब्द का अर्थ
रंग होता है।
विराग
शब्द का अर्थ, रंग के बाहर
हो जाना होता
है।
वीतराग
शब्द का अर्थ
होता है, रंग
का अतिक्रमण
कर जाना।
अब तुम
पर कोई रंग न
रहा। क्योंकि
जब तक रंग है, तब तक
स्वभाव दबा
रहेगा। तब
तुम्हारे ऊपर
कुछ और पड़ा
है। चाहे सफेद
ही क्यों न हो,
शुभ्र ही
क्यों न हो।
हम तो
काली अंधेरी
रात में दबे
हैं। महावीर
पूर्णिमा को
भी कहते हैं, कि वह भी
पूर्ण
अनुभूति नहीं
है। अमावस तो छोड़नी ही
है, पूर्णिमा
भी छोड़ देनी
है। कृष्ण
लेश्या तो जाए
ही, शुक्ल
लेश्या भी
जाए। कृष्ण
पक्ष तो विदा
हो ही, शुक्ल
पक्ष भी विदा
हो। तुम पर
कोई पर्दा ही
न रह जाए। तुम
बेपर्दा हो
जाओ।
इसलिए
महावीर नग्न
रहे। वह नग्न
सूचक है। ऐसी ही
आत्मा भी भीतर
नग्न हो, तभी
उसका अहसास
शुरू होता है।
और जब अपनी
आत्मा का पता
चले तो औरों
की आत्मा का
पता चलता है।
जितना गहरा हम
अपने भीतर
देखते हैं, उतना ही
गहरा हम दूसरे
के भीतर देखते
हैं।
हमें
तो अभी
मनुष्यों में
भी आत्मा है, इसका भरोसा
नहीं होता।
ज्यादा से
ज्यादा अनुमान...होनी
चाहिए। है, ऐसी कोई
प्रामाणिकता
नहीं मालूम
होती। अंदाज
करते
हैं--होगी।
तर्कयुक्त
मालूम पड़ती है
कि होनी
चाहिए। लेकिन
वस्तुतः है, ऐसा कोई
अस्तित्वगत
हमारे पास
प्रमाण नहीं है।
अपने भीतर ही
प्रमाण नहीं
मिलता, दूसरे
के भीतर कैसे
मिले?
महावीर
कहते हैं, जैसे-जैसे
पर्दे उठते
हैं, वैसे-वैसे
तुम्हें
दूसरे में
आत्मा दिखाई पड़नी शुरू
होती है। ऐसी
घड़ी आती है, जब पत्थर
में भी आत्मा
दिखाई पड़नी
शुरू होती है।
तेजो
लेश्या से
क्रांतिकारी
परिवर्तन
शुरू होता है।
पहली तीन
लेश्याएं
अधर्म की, बाद की तीन
लेश्याएं
धर्म की--तेजो,
पद्म और
शुक्ल। तेजो
लेश्या के साथ
ही तुम्हारे
भीतर पहली
झलकें आनी
शुरू होती हैं।
ये
रंगों के आधार
पर पर्दों के
नाम रखे
महावीर ने। यह
जीवन का
इंद्रधनुष
है। है तो रंग
एक ही।
वैज्ञानिक
उसे कहते हैं
श्वेत। बाकी
सब रंग श्वेत
रंग के ही खंड
हैं।
इसलिए
प्रिज्म के
कांच के टुकड़े
से जब सूरज की
किरण गुजरती
है तो सात
रंगों में बंट
जाती है। या
तुमने कभी
स्कूल में
बच्चों के
समझाने के लिए
देखा हो तो एक
चाक पर सात
रंग लगा देते
हैं। चाक को जोर
से घुमाते हैं
तो सातों रंग
खो जाते हैं, सफेद रंग रह
जाता है। सफेद
रंग सातों
रंगों का जोड़
है। या सातों
रंग सफेद रंग
से ही जन्मते
हैं।
इंद्रधनुष
पैदा होता है
हवा में लटके
हुए जलकणों
के कारण। जलकण
लटका है हवा
में, सूरज की
किरण निकलती
है, टूट
जाती है सात
हिस्सों में।
सूरज की किरण
सफेद है।
लेकिन
महावीर कहते
हैं, सफेद के
भी पार जाना
है। अधर्म के
तो पार जाना ही
है, धर्म
के भी पार
जाना है।
अधर्म तो बांध
ही लेता है, धर्म भी
बांध लेता है।
धर्म का उपयोग
करो अधर्म से
मुक्त होने के
लिए। कांटे को
कांटे से
निकाल लो, फिर
दोनों कांटों
को फेंक देना।
फिर दूसरे कांटे
को भी
सम्हालकर
रखने की कोई
जरूरत नहीं है।
बीमारी है
औषधि ले लो।
बीमारी
समाप्त हो, औषधि को भी
कचरे-घर में
डाल आना। फिर
बीमारी के बाद
औषधि को छाती
से लगाए मत
घूमना। वह
केवल इलाज थी।
उसका उपयोग
संक्रमण के
लिए था।
जैसे-जैसे
शुभ लेश्याओं
का जन्म होता
है, जैसे-जैसे
आदमी श्वेत की
तरफ बढ़ता है, वैसे-वैसे
दृष्टि की
गहराई बढ़ती
है। वैसे-वैसे
दूसरों में भी
परमात्मा की
झलक मिलती है।
श्वेत
लेश्या की
आखिरी घड़ी में
जब पूर्णिमा
का प्रकाश
जैसा भीतर हो
जाता है तो
पत्थर में भी
परमात्मा
दिखाई पड़ता
है। इसी अनुभव
से महावीर की
अहिंसा का
जन्म हुआ।
महावीर
जो कहानी कहे
हैं...महावीर
ने बहुत कम बोध
कथाओं का
उपयोग किया
है। उन बहुत
कम बोध कथाओं
में एक यह है:
"छह
पथिक थे। जंगल
के बीच जाने
पर भटक गए।
भूख लगी। कुछ
देर बाद
उन्हें फलों
से लदा एक
वृक्ष दिखाई
दिया। फल खाने
की इच्छा हुई।
मन ही मन विचार
करने लगे।
पहले ने सोचा,
पेड़ को जड़मूल
से काटकर इसके
फल खाए जाएं।'
महावीर
कहते हैं, यह कृष्ण
लेश्या में
दबा हुआ आदमी
है। यह अपने
छोटे-से सुख
के लिए, क्षणभंगुर
सुख के
लिए...भूख थोड़ी
देर के लिए मिटेगी,
फिर लौट
आएगी। भूख सदा
के लिए तो
मिटती नहीं। लेकिन
यह पूरे वृक्ष
को मिटा देने
को आतुर है।
इसे वृक्ष की
भी आत्मा है, वृक्ष को भी
भूख लगती है, प्यास लगती
है, वृक्ष
को भी सुख और
दुख होता है, इसकी कोई
प्रतीति नहीं
है।
यह
आदमी अंधा है, जिसे वृक्ष
में कुछ भी
नहीं दिखाई पड़
रहा है। सिर्फ
अपनी भूख को
तृप्त करने का
उपाय दिखाई पड़
रहा है। और
अपनी भूख की
तृप्ति के लिए,
जो फिर लौट
आनेवाली है, कोई शाश्वत
तृप्ति हो
जानेवाली
नहीं है, वह
इस वृक्ष को जड़मूल से
काट देने के
लिए उत्सुक हो
गया। यह आदमी
बिलकुल अंधा
है। ऐसे आदमी
तुम्हें सब
तरफ मिलेंगे।
ऐसा आदमी
तुम्हें
स्वयं के भीतर
भी मिलेगा।
कितनी
बार नहीं
तुमने अपने
छोटे-से सुख
के लिए दूसरे
को विनष्ट तक
कर देने की
योजना नहीं बना
ली। कितनी बार, जो मिलनेवाला
था वह ना-कुछ
था, लेकिन
तुमने दूसरे
की हत्या कर
दी; कम से
कम हत्या का
विचार किया।
जमीन के लिए, दो इंच जमीन
के लिए; धन
के लिए, पद
के लिए, तुमने
प्रतिस्पर्धा
की। दूसरे की
गर्दन को काट
देना चाहा।
इसकी बिलकुल
भी चिंता न की,
कि जो
मिलेगा वह
ना-कुछ है। और
जो तुम विनष्ट
कर रहे हो, उसे
बनाना
तुम्हारे हाथ
में नहीं। तुम
एक जीवन की
समाप्ति कर
रहे हो। एक
परम घटना के
विनाश का कारण
बन रहे हो। एक
दीया बुझा रहे
हो। एक तुम
जैसा ही प्राणवंत,
तुम जैसा ही
परमात्मा को
सम्हाले हुए
कोई चल रहा है,
तुम उस अवसर
को विनष्ट कर
रहे हो। और
तुम्हें कुछ
भी मिलनेवाला
नहीं। तुम्हें
जो मिलेगा, वह थोड़ी-सी
क्षणभंगुर की
तृप्ति है। घड़ीभर बाद
फिर भूख लग
आएगी।
कृष्ण
लेश्या से भरा
आदमी महत
हिंसा से भरा
होता है। जब
भी तुम्हारे
मन में अपने
सुख के लिए दूसरे
को दुख देने
तक की तैयारी
हो जाए तो तत्क्षण
समझ लेना, कृष्ण
लेश्या में
दबे हो। पर्दा
पड़ा। इस पर्दे
को अगर तुम
बार-बार भोजन
दिए जाओगे तो
यह मजबूत होता
चला जाएगा।
जागना।
जब ऐसा मौका
आए कि अपने
छोटे सुख के
लिए दूसरे को
दुख देने का
खयाल उठे, तब सम्हलना।
तब अपने हाथ
को खींच लेना।
क्योंकि असली
सवाल यह नहीं
है कि तुमने
दूसरे को दुख
दिया या नहीं
दिया; असली
सवाल यह है कि
दूसरे को दुख
देने में तुमने
अपनी कृष्ण
लेश्या पर
पानी सींचा।
उसकी जड़ों को
मजबूत किया।
उसी में
तुम्हारा आत्मतत्व
खो गया है।
उसी में खो
गया जीवन का
अभिप्राय। उसी
से पता नहीं
चलता कि जीवन में
कुछ अर्थ भी
है? पता
नहीं चलता कौन
हूं मैं? कहां
जा रहा हूं? क्यों जा
रहा हूं?
तुम
अंधे हो
क्योंकि
कृष्ण लेश्या
की तुम अब तक
सम्हाल करते
रहे। उसे खाद
दिया, पानी
दिया। उस
पर्दे में कभी
छेद भी हुआ तो
जल्दी से
तुमने रफू
किया, सुधार
लिया। तुम
जब-जब दूसरे
पर नाराज होते
हो, तबत्तब तुम खयाल
करना, किसी
अर्थों में वह
तुम्हारे
कृष्ण लेश्या
के पर्दे पर
चोट कर रहा
है। तुम्हारे
अहंकार को चोट
लगती है, तुम
नाराज हो जाते
हो।
कल मैं
एक कहानी पढ़
रहा था।
अमरीका में
टेक्सास
प्रांत के लोग
बड़े अभद्र, हिंसक समझे
जाते हैं। एक सिनेमागृह
में एक
टेक्सास
प्रांत का
आदमी अपनी
बंदूक सम्हाले
इंटरवल के बाद
वापस लौटा।
बाहर गया होगा।
अपनी सीट पर
उसने किसी
आदमी को बैठे
देखा। उसने
पूछा--टेक्सास
के आदमी ने--कि
महानुभाव! आपको
पता है, यह
सीट मेरी है।
वह जो आदमी
बैठा था, मजाक
में ही कहा, थी आपकी। अब
तो मैं बैठा
हूं। सीट किसी
की होती है?
बस, उसने बंदूक
तानी और गोली
मार दी। भीड़
इकट्ठी हो गई
और उसने लोगों
से कहा कि इसी
तरह के लोगों के
कारण टेक्सास
के लोग बदनाम
हैं।
पर
बहुत बार
तुम्हारे मन
में भी--चाहे
तुमने गोली न
मारी हो, यह
कहानी
अतिशयोक्तिपूर्ण
मालूम होती है,
लेकिन बहुत
बार गोली मार
देने का मन तो
हो ही गया है।
बहुत छोटी
बातों पर--कि
कोई तुम्हारी
सीट पर बैठ
गया है--गोली
मार देने का
मन तो हो ही गया
है।
महावीर
कहते हैं, मन भी हो गया
तो बात हो गई।
इस
कहानी में वे
यह नहीं कह
रहे हैं कि
पहले आदमी ने
वृक्ष तोड़ा; सिर्फ सोचा।
"...भूख
लगी, फल
खाने की इच्छा
हुई, वे मन
ही मन विचार
करने लगे।'
ऐसा
कुछ किया नहीं
है अभी; ऐसी
भावत्तरंग
आयी, ऐसा
विचार आया।
लेकिन महावीर
कहते हैं, विचार
आ गया तो बात
हो गई। जहां
तक तुम्हारा संबंध
है, हो गई।
जहां तक वृक्ष
का संबंध है, अभी नहीं
हुई; लेकिन
तुम्हारा
संबंध है, वहां
तक तो हो गई।
जब तुम
ने सोचा किसी
को मार डालें, ऐसी मन में
एक कल्पना भी
उठ गई तो बात
हो गई। दूसरा
अभी मारा नहीं
गया। अपराध
अभी नहीं हुआ,
पाप हो गया।
पाप और
अपराध में यही
फर्क है। पाप
का अर्थ है, तुम्हें जो
करना था, वह
भीतर तुमने कर
लिया। अभी
दूसरे तक उसके
परिणाम नहीं
पहुंचे।
परिणाम पहुंच
जाएं तो अपराध
भी हो जाएगा।
अदालत अपराध
को पकड़ती
है, पाप को
नहीं पकड़
सकती। पाप तो
मन के भीतर
है। अपराध तो
तब है, जब
मन का विष
बाहर पहुंच
गया और उसके
परिणाम शुरू
हो गए। और
बाह्य जगत में
तरंगें उठने
लगीं। तब
पुलिस पकड़
सकती है। तब
अदालत पकड़
सकती है।
कानून
तुम्हें तब पकड़ता है, जब पाप
अपराध बन जाता
है।
लेकिन
महावीर कहते
हैं, धर्म के
लिए उतनी देर
तक रुकना
आवश्यक नहीं
है। जीवन की
परम अदालत में
तो हो ही गई
बात। तुमने
सोचा कि हो
गई। नहीं किया,
क्योंकि
करने में
बाधाएं हैं, कठिनाइयां
हैं, सीमाएं
हैं। करना
महंगा सौदा हो
सकता है। सोच-विचार
करके तुम रुक
गए। होशियार
आदमी हो, चालाक
आदमी हो, मुस्कुराकर गुजर गए, लेकिन
भीतर सोच लिया
गोली मार दूं।
पर जहां तक
धर्म का संबंध
है, बात हो
गई; क्योंकि
तुम्हारी कृष्ण
लेश्या मजबूत
हो गई।
कृष्ण
लेश्या को
मजबूत करना
पाप है।
कृष्ण
लेश्या को
क्षीण करना
पुण्य है।
शुक्ल
लेश्या को
मजबूत करना
पुण्य है। और
शुक्ल लेश्या
के भी पार उठ
जाना, पाप
और पुण्य
दोनों के पार
चले जाना
मुक्ति है, निर्वाण है।
जब
तुम्हारे मन
में पाप का
विचार उठता है, तब तुम
दूसरे का
नुकसान करना
चाहते
हो--अपने छोटे-मोटे
लाभ के लिए।
वह भी पक्का
नहीं है कि होगा।
लेकिन यह संभव
कैसे हो पाता
है? दुनिया
में इतने
युद्ध, इतनी
हिंसा, इतनी
हत्याएं,
इतनी आत्महत्याएं,
छोटी-छोटी
बात पर कलह, यह संभव
कैसे हो पाता
है? क्या लोग
बिलकुल अंधे
हैं? क्या
लोगों को
बिलकुल पता
नहीं चलता कि
वे क्या कर
रहे हैं? क्या
लोगों को
मूल्यों का
कोई भी बोध
नहीं है?
बोध हो
नहीं सकता इस
काले पर्दे के
कारण, जो
आंख पर पड़ा
है। महावीर
कहते हैं, तुम
अंधे नहीं हो,
सिर्फ आंख
पर पर्दा है।
बुर्का ओढ़े
हुए हो--काला
बुर्का; कृष्ण
लेश्या का।
हमारे
छोटे-छोटे
कृत्य में
हमारी लेश्या
प्रगट होती
है। तुम उसे
छिपा नहीं
सकते। और अब
तो इसके लिए
वैज्ञानिक
आधार भी मिल
गए हैं।
सोवियत
रूस में
किरलियान
फोटोग्राफी
के विकास ने
बड़ी हैरानी की
बात खोज
निकाली है कि
जो तुम्हारे
भीतर चेतना की
दशा होती है, ठीक वैसा
आभामंडल
तुम्हारे
मस्तिष्क के
आसपास होता
है। और
किरलियान की
खोज महावीर से
बड़ी मेल खाती
है। जिस
व्यक्ति के
जीवन में
हिंसा के भाव
सरलता से उठते
हैं, उसके
चेहरे के पास
एक काला
वर्तुल...।
संतों
के चित्रों
में तुमने
प्रभामंडल
बना देखा है, ऑरा बना
देखा है। वह
एकदम कवि की
कल्पना नहीं है--अब
तो नहीं है।
किरलियान की
खोज के बाद तो
वह कवि की
कल्पना बड़ा
सत्य साबित
हुई। किरलियान
की खोज ने तो
यह सिद्ध किया
कि जो कैमरा
हजारों साल
बाद पकड़ पाया,
वह कवि की
सूक्ष्म
मनीषा ने बहुत
पहले पकड़ लिया
था। ऋषियों की
मनीषा ने बहुत
पहले देख लिया
था।
जब
तुम्हारी
दृष्टि साफ
होने लगती है
तो जब तुम्हारे
पास कोई आता
है, तो
तत्क्षण
तुम्हें उसके
चेहरे के
आसपास विशिष्ट
रंगों के झलकाव
दिखाई पड़ते
हैं। अगर
हिंसक
व्यक्ति है, लोभी
व्यक्ति है, क्रोधी
व्यक्ति है, मद-मत्सर, अहंकार से
भरा व्यक्ति
है तो उसके
चेहरे के आसपास
एक काला
वर्तुल होता
है।
अब तो
इसके
फोटोग्राफ भी
लिए जा सकते
हैं। क्योंकि
किरलियान ने
जो सूक्ष्मतम
कैमरे विकसित
किए हैं, उन्होंने
चमत्कार कर
दिया। और ऐसा
वर्तुल लोभी,
हिंसक, अहंकारी,
क्रोधी के
आसपास होता है,
और ठीक ऐसा
ही वर्तुल जब
आदमी मरने के
करीब होता है,
तब भी होता
है।
जो
आदमी मरने के
करीब है, किरलियान
कहता है, छह
महीने पहले अब
घोषणा की जा
सकती है कि यह
आदमी मर
जाएगा।
क्योंकि छह
महीने पहले
उसके चेहरे के
आसपास मृत्यु
घटना शुरू हो
जाती है। जो छह
महीने बाद उसके
हृदय में
घटेगी, वह
उसके आभामंडल
में पहले घट
जाती है।
इन
दोनों का जोड़
खयाल में लेने
जैसा है। इसका
अर्थ हुआ, जो काला
मंडल है हिंसा
का, अहंकार
का, क्रोध
का, मत्सर
का, मद का, वही मृत्यु
का मंडल भी
है। इसका अर्थ
हुआ, जो
काले मंडल के
साथ जी रहा है,
वह जी ही नहीं
रहा। वह किसी
अर्थ में मरा
हुआ है। उसके जीवन
का उन्मेष
पूरा नहीं
होगा। उसके
जीवन की लहर, तरंग, पूरी
नहीं
होगी--दबी-दबी,
कटी-कटी, टूटी-टूटी।
जैसे जीते भी
वह मुर्दे की
तरह ही ढोता
रहा अपनी लाश
को। कभी जीया
नहीं नाचकर। कभी
उसके जीवन में
वसंत नहीं
आया। कभी नई
कोंपलें नहीं फूटीं।
पुराना ही
होता रहा।
जन्म के बाद
बस मरता ही रहा।
काला
पर्दा पड़ा हो
आदमी के चित्त
पर तो जीवन संभव
भी नहीं है।
जीवन की किरण
हृदय तक पहुंच
पाए, इसके लिए
खुले द्वार
चाहिए। और
जीवन का उल्लास
तुम्हें भी
उल्लसित कर
सके और जीवन
का नृत्य तुम्हें
भी छू पाए
इसके लिए बीच
में कोई भी
पर्दा नहीं
चाहिए।
बेपर्दा होना
है।
तुम जब
बिलकुल नग्न, खुले आकाश
को अपने भीतर
निमंत्रण
देते हो, तभी
परमात्मा भी
तुम्हारे
भीतर आता है।
इसका
होश रखो। तुम
दूसरे की हानि
नहीं करते हो, हानि तो
अंततः
तुम्हारी है।
तुम अगर किसी
को मार भी डालो
तो उसका तो
कुछ भी नहीं बिगड़ता
है। क्योंकि
यहां जीवन का
तो कोई अंत
नहीं है।
ज्यादा से
ज्यादा
पुराना शरीर
चला गया, नया
मिल जाएगा।
जीवन की
यात्रा तो
अनंत है। तुम
मारकर भी किसी
की कोई हानि
नहीं कर पाते
हो। लेकिन
बिना मारे भी
अगर मारने का
विचार उठा तो
तुमने अपनी
बड़ी हानि कर
ली।
महावीर
कहते हैं, हर हत्या
आत्यंतिक
अर्थों में
आत्महत्या है।
दूसरे
को कौन कब मार
पाया? अपने
को ही आदमी
मारता रहता
है। मारते
रहने का अर्थ
हुआ: जी नहीं
पता। जीने के
मार्ग में इतनी
बाधाएं खड़ी कर
लेता है...और हम
सबको इसका पता
भी चलता है।
यह कोई
दर्शनशास्त्र
नहीं है, जो
महावीर कह रहे
हैं। ये जीवन
के सीधे-सीधे
गणित हैं। यह
तुम्हें भी
पता चलता है
कि तुम जितने
क्रोधी हो, उतने कम जी
पाते हो।
क्रोध जीने दे
तब न! तुम जितने
हिंसक हो उतना
ही जीना
मुश्किल हो
जाता है।
हिंसा के साथ
जीवन की
प्रफुल्लता
घटे कैसे? तुम
जितने ज्यादा
लोभी हो, उतने
ही सिकुड़ते
जाते हो; फैल
नहीं पाते।
फैलाव के लिए
थोड़ी दान की
क्षमता
चाहिए। फैलाव
के लिए देने
की हिम्मत
चाहिए, बांटने
का साहस
चाहिए। तुम
कृपण की भांति
इकट्ठा करते
चले जाते हो। तिजोड़ी
तुम्हारी
भरती चली जाती
है, तुम तो
खाली के खाली
रह जाते हो।
आता
है इक रोज
मधुवन में जब
वसंत
तृणत्तृण
हंस उठता, कली-कली खिल
जाती है
कोयल
के स्वर में
भर जाती है नई
कूक
कोंपल
पेड़ों पर पायल
नई बजाती है
लेकिन
कृष्ण लेश्या
में दबे हुए
आदमी के जीवन में
ऐसा कभी नहीं
होता। वसंत
आता ही नहीं।
कोयल कूकती ही
नहीं।
कोंपलें पायल
नहीं बजातीं।
ऐसा आदमी
नाममात्र को
जीता है--मिनिमम।
श्वास लेता है
कहना चाहिए, जीता है
कहना ठीक
नहीं। गुजार
देता है कहना
चाहिए।
अगर
तुम नाचे नहीं, गाए नहीं, गुनगुनाए
नहीं, अगर
आनंद का उत्सव
तुम्हारे ऊपर
नहीं बरसा तो कहीं
चूक हो रही
है। कृष्ण
लेश्या को
पहचानना। जिन अंतर्शत्रुओं
की सारे
शास्त्रों
में चर्चा है,
वे सभी
कृष्ण लेश्या
को मजबूत करते
हैं।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन
एक टैक्सी में
बैठा हुआ पहाड़
से नीचे उतर
रहा था। ढलान
से उतरते हुए
अचानक टैक्सी
का ब्रेक खराब
हो गया और
गाड़ी अत्यंत
वेग से दौड़ने
लगी। नियंत्रण
के बाहर हो गई
गाड़ी।
ड्राइवर
घबड़ाया और
उसने पूछा कि
बड़े मियां, गाड़ी का
ब्रेक फेल हो
गया। अब मैं
क्या करूं? मुल्ला ने
कहा, सबसे
पहले मीटर बंद
करो। फिर जो
चाहे करना।
एक
आदमी है, जिसका
चित्त सदा लोभ
में लगा हुआ
है। कहते हैं
मुल्ला को एक
दफा डाकुओं ने
पकड़ लिया।
छाती पर बंदूक
लगा दी और कहा
कि दे दो, जो
भी तुम्हारे
पास है। अगर
नहीं दिया तो
मरने के लिए
तैयार हो जाओ।
मुल्ला ने कहा,
जरा सोचने
भी तो दो। देर
लगती देखकर
डाकू बोले, जल्दी करो।
सोचना क्या है?
या मरने को
तैयार हो जाओ,
या
तुम्हारे पास
है जो, दे
दो। मुल्ला ने
कहा, तो
फिर मार ही डालो
क्योंकि जो
मैंने इकट्ठा
किया है वह
बुढ़ापे के लिए
इकट्ठा किया
है। तुम मार
ही डालो।
इस धन के बिना
मैं जी ना
सकूंगा। इस धन
के बिना मरना
बेहतर है।
ऐसी
अतिशयोक्ति
तो कम घटती
है। तुम
सोचोगे, अगर
तुम्हारी
छाती पर कोई
बंदूक लगा दे
तो तुम तो ऐसा
न करोगे। तुम
कहोगे कि ले
जा, जो ले
जाना है। मुझे
छोड़ दे। लेकिन
छोटी-छोटी मात्रा
में रोज तुम
यही कर रहे हो,
जो मुल्ला
ने इकट्ठा
किया है। जब
भी धन और जीवन
में चुनाव
होता है, तुम
धन चुनते हो, जीवन नहीं
चुनते। इसलिए
मुल्ला की
कहानी को
अतिशयोक्ति
मत समझना। अगर
दस रुपये बचते
हों, थोड़ा
जीवन खोता हो
तो तुम दस
रुपये बचाते
हो। शायद भीतर
एक हिसाब है
कि जीवन तो
मुफ्त में मिला
है। कुछ खर्च
तो करना पड़ा
नहीं है। धन
तो बड़ी
मुश्किल से
मिलता है। बड़े
श्रम से मिलता
है।
अपने भीतर
चिंतन की इन
प्रक्रियाओं
को पकड़ना।
इन्हीं के
ताने-बाने से
कृष्ण लेश्या
बनती है।
मुल्ला
का बेटा उससे
पूछ रहा था कि
पिताजी, मैं
दुविधा में
हूं। दांतों
का डाक्टर
बनूं या कानों
का? मुल्ला
ने कहा, इसमें
दुविधा की बात
क्या है? दांतों
के डाक्टर
बनो। क्योंकि
व्यक्ति के
कान तो केवल
दो होते हैं, दांत बत्तीस
होते हैं।
अगर
भीतर लोभ हो
तो हर तरफ लोभ
छाया डालेगा।
तुम्हारे सभी
निर्णय, तुम्हारे
सभी वक्तव्य,
तुम्हारा
उठना-बैठना, सब लोभ से
परिचालित
होगा।
तुमने
कभी देखा कि
चौबीस घंटे
में तुम कुछ
एकाध कृत्य भी
करते हो, जो
लोभ से मुक्त
हो? लोग तो
ध्यान भी करते
हैं, तो वे
पहले पूछते
हैं, मिलेगा
क्या? प्रार्थना
भी करते हैं
तो पूछते हैं,
लाभ क्या
होगा? परमात्मा
के मंदिर में
भी जाते हैं
तो वे दुकान
में ही जाते
हैं--लाभ!
तुम्हारे
जीवन में कुछ ऐसा
है, जो उपयोगिताशून्य
हो? जिसकी
कोई उपयोगिता
न हो, लेकिन
मौज से तुम
करते हो? जिसका
मूल्य आंतरिक
हो?
कोयल
गुनगुनाती, या पक्षी
वृक्षों में
टी-वी-टुट-टुट
करते रहते, या वृक्षों
में फूल खिलते,
या आकाश में
तारे हैं, या
पहाड़ों से
झरने फूटते
हैं--कहां
प्रयोजन है? कहां
उपयोगिता है?
तुम किसी
झरने से पूछो
कि क्या लाभ
है, तू
बहता ही रहता
है? फायदा
क्या है
नासमझ! इसमें
सार क्या है?
यह
पूरी प्रकृति
निस्सार है
मनुष्य के
अर्थों में।
क्योंकि
इसमें से कहीं
रुपये तो
निकलते नहीं।
आदमी तो उतना
ही करता है, जिसका उपयोग
हो, युटीलिटी हो। लेकिन
ध्यान रखना, अगर तुम उतना
ही करते हो
जिसका उपयोग
है तो तुम
मशीन हो गए, आदमी न रहे।
तुम मुर्दा हो
गए। तुम्हारी
उपयोगिता हो
गई, लेकिन
जीवन का कोई
गहन आनंद न
रहा।
सभी
आनंद
उपयोगिता
मुक्त हैं। और
जब तुम उपयोगिता
मुक्त होओगे, तभी तुम
आनंद के जगत
में प्रवेश
करोगे। उल्लास
का कोई मूल्य थोड़े
ही है! उल्लास
अपने आप में
मूल्यवान है। उल्लास
किसी और चीज
का साधन थोड़े
ही है; अपने
आप में साध्य
है। जीवन
स्वयं साध्य
है। इससे कुछ
और पाना नहीं
है। जिसने
जीवन से कुछ और
पाने की कोशिश
की, उसकी
कृष्ण लेश्या
कभी कटेगी
नहीं।
तो मैं
तुमसे यह कहता
हूं कि तुम
जैन मंदिरों
में बैठे जैन
मुनि हैं, उनको भी गौर
से देखना, तुम
कृष्ण लेश्या
से भरे पाओगे।
उन्होंने संसार
छोड़ा है लोभ
के कारण; लोभ
से मुक्त होकर
नहीं। जैन
मुनि समझाते
हैं अपने
श्रावकों को
कि संसार में
क्या रखा है? अरे स्वर्ग
खोजो। धन में
क्या रखा है? पुण्य खोजो।
यह धन तो कल खो
जाएगा, पुण्य
कभी न खोएगा।
इस
तर्क का अर्थ
समझते हो? इसका अर्थ
हुआ कि मुनि
ऐसा धन खोज
रहे हैं, जो
कभी नहीं
खोता। और तुम
ऐसा धन खोज
रहे हो, जो
खो जाता है।
तो मुनि तुमसे
ज्यादा लोभी
हैं। तुम तो
क्षणभंगुर
में भी
प्रसन्न हो, मुनि शाश्वत
धन खोज रहे
हैं। लेकिन
दुकानदारी न
गई। मन का
गणित न गया।
अगर उपवास भी
कर रहे हैं, तप भी कर रहे
हैं, ध्यान
भी कर रहे हैं
तो उपयोगिता
लगी है। ध्यान
से आत्मा
मिलेगी, कि
ध्यान से
परमात्मा
मिलेगा।
मैं
तुमसे कहता
हूं, ध्यान से
सिर्फ ध्यान
मिलता है।
प्रेम से सिर्फ
प्रेम मिलता
है। और ध्यान
जब पूरी तरह
बरसता है तो
उसी वर्षा की
एक व्याख्या
परमात्मा है।
परमात्मा कुछ
और नहीं है, जो ध्यान से
मिलता है।
उपयोगिता-शून्य,
बाजार के
बाहर, लोभ-लाभ
की वृत्ति के
बाहर, मद-मत्सर
के बाहर, तुम
जब किसी क्षण
में भी सहज
आनंद से जीते
हो, उसी क्षण
में जो घटता
है, वही
परमात्मा है।
कहो मोक्ष, कहो निर्वाण,
कहो समाधि,
कैवल्य। जो
मर्जी नाम दो,
क्योंकि
उसका कोई नाम
नहीं। लेकिन
तुम्हें अपने
प्रतिपल में
विचार करना
होगा, देखना
होगा, कहां-कहां
कृष्ण लेश्या
को तुम मजबूत
करते हो।
लेश्याएं
छह प्रकार की
हैं। कृष्ण, नील, कापोत,
ये तीन
अधर्म
लेश्याएं
महावीर ने
कहीं।
पतंजलि
के हिसाब
में...पतंजलि
ने मनुष्य के
सात चक्रों का
वर्णन किया।
ये तीन
लेश्याएं महावीर
की और पतंजलि
के तीन निम्न
चक्र एक ही
अर्थ रखते
हैं। ये एक ही
तथ्य को प्रगट
करने की दो व्यवस्थाएं
हैं।
जिसको
पतंजलि
मूलाधार कहता
है--जो
व्यक्ति
मूलाधार में
जीता है, वह
कृष्ण लेश्या
में जीता है।
मूलाधार में जीनेवाला
व्यक्ति
अंधकार में
जीता है, अमावस
में जीता है।
छठवां
चक्र है, आज्ञाचक्र। जो
व्यक्ति आज्ञाचक्र
में पहुंच
जाता है, वह
ठीक वहीं
पहुंच गया, जो महावीर
की परिभाषा
में शुक्ल
लेश्या में
पहुंचता है। तृतीय
नेत्र खुल
गया।
पूर्णिमा
हुई। पूरा चांद
निकला।
और
जिसको पतंजलि
सहस्रार कहता
है--सहस्रदल
कमल, सातवां
चक्र, वही
महावीर के लिए
वीतराग
स्थिति है।
रंग-राग सब
गया। सब
लेश्याएं
गईं। कृष्ण
लेश्या तो गई ही,
श्वेत
लेश्या भी गई।
काले पर्दे तो
उठ ही गए, सफेद
पर्दे भी उठ
गए। पर्दे ही
न रहे।
परमात्मा
बेपर्दा हुआ, नग्न हुआ, दिगंबर हुआ।
आकाश के
अतिरिक्त और
कोई ओढ़नी
न रही, ऐसा
निर्दोष हुआ।
तो जो
छह चक्र हैं
पतंजलि के, वे ही छह
लेश्याएं हैं
महावीर की।
पहले तीन चक्र
सांसारिक
हैं। अधिकतर
लोग पहले तीन
चक्रों में ही
जीते और मर
जाते हैं।
चौथा, पांचवां
और छठवां
चक्र धर्म में
प्रवेश है।
चौथा चक्र है
हृदय, पांचवां
कंठ, छठवां आज्ञा।
हृदय से धर्म
की शुरुआत
होती है। हृदय
यानी प्रेम।
हृदय यानी
करुणा। हृदय
यानी दया।
हृदय के
अंकुरण के साथ
ही धर्म की
शुरुआत होती
है। जिसको
हृदय चक्र कहा
है पतंजलि के
शास्त्र में,
वही तेजो
लेश्या है।
हृदयवान
व्यक्ति के
जीवन में एक
तेज प्रगट
होता है।
तुमने
प्रेमी का
चेहरा दमकता
देखा होगा। जब
तुम कभी किसी
के प्रेम में
होते हो तो
तुम्हारे
चेहरे पर एक
नई ही आभा
प्रगट हो जाती
है। चेहरा
तुम्हारा, कल भी
तुम्हारा था,
आज
तुम्हारा
किसी से प्रेम
हुआ; तत्क्षण
तुम्हारे
चेहरे पर एक
रौनक आ जाती
है, जो कभी
न थी--एक
दीप्ति। तुम
ज्यादा जीवंत
हो उठते हो।
जैसे किसी ने
तुम्हारी
बुझते-बुझते दीये
की ज्योति को
उकसा दिया।
राख जम गई थी, किसी ने झाड़
दी और
तुम्हारा
अंगारा फिर
दमक उठा।
साधारण
प्रेम में ऐसा
हो जाता है तो
जिस प्रेम की
महावीर और
पतंजलि बात
करते हैं, उसकी तो बात
ही क्या कहनी!
एक
स्त्री के
प्रेम में तुम
पड़ जाओ, एक
मित्र के
प्रेम में पड़
जाओ, एक
रौनक आ जाती
है। तेजो
लेश्या! एक
स्वर्णिम दमक
आ जाती है।
कल एक
कविता पढ़ रहा
था। प्रेम की
कविता है।
इस तगैयुर के
लिए उनको दुआ
देता हूं मैं
मौत
थी कल रात तक, जिंदगी कल
रात से
हो
रहा है
मेहरबां मुझ
पर वह रश्के-सदबहार
खिल
रही है फिर
मेरे दिल की
कली कल रात से
उनका
जलवा ख्वाब
में पुर-कैफ
मुझको कर गया
आंख
में आई हुई है
नींद-सी कल
रात से
किस
कदर है उनसे
मिलने की खुशी
कल रात से
जिंदगी
में आ गई है
ताजगी कल रात
से
आलमे-वहशत
था तारी हर
तरफ कल रात तक
हर
दरो-दीवार में
है दिलकशी
कल रात से
बन
गया है दिल का
हर अरमान एक बज्मे-निशात
नगमाजन
है अर्स साजे-जिंदगी
कल रात से
साधारण
प्रेम में जो
कल तक मौत थी, वह आज
जिंदगी मालूम
पड़ने लगती है।
कल तक जहां साज
टूटा पड़ा था, आज झनझना
उठता है।
जैसे
ही हृदय पर
चोट लगती है, वैसे ही
तुम्हारे
जीवन में
दीप्ति का
जन्म होता है।
सांसारिक
प्रेम में तो
यह चोट ऐसी है
कि जैसे एक
बड़े विराट
हृदय में
जरा-सा एक
कोना रोशन हुआ
हो। जब यह
कोना कोना
नहीं रह जाता,
और
तुम्हारा
पूरा हृदय
रोशन होता है
तो उसी को
महावीर
अहिंसा कहते
हैं। उसी को
बुद्ध करुणा कहते
हैं। उसको
जीसस ने प्रेम
कहा है। या
भक्तों ने, नारद ने
प्रार्थना
कहा है।
जब
तुम्हारा
पूरा हृदय
आंदोलित हो
उठता है प्रेम
से तो
तुम्हारे
जीवन में तेजो
लेश्या का
जन्म हुआ।
लेकिन महावीर
उसको भी
लेश्या ही
कहते हैं, यह खयाल
रखना। महावीर
कहते हैं, वह
भी बंधन ही
है--धर्म का
सही, सुंदर
है सही, शुभ
है सही, लेकिन
भूल मत जाना
कि बंधन है।
फिर उसके बाद
पद्म लेश्या
और शुक्ल
लेश्या।
क्रमशः और सुंदरतर
होता जाता
जीवन।
शुक्ल
लेश्या--योग
की तृतीय आंख, या तंत्र का
शिवनेत्र, महावीर
की शुक्ल
लेश्या है।
जैसे
तुम्हारे भीतर
इन छह के बीच
अमावस और
पूर्णिमा का
अंतर है। जब
तुम्हारे
जीवन की ऊर्जा
आज्ञाचक्र
पर आकर ठहरती
है तो
तुम्हारा सारा
अंतर्लोक
एक प्रभा से
मंडित हो जाता
है। एक प्रकाश
फैल जाता है।
तुम पहली दफा
जागरूक होते
हो। तुम पहली
दफा ध्यान को
उपलब्ध होते
हो।
इसलिए
पतंजलि ने उसे
आज्ञाचक्र
कहा। आज्ञाचक्र
का अर्थ है कि
इस घड़ी में
तुम जो कहोगे, कहते ही हो
जाएगा।
तुम्हारी
आज्ञा
तुम्हारे
व्यक्तित्व
के लिए सहज
स्वीकृत हो
जाएगी। इतनी
जागरूकता में
जो भी कहा
जाएगा, जो
भी निर्णय
लिया जाएगा, वह तत्क्षण
पूरा होने
लगेगा।
क्योंकि अब
कोई विरोधी
नहीं रहा। अब
तुम एक-सूत्र
हुए, एक-जुट
हुए। अब
तुम्हारे
भीतर दो आंखें
न रहीं, एक
आंख हुई। दो
थीं तो द्वंद्व
था। एक कुछ
कहती, दूसरी
कुछ कहती। यही
अर्थ है उस
प्रतीक का--तृतीय
नेत्र का। अब
एक आंख हुई।
तुम एक-दृष्टि
हुए।
जीसस
ने अपने
शिष्यों को
कहा है, जब
तक तुम्हारी
दो आंखें एक
आंख न बन जाए, तब तक तुम
मेरे प्रभु के
राज्य में
प्रवेश न कर
सकोगे।
दो का
अर्थ है, भीतर
खंड-खंड बंटे
हैं हम। एक मन
कुछ कहता, दूसरा
मन कुछ कहता।
एक मन कहता है,
अभी तो भोग
लो। एक मन
कहता है, क्या
रखा भोगने में?
छोड़ो। एक मन कहता
है, मंदिर
चलो--प्रार्थना
की पावनता।
दूसरा मन कहता
है, व्यर्थ
समय खराब
होगा। घंटेभर
में कुछ रुपये
कमा लेंगे।
बाजार ही चलो।
प्रार्थना
बूढ़ों के लिए
है, अंत
में कर लेंगे।
मरते वक्त कर
लेंगे। इतनी जल्दी
क्या है? अभी
कोई मरे नहीं
जाते।
तुमने
खयाल किया? कि मन कभी भी
निर्णीत नहीं
होता।
अनिर्णय मन का
स्वभाव है।
छोटी-छोटी
बातों में
अनिर्णीत होता
है। कौन-सा कपड़ा
आज पहनना है, इसी के लिए
मन अनिर्णीत
हो जाता है।
किस फिल्म को
देखने जाना, इसीलिए
अनिर्णीत हो
जाता है। जाना
कि नहीं जाना
इसी के लिए
आदमी सोचने
लगता है, डांवांडोल
होने लगता है;
जैसे
तुम्हारे
भीतर दो आदमी
हैं, एक
नहीं।
आज्ञाचक्र
पर आकर
तुम्हारा
द्वंद्व
समाप्त होता
है, तुम एक बनते
हो। इसलिए
पतंजलि ने उसे
आज्ञाचक्र
कहा क्योंकि
तुम पहली दफा
स्वामी बनते,
मालिक
बनते। जब तक आज्ञाचक्र
न खुल जाए तब
तक कोई अपना
मालिक नहीं।
मैंने
तुम्हें
स्वामी कहा है, तुम्हें
संन्यास दिया
है। तुम
स्वामी मेरे कहने
से हो नहीं
गए। यह तो
सिर्फ
दिशा-निर्देश किया
है। यह तो
तुम्हारे
भीतर
आकांक्षा का
बीज डाला है।
यह तो
तुम्हारी
अभीप्सा जगाई
है। यह तो
तुम्हें एक
दृष्टि और
दिशा दी है।
यह तो तुम्हारे
लिए बोध दिया
है कि यह
तुम्हें होना
है। इससे होने
के पहले रुकना
मत, जब तक
कि स्वामी न
हो जाओ।
तो ठीक, आज्ञाचक्र बड़ा सुंदर
शब्द है। वहां
आकर तुम पहली
दफा गुलामी के
बाहर होते हो।
तुम्हारी
आज्ञा चलती है
तुम्हारे
ऊपर। महावीर
का शब्द भी
बड़ा सुंदर है:
शुक्ल।
पूर्णिमा हो
गई। सब अंधेरा
गया। कोना-कोना
जाग्रत हो
उठा।
अगर
आधुनिक
मनोविज्ञान
की भाषा से हम
समझना चाहें
तो पहले तीन
चक्र, जिसको
फ्रायड कांशस
माइंड कहता है,
चेतन मन
कहता है, उसके
हैं। दूसरे
तीन चक्र, जिनको
महावीर धर्म
लेश्या कहते
हैं, अनकांशस
माइंड के, अचेतन
मन के हैं। और
सातवीं
स्थिति सुपरकांशस
माइंड की है, अति-चेतन मन
की। जो
व्यक्ति तीन
चक्रों में ही
जीता, वह
ऊपर-ऊपर जीता
है। जैसे कोई
व्यक्ति अपने
घर के बाहर
पोर्च में
जीता हो। वहीं
टीन-टप्पर
बांधकर रहने
लगा है। पूरा
महल खाली पड़ा
है। पूरा महल
उसका है, जन्मसिद्ध
उसका अधिकार
है, लेकिन
स्मरण नहीं
रहा। वह भीतर
जाना भूल गया
है। याद खो
गई। विस्मरण
हो गया है।
तो जो
व्यक्ति पहले
तीन चक्रों
में ही जी
लेते हैं, उन्हें अपने
ही पूरे महल
का कोई पता
नहीं चल पाता।
जो व्यक्ति
अपने भीतर
प्रवेश करते
हैं और छठवें
चक्र तक
पहुंचते हैं,
उन्हें
अपने महल में
निवास मिलता
है। पहले तीन
चक्र थोड़े-से
रोशन हैं।
बाकी तीन चक्र
अभी बिलकुल
अंधेरे में
पड़े हैं। इसीलिए
फ्रायड उनको
अनकांशस कहता
है; अचेतन
कहता है।
लेकिन वे
अचेतन इसीलिए
हैं कि तुम
वहां नहीं गए।
तुम्हारे
जाते ही चेतन
हो जाएंगे।
तुम जहां गए
वहीं चेतना
पहुंच जाती है।
तुम्हारी
दृष्टि जहां
पड़ी, वहीं
चैतन्य का
जन्म हो जाता
है। तुम वहां
गए नहीं
इसलिए।
ऐसा समझो, चौदह साल तक
बच्चा बड़ा
होता है। तब
तक उसका काम-केंद्र
अचेतन रहता
है। ऐसा कम से
कम अतीत में
तो रहता था।
अब जरा
मुश्किल है।
क्योंकि काम-चेतना
के
शोषण करने के
लिए इतने लोग
आतुर हैं कि
छोटे बच्चों
की काम-चेतना
भी परिपक्व
हुए बिना
जाग्रत हो
जाती है।
एक बड़ी
हैरानी की
घटना अमरीका
में घट रही
है। लड़कियां
दो साल पहले
मासिक धर्म से
ग्रस्त होने
लगी हैं। चौदह
साल में होती
थीं, अब वे
बारह साल में
होने लगी हैं।
मालूम होता है
कि चारों तरफ
का दबाव, वासना
का ज्वार
चारों
तरफ--फिल्म हो,
टेलीविजन
हो, रेडियो
हो, पोस्टर
हो, अखबार
हो; और सब
तरफ की हवा और
सब तरफ छिछला
प्रदर्शन शायद
मनुष्य की
प्रकृति पर
दबाव डाल रहा
है। दो साल
उम्र गिर जाना
नीचे, बड़ी
हैरानी की बात
है। बायोलाजिस्ट
बड़े चकित हैं
कि यह कैसे
हुआ! अगर ऐसा
जारी रहा तो
शायद कुछ
दिनों में और
उम्र गिर
जाएगी। शायद
सात वर्ष के
छोटे-छोटे
बच्चे
कामातुर हो
उठेंगे। ये बेमौसम
के फल होंगे
और इनके जीवन
में बड़ी
कठिनाई खड़ी
होगी।
लेकिन
साधारणतः
चौदह साल की
उम्र तक
कामवासना का
केंद्र सोया
पड़ा रहता है, अचेतन रहता
है। चौदह साल
की उम्र में
चैतन्य बनता
है। और जैसे
ही चेतना
काम-केंद्र पर
जाती है तो
काम-केंद्र
फिर अचेतन
नहीं रह जाता।
फिर सारा मन
उसी के आसपास
घूमने लगता
है। अक्सर लोग
पहले केंद्र
के पास ही
समाप्त हो
जाते हैं।
अक्सर लोग इस
पहले केंद्र
पर ही जीते
हैं और मर
जाते हैं।
बूढ़े से बूढ़ा
आदमी भी कामलोलुप
ही जीता है।
चाहे कहता न
हो, मन ही मन
में छुपाकर
रखता हो; इससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ता। लेकिन
चित्त में कामवासना
ही चलती रहती
है। यह बड़ी
दुर्दिन की घटना
है, दुर्भाग्य
की घटना है।
इसका मतलब हुआ,
महल
अपरिचित रह
गया।
जैसे-जैसे
तुम चैतन्य को
भीतर प्रवेश
करवाते हो, जैसे-जैसे
तुम अपने और
उपेक्षित
अंगों पर
रोशनी डालते
हो, वैसे-वैसे
तुम पाते हो, नई-नई
संभावनाओं का
आविर्भाव
होता है।
महावीर
कहते हैं, छठवें
केंद्र पर
शुक्ल लेश्या
पूर्ण होती है।
पूर्णिमा की
चांदनी फैल
जाती है
तुम्हारे पूरे
व्यक्तित्व
पर। पूर्णिमा
की चांदनी फैल
जाने के लिए
तुम्हें
अंतर्यात्रा
पर जाना होगा।
और जो पर्दे
तुम्हें बाहर
रोकते हैं, उन्हें
धीरे-धीरे
छोड़ना होगा।
कृष्ण, नील, कापोत,
इन्हें छोड़ो।
लोभ, मोह, घृणा,
क्रोध, अहंकार,र्
ईष्या छोड़ो।
प्रेम, दया,
सहानुभूति
जगाओ।
परिग्रह छोड़ो,
अपरिग्रह
जगाओ। कृपणता छोड़ो, बंटना
सीखो। मांगो मत,
दो। और
अंतर्यात्रा
शुरू होगी।
चीजों
को मत पकड़ो।
चीजों का
मूल्य नहीं
है। चीजों को
अपना मालिक मत
बनने दो, चीजों
के मालिक रहो।
उपयोग करो
साधन की तरह; साध्य मत
बनाओ। तो
धीरे-धीरे
पर्दे टूटते
हैं।
अगर
ऐसा न किया तो
जीवन में सब
तो पा लोगे, लेकिन जो
पाने योग्य था,
बस उसी से
वंचित रह
जाओगे।
पीड़ा
मिली जनम के
द्वारा
अपयश
पाया नदी
किनारे
इतना
कुछ मिल गया
एक बस
तुम्हीं
नहीं मिले
जीवन में
हुई
दोस्ती ऐसी
दुख से
हर
मुश्किल बन गई
रुबाई
इतना
प्यार जलन कर
बैठी
क्वांरी
ही मर गई जुनाई
बगिया
में न पपीहा
बोला
द्वार
न कोई उतरा
डोला
सारा
दिन कट गया
बीनते
कांटे
उलझे हुए वसन
में
पीड़ा
मिली जनम के
द्वारा
अपयश
पाया नदी
किनारे
इतना
कुछ मिल गया
एक बस
तुम्हीं
नहीं मिले
जीवन में
और एक
चूक जाए, सब
चूक गया। वह
एक, जिसको
भक्त प्रीतम
कहते हैं, उसी
को महावीर
परमात्मा
कहते हैं। वह
प्यारा तुम्हारे
भीतर ही बैठा
है। लेकिन तुम
भीतर जाओ तो
मिलन हो। तुम
अपने बाहर ही
बाहर भटक रहे
हो। और तुमने
ऐसे पर्दे
टांग रखे हैं
कि भीतर की
याद ही भूल गई
है। काले
पर्दे ही
दिखाई पड़ते हैं।
लगता है, भीतर
कुछ और है
नहीं।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे कहते
हैं, हमने
पढ़ा कबीर को, पढ़ा नानक को;
तो वे सभी
कहते हैं कि
भीतर जाने से
प्रकाश होता
है। हम तो
जाते हैं तो
सिवाय अंधकार
के कुछ नहीं
दिखाई पड़ता।
वह कृष्ण
लेश्या जब तक
न हटेगी, काला
पर्दा पड़ा
रहेगा। तुम
जाओगे भीतर तो
तुम काला ही
पाओगे। अक्सर
तुम भीतर आंख
बंद करोगे, तो या तो
विचारों का ही
ऊहापोह मचा
रहेगा। या अगर
कभी क्षणभर
को विचारों से
छुटकारा मिला
तो अंधेरी रात,
अमावस! घबड़ाकर
तुम बाहर निकल
आओगे।
और
अंधेरे से
हमें डर लगता
है। अंधेरा हम
पैदा करते हैं
और अंधेरे से
हमें डर लगता
है। अंधेरा हम
जीवनभर बनाते
हैं और अंधेरे
से हमें डर
लगता है। तो
जैसे ही
अंधेरा दिखा, फिर भागे
बाहर, फिर
खोल दी आंख।
मुझसे
लोग कहते हैं
कि जब भीतर का
अंधेरा दिखाई
पड़ता है तो
बड़ी घबड़ाहट
होती है। डर
लगता है कहीं
मर न जाएं, कहीं खो न
जाएं। यह कैसा
अंधेरा है!
ईसाई फकीरों ने
तो उसको नाम
ही दिया है: डार्क
नाइट आफ द
सोल। जिसको
महावीर कृष्ण
लेश्या कहते
हैं, वही है।
ईसाई फकीर
कहते हैं, जब
कोई व्यक्ति
अपनी
अंतरात्मा की
तरफ जाता है
तो एक बड़ी
अंधेरी रात से
गुजरना पड़ता
है। वह अंधेरी
रात हमारी
बनाई हुई है; हमीं को मिटानी
पड़ेगी। दूसरा
कोई उसे मिटा
भी नहीं सकता।
साहस करके, दुस्साहस
करके हमें उस
पर्दे को चीर
डालना होगा।
कठिन
नहीं है
क्योंकि उसका
ताना-बाना
बहुत साफ है।
लोभ, माया, मोह,
मद, इनसे
ही बना है।
इनको तुम
क्षीण करो, वह काली
चादर अपने आप
क्षीण होने
लगेगी। उसके ताने-बाने
उखड़ जाएंगे।
जगह-जगह छेद
हो जाएंगे।
जगह-जगह छेद
से तुम्हें
नील लेश्या का
दर्शन होने
लगेगा।
जिस
व्यक्ति की
कृष्ण लेश्या
गिरती है, उसे भीतर
नीले आकाश का
दर्शन होगा।
बड़ा शांत! जैसे
कोई गहरी नदी
हो और नीली
मालूम पड़ती
हो।
फिर जो
उसके भी पार
जाएगा, उसके
लिए महावीर
कहते हैं, कापोत
लेश्या। तब और
भी हलका
नीलापन; गहरा
नहीं। ऐसे
क्रमशः
पर्तें टूटती
जाती हैं।
"...तेजो
लेश्या, पद्म
लेश्या, शुक्ल
लेश्या, इनमें
पहली तीन अशुभ
हैं। इनके
कारण जीव विभिन्न
दुर्गतियों
में उत्पन्न
होता है।'
यह भी
समझ लेना
जरूरी है।
क्योंकि इस
सूत्र की
व्याख्या बड़ी
अन्यथा की
जाती रही है।
वह व्याख्या
ठीक है, लेकिन
बहुत
महत्वपूर्ण
नहीं है।
व्याख्या
की जाती रही
है कि इन तीन
लेश्याओं में
जो उलझा हुआ
है, वह नर्क
जाएगा; दुर्गति
में पड़ेगा।
पशु-पक्षी हो
जाएगा, कीड़ा-मकोड़ा हो
जाएगा। यह
व्याख्या गलत
नहीं है, लेकिन
बड़ी
महत्वपूर्ण
भी नहीं है।
असली
व्याख्या: जो
व्यक्ति इन
लेश्याओं में उलझेगा
उसकी बड़ी
दुर्गति होती
है। वह कभी
भविष्य में, किसी दूसरे
जन्म में
कीड़ा-मकोड़ा
बनेगा, ऐसा
नहीं है। वह
यहीं कीड़ा-मकोड़ा
बन जाता है।
कीड़ा-मकोड़ा
बनने के लिए
कीड़े-मकोड़े
की देह लेना
जरूरी नहीं
है।
तुमने
आदमी देखे, जो कीड़े-मकोड़ों
जैसे हैं, या
नहीं देखे? तुमने आदमी
देखे, जिन्हें
देखकर आदमी की
याद बिलकुल
नहीं आती? जिन्हें
देखकर
जानवरों का
स्मरण होता
है। तुमने
आदमी देखे, जिनका
व्यक्तित्व
अभी मनुष्य की
सीमा को छूता
ही नहीं; मनुष्य
के क्षितिज को
छूता ही नहीं?
जिनके नीचे
के पशु-पक्षी
अभी भी सक्रिय
हैं। देह
मनुष्य की है,
लेकिन मन
अभी बहुत
पिछड़ा हुआ है;
बहुत पीछे
का है।
तुम
कभी आंख बंद
करके देखो, तुम पाओगे, मन बंदर की
भांति है। जब
तक मन शांत न
हो जाए, तब
तक तुम यह मत
समझना कि
वृक्ष से उतर आए
तो उतर आए।
डार्विन ठीक
ही कहता है कि
आदमी बंदर से
पैदा हुआ है।
लेकिन एक जगह
भूल करता है
वह यह--अभी
पैदा कहां हुआ
है? कभी-कभी
कोई होता है।
कुछ बंदर झाड़ों
से नीचे उतर
आए हैं। कुछ
बंदर झाड़ों
पर बैठे हैं, लेकिन बंदरपन
सभी के भीतर
है।
कभी
कोई महावीर, कभी कोई
बुद्ध
वस्तुतः
मनुष्य होता
है, जब मन
का बंदर नहीं
रह जाता। अभी
तुम देखो, मन
के बंदर को
तुम मुंह
बिचकाते, इस
झाड़ से उस झाड़
पर छलांग
लगाते, इस
शाखा से उस
शाखा पर डोलते
हुए पाओगे।
तुम बंदर को
भी इतना बेचैन
न पाओगे, जितना
तुम मन को
बेचैन पाओगे।
डार्विन
तो बड़ी बाहर
की शोध करके
इस नतीजे पर
पहुंचा; अगर
भीतर जरा उसने
झांका
होता तो इतनी
बाहर की शोध
करने की जरूरत
न थी। आदमी
बंदर से
निश्चित आया
है। आदमी अभी
भी बंदर है।
और इस भीतर के
बंदर से
छुटकारा जब तक
न पाया जाए तब
तक मनुष्य का
जन्म नहीं
होता। मनुष्य
की देह एक बात
है; मनुष्य
का चित्त बड़ी
और बात है।
महावीर
का यह सूत्र
है: "कृष्ण, नील और
कापोत, ये
तीनों अधर्म
या अशुभ
लेश्याएं
हैं। इनके कारण
जीव बड़ी दुर्गतियों
में उत्पन्न
होता है।'
तो तुम
यह मत सोचना
कि भविष्य में
कभी दुर्गति
होगी। जिस
क्षण जो
लेश्या
तुम्हें पकड़ती
है, उसी क्षण
दुर्गति हो
जाती है।
दुर्गति उधार
नहीं है कि
फिर कभी होगी।
दुर्गति अभी
हो जाती है।
जब तुम क्रोध
से भरते हो, तब दुर्गति
हो जाती है।
जब तुम अहंकार
से भरते हो तब
दुर्गति हो
जाती है।
दुर्गति
प्रतिपल हो
रही है।
इस पर
मैं जोर देना
चाहता हूं।
क्योंकि इस बात
ने कि कभी
मरने के बाद
होगा, लोगों
को बड़ा
निश्चिंत बना
दिया है। लोग
सोचते हैं, देखेंगे जब
होगा तब
देखेंगे।
आदमी की सोचने
की सीमा है।
जैसे
कोई तुमसे कहे
कि आज शाम तुम
मर जाओगे, तो तुम बहुत
घबड़ा जाओगे।
वह कहे कि सात
दिन बाद मरोगे
तो तुम उतने न घबड़ाओगे।
तुम कहोगे, सात दिन? देखेंगे।
सात दिन...कोई
अभी आज तो मर
नहीं रहे। कोई
कहे, सात
साल बाद मरोगे
तो कुछ चोट न
मालूम पड़ेगी। कोई
कहेगा, सत्तर
साल बाद
मरोगे। तुम
कहोगे, छोड़ो भी! सात सौ
साल बाद कोई
कहे तो...।
वक्तव्य
तो वही है कि
मर जाओगे।
लेकिन जैसे-जैसे
समय बड़ा होता
जाता है, वैसे-वैसे
तुम्हारी
चिंता क्षीण
होती चली जाती
है।
तुमने
कभी खयाल
किया! एक आदमी
मर जाए
तुम्हारे
पड़ोस में तो
पीड़ित हो जाते
हो तुम। फिर
पता चलता कि
कहीं अफ्रीका
में हजार आदमी
मर गए, कि बांगला
देश में दस
हजार आदमी मर
गए। एक आदमी
का मरना पड़ोस
में तुम्हें
पीड़ित कर देता
है। दस हजार
आदमी बांगला
देश में मरते
हैं, तुम
अखबार पढ़ लेते
हो; कुछ भी
नहीं होता।
क्या
मामला है? इससे क्या
फर्क पड़ता है,
तुम्हारे
पड़ोस में मरे,
एक मील पर
मरे कि हजार
मील पर मरे!
लेकिन सीमा है
तुम्हारी।
तुम्हारी
पत्नी मर जाए
तो ज्यादा पीड़ा
होती है।
पड़ोसी की
पत्नी मर जाए
तो उतनी पीड़ा
नहीं होती।
जरा दूर है।
चाहे एक घर का
ही फासला हो, मगर फासला
हो गया। किसी
और की पत्नी
मरी।
जैसे
तुम्हारे
चित्त से दूरी
होती जाती है, वैसे-वैसे
तुम्हारी
चिंता, तुम्हारी
बेचैनी कम
होती जाती है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
मनुष्य के मन
की बड़ी सीमाएं
हैं। एक आदमी
मरे और हजार
आदमी मरें,
तो दोनों
खबरें सुनकर
तुम्हें हजार
गुना दुख नहीं
होता, जब
हजार आदमी
मरते हैं।
खयाल किया? एक आदमी मर
गया, हजार
आदमी मर गए, दस हजार
आदमी मर गए...दस
हजार आदमी मरे
सुनकर क्या
तुम्हें दस
हजार गुना दुख
होता है? संभावना
तो यह है कि
शायद उतना भी
न हो, जितना
एक आदमी के
मरने से होता
था--अगर वह एक
आदमी परिचित
होता, पहचाना
होता, जाना-माना
होता।
मैंने
सुना है, एक
बस में एक
हिंदू और पचास
मुसलमान
यात्रा कर रहे
थे। बस उलट गई,
सब मर गए।
किसी ने किसी
को कहा कि
सुना तुमने? बस उलट गई।
पचास मुसलमान
और एक हिंदू
मर गए। उस
आदमी ने कहा, अरे, बेचारा
आदमी! हिंदू
रहा होगा वह; उसने कहा, बेचारा
आदमी। हिंदू
के लिए पीड़ा
हुई, बाकी
पचास मुसलमान
के लिए कोई...।
तुमको
भी नहीं लगता, जब पचास
मुसलमान मर
जाएं तो कुछ
चोट नहीं मालूम
पड़ती।
मुसलमान थे, बात खतम हो
गई। मुसलमान
सुनता है, हिंदू
मर गए, कुछ
अंतर नहीं
पड़ता। हिंदू
थे। जैसे
हिंदुओं में
कोई प्राण
नहीं, कोई
जीवन नहीं।
कोई मृत्यु
हिंदू की भी
होती है कहीं!
अच्छा हुआ मर
गए। मुसलमान
मरता है तो पीड़ा
होती है
मुसलमान को।
जो
निकट मालूम पड़ता
है...।
हिरोशिमा
में एक लाख
आदमी मर गए एक
साथ, तो भी
दुनिया में
ऐसा नहीं हुआ
कि दुख की लहर
फैल गई हो।
लोगों ने पढ़
लिया अखबार
में, सुन
लिया, लेकिन
कोई चोट न
हुई। सीमा के
बाहर हो गई
बात।
आदमी
की बड़ी
छोटी-सी सीमा
है। उसकी
रोशनी बड़ी टिमटिमाती
हुई थोड़ी-सी
सीमा पर पड़ती
है। उसके पार
फिर कुछ अंतर
नहीं पड़ता।
तो
तुमने जो
व्याख्या
सुनी है अब तब
कि मरने के
बाद, अगर तुम
गलत लेश्याओं
के साथ ग्रसित
रहे तो दुर्गति
होगी, नर्क
में पड़ोगे।
मरने के बाद
नर्क में
पड़ोगे? तुम्हें
कोई फिक्र
नहीं होती, इसकी कोई
चोट ही नहीं
पड़ती।
मैं
तुमसे कहता
हूं, इस
व्याख्या ने
आदमी का बड़ा
नुकसान कर
दिया। यह
व्याख्या सही
है। अगर
जीवनभर गलत
लेश्याओं का
संबंध रहा तो
तुम्हारा
अगला जीवन
इन्हीं गलत भित्तियों
पर खड़ा होगा।
तो दुर्गति तो
होनेवाली है।
लेकिन मैं
तुम्हें याद
दिलाना चाहता
हूं कि तुम टालो
मत। दुर्गति
अभी भी हो रही
है, इसीलिए
कल भी होगी, परसों भी
होगी। जो अभी
हो रही है, उसको
अभी देखने की
कोशिश करो।
कहीं ऐसा न हो
कि मौत के बाद
सोचकर तुम टाल
ही दो।
"पीत,
पद्म, शुक्ल,
ये तीनों
धर्म या शुभ
लेश्याएं
हैं। इनके कारण
जीव विविध सुगतियों
में उत्पन्न
होता है।'
और वही
सुगति के लिए
भी याद रखना।
मैं स्वर्ग और
नर्क को
वर्तमान में
खींच लाना
चाहता हूं। मैं
तुमसे कहना
चाहता हूं कि
स्वर्ग और
नर्क यहीं
हैं। इसका तुम
यह मतलब मत
समझना कि आगे
नहीं हैं।
लेकिन जो भी
आगे है, वह
यहां भी है।
और तुम उसे
यहां देख लो
तो ही आगे
सम्हाल
सकोगे। अगर
तुमने यहां न
देखा तो तुम
आगे भी न
सम्हाल
सकोगे।
तुमने
कभी देखा! कोई
बीमार है और
तुम एक फूल जाकर
उसको भेंट कर
आए। उस क्षण
में तुमने
अपने भीतर झांककर
देखा? तुम्हारी
प्रतिमा
उज्ज्वल हो
जाती है तुम्हारी
ही आंखों में।
हलके हो जाते
हो तुम। किसी
को गाली दे दी,
किसी का
अपमान कर दिया,
उसके बाद
तुमने देखा? तुम्हारी
प्रतिमा
तुम्हारी ही
आंखों में धूल-धूसरित
हो जाती है।
तुम नीचे गिर
जाते हो। तुम तड़फते हो।
नर्क
और स्वर्ग
प्रतिपल घटता
है। तो जब भी
तुम सुखी
अनुभव करो, जानना कि
सुख स्वर्ग
है। जब भी
दुखी अनुभव
करो, जानना
कि दुख नर्क
है। जब भी
दुखी अनुभव
करो, जानना
कि तुमने
अधर्म
लेश्याओं के
साथ संबंध जोड़ा
होगा, अन्यथा
दुख होता
नहीं। और जब
भी सुखी समझो
तो जानना कि
तुमने शुभ
लेश्याओं के
साथ संबंध जोड़ा,
धर्म के साथ
संबंध जोड़ा; अन्यथा सुख
होता नहीं।
सुख
परिणाम है शुभ
भाव का। दुख
परिणाम है
अशुभ भाव का।
तुम्हारे ही
भाव हैं, तुम्हीं
पर परिणाम आते
हैं।
यह जो
महावीर ने
छोटी-सी बोधकथा
कही है:
"पहले
ने सोचा, पेड़
को जड़मूल
से काटकर उसके
सारे फल खा
जाएं...।' इसे
अपने भूख की
चिंता है, लेकिन
पेड़ के जीवन
की कोई भी
नहीं।
"दूसरे ने
कहा, केवल
स्कंध ही काटा
जाए...।' पूरे
वृक्ष को
क्यों नष्ट
करें? स्कंध
काटने पर फिर
अंकुरित हो
जाएगा। फिर वृक्ष
पैदा हो
जाएगा।
लेकिन
इस दूसरे को
भी सोच में न
आया कि स्कंध
भी क्यों काटा
जाए? फल काटने
के लिए स्कंध
काटना जरूरी
कहां है? तुमने
देखा जीवन में?
जहां सुई की
जरूरत होती है,
तुम तलवार
लिए घूमते हो।
और जो काम सुई
से हो सकता है,
वह तलवार से
हो ही नहीं
सकता। अक्सर
तो ऐसा होगा
कि सूई से जो
काम होता था, तलवार के
कारण उसमें
बाधा पड़
जाएगी। अब फल
खाने हैं और
पूरे वृक्ष को
पीड़ से
काटने बैठ गए।
कोई...अनावश्यक
है।
बहुत
लोग, अधिक लोग
यही कर रहे
हैं। तुम्हें
कितना भोजन चाहिए?
कितना कपड़ा
चाहिए? कितना
छप्पर चाहिए?
लेकिन तुम
इकट्ठा किए जा
रहे हो। कोई
सीमा ही नहीं
है। ऐसी जगह
लोग पहुंच
जाते हैं धन
इकट्ठा करने
की, कि
उनको समझ में
भी आता है कि
अब करके और
करेंगे क्या?
क्योंकि धन
से जो मिल
सकता था, मिल
गया। अब तो
अतिरिक्त धन
इकट्ठा हो रहा
है, फिर भी
किए चले जाते
हैं। जैसे एक
नशा है। इस धन
का क्या
करेंगे अब, यह कोई सवाल
भी नहीं है।
जो भी इस
दुनिया में धन
से खरीदा जा
सकता था, वह
सब मिल गया
है। अच्छा
मकान है, अच्छी
कार है, अच्छा
बगीचा है, अच्छा
भोजन, अच्छे
कपड़े हैं; अब
और क्या चाहिए?
लेकिन दौड़
जारी रहती है।
जो
व्यक्ति अपनी
आवश्यकताओं
की सीमा नहीं
मानता वह सदा
दुखी रहता है।
और जो अपनी
आवश्यकताओं
की सीमा पहचान
लेता है, उसके
जीवन में सुख
का अवतरण शुरू
हो जाता है। आवश्यकता
की सीमा को
पहचान लेना
सुख की पहली
व्यवस्था है।
और आवश्यकता
की सीमा को ही
न पहचाने जो, वह तो सुखी
हो ही नहीं
सकता। उसके
पास कितना ही
हो, वह
दुखी रहेगा।
जितना होगा, उतना ज्यादा
दुखी होगा; क्योंकि और
ज्यादा की
मांग बढ़ती
जाएगी।
पहले
ने सोचा पेड़
को जड़मूल
से काटकर, दूसरे ने
कहा केवल
स्कंध ही काटा
जाए। तीसरे ने
कहा, इतने
की क्या जरूरत?
शाखा को
तोड़ने से चल
जाएगा। चौथे
ने कहा, उपशाखा
ही तोड़ना काफी
है। पांचवें
ने कहा, पागल
हुए हो? शाखा,
उपशाखा, स्कंध,
वृक्ष को
करना क्या है?
फल ही तोड़
लिए जाएं।
भूख
लगी है, फल
की जरूरत है।
भूख के लिए फल
चाहिए।
शाखाएं, प्रशाखाएं क्यों तोड़ी
जाएं?
छठे ने
कहा, बैठें;
पके फल हैं,
गिरेंगे। तोड़ने की
जरूरत नहीं
है। छीनना भी
क्या?
और
ध्यान रखना, अस्तित्व
इतना दे रहा
है बिना मांगे
और बिना छीने,
कि जो छीनने
में पड़ जाता
है वह भूल ही
जाता है जीवन
का एक परम गुण,
कि यहां
प्रसाद बंट
रहा है। यहां
मिल ही रहा है।
तुम झपट्टा
मारने में
सिर्फ ओछे
सिद्ध होते
हो। जीवन का
कुछ रहस्य ऐसा
है कि यहां
बिना मांगे...सब
मिल ही रहा
है। जीवन मिल
गया तो अब और क्या
चाहिए? और
भी मिल जाएगा।
जब जीवन बिना
मांगे मिल
गया...।
तुमने कभी
मांगा था जीवन? सोचा इस पर? कहीं तुम
हाथ जोड़कर
याचक की तरह
खड़े हुए थे कि
जीवन दे दो
मुझे? जीवन
मिल गया। जब
जीवन मिल गया
तो और क्या है,
जो नहीं मिल
सकेगा? थोड़ी
प्रतीक्षा
चाहिए।
तो छठे
ने कहा, हम
बैठ जाएं। पके
फल लगे हैं, हवा के
झोंके आएंगे।
फिर वृक्ष को भी
तो दया होगी।
फिर वृक्ष भी
तो समझेगा कि
हम भूखे हैं।
फिर वृक्ष भी
तो चाहता है
कि कोई उसके
फलों को चखे
और प्रसन्न हो,
आनंदित हो।
नहीं तो वृक्ष
की भी
प्रसन्नता कहां
है?
कवि के
पास गीत हो तो गुनगुनाकर
तुम्हें
सुनाना चाहता
है। तुम ताली बजाओ इसकी
प्रतीक्षा करता
है। संगीतज्ञ
वीणा बजाना
चाहता है।
तुम्हारी
आंखें आह्लाद
से भर जाएं तो
वह प्रफुल्लित
होगा। फूलों
की गंध बिखरती
है और हवाओं
पर सवार हो
जाती है, दूर-दूर
की यात्रा पर
निकल जाती है
कि कोई नासापुट
प्रतीक्षा
करते होंगे।
वृक्षों
के फल जब पक
जाते हैं तो
शाखाएं अपने
आप नीचे झुक
जाती हैं, ताकि कोई
राहगीर आए तो
शाखाएं बहुत
दूर न हों।
फिर जब फल पक
जाते हैं तो
अपने से गिरने
लगते हैं।
जो पक
गया है, वह
अपने से गिर
आता है।
महावीर
यह कह रहे हैं, भरोसा करो, श्रद्धा
करो। तुम जिस
जीवन से आए हो
उसी से वृक्ष
भी आया। तुम
दोनों जुड़े हो
कहीं भीतर
गहरे में।
तुम्हारी भूख
तुम्हारी ही
भूख नहीं है, वृक्ष को भी
पीड़ा होगी।
तुम जरा भूखे
होकर इस वृक्ष
के नीच बैठ तो
जाओ।
इस
सत्य को भी अब
आधुनिक
मनोविज्ञान
ने बड़े प्रमाण
दिए हैं।
न्यूयार्क
में एक
वैज्ञानिक वृक्षों
पर प्रयोग कर
रहा था--वृक्षों
के संवेगों पर, भावनाओं पर।
वह बड़ा हैरान
हो गया। पहले
किसी ने सोचा
भी नहीं था कि
वृक्षों में
संवेग हो सकते
हैं। महावीर
के बाद जगदीशचंद्र
बसु तक बात ही
भूल गई थी।
फिर जगदीशचंद्र
बसु ने थोड़ी
बात उठाई कि
वृक्षों में
जीवन है।
लेकिन बसु भी
धीरे-धीरे विस्मृत
हो गए।
विज्ञान से यह
बात ही खो गई।
इसकी चर्चा ही
बंद हो गई।
अभी
अमरीका में
फिर पुनः एक
नया उदभव
हुआ, आकस्मिक
हुआ। दुनिया
की बहुत-सी
खोजें आकस्मिक
हुई हैं। जो
वैज्ञानिक
काम कर रहा था
वह किसी और
दृष्टि से काम
कर रहा था।
लेकिन खोज में
उसको यह अनुभव
हुआ कि
वृक्षों में
कुछ
संवेदनाएं
मालूम होती हैं।
तो उसने
वृक्षों में
महीन तार जोड़े
और यंत्र बनाए
देखने के लिए,
कि वृक्ष भी
कुछ अनुभव
करते हैं?
तो तुम
अगर वृक्ष के
पास जाओ कुल्हाड़ी
लेकर, तो
तुम्हें कुल्हाड़ी
लेकर आता
देखकर वृक्ष
कंप जाता है।
अगर तुम मारने
के विचार से
जा रहे हो, वृक्ष
को काटने के
विचार से जा
रहे हो तो
बहुत भयभीत हो
जाता है। अब
तो यंत्र हैं,
जो तार से
खबर दे देते
हैं। नीचे
ग्राफ बन जाता
है, कि
वृक्ष कंप रहा
है, घबड़ा
रहा है, बहुत
बेचैन है, तुम
कुल्हाड़ी
लेकर आ रहे
हो। लेकिन अगर
तुम कुल्हाड़ी
लेकर जा रहे
हो, और
काटने का
इरादा नहीं है,
सिर्फ गुजर
रहे हो वहां
से तो वृक्ष
बिलकुल नहीं
कंपता। वृक्ष
के भीतर कोई
परेशानी नहीं
होती।
यह तो
बड़ी हैरानी की
बात है। इसका
मतलब यह हुआ कि
तुम्हारे
भीतर जो काटने
का भाव है, वह वृक्ष को
संवादित हो
जाता है। फिर
जिस आदमी ने
वृक्ष काटे
हैं पहले, वह
बिना कुल्हाड़ी
के भी निकलता
है तो वृक्ष
कंप जाता है।
क्योंकि उसकी
दुष्टता
जाहिर है।
उसकी दुश्मनी
जाहिर है।
लेकिन
जिस आदमी ने
कभी वृक्ष
नहीं काटे हैं, पानी दिया
है पौधों को, जब वह पास से
आता है तो
वृक्ष
प्रफुल्लता
से भर जाता
है। उसके भी
ग्राफ बन जाते
हैं कि कब वह
प्रफुल्ल है,
कब वह
परेशान है।
और
वैज्ञानिक
अदभुत
आश्चर्यजनक
निष्कर्षों
पर पहुंचे हैं
कि एक वृक्ष
को काटो तो
सारे वृक्ष बगीचे के
कंप जाते हैं, पीड़ित हो
जाते हैं। और
एक वृक्ष को
पानी दो तो बाकी
वृक्ष भी
प्रसन्न हो
जाते हैं--जैसे
एक समुदाय है।
इससे
भी गहरी बात
जो पता चली है, वह यह कि एक
वृक्ष के पास
बैठकर तुम एक
कबूतर को मरोड़कर
मार डालो,
तो वृक्ष
कंप जाता है।
जैसे कबूतरों
से भी बड़ा जोड़
है, संबंध
है। जैसे सारी
चीजें जुड़ी
हैं, संयुक्त
हैं।
होना
भी ऐसा ही
चाहिए, क्योंकि
हम एक ही अस्तित्व
की तरंगें
हैं। सागर तो
एक है, हम
उसकी ही लहरें
हैं। एक लहर
वृक्ष बन गई, एक लहर पशु
बन गई, एक
लहर मनुष्य बन
गई, लेकिन
हम सब भीतर
जुड़े हैं। हम
सब जीवन के ही
अंग हैं।
तो
महावीर कहते
हैं, छठवां कहता है, बैठें। वह श्वेत
लेश्या को
उपलब्ध
व्यक्ति है।
उसके भीतर
चंद्रमा की
चांदनी फैल गई
है। वह होश से भरा
व्यक्ति है।
वह कहता है, काटने-पीटने
की जरूरत ही
नहीं है।
छीनने-झपटने
की बात ही गलत
है। जहां जीवन
मुफ्त मिला है,
वहां भोजन न
मिलेगा?
जीसस
ने कहा है
अपने शिष्यों
को, देखो खेत
में लगे हुए
लिली के फूलों
को; न तो ये
श्रम करते हैं,
न ये दुकान
करते हैं, न
ये बाजार
करते। फिर भी
कोई अनजान, अपरिचित
इनकी सब
जरूरतें पूरी
कर जाता है।
और देखो तो
जरा इनके
सौंदर्य को।
सम्राट
सोलोमन भी
अपनी सारी
सजावट के साथ
इतना सुंदर न
था, जितने
ये खेत के
किनारे लगे
लिली के फूल
हैं। तुम इन जैसे
हो जाओ; जीसस
ने अपने
शिष्यों से
कहा।
महावीर
तो इस तरह जीए
हैं। महावीर
तो जब उन्हें
भूख लगती तो
गांव में आ
जाते। कैसे यह
पक्का हो कि
मैंने मांगा
नहीं? तो वे
सुबह ही जब
ध्यान में
होते तब
निर्णय कर लेते
कि आज किसी
द्वार के
सामने कोई
स्त्री अपने
बच्चे को कंधे
पर लिए खड़ी
होगी और यदि
निवेदन करेगी
कि आप हमारे
घर भोजन कर
लें, तो
मैं भोजन
करूंगा। कोई
स्त्री अगर
कंधे पर बच्चे
को लिए खड़ी
होगी तो! एक
पैर बाहर
निकला होगा
देहली के, एक
पैर भीतर होगा
तो!
ऐसा
ध्यान में तय
कर लेते, फिर
वे गांव में
जाते। अगर ऐसी
कोई युवती
बच्चे को लिए
हुए एक पैर
देहली के बाहर,
एक भीतर खड़ी
हो और निवेदन
करे कि हे
महामुनि! आप
कहां जा रहे
हैं? सौभाग्य
हमारा। हमारे
घर को धन्य
करें, भोजन
ग्रहण कर लें।
तो वे भोजन
ग्रहण कर
लेते। अगर ऐसा
न होता तो वे
पूरे गांव का
चक्कर लगाकर
वापस चले आते।
कई लोग रास्ते
में उनको कहते
भी, कि
भोजन ग्रहण कर
लें, तो भी
वे न करते।
क्योंकि जो
उन्होंने
स्वयं सुबह
बांध लिया था
नियम, उससे
अन्यथा नहीं।
उस
नियम का अर्थ
था, महावीर
कहते कि अगर
प्रकृति को
देना होगा तो
वह नियम पूरा
करेगी। अगर
नहीं देना
होगा तो हम झपटेंगे
नहीं। मांगने
में तो झपटना
हो जाएगा।
किसी के
दरवाजे पर जाकर
खड़े हो गए और
कहा कि भोजन
दो, तो
जबर्दस्ती
है। न देना हो
उसे तो? इंकार
करे तो
बेइज्जती
होती है, अपमान
होता है। बेमन
से दे तो लेने
का मजा ही चला
गया।
तो
महावीर ने बड़ा
अनूठा प्रयोग
किया। सिर्फ महावीर
ने किया पृथ्वी
पर। दो-दो
महीने, महीने-महीनेभर
के उपवास के
बाद गांव में
जाते और अगर न
मिलता तो वे
प्रसन्नता से
वापस लौट आते।
इसमें
कुछ विषाद भी
न था, शिकायत
भी न थी। वे
कहते, तो
ठीक है। आज
भोजन की जरूरत
न होगी। जब
प्रकृति आज
देने को तैयार
नहीं है तो
साफ है कि
मेरे मन का ही
खयाल होगा कि
भूख लगी है।
अगर भूख लगी
ही होती तो
कहीं न कहीं, कहीं न कहीं
प्रकृति में
कंपन होता।
कोई न कोई
उपाय बनता।
एक दफा
उन्होंने
नियम ले लिया
कि कोई
राजकुमारी
लोहे की जंजीरों
में बंधी...अब
राजकुमारी और
लोहे की जंजीरों
में
बंधी!--निमंत्रण
देगी; द्वार
पर कोई गाय
खड़ी, उसके
सींग में गुड़
लगा; तो
स्वीकार
करूंगा। कई
दिन आए और गए, पूरा नगर
परेशान हो
गया। क्योंकि
पूरा नगर देख
रहा है कि
उन्होंने कुछ
व्रत लिया है,
पूरा नहीं
हो रहा है। हम
भोजन भी नहीं
दे पा रहे
हैं। लोग रो
रहे हैं, पीड़ित
हैं, परेशान
हैं। वे रोज
आते हैं, उसी
प्रसन्नचित्त-भाव
से, उसी
आह्लाद से, चक्कर लगाकर
गांव का वापस
चले जाते हैं।
ऐसा कई दिन
हुआ। फिर एक
दिन वह घटना
भी घट गई। वह
जो बिलकुल
अकल्पित
मालूम पड़ती है
कि कभी कैसे
घटेगी, वह
भी घट गई।
एक बैलगाड़ी
में गुड़ लदा
जाता था। और
कोई गाय पीछे
से उस गुड़ को
खाने के लिए
बढ़ी तो उसके
सींग में गुड़ लग
गया। वह गाय
वहां खड़ी थी
गुड़ चबाती।
सींग में गुड़
लगा। और बाप
नाराज हो गया
था तो अपनी बेटी
को उसने हथकड़ियां
डलवाकर
कारागृह में
बंद कर दिया
था। सींखचों
के पार
राजकुमारी
लोहे की जंजीरों
में पड़ी थी।
गाय सींग पर गुड़
लगाए खड़ी थी।
तो महावीर ने
भोजन स्वीकार
किया।
महावीर
कहते हैं, जब जरूरत
होगी, मिलेगा।
मांगो मत। मांगकर
व्यर्थ दीन मत
बनो।
इसलिए
श्वेत लेश्या
का वे कह रहे
हैं, छठवें ने
कहा, चुप
भी रहो। शांति
से बैठो भी।
वृक्ष से फल टपकेंगे।
पके फल चुनकर
क्यों न खाए
जाएं?
जो
तोड़ा जाए वह
कच्चा होगा।
जो कच्चा हो
वह अभी खाने
योग्य नहीं।
जो अपने से
गिर जाए वही
पका होगा। वही
खाने योग्य भी
होगा। जो अपने
से मिल जाए
वही खाने
योग्य है।
प्रकृति
दे रही है
हजार-हजार
ढंगों से। अगर
आदमी झपटे न, तो भी मिलता
है। पक्षियों
को मिलता है, पशुओं को
मिलता है, वृक्षों
को मिलता है।
देखा? वृक्ष
तो कहीं
जाते-आते भी
नहीं। जड़ जमाए
एक ही जगह खड़े
हैं। तो भी
क्या कमी है? कुछ तुमसे
कम हरे हैं? कुछ तुमसे
कम ताजे हैं? कुछ तुमसे
कम जीवंत हैं?
खूब हरे
हैं। खूब
जीवंत हैं।
जमीन में जड़ें
रोपे खड़े हैं।
कहीं जाते भी
नहीं।
आने-जाने की
चिंता भी नहीं
करते। वहीं
आना पड़ता है
परमात्मा को
देने। वहीं
प्रकृति को
लाना पड़ता है।
वहीं बादल आकर
बरस जाते हैं।
वहीं जमीन
हजार-हजार
ढंगों से भोजन
को जमा देती
है। वहीं सूरज
की किरणें आ
जाती हैं। वहीं
हवा के झोंके
प्राणवायु ले
आते हैं।
जब
वृक्षों तक के
लिए यह हो रहा
है तो आदमी की
अश्रद्धा खूब
है, अदभुत
है। यह होगा
ही। लेकिन
श्वेत लेश्या
के जन्म के
बाद ही ऐसी
महत श्रद्धा
का जन्म होता है
कि सब होता
है। सब होगा
ही, इस परम
श्रद्धा से ही
आदमी आस्तिक
बनता है।
और
महावीर कहते
हैं कि ये
छहों भी लेश्याएं
हैं, छठवीं
भी। इनके पार
वीतराग की, अरिहंत की
अवस्था है। उस
अरिहंत की
अवस्था में तो
कोई पर्दा
नहीं रहा।
शुभ्र पर्दा
भी नहीं रहा।
"...इन
छहों पथिकों
के विचार, वाणी
तथा कर्म कमशः
छहों
लेश्याओं के
उदाहरण हैं।'
छठवीं
लेश्या को अभी
लक्ष्य बनाओ।
श्वेत लेश्या
को लक्ष्य
बनाओ। चांदनी
में थोड़े आगे बढ़ो। चलो, चांद की
थोड़ी यात्रा
करें।
पूर्णिमा को
भीतर उदित
होने दो।
हिंदू
संस्कृति का
सारा सार इस
सूत्र में है:
सर्वे
भवन्तु सुखिनः
सर्वे सन्तु
निरामयः
सर्वे
भद्राणि पश्यन्तु
मा कश्चिद्
दुःखभाग भवेत।
सब
सुखी हों, रोगरहित हों,
कल्याण को
प्राप्त हों।
कोई दुख का
भागी न हो।
यह
श्वेत लेश्या
में जीनेवाले
आदमी की दशा
है। इसके पार
तो कहा नहीं
जा सकता। इसके
पार तो
अवर्णनीय है, अनिर्वचनीय
का लोक है।
इसके पार तो
शब्द नहीं जाते।
छठवें तक शब्द
जाते हैं, इसलिए
छठवें तक
महावीर ने बात
कर दी। यद्यपि
जो छठवें तक
पहुंच जाता है,
उसे सातवें
तक जाने में
कठिनाई नहीं
होती। जिसने
अंधेरी रातों
के पर्दे उठा
दिए, वह
फिर आखिरी
झीने-से
पारदर्शी
सफेद पर्र्दे
को उठाने में
क्या अड़चन
पाएगा? वह
कहेगा, अब
अंधेरा भी हटा
दिया, अब
प्रकाश भी हटा
देते हैं। अब
तो हम जो हैं, जैसा है, उसे
वैसा ही देख
लेना चाहते
हैं--निपट
नग्न, उसकी
सहज स्वभाव की
अवस्था में।
इन
चित्त की
दशाओं को हम
छिपाने की
कोशिश करते
हैं। इन्हें
मिटाने की
कोशिश करें।
छिपाने से
पाखंड पैदा
होता है।
छिपाने से कुछ
छिपता भी
नहीं। तुम लाख
छिपाओ, पता चल ही
जाता है।
तुमने कभी इस
पर खयाल किया?
इस पर
निरीक्षण
किया? तुम
जो-जो छिपाते
हो, तुम्हें
लगता हो तुमने
छिपा लिया, लेकिन सभी
को पता चल
जाता है।
मैंने
सुना, मुल्ला
नसरुद्दीन
अपनी पत्नी से
कह रहा था कि
मैं एक घंटे
में वापिस आने
का प्रयत्न
करूंगा। यदि न
आया तो शाम तक
आ जाऊंगा।
और अगर शाम तक
भी न आ पाया तो
समझ लेना कि
मुझे अकस्मात
बाहर जाना पड़
गया। वैसे अगर
मैं बाहर गया
तो चपरासी से
चिट्ठी जरूर
भिजवा दूंगा।
मुल्ला की
पत्नी ने कहा,
चपरासी को
तकलीफ मत देना,
मैंने
चिट्ठी
तुम्हारी जेब
से निकाल ली
है।
वह
चिट्ठी तो
लिखकर रखे ही
हुए है! यह तो
सब बातचीत कर
रहे हैं।
छिपाने के
उपाय कर रहे
हैं।
हम जो
भीतर हैं, उसकी एक
अनिवार्य उदघोषणा
होती रहती है।
अक्सर तो जिसे
हम छिपाते हैं,
हमारे
छिपाने के
कारण ही वह
प्रगट हो जाता
है। तुम देखो
कोशिश करके।
जिसे तुम छिपाओगे,
तुम पाओगे,
दूसरों को
कुछ संकेत
मिलने लगे।
एक
पुलिसवाले ने
मुल्ला नसरुद्दीन
को रोककर
कहा--वह अपनी
कार में कहीं
जा रहा है--कि
तुम्हारा
लाइसेंस
देखें जरा।
मुल्ला ने कहा, बड़ी हैरानी
की बात है।
लेकिन हवलदार
साहब, मैंने
तो कोई नियम
तोड़ा भी नहीं।
लाइसेंस दिखाने
की क्या जरूरत
है?
उस
हवलदार ने कहा, महानुभाव!
तुम इतनी
सावधानी से
मोटर चला रहे
हो कि मुझे शक
हो गया।
सावधानी से
चलाते ही वे लोग
हैं, जिनके
पास लाइसेंस
नहीं।
तुम
जो-जो छिपाने
की चेष्टा
करते हो, किसी
बेबूझ ढंग से
वह प्रगट होने
लगता है। तुम
क्रोध छिपाना
चाहते हो, तुम्हारे
चारों तरफ
क्रोध की छाया
पड़ने लगती है।
तुम लोभ
छिपाना चाहते
हो, वह
तुम्हारे
चारों तरफ
उसकी छाया
पड़ने लगती है।
तुम्हारे
छिपाए कुछ भी छिपेगा
नहीं।
लाख
बैठे कोई
छुप-छुप के कमींगाहों
में
खून
खुद देता है
जल्लादों के मस्कन का
सुराग
साजिशें
लाख उढ़ाती
रहें जुलमत
की नकाब
लेकर
हर बूंद
निकलती है
हथेली पे
चिराग
तुम
किसी की हत्या
करो, लाख
छिपाने की
कोशिश करो, एक-एक बूंद
चिराग लेकर
तुम्हारी खबर
देने लगती है।
तुम चोरी करो,
तुम लाख
छिपाने की
कोशिश करो, तुम्हारी
आंखें, तुम्हारे
हाथ-पैर, तुम्हारा
उठना-बैठना, सब तुम्हारे
चोर होने की
खबर देने लगते
हैं। वह तो
तुम अंधों के
बीच रहते हो, इसलिए शायद
लोगों को पता
नहीं चलता।
क्योंकि वे
खुद, खुद
को छिपाने में
लगे हैं, तुम्हारी
फिक्र किसको
है? तुम
चोरों के बीच
रहते हो, इसलिए
तुम्हारी
चोरी शायद
थोड़ी-बहुत छिप
भी जाती है, पता नहीं
चलता।
इसीलिए
लोग संतों के
पास जाने से
डरते हैं। इसीलिए
लोगों ने
संतों का सदा
ही बहिष्कार
किया। कभी
उनको पत्थर
मारे, कभी
जहर पिलाया, कभी सूली
लगा दी। इसके
पीछे कोई बहुत
महत्वपूर्ण
कारण है। इतने
लोग नाराज
क्यों थे? जीसस
से नाराजगी का
कारण क्या था?
सीधा-सादा
आदमी! रहा
होगा थोड़ा
झक्की। बाकी
किसी का कोई
नुकसान तो कर
नहीं रहा था।
इसके लोग पीछे
क्यों पड? गए?
इसको मार
डालने की इतनी
क्या आतुरता?
कुछ
अड़चन थी। यह
आदमी एक
चलता-फिरता
आईना था। जो
आदमी इसके
सामने आया, उसे अपनी
शक्ल दिखाई
पड़ी। नाराजगी
आती है आईने
पर। लोग अगर
आईने में
देखकर उन्हें
पता चले कि
कुरूप हैं तो
आईने को तोड़
देते हैं।
क्योंकि वे
कहते हैं, यह
आईना हमें
कुरूप बनाए दे
रहा है।
लोग
जीसस पर नाराज
हो गए।
क्योंकि इस
जीसस की मौजूदगी
में जो-जो
उन्होंने
छिपाया था, वह उदघोषित
होने लगा। इस
आदमी की
मौजूदगी में
छिपाना मुश्किल
था।
महावीर
को लोगों ने
खूब पत्थर
मारे, खूब
परेशान किया।
गांवों से
भगाया। कहीं
टिकने न दिया।
क्या अड़चन? महावीर
किसका क्या
बिगाड़ रहे थे?
किसी से कुछ
लेना-देना न
था। अपनी मौज
में मस्त।
दीवाने ढंग के
आदमी थे। रहने
देते इस दीवाने
को। कौन किसका
क्या बिगाड़ रहा
था? किसी
का कुछ नुकसान
नहीं था।
लेकिन जो आदमी
इसके करीब आया
उसे बेचैनी
हुई।
तुमने
कहानी सुनी? अकबर ने
अपने दरबारियों
से कहा, यह
लकीर मैं खींच
देता हूं। इसे
बिना छुए छोटा
कर दो। वे
नहीं कुछ कर
पाए। बीरबल
उठा, उसने
एक बड़ी लकीर
उसके पास खींच
दी। वह लकीर छोटी
हुई बिना छुए।
महावीर
या बुद्ध के
पास जब तुम
खड़े होते हो, अचानक तुम
छोटे हो गए।
बड़ी लकीर खिंच
गई। तुम नाराज
होते हो।
तुम्हारी
नाराजगी
तुम्हारे इस दीनभाव से
निकलती है कि
तुमने मुझे
छोटा किया।
कुछ किया नहीं
किसी ने।
तुम्हें छुआ
भी नहीं। लेकिन
अब महावीर भी
क्या करें, उनकी बड़ी
लकीर है।
मजबूरी है।
तुम पास आते
हो, तुम्हारी
छोटी लकीर!
तुम छोटे
मालूम पड़ते
हो।
कहते
हैं, ऊंट
पहाड़ों के पास
जाने से डरते
हैं। डरते हों,
क्योंकि तब
तक पहाड़ नहीं
होता तब तक वे
पहाड़ होते
हैं। जब पहाड़
के पास जाते
हैं, तब
पता चलता है, अरे! हम और
कुछ भी नहीं।
मगर ऊंट इतने
नासमझ नहीं हैं
कि पहाड़ों को
सूली पर लटका
दें। कि
पहाड़ों को जहर
पिला दें। मगर
आदमी बड़ा पागल
है।
हम
नाराज रहे
सुकरात पर, जीसस पर, बुद्ध
पर, महावीर
पर। हमारी
नाराजगी का
कारण है।
हमारे अंधेरे
पर्दे, हमारी
अंधेरी शकलें,
हमारे घाव
भरे हुए चित्त,
हमारी बहती
मवाद, हमारी
सड़ांध, सब उनके
सामने आकर
खुलने लगती
है। वहां
छिपाना
मुश्किल हो
जाता है। उनके
सामने हम आकर
बेपर्दा होने
लगते हैं। और
वे हमसे कहते
हैं, बेपर्दा
हो जाओ। तो एक
दिन ऐसी घड़ी
भी आएगी, जब
सब पर्दे गिर
जाएंगे, तब
तुम पाओगे कि तुम्हारे
भीतर वह छिपा
है, जो सदा
कुंआरा है; जो सदा
पवित्र है; जिसको रुग्ण
होने का कोई
उपाय नहीं और
जिसके अशुद्ध
होने की कोई
संभावना
नहीं।
लेकिन
उस तक जाने के
लिए, बड़ी
बीमारियां
हमने पाल रखी
हैं, उनको
गिराना होगा।
उन बीमारियों
को हमने बड़े साज-संवारकर
रखा है। बड़ा आगंन छवा,
लिपा पुताकर
रखा है। उनके
लिए हमने बड़ी
सुविधा
जुटाकर रखी है,
क्योंकि
बीमारियों को
हमने मित्र
समझा है।
महावीर
कहते हैं, आत्मा ही
शत्रु है अपनी,
आत्मा ही
मित्र। अगर
शत्रुओं को
बसाने लगे अपने
पास--क्रोध, मान, लोभ,
माया, मोह--तो
आत्मा अपनी ही
शत्रु हो जाती
है। मित्रों
को बसाने लगे
तो मित्र हो
जाती है।
महावीर
की जो ऊंचाई
है, वह
तुम्हारी भी
है। जीसस की
जो पवित्रता
है, वह
तुम्हारी भी
है। कृष्ण का
जो आनंद है, वह तुम्हारा
भी है। लेकिन
तुम्हें दावा
करना होगा। और
इस दावे के
लिए तुम्हें
छोटे दावे छोड़ने
होंगे।
तुम्हें
क्षुद्र के
दावे छोड़ने
होंगे, अगर
विराट का दावा
करना है।
तुम्हें जमीन
से आंखें
उठानी होंगी,
अगर आकाश के
मालिक बनना
है।
उसकी
ऊंचाई के
सन्मुख
हिमगिरि
नगण्य
उसकी
नीचाई के
सन्मुख नीचा
पाताल
उसकी
असीमता के
सन्मुख आकाश
क्षुद्र
उसकी
विराटता के
सन्मुख अति
क्षुद्र काल
है
आंख उसकी
वर्षा ही करती
बादल से
है
उसकी ही
मुस्कान
थिरकती फूलों
पर
संगीत
उसी का गूंज
रहा है कोयल
में
हैं
बिंधे उसी के
स्वप्न
नुकीले सूलों
पर
सौंदर्य
सकल यह उसका
ही प्रतिबिंब
रूप
है
स्वर्ग उसी की
सुंदरतम
कल्पना नीड़
है
नर्क उसी की
ग्लानि घृणा
का गेह ग्राम
जग
की हलचल उसके
ही मन की
भाव-भीड़
वह
अणु में बंदी
होकर भी है
मुक्त सदा
वह
जल में रहकर
भी जल से है
बहुत दूर
जलकर
भी ज्वाला में
न राख बनता है
वह
पाषाणों
में दबकर भी
होता नहीं चूर
वह
विराट, वह
निरंतर शुद्ध,
वह शाश्वत
शुद्ध, वह
सदा पवित्र तुम्हारा
स्वभाव है।
लेकिन हटाओ
पर्दे।
वह
अणु में बंदी
होकर भी है
मुक्त सदा
वह
जल में रहकर
भी जल से है
बहुत दूर
जलकर
भी ज्वाला में
न राख बनता है
वह
पाषाणों
में दबकर भी
होता नहीं चूर
पर
उसकी घोषणा के
पहले, उस पर
दावा करने के
पहले तुमने अब
तक जो दावे किए
हैं, वे सब
छोड़ देने
होंगे।
संसार
के ऊपर तुमने
जो दावे किए
हैं, उनको छोड़
देना संन्यास
है। संसार को
छोड़ देना संन्यास
नहीं है, संसार
के ऊपर किए गए
दावों को छोड़
देना संन्यास
है। और इन
दावों को
छोड़कर कुछ
खोता नहीं। क्योंकि
इन दावों से
कुछ मिलता
नहीं। इन
दावों को छोड़कर
ही कुछ मिलता
है। क्योंकि
इन दावों के
कारण ही कुछ
छिपा है और
ढका पड़ा है।
जो
तुम्हारा है
उसे पाने की
दिशा में बढ़ो।
और जो
तुम्हारा
नहीं है, जानो
कि तुम्हारा
नहीं है। न धन
तुम्हारा है,
न पद
तुम्हारा है,
न
प्रतिष्ठा
तुम्हारी है।
जो भी बाहर
मिल सकता है
उसमें कुछ भी
तुम्हारा
नहीं है। तुम
आए खाली हाथ, तुम जाओगे
खाली हाथ।
तुम इस
बात को जिस
दिन समझ लोगे
कि खाली हाथ
आना, खाली हाथ
जाना; थोड़े
दिन बीच में
हाथ का भर
लेना संसार से,
कुछ सार
नहीं रखता है।
उसी दिन तुम
उसकी तलाश में
निकल पड़ोगे, जो तुम्हारे
भीतर है जन्म
के पूर्व; और
जो तुम्हारे
भीतर होगा
मृत्यु के
बाद। और जो
तुम्हारे
भीतर बह रहा
है अभी भी, इस
क्षण भी। इस
क्षण भी तुम
भीतर मुड़ो
तो उसी सागर
से मिलन हो
जाता है।
महावीर
की व्याख्या
में ये छह
पर्दे तुम हटा
दो, ये छह
चक्र तुम तोड़
दो और
तुम्हारी
ऊर्जा सातवें
चक्र में
प्रविष्ट हो
जाए तो
तुम्हारे
भीतर उस कमल
का जन्म होगा,
जो जल में
रहकर भी जल को
छूता नहीं।
उस
पवित्रता को
जो नहीं खोजता, वही
अधार्मिक है।
उस पवित्रता
की जो खोज में
निकलता है, वही धार्मिक
है। शब्दों
में बहुत मत
उलझना। उस
पवित्रता को
कुछ लोग
परमात्मा
कहते हैं, कहें,
सुंदर शब्द
है। कुछ लोग
उस पवित्रता
को आत्मा कहते
हैं, कहें;
सुंदर शब्द
है। कुछ लोग
उसे आत्मा भी
नहीं कहना
चाहते, परमात्मा
भी नहीं कहना
चाहते, शून्य
कहते हैं; बड़ा
सुंदर शब्द
है।
कहो
ब्रह्म, कहो
शून्य, लेकिन
एक बात स्मरण
रखो कि जो
बाहर है, वह
तुम्हारा
नहीं है। जो
भीतर है, जो
तुम हो, बस
वही केवल
तुम्हारा है।
और शेष सब
पर्दे गिरा
दो। तो इस
शुद्धतम की
प्रतीति
सच्चिदानंद से
भर जाती है।
सच्चिदानंद
होकर भी हम
भिखारी बने
हैं। एक झूठा
सपना देख रहे
हैं। व्यर्थ
मांग रहे हैं
उसे, जो हमें
मिला ही हुआ
है। खोज रहे
हैं उसे, जो
हमारे भीतर ही
पड़ा है। उसकी
तलाश कर रहे
हैं...।
तुमने
कभी देखा? कभी-कभी हो
जाता है। आदमी
चश्मा लगाए
चश्मा खोजने
लगता है। भूल
ही जाता है कि
चश्मा तो आंख
पर चढ़ा है।
भूल ही जाता
है कि उसी
चश्मे से मैं
चश्मे को खोज
रहा हूं।
ऐसे
मौके तुम्हें
भी आए होंगे।
इस जीवन में
कुछ ऐसा ही
घटा है। जो है, भूल गया है।
सिर्फ
विस्मरण हुआ
है, उसे
हमने खोया
नहीं है।
मात्र स्मरण
पर्याप्त है।
स्मरण मात्र
से उसे पाया
जा सकता है।
धर्म
है--खोज नहीं, पुनर्खोज। पाए हुए की
खोज; मिले
हुए की खोज।
जो प्राप्त है
उसकी प्राप्ति
का उपाय।
लेकिन
इन छह पर्दों
से लड़ना होगा।
कठिन नहीं है
लड़ाई।
क्योंकि
हमारे ही
सहयोग से
पर्दे खड़े हैं।
सहयोग के हटते
ही गिरने शुरू
हो जाते हैं।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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