ऐसा है
आर्य मार्ग—प्रवचन—सोलहवां
ध्यान-शिविर, आनंद-शिला,
अंबरनाथ; प्रातः, 17
फरवरी, 1973
और
यदि तू सातवां
द्वार भी पार
कर गया, तो
क्या तुझे
अपने भविष्य
का पता है? आनेवाले
कल्पों
में स्वेच्छा
से जीने के
लिए तू बाध्य
होगा, लेकिन
मनुष्यों
द्वारा न देखा
जाएगा, और
न उनका
धन्यवाद ही
तुझे मिलेगा।
और अभिभावक-दुर्गभ भ
को बनानेवाले
अन्य अनगिनत
पत्थरों के
बीच तू भी एक
पत्थर बन कर जीएगा।
करुणा के अनेक
गुरुओं के
द्वारा
निर्मित उनकी यातनाओं
के सहारे ऊपर
उठा और उनके
रक्त से जुड़ा
यह दुर्ग
मनुष्य-जाति
की रक्षा करता
है। क्योंकि
मनुष्य
मनुष्य है, इसलिए यह
उसे भारी
विपदाओं और
शोक से बचाता
है।
साथ
ही, चूंकि
मनुष्य इसे
नहीं देखता है,
इसलिए वह न
स्पर्श कर
सकता है और न
प्रज्ञा की वाणी
को सुन सकता
है क्योंकि वह
जानता ही नहीं
है।
लेकिन
ओ जिज्ञासु, निर्दोष आत्मावाले
तूने तो इसे
सुना है और तू
तो सब कुछ
जानता है
इसलिए तुझे
निर्णय करना
है, अतः एक
बार फिर से
सुन।
हे सोवान के
मार्ग, हे स्रोतापन्न,
तू
सुरक्षित है।
देख, उस
मार्ग पर जहां
थके हुए
यात्री को
अंधकार का
सामना करना
होता है, जहां
कांटों से छिद
कर हाथ
लहूलुहान हो
जाते हैं, जहां
पांव तीखे व
कठोर पत्थरों
से कट-फट जाते
हैं, और
जहां "काम' अपने
शक्तिशाली
शस्त्र चलाता
है, वहां
जरा सी दूरी
ही पार कर एक
बड़ा वरदान, महान
पुरस्कार
तेरी
प्रतीक्षा कर
रहा है।
वह
शांत और अकंप
यात्री इस
धारा पर बहता
चलता है, जो निर्वाण
को चली जाती
है। वह जानता
है कि जितने
ही उसके पांव
खून उगलेंगे,
उतना ही वह
स्वयं धुलकर
स्वच्छ हो
जाएगा। वह
भली-भांति
जानता है कि सात
छोटे-छोटे और
क्षण-भंगुर
जन्मों के बाद
निर्वाण उसका
है
ऐसा
है ध्यान का
मार्ग, जो
योगियों का
आश्रम है और
जिस अपूर्व लय
के लिए स्रोतापन्न
लालायित है।
लेकिन, जब उसने
अर्हत का
मार्ग पार कर
लिया तब कोई
लालसा नहीं
है।
वहां
सदा के लिए
क्लेश मिट
जाता है और
तनहा की जड़ें
उखड़ जाती हैं।
लेकिन, ओ
शिष्य, रुक
अभी भी एक और
शब्द कहना
बाकी है। क्या
तू ईश्वरीय
करुणा को मिटा
सकता है? करुणा
कोई सदगुण
नहीं है। यह
नियमों का
नियम
है--शाश्वत
लयबद्धता, आलय
की आत्मा। इसे
ही तटहीन
जागतिक तत्व,
नित्य सम्यकत्व
की प्रभा, सभी
वस्तुओं का
कौशल और सनातन
प्रेम का
विधान कहते
हैं।
जितना
ही तू इसके
साथ एकात्म
होता है, जितना ही
इसके
अस्तित्व में
तेरा
अस्तित्व घुलमिल
जाता है, जितना
ही तू इसके
साथ एक होता
है--जो है--उतना
ही तू स्वयं
परिपूर्ण करुणा
बन जाएगा।
ऐसा
है आर्य
मार्ग--पूर्णता
के बुद्धों का
मार्ग।
और
यदि तू सातवां
द्वार भी पार
कर गया, तो
क्या तुझे
अपने भविष्य
का पता है? आनेवाले
कल्पों
में स्वेच्छा
से जीने के
लिए तू बाध्य
होगा, लेकिन
मनुष्यों
द्वारा न देखा
जाएगा, और
न उनका
धन्यवाद ही
तुझे मिलेगा।’
बोधिसत्व
की जो स्थिति
है उसे समझें, तो यह सूत्र
समझ में आएगा।
बोधिसत्व
शरीर से मुक्त
हो जाता है।
जगत उसे देख
नहीं पाता, लेकिन वह
जगत को देख
पाता है। जगत
उसे समझ नहीं
पाता, लेकिन
वह जगत को समझ
पाता है। और
जगत को न
मालूम कितने
उपायों से वह
सहायता भी
पहुंचाता है।
उसका कोई
धन्यवाद भी
उसे नहीं
मिलता है।
मिलने का कोई
कारण भी नहीं,
क्योंकि
जिन्हें
सहायता पहुंचाई
जाती है, वे
उसे देख भी
नहीं सकते
हैं।
यह
सूत्र कह रहा
है: अगर तू
सातवां द्वार
भी पार कर गया, तो फिर एक
धन्यवाद-रहित
कार्य में
तुझे पड़ जाना
होगा। कोई
तुझे धन्यवाद
भी न देगा, कोई
जानेगा भी
नहीं कि तूने
क्या किया, कोई
पहचानेगा भी
नहीं। कहीं
लिपिबद्ध न
होगी तेरी
बात। जो
सहायता तूने पहुंचाई
है, उसे तू
ही जानेगा; वे भी नहीं
जानेंगे, जिन्हें
सहायता पहुंचाई
गई।
स्वभावतः
ऐसे कृत्य में
कोई तभी उलझ
सकता है, जब
उसकी अस्मिता
पूरी मिट गई
हो। अहंकार तो
एक ही बात में
उत्सुक होता
है कि मैं
जाना जाऊं, माना जाऊं, कोई धन्यवाद
स्वीकार करे,
कोई
अनुगृहीत हो।
बोधिसत्व की
अवस्था तो उपलब्ध
होती है
अहंकार के मिट
जाने के बाद।
तो अब यह सवाल
नहीं है कि
जिसको सहायता
दी है, वह
अनुगृहीत हो।
अब तो सहायता
देना ही अपने
आप में
पर्याप्त है।
लेकिन यह
सूत्र एक बात
और कहता है, जो बड़ी अजीब
और बड़ी
विरोधाभासी
है।
यह
सूत्र कहता
है: आनेवाले कल्पों
में स्वेच्छा
से जीने के
लिए तू बाध्य
होगा।
यह बड़ी
उल्टी बात
है--स्वेच्छा
से जीने के
लिए बाध्य!
कोई तुझे
मजबूर नहीं
करेगा कि तू
बोधिसत्व बन; कोई तुझे
जोर-जबरदस्ती
नहीं करेगा कि
तू मनुष्यों
की सेवा में
लग, कि सोए
हुए को जगा, कि भटके हुए
को मार्ग पर
ला; कोई
तुझे बाध्य
नहीं करेगा।
तू चाहे तो खो
सकता है महाशून्य
में; तू
चाहे तो लग
सकता है इस महाकार्य
में, महाकरुणा के कार्य
में। इसलिए
बड़े उल्टे
शब्दों का प्रयोग
किया
है--स्वेच्छा
से जीने को
बाध्य होगा।
लेकिन तेरी
स्व-इच्छा ही
तुझसे कहेगी
कि तू जी, रुक,
ठहर; खो
मत जा, उनके
काम पर अभी
जिन्हें
जरूरत है। यह
तेरी
स्वेच्छा की
ही बाध्यता
होगी।
बाध्यता
तो होती है
हमेशा अपनी
मर्जी के बिना, कोई और
जबरदस्ती
करता है।
बोधिसत्व की
स्थिति में
कोई जबरदस्ती
प्रकृति की
नहीं रह जाती।
परमात्मा का
भी कोई आग्रह
नहीं रह जाता
है--नियम के
बाहर हो गया
वह व्यक्ति।
उसे अब चलाया
नहीं जा सकता।
वह चलना चाहे,
तो चल सकता
है। उसे रोका
नहीं जा सकता,
वह रुकना
चाहे तो रुक
सकता है।
हम सब
इस जगत में
चलते हैं
कार्य और कारण
के नियम में
बंधे, काजेलिटि में बंधे।
हम जो भी कर
रहे हैं, वह
हमें लगता है
कि हम कर रहे
हैं; लेकिन
हम करते नहीं,
हमसे
करवाया जाता
है। जब आपको
क्रोध होता है
तो क्या आपको
लगता है कि आप
क्रोध करते
हैं? लोग
मेरे पास आते
हैं और कहते
हैं कि मुझसे
बहुत क्रोध हो
जाता है, कैसे
रोकूं? तो
उनसे मैं
पूछता हूं, क्या सच में
तुम क्रोध
करते हो? अगर
तुम ही करते
हो तो रोक
सकते हो।
लेकिन क्रोध
कौन करता है, वह तो जैसे
अवश, स्वेच्छा
के विपरीत, मजबूरी में
किया जाता है।
आपसे करवा
लिया जाता है,
आप करते
नहीं हो। करते
होते, तब
तो मालिक थे।
तो इसे
ऐसा समझें कि
अगर आपसे कोई
कहे कि अभी क्रोध
करके दिखाएं, तो आप क्रोध
न कर सकेंगे।
तो आप करते
हैं, इस
भ्रांति में
मत रहना। और
जब क्रोध हो
रहा है, तब
कोई कहे कि
इसी वक्त रुक
जाएं, तब
आप रुक न
सकेंगे। तब
क्रोध आपको
चला रहा है, आप क्रोध को
चलाते हैं, ऐसा नहीं
है। प्रेम
आपको चला रहा
है; आप
प्रेम को रही
है। और आप सोच
रहे हैं कि
मैं कर रहा
हूं। अगर आप
कर रहे
होते--तो आप रोक
कर देखिए, तो
पता चल जाएगा।
क्योंकि जो भी
आप करते हैं, वह आप रोक
सकते हैं। तो
सुंदर स्त्री
दिखाई पड़े और
मन में वासना
न उठे, ऐसा
करके देखिए।
पानी अगर यह
मानता है कि
वह भाप बन रहा
है, तो उसे
यह करना चाहिए
कि नीचे आग
जले और वह भाप न
बने, तो
पक्का हो
जाएगा कि आग
से नहीं भाप
बन रहा है, अपनी
स्वेच्छा से
बन रहा है।
गर्मी नीचे
गिरती जाए, शून्य
डिग्री के
नीचे पहुंच
जाए, और
पानी इनकार
करे, बर्फ
न बने। धन
आपके सामने
पड़ा हो, हीरे-जवाहरातों
का ढेर लगा हो,
और आपके
भीतर वासना न जगे उनके
मालिक बन जाने
की, तो
समझना वासना आप
कर रहे हैं।
जिसे
हम रोक नहीं
सकते, उसे
हम कर रहे हैं,
यह भ्रांति
है।
जो
हमारे बस में
नहीं है, उसके
हम बस में
हैं। पर आदमी
के अहंकार को
चोट लगती है।
इस देश
के मनुष्यों
ने तो सदा कहा
है कि आदमी भी
प्रकृति के
कार्य-कारण से
बंधा चल रहा
है। इसको हम
नियति कहते
हैं, भाग्य
कहते हैं।
आपके किए कुछ
हो नहीं रहा
है। और जब
हमने यह कहा
कि परमात्मा
की मर्जी के
बिना पत्ता भी
नहीं हिलता, तो उसका
मतलब यह है कि
आप अपनी मर्जी
की बातें छोड़
दें; यह
प्रकृति का
विराट नियम ही
सब हिला रहा
है। पत्ता भी
हिलता है, तो
उस विराट नियम
से हिलता है।
आप इसमें बीच
में अपने मैं
को खड़ा मत
करें। अगर यह
भी खयाल में आ
जाए, तो
आपकी जिंदगी
में क्रांति
हो जाएगी। तब
आप यह नहीं
कहेंगे कि मैं
क्रोध करता
हूं। आप यही कहेंगे
कि क्रोध होता
है, प्रेम
होता है, घृणा
होती है, सुख
होता है, दुख
होता है।
अगर यह
बात आपको
बिलकुल साफ
समझ में आ जाए
कि आपके भीतर
भी प्रकृति के
अंधे नियम काम
कर रहे हैं, और आप उनके
मालिक नहीं
हैं, तो
मालकियत की
पहली किरण
आपके भीतर
पैदा हो गई।
यह समझ भी
लेना कि मैं
गुलाम हूं, मालकियत की
शुरुआत है। और
गुलाम अपने को
यह समझ रहे
हैं कि मैं तो
मालिक हूं, तो फिर उसकी
मालकियत कभी
भी तय नहीं हो
सकती क्योंकि
वह भ्रांति
में ही मरेगा।
बोधिसत्व
हमसे बिलकुल
दूसरा छोर है, जहां नियम
धक्का देना
बंद कर देते
हैं, जहां
पानी गरम करके
भाप नहीं
बनाया जा सकता,
जहां पानी
ठंडा करके
बर्फ नहीं
बनाया जा सकता।
बोधिसत्व
अहंकार के
छूटते ही, विराग
के जन्मते ही,
ध्यान की
उपलब्धि पर, प्रज्ञा की
किरण के पैदा
होते
ही--धीरे-धीरे-धीरे
जिस जगत में
काम होता है
नियमों का, उसके पार हो
रहा है, स्वेच्छा
के जगत में
प्रवेश कर रहा
है।
बुद्ध
के जीवन की
बड़ी मीठी कथा
है। जब उनका
जन्म हुआ, तो
ज्योतिषियों
ने कहा कि यह
व्यक्ति या तो
सम्राट होगा
या संन्यासी
होगा। सब
लक्षण सम्राट
के थे। फिर
बुद्ध तो
भिक्षु हो गए,
संन्यासी
हो गए। और
सम्राट
साधारण नहीं,
चक्रवर्ती
सम्राट होगा,
सारी
पृथ्वी का
सम्राट होगा।
बुद्ध
एक नदी के पास
से गुजर रहे
हैं, निरंजना नदी के पास
से गुजर रहे
हैं। रेत पर
उनके चिह्न बन
गए, गीली
रेत है, तट
पर उनके पैर
के चिह्न बन
गए। एक
ज्योतिषी काशी
से लौट रहा
था। अभी-अभी
ज्योतिष पढ़ा
है। यह सुंदर
पैर रेत पर
देख कर उसने
गौर से नजर
डाली। पैर से
जो चिह्न बन
गया है नीचे, वह खबर देता
है कि
चक्रवर्ती
सम्राट का पैर
है। ज्योतिषी
बहुत चिंतित
हो गया।
चक्रवर्ती
सम्राट का अगर
यह पैर हो, तो
यह साधारण सी
नदी के रेत पर
चक्रवर्ती
चलने क्यों
आया? और वह
भी नंगे पैर
चलेगा कि उसके
पैर का चिह्न रेत
पर बन जाए! बड़ी
मुश्किल में
पड़ गया। सारा
ज्योतिष पहले
ही कदम पर
व्यर्थ होता
मालूम पड़ा।
अभी-अभी लौटा
था निष्णात
होकर ज्योतिष
में। अपनी
पोथी, अपना
शास्त्र साथ
लिए हुए था।
सोचा, इसको
नदी में डुबा
कर अपने घर
लौट जाऊं, क्योंकि
अगर इस पैर का
आदमी इस रेत
पर भरी दुपहरी
में चल रहा है
नंगे पैर--और
इतने स्पष्ट
लक्षण तो कभी
युगों में
किसी आदमी के
पैर में होते
हैं कि वह चक्रवर्ती
सम्राट हो--तो
सब हो गया
व्यर्थ। अब
किसी को
ज्योतिष के
आधार पर कुछ
कहना उचित नहीं
है।
लेकिन
इसके पहले कि
वह अपने
शास्त्र
फेंके, उसने
सोचा, जरा
देख भी तो लूं,
चल कर इन
पैरों के
सहारे, वह
आदमी कहां है।
उसकी शक्ल भी
तो देख लूं।
यह चक्रवर्ती
है कौन, जो
पैदल चल रहा
है!
तो उन
पैरों के
सहारे वह गया।
एक वृक्ष की
छाया में
बुद्ध
विश्राम कर
रहे थे। और भी
मुश्किल में
पड़ गया, क्योंकि
चेहरा भी
चक्रवर्ती का
था, माथे
पर निशान भी
चक्रवर्ती के
थे। बुद्ध की
आंखें बंद थीं,
उनके दोनों
हाथ उनकी
पालथी में रखे
थे; हाथ पर
नजर डाली, हाथ
भी चक्रवर्ती
का था। यह देह,
यह सब ढंग
चक्रवर्तियों
का, और
आदमी भिखारी
था, भिक्षा
का पात्र रखे,
वृक्ष के
नीचे बैठा था,
भरी दुपहरी
में अकेला था।
हिला
कर बुद्ध को
उसने कहा कि
महानुभाव, मेरी वर्षों
की मेहनत
व्यर्थ किए दे
रहे हैं--ए सब
शास्त्र नदी
में फेंक दूं,
या क्या
करूं? मैं
काशी से
वर्षों से
मेहनत करके, ज्योतिष को
सीख करके लौट
रहा हूं। और
तुममें जैसे
पूरे लक्षण
प्रगट हुए हैं,
ऐसे सिर्फ
उदाहरण मिलते
हैं ज्योतिष
के शास्त्रों
में। आदमी तो
कभी-कभी हजारों-लाखों
साल में ऐसा
मिलता है। और
पहले ही कदम
पर तुमने मुझे
मुश्किल में
डाल दिया।
तुम्हें होना
चाहिए
चक्रवर्ती
सम्राट और तुम
यह भिक्षापात्र
रखे इस वृक्ष
के नीचे क्या
कर रहे हो?
तो
बुद्ध ने कहा
कि शास्त्रों
को फेंकने की
जरूरत नहीं है, तुझे ऐसा
आदमी दुबारा जीवन
में नहीं
मिलेगा।
जल्दी मत कर, तुझे जो लोग
मिलेंगे, उन
पर तेरा
ज्योतिष काम
करेगा। तू
संयोग से, दुर्घटनावश ऐसे आदमी से
मिल गया है, जो भाग्य की
सीमा के बाहर
हो गया है।
लक्षण बिलकुल
ठीक कहते हैं।
जब मैं पैदा
हुआ था, तब
यही होने की
संभावना थी।
अगर मैं बंधा
हुआ चलता
प्रकृति के
नियम से तो
यही हो जाता। तू
चिंता में मत
पड़, तुझे
बहुत
बुद्ध-पुरुष
नहीं मिलेंगे
जो तेरे नियमों
को तोड़ दें।
और जो अबुद्ध
है, वह
नियम के भीतर
है। और जो
अजाग्रत है, वह प्रकृति
के बने हुए
नियम के भीतर
है। जो जाग्रत
है, वह
नियम के बाहर
है।
जाग्रत
व्यक्ति का
संकल्प होता
है, उसकी
स्वेच्छा
होती है, वह
जो चाहे करे।
इसलिए यह
सूत्र बड़े मजे
की बात कहता
है। यह कहता
है, स्वेच्छा
से जीने के
लिए तू बाध्य
होगा। कोई तुझे
बाध्य न कर
सकेगा कि रुक
और सेवा कर, रुक और
करुणा से
लोगों को जगा;
और सोए, पीड़ित,
दुखी, विक्षिप्त
लोगों की
बीमारी दूर कर,
उनके लिए
औषधि बन, उनके
लिए चिकित्सक
बन। कोई तुझे
बाध्य न करेगा,
लेकिन तू
स्वयं ही
बाध्य होगा।
यह तेरी स्वेच्छा
ही होगी, तू
स्वयं ही चुनेगा
कि मैं रुक
जाऊं।
"लेकिन
तू मनुष्यों
के द्वारा न
देखा जाएगा, और न उनका
धन्यवाद ही
तुझे मिलेगा।
और
अभिभावक-दुर्ग
को बनानेवाले
अन्य अनगिनत
पत्थरों के
बीच तू भी एक
पत्थर बन कर जीएगा।
करुणा के अनेक
गुरुओं के
द्वारा
निर्मित उनकी यातनाओं
के सहारे ऊपर
उठा और उसके
रक्त से जुड़ा
यह दुर्ग
मनुष्य-जाति
की रक्षा करता
है। क्योंकि
मनुष्य
मनुष्य है, इसलिए यह
उसे भारी
विपदाओं और
शोक से बचाती
है।’
यह एक
प्रतीक है
सत्य समझने
योग्य। पहली
तो बात यह है
कि बोधिसत्व
का कृत्य
दिखाई नहीं
पड़ता।
बोधिसत्व भी
दिखाई पड़ जाए, तो भी उसका
कृत्य दिखाई
नहीं पड़ता। वह
जो कर रहा है, वह सूम है।
वह जो कर रहा
है, वह
आपके अचेतन में
वहां काम कर
रहा है, जहां
का आपको भी
पता नहीं है।
उसके करने के
अपने रास्ते
हैं।
तिब्बत
में एक शब्द
है "तुलकू'।
ब्लावट्स्की
को भी तिब्बत
में "तुलकू'
ही कहा जाता
है। "तुलकू'
का अर्थ
होता है ऐसा
कोई व्यक्ति,
जो किसी
बोधिसत्व के
प्रभाव में
इतना समर्पित
हो गया है कि
बोधिसत्व
उसके द्वारा
काम कर सके। ब्लावट्स्की
तुलकू बन
सकी। स्त्री
थी, इसलिए
आसानी से बन
सकी; समर्पित
थी। जो लोग
ब्लावट्स्की
के पास रहते थे,
वे लोग चकित
होते थे। जब
वह लिखने
बैठती थी, तो
आविष्ट होती
थी, पजेस्ड होती थी।
लिखते वक्त
उसके चेहरे का
रंग-रूप बदल
जाता था।
आंखें किसी और
लोक में चढ़ जाती
थीं। और जब वह
लिखने बैठती
थी तो कभी दस
घंटे, कभी
बारह घंटे
लिखती ही चली
जाती थी। पागल
की तरह लिखती
थी। कभी काटती
नहीं थी, जो
लिखा था उसको।
यह कभी-कभी
होता था। जब
वह खुद लिखती
थी, तब उसे
बहुत मेहनत
करनी पड़ती थी।
तो उसके
संगी-साथी
उससे पूछते थे,
यह क्या
होता है? तो
वह कहती थी कि
जब मैं "तुलकू' की हालत में
होती हूं, तब
मुझसे कोई
लिखवाता है।
थियोसाफी में
उनको मास्टर्स
कहा गया है।
कोई सदगुरु
लिखवाता है, मैं नहीं
लिखती; मेरे
हाथ किसी के
हाथ बन जाते
हैं; कोई
मुझमें आविष्ट
हो जाता है, और तब लिखना
शुरू हो जाता
है, तब मैं
अपने वश में
नहीं होती, मैं सिर्फ
वाहन होती
हूं। यह
पुस्तक भी ऐसे
ही वाहन की
अवस्था में
उपलब्ध हुई
है।
कभी-कभी
ऐसा होता था
कि कुछ लिखा
जाता था और उसके
बाद महीनों तक
वह अधूरा ही
पड़ा रहता था।
संगी-साथी ब्लावट्स्की
के कहते कि वह
पूरा कर डालो, जो अधूरा
पड़ा है। वह
कहती, कोई
उपाय नहीं है
पूरा करने का;
क्योंकि
मैं पूरा करूं,
तो सब खतरा
हो जाए; जब
मैं फिर
आविष्ट हो
जाऊंगी, तब
पूरा हो
जाएगा। उसकी
कुछ किताबें
अधूरी ही छूट
गई हैं, क्योंकि
जब कोई
बोधिसत्व
चेतना उसे पकड़
ले, तभी
लिखना हो सकता
है।
ये जो
बोधिसत्व हैं, ऐसी चेतनाएं
जो परमद्वार
पर खड़ी हैं; क्षीण होने
के, विलीन
होने के, शांत
होने के, नष्ट
हो जाने के
द्वार पर खड़ी
हैं--महामृत्यु
अभी घटनेवाली
है जिनके लिए,
ये हजार तरह
से काम करती
हैं। किसी
व्यक्ति में
आविष्ट हो
सकती हैं, किसी
व्यक्ति को
पता भी न चले, उसका उपयोग
कर सकती हैं।
इन सारी
आत्माओं का तिब्बत
में खयाल है, और खयाल सही
है कि एक
दुर्ग है, जो
मनुष्य-जाति
को घेरे हुए
है चारों तरफ
से।
आदमी
जैसा है, वह
बिलकुल पागल
है। और वह जो
भी करता है, वह सब
पागलपन से भरा
है। अगर आदमी
को बिलकुल
उसके ही सहारे
छोड़ दिया जाए,
तो वह अपने
को भी नष्ट कर
ले सकता है।
वह जो भी कर
रहा है वह सब
उपद्रव से
ग्रस्त है।
उसे कुछ पता
ही नहीं कि
क्या
कर रहा
है, और क्या
हो रहा है। यह
बोधिसत्वों
का दुर्ग, उसे
बार-बार मार्ग
पर ले आता है, बार-बार उसे
भटकने से
बचाता है, बार-बार
अनेक उपाय
करके दिशा और
दृष्टि देने की
कोशिश करता
है।
यह
सूत्र कह रहा
है कि जब तू
सातवें द्वार
को भी पार कर
जाएगा, तब
अपनी ही
स्वेच्छा से
तू भी इस महादुर्ग
की एक इट बनना
चाहेगा। अनेक
गुरुओं की यातनाओं
से निर्मित यह
दुर्ग है। यह
दुर्ग
मनुष्य-जाति
की रक्षा करता
है। तिब्बत
में हर
बुद्ध-पूर्णिमा
को एक विशेष
पर्वत पर पांच
सौ बौद्ध लामा
इकट्ठे होते
हैं। हर वर्ष
बुद्ध-पूर्णिमा
की रात, आधी
रात बुद्ध की
वाणी सुनाई
पड़ती है। यह
बोधिसत्व-वाणी
है। एक नियत
योजना के
अनुसार, एक
नियत घड़ी में
बुद्ध की वाणी
उपलब्ध होती
है। नियत लोग,
निश्चित
लोग, जो उस
वाणी को सुन
सकते
हैं--क्योंकि
वाणी अशरीरी
है--वे ही केवल
वहां इकट्ठे
होते हैं। पांच
सौ से ज्यादा
लामा वहां कभी
इकट्ठे नहीं
होते हैं। जब
एक लामा उनमें
से मर जाता है,
समाप्त हो
जाता है, तभी
एक नए लामा को
प्रवेश मिलता
है। स्थान
गुप्त रखा
जाता है; क्योंकि
कोई भी
गैर-व्यक्ति
वहां पहुंच
जाए, तो
बाधा पड़ सकती
है उस घटना
में। बुद्ध
मरते वक्त वह
निश्चित कर गए
हैं।
सदगुरु
अक्सर
निश्चित कर
जाते हैं कि
उनके साथ, बाद में जब
उनका शरीर न
होगा, तो
कैसे संबंध
स्थापित किया
जाए। यह संबंध
स्थापित करने
के निश्चित
सूत्र हैं और
उनके ही अनुसार
चला जाए, तो
संबंध
स्थापित होते
हैं। जो
परंपराएं अपने
गुरु से संबंध
स्थापित करती
रहती हैं, वे
जीवित हैं।
बहुत
सी परंपराएं
हैं, जिनका
संबंध सूत्र
खो गया है, वे
मृत हैं। जैसे
जैनों की
परंपरा है, वह मृत है।
महावीर से
संपर्क-सूत्र
खो गया है। और
जैनों में आज
एक भी सिद्ध
पुरुष नहीं है,
जो महावीर
से
संपर्क-सूत्र
स्थापित कर
सके। इसलिए
जैनों की जो
भी गहन
गूढ़-विद्या है,
वह ढकी पड़ी
है, उसको उघाड़ने का
कोई उपाय नहीं
है। जैन पंडित,
जैन साधु और
संन्यासी जो
भी करते रहते
हैं, वह सब
बौद्धिक है; उसमें कोई
आध्यात्मिक
अनुभव नहीं
है। इसलिए महावीर
जैसे
महाप्राण
गुरु का भी
संदेश जगत तक
नहीं पहुंच
सका। क्योंकि
परंपरा
छिन्न-भिन्न
हो गई है।
उपाय छोड़ कर
गए हैं महावीर,
जिन उपायों
से उनसे संबंध
स्थापित किया
जा सकता है।
लेकिन कोई
उपाय काम में
नहीं है।
बुद्ध
की परंपरा आज
भी जीवित है।
आज भी संपर्क-सूत्र
स्थापित
करनेवाले लोग
हैं, जो आज भी
बुद्ध की वाणी
उपलब्ध कर
सकते हैं। बुद्ध
की वाणी
शाश्वत
उपलब्ध रहेगी,
बुद्ध के
आश्वासन हैं।
जीसस का
संबंध-सूत्र खो
गया है।
ईसाइयत
औपचारिक धर्म
हो कर रह गई
है। चर्च हैं,
पादरी हैं,
पोप हैं, भारी
विस्तार है।
लेकिन
विस्तार ही है,
इस्टेबिल्शमेंट ही है; भीतर
जो सत्व है, वह खो गया
है। जीसस से
संबंध नहीं रह
गया है। तो
ईसाइयत इतनी
फैल गई, लेकिन
फिर भी जीसस
से कोई संबंध
नहीं है। तो
प्राण नहीं
हैं भीतर। सैकड़ों
परंपराएं
पृथ्वी पर
हैं। हर
परंपरा किसी
महागुरु, किसी
बोधिसत्व की
चेतना से चलती
है। लेकिन उससे
संबंध
प्रस्थापित
होता ही रहना
चाहिए। क्योंकि
युग बदलता है,
समय बदलता
है, भाषा
बदलती है। फिर
से पुनः संबंध
स्थापित होना
चाहिए कि बुद्ध
अभी क्या
कहेंगे।
बुद्ध इस क्षण
में क्या
कहेंगे।
बुद्ध का आज
के लिए क्या
संदेश होगा।
अगर संबंध टूट
जाए, तो दो
हजार, ढाई
हजार साल पहले
बुद्ध ने जो
कहा था, वह
हमारे पास
किताबों में
रह जाता है।
लेकिन ढाई
हजार साल पहले
की जो स्थिति
थी, वह आज
नहीं है। ढाई हजार
साल पहले जिन
लोगों से
उन्होंने कहा
था, वे लोग
आज नहीं हैं।
ढाई हजार साल
पहले जो उन्होंने
विधियां दी
थीं, वे आज
कारगर नहीं
होंगी, क्योंकि
आदमी बदल गया
है, आदमी
का मन बदल गया
है।
जीवित
परंपरा का
अर्थ होता है
कि बुद्ध से
बार-बार संबंध
स्थापित करके
आज के लिए
संदेश पाया जा
सके। अगर यह न
हो सके, तो
परंपरा बोझ हो
जाती है, और
मुर्दा हो
जाती है।
यह
बोधिसत्व का
जो दुर्ग है, हमारे चारों
तरफ मौजूद है
बहुत निकट, क्योंकि
हमारे हृदय के
पास है दुर्ग।
इससे संबंध
बनाया जा सकता
है। लेकिन उस
संबंध को बनाने
के लिए पूर्ण समर्पण
की दशा चाहिए।
मूर्तियां
हैं, मंदिर
हैं, चर्च
हैं, गिरजे
हैं, गुरुद्वारे
हैं, वे सब
प्रतीक हैं; संबंध
स्थापित करने
के एक तरह के
यंत्र हैं, जिनसे संबंध
स्थापित किया
जा सकता है, जिन पर
ध्यान एकाग्र
करने से आप इस
लोक से हटते
हैं और उस लोक
के लिए उन्मुख
हो जाते हैं।
करीब-करीब
आज पृथ्वी पर
बोधिसत्वों
का संपर्क क्षीणतम
हो गया है।
इधर पिछले कुछ
दशकों में
ब्लावट्स्की
के प्रयास से
बड़ा महाप्रयोग
हुआ। और बड़ी
चेष्टा हुई कि
बोधिसत्व के
दुर्ग से पुनः
संबंध
स्थापित हो
जाए।
थियोसाफी का पूरा
का पूरा
आंदोलन इस
संबंध-सूत्र
को स्थापित
करने के लिए
ही था, लेकिन
प्रयास असफल
हो गया; हो
ही नहीं पाया,
थोड़ा काम
हुआ और सब
अवरुद्ध हो
गया। और आज
कोई इतना बड़ा
प्रयास दूसरा
नहीं है, जो
ज्ञान की जो
शाश्वत धारा
है, जो
परंपरा है, ज्ञान के जो
सूत्र सदा
उपलब्ध कर लिए
गए हैं, उनको
पुनर्जीवित
किया जा सके।
और जरूरत बहुत
ज्यादा है कि यह
हो; और अगर
यह न हो, तो
आदमी भटक सकता
है, खो
सकता है।
क्योंकि आदमी
के पास
बुद्धों का जो
जीवंत दुर्ग
है, अगर
उससे ही हमारा
संबंध
विछिन्न हो
जाए, तो हम
भटकते ही चले
जाएंगे, और
गिरते ही चले
जाएंगे।
आज
आदमी की गिरावट
का कारण न तो
विज्ञान है, आदमी की
गिरावट का
कारण न
तो अनीति
है--आदमी की
गिरावट का एक
ही कारण है कि
अनंत-अनंत काल
में जो शाश्वत
सत्य की खोजें
हैं और उन
सत्यों की
संपत्ति
जिनके पास सुरक्षित
है, उनसे
हमारा संबंध
क्षीण हो गया
है। उस संबंध
को
पुनर्जीवित
किया जा सके, तो ही
मनुष्य को
बचाया जा सकता
है। अन्यथा यह
पृथ्वी खाली
कर देनी
पड़ेगी।
अन्यथा इस
पृथ्वी पर
आदमी के बचने
की इस सदी के
बाद कोई
संभावना नहीं
है। एक
महा-आंदोलन की
जरूरत है कि
पृथ्वी के
कोने-कोने में
सभी
धर्म-परंपराओं
से संपर्क
पुनर्जीवित
किया जा सके। यह
किया जा सकता
है।
अगर आप
समर्पित हैं
और ध्यान में
पूरी तरह डूबते
हैं, तो आज
नहीं कल अचानक
आप पाएंगे कि
आप एक दूसरे लोक
में प्रवेश
करने लगे, और
दूसरे लोक की
वाणी आपको
सुनाई पड़ने
लगी, और
दूसरे लोक की
आत्माएं आपसे
संबंध
स्थापित करने
लगी हैं। वे
सदा उत्सुक हैं,
सिर्फ आपकी
तरफ से द्वार
खुला चाहिए।
और तब आप
पाएंगे कि आप
नाहक ही
परेशान हो रहे
थे; जिनसे
मार्गदर्शन
मिल सकता है
वे बहुत निकट
हैं।
यह
सूत्र कहता
है: साथ ही, चूंकि
मनुष्य इसे
नहीं देखता है,
इसलिए वह न
स्पर्श कर
सकता है, और
न प्रज्ञा की
वाणी सुन सकता
है क्योंकि वह
जानता ही नहीं
है।
"लेकिन
ओ जिज्ञासु, निर्दोष आत्मावाले,
तूने तो इसे
सुना है और तू
तो सब कुछ
जानता है इसलिए
तुझे निर्णय
करना है। अतः
एक बार फिर से सुन।
"हे सोवान के
मार्ग, हे स्रोतापन्न,
तू
सुरक्षित है।
देख, उस
मार्ग पर जहां
थके हुए
यात्री को
अंधकार का
सामना करना
होता है।’
यह उसे
याद दिला रहा
है, यह सूत्र
सिर्फ याद
दिला रहा है।
निर्वाण के पहले
खो जाने की
संभावना है।
यह सूत्र याद
दिला रहा है
कि तू तो अब
सुरक्षित है।
अब तुझे तो कोई
भय न रहा।
तूने वह वाणी
सुन ली, जो
मुक्त करती है,
और तूने वह
सत्य स्पर्श
कर लिया है।
अब तुझे कोई
दुख नहीं है।
तेरे पैर
निरंतर आनंद
में बहे जा
रहे हैं, लेकिन
स्मरण कर उस
मार्ग का, जहां
तू कल चल रहा
था, और
जहां तुझे कोई
सहारा न था, और जहां
तुझे कोई
मार्ग-दर्शन
देनेवाला
नहीं था, उस
मार्ग पर अभी
भी थके हुए
यात्री
अंधेरे का
सामना कर रहे
हैं।
"जहां
कांटों से छिद
कर हाथ लहू-लुहान
हो जाते हैं, जहां पांव
तीखे व कठोर
पत्थरों से
कट-फट जाते हैं
और जहां "काम'
अपने
शक्तिशाली
शस्त्र चलाता
है, वहां
जरा सी दूरी
ही पार कर एक
बड़ा वरदान, महान
पुरस्कार
तेरी
प्रतीक्षा कर
रहा है।’
अगर तू
जरा-सा लौट कर
पीछे देख तो
जिस रास्ते पर
तू कल तक था, वहां करोड़ों
लोग हैं। जैसा
तू भटकता था, वे भटक रहे
हैं। जिन
दुखों में तू
डूबता था, उसमें
वे डूब रहे
हैं। जिन पीड़ाओं
को तू अपने
हाथ से पकड़ कर
भोगता था, वहां
वे अपने ही
हाथों से अपनी
पीड़ाएं
निर्मित कर
रहे हैं और
भोग रहे हैं।
पीछे के नरक
को देख, यह
नरक अगर दिखाई
पड़ जाए तुझे, तो तू उनकी
सहायता के काम
पड़ सकता
है।
"वह
शांत और अकंप
यात्री इस
धारा पर बहता
चला जाता है, जो निर्वाण
को चली जाती
है। वह जानता
है कि जितने
ही उसके पांव
खून उगलेंगे
उतना ही वह
स्वयं धुलकर
स्वच्छ हो
जाएगा। वह
भलीभांति
जानता है कि
सात छोटे-छोटे
और क्षणभंगुर
जन्मों के बाद
निर्वाण उसका
है।’
यह भी
तुझे साफ है
कि ज्यादा देर
नहीं है तेरे महानिर्वाण
में खो जाने
के लिए। शीघ्र
ही थोड़े ही
जन्मों में
समस्त रूप में
महाशून्य हो
जाएगा। इसके पहले
कि तू महाशून्य
हो जाए, तू
महाशून्य
होने की जल्दी
मत करना।
"ऐसा
है ध्यान का
मार्ग, जो
योगियों का
आश्रय है और
जिस अपूर्व लय
के लिए स्रोतापन्न
लालायित है।'
वह
धारा में
प्रवेश कर रहा
है, साधक है,
नया है, लालायित
है--इस
महाशून्य को
जानेवाले
मार्ग पर चलने
के लिए।
लेकिन, जब उसने
अर्हत का
मार्ग पार कर
लिया, तब
कोई लालसा
नहीं है।
अर्हत
होते ही सारी लालसाएं
शांत हो जाती
हैं, सारी
वासनाएं
क्षीण हो जाती
हैं। तब खतरा
है, क्योंकि
जब स्वयं की
वासना क्षीण
हो जाए, तो
दूसरे की भी
दिखाई नहीं
पड़ती और जब
स्वयं के दुख
मिट जाएं, तो
दूसरों के
दुखों का कोई
खयाल नहीं रह
जाता है।
हम वही
जानते हैं जो
हमारे भीतर
होता रहता है।
जो हमारे भीतर
बंद हो गया, हम भूल जाते
हैं कि वह
दूसरों के
भीतर अभी जारी
है।
"वहां
सदा के लिए
क्लेश मिट
जाता है'
अर्हत
होते ही, सिद्ध
होते ही सारा
क्लेश मिट
जाता है।
"और
तनहा की जड़ें
उखड़ जाती हैं।’
तृष्णा
के सारे जाल
टूट जाते हैं।
"लेकिन ओ
शिष्य, रुक
अभी भी एक और
शब्द कहना
बाकी है। क्या
तू ईश्वरी
करुणा को मिटा
सकता है? करुणा
कोई सदगुण
नहीं है। यह
नियमों का
नियम है--शाश्वत
लयबद्धता, आलय
की आत्मा। इसे
ही तटहीन
जागतिक सत्व,
नित्य, सम्यकत्व की प्रभा, वस्तुओं का
कौशल और सनातन
प्रेम का
विधान कहते
हैं।’
एक
शब्द और है
अर्हत के लिए।
सूत्र कहता है
कि एक शब्द और
है, सब हो
चुका, तेरी
तृष्णा मिट
गई। तेरी
तृष्णा के साथ
ही तेरे दुखों
का सागर
तिरोहित हो
गया। खुद की
तृष्णा ही खुद
का दुख है।
तुझे कुछ पाने
को न बचा, तूने
सब पा लिया।
तू हो गया जो
हो सकता था।
तेरा फूल खिल
गया, लेकिन
एक आखिरी शब्द
और है। और वह
आखिरी शब्द है
करुणा के
संबंध में।
इसे हम
समझ लें।
जिस
जगत में हम
रहते हैं, वहां वासना
नियम है।
वासना
का अर्थ है: हम
लेना चाहते हैं, पाना चाहते
हैं, छीनना
चाहते हैं।
जिस जगत में
हम रहते हैं, वहां वासना
नियम है। इस
जगत के पार
होते ही वासना
की जगह करुणा
नियम हो जाती
है।
वासना
का अर्थ है
लेना। करुणा
का अर्थ है
देना--वासना
के ठीक
विपरीत।
वासना
चाहती है:
देना कुछ भी न
पड़े और सब मिल
जाए। और करुणा
चाहती है, लेना कुछ भी
न पड़े, सब
दे दिया जाए।
यह वासना से
करुणा में
प्रवेश है।
अर्हत
की वासना नष्ट
हो गई, अब वह
चाहे तो सीधा
शून्य में
विलीन हो सकता
है। लेकिन
बोधिसत्व को,
जो दूसरा
मार्ग है वह
कहता है, जो-जो
वासना से तूने
मांगा था, वह
करुणा से लौटा
दे। निपटारा
पूरा कर दे।
जिनसे तूने
चाहा था, उनको
दे दे। बिना
दिए भी खोया
जा सकता है, बिना बांटे
भी खोया जा
सकता है। कोई
बांटने की
अनिवार्यता
नहीं है। अब
कोई दबाव नहीं
है, अब कोई
जोर-जबरदस्ती
नहीं है कि
बांट ही। सच तो
यह है कि जब तक
जोर-जबरदस्ती
है बांटने की,
तब तक हमारे
पास बांटने को
कुछ भी नहीं
होता है। जिस
दिन बांटने को
मिलता है कुछ,
उस दिन कोई
जबरदस्ती
नियमों की
नहीं रह जाती।
परम स्वतंत्र
है चेतना, चाहे
तो बांट सकती
है।
यह
सूत्र सकता
है: करुणा कोई
सदगुण नहीं
है।
यह कोई
नैतिक गुण
नहीं है।
"करुणा
कोई सदगुण
नहीं है। यह
है नियमों का
नियम--शाश्वत लयबद्धता,
आलय की
आत्मा। इसे ही
तटहीन, जागतिक तत्व,
नित्य सम्यकत्व
की प्रभा, सभी
वस्तुओं का
कौशल और सनातन
प्रेम का
विधान कहते
हैं।’
यह
करुणा कोई
नैतिकता नहीं
है--जिस करुणा
की यहां बात
की जा रही है।
यह करुणा कोई दया
भी नहीं है कि
दूसरों पर दया
करें। क्योंकि
दया में भी
अहंकार मौजूद
है। यह करुणा
तो प्रेम का
एक विधान है।
इसमें कोई
अस्मिता नहीं
कि मैं दया
करूं, तो
श्रेष्ठ हो जाऊंगा।
अब कोई
श्रेष्ठता
अर्हत के लिए
बाकी न बची, उसने सारी
श्रेष्ठता पा
ली। अब देने
से कुछ और
ज्यादा नहीं
हो जाएगा वह।
अब बांटना
उसके लिए कोई
पुण्य नहीं
है। उसने सब
पुण्य पा लिए
हैं। इसलिए
सवाल उठता है
कि अर्हत
क्यों बांटे?
क्योंकि
हमारी भाषा
में यह तकलीफ
है कि हम सोचते
हैं कि जब कुछ
मिलनेवाला
नहीं है उससे
तो बांटें
क्यों? तो
बांटना क्या
है? न कोई
दबाव है, न
मिलने की कोई
आशा है, न
कोई बढ़ती
होनेवाली है।
अर्हत से ऊपर
जाने का कोई
उपाय नहीं है,
आखिरी शिखर
छू लिया गया।
सूत्र
कहता है, यह
कोई दया नहीं
है, इससे
कुछ अर्जित
होनेवाला
नहीं है।
लेकिन यह प्रेम
का विधान है।
जैसे वासना
जगत का विधान
है, ऐसे
करुणा जगत के
पार जानेवाले
का विधान है।
यह स्वेच्छा
से चुना हुआ
नियम है, इसलिए
इसको नियमों
का नियम कहा
है, क्योंकि
जो नियम
स्वेच्छा से
नहीं चुने
जाते, वे
आधारभूत नहीं
हैं। यह
अल्टीमेट ला
है--ताओ। इससे
ऊपर और कोई
नियम नहीं
जाता। मांगना
ऊपर-ऊपर है, देना नीचे
है। वासना सतह
पर है, करुणा
आधार में है।
"जितना
ही तू इसके
साथ एकात्म
होता है, जितना
ही इसके
अस्तित्व में
तेरा
अस्तित्व घुलमिल
जाता है, जितना
ही तू इसके
साथ एक होता
है--जो है--उतना
ही तू
परिपूर्ण
करुणा बन
जाएगा।’
"ऐसा
है आर्य
मार्ग--पूर्णता
के बुद्धों का
मार्ग।’
बुद्ध
आर्य शब्द का
बहुत उपयोग
किए हैं। आर्य
का अर्थ होता
है
श्रेष्ठतम।
ऐसा है आर्यों
का मार्ग--जो
श्रेष्ठतम
हैं, उनका
मार्ग। ऐसा है
पूर्णता को
प्राप्त बुद्धों
का मार्ग--कि
वासना के जगत
के बाद, वे
करुणा के नियम
को स्वेच्छा
से चुन लेते
हैं। यह चुनाव
उनका है, कोई
अपरिहार्यता
नहीं है।
परिपूर्ण
स्वेच्छा है।
स्वेच्छा से
ही खड़े हो
जाते हैं
संसार में
उनकी सहायता
करने को, जो
अभी भटक रहे
हैं। इसलिए
उन्हें समझने
में हमेशा
कठिनाई होती
है। क्योंकि
हमें लगता कि
अगर एक बुद्ध
भी आपको समझा
रहा है, तो
जरूर उसका
मतलब होगा, कोई प्रयोजन
होगा।
क्योंकि हम
प्रयोजन की ही
भाषा समझ सकते
हैं। हमारी
कोई गलती भी
नहीं है। अगर
कोई आपको
बदलने की भी
कोशिश कर रहा
है, तो
जरूर उसका कोई
प्रयोजन होगा,
जरूर इससे
उसे कुछ लाभ
मिलता होगा, जरूर इसमें
वह कुछ पा रहा
होगा या पाने
की कोई वासना
रखता होगा।
कोई
प्रतिष्ठा, कोई पद, कोई
यश, कोई
महत्वाकांक्षा
जरूर भीतर
होगी। नहीं तो
कौन किसके लिए
परेशान होता
है और क्यों
परेशान होगा?
वासना
की भाषा में
जो जीते हैं
उन्हें करुणा
का कोई भी पता
नहीं हो सकता
है। इसमें भी
कोई गलती नहीं
है, कोई उपाय
भी नहीं है।
जैसे अंधे को
कोई प्रकाश
नहीं दिखता, वैसे वासनावाले
को करुणा नहीं
दिखाई पड़ती।
करुणा भी अगर
दिखाई पड़ती है,
तो वह समझता
है इसके भीतर
कोई वासना
जरूर छिपी है।
इसलिए
बुद्ध सदा ही
गलत समझे
जाएंगे। यह
उनका भाग्य।
गलत उनको समझा
ही जाएगा।
क्योंकि वे जिनसे
बात कर रहे
हैं, उनकी
भाषा और है, उनका नियम
और है। लेकिन
फिर भी वे
चेष्टा में रत
रहेंगे।
क्योंकि
जैसे-जैसे
उन्हें दिखाई पड़ना शुरू
होता है, अपनी
पीड़ाओं
का पथ, जिस
पर वे गुजरे
हैं अनेक-अनेक
जन्मों में, वैसे ही
उन्हें दिखाई
पड़ने लगती हैं,
अनेक-अनेक
आत्माएं, उसी
तरह की पीड़ाओं
में गुजरती
हुई।
ये
सूत्र
बोधिसत्व
पैदा करने के
सूत्र हैं। जो
भी अर्हत के
मार्ग पर जा
रहा है, उसे
उनका स्मरण न
हो, यह
सूत्र खयाल
में न हो, तो
वह लीन हो
जाएगा। अनेक
बुद्ध खो गए
हैं शून्य में
सीधे। यह
सूत्र सिर्फ
इस बात के लिए
गहरी चोट करने
के लिए है कि
इसका खयाल बना
रहे, तो
महायान में
जैसे ही साधक
ध्यान में
करीब पहुंचने
लगता है, इस
तरह के सूत्र
उसका गुरु
उसको देने
लगता है।
चूंकि अब डर
का क्षण करीब
आ रहा है। अब
वह खतरनाक
क्षण करीब आ
रहा है, जब
साधक चुंबक की
तरह खींच लिया
जाएगा शून्य में
और खो जाएगा।
खयाल
रखें, जब भी
आनंद घटता है,
तो कौन
रुकता है? एक
कदम भी कौन
रुकना चाहता
है? जब
महा-आनंद निकट
खड़ा हो, तो
आप उसकी तरफ
पीठ न कर
पाएंगे। तब तो
मन होगा कि
कूद जाएं, डूब
जाएं। उस समय
इन सूत्रों का
स्मरण बना रहे
तो शायद कोई
पीठ फेर कर
खड़ा हो जाए और
लौट कर संसार
की तरफ देखे, जो पीछे रह
गया है। देखते
ही संसार का
दूसरा नियम
शुरू हो जाएगा
करुणा का।
लेकिन अगर न
देखा, तो
वह नियम काम
नहीं करेगा।
एक बार भी
पीछे लौट कर
देख लिया तो
वासना
तिरोहित हो गई,
करुणा
सक्रिय हो
जाएगी, दूसरे
नियम का
सूत्रपात हो
गया।
अर्हत
के मार्ग पर, हीनयान के
मार्ग पर, ठीक
इससे उल्टे
सूत्रों का
काम होता है, क्योंकि
हीनयान के
साधक को
समझाया जाता
है कि जब
महाशून्य
करीब आए तो तू
लौट कर पीछे
मत देखना।
क्योंकि अगर
तूने लौटकर
पीछे देखा, तो फिर
युगों तक तुझे
ठहरना पड़ेगा।
ऐसा है आर्य
मार्ग एक बार
पीछे देख लिया,
तो यह जो
दृश्य है पीछे,
वह हमें पता
नहीं है कि वह
दृश्य कितना
भयंकर है। ऐसा
समझें कि अगर
मैं आपकी सारी
वासनाओं को
खोल कर देखूं।
आपकी सारी पीड़ाओं
को, हृदय
के कांटों को,
सबको उघाड़कर
रख लूं, तो
जो मुझे दिखाई
पड़ेगा, एक-एक
आदमी एक-एक
नरक है। ऊपर
से लिपा-पुता
है, ह्वाइट वाश्ड
है, तो वह
अलग बात है।
ऊपर से दीवाल
बना रखी है
लीप-पोत कर, रंग-रोगन कर
रखा है, कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता। अगर हम
आदमी को खोल
दें तो नरक की
मवाद बहनी
शुरू हो जाए।
अगर हम सारे जगत
को जब कोई
बोधिसत्व
पीछे लौटकर
देखता है, तो
वहां मवाद का,
पीड़ा का, दुख का, घृणा
का, हिंसा
का राज्य है।
तो
हीनयान के
साधक को आखिरी
क्षण में कहा
जाता है कि तू
पीछे भर लौट
कर मत देखना, क्योंकि नदी
जब गिरने लगती
है सागर में, तो एक बार
पीछे लौट कर
देख लेती है, उस रास्ते
को, जिस पर
होकर आई है।
तू लौट कर
पीछे मत देखना,
अन्यथा फिर
तुझे किनारे
पर रह जाना
पड़ेगा
अनेक-अनेक
युगों तक।
क्योंकि जो
तुझे दिखाई
पड़ेगा, वह
तुझे, तेरी
करुणा को पैदा
करेगा।
अपना-अपना
सूत्र चुन
लेना चाहिए।
और उस सूत्र को
ध्यानपूर्वक
मन में बिठाया
जाना चाहिए गहरे-गहरे, ताकि अचेतन
में प्रवेश कर
जाए। और जब हम
द्वार पर खड़े
हों, तो
हमारे काम आ
जाए। अगर लगता
हो कि हीनयान
ही मार्ग है, लगता हो कि
मुझे शून्य
में ही चले
जाना है, तो
फिर इन
सूत्रों से
बचना चाहिए।
और लगता हो कि
उचित है यही, क्योंकि
मेरा फिर कुछ खोएगा
नहीं, अनंत
काल तक अगर
रुका रहूं मैं
किनारे पर, तो भी मुझे
जो पाना था, वह पा लिया
है। कुछ मेरा
खोता नहीं, लेकिन मैं
दूसरे के काम
आ सकता हूं।
और एक दूसरे
करुणा के नियम
के सूत्र हाथ
में आते ही
मैं सहयोगी और
सहारा बन जाता
हूं।
आज इतना
ही।
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