श्रीभगवानुवाच
पार्थ
नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य
विद्यते।
न
हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं
तात गच्छति।।
40।।
हे
पार्थ, उस
पुरुष का न तो
इस लोक में और
न परलोक में
ही नाश होता
है, क्योंकि
हे प्यारे, कोई भी शुभ
कर्म करने
वाला अर्थात
भगवत-अर्थ
कर्म करने
वाला, दुर्गति
को नहीं
प्राप्त होता
है।
अर्जुन ने पूछा है कृष्ण से कि यदि न पहुंच पाऊं उस परलोक तक, उस प्रभु तक, जिसकी ओर तुमने इशारा किया है, और छूट जाए यह संसार भी मेरा; साधना न कर पाऊं पूरी, मन न हो पाए थिर, संयम न सध पाए, और छूट जाए यह संसार भी मेरा; तो कहीं ऐसा तो न होगा कि मैं इसे भी खो दूं और उसे भी खो दूं! तो कृष्ण उसे उत्तर में कह रहे हैं; बहुत कीमती दो बातें इस उत्तर में उन्होंने कही हैं।
अर्जुन ने पूछा है कृष्ण से कि यदि न पहुंच पाऊं उस परलोक तक, उस प्रभु तक, जिसकी ओर तुमने इशारा किया है, और छूट जाए यह संसार भी मेरा; साधना न कर पाऊं पूरी, मन न हो पाए थिर, संयम न सध पाए, और छूट जाए यह संसार भी मेरा; तो कहीं ऐसा तो न होगा कि मैं इसे भी खो दूं और उसे भी खो दूं! तो कृष्ण उसे उत्तर में कह रहे हैं; बहुत कीमती दो बातें इस उत्तर में उन्होंने कही हैं।
एक तो
उन्होंने यह
कहा कि शुभ
हैं कर्म
जिसके, वह
कभी भी
दुर्गति को
उपलब्ध नहीं
होता है। और
चैतन्य है जो,
प्रभु की ओर
उन्मुख
चैतन्य है जो,
इस लोक में
या परलोक में,
उसका कोई भी
नाश नहीं है।
इन दो बातों
को ठीक से समझ
लें।
पहली
बात, चेतना का
इस लोक में या
उस लोक में, कोई नाश
नहीं है।
क्यों?
चेतना
विनष्ट होती
ही नहीं।
चेतना के
विनाश का कोई
उपाय नहीं है।
विनाश केवल
उन्हीं चीजों
का होता है, जो संयोग
होती हैं, कंपाउंड
होती हैं।
सिर्फ संयोग
का विनाश होता
है, तत्व
का विनाश नहीं
होता।
इसे
ऐसा समझें कि
जो चीज
किन्हीं
चीजों से जुड़कर
बनती है, वह
विनष्ट हो
सकती है।
लेकिन जो चीज
बिना किसी के
जुड़े है, वह
विनष्ट नहीं
होती। हम
सिर्फ जोड़ तोड़
सकते हैं और
जोड़ बना सकते
हैं।
इसे
ऐसा भी समझ
लें कि तत्व
का कोई
निर्माण नहीं
होता; निर्माण
केवल संयोगों
का होता है।
एक बैलगाड़ी
हम बनाते हैं
या एक मशीन
बनाते हैं, एक कार
बनाते हैं, एक साइकिल
बनाते हैं।
साइकिल बनती है,
साइकिल
नष्ट हो
जाएगी। जो भी
बनेगा, वह
नष्ट हो
जाएगा। जिसका
प्रारंभ है, उसका अंत भी
निश्चित है।
प्रारंभ में
ही अंत निश्चित
हो जाता है।
और जन्म में
ही मृत्यु की मुहर
लग जाती है।
लेकिन
हम पदार्थ को
नष्ट नहीं कर
सकते, क्योंकि
पदार्थ को हम
बना भी नहीं
सकते हैं। हम
केवल संयोग
बना सकते हैं।
हम पानी को बना
सकते हैं।
हाइड्रोजन और
आक्सीजन को
मिला दें, तो
पानी बन
जाएगा। फिर
हाइड्रोजन
आक्सीजन को अलग
कर दें, तो
पानी विनष्ट
हो जाएगा।
लेकिन
आक्सीजन? आक्सीजन
को हम न बना
सकेंगे। या हो
सकता है, किसी
दिन हम बना
सकें। किसी दिन
यह हो सकता
है--जिसकी
संभावना बढ़ती
जाती है--कि हम
आक्सीजन को भी
बना सकें। जिस
दिन हम बना
सकेंगे, उस
दिन आक्सीजन एलिमेंट
नहीं रहेगी, कंपाउंड हो
जाएगी। उस दिन
आक्सीजन तत्व
नहीं कही जा
सकेगी, संयोग
हो जाएगी।
किसी दिन हम
आक्सीजन को
बना लेंगे इलेक्ट्रान्स
से, न्यूट्रान्स से, और भी
जो अंतिम
विघटन हो सकता
है पदार्थ का,
उससे।
लेकिन इलेक्ट्रान
को फिर हम न
बना सकेंगे।
तत्व
वह है, जिसे
हम न बना
सकेंगे। इस
देश ने तत्व
की परिभाषा की
है, वह
जिसे हम पैदा
न कर सकेंगे
और जिसे हम
नष्ट न कर
सकेंगे। अगर
किसी तत्व को
हम नष्ट कर
लेते हैं, तो
सिर्फ इतना ही
सिद्ध होता है
कि हमने गलती से
उसे तत्व समझा
था; वह
तत्व था नहीं।
अगर किसी तत्व
को हम बना लेते
हैं, तो
उसका मतलब
इतना ही हुआ
कि हम गलती से
उसे तत्व कह
रहे हैं; वह
तत्व है नहीं।
दो
तत्व हैं जगत
में। एक, जो
हमें चारों
तरफ फैला हुआ
जड़ का विस्तार
दिखाई पड़ता है,
मैटर का। वह
एक तत्व है।
और एक जीवन
चैतन्य, जो
इस जगत में
फैले विस्तार
को देखता और
जानता और
अनुभव करता
है। वह एक
तत्व है, चैतन्य,
चेतना। इन
दो तत्वों का
न कोई निर्माण
है और न कोई
विनाश है। न
तो चेतना नष्ट
हो सकती है और
न पदार्थ नष्ट
हो सकता है।
हां, संयोग नष्ट
हो सकते हैं।
मैं मर जाऊंगा,
क्योंकि
मैं सिर्फ एक
संयोग हूं; आत्मा और
शरीर का एक
जोड़ हूं मैं।
मेरे नाम से जो
जाना जाता है,
वह संयोग
है। एक दिन
पैदा हुआ और
एक दिन विसर्जित
हो जाएगा। कोई
छाती में छुरा
भोंक दे, तो
मैं मर जाऊंगा।
आत्मा नहीं
मरेगी, जो
मेरे मैं के
पीछे खड़ी है; और शरीर भी
नहीं मरेगा, जो मेरे मैं
के बाहर खड़ा
है। शरीर
पदार्थ की तरह
मौजूद रहेगा,
आत्मा
चेतना की तरह
मौजूद रहेगी,
लेकिन
दोनों के बीच
का संबंध टूट
जाएगा। वह संबंध
मैं हूं। वह
संबंध मेरा
नाम-रूप है।
वह संबंध
विघटित हो
जाएगा। वह
संबंध
निर्मित हुआ,
विनष्ट हो
जाएगा।
कृष्ण
कहते हैं, चेतना का
कोई विनाश
नहीं है, इसलिए
तू निर्भय हो।
पापी चेतना का
भी कोई विनाश
नहीं है, इसलिए
पुण्यात्मा
चेतना के
विनाश का तो
कोई सवाल नहीं
है। चेतना का
ही विनाश नहीं
है।
अर्जुन
ने पूछा है, कहीं ऐसा तो
न होगा कि
हवाओं के
झोंके में जैसे
कोई छोटी-सी
बदली बिखर जाए
और खो जाए
अनंत आकाश में,
कहीं ऐसा तो
न होगा कि इस
कूल से छूटूं
और वह किनारा
न मिले, और
मैं एक बदली
की तरह बिखरकर
खो जाऊं!
तो
कृष्ण कह रहे
हैं, इस भांति
होना असंभव है,
क्योंकि
चेतना
अविनश्वर है,
तत्व है, वह नष्ट
नहीं होती। तो
पापी की चेतना
भी नष्ट नहीं
होती। नष्ट
होने का उपाय
नहीं है।
विनाश की कोई
संभावना नहीं
है। तो पहली
बात तो वे यह कहते
हैं कि चेतना
ही नष्ट नहीं
होती, न इस
लोक में, न
परलोक में, कहीं भी।
चेतना का कोई
विनाश नहीं
है।
लेकिन
हमें शक पैदा
होगा। हम एक
आदमी को एनेस्थेसिया
का इंजेक्शन
दे देते हैं, वह बेहोश हो
जाता है। एक
आदमी के सिर
पर चोट लग जाती
है, वह
बेहोश होकर
गिर जाता है।
लोग कहते हैं,
उसकी चेतना
चली गई। चेतना
नहीं जाती।
लोग कहते हैं,
अचेतन हो
गया। अचेतन भी
कोई नहीं होता
है। जब बेहोश
होता है कोई, तब फिर, न
तो आत्मा
बेहोश होती है
और न शरीर
बेहोश होता
है। क्योंकि
शरीर तो बेहोश
हो नहीं सकता,
उसके पास
कोई होश नहीं
है। आत्मा
बेहोश नहीं हो
सकती, क्योंकि
वह पूर्ण होश
है। फिर होता
क्या है? जब
एक आदमी के
सिर पर चोट
लगती है और वह
बेहोश पड़ जाता
है, तब
होता क्या है?
तब फिर वही
बीच का संबंध
शिथिल होता
है। शरीर तक
आत्मा से जो
चेतना आती थी,
उसका
प्रवाह
अवरुद्ध हो
जाता है।
समझ
लें कि मैंने
बटन दबा दी है
और बिजली का
बल्ब बुझ गया।
तो क्या आप
कहेंगे, बिजली
बुझ गई? इतना
ही कहिए कि
बिजली के बल्ब
तक वह जो
बिजली की धारा
आती थी, अब
नहीं आती है।
बिजली नहीं
बुझ गई, बल्ब
बुझ गया। बटन
फिर आप आन कर
देते हैं, बल्ब
फिर जल उठता
है। अगर बिजली
बुझ गई होती, तो फिर बल्ब
नहीं जल सकता
था। और अगर
आपका मेन स्विच
भी बस्ती का
आफ हो गया हो, तब भी बल्ब
ही बुझते हैं,
बिजली नहीं
बुझती। और अगर
आपका पूरा का
पूरा बिजलीघर
भी ठप्प होकर
बंद हो गया हो,
तब भी बिजलीघर
ही बंद होता
है, बिजली
नहीं बुझती।
बिजली तो
ऊर्जा है।
ऊर्जा नष्ट
नहीं होती।
भीतर
ऊर्जा है जीवन
की, चेतना
की। शरीर तक
आने के रास्ते
हैं। मन उसका
रास्ता है, जिससे शरीर
तक आती है। जब
सिर पर कोई
डंडा मारता है,
तो आपका मन
बुझ जाता है; बीच का सेतु
टूट जाता है; खबर आनी बंद
हो जाती है।
भीतर आप उतने
ही चेतन होते
हैं, जितने
थे; और
शरीर उतना ही
अचेतन होता है,
जितना सदा
था। सिर्फ
आत्मा से जो
चेतना शरीर में
प्रतिबिंबित
होती थी, वह
प्रतिबिंबित
नहीं होती है।
चेतना
के बुझने का, नष्ट होने
का कोई सवाल
नहीं है। पापी
की चेतना का
भी सवाल नहीं
है। पापी भी
कितना ही पाप
करे और कितना
ही बुरा कर्म
करे और कितना
ही संसार को पकड़े रहे, कुछ भी करे, चेतना नहीं
मिटेगी। हां,
चेतना
विकृत, दुखद,
संतापों से घिर
जाएगी; नर्कों में जीएगी;
पीड़ा में, कष्ट में, गहन से गहन
संताप में
गिरती चली
जाएगी--नष्ट नहीं
होगी। नष्ट
होने का कोई
उपाय नहीं है।
ठीक ऐसे ही, जैसे आप एक
रेत के टुकड़े
को नष्ट नहीं
कर सकते। कोई
उपाय नहीं है।
वैज्ञानिक
कितना काम कर
पा रहे हैं! एटामिक
एनर्जी खोज ली
है, चांद पर
पहुंच सकते
हैं, पांच
मील गहरे
प्रशांत
महासागर में
डुबकी ले सकते
हैं, सब कर
सकते हैं, लेकिन
एक रेत का
छोटा-सा कण
नहीं बना
सकते। नहीं
बना सकते, इसलिए
नहीं कि
वैज्ञानिक
कमजोर हैं।
नहीं बना सकते
हैं इसलिए कि
पदार्थ न तो
निर्माण होता
है, न
विनष्ट होता
है।
वैज्ञानिक
किसी दिन
मनुष्य की
आत्मा भी नहीं
बना सकेंगे।
यद्यपि इस तरफ
काफी काम चलता
है। और रोज
खबरें आती हैं
कि कुछ और खोज
लिया गया, जिससे
संभावना बनती
है कि इस सदी
के पूरे होते-होते
आदमी की आत्मा
को वैज्ञानिक
पैदा कर लेगा।
अभी जो
आदमी का
जेनेटिक, जो
उसका प्रजनन
का मूल कोष्ठ
है, उसको
भी तोड़ लिया
गया। जैसे अणु
तोड़ लिया गया और
परमाणु की
शक्ति उपलब्ध
हुई, वैसे
ही अब मनुष्य
के जीवकोष्ठ
को भी तोड़
लिया गया है, और उस जीवकोष्ठ
का भी मूल
रासायनिक
रहस्य समझ में
आ गया है। और
अब इस बात की
पूरी संभावना
है कि हम आज
नहीं कल
प्रयोगशाला
में मनुष्य के
शरीर को जन्म
दे सकेंगे।
अभी एक
वैज्ञानिक
पत्रिका में, जो मनुष्य
के जीवन के
संबंध में ही
समस्त शोध छापती
है, एक
बहुत बड़ा
कार्टून छापा
है। वह
कार्टून मुझे
बहुत
प्रीतिकर
लगा। इस सदी
के पूरे होने
के समय का कार्टून
है। दो हजारवां
वर्ष आ गया
है। एक लड़का
एक
प्रयोगशाला
के पास से
गुजर रहा है, उस
प्रयोगशाला
के पास से, जिसके
टेस्ट-टयूब
में वह पैदा
हुआ था।
टेस्ट-टयूब
प्रयोगशाला
के दरवाजे से
दिखाई पड़ रही
है। वह लड़का
रास्ते से
कहता है, डैडी!
नमस्कार! मैं
स्कूल जा रहा
हूं।
दो हजारवें
वर्ष में इस
बात की
करीब-करीब
संभावना है--
शायद दस साल
और पहले यह
घटित हो
जाएगा--कि हम
बच्चे के शरीर
को
प्रयोगशाला
की परखनली
में पैदा कर
लेंगे। तब जो
साधारण
बुद्धि के आत्मवादी
हैं, बड़ी
मुश्किल
में--अभी पड़ गए
हैं वे
मुश्किल में--बड़ी
मुश्किल में
पड़ जाएंगे।
अगर किसी दिन
प्रयोगशाला
में आदमी का
शरीर पैदा हो
गया, तो
फिर आत्मा का
क्या होगा? और अगर वह
आदमी हमारे ही
जैसा आदमी हुआ,
और
वैज्ञानिक
कहते हैं, हम
से बेहतर होगा,
क्योंकि वह
ठीक से कल्टिवेटेड
होगा। हमारी
पैदाइश तो
बिलकुल ही
अवैज्ञानिक
है। उसमें कोई
नियम और गणित
और कोई
व्यवस्था तो
नहीं है। उसमें
सारी
व्यवस्था
होगी।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
वह जो शरीर हम
निर्मित करेंगे, हम जानेंगे
कि इसे कितने
वर्ष की
जिंदगी देनी है।
सौ वर्ष की? तो वह ठीक सौ
वर्ष की
गारंटी का
सर्टिफिकेट
लेकर पैदा
होगा।
क्योंकि हम
उतना रासायनिक
तत्व उसमें
डालेंगे, जो
सौ वर्ष तक
स्वस्थ रह
सके। अगर हम
चाहते हैं कि
वह आइंस्टीन
जैसा
बुद्धिमान हो,
तो बुद्धि
के तत्व की
उतनी ही
मात्रा उसमें
होगी। अगर हम
चाहते हैं कि
वह मजदूर का
काम करे, तो
उस तरह की मसल्स
उसमें होंगी।
अगर हम चाहते
हैं कि वह संगीतज्ञ
का काम करे, तो उसके गले
और उसकी आवाज
का सारा
रासायनिक क्रम
वैसा होगा।
और फिर
वे यह भी कहते
हैं कि हम हर
बच्चे को बनाते
वक्त उसकी एक डुप्लीकेट
कापी भी बना
लेंगे।
क्योंकि कभी
भी जिंदगी में
किसी की किडनी
खराब हो गई, तो उसको
बदलने की
दिक्कत पड़ती
है। तो उस डुप्लीकेट
कापी से उसकी
किडनी
निकालकर बदल
देंगे। किसी की
आंख खराब हो
गई! तो एक डुप्लीकेट
कापी उस शरीर
की जिंदा, प्रयोगशाला
में रखी
रहेगी। डीप
फ्रीज, काफी
गहरी ठंडक में
रखी रहेगी, कि सड़ न
जाए। और जब भी
आपमें कोई
गड़बड़ होगी, तो पार्ट्स
बदले जा
सकेंगे।
उनका कहना
है कि जब एक
दफे हमें
सूत्र मिल गया, तो हम एक
जैसे हजार
शरीर भी पैदा
कर सकते हैं, कोई कठिनाई
नहीं है। फिर
क्या होगा! आत्मवादियों
का क्या होगा?
जिन्हें
आत्मा का कोई
पता नहीं है, ऐसे बहुत-से
आत्मवादी
हैं। सच तो यह
है कि आत्मवादियों
में बहुत-से
ऐसे हैं, जिन्हें
आत्मा का कोई
पता नहीं। वे
ऐसी बातें सुनकर
बड़े बेचैन हो
जाते हैं।
उनका एक ही
उत्तर होता कि
यह कभी हो
नहीं सकता।
मैं उनसे कहता
हूं, वे
समझ लें, यह
होगा। और आपके
कहने से कि यह
कभी हो नहीं
सकता, सिर्फ
इतना ही पता
चलता है कि
आपको कुछ पता
नहीं है। यह
होगा। पर बड़ी घबड़ाहट
होती है कि
अगर यह हो
जाएगा, तो
फिर आत्मा का
क्या हुआ?
मैं
आपसे कहता हूं, इससे आत्मा
पर कोई आंच
नहीं आती है।
इससे सिर्फ
इतना ही सिद्ध
होता है कि
मां-बाप के
शरीर जो काम
करते थे गर्भ
में शरीर के
निर्माण करने
का, वह
वैज्ञानिक
प्रयोगशाला
में वैज्ञानिक
कर देंगे।
आत्मा जैसे
मां-बाप के
गर्भ में
प्रवेश करती
थी, वैसे
ही वैज्ञानिक
प्रयोगशाला
के शरीर में प्रवेश
करेगी। इससे
आत्मा का कोई
संबंध नहीं है।
इससे कुछ भी
सिद्ध नहीं
होता।
आज से
हजार साल पहले
हम बिजली नहीं
जला सकते थे; हमारे पास
पंखे नहीं थे,
बल्ब नहीं
थे। लेकिन
आकाश में तो
बिजली चमकती
थी। आकाश में
बिजली चमकती
थी। बिजली सदा
से थी। आज
हमने बल्ब जला
लिए, तो
क्या हम सोचते
हैं, जो
बिजली हमारे बल्बों
में चमक रही
है, वह कोई
दूसरी है? वह
वही है, जो
आकाश में
चमकती थी।
हमने अभी भी
बिजली नहीं
बनाई है! अभी
भी हमने बिजली
को प्रकट करने
के उपाय ही
बनाए हैं।
बिजली हम कभी
न बना सकेंगे।
सिर्फ
जहां-जहां
बिजली अप्रकट
है, वहां
से हम प्रकट
होने के उपाय
खोज लेते हैं।
अगर
किसी दिन हमने
आदमी का शरीर
बना लिया, जो कि बना ही
लिया जाएगा, तो उस दिन भी
हम आदमी को
नहीं बना रहे
हैं, सिर्फ
शरीर को बना
रहे हैं। और
जिस तरह
आत्माएं गर्भ
के शरीर में
प्रवेश करती
रही हैं, वे
आत्माएं
मनुष्य
द्वारा
निर्मित शरीर
में भी प्रवेश
कर पाएंगी।
इसमें कोई
अड़चन नहीं है,
इसमें कोई
कठिनाई भी
नहीं है। शरीर
विज्ञान से
निर्मित हुआ
कि प्रकृति से
निर्मित हुआ,
कोई भेद
नहीं पड़ता।
आत्मा अप्रकट
चेतना है। प्रकट
होने का
माध्यम मिल
जाए, आत्मा
प्रकट हो जाती
है।
लेकिन
न तो चेतना का
कोई निर्माण
हो सकता है और
न कोई विनाश
हो सकता है।
जब आप किसी की
छाती में छुरा
भोंकते हैं, तब भी आत्मा
नहीं मरती। और
जिस दिन
प्रयोगशाला
की लेबोरेटरी
में हम परखनली
में आदमी का
शरीर बना
लेंगे, उस
दिन भी आत्मा
नहीं बनती।
कृष्ण
को पता नहीं
था, तो
उन्होंने
इतना ही कहा, नैनं छिंदन्ति
शस्त्राणि।
उन्होंने कहा
कि शस्त्र छेद
देने से आत्मा
नहीं मरती है।
अब अगर गीता
फिर से लिखनी
पड़े, तो
उसमें यह भी
जोड़ देना
चाहिए कि परखनली
में शरीर
बनाने से
आत्मा नहीं
बनती है।
दोनों एक ही
चीज के दो छोर
हैं। एक ही
तर्क के दो
छोर हैं। न तो
मारने से मरती
है आत्मा, और
न शरीर को
बनाने से बनती
है आत्मा।
यह जो
अनिर्मित, अजन्मी, अजात,
अमृत आत्मा
है, कृष्ण
कहते हैं, इसका
कभी कोई विनाश
नहीं है
अर्जुन। यह तो
वे एक सामान्य
सत्य कहते
हैं। पापी की
आत्मा का भी
कोई विनाश नहीं
है।
दूसरी
बात वे कहते
हैं, लेकिन
जिसने शुभ
कर्म किए!
ध्यान
रहे, अर्जुन
ने पूछा है कि
मैं कोशिश भी
करूं और सफल न
हो पाऊं, श्रद्धायुक्त
कोशिश करूं और
असफल हो जाऊं,
क्योंकि
मैं मेरे मन
को जानता हूं;
कितनी ही
श्रद्धा से
करूं, मन
की चंचलता
नहीं जाती है।
श्रद्धा से
भरा हुआ असफल
हो जाए मेरा
कर्म, तो
मैं बिखर तो न जाऊंगा
बादलों की
भांति! मेरी
नाव डूब तो न
जाएगी किनारे
को खोकर, दूसरे
किनारे को
बिना पाए!
कृष्ण
कहते हैं, शुभ कर्म
जिसने किया!
जरूरी
नहीं कि शुभ
कर्म सफल हुआ
हो। किए की बात
कर रहे हैं, इसको ठीक से
समझ लेना आप।
शुभ कर्म
जिसने किया--जरूरी
नहीं कि सफल
हो--ऐसे
व्यक्ति की
कोई दुर्गति
नहीं है।
सफलता की बात
नहीं है।
एक
आदमी ने शुभ
कर्म करना
चाहा, एक
आदमी ने शुभ
कर्म करने की
कोशिश की, एक
आदमी ने शुभ
की कामना की, एक आदमी के
मन में शुभ का
बीज अंकुरित
हुआ, कोई
हर्जा नहीं कि
अंकुर न बना, कोई हर्जा
नहीं कि वृक्ष
न बना, कोई
हर्जा नहीं कि
फल कभी न आए, फूल कभी भी न
लगे। लेकिन
जिस आदमी ने
शुभ का बीज भी
बोया, अनअंकुरित,
अंकुर भी न
उठा हो, उस
आदमी के भी
जीवन में कभी
दुर्गति नहीं
होती है।
कृष्ण
बहुत अदभुत
बात कह रहे
हैं। शुभ कर्म
सफल हो, तब
तो दुर्गति
होती ही नहीं
अर्जुन, लेकिन
तू जैसा कहता
है, अगर
ऐसा भी हो जाए,
कि तू शुभ
की यात्रा पर
निकले और तेरा
मन साथ न दे; तेरी
श्रद्धा तो हो,
लेकिन तेरी
शक्ति साथ न
दे; तेरा
भाव तो हो, लेकिन
तेरे संस्कार
साथ न दें; तू
चाहता तो हो
कि दूसरे
किनारे पर
पहुंच जाऊं, लेकिन तेरी
पतवार कमजोर
हो; तेरी
आकांक्षा तो
दृढ़ हो कि
निकल जाऊं उस
पार, लेकिन
तेरी नाव ही
छिद्र वाली हो
और तू बीच में
डूब भी जाए; तो भी मैं
तुझसे कहता
हूं कि शुभ
कर्म जिसने
किया, उसकी
दुर्गति कभी
नहीं होती है।
शुभ
कर्म जिसका
सफल हो जाए, उसकी तो
दुर्गति का
सवाल ही नहीं
है। लेकिन शुभ
कर्म जिसका
सफल भी न हो
पाए, उसकी
भी दुर्गति
नहीं होती।
इससे दूसरी
बात भी आपको
कह दूं, तो
जल्दी खयाल
में आ जाएगा।
अशुभ
कर्म जिसने
किया, सफल न
भी हो पाए, तो
भी दुर्गति हो
जाती है।
मैंने आपकी
हत्या करनी
चाही, और
नहीं कर पाया,
तो भी
दुर्गति हो
जाती है। नहीं
कर पाया, इसका
यह मतलब नहीं
कि मैंने आपकी
गर्दन दबाई और
न दब पाई।
नहीं, आपकी
गर्दन तक भी
नहीं पहुंच
पाया, तो
भी दुर्गति हो
जाती है। नहीं
कर पाया, इसका
यह मतलब नहीं
कि मैंने आपसे
कहा कि हत्या
कर दूंगा, और
नहीं की। नहीं,
मैं आपसे कह
भी नहीं पाया,
तो भी
दुर्गति हो
जाती है। भीतर
उठा विचार भी अशुभ
का दुर्गति की
यात्रा पर
पहुंचा देता
है। बीज बो
दिया गया।
गलत
विचार भी काफी
है दुर्गति के
लिए। सही
विचार भी काफी
है दुर्गति से
बचने के लिए।
क्यों? क्योंकि
अंततः हमारा
विचार ही
हमारे जीवन का
फल बन जाता
है। फल कहीं
बाहर से नहीं
आते। हमारे ही
भीतर उनकी ग्रोथ,
उनका विकास
होता है।
बुद्ध
ने धम्मपद में
कहा है कि तुम
जो हो, वह
तुम्हारे
विचारों का फल
हो। अगर दुखी
हो, तो
अपने विचारों
में तलाशना, तुम्हें वे
बीज मिल
जाएंगे, जिन्होंने
दुख के फल
लाए। अगर
पीड़ित हो, तो
खोजना; तुम्हीं
अपने हाथों को
पाओगे, जिन्होंने
पीड़ा के बीज
बोए। अगर
अंधकार ही अंधकार
है तुम्हारे
जीवन में, तो
तलाश करना; तुम पाओगे
कि तुम्हीं ने
इस अंधकार का
बड़ी मेहनत से
निर्माण किया।
हम अपने नर्कों
का निर्माण
बड़ी मेहनत से
करते हैं!
दोनों ही बातें
सोच लेना।
बुरा
कर्म असफल भी
हो जाए, तो
भी बुरा फल
मिलता है।
कहेंगे आप, फिर उसको
असफल क्यों
कहते हैं?
बुरा
कर्म असफल भी
हो जाए, पूरा
न हो पाए, घटित
न हो पाए, वस्तु
के जगत में न आ
पाए, घटना
के जगत में
उसकी कोई
प्रतिध्वनि न
हो पाए, सिर्फ
आपमें ही खो
जाए, सिर्फ
स्वप्न बनकर
ही शून्य हो
जाए, तो भी,
तो भी फल
हाथ आता
है--दुखों का, पीड़ाओं का, कष्टों
का। दुर्गति
हो जाती है।
अच्छे कर्म का
खयाल सफल न भी
हो पाए...।
बुद्ध
एक कथा कहा
करते थे। एक
व्यक्ति आया।
राजकुमार था।
बुद्ध से उसने
दीक्षा ली।
और
बुद्ध के समय
दीक्षा ने जो
शान देखी
दुनिया में, वह फिर
पृथ्वी पर
दुबारा नहीं
हो सकी। बुद्ध
और महावीर के
वक्त बिहार ने
जो स्वर्णयुग
देखा संन्यास
का, वह
पृथ्वी पर फिर
कभी नहीं हुआ।
उसके पहले भी
कभी नहीं हुआ
था।
अदभुत
दिन रहे
होंगे। बुद्ध
चलते थे, तो
पचास हजार
संन्यासी
बुद्ध के साथ
चलते थे। जिस
गांव में
बुद्ध ठहर
जाते थे, उस
गांव की हवाओं
का रुख बदल
जाता था! पचास
हजार
संन्यासी जिस
गांव में ठहर
जाएं, उस
गांव में बुरे
कर्म होने बंद
हो जाते थे, कठिन हो
जाते थे, मुश्किल
हो जाते थे।
इतने शुभ
धारणाओं से
भरे हुए लोग!
कथाएं
कहती हैं कि
बुद्ध जहां से
निकल जाएं, वहां
चोरियां बंद
हो जातीं, वहां
हत्याएं
कम हो जातीं।
आज तो कथा
लगती है बात, लेकिन मैं
कहता हूं कि
ऐसा हो जाता
है। क्योंकि हत्याएं
करता कौन है? आदमी करता
है। आदमी है
क्या सिवाय
विचारों के जोड़
के! और बुद्ध
जैसी कौंध
बिजली की पास
से गुजर जाए, तो आप वही के
वही रह सकते
हैं जो थे? आप
नहीं रह सकते
हैं वही के
वही। इतनी
बिजली कौंध
जाए अंधेरे
में, तो
फिर आप वही
नहीं रह जाते,
जो आप थे।
थोड़ी
भी झलक मिल
जाती है
रास्ते की, तो आदमी
सम्हलकर चलता
है। अंधेरी
रात है अमावस
की, और
बिजली चमक गई
एक क्षण को, फिर घुप्प
अंधेरा हो गया,
तो भी फिर
आप उतनी ही
भूल-चूक से
नहीं चलते, जितना पहले
चल रहे थे।
अंधेरा फिर
उतना ही है, लेकिन एक
झलक मिल गई
मार्ग की।
बुद्ध
जैसा आदमी पास
से गुजरे, तो बिजली
कौंध जाती है।
और जिस गांव
में पचास हजार
भिक्षु और
संन्यासी...।
महावीर के साथ
भी पचास हजार
भिक्षु और
संन्यासी
चलते। और दोनों
करीब-करीब
समसामयिक थे।
पूरा बिहार
संन्यास से भर
गया। उसको नाम
ही बिहार
इसलिए मिल गया।
बिहार का मतलब
है, भिक्षुओं
का विहार-पथ।
जहां
संन्यासी
गुजरते हैं, ऐसी जगह।
जहां
संन्यासी
गुजरते हैं, ऐसे रास्ते।
जहां
संन्यासी
विचरते हैं, ऐसा स्थान।
इसलिए तो उसका
नाम बिहार हो
गया।
बुद्ध
एक गांव में
ठहरे हैं। उस
गांव के सम्राट
के बेटे ने
आकर दीक्षा
ली। उस सम्राट
के लड़के से
कभी किसी ने न
सोचा था कि वह
दीक्षा लेगा।
लंपट था, निरा
लंपट था।
बुद्ध के
भिक्षु भी
चकित हुए। बुद्ध
के भिक्षुओं
ने कहा, इस
निरा लंपट ने
दीक्षा ले ली?
इस आदमी से
कोई आशा नहीं
करता था। यह
हत्या कर सकता
है, मान
सकते हैं। यह
डाका डाल सकता
है, मान
सकते हैं। यह
किसी की
स्त्री को
उठाकर ले जा
सकता है, मान
सकते हैं। यह
संन्यास लेगा,
यह कोई सपना
नहीं देख सकता
था! इसने ऐसा
क्यों किया? बुद्ध से
लोग पूछने
लगे।
बुद्ध
ने कहा, मैं
तुम्हें इसके
पुराने जन्म
की कथा कहूं।
एक छोटी-सी
घटना ने आज के
इसके संन्यास
को निर्मित
किया
है--छोटी-सी
घटना ने।
उन्होंने
पूछा, कौन-सी
है वह कथा? तो
बुद्ध ने
कहा...।
और
बुद्ध और
महावीर ने उस
साइंस का
विकास किया
पृथ्वी पर, जिससे लोगों
के दूसरे
जन्मों में झांका जा
सकता है; किताब
की तरह पढ़ा जा
सकता है।
तो
बुद्ध ने कहा
कि यह व्यक्ति
पिछले जन्म
में हाथी था, आदमी नहीं
था। और तब
पहली दफा
लोगों को खयाल
आया कि इसकी
चाल-ढाल देखकर
कई दफा हमें
ऐसा लगता था
कि जैसे हाथी
की चाल चलता
है। अभी भी, इस जन्म में
भी उसकी
चाल-ढाल, उसका
ढंग एक शानदार
हाथी का, मदमस्त
हाथी का ढंग
था।
बुद्ध
ने कहा, यह
हाथी था पिछले
जन्म में। और
जिस जंगल में
रहता था, हाथियों
का राजा था।
तो जंगल में
आग लगी। गर्मी
के दिन थे, भयंकर
आग लगी आधी
रात को। सारे
जंगल के
पशु-पक्षी
भागने लगे, यह भी भागा।
यह एक वृक्ष
के नीचे
विश्राम करने
को एक क्षण को
रुका। भागने
के लिए एक पैर
ऊपर उठाया, तभी एक छोटा-सा
खरगोश वृक्ष
के पीछे से
निकला और इसके
पैर के नीचे
की जमीन पर
आकर बैठ गया।
एक ही पैर ऊपर
उठा, हाथी
ने नीचे देखा,
और उसे लगा
कि अगर मैं
पैर नीचे रखूं,
तो यह खरगोश
मर जाएगा। यह
हाथी खड़ा-खड़ा
आग में जलकर
मर गया। बस, उस जीवन में
इसने इतना-सा
ही एक
महत्वपूर्ण
काम किया था, उसका फल आज
इसका संन्यास
है।
रात वह
राजकुमार
सोया। जहां
पचास हजार
भिक्षु सोए
हों, वहां
अड़चन और
कठिनाई
स्वाभाविक
है। फिर वह बहुत
पीछे से
दीक्षा लिया
था, उससे
बुजुर्ग
संन्यासी थे।
जो बहुत
बुजुर्ग थे, वे भवन के
भीतर सोए। जो
और कम बुजुर्ग
थे, वे भवन
के बाहर सोए।
जो और कम
बुजुर्ग थे, वे रास्ते
पर सोए। जो और
कम बुजुर्ग थे,
वे और मैदान
में सोए। उसको
तो बिलकुल
आखिर में, जो
गली राजपथ से
जोड़ती थी
बुद्ध के
विहार तक, उसमें
सोने को मिला।
रात भर! कोई
भिक्षु गुजरा,
उसकी नींद
टूट गई। कोई
कुत्ता भौंका,
उसकी नींद
टूट गई। कोई
मच्छर काटा, उसकी नींद
टूट गई। रातभर
वह परेशान
रहा। उसने सोचा
कि सुबह मैं
इस दीक्षा का
त्याग करूं।
यह कोई अपने
काम की बात
नहीं।
सुबह
वह बुद्ध के
पास जाकर, हाथ जोड़कर
खड़ा हुआ।
बुद्ध ने कहा,
मालूम है
मुझे कि तुम किसलिए आए
हो। उसने कहा
कि आपको नहीं
मालूम होगा कि
मैं किसलिए
आया हूं। मैं
कोई साधना की
पद्धति पूछने
नहीं आया।
क्योंकि कल
मैंने दीक्षा
ली, आज
मुझे साधना की
पद्धति पूछनी
थी; उसके
लिए मैं नहीं
आया। बुद्ध ने
कहा, वह
मैं तुझसे कुछ
नहीं पूछता।
मुझे मालूम है,
तू किसलिए
आया। सिर्फ
मैं तुझे इतनी
याद दिलाना
चाहता हूं कि
हाथी होकर भी
तूने जितना
धैर्य दिखाया,
क्या आदमी
होकर उतना
धैर्य न दिखा
सकेगा?
उस
आदमी की आंखें
बंद हो गईं।
उसको कुछ समझ
में न आया कि
हाथी होकर
इतना धैर्य
दिखाया! यह बुद्ध
क्या कहते हैं, पागल जैसी
बात! उसकी आंख
बंद हो गई।
लेकिन
बुद्ध का यह
कहना, जैसे
उसके भीतर
स्मृति का एक
द्वार खुल
गया। आंख उसकी
बंद हो गई।
उसने देखा कि
वह एक हाथी है।
एक घने जंगल
में आग लगी
है। एक वृक्ष
के नीचे वह
खड़ा है। एक
खरगोश उसके
पैर के नीचे
आकर बैठ गया।
इस डर से वह
भागा नहीं कि
मेरा पैर नीचे
पड़े, तो
खरगोश मर जाए।
और जब मैं
भागकर बचना
चाहता हूं, तो जैसा मैं
बचना चाहता
हूं, वैसा
ही खरगोश भी
बचना चाहता
है। और खरगोश
यह सोचकर मेरे
पैर के नीचे
बैठा है कि
शरण मिल गई।
तो इस भोले से
खरगोश को धोखा
देकर भागना
उचित नहीं। तो
मैं जल गया।
उसने
आंख खोली, उसने कहा कि
माफ कर देना, भूल हो गई।
रात और भी कोई
कठिन जगह हो
सोने की, तो
मुझे दे देना।
अब मैं याद रख
सकूंगा। उतना छोटा-सा,
उतना
छोटा-सा काम, क्या मेरे
जीवन में इतनी
बड़ी घटना बन
सकता है?
सब
छोटे बीज बड़े
वृक्ष हो जाते
हैं। चाहे वे
बुरे बीज हों, चाहे वे भले
बीज हों, सब
बड़े वृक्ष हो
जाते हैं--सब
बड़े वृक्ष हो
जाते हैं।
हमें
चूंकि कोई पता
नहीं होता कि
जीवन किस प्रक्रिया
से चलता है, इसलिए
कठिनाई होती
है। हमें कोई
पता नहीं होता
कि किस
प्रक्रिया से
चलता है।
अभी
यहां एक घटना
घटी। एक मित्र
और उनकी पत्नी
संन्यास लेना
चाहते थे। वे
काफी सोच-विचार
में पड़े हैं।
घर में बातचीत
चलती थी, उनके
दामाद ने सुन
ली। वे अभी
सोच ही रहे
हैं, दामाद
आकर संन्यास
ले गया! उससे
मैंने पूछा कि
तूने कब सोचा?
उसने कहा, मैंने सोचा
नहीं। मेरे
सास और ससुर
बात करते हैं
तीन दिन से कि
संन्यास लेना
है। आपसे मिल
भी गए हैं।
सोच-विचार
चलता है। मैं
उनकी
सुन-सुनकर, न मालूम
क्या हुआ मुझे
कि मैं चलकर
ले लूं। वह आकर
संन्यास ले भी
गया! अभी
सास-ससुर
सोचते ही हैं!
क्या
हुआ? और फिर इस
व्यक्ति का
मुझसे कोई
ज्यादा संबंध नहीं।
फिर इस
व्यक्ति की
मेरे विचारों
से ज्यादा
पहचान नहीं।
इसके सास-ससुर
ही मुझसे
ज्यादा
परिचित और
मेरे विचारों
के ज्यादा
निकट हैं।
इसको क्या हुआ?
यह संन्यास
का फूल इसकी
जिंदगी में
अचानक कैसे
खिल गया?
यह बीज
पिछले जन्मों
का है। यह
कहीं पड़ा रहता
है, चुपचाप
प्रतीक्षा
करता है। जैसे
बीज गिर जाता
है, फिर
वर्षा की
प्रतीक्षा
करता है।
महीनों बीत
जाते हैं धूल
में, धंवास में उड़ते, हवाओं की
ठोकरें खाते,
फिर वर्षा
की प्रतीक्षा
चलती है। फिर
कभी वर्षा आती
है। शायद इन
आठ महीनों में
बीज भी भूल गया
होगा कि मैं
कौन हूं। बीज
को पता भी
कैसे होगा कि
मेरे भीतर
क्या पैदा हो
सकता है। फिर
वर्षा आती है,
बीज जमीन
में दब जाता
है और टूटकर
अंकुर हो जाता
है, तभी
बीज को पता
चलता है। बीज
भी चौंकता
होगा; चौंककर कहता होगा
कि मैं
सूखा-साखा सा,
मुझमें
इतनी हरियाली
छिपी थी! मैं
सूखा-साखा सा,
कंकड़-पत्थर
मालूम पड़ता था
देखने पर, मुझमें
ऐसे-ऐसे फूल
छिपे थे! बीज
को भी भरोसा न
आता होगा।
हम भी
सब बीज हैं और
लंबी
यात्राओं के
बीज हैं।
तो
कृष्ण कहते
हैं, शुभ का
इरादा भी, शुभ
कर्म की
श्रद्धा भी, दुर्गति में
नहीं ले जाती
है, कभी
नहीं ले जाती
है। सिर्फ
श्रद्धा भी!
जरूरी नहीं कि
एक आदमी ने
अच्छा काम
किया हो; इतना
भी काफी है कि
सोचा हो; इतना
भी काफी है कि
कोई सोचता हो,
तो उसे
सहयोग दिया
हो। इतना भी
काफी है कि
कोई कर रहा हो,
तो प्रशंसा
से उसकी तरफ
देखा हो, तो
भी वह आदमी
दुर्गति को
प्राप्त नहीं
होता है।
महावीर
जब किसी को
दीक्षा देते
थे, तो कुछ
बातें
कहलवाते थे।
वे कहते थे कि
तुम आश्वासन
दो कि बुरा
कर्म नहीं
करोगे। वे
कहते थे, तुम
आश्वासन दो कि
कोई बुरा कर्म
करता होगा, तो तुम उसे
प्रोत्साहन
नहीं दोगे।
आश्वासन दो कि
कोई बुरा कर्म
करता होगा, तो तुम उसकी
तरफ प्रशंसा
से देखोगे
भी नहीं।
वह
आदमी पूछता, मैं बुरा
कर्म नहीं
करूंगा।
लेकिन ये दूसरी
बातें क्या
हैं, कि
मैं
प्रोत्साहन
भी न दूंगा! कि
मैं प्रशंसा
से देखूंगा भी
नहीं!
एक
आदमी रास्ते
पर किसी को
पीट रहा है।
आप नहीं पीट
रहे; आपका कोई
संबंध नहीं।
आप सिर्फ
रास्ते से गुजरते
हैं। लेकिन
आपकी आंख की
एक झलक उस
पीटने वाले को
कह जाती है कि
मेरी पीठ
थपथपाई गई। बस,
पाप हो गया,
बीज बो दिया
गया।
ठीक
महावीर ऐसे ही
कहते थे, अच्छा
कर्म करना।
कोई अच्छा
कर्म करता हो,
तो
प्रोत्साहन
देना। कोई
अच्छा कर्म
करता हो, कुछ
न बन सके, तो
अपनी आंख से, अपने इशारे
से सहारा
देना।
लेकिन
एक आदमी को
संन्यास लेना
हो, तो आप सब
मिलकर क्या
करेंगे? आप
कहेंगे, क्या
कर रहे हो!
पागल हो गए हो?
बुद्धि
ठिकाने है? आपको पता
नहीं कि वह
आदमी तो
संन्यास की
भावना करके भी
न भी ले पाए, तो भी सदगति
की व्यवस्था
कर रहा है। और
आप अकारण, आप
कोई न थे बीच
में, आप कह
रहे हैं, पागल
हो गए हो? दिमाग
खराब हो गया? बुद्धि खो
दी? आपको
पता भी नहीं
है कि आप
व्यर्थ ही बीज
बो रहे हो, जो
आपको भटकाने
का कारण हो
जाएंगे।
लेकिन
हमें खयाल ही
नहीं होता कि
हम क्या कर रहे
हैं! हमें
खयाल ही नहीं
होता।
एक
मित्र
संन्यास लेना
चाहते हैं।
रातभर रोते
रहे हैं कल
पत्नी के
चरणों में
बैठकर। लेकिन
पत्नी सख्त
है। वह कहती
है कि मर जाओ, वह बेहतर।
सास कहती है, मर जाओ, वह
बेहतर। शराब
पीने लगो, जुआ
खेलो, कुछ
भी करो--चलेगा;
संन्यास का
नाम मत लेना।
और इस संन्यास
में न वे घर
छोड़कर जा रहे
हैं, न वे
पत्नी को
छोड़कर जा रहे
हैं, न वे
बच्चों को
छोड़कर जा रहे
हैं। सिर्फ
संन्यास के
भाव को ही तो ले
रहे हैं, और
क्या कर रहे
हैं? कोई
जंगल नहीं जा
रहे हैं, कोई
पहाड़ नहीं जा
रहे हैं। किसी
को छोड़ नहीं रहे,
किसी को
नंगा नहीं छोड़
रहे, भूखा
नहीं छोड़ रहे;
काम-धंधा
करेंगे।
पुराने
संन्यास से
नया संन्यास
कठिन है। क्योंकि
संन्यासी भी
हो जाएंगे; पति भी
होंगे, पिता
भी होंगे, सारी
जिम्मेवारी
होगी, सारा
दायित्व
होगा। कोई
दायित्व
तोड़ना नहीं है।
क्योंकि मैं
मानता हूं, वह भी हिंसा
है। क्योंकि
मैं मानता हूं,
किसी को बीच
में छोड़कर
जाना, वह
भी दुख देना
है। उतना भी
क्यों देना? उसको खेल
समझकर पूरा कर
देना कि ठीक
है। उसको नाटक
समझकर पूरा कर
देना।
संन्यास को
भीतर साधते चले
जाना, संसार
को बाहर पूरा
कर देना।
लेकिन
पत्नी कहती है, और कुछ भी कर
लो, चलेगा।
यह नहीं चल
सकता। क्या, मामला क्या
है? हमें
पता ही नहीं
कि वह व्यक्ति
तो रातभर रोकर
उतना फायदा ले
लिया, जितना
कि संन्यासी
को मिलना
चाहिए। लेकिन
इस पत्नी ने
क्या किया? इसका तो कुछ
लेना-देना न
था! इसने
करीब-करीब एक संन्यासी
की हत्या से
जो भी पुण्य
मिल सकता है--पुण्य
कह रहा हूं, ताकि पत्नी
नाराज न हो
जाए। यहीं
कहीं मौजूद होगी!
उसने नाहक
पुण्य बटोर
लिया। जमाने
बदले। वक्त
बहुत अदभुत थे
कभी। महावीर
का एक संस्मरण
आपसे कहूं।
एक
युवक बैठा है
स्नानगृह
में। उसकी
पत्नी उबटन
लगाती है।
उबटन लगाते
वक्त, स्नान
करवाते वक्त,
अपने पति को
वह कहती है कि
मेरे भाई ने
संन्यास लेने
का विचार किया
है। वह पति
पूछता है, कब
लेगा
तुम्हारा भाई
संन्यास? उसकी
पत्नी कहती है,
एक महीने
बाद का तय
किया है। वह
पति ऐसे ही
मजाक में
पूछता है कि
एक महीना जीएगा,
पक्का है? पत्नी कहती
है, किस
तरह की अपशकुन
की बातें
बोलते हो अपने
मुंह से! यह
शोभा नहीं
देता। ऐसा
सोचते ही
क्यों हो? उसने
कहा, सोचता
नहीं हूं, लेकिन
एक महीना जीएगा,
यह पक्का है?
ये ढंग
संन्यास लेने
के नहीं हैं।
क्योंकि जो आदमी
स्थगित करता
है, उसके
भीतर वह जो
संन्यास-विरोधी
कर्मों का भार
है, भारी
है।
वह
युवक ऐसे ही
कह रहा है। तो
उसकी पत्नी ने
सिर्फ मजाक
में और
व्यंग्य में
कहा कि अगर
तुमको
संन्यास लेना
हो, तो क्या
करोगे? आधी
उबटन लगी थी
शरीर पर, आधी
धुल गई थी। वह
युवक नग्न था,
खड़ा हो गया।
पत्नी ने कहा,
कहां जाते
हो? उसने
दरवाजा खोला।
पत्नी ने कहा,
कहां
निकलते हो? लोग क्या
कहेंगे? नग्न
हो तुम! वह
दरवाजे के
बाहर हो गया।
पत्नी ने कहा,
तुम्हारा
दिमाग तो ठीक
है न! पर उसने
कहा, मैंने
संन्यास ले
लिया। बात खतम
हो गई।
महावीर
उसकी कथा
जगह-जगह कहते
थे।
उसने
कहा कि
संन्यास भी
कहीं पोस्टपोन
किया जाता है!
कल लेंगे? अगर जो आदमी
मौत को पोस्टपोन
कर सकता हो, उसको
संन्यास पोस्टपोन
करने का हक है;
बाकी किसी
को हक नहीं
है।
कृष्ण
कहते हैं, सदभाव भी! करने की
कामना भी!
अभी
बंबई में एक
वृद्ध महिला
को संन्यास
लेना था। एक
दिन पहले मरने
के वह मुझसे
मिलकर गई और उसने
कहा कि अगले
जन्मदिन पर
मैं ले लूं, तो हर्ज तो
नहीं? मैंने
कहा, मुझे
कोई हर्ज
नहीं। पर मेरा
क्या पक्का कि
मैं बचूंगा।
उससे मैंने
नहीं कहा; वह
नाराज हो जाए!
उसने कहा कि
नहीं-नहीं, ऐसी आप
क्यों बात
करते हैं! आप
तो जरूर
बचेंगे।
मैंने कहा, समझ लो कि
मैं बच भी गया,
लेकिन तुम बचोगी, इसका
कोई पक्का? उसने कहा, अभी हुआ ही
क्या है! अभी
मेरी सत्तर
साल की ही तो
उम्र है।
सत्तर की तो
मेरी उम्र ही
है, उसने
कहा। अभी तो
मैं सब तरह से
स्वस्थ हूं!
मैंने कहा, मान लो यह भी
हुआ कि तुम भी
बच गईं, मैं
भी बच गया, लेकिन
तुम संन्यास लोगी ही सालभर बाद,
तुम्हारा
मन संन्यास
लेने का रहेगा,
इसका कुछ
पक्का? उसने
कहा, क्यों
नहीं रहेगा? मैंने कहा, मान लो
तुम्हारा भी
रहा, मेरा
देने का न रहा,
तो तुम क्या
करोगी? उसने
कहा, आप भी
कहां की बातें
करते हैं!
अगले जन्मदिन
का पक्का रहा।
मैंने कहा, अगर अगला
जन्मदिन
पक्का है, तो
ठीक।
लेकिन
दूसरे दिन
सुबह ही, मेरी
सभा में ही
आते हुए, सभा-भवन
के सामने ही कार
से टकराकर
बेहोश हो गई।
आठ-दस घंटे
बाद होश में
आई, तो मैं
उसे देखने
अस्पताल गया।
मैंने कहा, होश में आ
गईं, तो
अच्छा हुआ।
क्या खयाल है
संन्यास के
बाबत? उसने
कहा, मुझे
ठीक तो हो
जाने दो। आप
भी कैसे आदमी
हो! यह भी नहीं
पूछा कि चोट
कहां लगी!
एकदम पूछते
हैं, संन्यास!
मैंने कहा, क्या पता, जब तक मैं पूछूं,
तुम चली
जाओ। क्योंकि
कल तो कोई
पक्का न था इस एक्सिडेंट
का। यह हो गया
न आज! जन्मदिन
अब उतना पक्का
है, जितना
कल था? उसने
कहा, संदिग्ध
मालूम होता
है! फिर मैंने
कहा, कितनी
देर करनी है? उसने कहा कि
कम से कम
चौबीस घंटे।
मैं जरा ठीक
हो जाऊं, तो
फिर आपसे
कहूं। मैंने
कहा, जैसी
तेरी मर्जी।
पर मैंने कहा
कि एक काम
करना, चौबीस
घंटे सोचती
रहना कि
संन्यास लेना
है, संन्यास
लेना है।
वह तो
मर गई छः घंटे
बाद। चौबीस
घंटे पूरे नहीं
हुए। उसकी बहू
मेरे पास दौड़ी
आई कि अब क्या
होगा! वह तो मर
गई! तो मैंने
कहा कि मैं
उसे मरी हुई
हालत में
संन्यास देता
हूं। उसने कहा, यह कैसा
संन्यास है? मैंने कहा
कि उसके मन
में अगर जरा
भी भाव रह गया
होगा, जरा
भी भाव मरते
क्षण में कि
संन्यास लेना
है, संन्यास
लेना है--तो
भाव ही तो सब
कुछ है। तो बीज
तो निर्मित हो
गया। उसकी आगे
की यात्रा पर
उसके फल कभी
भी आ सकते
हैं।
कृष्ण
कहते हैं, सदकर्म की, शुभ
कर्म की दिशा
में किया गया
विचार भी, शुभ
कर्म की दिशा
में उठाया गया
एक कदम भी; शुभ
कर्म की दिशा,
चाहे पूरी
हो पाए या न हो
पाए, तो भी
कभी दुर्गति,
कभी बुरी
गति नहीं होती
है।
प्राप्य
पुण्यकृतां
लोकानुषित्वा
शाश्वतीः
समाः।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते।।
41।।
अथवा
योगिनामेव
कुले भवति
धीमताम्।
एतद्धि दुर्लभतरं
लोके
जन्म यदीदृशम्।।
42।।
किंतु
वह योगभ्रष्ट
पुरुष पुण्यवानों
के लोकों
को अर्थात स्वर्गादिक
उत्तम लोकों
को प्राप्त
होकर, उनमें
बहुत वर्षों
तक वास करके, शुद्ध आचरण
वाले श्रीमान
पुरुषों के घर
में जन्म लेता
है।
अथवा
वैराग्यवान
पुरुष उन लोकों
में न जाकर
ज्ञानवान
योगियों के ही
कुल में जन्म
लेता है; परंतु इस
प्रकार का जो
यह जन्म है
संसार में, निःसंदेह
अति दुर्लभ है।
योग-भ्रष्ट
पुरुष! अर्जुन
जो पूछ रहा है, वह
योग-भ्रष्ट के
लिए ही पूछ
रहा है। वह कह
रहा है कि
संसार को मैं
छोड़ दूं, भोग
को मैं छोड़
दूं और योग सध
न पाए। या सधे
भी, तो
बिखर जाए; थोड़ा
बने भी, तो
हाथ छूट जाए।
थोड़ा पकड़ भी पाऊं और खो
जाए सहारा हाथ
से, भ्रष्ट
हो जाऊं बीच
में। तो फिर
मैं टूट तो न जाऊंगा? खो तो न जाऊंगा?
नष्ट तो न
हो जाऊंगा?
कृष्ण
कहते हैं उसे, योग-भ्रष्ट
हुए पुरुष की
आगे की गति के
संबंध में दोत्तीन
बातें कहते
हैं। वे कीमती
हैं। और एक
बहुत गहरे
विज्ञान से
संबंधित हैं।
थोड़ा-सा
समझें।
एक, कृष्ण कहते
हैं, वैसा
व्यक्ति, वैसी
चेतना, जो
थोड़ा साधती है
योग की दिशा
में, लेकिन
पूर्णता को
नहीं उपलब्ध
होती...।
पूर्णता को
उपलब्ध हो जाए,
तो मुक्त हो
जाती है।
पूर्णता को
उपलब्ध न हो पाए,
तो अपरिसीम
सुखों को
उपलब्ध होती
है। इस अपरिसीम
सुखों की जो
संभावनाओं का
जगत है, उसका
नाम स्वर्ग
है। बहुत
सुखों को
उपलब्ध होती
है।
लेकिन
ध्यान रहे, सभी सुख चुक
जाने वाले
हैं। सभी सुख
चुक जाने वाले
हैं। सभी सुख
समाप्त हो
जाने वाले
हैं। और कितने
ही बड़े सुख
हों, और
कितने ही लंबे
मालूम पड़ते
हों, जब वे
चुक जाते हैं,
तो क्षण में
बीत गए, ऐसे
ही मालूम पड़ते
हैं।
तो
वैसी चेतना
बहुत सुखों को
उपलब्ध होती
है अर्जुन!
लेकिन फिर
वापस संसार
में लौट आती
है, जब सुख
चुक जाते हैं।
एक
विकल्प यह है
कि बहुत-से
सुखों को पाए
वैसी चेतना, और वापस लौट
आए उस जगत में,
जहां से गई
थी। दूसरी
संभावना यह है
कि वैसी चेतना
उन घरों में
जन्म ले ले, जहां ज्ञान
का वातावरण
है। उन घरों
में जन्म ले
ले, जहां
योग की हवा है,
मिल्यू,
योग का विचारावरण
है। जहां
तरंगें योग की
हैं, और
जहां साधना के
सोपान पर चढ़ने
की आकांक्षाएं
प्रबल हैं। और
जहां चारों ओर
संकल्प की आग
है, और
जहां ऊर्ध्वगमन
के लिए निरंतर
सचेष्ट लोग
हैं, उन
परिवारों में,
उन कुलों
में जन्म ले
ले। तो जहां
से छूटा पिछले
जन्म में योग,
अगले जन्म
में उसका सेतु
फिर जुड़ जाए।
दो
विकल्प कृष्ण
ने कहे। एक तो, स्वर्ग में
पैदा हो जाए।
स्वर्ग का
अर्थ है, उन
लोकों
में, जहां
सुख ही सुख है,
दुख नहीं
है। इन दोनों
बातों में कई
रहस्य की बातें
हैं। एक तो यह
कि जहां सुख
ही सुख होता है,
वहां बड़ी बोर्डम, बड़ी ऊब पैदा
हो जाती है।
इसलिए
देवताओं से
ज्यादा ऊबे
हुए लोग कहीं
भी नहीं हैं।
जहां सुख ही
सुख है, वहां
ऊब पैदा हो
जाती है।
इसलिए
कथाएं हैं कि
देवता भी जमीन
पर आकर जमीन
के दुखों को
चखना चाहते हैं, जमीन के
सुखों को
भोगना चाहते
हैं, क्योंकि
यहां दुख
मिश्रित सुख
हैं। अगर मीठा
ही मीठा खाएं,
तो थोड़ी-सी
नमक की डिगली
मुंह पर रखने
का मन हो आता
है। बस, ऐसा
ही। सुख ही
सुख हों, तो
थोड़ा-सा दुख
करीब-करीब
चटनी जैसा
स्वाद दे जाता
है। स्वर्ग
एकदम मिठास से
भरे हैं, सुख
ही सुख हैं।
जल्दी ऊब जाता
है। लौटकर
संसार में
वापस आ जाना
पड़ता है।
दुर्गति तो
नहीं होती, लेकिन समय
व्यर्थ
व्यतीत हो
जाता है।
सुखों
में गया समय, व्यर्थ गया
समय है। उपयोग
नहीं हुआ उसका,
सिर्फ
गंवाया गया समय
है। हालांकि
हम सब यही
समझते हैं कि
सुख में बीता
समय, बड़ा
अच्छा बीता।
दुख में बीता
समय, बड़ा
बुरा गया।
लेकिन कभी
आपने खयाल
किया कि दुख
में बीता समय
क्रिएटिव भी
हो सकता है, सृजनात्मक
भी हो सकता है;
उससे जीवन
में कोई
क्रांति भी
घटित हो सकती
है। लेकिन सुख
में बीता समय,
सिर्फ नींद
में बीता हुआ
समय है, उससे
कभी कोई
क्रांति घटित
नहीं होती।
सुख में बीते
समय से कभी
कोई क्रिएटिव
एक्ट, कोई
सृजनात्मक
कृत्य पैदा
नहीं होता।
दुख तो
मांज भी
देता है, और
दुख निखार भी
देता है, और
दुख भीतर साफ
भी करता है, शुद्ध भी
करता है; सुख
तो सिर्फ जंग
लगा जाता है।
इसलिए सुखी
लोगों पर एकदम
जंग बैठ जाती
है। इसलिए
सुखी आदमी, अगर ठीक से
देखें, तो
न तो बड़े
कलाकार पैदा
करता, न
बड़े चित्रकार
पैदा करता, न बड़े
मूर्तिकार
पैदा करता।
सुखी आदमी
सिर्फ बिस्तरों
पर सोने वाले
लोग पैदा
करता। कुछ नहीं,
नींद! वक्त
काट देने वाले
लोग पैदा करता
है। शराब पीने
वाले, संगीत
सुनकर सो जाने
वाले, नाच
देखकर सो जाने
वाले--इस तरह
के लोग पैदा
करता है।
अगर हम
दुनिया के सौ
बड़े विचारक
उठाएं, तो दोत्तीन
प्रतिशत से
ज्यादा सुखी
परिवारों से
नहीं आते।
क्या बात है? क्या सुख
जंग लगा देता
है चित्त पर?
लगा
देता है। उबा
देता है। और
सुख ही सुख, तो कहीं गति
नहीं रह जाती;
ठहराव हो
जाता है, स्टेगनेंसी हो जाती है।
स्वर्ग
एक स्टेगनेंट
स्थिति है।
बर्ट्रेंड
रसेल ने तो
कहीं मजाक में
कहा है कि
स्वर्ग का जो
वर्णन है, उसे देखकर
मुझे लगता है
कि नर्क में
जाना ही बेहतर
होगा। कोई पूछ
रहा था रसेल को
कि क्यों? तो
उसने कहा, नर्क
में कुछ करने
को तो होगा; स्वर्ग में
तो कहते हैं, कल्पवृक्ष
हैं; करने
को भी कुछ
नहीं है! करना
भी चाहेंगे, तो न कर
सकेंगे।
सोचेंगे, और
हो जाएगा! तो
वहां कुछ अपने
लायक नहीं
दिखाई पड़ता
है। नर्क में
कुछ तो करने
को होगा! दुख
से लड़ तो सकेंगे
कम से कम। दुख
से लड़ेंगे, तो भी तो कुछ
निखार होगा।
और वहां तो
सुख सिर्फ
बरसता रहेगा
ऊपर से, तो
थोड़े दिन में सड़
जाएंगे।
कृष्ण
कहते हैं, स्वर्ग चला
जाता है वैसा
व्यक्ति, जो
योग से भ्रष्ट
होता है
अर्जुन। सुखों
की दुनिया में
चला जाता है।
शुभ करना चाहा
था, नहीं
कर पाया, तो
भी इतना तो
उसे मिल जाता
है कि सुख मिल
जाते हैं।
लेकिन वापस
लौट आना पड़ता
है, वहीं
चौराहे पर।
संसार
चौराहा है।
अगर वहां से
मोक्ष की
यात्रा शुरू न
हुई, तो
वापस-वापस
लौटकर आ जाना
पड़ता है। वह
क्रास रोड्स
पर हैं हम।
जैसे कि मैं
एक रास्ते के
चौराहे पर खड़ा
होऊं। अगर
बाएं चला जाऊं,
तो फिर दाएं
जाना हो, तो
फिर चौराहे पर
वापस आ जाना
पड़े। संसार
चौराहा है।
अगर स्वर्ग
चला जाऊं, फिर
मोक्ष की
यात्रा करनी
हो, तो
चौराहे पर
वापस आ जाना
पड़े।
तो वे
लोग, जिन्होंने
योग की साधना
भी सुख पाने
के लिए ही की
हो, स्वर्ग
चले जाते हैं।
लेकिन
जिन्होंने
योग की साधना
मुक्त होने के
लिए की हो, लेकिन
असफल हो गए
हों, भ्रष्ट
हो गए हों, वे
उन घरों में
जन्म ले लेते
हैं, जहां
इस जीवन में
छूटा हुआ क्रम
अगले जीवन में
पुनः संलग्न
हो जाए। वे उन
योग के
वातावरणों
में पुनः पैदा
हो जाते हैं, जहां से
पिछली यात्रा
फिर से शुरू
हो सके।
इसलिए
अर्जुन को
कृष्ण कहते
हैं, तू
आश्वासन रख।
तू भयभीत न
हो। यदि मोक्ष
न भी मिला, तो
स्वर्ग मिल
सकेगा। अगर
स्वर्ग भी न
मिला, तो
कम से कम उस
कुल में जन्म
मिल सकेगा, जहां से
तूने छोड़ी
थी पिछली
यात्रा, तू
पुनः शुरू कर
सके। भयभीत न
हो। घबड़ा मत।
इस किनारे को
छोड़ने की
हिम्मत कर।
अगर वह किनारा
न भी मिला, तो
भी इस किनारे
से बुरा नहीं
होगा। और कुछ
भी हो जाए, यह
किनारा वापस
मिल जाएगा, इसलिए घबड़ा
मत। इसको
छोड़ने में भय
मत कर।
मैंने
कहा सुबह आपसे
कि कृष्ण जैसा
शिक्षक अर्जुन
की बुद्धि को
समझकर बात
करता है। अगर
अर्जुन ने
बुद्ध से पूछा
होता कि अगर
मैं भ्रष्ट हो
जाऊं, तो
कहां पहुंचूंगा?
तो पता है
आपको, बुद्ध
क्या कहते? जहां तक
संभावना तो यह
है कि बुद्ध
कुछ कहते ही
नहीं, तू
जान। लेकिन
अगर हम बहुत
ही खोजबीन
करें बुद्ध
साहित्य में,
तो सिर्फ एक
घटना मिलती
है। बुद्ध की
नहीं मिलती, बोधिधर्म की
मिलती है, बुद्ध
के एक शिष्य
की।
वह चीन
गया। चीन के
सम्राट ने
उसका स्वागत
किया। और चीन
के सम्राट ने
उसका स्वागत
करके कहा, बोधिधर्म, हे
महाभिक्षु, तुमसे मैं
कुछ बातें
जानना चाहता
हूं। मैंने
हजारों बुद्ध
के मंदिर बनाए,
लाखों
प्रतिमाएं
स्थापित कीं।
मुझे इसका क्या
फल मिलेगा? बोधिधर्म ने
कहा, कुछ
भी नहीं।
सम्राट ने कहा,
कुछ भी
नहीं! आप समझे,
मैंने क्या
कहा? मैंने
अरबों रुपए
खर्च किए, इसका
फल मुझे क्या
मिलेगा? बोधिधर्म
ने कहा, कुछ
भी नहीं।
क्योंकि तूने
फल की
आकांक्षा की,
उसी में
तूने सब खो
दिया। वह सब
व्यर्थ हो गया
तेरा किया
हुआ। दो कौड़ी
का हो गया
तेरा किया
हुआ। उसने कहा,
क्या बातें
कर रहे हैं? मैंने इतना
पवित्र कार्य
किया, सच
होली वर्क, ऐसा पवित्र
कार्य! बोधिधर्म
ने कहा, तू मूढ़ है। देअर इज़
नथिंग ऐज होली, एवरीथिंग इज़ जस्ट
एंप्टी--कोई
पवित्र-अवित्र
नहीं है; सब
खाली है, सब
शून्य है।
सम्राट
ने कहा, आप
कृपा करके
किसी और राज्य
में पदार्पण
करें।
क्योंकि या तो
आप ऐसी बात कह
रहे हैं, जो
हमारी बुद्धि
में नहीं पड़ती;
और या फिर
आपकी बुद्धि
ही ठीक नहीं
है। आप न
मालूम क्या कह
रहे हैं!
बोधिधर्म ने
कहा, मैं
लौट जाता हूं।
लेकिन ध्यान
रख, आखिर
में मैं ही
काम पडूंगा।
वह लौट
गया। नौ-दस
वर्ष बाद जब
सम्राट वू की
मृत्यु हो रही
थी, तब उसे
बड़ी घबड़ाहट
होने लगी। उसे
लगा, अब
मेरा क्या
होगा? मैंने
इतने मंदिर
बनाए जरूर; मैंने इतने
भिक्षुओं को
भोजन कराया
जरूर; मैंने
इतनी
मूर्तियां
बनाईं जरूर; मैंने इतने
शास्त्र
छपवाए जरूर; लेकिन मेरी
आकांक्षा तो
यही थी कि लोग
कहें कि तू
कितना महान
धर्मी है!
मेरे अहंकार
के सिवाय और
तो मैंने कुछ
न चाहा! ये
सारे मंदिर, ये सारे
तीर्थ, ये
सारी
मूर्तियां, मेरे अहंकार
के आभूषण से
ज्यादा कहां
हैं? तब वह
घबड़ाया। मौत
करीब आने लगी,
तब वह
घबड़ाया। तब वह
चिल्लाया, हे
बोधिधर्म! अगर
तुम कहीं हो, तो लौट आओ; क्योंकि
शायद तुम्हीं
ठीक कहते थे।
अगर मैं तुम्हारी
सुन लेता, तो
शायद मैं कुछ
कर सकता, जो
मुझे मुक्त कर
देता। ये तो
मैंने नए बंधन
ही निर्मित
किए हैं।
अगर
बुद्ध होते, तो अर्जुन
को ऐसा न
कहते। लेकिन
बुद्ध और अर्जुन
की मुलाकात
नहीं हो सकती
थी। वह
इंपासिबल है,
वह असंभव
है। क्योंकि
बुद्ध को
युद्ध के मैदान
पर नहीं लाया
जा सकता था। और
अर्जुन बुद्ध
के बोधिवृक्ष
के नीचे हाथ जोड़कर, नमस्कार
करके, जिज्ञासा
करने नहीं जा
सकता था। वे
टाइप अलग थे।
अर्जुन जंगल
में किसी गुरु
के पास
जिज्ञासा
करने जाता, इसकी
संभावना कम
थी। अगर जाता
भी कहीं बुद्ध
के पास, तो
वृक्ष के ऊपर
बैठकर पूछता,
नीचे नहीं।
कृष्ण
को भी उसके
अहंकार को
बीच-बीच में
तृप्ति देनी
पड़ती है। कहते
हैं, हे महाबाहो,
हे विशाल बाहुओं
वाले अर्जुन!
तो अर्जुन बड़ा
फूलता है। ठीक
है। कृष्ण से
भी सुनने को
राजी हो गया
इसीलिए कि कृष्ण
सारथी हैं
उसके, मित्र
हैं, सखा
हैं; कंधे
पर हाथ रख
सकता है; चाहे
तो कह सकता है
कि सब व्यर्थ
की बातें कर
रहे हो! इसलिए
सुनने को राजी
हो गया।
तो
बुद्ध और
अर्जुन की
मुलाकात नहीं
हो सकती थी, वह असंभव
दिखती है।
अर्जुन जाता न
बुद्ध के पास,
और बुद्ध को
युद्ध के
मैदान पर न
लाया जा सकता था।
इसलिए
कृष्ण अर्जुन
को जो कह रहे
हैं, पूरे
वक्त अर्जुन
को देखकर कह
रहे हैं। वे
कह रहे हैं, बहुत सुख
मिलेंगे
अर्जुन, अगर
तू अच्छे काम
करते हुए मर
जाता है असफल,
तो
स्वर्गों में
पैदा हो
जाएगा।
अगर
बुद्ध से वह
कहता कि
स्वर्गों में
पैदा होऊंगा, तो वे
कहेंगे, स्वर्ग
सपने हैं।
स्वर्ग कहीं
हैं ही नहीं।
भटकना मत।
जिसने स्वर्ग
चाहा, वह
नरक में पहुंच
गया। स्वर्ग
की चाह नरक
में ले जाने
का मार्ग है, बुद्ध कहते,
यह बात ही
मत कर। अर्जुन
का तालमेल
नहीं बैठ सकता
था बुद्ध से।
कृष्ण
एक-एक कदम
अर्जुन
को...इसको कहते
हैं, परसुएशन। अगर गीता
में हम कहें
कि इस जगत में परसुएशन
की, फुसलाने
की, एक
व्यक्ति को
इंच-इंच ऊपर
उठाने की जैसी
मेहनत कृष्ण
ने की है, वैसी
किसी शिक्षक
ने कभी नहीं
की है। सभी
शिक्षक सीधे
अटल होते हैं।
वे कहते हैं, ठीक है, यह
बात है।
खरीदना है? नहीं खरीदना,
बाहर हो
जाओ।
शिक्षक
सख्त होते
हैं। शिक्षक
को मित्र की
तरह पाना बड़ा
मुश्किल है।
अर्जुन को
शिक्षक मित्र
की तरह मिला
है, सखा की
तरह मिला है।
उसके कंधे पर
हाथ रखकर बात
चल रही है।
इसलिए कई दफा
वह भूल में भी
पड़ जाता है और
व्यर्थ के
सवाल भी उठाता
है।
एक
फायदा होता, बुद्ध जैसा
आदमी मिलता, अगर
बोधिधर्म
जैसा मिलता, तो बोधिधर्म
तो हाथ में
डंडा रखता था।
वह तो अर्जुन
को एकाध डंडा
मार देता
खोपड़ी पर, कि
तू कहां की
फिजूल की
बकवास कर रहा
है!
लेकिन
कृष्ण उसकी
बकवास को
सुनते हैं, और प्रेम से
उसे फुसलाते
हैं, और
एक-एक इंच उसे
सरकाते हैं।
वे कहते हैं, कोई फिक्र न
कर, अगर
नहीं भी मिला
वह किनारा, तो बीच में
टापू हैं
स्वर्ग नाम के,
उन पर तू
पहुंच जाएगा।
वहां बड़ा सुख
है। खूब सुख भोगकर, नाव
में बैठकर
वापस लौट आना।
अगर तुझे सुख
न चाहिए हो, तो बीच में गुरुजनों
के टापू हैं, जिन पर
गुरुजन निवास
करते हैं; उनके
गुरुकुल हैं;
तू उनमें
प्रवेश कर
जाना। वहां तू
अपनी साधना को
आगे बढ़ा लेना।
लेकिन
एक आकांक्षा
कृष्ण की है
कि तू यह
किनारा तो छोड़, फिर आगे देख
लेंगे। नहीं
कोई टापू हैं,
नहीं कोई
बात है। तू
किनारा तो
छोड़। एक दफे
तू किनारा छोड़
दे, किसी
भी कारण को
मानकर अभी जरा
साहस जुट जाए,
तू भरोसा कर
पाए और यात्रा
पर निकल
जाए--तो आगे की
यात्रा तो प्रभु
सम्हाल लेता
है।
रामकृष्ण
जगह-जगह कहे
हैं, तुम नाव
तो खोलो, तुम पाल तो उड़ाओ। हवाएं
तो ले जाने को
खुद ही तत्पर
हैं। लेकिन
तुम नाव ही
नहीं खोलते हो,
तुम पाल ही
नहीं खोलते!
तुम किनारे से
ही जंजीरें
बांधे हुए, नाव को
बांधे हुए पड़े
हो और चिल्ला
रहे हो, उस
पार कैसे पहुंचूंगा?
उस पार कैसे
पहुंचूंगा?
क्या है
विधि? क्या
है मार्ग? जरा
नाव तो खोलो,
तुम जरा पाल
तो खोलो। हवाएं
तत्पर हैं
तुम्हें ले
जाने को।
प्रभु
तो प्रत्येक
को मोक्ष तक
ले जाने को
तत्पर है।
लेकिन हम
किनारा इतने
जोर से पकड़ते
हैं! लोग कहते
हैं कि प्रभु
जो है, वह ओम्नीपोटेंट
है, सर्वशक्तिशाली
है। मुझे नहीं
जंचता।
हम जैसे
छोटी-छोटी
ताकत के लोग
भी किनारे को पकड़कर पड़े
रहते हैं, हमको
खींच नहीं
पाता। हमारी पोटेंसी
ज्यादा ही
मालूम पड़ती
है।
नहीं, लेकिन उसका
कारण दूसरा
है। असल में
जो ओम्नीपोटेंट
है, जो
सर्वशक्तिशाली
है, वह
शक्ति का
उपयोग कभी
नहीं करता।
शक्ति का उपयोग
सिर्फ कमजोर
ही करते हैं।
सिर्फ कमजोर
ही शक्ति का
उपयोग करते
हैं। जो पूर्ण
शक्तिशाली है,
वह उपयोग
नहीं करता। वह
प्रतीक्षा
करता है कि हर्ज
क्या है! आज
नहीं कल; इस
युग में नहीं
अगले युग में;
इस जन्म में
नहीं अगले
जन्म में; कभी
तो तुम नाव
खोलोगे, कभी
तो तुम पाल
खोलोगे, तब
हमारी हवाएं
तुम्हें उस
पार ले
चलेंगी।
जल्दी क्या है?
जल्दी भी तो
कमजोरी का
लक्षण है।
इतनी जल्दी क्या
है? समय
कोई चुका तो
नहीं जाता!
लेकिन
परमात्मा का
समय भला न
चुके, आपका
चुकता है। वह
अगर जल्दी न
करे, चलेगा।
उसके लिए कोई
भी जल्दी नहीं
है, क्योंकि
कोई टाइम की लिमिट
नहीं है, कोई
सीमा नहीं है।
लेकिन हमारा
तो समय सीमित
है और बंधा
है। हम तो चुकेंगे।
वह प्रतीक्षा
कर सकता है
अनंत तक, लेकिन
हमारी तो सीमाएं
हैं, हम
अनंत तक
प्रतीक्षा
नहीं कर सकते
हैं।
लेकिन
बड़ा अदभुत है।
हम भी अनंत तक
प्रतीक्षा करते
हुए मालूम
पड़ते हैं। हम
भी कहते हैं
कि बैठे
रहेंगे। ठीक
है। जब तू ही
खोल देगा नाव, जब तू ही पाल
को उड़ा देगा, जब तू ही
झटका देगा और
खींचेगा...।
और कई
दफे तो ऐसा
होता है कि
झटका भी आ जाए, तो हम और जोर
से पकड़ लेते
हैं, और
चीख-पुकार
मचाते हैं कि
सब भाई-बंधु आ
जाओ, सम्हालो
मुझे। कोई ले
जा रहा है! कोई
खींचे लिए जा
रहा है!
कृष्ण
अर्जुन को
देखकर ये
उत्तर दिए हैं, यह ध्यान
में रखना।
धीरे-धीरे वे
ये उत्तर भी पिघला
देंगे, गला
देंगे। वह
राजी हो जाए
छलांग के लिए,
बस इतना ही।
आज
इतना। कल सुबह
हम बात
करेंगे।
लेकिन
अभी जाएंगे
नहीं। पांच
मिनट, एक
छलांग के लिए
आप भी राजी
हों। थोड़ा-सा
किनारा
छोड़ें। थोड़ी
ये कीर्तन की हवाएं
आएंगी, आपकी
नाव के पाल
में भी भर
जाएं और आपको
भी दूसरे किनारे
की तरफ
थोड़ा-सा ले
जाएं, तो
अच्छा है।
साथ
भी दें। ताली
भी बजाएं। गीत
भी गाएं। डोलें
भी। आनंदित
हों। पांच
मिनट के लिए
सब भूल जाएं।
thank you guruji
जवाब देंहटाएं