अहंकार
खोने के दो
ढंग— (अध्याय-6) प्रवचन—चौदहवां
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि
चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा
सर्वत्र समदर्शनः।।
29।।
यो
मां पश्यति
सर्वत्र सर्वं
च मयि पश्यति।
तस्याहं
न प्रणश्यामि
स च मे न प्रणश्यति।।
30।।
और
हे अर्जुन, सर्वव्यापी
अनंत चेतन में
एकीभाव
से स्थिति रूप
योग से युक्त
हुए आत्मा
वाला तथा
सबमें समभाव
से देखने वाला
योगी आत्मा को
संपूर्ण
भूतों में
बर्फ में जल
के सदृश
व्यापक देखता
है और संपूर्ण
भूतों को
आत्मा में
देखता है।
और
जो पुरुष
संपूर्ण
भूतों में
सबके आत्मरूप
मुझ वासुदेव
को ही व्यापक
देखता है और
संपूर्ण
भूतों को मुझ
वासुदेव के
अंतर्गत
देखता है, उसके लिए
मैं अदृश्य
नहीं होता हूं
और वह मेरे
लिए अदृश्य
नहीं होता है।
परमात्मा
अदृश्य है, ऐसी हमारी
मान्यता है।
लेकिन यह
मान्यता बड़ी भूल
भरी है।
परमात्मा
अदृश्य नहीं
है, हम ही
अंधे हैं; खोजेंगे,
तो ऐसा
पाएंगे। अंधा
अगर कहे कि
प्रकाश अदृश्य
है, तो जो
अर्थ होगा, वही अर्थ
हमारे कहने का
होता है कि
परमात्मा अदृश्य
है।
आदमी
बहुत अदभुत
है। स्वयं का
अंधापन
स्वीकार करना पीड़ादायी
है; परमात्मा
को ही अदृश्य
मान लेना सुखद
है। अंधे को
भी आसान पड़ेगा
यह मान लेना
कि प्रकाश कुछ
ऐसी चीज है जो
दिखाई नहीं
पड़ती; बजाय
यह मानने के
कि मैं अंधा
हूं। अहंकार
को चोट लगती
है कि मैं
अंधा हूं। और
फिर भी आंख के अंधेपन
से इतनी चोट
नहीं लगती, जितनी मेरी
चेतना अंधी है,
तो चोट लगती
है।
इसलिए
आपसे कहता हूं, जो-जो लोग
कहे चले जाते
हैं कि
परमात्मा
अदृश्य है, परमात्मा
अदृश्य है, वे सिर्फ
अपने अंधेपन
को ढांके चले
जाते हैं। आंख
खुली हो, तो
परमात्मा ही
दृश्य है। या
ऐसा समझें कि
जो भी दृश्य
है, वही
परमात्मा है।
न दिखाई पड़ना,
अदृश्य
होने का सबूत
नहीं है
अनिवार्य रूप
से; अंधेपन
का सबूत भी हो
सकता है।
कृष्ण
इस सूत्र में
यही कहते हैं।
वे कहते हैं
कि जिसने
अनुभव किया
समस्त भूतों
में एक को, और जिसने एक
में अनुभव
किया समस्त
भूतों को, उसके
लिए न तो मैं
अदृश्य हूं और
न वह मेरे लिए अदृश्य
है।
इसमें
दूसरी और
अदभुत बात कही
है। उसके लिए
मैं अदृश्य नहीं
हूं, यह पहले
समझ लें। फिर
इससे भी अदभुत
बात कृष्ण ने
कही है, वह
मेरे लिए
अदृश्य नहीं
है। क्योंकि
हम, परमात्मा
अदृश्य है, इस बात को तो
अपने अंधेपन
से समझा
लेंगे। लेकिन
परमात्मा के
लिए हम अदृश्य
हैं, इसे
हम कैसे समझाएंगे!
समस्त
भूतों में देख
पाए जो एक को...।
आकार
प्रत्येक
वस्तु का अलग
है। प्रत्येक
व्यक्ति का
आकार अलग है।
प्रत्येक
वस्तु का गुण अलग
है। प्रत्येक
वस्तु
भिन्न-भिन्न
है। लेकिन
भिन्नता के
भीतर जो
अभिन्नता देख
पाए। यूनिटी
इन डायवर्सिटी।
वह जो इतना
अनेक-अनेक
होकर दिखाई पड़
रहा है, वह
कहीं गहरे में
एक है--ऐसा जो
देख पाए! सोच
पाए नहीं।
सोचना तो बहुत
कठिन नहीं है।
सोच तो
विज्ञान भी
पाता है कि
समस्त
पदार्थों के
बीच कोई एक ही
है। लेकिन
सोचने से कुछ
हल नहीं होता।
सोच तो हम भी
सकते हैं कि
समस्त सोने के
आभूषणों के
बीच सोना ही
है; और समस्त सागरों
में एक ही जल है।
सोचने का सवाल
नहीं है।
सोचने से आंख
नहीं खुलती।
अंधा भी
प्रकाश के
संबंध में
सोच-विचार
करता रह सकता
है। इससे
अनुभव उपलब्ध
नहीं होता।
देख
पाए!
इसलिए
दुनिया में
समस्त भाषाओं
में, चाहे वे
किसी कोने में
पैदा हुई हों,
हम
प्रभु-साक्षात
करने वाले के
लिए जो उपयोग
करते हैं, उसमें
आंख का उपयोग
जरूर करते
हैं। भारत में
हम कहते हैं, द्रष्टा।
उसका अर्थ है,
देखने
वाला। विचारक
नहीं, सोचने
वाला नहीं।
तत्व अनुभव को
हम कहते हैं, दर्शन; चिंतन
नहीं, मनन
नहीं, आंख।
पश्चिम में भी
देखने वाले को
सीअर ही
कहते हैं, देखने
वाला ही कहते
हैं, जिसने
देखा--सोचा-विचारा
नहीं--देखा, अनुभव किया।
कैसे
अनुभव होगा? समस्त रूपों
में वह अरूप
कैसे दिखाई
पड़ेगा?
जब तक
आप रूप
देखेंगे, तब
तक दिखाई नहीं
पड़ेगा। थोड़ा
अरूप की तरफ
साधना करनी
पड़ेगी। लेकिन
हम जो भी
देखते हैं, सब रूपवान
है। हम जो भी
देखते हैं, साकार है।
हम जहां भी
जाते हैं, साकार
से मुलाकात
होती है।
निराकार से
मुलाकात नहीं
होती। और मजा
यह है कि सब
जगह निराकार मौजूद
है, लेकिन
हमें साकार से
ही मुलाकात
होती है। और सब
जगह निर्गुण
मौजूद है, और
हमें सगुण से
ही मुलाकात
होती है। और
सब जगह असीम
मौजूद है, और
हमें सीमा से
ही मुलाकात
होती है। बात
क्या है?
बात
करीब-करीब ऐसी
है, जैसे कोई
आदमी अपने घर
के बाहर कभी न
गया हो और जब
भी आकाश को
देखा हो, तो
अपनी खिड़की से
देखा हो। आकाश
तो असीम है, लेकिन खिड़की
से देखा गया
आकाश फ्रेम
में हो जाता
है। खिड़की का
फ्रेम आकाश से
लग जाता है।
आकाश में कोई
फ्रेम नहीं
होता, कोई
ढांचा नहीं
होता। आकाश का
कोई चौखटा
नहीं होता।
आकाश चौखटे से
बिलकुल मुक्त
है। लेकिन खिड़की
के पीछे से
खड़े होने पर
खिड़की का
चौखटा आकाश पर
जड़ जाता है।
और
जिसने कभी
खुले आकाश को
जाकर न देखा
हो, सदा
खिड़की से ही
देखा हो, वह
यह न मान
सकेगा कि आकाश
असीम है, निराकार
है। वह यही
मान पाएगा कि
आकाश की सीमा
है। यद्यपि
जिसे वह आकाश
की सीमा कह
रहा है, वह
उसकी खिड़की की
सीमा है।
लेकिन खिड़की
आकाश पर जड़
जाती है। और
आकाश जरा भी
बाधा नहीं
देता। क्योंकि
जो असीम है, वह किसी चीज
को बाधा नहीं
देता; सिर्फ
सीमित बाधा
देता है।
ध्यान
रखना, सीमित
हमेशा बाधा
देता है। उसकी
सीमा के आगे आप
खींचोगे,
इनकार कर
देगा। असीम
बाधा नहीं
देता। असीम का
अर्थ ही यह है
कि आप कुछ भी
करो, कोई
बाधा नहीं
पड़ती।
तो एक
छोटी-सी खिड़की
आकाश पर जड़
जाती है, आकाश
इनकार भी नहीं
करता। आकाश
कहता भी नहीं
कि ज्यादती हो
रही है, अन्याय
हो रहा है।
आकाश चुपचाप
अपनी जगह बना
रहता है। आकाश
को पता भी
नहीं चलता कि
किसी की खिड़की
उसके ऊपर बैठ
गई है। लेकिन
आप जो भीतर खड़े
होकर देखते
हैं, आपकी
खिड़की की सीमा
आकाश की सीमा
बन जाती है। एक।
फिर अगर
आपके घर में
बहुत खिड़कियां
हैं, तो आप
बहुत-से आकाशों
को जानने वाले
हो जाएंगे। एक
खिड़की से
देखेंगे, एक
आकाश दिखाई
पड़ेगा, जहां
से सूरज
निकलता है।
दूसरी खिड़की
से देखेंगे, वहां अभी
कोई सूरज नहीं
है; आकाश
में बदलियां
तैर रही हैं।
तीसरी खिड़की से
देखेंगे, वहां
बदलियां भी
नहीं हैं, सूरज
भी नहीं है; आकाश में
पक्षी उड़ रहे
हैं।
जो
आदमी घर के
बाहर कभी नहीं
गया, क्या वह
किसी भी तरह
सोच पाएगा कि
ये तीनों आकाश
एक ही आकाश
हैं? नहीं
सोच पाएगा।
सीधा गणित यही
होगा कि तीन
आकाश हैं मेरे
घर के आस-पास।
पांच खिड़कियां
होंगी, तो
पांच आकाश हो
जाएंगे। दस खिड़कियां
होंगी, तो
दस आकाश हो
जाएंगे। उस घर
के भीतर रहने
वाले को क्या
कभी स्वप्न
में भी यह सूझ
पाएगा कि एक
ही आकाश होगा?
यह असंभव
मालूम पड़ता
है। और आकाश
एक ही है।
इंद्रियों
से देखते हैं
हम जगत को, इसलिए आकार
दिखाई पड़ता
है।
इंद्रियां विंडोज
हैं, खिड़कियां हैं। और
प्रत्येक
इंद्रिय का
ढांचा विराट
के ऊपर बैठ
जाता है। कान
से सुनते हैं,
आंख से
देखते हैं, हाथ से छूते
हैं। हर
इंद्रिय अपने
ढांचे को दे
देती है
निराकार को।
जब भी
छूते हैं, निराकार
छूते हैं।
लेकिन हाथ
स्पर्श को
आकार दे देता
है। हाथ की
सीमा है। हाथ
असीम को नहीं
छू सकता।
जिसको भी
छुएगा, उसे
ही सीमित बना
लेगा।
जब भी
देखते हैं, निराकार को
देखते हैं।
लेकिन आंख की
सीमा है। आंख
निराकार को
नहीं देख
सकती। तो जब
भी देखते हैं,
आंख अपनी
खिड़की बिठा
देती है
निराकार पर, और आकार
निर्मित हो
जाता है। जब
भी सुनते हैं,
तब फिर...।
सभी
इंद्रियां
निराकार को
आकार देती
हैं। और फिर
जैसा मैंने
कहा, उस मकान
में पांच खिड़कियां
हों। या हम
ऐसा समझें कि
वह मकान ठहरा
हुआ मकान न हो,
आन दि व्हील्स
हो, उस पर
चक्के लगे हों
और मकान
दिन-रात चलता
रहे, तो
पांच खिड़कियां
करोड़ों आकाश
बना देंगी।
हम
चलते हुए मकान
हैं, जिसके
नीचे पैर लगे
हैं। घूमती
हुई आंखें हैं
हमारे पास।
हमारी सारी
इंद्रियां, पांच
इंद्रियां
पांच अरब
इंद्रियों का
काम करती हैं।
क्योंकि चलते
वक्त पूरे समय
आकाश बदलता
रहता है और
हमारी
इंद्रिय हर
बार नई-नई चीज
को देखती रहती
है। इसलिए
हमने यह
अनंत-अनंत
रूपों का जगत
अनुभव किया
है।
कृष्ण
इस सूत्र तक
आने के पहले
बार-बार
दोहराते हैं
कि वही जान
पाएगा मुझे, जो
इंद्रियों के
पार है। तब
इतने सूत्रों
के बाद वे
कहते हैं कि
जो मुझे सब
भूतों में देख
लेगा एक को, और एक में
देख लेगा सब भूतों
को...।
यह एक
साथ ही घटित
हो जाता है।
कहीं से भी
शुरू कर लें।
चाहे सबमें
देख लें एक को, तो दूसरी
बात, एक
में सब दिखाई
पड़ने लगता है।
या एक में देख
लें सबको, तो
सबमें एक
दिखाई पड़ने
लगता है। ये
दो बातें नहीं
हैं। ये दो
छोर हैं एक ही
घटना के, एक
ही हैपनिंग
के। कहीं से
भी शुरू हो
सकता है। और
हर आदमी को अलग-अलग
शुरू होगा।
इसे भी
थोड़ा खयाल में
ले लें।
अन्यथा गलत
छोर से आपने
शुरू किया, तो आप कभी भी
ठीक स्थिति
में नहीं
पहुंच पाएंगे।
ये दो
ढंग हैं।
स्त्रैण
चित्त--स्त्रैण
चित्त कहता
हूं, स्त्री
का चित्त
नहीं। क्योंकि
कुछ
स्त्रियों के
पास पुरुष का
चित्त होता
है। और पुरुष
चित्त का
उपयोग करूंगा,
तब भी मेरा
मतलब चित्त पर
आग्रह है।
क्योंकि कुछ
पुरुषों के
पास
स्त्रियों का
चित्त होता है।
स्त्रैण
चित्त एक में
सबको देख सकता
है आसानी से।
इसलिए
स्त्री
मोनोगेमस है; एक को ही पकड़ना
चाहती है। यह
दुनिया में जो
परिवार है, पतिव्रत
धर्म है, एक
पति है, यह
स्त्री की पकड़
है। स्त्री एक
से ही शुरू कर सकती
है। हां, बढ़ती
चली जाए, तो
ऐसी घटना आ
सकती है कि एक
में सबको देख
ले।
लेकिन
पुरुष अनेक से
शुरू कर सकता
है। और ऐसी घटना
आ सकती है कि
अनेक में एक
को देख ले।
पुरुष जो है
वह पोलीगेमस।
पुरुष चित्त
और स्त्री
चित्त का यह
फासला, इन
दो चीजों का
फासला
निर्मित करता
है।
इसलिए
पुरुष बहु पर दौड़ता
रहता है, अनेक
पर दौड़ता
रहता है। एक
से उसे तृप्ति
नहीं होती।
होती ही नहीं।
सब-सब रूपों
में, जीवन
की सब विधाओं
में, सब
दिशाओं में
पुरुष अनेक पर
दौड़ता
रहता है।
स्त्री को एक
से तृप्ति हो
जाती है। और
अगर स्त्री भी
अनेक पर दौड़ती
है, तो
उसके भीतर
पुरुष चित्त
की प्रधानता
है, स्त्री
चित्त की कमी
है।
पश्चिम
की स्त्री ने
अनेक पर दौड़ना
शुरू किया है, क्योंकि
पश्चिम की
स्त्री
धीरे-धीरे
पुरुष जैसी
होती जा रही
है। उसकी साइक
में, उसके
चित्त में
बुनियादी
परिवर्तन हो
रहे हैं। और
बहुत आश्चर्य
न होगा कि
थोड़े दिनों
में पश्चिम का
पुरुष एक पर
ठहरने की
कोशिश में लग जाए!
क्योंकि
प्रकृति
संतुलन कभी भी
नहीं खोती है।
जिन
समाजों में
बहुपत्नी प्रथा
थी, उन
समाजों में
चित्त का एक
ढंग हुआ। और
जिन समाजों
में बहुपति
प्रथा रही है,
कि एक
स्त्री
बहुत-से पति
कर सके, उन
समाजों के
पूरे चित्त की
व्यवस्था बदल
जाती है। जिस
समाज में एक
स्त्री बहुत
पति कर लेती
है, उस
समाज में
पुरुष कमजोर
हो जाता है और
स्त्री बलवान
हो जाती है।
पुरुष
स्त्रैण हो
जाता है, स्त्री
पुरुष-चेतना
को पकड़ लेती
है।
ऐसे
समाज हैं जमीन
पर, जहां एक
स्त्री
बहुपति कर
सकती है।
लेकिन बड़े मजे
की बात है, उनकी
पूरी सामाजिक
व्यवस्था बदल
जाती है। पूरी
साइकोलाजी, पूरा मनस
बदल जाता है।
जहां एक
स्त्री बहुपति
कर सकती है, वहां स्त्री
कमाने लगती है
और पुरुष घर
बैठकर खाने
लगता है। वहां
पुरुष कमाने
नहीं जाता। सेकेंडरी
हो जाता है, द्वितीय
हैसियत का हो
जाता है।
स्त्री प्रथम हैसियत
की हो जाती
है।
अगर
ठीक समझें, तो उस समाज
में पुरुष
स्त्रियों
जैसा व्यवहार
कर रहे हैं, स्त्रियां
पुरुष जैसा
व्यवहार कर
रही हैं। पुरुष
अनाक्रामक हो
जाते हैं, स्त्रियां
आक्रामक हो
जाती हैं।
चित्त
को समझ लेना
आप। जब मैं
स्त्रैण और
पुरुष कह रहा
हूं, तो
स्त्री और
पुरुष के शरीर
से मेरा मतलब
नहीं है, चित्त
के ढंग से
मतलब है।
स्त्रैण
चित्त एक पर रुकना
चाहता है।
इसलिए स्त्री
जितना प्रगाढ़
प्रेम कर सकती
है, पुरुष
नहीं कर पाता।
पुरुष का
प्रेम बिखर
जाता है।
स्त्री का
प्रेम एक पर, एक टूट, एक
धारा में
गिरता रहता
है। और इसीलिए
सारी दुनिया
में अब तक
स्त्री और
पुरुष के बीच
हम कभी सुलह
पैदा नहीं
करवा पाए। क्योंकि
उनके चित्त के
ढंग इतने
भिन्न हैं कि
कभी सुलह हो
पाएगी, यह
कठिन दिखाई
पड़ता है। जब
तक कि हम
चित्त के ढंग
को बदल न लें, कलह जारी
रहेगी।
क्योंकि
स्त्री एक को
चाहती है, पुरुष अनेक
को चाहता है।
यह कलह का
बुनियादी कारण
है। और इसलिए स्त्रीर् ईष्यालु
हो जाती है, सदा भयभीत
रहती है कि
पुरुष कहीं
किसी और स्त्री
को न चाहने लगे।र्
ईष्यालु
होने के कारण
उसकी सारी
प्रकृति
कुरूप हो जाती
है। और पुरुष
झूठा हो जाता
है, असत्य
बोलने लगता
है। क्योंकि
उसे भय रहता
है कि कहीं
दूसरे की तरफ
जो प्रेम से
देखी गई आंख, उसकी स्त्री
की पकड़ में न आ
जाए। तो
व्यर्थ की
कहानियां गढ़ता
रहता है, झूठी
बातें करता
रहता है।
यह
मजबूरी है
चित्त की। और
इस चित्त को
अगर हम ठीक से
समझ लें, तो
ही हम समझ
पाएंगे कि ये
जो दो छोर
कृष्ण ने कहे
हैं, ये
क्यों कहे
हैं।
पुरुष
अगर जाएगा, तो अनेक में
एक की खोज
उसके लिए
अध्यात्म में
भी आसान होगी।
यद्यपि आध्यात्मिक
उपलब्धि पर
पुरुष भी मिट
जाता है, स्त्री
भी मिट जाती
है। लेकिन जब
तक यह नहीं हुआ,
तब तक हमारी
प्रत्येक
साधना में, हमारे
प्रत्येक
कर्म में
हमारा चित्त
मौजूद रहता
है।
यही
वजह है कि
स्त्रियां स्टैटिक
सोसायटी का आधार
बन जाती हैं, ठहरे हुए
समाज का।
स्त्रियां
बदलाहट
बिलकुल पसंद
नहीं करतीं, या बहुत
क्षुद्र ढंग
की बदलाहट
पसंद करती हैं।
कपड़े, जेवर,
जिनकी
बदलाहट से कोई
बदलाहट
दुनिया में
नहीं होती।
कोई बुनियादी
बदलाहट
स्त्रियां
पसंद नहीं
करतीं।
स्त्रियां
बहुत रेसिस्टेंट,
बहुत
प्रतिरोधी
शक्ति की तरह
बदलाहट के
खिलाफ खड़ी
रहती हैं। कोई
बदलाहट!
लेकिन
पुरुष बदलाहट
के लिए बहुत
आतुर रहता है।
ऊपरी बदलाहट
के लिए बहुत
आतुर नहीं
रहता। कपड़े वह
जिंदगीभर
एक से पहने रह
सकता है, इससे
अड़चन नहीं
आती। उसकी समझ
के बाहर है कि
बहुत कपड़े
बदलने की क्या
जरूरत है! वह
एक ही ढंग के
कपड़े जिंदगीभर
पहने रह सकता
है, कोई
अड़चन नहीं
आती। लेकिन
किसी गहरी
बुनियादी
बदलाहट के लिए
वह आतुर रहता
है कि चीजों
का कोई गहरा
रूप बदल जाए।
क्योंकि गहरा
रूप बदले, तो
वह अनेक जीवन
एक जीवन में
जी सके।
स्त्री
गहरी बदलाहट
नहीं चाहेगी, वह एक ही
जीवन की एक
तारतम्यता को
पसंद करेगी।
एक सुर उसके
व्यक्तित्व
का है। यह
साइक, चित्त
का भेद है। इस
चित्त के भेद
के अनुसार अध्यात्म
में भी गति
करते वक्त
खयाल रखना
जरूरी है।
हां, अगर कोई
स्त्री एग्रेसिव
हो, आक्रामक
हो, जैसा
कि कुछ
स्त्रियां
होती हैं, तो
उनके लिए अनेक
में एक को
देखना आसान
पड़ेगा। कोई
पुरुष
रिसेप्टिव हो,
जैसा कि कुछ
पुरुष होते
हैं, ग्राहक
हो, एग्रेसिव न हो, आक्रामक
न हो, तो
उसके लिए एक
में अनेक को
देखना आसान
होगा। कैसे
देखेंगे?
चाहे
दो में से कुछ
भी करें, एक
काम तो दोनों
को करना पड़ेगा
कि इंद्रियों
के पार उठने
की चेष्टा
करनी पड़ेगी।
आंख से बहुत
देखा, कभी
आंख बंद करके
देखें। एक
खयाल रखें, आंख से तो
बहुत देखा, रूप के
अतिरिक्त कुछ
न पाया। खिड़की
से बहुत देखा,
अब खिड़की से
हटकर देखें।
लेकिन
डर यह है कि
हमारी आदतें
ऐसी कंडीशंड, ऐसी
संस्कारित हो
जाती हैं कि
जब हम आंख बंद
करते हैं, तब
भी हम आंख से
ही देखते रहते
हैं। बंद आंख
में भी आंख से
ही देखते रहते
हैं।
आंख ने
हजार-हजार
संस्कार
इकट्ठे कर रखे
हैं खिड़की से
देखने के। वही
संस्कार आंख
री-प्ले करती
है, फिर से
फिल्म को चढ़ा
देती है। और
हमारे मस्तिष्क
का ढंग ठीक
टेप रिकार्डर
जैसा है; उसमें
कुछ भेद नहीं
है। हमारे
मस्तिष्क में
प्रत्येक चीज
अंकित है, वह
अंकित चीज हम
फिर से खोलकर
देखने लगते
हैं।
आंख
बंद करके हम
वही देखने
लगते हैं, जो हमने
खुली आंख से
कभी देखा। हां,
कभी-कभी नए
कांबिनेशन
बना लेते हैं।
उससे कोई फर्क
नहीं पड़ता।
लेकिन सब
पुराना ही
रहता है। उस
पुराने को हम
फिर जुगाली
करने लगते हैं,
जैसे जानवर
जुगाली करते
हैं न!
लेकिन
जानवर की
जुगाली सिर्फ
भोजन के लिए
होती है। और
हमारी जुगाली
भोजन के लिए
तो नहीं होती, विचारों के
लिए होती है।
जानवर खाना खा
लेता है, फिर
निकाल-निकालकर
चबाता रहता है
बैठकर। भैंस
को कभी देखें,
तो समझ में
आएगा। खाए हुए
खाने को
फिर-फिर से खाती
रहती है। हम
भी गृहीत किए
गए, ग्रहण
किए गए
संस्कारों को
फिर-फिर
दोहराते रहते
हैं।
आंख
बंद करके बैठ
जाएं, दिवास्वप्न
शुरू हो
जाएगा। फिल्म
चढ़ गई पर्दे पर।
वह जो हमने
देखा है, जाना
है, वह
फिर-फिर दोहरने
लगेगा।
न; इससे भी
हटना पड़ेगा।
अन्यथा आंख की
खिड़की से आप न
हटे। यह जो
भीतर विचार की
दुनिया जारी
हो जाती है, इसके भी
समझना कि मैं
पार हूं, इससे
भी पार हूं, इससे भी
भिन्न हूं।
इससे भी दूर
खड़े होकर देखना
कि ये विचार
चल रहे हैं, मैं देखने
वाला हूं। और
अगर तीन महीने
कोई इस स्मरण
में ठहर जाए, कि ये जो
विचार चल रहे
हैं, ये
दूर हैं, और
मैं देखने
वाला हूं...।
और
निश्चित ही आप
देखने वाले
हैं, आप विचार
नहीं हैं। आप
विचार होते, तो आपको कभी
पता ही न चलता
कि विचार चल
रहे हैं।
क्योंकि यह
उसे ही पता चल
सकता है, जो
दूर खड़ा है।
आपने
रात जाकर
फिल्म देखी है
सिनेमागृह
में। अगर आप
फिल्म ही होते, तो देखता
कौन? आप
फिल्म नहीं
हैं। आप
कुर्सी पर
बैठे हुए हैं।
बिलकुल अलग।
लेकिन अंधेरा
है कमरे में।
खुद दिखाई
नहीं पड़ते, फिल्म ही
दिखाई पड़ती
है। और फिल्म
ऐसी ग्रिप
बांध लेती है
मन पर कि
कभी-कभी दर्शक
भूल ही जाता
है कि वह है
भी। वह
करीब-करीब
अभिनय का पात्र
हो जाता है।
लोगों के
रूमाल गीले
निकलते हैं सिनेमागृह
से; आंसू
पोंछ-पोंछ कर
आ गए हैं!
कभी
पीछे लौटकर
सोचा है कि
पर्दे पर कुछ
भी न था, जिसके
लिए आप रोते
थे। सिर्फ
छाया और धूप
का खेल था। तब
मन में बड़ी
बेचैनी होगी
कि मैं भी
कैसा नासमझ
हूं! वहां कुछ
था नहीं।
सिर्फ
विद्युत के दौड़ते
हुए रूप थे।
कोई जीवन भी न
था वहां, लेकिन
भ्रम जीवन का
हो जाता है।
भ्रम जीवन का हो
जाता है। भूल
जाते हैं अपने
को, फिल्म
सब कुछ हो
जाती है, खुद
खो जाते हैं।
और सिनेमागृह
में तो तीन
घंटे बैठते
हैं, उसमें
इतनी गड़बड़ हो
जाती है--आंसू
आ जाते हैं, रूमाल भीग
जाता है, छाती
धड़कने
लगती है, हृदय
भारी हो जाता
है, दुखी
हो जाते हैं, सुखी हो
जाते
हैं--लेकिन
चित्त की जिस
फिल्म को आप
अनंत जन्मों
से देख रहे
हैं, अगर
उसमें ऐसा
तादात्म्य
गहन हो गया हो,
तो आश्चर्य
नहीं है। वहां
वह पूरे वक्त
चल रहा है।
सोते-जागते, मन के पर्दे
पर फिल्म जारी
है। इसमें कभी
अंतराल नहीं
आया, गैप
नहीं पड़ा।
इसलिए भयंकर
तादात्म्य हो
गया है। जैसे
कोई आदमी जिंदगीभर
सिनेमा में ही
बैठा रहे और
भूल जाए कि
मैं हूं।
सिनेमा ही हो
जाए! ऐसी
हमारी स्थिति
है।
इसे
तोड़ना पड़े।
इसे तोड़ने के
लिए जरूरी है
जानना कि मैं
दर्शक हूं। बस, यह स्मरण कि
मैं द्रष्टा
हूं।
कृष्ण
की सारी साधना
पद्धति
द्रष्टा की
है। मैं दर्शक
हूं, मैं
द्रष्टा हूं।
इसका स्मरण कि
मैं देख रहा
हूं। विचारो,
मैं
तुम्हारे साथ
एक नहीं हूं; तुम से दूर
खड़ा देख रहा
हूं।
यह
स्मरण गहरा हो
जाए, तो विचार
भी बंद हो
जाएंगे। आंख
भी बंद हो गई, बाहर का
आकाश दिखाई पड़ना बंद
हो गया। विचार
भी बंद हो गए, बाहर के
आकाश के बने
प्रतिबिंब भी
बंद हो गए। और
जिस दिन यह
होगा, उसी
दिन आप अंतर
के लोक से
पुनः उस विराट
आकाश में
पहुंच जाएंगे,
जिस पर कोई
खिड़की नहीं
है। और जिस
दिन आप उस विराट
आकाश को जान
लेंगे--चौखटे
से रहित, फ्रेमलेस--उसी दिन
आपको अनेक में
एक और एक में
अनेक दिखाई
पड़ने लगेगा।
जिन्हें
एक में अनेक देखना
है, उनके लिए
भक्ति सुगम
मार्ग है।
मैंने कहा, स्त्रैण
चित्त का वह
लक्षण है।
भक्ति का मार्ग
मूलतः
स्त्रैण है।
महावीर से
भक्ति नहीं करवा
सकते आप, मीरा
से ही करवा
सकते हैं।
महावीर जैसे
कि पुरुष
चित्त के
प्रतीक हैं।
अगर पुरुष
चित्त शुद्ध
हो, तो
महावीर जैसा
होगा। अगर
स्त्री चित्त
शुद्ध हो, तो
मीरा जैसा
होगा। एक
प्रतीक की तरह
ले रहा हूं इन
दो को।
स्त्री
चित्त शुद्ध
हो, तो मीरा
जैसा होगा। तो
मीरा गई है
वृंदावन और मंदिर
के पुजारी ने
कहा कि अंदर न
आने दूंगा, क्योंकि मैं
स्त्री का
चेहरा नहीं
देखता। तो मीरा
ने खबर भिजवाई
कि मैं तो
सोचती थी, कृष्ण
के सिवाय और
कोई पुरुष
नहीं है। आप
भी पुरुष हैं,
इसका मुझे
कुछ पता न था!
मैं एक दर्शन
आपका करना ही
चाहती हूं।
मैं दूसरे
पुरुष को भी
देख लूं!
यह एक
में अनेक को
खोजने वाला
चित्त है, जो कहता है
कि सिर्फ एक
ही पुरुष है, कृष्ण। सब
उसी में लीन
हो गए। दूसरा
तो कोई पुरुष
है नहीं; बाकी
तो सब
स्त्रियां
हैं।
पुजारी
ने चिट्ठी पढ़ी, घबड़ाया कि
पता नहीं कौन
आ गया! उस
पुजारी को पता
भी न होगा कि
कभी कोई शुद्ध
स्त्री आ सकती
है, जिसे
सिर्फ एक ही
पुरुष है।
माफी मांगी और
कहा, भीतर
आ जाओ, क्योंकि
मुझसे
ज्यादती हो गई
कि मैंने भी
पुरुष होने का
दावा किया।
कृष्ण के
मंदिर में
पुरुष होने का
दावा करने
वाला पुजारी
गलत पुजारी
है।
भक्ति
का मार्ग
स्त्रैण
चित्त का
मार्ग है--समर्पण
का, किसी के
चरणों में सब
रख देने का, और एक ही चरण
में पूरे जगत
के चरणों को
उपलब्ध कर
लेने का।
मूर्तियां
स्त्रियों ने
विकसित की हैं,
भला
पुरुषों ने
बनाई हों।
मूर्ति
स्त्रैण चित्त
के निकट है।
महावीर
शुद्ध पुरुष
चित्त हैं। वे
कहते हैं, कोई
परमात्मा
नहीं है।
महावीर का यह
कहना कि कोई
परमात्मा
नहीं है, आत्मा
ही परमात्मा
है, पुरुष
की शुद्धतम
घोषणा है।
पुरुष किसी
परमात्मा को
मान नहीं सकता।
क्योंकि
मानेगा, तो
समर्पण करना
पड़ेगा। पुरुष
समर्पण नहीं
कर सकता।
पुरुष संकल्प
कर सकता है, साधना कर
सकता है, गौरीशंकर पर चढ़ सकता
है। महावीर
कहते हैं, कोई
परमात्मा
नहीं है।
प्रत्येक
परमात्मा है।
स्वयं को जान लिया,
तो
परमात्मा को
जान लिया।
किसी दूसरे को
नहीं जानना
है।
पुरुष
स्वयं में
जीता है; स्त्री
सदा दूसरे में
जीती है। कभी
वह बेटे में
जीती है, कभी
पति में जीती
है, पर सदा
दूसरे में
जीती है।
दूसरे के बिना
उसका होना न
होने के बराबर
हो जाता है।
स्त्री का सारा
रस, सारा
जीवन दूसरे से
प्रतिध्वनित
होता है। उसका
बेटा प्रसन्न
है, और वह
प्रसन्न है।
पुरुष दूसरे
में नहीं जीता,
अपने में
जीता है, स्व-केंद्रित
जीता है।
स्त्री
पर-केंद्रित जीती
है।
परमात्मा
पर है। इसलिए
जैसे-जैसे
दुनिया में पुरुष
द्वारा
निर्मित
विज्ञान
विजयी हुआ, वैसे-वैसे
भक्ति के रूप
खंडित हुए।
क्योंकि विज्ञान
पुरुष की खोज
है, स्त्री
की खोज नहीं
है। कोई एक
मैडम क्यूरी
नोबल प्राइज
पा लेती हो; अपवाद है।
और मैडम
क्यूरी के पास
पुरुष जैसा चित्त
था, स्त्री
जैसा नहीं।
विज्ञान
पुरुष की खोज
है। इसलिए
जैसे-जैसे विज्ञान
जीतता गया, वैसे-वैसे
धर्म की बहुत
बुनियादी
शिलाएं आदमी तोड़ता चला
गया। क्योंकि
उसके मार्ग ही
अलग हैं।
अगर
आपके पास
समर्पण करने
की क्षमता है, तो आपके लिए
कोई भी चरण
परमात्मा के
चरण बन सकते
हैं। इसलिए
अगर
स्त्रियां कह
पाईं कि उन्हें
पति ही
परमात्मा है,
और अगर कोई
स्त्री पति
में परमात्मा
देख पाए, तो
पति इतना
विराट हो
जाएगा
धीरे-धीरे कि
सब, एक में
अनेक समा
जाएगा। अगर
देख पाए। वही
उसकी साधना बन
सकती है। न
देख पाए, तो
भी वह किसी को खोजेगी।
अब
महावीर जैसा
व्यक्ति, जो
कहता है, कोई
परमात्मा
नहीं है, उसके
पास भी...। महावीर
के पास पचास
हजार
संन्यासी थे,
तो केवल आठ
हजार
संन्यासी
पुरुष थे, बयालीस
हजार
संन्यासिनियां
स्त्रियां
थीं। महावीर
कहते हैं, कोई
परमात्मा
नहीं है।
लेकिन बयालीस
हजार स्त्रियां
कहती हैं, तुम
हमारे लिए
परमात्मा हो,
भगवान हो!
महावीर के चरण
में भी
उन्होंने
परमात्मा को
खोज लिया।
महावीर कितना
ही कहें, वह
महावीर के चरण
में भी
परमात्मा को
खोज लिया।
बुद्ध
ने इनकार किया, कोई
परमात्मा
नहीं है। और
इसलिए बुद्ध
ने बहुत दिन
तक जिद्द
की कि मैं
स्त्रियों को
दीक्षा न
दूंगा। बहुत
मजेदार घटना
है। बुद्ध ने
बहुत दिन जिद्द
की कि मैं
स्त्रियों को
दीक्षा नहीं
दूंगा। एक अर्थ
में जिद्द
ठीक थी, क्योंकि
बुद्ध का पथ
बिलकुल पुरुष
का पथ है। और
मजा यह है कि
पुरुष के पथ
पर स्त्री को
लाओ, तो
स्त्री न
बदलेगी, पथ
को बदल लेगी।
इसलिए बुद्ध
बहुत इनकार
किए कि क्षमा
करो। बहुत
मजबूरी में, बहुत दबाव
में, और
बड़ी एक
तार्किक घटना
के कारण बुद्ध
को दीक्षा
देने के लिए
राजी होना
पड़ा।
बुद्ध
की वृद्ध एक
रिश्तेदार है, गौतमी।
बुद्ध से उम्र
में बड़ी है।
रिश्ते में चाची
लगती है।
गौतमी बुद्ध
के पास आई। जब सैकड़ों
स्त्रियों को
बुद्ध इनकार
कर चुके, तो
गौतमी बुद्ध
के पास आई।
उसने यह नहीं
कहा, मुझे
दीक्षा दो।
उसने यह कहा
कि क्या
स्त्रियां
सत्य को नहीं
पा सकेंगी? बुद्ध ने
कहा, जरूर
पा सकेंगी।
क्या
स्त्रियों के
लिए सत्य का
द्वार बंद है?
बुद्ध ने
कहा, नहीं,
द्वार बंद
नहीं है। क्या
स्त्रियां
ऐसी अपवित्र
हैं कि सत्य
के निकट न
पहुंच सकें? बुद्ध ने
कहा कि
नहीं-नहीं, स्त्रियां
उतनी ही
पवित्र हैं, जितने
पुरुष। तो
गौतमी ने कहा
कि फिर बुद्ध
हमें दीक्षा
क्यों नहीं
देते हैं? क्या
हम वंचित रह
जाएं बुद्ध की
मौजूदगी से? फिर हमें कब
दूसरा बुद्ध
मिलेगा? उसका
कोई वचन है? उसका कोई
आश्वासन है? और अगर हम
नहीं पहुंच
पाए सत्य तक, तो
जिम्मेवार आप
भी होंगे।
बुद्ध
कठिनाई में पड़
गए। बुद्ध ने
कहा, मैं
दीक्षा देता
हूं। लेकिन
साथ ही यह भी
घोषणा करता
हूं कि मेरा
जो धर्म पांच
हजार वर्ष तक लोगों
के काम आता, अब पांच सौ
साल से ज्यादा
काम नहीं आ
सकेगा। और जब
किसी ने बुद्ध
से पूछा कि
ऐसा आप क्यों
कहते हैं? तो
उन्होंने कहा,
मैं
स्त्रियों को
दीक्षा दिया
हूं। पांच साल
भी बहुत है कि
मेरी पद्धति
शुद्ध रह जाए,
स्त्रियां
उसको बदल
देंगी।
क्योंकि
स्त्रैण
चित्त!
और बदल
डाला, बिलकुल
बदल डाला!
चित्त
हमारा दो
प्रकार का है।
लेकिन किसी भी
चित्त के पार
जाना हो, तो
इंद्रियों के
पार जाना
जरूरी है।
लेकिन जाने की
विधि में थोड़े
फर्क होंगे।
स्त्री चित्त
समर्पण से
जाएगा।
समर्पण कर
दिया अपना
प्रभु के लिए,
तो सब
इंद्रियां
समर्पित हो
गईं, स्वयं
भी समर्पित हो
गए। खुला आकाश,
विराट आकाश
उपलब्ध हो
गया।
पुरुष
समर्पण से
नहीं, संकल्प
से जाएगा।
संकल्पपूर्वक
एक-एक इंद्रिय
के ऊपर उठेगा।
भेद
ऐसा है, रामकृष्ण
के पास एक
आदमी आया। एक
हजार स्वर्ण-मुद्राएं
जाकर उसने
रामकृष्ण के
पैर में जोर से
पटकीं।
जोर से, ताकि
घाट पर इकट्ठे
लोगों को सोने
की खनखनाहट का
पता चल जाए कि
किसी ने आकर
सोना दान
किया! दानी जब
करता है, तो
घोषणा से ही
करता है! उसी
में दान बेकार
हो जाता है
यद्यपि।
रामकृष्ण
ने कहा, इतने
जोर से भाई
क्यों पटकता
है? दान
चुपचाप भी कर
सकता है! उस
आदमी को कुछ
होश आया। उसने
कहा, क्षमा
करें, भूल
हो गई। अनजाने
हो गया।
स्वीकार करके
मुझे कृतार्थ
करें।
रामकृष्ण ने
कहा, स्वीकार
कर लेता हूं।
क्योंकि कोई
मुझे गालियां
देने आए, तो
वह भी स्वीकार
कर लेता हूं, तू तो
स्वर्ण की
मुद्राएं
लाया! मैंने
स्वीकार कर
लीं। अब मेरी
तरफ से जाकर
इनको गंगा में
फेंक आ।
तो वह
आदमी मुश्किल
में पड़ा। एक
हजार
स्वर्ण-मुद्राएं!
गया गंगा के
किनारे। बड़ी
देर लगा दी।
लौटा नहीं।
रामकृष्ण ने
कहा, भाई, जरा
देखो, वह
आदमी कहां है?
बड़ी देर लग
गई। फेंकने को
कहा था! एक
सेकेंड का काम
था। फेंककर
चलकर आ गया
होता।
लोग
देखने गए। और
उन्होंने आकर
बताया कि वह
एक-एक अशर्फी
को बजाकर देख
रहा है। और
बजाकर फेंकता
है और कहता है, आठ सौ दस, आठ
सौ ग्यारह, आठ सौ बारह...!
वह गिन-गिनकर
फेंक रहा है!
भीड़ इकट्ठी है
वहां भारी।
जब वह
आदमी लौटा, पसीना-पसीना,
घंटों की
मेहनत के बाद।
रामकृष्ण ने
कहा, तू
बड़ा पागल है।
जो काम एक ही
कदम में किया
जा सकता था, वह तूने
हजार कदम में
किया! फेंकनी
ही थीं, जोड़नी तो नहीं
थीं। जोड़ते
वक्त गिनती की
कोई सार्थकता
भी है। फेंकते
वक्त तो गिनती
की कोई
सार्थकता
नहीं है। आदमी
तिजोड़ी
में जोड़ता है,
तो एक-एक
गिनकर जोड़ता
है। जोड़ने
के वक्त तो
गिनती की
सार्थकता है।
क्योंकि जोड़ने
वाला चित्त
अगर गिनेगा
नहीं, तो
पता कैसे
चलेगा कि
कितना जोड़ा? लेकिन छोड़ते
वक्त गिनती की
कौन-सी
आवश्यकता है?
तू इकट्ठा
ही झोला फेंक
देता!
एक-एक
करके फेंका
उसने। संकल्प
एक-एक करके ही फेंक
पाता है।
समर्पण
इकट्ठा फेंक
देता है। समर्पण
का मतलब है कि
तुम्हीं
सम्हालो ये
इंद्रियां; तुम्हीं
सम्हालो ये सब
कुछ।
तुम्हारे
चरणों में रख
दिया सिर, तुम
जानो। इकट्ठा
फेंक देता है।
संकल्प एक-एक इंद्रिय
से लड़ेगा।
एक-एक इंद्रिय
से लड़ेगा, एक-एक
इंद्रिय को
छोड़ेगा।
परिणाम वही
होता है।
पुरुष का
रास्ता थोड़ा
लंबा है। स्त्री
का रास्ता शार्टकट
है। लेकिन
पुरुष के लिए शार्टकट
नहीं है, बहुत
लंबा हो
जाएगा।
स्त्री का
रास्ता बहुत निकटतम
है--छलांग का।
अपने
चित्त की तलाश
कर लेनी
चाहिए। जरूरी
नहीं है कि आप
पुरुष हैं, तो आपके पास
पुरुष चित्त
हो। इस भ्रम
में मत पड़ना
कि पुरुष होने
से पुरुष
चित्त होता
है। स्त्री
हों, तो
स्त्री चित्त
हो, इस
भ्रम में मत पड़ना।
इसकी
तलाश कर लेना
कि आपके चित्त
का ढंग क्या है? समर्पण का
ढंग है या
संकल्प का ढंग
है? आपकी
सामर्थ्य
अपने को किसी
के हाथ में
छोड़ देने की
है? नदी से
अगर सागर तक
पहुंचना हो, तो आप तैरकर
पहुंचिएगा
कि बहकर पहुंचिएगा?
इसकी जरा
ठीक से खोज कर
लेना।
अगर
बहकर पहुंच
सकते हों, तो समर्पण
मार्ग है। फिर
नदी के हाथ
में छोड़ दिया
कि ले चल। नदी
तो सागर जा ही
रही है, ले
जाएगी। लेकिन
अगर आप तैरने
वाले आदमी हैं,
तो तैरेंगे
सागर की तरफ।
नदी तो मेहनत
कर ही रही है, आप भी मेहनत
करेंगे।
जरूरी नहीं है
कि तैरकर
आप थोड़ी जल्दी
पहुंच
जाएंगे। हो
सकता है, थोड़ी
देर से ही
पहुंचें, क्योंकि
तैरने में
नाहक शक्ति
व्यय होगी। नदी
सागर की तरफ
बह ही रही है, आप सिर्फ बह
गए होते, तो
भी पहुंच गए
होते। लेकिन
आप पर निर्भर
है।
पुरुष
चित्त को बहने
में रस न
आएगा। वह
कहेगा, यह
भी क्या हो
रहा है! तैरने
का कोई मौका
ही नहीं! तो
पुरुष चित्त
अक्सर नदी से
उलटा तैरने लगता
है, क्योंकि
उलटा नदी में
तैरने में
ज्यादा संकल्प
को मौका मिलता
है, क्रिस्टलाइजेशन।
पुरुष का
मार्ग है, क्रिस्टलाइजेशन।
सख्त हीरे की
तरह भीतर कोई
चीज मजबूत
होती चली
जाएगी। इसलिए
पुरुष के सब
मार्ग आत्मा
की घोषणा करेंगे।
स्त्री
का मार्ग है, विसर्जन।
कोई चीज पानी
की तरह तरल
होकर बह जाएगी।
इसलिए स्त्री
के मार्ग
परमात्मा की
घोषणा
करेंगे।
एक में
देख लें सबको
या सबमें देख
लें एक को। थोड़े
विधियों के
भेद होंगे।
लेकिन
इंद्रियों से
पार उठना
पड़ेगा। या तो
एक-एक इंद्रिय
के साक्षी
बनकर पार उठें, या समस्त
इंद्रियों को
एक बार ही
प्रभु के चरणों
में सौंप दें।
आप
सोचते होंगे, बड़ा सरल है; एक बार जाकर
प्रभु के
चरणों में
सौंप दें; झंझट
से छूटे। अगर
आपके मन में
ऐसा खयाल आया
हो कि एक बार
जाकर प्रभु के
चरणों में
सौंप दें, झंझट
से छूटे, तो
आप सौंप न
पाएंगे। आप
सौंप न पाएंगे,
क्योंकि आप
झंझट से छूटने
को सौंप रहे
हैं। झंझट आप
ही हैं।
लेकिन
अगर आपको ऐसा
खयाल आया कि
यह तो बात
बिलकुल ठीक है; छोड़ दिया।
छोड़ देंगे
नहीं; कल
छोड़ देंगे
नहीं। वह
पुरुष चित्त
का लक्षण है--जाऊंगा, करूंगा, छोडूंगा।
वह छोड़ने में
भी करना
करेगा। समर्पण
भी उसके लिए
एक संकल्प ही
होगा। वह
कहेगा, मैं
तैयारी कर रहा
हूं, संकल्प
कर रहा हूं कि
समर्पण कर दूं!
अगर समर्पण भी
आएगा, तो
संकल्प के ही
द्वार से
आएगा। अगर वह
प्रभु के
चरणों में
अपने को झुकाएगा
भी, तो यह
बड़े व्यायाम
और कसरत का फल
होगा। भारी कसरत
करेगा! और
कसरत से कोई
झुका है? अकड़ना
हो, तो
कसरत ठीक है।
झुकना हो, तो
नहीं। लेकिन
अकड़ना हो, तो
पूरे अकड़ जाएं।
बड़े
मजे की बात है
कि अगर पूरे
अकड़ जाएं, तो एक दिन
अचानक पाएंगे
कि सब बिखर
गया। यह मुट्ठी
है मेरी, इसको
मैं बांधता
चला जाऊं और
इतना बांधूं,
इतना जितना
कि मेरी ताकत
है। फिर एक
क्षण आ जाएगा
कि यह मुट्ठी
खुल
जाएगी--जिस
क्षण मेरी ताकत
चुक जाएगी
बांधने की। और
ताकत चुक
जाएगी; ताकत
सीमित है।
आप
करके देखना। बांधते
जाना, बांधते जाना, पूरी
ताकत लगा
देना। एक क्षण
आप अचानक
पाएंगे कि अब
आप और नहीं
बांध सकते हैं,
और देखेंगे
कि अंगुलियां
खुल रही हैं!
हां, कुनकुना
बांधे रहें, धीरे-धीरे, तो जिंदगीभर
बांधे रह सकते
हैं।
अकड़ना
ही हो, तो
पूरे अकड़
जाना। कहना, कोई ब्रह्म
नहीं है, मैं
ही ब्रह्म
हूं। लेकिन
फिर इसको इस
घोषणा से कहना
कि पूरा जीवन
इस पर लगा
देना। एक क्षण
आएगा कि यह
बिखराव
उपलब्ध हो
जाएगा। लेकिन
तनाव से
विश्राम आएगा
पुरुष को। थ्रू
टेंशन इज़ रिलैक्सेशन।
पुरुष
के लिए गहरे
तनाव से
विश्राम
आएगा। जैसे कि
तीर को खींचा
है प्रत्यंचा
पर। खींचते गए, खींचते गए, पूरा खींच
लिया। फिर कभी
आपने खयाल
किया है कि
बड़ी उलटी घटना
घटती है! तीर
की प्रत्यंचा
को खींचते हैं
पीछे की तरफ, और तीर जाता
है आगे की
तरफ। फिर एक
क्षण आता है कि
और नहीं खींच
सकते और
प्रत्यंचा
छूट जाती है, और तीर आगे
की यात्रा पर
निकल जाता है।
आप तो
पीछे की तरफ
खींच रहे थे, यात्रा तो
उलटी हो गई।
आप तो खींच
रहे थे--मैं, मैं, मैं।
पूरा खींचते
चले जाएं, एक
दिन आप अचानक
पाएंगे, बिखराव
आ गया; तीर
छूट गया, प्रत्यंचा
टूट गई; ना
मैं की तरफ
यात्रा शुरू
हो गई; परमात्मा
में उपलब्धि
हो गई। लेकिन
मैं को खींचकर
होगी पुरुष की
उपलब्धि।
स्त्री मैं को
ऐसे ही
समर्पित कर
सकती है।
इसलिए स्त्री
और पुरुष के
बीच कभी
अंडरस्टैंडिंग
नहीं हो पाती।
एक
स्त्री ने आकर
मुझे कहा कि
मुझे संन्यास
लेना है, लेकिन
मेरे पति कहते
हैं, क्या
होगा संन्यास
लेने से! मैं
उनको कैसे समझाऊं?
मुझे तो लग
रहा है, सब
कुछ होगा।
लेकिन वे कहते
हैं, बताओ
क्या होगा? कैसे होगा? मुझे तो लग
रहा है कि यह
खयाल ही कि
संन्यास लेना
है, मेरे
भीतर कुछ होना
शुरू हो गया।
जब लूंगी,
तब तो होगा।
अभी तो खयाल
से कुछ मेरे
भीतर हो रहा
है। और वे कहते
हैं, क्या
होगा? कैसे
होगा? मुझे
बताओ। मुझे भी
तो सिद्ध करो।
वह
स्त्री सिद्ध
न कर पाएगी।
सिद्ध करने
में पड़ेगी, तो कठिनाई
में पड़ेगी। जो
हो रहा है, वह
भी बंद हो
जाएगा। सिद्ध
करना पुरुष
चित्त का
लक्षण है।
स्वीकार कर
लेना स्त्री
चित्त का
लक्षण है। और
सिद्ध करके भी
स्वीकार ही तो
उपलब्ध होता
है! मगर जरा लंबी
यात्रा है।
स्त्री बिना
सिद्ध किए भी
स्वीकार कर
सकती है। और
स्वीकार करते
ही सिद्ध हो
जाता है। बस, इतना ही
फर्क होगा, आगे-पीछे
का। पुरुष
पहले सिद्ध
करेगा, फिर
स्वीकार
करेगा।
स्त्री पहले
स्वीकार लेगी,
और फिर
सिद्ध कर
लेगी। पर इतना
फर्क होगा।
और वे
पुरुष ठीक पूछ
रहे हैं। उनका
पूछना बिलकुल
दुरुस्त है।
लेकिन वह अपने
लिए ही पूछें, तो ठीक है; स्त्री के
लिए न पूछें।
उसे अपने
मार्ग से जाने
दें। उसे अपने
मार्ग से जाने
दें। हां, जब
उनका सवाल हो
खुद का, तो
पूरा सिद्ध
करके फिर
संन्यास लें।
लेकिन स्त्री
को जाने दें।
जिसे बिना
सिद्ध किए
संन्यास का
भाव आता हो, उसे सिद्ध
करने की कोई
जरूरत नहीं
रही, क्योंकि
सिद्ध करने की
जरूरत इतनी ही
है कि भाव आ
जाए।
लेकिन
पुरुष सोचेगा, विचारेगा, गणित लगाएगा,
हिसाब
लगाएगा, हर
चीज की जांच
करेगा, कि
होगा कि नहीं
होगा? कितना
होगा? जितना
छोड़ेंगे,
जितना कष्ट
पाएंगे, उससे
सुख ज्यादा
होगा कि कम
होगा? वह
यह सब सोचेगा।
और अगर
कोई स्त्री
पुरुष से बहुत
प्रभावित हो जाए, तो नुकसान
में पड़ेगी। और
अगर कोई पुरुष
स्त्री से
बहुत
प्रभावित हो
जाए, तो
नुकसान में
पड़ेगा। और
दुर्भाग्य यह
है कि पुरुष
स्त्रियों से
प्रभावित
होते हैं, और
स्त्रियां
पुरुषों से
प्रभावित
होती हैं। ऐसा
होता है। और
दोनों का रुख
जीवन के प्रति
बहुत भिन्न
है।
करीब-करीब
ऐसा कि जैसे
हम जमीन पर एक
वर्तुल, एक सर्किल
खींच दें। उस
वर्तुल के एक
बिंदु पर पुरुष
खड़ा हो, बाईं
तरफ मुंह किए;
उसी बिंदु
पर स्त्री खड़ी
हो, दाईं
तरफ मुंह किए।
दोनों की
पीठें मिलती
हों। पुरुष और
स्त्रियां
बहुत कोशिश
करते हैं कि दोनों
आमने-सामने से
आलिंगन में
मिल जाएं। वह घटना
घटती नहीं।
धोखा ही सिद्ध
होती है।
क्योंकि उनके
रुख बड़े विपरीत
हैं। उनकी
दोनों की पीठ
ही मिल सकती
हैं।
लेकिन
अगर वे दोनों
अपनी-अपनी
यात्रा पर
निकल जाएं, तो वर्तुल
पर एक बिंदु
ऐसा भी आएगा, जहां उन
दोनों के
चेहरे मिल
जाएंगे।
दोनों
चले जाएं अपनी
यात्रा पर; पुरुष बाएं
चला जाए, स्त्री
दाएं चली जाए।
और पुरुष न
कहे कि दाएं जाने
से कुछ न होगा,
क्योंकि
मैं बाएं जा
रहा हूं। और
स्त्री न कहे
कि बाएं जाने
से क्या होने
वाला है, मुझे
तो दाएं जाने
से बहुत कुछ
हो रहा है।
मत लड़ो।
दाएं-बाएं ही
चले जाओ। जरूर
वह बिंदु एक
दिन आ जाएगा
तुम्हारी ही यात्रा
से, जहां तुम
आमने-सामने
मिल जाओगे।
लेकिन वह बिंदु
अंतिम बिंदु
है। पड़ाव
का प्रारंभ
बिंदु नहीं है
यात्रा का; मंजिल का
अंतिम बिंदु
है। और इतनी
समझ हो, तो
स्त्री-पुरुष
एक-दूसरे के
सहयोगी हो
जाते हैं।
इतनी समझ न हो,
तो एक-दूसरे
के विरोधी हो
जाते हैं और जीवनभर
बाधा डालते
हैं।
कृष्ण
कहते हैं, ऐसा जो
इंद्रियों के
पार गया हुआ
व्यक्ति है, उसके लिए
परमात्मा
दृश्य हो जाता
है। निश्चित
ही हो जाता
है। क्योंकि
निराकार तब
आकारों में
खंडित नहीं
होता, तब
निराकार अपनी
समग्रता में
प्रकट होता
है।
ध्यान
रहे, आकार को
देखना हो, तो
आपके भीतर
अहंकार जरूरी
है। निराकार
को देखना हो, तो आपके
भीतर अहंकार
बाधा है।
क्योंकि
अहंकार आकार
देता रहेगा।
अहंकार बड़ी
छोटी-सी चीज
है, लेकिन
बड़े-बड़े आकार
उससे पैदा
होते हैं। ठीक
ऐसे जैसे कोई
शांत झील में
एक पत्थर का
छोटा-सा कंकड़
डाल दे। कंकड़
तो बड़ा
छोटा-सा होता
है, बहुत
जल्दी जाकर
जमीन में बैठ
जाता है।
लेकिन कंकड़
से जो लहरें
पैदा होती हैं,
वे विराट
होती चली जाती
हैं, फैलती
चली जाती हैं।
अहंकार
तो बहुत
छोटी-सी चीज
है, लेकिन वह
बड़े-बड़े आकार
पैदा करता है,
निराकार
कभी नहीं। बड़े
से बड़ा आकार
पैदा कर सकता
है, निराकार
कभी नहीं।
निराकार तो तब
पैदा होगा, जब कंकड़
ही न हो, लहर
ही न उठे, तब
निराकार की निस्तरंग
स्थिति होगी।
अहंकार
खो जाए! या तो
अहंकार इतना
मजबूत होता चला
जाए कि अपने
आप अपनी ही
ताकत से टूट
जाए, जैसा
पुरुष के जीवन
में घटित होता
है। जैसा महावीर
के जीवन में
घटित होता है।
अहंकार सख्त,
सख्त और
मजबूत होता
चला जाता है।
छोटा होता चला
जाता है--छोटा,
छोटा, छोटा--एटामिक, अणु जैसा हो
जाता है, परमाणु
जैसा हो जाता
है। और फिर
आखिर इतना छोटा
हो जाता है कि
उसके आगे जाने
का कोई उपाय
नहीं रहता।
इतना कंडेंस्ड
कि अब आखिरी
कोई गति नहीं
रहती। टूटकर
बिखर जाता है,
एक्सप्लोजन
हो जाता है।
स्त्री
का अहंकार बड़ा
होता चला जाता
है; इतना बड़ा
कि परमात्मा
से एक हो जाता
है। अगर मीरा
से कृष्ण की
बातें सुनी
हैं, तो
खयाल में
आएगा। इधर पैर
पर सिर भी
रखती है, उधर
कृष्ण से
नाराज भी हो
जाती है।
डांट-डपट भी
कर देती है।
इधर सिर रख
देती है पैर
पर, उधर
कृष्ण पर
नाराज भी हो
जाती है! उधर
कृष्ण से कभी
रूठ भी जाती
है। बड़ा होता
जाता है। इतना
बड़ा, इतना
बड़ा कि
परमात्मा से रूठने की
सामर्थ्य भी आ
जाती है। और
जब इतना बड़ा
हो जाता है कि
परमात्मा के
बराबर हो जाए,
तो खो जाता
है।
दो
खोने के ढंग
हैं। या तो
मैं इतना बड़ा
हो जाए कि
परमात्मा
जैसा। और या
मैं इतना छोटा
हो जाए, जितना
हो सकता है।
दोनों
स्थितियों
में छूट जाएगा,
विदा हो
जाएगा।
कृष्ण
कहते हैं, ऐसी स्थिति
को उपलब्ध
व्यक्ति के
लिए मैं साकार
जैसा, दृश्य
हो जाता हूं, निराकार
होते हुए। और
दूसरी बात तो
और भी अदभुत
कहते हैं कि
और ऐसा
व्यक्ति मुझे
दृश्य हो जाता
है।
यह
दूसरी बात का
क्या राज है?
परमात्मा
को तो हम सब
दृश्य होने ही
चाहिए, चाहे
हम कैसे भी
हों। चाहे हम
कैसे भी
हों--बुरे हों,
भले हों, अज्ञानी हों,
पापी हों--कैसे
भी हों; बाकी
उसकी आंख में
तो हम दिखाई
पड़ने ही
चाहिए। उसकी
आंख में हम
दिखाई नहीं
पड़ते! कृष्ण
का यह वक्तव्य
बहुत अदभुत
है। शायद
दुनिया के
किसी शास्त्र
में ऐसा
वक्तव्य नहीं
है।
सभी
शास्त्र ऐसा
कहते हैं कि
वह तो हमें
देख ही रहा
है। सब तरफ से
देख रहा है।
सब जगह से देख
रहा है। ऐसी
कोई जगह नहीं
है, जहां वह
हमें न देख
रहा हो; उसकी
आंख हम पर न
लगी हो।
कृष्ण
का यह वक्तव्य
तो बहुत भिन्न
है। भिन्न ही
नहीं, बहुत डायमेट्रिकली
अपोजिट
है। इस
वक्तव्य का
दूसरा मतलब यह
हुआ कि जब तक हम
इस स्थिति में
नहीं हैं, तब
तक परमात्मा
हमें नहीं देख
रहा है? हम
उसके लिए न
होने के बराबर
हैं? अदृश्य
हैं? हम
उसी दिन दृश्य
होंगे, जिस
दिन वह हमारे
लिए दृश्य हो
जाएगा? इसका
क्या मतलब हो
सकता है?
इसके दोत्तीन
मतलब खयाल में
ले लेने जैसे
हैं, गहरे हैं,
सूक्ष्म।
और यह वक्तव्य
बहुत कीमती
है।
पहला
मतलब तो यह है
कि परमात्मा
ही नहीं, कहीं
भी, हम
सिर्फ वही देख
पाते हैं जो
हम हैं।
परमात्मा भी
वही देख पाता
है, जो वह
है। जब तक हम
परमात्मा
जैसे नहीं हो
जाते, हम
उसे दिखाई
नहीं पड़ सकते।
हम उसे
दिखाई नहीं पड़
सकते, क्योंकि
वह इतना
शुद्धतम, और
हम अभी इतने
अशुद्ध कि उस
शुद्धि में
हमारी
अशुद्धि का
कोई प्रतिफलन
नहीं हो सकता।
उस शुद्धतम
में हमारी अशुद्धि
का कोई
प्रतिफलन
नहीं हो सकता।
वह अशुद्धि
हमसे कटे, हटे,
तो ही हम
शुद्ध होकर
उसमें
प्रतिफलित हो
सकते हैं।
इसमें
कसूर
परमात्मा का
नहीं है, इसमें
हमारी
अशुद्धि बाधा है।
वह इतना विराट,
इतना
निराकार, इतना
असीम! और हम
इतने आकार से
भरे हुए कि उस
निराकार की
आंख में हमारा
आकार पकड़ में
नहीं आ सकता।
ध्यान
रहे, जिस तरह
आकार वाली आंख
में निराकार
पकड़ में नहीं
आ सकता, उसी
तरह निराकार
की आंख में
आकार पकड़ में
नहीं आ सकता।
आकार इतनी
क्षुद्र घटना
है कि उस
निराकार की
आंख में कैसे
पकड़ में आएगा?
असल में
निराकार और
आकार का कोई
संबंध नहीं बन
सकता। असंभव
है। निराकार
आकार से
मिलेगा कैसे!
इसे
थोड़ा ऐसा
समझें कि अगर
निराकार आकार
से मिल सके, तो निराकार
भी आकार वाला
हो जाएगा।
क्योंकि निराकार
अगर आकार से
मिले, तो
उसका अर्थ है
कि आकार तो
निराकार के
बाहर होगा, समथिंग आउट
साइड। और अगर
निराकार के
बाहर कोई चीज
है, तो जो
चीज बाहर है, वह निराकार
का आकार बना
देगी।
सब
आकार दूसरे से
बनते हैं।
आपके घर की जो बाउंड्री
है, वह आपके
घर से नहीं
बनती, आपके
पड़ोसी के घर
से बनती है।
अगर इस पृथ्वी
पर आपका ही
अकेला घर हो, तो आपके घर
की कोई बाउंड्री
न होगी।
सब
सीमाएं दूसरे
से बनती हैं।
इसलिए जो असीम
है, उसके लिए
दूसरा तो हो
ही नहीं सकता,
क्योंकि वह
सीमित हो
जाएगा।
हम तो
उसी दिन उसके
लिए हो सकते
हैं, जिस दिन
हम भी असीम
हों। असीम का
असीम से मिलन
हो सकता है; असीम का
सीमित से मिलन
नहीं हो सकता।
सीमित का
सीमित से मिलन
हो सकता है।
असीम का असीम
से मिलन हो
सकता है।
सीमित का
असीमित से
मिलन नहीं हो
सकता। असीमित
का सीमित से
भी मिलन नहीं
हो सकता। यह
असंभव है।
इसका कोई उपाय
नहीं है।
इसलिए
कृष्ण ठीक
कहते हैं। वे
कहते हैं, हम उन्हें
तब तक दिखाई
नहीं पड़ेंगे,
उनकी
दृष्टि में
नहीं पड़ेंगे,
जब तक कि हम
ऐसे न हो जाएं
कि या तो हमें
एक में सब
दिखाई पड़ने
लगे, और या
सब में एक
दिखाई पड़ने
लगे।
उसी
क्षण हम
परमात्मा के
साक्षात्कार
में हो जाएंगे।
साक्षात्कार
में कहना ठीक
नहीं, भाषा
की गलती है।
हम परमात्मा
के साथ एकात्म
हो जाएंगे, एकाकार हो
जाएंगे। उस
क्षण हम भी
निराकार होंगे।
या ऐसा कहें
कि उस क्षण हम
भी परमात्मा
होंगे।
परमात्मा
ही परमात्मा
से मिल सकता
है, उससे
नीचे मिलने का
उपाय नहीं है।
मिलना हमेशा
समान का होता
है। असमान का
कोई मिलना
नहीं होता। सम्राट
से मिलना हो, तो सम्राट
हो जाना जरूरी
है; चपरासी
होकर मिलना
बहुत कठिन है।
परमात्मा से
मिलना हो, तो
परमात्मा हो
जाना जरूरी
है। वही
योग्यता है
मिलने की, अन्यथा
कोई योग्यता
नहीं है।
इसी
चेहरे को, इसी स्थिति
को लेकर
परमात्मा के
सामने हम न जा
सकेंगे। आग से
किसी को मिलना
हो, तो
जलना सीखना
चाहिए; बस,
मिल जाएगा।
जल जाए, तो
आग से एक हो
जाएगा। लेकिन
कोई सोचता हो
कि बिना जले
आग से मुलाकात
हो जाए, तो
न होगी; मुलाकात
ही न होगी।
मुलाकात ही तब
होगी, जब
जलने की
तैयारी हो।
जब कोई
परमात्मा के
साथ खोने को
राजी है, मिटने
को राजी है, एकाकार होने
को राजी है...।
और एकाकार
होने को वही
राजी होता है,
जिसको अपने
निराकार का
बोध हो जाता
है। नहीं तो
आप अपने आकार
को बचाते
फिरते हैं कि
कहीं नष्ट न
हो जाए।
क्योंकि मैं
आकार हूं, अगर
आकार मिट गया,
तो मैं मिट
गया। जिस दिन
आप जानते हैं,
मैं
निराकार हूं,
उस दिन इस
शरीर को आप
कपड़े की तरह उतारकर रख
देने को राजी
हो सकते हैं।
उस दिन इन
इंद्रियों को
आप चश्मे की
तरह उतारकर
रख देने को
राजी हो सकते
हैं। उस दिन
आप निराकार
हैं। फिर
निराकार और
निराकार के
बीच कोई
व्यवधान नहीं
है। कोई
व्यवधान नहीं
है। दोनों के
बीच फिर कोई
सीमा नहीं है।
दोनों एक हो
गए हैं।
जैसे
कोई बूंद कहे
कि मैं बूंद
रहकर सागर से
मिल जाऊं, तो न मिल
सकेगी। सागर
भी चाहे--बूंद
तो समझ लें कि
असमर्थ है
बेचारी, कमजोर
है--अगर सागर
भी चाहे कि
मैं बूंद को
बूंद रहने दूं
और मिल जाऊं, तो सागर भी न
मिल सकेगा।
अगर बूंद को
सागर से मिलना
है, तो
सागर में खो
जाना पड़ेगा।
और अगर सागर
को बूंद में
अपने को
मिलाना है, तो बूंद को
खो देने के
सिवाय कोई
रास्ता नहीं है।
हम
परमात्मा के
लिए तभी दृश्य
होते हैं, जब परमात्मा
हमारे लिए
दृश्य हो जाता
है। जब तक
परमात्मा हमारे
लिए अदृश्य है,
हम भी उसके
लिए अदृश्य
हैं। जब तक
परमात्मा हमें
ऐसा है, जैसे
नहीं है, तब
तक हम भी
परमात्मा के
लिए ऐसे हैं, जैसे नहीं
हैं।
एक
कैथोलिक नन के
जीवन को मैं
पढ़ता था। एक
कैथोलिक
संन्यासिनी
का जीवन मैं पढ़ता
था। कैथोलिक
मान्यता है कि
परमात्मा हर वक्त
देख रहा है सब
जगह। आश्रम
में थी वह
संन्यासिनी।
वह अपने बाथरूम
में भी कपड़े
पहनकर ही
स्नान करती
थी! जब लोगों को
पता चला, मित्रों
को, साथी-संगिनियों
को पता चला, तो उन्होंने
कहा कि तू
पागल तो नहीं
है! बाथरूम
बंद करके, कपड़े
उतारकर
स्नान कर सकती
है! कपड़े
पहनकर स्नान
करने की क्या
जरूरत है? वहां
तो कोई भी
देखने वाला
नहीं है। उस
स्त्री ने
कहा--गणित
उसका साफ
था--उसने कहा
कि मैंने पढ़ा
है किताब में
कि परमात्मा
सब जगह देखता
है।
मगर
उसकी नासमझी
भी गहरी है, क्योंकि जो बाथरूम में
घुसकर देख
लेगा, वह
कपड़े के भीतर
घुसकर नहीं
देख लेगा!
इससे अच्छा तो
यह होता कि वह
सड़क पर नग्न
खड़ी हो जाती; क्योंकि जब
वह सभी जगह
देख ही रहा है!
कपड़े के पार
भी उसकी आंख
चली ही जाती
होगी, जब
ईंट-पत्थर के
पार चली जाती
है। और हड्डी
के पार भी चली
जाती होगी!
सभी
जगह वह देख
रहा है, फिर
भी हम उसकी
पकड़ में आने
वाले नहीं
हैं। उसकी आंख
बहुत बड़ी है
और हम बहुत
छोटे हैं। वह
बहुत निराकार
है, हम
बहुत साकार
हैं। वह
बिलकुल
निर्गुण है, हम बिलकुल
सगुण हैं। वह
बिलकुल शून्यवत
है और हम
अहंकार हैं।
इसलिए पकड़ में
हम न आएंगे।
हम गुजरते
रहेंगे आर-पार
उसके। उसके ही
आर-पार गुजरते
रहेंगे--उसमें
ही जीएंगे, उसमें ही
जगेंगे, उसमें
ही सोएंगे, उसमें ही
पैदा होंगे, उसमें ही
मरेंगे--और
फिर भी वह
हमें नहीं देख
पाएगा।
अभी
हमारी
पात्रता भी
नहीं कि वह
हमें देखे। हमारी
पात्रता की
घोषणा उसी
क्षण होती है, जिस क्षण हम
उसे देख लेते
हैं।
कृष्ण
का यह सूत्र
कीमती है, समझने जैसा
है।
प्रश्न:
भगवान
श्री, इस
श्लोक में
कृष्ण कहते
हैं, मुझ
वासुदेव को
देखता है। यह
वासुदेव शब्द
का उपयोग यहां
किस अर्थ में
है?
जब
कृष्ण कहते
हैं, मुझ
वासुदेव को
देखता है, मुझ
कृष्ण को
देखता है, मुझे
देखता है, तो
कृष्ण जब अपने
लिए वासुदेव
या मैं या
कृष्ण, मामेकं--इस तरह के
शब्दों का
प्रयोग करते
हैं, तब
ध्यान रखना कि
इन सब शब्दों
का प्रयोग
अर्जुन के
निमित्त है।
इन सब शब्दों
का प्रयोग अर्जुन
के निमित्त
है।
अर्जुन
समझ ही नहीं
पाएगा, अगर
कृष्ण कहें कि
मुझ निराकार
को देखता है।
या कहें कि
मुझ में शून्य
को देखता है।
या कहें कि
उसे देखता है,
जो मेरे
भीतर है ही
नहीं!
अगर
कृष्ण
निगेटिव
शब्दों का
उपयोग करें, जो कि
ज्यादा सही
होंगे, तो
अर्जुन
बिलकुल समझ न
पाएगा। बात
ठीक होगी, लेकिन
अर्जुन की समझ
के बाहर पड़
जाएगी।
अर्जुन
तो कृष्ण को
ही समझता है, वासुदेव को
समझता है, अर्जुन
तो अभी कृष्ण
के रूप को
समझता है, आकार
को समझता है।
अभी तो आकार
की भाषा में
ही अर्जुन से
बात की जा
सकती है। नहीं
तो डायलाग,
संवाद नहीं
होगा।
हां, जब कृष्ण
धीरे-धीरे
तैयार कर लेंगे
अर्जुन को, तो अपना
निराकार रूप
भी दिखा
देंगे। तब वे
वासुदेव नहीं
रह जाएंगे, तब वे
परात्पर
ब्रह्म हो
जाएंगे। तब वे
कृष्ण नहीं रह
जाएंगे, स्वयं
जगत की सत्ता
हो जाएंगे। तब
वे अपने सब आकारों
को उतारकर
नीचे रख देंगे
और विराट को
खुला छोड़
देंगे।
लेकिन
तब भी अर्जुन
कहां पूरा
तैयार हो पाया
था? कैसा
घबड़ा गया! और
कहा कि बंद
करो यह रूप।
बंद करो। घबड़ाते
हैं प्राण।
घबड़ाएगा ही।
कृष्ण
को तो अर्जुन
के पास आना है, तो सागर की
भाषा नहीं बोलनी
पड़ेगी, बूंद
की ही भाषा बोलनी
पड़ेगी। नहीं
तो अर्जुन तो
समझेगा ही
नहीं। और अगर
प्रयोजन यही
है कि अर्जुन
समझे, तो
अर्जुन की ही
भाषा का उपयोग
करना उचित है।
ध्यान
रहे, इस
पृथ्वी पर जो
शिक्षक अपनी
भाषा का उपयोग
करते हैं, वे
किसी के काम
नहीं पड़ते। जो
शिक्षक आपकी
भाषा का उपयोग
करते हैं, वे
ही काम पड़ते
हैं। मगर
दुर्भाग्य
ऐसा है कि जो
शिक्षक अपनी
भाषा का उपयोग
करते हैं, वे
आपको खूब जंचते
हैं। और जो
शिक्षक आपकी
भाषा का उपयोग
करते हैं, वे
आपको बहुत जंचते
नहीं।
क्योंकि आपकी
भाषा का उपयोग
करने के साथ
ही गलतियां
शुरू हो जाती
हैं। आपमें
गलतियां हैं,
आपकी भाषा
में गलतियां
हैं।
हां, अगर शिक्षक
अपनी ही भाषा
का उपयोग करे,
तो गलतियां
कभी न होंगी; लेकिन बात
इतनी सही होगी
कि आपकी
बुद्धि में न
पड़ेगी। आपकी
बुद्धि में
पड़ने के लिए
बात को थोड़ा
गैर-सही होना
जरूरी है।
कृष्ण
जो कह रहे हैं, उसमें गलती
है। गलती
अर्जुन के
कारण है, कृष्ण
उसके लिए दोषी
नहीं हैं। हां,
कृष्ण की
करुणा भर दोषी
हो सकती है।
क्योंकि वह अर्जुन
को चाहते हैं,
वह समझ ले।
इसलिए उसकी
भाषा का उपयोग
कर रहे हैं।
आप एक
छोटे बच्चे को
सिखाते हैं।
सिखाते हैं, ग गणेश का; या अभी
सिखाते हैं, ग गधे का! सेकुलर,
धर्म-निरपेक्ष
राज्य होने की
वजह से गणेश
का ग तो कह नहीं
सकते, तो ग
गधे का! गणेश
को लाने में सेकुलर
बुद्धि को
ज्यादा तकलीफ
होती है; गधा
आ जाए, तो
ज्यादा तकलीफ
नहीं होती!
धर्म-निरपेक्ष
राज्य है, कोई
गधा एम.पी.
होना चाहे, अक्सर होना
चाहते हैं; हो जाते
हैं। गणेश
होना चाहें, दरवाजा बंद
कर देंगे वे
कि
धर्म-निरपेक्ष!
तुम यहां कहां
आ रहे हो!
देवी-देवताओं
की यहां कोई
जरूरत नहीं, यहां सिर्फ
गधों के लिए
द्वार खुला
है!
तो
बच्चे को
सिखाना पड़ता
है, ग गणेश का,
या ग गधे
का। ग का गधे
से या गणेश से
कोई लेना-देना
है? ग तो
गंवार का भी
होता है। ग तो
अनेकों का
होता है। ग का
गधे से या
गणेश से क्या
ठेका? लेकिन
बच्चे को कहीं
से तो शुरू
करना पड़ेगा। वन
हैज टु बिगिन समव्हेयर।
अगर हम
कहें कि ग सब
का, तो बच्चे
की कुछ समझ
में न आएगा।
बच्चे को तो कहीं
से शुरू करना
पड़ेगा। फिर
धीरे-धीरे हम
कहेंगे, ग
गणेश का भी और
ग गधे का भी और
ग गंवार का
भी। और तब
बच्चे को
धीरे-धीरे समझ
में आएगा कि ग
का किसी से
कोई लेना-देना
नहीं। ग सबका
हो सकता है।
फिर वह गधे को
भी भूल जाएगा,
गणेश को भी
भूल जाएगा। ग
रह जाएगा।
ठीक
वैसे ही कृष्ण
को भी बच्चे
के साथ बात
करनी पड़ रही
है। इस पृथ्वी
पर बुद्ध को, महावीर को, या कृष्ण को,
या
क्राइस्ट को,
या मोहम्मद
को बच्चों के
साथ बात करनी
पड़ रही है।
उम्र से भला
बूढ़े हों; ज्ञान
से तो बच्चे
ही हैं, जिनसे
बात करनी पड़
रही है।
और
बच्चों के साथ
बात करनी इतनी
कठिन नहीं होती, क्योंकि
बच्चों को
खयाल होता है
कि वे बच्चे हैं।
बूढ़ों के साथ
और कठिनाई हो
जाती है, क्योंकि
वे समझते हैं,
वे बूढ़े
हैं। होते
बच्चे ही हैं।
इसलिए
दुनिया के
सारे शास्त्र
बच्चों के लिए
हैं। जो जानने
की यात्रा पर
थोड़ा आगे
जाएगा, जैसा
ग गधे से छूट
जाता है, ऐसे
ही बुद्धि
शास्त्र से
छूट जाती है।
सब शास्त्र क
ख ग हैं।
उनमें सिर्फ
यात्रा का
प्रारंभ है, अंत नहीं
है। हां, अंत
की झलक देने
की जगह-जगह
कोशिश होती है
कि शायद
थोड़ी-सी झलक
खयाल में आ
जाए, तो
आदमी यात्रा
पर निकल जाए।
तो
कृष्ण जो कह
रहे हैं, मुझ
वासुदेव को।
अर्जुन यही
समझ सकता है।
अगर कृष्ण
कहें कि मुझ
परात्पर
ब्रह्म को, तो अर्जुन
कहेगा, महाराज,
आप मेरे
सारथी।
परात्पर
ब्रह्म!
एक-एक
इंच उसको
सरकाना
पड़ेगा। एक-एक
इंच। एक-एक
इंच कृष्ण
अपने को प्रकट
करेंगे--वाणी
से, व्यक्तित्व
से, जीवन
से। एक-एक इंच
प्रकट करेंगे
और उस जगह लाएंगे,
जहां
अर्जुन के
सामने वे
भगवान की तरह
प्रकट हो
सकें। वही उनका
होना सत्य
होना है।
कृष्ण होना तो
सिर्फ शब्द
है। भगवान
होना ही उनका
सत्य होना है।
आपका भी नाम
तो केवल शब्द
है। आपका भी
भगवान होना ही
सत्य होना है।
लेकिन उसका
स्मरण दिलाने
के लिए
प्रक्रिया से
गुजरना
पड़ेगा।
इसलिए
कृष्ण कह रहे
हैं, मुझ
वासुदेव को।
अर्जुन
इसको समझ
पाएगा कि ठीक
है। और अर्जुन
इसको इसलिए भी
समझ पाएगा कि
इन वासुदेव से
उसका बड़ा प्रेम
है; परात्पर
ब्रह्म से कोई
प्रेम भी नहीं
है। सुखद होगा
उसे कि मैं
तुम्हें
सबमें देख पाऊं।
सुख होगा उसे
कि मैं
तुम्हें
सबमें पा पाऊं।
सुख होगा उसे
कि तुम भी
मुझे देख पाओगे;
तुम
वासुदेव
कृष्ण, तुम
मुझे देख
पाओगे, मैं
तुम्हें देख
पाऊंगा! यह
उसकी समझ में
पड़ेगी बात।
लेकिन
यह सिर्फ
प्रलोभन है।
यह सिर्फ
शिक्षक के
द्वारा दिया
गया प्रलोभन
है। इस
प्रलोभन के
आसरे उसको
कृष्ण इंच-इंच
सरकाएंगे।
कभी-कभी
कोई शिक्षक ऊबकर, परेशान
होकर इस तरह
की प्रक्रिया
छोड़ देता है।
कभी-कभी कोई
शिक्षक ऐसी
प्रक्रिया
छोड़ देता है।
जैसे कि नागार्जुन
एक बौद्ध
शिक्षक हुआ, अदभुत। ठीक
उतना ही जानने
वाला, उतनी
ही गहराई में,
जैसे
कृष्ण। लेकिन
वह यह
प्रक्रिया
उपयोग न करेगा।
वह शिक्षक की
भाषा बोलेगा।
वह विद्यार्थी
की भाषा
बोलेगा ही
नहीं। तो एक
आदमी के काम
नहीं पड़ सका।
जैसे
कृष्णमूर्ति।
वे शिक्षक की
भाषा बोल रहे
हैं, विद्यार्थियों
की नहीं। और
आध्यात्मिक
शिक्षकों का
कोई टीचर्स
ट्रेनिंग
कालेज तो है
नहीं कि जहां
आध्यात्मिक
शिक्षकों के
सामने भाषण
किया जा सके।
कोई कबीर और
नानक तो सुनने
आते नहीं। अगर
कबीर सुनने
आते हों
कृष्णमूर्ति
को, तो ठीक
है! लेकिन वे
समझकर चल रहे
हैं कि कबीर सुनने
आते हैं! और क ख
ग सुन रहे हैं!
उनकी पकड़ में कुछ
नहीं आ रहा!
लेकिन फिर भी
सुनते-सुनते
भ्रम पैदा हो
जाएगा कि पकड़
में आ गया, फिर
मौत हुई।
नहीं; विद्यार्थी
की भाषा बोलनी
पड़ेगी। शिक्षाशास्त्र
कहता है कि
ठीक शिक्षक
वही है, जिसकी
क्लास के
विद्यार्थी, जो अंतिम
वर्ग है
विद्यार्थी
का या जो
अंतिम विद्यार्थी
है, जो उसे
समझ पाए, अंतिम
विद्यार्थी
जिस शिक्षक को
समझ पाए, वही
योग्य शिक्षक
है। अगर आप
सिर्फ प्रथम
विद्यार्थी
के लिए बोल
रहे हैं, तो
बाकी उनतीस को
छुट्टी कर
दें!
मगर
यहां तो कुछ
शिक्षक ऐसे भी
हो जाते हैं
पृथ्वी पर, जो सिर्फ
अपने लिए बोल
रहे हैं, मोनोलाग। डायलाग
नहीं है।
कृष्णमूर्ति
जो बोल रहे
हैं, वह मोनोलाग
है, एकालाप।
दूसरे से बात
नहीं चल रही
है; उसमें
दूसरे का कोई
सवाल ही नहीं
है। आप न हों, तो भी
चलेगा।
मेरे
एक शिक्षक थे, मेरे एक
प्रोफेसर थे,
बहुत अदभुत
आदमी थे। जब
मैं उनके पास
दर्शनशास्त्र
पढ़ने गया
विद्यार्थी
की हैसियत से,
तो मैं उनका
अकेला
विद्यार्थी
था, क्योंकि
उनके पास
विद्यार्थी
टिकते नहीं थे।
कई साल से
उनके पास कोई
विद्यार्थी
नहीं टिकता
था। कोई
पांच-सात साल
से वे खाली
थे। टिकते इसलिए
भी नहीं थे कि
उनका
विद्यार्थी
कभी एम.ए.
पास नहीं हुआ।
जो भी उनके
पास आया, फेल
होकर गया। फिर
आना लोगों ने
बंद कर दिया। उनका
विषय ही कोई
नहीं लेता था।
कौन झंझट में पड़े!
उसमें फेल
होना पक्का ही
था।
उनसे
कई बार पूछा
गया कि आप सभी
को फेल कर
देते हैं? वे बोले कि
मैं दो में से
एक ही कर सकता
हूं। अगर
ईमानदारी से जांचूं, तो वे फेल
होते हैं। और
अगर बेईमानी
से जांचूं,
तो पास हो
सकते हैं।
लेकिन
बेईमानी से
मैं जांच नहीं
सकता। फेल
होंगे।
छः-सात
साल से कोई
नहीं गया था।
मुझे भी मित्रों
ने समझाया कि
वहां मत जाओ।
पर मैंने कहा
कि उस आदमी
में कुछ खूबी
तो होनी ही
चाहिए, जो
कहता है, ईमानदारी
से जांचेंगे,
तो ही पास
करेंगे। तो, ऐसे आदमी के
पास पास होने
का कोई मतलब
है। मैं जाता
हूं। ऐसे आदमी
के पास फेल
होने का भी
कुछ मतलब है।
उन्होंने
मुझे आते ही
से समझाया कि दोत्तीन
बातें साफ समझ
लो। क्योंकि
तुम अकेले हो, पांच-सात
साल बाद आए हो,
और मेरी आदत
डायलाग
की नहीं है, मेरी आदत मोनोलाग
की है। क्या
मतलब आपका? उन्होंने
कहा, मैं
बोलूंगा, तुम
से नहीं। मैं
बोलूंगा, तुम
सुनना, यह
दूसरी बात है।
तुम्हारा मैं
ध्यान नहीं रखूंगा,
नहीं तो
मेरे बोलने
में गड़बड़ होती
है। मुझे जो
बोलना है, वह
मैं बोलूंगा;
तुम सुन
लोगे, यह
दूसरी बात। एक्सिडेंटल
है यह कि
तुमने सुन
लिया, सांयोगिक
है। मैं
तुम्हारे लिए
नहीं बोल सकता
हूं, क्योंकि
तुम्हारे लिए
बोलूंगा, तो
मुझे कुछ गलत,
नीचे तल पर उतरकर
बोलना पड़ेगा।
मैंने
कहा कि मैं भी
आपसे कह दूं
कि आप भूलकर मत
समझना कि मैं
यहां मौजूद
हूं। और अगर
बीच-बीच में
मैं उठकर चला
जाऊं, तो आप
बोलना बंद मत
करना। आप जारी
रखना बोलना।
मैं फिर लौट आऊंगा। मेरी
मौजूदगी आप
मानना ही मत।
और रजिस्टर आप
बंद कर दो; मेरी
अटेंडेंस
नहीं भरी
जाएगी। जब आप
कहते हैं कि
मैं तुम्हारे
बिना बोलूंगा,
तो मुझे भी
सुनाई पड़
जाएगा, तो एक्सिडेंट
है। मैं भी
आता-जाता
रहूंगा। मैं
भी कोई सुनने
के लिए उत्सुक
नहीं हूं!
बहुत चौंके।
कहने लगे, तुम आदमी
कैसे हो? मैंने
कहा कि आदमी
ऐसा न होता, तो मैं आपके
पास आता नहीं।
छः साल से कोई
आया नहीं! फिर
यह एकालाप चला
दो साल तक।
कभी-कभी मैं दस-दस,
पंद्रह-पंद्रह
मिनट के लिए
बाहर चला
जाता। लौटकर
आता। मगर
उन्होंने
निभाया। वे
पंद्रह मिनट
बोलते रहते थे
खाली कमरे
में! पर ऐसे
शिक्षक बहुत
कम
विद्यार्थियों
के काम पड़
सकते हैं, नहीं
के बराबर।
अगर
शिक्षक अपने
आनंद में बोले, तो ऐसा ही हो
जाएगा। वह
आपको भूल
जाएगा। आपको याद
रखे, तो
नीचे उतरना ही
पड़ेगा। और
आपको याद न
रखे, तो
बोलना व्यर्थ
हो जाता है; बोलने का
कोई मतलब नहीं
रह जाता। फिर
चुप ही हो
जाना बेहतर
है।
इसलिए
बहुत-से
शिक्षक इस
पृथ्वी पर चुप
भी रहे। और
कोई कारण नहीं
था। कुल कारण
इतना ही था कि वे
बोलते, तो
एकालाप होता।
और अगर संवाद
करना चाहते, तो उनको
कहीं उस जगह
से बात शुरू
करनी पड़ती, जहां वे
जानते थे, बात
बेकार है।
लेकिन
कृष्ण बहुत करुणावान
हैं। वे
अर्जुन की तरफ
देखकर ही बोल
रहे हैं। एक-एक
शब्द उनका एड्रेस्ड
है, वह डायलाग
है। गीता एक
महानतम संवाद
है, जिसमें
शिक्षक
विद्यार्थी
को पूरे समय
स्मरण रखे हुए
है। इसलिए वह
पूरी दफे
उतार-चढ़ाव
लेते हैं। जब
वे अर्जुन को
देखते हैं कि
नहीं, यह
समझ में नहीं
आएगा, और
नीचे उतर आते
हैं। जब वे
समझते हैं कि
अर्जुन की समझ
थोड़ी चमक रही
है, तब वे
तत्काल ऊपर
चले जाते हैं।
कृष्ण
की गीता में
बहुत उतार-चढ़ाव
है। कृष्ण की
गीता सपाट
नहीं है।
उसमें कई बार
वह अर्जुन के
बहुत निकट
उन्हें आना
पड़ता है। बहुत
छोटी बात कहनी
पड़ती है, जो
कि उन्हें
नहीं कहनी
चाहिए थी, जो
कि उन्होंने
नहीं कहनी
चाही होगी।
लेकिन अर्जुन
पर यह भरोसा
रखकर कि इस
तरह धीरे-धीरे
उसे आगे ले
जाकर कहीं वह
चीज प्रकट कर
देंगे, जो
कहनी है। और
जब एक दफा वह
उस चीज को समझ
लेगा, तो
वह यह भी जान
जाएगा कि पहले
जो बातें कही
थीं, वे
मुझे ध्यान
में रखकर कही
थीं; वे
कृष्ण की तरफ
से नहीं थीं, मेरी तरफ से
थीं। अर्जुन
निमित्त है।
इसलिए वैसी
बात कही है।
अभी
इतना ही। फिर
सांझ हम
बैठेंगे।
अभी
जाएंगे नहीं।
और आज तो
रविवार है, इसलिए दस
मिनट हम
कीर्तन
करेंगे। और रविवार
है इसलिए मैं
आपसे चाहूंगा
कि आपमें से
भी जो लोग
कीर्तन करना
चाहें, वे
ग्राउंड के
चारों तरफ
बैठे हुए
लोगों के चारों
तरफ फैल जाएं।
जो लोग बैठकर
कीर्तन करते हैं,
जिनको आनंद
है, वे
चारों तरफ खड़े
हो जाएं। बैठे
हुए लोग बीच में
रह जाएंगे।
आपमें से जिन
लोगों को
कीर्तन में
भाग लेना है, वे चारों
तरफ फैल जाएं।
शर्माएं
न! फैल जाएं।
thank you guruji
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