जिन सूत्र--(भाग--2)
प्रश्नसार:
1— जैन
मानते हैं कि
जिन-शासन के
अतिरिक्त सभी
शासन मिथ्या
हैं, जाग्रत
व सिद्ध
पुरुषों के
बाबत बताए
जाने पर भी वे
उनकी ओर
उन्मुख नहीं
होते। क्या
उन्हें सन्मार्ग
पर लाना संभव
नहीं है?
2—आपका
विरोध करने वाले
लोग यदि आपमें
उत्सुकता लेने
लगें तो हम संन्यासियों
को क्या करना
चाहिए?
3—महावीर
की तरह आप भी अंधविश्वासों
पर प्रहार करके
सदधर्म का
तीर्थबना
रहे है; फिर
भी अंधश्रद्धालुओं
में जाग क्यों
नहीं आती?
4—मुझे
गरज किसी से वास्ता
मुझे काम
अपने ही काम से
तेरी जिक्र
से, तेरी फिक्र
से
तेरी याद
से, तेरे
नाम से।।
5—मन
की आवाज कौन—सी
है और ह्रदय की
कौन--सी?
6—कृष्ण
का भाव करते—करते
गोपी भाव में लीन
होना और नाचते—नाचते
आपके सन्मुख हो
जाना—यह क्या
है?
पहला
प्रश्न:
जैन
मानते हैं कि
जिन-शासन के
अतिरिक्त सभी
शासन मिथ्या
हैं, इसलिए
दूसरे शासन
में नहीं जाना
चाहिए। जाग्रत
व सिद्ध
पुरुषों के
बाबत बताए
जाने पर भी वे
उनकी ओर
उन्मुख नहीं
होते। क्या
उन्हें सन्मार्ग
पर लाना संभव
नहीं है?
पहली
बात: मानते तो
ठीक ही हैं वे, कि जिन-शासन
के अतिरिक्त
सभी शासन
मिथ्या हैं।
लेकिन वे
जानते नहीं कि
जिन-शासन क्या
है। जिसे वे
जिन-शासन
समझते हैं, वह जिन-शासन
नहीं है। उनकी
मान्यता में
भ्रांति नहीं
है।
जिन-शासन
का इतना ही
अर्थ हुआ:
जाग्रत
पुरुषों का, जीते हुए
पुरुषों का
शासन। जो
स्वयं जागा हो,
उस के साथ
ही होने में
सार है; सोए
हुओं के साथ
होने में सार
नहीं।
तो
मान्यता तो
बिलकुल ठीक
है। अब कठिनाई
यह है कि जागे
हुओं को कैसे
जानें, कौन
जागा हुआ है? तो सस्ता
उपाय यह है कि
जिसे परंपरा
से लोग मानते
रहे हैं जागा
हुआ, उसे
मान लो और उसी
के साथ बंधे
रहो। परंपरा
से ज्यादा
सोयी हुई कोई
बात हो सकती
है?
महावीर
जागे थे।
जिसको तुम जैन
कहते हो, यह
अगर महावीर के
समय में होता
तो महावीर को
न मानता। तब
यह पार्श्वनाथ
को मानता, क्योंकि
पार्श्वनाथ
के पीछे ढाई
सौ साल की
परंपरा थी। और
महावीर के समय
में विवाद खड़ा
हो गया था। पार्श्वनाथ
को माननेवाले
लोग महावीर के
विरोध में थे।
उसी विरोध से
तो दिगंबर और
श्वेतांबरों
का जन्म हुआ।
श्वेतांबर वे
लोग हैं, जिन्होंने
पार्श्वनाथ
को माना और
महावीर को
इनकार करने की
वृत्ति रखी।
वह
विरोध अब भी
कायम है। ढाई
हजार साल हो
गए, लेकिन
श्वेतांबर की
जो मान्यता है,
वह अभी भी पार्श्वनाथ
से प्रभावित
है। पार्श्वनाथ
जाग्रत पुरुष
थे। लेकिन जो पार्श्वनाथ
की आंखों में
आंखें डालकर
देखे उनके लिए
जाग्रत पुरुष
थे। पार्श्वनाथ
के समय में
अगर ये जैन
होते तो पार्श्वनाथ
को न मानते; ये आदिनाथ
को मानते।
आदमी
अतीत को मानता
है। और जाग्रत
पुरुष हो सकता
है केवल
वर्तमान में।
महावीर मिल
जाएं तो कुछ
और खोजने की
जरूरत नहीं
है। आदिनाथ
मिल जाएं तो
कुछ खोजने की
और जरूरत
नहीं। लेकिन
आदिनाथ अतीत
में तो
मिलेंगे
नहीं। अतीत तो
जा चुका।
खोजना तो आज
होगा।
इसलिए
एक अनिवार्य
दुविधा खड़ी
होती है। जो
आदमी परंपरा
को मानता है, वह जिन-शासन
को नहीं मान
सकता।
क्योंकि जिन
का अर्थ हुआ:
जागा हुआ, जीवंत
व्यक्ति।
परंपरा को माननेवाला,
परंपरा को
मानने के कारण
ही वर्तमान के
जाग्रत
पुरुषों से
वंचित रह जाता
है।
और ऐसा
कुछ जैन ही कर
रहे होते तो
भी ठीक था।
सभी ऐसा कर
रहे हैं।
हिंदू कृष्ण
को मानते हैं।
जब कृष्ण
मौजूद थे तो
बड़ी अड़चन थी।
हिंदू राम को
मानते हैं। जब
राम मौजूद थे
तो बड़ी अड़चन
थी।
जाग्रत
पुरुष जब
मौजूद होता है
तो बड़ी कठिनाई
है। कठिनाई यह
है कि अगर तुम
उसे मानो तो
तुम्हें
बदलना पड़े।
बदलाहट की
झंझट है।
तुम्हें अपना
सारा जीवन
रूपांतरित
करना पड़े।
मानने का और
क्या अर्थ
होता है? चरण
छू आए, सिर
झुका आए, इससे
क्या होगा?
इसलिए
मुर्दा
पुरुषों को
मानने में
सुविधा होती
है। वे
तुम्हें बदल
नहीं सकते।
उनके साथ कोई
जोखिम नहीं
है--मरे
महावीर क्या
करेंगे
तुम्हारा? जा चुके
महावीर क्या
करेंगे
तुम्हारा? जहां
बिठाओगे
वहां बैठेंगे,
जहां
उठाओगे वहां
उठेंगे। जो
पूजा लगा दोगे
वही स्वीकार
करेंगे। न
लगाओगे तो
बैठे रहेंगे।
भूखे बैठे
रहेंगे। फूल न
चढ़ाओगे
तो क्या
करेंगे?
अतीत
के महापुरुष
जा चुके। अब
तो राख के ढेर
रह गए। उनके
साथ बड़ी
सुविधा है।
तुम बदलते
नहीं। तुम
जैसे हो वैसे
ही रहते हो।
वस्तुतः तुम
अपने
महापुरुष को
अपने ढंग से
बदल लेते हो।
लेकिन
यह तुम केवल
मरे हुओं के
साथ कर सकते
हो। जिंदा
पुरुष, जिंदा
जाग्रत
व्यक्ति को, जिंदा सिद्ध
को तुम नहीं
बदल सकोगे। वह
तुम्हें बदलेगा।
जब तुम उसके
पास जाओगे तो
तुम मिटोगे, नए होओगे।
वह तुम्हारी
मृत्यु बनेगा
और नया जीवन
भी। उसके
माध्यम से तुम
एक नए आलोक को
उपलब्ध
होओगे। लेकिन
अंधेरे की
दुनिया छोड़नी
पड़ेगी। बहुत
कुछ खोना
पड़ेगा, तब
तुम कुछ पा
सकोगे।
बात तो
बिलकुल ठीक है
कि जिन-शासन
के अतिरिक्त
सभी शासन
मिथ्या हैं।
लेकिन मानने का
कारण, मानने
की मूल वृत्ति
बड़ी खतरनाक
है। सत्य बातों
को भी हम गलत
कारणों से मान
सकते हैं। हम
इतने गलत हैं
कि ठीक बातें
भी हमारे हाथ
में पड़ते-पड़ते
गलत हो जाती
हैं। हम ऐसे
गंदे हैं कि
अमृत भी हम पर
बरसे तो जहर
हो जाता है।
आखिर हमारी
प्याली में ही
भरेगा। हमारी
प्याली की
गंदगी उसे
रूपांतरित
करती है।
सत्य
के खोजी को
अभी खोजना
होगा। गुरु
अभी हो सकता
है। कल के
गुरु काम नहीं
आएंगे। बीते
कल के गुरु
काम नहीं
आएंगे।
आनेवाले कल के
गुरु भी काम
नहीं आएंगे।
आज--जीवन आज
है।
तुम महावीर
के समय में जी
कैसे सकते हो? तुम महावीर
के साथ चल
कैसे सकते हो?
तुम महावीर
की छाया में
हो कैसे सकते
हो? वह
वृक्ष न रहा।
अगर आज
तुम्हें भरी
दुपहरी में
सिर से पसीना
बहने लगता है
तो तुम छाया
खोजते हो किसी
वृक्ष की, जो
है; तुम उस
वृक्ष की छाया
में नहीं बैठते
जो कभी था।
पागल होओगे
तुम अगर उस
वृक्ष की छाया
में बैठोगे। न
वृक्ष है, न
छाया है। धूप
से जलोगे।
अगर प्यास
लगती है तो
तुम उस सरोवर
के पास जाते
हो, जो अभी
है। तुम उस
सरोवर के पास
नहीं जाते, जो कभी था।
रहा होगा। बड़ा
सुंदर था।
पुराणों में
उल्लेख है
लेकिन उससे
प्यास तो न बुझेगी।
भूख लगती है, तो तुम अभी
ताजा भोजन
खोजते हो।
जो भूख
और प्यास के
संबंध में सही
है, वही सत्य
के संबंध में
भी सही है।
सत्य खोजो अभी।
जाओ किसी
सरोवर के पास,
जो अभी हो।
खतरा यह है कि
शायद तुम इस
सरोवर के पास
भी जाओगे, लेकिन
जब यह जा चुका होगा।
तुम्हारी
बुद्धि इतनी
मंद है कि जब
तक तुम्हारी
समझ में आ
पाता, तब
तक जिन पुरुष
विदा हो जाते
हैं। घसिट-घसिटकर
बामुश्किल
तुम्हारी अकल
में घुस पाती
है बात कि अरे!
लेकिन जब तक
तुम अरे कहते
हो तब तक विदाई
हो गई।
बुद्ध
एक गांव से
गुजरे तीस
सालों तक।
कहते हैं
करीब-करीब
पंद्रह बार उस
गांव से
गुजरे। और एक
आदमी तीस
सालों से
चाहता था कि
उनके दर्शन कर
ले; न कर
पाया। कभी
दुकान पर
ग्राहक थे और
न जा पाया।
कभी लड़की की
शादी थी और न
जा पाया। कभी
बीमार था, कभी
पत्नी से झगड़ा
हो गया। कभी
जा रहा था और
रास्ते में
कोई पुराना परिचित
मित्र मिल गया
तो फिर घर लौट
आया। कभी घर
मेहमान आ गए
तब उनको छोड़कर
कैसे जाए?
ऐसे
हजार बहाने
मिलते रहे और
बुद्ध आते रहे
और जाते
रहे--तीस साल।
एक दिन अचानक
गांव में खबर आयी
कि बुद्ध आज
शरीर छोड़ रहे
हैं, तब वह
भागा। बुद्ध
ने अपने
भिक्षुओं से
पूछा उस सुबह,
कुछ पूछना
तो नहीं है? क्योंकि अब
विदा की वेला
आ गई। अब मैं जाऊंगा।
कहा होगा, मेरी
नाव लग गई
किनारे, अब
मैं जाता हूं
दूसरी तरफ।
कुछ और तो
पूछना नहीं है?
कोई आखिरी
बात?
भिक्षु
तो रोने लगे।
इतना दिया था
बुद्ध ने। बिना
पूछे दिया था।
पूछा था तो
दिया था, न
पूछा था तो
दिया था।
पूछने को कुछ
बचा न था। और
ऐसी दुख की
घड़ी में, जब
वे विदा हो
रहे हों, किसको
प्रश्न उठे? ऐसी दुख की
घड़ी में मन तो
बंद हो जाता
है, हृदय
रोने लगता है।
आंसू बहने
लगे।
उन्होंने कहा,
हमें कुछ
पूछना नहीं
है। जितना
दिया है उसे
भी अगर हम कर
पाए, उसका
अंश भी कर पाए
तो बस काफी
है। तुमने
सागर उंड़ेला
है अमृत का, अगर हम एक
बूंद भी पी
पाए तो बस
पर्याप्त हो
जाएगी।
बुद्ध
ने तीन बार
पूछा, जैसी
उनकी आदत थी।
फिर से पूछा
कि किसी को
कुछ पूछना हो।
फिर से पूछा
कि किसी को
कुछ पूछना हो।
जब किसी ने
कुछ न कहा तो
उन्होंने कहा,
अलविदा। वे
वृक्ष के पीछे
चले गए।
उन्होंने आंख
बंद कर ली और
वे देह को
छोड़ने लगे।
उन्होंने देह
छोड़ दी। भीतर
धारणा की कि
देह से अलग हो
जाऊं, अलग
हो गए।
मन को
छोड़ रहे थे, तभी वह आदमी
भागा हुआ गांव
से पहुंचा। और
वह चिल्लाया
कि बुद्ध कहां
हैं? मुझे
मिलने दो, मुझे
जाने दो, मुझे
कुछ पूछना है।
भिक्षुओं
ने कहा, बड़ी
देर लगाई। तीस
साल तुम्हारे
गांव से गुजरे।
और अनेक बार
हम तक ऐसी खबर
भी आयी कि तुम
आना चाहते हो
लेकिन तुम कभी
आए नहीं।
उसने
कहा, करूं
क्या, कभी
मेहमान आ गए, कभी पत्नी
बीमार पड़ गई।
कभी दुकान पर
ग्राहक
ज्यादा थे।
कभी आया भी था
तो रास्ते में
कोई मित्र मिल
गया कई वर्षों
का, तो फिर
घर लौट गया।
हजार कारण आ
गए, मैं न आ
पाया। लेकिन
मुझे रोको मत।
कहां हैं बुद्ध?
भिक्षुओं
ने कहा, अब
असंभव है। हम
तो उन्हें
विदा भी दे
चुके। अब तो
वे अपनी
ज्योति को
समेटने में लगे
हैं।
लेकिन
कहते हैं, बुद्ध ने
आंखें खोलीं
और उन्होंने
कहा, अभी
मैं जीवित हूं
और वह आदमी आ
गया! चलो देर
सही, अबेर
सही, आ तो
गया। मेरे नाम
पर यह लांछन न
रह जाए कि मैं अभी
सांस ले रहा
था और कोई
आदमी द्वार से
प्यासा चला
गया। कहां है?
उसे बुलाओ।
वह क्या पूछना
चाहता है?
वह
आदमी फिर भी
जल्दी पहुंच
गया। और भी उस
गांव में लोग
रहे होंगे, जो फिर भी न
पहुंचे। आदमी
बड़ा
मंदबुद्धि
है। मंदबुद्धि
ही रोग है। न
तो जैन का
सवाल है, न
हिंदू का, न
मुसलमान का; मंदबुद्धि...।
मंदबुद्धि
जड़ चीजों को
पकड़ लेता है।
अब इतना सुंदर
विचार है कि
जिन-शासन के
अतिरिक्त सब
मिथ्या है।
इसका अर्थ हुआ, जाग्रत
पुरुष जो कहे
उसके
अतिरिक्त सोए
हुए आदमी जो
कह रहे हों, उनका कोई
मूल्य नहीं
है। उनका आदेश
मानकर मत चल पड़ना, अन्यथा
भटकोगे।
अंधे अंधों को
और भटका
देंगे। अंधों
का सहारा पकड़कर
मत चलना। अंधे
तो गिरेंगे,
तुम भी
गिरोगे। अंधा
अंधा ठेलिया
दोनों कूप पड़ंत।
इतना
ही अर्थ है
जिन-शासन को
स्वीकार करने
का कि जहां जिनत्व
दिखाई पड़े, जहां कोई
जाग्रत और
जीता हुआ
व्यक्ति
दिखाई पड़े, जहां
तुम्हारे
प्राण कहने
लगें कि हां, संभावना
यहां है, जहां
सुबह होती
दिखाई पड़े, जहां सूरज
ऊगता दिखाई
पड़े, वहां
झुक जाना; उस
शासन को
स्वीकार कर
लेना।
तो बात
तो ठीक ही है।
मैं यह नहीं
कह रहा हूं लेकिन
कि जो उसको
मानते हैं वे
ठीक हैं। बात
तो ठीक है, बात को माननेवाले
गलत हैं। कहते
तो हैं, जिन-शासन
एकमात्र सत्य
है और बाकी सब
मिथ्या। लेकिन
मानते
शास्त्र को
हैं, जिन
को थोड़े ही!
मानते परंपरा
को हैं, जिन
को थोड़े ही!
मानते पंडित
को हैं, पंडित
की व्याख्या
को मानते हैं।
जाग्रत
पुरुष का सीधा
दर्शन तो जलानेवाला
है। वहां तो
कुछ छूटेगा, मिटेगा, गिरेगा,
बदलेगा।
वहां तो तुम
अस्तव्यस्त
होओगे। तुम, तुम ही न रह
सकोगे। वहां
तो तुम आग से गुजरोगे।
आग से गुजरे
बिना कोई
शुद्ध कुंदन
बनता भी नहीं।
वहां तो तुम
पीटे जाओगे, मिटाए जाओगे,
रचे जाओगे।
बिना विध्वंस
के सृजन होता
भी नहीं। वहां
तो जैसे
कुम्हार
मिट्टी को रौंदता
है, ऐसे रौंदे
जाओगे। बिना रौंदे
तुम्हारे
जीवन का घट बनता
भी नहीं। वहां
तो तुम चाक पर चढ़ाए
जाओगे। सम्हालेगा
भी गुरु, थपकारे
भी देगा, मारेगा
भी, पीटेगा भी, जगाएगा भी।
जीवित
गुरु के पास
होने का अर्थ
हुआ, तुम्हें
नींद छोड़नी
पड़ेगी। इसलिए
मुर्दा
गुरुओं को
छाती से लगाए पड़े
रहने में बड़ी
सुविधा है।
मूर्तियों को
पूजने में बड़ी
सुविधा है।
और भी
बड़े मजे की
बात है कि जो
कहते हैं कि
"जिन-शासन के
अतिरिक्त सब
मिथ्या है।' उन्हें यह
भी पता नहीं
कि जिनों ने
क्या कहा है।
उन्हें यह भी
पता नहीं कि
जिन-शासन का
मौलिक सूत्र
यही है कि सभी
में कुछ न कुछ
सत्य का अंश
है।
तब
आदमी की
मंदबुद्धि पर
बड़ी हैरानी
होती है। यह
तो विरोधाभास
हो गया। समस्त
जिन पुरुषों
ने--महावीर ने, बुद्ध ने, कृष्ण ने, सभी ने कहा
है कि मैं ही
ठीक हूं ऐसी
धारणा अहंकार
की घोषणा है।
और महावीर ने
तो बहुत
आग्रहपूर्वक
कहा है कि जरा
भी आग्रह रखा
कि मैं ही ठीक
हूं, तो
तुम गलत हो
गए। दूसरे में
भी ठीक को
देखने की
क्षमता चाहिए।
इस
पृथ्वी पर कोई
भी बिलकुल गलत
तो हो ही नहीं सकता।
इस जगत में
पूर्णता जैसी
कोई चीज होती
ही नहीं।
बिलकुल गलत का
तो अर्थ हुआ, एक आदमी
गलती में
पूर्ण हो गया।
मुल्ला
नसरुद्दीन
पर कोई नाराज
हो गया और
उसने कहा कि
तुम, तुम
पूर्ण मूर्ख
हो। मुल्ला ने
कहा, ठहरो।
इस जगत में
पूर्ण कभी कोई
होता ही नहीं।
तुम मेरी
खुशामद मत
करो। तुम मेरी
स्तुति मत करो।
इस जगत में
पूर्ण कभी कोई
होता ही नहीं।
यहां सब अधूरा
है।
पूर्ण
मूर्ख खोजना
ही असंभव है।
पूर्ण गलत आदमी
भी खोजना
असंभव है। अगर
पूर्ण गलत
होता तो जी ही
नहीं सकता था।
जी रहा है तो
कहीं न कहीं
सत्य के सहारे
ही जीएगा।
जीवन सत्य के
साथ है। किरण
भला हो, न
हो सूरज सत्य
का। छोटी-मोटी
क्षीण धारा हो,
न हो बाढ़
आयी हुई नदी, मगर होगी
जरूर। जी रहा
है, जीवन
है, तो
जीवन असत्य के
साथ तो हो नहीं
सकता। कहीं न
कहीं सत्य से
जुड़ा होगा।
कहीं न कहीं
परमात्मा अभी
भी उसमें बह
रहा होगा।
महावीर
ने तो कहा है, सभी में
सत्य है। इसी
से तो उनका स्यातवाद
पैदा हुआ, अनेकांतवाद
पैदा हुआ।
महावीर ने कहा
है कि जो-जो भी
तुम्हें
बिलकुल भी गलत
लगता हो, उसकी
दृष्टि में भी
खोजोगे
तो कुछ न कुछ
तो अंश पाओगे
सत्य का।
पूर्ण चाहे
सत्य न हो, पूर्ण
असत्य भी नहीं
हो सकता। और
महावीर ने तो
कहा है, पूर्ण
सत्य को कहने
का कोई उपाय
ही नहीं है।
इसलिए
दो बातें:
जितनी
दृष्टियां
हैं, सभी अंश
सत्य हैं और
पूर्ण सत्य को
अब तक किसी ने
कहा नहीं; कहा
जा सकता नहीं।
कहते से ही
अपूर्ण हो
जाता है। वाणी
में लाते ही
अधूरा हो जाता
है। अनुभव में
हो सकता है
पूर्ण, अभिव्यक्ति
में अपूर्ण हो
जाता है। लाख
सम्हालकर कहो,
कहने के
माध्यम में ही
अपूर्ण हो
जाता है।
जैसे
तुम एक लकड़ी
को पानी में डालो--सीधी
लकड़ी को, पानी
में तिरछी
दिखाई पड़ने
लगती है। लाख
सम्हालकर डालो,
इससे कोई
संबंध नहीं
है। पानी का
माध्यम तिरछापन
पैदा करता है।
तुम कहो कि हम
और सम्हालकर डालेंगे।
हम लकड़ी को और
सीधा कर लेंगे,
बिलकुल
सीधा कर लेंगे,
रेखाबद्ध
कर के डालेंगे;
इससे कुछ
फर्क न पड़ेगा।
धीमे-धीमे डालेंगे,
इससे कोई
फर्क न पड़ेगा।
पानी का
माध्यम ही लकड़ी
को तिरछा कर
जाता है। लकड़ी
तिरछी होती
नहीं, दिखाई
पड़ने लगती है,
तिरछी हो
गई।
भाषा
का माध्यम
अनुभव को
तिरछा कर देता
है। इसलिए
भाषा में आकर
कोई भी सत्य
पूर्ण नहीं रह
जाता। और
असत्य तो कभी
भी पूरा नहीं
है। इसलिए जो
भी हम कहते
हैं, आधा-आधा
है।
यही तो
जिन-शास्त्र
है, यही तो
जिन-देशना है
कि जो भी हम
कहते हैं, आधा-आधा
है। सभी
दृष्टियां
हैं, दर्शन
कोई भी नहीं।
दर्शन तो
अनुभव है।
तुम
खुद ही सोचो; सुबह हुई, वृक्षों के
पार क्षितिज
पर सूरज निकला,
पक्षियों
ने गीत गाए, गुनगुन मचाई,
मोर नाचे, रंगीन बादल
फैले, तुमने
देखा--दर्शन।
अब तुमसे कोई
कहे वर्णन करो
उसका। तो तुम
जो भी वर्णन
करोगे, तुम
पाओगे बहुत
कुछ शेष रह
गया है, जो
नहीं कहा जा
सकता। तुम लाख
रंगों का
वर्णन करो, सुननेवाले
पर तुम वही
प्रभाव थोड़े
ही पैदा कर पाओगे,
जो तुम पर
पैदा हुआ था
सुबह के सूरज
को ऊगते देखकर।
तुम बड़े से
बड़े कवि होओ, तो भी तुम
पाओगे, हाथ
कंपते हैं, बड़े से बड़े
कवि को भी
लगता है कि हम
सिर्फ तुतलाते
हैं। तो जितना
बड़ा कवि होता
है उतना ही साफ
लगता है कि हम
सिर्फ
तुतलाते हैं।
छोटे-मोटे
कवियों को
लगता है कि
हमने कह दिया।
उनके पास कहने
को कुछ है नहीं।
जिसके पास
जितना बड़ा
दर्शन है उतनी
ही भाषा की
असमर्थता
मालूम होती
है।
रवींद्रनाथ
ने मरते क्षण
कहा कि हे
प्रभु! यह भी
तू क्या कर
रहा है? अब,
जब कि मैं
थोड़ा गाने में
कुशल हुआ जा
रहा था, तू
मुझे विदा
करने लगा?
एक बूढ़ा
मित्र पास
बैठा था, उसने
कहा, क्या
कह रहे हो तुम?
कुशल हो रहे
थे? तुम
महाकवि हो।
रवींद्रनाथ
ने कहा, दूसरे
कहते होंगे।
मेरी पीड़ा मैं
जानता हूं। अगर
तुम मुझसे
पूछते हो तो
मैं इतना ही
कह सकता हूं
कि मैंने अभी
तक जो गीत गाए,
वे ऐसे ही
हैं जैसे
संगीतज्ञ संगीत
शुरू करने के
पहले साज को
बिठाता है। वीणाकार
तार खींच-खींच
कर देखता है, ठीक है? तबलाबाज तबला
बजा-बजाकर
ठोंक-ठोंककर
देखता है, ठीक
है?
रवींद्रनाथ
ने कहा कि अभी
तक जो मैंने
गाए, वे केवल
साज को
संवारने जैसे
थे। अभी असली
गीत शुरू कहां
हुआ था? असली
गीत तो अपने
साथ ही ले जा
रहा हूं।
जितना
बड़ा कवि होगा
उतना ही
असमर्थ
पाएगा। जितना
बड़ा अनुभव
होगा उतना ही
प्रगट करना
मुश्किल हो
जाएगा।
छोटे-मोटे
अनुभव प्रगट
नहीं होते।
तुम्हें किसी
से प्रेम हो
जाए, भाषा
असमर्थ हो
जाती है। क्या
कहो? कैसे
कहो?
तो
जिन्होंने
सत्य को जाना, इतने विराट
में डूबे, लौटकर
जो भी वे कहते
हैं, सभी
अधूरा है।
इसलिए महावीर
ने कहा, जो
भी दृष्टियां
हैं, सभी
दृष्टियां
हैं। सभी में
सत्य का अंश
है।
जैन
कहता है कि
महावीर के
अतिरिक्त सभी
मिथ्या है।
लेकिन इसका
अर्थ क्या हुआ? अगर महावीर
सही हैं तो
सभी में सत्य
है। और अगर
सभी मिथ्या
हैं यह सही है,
तो महावीर
मिथ्या हो गए।
यह तुम
ऐसा समझो, कहते हैं एक
सम्राट ने--जो
बड़ा खूंखार
आदमी था--कहा
कि इस गांव
में जो भी
असत्य बोलेगा
उसे सूली पर
लटका देंगे।
और उसने कहा
कि सिखावन के
तौर पर, नगर
का बड़ा द्वार
जब सुबह
खुलेगा, तो
वहां जल्लाद
मौजूद रहेंगे
फांसी लगाकर।
और जो भी आदमी
आएंगे उनसे
पूछेंगे। अगर
उनमें से कोई भी
असत्य बोला तो
तत्क्षण सूली
पर लटका देंगे,
ताकि पूरा
गांव रोज सुबह
देख ले कि
असत्य बोलनेवाले
की क्या हालत
होती है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
उसके दरबार
में था, उसने
कहा अच्छा, तो कल फिर
दरवाजे पर
मिलेंगे। उस
सम्राट ने कहा,
तुम्हारा
मतलब? उसने
कहा, कल
वहीं तुम भी
मौजूद रहना।
हम असत्य
बोलेंगे और
तुम हमें
फांसी पर
लगाकर देख
लेना।
सम्राट
बड़ा नाराज
हुआ। उसने बड़ा
इंतजाम किया कि
यह आदमी चाहता
क्या है! और
सुबह जब
दरवाजा खुला, सम्राट मौजूद
था, और
वजीर मौजूद थे,
पूरे
दरबारी मौजूद
थे, फांसी
का तख्ता
मौजूद था, जल्लाद
मौजूद थे। और
मुल्ला अपने
गधे पर सवार दरवाजे
के भीतर
प्रविष्ट
हुआ।
सम्राट
ने कहा, "कहां
जा रहे हो नसरुद्दीन?'
नसरुद्दीन
ने कहा, "फांसी
के तख्ते पर
लटकने जा रहा
हूं।'
अब बड़ी
मुश्किल हो
गई। अगर उसको लटकाओ तो
वह सच हो जाए।
अगर न लटकाओ
तो वह झूठ है।
अब करो क्या? अगर उसको
फांसी पर लटका
दो तो एक
सच्चे आदमी को
फांसी हो गई।
अगर उसको
फांसी पर न लटकाओ,
तो एक झूठा
आदमी पहले ही
दिन छूटा जा
रहा है। सम्राट
ने अपना सिर
ठोंक लिया। नसरुद्दीन
ने कहा कि
सत्य और असत्य
का निर्णय
इतना आसान
नहीं। हटाओ
फांसी वगैरह।
कौन जानता है
कौन सत्य बोल
रहा है, कौन
असत्य बोल रहा
है! कौन जानता
है क्या सत्य है,
क्या असत्य
है!
सत्य
और असत्य बड़ी
नाजुक बातें
हैं।
महावीर
ने अगर कोई भी
बात सिखाई है
तो इतनी ही बात
सिखाई है कि
दूसरे को
अत्यंत
हार्दिकता से
समझने की कोशिश
करना।
तुम्हारे लिए
इतनी ही खोज
काफी है कि उसमें
कुछ भी सत्य
हो तो खोज
लेना। असत्य
से तुम्हें
लेना-देना
क्या है?
एक
आदमी जंगल में
भटक गया हो, राह
खोजते-खोजते
सूरज ढल गया
हो, अंधेरा
घिर गया हो, पैर काटों
से चुभे हों,
झाड़ियों ने
कपड़े फाड़
दिए हों, राह
न सूझती हो, उसे दूर एक झोपड़े से
दीया जलता हुआ
दिखाई पड़ता
है। उस झोपड़े
के चारों तरफ
अंधेरा है, जरा-सी
रोशनी है। वह
रोशनी देख
लेता है, अंधेरा
छोड़ देता है।
वह यह थोड़े ही
कहता है कि इतने
अंधेरे में
रोशनी कहां हो
सकती है? वह
अंधेरा देखकर
बैठ थोड़े ही
जाता है। वह
जो टिमटिमाती
दीये की रोशनी
है, उसको
देखता; अंधेरे
को नहीं
देखता। वह
कहता, धन्यभाग! कोई है। पास
ही कोई है।
मिल गई राह, चला चलूं।
पहुंच ही जाऊंगा।
घबड़ाने
की कोई बात
नहीं।
जब कोई
आदमी कुछ कहे
तो तुम उसमें
दीये की टिमटिमाती
रोशनी भी
देखना। वही
देखना। जितना
सत्य का अंश
है उतना देख
लेना।
तुम्हें
असत्य से
लेना-देना
क्या है? हंसा
तो मोती चुगे।
तुम अपने
मोती-मोती चुन
लेना, कंकड़ छोड़ देना।
लेकिन
तुम कंकड़ों
ही कंकड़ों
पर चोंच मारते
हो। तुम मोती
चुनने में
उत्सुक नहीं
हो। तुम तो
यही सिद्ध
करने में
उत्सुक हो कि
मोती तो बस
हमारे ही घर
होते हैं और
सब जगह कंकड़
होते हैं। तुम
अंधेरे में ही
आंख गड़ाए
बैठे हो। तुम
रोशनी को
देखना ही नहीं
चाहते।
जिन-शासन
का मौलिक आधार
यही है--सत्य
सब कहीं है।
अनंत रूपों
में प्रगट
होता है।
अनेकांत का अर्थ
होता है सत्य
के अनेक पहलू
हैं। सत्य
एकांत नहीं
है। जो कहता
है, मैं ही
सत्य, वह
यह कहने से ही
असत्य हो जाता
है। ज्यादा से
ज्यादा इतना
ही कहना, "मैं
भी सत्य।' "मैं
ही सत्य'--असत्य
हो गया। मैं
भी सत्य, और
भी सत्य हैं।
लेकिन
अहंकार दावा
करता है, "मैं
ही सत्य।' "भी'
पर अहंकार
का जोर नहीं
है, "ही' पर जोर है।
महावीर का जोर
"भी' पर है।
इसलिए महावीर
तो कहते हैं
कि वह व्यक्ति
भी, जो
तुम्हारे
बिलकुल
विपरीत बोल
रहा हो, उसकी
भी बात
ध्यानपूर्वक
सुनना। उसमें
भी कुछ सत्य
होगा। अंश तो
होगा ही, कुछ
तो होगा ही।
यहां
पापी से पापी
व्यक्ति में
थोड़ा संतत्व
होता है और
यहां संत से संत
व्यक्ति में
थोड़ा पापी
होता है। यहां
कोई पूर्ण तो
होता नहीं।
इसलिए तो हम
कहते हैं इस देश
में कि जो
पूर्ण हो गया, दुबारा नहीं
आता। पूर्ण
होते से ही
फिर दुबारा
आने का उपाय
नहीं। यहां तो
आना हो तो
थोड़ी अपूर्णता
रखनी होती है।
जैन
कहते हैं--जैन
दर्शन; बड़ा
महत्वपूर्ण
दर्शन है--वह
कहता है, तीर्थंकर
होने के लिए
भी तीर्थंकर कर्मबंध
करना पड़ता है।
वह भी पाप है।
तीर्थंकर
होने के लिए
भी तीर्थंकर कर्मबंध
करना पड़ता है।
दूसरों पर
करुणा की
वासना रखनी
पड़ती है तो ही
कोई तीर्थंकर
हो सकता है, नहीं तो
तीर्थंकर भी
नहीं हो सकता।
दूसरों की सहायता
करूं, इतनी
वासना तो
बचानी ही पड़ती
है। नहीं तो
तीर्थंकर भी
कैसे होगा?
इसलिए
सभी सिद्ध
पुरुष
तीर्थंकर
नहीं होते। अनेक
सिद्ध पुरुष
तो सिद्ध होते
ही विलीन हो जाते
हैं महाशून्य
में। थोड़े-से
सिद्ध पुरुष
तीर्थंकर
होते हैं। वे, वे ही सिद्ध
पुरुष हैं, जिनकी
सिद्धि में
थोड़ी-सी वासना
भी जुड़ी है अभी,
कि दूसरों
की सहायता
करूंगा।
जिनको अभी
इतना और भाव
बचा है, वे
तीर्थंकर की
तरह पैदा होते
हैं। शुभ है
कि इतनी वासना
कुछ लोग बचाते
हैं, अन्यथा
जगत बड़ा
अंधेरे से भर जाए।
"जैन
मानते हैं कि
जिन-शासन के
अतिरिक्त सभी
शासन मिथ्या
हैं।' बिलकुल
ठीक मानते हैं
और बिलकुल गलत
कारणों से
मानते हैं।
"इसलिए
दूसरे शासन
में जाना नहीं
चाहिए।' जिनपुरुष मिल जाएं तो
जाने की जरूरत
भी नहीं है।
जैन
शास्त्र में
मत अटके रहना।
शास्त्र न तो
जागे होते हैं, न सोए होते
हैं। शास्त्र
तो बस शास्त्र
हैं। किताब
किताब है।
किताब में कुछ
भी नहीं होता।
खोजो
कहीं जीवित
व्यक्ति को।
किसी को खोजो, जिसके पास
तुम्हारी
आंखें आकाश की
तरफ उठने लगें;
जिसकी
अभीप्सा
तुम्हें भी
संक्रामक रूप
से पकड़ ले; जिसके
बवंडर में तुम
भी थोड़े उड़ने
लगो।
"...जाग्रत
व सिद्ध
पुरुषों के
बाबत बताए
जाने पर भी वे
उनकी ओर
उन्मुख नहीं
होते।'
दुनिया
में सबसे कठिन
बात वही है:
जाग्रत पुरुषों
की तरफ उन्मुख
होना। उसका
मतलब है, अपने
से विमुख
होना। जाग्रत
पुरुष के
सन्मुख होने
का एक ही उपाय
है, अपने से
विमुख होना।
जो अपनी तरफ
पीठ करे, वही
जाग्रत पुरुष
की तरफ मुंह
कर सकता है।
लेकिन
अगर अभी तुम
उतनी हिम्मत
नहीं कर पाओ
तो कुछ
आश्चर्य नहीं
है। आश्चर्य
तो यह होता है कि
तुम इसी में
अकड़ अनुभव
करते हो।
जानना चाहिए
कि मैं अभी दीनऱ्हीन।
अभी मेरी इतनी
सामर्थ्य नहीं
कि सूरज की
तरफ सीधी
आंखें करके देखूं।
अभी तो मैं
सूरज की
तस्वीरें ही
शास्त्र में
बनी हैं, उन्हीं
को देख पाता
हूं। अभी तो
उन्हीं तस्वीरों
में मन को
लुभाता हूं।
मेरी हिम्मत
नहीं। मैं
कमजोर हूं।
अभी मेरा बल
नहीं। इतना
साहस नहीं इस
यात्रा पर
निकलने का।
अभियान पर
जाने का
दुस्साहस अभी
मुझसे होता
नहीं।
अगर
तुम
विनम्रतापूर्वक
यह स्वीकार
करो तो कोई
खतरा नहीं है।
एक न एक दिन
साहस भी
इकट्ठा हो
जाएगा। लेकिन
आदमी अपने
अहंकार को
बचाता है। वह
यह नहीं कहता
कि यह मेरी
कमजोरी है कि
मैं शास्त्र
देख रहा हूं।
वह अपनी
कमजोरी को भी
आभूषणों से
अलंकृत करता
है, शृंगार
करता है। वह
कहता है, यही
सत्य है, इसलिए
कहां, कौन
सिद्ध पुरुष?
कहीं कोई
सिद्ध पुरुष
नहीं। पंचम
काल में होते
ही नहीं। हो
चुके वक्त! जा
चुका समय, जब
सिद्ध पुरुष
होते थे! वह
महावीर के साथ
ही बंद हो
गया। महावीर
के बाद हम
व्यर्थ ही जी
रहे हैं।
महावीर के बाद
कुछ घट ही
नहीं रहा।
इतिहास रुक
गया वहीं।
महावीर के बाद
दुनिया रही ही
नहीं है।
महावीर क्या
मरे, सब मर
गया। महावीर
क्या गए, सब
गया। सब
संभावना, सत्य
को पाने की
सारी सुविधा,
सब चली गई।
यह भी
कोई बात हुई? यह तो बड़ी
खतरनाक धारणा
हुई। इस धारणा
का अर्थ तो
बड़ी हताशा
होगा। तब
हमारे हाथ में
कुल इतना ही
है कि हम
महावीरों की
स्तुति करते
रहें, स्वयं
महावीर न
बनें।
इसलिए
तुम जब उन्हें
सिद्ध
पुरुषों की
बात कहोगे, वे राजी न
होंगे। तुम
शायद सोचते हो
कि तुम बड़ी
सरल-सी बात कह
रहे हो कि देखो!
कोई सिद्ध
पुरुष है, कोई
जाग्रत पुरुष
है, आओ, सुनो,
समझो, बैठो
पास; थोड़ा
सत्संग करो।
चलो थोड़ी सेवा
करें। तुम सोचते
हो, सीधा-सा
निमंत्रण दे
रहे हो। यह
निमंत्रण इतना
सीधा नहीं है।
यह निमंत्रण
खतरनाक है।
क्योंकि वह
आदमी अगर आ
जाए तो फिर
वही न हो
सकेगा, जो
था। वह अपनी
सुरक्षा कर
रहा है।
और
दूसरी बात
ध्यान रखना, दूसरे के
बताए कोई कभी
आता नहीं। तुम
यह चिंता ही छोड़ो।
इसमें समय
खराब भी मत
करो। जिसको जब
आना है, तभी
आता है। जिसकी
प्यास जब पक
जाती है तभी
आता है। तुम
किसी को खींचत्तानकर
लाना मत। तुम
जितनी खींचत्तान
करोगे, उतने
ही वह सुरक्षा
के उपाय
करेगा। तुम
जितना सिद्ध
करने की कोशिश
करोगे कि चलो,
कोई जाग्रत
पुरुष है, वह
उतना ही सिद्ध
करने की कोशिश
करेगा कि नहीं,
जाग्रत
नहीं है। सब
पाखंड है। सब धोखाधड़ी
है। सब
षडयंत्र है, जालसाजी है।
तुम यह
कोशिश ही मत
करो। तुम आ गए, इतना बहुत।
तुम बदलो।
सारी शक्ति
तुम अपनी
बदलाहट में
लगा दो। तुम्हारी
बदलाहट ही
शायद, जिन्हें
तुम लाना
चाहते हो, उन्हें
आकर्षित करे
तो करे।
तुम्हारी
आंखों में आ
गई नई चमक, तुम्हारे
चेहरे पर आ गई
नई दीप्ति, तुम्हारे
पैरों में आ
गया नया संगीत
का स्वर, तुममें
उतर आया
माधुर्य, मार्दव,
शायद किसी
को बुला लाए
तो बुला लाए।
तुम्हारे जीवन
में अगर थोड़ी
मधुरिमा फैल
जाए, थोड़ा
स्वाद
तुम्हारा बदल
जाए तो जो
तुम्हारे निकट
हैं, जिन्हें
तुम स्वभावतः
चाहते हो आएं,
जागें, वे
भी मार्ग को
पाएं, उनके
जीवन में भी
फूल खिलें...।
तुम्हारी
आकांक्षा तो
ठीक है, लेकिन
जल्दबाजी मत
करना। तुम
लाने की कोशिश
ही मत करना।
तुम तो चुपचाप
अपने को बदलने
में लगे रहो।
तुम्हारी
बदलाहट
जैसे-जैसे सघन
होगी वैसे-वैसे
वे उत्सुक
होंगे। और
दूसरा कोई उपाय
नहीं है।
अगर
तुम उन्हें
मेरे पास लाना
चाहते हो तो
एक ही उपाय
है--तुम्हारे
जीवन में किसी
तरह मेरी खबर उन्हें
मिलनी चाहिए; तुम्हारे
शब्दों में
नहीं।
तुम्हारे
कहने से वे न
सुनेंगे।
तुम्हारे
होने को
सुनेंगे। तुम्हारे
भीतर गूंजने
लगे नाद, तो
शायद...फिर भी
मैं कहता हूं
शायद, कोई
जरूरी नहीं
है। क्योंकि
ऐसे बज्र-बधिर
लोग हैं कि
तुम्हारे
भीतर घंटनाद
गूंजता रहे, उन्हें कुछ
भी सुनाई न
पड़ेगा। ऐसे
अंधे लोग हैं
कि तुम बदल भी
जाओ, उन्हें
कोई दीप्ति न
दिखाई पड़ेगी।
तुम
उनकी फिक्र छोड़ो। तुम
उनकी चिंता मत
करो। तुम उनके
लिए प्रार्थना
करो जरूर, लेकिन
उन्हें समझाओ
मत।
तुम जब
ध्यान करके
उठो तो उनके
लिए
प्रार्थना
करो। जब तुम
ध्यान करके
उठो तब उन पर
भी प्रभु की
अनुकंपा हो, वे भी सत्य
की तरफ उन्मुख
हों, उनमें
भी जाग आए ऐसी
प्रार्थना
करो, बस।
तुम प्रभु को
समझाओ कि
उन्हें जगाए।
तुम सीधे
जगाने मत चले
जाना।
बुद्ध
ने अपने
भिक्षुओं को
कहा है कि हर
प्रार्थना, हर ध्यान
करुणा पर पूरा
होना चाहिए।
जो तुम्हें
हुआ है वह
सारे जगत को
हो, ऐसी
भावना से ही
ध्यान को पूरा
करना। जो
तुम्हें मिला
है वह सबको
मिले, ऐसी
भावना से ही
ध्यान के बाहर
आना।
इसका
परिणाम होगा।
तर्क से, विचार
से तुम सिद्ध
न कर पाओगे।
अक्सर तो ऐसा
होगा, अगर
तुमने तर्क
किया तो शायद
वे तुम्हें
डांवांडोल कर
दें, बजाय
इसके कि तुम
उन्हें समझा
पाओ। क्योंकि
बात कुछ ऐसी
है कि तर्क से
समझाई नहीं जा
सकती, लेकिन
तर्क से खंडित
की जा सकती
है। तुमने अगर
मेरे निकट कुछ
पाया तो तुम
उसे तर्क से
समझा न सकोगे।
हां, कोई
भी उसे तर्क
से खंडित कर
सकता है।
फूल है
गुलाब का खिला; तुम कहते हो,
परम सुंदर
है। कोई भी
सिद्ध कर सकता
है कि नहीं है
सुंदर। तुम
सिद्ध न कर
पाओगे कि
सुंदर है।
सीधी-सी बात, कि गुलाब का
सुंदर फूल, तुम सिद्ध
कैसे करेगे
कि सुंदर है? सौंदर्य की
क्या कसौटी है,
क्या
मापदंड है? क्या आधार
है घोषणा का, कि सुंदर है?
दार्शनिक
सदियों से
चिंतन करते
रहे। अब तक तय नहीं
कर पाए कि
सौंदर्य की
परिभाषा क्या
है? किस चीज
को सुंदर कहें?
और कोई भी
सिद्ध कर सकता
है कि सुंदर
नहीं है। सिर्फ
घोषणा भर कर
दे कि नहीं है
सुंदर। कहां है
सुंदर? क्या
है इसमें
सौंदर्य? लाल
रंग में रखा
क्या है? पंखुड़ियां ही खुल गई तो
रखा क्या है? अरे सुगंध
ही सही! तो
सुगंध में भी
रखा क्या है?
कोई भी
आदमी असिद्ध
कर सकता है
बड़ी आसानी से।
नास्तिक होना
बड़ा आसान है।
आस्तिक होना
बड़ा कठिन है।
क्योंकि
आस्तिक कुछ ऐसी
बातों पर
श्रद्धा कर
रहा है, जो
सिद्ध नहीं की
जा सकतीं।
आस्तिक बड़ा
हिम्मतवर है।
वह ऐसे
रास्तों पर जा
रहा है, जिनके
लिए ठीक-ठीक
शब्द, तर्क,
प्रमाण
जुटाने असंभव
हैं।
इसलिए
तुम खयाल रखना, तुम व्यर्थ
की झंझट में पड़ना ही
मत। तुम बदलते
जाओ, तुम्हारी
आस्तिकता धीरे-धीरे
प्रगट होने
लगे तुम्हारे
जीवन में, तुम्हारे
व्यवहार से।
वही शायद
उन्हें ले आए तो
ले आए और कोई
उपाय नहीं है।
"...क्या
उन्हें
सन्मार्ग पर
लाना संभव
नहीं है?'
लाने
की कोशिश की
तो मुश्किल
है। वे और अकड़
जाएंगे। वे और
जिद्द
बांध जाएंगे।
क्योंकि लाने
की कोशिश में
उनको लगता है
तुम उन्हें
हराने चले? लाने की
कोशिश में
उनको लगता है
तुम उनके ऊपर विजय
की घोषणा कर
रहे? तुम
उन्हें
पराजित करने
में उत्सुक हो?
लाने की
चेष्टा में
लगता है कि
तुम्हारा कोई
स्वार्थ
होगा।
नहीं, यह बात ही मत
करना। वे अगर
बहुत उत्सुक
भी हों तो भी
टालना। कहना
कि ले चलेंगे,
जब कभी
सुविधा होगी।
ऐसी जल्दी भी
क्या है? तुम
हजार बहाने
करना कि बहुत
कठिन है ले
चलना। मिलाना
बड़ा मुश्किल
है। तो शायद...।
लोग
बड़ी उलटी
खोपड़ी के हैं।
अगर उनको कहो
मिलाना बहुत
मुश्किल है तो
वे तुम्हारे
पीछे पड़ेंगे
कि मिला दो, एक दफा तो
मिला दो। कि
ले चलना बहुत
कठिन है। वे तुमसे
कहेंगे, कि
कभी एक दफा तो
ले चलो। तुम
उनसे कहो कि
चलो, ले
चलते हैं, तो
वे हटेंगे।
आदमी
का मन बड़े
विपरीत ढंग से
चलता है।
निषेध करो तो
निमंत्रण; निमंत्रण दो
तो सोचता है, मतलब क्या
है? कोई
स्वार्थ
होगा। कोई छिपी
बात होगी। यह
आदमी इतना
उत्सुक क्यों
है वहां ले
जाने में? जेब
तो नहीं काट
लेगा रास्ते
में! कोई
तरकीब लगा रहा
है। कहीं
फंसाने ले जा
रहा है।
नहीं, तुम यह
कोशिश ही बंद
कर दो। इसलिए
तो मैं ऐसी कोशिश
कर रहा हूं कि
यहां मुश्किल
से ही लोग आ पाएं।
देखते हैं, कितने
दरवाजे हैं!
और बड़े करता जाऊंगा।
उन पर पहरेदार
बिठाते जाऊंगा।
बहुत मुश्किल
कर देना है
आना। तो ही
लोग आ पाएंगे।
तुम
लाने की
चेष्टा करना
ही नहीं। तुम
सिर्फ प्रार्थना
करना।
तुम्हारे
ध्यान के
बाद--जिनको भी
तुम चाहते हो
कि वे कभी
यहां आ
जाएं--ध्यान के
बाद उनकी सूरत
का स्मरण करना, और
प्रार्थना
करना कि कभी
उनका भी सदभाग्य
उदय हो। बस, चुपचाप, एकांत,
मौन में
तुम्हारी की
गई प्रार्थना
रेशम के पतले
धागों की तरह
उन्हें बांध
लेगी, ले
आएगी।
मोटे
रस्से तर्क के
मत बांधना।
उनमें तुम जिसको
बांधते
हो उसको लगता
है, यह तो बंधन
हुआ जा रहा है,
हथकड़ी डली जा रही
है। कहां जा
रहे हो? अपनी
स्वतंत्रता
गंवाना है? पागल होना
है?
प्रेम
के कच्चे धागे
पर्याप्त
हैं। वे प्रार्थना
में बंध जाते
हैं।
सदगुरु
के पास होना
समर्पण के
अतिरिक्त
संभव नहीं है।
सदगुरु
के पास होना
कोई तर्क की
निष्पत्ति, निष्कर्ष
नहीं है। तर्क
की हार और
पराजय है। सदगुरु
के पास होना
बुद्धि का खिलवाड़
नहीं है, हृदय
का आविर्भाव,
हृदय की
अभिव्यंजना
है। जो सब तरह
से मिटने को
तैयार है वही
केवल आ पाता
है।
तुम, जिसे मैंने
किया याद
जिससे
बंधी मेरी
प्रीति
कौन
तुम अज्ञात
वय-कुल-शील
मेरे मीत?
कर्म
की बाधा नहीं
तुम
तुम
नहीं
प्रवृत्ति से
उपरांत
कब
तुम्हारे हित
थमा संघर्ष
मेरा?
रुका
मेरा काम
तुम्हें
धारे हृदय में
मैं
खुले हाथों
सदा दूंगा
बाह्य का जो
देय
न
ही गिरने तक
कहूंगा, तनिक
ठहरूं
क्योंकि
मेरा चुक गया
पाथेय
तुम, जिसे मैंने
किया याद
जिससे
बंधी मेरी
प्रीत
कौन
तुम अज्ञात
वय-कुल-शील
मेरे मीत?
सदगुरु
तो बिलकुल
अज्ञात है। जो
दिखाई पड़ता है, वह थोड़े ही!
जो तुम्हारे
देखने के पार
रह जाता है
वही। जो सुनाई
पड़ता है वह
थोड़े ही! जो
मौन में
प्रतीत होता
है वही। जिसे
तुम देखते हो
वह तो केवल
रूप है, आकार
है। जो उस रूप
और आकर में
छिपा निराकार
है।
अज्ञात
वय-कुल-शील
मेरे मीत!
ऐसी
मित्रता बांधनी
बड़ी मुश्किल
है। क्योंकि न
कुल का पता, न वय का पता।
कहां ले जाओगे?
कहां ले चले?
कुछ भी पता
नहीं। अज्ञात
की यात्रा है।
तुम, जिसे मैंने
किया याद
जिससे
बंधी मेरी
प्रीति
और यह
बंधन प्रेम का
है। यह तर्क
का नहीं है।
तुम अगर मेरे
पास हो और
किसी भांति
मुझसे बंध गए
हो, तो यह
बंधन हृदय का
है। यह अकारण
है। तुम्हें प्रेम
हो गया। और जब
तक किसी को
प्रेम न हो
जाए, तब तक
पास होने की
कोई सुविधा
नहीं है।
तुम, जिसे मैंने
किया याद
जिससे
बंधी मेरी
प्रीति
कौन
तुम अज्ञात
वय-कुल-शील
मेरे मीत?
कर्म
की बाधा नहीं
तुम
तुम
नहीं
प्रवृत्ति से
उपरांत
सदगुरु
तुम्हें
प्रवृत्ति से
उपरांत थोड़े
ही करता है! सदगुरु
तुम्हें तोड़ता
थोड़े ही
तुम्हारे
संसार से!
तुम्हारे
संसार में ही
तुम्हें नए
होने का ढंग
देता है।
कर्म
की बाधा नहीं
तुम
सदगुरु
तुम्हें यह
थोड़े ही कहता
है, कि छोड़ो-छाड़ो,
भागो! भगोड़ा
थोड़े ही
बनाता! सदगुरु
तुम्हें
जगाता। वह
कहता, भागो नहीं, जागो।
कर्म
की बाधा नहीं
तुम
तुम
नहीं
प्रवृत्ति से
उपरांत
कब
तुम्हारे हित
थमा संघर्ष
मेरा?
रुका
मेरा काम
तुम्हें
धारे हृदय में
मैं
खुले हाथों
सदा दूंगा
बाह्य का जो
देय
न
ही गिरने तक
कहूंगा, तनिक
ठहरूं
क्योंकि
मेरा चुक गया
पाथेय
सदगुरु
के साथ जाना
एक अंतहीन
संघर्ष पर
जाना है। जहां
धीरे-धीरे सब
खो जाएगा।
पाथेय भी खो
जाएगा। कुछ भी
न बचेगा। तुम
भी खो जाओगे।
और अंत
तक अगर तुमने
यह हिम्मत रखी, कि तुमने
नहीं कहा कि
रुको, ठहरो,
यह मैं खोया
जा रहा हूं, तो ही तुम
पहुंच पाओगे। मिटकर ही
कोई पहुंचता
है। मरकर ही
कोई पाता है।
इसलिए
बहुत
स्वाभाविक है
कि लोग डरते
हैं। डरने के
कारण अपने
आसपास विचार
की बागुड़
खड़ी करते हैं।
डरने के कारण
मुर्दा मंदिरों
में, मस्जिदों में पूजा कर
लेते हैं। ऐसे
मन को समझा
लेते हैं कि
हम भी धार्मिक
हैं। शास्त्र
को लेकर बैठ जाते
हैं। पढ़ लेते
हैं, गुनगुना
लेते हैं, पाठ
कर लेते हैं।
ऐसे मन को
भ्रांति दे
लेते हैं कि
हम कुछ ऐसे ही
जीवन नहीं
गंवा रहे हैं!
गीता पढ़ते हैं,
कुरान पढ़ते
हैं, जिन-सूत्र
पढ़ते हैं।
लेकिन
तुम जो पढ़ोगे
वह तुम्हारा
ही अर्थ होगा।
महावीर का
अर्थ तो तुम
महावीर होकर
ही जान सकते
हो। और कोई
उपाय नहीं!
क्योंकि शब्द
तो बाहर से आ
जाते हैं। अर्थ
कहां से लाओगे? अर्थ तो
भीतर से आएगा।
इसीलिए
तो एक तरफ
कहते हो, जिन-शासन
ही सत्य है।
और दूसरी तरफ
कहे चले जाते
हो, कि और
सब मिथ्या है।
जिन-शासन का
अर्थ ही यही होता
है कि यहां
पूर्ण मिथ्या
कोई भी नहीं!
मिथ्या में भी
सत्य है छिपा।
तुम
मिथ्या-मिथ्या
को छोड़ देना।
असार-असार को
त्याग देना, सार-सार को
ग्रहण कर
लेना। हंसा तो
मोती चुगै--चुन
लेना मोती। कंकड़-पत्थर
से तुम्हें
क्या
लेना-देना?
दूसरा
प्रश्न:
पिछले
एक वर्ष के
भीतर आश्रम से
बाहर के वातावरण
में काफी
परिवर्तन हुआ
है। पहले जो
लोग आपके
विरोध में
बोलते थे, अब वैसा
बोलने में न
केवल हिचकते
हैं बल्कि आपमें
उत्सुक भी
होने लगे हैं।
और चाहते हैं
कि कैसे आपके
सान्निध्य का
लाभ लें? क्या
यह संक्रमण की
अवस्था है? और कृपया
उपदेश दें कि
हम
संन्यासियों
को इस अवस्था
में क्या करना
उचित है?
तुम
उनकी तरफ
ध्यान ही मत
देना। तुम
उन्हें टालना।
वे कहें कि ले
चलो, तुम कहना
बड़ा कठिन है।
तुम जल्दी मत
करना। उन्हें
आने दो अपने
से।
ऐसा ही
होता है। तीन सीढ़ियां
आदमी का चित्त
पूरी करता है।
पहली--विरोध
की।
शुभ
लक्षण है कि
पहली सीढ़ी पर
तो चढ़े।
उपेक्षा तो
नहीं है।
उपेक्षा
खतरनाक है।
मेरे पास वे लोग
कभी न आ
पाएंगे, जिनकी
मेरी तरफ
उपेक्षा है।
अगर विरोध कर
रहे हैं तो चल
पड़े। कहां
जाएंगे। रस
लेने लगे।
मेरी तरफ
ध्यान उनका
पड़ने लगा।
मित्रता बनने
लगी। तुम फिक्र
छोड़ो।
तुम
उन्हें विरोध
करने दो।
विरोध का मतलब
ही इतना है कि
उन्हें
मुझमें खतरा
दिखाई पड़ने
लगा। विरोध का
मतलब ही इतना
है कि उन्हें
मुझमें आकर्षण
मालूम होने
लगा। अन्यथा
कौन किसका
विरोध करता है? क्या
लेना-देना है?
विरोध हम
उसी का करते
हैं, जहां
खतरा है, जहां
बुलावा है।
जहां लगता है
कि अगर विरोध
नहीं किया तो खिंचे चले
जाएंगे।
तो रुक
रहे हैं।
रुकने के लिए
विरोध कर रहे
हैं। विरोध वे
मेरा नहीं कर
रहे हैं। अपने
आकर्षण के लिए
बाधा खड़ी करने
के लिए कर रहे
हैं। शुभ लक्षण
है। इससे
चिंतित होने
की कोई भी
जरूरत नहीं है।
मेरे
पास कभी-कभी
संन्यासी आ
जाते हैं। वे
कहते हैं, फलां आदमी
आपका बड़ा
विरोध करता है,
जाएं, उसे
समझाएं? मैंने
कहा, पागल
हुए हो? किसी
तरह वह उत्सुक
हुआ, अब
तुम उसे समझाने
जा रहे हो।
बामुश्किल तो
उत्सुक हुआ है
मुझमें और तुम
अब समझाने की
कोशिश कर रहे
हो? ये
चाहते हैं कि
समझा-बुझा दें,
विरोध न
करे। विरोध न
करे तो वह
मुझसे टूट गया।
जुड़ गया, तुम
फिक्र मत करो।
उसका विरोध ही
उसे खींच लाएगा।
विरोध
भी मित्रता का
एक ढंग है।
विरोध भी
आकर्षण का एक
रूप है। जब
विरोध
धीरे-धीरे, धीरे-धीरे
करते-करते
व्यर्थ हो
जाता है...क्योंकि
विरोध से कुछ
भी मिलता तो
नहीं। कब तक खींचोगे? आदमी आकाश
पर कब तक
थूकता रहेगा?
क्योंकि सब
थूका हुआ अपने
ही चेहरे पर
वापस पड़ जाता
है। इसमें सार
क्या है? आज
नहीं कल दिखाई
पड़ेगा, यह
मैं क्या कर
रहा हूं? इसमें
कुछ सार नहीं।
व्यर्थ भौंक
रहा हूं। व्यर्थ
चीख-चिल्ला
रहा हूं।
मेरी
तरफ से न तो
कोई उत्तर है, न समझाने की
कोई कोशिश है।
तो वह आदमी
धीरे-धीरे
दूसरी सीढ़ी पर
चढ़ता है।
तब वह उत्सुक
होता है कि
मामला क्या है?
हम विरोध किए
जा रहे हैं और
उस तरफ से कुछ
भी उत्तर नहीं
आता, कोई
प्रतिक्रिया
नहीं होती। तो
कहीं ऐसा तो नहीं
है...उसे संदेह
पैदा होना
शुरू होता है।
अपने पर संदेह
होना शुरू
होता है। कहीं
ऐसा तो नहीं
कि हम व्यर्थ
ही विरोध कर
रहे हैं या
हमारा विरोध
गलत है!
यह
सीढ़ी आदमी खुद
ही पार कर
सकता है।
दूसरे
जबर्दस्ती
किसी को चढ़ा
नहीं सकते। वह
दूसरे पर खड़ा
हो जाता है। अब
उसकी
जिज्ञासा
उठनी शुरू
होती है।
कुतूहल पैदा
होता है कि
जाएं, जरा
पास से देखें,
मामला क्या
है! हमारा
विरोध सही है
या गलत है?
अपने
पर संदेह आ
गया तो मुझ पर
श्रद्धा की
तरफ एक कदम और
उठा। मुझ पर
श्रद्धा आने
के पहले अपने
पर संदेह आना
जरूरी है।
इसलिए तो मैं
कहता हूं, मेरी तरफ
उन्मुख होने
के लिए अपने
से विमुख होना
जरूरी है।
अब यह
दूसरी सीढ़ी
में लोग...काफी
लोग हैं। तुम
उनको अभी
खींचने की
कोशिश मत करना, अन्यथा वे
फिर पहली सीढ़ी
पर उतर
जाएंगे। अगर
तुमने खींचा
तो उन्हें फिर
अपने पर भरोसा
आ जाएगा कि
अरे, हम भी
कहां जाल में
फंसे जाते थे!
वे फिर पहली सीढ़ी
पर खड़े होकर
विरोध करने
लगेंगे। तुम
फिक्र ही मत
करना।
मेरे
संन्यासी को
तो ऐसे जीना
चाहिए जैसे
संसार में कोई
और है ही
नहीं। मैं हूं
और तुम हो।
मेरे और
तुम्हारे बीच
संसार है। तुम
विस्मरण कर दो
इस सब को कि
कौन क्या कह
रहा है, कौन
आना चाह रहा
है, कौन
उत्सुक हुआ, कौन विरोध
कर रहा है। यह
तो चलता ही
रहेगा। कुछ
लोग पहली सीढ़ी
पर रहेंगे, कुछ लोग
दूसरी सीढ़ी पर
रहेंगे।
तुम जब
कोई ध्यान ही
न दोगे, तब
उन्हें और भी
हैरानी होगी।
तब उन्हें तुम
पर भी कुतूहल
पैदा होगा।
मेरी तो बात
ही उनके मन से
दूर रहेगी, तुम भी
कुतूहल जगाने
लगे। वे
तुममें भी
उत्सुक हो
जाएंगे। और जब
वे तुममें
उत्सुक होंगे
तभी उनके आने
का रास्ता
बनता है।
तो
पहली सीढ़ी:
विरोध की।
दूसरी सीढ़ी:
जिज्ञासा की, कुतूहल की।
और तीसरी
सीढ़ी: श्रद्धा
की।
जिसने
विरोध किया वह
मेरे लिए
श्रद्धा की
तरफ चल पड़ा।
उसे पता न
हो--मैं
प्रसन्न होता
हूं कि चलो, विरोध तो
किया। अब
जल्दी कुतूहल
भी होगा, उत्सुकता
जगेगी। फिर
कभी श्रद्धा
भी आ जाएगी।
जब पहला कदम
उठा लिया तो
तीसरा भी उठ
ही जाएगा। कम
से कम आदमी
चला तो। एक-एक
पैर चलकर आदमी
हजार मील की
यात्रा कर लेता
है। यह तो
केवल तीन कदम
का मामला है।
मगर
तुम जल्दबाजी
मत करना।
तुम्हारे
कारण बहुत बार
बहुत-से लोग
मेरे पास नहीं
आ पाते। और तुम
पूरी चेष्टा
करते हो लाने
की। कभी तुम उनको
खींच-खांचकर
ले भी आते हो
तो वे अकड़े
बैठे रहते
हैं। यहां मैं
देख लेता हूं
उनको कि वह
अकड़ा कौन आदमी
बैठा हुआ है।
वह रक्षा करता
रहता है अपनी।
वह यह सिद्ध
करने में लगा
है कि तुम गलत
हो। वह तुमसे
झगड़े में लगा
है। उसे मुझसे
कुछ लेना-देना
नहीं है। वह
मुझे सुनता भी
नहीं है, या
कुछ का कुछ
सुन लेता है, ताकि बाहर
जाकर वह कह
सके कि हमने
पहले ही कहा था
कि कहां गलत
आदमी में तुम
उलझे हो! और
हमारा भी समय
खराब करवाया।
नहीं, तुम किसी को
लाना ही मत।
तुम आते जाओ।
तुम्हारे आने
से जो पगडंडी
बन रही है, वह
बहुत लोगों के
लिए रास्ता
बनेगी। बस तुम
आते जाओ। तुम
आते-जाते रहो।
तुम्हारे
आने-जाने से
जो जंगल में
रास्ता बन रहा
है उस रास्ते
पर बहुत लोग
आएंगे।
मगर
तुम खींचकर
किसी को कभी
मत लाना। आदमी
पशु थोड़े ही
है कि गले में
डाल दिया
रस्सा और खींच
लिया। आदमी
अपनी मौज से
आए तो ही आता
है। आदमी
नाचता हुआ आए
तो ही आता है।
तीसरा
प्रश्न:
पच्चीस
सौ वर्ष पहले
महावीर ने
प्रचलित अंधविश्वासों
पर प्रहार
करके सदधर्म
का तीर्थ
बनाया। आज आप
भी उसी दिशा
में गमन कर रहे
हैं, फिर
भी अंधश्रद्धालुओं
में जाग नहीं
आ रही। बीसवीं
सदी में भी
लोग इतने कायर
क्यों हैं? और उनमें
मिथ्या
गुरुओं का
इतना आकर्षण
क्यों है?
जागने
का कोई संबंध
सदी से नहीं
है, समय से
नहीं है। आदमी
सदा जैसा है।
मकान बदल गए, रास्ते बदल
गए, कपड़े
बदल गए, आदमी
की आत्मा थोड़े
ही बदल गई है।
आदमी
वैसा ही क्रोध
करता है, वैसा
ही प्रेम करता
है, वैसी हीर् ईष्या
करता है, द्वेष
करता है। जैसा
तब करता था, वैसा अब
करता है।
वह
आदमी बैलगाड़ी
में चलता था, तुम फिएट
कार में चलते
हो, इससे
क्या फर्क
पड़ता है? वह
आदमी जमीन पर
बैठकर खाना
खाता था, तुम
टेबल-कुर्सी
पर खाते हो, इससे क्या
फर्क पड़ता है?
वह आदमी हाथ
से खाना खाता
था, तुम
चम्मच-कांटे
से खाते हो, इससे क्या
फर्क पड़ता है?
भीतर
तुम्हारी
अंतरात्मा तो
ठीक वैसी की
वैसी है, जैसी
उस आदमी की
थी। आदमी वैसा
का वैसा है।
आदमी का अब
कोई विकास
नहीं हो रहा
है। प्रकृति जहां
तक ले आ सकती
थी, ले
आयी। अब आदमी
को विकास अपने
हाथ में लेना
होगा, तो
विकास होगा।
अब क्रांति
होगी, विकास
नहीं होगा। अब
तो वे ही लोग, जो अपने
जीवन की
प्रक्रिया को
समझकर उठना
चाहेंगे, अतिक्रमण
करना चाहेंगे,
उठेंगे।
तो बीस
सदी पहले भी
उठे, अब भी उठ
सकते हैं।
जिनको नहीं
उठना, नहीं
उठना चाहते, वे बीस सदी
पहले सोए थे, अब भी सोते
रहेंगे। और
तुम
जबर्दस्ती
किसी की नींद
तोड़ने की
कोशिश मत करना,
क्योंकि वह
नाराज होगा।
फिर हमें हक
भी क्या है? कोई सोना
चाहता है तो
कम से कम इतनी
स्वतंत्रता
तो होनी ही
चाहिए कि सोता
रहे। तुम बैंडबाजे
लेकर रामधुन
मत मचा देना
चार बजे रात
माइक लगाकर, ताकि सभी
लोग जगें
ब्रह्ममुहूर्त
में। वे सब
गाली देंगे।
तुमको देंगे,
राम को भी
देंगे, कि
कहां के
दुष्ट! सोने
नहीं देते।
जबर्दस्ती
धर्म को लाने
का कोई उपाय
ही नहीं है।
अगर कोई सो
रहा हो तो
आहिस्ता से
चुपचाप निकलना, ताकि कहीं
जग न जाए।
उसको नींद
लेने का हक
है। आदमी को
भटकने का हक
है। यह आदमी
की
स्वतंत्रता
है कि वह
संसार में
रहना चाहे तो
रहे। जब तक रहना
चाहे, तब
तक रहे।
परमात्मा
भी बाधा नहीं
डालता।
प्रकृति को बनाए
कितना समय हुआ
होगा--अगर कभी
किसी ने बनाई।
वह भी थक गया
होगा कि लोग
अभी तक भटक ही
रहे हैं। अब
इनको बुला ही
लो। कि जाकर
पकड़ लाओ एक-एक
को। मगर नहीं, परमात्मा
स्वतंत्रता
देता है। अनंत
काल तक तुम
स्वतंत्र हो।
और यही
मजा है, महिमा
है कि
स्वतंत्रता
के कारण ही एक
दिन तुम इस
संसार से
मुक्त होना
चाहते हो।
तुम
अगर अभी नींद
से ऊबे नहीं, तो तुम्हें
जगाने से भी
क्या होगा? तुम फिर
करवट लेकर सो
जाओगे। तुम
अगर नींद से अभी
ऊबे नहीं और
सपनों में
तुम्हें रस है
तो कोई
तुम्हें
जबर्दस्ती
बिठा भी दे तो
तुम बैठकर ही
आंखें बंद
करके सो जाओगे
और नींद लेने
लगोगे।
नहीं, जबर्दस्ती
कोई उपाय नहीं
है। यह करना
ही मत। और
इसकी चिंता भी
मत लेना। तुम
जग जाओ, इतना
काफी है। और
तुम अपने
ध्यान को इस
तरह बांटो भी
मत।
"बीसवीं सदी
में भी लोग
इतने कायर
क्यों हैं?'
आदमी
सदा से कायर
है। और
स्वभावतः
कायर है क्योंकि
मौत सदा खड़ी
है सामने।
आदमी डरे न तो
क्या करे? मौत डराती
है। प्रेम
डराता है
क्योंकि
प्रेम भी मौत
है। गुरु
डराता है
क्योंकि गुरु
भी मौत है। घबड़ाहट
होती है।
दया
करो आदमी पर।
सब तरफ से मौत
घेरे हुए है।
जहां जाता है, वहीं मांग
है कि मिटो।
तो अपने को
बचाने की
चेष्टा कर रहा
है। कमजोर, असहाय आदमी!
और सबसे बड़ी
मौत सदगुरु
के पास घटती
है। वहां
अहंकार
बिलकुल ही
विसर्जित
होता है, राख
हो जाता है।
तो
स्वाभाविक है
डर। आदमी सदा
से कायर है
क्योंकि मौत
सदा से मौजूद
है। कोई ऐसा
थोड़े ही है कि
पहले मौजूद थी, बीसवीं सदी
में मौजूद
नहीं है। कोई
सदियों से थोड़े
ही फर्क पड़ता
है।
जीवन
के वास्तविक
प्रश्न सदा
वही के वही
हैं। ऊपर की
छोटी-मोटी
बातें बदलती
हैं। आधारभूत
नियम नहीं
बदलते।
आज से
दो हजार साल
पहले
तुम्हारे
गांव में जिसके
पास बढ़िया बैलगाड़ी
होती, दूर
तक भागनेवाले
छकड़े
होते, शानदार
घोड़ा होता, उससे तुम्हारीर्
ईष्या थी। अब तुम्हारीर्
ईष्या उससे है,
जिसके पास
फिएट कार है।
बात वही की
वही है। इससे
क्या फर्क
पड़ता है कि
घोड़े सेर्
ईष्या थी, कि
अब कार सेर्
ईष्या है! कल
हो सकता है
हवाई जहाज
लोगों के पास
हो जाएंगे। हर
आदमी अपनी छत
पर अपना हवाई
जहाज रख लेगा।
तब तुम्हें उससेर्
ईष्या होगी कि
जिसके पास
हवाई जहाज है,
वह कुछ मजा
लूट रहा है, मैं चूका जा
रहा हूं।
लेकिनर्
ईष्या तो वही
है। जीवन को
ठीक से देखो
तो समय से कोई
अंतर नहीं
पड़ता, अंतर
तो सिर्फ
ध्यान से पड़ता
है। नहीं तो
हम एक ही चाक
में कोल्हू के
बैल की तरह
घूमते रहते हैं।
"...मिथ्या
गुरुजनों
का इतना
आकर्षण क्यों
है?'
सदा से
रहा है। बड़े गहरे
कारण हैं।
क्योंकि
मिथ्या गुरु
एक तो तुम्हें
मिटाता नहीं, तुम्हें
सजाता है, संवारता है। मिथ्या
गुरु
तुम्हारे
जीवन में कोई
क्रांति नहीं
लाता, तुम्हारे
जीवन में थोड़ी
सुविधा लाता
है। तुम बीमार
हो तो मिथ्या
गुरु कहता है,
घबड़ाओ मत। यह देखो
चमत्कार से
राख हाथ से
गिर रही है, इसको सम्हाल
लो। ठीक हो
जाओगे।
वह
तुम्हारी
बीमारी ठीक
करता है। होती
है बीमारी ठीक
कि नहीं यह
दूसरी बात है।
मगर कम से कम तुम्हें
भरोसा तो देता
है। चलो तीन
महीने तक तो
भरोसा रहेगा
कि तीन महीने
बाद ठीक हो
जाएगी। और
नहीं हुई तो
कोई हर्जा
नहीं। हो गई
तो बड़ा लाभ
है।
तुम
बैठ जाओ बाजार
में और बांटने
लगो राख। सौ मरीज
आएंगे, पचास
तो ठीक होंगे
ही। सभी तो मर
जानेवाले नहीं
हैं। जो पचास
ठीक हो जाएंगे,
वे
तुम्हारा
गुणगान
करेंगे कि
महापुरुष है,
सत्य साईंबाबा
है। ये रहे
सत्य साईंबाबा!
ठीक हो गए। जो
ठीक नहीं हुए
वे किसी दूसरे
सत्य साईंबाबा
को खोजेंगे।
जो ठीक हो गए
वही तुम्हारे
इर्द-गिर्द
इकट्ठे होने
लगेंगे। वे
गुणगान करेंगे।
और उनके
गुणगान का भी
कारण है, वे
ठीक हो गए। वे
झूठ भी नहीं
कह रहे।
अब मजा
यह है कि आदमी
की सौ
बीमारियों
में से पचास
बीमारियां
झूठ हैं। हैं
ही नहीं; सिर्फ
उसे खयाल है।
इसलिए झूठी
दवाइयां भी काम
आती हैं।
बीमारियां ही
झूठ हैं तो
झूठी दवाइयां
काम आ जाती
हैं। डाक्टर
पानी का
इंजेक्शन दे
देता है, तुम
बिलकुल ठीक हो
जाते हो।
कभी
तुमने खयाल
किया? डाक्टर
तुम्हें
देखने आता है,
नब्ज वगैरह
देखता है, स्टेथस्कोप सीने पर
लगाता है, उसी
बीच तुम ठीक
होने लगते हो।
तुमने खयाल
किया इस बात
का? पर
डाक्टर जरा
बड़ा होना
चाहिए और फीस
काफी होनी
चाहिए। मुफ्त
आ जाए डाक्टर,
तो फायदा
नहीं होता।
जितनी ज्यादा
फीस ले, उतना
फायदा होता
है। फीस दवा
से भी ज्यादा
काम करती है।
क्योंकि उतना
बड़ा डाक्टर!
अब तुम्हें
बीमार रहने की
सुविधा ही
नहीं रह जाती।
इतना बड़ा
प्रामाणिक डाक्टर
आया, ठीक
होना निश्चित
ही है। उस ठीक
होने की धारणा
से तुम ठीक
होते हो।
जब तुम
देखते हो कि
हजारों लोग कह
रहे हैं कि फलाने
बाबा की राख
से ठीक हो गए, तो तुम भी
धक्कम-धुक्का
खाकर भीड़ में
इकट्ठे हो
जाते हो। राख
तुम्हें मिल
गई--मिलते ही
तुम ठीक होने
लगते हो।
तुम्हारी
बीमारी झूठ।
और उसी झूठी
बीमारी को ठीक
करने में तुम
लगे हो इसलिए
मिथ्या गुरु
को खोजते हो।
अभी
बंगलोर
विश्वविद्यालय
ने सत्य साईंबाबा
को पत्र लिखा
कि हम खोज
करना चाहते
हैं। वे जवाब
भी नहीं देते
पत्रों का। उल्टे
उन्होंने यह
वक्तव्य दिया
कि तुम अपना काम
करो, हम अपना
काम करें। बीच
में बाधा
क्यों डालते हो?
यह तो ऐसा
हुआ कि चोर भी
कहने लगें कि
हम अपना काम
करते हैं, साहुकार
अपना काम करें,
बीच में
बाधा क्यों
डालते हो? जो
मेडिकल कालेज
से पढ़कर आया
छह साल, वह
भी तख्ती
लगाकर बैठा है,
उसके सामने
बड़ा तख्ता लगा
है। कोई
नीम-हकीम बैठ
जाए, वह
कहे, तुम
अपना काम करो,
अपना काम हम
करें, बीच
में बाधा
क्यों डालते
हो?
बाधा
डालनी पड़ेगी।
क्योंकि सत्य साईंबाबा
के कारण
हजारों लोग मर
रहे हैं, जिनका
इलाज हो सकता
था। जिनको लाभ
हो रहा है, उनको
तो लाभ किसी
भी चीज से हो
जाता। लेकिन
हजारों लोग मर
रहे हैं। कोई
कैंसर का आदमी
पहुंच जाता है
और वे कहते
हैं, बस
ठीक हो जाओगे।
तो वह आपरेशन
नहीं करवाता,
इलाज नहीं
करवाता
क्योंकि
अब...ठीक हो
जाएगा। वह मर
जाता है।
यह तो
खतरनाक बात
है। यह तो
इसमें और
हत्या करने
में फर्क ही
नहीं है। मैं
तुम्हारी आकर
छाती में छुरा
भोंक दूं, तो तुम
मरोगे। और तुम
मेरे पास
कैंसर लेकर आए
और मैंने कहा,
बिलकुल
फिक्र मत करो।
यह राख ले जाओ,
सब ठीक हो
जाएगा। और तुम
मर गए तीन
महीने बाद। हालांकि
कोई अदालत
मुझे पकड़ेगी
नहीं, लेकिन
पकड़ना
चाहिए।
क्योंकि मरे
तुम मेरे
कारण। यह छुरा
मैंने मारा।
बड़ी तरकीब से
मारा, राख
की आड़ में
मारा।
तो यह
तो कहना गलत
है साईंबाबा
का, कि किसी
को हमारे काम
में बाधा
डालने का क्या
कारण? लाखों
लोग तुम मार
रहे हो, खराब
कर रहे हो।
उनकी जिंदगी
बरबाद कर रहे
हो। मगर वे लाखों
लोग आए चले जा
रहे हैं
क्योंकि उनको
आशा है कि
शायद ठीक हो
जाएं। शायद
कोई रास्ता
मिल जाए। शायद
कोई चमत्कार
हो जाए। आदमी
दुख की अवस्था
में सब तरह की
बातों पर
भरोसा करने
लगता है।
होशियार से
होशियार आदमी
करने लगता है।
और वे
वैज्ञानिकों
के सामने
बंगलोर
विश्वविद्यालय
के, अपना
प्रदर्शन
बताने को राजी
नहीं हैं
क्योंकि डर है
कि पकड़े
जाएंगे।
क्योंकि यह
भभूत, और
ये घड़ियां और
ये ताबीज, यह
सब मदारीगिरी
है। इससे कुछ
लेना-देना
धर्म का नहीं
है।
लेकिन
एक बात मैं
बंगलोर
विश्वविद्यालय
के कुलपति को
कहना चाहता
हूं कि अगर
तुम ठीक कमेटी
बनाना चाहते
हो निरीक्षण
के लिए तो वैज्ञानिक
योग्य आदमी
नहीं है।
क्योंकि वैज्ञानिकों
को मदारीगिरी
का कोई भी पता
नहीं है। उस
कमेटी में कम
से कम दो
मदारी जरूर
रखो। गोगिया
पाशा, के.
लाल, इनको
रखो। नहीं तो
तुम न पकड़
पाओगे।
पश्चिम में कई
दफा यह हो
गया। मदारी को
ही नहीं पकड़
सकते।
क्योंकि
आखिर...वैज्ञानिक
का लेना-देना
क्या है मदारी
से? वैज्ञानिक
को पता क्या
है तरकीबों का?
वैज्ञानिक
सरलतम लोग हैं
दुनिया के।
सीधे-सादे लोग
हैं, गणित
की दुनिया में
जीते हैं--दो
और दो चार।
वैज्ञानिक को
लूटना जितना
आसान है, उतना
किसी को भी
लूटना आसान
नहीं है। और
वैज्ञानिक को
जितनी आसानी
से धोखा दिया
जा सकता है, किसी को भी
नहीं दिया जा
सकता।
और मजा
यह है कि जब
तुम
वैज्ञानिक को
धोखा दे दो, तो तुम्हें
प्रमाण मिल
गया कि देखो, वैज्ञानिकों
ने भी कह
दिया। मगर
वैज्ञानिक का
मतलब क्या है?
यह तो
ऐसा हुआ कि
जैसे एक दांत
का डाक्टर है, और तुम आंख
का डाक्टर कुछ
गड़बड़ कर रहा
है, उसके
निरीक्षण के
लिए दांत के
डाक्टर को लगा
दो।
इससे
लेना-देना कुछ
नहीं है। आंख
के संबंध में
वह कुछ जानता
नहीं है। आंख
के डाक्टर को पकड़ना हो
कि ठीक है कि
गलत, तो आंख के
डाक्टर होने
चाहिए।
तो
इतना भर मेरा
कहना है कि
उनकी कमेटी
में अभी ठीक
आदमी नहीं
हैं। कमेटी
में कोई फिलासफी
का प्रोफेसर
है, क्या
लेना-देना है फिलासफी
के प्रोफेसर
को? भोले-भाले
लोग हैं। नहीं
तो फिलासफी
के प्रोफेसर
बनते? इस
भरी दुनिया
में यह गधापन
करते? कोई
तर्कशास्त्र
के प्रोफेसर
हैं; उनको
क्या
लेना-देना! या
कोई संस्कृत
का ज्ञाता है;
उसे क्या
लेना-देना है?
न! गोगिया
पाशा, के.
लाल इनको रखो।
ये फौरन पकड़
लेंगे।
क्योंकि जो साईंबाबा
कर रहे हैं, वह ये सब कर
रहे हैं। उनसे
बहुत बेहतर कर
रहे हैं। बिना
इनको रखे वह
कमेटी अधूरी
है। और साईंबाबा
प्रदर्शन
करने को तैयार
नहीं हैं।
उन्होंने जो
वक्तव्य दिया
उसमें यह कहा
कि मैं तो यह
सब चमत्कार
इसलिए कर रहा
हूं कि लोगों
में धर्म की
श्रद्धा बढ़े।
तो मैं
उनसे कहना
चाहता हूं कि
अगर धर्म की
श्रद्धा
बढ़ाने के लिए
ही कर रहे हो
तो इससे अच्छा
मौका क्या
होगा? इस
कमेटी को
निरीक्षण कर
लेने दो। अगर
इस कमेटी ने
प्रमाण दे
दिया कि तुम
सही हो, तो
बड़ी श्रद्धा बढ़ेगी। और
अगर इस कमेटी
ने सिद्ध कर
दिया कि तुम
गलत हो तो इस
गलत के आधार
पर सही
श्रद्धा बढ़
कैसे सकती है?
हर
हालत में लाभ
होगा। इससे
बचो मत। इससे भागो मत।
लेकिन वे घबड़ा
रहे होंगे। घबड़ाहट
स्वाभाविक
है। साधारण
मदारी जो कर
रहे हैं वही
वे कर रहे
हैं। लेकिन
साधारण मदारी
ईमानदार है।
वह कहता है, हाथ की
तरकीब है। ये
जो धार्मिक
मदारी हैं, ये कहते हैं
यह सिद्धि है।
सिद्धि
वगैरह कुछ भी
नहीं है।
लेकिन आदमी इस
जाल में पड़ता
है। पड़ता
इसलिए है कि
आदमी बड़ा असहाय
है। अब किसी
को कैंसर हो
गया। अब वह
घबड़ाया, कि
मरे! अब बचने
की कोई आशा न
रही। अगर वह
डाक्टर के पास
जाता है तो
डाक्टर भी कोई
धोखेबाज तो नहीं
है। वह महावीर
की भाषा बोलता
है डाक्टर। वह
कहता है, स्यात
ठीक हो जाओ।
कोई निर्णय तो
नहीं है, गारंटी
तो नहीं है कि
हम तुम्हें
ठीक कर देंगे।
हम कोई...हमारे
हाथ में कोई
जीवन-मृत्यु
तो नहीं है।
डाक्टर कहता
है, हम
उपाय करेंगे।
जो भी
श्रेष्ठतम हो
सकता है, हम
करेंगे।
कभी-कभी लोग
बच भी जाते
हैं, कभी-कभी
लोग नहीं भी
बचते।
तो
डाक्टर तो
महावीर की
भाषा बोल रहा
है। वह कहता
है, शायद ठीक
हो जाओ। हम
कोई उपाय न छोड़ेंगे।
लेकिन मरीज घबड़ाता है
कि स्यात...? जब
डाक्टर कह रहा
है स्यात, तब
तो बड़ी
मुश्किल हो
गई। डाक्टर से
तो निश्चय
सुनने आए थे
कि निश्चित
ठीक हो जाओगे।
कोई डाक्टर
ऐसा नहीं कह
सकता, क्योंकि
कोई डाक्टर
इतना बेईमान
नहीं हो सकता।
डाक्टर को
अपनी सीमा पता
है। डाक्टर को
पता है कि हम
सब उपाय करें,
फिर भी कभी
आदमी मर जाता
है।
जीवन
के रहस्य
डाक्टर के
ज्ञान से
ज्यादा बड़े हैं।
और कभी-कभी हम
कोई भी उपाय न
करें तो भी
आदमी बच जाता
है। जीवन और
मृत्यु, हम
जो जानते हैं
उतने पर
समाप्त नहीं
हैं।
तो
डाक्टर तो
झिझकता है। वह
कहता है, हम
कोशिश
करेंगे। हम
कुछ भी उठा न
रखेंगे। लेकिन
फिर भी बात तो
परमात्मा के
हाथ में है।
हो गए ठीक तो
ठीक। क्योंकि
अंततः तो वही
ठीक करेगा तो
हो जाओगे। अगर
बचने की
जीवन-ऊर्जा
होगी भीतर, तो ठीक हो
जाओगे। हम तो
सहारे दे सकते
हैं। शायद थो॰?ा बहुत
सहारा बन जाए।
इससे
भरोसा नहीं
आता। जो कैंसर
से मर रहा है वह
प्रामाणिक
रूप से सुनना
चाहता है कि
निश्चित तुम
ठीक हो जाओगे।
इस कहने से
ठीक होगा या
नहीं होगा, यह सवाल
नहीं है। यह
सुनने से उसको
राहत मिलती है,
सांत्वना
मिलती है। साईंबाबा
के पास जाता
है, वे
कहते हैं
बिलकुल ठीक हो
जाओगे। कोई घबड़ाने की
जरूरत नहीं
है।
और फिर
अगर साधारण
डब्बे में से
राख निकालकर दें
तो ज्यादा
परिणाम नहीं
मालूम होता।
हवा में हाथ घुमाकर
राख निकाल दी।
इससे उस कैंसर
से घबड़ाए
हुआ आदमी को
लगता है कि है
तो आदमी
चमत्कारी। हवा
से राख निकाल
देता है।
कहीं
हवा से राख
नहीं निकलती।
सब राख छिपी
हुई है, वहां
से निकलती है।
लेकिन उस आदमी
को तो दिखाई
पड़ता है कि
हवा से निकाल
दी। तो जो
आदमी इतना चमत्कारी
है उसके वचन
में भरोसा
करने जैसा है।
यह आदमी भरोसा
कर लेता है।
इसको
सांत्वना मिल
गई।
अब
इसने अगर
भरोसा कर लिया
तो सांत्वना
तो जरूर मिल
गई, लेकिन
सांत्वना से
थोड़े ही कैंसर
ठीक होता है।
यह मरेगा।
हालांकि
सुखपूर्वक
मरेगा। तीन महीने
परेशान नहीं
होगा, लेकिन
मरेगा। साईंबाबा
के कारण इसका
मरना निश्चित
हो गया।
डाक्टर के साथ
संभावना थी, बच भी जाता।
न भी बचता, लेकिन
बचने की भी
पचास प्रतिशत
संभावना थी।
सत्य साईंबाबा
के साथ सौ
प्रतिशत बचने
की आशा और सौ
प्रतिशत न
बचने की
स्थिति है।
अगर बच गया तो
तभी बच सकता
है, जब कैंसर
झूठा रहा हो।
अगर झूठा
कैंसर था तो
डाक्टर तो बचा
ही लेता।
उसमें कोई
अड़चन ही न थी।
इसलिए लाभ कुछ
भी नहीं हो
रहा। अगर खयाल
भर था...।
कभी-कभी
झूठे खयाल हो
जाते हैं।
किसी आदमी को पेट
में गैस बनती
है। गैस के भर
जाने से हृदय
की धड़कन बढ़
जाती है। वह
सोचता है, हार्ट-अटैक
हो गया। कुछ
मालूम नहीं
है। एनिमा
काफी होगा। और
न भी एनिमा
ले तो भी पेट
की गैस निकल
जाएगी। तो यह
आदमी तो ठीक
हो जाएगा।
कुछ
लोगों को
बिलकुल
काल्पनिक और
मानसिक बीमारियां
होती हैं। वे
सोचते हैं तो
हो जाती हैं।
भाव कर लेते
हैं तो हो
जाती हैं।
वस्तुतः नहीं हैं।
तो कोई भी
उनको भरोसा
दिला दे कि
ठीक हो जाएगा, तो ठीक हो
जाते हैं।
इसलिए दुनिया
में बहुत धोखाधड़ी
की सुविधा है,
चलती है।
मिथ्या
गुरु की तलाश
में तुम जाते
हो क्योंकि तलाश
अभी मिथ्या
चीजों की है।
शरीर ठीक भी
हो गया तो
क्या फर्क
पड़ने वाला है? मरोगे! चार दिन
पहले मरे कि
चार दिन बाद
मरे, क्या
फर्क पड़ता है?
मुकदमा जीत
गए तो भी
मरोगे। जीतेऱ्हारे
कोई फर्क नहीं
पड़ता, लेकिन
मुकदमा जीतना
चाहते हो।
मेरे
पास लोग आ
जाते हैं। वे
कहते हैं, बस आप
आशीर्वाद दे
दें। मैं कहता
हूं किसलिए?
वे कहते, आपको तो सब
पता ही है। आप
तो आशीर्वाद
दे दें। तुम
बोलो भी तो, कि किसलिए?
वे कहते हैं,
मुकदमा है
अदालत में।
मैंने कहा, तुम मुझे
फंसा रहे हो।
चोरी तुम करो,
फंसो तुम, आशीर्वाद
मेरा। मेरा
इसमें क्या
हाथ है?
पर वे
कहते हैं, और गुरुओं
के पास जाते
हैं, वे तो
आशीर्वाद दे
देते हैं। वे
तो पूछते ही
नहीं। वे वे
जानें। मैं
तुम्हें ऐसा
आशीर्वाद
नहीं दे सकता।
मैं तो इतना
ही कह सकता हूं
कि अगर तुमने
चोरी की हो तो
जरूर तुमको
सजा मिले। अगर
न की हो तो तुम
निश्चित छूट
जाओ, ऐसी
मेरी
शुभकामना।
मैं आशीर्वाद
यह नहीं दे सकता
कि तुम मुकदमा
जीत जाओगे।
क्योंकि यह तो
बात ही गलत हो
गई। ये तो चोर
भी चोर हुए और
साधु भी उनके
साथ सम्मिलित
हुए।
मिथ्या
गुरु की इसलिए
तलाश चलती है
क्योंकि मिथ्या
गुरु कोई खास
काम पूरा कर
रहा है, जो
कि सदगुरु
नहीं कर सकता।
तो जब
तुम्हारे
भीतर से
व्यर्थ की
चीजों का
आकर्षण जाएगा,
व्यर्थ की
वासना गिरेगी,
उसी क्षण
व्यर्थ के
गुरुओं से भी
छुटकारा हो जाता
है।
चौथा
प्रश्न:
मुझे
गरज किसी से न
वास्ता
मुझे
काम अपने ही
काम से
तेरे
जिक्र से, तेरी फिक्र
से
तेरी
याद से, तेरे
नाम से
ऐसा
हो जाए, ऐसी
बन पड़े बात तो
जीवन में जो
पाने योग्य था,
पा लिया।
तेरे
जिक्र से, तेरी फिक्र
से
तेरी
याद से, तेरे
नाम से
परमात्मा
ऐसा तुम्हें
घेर ले
उठने-बैठने
में, सोने
जागने में।
जिसे तुम देखो,
उसमें वही
दिखाई पड़े। जो
तुम करो, उसमें
उसी की सेवा
हो, तो पा
लिया जीवन का
गंतव्य।
फिर
तुम्हें कहीं
और जाने की
जरूरत नहीं।
तुमने यहीं पा
लिया उसे।
उसकी याद उसके
आने का ढंग
है। उसका जिक्र
उसके उतर आने
की व्यवस्था
है। तुमने सीढ़ियां
लगा दीं।
तुमने पलक-पांवड़े
बिछा दिए। तुम
याद करे जाओ, वह आ ही
जाएगा। तुम थको मत।
तुम अथक याद
किए जाओ।
रिंदों
के लिए मंजिले-राहत
है यहीं
मयखाना-ए-पुर-कैफ
मसर्रत है यहीं
पीकर
तो जरा
सैर-ए-जहां की
कर ऐ शेख
तू ढूंढता है
जिसको वह
जन्नत है यहीं
रिंदों
के लिए मंजिले-राहत
है यहीं--पियक्कड़ों
के लिए कहीं
और जाने की
जरूरत नहीं
है। जिन्होंने
उसके प्याले
को पीना सीख
लिया, उसका
जिक्र, उसकी
फिक्र, उसका
नाम।
जिन्होंने
उसकी शराब ढाल
ली उन्हें
कहीं जाने की
जरूरत नहीं।
रिंदों
के लिए मंजिले-राहत
है यहीं
उनके
पास खुद मंजिल
चली आती है।
उठकर एक कदम भी
नहीं चलना
पड़ता।
परमात्मा
को खोजना नहीं
पड़ता, परमात्मा
उन्हें खोजता
आता है। बस, याद भर तुम
ठीक से कर
पाओ।
तुम्हारी याद
बीज बन जाती
है। अंकुरित
होता है
परमात्मा, फूल
खिलते हैं
मोक्ष के।
मयखाना-ए-पुर-कैफ
मसर्रत है
यहीं
उनकी
मधुशाला भी
यहीं है।
मधुशाला का
आनंद भी यहीं
है।
पीकर
तो जरा
सैर-ए-जहां की
कर ऐ शेख
हे
धर्मगुरु! जरा
पीकर, मतवाला
होकर, मस्त
होकर, नाचता,
दीवाना
होकर जरा
दुनिया की सैर
कर।
तू ढूंढता है
जिसको वह
जन्नत है यहीं
वह
स्वर्ग यहीं
है। वह मतवाले
के पैर-पैर पर
है। जहां मस्त
बैठ गए वहीं
स्वर्ग है।
काश! यह हो
जाए। उसका
ध्यान ही तब
आता है, उसकी
याद ही तब आती
है, जब
उसने किसी तरह
तुम्हारी तरफ
हाथ बढ़ा दिया।
फिर
तेरे कूचे को
जाता है खयाल
दिले-गुमगस्ता
मगर याद आया।
मेरा
ध्यान फिर
तेरी गली की
तरफ खिंच रहा
है। लगता है
मुझे फिर मेरे
दिल की स्मृति
हो आयी।
उसकी
पुकार
तुम्हारी ही
अंतर्तम की
पुकार है। अगर
तुम्हें उसकी
याद आने लगी
तो अपनी ही याद
आ रही है। वह
कोई पराया
थोड़े ही है! वह
कोई दूसरा
थोड़े ही है, दूजा थोड़े
ही है!
फिर
तेरे कूचे को
जाता है खयाल
दिले-गुमगस्ता
मगर याद आया
जब तक
उसकी याद नहीं, तब तक
तुम्हें अपनी
भी याद नहीं
होगी।
फिर
बेखुदी में
भूल गया राहे-कूएऱ्यार
जाता
वगरना एक दिन
अपनी खबर को
मैं
बेहोशी
में मंजिल का
पता ही भूल
गए। प्रेमी का
घर ही भूल गए...।
फिर
बेखुदी में
भूल गया राहे-कूएऱ्यार
उस
प्रीतम का
निवास कहां? बेहोशी में
यही याद न
रहा। ध्यान के
अभाव में यह
भी स्मृति न
रही।
जाता
वगरना एक दिन
अपनी खबर को
मैं
अन्यथा
अपनी खबर को
एक न एक दिन
जाता।
क्योंकि जो
परमात्मा के
पास पहुंचा वह
अपने पास पहुंचा।
जो परमात्मा
से मिला वह
अपने से मिला।
इसीलिए तो
महावीर कहते
हैं, आत्मा ही
परमात्मा है--"अप्पा सो परमप्पा।'
इस धुन
को गूंजने दो।
इस गीत को
भीतर गुनगुन करने
दो। यह
तुम्हारी
हृदय की
धड़कन-धड़कन में
बस जाए।
श्वास-श्वास
को इसी में डुबा
लो, पग जाओ
इसी रस में।
फिर
कुछ और करना
नहीं है। फिर
सब शास्त्र एक
तरफ हटाकर रख
दो।
मंदिर-मस्जिद
को भूलो।
फिर जहां
तुमने जिक्र
किया उसका और
जहां उसकी याद
की, वहीं
मंदिर है। फिर
तुम चलोगे तो
तीर्थ बनने लगेंगे।
तुम्हारे
कदम-कदम पर
तीर्थ बनने
लगेंगे।
लेकिन यह हो
जाए। यह आसान
नहीं है।
ऐसा ही
आशीर्वाद मैं
दे सकता हूं।
ऐसा आशीर्वाद
मांगो तो कुछ
मांगा। यह हो
सकता है लेकिन
होना आसान
नहीं है। यह
जगत में सबसे
ज्यादा दुर्गम
है। क्योंकि
हमारा मन ऐसा
आदी हो गया है
व्यर्थ की
बातों को याद
करने का, कि
बैठते हैं
परमात्मा को
याद करने, न
मालूम और और, न मालूम
क्या-क्या याद
आ जाता है।
इसलिए
मेरी दृष्टि
में तो रास्ता
ऐसा है कि तुम
परमात्मा की
याद को, और
और चीजों की
याद को, दुश्मन
मत समझना, अन्यथा
मुश्किल में
पड़ोगे। तुम तो
ऐसा करना कि
सभी चीजों को
परमात्मा ही
मान लेना। तो
पत्नी की भी
याद आए तो तुम
याद रखना कि
परमात्मा की
ही याद आ रही
है। आखिर वह
भी तो
परमात्मा का
ही रूप है।
अपने बेटे की
भी याद आए तो
याद रखना, परमात्मा
की ही याद आ
रही है।
तुम
बेटे में और
परमात्मा में, पत्नी में
और परमात्मा
में, पति
में, परमात्मा
में किसी तरह
का संघर्ष खड़ा
मत करना।
अन्यथा मुश्किल
में पड़ोगे।
तुम्हें तो जो
भी याद आए उसी
में तुम
परमात्मा की
याद को मान
लेना। धीरे-धीरे
तुम पाओगे, सब विरोध
समाप्त हो गए।
जो शक्ल दिखाई
पड़ेगी उसमें
तुम उसी की
ज्योति देख
पाओगे, किसी
भी आंख में
झांको, तुम्हें
उस आंख में
उसी का
प्रतिबिंब
मिलेगा।
झीलें हजार
हैं, चांद
एक है। सभी
झीलों में उस
चांद का
प्रतिबिंब
बनता है। बहुत
रूप में
परमात्मा
प्रगट हुआ है।
उसने बहुत रंग
धरे हैं। उसने
बहुत वेश धरे
हैं। वही है; उसके
अतिरिक्त और
कोई भी नहीं।
इसलिए
मैं तुमसे यह
नहीं कहता कि
तुम सांसारिक
याद और
परमात्मा की
याद को संघर्ष
में जुटा दो।
उस संघर्ष में
पड़े कि तुम टूट
जाओगे। और तुम
बहुत बुरी तरह
हारोगे और पराजित
हो जाओगे। और
तुम ही अगर
हार गए तो
परमात्मा की
विजय कैसे
होगी? इसलिए
तुम झगड़े में
मत पड़ना।
द्वंद्व में
मत पड़ना।
तुम तो
एक चेष्टा
शुरू
करो...वृक्ष
दिखाई पड़े, तो देखो
वृक्ष को, पहचानो
परमात्मा को।
फूल हाथ में
आए, गौर से
देखना। जरा
गहरे देखना।
तुम उसे छिपा
हुआ पाओगे ही।
वह है ही तो
ऐसे कैसे होगा
कि न पाओगे? पत्थर भी
पड़ा दिखाई पड़े,
और थोड़े
ज्यादा गौर से
देखना। फूल
में जरा जल्दी
दिख जाएगा, पत्थर में
जरा और गहरे
छिपा है। मगर
छिपा तो है
ही।
ऐसी
अपनी आंख को
निखारते चलो।
ऐसी अपनी
दृष्टि को साफ
करते चलो।
पांचवां
प्रश्न:
मन
की आवाज
कौन-सी है और
हृदय की आवाज
कौन-सी है? जानने की
कसौटी क्या है?
कृपया
समझाएं।
मन
की ही सब
आवाजें हैं, हृदय की कोई
आवाज नहीं।
जहां आवाजें
खो जाती हैं, वहां हृदय
है।
मौन
है हृदय की
आवाज।
शून्य
है हृदय का
स्वर।
इसलिए
झंझट बिलकुल
नहीं है। तुम
सोचते हो, कोई आवाज
हृदय की और
कोई मन की; तो
तुम बड़ी गलती
में पड़े जा
रहे हो। सब
आवाजें मन की
हैं। यह मन ही
है।
धन को
भी मन ही पकड़ना
चाहता है और
धन को मन ही
त्यागना
चाहता है। मन
बड़ा जटिल है।
एक तरफ कहता है, पकड़ लो, लूट
लो मजे। दूसरी
तरफ कहता है
क्या रक्खा? सब असार है।
पर
दोनों मन हैं।
एक तरफ कहता
है दौड़ लो।
चार दिन मिले
जिंदगी के, कुछ पा लो
पद। दूसरी तरफ
से कहता है, क्या रखा है
पदों में? जो
पहुंच गए उनको
तो देखो।
मन
अपने से ही एकालप
करता रहता है, मोनोलाग करता रहता
है। एक तरफ से
जवाब देता है,
एक तरफ से
उत्तर खड़ा
करता है। पर
दोनों आवाजें
मन की हैं।
यास कहती
है कुछ, तमन्ना
कुछ
किसकी
बातों का
एतबार आए
फिर
धीरे-धीरे
तुम्हें जो-जो
समझाया गया है
कि शुभ है, सत्य है, अगर
मन वही कहता
है तो तुम
सोचते हो, यह
हृदय की आवाज
है। जब मन
कहता है
वेश्या के घर
चलो तो तुम
कहते हो, यह
मन की, इंद्रियों
की, शरीर
की। और जब मन
कहता है मंदिर
चलो, तुम
कहते हो, यह
आत्मा की, हृदय
की।
गलती
बात है। जो
वेश्या के घर
ले जाता है
वही मंदिर भी
ले जाता है।
वे सब जुड़े
हैं। हृदय तो
कहीं नहीं ले
जाता। वहीं
छोड़ देता है
जहां तुम सदा
से हो। न मंदिर, न वेश्या; न धन, न
धर्म; न
भोग, न
त्याग।
इसलिए
तो महावीर
कहते हैं
धर्म-अधर्म
दोनों के पार
जाना है।
पाप-पुण्य
दोनों के पार
जाना है।
तुम
सोचते हो पाप
की आवाज मन की
और पुण्य की
हृदय की? नहीं,
दोनों मन की
ही हैं। सब
आवाजें मन की
हैं। मन व्यर्थ
ही ऊहापोह में
लगा रहता है।
कुछ
कटी हिम्मते-सवाल
में उम्र
कुछ
उम्मीदे-जवाब
में गुजरी
और ऐसे
ही मन समय को गंवाता
रहता है। इधर
पूछता, इधर
खोजता है।
उत्तर भी बना
लेता, फिर
उत्तर में से दस
नए प्रश्न बना
लेता। फिर
प्रश्नों में
से दस उत्तर
खड़े कर लेता।
ऐसा बुनता
जाता मकड़ी
का जाला। अपने
में से ही
निकाल-निकाल
कर जाले को
बुनता चला
जाता है। मगर
यह सब मन का ही
खेल है।
तुम
पूछते हो हृदय
की आवाज
कौन-सी? हृदय
की कोई आवाज
नहीं। जब सब
आवाज तिरोहित
हो जाती है तो
जो सन्नाटा
शेष रह जाता
है, वही
हृदय का है।
उस सन्नाटे
में ही
तुम्हें दिखाई
पड़ेगा, दर्शन
होगा। उस
शून्य में ही
पूर्ण का
अवतरण होता
है।
आखिरी
प्रश्न:
आपने
एक दिन कहा था
कि इधर तुम
कृष्ण हुए कि
उधर रास सजा।
मैं इस बात पर
झूम तो उठा था, लेकिन जब कृष्ण
का भाव करना
चाहा तो
मुझमें गोपियों
का भाव भर
गया। और इस
भाव ने मुझे
और भी आह्लाद से
भर दिया। जैसे
कृष्ण के आगे
रास-मंडल
रचाया था, वैसे
ही आपके
सन्मुख होने
लगा। किंतु
आपके रास
सजाने का भाव
क्या था?
यही
था, जो हुआ।
जो हुआ, बिलकुल
यही था।
कृष्ण
के साथ रास
रचाना हो तो
गोपी बनना ही
पड़ेगा। गोपी
बन-बनकर एक
दिन कृष्ण भी
बन जाओगे, लेकिन गोपी
बनने से
गुजरना ही
पड़ेगा। गोपी
बनना कृष्ण
होने के
रास्ते पर पड़ाव
है। जो गोपी
बनने को तैयार
नहीं वह कृष्ण
कभी न बन
पाएगा।
ऐसे
गोपी
नाचते-नाचते-नाचते
पास आती
जाएगी। मंडल
छोटा होता
जाएगा। नाच
तीव्र होता
जाएगा। गोपी
धीरे-धीरे
खोती जाएगी, लीन होती
जाएगी। मंडल
और छोटा होता
जाएगा। रास और
सघन हो उठेगा।
मध्यरात्रि आ
जाएगी। चांद सिर
पर होगा।
नाचते-नाचते-नाचते-नाचते
गोपी कृष्ण
में लीन हो
जाएगी। कृष्ण
हो उठेगी।
मंडल
तब बिलकुल
समाप्त हो गया।
रास
पूर्ण हुआ।
मिलन
हुआ।
पुराणों
में कथा है।
राधा के नाम
का कोई उल्लेख
नहीं है
शास्त्रों
में--पुराने
शास्त्रों में।
सिर्फ इतना ही
उल्लेख है कि
कृष्ण के पास एक
गोपी ऐसी भी
थी, जो छाया
जैसी थी। उसका
कोई नाम नहीं
है। वह छाया
की तरह उनके
पीछे लगी रहती
थी। छाया की
तरह...यही तो
राधा होने का
ढंग है। अच्छा
किया कि नाम
नहीं लिया।
नाम तो बाद
में दिया, बहुत
बाद
में--मध्ययुग
में। कवियों
ने नाम दिया
क्योंकि कवि
को बिना नाम
दिए न चलेगा।
नाम लेकिन बड़ा
प्यारा दिया।
प्रतीकात्मक
है राधा। धारा
के
विपरीत--राधा।
धारा को उल्टा
कर लो तो
राधा। जैसे
गंगा
गंगोत्री की
तरफ बहने लगे
तो राधा हो
गई।
मूलस्रोत
की तरफ बहने
लगे तो
गोपी-भाव का
जन्म हुआ। जब
अपना नाम भी
भूल जाए तो
राधा का जन्म
हुआ। जब अपना
अलग होने का
कोई खयाल ही न
रह गया, कृष्ण
की छाया बन
गए। जहां जाने
लगे वे...छाया क्या
करे? छोड़
भी नहीं सकती
पीछा। छुड़ाना
भी चाहें
कृष्ण, तो
भी पीछा नहीं
छोड़ती। जब
कृष्ण मथुरा
से द्वारका
चले गए तो और
सब तो छूट गए
होंगे, सिर्फ
राधा साथ गई
होगी। छाया
साथ गई होगी।
छाया को तो छोड़ोगे
कैसे?
रास
गहन होता है
तो पहले गोपी
का जन्म होता
है। फिर गोपी
धीरे-धीरे
छाया हो जाती
है। गोपी की पार्थिवता
खो जाती है।
सिर्फ प्रकाशरूप
रह जाती है।
अस्तित्व
मात्र। और तब
किसी भी क्षण
पतिंगा ले
लेगा आखिरी
छलांग शमा
में। डूब जाएगा
और एक हो
जाएगा।
यही
मेरा मतलब था, जो हुआ। गोपियों
का भाव भर गया,
गोपी होने
की धारणा
बनी--बस, कृष्ण
की तरफ पहला
कदम उठा। गोपी
की आकांक्षा क्या
है? हजारों
गोपियां
हैं। कृष्ण की
कथा मधुर है।
परमात्मा एक
है, खोजी
अनंत हैं।
मंजिल एक है, रास्ते बहुत
हैं। रास्तों
पर चलनेवाले
यात्री बहुत
हैं।
कृष्ण
एक हैं। सोलह
हजार गोपियां
हैं। सोलह
हजार तो सिर्फ
प्रतीक हैं, हजारों गोपियां
हैं। लेकिन
हजारों गोपियों
को एक कृष्ण
ने लुभा लिया।
कोई वैमनस्य
भी नहीं है। कोईर्
ईष्या भी नहीं
है। प्रत्येक
गोपी कृष्ण से
सीधे जुड़ गई।
दूसरी गोपी की
कोई चिंता भी
नहीं है।
प्रत्येक
गोपी को ऐसा
लगने लगा, कृष्ण
उसी के साथ
नाच रहे हैं।
तुमने ऐसे
चित्र देखे
होंगे, जिसमें
कृष्ण अनेक
रूप ले लिये
हैं। सब गोपियों
के साथ नाच
रहे हैं।
परमात्मा
जब तुम्हें
मिलेगा, तो
"तुम्हें' मिलेगा।
यह कोई
सार्वजनिक
चीज नहीं
होगी। यह बिलकुल
निजी और
वैयक्तिक
होगी। जब
परमात्मा तुम्हें
मिलेगा तब यह
परमात्मा
बिलकुल तुम्हारा
होगा। यह
तुम्हारी
आत्मा होगा।
मगर इससे
मिलने के लिए
गोपी की भावदशा
चाहिए।
तुझे
न देख सकूं
मैं तो कुछ
मलाल नहीं
यही
बहुत है कि तू
मुझको देख
सकता है
दार्शनिक
तो कहता है, मुझे
परमात्मा को
देखना है।
इसलिए
तो हम
दर्शनशास्त्र
कहते हैं
दार्शनिक की
खोज को--देखने
की चेष्टा।
भक्त कहता है, मैं तुझे न
देख सकूं तो
कुछ मलाल
नहीं।
तुझे
न देख सकूं
मैं तो कुछ
मलाल नहीं
यही
बहुत है कि तू
मुझको देख
सकता है
यह
क्या कम है कि
तेरी आंख मुझ
पर पड़ रही है? हो गई बात।
मैं अंधा हूं,
मैं नासमझ
हूं, मैं
भटका हूं, फिक्र
छोड़--तो कोई
मलाल नहीं।
तेरी दृष्टि
मुझ पर पड़ रही
है, बस
बहुत।
जैसे
सूरज निकला, अंधा न देख
सके सूरज को, इससे क्या
फर्क पड़ता है?
सूरज तो
अंधे को नहाए
जा रहा है।
सूरज की तो किरण-किरण
अंधे को नहाए
जा रही है।
दार्शनिक
और भक्त का
यही भेद है।
ज्ञानी कहता है, परमात्मा को
देखना है।
भक्त कहता है,
परमात्मा
मुझे देख ले।
अब
तुम्हें एक
रहस्य की बात
खयाल में ले
लेनी चाहिए।
गोपी का अर्थ
होता है
स्त्रैण
चित्त। स्त्री
का चित्त
चाहता है
प्रेमी उसे
देख ले। पुरुष
का चित्त
चाहता है
प्रेयसी को
देखे। प्रेयसी
चाहती है
पुरुष देख ले।
इसलिए
तुम्हें बड़ी
हैरानी होगी।
मनोवैज्ञानिक
बड़े चिंतन में
पड़े रहते हैं
कि पुरुष की
बड़ी आकांक्षा
होती है अपनी
प्रेयसी के
शरीर को नग्न, उसके पूरे
सौंदर्य में
अनढंका देख
लेने की। लेकिन
स्त्री कभी
चेष्टा नहीं
करती पुरुष के
शरीर को नग्न
देखने की।
उसकी कोई
उत्सुकता ही नहीं
होती। इसीलिए
तो नंगी
स्त्रियों की
तस्वीरें
बहुत बिकती
हैं, नंगे
पुरुषों की
नहीं बिकतीं।
नहीं तो
स्त्रियां भी
उतनी ही हैं, वे भी
तस्वीरें खरीदतीं।
इसलिए
फिल्मों में
नग्न स्त्री
का नृत्य तो खूब
दिखाई पड़ता है;
नंगा पुरुष
नाचे तो लोग
कहेंगे, बंद
करो, यह क्या
बकवास लगा रखी
है? नग्न
पुरुष में
स्त्री की कोई
आकांक्षा
नहीं है।
जब तुम
किसी स्त्री
को प्रेम से
आलिंगन में भरोगे तो
तुम चकित
होओगे, तुम्हारी
आंख खुली होगी,
स्त्री की
आंख बंद हो
जाती है।
गहरे
प्रेम के क्षण
में स्त्री
सदा आंख बंद
कर लेती है।
स्त्रैण
चित्त चाहता
है कि उसका
प्रेमी उसे
देख ले, बस
काफी। गोपी का
यही अर्थ होता
है कि परमात्मा
मुझे देख ले, बस काफी है।
तुझे न
देख सकूं मैं
तो कुछ मलाल
नहीं
यही
बहुत है कि तू
मुझको देख
सकता है
परमात्मा
के प्रेम में
स्त्रैण-चित्तता
की जरूरत है।
प्रेम में ही
स्त्रैण-चित्तता
की जरूरत है।
पुरुष का
प्रेम
नाममात्र को
प्रेम है।
प्रेम तो
स्त्री का ही
होता है।
पुरुष के लिए
हजार कामों
में प्रेम एक
काम है। स्त्री
के लिए प्रेम
ही बस एकमात्र
काम है।
स्त्री के सब
काम प्रेम से
निकलते हैं।
वह खाना पकाएगी, बुहारी
लगाएगी, तुम्हारे
कपड़े पर बटन
टांक देगी, तुम्हारी
प्रतीक्षा
करेगी। उसका
सारा काम...तुम्हारे
बच्चे, उनकी
देखभाल
करेगी।
तुम्हारे घर,
तुम्हारे बगीचे को संवारेगी।
उसकी सारी
चिंता उसके
प्रेम से
निकलती है। उसका
सारा काम उसके
प्रेम से
निकलता है।
पुरुष
को और हजार
काम हैं।
अक्सर पुरुष को
ऐसा लगता है
कि प्रेम के
कारण मेरे काम
में बाधा पड़ती
है। इसलिए
बहुत
कामी-धामी जो
पुरुष होते
हैं, वे प्रेम
में पड़ते ही
नहीं। जिनको
दुकान ठीक से
चलानी है, वे
प्रेम को हटा
देते हैं कि हटाओ, बंद
करो। दुकान
में बाधा पड़ती
है। जिसको
राजनीति में
उतरना है, वह
प्रेम को हटा
देता है--हटाओ!
प्रेम से बाधा
पड़ती है।
जिसको
वैज्ञानिक
बनना है वह
प्रेम को हटा
देता है--हटाओ!
जिसको ध्यानी
बनना है वह
प्रेम को हटा
देता है--हटाओ,
ध्यान में
बाधा पड़ती है।
ऐसा
लगता है कि
पुरुष को और
हजार काम हैं, जो प्रेम से
ज्यादा
महत्वपूर्ण
हैं। वह प्रेम
को हटा देता
है और काम
करने को।
स्त्री के लिए
और कोई काम ही
नहीं है। अगर
प्रेम न हो तो
स्त्री एकदम
अकेली रह जाती
है। कुछ काम
नहीं सूझता, क्या करे!
काम निकलता ही
नहीं।
स्त्रैण-चित्त
का इतना ही
अर्थ है कि
तुम्हारे लिए
प्रेम ही
ध्यान हो।
गोपी बनने का
यही अर्थ है
कि तुम्हारी
दृष्टि में
प्रेम ही एकमात्र
काम रह जाए।
और सब प्रेम
से निकले। फिर
तुम्हें हर
तरफ परमात्मा
दिखाई पड़ने
लगेगा। तुम
पहले...परमात्मा
तुम्हें
देखने लगे, इस आकांक्षा
को जगाओ। फिर
तुम्हें
परमात्मा हर
तरफ दिखाई
पड़ने लगेगा।
जिस दिन
परमात्मा ने तुम्हें
देख लिया उसी
दिन तुम उसे
देख पाओगे।
भक्त
और ज्ञानी के
रास्तों का
यही फर्क है।
भक्त कहता है
प्रभु, मैं
नाच रहा हूं, तू देख ले।
कोई बात नहीं
कि मैं तुझे देखूं, मगर
मैं नाच रहा
हूं, तेरी
आंख इधर पड़
जाए। बस, जरा
तेरी आंख पड़
जाए, पर्याप्त
पुरस्कार हो
गया। तूने देख
लिया, जीत
गए हम; सार्थक
हो गए।
बला-ए-जां
हैं गालिब
उसकी हर बात
इबारत
क्या, इशारत
क्या, अदा
क्या
बात, संकेत, भावभंगिमा...
बांकेबिहारी
की बात-बात
बड़ी प्यारी है
बात-बात
बला मेरी जान
की
लेकिन
इसका सूत्र
खुलता है
तुम्हारे
नृत्य से, गीत से, तुम्हारे
हृदय को खोलने
से। तुम पुकारो
परमात्मा को
कि तू मुझे
देख ले; बस
पर्याप्त है।
जिस दिन उसकी
आंख तुम पर
पड़ी उसी दिन
तुम्हारी आंख
पैदा हो
जाएगी। उसकी
आंख की चोट
तुम्हारी आंख
को खोल देगी।
ज्ञानी
कहता है, पहले
हम परमात्मा
को देखेंगे।
उसकी यात्रा भिन्न
है। वह कहता
है, पहले
हम आंख पैदा
करेंगे जिससे
परमात्मा दिख जाए।
जब हम
परमात्मा को
देखेंगे तभी
वह हमारी तरफ
देखेगा। भक्त
कहता है पहले
वह हमारी तरफ
देख ले, फिर
हमने न भी
देखा तो भी
हर्ज क्या है?
उसने देख
लिया। दोनों
हालत से घटना
घट जाती है।
मेरी
बात सुनकर
प्रश्नकर्ता को
गोपीभाव
जगा; तो इससे
साफ समझ लेना
चाहिए कि
भक्ति उसके
लिए मार्ग
होगी। और यह
भाव जगा है तो
इसको लेकर मत बैठे
रहना। इस
निमंत्रण को
स्वीकार करो
और चलो यात्रा
पर।
आज
अपने स्वप्न
को मैं सच
बनाना चाहता
हूं
दूर
की इस कल्पना
के पास जाना
चाहता हूं
चाहता
हूं तैर जाना
सामने अम्बुधि
पड़ा जो
कुछ
विभा उस पार
की इस पार
लाना चाहता
हूं
स्वर्ग
में भी स्वप्नभू
पर देख उनसे
दूर ही था
किंतु
पाऊंगा नहीं
कर आज अपने पर
नियंत्रण
तीर
पर कैसे रुकूं
मैं आज लहरों
में निमंत्रण
प्रभु
की पुकार आयी
तुम्हारी
तरफ। तुममें
जो गोपी का
भाव जगा है यह
बिना कृष्ण के
पुकारे
जग ही नहीं
सकता है।
तीर पर
कैसे रुकूं
मैं आज लहरों
में निमंत्रण
अब
रुको मत। अब
नाचो। अब
स्वयं ही लहर
बनो। लहर का
निमंत्रण मिल
गया, अब नाचो।
जमने दो रास।
होओ उन्मत्त।
होओ मदमत्त।
पागल बनो।
स्त्रैण बनो।
छाया बनो
उसकी। मंडल को
करो छोटा।
नाचते-नाचते-नाचते-नाचते
एक दिन उसमें
प्रवेश हो
जाएगा। नृत्य
करते-करते ही
प्रवेश हो
जाता है। इधर
तुम मिटे कि
उधर प्रवेश
हुआ।
शुभ
घड़ी आयी; उसे
खो मत जाने
देना।
मैं
ब असद फक्र-ए-जुहाद
से कहता हूं मजाज
मुझको
हासिल सर्फे-बेअते-खैयाम
अभी
अत्यंत
गौरव से, संयमियों से, योगियों
से मैं कहता
हूं कि मुझे खैयाम की
शिष्यता की
प्रतिष्ठा
प्राप्त हुई।
मैं
ब असद फक्र-ए-जुहाद
से कहता हूं मजाज
संयमियों
से, योगियों
से, ज्ञान
के खोजियों से
मैं बड़े गौरव
के साथ कहता
हूं--
मुझको
हासिल सर्फे-बेअते-खैयाम
अभी
मुझे खैयाम की
मधुशाला में
शिष्यता की
प्रतिष्ठा
मिल गई है।
मुझे बेहोशी
का, मदहोशी
का, प्रभु
की मदिरा पीने
का निमंत्रण
मिल गया है।
फिर
संयमी बड़ा
फीका है। भक्त
के आगे संयमी
बड़ा फीका है।
फिर संयमी तो
मरुस्थल जैसा
है, भक्त
वसंत में
वृक्षों पर
फूल खिल गए
ऐसा। भक्त
झरने जैसा है।
तो जिसको
भक्ति की लहर
उठ रही हो वह
रुके न; चल
पड़े। रास में
सम्मिलित हो
जाओ। और उसका
रास चल ही रहा
है। उसी के
आसपास तारे
नाच रहे हैं। उसी
के आसपास
पृथ्वी, ग्रह,
उपग्रह नाच
रहे हैं। उसका
रास चल ही रहा
है। इस सारे
जीवन-नृत्य का
वही केंद्र
है।
तुम भी
रास में सम्मिलित
हो जाओ।
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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