जिन सूत्र (भाग--2)
प्रश्न
सार:
1—मक्खनी
गोशालक के जीवन
पर प्रकाश डालने की कृपा करें।
2—महावीर
का अशरण—उपदेश
और उनका शिष्यों
को दीक्षा देना—इनमें
क्या अंतर्विरोध
नहीं है?
पहला
प्रश्न:
मक्खली
गोशालक के
जीवन के अनेक
प्रसंग जैन
शास्त्रों
में मिलते हैं, लेकिन उनका
उल्लेख किसी
आदर के साथ
नहीं किया गया
है। गोशालक को
वे कलहप्रिय
और उद्धत कहने
के साथ ही साथ
विलक्षण भी
बताते हैं। आप
तो उसका नाम
आदर के साथ
लेते हैं।
क्या गोशालक
का अपना कोई
दर्शन था? और
क्या उसकी
परंपरा के मर
जाने से
जैनियों ने
उसके साथ
अन्याय किया?
इस पर कुछ
प्रकाश डालने
की कृपा करें।
गोशालक
का निश्चित ही
एक
जीवन-दृष्टिकोण
था। दर्शन
कहना उसे उचित
नहीं, क्योंकि
शास्त्रबद्ध,
सूत्रबद्ध
जीवन- प्रणाली
बनाने में
उसका कोई
भरोसा नहीं
था। उसकी
दृष्टि यही थी
कि जीवन इतना
बड़ा रहस्य है
कि दर्शन में
समा सके यह
संभव नहीं है;
जीवन का कोई
दर्शन हो सकता
है, यह
संभव नहीं है।
इसलिए
सभी दर्शन
किसी न किसी
रूप में
मनुष्य की
कल्पनाएं हैं
और जबर्दस्ती
जीवन के ऊपर
आरोपित किए
जाते हैं।
जीवन बड़ा है, शब्द बड़े
छोटे हैं।
सत्य बहुत बड़ा
है, सिद्धांत
बहुत छोटे
हैं। सत्य को
फांसी लग जाती
है
सिद्धांतों
में डालने से।
शब्दों में समाने
की चेष्टा में
ही विराट सत्य
मर जाता है।
इसलिए मक्खली गोशाल
दार्शनिक तो
नहीं है। कोई
परंपरा
बनानेवाला भी
नहीं है। पर
उसकी एक
जीवन-दृष्टि
है। दर्शन मैं
उस नहीं कहता, सिर्फ
जीवन-दृष्टि
है। और
जीवन-दृष्टि
उसकी बड़ी
बहुमूल्य है,
समझने जैसी
है।
चूंकि
उसने कोई
दर्शन नहीं
बनाया, इसीलिए
उसकी कोई
परंपरा नहीं
बन सकी। लोग
तो सुरक्षा
चाहते हैं।
लोग तो कोई
सिद्धांत
चाहते हैं।
सत्य की किसको
चिंता है? लोग
चाहते हैं, कोई
सिद्धांत हाथ
में आ जाए, जिससे
हम जीवन के
उलझाव को किसी
भांति सुलझा लें।
सुलझे, न सुलझे,
हमें भरोसा
आ जाए कि सुलझ
गया, तो हम
निश्चिंत हो
जाएं।
लोग
अपनी चिंता
मिटाना चाहते
हैं। इसलिए
गोशालक जैसे
व्यक्ति
लोगों को
प्रीतिकर
नहीं लगते।
क्योंकि वे
तुम्हारी
चिंता मिटाने
का कोई उपाय
नहीं करते। वे
तो तुमसे कहते
हैं, तुम्हारी
चिंता ही
व्यर्थ है। वे
कहते हैं, हल
कोई नहीं है, चिंतित होना
व्यर्थ है, यह समझ लो।
बस इतना काफी
है।
हम
प्रश्न पूछते
हैं, हम उत्तर
की अपेक्षा
करते हैं। हम
कहते हैं, संसार
किसने बनाया?
यह प्रश्न
हमारे भीतर
कांटे की तरह
चुभता है। कोई
कह देता है, ईश्वर ने
बनाया।
यद्यपि कुछ हल
नहीं होता। क्या
हल होगा? कोई
अंतर नहीं
पड़ता।
फिर
अगर तुम पूछना
चाहो तो पूछ
सकते हो, ईश्वर
को किसने
बनाया? लेकिन
एक तरह की
राहत मिलती है
कि चलो...। वह जो
एक भीतर कांटे
की तरह चुभता
प्रश्न था, हल हुआ।
ईश्वर ने
बनाया।
गोशालक
जैसे व्यक्ति, जब तुम उनसे
पूछो, जगत
किसने बनाया,
तो कंधा बिचका
देते हैं। वे
कहते हैं, हमें
नहीं मालूम और
किसी को नहीं
मालूम। इस फर्क
को समझना।
दुनिया
में तीन तरह
के लोग हैं।
एक, जो कहते
हैं, ईश्वर
ने बनाया; हमें
मालूम है।
दूसरे, जो
कहते हैं, ईश्वर
ने नहीं बनाया;
हमें मालूम
है। लेकिन उन
दोनों में एक
बात समान है।
दोनों कहते
हैं, हमें
मालूम है।
गोशालक
कहता है, किसको
पता? कौन
जानता है? कैसे
कोई जान सकता
है? इतना
निश्चित है, कभी अगर बनाया
हो किसी ने, तो हम तो
मौजूद न थे।
क्योंकि हम तो
बनाने के बाद
ही मौजूद हो
सकते हैं। हम
तो बनाये गए।
हम तो मौजूद न
थे, जब
बनाया गया
होगा। तो अब
उपाय कहां है
जानने का, कि
किसने बनाया?
और अगर किसी
ने बनाया तो
जिसने बनाया
वह तो मौजूद
ही रहा होगा
बनाने के पहले।
तो कुछ तो था
ही। प्रश्न हल
नहीं होता।
बनानेवाले को
किसने बनाया?
गोशालक
कहता है, उत्तर
नहीं है, प्रश्न
व्यर्थ है।
प्रश्न
निरर्थक है।
तुम कृपा करो
और प्रश्न को
गिर जाने दो।
तुम जरा देखो
कि तुमने एक
ऐसा प्रश्न
पूछ लिया है, जिसके कारण
तुम झंझट में
पड़ोगे। या तो
आस्तिक बन
जाओगे या
नास्तिक बन
जाओगे। दोनों
हालत में तुम
जीवन के विराट
को इंकार कर
दोगे। दोनों
हालत में जीवन
का रहस्य टूट
जाएगा। तुम
बीच में
सिद्धांत की
एक दीवाल खड़ी
कर लोगे।
दोनों हालत
में तुम अपने
अज्ञान को
छिपा लोगे।
गोशालक
कहता है, कुछ
पता नहीं--बनाया,
नहीं बनाया!
सच तो यह है, यह भी पक्का
नहीं है कि है
भी? हो
सकता है सपना
ही हो।
तो
गोशालक कोई
दर्शन नहीं
देता, एक
दृष्टि देता
है। उत्तर
नहीं देता, प्रश्न को
देखने की एक
समझ देता है।
इसलिए परंपरा
नहीं बनी। और
ऐसे व्यक्ति
के पीछे कैसे
अनुयायी
इकट्ठे हों?
हां, कुछ लोग
गोशालक जिंदा
था तो इकट्ठे
हो गए थे। वह
उसके
व्यक्तित्व
की गरिमा रही
होगी। उसके उत्तर
तो थे ही नहीं
कुछ। कुछ
हिम्मतवर लोग
उसके साथ हो
लिए होंगे।
लेकिन वह
चमत्कार रहा
होगा उसके
अपने होने का;
जिसको
करिश्मा कहते
हैं। वह उसका
प्रसाद रहा होगा।
इसलिए जैन
शास्त्र
विरोध भी करते
हैं और उसे
विलक्षण भी
कहते हैं।
विलक्षण तो
पुरुष था ही।
क्योंकि बिना
सिद्धांत के, बिना उत्तर
दिए अगर लोग
आकर्षित हो गए
थे तो आदमी
में कुछ जादू
तो था ही। वह
जादू बौद्धिक
नहीं था, वह
जादू
व्यक्तित्व
का था, अस्तित्व
का था।
जैन
शास्त्र उसके
विरोध में हैं, क्योंकि जैन
शास्त्र तो
जानते हैं कि
जानते हैं।
जैनों का जो
सबसे बड़ा
आग्रह है, वह
खयाल में रखो।
वह है कि जैन
साधना-पद्धति
से गुजरकर जो
व्यक्ति परम
स्थिति को
पहुंचता है, वह सर्वज्ञ
हो जाता है।
यह जैनों का
सर्वाधिक महत्वपूर्ण
सिद्धांत है--सर्वज्ञ।
तो
गोशालक से ठीक
बिलकुल
विपरीत हो गई
बात। गोशालक
कहता है जो
जानता है, वह तो जानता
है कि कुछ भी
नहीं जानता।
गोशालक से
सुकरात की
दोस्ती बन
जाती है।
गोशालक से सार्त्र
और कामू की और
काफ्का की
दोस्ती भी बन
जाती है।
नीत्से भी
गोशालक के पास
बैठता तो मैत्री
अनुभव करता।
लेकिन जैन तो
कैसे मैत्री अनुभव
कर सकते हैं? यह तो उनसे
ठीक विपरीत
है।
जैनों
का तो आग्रह
यही है कि जब
कोई व्यक्ति परम
जागरूकता को
उपलब्ध होता
है तो वह
सर्वज्ञ हो
जाता है। सब
जानता है।
तीनों काल
जानता है। जो
हुआ, वह जानता
है। जो हो रहा
है, वह
जानता है। जो
होगा, वह
जानता है।
उसके लिए कुछ
भी अज्ञात
नहीं रह जाता।
इसका
अर्थ हुआ कि
जो व्यक्ति
जैनों के
हिसाब से
समाधि को
उपलब्ध होता
है, उसके लिए
कुछ रहस्य
नहीं रह जाता।
सब रहस्य खुल
गया। पोथी
पूरी खोलकर
देख ली, पढ़
ली।
गोशालक
कहता है, पोथी
का पहला पाठ
ही पढ़ना
असंभव है।
पोथी खुलती ही
नहीं। इसमें
पहली लकीर क, ख, ग भी
समझ में नहीं
आते। तो
सर्वज्ञ का
दावा तो व्यर्थ
है।
सर्वज्ञता तो
हो नहीं सकती।
यहां तो हम
उसी को
जाननेवाला
कहेंगे, जिसने
जान लिया कि
कुछ जानने का
उपाय नहीं है।
चूंकि
यह सर्वज्ञता
से बिलकुल विपरीत
दृष्टि थी, जैन बड़े
नाराज हुए।
जैन जितने
नाराज गोशालक
से हुए, किसी
से भी नहीं
हुए।
इससे
एक बात तो यह
भी सिद्ध होती
है कि महावीर के
सामने, विशेष
कर महावीर के
अनुयायियों
के सामने जो सबसे
बड़ा
प्रतिद्वंद्वी
रहा होगा वह
गोशालक था। और
भी बड़े विचारक
मौजूद थे।
बौद्ध
ग्रंथों में
छह विचारकों
के नाम उल्लेख
किए गए
हैं--अजित केशकंबल,
पूर्णकाश्यप,
प्रबुद्ध
कात्यायन, संजय
वेलट्ठीपुत्त,
मक्खली गोशाल
और निगंठनाथ
पुत्त। निगंठनाथ पुत्त
महावीर का नाम
है। लेकिन
इनमें से किसी
का भी विरोध
जैन
शास्त्रों
में नहीं है।
सिर्फ गोशालक
का विरोध है।
तो एक
बात तो
निश्चित है कि
गोशालक ठीक
विपरीत धु्रव
की भांति
महावीर के
सामने खड़ा हुआ
होगा। दावा भी
उसका है कि
कुछ जाना नहीं
जा सकता।
अज्ञान का
इतना बड़ा
समर्थक कभी
कोई हुआ ही
नहीं। तो जैनों
को सबसे
ज्यादा कष्ट
इस आदमी से
रहा होगा।
इसको जैन कहते
हैं, उद्दंड, कलहप्रिय, विवादी। यह
जैनों की
व्याख्या है।
यह कहलप्रिय
जैनों को
मालूम हुआ
होगा।
क्योंकि जैन
दावा कर रहे
थे कि हमारा
गुरु सर्वज्ञ
है। और यह आदमी
कह रहा था
सर्वज्ञ? अल्पज्ञ
होना भी संभव
नहीं, अज्ञ
होना भी संभव
नहीं।
और
इसकी बात में
वजन है। इसकी
बात में गहराई
है। तो यह
विवादी मालूम
पड़ा होगा। यह
उद्दंड मालूम
पड़ा होगा।
लेकिन साथ-साथ
उन्हें
स्वीकार तो
करना ही पड़ा
कि इसके पास
विचक्षण
प्रतिभा है।
प्रतिभा
तो थी। बिना
सिद्धांत के
लोग आकर्षित
हुए। और इस
आदमी के पास
कोई चरित्र भी
नहीं था। यह
भी थोड़ा सोच
लेने जैसा है।
गोशालक
के पास कोई
लोकमान्य
चरित्र नहीं
था कि कोई कह
सके कि इस
आदमी की
जीवन-व्यवस्था
अनुशासन की है, सत्य की है, अहिंसा की
है, योग की
है, ध्यान
की है; ऐसा
कहने का भी
कोई कारण नहीं
था। जिसको हम
चरित्रहीन
कहें, ऐसा
व्यक्ति है
गोशालक।
लेकिन
तुम समझ सकते
हो, आधुनिक
युग में
मनोविज्ञान
ने एक बड़ी
ऊंची खोज की
है, बड़ी
गहरी खोज की
है कि जो इस
जगत में
सर्वाधिक चरित्रवान
लोग होते हैं,
वे साधारण
अर्थों में
चरित्रहीन
होते हैं। जीसस
भी चरित्रहीन
मालूम पड़े
लोगों को।
इसीलिए तो
सूली लगी।
सुकरात पर यही
तो जुर्म था
कि वह खुद तो
भ्रष्ट है ही,
दूसरों को
भ्रष्ट कर रहा
है। उसकी
बातें प्रभावशाली
हैं और दूसरे
लोग भी उसकी
बातों में आकर
भ्रष्ट हो रहे
हैं।
इस सदी
का एक बहुत
बड़ा विचारक विल्हेम
रेक अमरीका के
कारागृह में
मरा। अमरीका
में उसे
जबर्दस्ती
पागल करार दे
दिया गया।
क्योंकि वह
कुछ ऐसी बातें
कह रहा था, जो नीतिवादियों
के बड़े विपरीत
थीं। उसके
बुनियादी
सिद्धांतों
में एक था, जिसका
गोशालक से मेल
हो सकता है।
वह कहता था, चरित्र केवल
उन्हीं के पास
होता है, जो
मुर्दा होते
हैं।
चरित्र
का अर्थ ठीक
से समझ लेना।
चरित्र का अर्थ
होता है: अभ्यासजन्य
जीवन की शैली।
एक आदमी
चेष्टा
कर-करके, चेष्टा
कर-करके रोज
पांच बजे सुबह
ब्रह्ममुहूर्त
में उठ आता
है। अभ्यास
बना लेता है।
ऐसा जड़ अभ्यास
बना लेता है
कि किसी दिन
अगर पड़ा भी रहना
चाहे बिस्तर
पर, तो भी
पड़ा नहीं रह
सकता। पुरानी
आदत उसे उठाकर
खड़ाकर
देती है।
इसका
अर्थ हुआ कि
चरित्र केवल
अभ्यास है, आदत है। जो
व्यक्ति
बोधपूर्वक
जीता है, वह
चरित्र से
नहीं जीता, वह बोध से
जीता है। आदत
से नहीं जीता,
सहजता से
जीता है। आज
सुबह अगर उठने
का लगता है
उसे, आज का
ब्रह्ममुहूर्त
अगर उसे जगाता
है तो जगता
है। लेकिन आज
की घड़ी अगर
सोने जैसी
लगती है तो
सोता है।
प्रतिपल
चीजें बदलती
रहती हैं। कभी
कोई स्वस्थ है, कभी अस्वस्थ
है। कभी वर्षा
है, कभी
शीत है, कभी
ताप है। कभी
कोई जवान है, कभी कोई
बूढ़ा है। कभी
कोई रात देर
से सोया है, कभी कोई
जल्दी सोया
है। कभी दिन
में बहुत श्रम
किया और
ज्यादा सोने
की जरूरत है।
और कभी दिन में
उतना श्रम
नहीं किया, कम सोने से
चल जाएगा।
तो जो
व्यक्ति बोध
से जीता है, वह तो
प्रतिपल तय
करता है कि
कैसे जीऊं।
जीना प्रतिपल
तय होता है।
जो व्यक्ति
आदत से जीता है,
वह प्रतिपल
तय नहीं करता।
तय तो उसने
सदा के लिए कर
लिया है। उसने
तो लकीर खींच
दी है चरित्र
की। अब उसका
अनुगमन करना
है। विल्हेम
रेक कहता है
कि चरित्रवान
व्यक्ति--जिनको
हम चरित्रवान
कहते
हैं--अक्सर
मुर्दा
व्यक्ति हैं,
जो मर चुके।
अब तो सिर्फ
मरी हुई लाश
चल रही है। एक
नियम जिंदा हो
गया है, आदमी
तो मर चुका।
आत्मा तो मर
चुकी, सिद्धांत
जिंदा हो गया
है।
गोशालक
का कोई चरित्र
नहीं है। विल्हेम
रेक गोशालक से
मिल जाता तो
तत्क्षण सिर
झुकाकर
नमस्कार
करता।
जैन
नाराज हैं।
क्योंकि
जैनों का तो
सारा आधार
चरित्र है, अभ्यासजन्य। इंच-इंच
हिसाब बांधकर
चलना है।
जरा-सी भूल-चूक
न हो जाए।
सिद्धांत से
यहां-वहां
चित्त न हो जाए।
सब सम्हालकर
लीक पर चलना
है। इसलिए जैन
मुनि से
मुर्दा आदमी
तुम दुनिया
में दूसरा
नहीं खोज
सकते। वह
बिलकुल मरा
हुआ है। उसका
कोई भविष्य
नहीं है। उसका
सिर्फ अतीत
है। जो उसने
तीस साल पहले
तय किया था
उसी को दोहरा
रहा है। वह
पुनरुक्ति
है। उसके भीतर
नए का कोई आविर्भाव
नहीं होता।
सुबह होती ही
नहीं। एक यांत्रिक
पुनरुक्ति है,
जो वह दोहराये
चला जाता है।
रोज वही करता
है, जो कल
भी किया था, परसों भी
किया था। लकीर
का फकीर है।
गोशालक
बड़ा स्वतंत्र
है। अनुशासनमुक्त, आदतशून्य व्यक्ति
था। अनप्रेडिक्टेबल।
उसके बाबत कुछ
घोषणा नहीं की
जा सकती कि
गोशालक कल
क्या करेगा।
कल ही तय
होगा। कल आने
दो। क्षण-क्षण
जीनेवाला
था।
मेरे
लिए तो बहुत
मूल्य की बात
है यह। गोशालक
मेरे लिए तो
मील का पत्थर
है
मनुष्य-जाति
के इतिहास
में। इसलिए
मैं सम्मान से
उसका नाम लेता
हूं। मेरे लिए
तो वह उतना ही
मूल्यवान है, जितने
मूल्यवान
महावीर। उनसे
रत्तीभर भी कम
मूल्य नहीं
है। लेकिन
अनुयायी
महावीर का है,
उसको तो बड़ी
अड़चन है।
तो जैन
शास्त्र
गोशालक के
संबंध में बड़ी
निंदा से भरे
हैं। ऐसी
गालियों से
भरे हैं कि
कभी-कभी
आश्चर्य होता
है कि अहिंसा
को माननेवाले
लोग इतनी
गालियां
निकाल कैसे
सके? करुणा, प्रेम, अहिंसा
की बात
करनेवाले लोग
इतनी
क्षुद्रता पर
उतर कैसे आए? गोशालक बुरा
भी रहा हो तो
भी ये भले लोग
इतनी गालियां
कैसे दे सके? बुरे आदमी
को भी इतनी
गालियां देना
भले आदमी का
लक्षण नहीं।
अगर विरोध था
तो
सैद्धांतिक
विरोध करके पूरा
कर लेते।
लेकिन विरोध
भावात्मक
मालूम पड़ता है,
सैद्धांतिक
नहीं है।
महावीर के
मुकाबले, महावीर
के
अनुयायियों
को लगा होगा, एक ही
व्यक्ति खड़ा
है प्रखर, जो
ठीक विपरीत
बात कह रहा है:
न कोई चरित्र,
न कोई
ज्ञान।
और इस
सबसे भी कठिन
बात, पर बड़ी
महत्वपूर्ण, गोशालक का
जो दृष्टिकोण
था वह था, अकर्मण्यतावाद। वह कहता था,
किए से कुछ
भी नहीं होता।
वह कहता किए
से न पाप होता
है, न किए
से पुण्य होता
है। वह कहता
था, करना
नासमझी की बात
है। करने से
कभी कुछ हुआ ही
नहीं है। जो
होना है, वही
होता है। जो
होना था, वही
हुआ। जो होना
है, वही
होगा। वह परम
नियतिवादी
था। वह कहता
था, सब हो
रहा है। हमारे
किए का कुछ
सार नहीं है, इसलिए जीवन
से संघर्ष
करने का कोई
प्रयोजन नहीं
है।
वह
बहने के पक्ष
में था, तैरने
के पक्ष में
नहीं। संघर्ष
के पक्ष में नहीं,
समर्पण के
पक्ष में। अगर
गोशालक को
क्रोध हो जाए
तो वह कहता, क्रोध हुआ।
मैं क्या करूं?
प्रेम हो
जाए तो कहता, प्रेम हुआ।
मैं क्या करूं?
गोशालक कोई
दायित्व
स्वीकार नहीं
करता था। वह
कहता था, इतने
विराट में मैं
एक छोटा-सा कलपुर्जा
हूं। कहां जा
रहा है यह
विराट, मुझे
पता नहीं।
कहां से आ रहा
है, मुझे
पता नहीं।
क्यों मेरे
भीतर क्रोध
होता है इसका
भी मुझे पता
नहीं।
इसको
थोड़ा खयाल से
समझने की
कोशिश करना।
इसका अर्थ हुआ, आदमी के किए
कुछ भी न
होगा।
पुरुषार्थ
कुछ भी नहीं
है। कृष्ण की
गीता से मेल खाएगी यह
बात। कृष्ण भी
यही कह रहे
हैं, लेकिन
जरा और ढंग
से। कृष्ण
कहते हैं, ईश्वर
कर रहा है।
गोशालक उतनी
बात भी बीच
में नहीं
लाता। वह कहता
है, कहां
पता है कि
ईश्वर है? कौन
कर रहा है यह
तो मुझे पता
नहीं। इतना
पता है कि
मेरे किए कुछ
भी नहीं हो
रहा है। कृष्ण
कहते हैं, ईश्वर
पर छोड़ दो।
गोशालक कहता
है, छोड़
दो। ईश्वर है
या नहीं, मुझे
पता नहीं।
लेकिन इसे
ढोने की कोई
भी जरूरत नहीं
है। सब ढोना
नासमझी है।
यह
गोशालक की
दृष्टि अगर
सही हो तो
अहंकार बिलकुल
समाप्त हो
जाएगा। बचने
का उपाय नहीं
बचेगा।
शायद
कृष्ण की गीता
का माननेवाला
भी किसी पीछे
के दरवाजे से
अहंकार को बचा
ले। वह कहे कि
ईश्वर मेरा उपयोग
कर रहा है, मैं उपकरण
हूं। इससे भी
अहंकार बच
सकता है। क्योंकि
मुझे उपकरण
चुना है, तुमको
तो नहीं चुना।
मैं हूं
माध्यम। मैं
हूं निमित्त।
कृष्ण
की बात सुनकर
अर्जुन यह तो
समझ भी ले कि चलो, मैं बीच में
नहीं आता।
लेकिन ईश्वर
ने मुझे चुना
है धर्मऱ्युद्ध
के लिए। तो
अहंकार नए रूप
में खड़ा होगा।
दुर्योधन को
तो नहीं चुना
है। किसी और
को तो नहीं चुना
है, अर्जुन
को चुना है।
परमात्मा का
हाथ अर्जुन के
कंधे पर है।
यह भी
खतरनाक हो
सकती है बात।
इसका मतलब हुआ, मेरी
जिम्मेवारी
भी न रही, और
जो मुझे करना
है वह तो मैं
करूंगा ही। अब
ईश्वर का
समर्थन और सैंक्शन
भी मिल गया।
अब ईश्वर भी
मेरे हाथ में
है। अब मैं
अपनी बात को
सही सिद्ध
करने के लिए
ईश्वर का भी
सहारा ले
लूंगा। और
ईश्वर तो मौन
है। वह आकर
कभी कहता नहीं
कि किसको
मैंने चुना।
महात्मा
गांधी को यह
खयाल था कि
ईश्वर ने
उन्हें उपकरण
की भांति चुना
है। वह गीता
से ही उनको
सनक सवार हुई।
गीता पढ़-पढ़कर
ही उनको यह
खयाल बैठ गया
कि ईश्वर ने
उनको चुना है; वे माध्यम
हैं। लेकिन
कौन सिद्ध कर
सकता है कि गोडसे
को ईश्वर ने
नहीं चुना था?
गोडसे को भी यही खयाल
है कि वह कर
क्या सकता है?
ईश्वर ने
चुना है। और
तुम सोचते हो,
जिन्ना को यह खयाल
नहीं था?
कौन
निर्णय करेगा
कि कौन
वस्तुतः चुना
गया है? यह
तो ईश्वर के
बहाने, आदमी
जो करना चाह
रहा है, उसके
लिए ईश्वर की
मोहर ले लेता
है।
गोशालक
उतनी भी जगह
नहीं छोड़ता।
गोशालक कहता
है, कोई
ईश्वर है, पता
नहीं। इतना तय
है कि आदमी के
पुरुषार्थ से
कुछ भी नहीं
होता। जो होता
है, वही
होता है। कभी
हो जाता है तो
तुम सोचते हो,
हम जीत गए।
कभी नहीं होता
तो तुम सोचते
हो, हम हार
गए। लेकिन जो
होना था, वही
होता है। जब
हो जाता है, तुम अकड़
जाते हो। जब
नहीं होता, तुम सिकुड़
जाते हो। तुम
नाहक अकड़ते-सिकुड़ते
हो। तुम नाहक जीततेऱ्हारते
हो। जो होना
है वही होता
है।
इसका
अर्थ समझना।
अगर यह बात
खयाल में बैठ
जाए कि जो
होना है वही
होता है, तो
तुम तत्क्षण
तनाव से मुक्त
हो गए। ध्यान
फलित हो
जाएगा।
अहंकार से
मुक्त हो गए।
जब मेरे किए
कुछ होता ही
नहीं तो मैं कहां
खड़ा हो सकता
हूं? कृष्ण
तो कहते हैं, कम से कम तुम
निमित्त हो
सकते हो।
गोशालक कहता
है, निमित्त
भी नहीं हो
सकते। तुम हो
ही कहां?
यह तो
ऐसा ही है कि
एक हाथी
निकलता था, एक पुल के
ऊपर से। वजनी
हाथी, पुराना
जीर्ण-शीर्ण
पुल! कंपने
लगा पुल। एक
मक्खी बैठी थी
हाथी के ऊपर।
जब वे दोनों
पुल पार कर गए
तो उसने कहा, बेटा! मक्खी
ने कहा हाथी
से, बेटा!
हमने पुल को
बुरी तरह हिला
दिया।
हम तो
मक्खी से भी
छोटे हैं। इस
विराट को जरा
सोचो तो!
इसमें हमारा
होना न होना
क्या फर्क रखता
है? हमारे
होने न होने
से कितना फर्क
पड़ता है! आदमी
इस पृथ्वी के
मुकाबले ही
बहुत छोटा है।
पृथ्वी खुद भी
बहुत छोटी है।
सूरज साठ हजार
गुना बड़ा है।
और सूरज खुद
ही बहुत
साधारण है।
इससे बड़े-बड़े महासूर्य
हैं, जो
रात में तारों
की तरह दिखाई
पड़ते हैं।
फासले के कारण
छोटे दिखाई
पड़ते हैं।
हमारे सूरज से
करोड़ों गुने
बड़े सूरज हैं।
और अब तक कोई
दो अरब
सूर्यों का पता
चल चुका है।
आगे भी होंगे।
यह पृथ्वी
हमारी तो कुछ
भी नहीं है।
इस पृथ्वी पर
हम और भी नाकुछ
हैं।
गोशालक
यह कहता है, जरा अपना
अनुपात तो
सोचो। फिर तुम
जो करते हुए
मालूम पड़ते हो,
वह भी
प्रकृति ही
तुमसे करा रही
है। एक स्त्री
निकली
तुम्हारे
सामने से और
तुम्हारे मन
में वासना
उठी। यह वासना
तुमने उठाई? तुम कैसे
उठाओगे? होती
न, तो उठती
कैसे? प्रकृति
ने उठाई।
प्रकृति ने दी
ही हुई है। तुम
पैदा इस वासना
के साथ हुए
हो।
इसलिए
गोशालक की
दृष्टि परम
स्वीकार की
है। वह कहता
है, जो है, है। बुरा तो
बुरा; भला
तो भला। न
यहां हार का
कोई उपाय है, न जीत का कोई
उपाय है।
गोशालक परम
भाग्यवादी है।
और मजा यह है
कि भगवान भी
नहीं है
गोशालक के विचार
में। माक्र्स
भी राजी हो
जाता गोशालक से।
क्योंकि वह भी
परम
भाग्यवादी
है। वह कहता
है, भगवान
तो कोई भी
नहीं है।
लेकिन जगत एक
नियम से चल
रहा है। उसको
माक्र्स कहता
है, इतिहास
का नियम। नाम
कुछ भी दो।
गोशालक कहता है,
इतना तय है
आदमी नहीं चला
रहा है, चल
रहा है।
यह अकर्मण्यतावाद
तो और भी
महावीर के
विपरीत पड़ता
है। क्योंकि
महावीर का तो
सारा बल इस
बात पर है कि
पुरुषार्थ; इसीलिए तो
नाम महावीर
है। करो, तो
पा सकोगे। लड़ोगे,
तो जीतोगे।
बहे, तो
गए। तैरो।
धारे के
विपरीत तैरो।
इंच-इंच लड़ोगे
तो ही किसी
दिन
पहुंचोगे।
सिद्धि मुफ्त
नहीं मिलती।
बड़ा गहन
संघर्ष करना
है।
महावीर
गोशालक के
विरोध में रहे
हों, ऐसा तो
मुझे मालूम
नहीं होता।
महावीर तो
गोशालक के
विरोध में
नहीं हो सकते।
लेकिन महावीर
का माननेवाला
अड़चन में पड़ा
होगा। अगर
महावीर सही
हैं तो गोशालक
गलत होना ही
चाहिए। अगर
गोशालक सही है
तो महावीर गलत
हो जाएंगे।
अनुयायी
की बुद्धि तो
बड़ी छोटी होती
है। वह दो
विरोधों के
बीच किसी तरह
का समन्वय
नहीं देख
पाता। महावीर
के मार्ग से
भी आदमी
पहुंचता है।
गोशालक के
मार्ग से भी
पहुंच सकता
है। महावीर के
मार्ग पर
संकल्प का
आखिरी उपाय
करना होता है।
इस उपाय को
करते-करते ही एक
दिन संकल्प
टूटकर गिर
जाता है। अहंकार
को निखारना
पड़ता है; पवित्र
करना पड़ता है।
एक ऐसी घड़ी
आती है पवित्र
होतेऱ्होते
ही, जैसे
कपूर उड़ जाता
है, ऐसा
अहंकार उड़
जाता है।
शुद्ध अहंकार
कपूर की तरह
उड़ जाता है।
जैसे
तुम रात दीया
जलाते हो तो
पहले दीये की
ज्योति तेल को
जलाती है। फिर
तेल चुक जाता
है तो बाती को
जलाती है। फिर
बाती भी चुक
जाती है, तो
फिर ज्योति भी
बुझ जाती है।
तो ज्योति ने
पहले तेल को
जलाया, फिर
बाती को जलाया,
फिर जब सब
जल गया तो खुद
भी बच नहीं
सकती। इतनी शुद्ध
हो गई कि खो
जाती है।
महावीर
के मार्ग पर
अहंकार को
शुद्ध करने की
प्रक्रिया
है। शरीर छूटेगा
पहले, फिर
मन छूटेगा।
फिर एक दिन
तुम पाओगे
अचानक, तेल
भी जल गया, बाती
भी जल गई, फिर
लपट जो रह गई
थी, वह
कोरे आकाश में
खो गई।
शुद्ध होऱ्होकर
अहंकार कपूर
की भांति उड़
जाता है।
गोशालक
के मार्ग पर
शुद्ध करने का
कोई सवाल ही
नहीं है।
शुद्ध करने की
चेष्टा को
गोशालक कहता
है, व्यर्थ
है। जो है ही
नहीं, उसे
शुद्ध क्या
करना? इतना
जान लेना काफी
है कि नहीं
है। अभी घट
सकती है बात।
तो
जैनों को
कठिनाई हुई।
गोशालक ने बड़ा
गहरा विवाद
अनुयायियों
के लिए खड़ा कर
दिया होगा। इसलिए
जैन बड़े नाराज
हैं। और चूंकि
गोशालक के कोई
शास्त्र नहीं
हैं, इसलिए और
सुविधा हो गई।
तुम
ऐसा ही समझो
कि अगर
हिंदुओं के सब
शास्त्र खो
जाएं और कृष्ण
के संबंध में
सिर्फ जैनों के
शास्त्र बचें
तो कृष्ण के
संबंध में
क्या स्थिति
बनेगी? लोग
क्या सोचेंगे?
लोग
सोचेंगे, आदमी
महानारकीय
रहा होगा, क्योंकि
शास्त्र में
लिखा है कि
सातवें नर्क
में गया।
अगर
बुद्ध के
संबंध में
बौद्धों के
शास्त्र खो
जाएं, सिर्फ
हिंदुओं के
शास्त्र बचें
तो उन शास्त्रों
से क्या पता
चलेगा? हिंदू
शास्त्र कहते
हैं कि
परमात्मा ने
नर्क बनाया।
लेकिन सदियां
बीत गईं, कोई
पाप करे ही
नहीं। नर्क
कोई जाए ही
नहीं। तो नर्क
में बैठे थे
जो पहरेदार, और
व्यवस्थापक, और मैनेजर, वे थक गए।
कोई आता ही
नहीं! ऊब गए।
उन्होंने परमात्मा
से प्रार्थना
की, यह
नर्क बनाया किसलिए? न कोई पाप
करता, न
कोई आता। हमें
नाहक अटका रखा
है। बंद करो
यह दुकान।
हमें छुट्टी
दो या आदमी
भेजो।
तो
परमात्मा ने
कहा, ठीक है घबड़ाओ मत।
मैं जल्दी ही
बुद्ध के रूप
में अवतार लूंगा
और लोगों के
मन भ्रष्ट
करूंगा। फिर
उन्होंने
बुद्ध की तरह
अवतार लिया, लोगों को
भ्रष्ट किया।
लोग नर्क जाने
लगे। अब तो
नर्क में ऐसी
भीड़ है कि
वहां जगह ही
नहीं बची। लोग
क्यू लगाए खड़े
हैं सदियों
से। जगह नहीं
मिल रही है
अंदर जाने के
लिए, इतना
धक्कम-धुक्का
है।
यह सब
बुद्ध की कृपा
से हुआ! हिंदू
यह भी नहीं कह
सके कि बुद्ध
भगवान नहीं
हैं। यह तो
बड़ा झूठ होता।
इतने बड़े सत्य
को झुठलाना
संभव न हुआ। तो
मान लिया कि
भगवान तो हैं, लेकिन आए
हैं पाप
करवाने, लोगों
को भ्रष्ट
करने।
तो
तरकीब समझे? तरकीब यह
हुई कि बुद्ध
को स्वीकार कर
लिया कि हैं
भगवान के रूप
ही। दसवें
अवतार हैं। और
साथ में बात
भी बता दी कि
कोई इनकी
मानना मत, नहीं
तो नर्क जाओगे,
बुद्ध-धर्म
का अनुगमन मत
करना। यह
भगवान की एक
शरारत है। यह
भगवान की एक
चालबाजी है।
यह भगवान का
एक षडयंत्र
है। हैं तो
भगवत-रूप।
जैनों
ने भी कृष्ण
को नर्क भेजा, सातवें नर्क
में डाला।
लेकिन थोड़ी
बेचैनी लगी
होगी।
क्योंकि इतना
प्रतिभाशाली
व्यक्ति, इतना
महिमावान,
ऐसा तेजोद्दीप्त!
इसको नर्क में
डालने में हाथ
कंपा होगा।
शास्त्र लिखनेवाले
को भी डर लगा
होगा। उसको भी
लगा होगा कि
यह थोड़ी
ज्यादती हुई
जा रही है। तो
शास्त्रकारों
ने जैन
शास्त्रों
में लिखा है
कि अगली
सृष्टि में, जब यह प्रलय
होकर सब
समाप्त हो
जाएगा, फिर
से सृष्टि का
निर्माण होगा,
कृष्ण पहले
जैन तीर्थंकर
होंगे। इससे
राहत हो गई।
इधर चांटा
मारा, इधर
पुचकार लिया।
अगर
विरोधी का ही
शास्त्र बचे
तो निर्णय
करना मुश्किल
है। यही
असुविधा है
गोशालक के
लिए। खुद का
कोई शास्त्र
नहीं है। खुद
कुछ लिखा नहीं
है। करने को
ही जो नहीं
मानता था, वह लिखे
क्यों? कुछ
बोलाचाला
होगा। कुछ दिन
तक लोगों को
याद रही होगी,
फिर बिसर
गई।
शास्त्रों
में जहां
उल्लेख है--या
तो बौद्ध शास्त्रों
में उल्लेख
है। लेकिन
बौद्ध शास्त्रों
में
सम्मानपूर्वक
उल्लेख है।
उसका कारण भी
स्पष्ट है। सब
कारण
राजनैतिक
हैं। बौद्ध शास्त्रों
में
सम्मानपूर्वक
उल्लेख है, क्योंकि
बौद्ध शास्त्रों
का असली
संघर्ष
महावीर से है।
गोशालक
तो मर चुका।
अब बुद्ध और
महावीर के बीच
तीस साल का
अंतर है।
गोशालक
महावीर से
उम्र में बड़ा
था। इसलिए जब
महावीर जवान
रहे होंगे और
उनके विचार का
प्रभाव फैल
रहा होगा, उस समय तक
गोशालक की
प्रतिष्ठा हो
चुकी थी। इसलिए
महावीर का
संघर्ष तो
प्रतिष्ठित
गोशालक से रहा।
प्रतिष्ठित
से संघर्ष
होता है।
महावीर
ने एक शब्द भी
बुद्ध के
खिलाफ नहीं
बोला। वे बूढ़े
थे। जब बुद्ध
की प्रतिष्ठा
आनी शुरू हुई
तब तक महावीर
तो पूरी तरह
लोकमान्य हो चुके
थे। उन्होंने
एक शब्द बुद्ध
के खिलाफ नहीं
बोला। लेकिन
महावीर के
अनुयायी
उल्लेख करते
हैं--ऐसा
उल्लेख करते
हैं कि गोशालक
के संबंध में
महावीर ने बड़ा
विरोध किया
है।
बौद्ध
ग्रंथों में
महावीर का
विरोध है। और
निश्चित ही जब
महावीर का
विरोध है तो
अपने शत्रु का
शत्रु अपना
मित्र हो जाता
है। तो गोशालक
का सम्मानपूर्वक
उल्लेख है।
महावीर के
संबंध में तो
बहुत मजाक
बौद्ध
शास्त्रों
में है।
बौद्ध
शास्त्र कहते
हैं, एक हैं
सर्वज्ञ--एक
ही थे सर्वज्ञ
का दावा करनेवाले--एक
हैं सर्वज्ञ;
वे कहते हैं,
उन्हें
तीनों काल का
पता है।
भविष्य, वर्तमान,
अतीत, सब
उन्हें मालूम
है। तीनों लोक
उन्हें मालूम
हैं, लेकिन
ऐसी घड़ियां
रही हैं कि
सुबह के
अंधेरे में
कुत्ते की
पूंछ पर पैर
पड़ गया। जब
कुत्ता भौंका
तब सर्वज्ञ को
पता चला कि
अरे! यहां
कुत्ता सो रहा
है। तीनों लोक
के ज्ञाता
हैं!'
"कभी ऐसा भी
हुआ है कि ऐसे
दरवाजे पर भीख
मांगने खड़े हो
गए जहां कोई
रहता ही नहीं।
जब लोगों ने, पास-पड़ोसियों
ने कहा, यहां
क्या खड़े हैं? इस
घर में कोई
रहता नहीं; तब पता चला।
तीनों काल का
ऐसे उन्हें
पता है, और
यह भी पता
नहीं कि सामने
घर में कोई
रहता है कि
नहीं रहता? वहां भीख
मांगने खड़े
हैं।'
ऐसे
बहुत मजाक
बौद्ध
शास्त्रों में
महावीर के लिए
हैं। लेकिन
गोशालक का कोई
विरोध नहीं
है। गोशालक का
तो सम्मान से
उल्लेख है।
जैन
शास्त्रों
में बुद्ध का
कोई विरोध
नहीं है, क्योंकि
महावीर तो
प्रतिष्ठित
थे। तीस साल फासला
था। इस
प्रतिष्ठित
आदमी को झगड़े
अपने समय के
प्रतिष्ठित
लोगों से रहे
होंगे--बुद्ध
तो अभी उठ ही
रहे थे। बुद्ध
की महिमा तो बाद
में सिद्ध हुई,
जब महावीर
जा चुके।
लेकिन
एक बात सदा
स्मरण रखना कि
महावीर ने ऐसा
कहा हो, इसकी
कम संभावना
है। बुद्ध ने
ऐसा मजाक उड़ाया
हो महावीर का,
इसकी भी कम
संभावना है।
ये तो
अनुयायियों
के द्वारा
डाले गए शब्द
हैं उनके मुंह
में। और
शास्त्र बहुत
बाद में लिखे
गए।
बुद्ध
के मरने के
पांच सौ साल
बाद शास्त्र
लिखे गए।
महावीर के
मरने के चार
सौ साल बाद
शास्त्र लिखे
गए। चार सौ
साल तक
अनुयायियों
के मस्तिष्क
में रहे
शास्त्र।
उनकी स्मृति
में रहे। उन्होंने
खूब कांट-छांट
की होगी।
जैनों
का ही एक
वर्ग--दिगंबर--मानता
है कि सब जैन
शास्त्र झूठे
हैं। क्योंकि
चार सौ साल
में सब गड़बड़
हो गया।
जिन्होंने
याद रखा, उन्होंने
अपना हिसाब
जोड़ दिया। और
ऐसा सच मालूम
होता है। कुछ
बातें महावीर
की रह गई
होंगी, कुछ
जुड़ गई होंगी,
कुछ छूट गई
होंगी।
इसलिए
मैंने जब
महावीर के
सूत्रों पर
बोलना शुरू
किया तो मैं
सभी सूत्रों
पर नहीं बोल
रहा हूं।
मैंने वे सब
सूत्र अलग कर
दिए हैं जो
महावीर के
योग्य नहीं
हैं। छोड़ ही
दिए मैंने। वे
महावीर के लिए
अयोग्य हैं।
गोशालक
को गाली
महावीर ने दी
हो, यह बात ही
अशोभन है।
इसलिए छोड़ ही
दी, वह बात
ही नहीं उठाई
है। कोई कह
सकता है कि
मैं महावीर के
साथ ज्यादती
कर रहा हूं।
सब सूत्रों पर
नहीं बोल रहा
हूं। मैंने
चुन लिए हैं।
लेकिन
मैं कहता हूं, कि मैं
ज्यादती नहीं
कर रहा हूं।
ज्यादती पहले
बहुत हो चुकी।
मैं गलत को
छोड़े दे रहा
हूं। जो मुझे
लगता है कि
महावीर जैसी
चेतना को
उपलब्ध व्यक्ति
के मुंह में
शोभा नहीं
देगा, वह
मैं छोड़ देता
हूं। गोशालक
के संबंध में
जैन शास्त्र
क्या कहते हैं,
सुनकर तुम
हैरान होओगे।
जैन शास्त्र
निंदा, गर्हित
निंदा से भरे
हैं। और निंदा
भी सज्जन, सांस्कृतिक
चेतना की नहीं
है--अत्यंत
ओछी, गंदी।
एक
उल्लेख खयाल
में रखने जैसा
है। जैन
शास्त्र कहते
हैं कि जब
गोशालक मरा तो
मरते वक्त उसे
समझ में आया
कि मैंने बड़ी
भूल की, जो
तीर्थंकर
महावीर का
जीवनभर विरोध
किया--मरते
वक्त समझ में
आया उसको कि
मैंने जीवनभर
जो तीर्थंकर
महावीर का
विरोध किया, बड़ी भूल की।
पापी को अपना
पाप अनुभव हुआ,
पश्चात्ताप
हुआ।
तो
उसने क्या कहा? उसने अपने
पास जो
दो-चार-दस
शिष्य थे, दो-चार-दस!
क्योंकि
ज्यादा तो जैन
मान नहीं सकते
कि रहे होंगे।
दो-चार-दस जो
शिष्य थे, उनसे
कहा, सुनो,
मैंने
जीवनभर जो कहा,
वह गलत था।
महावीर जो
कहते हैं, शत-प्रतिशत
ठीक कहते हैं।
वही तीर्थंकर
हैं। मैं तो
एक झूठा, धोखेबाज
आदमी था। खैर!
मैं मर रहा
हूं, लेकिन
मेरी बात याद
रखना। तुम सब
अब महावीर के
अनुयायी हो
जाना। और
मैंने जो पाप
किया है जीवनभर
में, उसके
पश्चात्ताप
के लिए तुमसे
मैं कहता हूं,
कि जब मैं
मर जाऊं तो
मेरी अर्थी मत
निकालना, रास्ते
पर मुझे
खींचना। मेरे
ऊपर थूंकना।
कुत्तों से
मेरे ऊपर
पेशाब
करवाना। और
पूरे नगर में
मेरी लाश को
सड़क पर खींचते
ले जाना, ताकि
सारे देश को
पता चला जाए
कि गोशालक ने
पश्चात्ताप
कर लिया है।
ये जैन
शास्त्र इस
तरह की बात
करें, यह
थोड़ा
विचारणीय है।
गोशालक
जैसा व्यक्ति
हमारे लिए खो
गया है। अब जो
उल्लेख रह गए
हैं, वे
विरोधियों के
हैं।
विरोधियों से
कभी भी निर्णय
मत लेना। एक
बात पक्की है
कि विरोधियों
ने जो कहा है, वह तो सही हो
ही नहीं सकता।
तो बड़ी छानबीन
करके तुम्हें
खोजना पड़ेगा।
बौद्ध और जैन
ग्रंथों में
देखकर कुछ
बातें जो साफ
होती हैं, उनमें
एक बात सबसे
महत्वपूर्ण
है, वह है: अकर्मण्यतावाद
का सिद्धांत।
"प्राणियों
में दुख का
कोई हेतु नहीं
है, न
विशुद्धि का
कोई हेतु है।
पुरुषार्थ और
पराक्रम काम
नहीं आते।
नियति या
भाग्य ही सब
कुछ है। जो
हुआ, वह
होना था। जो
होना है, वह
होगा। जो हो
रहा है, वही
हो सकता है।
सब कुछ नपात्तुला
है। और कर्म
से, पाप या
पुण्य से कोई
भेद नहीं पड़ता
है।'
इसको
अगर
नकारात्मक
दृष्टि से लें
तो इसका अर्थ
हुआ कि आदमी
को अधार्मिक
होने की बड़ी
सुविधा दे दी।
क्योंकि पाप-पुण्य
से कोई फर्क
नहीं पड़ता, तो करो जो
करना है।
लेकिन
यह गोशालक को
विरोधी की
दृष्टि से
देखना होगा।
गोशालक को
सहानुभूति से
देखो। जैसा मैं
तुमसे कहता
हूं, महावीर
को सहानुभूति
से देखो, बुद्ध
को सहानुभूति
से देखो, कृष्ण
को सहानुभूति
से देखो, क्योंकि
और समझने का
कोई उपाय नहीं
है। वैसे ही
कहता हूं, गोशालक
को भी
सहानुभूति से
देखो।
नकारात्मक नहीं,
विधायक
दृष्टि से
देखो।
विधायक
दृष्टि का यह
अर्थ हुआ कि
अगर मेरे किए
कुछ भी नहीं
होता तो
तुम्हारी
चिंता कहां
बचेगी? चिंता
तो इसीलिए
उठती है कि
मेरे किए कुछ
हो सकता है।
मैं कुछ
करूंगा तो कुछ
फर्क हो सकता
है, इसलिए
मन में तनाव
पैदा होता है।
इसलिए अशांति
पैदा होती है,
चिंता पैदा
होती है।
और
कभी-कभी
तुम्हारे
मंतव्य में और
जगत की गति
में कभी-कभी
संयोगवशात
मेल पड़ जाता
है तो तुम अहंकार
से भर जाते
हो। कभी अधिक मौकों पर
मेल नहीं पड़ता
तो तुम दुख और
विषाद से भर
जाते हो।
अगर
गोशालक की बात
सही है तो न
दुख का कोई
कारण है, न
सुख का कोई
कारण है। जो
होना था, हुआ
है। जो हो रहा
है, वही
होना है। जो
होना है, वही
होगा। तुम
अपने आप शांत
हो जाते हो। न
कोई तनाव, न
कोई चिंता, न कोई दौड़, न कोई
संघर्ष, न
कोई अकड़, न
कोई हार, न
कोई जीत, न
कोई विषाद, न कोई
संताप।
इस संतापशून्य
अवस्था में
जिसका
तुम्हें
अनुभव होगा, गोशालक उसी
को ध्यान कहता
है। वह करने
की बात नहीं
है; जब
करना छूट जाता
है, तब जो
शेष रह जाता
है वही ध्यान
है।
लेकिन
गोशालक ध्यान
शब्द का भी
उपयोग नहीं
करता।
क्योंकि
ध्यान शब्द से
भी क्रिया का
पता चलता है।
हम कहते हैं, ध्यान करने
जा रहे हैं।
गोशालक कहता
है, करने
से क्या होगा?
और तुमने
अगर ध्यान
किया होगा तो
तुम्हें पता होगा।
करने से क्या
होता है? उछलो-कूदो,
शोरगुल मचाओ,
या आंख बंद
करके बैठो।
करने से होता
क्या है? हां,
कभी-कभी ऐसा
होता है कि हो
जाता है। हो
सकता है कि
करने के समय
ही कभी-कभी हो
जाए।
गोशालक
कहता है, वह
संयोग मात्र
है। तुम अगर
ध्यान न भी कर
रहे होते तो
उस वक्त होता।
वह यह नहीं कह
रहा है कि तुम
ध्यान मत करो।
वह इतना ही कह
रहा है, तुम्हारी
दृष्टि करने
से ऊपर उठे, होने पर जगे।
और जिस
व्यक्ति को
करने का बोझ
उतर गया, जिसने
सारी चिंता
छोड़ दी
अस्तित्व पर,
उसका ध्यान
हो गया।
तो
मुझे तो
गोशालक उतना
ही बहुमूल्य
है, जितने
महावीर।
गोशालक एक
तीर्थंकर है।
सहज-समाधि
उसका योग है।
सहज-स्वीकार
जीवन का उसकी
साधना है।
नकार नहीं, अस्वीकार
नहीं, विरोध
नहीं, दमन
नहीं। जैसा
जीवन आ जाए, उसे वैसा ही
आलिंगन कर
लेना स्वागत
से। यही उसकी
जीवन-दृष्टि
है।
अगर
तुम गोशालक का
विधायक रूप
समझो तो
कृष्णमूर्ति
से बहुत
मिलेगा, मेल
खाएगा।
लेकिन जैन तो
उस विधायक रूप
को नहीं समझ
सकते थे।
विरोधी
का हम विधायक
रूप देखते ही
नहीं। विरोधी
में तो हम
बुरा-बुरा
देखते हैं।
अपने में भला-भला
देखते हैं, विरोधी में
बुरा-बुरा
देखते हैं। जब
तक हमारे मन
में यह भाव है
कि हमारी अपनी
कोई दर्शन-परंपरा
है, शास्त्र
है, सिद्धांत
है, तब तक
हम सम्यक रूप
से देख ही
नहीं सकते।
एक जैन
मित्र
राजस्थान से
आए। तो मुझसे
कहने लगे, एक जैन मुनि
ने कहा, कहां
जा रहे हो? वह
आदमी तो
गोशालक है।
मैंने कहा, बात तो
उन्होंने ठीक
कही। मुझमें
कोई खोजना चाहे
तो गोशालक को
बिलकुल खोज ले
सकता है। मैंने
उनसे कहा, बात
तो उन्होंने
ठीक कही।
वे
बेचारे बड़े
परेशान थे।
क्योंकि वे भी
जैन हैं। और
उनको लगा, यह तो बड़ी
गाली हो गई।
गोशालक कह
दिया। मुझसे कहने
लगे, आप
कुछ कहेंगे
नहीं? इसमें
आप कोई
वक्तव्य दें
कि उन्होंने
आपको गोशालक
कहा।
मैंने
कहा, गलत तो
कहा नहीं। ठीक
ही कहते हैं।
मुझमें कुछ
गोशालक का हिस्सा
है। मैं भी
मानता हूं, आदमी के किए
कुछ होता
नहीं। अगर
तुमसे करने को
भी कहता हूं
तो सिर्फ
इसलिए कि
कर-करके ही
तुम जानोगे कि
करने से कुछ
नहीं होता।
बिना किए शायद
मन में कोई
भाव रह जाए कि
कर लेते तो
शायद हो जाता।
तो मैं कहता
हूं, कर
लो। करके देख
लो। चलो, यह
खुजलाहट है, यह भी कर लो।
तो
तुमसे कहता
हूं, ध्यान
करो, प्रार्थना
करो, पूजा
करो। बाकी
करने से कभी
कुछ हुआ नहीं।
कर-करके ही एक
दिन तुम्हें
अचानक बुद्धि
आएगी--अगर
बुद्धि है तो
जरूर एक दिन
आएगी कि अरे!
यह मैं क्या
कर रहा हूं? मेरे किए तो
कुछ भी नहीं
होता।
उस दिन
तुम्हारे ऊपर सदज्ञान
उतरा। उस दिन
तुम्हारी
समाधि पकी। उस
दिन फसल काटने
के दिन आए।
जिस दिन तुमको
लगा, मेरे किए
भी नहीं होता,
उस दिन
समर्पण हुआ।
अभी तो तुम
समर्पण भी
करते हो, तो
कहते हो कि
मैंने समर्पण
किया। अब
समर्पण भी कोई
कर सकता है? अगर तुमने
किया, तो
समर्पण हुआ ही
नहीं।
तुम्हारी किए
समर्पण होगा?
तो यह
तुम्हारा
कृत्य रहा।
तुम्हारा
कृत्य तो तुम
किसी भी दिन
वापस ले सकते
हो। एक दिन
तुमने कहा, समर्पण किया,
दूसरे दिन
तुमने कहा, अच्छा वापस
लेते हैं।
नहीं करते। तो
कोई क्या करेगा?
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे कहते
हैं, हम आप
पर समर्पण
करते हैं।
मैंने कहा, जब तक करते
हो, तब तक
तुम अपने पास
ही रखो।
क्योंकि यह की
हुई चीज झंझट
है। यह तो
अमानत रही।
किसी भी दिन
तुम आ गए कि
लाओ, वापस
दो।
जो
किया गया है, वह लौटाना
पड़ सकता है।
लेकिन जो हुआ
है, उसे
तुम लौटा नहीं
सकते।
प्रेम
होता है। तुम
कहते हो, किसी
से प्रेम हो
गया।
तुम्हारे
करने जैसा कुछ
भी नहीं है।
इसलिए जीसस
ठीक कहते हैं
कि परमात्मा
प्रेम जैसा है;
होता है, किया नहीं
जाता।
ध्यान
प्रेम जैसा है; होता है, किया
नहीं जाता।
लेकिन कर-करके
जब तक थकोगे
न, जब तक
तुम ठीक से दौड़ाए
न जाओगे, तब
तक तुम
विश्राम कर ही
नहीं सकते।
तुम जब थक जाओगे
दौड़-दौड़कर,
तुम्हारे
पैर जब जवाब
दे देंगे, तुम्हारा
अहंकार जब खुद
ही गिर जाएगा,
थककर गिर जाएगा
कि अब कुछ
नहीं होता; तुम बैठ
जाओगे, उसी
घड़ी कुछ होगा।
ऐसा ही
बुद्ध को हुआ।
शायद बौद्ध
शास्त्रों में
गोशालक का जो
सम्मान से
उल्लेख है, इसका एक
कारण बुद्ध की
समाधि भी रही
होगी। क्योंकि
बुद्ध ने छह
साल तक ऐसा ही
किया, जैसा
महावीर ने
बारह साल तक
किया। सब तरह
से चेष्टा की।
फिर थक गए।
कुछ पाया
नहीं। तो छह
साल के बाद ऊबकर,
परेशान
होकर छोड़
दिया। और जिस
रात छोड़ा, उसी
रात समाधि
घटी। उसी रात
बुद्धत्व
उपलब्ध हुआ।
तो
शायद गोशालक
की बात बुद्ध
को समझ में
आती रही होगी, कि कहता तो
यह आदमी ठीक
है। हालांकि
बड़ी खतरनाक
बात है। अगर
नकरात्मक रूप
से लें तो बड़ी
खतरनाक है।
क्योंकि उसका
मतलब होगा, तो फिर कुछ
करने की जरूरत
नहीं। चोर
चोरी करे।
हत्यारा
हत्या करे।
बेईमान बेईमान
रहे। शराबी
शराब पीए।
करने से तो
कुछ होता
नहीं।
तब
तुमने गलत
अर्थ ले लिया।
शराबी से पूछो, कितनी बार
छोड़ने की
कोशिश नहीं कर
चुका है। कहां
छूटती? और
जिसकी छूट गई
हो, उससे
पूछो कि क्या
तेरी कोशिश से
छूटी? अगर
वह ईमानदार
आदमी हो तो
कहेगा, कोशिश
तो बहुत की, न छुटी।
जब छूटनी
थी, छूट
गई। एक दिन
ऐसा हुआ कि
छूट गई। वह जो
कोशिश कर रहा
है और थकता है
और नहीं
छूटती...अक्सर
तो ऐसा होता
है, कोशिश
से और पकड़ती
है। जिसे तुम
भुलाने की
कोशिश करते हो,
उसकी और याद
आती है? भुलाने
में भी तो याद
ही आती है।
करोगे भी क्या?
किसी
को भुलाना
चाहते हो, उतार देना
चाहते हो मन
से कि अब याद न
आए, तकलीफ
होती है, कांटा
चुभता है याद
का; न आए
याद। लेकिन जब
भी तुम सोचते
हो न आए याद, तभी तो याद
कर ली। न याद
करने में याद
फिर हो गई। तो
यह तो याद
बढ़ती चली जाएगी।
हां, ऐसा
कभी होता है
एक दिन कि याद
बिसर जाती है,
नहीं आती।
गोशालक
इतना ही कह
रहा है कि
जीवन में सब
सहज हो रहा
है। यहां तुम
चेष्टा को बीच
में मत लाओ।
और
उसकी बात सही
है। क्योंकि
कितनी
अदालतें हैं।
कितने चोरों
को दंड दिए गए, कौन-सी
बदलाहट हुई है?
चोर बढ़ते गए,
जैस-जैसे
कानून बढ़े।
तुम कानून
बनाओ, चोर
और वकील बढ़ते
हैं और कुछ
नहीं होता।
ज्यादा कानून
बनाओ, और
ज्यादा चोर, और ज्यादा
वकील। कानून
से कुछ रुकता
तो नहीं। कारागृह
बनाओ, कोई
फर्क नहीं
पड़ता।
अब तो
मनोवैज्ञानिक
पश्चिम में
कहने लगे हैं कि
कारागृह
खतरनाक हैं, क्योंकि
इनसे और चोर
निष्णात होकर
निकलते हैं।
नए सिक्खड़
आते हैं, किसी
ने किसी की
जेब काट ली, पकड़ गया।
पहुंच गया जेल,
छह महीने की
सजा हो गई।
वहां मिलते
हैं महागुरु।
कोई बीस साल
से काट रहे
हैं, कोई
पंद्रह साल से
काट रहे हैं।
छह महीने सत्संग
हो जाता है।
उस सत्संग में
वह और मजबूत
होकर बाहर आ
जाता है। वह
सब सीखकर
आ जाता है कि
पकड़ा क्यों
गया। कहां भूल
हो गई? कहां
चूक हो गई? अब
कभी न होगी।
ऐसा
कभी नहीं होता
कि जो आदमी एक
दफे जेल गया हो, वह फिर न गया
हो। वह जेल से
बाहर आते से
फिर वही कृत्य
करता है। हां,
अब पहले से
ज्यादा
कुशलता से
करता है।
तो
मनोवैज्ञानिक
तो कहते हैं, ये तुम्हारे
कारागृह
लोगों को पाप
से रोकते नहीं
हैं, पाप
का शिक्षण
देते हैं। ये
विश्वविद्यालय
हैं पाप के।
और तुम सोचते
हो दंड देने
से कुछ होता
है। कोड़े
मारो, भूखा
मारो, अंधेरी
कोठरियों में
बंद करो, इससे
कुछ होता है।
तुम सोचते हो,
शायद इससे
रुकावट होगी।
इंग्लैंड
में ऐसा था सौ
साल पहले तक
कि जो भी चोर
चोरी करता, उसको चौरस्ते
पर खड़ा करके कोड़े
मारते थे; ताकि
पूरा गांव देख
ले कि चोर की
क्या हालत होती
है। फिर उनको
वह बंद करनी
पड़ी प्रथा।
क्योंकि पाया
गया कि पूरा
गांव इकट्ठा
हो जाता और
वहीं जेब कट
जाती। एक आदमी
को चोरी की
वजह से कोड़े
मारे जा रहे
हैं, उसकी
चमड़ी उधेड़ी
जा रही है, लहूलुहान
हो रहा है और
भीड़ उत्सुकता
से देख रही
है। लोग ऐसे
तन्मय हो जाते
देखने में।
हिंसा
जहां हो रही
हो, वहां
लोगों का बड़ा
ध्यान लगता है--जिसको
महावीर अधर्म
ध्यान कहते
हैं। एकदम लोग
तत्पर हो जाते
हैं। जिनकी
कभी एकाग्रता
नहीं सधी,
वह भी सध
जाती है। उसी
वक्त जेब कट
जाती।
आखिर
समझ में आया
कि यह तो कोई
सार नहीं। हम
सोचते हैं, लोगों को
शिक्षा
मिलेगी। वहीं
जेब काटनेवाले
मौजूद हैं। वे
इस अवसर को भी
नहीं चूकते।
वह
अपराध और दंड
की अब तक की जो
व्यवस्था रही
है, वह
बिलकुल
व्यर्थ है।
उससे हो सकता
है, समाज
को थोड़ा सुख
मिल जाता हो
कि जिसने
हमारा नियम
तोड़ा उसको
हमने सता
लिया। हिंसा
का थोड़ा मजा आ
जाता हो। है
तो मूढ़तापूर्ण।
एक आदमी किसी
की हत्या करता
है, हम
उसको फांसी की
सजा देते हैं।
यह तो बड़े मजे
की बात हुई।
यही पाप उसने
किया। यही पाप
हम करते हैं
और हम कहते
हैं, चूंकि
तुमने किसी को
मारा इसीलिए
हम तुम्हें मारेंगे।
एक
छोटे स्कूल
में एक शिक्षक
अपने बच्चों
से पूछ रहा था
कि तुम पशुओं
को सताते तो
नहीं? तुमने
कभी किसी पशु
को सुरक्षा दी?
करुणा की? एक लड़के ने
हाथ हिलाया।
उसने कहा, हां,
एक दफा। एक
लड़का कुत्ते
को मार रहा था
तो मैंने उसकी
ऐसी मरम्मत
की--लड़के की!
कुत्ते पर तो
दया हो गई।
मगर वस्तुतः
कुत्ते पर दया
हुई? लड़के
की मरम्मत कर
दी उसने। वह
कुत्ते को मार
रहा था, उसने
लड़के की
मारपीट कर दी।
अब वह सोच रहा
है कि बड़ी
करुणा हुई।
लेकिन
तुम्हारी
अदालतें भी
यही कर रही
हैं, कानून भी
यही कर रहा
है। दंड किसी
को अपराध से रोक
नहीं पाया, न रोक
पाएगा।
चेष्टा से कौन
बदलता है?
तुम
कभी अपने जीवन
पर विचार तो
करो।
चालीस-पचास
साल तुम जी
लिए हो दुनिया
में। कितनी
चेष्टा तुमने
की है, कोई
बदलाहट हुई है
या कि तुम ठीक
वैसे के वैसे हो?
तब तुम्हें
गोशालक की
अंतर्दृष्टि
समझ में आएगी।
लेकिन इस
बदलने की
चेष्टा में
तुमने चिंता
बहुत उठाई, तनाव बहुत
झेला। और
गोशालक कहता
है, हो
सकता है उसी
चिंता और तनाव
के कारण तुम
इतने ज्यादा
व्यस्त रहे
अपने को बदलने
में, कि
अगर विश्व की
ऊर्जा
तुम्हें
बदलने भी आयी
होगी तो लौट
गई होगी। तुम
ग्राहक न रहे
होओगे।
छोड़ो
चिंता। छोड़ो
अस्तित्व पर।
जैसा होता है, उसे चुपचाप
होने दो। तुम
एक दफा प्रयोग
करके देखो
गोशालक का भी।
महावीर, बुद्ध और
कृष्ण और
पतंजलि तो
दुनिया में
स्वीकृत
तीर्थंकर
हैं। गोशालक
अस्वीकृत
तीर्थंकर है।
लेकिन
स्वीकृत तीर्थंकारों
से दुनिया कुछ
अच्छी हुई, ऐसा मालूम
पड़ता नहीं।
इसलिए
कभी-कभी मैं
सोचता हूं, जो अस्वीकार
हो गए हैं उन
पर भी ध्यान
देना जरूरी
है। हो सकता
है, उनके
पास कुछ कुंजी
हो। जिन्हें
हमने स्वीकार
किया है, हो
सकता है हमने
उन्हें
इसीलिए
स्वीकार किया कि
हमारे रोग से
उनका कुछ
तालमेल बैठता
था। हमारा रोग
है, कर्ता
होने का रोग।
महावीर
कहते हैं, करो ध्यान, करो तप। जंचती
है बात।
गोशालक कहता
है करने से
क्या होगा? बात जंचती
नहीं। महावीर
जब कहते हैं
करो, तो
तुम्हें ऐसा
लगता है, हां,
अपने बल में
कुछ है, अपने
बस में कुछ
है।
गोशालक
कहता है, किसी
के बस में कुछ
नहीं। तुम
चाहते हो, यह
आदमी चुप रहे।
यह न बोले।
क्योंकि यह
तुम्हारी
असलियत खोल
रहा है। यह
तुम्हारी
दीनता जाहिर कर
रहा है।
महावीर के साथ
तो अहंकार बच
सकता है, गोशालक
के साथ कैसे बचाओगे? महावीर के
साथ तो धर्म
की आड़ में
बच सकता है, गोशालक के
साथ तो कोई आड़
न चलेगी।
तुम
चकित होओगे
जानकर कि
महावीर नग्न
रहे, गोशालक
भी नग्न रहा।
गोशालक भी
दिगंबर था। लेकिन
महावीर की
नग्नता के
पीछे कारण था
कि जो भी
सभ्यता, संस्कृति,
संस्कार
समाज ने दिया
है उसका
त्याग। उस
सबको छोड़ देना
है। संसार से
जो मिला है वह
सब छोड़ देना
है। वस्त्र भी
संसार से मिले
हैं। वस्त्रों
के साथ
बहुत-सी बातें
जुड़ी हैं। वे
सब छोड़ देनी
हैं। आदमी को
भीतर जाना है,
बाहर का सब
छोड़ देना है।
शरीर ही छोड़
देना है तो
वस्त्र तो और
भी शरीर के
बाहर हैं।
अंतर्मुखी
होना है।
गोशालक
भी नग्न था।
गोशालक के
नग्न होने का
कारण बिलकुल
दूसरा था। वह
कहता था नग्न
ही आए हैं, नग्न ही
जाना होगा। तो
बीच में यह
कपड़ों का उपद्रव
क्यों? यह
चेष्टा क्यों?
बच्चे जब
पैदा हुए थे
तो नग्न थे।
तो ठीक है, वही
स्वीकार है।
महावीर
की नग्नता में
अनुशासन
मालूम होता है, गोशालक की
नग्नता में
सहजता मालूम
होती है। अगर
तुम्हें
महावीर नग्न
मिल जाएं तो
तुम नमस्कार
करोगे।
क्योंकि
महावीर की
नग्नता में योग
मालूम होगा, साधना मालूम
होगी, तपश्चर्या
मालूम होगी।
गोशालक नग्न
मिल जाए तो
तुम कहोगे, हिप्पी है।
क्योंकि
गोशालक कहता
है, नग्न
आए हैं, नग्न
जाएंगे।
गोशालक
यह भी नहीं
कहता, इसमें
कुछ गौरव है
नग्न होने
में। वह कहता
है तुम्हें
कपड़े पहनना
ठीक लगता है, चलो ठीक।
हमें नंगा
रहना ठीक लगता
है, यही
ठीक। हमें हम
रहने दो, तुम
तुम रहो। हम
तुम्हें आदेश
नहीं देते, तुम कृपा
करके हमें
आदेश मत दो।
गोशालक
इतना ही कहता
है, प्रत्येक
अपनी प्रकृति
के अनुकूल चले,
सहज रहे।
गोशालक
न तो स्वर्ग
की बात करता
है, न नर्क
की। गोशालक ने
बड़ा मजाक किया
है। पूरा सिद्धांत
तो उल्लिखित
नहीं है कहीं,
लेकिन
महावीर कहते
हैं, सात
नर्क हैं।
गोशालक से कोई
पूछता है, कितने
नर्क हैं? वह
कहता है, सात
सौ। वह सिर्फ
मजाक कर रहा
है। वह यह
नहीं कह रहा
कि सात सौ
हैं। वह यह कह
रहा है, पागल
हुए हो? न
कोई नर्क है, न कोई
स्वर्ग है। बस
तुम हो और
तुम्हारा
चैतन्य है।
बाकी सब
सिद्धांतों
के जाल हैं।
वाइजे-सादालोह
से कह दो, छोड़
उकबा की
बातें
इस
दुनिया में
क्या रक्खा है, उस दुनिया
में क्या होगा?
वह
भोले-भाले
धर्मगुरु से
कह दो कि छोड़
परलोक की
बातें। इस
दुनिया ही में
कुछ नहीं
रक्खा है तो
उस दुनिया में
क्या
होनेवाला है?
वाइजे-सादालोह
से कह दो, छोड़
उकबा की
बातें
इस
दुनिया में
क्या रक्खा है, उस दुनिया
में क्या होगा?
अक्सर
जो तुम्हें
बताते हैं, उस दुनिया
में बहुत कुछ
रक्खा है, वे
तुम्हें
प्रभावित
करते हैं
क्योंकि तुम्हारे
लोभ को जगाते
हैं। वे कहते
हैं, यहां
तो कुछ नहीं
है लेकिन वहां
है। क्या बाहर
भटक रहे हो? क्या कंकड़-पत्थर
इकट्ठे कर रहे
हो? क्या
ठीकरे जोड़ रहे
हो? कामिनी-कांचन
में कुछ भी
नहीं; लेकिन
वहां है
स्वर्ग में।
वे तुम्हारे
लोभ को जगाते
हैं, तुम्हारे
भय को जगाते
हैं। वे
तुम्हारी
बीमारियों को
उकसाते हैं।
गोशालक
जैसे व्यक्ति
न तुम्हारे
लोभ को उकसाते
हैं, न
तुम्हारे भय
को उकसाते
हैं। वे
तुम्हें केवल
तुम हो जाओ
स्वयं, सहज,
प्रकृति के
साथ चलने लगो,
निसर्ग
तुम्हारी
व्यवस्था हो
जाए, इतनी
बात कहते हैं।
इसलिए बहुत
संप्रदाय बन नहीं
सकते।
तकदीर
कुछ ही, काविसेत्तदबीर भी तो है
तखरीब के
लिबास में
तामीर भी तो
है
जुलमात
के हिजाब में तनवीर भी
तो है
आ मुंतजिर-ए-इस्रते-फर्दे
इधर भी आ
तकदीर
कुछ ही, काविसेत्तदबीर भी तो है
किस्मत
तो थोड़ी है; ज्यादा तो
पुरुषार्थ
है।
तखरीब के
लिबास में
तामीर भी तो
है
और
विनाश तो है, लेकिन उसमें
छिपा निर्माण
भी तो है।
जुलमात
के हिजाब में तनवीर भी
तो है
अंधेरा
है माना, लेकिन
बड़ा प्रकाश
है। सुबह
जल्दी करीब आ
रही है। जगत
में दुख है
माना, लेकिन
स्वर्ग में
बड़ा सुख भी
है।
आ मुंतजिर-ए-इस्रते-फर्दे
इधर भी आ
ओ
आगामी कल के
सुख! मेरी तरफ
भी दृष्टि दे।
आदमी
ऐसे जीता
है--लोलुपता
में, भरोसे
में, आशा
में। गोशालक
जैसे तीर्थंकरों
के पास आशा का
कोई उपाय
नहीं। गोशालक
तुम्हें ठीक
जैसा है, वैसा
ही कह देता
है। तुम्हें
जरा भी
सांत्वना नहीं
देता।
तुम
पूछो आत्मा
अमर है? वह
कहेगा, जब
तक मरे नहीं, पता कैसे
चले? जब मैं
मर जाऊं तब
पूछना। अभी तो
मैं जिंदा
हूं। या तुम
मरोगे तब जान
लेना। अभी
पहले से जानकर
भी क्या होगा?
और पहले
जानने का उपाय
भी कहां है? जानने के
पहले जानने का
उपाय कहां है?
अभी तो जी
लो, फिर
मौत भी आएगी, देख लेना।
होगी अमरता तो
मिल जाएगी, न होगी तो
नहीं मिलेगी।
इसकी चिंता भी
क्या करना?
गोशालक
ने खूब झकझोर
दिया होगा
भारत को। इसीलिए
जैन शास्त्र
बड़े परेशान
रहे हैं। उसने
सारे
सिद्धांतों
की बुनियाद उखाड़ दी
होगी। उसने
आदमी को इतना
नैसर्गिक
बनने का संदेश
दिया कि
सिद्धांत, धर्म और
शास्त्र और
परंपरा का कोई
उपाय नहीं रह
गया।
कल
मैं एक गीत
पढ़ता था:
हवा
हूं हवा मैं
वासंती हवा
हूं
चढ़ी पेड़
महुआ थपाथप
मचाया
गिरी
धम्म से फिर चढ़ी आम ऊपर
उसे
भी झकोरा किया
कान में कू
उतरकर
भगी मैं हरे
खेत पहुंची
वहां
गेहुंओं
में लहर खूब
मारी
पहर
दोपहर क्या
अनेकों पहर तक
ऐसे
व्यक्ति--गोशालक
जैसे
व्यक्ति--तेज
आंधी की तरह
आते हैं।
हवा
हूं हवा मैं
वासंती हवा
हूं
चढ़ी पेड़
महुआ थपाथप
मचाया
वे
आदमी की चेतना
को खूब
थपथपाते हैं, झकझोर देते
हैं।
गिरी
धम्म से फिर चढ़ी आम ऊपर
उसे
भी झकोरा किया
कान में कू
उतरकर
भगी मैं हरे
खेत पहुंची
वहां
गेहुओं
में लहर खूब मारी
पहर
दोपहर क्या
अनेकों पहर तक
ऐसे
व्यक्ति धूल-धवांस झाड़
जाते हैं
चेतना की। ऐसे
व्यक्ति
संप्रदाय
निर्मित नहीं
करते। ऐसे
व्यक्तियों
का धर्म बड़ा
शुद्ध है। ऐसे
व्यक्ति ऐसे
हैं, जैसे
शुद्ध सोना।
आभूषण बनाने
हों तो कुछ
मिलाना पड़ता
है सोने में।
चौबीस कैरेट
सोने के आभूषण
नहीं बनते।
फिर बीस कैरेट,
अठारह
कैरेट--कुछ
मिलाना पड़ता
है--तांबा, कुछ
और। नहीं तो
सोना बहुत
नर्म है।
जैसे-जैसे
संप्रदाय
बनता है, सोने
के आभूषण बनते
हैं, वैसे-वैसे
अशुद्धि
मिलती है।
जितना
व्यवस्थित
संप्रदाय
बनता है, उतना
ही विकृत
संप्रदाय हो
जाता है।
जैन
संप्रदाय
बहुत
व्यवस्थित
है। छोटा है, लेकिन बहुत
नियोजित है, व्यवस्थित
है। एक-एक
रेखा साफ है, सीमा पर
बंधी है।
द्वार, दरवाजे,
आंगन, बागुड़, सब
साफ है। जैन
संप्रदाय
गणित जैसा
सुस्पष्ट है।
और गोशालक
जैसे व्यक्ति
काव्य जैसे
हैं--अस्पष्ट,
धुंधले,
रहस्यपूर्ण।
फिर हम
यहां रास्ता
खोज रहे हैं।
हम चाहते हैं
कोई रास्ता
बता दे। हमें
रास्ता पता
नहीं है।
गोशालक
रास्ते पर मिल
जाए तो वह
कहता है, रास्ता
है ही नहीं।
क्या खोज रहे
हो? इससे
हमें चैन नहीं
होता। हम कहते
हैं हटो। हमें
रास्ता पूछना
है। हम बेचैन
हैं बिना रास्ते
के। हम चाहते
हैं, जीवन
का लक्ष्य
क्या है? गोशालक
मिल जाए, वह
कहता है कोई
लक्ष्य है ही
नहीं।
अलक्ष्य जीवन
चल रहा है।
कहीं पहुंचना
थोड़े ही है!
जीवन
नृत्य जैसा है, यात्रा जैसा
नहीं। इसमें
कोई अंतिम पड़ाव
नहीं है। हां,
बीच में
बहुत पड़ाव
हैं, वे
विश्राम के लिए
हैं। सुबह उठे
फिर चल पड़ना
है। यह अनंत
यात्रा है।
मगर
इससे हमारे मन
में भरोसा
नहीं आता। कोई
चाहिए, जो
हमें बता दे
स्पष्ट कि
कहां हम जा
रहे हैं? क्यों
जा रहे हैं? तो
निश्चिंतता
हो जाए, भय
मिटे। हिसाब
बैठ जाए। तो
हम क्या करें
और क्या न
करें। तो क्या
करने से
रास्ते पर
रहेंगे और
क्या करने से
रास्ते से बिछुड़
जाएंगे!
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे कहते
हैं, आप
कुछ मर्यादा
क्यों नहीं
देते? साफ-साफ
अनुशासन
क्यों नहीं
देते? आप
हमें ठीक-ठीक
बता दें क्या
हम करें और
क्या हम न
करें? बस, फिर हम निपट
लेंगे। मगर आप
कुछ कहें तो!
साफ-साफ सूत्र
दे दें।
वे
मुझसे चाहते
हैं कि मैं
उन्हें
आश्वासन दे दूं
कि इतनी बातें
तुम पूरी करते
रहोगे, पानी
छानकर पीओगे तो
मोक्ष
निश्चित है।
मांसाहार न
करोगे, मोक्ष
निश्चित है।
खेती-बाड़ी न
करोगे, मोक्ष
निश्चित है।
तो फिर वे
इतने काम करना
शुरू कर दें। ये
काम बंद करे
दें। यह कोई
बहुत कठिन तो
नहीं है। ये
काम बंद किए
जा सकते हैं।
लेकिन
मैं उनसे कहता
हूं, मोक्ष
इतना सस्ता
नहीं है कि
पानी छानने
से मिल जाए।
मोक्ष इतना
सस्ता नहीं है,
यह शुभ है।
नहीं तो जितने
लोग पानी छानकर
पी रहे हैं, ये मोक्ष
में रहेंगे।
तुम थोड़ा
सोचो। उस
मोक्ष में तुम
रहना पसंद
करोगे, जहां
सब पानी छाननेवाले
पहुंच गए? वह
बड़ा बेरौनक
होगा। वह बड़ा
उदास होगा।
वहां कोई जीवन
का उल्लास, आनंद न
होगा।
गोशालक
बहुत मस्त
आदमी था। मस्त
फकीर! नाचता-गाता
आदमी था। जैन
शास्त्रों
में इसलिए भी
बड़ा विरोध है।
क्योंकि
कभी-कभी ऐसा
हो जाता कि
गोशालक के पास
महफिल जमी है, नाच रहे
लोग। एक गांव
में वेश्या ने
निमंत्रण दे
दिया, और
गोशालक वहीं
चला गया नाचते
हुए। अब जैन
शास्त्रों
में उसका
विरोध होना
स्वाभाविक
है।
कहते
हैं वह
मरा--जैन
शास्त्र कहते
हैं--तो एक वेश्या
के घर ही टिका
हुआ था। पता
नहीं, यह सच
हो या न हो।
क्योंकि जैन
शास्त्रों की
बात मानने का
कोई भी कारण
नहीं है। मगर
यह हो भी सकता
है। क्योंकि
गोशालक जैसे
व्यक्ति को पापी
में और
पुण्यात्मा
में कोई फर्क
नहीं है। गोशालक
जैसे व्यक्ति
को वेश्या में
भी वही परमात्मा
नजर आता है--वही
शुद्ध, जो
पुण्यात्मा
में है; कोई
भेद नहीं है।
भेद
ओछी
दृष्टियों के
हैं। भेद नासमझों
के हैं।
गोशालक
निश्चित अभेद
में रहा होगा।
परमहंस था।
दूसरा
प्रश्न:
महावीर
अशरण का उपदेश
देते थे और
शिष्य भी बनाते
थे। क्या ये
दोनों बातें
परस्पर-विरोधी
नहीं हैं?
दिखती
विरोधी हैं; हैं नहीं।
और इस जगत में
जो भी
सत्पुरुष हुए
हैं, वे
हमेशा
विरोधाभासी
दिखाई
पड़ेंगे। जीवन
विरोधाभासी
है। तो जो भी
इस जीवन को झलकाएगा
इसकी सचाई में,
वह भी
विरोधाभासी
होगा।
सिर्फ
पंडित
विरोधाभासी
नहीं होते।
ज्ञानी सदा
विरोधाभासी
होंगे।
क्योंकि ज्ञानी
छांटता
नहीं। वह
जिंदगी पर कोई
ढांचा नहीं
रोकता। उसके
लिए जिंदगी
जैसी है, स्वीकार
है। वह सिर्फ
जिंदगी को
झलका देता है।
फिर जो भी
जिंदगी में है,
वह सब उसमें
झलक जाता है।
वह दर्पण का
काम करता है।
अब यह
बात महावीर
कहते हैं, अशरण। किसी
की शरण मत
जाओ। लेकिन
महावीर के पास
शिष्य आते
हैं। शिष्य
कहते हैं, "सिद्धे शरणं पवज्झामि।'
हे सिद्ध
पुरुष! हम
तुम्हारी शरण
आते हैं। "अरिहंते
शरणं पवज्झामि।'
हे पहुंचे
हुए पुरुष! हम
तुम्हारी शरण
आते हैं।
महावीर
इनको स्वीकार
भी करते हैं।
तब तो बड़ी उलटी
बात मालूम
पड़ती है।
महावीर कहते
हैं अशरण! और
ये शरण
आनेवाले लोग
भी स्वीकार हो
जाते हैं।
इनकी भी
महावीर
दीक्षा करते हैं।
इनको
संन्यस्त
करते हैं।
इनको सत्य के
मार्ग का
इंगित करते
हैं।
तो
विरोध दिखाई
पड़ता है, लेकिन
सिर्फ दिखाई
पड़ता है। जब
महावीर शिष्य बनाते
हैं तो वे
इतना ही कह
रहे हैं कि
मैं तुमसे जरा
ऊंचाई पर खड़ा
हूं। तुम वृक्ष
के नीचे हो, मैं वृक्ष
पर खड़ा हूं।
यहां से मुझे
जरा दूर तक
दिखाई पड़ता
है। जैसे मैं
इस वृक्ष पर
चढ़ आया हूं, उतने दूर तक
तुम मेरे सूचन
का उपयोग कर
सकते हो। तुम
भी इस वृक्ष
पर चढ़ आ सकते
हो।
तुम
रास्ते पर
किसी से पूछते
हो, नदी का
रास्ता कहां
है? कोई
आदमी बता देता
है, तो
क्या
तुम्हारा
गुरु हो गया? क्या तुम
उसकी शरणागति
हो गए? तुम
उसे धन्यवाद
देकर नदी की
तरफ चले जाते
हो। तुम ऐसा
थोड़े ही, कि
उसके चरण पकड़
लेते हो कि अब
मैं तुम्हें
कभी भी न
छोडूंगा
महाराज!
क्योंकि आपने
नदी का रास्ता
बताया। वह
कहेगा, अगर
नदी का रास्ता
बताया तो कोई
गलती तो नहीं की।
जाओ नदी।
नदी का
रास्ता पूछने
में तो हम ऐसी
भूल नहीं करते, लेकिन
परमात्मा का
रास्ता पूछने
में अक्सर ऐसी
भूल करते हैं।
इसलिए महावीर
कहते हैं, सुन
लो, समझ लो,
मैं जो कहता
हूं उसे गुन
लो। फिर पकड़ो
अपनी गैल। जाओ
अपनी डगर पर।
फिर मेरे पैर पकड़कर मत
रुको। मैंने
कोई कसूर तो
किया नहीं।
मुझे क्यों
सताते हो? जाओ।
जितना मैं
जानता हूं, कह दिया।
इसका कुछ
उपयोग करना हो,
कर लो।
तो एक
तरफ महावीर
कहते हैं, अशरण।
क्योंकि वे
जानते हैं, आदमी बड़ा
पागल है।
आदमी
ऐसा पागल है
कि मील के
पत्थरों को पकड़कर रुक
जाता है।
हालांकि मील
के पत्थर पर
लगा है तीर, कि चलो आगे।
जाओ आगे।
दिल्ली बहुत
दूर है। मगर
वह पत्थर पकड़कर
छाती से लगाकर
बैठा है कि
मिल गई
दिल्ली। दिल्ली
लिखा है पत्थर
पर। हालांकि
लिखा है, हजार
मील दूर कि दो
हजार मील दूर।
वह उसकी फिकर
नहीं कर रहा
है।
तुम
कभी मील के
पत्थर के पास
बैठकर यह नहीं
कहते कि बड़ा
विरोधाभास है, दिल्ली लिखा
है और दो हजार
मील भी लिखा
है! दिल्ली है
तो ठीक, पत्थर
ठीक। अगर दो
हजार मील तो
यहां दिल्ली
क्यों लिखते
हो? फिर दो
हजार मील वहीं
लिखना
दिल्ली।
महावीर
कहते हैं, शिष्य बनना
एक बात है, शरण
जाना दूसरी
बात है। शिष्य
बनने का अर्थ
इतना है, कोई
पहुंचा, किसी
ने जाना, कोई
जागा, उसका
लाभ ले लो।
कोई बहुत भटका,
तब उसे
मार्ग मिल गया,
तुम उससे
थोड़ा समझ लो।
मगर रहना अपने
पैरों पर।
झुको उसके
सामने, जो
जानता है।
लेकिन झुको
इसीलिए कि
उठकर चलना है।
झुके ही मत रह
जाना कि फिर
पैर पकड़ लिए
तो छोड़ेंगे
नहीं।
तो तुम
तो चल ही न
पाओगे, तुम
किसी चलनेवाले
को भी रोक
लोगे। शिष्य
गुरुओं के
द्वारा पहुंचते
हैं कि नहीं
पता नहीं, बहुत
से गुरुओं को
डुबाते हैं यह
पक्का है। इतने
जोर से पकड़
लेते हैं कि न
तो खुद जाते
हैं, न उसे
जाने देते
हैं।
तो
महावीर कहते
हैं कि जाग्रत
पुरुष से
सीखो। वह
वृक्ष पर बैठा
है, उसे दूर
का दृश्य
दिखाई पड़ता
है। तुम नीचे
खड़े हो अंधेरे
में, घाटी
में। वह पर्वत
के शिखर पर
खड़ा है। उसकी
दृष्टि का
विस्तार बड़ा
है। उसकी सुन
लो, समझ
लो। सोचो, विचार
कर लो।
तुम्हारी
बुद्धि उससे
राजी हो जाए, तुम्हारा
हृदय उसके साथ
धड़के, तो
फिर चलो।
लेकिन
ध्यान रखना, चलना
तुम्हें ही
होगा।
इसीलिए
कहते हैं, अशरण। किसी
और के पैर से
तुम न चल
सकोगे। चलना तुम्हें
ही होगा इस
बात पर
बार-बार जोर
देने के लिए
कहते हैं कि
मार्ग कोई भी
बता दे, नक्शा
कोई भी
तुम्हें दे दे,
चलना
तुम्हें ही
पड़ेगा।
हम
साधारण जीवन
में सदा सहारा
मांगते रहते
हैं। कोई पति
का सहारा, पत्नी का
सहारा, बाप
का, बेटे
का सहारा, मित्र
का सहारा।
सहारे के हम
आदी हो गए
हैं। हम
बैसाखियों पर
ही चलने के
आदी हो गए
हैं। तो जब हम
धर्म के जीवन
में प्रवेश
करते हैं, पुरानी
आदत कहती है, सहारा! कोई
गुरु का
सहारा।
यह
सहारे की सतत
खोज तुम्हें
आत्मवान न
बनने देगी।
तुम अपने
सहारे कब बनोगे? अपने पैर कब
खड़े होओगे? अपनी आंखों
से कब देखोगे?
अपने कानों
से कब सुनोगे?
यह सहारे की
खोज तो
तुम्हें पंगु
बना दी है।
छोटे
बच्चे की मां
चलाती है। हाथ
पकड़कर
चलाती है।
लेकिन यह कोई
सदा के लिए
इंतजाम नहीं
है। यह कोई
स्थिर
व्यवस्था
नहीं है। हाथ पकड़कर
चलाती है ताकि
उसे भरोसा आ
जाए कि वह चल
सकता है। फिर
तो बच्चा खुद
ही हाथ छुड़ाने
लगता है।
तुमने
देखो? बच्चा
खुद ही कहता
है, मत
पकड़ो मेरा
हाथ। और जो
मां बच्चे के
हाथ को जोर से पकड़ती है, वह मां नहीं
है। और जो
बच्चा, जब
चलना भी सीख
गया तब भी मां
का पल्लू पकड़े
रहता है, वह
कभी प्रौढ़ न
हो पाएगा।
तो
विरोध दिखता
है। मां एक
दिन कहती है, मेरा हाथ
पकड़, चल।
फिर धीरे-धीरे
हाथ को सरकाती
जाती है। फिर
हाथ को अलग कर
लेती है। फिर
बच्चा पकड़ना
भी चाहे तो वह
दूर हो जाती
है। वह कहती
है, अब तू
चल। थोड़ी दूर
खड़ी हो जाती
है जाकर; कहती
है, आ।
बच्चा उसकी
तरफ आना शुरू
करता है। एक
दफा बच्चे को
भरोसा आ जाए
कि मेरे पास
पैर हैं, मेरे
पैर हैं, तो
प्रौढ़ता
आनी शुरू होती
है।
सत्य
के जगत में भी
ऐसा ही है।
गुरु थोड़ी दूर
तक हाथ पकड़कर
चला देता है।
क्योंकि तुम
जन्मों से चले
नहीं। तुम भूल
ही गए कि
तुम्हारे पास
पैर हैं। तुम जन्मों
से उड़े
नहीं, भूल
ही गए कि
तुम्हारे पास
पंख हैं। थोड़ी
देर उड़ा देता
है, थोड़े
आकाश में
तुम्हें
पंखों का थोड़ा
खयाल आ जाता
है। फिर तुमसे
कहता है, जाओ।
दूर अनंत आकाश
है, उड़ो। वह पूरा
आकाश
तुम्हारा है।
दावा करो।
मैंने
सोचा था कि
दुश्वार है
मंजिल अपनी
एक
हंसी
बाजू-ए-सीमी
का सहारा भी
तो है
दश्ते-जुल्मात
से आखिर को
गुजरना है
मुझे
कोई
रुख्शंदा
और ताबीदा
सितारा भी तो
है
पहले
ठीक है।
शुरू-शुरू
चलते हैं तो
किसी रजत बांह
का सहारा हो, अच्छा। कोई
चमकता हुआ
सितारा हो, अच्छा।
दश्ते-जुल्मात
से आखिर को
गुजरना है
मुझे
लेकिन
अंततः तो
अंधेरे से खुद
ही गुजरना है।
वह दूर जो तारा
दिखाई पड़ता है
उससे आशा ले
लो, उससे
श्रद्धा ले लो;
लेकिन उसके
कारण थककर
बैठ मत जाना।
यह मत कहना, अब मुझे
क्या करना!
तारा तो है।
यह मत कहना
महावीर से कि
तीर्थंकर तो
तुम हो, अब
मुझे क्या
करना! तुम तो
पहुंच गए, अब
तुम ही मुझे
पहुंचा दोगे।
इसलिए
महावीर कहते हैं, शरण मत
खोजना। शरण
खोजने के कारण
धर्म भ्रष्ट हुआ।
ये जो
दुनिया में
इतने मंदिर, मस्जिद, इतने
गुरुद्वारे, इतनी कलह
दिखाई पड़ती है,
यह शरण की
कलह है।
न्याय
के हे देवता!
कब सिखाओगे
मनुष्यों को
कि
आप अपनी वे
रक्षा करें
त्राण
वैसे तो
उन्हें हैं
मिले लाखों बार
पर
हर बार त्राता
ने उन्हें बेच
डाला है
न्याय
के हे देवता!
रोक रक्खो
रक्षकों को
स्वर्ग में
देव, त्राता
मानवों का और
मत भेजो
लोग
रोते, त्राण
तो हम पा गए
पर
हाय भूखों मर
रहे
और
वह कहता:
बहुत-सी
पक रही हैं
कल्पना की पूड़ियां
मेरे
पिता के गेह
में
धीरज
धरो, फिर
पेट भर खाना
लोग
कहते:
एक
टुकड़ा दे सकते
नहीं हमें
सामान्य रोटी
का
हुक्म
वह देता:
नहीं, बैकुंठ चलकर
ही तुम्हें
भोजन मिलेगा
और
वह सामान्य
क्यों?
अदभुत, अमूल्य, अपूर्व
होगा
न्याय
के हे देवता!
कब सिखाओगे
मनुष्यों को
कि
आप अपनी रक्षा
वे स्वयं करे
...कि अपनी आप
वे रक्षा
करें।
महावीर
त्राता हैं, लेकिन त्राण
के आधार पर
तुम्हारे
प्राणों को नष्ट
नहीं करना
चाहते। सभी सदगुरु
यही कहेंगे।
झुको
जरूर। झुके
बिना कोई
सीखता नहीं।
शिष्य
बनो जरूर।
विनम्र हुए
बिना कोई
सीखता नहीं।
फैलाओ
झोली, लेकिन
अपने पैरों का
भरोसा मत खो
देना। ऐसा मत
सोचना कि बस, त्राता के
पैर पकड़ लिए
तो त्राण हो
गया।
ऐसा
ईसाइयत मानती
है कि जीसस ने
सबके पाप हल कर
दिए। अब इससे
बड़ा झूठ भी
कोई हो सकता
है? जीसस को
गए दो हजार
साल हो गए।
अगर जीसस ने
सभी के पाप
समाप्त कर दिए
तो दो हजार
साल से फिर क्या
हो रहा है
दुनिया में? पाप नहीं हो
रहे? इन दो
हजार सालों
में जितने पाप
हुए हैं, उतने
शायद ईसा के
पहले कभी भी न
हुए हों। ये
दो हजार साल
आदमी के दुख, पीड़ा, घावों
के, पाप के,
घृणा के, हिंसा के, युद्धों के
साल हैं। आदमी
खूंखार से
खूंखार होता
चला गया। और
ईसाइयत फिर भी
दोहराए चली
जाती है कि
ईसा ने सबको
मुक्त कर दिया।
यह बड़ी
झूठी बात है।
मगर इस झूठ के
पीछे तर्क है।
आदम ने पाप
किया था सबके
लिए, उसकी वजह
से सब पापी हो
गए थे! अब कोई
किसी दूसरे के
पाप से कैसे
पापी हो सकता
है? तो जब
आदम ने पाप
किया, सब
पापी हो गए।
जीसस ने सभी
के लिए पुण्य
कर दिया, सब
पुण्यात्मा
हो गए। अब
इतना ही जरूरी
है हर आदमी को
कि वह ईसाई हो
जाए, बस
पर्याप्त।
यह बड़ी
सस्ती बात हो
गई। इसलिए
महावीर कहते
हैं, शरण मत
गहना। चरण छू
लेना लेकिन
शरण मत गहना। झुकना,
शिष्य बनना,
दीक्षित
होना, सीखना,
लेकिन
यात्रा तुम्हीं
को करनी
पड़ेगी। तुम
त्राता को
त्राण मत समझ
लेना। त्राता
से सिर्फ
इशारे मिलते
हैं। चलना
पड़ेगा।
शास्त्र
को सत्य मत
समझ लेना और
शास्ता को मंजिल
मत समझ लेना।
इसलिए
विरोधी बात
कहते मालूम
पड़ते हैं। एक
तरफ दीक्षा
देते हैं, एक तरफ कहते
हैं अशरण रहो।
आखिरी
प्रश्न:
अशरण
होने और असहाय
होने के भावों
में क्या भेद
है? और क्या
दोनों के बीच
कुछ समानता भी
है?
समानता
भी है, भेद
भी है। अशरण
होने का अर्थ
होता है, अपने
पैरों पर खड़े
होना। असहाय
होने का अर्थ
होता है, दूसरों
के पैरों की
आशा थी, वह
छूट गई, लेकिन
अपने पैरों पर
खड़े होने का
बल नहीं आया।
असहाय होने का
अर्थ होता है,
अभी सहारे
की आकांक्षा
थी, वह
नहीं मिल रहा
है। असहायता
नकारात्मक
है। अशरणता
विधायक है।
इसे
ऐसा समझो, जैसा मैं
निरंतर कहता
हूं। एक आदमी
अपने कमरे में
अकेला बैठा है,
अकेलापन
अनुभव कर रहा
है अकेलेपन का
अर्थ हुआ कि
वह चाहता है
कोई साथ होता।
किसी की याद आ
रही है। किसी
की मौजूदगी
चाहिए। किसी
की मौजूदगी
नहीं है, अनुपस्थिति
खल रही है, तो
अकेलापन, लोनलीनेस।
और फिर
एक आदमी ध्यान
में मग्न
अकेला बैठा है, उसको
अकेलापन नहीं
कह
सकते--एकांत, अलोननेस। उसे किसी
की याद नहीं आ
रही है, वह
अपनी ही पुलक
से भरा है, अपने
ही आनंद में
लवलीन डूबा
है।
दोनों
अकेले हैं
बाहर से देखने
पर। लेकिन एक
पर की याद से
भरा है और एक
स्वयं की
स्मृति में जगा
है। दोनों बड़े
भिन्न हैं।
ऐसा ही
अशरण और
असहाय। असहाय
का अर्थ है, सहारे की
जरूरत है, सहारे
की आदत है; और
सहारा नहीं
मिल रहा है।
तो आदमी असहाय
मालूम पड़ रहा
है। अब डूबा, तब डूबा।
क्या करूं, क्या न करूं?
कहां जाऊं?
रास्ते
में रुक के दम
ले लूं, मेरी
आदत नहीं
लौटकर
वापस चला जाऊं, मेरी फितरत
नहीं
और
कोई हमनवा
मिल जाए यह
किस्मत नहीं
ऐ गमे-दिल
क्या करूं?
ऐ वहशते-दिल
क्या करूं?
दिल
में एक शोला भड़क उठा है
आखिर क्या
करूं?
मेरा
पैमाना छलक
उठा है आखिर
क्या करूं?
जख्म
सीने में महक
उठा है आखिर
क्या करूं?
ऐ गमे-दिल
क्या करूं, ऐ वहशते-दिल
क्या करूं
लौटकर
वापिस चला
जाऊं मेरी
फितरत नहीं
रास्ते
में रुक के दम
ले लूं मेरी
आदत नहीं
और
कोई हमनवा
मिल जाए यह
किस्मत नहीं
लौटकर
जा नहीं सकता; जाने का
उपाय नहीं।
रुक जाऊं, ऐसी
आदत नहीं। कोई
संगी-साथी मिल
जाए ऐसी किस्मत
नहीं। ऐ गमे-दिल
क्या करूं? ऐ वहशते-दिल
क्या करूं?
तो फिर
आदमी बड़ा
असहाय मालूम
पड़ता है। जैसे
कोई सागर में
डूब रहा है।
तिनके का भी
सहारा नहीं।
नाव तो दूर, तिनका भी
नहीं।
तो
असहाय अवस्था
तो नकारात्मक
है। अशरण अवस्था
विधायक है।
अशरण का अर्थ
कि मेरे पास
अपने पैर हैं।
अशरण का अर्थ
हुआ कि तैरूंगा, नाव चाही ही
नहीं, तिनके
का कोई सवाल
ही नहीं।
जो
अशरण भाव को
उपलब्ध हुआ है, उसे तुम नाव
बताओ भी, तो
वह कहेगा कि
नहीं, क्षमा
करें।
धन्यवाद! हम तैरकर
निकल जाएंगे।
क्योंकि कोई
बाहर का सहारा
क्या लेना! जब
तैर सकते हैं
तो नाव में
क्या बैठना! धन्यवाद!
बड़ी कृपा, आपने
याद किया।
लेकिन हम तैरकर
चले जाएंगे।
अशरण
का अर्थ है
तैरने पर बल।
असहाय
का अर्थ है:
खोजते थे नाव, मिलता नहीं
तिनका। भ्रम
रखने को भी
कुछ आसरा नहीं
रहा। तो असहाय
अवस्था में
आदमी रोता है,
चीखता-चिल्लाता
है, पुकारता
है। अक्सर
असहाय अवस्था
में आदमी प्रार्थना
करने लगता है,
पूजा करने
लगता है।
भगवान की याद
करने लगता है।
यह भगवान केवल
भय पर आधारित
है।
अशरण
भावना में
आदमी में
ध्यान जगता
है। और अशरण
भावना में
आदमी अपने बल
पर इस भांति
आश्वस्त हो
जाता है, आत्मविश्वास
ऐसा सजग हो
जाता है, स्वयं
पर श्रद्धा
ऐसी गहन हो
जाती है कि
सागर कितना ही
बड़ा हो, ये
दो हाथ सागर
से ज्यादा बड़े
मालूम होते
हैं। आकाश
कितना ही बड़ा
हो, ये दो
पंख सारे आकाश
को पार कर
लेंगे, ऐसे
भरोसे से भरे
होते हैं।
जो
व्यक्ति अशरण
को उपलब्ध हुआ
उसे तुम प्रसन्न
पाओगे, नाचता
हुआ पाओगे।
असहाय को तुम
दुखी, परेशान,
तलाश करता
हुआ पाओगे।
फिर कोई सपना
मिल जाए, फिर
कोई सहारा मिल
जाए।
महावीर
कहते हैं, असहाय मत
बनना, अशरण
बनना।
असहाय
अवस्था में तो
हम हैं।
इसीलिए हम
कहीं भी सहारे
खोजते
हैं--मंदिर
में, मस्जिद
में, शास्त्र
में, पुराण
में, कुरान
में, गुरु
में। कोई मिल
जाए जो हमें
कह दे, कि
तुम घबड़ाओ
मत। कहीं
ताबीज, गंडा
मिल जाए, बांध
लें और
निश्चिंत हो
जाएं।
महावीर
कहते हैं, सत्य इतना
सस्ता नहीं।
खोजना होगा।
कीमत चुकानी
होगी।
तैरना
होगा इस विराट
झंझावात से
भरे सागर में।
लहरें हैं, डूबने का
खतरा है।
लेकिन उस खतरे
और जोखिम से गुजरे
बिना कोई परम
मंजिल तक
पहुंचता नहीं
है। तो अशरण।
अब डर
यही है कि
अशरण का तुम
यह अर्थ मत
समझ लेना कि
किसी से कुछ
सीखना ही नहीं
है। तैरना तो
सीखना है। वह
किसी तैरनेवाले
से सीख लो।
जिसको तुमने
सागर में
तैरते देखा हो, उससे सीख
लो। फिर तैरकर
ही जाना। फिर तैरनेवाले
के कंधे का
सहारा मत
मांगना।
इसलिए
महावीर कहते
हैं, शिष्य तो
बनो, लेकिन
शरण को मत गहो।
शरणागति
नहीं। सीखने
के लिए तैयारी
रखो, मन को
बंद मत करो।
सीखते ही, जो
जान लिया उसका
उपयोग करो। जो
जान लिया उसके
सहारे चलो। और
कोई सहारा मत
मांगो। अपने
सहारे जो चलता
है, धीरे-धीरे
बलशाली होता
जाता है।
धीरे-धीरे उसके
भीतर से भय
गिर जाते हैं,
असुरक्षा
गिर जाती है, शंकाएं गिर
जाती हैं। और
एक, जिसको
गुरजिएफ ने
कहा है, आत्मिक
केंद्रीकरण, क्रिस्टलाइजेशन
उपलब्ध होता
है।
आत्मश्रद्धा
ही अंततः
आत्मा को पाने
का द्वार बनती
है। आत्मश्रद्धा
पर बल देने के
लिए महावीर
कहते हैं, अशरण भावना।
लेकिन
जिन्होंने आत्मा
को पा लिया हो
उनसे सीखने को
बहुत कुछ है।
सच तो यह है, जो उनकी शरण
गह लेते हैं
उनको सीखने को
कुछ भी नहीं
है। क्योंकि
वे कहते हैं, सीखकर क्या
करेंगे? अब
आप तो हैं।
मैंने
सुना है एक
आदमी अंधा था।
उसके आठ लड़के थे, आठ बहुएं
थीं।
चिकित्सकों
ने कहा कि
तुम्हारी आंख
ठीक हो सकती
है, आपरेशन
करना होगा।
उसने कहा, क्या
करेंगे? फायदा
क्या है? मेरी
पत्नी के पास
दो आंखें हैं,
मेरे आठ
लड़कों के पास
सोलह आंखें
हैं, मेरी
आठ बहुओं
के पास सोलह
आंखें हैं।
ऐसी चौतीस
आंखें मुझे
उपलब्ध हैं।
दो न हुईं
मेरी, क्या
फर्क पड़ता है?
लेकिन
संयोग की बात!
जिस दिन उसने
यह इंकार किया
उसी रात घर
में आग लग गई।
वे चौतीस
आंखें भागकर बाहर
निकल गईं।
अंधा
चिल्लाता रहा, टटोलता रहा
रास्ता।
लपटों में जल-भुनकर
गिरकर मर गया।
मरते वक्त एक
ही भाव उसके
मन में था, अपनी
आंख अगर आज
होती...! जो बाहर
भागकर निकल गए--पत्नी,
बेटे, बहुएं,
उनको याद
आयी उसकी, लेकिन
बाहर जाकर याद
आयी। जब अपने
प्राण संकट में
पड़े हों तो
किसको किसकी
याद आती है?
इसलिए
महावीर कहते
हैं, अपनी
आंख। आंखवालों
से सीख लेना, मगर अपनी
आंख के
अतिरिक्त
किसी और की
आंख को अपना
सहारा मत
बनाना।
अपनी
आंख जब तक न
मिल जाए, सीखना,
साधना; लेकिन
चेष्टा यही
रखना कि अपनी
आंख मिल जाए।
अपनी आंख से
ही कोई सत्य
का दर्शन कर
पाता है।
सत्य
के साक्षात के
लिए स्वयं की
आंख के अतिरिक्त
और कोई उपाय
नहीं है।
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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