जिन सूत्र--(भाग--2)
प्रश्नसार:
1— बारहवें
और तेरहवें
गुणस्थान:
क्षीणमोह
और सयोगिकेवलीजिन
में क्या
भिन्नता है
इसे स्पष्ट
करने की कृपा
करें।
2—क्या
तेरहवें गुणस्थान
को उपलब्ध होकर
भी उससे च्युत
हुआ जा सकता है?
3—क्या
प्रेम के मार्ग
पर भी कोई सीढ़ियां
होती है?
4—रजनीश
एशो आमी तोमार
बोइसागी
आमी पूना
गेलाम,
आमी काशी गेलाम
5—देह
की वृद्धावस्था,
मन में आशंका, मरने की पूरी
तैयारी, वापसी
की भी भय नहीं—लेकिन
दुबारा भगवान तो
मिलेंगे नहीं।
6—रजनीश
महाराज को नमस्कार
कैसे करें,
जब तक कि भीतर का
रजनीश उभरकर न
आ जाए?
पहला
प्रश्न:
बारहवें
और तेरहवें
गुणस्थान:
क्षीणमोह
और सयोगिकेवलीजिन
में क्या
भिन्नता है
इसे स्पष्ट
करने की कृपा
करें।
यह
प्रश्न
स्वाभाविक
है। जैन
शास्त्रों
में इस संबंध
में बड़ा
ऊहापोह है।
क्योंकि
दोनों अवस्थाएं
करीब-करीब एक
जैसी मालूम
पड़ती हैं।
बारहवीं
अवस्था में
समस्त मोह, माया शून्य
हो जाती है।
कुछ शेष बचता
नहीं। और कुछ
होने की
संभावना भी न
रही। सब
बाधाएं गिर गईं,
सब अवरोध
समाप्त हुए।
फिर तेरहवीं अस्वस्था
में, तेरहवें गुणस्थान
में सूत्र
केवल इतना ही
कहते हैं, सयोगिकेवलीजिन। केवलज्ञान
उपलब्ध होता
है, जिनत्व उपलब्ध
होता है।
लेकिन
जब सभी मोह
क्षीण हो गए, जब सभी
बाधाएं हट गईं,
जब अंधकार
जाता रहा तो
फिर दोनों में
फर्क क्या है?
दोनों में
देह है, इसलिए
सयोगी से
कोई फर्क नहीं
पड़ता। बात
थोड़ी बारीक है
और नाजुक है।
ऐसा समझना, कभी तुम
बीमार पड़े, चिकित्सा
हुई। सारी
बीमारियां
चली गईं तो भी
जरूरी नहीं कि
तुम स्वस्थ हो
गए। अभी दौड़ न
सकोगे, अभी
श्रम न कर
सकोगे।
चिकित्सक
कहेगा कुछ देर
आराम करो।
बीमारी तो गई,
लेकिन
स्वास्थ्य का
आविर्भाव
होने दो।
बारहवां
गुणस्थान
नकारात्मक
है। तेरहवां
गुणस्थान
विधायक है। बारहवें गुणस्थान में
जो कूड़ा-कर्कट
था, वह गया।
व्यर्थ हटा।
लेकिन सार्थक
को उतरने दो।
बारहवां गुणस्थान
शून्य जैसा
है। तेरहवां
गुणस्थान
पूर्ण जैसा
है। बौद्धों
ने निर्वाण की
जो परिभाषा की
है, वह बारहवें
गुणस्थान
की ही परिभाषा
है।
इसलिए
जैन दृष्टि
में अभी और
थोड़े आगे जाना
है। शून्य तो
हो गए, अभी
पूर्ण नहीं
हुए। मोह तो
गया, राग
गया लेकिन अभी
वीतरागता
नहीं उतरी।
तुम तैयार हो
गए, मेहमान
अभी नहीं आया।
तुमने घर सजा
लिया, द्वार-दरवाजों
पर बंदनवार
बांध दिए, स्वागतम
लटका दिया, दीये जला
लिए, धूप-दीप
बाल ली। तुम
तैयार हो गए, मेहमान अभी
नहीं आया।
बारहवें
में तुम्हारी
तैयारी पूरी
हो गई। अब
तुमसे कुछ और
नहीं मांगा जा
सकता, तुम
जो कर सकते थे,
जो मनुष्य
के लिए संभव
था, वह हो
गया। अब
उतरेगा कोई।
प्रकाश का
अवतरण होगा।
पात्र तैयार
हो गया, अमृत
की अब वर्षा
होगी।
इसे
तुम ऐसा मत
सोचना कि इन
दोनों के बीच
समय का कोई
फासला है। इन
दोनों के बीच "एम्फेसिस', जोर का
फासला है। तुम
यह मत सोचना
कि बारहवां घट
गया तो तेरहवें
के घटने में
अब कुछ समय
लगेगा। युगपत
हो सकता है।
यह विश्लेषण
तो इसलिए है
ताकि तुम्हें
सीढ़ी-सीढ़ी बात
समझ में आ
जाए।
ऐसा भी
हो सकता है, बीमारी गई
और तुम स्वस्थ
हो गए, लेकिन
बीमारी का
जाना ही
स्वस्थ हो
जाना नहीं है।
बीमारी का
जाना स्वस्थ
होने के लिए
अनिवार्य चरण
है। लेकिन
बीमारी का न
होना ही
स्वास्थ्य की
परिभाषा नहीं
है।
स्वास्थ्य
कुछ विधायक
है। ऐसा नहीं
है कि जब तुम
स्वस्थ होते
हो तो तुम
इतना ही कह
सकते हो कि
मेरे सिर में
कोई दर्द नहीं
है, पेट
में कोई दर्द
नहीं है, कहीं
कांटा नहीं
चुभता; इतना
ही कह सकोगे? कि कैंसर
नहीं है, टी.
बी. नहीं है।
स्वास्थ्य की
बस इतनी ही
व्याख्या कर
सकोगे? या
कहोगे कि कुछ
अपूर्व मुझे
भरे है, कुछ
लहरा रहा है।
कुछ मेरे रोएं-रोएं
में कंप रहा
है, जो
सिरदर्द का
अभाव ही नहीं
है, जो
किसी अनूठी
ऊर्जा की
मौजूदगी है।
किसी परम शक्ति
का मेरे भीतर
निवास है।
स्वास्थ्य
विधायक है।
इसलिए पूरब
में जो स्वास्थ्य
का विज्ञान है
उसे हमने
आयुर्वेद कहा है।
पश्चिम का
शब्द मेडिसिन, मेडिकल
साइंस बहुत
दरिद्र है।
मेडिसिन का
मतलब होता है
सिर्फ औषधि।
पश्चिम ने
चुना मेडिकल
साइंस--औषधि
का विज्ञान; क्योंकि
उनकी दृष्टि
में
स्वास्थ्य का
अर्थ है, बीमारी
का न हो जाना।
पूरब
ने चुना
आयुर्वेद: आयु
का विज्ञान, जीवन का
विज्ञान।
सिर्फ औषधि
नहीं है
आयुर्वेद, औषधि
से कुछ ज्यादा
है। औषधि से
तो इतना ही
मालूम होता है,
दर्द न रहा।
लेकिन दर्द न
रहने का अर्थ,
आनंद हो गया?
दर्द रहता
तो आनंद में
बाधा पड़ती
जरूर, दर्द
न रहा तो आनंद
के लाने में
सुविधा हो गई
जरूर; लेकिन
दर्द का न
होना ही आनंद
की परिभाषा है?
बौद्ध बारहवें गुणस्थान
को निर्वाण की
परिभाषा
मानते हैं, इसलिए वे
आनंद की बात
नहीं करते। वे
कहते हैं, परम
अवस्था--दुख-निरोध।
निर्वाण यानी
दुख-निरोध; दुख न
रहेगा। इससे
आगे बात नहीं
करते। उनसे पूछो,
दुख न रहेगा
यह भी कोई बात
हुई? रहेगा
क्या फिर? होगा
क्या फिर? संसार
न रहेगा, समझ
में आ गया, लेकिन
क्या मोक्ष की
बस इतनी ही
परिभाषा है? फिर मोक्ष
अपने आप में
क्या है? अगर
संसार से ही
परिभाषा हो
सकती हो मोक्ष
की, तो
मोक्ष बड़ा लचर
हुआ, बड़ा
कमजोर हुआ, दीन हुआ, दरिद्र
हुआ। जिसकी
परिभाषा भी
संसार से ही
करनी होती
हो...।
ऐसा
समझो कि एक
आदमी अमीर है, वह धन का
त्याग कर दे; और एक आदमी
गरीब है, उसके
पास बहुत कुछ
नहीं है, झोपड़ा
है। वह अपने झोपड़े का
त्याग कर दे।
क्या तुम
कहोगे कि अमीर
का त्याग गरीब
के त्याग से
बड़ा है?
अगर
त्याग धन का
ही छोड़ना है
तब तो निश्चित
ही अमीर का
त्याग गरीब के
त्याग से बड़ा
है। क्योंकि
गरीब ने झोपड़ा
छोड़ा, अमीर
ने महल छोड़ा।
लेकिन
त्याग धन का
छोड़ना ही नहीं
है। त्याग एक
विधायक चित्त
की दशा है।
क्या छोड़ा यह
मूल्यवान
नहीं है, छोड़कर
जो मिलता है
वही मूल्यवान
है। जो मिलता है,
उसे छोड़ने
से नहीं नापा
जा सकता।
या ऐसा
समझो कि एक
आदमी ने एक
पैसा चुरा
लिया और दूसरे
आदमी ने करोड़
रुपये चुरा
लिए। क्या करोड़
रुपये चुरानेवाला
बड़ा चोर है? एक पैसा चुरानेवाला
छोटा चोर है।
तो फिर तुम
समझे नहीं।
चोरी
तो बराबर है।
एक पैसे की हो
कि करोड़
रुपये की हो।
चोरी में कोई
मात्रा से
फर्क नहीं
पड़ता। एक आदमी
ने एक पैसे की चोरी
छोड़ी। एक
पैसा रास्ते
पर पड़ा था, वह पड़ा रहा
और निकल गया।
और एक आदमी के
रास्ते पर करोड़
रुपये पड़े थे,
उसने करोड़
रुपये की चोरी
छोड़ी।
चोरी की
संभावना थी, न की। इन
दोनों में
कौन-सा बड़ा अचोर
है? दोनों अचोर हैं।
अचौर्य
चित्त की एक
विधायक दशा
है।
बारहवां
गुणस्थान
कहता है संसार
नहीं हुआ, समाप्त हुआ।
जैसे तुम किसी
देश की सीमा
पार करते हो, तो जो इस देश
की सीमा है, समाप्त होता
है देश, वही
दूसरे देश की
शुरुआत है। तो
सीमा पर जो तख्ती
लगी होती है, एक तरफ लिखा
होता है--भारत
समाप्त।
दूसरी तरफ लिखा
होगा है--चीन
शुरू।
बारहवां
गुणस्थान
इस तरफ की खबर
देता
है--"संसार
समाप्त'; तेरहवां गुणस्थान
उस तरफ की खबर
देता
है--"मोक्ष
शुरू।' दोनों
एक ही तख्ती
पर होंगे।
तख्ती की एक
तरफ लिखा
है--"संसार
समाप्त'; दूसरी
तरफ लिखा है
"मोक्ष
प्रारंभ।' दोनों
में रत्तीमात्र
फासला नहीं
दिखाई पड़ता, पर फासला
बड़ा है। दोनों
की सीमारेखा
एक ही है। इसलिए
जैन
शास्त्रों
में भी खूब
चिंतन चला है कि
फर्क क्या है?
मेरे
देखे बारहवां गुणस्थान
इतना ही कहता
है: कि जो
छोड़ने योग्य
था, छूट गया;
जो मिटने
योग्य था, मिट
गया; जो
व्यर्थ था, असार था, उससे
मुक्ति हुई। तेरहवां गुणस्थान
कहता है: वहीं
रुकना नहीं
हुआ, जो
मिलने योग्य
था, मिला; जो पाने
योग्य था, बरसा।
मेहमान घर आ
गया।
जैन
सूत्रों में
भी बात साफ
है। बारहवें
सूत्र की
परिभाषा है--
णिस्सेसखीणमोहो, फलिहामलभायणुदय-समचित्तो।
खीणकसाओ भण्णइ णिग्गंथो
वीयराएहिं।।
"संपूर्ण
मोह पूरी तरह
नष्ट हो जाने
से जिनका
चित्त स्फटिकमणि
के पात्र में
रखे हुए
स्वच्छ जल की
भांति निर्मल
हो गया है, ऐसे
पुरुषों को वीतरागदेव
ने क्षीणमोह
या क्षीणकषाय
कहा है।'
"निर्मल
हो गया'--नकारात्मक
है। शुद्ध हो
गया, अशुद्धि
गई। तेरहवें
गुणस्थान
की परिभाषा
है:
केवलणाणदिवायर-किरणकलावप्पणासिअण्णाणो।
णवकेवललद्धुग्गमं-पावियरपरमप्पववएसो।।
"केवलज्ञानरूपी दिवाकर की
किरणों के
समूह से जिनका
अज्ञान-अधंकार
सर्वथा नष्ट
हो गया, तथा
जो सम्यकत्व,
अनंत ज्ञान,
अनंत दर्शन,
अनंत सुख, अनंत वीर्य
को उपलब्ध हुए
वे सयोगिकेवलीजिन
कहलाते हैं।'
अनंत
ज्ञान, अनंत
दर्शन, सम्यकत्व,
समाधि, अनंत
सुख, अनंत
वीर्य, ये
उपलब्धि की
सूचनाएं
हैं--क्या
मिला!
संसार
गया, मोक्ष
मिला। इसलिए
महावीर कहते
हैं, तेरहवें गुणस्थान
में आए हुए
व्यक्ति को
भगवान कहा जा
सकता, परमात्मा
कहा जा सकता
है।
दूसरा
प्रश्न:
क्या
तेरहवें गुणस्थान
को उपलब्ध
होकर भी कोई
उससे च्युत हो
सकता है, क्या कोई अब
तक हुआ है?
नहीं, तेरहवें गुणस्थान
तक पहुंचकर
कोई कभी च्युत
नहीं हुआ, न
हो सकता है।
तो फिर सवाल
उठता है कि
चौदहवें गुणस्थान
की क्या जरूरत
है? जब तेरहवें
से वापसी हो
ही नहीं सकती,
जब तेरहवें
से गिरना हो
ही नहीं सकता,
तो फिर तेरहवें
और चौदहवें का
फासला क्या?
तेरहवें गुणस्थान
से कोई च्युत
नहीं होता, लेकिन कोई
चाहे तो तेरहवें
गुणस्थान
पर रुक सकता
है। महाकरुणावान
पुरुष रुक गए
हैं। तेरहवें
गुणस्थान
पर जो रुक गए
हैं, उनके
लिए ठीक-ठीक
शब्द बौद्धों
के पास है; वह
शब्द है
"बोधिसत्व'। जिन्होंने
कहा, हम
चौदहवें में
प्रवेश न
करेंगे।
क्योंकि हम अगर
चौदहवें में
प्रवेश कर गए
तो शरीर छूट
जाएगा। शरीर
छूट जाएगा तो
हम किसी के
काम न आ सकेंगे।
संबंध टूट
जाएंगे।
बौद्धों
में कथा है कि
बुद्ध जब
स्वर्ग या मोक्ष
के द्वार पर
पहुंचे, द्वार
खुला तो वे
खड़े रह गए।
द्वारपाल ने
कहा, आप
प्रवेश करें।
बुद्ध ने कहा
कि नहीं, अभी
नहीं। अभी
बहुत हैं मेरे
पीछे, जो
अंधेरे में
भटकते हैं। जो
रोशनी मुझे
मिली है, जब
तक उन तक न
पहुंचा दूं तब
तक मैं प्रवेश
न करूंगा।
यह तेरहवें
गुणस्थान
में रुक जाने
की बात है।
इसका अर्थ हुआ, जो व्यक्ति
भगवत्ता को
उपलब्ध हो गया
है, वह
कहता है थोड़ी
देर और अभी इस
देह में
रहूंगा।
क्योंकि इस
देह से ही
उनके साथ
संबंध बना सकता
हूं, जो
अभी देह को ही
अपना होना
समझते हैं। इस
देह से ही कोई
संवाद हो सकता
है उनके साथ, जिन्होंने
देह में ही
अपने प्राणों
को आरोपित कर
लिया है; जो
देह के साथ
तादात्म्य-रूप
हो गए हैं।
देह
में रुक जाने
की आकांक्षा
को जैनों ने
तीर्थंकर कर्मबंध
कहा है। जो
तेरहवीं
अवस्था में
रुक जाता है करुणावश, कि पीछे
चलते लोगों को
थोड़ी सहायता
पहुंचा सकूं;
जो मुझे
मिला है वह
बांट भी सकूं;
जो मैंने
पाया है उसे
और भी पा
सकें।
ऐसी
कोई मजबूरी
नहीं है। अगर
तेरहवीं गुणअवस्था
में किसी
व्यक्ति ने
चेष्टा न की
तो वह अपने आप
चौदहवीं में
सरक जाएगा।
तेरहवीं
अवस्था से चौदहवीं
में जाना ऐसा
है, जैसे कि
बड़ी कोई ढलान
पर उतर रहा हो,
या नदी की
गहन धार में
बहा जाता हो
जहां पैर जमाकर
खड़ा होना
मुश्किल हो
जाए।
इसलिए
जगत में
तेरहवीं
अवस्था को
जैसे ही लोग उपलब्ध
होते हैं, तत्क्षण
चौदहवीं
अवस्था में
प्रवेश हो
जाते हैं--या
थोड़ी
देर-अबेर।
ज्यादा देर
रुक नहीं पाते।
कुछ बलशाली
लोग ज्ञान के
बाद भी अज्ञान
के संसार में
पैरों को टेककर
खड़े रहे हैं।
उन
बलशाली
पुरुषों के
कारण ही संसार
एकदम अंधेरा
नहीं है, उसमें
कहीं-कहीं
दीये
टिमटिमाते
हैं--कोई बुद्ध,
कोई कृष्ण,
कोई
क्राइस्ट, कोई
महावीर, कोई
जरथुस्त्र, कोई
मोहम्मद।
कहीं
थोड़े-थोड़े
दीये
टिमटिमाते
हैं। यह इन
बलशाली
पुरुषों का...।
संसार
से छूटना बड़ा
कठिन है; लेकिन
उससे भी बड़ी
कठिन बात है, संसार से छूटकर
थोड़ी देर
संसार में रुक
जाना। अति
कठिन बात है।
संसार से
छूटना ही पहले
अति कठिन बात
है, फिर जब
छूटने की घड़ी
आ जाए तो उस
समय याद किसको
रहती है?
तुम
दुख में ही जीए
और अचानक महल
आ गया, सब
सुखों का
द्वार खुल गया,
तुम रुक
पाओगे, तुम
दौड़कर
महल में
प्रवेश कर
जाओगे। तुम
कहोगे, जन्मों-जन्मों
से जिसको खोजा
है वह सामने
खड़ा है। मंजिल
सामने तो खड़ी
है, अब
कैसा रुकना!
तुम एक क्षण
भी रुक न
पाओगे।
तो
तेरहवीं
अवस्था से कोई
गिरता तो नहीं
यह सच है, लेकिन
तेरहवीं
अवस्था में
कोई रुक सकता
है। कठिन है, अति दुर्गम
है, लेकिन
हुआ है।
तेरहवीं
अवस्था में जो
रुक गए हैं, वे ही
अवतारी पुरुष
हैं।
जैन
परिभाषा में
अवतार
परमात्मा के
घर से नहीं
आता। इसलिए
अवतार शब्द का
उपयोग जैन
नहीं करते।
अवतार शब्द का
ही मतलब है:
उतरे; अवतरित
हो ऊपर से आए।
जैन परिभाषा
में तो सभी नीचे
से ऊपर की तरफ
जाते हैं।
ऊर्ध्वगमन है
जगत में, अधोगमन
नहीं है।
अवतार का मतलब
तो हुआ, अधोगमन।
अवतार का तो
मतलब हुआ, असीम
सीमा में उतरा,
विराट
क्षुद्र हुआ,
महत छोटा
बना, आकाश
आंगन बना, असीम
ने सीमा में
अपने को
बांधा।
अवतरण
तो अधोगमन
हुआ। यह तो
पतन हुआ।
जिसको हिंदू
अवतार कहते
हैं, उसको जैन
मानता है कि
यह तो पतन है।
तो उसकी बात
में भी बल है।
पतन तो है ही।
जैसे
परमात्मा च्युत
हुआ। यह तो हो
नहीं सकता।
परमात्मा
च्युत हो ही
नहीं सकता।
इसलिए जैन
कहते हैं
सिर्फ
ऊर्ध्वगमन
होता है, सिर्फ
उत्क्रांति
होती है, सिर्फ
विकास होता
है। पीछे कोई
जाता ही नहीं,
आगे ही जाना
है। जाना
मात्र आगे की
तरफ है। हम ऊपर
ही उठते हैं।
इसलिए
तेरहवीं
अवस्था में
पहुंचा हुआ
व्यक्ति
अवतारी पुरुष
है। आया है
लंबी यात्रा
पार करके।
जन्मों-जन्मों
में बारह
अवस्थाएं
पूरी की हैं, तेरहवीं पर
आया, भगवान
हुआ।
यह
भगवान का अर्थ
भी समझ लेना।
हिंदू सोचते
हैं, भगवान का
अर्थ, जिसने
संसार बनाया।
जैनों
में भगवान का
वैसा अर्थ
नहीं है।
संसार को तो
किसी ने बनाया
नहीं। कोई
स्रष्टा तो
नहीं है।
लेकिन जिसने
अपने को बना
लिया, वह
भगवान। इन
बारह सीढ़ियों
से गुजरकर जो
तेरहवीं पर आ
गया, वही
भगवान।
इसलिए
भगवान एकवाची
भी नहीं है।
ऐसा नहीं है
कि एक भगवान
है। जितनी
आत्माएं हैं
उतने भगवान के
होने की
संभावना है।
अनंत भगवान के
होने की
संभावना है।
हिंदू कहते
हैं भगवान
अनंत हैं, जैन कहते
हैं अनंत हैं
भगवान।
प्रत्येक
जीवन-ऊर्जा
किसी न किसी
दिन तेरहवें
गुणस्थान
में
आएगी--देर-अबेर।
भटकोगे...कितना
भटकोगे? किसी न किसी
दिन पीड़ा से थकेऱ्हारे,
टूटे घर
आओगे। उस तेरहवें
गुणस्थान
में भगवत्ता
उपलब्ध होगी।
यह जो
भगवान की
तेरहवीं अवस्था
है, इससे कोई
च्युत तो नहीं
हो सकता।
च्युत होना होता
ही नहीं।
लेकिन कोई
चाहे तो रुक
सकता है। चौदहवीं
अवस्था को आने
से रोक सकता
है। बड़ी प्रगाढ़
करुणा करनी
पड़े। करुणा को
ऐसी प्रगाढ़ता
से करना पड़े
कि वह
करीब-करीब
वासना बन जाए।
सांसारिक
आदमी जैसे
वासना से बंधा
है और संसार
से नहीं छूटता,
ऐसे तेरहवें
गुणस्थान
में पहुंचा
हुआ व्यक्ति
करुणा की
जंजीरें ढालता
है; करुणा
से बंधता
है। रुकता है
कि किसी तरह
थोड़ा साथ, थोड़ा
संग, थोड़ी
पुकार दे सके।
उसकी नाव आ
लगी, उस
पार जाने का
निमंत्रण आ
पहुंचा, फिर
भी वह हजार
उपाय करता है
कि इस किनारे
पर थोड़ी देर
रुक जाए।
अलग-अलग
सदगुरुओं
ने अलग-अलग
उपाय किए हैं, कैसे इस
किनारे पर
थोड़ी देर और
रुक जाएं कि
तुमसे थोड़ी
बात हो सके, कि तुम्हें
थोड़ा संदेश
दिया जा सके; कि तुम्हारी
नींद को थोड़ा
हिलाया जा सके;
कि
तुम्हारे
स्वप्न थोड़े
तोड़े जा सकें।
अपने
आप रुकना नहीं
होता। अपने आप
तो तेरहवें
गुणस्थान
से चौदहवां गुणस्थान
सहज घट जाता
है। जैसे बड़ी
चिकनी भूमि हो
और तुम खिसक
जाओ, रपट जाओ।
बड़ी रपटीली
भूमि हो और
ढलान हो। तेरहवें
से चौदहवां
इतने करीब है,
और इतना
आकर्षक है, इतना मोहक
है कि कौन
रुकना चाहेगा?
फिर
रुकना कठिन भी
है। इसलिए जैन
कहते हैं, हजारों लोग केवलज्ञान
को उपलब्ध
होते हैं, कभी
कोई एकाध
तीर्थंकर हो
पाता है।
तीर्थंकर का
अर्थ है, जो
तेरहवें
में
रुकता--बलपूर्वक,
चेष्टापूर्वक।
चौदहवें
का अर्थ है, शरीर से
संबंध का टूट
जाना। जो तेरहवें
में हुआ है, उससे कुछ
ज्यादा नहीं
होता चौदहवें
में। जो तेरहवें
में है, उससे
चौदहवें में
कुछ कम हो
जाता है बस, ज्यादा नहीं
होता। तेरहवें
तक शरीर का
साथ है, चौदहवें
में शुद्ध
आत्मा रह जाती
है, शरीर
से संबंध छूट
जाता है।
तीसरा
प्रश्न:
महावीर
ने वैराग्य और
ध्यान के
मार्ग को चौदह
सीढ़ियों में
बांटा है।
क्या प्रेम के
मार्ग की भी
ऐसी कोई
व्याख्या है? कृपया इस पर
कुछ कहें।
प्रेम
को बांटने का
कोई उपाय
नहीं।
क्योंकि
प्रेम छलांग
है। ज्ञान
क्रमिक है, प्रेम छलांग
है। ज्ञान
इंच-इंच चलता,
कदम-कदम
चलता। प्रेम
इंच-इंच नहीं
चलता, कदम-कदम
नहीं चलता।
ज्ञान
बड़ा होशियार
है, प्रेम
बड़ा पागल है।
इसलिए ये जो गुणस्थान
हैं, ज्ञान
के साधक के
लिए हैं।
भक्ति के
मार्ग पर कोई गुणस्थान
नहीं हैं।
भक्त
जानता नहीं
विभाजन को।
भक्त जानता ही
नहीं कोटियों
को। भक्त
जानता ही नहीं
विश्लेषण को।
भक्त की पहचान
तो संश्लेषण
से है--सिन्थेसिस।
भक्त की तो
पहचान चीजों
को जहां-जहां
भेद हो वहां
अभेद देखने की
है।
ज्ञानी
की सारी
चेष्टा जहां
अभेद भी हो, वहां भेद
पहचानने की
है। महावीर ने
तो अपने पूरे
शास्त्र को
भेद-विज्ञान
कहा है। कहा
कि यह भेद को
पहचानने की
कला है।
पहचानना है कि
शरीर क्या है,
आत्मा क्या
है। पहचानना
है कि संसार
क्या है, मोक्ष
क्या है।
एक-एक चीज
पहचानते जाना
है। एक-एक चीज
का ठीक-ठीक
ब्यौरा और
ठीक-ठीक
विश्लेषण
करना है। ठीक
विश्लेषण
करने से ही
कोई मुक्त
अवस्था को
उपलब्ध होता
है। ज्ञान का
खोजी विश्लेषण
करता है।
विश्लेषण
उसकी विधि है।
वह कैटेगरीज
बनाता है, कोटियां
बनाता है।
उसका ढंग
वैज्ञानिक
है।
भक्त, प्रेमी
कोटियां तोड़ता
है। सब
कोटियां को
गड्डमड्ड कर
देता है। दीवाना
है, पागल
है। पागलों ने
कहीं हिसाब
लगाए?
तो यह
तो पूछो ही मत, कि क्या
भक्ति के
मार्ग पर भी, प्रेम के
मार्ग पर भी
इसी तरह की
कोटियां हो
सकती हैं, विभाजन
हो सकता है? संभव नहीं
है।
एक
आदमी धन
इकट्ठा करता
है तो
धीरे-धीरे
करता है।
लुटेरा आता है, लूटकर ले जाता है
इकट्ठा।
रामकृष्ण
के पास एक
आदमी हजार
सोने की
मोहरें लेकर
आया। कहा, स्वीकार कर
लें।
रामकृष्ण ने
कहा, अब तुम
तो ले आए तो
चलो स्वीकार
कर लिया।
लेकिन मैं
क्या करूंगा।
तुमने तो अपना
बोझा छुड़ाया,
मुझ पर डाल
दिया। ऐसा करो,
मैंने
स्वीकार कर
लीं। अब मेरी
तरफ से इनको
बांधकर गंगा
में डाल आओ।
उस
आदमी ने पोटली
बांधी बड़े
बेमन से। हजार
बार सोचने लगा
कि यह क्या
हुआ! मगर अब कुछ
कह भी न सका।
भेंट कर दीं।
और यह आदमी
पागल है। यह
कह रहा है, गंगा में
फेंक आ। गया
बेमन से। बड़ी
देर लगा दी, आया नहीं तो
रामकृष्ण ने
कहा, जरा
पता तो लगओ।
वह गंगा
पहुंचा कि घर
भाग गया? वह
है कहां? अब
तक लौटा नहीं।
भेजा
देखने को, तो देखा कि
वह गंगा के
किनारे पर
बैठकर...बड़ी
भीड़ इकट्ठी हो
गई है। वह
पहले पटक- पटककर
खनखना-खनखनाकर
गिनती कर रहा
है। एक-एक
गिनकर फेंक
रहा है। किसी
ने खबर दी
रामकृष्ण को।
वे गए और
उन्होंने कहा,
पागल! जोड़ना
हो तो गिनती
करनी पड़ती है,
फेंकने के
लिए क्या
गिनती कर रहा
है? अरे! नौ
सौ निन्यानबे
हुईं तो भी
चलेगा। एक
हजार एक हुईं
तो भी चलेगा।
बांध पोटली, इकट्ठी
फेंक! यह क्या
गिनती कर रहा
है?
वह
पुरानी आदत
रही होगी--जोड़नेवाले
की आदत, गिनती
करने की। वह
पुराने हिसाब
से जैसे अपनी दुकान
पर बैठकर खनखनाकर
देखता होगा।
असली है कि
नकली है, वह
अभी भी कर रहा
है। अब पूरी
प्रक्रिया
उलटी हो गई।
प्र्रेम
तो डूबना
जानता है।
यह
कौन आया रहजन
की तरह
जो
दिल की बस्ती
लूट गया
आराम
का दामन चाक
हुआ
तसकीन
का रिश्ता टूट
गया
यह
कौन आया रहजन
की तरह
जो
दिल की बस्ती
लूट गया
डाकू
की तरह आता है
परमात्मा।
इसलिए तो
हिंदू परमात्मा
को हरि कहते
हैं। हरि यानी
लुटेरा: हर ले
जाए जो; झपट
ले। रहजन
की तरह आ
जाए--डाकू। जो
लूट ले।
यह
कौन आया रहजन
की तरह
जो
दिल की बस्ती
लूट गया
प्रेम
कुछ तुम्हारे
बस में थोड़े
ही है। ध्यान तुम्हारे
बस में है।
ज्ञान
तुम्हारे बस
में है। त्याग, तपश्चर्या
तुम्हारे बस
में है, प्रेम
तुम्हारे बस
में थोड़े ही
है। किसी अज्ञात
क्षण में, किसी
अनजानी घड़ी
में, किसी
सौभाग्य की
घड़ी में आ
जाता है कोई
और लूट ले
जाता है।
आराम
का दामन चाक
हुआ
प्रेम
के पहले आदमी
आराम से जीता
है। प्रेम के
बाद फिर आराम
नहीं। प्रेम
के पहले तो
आदमी जानता ही
नहीं कि पीड़ा
क्या है।
प्रेम के बाद
ही जानता है
कि पीड़ा क्या
है। क्योंकि
प्रेम में जलता
है, पिघलता
है, गलता
है, मिटता
है।
आराम
का दामन चाक
हुआ
तसकीन
का रिश्ता टूट
गया
प्रेम
के पहले
जिंदगी बड़ी
धीमी-धीमी
चलती है, धीरज
से चलती है।
कहीं कोई दौड़,
छलांग
नहीं। आदमी
सावधानी से
चलता है।
प्रेम के बाद
मस्ती पकड़
लेती है। फिर
कहां धीरज? फिर कहां
धैर्य! फिर
कैसा आराम।
बुद्धि
तो बड़ा सोच-विचारकर
कहीं झुकती
है। हृदय झुका
ही हुआ है।
अगर इसे तुम
ठीक से समझ
सको तो ऐसा
समझना, हृदय
तो तुम्हारा
अभी भी भक्ति
में डूबा हुआ
है। तुम्हारा
अपने हृदय से
संबंध छूट गया
है। तुम अपनी
बुद्धि में
समा गए। अपनी
खोपड़ी में
निवास कर लिया
है। वहीं रह
गए। अटक गए
वहीं। उलझ गए
वहीं।
हृदय
तो अब भी
प्रार्थना कर
रहा है। हृदय
तो अभी भी
नमाज पढ़ रहा
है। हृदय तो
अभी भी डूबा
है। हृदय का
होना ही
परमात्मा में है।
वे जो
बुद्धि में
भटक गए हैं और
जिनको हृदय का
रास्ता नहीं
मिलता, उनके
लिए चौदह गुणस्थान
हैं। जिनको
हृदय करीब है
और जिन्हें
कोई अड़चन नहीं,
जो सरलता से
हृदय में उतर
सकते हैं, उनके
लिए कोई गुणस्थान
नहीं, कोई
भेद-विभाजन
नहीं। उनके
लिए न कोई
शास्त्र है, न कोई साधना
है।
जवानी
मोहब्बत, वफा
नाउम्मीदी
यह
है मुख्तसर-सा
हमारा फसाना
किए
दिल ने हरेक
जगह तुझको
सिजदे
जबीं ढूंढ़ती ही
रही आस्ताना
बुद्धि
ढूंढ़ती
ही रही कि
कहां है वह
जगह, जहां सिर झुकाऊं।
जबीं ढूंढ़ती ही
रही आस्ताना
देहली ढूंढ़ती ही
रही कि कहां
सिर को रखूं, कहां माथा टेकूं? कहां
मंदिर? कहां
मस्जिद?
जबीं ढूंढ़ती ही
रही आस्ताना
किए
दिल ने हरेक
जगह तुझको
सिजदे
और दिल
तो हर जगह
तेरी
प्रार्थना
करता रहा, तेरी पूजा
में लीन रहा।
दिल तो पूजा
में डूबा ही
है। वहां तो
जल ही रहा
दीया। वहां तो
धूप उठ ही
रही। वहां तो
वेदी सजी है।
जो
बुद्धि में
बहुत बुरी तरह
खो गए हैं--बुद्धि
के अरण्य में, विचारों के
जंगल में, जंजाल
में, उनके
लिए ज्ञान का
रास्ता है।
इसलिए
जैन शास्त्र
अत्यंत
बौद्धिक हैं, रूखे हैं।
गणित की तरह
हैं।
आइंस्टीन की
किताब पढ़ो
कि जैन
शास्त्र पढ़ो,
एक से हैं।
न्यूटन को पढ़ो
कि अरिस्टोटल
को पढ़ो कि
जैन शास्त्र पढ़ो, एक
से हैं।
बहुत
बार कई जैनों
ने मेरे पास
आकर कहा है कि
कभी आप कुंदकुंद
पर बोलें। कई
दफे उनकी बात
सुनकर मैं भी कुंदकुंद
की किताब उलटाकर
देखता हूं, फिर बंद कर
देता हूं।
बिलकुल
रूखा-सूखा है।
मैं भी चेष्टा
करके कविता उसमें
डाल न सकूंगा।
बड़ी अड़चन
होगी। काव्य
है ही नहीं।
रसधार बहती ही
नहीं।
सीधा-सीधा
गणित का हिसाब
है--दो और दो
चार।
जैन
शास्त्र पैदा
ही तब हुए, जब भारत एक
बड़ी बौद्धिक
क्रांति से
गुजर रहा था।
सारा देश बड़े
चिंतन में लीन
था। सदियों के
चिंतन के बाद
निष्कर्ष लिए
जा रहे थे।
ऐसा भारत में
ही था ऐसा
नहीं, सारी
दुनिया में एक
महत ऊर्जा उठी
थी। भारत में
बुद्ध थे, महावीर
थे, मक्खली गोशाल
था, अजित केशकंबल
था, निगंठनाथपुत्त महावीर थे।
यूनान में थेलीस,
सुकरात, प्लेटो,
अरिस्टोटल। ईरान में
जरथुस्त्र।
चीन में कन्फ्यूसियस,
लाओत्सु, च्वांगत्सु,
लीहत्सु।
सारी
दुनिया में एक
बड़ी तीव्र उत्क्रांति
हो रही थी। सब
तरफ हवा गर्म
थी। विचार कसे
जा रहे थे।
विचार, तर्क,
चिंतन, मनन
अपनी आखिरी
कसौटी छू रहा
था, आखिरी
ऊंचाई छू रहा
था। उस
उत्तुंग क्षण
में जिन-सूत्र
रचे गए। वे उस
दिन की पूरी
खबर लाते हैं,
उस दिन का
पूरा वातावरण,
उस दिन की
पूरी हवा और
मौसम उनमें
छिपा हुआ है।
भक्त
बड़े और ढंग से
जीता है। भक्त
का मार्ग स्त्रैण
है। इसीलिए
जैन तो मानते
ही नहीं कि
स्त्री का
मोक्ष हो सकता
है। उस मानने
में बड़ा विचार
है।
एक बात
निश्चित है, जैन शास्त्र
में स्त्री का
मोक्ष नहीं हो
सकता। स्त्री
का हो सकता है
कि नहीं इस पर
पूरा, किसी
को कोई दावा
नहीं कहने का;
लेकिन इतनी
बात पक्की है
कि जैन
शास्त्र से तो
नहीं हो सकता।
क्योंकि जैन
शास्त्र से
स्त्री का मेल
ही नहीं बैठ
सकता। वह
उनमें हृदय है
ही नहीं।
उसमें तो सभी
पुरुषों का भी
बैठ जाए मेल, यह भी कठिन
मालूम होता
है।
तो जैन
शास्त्र ठीक
ही कहते हैं
कि स्त्री का मोक्ष
नहीं हो सकता।
क्योंकि जैन
शास्त्र पुरुष
मन की खोज
है--तर्क, चिंतन,
मनन। प्रेम
की खोज नहीं
है। इसलिए एक
बड़ी अनूठी
घटना घटी।
जैनों का एक
तीर्थंकर--तेईसवां--एक
तीर्थंकर
स्त्री थी।
नाम है मल्लीबाई।
लेकिन जैनों
ने मल्लीबाई
को मल्लीबाई
लिखना भी पसंद
न किया। वे
उसको मल्लीनाथ
लिखते हैं। वह
थी तो स्त्री,
लेकिन बना
दिया पुरुष।
वे मानते नहीं
कि मल्लीबाई
स्त्री थी। वे
कहते हैं, मल्लीनाथ। और मुझे भी
लगता है, वे
ठीक कहते हैं।
वह चाहे देखने
में स्त्री
रही हो, भीतर
से पुरुष ही
रही होगी।
इसलिए नाम
बदला तो ठीक
ही किया। मल्लीबाई
मल्लीनाथ
ही रही होगी।
हृदय तो नहीं
रहा होगा।
इसलिए बात तो
ठीक ही लगती
है।
पुरुष
का चित्त तो
तर्क की धार
है, गणित का
हिसाब है, विज्ञान
का फैलाव है।
विश्लेषण
उसका द्वार
है। स्त्री का
चित्त अलग ढंग
से धड़कता।
हृदय, प्रेम,
रस--"रसो
वै सः'।
स्त्री के लिए
परमात्मा
रस-रूप है, कृष्ण-रूप
है। सत्य यानी
प्रीतम। सत्य
यानी सिर्फ
गणित का कोई
अंतिम
निष्कर्ष
नहीं। सत्य यानी
जहां हृदय झुक
जाए।
किए
दिल ने हरेक
जगह तुझको
सिजदे
जबीं ढूंढ़ती ही
रही आस्ताना
हृदय
झुकता ही रहा।
जहां गया वहीं
अपने प्रीतम
को खोज लिया।
और बुद्धि
खोजती ही रही
कि वह जगह
कहां है, जहां
मैं झुकूं?
बुद्धि
खोज-खोजकर जगह
नहीं पाती कि
कहां झुकूं;
और हृदय को
बिना खोजे
जगह मिल जाती
है। हृदय की
एक छलांग है।
और जब मैं
कह रहा हूं
स्त्री-चित्त, तो तुम यह मत
सोचना कि तुम
पुरुष हो तो
प्रेम तुम्हारे
लिए नहीं। और
तुम ऐसा भी मत
सोचना कि तुम
स्त्री हो तो
जिन-सूत्र
तुम्हारे लिए
नहीं है। शरीर
से स्त्री और
पुरुष होना एक
बात है, चित्त
से स्त्री और
पुरुष होना
बिलकुल दूसरी बात
है।
अगर
जैनों ने मल्लीबाई
को मल्लीनाथ
कहा, तो ठीक
ऐसे ही चैतन्य
महाप्रभु को चैतन्यबाई
कहा जा सकता
है। वह
स्त्रैण
चित्त है। वह
गौरांग का
नाचता हुआ
रूप!--जैसे
राधा हो गए।
किसी ने ऐसी
हिम्मत नहीं
की। क्योंकि
स्त्री को पुरुष
बनाना तो आसान
मालूम होता
है। कहते हैं,
"खूब लड़ी मर्दानी
वह तो झांसीवाली
रानी थी।' लेकिन
किसी पुरुष को
नामर्द कहो तो
झगड़ा खड़ा
हो जाता है।
पुरुषों
की दुनिया है
यह। यहां
स्त्री को अगर
पुरुष कहो तो
मालूम होता है, प्रशंसा कर
रहे हो। और
अगर पुरुष को
स्त्री कहो तो
लगता है निंदा
हो गई। चूंकि
पुरुष ने ही
सारे मापदंड
तय किए हैं।
लेकिन
मैं तुमसे
कहता हूं, यह बात गलत
है। अगर मल्लीबाई
मल्लीनाथ
कही जा सकती
है तो क्यों
नहीं चैतन्य
को चैतन्यबाई
कहो? ज्यादा
उचित होगा।
ठीक-ठीक खबर
मिलेगी।
तो तुम
ऊपर शरीर को
आईने में
देखकर तय मत
कर लेना, भीतर
खोजबीन करना।
अगर तुम हृदय
की तरफ झुके
हो तो तुम
स्त्रैण हो।
अगर तुम
बुद्धि की तरफ
झुके हो तो
तुम पुरुष हो।
जो
मनोवैज्ञानिक
मापदंड है वह
हृदय और बुद्धि
के बीच तय
होगा।
हृदय
का रास्ता
सुगम है। और
हृदय का
रास्ता अत्यंत
उल्लासपूर्ण
है। वहां कोई
खंड, कोटियां,
विभाजन
नहीं हैं।
इसलिए
महावीर तो
कहते हैं, मेरी दृष्टि
भेद-विज्ञान
की है। और
भक्त कहते हैं,
हमारी
दृष्टि
अभेद-विज्ञान
की है। हम एक
को ही देखते
हैं। अनेक में
भी एक को ही
देखते हैं। हमें
एक ही दिखाई
पड़ता है। सभी
रूप उसके
मालूम होते
हैं। सभी नाम
उसके मालूम
होते हैं। रूप
के कारण भक्त
धोखे में नहीं
पड़ता। आकृति
के कारण धोखे
में नहीं
पड़ता। वह सभी
आकृतियों में
छिपे निराकार
को देख लेता
है।
और
भक्ति को मैं
कहता हूं, वह एक छलांग
है। इसलिए
भक्ति तो एक
क्षण में भी
घट सकती है।
ज्ञान के लिए
सदियां लग
जाती हैं।
तुम्हारी
मर्जी! ज्ञान
से भी लोग
पहुंचते हैं।
कुछ
हैं, जो सीधी
तरह से कान पकड़ना
जानते ही
नहीं। करोगे
भी क्या? वे
चक्कर लगाकर,
हाथ से सिर
के पीछे से
घूमकर कान पकड़ते
हैं। कुछ को
अपने घर भी
आना हो तो वे
पहले सारी दुनिया
का चक्कर
लगाकर फिर घर
आते हैं। अगर
तुम चलते ही
रहो, चलते
ही रहो तो जमीन
गोल है, एक
दिन अपने घर आ
जाओगे
चलते-चलते-चलते।
मैंने
सुना है एक
आदमी भागा जा
रहा था। राह
किनारे बैठे
एक बूढ़े से
पूछा कि
दिल्ली कितनी
दूर है? सभी
लोग दिल्ली जा
रहे हैं तो वह
भी जा रहा होगा।
एक बुखार है, दिल्ली चलो।
उस बूढ़े ने
कहा, जिस
तरफ तुम भागे
जा रहे हो, अगर
उसी तरफ भागे
गए तो बहुत
दूर है
क्योंकि दिल्ली
पीछे छूट गई।
अगर तुम इसी
दिशा में भागे
चले जाओ तो
पहुंचोगे
जरूर एक दिन
दिल्ली, लेकिन
सारी दुनिया
का चक्कर
लगाकर
पहुंचोगे।
हजारों मील की
यात्रा है।
अगर लौट पड़ो
तो दिल्ली
बिलकुल पीछे
है। आठ मील
पीछे छोड़ आए
हो।
अगर
बुद्धि की तरफ
से गए तो बड़ी
लंबी यात्रा है।
पृथ्वी भी
इतनी बड़ी नहीं
है। क्योंकि
बुद्धि के
फैलाव का कोई
अंत ही नहीं
है। बुद्धि का
आकाश बहुत बड़ा
है।
मैंने
सुना है कि
शिव अपने
बेटों के साथ
खेल रहे हैं--कार्तिकेय
और गणेश। और
ऐसे ही खेल
में उन्होंने
कहा कि तुम
मानते हो कि
मैं ही यह
सारी सृष्टि
हूं? तो मेरे
भक्त को मेरी
परिक्रमा
कैसी करनी चाहिए,
तुम बताओ।
तो कार्तिकेय
तो बड़े
बुद्धिमान रहे
होंगे, ज्ञानी
रहे होंगे।
चले सारी
सृष्टि का
चक्कर लगाने।
शिव की परिक्रमा
करनी है। और
शिव यानी सारी
सृष्टि। सब
में व्याप्त
परमात्मा।
पता नहीं अभी
तक लौटे भी कि
नहीं
कार्तिकेय।
कहानी कुछ
कहती नहीं।
गणेश ने
ज्यादा
होशियारी की।
वजनी शरीर, हाथी की
सूंड! अब इतनी
बड़ी पृथ्वी का
चक्कर क्या? उन्होंने
शिव का चक्कर
लगाकर जल्दी
से वहीं बैठ
गए। हो गई!
सृष्टि की
परिक्रमा हो
गई। अगर शिव
ही समाए
हैं सारी
सृष्टि में तो
अब सारी
सृष्टि की परिक्रमा
क्या करनी!
शिव की कर ली
तो सारी सृष्टि
की हो गई।
कार्तिकेय ने
सोचा ठीक
उलटा। वह भी
ठीक है, वह
भी तर्क ठीक
है। कि जब
सारी सृष्टि
में समाए
हैं तो सारी सृष्टि
की जब
परिक्रमा
होगी तभी तो
परिक्रमा हो
पाएगी।
बुद्धि
यानी
कार्तिकेय।
हृदय यानी
गणेश। हृदय से
तो अभी घट
सकता है। ऐसा
एक चक्कर मारा
शिव का और बैठ
गए कि हो गई
बात पूरी।
लेकिन
बुद्धि से
बहुत लंबी
यात्रा
है--अनंत काल।
जो क्षण में
हो जाता है, वह शायद
अनंत काल में
ही हो पाए।
तुम पर निर्भर
है। किन्हीं-किन्हीं
को यात्रा का
ही सुख आता है
तो उन्हें
रोकने का कोई
कारण नहीं।
लेकिन
अपने भीतर ठीक
से जांच कर
लेना। भक्त के
लिए तो भगवान
चुपचाप आ जाता
है। अचानक आ
जाता है।
एक
दिन चुपचाप
अपने आप
यानी
बिन बुलाए तुम
चले आए
मुझे
ऐसा लगा, जैसे
लगा था रातभर
इसकी
प्रतीक्षा
में कि दोनों
हाथ फैलाकर
तुम्हें
उल्लास से
खींचा
सबेरे
की किरण-कुसुम
को हाथ से सींचा
एक
दिन चुपचाप
अपने आप
यानी
बिन बुलाए तुम
चले आए
भक्त
तो सिर्फ
प्रतीक्षा
करता है। कहां
जाए खोजने? कहां है
परमात्मा या
कहां परमात्मा
नहीं है? कहां
खोजने जाए? या तो सब जगह
है या कहीं
नहीं है। कहां
खोजने जाए? परमात्मा की
कोई दिशा तो
नहीं। भक्त
सिर्फ प्रतीक्षा
करना जानता
है। रोता है, प्रार्थना
करता है, आंसू
गिराता है।
एक
दिन चुपचाप
अपने आप
यानी
बिन बुलाए तुम
चले आए
भक्त
तो कहता है हम बुलाएं भी
किस जबान से? किस जुबां
से? किन
ओंठों से लें
तेरा नाम? ओंठ
हमारे झूठे
हैं। और उनसे
हम और बहुत
नाम ले चुके
हैं। कैसे
पुकारें तुझे?
हमारी सब
पुकार बड़ी
छोटी है, क्षीण
है। कहां खो
जाएगी इस
विराट में, पता भी न
चलेगा।
एक
दिन चुपचाप
अपने आप
यानी
बिन बुलाए तुम
चले आए
मुझे
ऐसा लगा, जैसे
लगा था रातभर
इसकी
प्रतीक्षा
में...
और
भक्त कहता है, वे जो बीत
गईं जीवन की
घड़ियां, बस
एक रात थी, जो
प्रतीक्षा
में बीत गई।
कि
दोनों हाथ
फैलाकर
तुम्हें
उल्लास से
खींचा
सबेरे
की किरण-कुसुम
को हाथ से सींचा
भक्त
को भगवान मिलता
है। भक्त को
भगवान स्वयं
खोजता है।
ज्ञानी सत्य
की खोज करता
है। भक्त को
भगवान खोजता
है। भक्त कहीं
जाता-आता
नहीं।
किन्हीं
सीढ़ियों पर
यात्रा नहीं
करता...।
पीड़ ऐसी
कि घटा छायी
है
ठंडी
यह सांस की
पुरवाई है
तुझको
मालूम क्या है
आज यहां
बरखा
बादल के बिना
आयी है
वर्षा
हो जाती है
बादल के बिना
आए। उसका
अमृत-घट भर
जाता है। बादल
भी नहीं उमड़ते-घुमड़ते
और वर्षा हो
जाती है।
अतक्र्य
है भक्त का
मिलन
परमात्मा से।
ज्ञानी का तो
तर्क है।
ज्ञानी का तो
बिलकुल
साफ-साफ है।
रत्ती-रत्ती
का उत्तर है।
ज्ञानी
अर्जित करता
है। भक्त के
लिए भगवान
प्रसाद-रूप
है। भक्त कहता
है, मेरे किए
मिलेगा यह
संभव ही नहीं
है। मेरे किए
ही तो चूक रहा
है। मेरे कारण
ही तो बाधा पड़
रही है। भक्त
अपनी बाधा हटा
लेता है।
ज्ञानी
जिस दिन पाता
है, उस दिन
किसी को
धन्यवाद देने
की भी जरूरत
नहीं है।
क्योंकि उसने
अर्जित किया है।
इसलिए महावीर
की संस्कृति
का नाम पड़ गया
है श्रमण
संस्कृति।
श्रम से पाया
है, चेष्टा
से पाया है, पुरुषार्थ
से पाया है।
भक्त
तो कहता है, भगवान
प्रसाद-रूप
मिला है।
मैंने पाया, ऐसी बात ही
गलत है।
ज्ञानी
तो कहता है, जब तक मैं
पूर्ण न हो
जाऊं तब तक
कैसे सत्य मिलेगा?
इसलिए
ज्ञानी अपने
को पूर्ण करने
में लगता है।
ज्ञानी की
साधना है, भक्त
की तो सिर्फ
प्रार्थना
है। भक्त कहता
है, पूर्ण
और मैं? होनेवाला
नहीं। मिलोगे
तो अपूर्ण में
ही मिलन होगा।
मर्जी हो तो
जैसा हूं, ऐसा
ही स्वीकार कर
लो। मुझसे यह
सधेगा न, कि
मैं पूर्ण हो
सकूं।
तो
ज्ञान में एक
खतरा है कि
अहंकार बच
जाए। भक्ति
में अहंकार का
खतरा नहीं है।
भक्ति का खतरा
दूसरा है--कि
आलस्य का नाम
भक्ति बन जाए।
ज्ञान में
आलस्य का खतरा
नहीं है।
दोनों के खतरे
हैं, दोनों के
लाभ हैं।
ज्ञानी का
खतरा है कि
अहंकारी हो
जाए कि मैंने
अर्जित किया।
भक्त का खतरा
है कि आलस्य
प्रतीक्षा बन
जाए। आलस्य
प्रतीक्षा
नहीं है।
प्रतीक्षा
बड़ी सक्रिय
चित्त की दशा
है, सक्रिय
और निष्क्रिय
एक साथ। बड़ी
तीव्र प्यास
की दशा है।
तुमने
कभी देखा? ओलंपिक के
चित्र देखे
होंगे। दौड़ के
लिए प्रतियोगी
खड़े होते हैं
रेखा पर। सीटी
बजने की
प्रतीक्षा
है। दौड़े नहीं
हैं अभी।
ऊर्जा से भरे
खड़े हैं। एक
क्षण, एक-एक
क्षण सूचना की
प्रतीक्षा है,
और दौड़
पड़ेंगे। दौड़े
नहीं हैं अभी,
लेकिन
ऊर्जा से भरे
खड़े हैं।
ऐसी ही
दशा भक्त की
है। खोजने
नहीं जाता
लेकिन आलस्य
में नहीं है।
बड़ी त्वरा से
भरा है।
एक गीत
कल मैं पढ़ रहा
था। है तो इस
संसार के प्रेम
का गीत लेकिन
प्रेम इस
संसार का हो
कि उस संसार
का, बहुत भेद
नहीं।
देखती
ही न दर्पण
रहो प्राण तुम
प्यार
का महूरत निकल
जाएगा
कौन
शृंगार पूरा
यहां कर सका
सेज
जो भी सजी सो
अधूरी सजी
हार
जो भी गुंथा
सो अधूरा गुंथा
बीन
जो भी बजी सो
अधूरी बजी
हम
अधूरे, अधूरा
हमारा सृजन
पूर्ण
तो बस एक
प्रेम ही है
यहां
कांच
से ही ना
नजरें मिलाती
रहो
बिंब
को मूक
प्रतिबिंब छल
जाएगा
देखती
ही न दर्पण
रहो प्राण तुम
प्यार
का यह महूरत
निकल जाएगा
भक्त
कहता है, हम
तो अपूर्ण
हैं। कब तक
सजते-संवरते
रहें? तुम
हमें ऐसे ही
स्वीकार कर
लो। हम कभी
पूर्ण हो
पाएंगे इसकी
संभावना भी
नहीं। लेकिन
हमारा प्रेम
पूर्ण है। हम
अपूर्ण होंगे,
हमारी चाह
पूर्ण है।
हमारी चाहत
देखो।
कौन
शृंगार पूरा
यहां कर सका
सेज
जो भी सजी सो
अधूरी सजी
हार
जो भी गुंथा
सो अधूरा गुंथा
बीन जो
भी बजी सो
अधूरी बजी
हम
अधूरे, अधूरा
हमारा सृजन
पूर्ण
तो बस एक
प्रेम ही है
यहां
कांच
से ही नजरें
ना मिलाती रहो
बिंब
को मूक
प्रतिबिंब छल
जाएगा
भक्त
कहता है, जो
अभी मिल सकता
है उसे कल पर
मत टालो। जो
इसी क्षण घट
सकता है, उसे
कल पर मत
टालो। मत कहो
कि हम तैयार
होंगे। हम
सीमित हैं।
हमारी सीमाएं
हैं। हम
अपूर्ण हैं।
हमारी चाहत
पूर्ण हो सकती
है, हमारी
अभीप्सा
पूर्ण हो सकती
है, लेकिन
हम पूर्ण नहीं
हो सकते।
यहां
फर्क तुम
समझने की
कोशिश करना।
ज्ञानी कहता
है, चाहत छोड़ो
और पूर्ण बनो।
भक्त कहता है,
चाहत को
पूर्ण करो; तुम्हारी
पूर्णता-अपूर्णता
की चिंता न
करो। दोनों
विपरीत, लेकिन
पहुंच जाते
हैं एक ही
शिखर पर।
चौथा
प्रश्न:
रजनीश
एशो आमी तोमार
बोइरागी
आमी
पूना गेलाम, आमी काशी गेलाम
लाओ
री लाओ संगे
डुगडुगी
बहुत
हंसी आती है।
अब तो डुगडुगी
के सिवा कुछ बचा
नहीं है।
डुगडुगी
ही बच जाए तो
सब बच गया।
डुगडुगी खो
जाए तो सब खो
गया। तुम
डुगडुगी हो
जाओ तो सब हो
गया। आह्लाद!
नृत्य!
तुम्हारे
भीतर के स्वर
नाचने लगें, गुनगुनाने
लगें, तो
निश्चित ही
फिर हंसी के
योग्य ही है
सब--सब खोजबीन,
सब दौड़धूप।
भक्त
तो उत्सव में
मानता है।
भक्त तो उत्सव
को ही पूजा और
प्रार्थना
बनाता है। यह
जगत एक
महोत्सव है।
इसमें तुम
नाहक
उदास-उदास बैठे
हो। सम्मिलित
हो जाओ। सब
थिरक रहा है, तुम भी थिरको।
सब नाच रहा
है। देखो चांदत्तारे,
देखो वृक्ष,
पशु-पक्षी,
देखो हवाएं,
अकाश में घिरे
बादल, ये
बूंदों की
टिपटिप! सब
नाच रहा है।
यहां थिर कोई
भी नहीं है।
सब फुदक रहे हैं।
सिर्फ आदमी
उदास है।
डुगडुगी
बनो। बजो।
बांसुरी बनो।
फूटने दो स्वर
को:
झरनों की तरह, चांदत्तारों की तरह।
नाचो, इस
महत नृत्य में
सम्मिलित हो
जाओ।
तब
जरूर हंसी
आएगी। हंसी
आएगी, नाहक
इतने दिन उदास
रहे। नाहक इतने
दिन रोए।
नाहक इतने दिन
वंचित रहे। जो
मिला ही था, उसके साथ
नाच क्यों न
सके? रास
हो ही रहा है।
यह ब्रह्मांड
रास की एक प्रक्रिया
है।
तुम्हें
सुनाई नहीं
पड़ता? बांसुरी
कभी बंद नहीं
हुई, बज ही
रही है। तुम
बहरे हुए हो।
अंधे हुए हो।
नाच हो ही रहा
है। ऐसा नहीं
था कि कुछ कभी
वृंदावन में
हुआ था, अब
नहीं हो रहा
है। परमात्मा
नाच ही रहा
है। जिनके पास
आंखें हैं, वे जहां भी
हैं, उन्हें
वहीं वृंदावन
के दर्शन हो
जाएंगे।
हंसी
तो आएगी।
क्योंकि तब
पता चलेगा कि
हम अकारण ही
परेशान थे।
हंसी अपने पर
आएगी। हंसी
औरों पर भी
आएगी, जो
अभी भी परेशान
हैं। हंसी
आएगी इस सारे
खेल पर।
इसीलिए
तो भक्तों ने
कहा है कि यह
जगत लीला है।
यह खेल है।
इसे बहुत
गंभीरता से मत
लो। गंभीरता
ज्ञानी का
मार्ग है; सरलता, उत्फुल्लता
भक्त का।
हंसी
तो आएगी
क्योंकि फिर
जो कहने योग्य
मालूम पड़ेगा
उसे कह भी न
सकोगे। हंसकर
ही कहा जा
सकता है या
रोकर कहा जा
सकता है। वाणी
बड़ी छोटी पड़
जाती है।
डुगडुगी
बजाकर ही कहा
जा सकता है।
शब-ए-वस्ल
की क्या कहूं
दास्तां
जबां थक
गई, गुफ्तगू
रह गई
उस
मिलन की रात
की कहानी क्या
कहूं? कैसे
कहूं?
जबां थक
गई, गुफ्तगू
रह गई
कहते-कहते
जबान तो थक गई
लेकिन जो कहना
चाहते थे, वह नहीं कहा
जा सका। बजाओ
डुगडुगी! उससे
ही कहो। नाचो!
ले लो एकतारा
हाथ में। और
जो तुम्हें
नाचकर मिलेगा,
वह किसी
शास्त्र से
किसी को कभी
नहीं मिला।
नृत्य
का अर्थ है, गीत का अर्थ
है, उत्सव
का अर्थ है कि
तुमने पैर से
पैर मिलाए अस्तित्व
के साथ। तुम
ऐसे किनारे पर
न खड़े रहे राह
के। जा रही थी
यात्रा, रथोत्सव
हो रहा था, तुम
भी सम्मिलित
हुए। नाचता जा
रहा है अस्तित्व
प्रतिपल। तुम
क्यों बैठे
किनारे? कैसे
उदास? कैसे
हताश?
उठो! लौटाओ
अपनी थिरक! इस
नाचते हुए
रासमंडल में
सम्मिलित हो
जाओ। खो जाओगे
उस नृत्य में।
तुम न बचोगे।
डुगडुगी
बजेगी तो तुम
न बचोगे।
भक्त
खोने की
तैयारी रखता।
ज्ञानी अपने
को बचाता, निखारता।
भक्त अपने को
डुबाता और
खोता।
मिलते
ही किसी के खो
गए हम
जागे
जो नसीब सो गए
हम
जब
वस्तुतः
भाग्य जागता
है, जब
वस्तुतः
वर्षा होती है,
जब वस्तुतः
अमृत के द्वार
मिलते हैं तो
तुम नहीं
बचते। कोई आज
तक परमात्मा
से मिला थोड़े
ही! मिलने के
पहले ही खो
जाता है।
मिलने की पहली
शर्त खो जाना
है।
मिलते
ही किसी के खो
गए हम
जागे
जो नसीब सो गए
हम
भक्त
के लिए
प्रतिपल
प्रतीक्षा का
है। वह राह देख
ही रहा है। कब
आ जाएंगे उसके
प्रीतम, कहा
नहीं जा सकता।
आज
आएंगे वो
गीतों को जरा
चुप कर दो
चांद
को नभ से उतारो
और द्वारे धर
दो
चलकर
आते हैं, थके
होंगे, चरण
धोने को
आंसू
यह कम हैं, जरा आंख में
शबनम भर दो
चलकर
आते हैं, थके
होंगे, चरण
धोने को
आंसू
यह कम हैं, जरा आंख में
शबनम भर दो
भक्त, भगवान है या
नहीं ऐसी
जिज्ञासा ही
नहीं करता। भगवान
आ ही रहा है।
भक्त को
प्रश्न ही
नहीं उठा है
भगवान के होने
न होने का।
जिसको
प्रश्न उठ गया, वह श्रद्धा
न कर पाएगा।
हम
भक्त की तरह
पैदा होते हैं, फिर विनष्ट
हो जाते हैं।
इसे थोड़ा
समझने की कोशिश
करना। प्रत्येक
बच्चा भक्त की
तरह पैदा होता
है। होना ही
चाहिए
क्योंकि
स्त्री के
गर्भ से पैदा
होता है। हृदय
के पास धड़कता
हुआ पैदा होता
है। होना ही
चाहिए
प्रत्येक बच्चा
भक्त की तरह
पैदा--श्रद्धा
से भरा, स्वीकार-भाव
से। "हां' हर
बच्चे का स्वर
है। धीरे-धीरे
"ना' सीखता
है, नहीं
सीखता है, नकार
सीखता है, नास्तिकता
सीखता है।
नास्तिकता
सीखी जाती है, आस्तिकता
हमारा स्वभाव
है।
नास्तिकता हम
बाहर से सीख
लेते हैं।
जीवन के कड़वे-मीठे
अनुभव, जीवन
की धोखाधड़ी
हमें
नास्तिकता के
लिए तत्पर कर
देती है। संदेह
हम सीखते हैं।
श्रद्धा हम
लेकर आते हैं।
नास्तिक कोई
पैदा नहीं
होता, नास्तिक
निर्मित होते
हैं। आस्तिक
पैदा होते
हैं। आस्तिक
हमारा स्वभाव
है।
छोटा
बच्चा "नहीं' कहना जानता
ही नहीं। कुछ
भी कहो, "हां'
कहता है।
अभी उसने
"नहीं' सीखी
नहीं है। अभी
जीवन ने उसे
इतना दुख नहीं
दिया कि वह
नहीं कहे। अभी
इनकार उसे आया
नहीं। अभी
किसी ने धोखाधड़ी
नहीं की। अभी
किसी ने वंचना
नहीं की। किसी
ने जेब नहीं
काटी। किसी ने
उसे सताया
नहीं। अभी वह
ना कहे कैसे?
आस्तिकता
स्वाभाविक
है। भक्ति हम
लेकर आते हैं।
संदेह हम
सीखते हैं।
संदेह बाहर से
उधार मिलता
है। अगर
तुम्हारे मन में
प्रश्न हैं तो
फिर तुम्हें
ज्ञान के
रास्ते पर
थोड़ी यात्रा
करनी होगी।
अगर कोई
प्रश्न नहीं
हैं जीवन में, और तुम्हारे
मन में संदेह
सहज नहीं उठता,
आदत गहरी
नहीं हुई
संदेह की तो
फिर कोई भी
अड़चन नहीं है।
तुम इसी क्षण
परमात्मा के
मंदिर में
प्रविष्ट हो
सकते हो। द्वार-दरवाजे
बंद भी नहीं
हैं।
पांचवां
प्रश्न:
ऐसा
लगता है कि अब
थोड़ी-सी आयु
ही बची है। न
जाने कौन कब
इस शरीर को
समाप्त कर दे!
इससे मन में एक
उतावलापन
रहता है कि जो
करना है, शीघ्रता से
करूं; अन्यथा
बिना कुछ पाए
ही चला जाना
होगा। भय या अड़चन
बिलकुल नहीं
लगती। हर क्षण
जाने को तैयार
हूं। दुबारा
आने से भी डर
नहीं लगता।
परंतु एक भय, एक अड़चन
अवश्य सताती
है कि उस समय
आप गुरु भगवान
तो नहीं
उपलब्ध
होंगे। क्या
मेरा उतावलापन
उचित है? मैं
क्या कर सकता
हूं? हर
प्रकार से
तैयार ही होकर
आया हूं।
ओमप्रकाश
सरस्वती ने
पूछा है। मैं
जानता हूं, वे पूरी तरह
तैयार होकर आए
हैं। वे कुछ
भी खोने को
तैयार हैं, कुछ भी देने
को तैयार हैं।
और उसी कारण
बाधा है।
हृदय
उनका भक्त का
है, ज्ञानी
का नहीं है।
अगर ज्ञानी का
उनका स्वभाव
होता तो सब
कुछ देने की
यह तैयारी
उन्हें गुणस्थानों
की सीढ़ियों पर
चढ़ा देती।
लेकिन बुद्धि
उनका स्वभाव
नहीं है, हृदय
उनका स्वभाव
है। इसलिए सब
देने की यह
तैयारी ही
बाधा है। इसे
भी छोड़ो।
उसका ही है, देना क्या
है? समर्पण
भी क्या करना
है? उसकी
ही वस्तुएं
उसे देते हुए
शर्म खाओ।
यह बात
ही भूलो
कि कुछ देना
है। यह बात ही भूलो कि कुछ
करना है। यह
पूछो ही मत कि
मैं क्या करूं? उतावलापन है?
उतावलेपन को
उतावलापन मत
कहो। वह शब्द
गलत है। उसे
प्रतीक्षा
कहो, त्वरित
प्रतीक्षा
कहो, त्वरा
से भरी
प्रतीक्षा
कहो, अभीप्सा
कहो।
उतावलापन गलत
व्याख्या है।
निश्चित
ही भक्त को भी
एक अधैर्य
होता है कि पता
नहीं कब मिलन
होगा! लेकिन
उसके अधैर्य
में एक सौंदर्य
है। वह अधैर्य
में भी शांति
से जीता है।
वह जानता है
कि मिलना तो
होगा; चाहता
है जल्दी हो
जाए।
उतावलेपन
में धीरज नहीं
है, सिर्फ
अधैर्य है।
अभीप्सा में
अधैर्य भी है
और धीरज भी
है। अभीप्सा
बड़ी पैराडाक्सिकल,
बड़ी
विरोधाभासी
स्थिति है। एक
तरफ वह जानता
है, मिलना
तो होना ही
है। वह तो
निश्चित है।
वह बात तो हो
ही गई। उसमें
कुछ सोचना
नहीं है।
दूसरी
तरफ वह कहता
है, अब जल्दी
हो जाए। अब और
देर न लगाओ।
अब कब से पलक-पांवड़े
बिछाकर बैठा
हूं। अब आ भी
जाओ। और भीतर
वह जानता है कि
ऐसी जल्दी भी
क्या है? आओगे
तो तुम
निश्चित ही।
भक्त
की मनोदशा बड़ी
विरोधाभासी
है। जो मिला ही
हुआ है उसे, उसके लिए तड़फता
है। जिसका
मिलना बिलकुल
सुनिश्चित है,
उसके लिए तड़फता है।
उतावलापन
मत कहो।
कभी-कभी गलत
शब्द खतरनाक
हो सकता है। उतावलेपन
में एक तरह का
तनाव है।
अभीप्सा में
तनाव नहीं है।
प्यास कहो, पुकार कहो।
उतावलापन मत
कहो।
उतावलापन
बुद्धि का
शब्द है। और
ओमप्रकाश
बुद्धिमान
आदमी नहीं, हृदयवान
आदमी हैं।
हृदयवान
शब्द का लोग
उपयोग ही नहीं
करते। किसी को
कहो
बुद्धिमान
नहीं, तो वह
नाराज हो जाए।
क्योंकि एक ही
मतलब होता है,
बुद्धिमान
नहीं है यानी
बुद्धू।
दूसरी बात ही
हम भूल गए हैं
कि कोई
हृदयवान भी हो
सकता है।
ओमप्रकाश
हृदय के
केंद्र के
करीब हैं।
घटेगी घटना।
घटनी ही है।
लेकिन
तुम्हारी तरफ
से कोई तैयारी
की जरूरत नहीं
है। और न
तुम्हारे पास
कोई उपाय है
कि तुम कुछ कर
सको। तड़पो, रोओ, नाचो।
लेकिन यह भी
उसे पाने के
साधन की तरह
नहीं।
क्योंकि साधन
की तरह सोचना
ही बाजार की
भाषा है, प्रेम
की भाषा नहीं।
नाचो, क्योंकि
श्रद्धा है।
नाचो, क्योंकि
वह आता ही
होगा। नाचो, क्योंकि वह
आ ही रहा है, रास्ते पर
ही है। नाचो, कि दूर उसके
रथ के पहियों
की आवाज सुनाई
ही पड़ने लगी
है। कितने ही
दूर-दिगंत में,
आकाश में
बादलों के पास
होती है
गड़गड़ाहट लेकिन
वह चल पड़ा। वह
अनंत काल से
तुम्हारी तरफ
चल ही रहा है।
नाचो!
उसने तुम्हें
चुन लिया
है--साधन की
तरह नहीं, साध्य की
तरह। गाओ!
इसलिए नहीं कि
गाने से उसे रिझाना
है। गाओ इसलिए,
कि उसने
तुम्हें रिझा
लिया है। अब
गाओगे न तो करोगे
क्या?
इस
फर्क को खयाल
में ले लेना।
भक्त साधन की
तरह नहीं कुछ
करता, साध्य
की तरह करता
है। परम
आह्लाद से
भरकर करता है
क्योंकि जो
घटना है, वह
घट ही चुका
है। जो होना
है वह हो ही
चुका है। उसे
रंचमात्र भी
संदेह नहीं
है। अनंत काल
में भी अगर
परमात्मा से
मिलना होगा तो
इसी क्षण मिलना
हो गया है। इस
श्रद्धा में
ही मिलना हो
गया है कि
अनंत काल में
मिलना हो
जाएगा।
नारद
स्वर्ग जा रहे
हैं। और एक
वृक्ष के नीचे
उन्होंने एक
बूढ़े
संन्यासी को
बैठे देखा, तप में लीन
माला जप रहा
है। जटा-जूटधारी!
अग्नि को जला
रखा है। धूप
घनी, दुपहर
तेज, वह और
आग में तप रहा
है। पसीने से
लथपथ। नारद को
देखकर उसने
कहा कि सुनो, जाते हो
प्रभु की तरफ,
पूछ लेना, जरा पक्का
करके आना, मेरी
मुक्ति कब तक
होगी? तीन
जन्मों से
कोशिश कर रहा
हूं। आखिर हर
चीज की हद्द
होती है।
चेष्टा
करनेवाले का
मन ऐसा ही
होता है, व्यवसायी
का होता है।
नारद ने कहा
जरूर पूछ आऊंगा।
उसके ही दो
कदम आगे चलकर
दूसरे वृक्ष
के नीचे, एक
बड़े बरगद के
वृक्ष के नीचे
एक युवा
संन्यासी नाच
रहा था। रहा
होगा कोई
प्राचीन बाउल:
एकतारा लिए, डुगडुगी
बांधे। थाप दे
रहा डुगडुगी
पर, एकतारा
बजा रहा, नाच
रहा। युवा है।
अभी बिलकुल
ताजा और नया
है। अभी तो
दिन भी
संन्यास के न
थे।
नारद
ने कहा--मजाक
में ही कहा--कि
तुम्हें भी तो
नहीं पूछना है
कि कितनी देर
लगेगी? वह
कुछ बोला ही
नहीं। वह अपने
नाच में लीन
था। उसने नारद
को देखा ही
नहीं। उस घड़ी
तो नारायण भी
खड़े होते तो
वह न देखता।
फुर्सत किसे?
नारद चले
गए। दूसरे दिन
जब वापस लौटे
तो उन्होंने
उस बूढ़े को
कहा कि मैंने
पूछा, उन्होंने
कहा कि तीन
जन्म और लग
जाएंगे। बूढ़ा बड़ा
नाराज हो गया।
उसने माला आग
में फेंक दी। उसने
कहा, भाड़
में जाए यह सब!
तीन जन्म से तड़फ रहा
हूं, अब
तीन जन्म और
लगेंगे? यह
क्या अंधेर है?
अन्याय हो
रहा है।
नारद
तो चौंके।
थोड़े डरे भी।
उस युवक के
पास जाकर कहा
कि भई! नाराज
मत हो जाना--वह
नाच रहा
है--मैंने
पूछा था। अब
तो मैं कहने
में भी डरता
हूं। क्योंकि
उन्होंने कहा
है कि वह युवक, वह जिस
वृक्ष के नीचे
नाच रहा है, उस वृक्ष
में जितने
पत्ते हैं, उतने ही
जन्म उसे लग
जाएंगे।
ऐसा
सुना था उस
युवक ने, कि
वह एकदम पागल
हो गया मस्ती
में और दीवाना
होकर थिरकने
लगा। नारद ने
कहा, समझे
कि नहीं समझे?
मतलब समझे
कि नहीं? जितने
इस वृक्ष में
पत्ते हैं
इतने जन्म!
उसने कहा, जीत
लिया, पा
लिया, हो
ही गई बात।
जमीन पर कितने
पत्ते हैं!
सिर्फ इतने ही
पत्ते? खतम!
पहुंच गए!
कहते
हैं वह उसी
क्षण मुक्त हो
गया। ऐसा धीरज, ऐसी अटूट
श्रद्धा, ऐसा
सरल भाव, ऐसी
प्रेम से, चाहत
से भरी
आंख...उसी क्षण!
पता नहीं उस
बूढ़े का क्या
हुआ! मैं नहीं
सोचता कि वह
तीन जन्मों
में भी मुक्त
हुआ होगा
क्योंकि वह
वक्तव्य
नारायण ने
माला फेंकने
के पहले दिया
था। वह बूढ़ा
कहीं न कहीं
अब भी
तपश्चर्या कर
रहा होगा।
अक्सर
तुम माला जपते
लोगों का
चेहरा देखो तो
उस बूढ़े का
चेहरा थोड़ा
तुम्हें समझ
में आएगा।
बैठे हैं।
खोल-खोलकर आंख
देख लेते हैं, बड़ी देर हो
गई अभी तक।
तपश्चर्या, उपवास करते
लोगों के
चेहरे को गौर
से देखो तो उस
बूढ़े की थोड़ी
पहचान
तुम्हें हो
जाएगी।
नहीं
ओमप्रकाश के
लिए वैसा होने
की कोई जरूरत नहीं
है। लो एकतारा
हाथ में, ले
लो डुग्गी, नाचो। हो ही
गया है। करना
क्या है और? परमात्मा को
हमने कभी खोया
नहीं है, सिर्फ
भ्रांति है खो
देने की।
नाचने में
भ्रांति झड़
जाती है। गीत
गुनगुनाने
में भ्रांति गिर
जाती है।
उल्लास, उत्सव
में राख उतर
जाती है, अंगारा
निकल आता है।
रही
बात कि--"उस
समय आप
गुरु-भगवान तो
नहीं उपलब्ध
होंगे।'
अगर
मुझसे संबंध
जुड़ गया तो
मैं सदा
उपलब्ध हूं।
संबंध जुड़ने
की बात है।
जिनका नहीं
जुड़ा उन्हें
अभी भी उपलब्ध
नहीं हूं। वे
यहां भी बैठे
होंगे। जिनसे नहीं
जुड़ाव
हुआ, उन्हें
अभी भी उपलब्ध
नहीं हूं।
जिनसे जुड़ गया
उन्हें सदा
उपलब्ध हूं।
ओमप्रकाश
से जोड़ बन रहा
है। तो घबड़ाओ
मत। अहोभाव से
भरो। जोड़ बन
गया तो यह जोड़
शाश्वत है। यह
टूटता नहीं।
इसके टूटने का
कोई उपाय नहीं
है।
और यह उतावलेपन
को तो बिलकुल
भूल जाओ।
अधैर्य पकड़ो, लेकिन धीरज
के साथ।
दिन
जो निकला तो
पुकारों ने
परेशान किया
रात
आयी तो
सितारों ने
परेशान किया
गर्ज है
यह कि परेशानी
कभी कम न हुई
गई खिजां तो
बहारों ने
परेशान किया
यह
उतावलापन
संसार का है।
धन मिल जाए, पद मिल जाए, यह उतावलापन
सांसारिक है।
गर्ज है
यह कि परेशानी
कभी कम न हुई
गई खिजां तो
बहारों ने
परेशान किया
अब
बहार आ गई है।
जरा देखो तो!
मगर तुम
पुरानी खिजां
की आदत, पुरानी
पतझड़ की
आदत परेशान
होने की बनाए
बैठे हो। यह
पुरानी छाया
है तुम्हारे
अनुभव की। इसे
छोड़ो।
चारों तरफ
वसंत मौजूद
है।
अगर
मैं कुछ हूं
तो वसंत का
संदेशवाहक
हूं। यह वसंत
मौजूद है। यह
बहार आ ही गई
है। जरा आंख
बंद करो तो
भीतर दिखाई
पड़े। जरा आंख
ठीक से खोलो
तो बाहर दिखाई
पड़े। अब
परेशान होने
की कोई भी जरूरत
नहीं। जो
ऊर्जा
परेशानी बन
रही है, उसी
ऊर्जा को आनंद
बनाओ।
आखिरी
प्रश्न:
कल
आपने कहा कि
उत्तर गीता से
मिला हो तो
कृष्ण महाराज
को नमस्कार
करना। माना कि
कृष्ण से मिलना
संभव नहीं, कोई
याददाश्त भी
नहीं, लेकिन
कृपया बताएं
कि रजनीश
महाराज को
कैसे नमस्कार
करें, जब
तक कि भीतर का
रजनीश उभरकर न
आ जाए!
जब
तक भीतर का
रजनीश उभरकर न
आए तब तक नमन
करो; जब उभरकर
आ जाए तब
नमस्कार कर
लेना। नमन और
नमस्कार में
कोई बहुत
फासला थोड़े ही
है! नमन जरा
लंबा कर दिया
साष्टांग, तो
नमस्कार!
कृष्ण
महाराज को
नमस्कार करने
को कहा क्योंकि
कहीं ऐसा न हो
कि तुम्हारे
भीतर का कृष्ण
तुम्हारे
बाहर की कृष्ण
की धारणा में
दबा रह जाए।
कहीं ऐसा न हो
कि शास्त्र
तुम्हारे
सत्य को उभरने
न दे। कहीं
ऐसा न हो कि
उधार ज्ञान
तुम्हारी
मौलिक
प्रतिभा को
प्रगट न होने दो।
कहीं ऐसा न हो
कि तुम
सूचनाओं को ही
ज्ञान समझते
हुए जीयो
और मर जाओ; और तुम्हें
अपनी कोई
जीवंत
अनुभूति न हो।
मेरी
बात तुम सुन
रहे हो। अगर
मेरी बात को
संगृहीत करने
लगे तो खतरा
है। सुनो मेरी, गुनो अपनी। समझो,
संग्रह मत
करो।
याददाश्त
भरने से कुछ
भी न होगा। स्मृति
के पात्र में
तुमने, जो-जो
मैंने तुमसे
कहा, इकट्ठा
भी कर लिया तो
दो कौड़ी
का है। उससे
कुछ लाभ नहीं।
तुम्हारा बोध जगे। जो
मैं कह रहा
हूं उसे समझो,
उससे जागो।
कोई परीक्षा
थोड़ी ही देनी
है कहीं कि
तुमने जो
मुझसे सुना, वह याद रहा
कि नहीं रहा।
एक
मित्र एक दिन
आए, वे कहने
लगे, बड़ी
मुश्किल है।
रोज आपको
सुनता हूं
लेकिन घर जाते-जाते
भूल जाता हूं।
तो अगर मैं
नोट लेने लगूं
तो कोई हर्ज
तो नहीं? तो
नोट लेकर भी
क्या करोगे? अगर नोट
लिया तो
नोट-बुक का
मोक्ष हो
जाएगा, तुम्हारा
कैसे होगा? तो याद तो
नोट-बुक को
रहेगा। तुमको
तो रहेगा नहीं।
और याद
रखने की जरूरत
क्या है? मैंने
उनसे पूछा, याद रखकर
करोगे क्या? समझ लो, बात
हो गई।
सार-सार रह
जाएगा। फूल तो
विदा हो जाएंगे,
सुगंध रह
जाएगी।
पहचानना भी
मुश्किल होगा,
किस फूल से
मिली थी।
लेकिन उस
सुगंध के
साथ-साथ
तुम्हारे
भीतर की सुगंध
भी उठ आएगी।
उस सुगंध का
हाथ पकड़कर
तुम्हारी
सुगंध भी
लहराने
लगेगी।
तो एक
दिन तो गुरु
को नमस्कार
करना ही है।
नमन से शुरू
करना, नमस्कार
से विदा देनी।
इसे याद रखना।
इसे भूलना मत।
कृष्ण से उतना
खतरा नहीं है,
जितना
तुम्हारे लिए
मुझसे खतरा
है। क्योंकि
कृष्ण से तुम्हारा
कोई लगाव ही
नहीं। जिनका
लगाव है, वे
तो मेरे पास
आते भी नहीं।
तो कृष्ण को
तो तुम बड़े
मजे से
नमस्कार कर
सकते हो। असली
कठिनाई तो
मुझे नमस्कार
करने में
आएगी।
लेकिन
नमस्कार करने
के पहले नमन
का अभ्यास करना
होगा। नमन ही
लंबा होकर
नमस्कार बनता
है। झुको! तुम
अगर झुके तो
तुम्हारे
भीतर कोई
जगेगा। तुम
अगर अकड़े
रहे तो
तुम्हारे
भीतर कोई झुका
रहेगा। तुम झुको
तो तुम्हारे
भीतर कोई खड़ा
हो जाएगा।
बाहर
का गुरु तो
केवल थोड़ी देर
का साथ है
ताकि भीतर का
गुरु जग जाए।
और जिस दिन
तुम्हें यह
समझ में आ
जाता है, उस
दिन तुम जल्दी
न करोगे हाथ छुड़ाने
की।
जमाले-इश्क
में दीवाना हो
गया हूं मैं
यह
किसके हाथ से
दामन छुड़ा
रहा हूं मैं?
प्रेम
में कैसा
पागलपन हो
गया!
जमाले-इश्क
में दीवाना हो
गया हूं मैं
प्रेम
में ऐसी
दीवानगी भी
आती है कि
प्रेमी से ही हाथ
छुड़ाकर
भागने के लिए
आदमी तत्पर हो
जाता है।
जमाले-इश्क
में दीवाना हो
गया हूं मैं
यह
किसके हाथ से
दामन छुड़ा
रहा हूं मैं
तुम छुड़ाओ मत।
जल्दी मत करो।
मैं खुद ही
चुपचाप हाथ
अलग कर लूंगा।
तुम जरा तैयार
हो जाओ, तुम
पकड़ना भी
चाहोगे तो मैं
पकड़ने न
दूंगा।
क्योंकि अगर
मैंने
तुम्हें पकड़ने
दिया तो मैं
तुम्हारा
दुश्मन हुआ, मित्र न
हुआ। कल्याणमित्र
तो वही है, जो
तुम्हें
तुम्हारा बोध
दे जाए और हट
जाए बीच से।
जो तुम्हें
परमात्मा के
द्वार तक
पहुंचा जाए, फिर तुम
लौटकर उसे
खोजो तो मिले
भी न।
मगर
ऐसा सदगुरु
कभी खोता नहीं, क्योंकि तुम
उसे अपने
अंतर्तम में
विराजमान पाओगे।
तब तुम अचानक पहचानोगे
एक दिन, जो
बाहर से बोला
था, वह
भीतर की ही
आवाज थी।
जिसने बाहर से
पुकारा था वह
भीतर से ही
उठी पुकार थी।
वह जो बाहर
दिखाई पड़ा था
वह अपने ही
अंतर्तम की
छवि थी। बाहर जिसके
दर्शन हुए थे,
वह अपना ही
भविष्य रूप धरकर आया
था।
घबड़ाओ
मत। अभी तो
तुम भुलाने की
कोशिश करोगे
तो भुला न
सकोगे। जब तक
जाग नहीं गए
तब तक भुलाना
संभव भी नहीं, उचित भी
नहीं। संभव हो
तो भी उचित
नहीं।
किस-किस
उन्वां
से भुलाना उसे
चाहा था रविश
किसी उन्वां से
मगर उनको
भुलाया न गया
जब तक
तुम जाग ही
नहीं गए हो, जब तक तुम
अपने प्रीतम
स्वयं ही नहीं
बन गए हो, तब
तक तुम भुला
भी न सकोगे
कृष्ण को, या
महावीर को, या मोहम्मद
का।
किस-किस
उन्वां
से भुलाना उसे
चाहा था रविश
किसी उन्वां से
मगर उनको
भुलाया न गया
भुलाने
की जल्दी भी
मत करो। जागने
की फिक्र करो।
भुलाने पर जोर
मत दो, जागने
पर जोर दो।
इधर तुम जागे,
कि एक अर्थ
में तुम भूल
जाओगे गुरु को
और एक गहरे
अर्थ में पहली
दफे तुम उसे
पाओगे। अपने
ही भीतर
विराजमान
पाओगे।
तुम्हारे ही
सिंहासन पर
विराजमान
पाओगे।
तुम्हारी ही
आत्मा जैसा विराजमान
पाओगे।
अचानक
तुम पाओगे, गुरु और
शिष्य दो नहीं
थे।
मैं
तुम्हारी ही
संभावना हूं।
जो तुम हो
सकते हो, उसकी
ही खबर हूं।
लेकिन छुड़ाने
की कोई जल्दी
नहीं है।
जल्दी छुड़ाने
में तो तुम
अटके रह
जाओगे। लाभ भी
न होगा। छूटना
तो हो ही
जाएगा। सीख
लो। जाग लो।
तुम हो जाओ।
मां
अपने छोटे बच्चे
को चलना
सिखाती है।
हाथ पकड़कर
सिखाती है।
हालांकि
बच्चा हाथ
छोड़ना चाहता है।
क्योंकि
बच्चे के
अहंकार को चोट
लगती है कि
कोई और मेरा
हाथ पकड़कर
चलाए! लेकिन
मां पकड़ती
है। माना कि
बच्चे के
अहंकार को चोट
लगती है, लेकिन
अभी उसे उस पर
छोड़ा भी नहीं
जा सकता है।
अभी तो
तुम छुड़ाओगे
भी तो मैं न
छोडूंगा। अभी
भी तुम भागोगे
तो मैं
तुम्हारा
पीछा करूंगा।
तुम कहीं भी
निकल जाओ, मैं छाया की
तरह तुम्हें सताऊंगा।
अभी तो उपाय
नहीं है।
तो मां
पकड़ती है
बच्चे का हाथ।
फिर एक दिन
बच्चा चलने
लगता है, तो
चुपचाप हाथ को
छुड़ाती
है--फिर चाहे
बच्चा पकड़ना
भी चाहे।
क्योंकि
अब बच्चे को
भी समझदारी आ
गई है इतनी कि
मां के हाथ
में हाथ हो तो
ज्यादा
सुरक्षित।
अनुभव ने सिखा
दिया। कई दफे
गिरा है, घुटने
टूट गए हैं, अब अनुभव ने
सिखा दिया है
कि यह हाथ पकड़े
ही रहूं।
लेकिन अब मां छुड़ाती
है।
यही तो
जीवन का विरोधाभास
है। एक दिन पकड़ना
पड़ता है, एक
दिन छुड़ाना
पड़ता है। जिस
सीढ़ी से चढ़ते
हो उसे छोड़ना
पड़ता है। जिस
नाव से दूसरे
किनारे जाते
हो, उससे
उतरना पड़ता
है।
इसलिए
अभी नमन करो, फिर नमस्कार
भी हो जाएगा।
तुम न करोगे
तो मैं कर
लूंगा।
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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