तितिक्षा—प्रवचन—चौदहवां
ध्यान-शिविर, आनंद-शिला,
अंबरनाथ; रात्रि, 16
फरवरी, 1973
ध्यान-द्वार
संगमरमर के
कलश जैसा
है--सफेद और पारदर्शी।
उसके भीतर एक स्वर्णाग्नि
जलती है, वह
प्रज्ञा की
शिखा है, जो
आत्मा से
निकलती है।
तू ही
वह कलश है।
अब
तूने अपने को
इंद्रियों के
विषयों से
विच्छिन्न कर
लिया है, तूने
दर्शन-पथ तथा
श्रवण-पथ की
यात्रा कर ली
है, और अब
तू ज्ञान के
प्रकाश में
खड़ा है। अब तू
तितिक्षा भी
की अवस्था को
उपलब्ध हो
गया।
ओ नारजोल
(सिद्ध), तू
सुरक्षित है।
पापों
के विजेता, एक बार किसी सोवानी
अर्थात-स्रोतापन्न
ने सातवें
मार्ग को पार
कर लिया है, तब समस्त
प्रकृति
आनंद-पूर्ण
आश्चर्य से भर
जाती है और
पराजित अनुभव
करती है। रजतत्तारा
अब जलते
इशारों से
रजनीगंधा को
यह समाचार बताता
है; झरना
अपने कलकल
स्वर में कंकड़ियों
को यह कथा
सुनाता है; सागर की
काली लहरें
गर्जन करके
यही बात फेनिल
चट्टानों को
बताती हैं; गंध-भरी हवाएं
घाटियों के
कान में इसका
ही गीत गाती
हैं, और चीड़
के शानदार
वृक्ष बड़े
रहस्यपूर्ण
ढंग से गुनगुनाते
हैं: बुद्ध का
उदय हुआ है--आज
के बुद्ध का।
अब वह
पश्चिम में
उज्जवल स्तूप
की तरह खड़ा है, जिसके मुख
पर शाश्वत भाव
का उदीयमान
सूर्य अपनी
प्रथम महागौरवमयी
किरणों को
बरसा रहा है।
उसका मन एक
शांत और असीम
सागर की तरह तटहीन
अंतरिक्ष में
फैलता जा रहा
है। और वह
जीवन और मृत्यु
को अपने मजबूत
हाथों में
धारण किए है। समाधि
का पांचवां
द्वार है:
वीर्य। इस
संबंध में कुछ
बातें जान लें,
फिर हम
छठवें द्वार
की चर्चा में
उतरें।
वीर्य
के संबंध में
पहली बात तो
यह जान लेनी चाहिए
कि वीर्य के
दो अंग हैं।
एक वीर्य की
देह और एक
वीर्य की
आत्मा--ऊर्जा।
समस्त योग की
प्रक्रियाओं
में, तंत्र की साधनाओं
में, पृथ्वी
पर अनेक-अनेक
रूपों में
पैदा हुए धर्म
की
व्यवस्थाओं
में, वीर्य
का ऊर्ध्वगमन,
वीर्य का
ऊपर की तरफ
उठना, काम-केंद्र
से सहस्रार तक
पहुंचना, इसे
अनिवार्य कहा
है। इससे बड़ी
उलझन पैदा होती
है।
वैज्ञानिक
बुद्धि बहुत
अड़चन में पड़
जाती है। जो
शरीर-शास्त्र
को समझते हैं,
वे इस बात
पर भरोसा नहीं
कर पाते हैं।
क्योंकि यह
बात असंभव है।
काम-केंद्र
पर जो वीर्य
इकट्ठा है, उसके
सहस्रार तक
जाने का न तो
कोई मार्ग है,
न कोई उपाय
है। देह में
ऐसा कोई मार्ग
नहीं है, जिससे
वीर्य उठ सके
ऊपर। वीर्य का
तो पतन ही हो
सकता है, देह-शास्त्र
की दृष्टि से;
उत्थान
नहीं हो सकता,
क्योंकि
नीचे जाने का
ही मार्ग है, ऊपर जाने का
कोई मार्ग
नहीं है।
शरीर-शास्त्र की
दृष्टि से, आधुनिक सब
खोजों की
दृष्टि से, तंत्र, योग,
धर्म की सब
धारणाएं गलत
हो जाती हैं।
जब मार्ग ही
नहीं है, तो
वीर्य का
उत्थान नहीं
हो सकता, ऊर्ध्वगमन
नहीं हो सकता।
और जो उस
चेष्टा में
लगे हैं, वे
व्यर्थ के काम
में लगे हैं।
जो आधुनिक
शरीर-शास्त्र
को पढ़ लेते
हैं, उनकी
आस्था तंत्र
और योग से
तत्क्षण उठ
जाती है।
स्वाभाविक है,
क्योंकि
शरीर में कोई
व्यवस्था ही
नहीं है नाड़ियों
की, कि
वीर्य ऊपर जा
सके।
यह ठीक
है और जहां तक
विज्ञान
जानता है, वहां तक यह
बात बिलकुल ही
उचित है। ऐसा
नहीं हो सकता
है। लेकिन कुछ
और बात है, जो
विज्ञान से
चूक जाती है।
और जब तक वह
समझ में न आ
जाए, तब तक
आज के
मस्तिष्क को
वीर्य का
ऊर्ध्वगमन समझ
में नहीं आ
सकता। जैसे, शरीर है
आपके पास।
विज्ञान तो
शरीर को
स्वीकार करता
है, आपकी
आत्मा को
नहीं। और आपके
भीतर जो जीवन
है, वह
शरीर से प्रकट
तो होता है, लेकिन शरीर
ही नहीं है।
और जैसा यह
शरीर के संबंध
में सच है, ऐसा
एक-एक वीर्य
कोष्ठ के
संबंध में भी
सच है।
एक
वीर्य-कण दो
चीजों से बना
है। तभी तो
आपका पूरा
शरीर भी दो
चीजों से बन
पाता है--एक तो
वीर्य-कण की
देह--दिखाई
पड़ने वाली और
एक वीर्य-कण
की आत्मा है, ऊर्जा है--न
दिखाई पड़ने
वाली। संभोग
में वीर्य-कण
जैसे ही
स्त्री योनि
में प्रवेश
करते हैं, दो
घंटे तक जीवित
रहते हैं। अगर
इस दो घंटे के बीच
में उन्होंने
स्त्री अंडे
को उपलब्ध कर
लिया, पा
लिया, तो
जो वीर्य-कण
स्त्री अंडे
के निकट पास
पहुंचकर
स्त्री अंडे
में प्रवेश कर
जाएगा, जन्म
हो गया--एक नए
व्यक्तित्व
का। लेकिन
लंबी यात्रा
है वीर्य-कणों
के लिए।
वीर्य-कण
बहुत छोटे हैं, आंख से
दिखाई पड़ने
वाले नहीं
हैं। और दो
घंटे का उनका
जीवन है। अगर
दो घंटे तक वे
स्त्री अंडे
तक नहीं पहुंच
जाते हैं, तो
मृत हो जाते
हैं। इसलिए
बड़ी तेजी से
भागते हैं। पर
बहुत छोटे हैं,
कितनी ही
तेजी से भागें,
यात्रा-पथ
उनके लिए काफी
लंबा है, और
समय बहुत छोटा
है।
प्रतियोगिता
वहीं से शुरू
हो जाती है।
वह जो
प्रतियोगिता
आप पूरे संसार
में देखते हैं,
वह उसका ही
फैलाव है।
क्योंकि एक
संभोग में लाखों
वीर्य-कण
छूटते हैं और
उनमें से एक
पहुंच पाता
है। लाखों
नष्ट हो जाते
हैं। बीच में
भयंकर संघर्ष
है, बड़ी
प्रतियोगिता
है। और एक भी
सदा नहीं
पहुंच पाता, कभी-कभी
पहुंच पाता
है। शेष समय तो
सभी नष्ट हो
जाते हैं। दो
घंटे में
वीर्य-कण मर
जाता है।
इस बात
को थोड़ा ध्यान
से समझ लें।
इसका
मतलब यह हुआ
कि वीर्य-कण
जीवित भी होते
हैं और मुर्दा
भी होते हैं।
तो जीवित
वीर्य-कण में
और मुर्दा
वीर्य-कण में
क्या फर्क है? कुछ फर्क
होना चाहिए।
जो किसी कण को जीवित
बनाए है, और
फिर किसी क्षण
में मुर्दा
बना देता है।
तंत्र की, योग
की दृष्टि से
वही फर्क है।
वीर्य
के दो अंग
हैं। जब तक
वीर्य जीवित
है, तब तक
उसमें दो
चीजें
हैं--उसकी देह
भी है, और
उसकी ऊर्जा, आत्मा भी
है। दो घंटे
में ऊर्जा
मुक्त हो जाएगी,
वीर्य कण
मुर्दा पड़ा रह
जाएगा। अगर इस
ऊर्जा-कण के
रहते ही स्त्री-कण
से मिलन हो
गया, तो ही
जीवन का जन्म
होगा। अगर इस
ऊर्जा के हट जाने
पर मिलन हुआ, तो जीवन का
जन्म नहीं
होगा। इसलिए
वीर्य-कण तो
केवल देह है, वाहन है। वह
जो ऊर्जा है, जो उसे
जीवित बनाती
है, वही
असली वीर्य है।
वीर्य-कण की
देह तो उत्थान
को उपलब्ध
नहीं हो सकती,
उसका तो पतन
ही होगा।
क्योंकि वह
पृथ्वी का हिस्सा
है, पदार्थ
है। पदार्थ का
कोई उत्थान
नहीं है। पदार्थ
नीचे ही
गिरेगा। वह जो
देह है
वीर्य-कण की, तो नीचे
जमीन खींच ही
रही है उसे, लेकिन उस
छोटे से न
दिखाई पड़ने
वाले वीर्य-कण
में जो जीवन
की ऊर्जा है, वह ऊपर की
तरफ भाग रही
है। उसके लिए
मार्ग की कोई
जरूरत नहीं
है। वह अदृश्य
है। अगर यही
जीवन-ऊर्जा
स्त्री-कण से
मिल जाएगी, तो एक
व्यक्ति का
जन्म हो
जाएगा। अगर
यही ऊर्जा योग
और तंत्र की
प्रणाली से
मुक्त कर ली
जाए वीर्य-कण
से, तो
आपके सहस्रार
तक पहुंच सकती
है। और जब
सहस्रार तक
पहुंचती है यह
वीर्य-ऊर्जा,
तो आपके लिए
नए लोक का
जन्म होता है।
आप भी नए हो
जाते हैं। आप
का पुनर्जन्म
हो जाता है।
इस
वीर्य-ऊर्जा
के जाने के
लिए कोई स्थूल, भौतिक मार्ग
आवश्यक नहीं
है। यह बिना
भौतिक मार्ग
के यात्रा कर
लेती है।
इसलिए जिन
चक्रों की हम
बात करते हैं,
जिन सप्त
चक्रों की, वे शरीर में
नहीं हैं। वे
सात चक्र
दृश्य नहीं
हैं। इसलिए
किसी परीक्षण,
किसी
वैज्ञानिक
विश्लेषण में
उनको नहीं पाया
जा सकेगा। वे
चक्र अदृश्य
मालूम पड़ते
हैं। और उन
चक्रों से ही
यह ऊर्जा ऊपर
की तरफ उठती
है। इस ऊर्जा
का नाम "वीर्य'
है। आप जिसे
सामान्यतः
वीर्य कहते
हैं, वह
केवल पदार्थ
है, वाहन
है।
ऐसा
समझें कि एक
बीज है। एक
बीज को आप
तोड़ें तो उसके
भीतर किसी
पौधे का कोई
अस्तित्व
नहीं है।
कितनी ही
जांच-परख करें
बीज को तोड़कर, उसके भीतर
कोई वृक्ष
छिपा है, इसके
खोजने का कोई
भी उपाय नहीं
है। लेकिन वृक्ष
जरूर छिपा है;
क्योंकि
बीज को जमीन
में गाड़
दें--और
अंकुरित हो
जाता है, और
वृक्ष निकलना
शुरू हो जाता
है। बीज में
वृक्ष था, लेकिन
अदृश्य था, दिखाई नहीं
पड़ता
था।
बीज दिखाई
पड़ता था, वह
देह थी। वृक्ष
होने की जो
क्षमता है, ऊर्जा है, शक्ति है, वह अदृश्य
है।
शक्ति
सदा अदृश्य है, केवल देह
दिखाई पड़ती
है।
फिर
पौधा पैदा हुआ, तब भी जो
आपको दिखाई
पड़ता है, वह
भी देह है।
क्योंकि वे जो
आपको दिखाई पड़
रहे हैं--हरे
पत्ते, शाखाएं,
वह नहीं है
पौधा। हरे
पत्तों और
शाखाओं के
भीतर से जो
आकाश की तरफ
उठ रहा है, वह
प्राण है। जो
जमीन से दूर
हट रहा है, जो
ऊपर की तरफ जा
रहा है, वह
आपको दिखाई
नहीं पड़ रहा
है। आपको
दिखाई पड़ रहा
है केवल वाहन।
वह जो भीतर
यात्रा कर रहा
है प्राण, वह
आपको दिखाई
नहीं पड़ रहा
है। आप वृक्ष
को काट भी
डालें, तो
भी उसका पता
नहीं चलेगा।
लेकिन आप
वृक्ष को बढ़ते
हुए देख कर
कहते हैं, जीवित
है! एक वृक्ष
सूख जाता है
और बढ़ना बंद
हो जाता है, आप कहते हैं,
मुर्दा हो
गया!
जीवन
का लक्षण क्या
है?
जीवन
का लक्षण है ग्रोथ, जीवन का
लक्षण है बढ़ाव,
जीवन का
लक्षण है
फैलाव। इसलिए
हमने जीवन को
ब्रह्म कहा
है। ब्रह्म का
अर्थ है, जो
फैलता जाता है;
बड़ा होता
जाता है, बड़ा
होता जाता है,
अनंत तक बड़ा
होता जाता है।
जो दिखाई पड़ता
है, वह
उसकी देह है।
जो नहीं दिखाई
पड़ता है, वही
सहारा है। एक
वृक्ष जब सूख
गया हो, तो
क्या सूख गया
उसमें? शाखाएं
वही हैं, सब
कुछ वही है, जड़ें वही
हैं, लेकिन
कोई पक्षी
प्राण का उड़
गया है। अब
बढ़ती नहीं
होती। अब
चीजें फैलती
नहीं हैं।
वृक्ष
ही बढ़ता है
ऐसा नहीं, पहाड़ भी
बढ़ते हैं।
हमारा हिमालय
अभी भी बढ़ रहा
है, अभी भी
जवान है। कुछ
पहाड़ बूढ़े हो
गए हैं, जैसे
सतपुड़ा
है, विंध्या
है, ये
बूढ़े हो गए
हैं। अब वे
नहीं बढ़ रहे
हैं। कुछ पहाड़
मर गए हैं, जिनकी
सिर्फ देह रह
गई है। हिमालय
अब भी ऊपर उठ
रहा है, अब
भी बढ़ रहा है, अभी जीवित
है।
हिमालय
के प्रति इस
मुल्क का इतने
आदर का भाव उसकी
ऊंचाई के कारण
नहीं है, उसके
जीवन के कारण
है। अगर हमने
हिमालय को
महादेव का, शिव का
निवास बनाया
है, तो
सिर्फ इसलिए
कि इस पृथ्वी
पर जीवन की
बढ़ती का वह
प्रतीक है। और
विराट प्रतीक
है। और बढ़ता
ही चला जाता
है। अभी भी
जवान है, अभी
भी उसकी बढ़ती
नहीं रुकी है।
लेकिन जो दिखाई
पड़ते हैं, वे
तो पत्थर हैं।
लेकिन उन पत्थरों
के भीतर जरूर
कोई ऊर्जा
छिपी है, जो
उठ रही है, आकाश
की ओर बढ़ रही
है।
यह
समस्त जीवन के
संबंध में सच
है। और बीज के
संबंध में जो
मैंने कहा, वही वीर्य
के संबंध में
है। क्योंकि
वीर्य बीज है,
जैसे पौधों
का बीज है, ऐसे
आदमी का बीज
है। उस बीज को तोड़कर
भीतर की ऊर्जा
का पता नहीं
चलता।
क्योंकि
तोड़ते ही वह ऊर्जा
आकाश में लीन
हो जाती है।
उस ऊर्जा का दो
तरह से पता चल
सकता है।
एक ढंग
है कि वीर्य
का कण, रज के
कण से--पुरुष
का कण, स्त्री
के कण से मिले,
तो जीवन
प्रगट हो
जाएगा, एक
बच्चा जन्म
लेगा।
क्योंकि
पुरुष का कण
और स्त्री का
कण दोनों
अधूरे हैं, आधे-आधे
हैं। और एक से
जीवन का जन्म
नहीं हो सकता।
जीवन के लिए
पूर्णता
चाहिए। जैसे
ही स्त्री और
पुरुष का कण
मिलता है, एक
पूर्ण बन गया,
एक छोटी
इकाई पैदा हो
गई--जो जब आधी
नहीं है, अब
जो बढ़ सकती
है। एक उपाय
तो है
वीर्य-कण के
भीतर छिपे
जीवन को मुक्त
करने का, कि
उसे विपरीत
रजकण से मिला
दें।
एक और
भी उपाय है, इस वीर्य-कण
को प्रगट करने
का। तब दो देहें--वीर्यकण
की और रजकण
की--दो देहें
नहीं मिलतीं,
बल्कि वीर्यकण
की और रजकण की
ऊर्जा मिल
जाती
है--सिर्फ
ऊर्जा।
आधुनिक
मनोविज्ञान
अब स्वीकार करता
है कि कोई
पुरुष, न
तो केवल पुरुष
है, और न
कोई स्त्री, केवल स्त्री
है। दोनों के
भीतर दोनों
हैं। होना भी
चाहिए, क्योंकि
आपका जन्म
होता है
स्त्री, पुरुष
से मिलकर।
इसलिए न तो आप
पुरुष हो सकते
हैं और न
स्त्री
पूरे-पूरे। आप
आधे-आधे
होंगे। आपकी
जो पहली इकाई निर्मित
होती है, उसमें
आधी स्त्री है
और आधा पुरुष
है। फिर चाहे
अब आप स्त्री
हों और चाहे
पुरुष, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। आपकी जो
मिलावट है, आपकी जो
बुनियादी
आधार-शिला है,
उसमें आधा
स्त्री का दान
है, आधा
पुरुष का। और
यह दान कभी
नष्ट नहीं हो
सकता, आप
कुछ भी बन
जाएं, आपमें
आधी स्त्री
होगी और आधा
पुरुष होगा।
आपके भीतर दो ऊर्जाएं
मिली हैं, दो
शरीर मिले
हैं। और इन
दोनों शरीरों
का जोड़ है, और
दो ऊर्जाओं का
जोड़ है, जिससे
आप एक व्यक्ति
बने।
आपका
वीर्य-कण दो
तरह की आकांक्षाएं
रखता है। एक
आकांक्षा तो
रखता है बाहर
की स्त्री से
मिलकर, फिर
एक नए जीवन की
पूर्णता पैदा
करने की। एक और
गहन आकांक्षा
है, जिसको
हम अध्यात्म
कहते हैं, वह
आकांक्षा है,
स्वयं के
भीतर की छिपी
स्त्री या
स्वयं के भीतर
छिपे पुरुष से
मिलने की। अगर
बाहर की
स्त्री से
मिलना होता है,
तो संभोग
घटित होता है।
वह भी सुखद है,
क्षण भर के
लिए। अगर भीतर
की स्त्री से
मिलना होता है,
तो समाधि
घटित होती है।
वह महासुख
है, और सदा
के लिए।
क्योंकि बाहर
की स्त्री से
कितनी देर मिलिएगा?
वह मिलन छूट
जाता है क्षण
भर में। क्षण
भर को भी मिलन
हो जाए तो
बहुत मुश्किल
है। देह ही
मिल पाती है, मन नहीं मिल
पाते; मन
भी मिल जाए, तो आत्मा
नहीं मिल
पाती। और सब
भी मिल जाए तो
मिलन क्षण भर
ही हो सकता
है। भीतर की
स्त्री से मिलना
शाश्वत हो
सकता है। उस
शाश्वत मिलने
के कारण ही
समाधि फलित
होती है।
बाहर
की स्त्री से
मिलना है, तो वीर्य-कण
की जो देह है, उसके सहारे
ही मिलना
पड़ेगा, क्योंकि
देह का मिलन
तो देह के
सहारे ही हो
सकता है। अगर
भीतर की
स्त्री से
मिलना है तो
देह की कोई
जरूरत नहीं
है। वीर्य-कण
की देह तो अपने
केंद्र में, काम-केंद्र
में पड़ी रह
जाती है; और
वीर्य-कण की
ऊर्जा उससे
मुक्त हो जाती
है। वही ऊर्जा
भीतर की
स्त्री से मिल
जाती है। इस
मिलन की जो आत्यंतिक
घटना है, वह
सहस्रार में
घटित होती है।
क्योंकि
सहस्रार
ऊर्जा का
श्रेष्ठतम
केंद्र है, और
काम-केंद्र
देह का
श्रेष्ठतम
केंद्र है।
काम है
निम्नतम
केंद्र और
सहस्रार है
उच्चतम केंद्र।
ऊर्जा शुद्ध
हो जाती है सहस्रार
में पहुंच कर; सिर्फ ऊर्जा
रह जाती है, प्योर इनर्जी। और
सहस्रार में
आपकी स्त्री
प्रतीक्षा कर
रही है। और आप
अगर स्त्री
हैं, तो
सहस्रार में
आपका पुरुष
आपकी
प्रतीक्षा कर
रहा है। यह
भीतरी मिलन
है। इस मिलन
को ही हमने
अर्धनारीश्वर
कहा है।
हमने
शंकर की मूर्ति
बनाई है--आधा
पुरुष और आधी
स्त्री की। आधा
अंग पुरुष का
है और आधा अंग
स्त्री का है।
यह इस गहन
मिलन की सूचना
है। और जो
अर्धनारीश्वर
का मिलन है, यह होता है
कैलाश में, गौरीशंकर पर। वह जो
आपके भीतर
श्रेष्ठतम
शिखर है हिमालय
का--सहस्रार, कैलाश, गौरीशंकर,
जो भी नाम
दें, वहां
मिलन घटित
होता है।
निम्नतम
तल है
काम-केंद्र का, वहां तो पशु
भी मिल लेते
हैं, वहां
मिलन होता है
संभोग का।
श्रेष्ठतम
केंद्र है
मिलन का, समाधि
का, वहां
कभी कोई बुद्ध,
कभी कोई
महावीर अपने
भीतर की
स्त्री या
अपने भीतर के
पुरुष को खोज
पाता है। और
जिस दिन यह
घटना घटती है,
उसी दिन
पूर्ण
ब्रह्मचर्य
उपलब्ध होता
है; उसके
पहले नहीं हो
सकता है। जब
भीतर की
स्त्री मिल गई,
तो फिर बाहर
की स्त्री की
कोई चिंता
नहीं रह जाती
है। जब भीतर
का पुरुष मिल
गया, तब
फिर बाहर के
पुरुष की खोज
नहीं रह जाती
है। और जब तक
यह मिलन नहीं
होता, तब
तक यह खोज
जारी ही
रहेगी। वीर्य
का द्वार इस
प्रक्रिया का
द्वार है।
कैसे
हम अपने
वीर्य-कण में
छिपी हुई
जीवन-ऊर्जा को
मुक्त करें, और कैसे
हमारे
सहस्रार में
छिपे हुए
हमारे ही विपरीत
केंद्र से
इसका मिलन करा
दें?
एक
मित्र ने
प्रश्न पूछा
है कि जब वे
ध्यान करते
हैं, यह
सक्रिय ध्यान
करते हैं, तो
कुछ समय के
लिए उनकी
काम-वासना
बिलकुल तिरोहित
हो जाती है।
उससे उनको डर
पैदा हो गया
है। पूछा है
काम-वासना
तिरोहित हो
जाती है और
शक्ति बहुत
मालूम पड़ती
है। चेष्ठा
भी करें, तो
काम-कृत्य में
नहीं उतर सकते
कुछ समय के
लिए। तो
उन्हें घबड़ाहट
हो गई कि कहीं
वह इससे किसी
नपुंसकता को
तो उपलब्ध
नहीं हो
जाएंगे, कोई
इंपोटेन्सी
तो नहीं हो
जाएगी। और
शक्ति बहुत
मालूम पड़ती है,
जितनी कभी
भी नहीं मालूम
पड़ती, इतनी
मालूम पड़ती
है। लेकिन
काम-कृत्य में
नहीं उतर
सकते।
सौभाग्यशाली
हैं। डरें न
आप। यही चाहिए
कि शक्ति
ज्यादा मालूम पड़े
और काम-कृत्य
में न उतरा जा
सके। इसका अर्थ
है, शक्ति
ऊपर की तरफ
दौड़ रही है; इसलिए
काम-केंद्र को
शक्ति उपलब्ध
नहीं हो रही
है। और इस
प्रक्रिया का
पूरा प्रयोजन
यही है कि
आपके वीर्य-कण
नीचे पड़े रह
जाएं, और
वीर्य-कणों से
वीर्य-ऊर्जा
मुक्त हो जाए,
इनर्जी
मुक्त हो जाए,
और ऊपर की
तरफ दौड़ने
लगे। जब
इनर्जी ऊपर की
तरफ दौड़ती
होगी, ऊर्जा
ऊपर की तरफ जा
रही होगी, तब
आप काम-केंद्र
का उपयोग नहीं
कर सकते, तब
काम-केंद्र
वस्तुतः
नपुंसक हालत
में है। पर यह
सौभाग्य है।
जीसस
को माननेवाले
साधुओं का एक
संप्रदाय है, अपने को "आनक्स
आफ जीसस' कहता
है--जीसस के
नपुंसक। बड़ी
मीठी बात है।
क्या आपको पता
है कि ब्रह्म
को हमने
नपुंसक लिंग
में रखा है।
ब्रह्म को न
हम पुल्लिंग
में रख सकते
हैं, न
स्त्री लिंग
में। या तो वह
दोनों है, या
तो वह दोनों
नहीं है।
इसलिए ब्रह्म
को हमने इस
मुल्क में
नपुंसक लिंग
में रखा है, सोचकर।
नपुंसकता
दो तरह की है
कि आपके पास
वीर्य-शक्ति
ही न हो--यह
निम्नतम
स्थिति है। एक
और नपुंसकता
है--कि शक्ति
आप के पास
विराट हो, लेकिन
काम-केंद्र से
मुक्त हो गई
हो, और ऊपर
की यात्रा पर
निकल गई हो।
वैसी
नपुंसकता धन्यभाग्य
है, क्योंकि
वही
ब्रह्मचर्य
है। वही
ब्रह्मचर्य
है कि आपमें
ऊर्जा तो पूरी
है लेकिन
वासना ही नहीं
उठती। ऊर्जा
विराट है, लेकिन
नीचे की तरफ
बहने का भाव
नहीं उठता।
सक्रिय ध्यान
से ऐसा होगा।
उन
मित्र ने यह
भी पूछा है कि
समझ में नहीं
आता कि "हू' की आवाज से
काम-केंद्र पर
कैसे चोट लगती
होगी।
उन्होंने
पूछा है कि
श्वास तो नाभि
तक ही जाती है,
उसके नीचे
नहीं जाती, तो फिर इस
श्वास में "हू'
की जो
प्रतिध्वनि गूंजती है,
वह नीचे तक
कैसे जाती
होगी?
बहुत
बातें हैं।
पहली, आप सिर्फ
श्वास नाक से
ही नहीं लेते
हैं, पूरे
शरीर से लेते
हैं।
रोआं-रोआं
श्वास ले रहा
है। और अगर
आपकी नाक खुली
छोड़ दी जाए, और सारे
शरीर को पेंट
करके सब रोएं
बंद कर दिए
जाएं, तो
आप कितनी ही
श्वास लें, तीन घंटे से
ज्यादा जिंदा
नहीं रह सकते
हैं। क्योंकि
आप श्वास सब
जगह से ले रहे
हैं। और सब
जगह से लेना
जरूरी है।
क्योंकि आपका
रोआं-रोआं
जीवित है, वह
भी तो श्वास
ले रहा है, आपका
पूरा शरीर
श्वास ले रहा
है। आपके शरीर
में एक ऐसा
टुकड़ा भी नहीं
है, जो
बिना श्वास के
हो।
तो जब
"हू' कि
हुंकार आप
करते हैं, तो
वह हुंकार
सिर्फ आपके
हृदय में और
आपकी नाभि में,
जहां तक
आपकी श्वास
जाती है, वहीं
तक नहीं गूंजती,
वह हुंकार
धीरे-धीरे
जहां श्वास
आपके शरीर में
प्रवेश करती
है, रोएं-रोएं
तक, वहां-वहां
तक गूंज जाती
है।
और
जैसे श्वास
रोएं-रोएं में
छिपी है, वैसे
ही काम-वासना
भी रोएं-रोएं
में छिपी है। काम-केंद्र
पर तो कन्सनटरेटेड
है, एकाग्र
है, लेकिन
छिपी तो सब
तरफ है। शरीर
में सिर्फ
काम-केंद्र ही
नहीं है, और
इरोटिक
जोन्स भी हैं,
और अंग भी
हैं शरीर के
जो
कामोत्तेजना
से भर जाते
हैं। स्तन हैं,
वे भी
कामोत्तेजना
से भर जाते
हैं। काम भी
काम-केंद्र पर
कन्सनटरेटेड
है, वहां
सर्वाधिक है,
लेकिन फैला
है पूरे शरीर
में। जैसे
श्वास फैली है,
ऐसे ही
काम-वासना भी
फैली है। जब
आप चोट करते हैं
हुंकार की, तो यह
हुंकार की चोट
जहां-जहां
श्वास जाती है,
वहां-वहां
तक विस्तीर्ण
हो जाती है।
आपके भीतर
जहां-जहां
वायु है, वहां-वहां
यह ध्वनि गूंज
जाती है, विस्तीर्ण
हो जाती है।
इसलिए
तो इतना आग्रह
है मेरा कि
बहुत जोर से करें
कि जरा भी, एक भी
हिस्सा इस
ध्वनि से
वंचित न रह
जाए, और
आपके सारे
शरीर की
काम-ऊर्जा पर
चोट पड़ जाए।
और जगह-जगह से
काम-ऊर्जा इस
चोट से मुक्त
होने लगे। यह हैमरिंग
है, हथौड़े की तरह हम
बीज को तोड़
रहे हैं। भीतर
तो बीज वहीं
पड़ा रह जाए और
बीज की ऊर्जा
मुक्त हो जाए।
और ऊर्जा का
नियम है कि
मुक्त होते ही,
ऊर्जा ऊपर
की तरफ दौड़ती
है। ऊर्जा
दौड़ती ही ऊपर
की तरफ है, जैसे
लपट आग की ऊपर
की तरफ दौड़ती
है। सब ऊर्जाएं
ऊपर की तरफ
दौड़ती हैं। सब
पदार्थ नीचे
की तरफ गिरते
हैं। क्योंकि
पदार्थ पर ग्रेवीटेशन
का, गुरुत्वाकर्षण
का प्रभाव
पड़ता है।
ऊर्जा पर गुरुत्वाकर्षण
का कोई प्रभाव
नहीं पड़ता।
और जब
ऐसा होने लगे
कि आपकी
काम-वासना लगे
कि नहीं उठती
है, तो प्रभु
को धन्यवाद
देना। और
चिंता मत ले
लेना और चिंता
से डर कर
ध्यान करने से
मत रुक जाना।
जल्दी ही भीतर
समाधि घटित
होगी। और तभी
पता चलेगा कि
जिस शक्ति से
समाधि मिल
सकती थी, उसको
हम संभोग में
व्यर्थ खोते
रहे। लेकिन जब
तक वह नहीं
मिली, तब
तक संभोग ही
समाधि मालूम
पड़ता है। जब
वह मिलेगी, तभी तुलना
हो सकती है।
तो
बुद्ध और
महावीर अगर आप
पर बहुत दया
से भर जाते
हैं, तो उस दया
का बड़े से बड़ा
कारण तो यह है
कि आप हीरे खो
रहे हैं, और
प्रत्युत्तर
में कुछ भी
नहीं पा रहे
हैं, ना के
बराबर।
इन्हीं हीरों
से वह खरीदा
जा सकता है, जो फिर कभी
नहीं खोएगा।
मनुष्य के
जीवन की जो
महत्तम
यात्रा है, वह संभोग से
समाधि की ओर
है। और जब तक
हम संभोग से
समाधि की ओर
नहीं पहुंच
जाते, तब
तक गंतव्य
नहीं मिला, तब तक हम भटक
रहे हैं।
अब हम
इस सूत्र को
लें।
"छठवां
द्वार
ध्यान-द्वार
संगमरमर के
कलश जैसा है--सफेद
और पारदर्शी।
उसके भीतर एक
स्वर्ण-अग्नि जलती
है, वह
प्रज्ञा की
शिखा है, जो
आत्मा से
निकलती है।
वीर्य मुक्त
हो जाए काम-केंद्र
से, तो
ध्यान बनना
शुरू हो जाता
है। जैसे-जैसे
हम ऊपर बढ़ते
हैं, वैसे-वैसे
ध्यान होने
लगता है।
संभोग में भी
ध्यान होता
है। शायद
इसलिए हमारे
मन में संभोग की
इतनी प्रबल
आकांक्षा है;
वह ध्यान की
ही खोज है।
हमें और कुछ
पता नहीं, इसलिए
पहले द्वार को
हम सब कुछ समझ
लेते हैं। संभोग
ध्यान की पहली
घटना है, निम्नतम
है। है ध्यान
की ही।
फिर
जैसे-जैसे
वीर्य-ऊर्जा
एक केंद्र से
दूसरे केंद्र
में उठती है, ध्यान और
गहरा हो जाता
है। तीसरे
केंद्र में और
गहरा हो जाता
है। चौथे
केंद्र में और
गहरा हो जाता
है; गहरा
होता जाता है।
पांचवें
केंद्र से
ध्यान की शिखा
बहुत साफ हो
जाती है।
पांचवां
केंद्र आज्ञाचक्र
है, जिसको
मैं तृतीय
नेत्र आपसे
कहता हूं। उसे
रगड़ें वह
पांचवां
केंद्र है। जब
काम की ऊर्जा
वहां पहुंचती
है, तो बड़ा
उज्जवल ध्यान
होने लगता है।
पूर्ण उज्जवलता
तो सातवें
द्वार पर आती
है।
"ध्यान
का द्वार है
संगमरमर के
कलश जैसा।
सफेद और
पारदर्शी है।
उसके भीतर एक
स्वर्ण अग्नि
जलती है। वह
प्रज्ञा की
शिखा है, जो
आत्मा से निकलती
है।’
ज्ञान
शास्त्र में
नहीं, शब्द
में भी नहीं, ज्ञान है
आपके भीतर
छिपे ध्यान के
कलश में। उस
ज्ञान का नाम
प्रज्ञा है, वह जो शिखा
भीतर जल रही
है ध्यान के
कलश में। और
ध्यान
पारदर्शी कलश
है, शुद्ध
संगमरमर का।
बाहर भी उसकी
किरणें दिखाई
पड़ती हैं। जो
लोग ध्यान को
उपलब्ध हो
जाते हैं, उनके
शब्दों में, उनकी वाणी
में, उठने-बैठने
में प्रज्ञा
की झलक आने
लगती है। वह
जो भी छिपा है,
बाहर भी
बहने लगता है।
"तू
ही वह कलश है।’
"ध्यान
का वह कलश तू
है।’
"अब
तूने अपने को
इंद्रियों के
विषयों से
विच्छिन्न कर
लिया है। तूने
दर्शन-पथ तथा
श्रवण-पथ की
यात्रा कर ली
है और अब तू
ज्ञान के
प्रकाश में
खड़ा है। अब तू
तितिक्षा की
अवस्था को
उपलब्ध हो गया
है।’
वीर्य
के पांचवें
द्वार के बाद, ये घटनाएं
अपने आप घट
जाती हैं। यह
उसके परिणाम
हैं कि
व्यक्ति
इंद्रियों से
विच्छिन्न हो जाता
है। इंद्रियों
से हमारा जोड़
संभोग की
आकांक्षा के
कारण है।
काम-वासना, हमारी
इंद्रियां और
हमारे बीच जोड़
है। जब काम-वासना
ही मुक्त हो
जाती है, तो
इंद्रियों से
हमारा संबंध
विच्छिन्न हो
जाता है।
हाथ से
मेरा संबंध
क्या है?
मेरा
हाथ से संबंध
दो तरह का है।
एक तो वह है, जो मेरे हाथ
की हड्डी टूट
जाए और फ्रेक्चर
हो जाए, तो
डाक्टर जानता
है कि क्या
संबंध है। वह
हड्डी को फिर
जोड़ देगा। वह
मेरा देह का
देह से संबंध
है। एक और
संबंध है मेरे
हाथ का जो
वास्तविक संबंध
है, जिसको
कोई डाक्टर
नहीं जोड़ सकता,
कोई डाक्टर
नहीं तोड़
सकता। वह संबंध
है, मेरे
स्पर्श की
वासना, यह
हाथ से मैं
छूता हूं।
हाथ से
मेरे दो संबंध
हैं--एक मेरे
देह का संबंध
है कि
हड्डियों से
हड्डियां
जुड़ी हैं, तो वह
यांत्रिक है;
एक दूसरा
संबंध है मेरे
स्पर्श की
वासना का। वस्तुतः
उसके कारण ही
मैं हाथ से
जुड़ा हूं। जिस
दिन मेरे स्पर्श
की वासना पूरी
तरह समाप्त हो
जाए, उस
दिन हाथ से
मैं नहीं जुड़ा
हूं, हाथ
भला मुझ से
जुड़ा हो। जो
हाथ के संबंध
में सही है, वह सब
इंद्रियों के
संबंध में सही
है।
जननेंद्रियों
से आप जुड़े
हैं चमड़ी से, हड्डी से; वह अलग बात
है। गहरा जोड़
तो आपकी
काम-वासना का है।
इसलिए कभी
आपने खयाल
किया कि मन
में काम का विचार
उठा कि
जननेंद्रियां
तत्काल
प्रज्वलित हो
जाती है। मन
में विचार उठा
नहीं कि जननेंद्रिय
प्रभावित हुई
नहीं। एक
विचार का जोड़
है भीतर, वासना
का जोड़ है। वह
वासना का जोड़
जैसे ही ऊर्जा
ऊपर उठनी शुरू
होती है, टूटता
जाता है। फिर
हाथ रह जाता
है, लेकिन
छूने की वासना
नहीं रह जाती।
तब आप चीजें
उठा सकते हैं,
छू भी सकते
हैं, लेकिन
छूने की कामना
तिरोहित हो
जाती है। चीजें
छुई जाएंगी, लेकिन छूने
का कोई मोह, कोई पागलपन
आपके भीतर
नहीं है।
इंद्रियों का आप
उपयोग कर
सकेंगे, लेकिन
इंद्रियां अब
आपकी गुलाम
हैं, मालिक
नहीं हैं। और
यह घटना तभी
घट सकती है।
इसको
कोई उल्टे ढंग
से घटाना चाहे, तो मुश्किल
में पड़ जाता
है। कोई इस डर
से कि यह हाथ
में छूने की
वासना है, इसलिए
हाथ काट डालो
और आंख में
सौंदर्य
देखने की
वासना है, इसलिए
आंख फोड़ डालो--यह भी
लोग करते हैं,
यह पागलपन
है। क्योंकि
आंख फोड़
डालने से भी
वह जो देखने
की वासना थी, वह नहीं छूटेगी;
अंधी आंखों
के भीतर भी
खड़ी रहेगी, फूटी आंखों
के भीतर खड़ी
रहेगी। आप आंख
बंद कर लें, इससे क्या
होता है? सपने
देखेंगे आप।
जो बाहर देखते
थे, वह अब
भीतर ही देखने
लगेंगे। सारा
संसार भीतर आ
जाएगा। अगर
सुंदर स्त्री
को देखने की
कामना थी, आंख
फोड़ ली इस
डर से कि न
होगी आंखन
रहेगा बांस, न बजेगी
बांसुरी।
इतना आसान
नहीं है
बांसुरी का
बंद होना।
बांस की वजह
से बांसुरी
बजती ही नहीं।
बांसुरी बजती
है भीतर किसी
राग की वजह से।
बांस न होगा, तो कहीं और
बजेगी, किसी
और ढंग से
बजेगी--बजेगी।
अगर बांस न
होगा तो बाहर
प्रगट न होगी,
भीतर ही
बजती रहेगी।
बांस से
बांसुरी बजती
होती तो बड़ी
आसान बात थी।
बांस को तोड़
देते, बांसुरी
का बजना भी
टूट जाता।
बांस को हम
उठाते ही
इसलिए हैं, बांसुरी
बनाते ही
इसलिए हैं कि
भीतर वह बज
रही है पहले
से, उसको
प्रगट करना
है।
इंद्रियां
बांस की
पोंगरी हैं और
भीतर से जो रस
वासना का बह
रहा है, वही
असली चीज है।
बांस को तोड़ने
में मत लगना, नासमझ उसमें
लगते हैं।
भीतर के रस को
ही मुक्त करने
में लगना।
बांसुरी पड़ी
ही रह जाएगी, बजना बंद हो
जाएगा। होठ पर
ही रखी रहे
बांसुरी तो
बजना बंद हो
जाएगा।
अगर
भीतर की वासना
से मुक्त होना
है, तो वीर्य
को ऊपर की तरफ
ले चलना है, वीर्य को
नीचे के
केंद्रों से
मुक्त करना है;
अपने आप
इंद्रियों से
संबंध
विच्छिन्न
होने लगेगा।
सूत्र
कहता है कि
तूने यहां तक
पहुंचकर, वीर्य
के मार्ग तक
पहुंचकर, दर्शन-पथ,
श्रवण-पथ की
यात्रा कर ली।
जो भी
देखने योग्य
था, वह देख
लिया, जो
भी सुनने
योग्य था, वह
सुन लिया। यह
भीतर के संबंध
में है। जो
वीर्य के
द्वार पर
पहुंच गया, उसने जो भी
देखने योग्य
है भीतर के
जगत में, वह
देख लिया; जो
भी सुनने
योग्य था, वह
सुन लिया।
अब तू
ज्ञान के
प्रकाश में
खड़ा है।
अब न
सुन रहा है तू, न देख रहा है
तू--अब तू खुद
ही प्रकाश में
डूबा
हुआ
है। अब इतना
भी फासला नहीं
है कि सुनना
और देखना। अब
तू खुद ही
ज्ञान हुआ जा
रहा है, लीन
हुआ जा रहा
है।
तितिक्षा
का अर्थ है: अब
तुझे दुख और
सुख समान हैं।
अब तुझे दुख
और सुख में
कोई प्रयोजन
नहीं है। इसका
मतलब यह नहीं
कि अब सुख का
पता नहीं
चलेगा, दुख
का पता नहीं
चलेगा। अगर
बुद्ध के पैर
में भी कांटा चुभाइएगा,
तो दर्द पता
चलेगा। शायद
आपको जितना
पता चलता, उससे
भी ज्यादा
चलेगा।
क्योंकि
बुद्ध की
संवेदनशीलता,
सेंसिटिविटी
परम है। यह तो
पता चलेगा।
कांटा चुभेगा
तो
दर्द पता
चलेगा; लेकिन
दर्द दुख नहीं
देगा, वह
अलग बात है।
बुद्ध के हाथ
में एक सुकोमल
फूल रखिएगा, तो उस
सुकोमल फूल की
नाजुकता, उसकी
कोमलता, उसकी
गंध, उसका
सौंदर्य सब
पता चलेगा। यह
सब प्रतीति
होगी, यह
सब अनुभव
बनेगा, लेकिन
इससे कोई सुख
नहीं होगा।
क्या
मतलब इसका कि
कांटा गड़ेगा
तो दुख नहीं
होगा? कांटा
गड़ेगा, तो कष्ट
होगा, दुख
नहीं होगा।
कष्ट
बाहरी घटना है, शारीरिक
घटना है, दुख
उसकी
व्याख्या है।
जब कांटा पैर
में गड़ता
है, तो यह
तो कष्ट होगा
ही। कष्ट का
मतलब प्रतीति होगी।
पैर खबर देगा,
पैर के
स्नायु
तत्काल खबर
भेजेंगे, संदेश
भेजेंगे
मस्तिष्क को
कि कांटा गड़ा।
लेकिन
मस्तिष्क
इसकी
व्याख्या
नहीं करेगा।
मस्तिष्क यह
नहीं कहेगा कि
ऐसा नहीं होना
चाहिए, या
मस्तिष्क यह
नहीं कहेगा कि
ऐसा अब कभी न
हो; मस्तिष्क
यह नहीं कहेगा
कि मैं शिकायत
करता हूं
परमात्मा से
कि कांटा
क्यों गड़ा?
मस्तिष्क
इसे स्वीकार
कर लेगा कि
ठीक है।
हाथ
में फूल हो, खबर मिलेगी,
लेकिन
मस्तिष्क
व्याख्या
नहीं करेगा कि
यह फूल
रोज-रोज ऐसा
ही मेरे हाथ
में हो, कि
कल नहीं होगा
तो मैं दुखी
हो जाऊंगा;
कि कल नहीं
था तो मेरी
जिंदगी बेकार
थी, अब
मेरी जिंदगी
में अर्थ है; ऐसी
व्याख्या
नहीं करेगा।
सुख-दुख
व्याख्याएं
हैं।
कष्ट, सुविधाएं, असुविधाएं तथ्य हैं।
तथ्य
पता चलता
रहेगा, व्याख्या
विलीन हो
जाएगी।
सुख-दुख
हमारी
कामनाएं हैं; सुविधाएं, असुविधाएं बाह्य जीवन
के तथ्य हैं।
तितिक्षा
का अर्थ है: अब
बाहरी घटनाएं
भर पता चलेंगी, उनके कारण
भीतर कोई घटना
निर्मित नहीं
होगी, कोई
आग्रह, कोई
अपेक्षा भीतर
निर्मित नहीं
होगी। कांटा गड़े
तो ठीक, हाथ
में फूल हो तो
ठीक। बुद्ध
जैसे भीतर थे
कांटे के गड़ने
के पहले, वैसे
कांटा गड़ने
पर भी रहेंगे।
बुद्ध जैसे थे
फूल तो ठीक, हाथ में आने
के पहले, बुद्ध
भीतर वैसे ही
रहेंगे। उस
भीतर के लोक
में बाहर की
घटनाओं से कोई
भी रूपांतरण
नहीं होगा।
भीतर वही
स्थिति बनी
रहेगी। यह
भीतर वही स्थिति
बनी रहेगी, चाहे बाहर
कुछ भी घटे।
इसका नाम है
तितिक्षा।
"ओ नारजोल, अब तू
सुरक्षित है।’
सूत्र
कहता है, ओ
सिद्ध।
नारजोल
तिब्बती शब्द
है सिद्ध के
लिए।
"ओ नारजोल, अब तू
सुरक्षित है।’
वीर्य
ऊपर की तरफ चल
पड़ा, अब
असुरक्षा
नहीं है। अब
तक डर था।
वीर्य की यात्रा
ध्यान बन गई, अब डर नहीं
है, अब तू
सुरक्षित है।
पापों
के विजेता अब
पाप जीत लिए
गए।
"एक
बार जब किसी स्रोतापन्न
ने सातवें
मार्ग को पार
कर लिया है, तब समस्त
प्रकृति
आनंद-पूर्ण
आश्चर्य से भर
जाती है और
पराजित अनुभव
करती है।’
अब आगे
की एक झलक यह
सूत्र देता
है। छठवां
द्वार है
ध्यान। अब सातवां
ही बचा है, अब मंजिल
बिलकुल पास
है। अब एक कदम
और है कि ध्यान
का कलश भी टूट
जाएगा, और
रह जाएगी
शुद्ध
प्रज्ञा। अभी
झलक मिल रही है।
जैसे एक
लालटेन हो, कितना ही
शुभ्र हो कांच,
कि कितना ही
शुद्ध और
पारदर्शी; दिखाई
भी न पड़ता हो, तो भी जरा सा
फासला अभी
कायम है। कांच
की एक दीवाल
है और उसके
भीतर है ज्योति।
ध्यान
कांच की दीवाल
है, समाधि
कांच की दीवाल
का भी टूट
जाना है।
पर
कांच की दीवाल
भी दीवाल है।
अभी भी थोड़ा
फासला है। और
कांच कितना ही
शुद्ध हो, शुद्धि भी
बीच में खड़ी
हो, तो वह
भी अवरोध है।
वह भी टूट
जाएगी। सातवें
में सब अवरोध
गिर जाएंगे; मात्र
प्रज्ञा, मात्र
बोध, अवेयरनेस,
चैतन्य, जिसको
हमने
सच्चिदानंद
कहा है, वही
भर शेष रह
जाएगा। इस
सातवें द्वार
की घटना तब
घटती है, जब
कोई स्रोत में
प्रविष्ट, नदी
की धारा में
बहा।
स्रोतापन्न
या सोवानी--यह
बौद्ध
तिब्बती शब्द
है। सोवानी
का अर्थ है, जो नदी में
प्रविष्ट हुआ
था पहले द्वार
पर, वह अब
सातवें द्वार
को पार कर
जाता है। तब
समस्त
प्रकृति
आनंदपूर्ण
आश्चर्य से भर
जाती है और
पराजित अनुभव
करती है।
इसे
थोड़ा समझें, बहुत कीमती
है, बहुत
गूढ़ है, और
हमारे खयाल
में न आए, क्योंकि
हमें पता भी
नहीं है कि
क्या हो रहा
है हमारे
भीतर।
जब आप
क्रोधित हो
जाते हैं, तब प्रकृति
जीतती है और
आप हारते हैं।
जब आप काम-वासना
से भर जाते
हैं, तो
प्रकृति
जीतती है और
आप हारते हैं।
तब पृथ्वी की
शक्तियां जीत
जाती हैं। और
ऊपर उड़ने
वाली ऊर्जा, ऊपर जाने
वाली ऊर्जा झटककर
नीचे गिर जाती
है। संभोग के
बाद सभी को जो
एक उदासी, एक
विषाद और एक
पश्चात्ताप
का भाव घेर
लेता है, वह
प्रकृति से
पराजय के
कारण। क्रोध
के बाद क्रोधी
से क्रोधी
आदमी को भी
लगता है कि
गलत हुआ, न
होता तो अच्छा
था। क्यों
लगता है ऐसा? और आदमी
क्रोधी है, आदमी दुष्ट
प्रकृति का है,
कठोर है; उसको भी
लगता है कि
बुरा हुआ!
क्या बुरा लगा?
क्या उसे यह
बुरा लगता है
कि मेरे क्रोध
के कारण दूसरे
को चोट पहुंची?
नहीं, वह काफी
कठोर है, दुष्ट
है। दूसरे को
तो चोट
पहुंचाने में
उसको रस आता
है, उसे
पश्चात्ताप
नहीं होता।
पश्चात्ताप
यह होता है कि
मैं हारा। जब
भी क्रोध उसे पकड़
लेता है, तो
उससे कोई बड़ी
ताकत जैसे उसे
खींचकर चला
देती है और वह
अपने वश में
नहीं रह जाता,
इसका
पश्चात्ताप
होता
है।
संभोग
से जो
पश्चात्ताप
होता है, वह
यह नहीं कि
संभोग में कोई
दुख है; संभोग
में सुख का
क्षण है, पश्चात्ताप
यह होता है कि
मुझसे विराटतर
शक्ति ने मेरी
गर्दन पकड़ ली
और मुझे चला
दिया और मैं
कुछ भी न कर
पाया।
पश्चात्ताप
हार का है, एक
पराजय का है।
पाप हम
कहते ही उसे
हैं, जिसके
पीछे आप को
हार की
प्रतीति हो।
और
पुण्य हम कहते
ही उसे हैं, जिसके पीछे
आपको जीत की
प्रतीति हो।
जिस काम के
करने से आपको
भीतर गौरव का
अनुभव हो और
लगे कि मैं
मुक्त हुआ, कोई प्रबल
शक्ति मुझे
खींचती नहीं,
मैं खुद
शक्तिशाली हो
गया हूं, उस
प्रतीति का
नाम पुण्य है।
उस
प्रतीति का
नाम पाप है, जब आपको लगे
कि किसी और ने
मुझसे कुछ
करवा लिया, मैं अपना
मालिक न रहा।
गुलामी
का बोध पाप है, मालकियत का
बोध पुण्य है।
इसलिए
हम संन्यासी
को स्वामी
कहते हैं।
सिर्फ इसलिए
कि अब वह
धीरे-धीरे
स्वामित्व की
तरफ बढ़ रहा है, और
धीरे-धीरे
उसके भीतर जो
दासता का तत्व
है, उसे वह
निकाल बाहर
करेगा, नष्ट
करेगा और हर
मौके को अपनी
मालकियत, अपना
स्वामित्व
बनाएगा।
जन्मों-जन्मों
तक हम हारते
हैं, पराजित
होते हैं।
प्रकृति मान
ही लेती है कि
हम जीत नहीं
सकते। सोचें
आप खुद ही, इसी
जिंदगी को
सोचें, दूसरी
जिंदगी का तो
आपको पता भी
नहीं है। इसी जिंदगी
में तो कितनी
बार तय किया
है कि नहीं
करेंगे क्रोध,
और फिर-फिर
किया है। एक
भी बार नहीं
जीत पाए।
तो
आपके भीतर जो
क्रोध की
ऊर्जा है, जो पृथ्वी
की कशिश है
आपके भीतर, जमीन की तरफ
खींचने की जो
ताकत है, वह
आश्वस्त हो गई
है कि
तुम्हारी
बातों का, तुम्हारे
वचनों का, तुम्हारी
कसमों का कोई
मूल्य नहीं
है। तुम नाहक
बकवास किया
करते हो।
क्योंकि जब भी
होता है वही
होता है, जो
प्रकृति
चाहती है।
आपके किए क्या
होता है। तो
जन्मों-जन्मों
से प्रकृति
आश्वस्त है
आपसे, कि
आप भरोसे के
आदमी हैं। आप
कितने मंदिर
जाओ, पूजा-प्रार्थना
करो, कितनी
कसमें खाओ, कितने
गुरुओं के
चरणों में भटको;
प्रकृति
जानती है कि
तुम नाहक
यहां-वहां समय
गंवा रहे हो, आखिर तुम
मेरे ही शरण
हो, और सब
करके तुम मेरे
ही शरण आ जाते
हो। सुबह का भटका
सांझ तक घर
लौट आता है; ज्यादा देर
नहीं लगती।
प्रकृति को
आपकी बातों से
कोई चिंता
पैदा नहीं
होती।
इसलिए
जब पहली दफा
कोई व्यक्ति नारजोल की, सिद्धि की
अवस्था में
पहुंचता है, और
काम-ऊर्जा
स्पर्श कर
लेती है ऊपर
के केंद्रों
का, तो
समस्त
प्रकृति
आनंदपूर्ण
आश्चर्य से भर
जाती है, और
पराजित अनुभव
करती है।
आनंदपूर्ण
आश्चर्य से भर
जाती है और
पराजित अनुभव
करती है।
ये बड़े
विपरीत शब्द
हैं। पराजित
अनुभव करती है; क्योंकि सदा
वह विजेता थी
और आप हारे
हुए थे। पहली
दफा आप जीत गए,
और प्रकृति
हार गई। इसलिए
पराजित अनुभव
करती है।
लेकिन दुख का
अनुभव नहीं
करती है, आनंदपूर्ण
अनुभव करती
है।
क्यों?
एक
रहस्य है। और
वह यह है कि
जिसको आप गुलाम
बनाते हैं, आप भी उसके
गुलाम बन जाते
हैं। किसी को
गुलाम बनाना
आसान नहीं, गुलाम बनाने
में खुद भी
गुलाम बनना
पड़ता है।
सुना
है मैंने, एक आदमी एक
गाय को बांध
कर ले जा रहा
था, और
रास्ते में
उसे मिल गया
एक सूफी
फकीर--फरीद! फरीद
ने अपने
शिष्यों से
कहा कि इस आदमी
को घेर लो, मैं
कुछ तुम्हें
ज्ञान दूंगा।
वह गाय वाला
आदमी घिर गया
और उसके शिष्य
घेर कर खड़े हो
गए। फरीद को
ऐसे ही शिक्षा
देने की आदत
थी। उसने कहा कि
देखो, मैं
तुमसे पूछता
हूं कि इसमें
गुलाम कौन
है--यह आदमी या
गाय? शिष्यों ने
कहा कि वह कोई
पूछने की बात
है, गाय
गुलाम है; यह
आदमी मालिक
है। तो फरीद
ने कहा
कि यह
अगर सच है, तो यदि इन
दोनों के बीच
का संबंध तोड़
दिया जाए, तो
गाय आदमी को खोजेगी, कि आदमी गाय
को खोजेगा?
आदमी
गाय को
खोजेगा। फिर
गुलाम कौन है? जिसको हम बांधते
हैं, उससे
हम बंध भी
जाते हैं। और
बड़ी सूम गुलामी
पैदा हो जाती
है। मालिक भी
गुलाम होता है
सूम में।
मालिक तो वही
होता है, जो
किसी को गुलाम
नहीं बनाता।
तो
प्रकृति भी
आपको गुलाम
बनाए हुए है।
लेकिन जिस दिन
आप मुक्त होते
हैं, उस दिन वह
भी आनंद से भर
जाती है; क्योंकि
वह भी आपसे
मुक्त हुई।
पृथ्वी को भी
झंझट आपकी
मिटी। आप कुछ
छोटी झंझट
नहीं हैं।
अपने लिए ही
झंझट हैं, ऐसा
नहीं है। आप
इस पूरी
पृथ्वी के लिए
झंझट हैं। आप
उपद्रव के
स्रोत हैं।
आपको
बांध-बांध कर
ही रखना पड़ता
है। जिस दिन
आप मुक्त होते
हैं, आपको
बांधने की
जरूरत ही चली
जाती है।
समस्त
प्रकृति
आनंदपूर्ण
आश्चर्य से भर
जाती है। आनंद
भी होता है, और आश्चर्य
भी कि तुम और
यह कर सके!
तुमसे कोई आशा
न थी, तुम
बड़े भरोसे के
न थे, तुम
भी यह कर सके!
इतने जन्मों
तक भटक कर भी
तुम जीत सके, इतने जन्मों
की पराजित
होने की आदत
को भी तुम तोड़
सके! स्वभावतः
एक गहन
आश्चर्य छा जाता
है।
रजतत्तारा--बड़े
मीठे वचन हैं।
"रजतत्तारा अब जलते
इशारों से
रजनी-गंधा को
यह समाचार बताता
है, झरना
अपने कल-कल
स्वर में कंकड़ियों
को यह कथा
सुनाता है, सागर की
काली लहरें
गर्जन करके
यही बात फेनिल
चट्टानों को
बताती हैं, गंध-भरी हवाएं
घाटियों के
कान में इसका
ही गीत गाती
हैं, और चीड़
के शानदार
वृक्ष बड़े
रहस्यपूर्ण
ढंग से गुनगुनाते
हैं: बुद्ध का
उदय हुआ है--आज
के बुद्ध का।’
यह
हमें कठिन
लगेगा, और
लगेगा शायद
काव्य है।
लगेगा कि कवि
की कल्पना है।
अगर ऐसा लगा, तो आप
मुद्दा चूक गए,
तो आप समझ न
पाए कि बात
क्या है। ऐसे
सूत्रों को लिखनेवाले
लोग कविताओं
में नहीं
उलझते। ऐसे
सूत्रों को जाननेवाले
लोग कल्पनाओं
से नहीं
खेलते। ए तथ्य
हैं। कहने का
ढंग काव्यपूर्ण
है, क्योंकि
यह तथ्य ही काव्यपूर्ण
है।
जिस
दिन बुद्ध का
जन्म होता
है--कोई एक
व्यक्ति
बुद्धत्व को
उपलब्ध होता
है, तो उसके
साथ ही इस
सारी प्रकृति
में झनझनाहट फैल
जाती है। यह
घटना असाधारण
है। यह कोई
छोटी घटना
नहीं है। जैसे
एक
ज्वालामुखी
फूट पड़ता है, सारी पृथ्वी
कंपन से भर
जाती है। यह
भी एक ज्वालामुखी
का विस्फोट है;
पदार्थ का
नहीं, चेतना
का। इसकी तरलत्तरंग
सारी प्रकृति
को स्पर्श
करेगी। कुछ भी
अछूता न रह
जाएगा। बुद्ध
की घटना
एक्सप्लोजन
है, विस्फोट
है। इस घटना
में चैतन्य का
कण-कण प्रभावित
होगा, आच्छादित
हो जाएगा।
और यह
सारा जगत
चैतन्य से बना
है। इसमें
पत्थर की भी
आत्मा है। हम
नहीं देख पाते, क्योंकि
हमारी आंखें
पथरीली हैं। यहां
पत्थरों की भी
आत्माएं हैं,
यहां झरनों
की भी आत्माएं
हैं। यहां
सागर की भी
आत्मा है।
यहां जो भी है
चारों तरफ, सब आत्मवान
है। और जब
बुद्धत्व की
घटना घटती है
और एक व्यक्ति
समस्त बंधनों
के बाहर हो
जाता है, और
एक व्यक्ति
परम
स्वतंत्रता
को उपलब्ध होता
है, और एक
व्यक्ति
समस्त अहंकार,
समस्त
रोगों से
मुक्त होता है,
एक व्यक्ति
के जब सारे
बंधन गिर जाते
हैं, तो यह
काव्य सत्य हो
जाता है, यह
तथ्य हो जाता
है।
"रजतत्तारा अपने जलते
इशारों से
रजनी-गंधा को
यही समाचार
बताता है'
रात
खिला है
रजनी-गंधा का
फूल, तारे
उससे भी यही
कहते
हैं--बुद्ध का
जन्म
हुआ!
"झरना अपने
कल-कल स्वरों
में, कंकड़-पत्थरों से
यही कथा
सुनाता है!
सागर की काली
लहरें गर्जन
करके यही बात
फेनिल
चट्टानों से
कह जाती हैं!
गंध भरी घाटियां
इसी का गीत
गुनगुनाती
हैं। चीड़
के शानदार
वृक्ष बड़े
रहस्यपूर्ण
ढंग से गुनगुनाते
हैं: बुद्ध का
उदय हुआ--आज के
बुद्ध का।’
"अब
वह पश्चिम में
उज्जवल स्तूप
की तरह खड़ा है,
जिसके मुंह
पर शाश्वत भाव
का उदीयमान
सूर्य अपनी
प्रथम महा गौरवमयी
किरणों को
बरसा रहा है।
उसका मन एक
शांत और असीम
सागर की तरह तटहीन
अंतरिक्ष में
फैलता जा रहा
है। और वह जीवन
और मृत्यु को
अपने मजबूत
हाथों में
धारण किए हुए
है।
ऐसा
नवजात बुद्ध
जैसे खड़ा है
पश्चिम में, मुख उसका
पूरब की तरफ
है, और
बुद्धत्व के
उदय का सूर्य,
बाल-सूर्य,
प्रज्ञा का
सूर्य अपनी
पहली किरणें
उस पर डाल रहा
है।
"अब
वह पश्चिम में
उज्जवल स्तूप
की तरह खड़ा है,
जिसके मुंह
पर शाश्वत भाव
का उदीयमान
सूर्य अपनी
प्रथम महा गौरवमयी
किरणों को
बरसा रहा है।
उसका मन एक
शांत और असीम
सागर की तरह तटहीन
अंतरिक्ष में
फैलता जा रहा
है।’ इस
सूरज के उदय
होने के साथ
ही उसकी चेतना
फैल रही है।
जैसे-जैसे यह
सूरज फैल रहा
है और जैसे-जैसे
इस सूरज की
किरणों का
ताना-बाना फैल
रहा है, वैसे-वैसे
उसकी चेतना भी
फैलती जा रही
है। क्योंकि
यह सूर्य कहीं
बाहर का सूर्य
नहीं, उसकी
चेतना का ही
सूर्य है।
अंतहीन
अंतरिक्ष बन
जाएगी उसकी
आत्मा, उसकी
कोई सीमाएं न
होंगी। क्षण
भर की देर है। और
वह जो व्यक्ति
था, खो
जाएगा। वह
द्वीप खो
जाएगा। सागर
ही रह जाएगा।
वह अब तक सीमा
में बंधा था, अब नहीं
होगा। असीम ही
रह जाएगा।
बुद्ध
ने कहा है
ज्ञान के हो
जाने पर, जिस
मकान में मैं
अब तक
जन्मों-जन्मों
रहता आया, उसकी
दीवालें गिर
गई हैं। अब तो
भीतर का शून्य
आकाश ही शेष
रह गया है।
जिसे
हम समझते हैं
अपना होना, वह हमारी
दीवालों के
कारण है। एक
दिन दीवालें गिर
जाएंगी। इस
छठवें द्वार
के बाद आखिरी
दीवाल गिर रही
है, वह
कांच की दीवाल,
पारदर्शी
दीवाल। अब
ध्यान भी मिट
जाएगा, सिर्फ
चैतन्य रह
जाएगा। और
चैतन्य असीम
है, उसकी
कोई सीमा नहीं
है।
"जीवन
और मृत्यु को
वह अपने मजबूत
हाथों में धारण
किए हुए है।’ अब जीवन और
मृत्यु दोनों
के पार हो गया
है। जीवन और
मृत्यु दोनों
उसके हाथ में
हैं। न वह जीवन
है, न वह
मृत्यु है।
जब तक
हम जीवन से
बंधे हैं, तब तक मौत से
भी बंधे हैं।
और जब तक जीवन
चाहते हैं, तब तक हमें
मौत भी मिलती
रहेगी। जब तक
जन्म है, तब
तक मौत होगी।
अब इस बुद्ध
के हाथ में
जीवन और
मृत्यु, दोनों
इसके हाथ में
हैं। यह स्वयं
दोनों से अलग
और पृथक है।
यह तीसरा है।
इसका कोई नाम
नहीं है। इसे
हम अमृत-जीवन
कहते हैं। वह
केवल इस पृथ्वी
की भाषा में।
इस पृथ्वी में
जीवन की
आकांक्षा से
भरे हुए लोगों
की समझ में आ
सके, इसलिए।
अन्यथा न वह
जीवन है, न
वह मृत्यु। वह
दोनों के पार
शाश्वतता है।
इस छठवें
द्वार के बाद
उस शाश्वतता
में छलांग लग
जाएगी। सीमित
असीम हो जाएगा,
और बूंद
सागर हो
जाएगी।
वीर्य
से ध्यान का
द्वार खुलता
है, ध्यान से
समाधि का।
वीर्य से
ध्यान का
द्वार खुलता
है, ध्यान
से समाधि का।
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