जिन सूत्र--(भाग--2)
सूत्र:
जेहिं दु लक्खिज्जंते, उदयादिसुसंभवेहिं
भावेहिं।
जीवा
ते गुणसण्णा, णिद्दिट्ठा, सव्वदरिसीहिं।।
144।।
मिच्छो सासण मिस्सो, अविरदसम्मो
य देसविरदो
य।
विरदो पमत्त इयरो, अपुत्व अणियट्टि सुहुमो य।
उवसंत खीणमोहो, सजोगिकेवलिजिणो
अजोगी य।
चोद्दस गुणट्ठाणाणि
य, कमेण सिद्धा य णायव्वा।।145।।
आज
के सूत्र
महावीर की
साधना-पद्धति
में अत्यंत
विशिष्ट हैं।
साधक की
यात्रा में
जैसा सूक्ष्म पड़ावों का
विभाजन
महावीर ने
किया है, वैसा
किसी और ने
कभी नहीं
किया। राह का
पूरा नक्शा, रास्ते पर पड़नेवाले पड़ाव, मील
के किनारे लगे
पत्थर, सभी
की ठीक-ठीक
सूचना दी है।
यह तभी
संभव है, जब
कोई गुजरा हो,
पहुंचा हो।
यह केवल विचार
कर लेने से, दार्शनिक
चिंतन से संभव
नहीं है। और
फिर हजारों
वर्षों में और
जो लोग सिद्धत्व
को उपलब्ध हुए,
उन सबने भी
गवाही दी है
कि महावीर का
वक्तव्य साधक
से लेकर सिद्ध
की मंजिल तक
अत्यंत सूक्ष्म
रूप से सही
है।
महावीर
की भाषा में
साधक चौदह गुणस्थानों
से गुजरता है।
एक-एक गुणस्थान
को ठीक से
समझना आवश्यक
है। कहीं न
कहीं तुम भी
खड़े होओगे इसी
रास्ते पर।
अपनी जगह ठीक
से पहचान लो, तो
कैसी यात्रा
करनी, कहां
से यात्रा
करनी, किस
तरफ
जाना--सुगम हो
जाता है।
"मोहनीय कर्मों के
उदय आदि (उपशम,
क्षय, क्षयोपशम आदि) से
होनेवाले जिन
परिणामों से
युक्त जीव पहचाने
जाते हैं, उनको
सर्वदर्शी
जिन ने गुण या गुणस्थान
की संज्ञा दी
है। अर्थात सम्यकत्व
आदि की
अपेक्षा
जीवों की
अवस्थाएं, श्रेणियां,
भूमिकाएं गुणस्थान
कहलाती हैं।'
"मिथ्यात्व,
सासादन,
मिश्र, अविरत
सम्यकदृष्टि,
देशविरत,
प्रमत्तविरत,
अप्रमत्तविरत,
अपूर्वकरण,
अनिवृत्तिकरण,
सूक्ष्मसाम्पराय,
उपशांतमोह,
क्षीणमोह,
संयोगिकेवलीजिन,
अयोगिकेवलीजिन,
ये क्रमशः
चौदह जीव-समास
या गुणस्थान
हैं। सिद्ध
जीव गुणस्थानातीत
होते हैं।'
पहला
स्थान है:
मिथ्यात्व।
जैसा है उसे
वैसा न देखने
को महावीर
मिथ्यात्व
कहते हैं।
जैसा है उससे
अन्यथा देखने
को महावीर
मिथ्यात्व
कहते हैं।
जैसा
है उसे देखने
में एक ही
बाधा
है--हमारा अहंकार।
सत्य को देखना
हो तो अपनी
सारी अस्मिता को
एक तरफ हटाकर
रख देना जरूरी
है। अगर तुमने
कहा कि मेरा
सत्य ही सत्य
होगा तो तुम
मिथ्यात्व
में ही जीयोगे।
सत्य
मेरा और तेरा
नहीं है। सत्य
तो बस सत्य है।
मेरेत्तेरे
के विशेषण
सत्य को
मिथ्या कर
जाते हैं।
अक्सर
ऐसा होता है, जब
तुम कहते हो
कि जो मैं कह
रहा हूं वही
सत्य है तो
तुम्हारा जोर
सत्य पर नहीं होता।
चूंकि तुम कह
रहे हो इसलिए
सत्य होना चाहिए।
तुम्हारे
कहने से थोड़ी
ही कोई बात
सत्य होती है।
सत्य से मेल
खा जाए तो
सत्य होती है।
तुम्हारे
होने से सत्य
नहीं होती।
इसलिए
जो व्यक्ति
अपने मैं को उतारकर रख
देगा और सत्य
के साथ जाने
को राजी होगा, वही
पहला कदम उठा
पाता है।
अन्यथा लोग
पहले कदम पर
ही अटके रह
जाते हैं।
अधिक लोग
मिथ्यात्व
में ही जीते हैं।
तुम्हें
भी बहुत बार
ऐसा मौका आ
जाता होगा, जब
तुम्हें थोड़ी
झलक भी मिलती
है कि तुम जो
कह रहे हो वह
ठीक नहीं, लेकिन
कैसे करें
स्वीकार? बेइज्जती
है, अपमान
है, प्रतिष्ठा
गिरती है। तो
तुम जिद्द
किए जाते हो।
तुम झूठ को भी
सच किए जाते
हो।
आस्कर
वाइल्ड ने कहा
है कि दुनिया
में दो तरह के
लोग हैं।
दुनिया दो
विभागों में
विभाजित है।
एक वे लोग, जो
कहते हैं सत्य
को हमारे साथ
खड़ा होना
होगा। हम जहां
खड़े हों, सत्य
को वहां खड़ा
होना होगा। ये
मिथ्यात्व-दृष्टि
लोग हैं।
दूसरे
लोग,
जो कहते हैं
सत्य जहां
होगा हम वहां
खड़े हो जाएंगे।
ये
सम्यक-दृष्टि
लोग हैं।
जरा-सा ही फर्क
है। शब्दों को
यहां-वहां रख
दो। सत्य को
मेरे साथ खड़ा
होना होगा, या मैं सत्य
के साथ खड़ा
होऊंगा।
शब्दों में तो
बड़ा थोड़ा फर्क
है, लेकिन
अस्तित्व में
बड़ा गहरा फर्क
हो जाता है।
जमीन-आसमान
जैसा फर्क हो
जाता है।
जोशुआ लियेमेन
ने लिखा है कि
जब वह युवा था
और अपने गुरु
के आश्रम में
था तो रोज दो
घंटे के लिए
आश्रम के बगीचे
में घूमने और
ध्यान करने का
समय मिलता था।
घूमने और
प्रार्थना
करने का समय
मिलता था।
खुली प्रकृति
में
प्रार्थना के
पंख लगाकर उड़ने
के लिए सुविधा
मिलती थी। एक
और युवक उसका
मित्र था, वे
दोनों साथ ही
साथ घूमते थे।
दोनों को
सिगरेट पीने
की लत थी, लेकिन
संकोच होता था,
कि गुरु से
पूछे बिना
आश्रम में
धूम्रपान कैसे
करें! तो
उन्होंने कहा,
पूछ ही
क्यों न लें? और गुरु
इतना सरल है, इतना सीधा
है कि शायद ही
इनकार करे।
उन्होंने
पूछा। दूसरे
दिन लियेमेन
जब पहुंचा तो
उसने देखा, उसका
साथी
धूम्रपान कर
रहा है। वह
बहुत हैरान हुआ।
उसने कहा, क्या
तुमने पूछा
नहीं? मैंने
तो पूछा, लेकिन
मेरे पूछते ही
उन्होंने कहा
नहीं, कभी
नहीं। तुमने
मालूम होता है
पूछा नहीं, या कि पूछकर
भी आज्ञा का
उल्लंघन कर
रहे हो? उस
युवक ने कहा, आश्चर्य!
मैंने तो पूछा
और उन्होंने
कहा कि बिलकुल
ठीक है, पीयो।
लियेमेन ने
कहा कि मेरी
समझ में नहीं
आता कि हम
दोनों को इतने
विपरीत उत्तर
क्यों दिए गए? उस
दूसरे युवक ने
कहा, पहले
यह कहो, तुमने
पूछा क्या था?
लियेमेन ने कहा, मैंने
पूछा था कि
क्या मैं
प्रार्थना
करते समय
धूम्रपान कर
सकता हूं? उन्होंने
कहा, नहीं,
कभी नहीं।
और लियेमेन
ने पूछा उस
युवक से, तुमने
क्या पूछा था?
उस
युवक ने कहा
कि बस, बात साफ
हो गई। मैंने
पूछा था कि
क्या मैं
धूम्रपान
करते समय
प्रार्थना कर
सकता हूं? उन्होंने
कहा, निश्चित।
"धूम्रपान
करते समय
प्रार्थना कर
सकता हूं?' कौन
मना करेगा? लेकिन
"प्रार्थना
करते समय
धूम्रपान कर
सकता हूं?' कौन
हां भरेगा? पर बात
जरा-सी फर्क
की है, पर
बड़े फर्क की
है।
जमीन-आसमान का
फासला हो जाता
है।
महावीर
कहते हैं, सत्य
के पक्ष में
खड़े होना; सत्य
को अपने पक्ष
में खड़ा मत
करना।
तुम्हारे पक्ष
में होने के
कारण ही सत्य
असत्य हो जाता
है। तुम असत्य
हो। तुम्हारा
जहर सत्य को
भी जहरीला कर
देगा। तुम
अपनी छाया
सत्य पर मत
डालना। तुम
अपनी गंदगी
सत्य पर मत
डालना। तुम
सत्य के साथ
हो लेना लेकिन
सत्य को अपने
पीछे चलने की
जबर्दस्ती मत
करना। वहां
हिंसा हो जाती
है। जब तुम
सत्य को अपने
पीछे घसीटते
हो, सत्य
मर जाता है।
सत्य जीता है
स्वतंत्रता
में।
तो तुम
भूलकर भी यह
चेष्टा मत
करना कि मैं
जो कहूं वह
सत्य हो। तुम
यह चेष्टा जरूर
करना कि जो
सत्य हो वही
मैं कहूं।
अंतर जरा-सा
है;
अंतर बहुत
बड़ा भी है। हम
सबके मन में
यह दंभ होता
ही है कि जो
मैं कहता हूं
वह सत्य होना
ही चाहिए।
मैंने कहा!
मैंने
देखा कि
मुल्ला नसरुद्दीन
अपने घर में
दो गुल्लक रखे
हुए है। मैंने
पूछा यह किसलिए? तो
वह कहता है कि
मैं एक में
असली सिक्के
डालता हूं, दूसरे में
नकली सिक्के।
हर साल खोलता
हूं। तो मैंने
कहा, अब की
बार तुम जब खोलो
तो मैं मौजूद
रहूंगा। उसने
खोला, गुल्लक
तोड़े, तो
सब सिक्के
जिसमें वह
नकली सिक्के
डालता, उसी
गुल्लक में
निकले। असली सिक्केवाला
गुल्लक तो
खाली निकला।
मैंने कहा, मामला क्या
है? क्या
सभी सिक्के
नकली हैं? उसने
कहा कि जो
हमने नहीं
ढाला वह असली
कैसे हो सकता
है? अगर ये
ही सिक्के
मैंने ढाले
होते अपने घर
में, तो सब
असली गुल्लक
में होते।
दूसरों के ढाले
सिक्के असली
हो कैसे सकते
हैं? सब
नकली हैं।
दूसरे
जो कहते हैं, दूसरों
के कहने के
कारण ही तुम
कहने लगते हो
असत्य। तुम जो
कहते हो, तुम्हारे
कहने के कारण
ही कहने लगते
हो सत्य।
सत्य
की यह पूजा न
हुई। सत्य का
तो यह बहुत
अपमान हुआ।
सत्य तुमसे
बड़ा है। तुम
सत्य से बड़े होने
की चेष्टा
करोगे, मिथ्यात्व
होगा।
इसलिए
महावीर कहते
हैं,
साधक का
पहला कदम और
पहला पड़ाव,
जहां हम सब
हैं, यहां
से शुरू होता
है। यात्रा
शुरू भी हो
सकती है, ना
भी हो। अगर हम
यही जोर दिए
चले जाएं कि
मेरे पक्षपात
सही हैं, मेरी
धारणाएं सही
हैं, मेरे
शास्त्र सही हैं,
मेरे
तीर्थंकर सही
हैं, मेरे
अवतार सही हैं,
मेरे गुरु
सही हैं; और
सबके भीतर
कारण केवल
इतना ही है कि
वे मेरे हैं, इसलिए सही
हैं। और तो
कोई कारण नहीं
है।
तुम
जैन घर में
पैदा हुए तो
तुम कहते हो, जैन
धर्म सही है।
तुम अगर हिंदू
घर में पैदा होते
तो यही तुम हिंदू
धर्म के संबंध
में कहते। तुम
अगर मुसलमान घर
में पैदा होते
तो यही तुम
इस्लाम के
संबंध में
कहते।
तो न तो
तुम्हें
इस्लाम से कुछ
मतलब है, न जैन
से, न
हिंदू से। तुम
जहां पैदा हुए
वहीं सत्य को
भी पैदा होना
चाहिए। जैसे
तुम्हारे
होने में सत्य
का कोई ठेका
है!
तुम्हें
बचपन से कुरान
पढ़ाई गई, तुमने
कुरान को अपना
मान लिया तो
कुरान सत्य है।
गीता पढ़ाई गई
तो गीता सत्य
है। लेकिन
सत्य इतना
सस्ता तो
नहीं। सत्य को
तो खोजना पड़ता
है। ऐसे मुफ्त
तो मिलता
नहीं। सत्य
संस्कार से नहीं
मिलता, न
समाज से मिलता
है। समाज से
तो पक्षपात मिलते
हैं, पूर्वाग्रह
मिलते हैं, मुर्दा
धारणाएं
मिलती हैं, थोथे शब्द
मिलते हैं, उधार, बासे सिद्धांत
मिलते हैं।
लेकिन
तुम्हारे
अहंकार के
आभूषण बन जाते
हैं वही।
जब
हिंदू कहता है
कि हिंदू धर्म
सही,
तो वह यह कह
रहा है मैं
सही। मेरे
कारण हिंदू धर्म
सही। जब तुम कहते
हो, भारतभूमि
पवित्र भूमि,
पुण्य भूमि;
तो तुम क्या
कह रहे हो? इतना
ही कह रहे हो
कि तुम जैसे
पवित्र
महापुरुष
भारत में पैदा
हुए तो भारत
पवित्र होना
ही चाहिए। और
क्या कह रहे
हो? तुम
पोलैंड में
पैदा होते कि
चीन में, तो
तुम यही वहां
भी कहते। तुम
यही कहते कि पोलैंड
पवित्र भूमि
है। स्वर्ग
अगर कहीं है तो
बस यहीं है।
आदमी का
अहंकार ऐसा है
कि वह जिस चीज
से अपने
अहंकार को
जुड़ा हुआ पाता
है उसी की
गुण-गरिमा
गाने लगता है।
तो
महावीर कहते
हैं,
अगर तुम यही
करते रहे तो
मिथ्या-दृष्टि
ही बने रहोगे।
तुम पहली सीढ़ी
पर ही अटके रह
जाओगे। दूसरी
सीढ़ी पर कदम
केवल उन्हीं
का बढ़ता है, जो अपने मैं
को सत्य और
असत्य का
निर्णायक सूत्र
नहीं बनाते।
जो कहते हैं, मैं
निर्णायक
नहीं हूं।
सत्य
है तो है।
चाहे मेरा
दुश्मन ही
घोषणा कर रहा
हो। सत्य है
तो है। और
चाहे मैं ही
घोषणा करूं, अगर
असत्य है तो
असत्य है।
मेरी घोषणा से
असत्य सत्य
नहीं होता।
पहला गुणस्थान:
मिथ्यात्व।
यहां सारा
संसार इसी गुणस्थान
में जीता है।
इसलिए
तो छोटी-छोटी
बात पर विवाद
हो जाता है। क्षुद्र
बातों पर
विवाद हो जाता
है। तुम कभी देखते
हो?
निरीक्षण
करते हो? कैसी
छोटी बातों पर
लड़ उठते हो!
पति-पत्नी हैं,
भाई-भाई हैं,
बाप-बेटे
हैं, मित्र-मित्र
हैं, जरा-जरा
सी बात पर कलह
हो जाती है।
कलह का
कारण? कारण
बताने जैसा भी
नहीं लगता।
अगर कोई पूछे
पति-पत्नी से
लड़ते वक्त, कि कारण
क्या है? तो
वे भी संकोच
करते हैं कि
कारण कुछ भी
नहीं है। मगर
होना तो चाहिए
कलह चल रही
है।
कारण
बड़े छोटे हैं, लेकिन
कारणों के
पीछे छिपा हुआ
बड़ा अहंकार है।
छोटे कारण, और बड़ा
अहंकार पीछे
छिपा हुआ है।
पत्नी कहती है,
जो मैंने
कहा वही सत्य
है, वैसा
ही होना चाहिए;
अन्यथा हो
ही नहीं सकता।
पति कहता है, जो मैंने
कहा वही सत्य
है। वैसा ही
होना चाहिए।
और
दोनों सोचते
हैं कि सत्य
के लिए आग्रह
कर रहे हैं।
दोनों सोचते
हैं
सत्याग्रह कर
रहे हैं।
लेकिन आग्रह
मात्र असत्य
का होता है।
सत्य का कोई
आग्रह होता ही
नहीं। इसलिए
सत्याग्रह बिलकुल
थोथा शब्द है।
सत्य का कोई
आग्रह नहीं होता, निवेदन
होता है। आग्रह
तो अहंकार का
होता है। दावा
तो अहंकार का
होता है।
हम
सत्य के नाम
पर अपने
अहंकार का
साम्राज्य फैलाते
हैं। बाप बेटे
से कहता है, कि
ऐसा ही है। और
अगर बेटा पूछे
क्यों? तो
कहता है, उलटकर
जवाब मत दो।
मैं बाप हूं।
मैं जानता हूं।
जिंदगी ऐसे ही
धूप में नहीं
पकाई है। ये
बाल अनुभव से
सफेद हुए हैं।
जब तुम भी बड़े
होओगे, तब
जानोगे।
तुम्हारे बाप
ने भी तुमसे
कहा होगा। तुम
बड़े हो गए, जाना
कुछ? बड़े
होकर इतना ही
पता चला कि न
बाप को पता था,
न तुमको पता
है। लेकिन यही
तुम अपने बेटे
से कह रहे हो
कि बड़े हो
जाओगे तब
जानोगे।
क्या
जान लिया बड़े
होकर? कौन-सा
सत्य, कौन-सी
संपदा हाथ लगी?
लेकिन बाप
का अहंकार
कैसे मान ले
कि बेटा भी ठीक
कह सकता है? पति का
अहंकार कैसे
मान ले कि
पत्नी ठीक कह
सकती है? पत्नी
का अहंकार
कैसे मान ले
कि पति ठीक कह
सकता है?
अहंकारों
का संघर्ष है।
सत्यों का कोई
संघर्ष नहीं
है। तो दुनिया
में जो इतना
धर्मों का
विवाद है, शास्त्रार्थ
है, यह सब
अहंकारों का
शास्त्रार्थ
है, इससे
धर्म का कोई
लेना-देना
नहीं। धर्म तो
विनम्र आदमी
की खोज है, जो
कहता है मुझे
पता नहीं। पता
ही होता तो
मैं खोजता
क्या? खोजने
को क्या था? मुझे पता नहीं।
अज्ञानी हूं।
खोज पर निकला
हूं। टटोलता हूं।
कोई भी बता दे
कि सत्य क्या
है, तो सुनूंगा,
समझूंगा, सदभाव से ग्रहण
करूंगा, जांचूंगा,
परखूंगा। शायद हो, शायद न हो।
अनुभव तय
करेगा कि क्या
है।
सत्य
का खोजी
विवादी नहीं
होता। सत्यार्थी
संवादी होता
है,
विवादी
नहीं।
महावीर
कहते हैं, पहला
गुणस्थान:
मिथ्यात्व।
जैसा है उसे
वैसा न देखना।
जैसा है वैसा
दिखाई भी पड़े
तो भी पर्दे
डाल रखना। जैसा
है वैसा अनुभव
में भी आने
लगे तो अनुभव
को भी
झुठलाना।
न्यस्त
स्वार्थ हैं
हमारे। तुम अगर
न्यस्त
स्वार्थों की
ओट से ही देख
रहे हो तो फिर
बड़ी अड़चन है।
सत्य साईंबाबा
ने कल बंगलोर
विश्वविद्यालय
के कुलपति और
उनकी कमेटी को
जो उत्तर दिया, उसमें
उन्होंने कहा,
कि कुत्तों
के भौंकने से चांदत्तारे
गिर नहीं
जाते। अब थोड़ा
सोचने जैसा
जरूरी है कि
कुत्तों के
भौंकने से चांदत्तारे
आकर ऐसा कहते
भी नहीं कि भौंकते
रहो, हम गिरेंगे
नहीं। इतना कह
दिया तो चांदत्तारे
भौंक गए। इतना
कह दिया तो चांदत्तारे
गिर गए। फिर
तय कौन करे कि चांदत्तारे
कौन हैं और
कुत्ते कौन
हैं?
सत्य साईंबाबा
का यह वक्तव्य
थोथे अहंकार
का वक्तव्य
है। एक तरफ
चिल्लाए चले
जाते हैं कि
सभी के भीतर
ब्रह्म का वास
है। एक तरफ
कहे चले जाते
हैं कि सभी के
भीतर भगवत्ता
विराजमान है।
और जहां चोट
अहंकार पर पड़नी
शुरू होती है
वहां तत्क्षण
कहने लगते हैं
कि कुत्तों के
भौंकने से चांदत्तारे
नहीं गिरेंगे।
ये कुत्तों
में भगवान
नहीं है? कुत्ते
यानी कुलपति
बंगलोर के!
इनमें भगवान
नहीं है?
यह
उत्तर न हुआ।
कुलपति
ज्यादा
साधु-चरित्र मालूम
होते हैं।
सीधा-सा
निवेदन किया
है कि आप जो
चमत्कार करते
हैं,
ये चमत्कार
हैं या केवल मदारीगिरी
है? इसे हम
जानने के लिए
आपके निकट आना
चाहते हैं। और
आपसे
प्रार्थना
करते हैं कि
आप हमें सत्य को
खोजने में
सहयोगी बनें।
इसमें
कोई कुत्ता
भौंका नहीं
किसी पर। सत्य
के खोजी को
तत्क्षण
स्वीकार करना
चाहिए। अगर सत्य
है तो भय क्या? अगर
कुलपति और
उनके आठ-दस
मित्र आकर
सत्य साईंबाबा
के चमत्कार
देखने को
उत्सुक हुए
हैं, शुभ
है। हर्ज कहां
है? लेकिन
हर्ज मालूम
होगा क्योंकि
न्यस्त
स्वार्थ है, वेस्टेड इंटरेस्ट
है। वह
चमत्कार
इत्यादि कुछ
भी नहीं है, मदारीगिरी है। और मदारीगिरी
भी अति साधारण
कोटि की है।
सड़क पर चलते
मदारी जो करते
हैं वैसी है।
कोई भी मदारी
कर सकता है, कोई भी
व्यवसायी
जादूगर कर
सकता है; वैसी
है। लेकिन उसी
में सारा लाभ
है, उसी
में सारी
प्रतिष्ठा
है।
अगर एक
बार यह सिद्ध
हो गया कि यह
राख शून्य से नहीं
उतरती। कहीं
शरीर के किसी
हिस्से में छिपी
रहती है, वहां
से उतरती है।
एक बार यह
सिद्ध हो गया
कि ये स्विस
घड़ियां जो
प्रगट होती
हैं, स्विजरलैंड से नहीं आतीं,
स्मगलरों से खरीदी
जाती हैं। एक
बार यह सिद्ध
हो गया तो सत्य
साईंबाबा
की कोई स्थिति
नहीं रह जाती।
उसी पर तो
सारा बल है।
तो नाराजगी
पैदा होती है।
अन्यथा
निमंत्रण शुभ
था। स्वीकार
कर लेना था।
धन्यवाद देना
था कि उत्सुक
हुए,
चलो अच्छा
है।
विश्वविद्यालय
भी धर्म में
उत्सुक होते
हैं तो बहुत
अच्छा है।
सुशिक्षित, सुसंस्कृत
लोग धर्म की
तरफ खोज करने
निकलते हैं, बहुत अच्छा
है। आओ, समझो।
खोजें।
सत्य
का खोजी तो
सहयोग देगा।
लेकिन सत्य की
यह खोज नहीं
है। सत्य साईंबाबा
का वक्तव्य
असत्य साईंबाबा
का वक्तव्य
है। यह इसमें
सत्यता
बिलकुल नहीं है।
और फिर इसमें
छिपा क्रोध है, गाली-गलौज
है। कुत्ते...!
यह बात ही
बेहूदी हो गई।
अपने वक्तव्य
में उन्होंने
इसी तरह की
बातें कही हैं,
जो सब
गाली-गलौज
हैं--कि चींटी
समुद्र की थाह
लेने चली है।
कौन समुद्र है,
कौन चींटी
है? ज्ञानी
तो कहते हैं, चींटी भी
समुद्र है।
क्योंकि
ज्ञानी तो
कहते हैं, बूंद
में भी सागर
छिपा है।
लेकिन निर्णय
कौन कर रहा है
कि कौन चींटी
और कौन समुद्र
है? चलो
चींटी ही सही,
समुद्र की
थाह लेने चली
तो साथ दो।
बाधा क्या खड़ी
करनी? सीढ़ियां लगाओ, नाव
तैराओ।
चींटी कम से
कम इतनी
आकांक्षा से
भरी यही बहुत है।
लेकिन
समुद्र इतना
भयभीत क्यों
है?
चींटी थाह
लेने चली इससे
समुद्र डर
क्यों रहा है?
डर यही होगा
कि चींटी थाह
ले सकती है।
समुद्र बड़ा
छिछला मालूम
होता है। शायद
समुद्र हो ही
न, केवल
धोखा है। तो
क्रोध उपजता
है।
मिथ्यात्व
दृष्टि से भरा
हुआ आदमी, विवाद
को तत्पर, लड़ने
को उत्सुक, क्रोध सहज, अभिशाप देने
को तैयार।
ये
सत्य साईंबाबा
कहते हैं कि शिरडी के साईंबाबा
के अवतार हैं।
होना तो नहीं
चाहिए, दुर्वासा
मुनि के
होंगे। अवतार
तो जरूर किसी के
होंगे, क्योंकि
यहां सभी
अवतार हैं।
लेकिन इनमें
कौन कुत्ता है,
कौन चींटी
है, कौन
सागर, कौन चांदत्तारा
है? हर एक
सोच लेता है
अपने को ही कि चांदत्तारा
है, बाकी
सब कुत्ते
हैं।
इसको
भौंकने की तरह
क्यों लिया? यह
जरूरी तो नहीं
है कि बंगलोर
का
विश्वविद्यालय
सत्य साईंबाबा
को उखाड़ने
के लिए उत्सुक
हो। और अगर
सत्य है तो उखड़ेगा
कैसे? सत्य
है तो प्रगट
होगा।
स्वीकार करो।
तुम्हारी
घबड़ाहट
ही तुम्हें
असत्य किए दे
रही है। बचाव
क्या करना है? उघाड़
दो। नग्न खड़े
होकर चमत्कार
दिखा दो। एक बार
तय हो जाए तो
लाभ ही होगा।
एक तरफ
सत्य साईंबाबा
कहते हैं कि
मैं सत्य की
सेवा करना
चाहता हूं।
धर्म में
लोगों की
श्रद्धा
बढ़ाना चाहता
हूं। लेकिन
इससे और शुभ
अवसर क्या
मिलेगा कि लोग
खुद कहते हैं
कि हम प्रमाण
खोजने आते
हैं।
प्रमाणित
करो। सिद्ध हो
जाएगा कि
चमत्कार
सच्चे हैं, झूठे
नहीं हैं तो
बड़ी श्रद्धा बढ़ेगी। ये
बंगलोर
विश्वविद्यालय
के कुलपति और
उनकी कमेटी के
लोग, ये भी
तुम्हारे
भक्त हो
जाएंगे। इनसे
इतने घबड़ा
क्या गए हो?
लेकिन
असत्य में
आग्रह होता है
क्योंकि असत्य
में न्यस्त
स्वार्थ होते
हैं। अगर यह
बात खुल जाए, अगर
यह पोल खुल
जाए तो सत्य साईंबाबा
का सारा का
सारा
व्यक्तित्व
गिर जाता है।
दो कौड़ी
के न रह
जाएंगे।
कुत्ते भी भौंकेंगे
नहीं फिर।
रास्ते से
निकल जाएंगे
देखते कि कोई
कुत्ता भौंके
तो! लेकिन
कुत्ते भी
इधर-उधर मुंह
कर लेंगे। कोई
चींटी थाह
लेने न आएगी।
तो भय है।
मिथ्यात्व
हम सबके भीतर
संभव है। जहां
भी अहंकार
जुड़ा कि
मिथ्यात्व
संभव है।
महावीर कहते हैं, मिथ्यात्व
हमारी
सामान्य स्थिति
है। जिसको हम
अज्ञानी कहते
हैं उसी को महावीर
मिथ्यात्वी
कहते हैं।
दूसरा
चरण: जिस
व्यक्ति ने
मिथ्यात्व से
थोड़ी ऊपर आंख
उठाई, ठीक-ठीक श्रद्धान
किया, यथार्थ
धर्म में रुचि
ली, अधर्म
में अरुचि की।
मिथ्यात्व से
भरा व्यक्ति
धर्म में
अरुचि प्रगट
करता है, अधर्म
में रुचि लेता
है। हालांकि
वह बहाने कई
खोजता है, तर्क
कई खोजता है।
रामकृष्ण
ने कहा है कि
एक आदमी काली
का बड़ा भक्त
था और
महीने-पंद्रह
दिन में काली
के द्वार में
जाकर बकरे कटवा
देता था। फिर
अचानक उसने
पूजा बंद कर
दी। तो रामकृष्ण
ने उससे पूछा, क्या
हुआ भक्ति का?
तुम तो बड़े
भक्त थे और
बड़े बकरे
कटवाते थे। उसने
कहा, अब
दांत ही न
रहे।
कोई
काली के लिए
थोड़े ही बकरे
कटवाता है!
काली तो बहाना
है। उस आदमी
के दांत गिर
गए,
खराब हो गए
और दांत निकलवाने
पड़े। तो अब
मांसाहार
करने की
सुविधा न रही।
तो बस
पूजा-पत्री
बंद!
खयाल
करना, तुम जब
मंदिर में
पूजा करने
बैठे हो तो
पूजा कर रहे
हो या पूजा के
बहाने कुछ और
कर रहे हो? तुम
अगर
साधु-सत्संग
में भी गए हो
तो सत्य की खोज
में गए हो कि
वहां भी संसार
का ही कुछ
खोजने पहुंच
गए हो? तुम
अक्सर तो
पाओगे कि
तुम्हारी
रुचि धर्म में
नहीं है, अधर्म
में है। अधर्म
से मतलब है:
जिससे तुम
सत्य तक न पहुंचो
और भटक जाओ।
धर्म से अर्थ
है: जिससे तुम
सत्य तक पहुंच
जाओ।
चमत्कारी
व्यक्ति के
पास लोग
इकट्ठे हो
जाते हैं
क्योंकि
चमत्कारी
व्यक्ति के
पास आशा बंधती
है कि शायद
मुकदमा जीत
जाएं, शायद
जिस स्त्री को
भगाने का सोच
रहे हों, उसमें
सफलता मिल जाए,
शायद लाटरी
खुल जाए, शायद
कुछ हो जाए, इलेक्शन जीत जाएं, प्रधानमंत्री
हो जाएं।
इसलिए
दिल्ली में
जितने
राजनेता हैं, सबको
सत्य साईंबाबा
के भक्त
पाओगे। जैसे
ही कोई
राजनेता पद से
उतरता है कि
तत्क्षण
सत्संग में लग
जाता है। तत्क्षण
गुरुओं की खोज
में निकल पड़ता
है। फिर इलेक्शन
जीतना, फिर
चुनाव लड़ना।
फिर किसी का
आशीर्वाद
चाहिए। यह
रुचि धर्म की
रुचि नहीं है।
यह रुचि मौलिक
रूप से
अधार्मिक है।
महावीर
कहते हैं इससे
उठो,
तो पहला कदम
उठा।
दूसरा
चरण,
दूसरा गुणस्थान
है: सासादन।
महावीर
कहते हैं इतनी
जल्दी, एकदम
से न उठ
जाओगे।
उठते-उठते
उठोगे। बहुत
बार तो निकल
आओगे इसके
बाहर, और
फिर-फिर
खींचने का मन
हो जाएगा।
फिर-फिर पुरानी
आदतें वापस
बुला लेंगी।
सासादन का
अर्थ होता है, जो
व्यक्ति
मिथ्यात्व के
बाहर निकलने
की चेष्टा में
संलग्न है
लेकिन पुरानी
आदतों के कारण,
पुराने कर्मोदय
के कारण वापस
खींच लिया
जाता है।
फिर-फिर पुराने
राग में रस
आने लगता है। क्षणभर को
भी सही, बार-बार
फिर सोचने
लगता है
उन्हीं दिनों
की बात; जब
धन था, पद
था, प्रतिष्ठा
थी।
दिवास्वप्न
देखने लगता
है।
सासादन का
अर्थ है, व्यक्ति
मिथ्यात्व के
बाहर निकला तो;
लेकिन अभी
मिथ्यात्व की
सूक्ष्म
तरंगें उठती
हैं। फिर-फिर
मूर्च्छा के
क्षण में वापस
संसार के सपने
देखने लगता
है।
मिथ्यात्व-अभिमुख
हो जाता है, यद्यपि
साक्षात
मिथ्यात्व
में प्रवेश
नहीं करता।
तो सासादन
का अर्थ हुआ:
सपने संसार के
देखता है, यद्यपि
बाहर से संसार
से अपने को
रोक लिया है।
जैसे
कोई आदमी घर
छोड़कर त्यागी
हो गया। मंदिर
में बैठा
ध्यान कर रहा
है,
माला हाथ
में है। और सब
भूल गया मंदिर
और माला, पत्नी
की याद आ गई--तो सासादन।
मिथ्यात्व से
विरत होने की
चेष्टा की है।
श्रम किया है,
मंदिर तक
चला आया है, माला हाथ
में ले ली, प्रार्थना
में लीन है, लेकिन क्षणभर
को प्रार्थना
खो गई, मंदिर
खो गया, माला
खो गई, पत्नी
सामने खड़ी हो
गई। किसी और
को दिखाई न पड़ेगी
यह स्थिति। यह
प्रत्येक
व्यक्ति को
स्वयं ही
निरीक्षण
करनी होगी।
बहुत बार सासादन
की घटना घटती
है।
यहां
भी तुम मेरे
पास बैठे हो, सुनते-सुनते
अचानक घड़ी
देखने लगते
हो--सासादन!
घड़ी देखी, मतलब
कि कहीं अदालत
जाना है, कि
दफ्तर जाना है;
कि संसार की
याद आ गई। कई
बार तो तुम
घड़ी किसी कारण
से भी नहीं
देखते, सिर्फ
पुरानी देखने
की आदत से
देखते हो।
कितना समय हो
गया। कितना
समय खो गया।
इतनी देर
संसार में कुछ
कर लेते। इतनी
देर गंवा दी।
एक लहर
मन में आ गई।
यह भी
स्वाभाविक
है। छूटते-छूटते
चीजें छूटती
हैं।
छोड़ते-छोड़ते
घटना घटती है।
बार-बार
पुरानी आदतें पकड़ती
हैं। पुराने
राग,
पुराने रंग,
पुरानी
स्मृतियां, पुराने सुख
फिर-फिर आह्वान
देते हैं, फिर-फिर
बुलाते हैं, फिर-फिर
निमंत्रण
भेजते हैं।
सासादन
दूसरा गुणस्थान
है। जो हममें
से मिथ्यात्व
से ऊपर उठने
की चेष्टा में
लगते हैं उनकी
दशा सासादन
की है। पहले
से बेहतर। कम
से कम चलो
बाहर से ही सही, छोड़ा
तो! बाहर से
छोड़ा तो भीतर
से भी छूटेगा।
इतना होश तो
आया कि अब
अहंकार का
आग्रह न रखेंगे।
लेकिन बेहोशी
के क्षण आते
हैं। उन
बेहोशी के
क्षणों का नाम
सासादन
है।
तुमने
तय कर लिया, अब
क्रोध न
करेंगे। और
किसी आदमी का
पैर बाजार की
भीड़ में
तुम्हारे पैर
पर पड़ गया। उस
एक क्षण में
तुम भूल ही गए
कि तुमने तय
कर लिया था अब
क्रोध न
करेंगे। याद
ही न आयी। क्रोध
हो ही गया। या
न भी हुआ, उस
आदमी से तुमने
कुछ न भी कहा, तो भी
तुम्हारे
भीतर क्रोध
झलक गया। एक
क्षण को भीतर
लपट उठ गई।
तो
पहले
मिथ्यात्व से
मुक्त होना है, फिर
सासादन
के भी पार
जाना है।
तीसरी
अवस्था है:
मिश्र। सम्यकत्व
एवं
मिथ्यात्व की
मिश्रित
स्थिति।
कुछ-कुछ सत्य
की झलक बनने
लगती है।
कुछ-कुछ सत्य
का अवतरण होने
लगता है और
कुछ-कुछ अतीत
संस्कारों के
कारण असत्य का
अंधेरा भी
घिरा रहता है।
जैसे
दीया जलाते हो, छोटा-सा
टिमटिमाता
दीया। एक कोने
में रोशनी भी
हो जाती है, बाकी कमरा
अंधेरा भी बना
रहता
है--मिश्र, खिचड़ी
अवस्था।
सम्यकत्व
एवं
मिथ्यात्व की
मिश्रित
अवस्था; दही
और गुड़ के
मिश्रित
स्वाद जैसी।
ऐसा जैन शास्त्र
दृष्टांत
लेते हैं--दही
और गुड़ के
मिश्रित
स्वाद जैसी।
जो सासादन
के पार जाता
है उसकी मिश्र
अवस्था बनती
है। बहुत लोग
मिश्र अवस्था
में होते हैं।
निन्यानबे
प्रतिशत तो
मिथ्यात्व
में जीते हैं, फिर
बाकी तेरह
गुण-स्थान तो
एक प्रतिशत के
हैं। इनमें से
भी बहुत-से सासादन
में ही डोलते
रहते
हैं--त्रिशंकु
की भांति। उनमें
से कुछ मिश्र
तक आते हैं।
दोनों चीजें
भीतर होती
हैं।
सीमारेखा भी
साफ होती है, लेकिन दोनों
साथ-साथ होती
हैं। धर्म-बोध
भी होता है, अधर्म में
रस भी होता
है। पता भी
होता है कि क्या
ठीक है, और
फिर भी गलत के
बंधन नहीं
छूटते।
महावीर
बहुत
वैज्ञानिक
ढंग से आगे बढ़
रहे हैं। वे
तुम्हारे
चित्त का
एक-एक स्पष्ट
विश्लेषण कर
रहे हैं ताकि
तुम पहचान लो
कहां तुम हो, और
फिर किस तरफ
जाना है।
चौथा गुणस्थान
है: अविरत सम्यकदृष्टि।
साधक की
चतुर्थ भूमि; जिसमें
बोध हो जाने
पर भी भोगों
अथवा हिंसा आदि
पापों के
प्रति विरक्त
भाव जाग्रत
नहीं हो पाता।
बोध भी
हो जाता है, एक
दृष्टि भी मिल
जाती है।
ठीक-ठीक समझ
में आ जाता है,
क्या करने
योग्य है, क्या
न करने योग्य
है, लेकिन
अभी निर्णय
नहीं होता।
राग, लोभ, मोह, हिंसा,
अहंकार के
प्रति अभी
वैराग्य का
जन्म नहीं होता।
ऐसा नहीं होता
कि अब छोड़ ही
दें। दिखता है
कि ठीक क्या
है, लेकिन
जो दिखता है
वह आचरण नहीं
बन पाता।
प्रतीति होती
है, साफ-साफ
प्रतीति होती
है कि सत्य
बोलें। सत्य ही
शुभ है। लेकिन
असत्य का
पूर्ण त्याग
कर दें, इतना
साहस नहीं जुट
पाता। यह
जानना कि क्या
सत्य है, एक
बात है; और सत्यमय हो
जाना बिलकुल
दूसरी बात है।
यह पहचान लेना
कि ठीक रास्ता
कौन-सा है एक
बात है, फिर
उस पर चल पड़ना
बिलकुल दूसरी
बात है।
अविरत सम्यकदृष्टि
का अर्थ है: जो
खड़ा हो गया।
पुराने
रास्ते पर जा
भी नहीं रहा
है,
नए का दर्शन
भी होने लगा
है लेकिन
ठिठका खड़ा है।
नए पर जा नहीं
पाता क्योंकि
नए पर जाना हो
तो पुराने का
परिपूर्ण
त्याग चाहिए।
तुम दोनों एक
साथ नहीं
सम्हाल सकते।
एक को छोड़ना
होगा।
इसमें
से तुम अपने
भीतर बहुत बार
ऐसा ही पाओगे।
मेरे पास लोग
आते हैं, वे
कहते हैं, हमें
पता है कि
क्रोध बुरा
है। पता है कि
कामवासना रोग
है। पता है कि
लोभ से कुछ न
मिला, न
मिलेगा। पता
है खाली हाथ
आए हैं, खाली
हाथ जाएंगे।
फिर भी
वैराग्य का
जन्म नहीं हो
रहा है।
कम से
कम एक बात तो
साफ है कि वे
अपने को साफ
देख पा रहे
हैं;
जो कि काफी
बहुमूल्य है।
दृष्टि तो साफ
है। दृष्टि
साफ है तो
आचार भी उसके
पीछे-पीछे चला
आएगा। दृष्टि
ही साफ न हो तो
आचरण के जन्मने
का उपाय ही
नहीं।
लेकिन दृष्टि
ही साफ किए मत
बैठे रहना।
क्योंकि जो अभी
साफ है, कल धुंधली हो
सकती है। अगर
आचरण में न
लाई गई तो
ज्यादा देर
साफ न रहेगी।
दृष्टि जब
मिले तो
तत्क्षण साहस
करके उसको
आचरण में लाना
क्योंकि
दृष्टि के
क्षण बड़े कम
हैं। कभी-कभी
बिजली कौंध
जाती है और
रास्ता दिखाई
पड़ता है। उस
क्षण में चल पड़ना, ऐसे
खड़े मत रह
जाना।
क्योंकि
बिजली अभी कौंधी,
सदा न कौंधेगी।
कल कौंधेगी
कि न कौंधेगी
क्या पता! जो
पहली झलकें
आती हैं, वे
बिजली की कौंध
की तरह हैं, उन कौंध का
उपयोग कर
लेना। उपयोग
करने से बिजली
और कौंधेगी।
चल पड़े तो
दृष्टि और निखरेगी।
करने से ही
दृष्टि का
निखार होता
है। सिर्फ सोचते
रहने से
धारणाएं साफ
हो जाती हैं, लेकिन जीवन
उलझा का उलझा
रह जाता है।
दृष्टि
के साफ होने
का मामला ऐसा
है कि तुम एक पाकशास्त्र
लिए बैठे हो
और भूखे हो।
और पाकशास्त्र
में सब लिखा
है।
रत्ती-रत्ती
ब्यौरा दिया
है कैसे भोजन
बनाना। भोजन
की सामग्री भी
मौजूद है। आटा
मौजूद है, पानी
मौजूद है, नमक
मौजूद है, चूल्हा
जला हुआ है।
तुम
पाकशास्त्र
लिए बैठे हो।
इससे भूख
मिटेगी नहीं।
इससे कुछ हल न
होगा।
बहुत
लोग शास्त्र
लिए बैठे हैं।
शास्त्र की चर्चा
में लीन हैं।
जनम-जनम गंवाते
हैं लेकिन कभी
उसका उपयोग
नहीं करते। भूखे
के भूखे रह
जाते हैं। फिर
भूख भी नहीं
मिटती, तो
धीरे-धीरे भूख
विस्मृत होने
लगती है।
यह
काफी
मूल्यवान है।
इस सूचन को
खयाल में रखना।
अगर तुम उपवास
करो तो
तीन-चार दिन
के बाद भूख
लगनी बंद हो
जाती है। तीन
दिन सताती है।
रोज-रोज
तुम्हारे
द्वार पर
दस्तक देती है।
तुम सुनते ही
नहीं तो
धीरे-धीरे
शरीर राजी हो
जाता है कि
ठीक है, शायद
तुमने
आत्महत्या ही
का तय कर लिया
है, तो ठीक
है। शरीर भी
क्या करेगा? धीरे-धीरे, धीरे-धीरे
भूख भूल जाती
है। जो लोग
लंबे उपवास
करते हैं, उनको
एक अड़चन होती
है उपवास
तोड़ने में, अब कैसे
भोजन ग्रहण
करें? क्योंकि
शरीर भूल ही
गया। बहुत देर
तक भूखे बैठे-बैठे,
शास्त्र
लिए-लिए भूख
विस्मृत हो
जाती है।
बहुत
लोगों की
परमात्मा की
भूख मर गई है।
इतने दिन
परमात्मा से
उपवास किया है, मर
ही जाएगी।
परमात्मा की
भूख मर गई हो
तो बड़ी कठिनाई
हो जाती है।
ऐसे ही लोग
कहते हैं कि
परमात्मा मर
गया। मरी है
उनकी भूख। लेकिन
ठीक ही कहते
हैं। जिसकी
भूख मर गई
उसका भोजन भी
मर गया। भोजन
तो तभी तक
रसपूर्ण है जब
तक भूख है।
भूख में रस है
भोजन का। भूख
न लगी हो, सुस्वादु
से सुस्वादु
भोजन रखा रहे
तो भी मन में
कोई तरंग नहीं
आती। अगर भूख
बिलकुल मर गई
हो तो भोजन
भोजन जैसा भी
मालूम न पड़ेगा।
भोजन भोजन
जैसा लगता है
भूख के कारण।
भूख की
व्याख्या है;
अन्यथा
भोजन भोजन
जैसा न लगेगा।
परमात्मा
नहीं मर गया
है,
अनेक लोगों
की भूख मर गई
है। और भूख
मरने का कारण
यही है कि भूख
को जिलाने के
लिए भी भोजन
चाहिए। भूख भी
भूखी रहे तो
मर जाती है।
कुछ
करो। जो
दृष्टि मिले
उसके अनुसार
दो पग चलो। जो
अनुभव में आए
उसे थोड़ा आचरण
में डालो।
जो
तुम्हें
दिखाई पड़े कि
ठीक है, बस
इसको मानकर
सैद्धांतिक
रूप से मत
बैठे रहो, अन्यथा
ज्यादा देर
दिखाई भी न
पड़ेगा। फिर
धुंध छा
जाएगी। फिर मन
धुएं से घिर
जाएगा। थोड़े
चलो। थोड़े आगे
बढ़ो।
जैसे-जैसे आगे
बढ़ोगे
वैसे-वैसे
ज्यादा
स्पष्ट दर्शन
होंगे।
तो
महावीर कहते
हैं अविरत सम्यकदृष्टि:
चतुर्थ भूमि।
इसमें बोध तो
हो जाता है, होने
लगता है लेकिन
भोगों और
हिंसा आदि
पापों से
विरति का भाव
जाग्रत नहीं
होता।
पांचवां
गुणस्थान:
देशविरत।
अब संयम का
क्षेत्र शुरू
हुआ। अब जो
तुम्हें
दिखाई पड़ता है
उसे तुम आचरण
में उतारने
लगे। बहुत
ज्यादा जानने
की जरूरत नहीं
है। थोड़ा जानो, लेकिन
उस थोड़े को उतारो।
हजार मील लंबे
शास्त्र का
कोई सार नहीं,
इंचभर
शास्त्र--लेकिन
उतारो, चलो। चलने
से रास्ते तय
होते हैं।
बैठे-बैठे सोचने
से कोई रास्ते
तय नहीं होते।
विचार करनेवाले
कहीं भी नहीं
पहुंचते।
अस्तित्वगत
है पहुंचना, विचारगत नहीं।
बौद्धिक नहीं
है, जीवनगत है।
देशविरत का
अर्थ होता है, जिसने
अपने जीवन में
अब सीमा बनानी
शुरू की।
जिसने अपने
जीवन को परिधि
देनी शुरू की।
जिसने अपने
जीवन में जो
व्यर्थ है उसे
हटाना, जो
सार्थक है उसे
लाना शुरू
किया। जिसने
कहा, अब
मैं यूं ही
ऊलजलूल, असंगत
न जीयूंगा।
कभी बायें गए,
कभी दायें
गए, कभी
दक्षिण गए, कभी पूरब गए,
कभी पश्चिम
गए, ऐसे
चल-चलकर कहीं
कोई पहुंचेगा?
सब दिशाओं
में दौड़ते रहे
तो
विक्षिप्तता
आएगी।
देशविरत का
अर्थ होता है
दिशा तय हुई, देश
तय हुआ, सीमा
बांधी, संयम
में उतरे। अब
जो करने योग्य
है वही करेंगे,
जो करने
योग्य नहीं है,
नहीं
करेंगे। अब
कर्तव्य में
ही रस होगा, अकर्तव्य
में धीरे-धीरे
विरसता को लाएंगे।
सीमा दी जीवन
को, दिशा
दी। और सारी
ऊर्जा एक दिशा
में डाली।
जैसे
शरीर, मन, वचन--तीनों
असंयमी के सभी
दिशाओं में
भागते रहते
हैं। संयमी और
असंयमी में
इतना ही फर्क
है कि असंयमी
सभी दिशाओं
में एक साथ
भागता रहता है,
इसलिए उथला
रह जाता है।
जैसे
कि किसी तालाब
को तुम सभी
दिशाओं में
खोल दो, सभी
दिशाओं में
पानी बह जाए, तो जहां बड़ी
गहराई थी और
नीला जल दिखाई
पड़ता था, वहां
सब छिछला पानी
हो जाएगा। अगर
बहुत फैल जाए
तो कीचड़ ही रह
जाएगी। तालाब
तो खो ही
जाएगा।
संयम
का अर्थ है, संरक्षित
ऊर्जा।
महावीर का
पारिभाषिक
शब्द है--देशविरत।
सीमा बनाई, देश बनाया।
हर कहीं न
भागते रहे।
अपने जीवन को
संयत किया, संगृहीत
किया। अपनी
ऊर्जा को एक
जगह भरा तो गहराई
आनी शुरू होती
है।
असंयमी
आदमी छिछला
होता है। आवाज
बहुत करता है, जैसा
छिछला जल करता
है। जहां छिछली
नदी होती है
वहां बड़ा
शोरगुल मचता
है। कंकड़-पत्थरों
पर दौड़ती है, बड़ा शोरगुल
मचाती है। नदी
जितनी गहरी
होती है उतना
ही शोरगुल कम
हो जाता है।
गहरी नदी पता
ही नहीं चलता
कि बहती भी है
कि नहीं बहती?
गति बड़ी
शांत हो जाती
है।
देशविरत:
संयम, सीमा का
बांधना, कर्म
और विचार को
परिधि देना।
इसे तुम थोड़ा
सोचना।
तुम जो
विचार करते हो
उसमें से
निन्यानबे
प्रतिशत न करो
तो चलेगा।
उसमें से
निन्यानबे
प्रतिशत
सिर्फ व्यर्थ
है,
शुद्ध कचरा
है, कचरा
मात्र। उसमें
कुछ भी और
नहीं है लेकिन
तुम्हारी
ऊर्जा तो व्यय
होती ही है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
आदमी अपनी
ऊर्जा का
पंद्रह प्रतिशत
से ज्यादा
उपयोग ही नहीं
कर पाता।
पचासी प्रतिशत
ऐसे ही खो
जाती है।
जिनके जीवन
में तुम्हें
कुछ घटनाएं
घटती दिखाई
पड़ती हैं, कोई
आइंस्टीन, कोई
फ्रायड, जो
जीवन में बड़े
सत्यों की खोज
कर लाते
हैं--चाहे
विज्ञान के, चाहे मन के, चाहे धर्म
के; उनमें
और तुममें
फर्क क्या है?
ऊर्जा सबको
बराबर मिली है,
समतौल में मिली है,
लेकिन तुम
ऊर्जा को ऐसे
ही बहाते रहते
हो।
एक
वैज्ञानिक
अपनी ऊर्जा को
संयमित कर
लेता है। वह
सोचता तो अपनी
ही विज्ञान की
बात सोचता है।
सपना भी देखता
है तो अपने ही
विज्ञान का
सपना देखता
है।
मैडम
क्यूरी को
नोबेल प्राइज
मिली सपने के
कारण। जो हल
किया सूत्र, वह
उसने सपने में
किया। जाग्रत
रूप से तो वह तीन
साल से हल कर
रही थी, वह
हल नहीं होता
था। लेकिन
सोते-जागते एक
ही उधेड़-बुन
थी। बस जगत
में एक ही काम
था: उस सूत्र को
हल करना। गणित
का कोई सवाल
था, जो
अटका रहा था
तीन साल से।
जिस रात हल
हुआ, उस
रात वह सोयी, सोचते-सोचते-सोचते-सोचते
उसी प्रश्न के
मनन में, मंथन
में डूबी सो
गई। लगता है
सपने में हल
हुआ। नींद में
मालूम होता है,
उठी। उत्तर
उसे मिल गया
तो जाकर वह
टेबल पर लिख
भी आयी। वापस
सो गई आकर।
सुबह
जब आंख खुली
तो उसे याद भी
न रहा। सपना
याद न रहा, उठना
याद न रहा, लेकिन
जब वह अपने
टेबल पर गई तो
चकित हुई। उत्तर
लिखा था।
हस्ताक्षर भी
उसी के थे।
कमरे में कोई
दूसरा था भी
नहीं। और
दूसरा कोई
होता भी तो भी
हल नहीं कर
सकता था। मैडम
क्यूरी नहीं
कर पा रही थी
तीन साल से।
तब उसे धीरे-धीरे
याद आयी कि
रात सपना...।
सपने के फिर
ब्यौरे का पता
चला, फिर
उसे स्मरण आया
कि सपने में
ही उसने देखा
कि वह उठी भी
थी। समझा था
कि सपने का ही
अंग है उठना
भी। और टेबल
पर लिखना भी
सपने जैसा
मालूम हुआ था।
तब सारी बात
साफ हो गई।
वैज्ञानिक
अपनी सारी
ऊर्जा को एक
ही दिशा में लगा
देता है। तभी
तो प्रकृति के
गहन सत्यों को
खोज के लाता
है। डुबकी
गहरी लगाता
है। ऐसे ही जल
के ऊपर सतह पर
नहीं तैरता
रहता, डुबकी
मारता है।
गहरे में जाता
है। सारी ऊर्जा
एक ही दांव पर
लगाता है।
ऐसा ही
ध्यानी
भी--महावीर, या
बुद्ध, या
कृष्ण, या
पतंजलि गहरी
डूब लेते हैं
तो हीरे-मोती
बीन लाते हैं।
हमारे पास भी
उतनी ही ऊर्जा
है। ऊर्जा की
मात्रा में
जरा भी फर्क
नहीं। जितनी
महावीर को
मिली उतनी
तुम्हें मिली
है। प्रकृति सबको
बराबर देती है,
मगर सभी
बराबर उपयोग नहीं
करते।
जीसस
एक कहानी कहते
थे। एक बाप के
तीन बेटे थे।
तीनों योग्य
थे,
बुद्धिशाली थे। और बाप
तय न कर पाता
था कि किसको
अपना उत्तराधिकारी
बना जाए। बड़ा
धन था, बड़ी
जमीन थी, बड़ा
वैभव था। बाप
चिंतित था, किसको चुने।
फिर
उसने एक उपाय
खोजा। उसने एक
बोरे भर फूलों
के बीज तीनों
बेटों में
बांट दिए और
कहा कि मैं तीर्थयात्रा
पर जा रहा
हूं। जो बीज
मैं तुम्हें
दे जा रहा हूं, सम्हालकर
रखना। इन पर
बहुत कुछ
निर्भर है। तुम्हारा
भविष्य
इन्हीं पर
निर्भर है।
इन्हीं के
माध्यम से मैं
अपने
उत्तराधिकारी
को चुनूंगा।
इसलिए किसी
भूल-चूक में
मत रहना। मैं
लौटकर आऊंगा
तो बीज वापस
चाहिए। बाप
चला गया।
पहले
बेटे ने सोचा
कि बड़ी झंझट
है। बीज घर
में रखें, चूहे
खा जाएं, सड़ जाएं,
बच्चे
इधर-उधर फेंक
दें। तो बेहतर
यह है कि बाजार
में बेच देना
चाहिए। पैसे
पास में रख
लेंगे
सम्हालकर। जब
बाप आएगा, फिर
बीज खरीद
लेंगे, दे
देंगे। सीधी
गणित की बात
थी।
दूसरे
बेटे ने सोचा
कि बाप ने कहा
है बीज वापस लौटाना, तो
वह यही बीज
चाहता होगा।
कहीं बाजार
में बेचें, दूसरे बीज
फिर बाद में
खरीदें और बाप
कहे, ये तो
वे बीज नहीं
हैं। तो हम
मुश्किल में
पड़ जाएंगे। तो
उसने तिजोड़ी
में बंद करके
ताला बंद कर
दिया। चाबी
सम्हालकर रख
ली कि जो दिए
हैं, वही
लौटा देंगे।
झंझट में पड़ना
क्यों?
तीसरे
बेटे ने सोचा
कि बीज बाजार
में बेच दें तो
वही बीज तो
होंगे नहीं, जो
पिता दे गए।
धोखा होगा। तिजोड़ी
में बंद करना?
पिता पता
नहीं कब
आएं--छह महीने,
सालभर,
दो साल। तिजोड़ी
में बीज अगर सड़ गए तो
राख रह जाएगी।
तो उसने सोचा
बेहतर है, इन्हें
बो दो। उसने
बीज बो दिए।
जब सालभर
बाद पिता वापस
लौटा तो पहले
बेटे ने लाकर
बाजार से
तत्क्षण बीज
वापस लौटा
दिए। लेकिन
बाप ने कहा, ये
वे बीज नहीं
हैं, जो
मैंने
तुम्हें दिए
थे। शर्त यही
थी कि वही
लौटाने हैं।
दूसरा बड़ा
प्रसन्न हुआ।
उसने जल्दी से
तिजोड़ी
खोली। जिन
बीजों से बड़े
सुगंध वाले
फूल पैदा होते
थे वे सब सड़
गए थे। उनसे
सिर्फ
दुर्गंध आ रही
थी। बाप ने कहा,
मैंने
तुम्हें बीज
दिए थे। ये तो
बीज न रहे, राख
हो गई। बीज का
तो अर्थ है, जिसमें पौधा
पैदा हो सके।
क्या इनमें
पौधा पैदा हो
सकता है? और
मैंने
तुम्हें
सुगंध की
संभावना दी थी,
और तुम
दुर्गंध लौटा
रहे हो। मैंने
तुम्हें जीते-जागते
बीज दिए थे, तुम मुझे
मुर्दा राख
लौटा रहे हो? यह शर्त
पूरी न हुई।
तीसरे
बेटे से पूछा।
बाप बड़ा
चिंतित भी हुआ
कि क्या तीनों
अयोग्य सिद्ध
होंगे? तीसरे
बेटे ने कहा, मैं मुश्किल
में हूं। जो
बीज आप दे गए
थे वे मैंने
बो दिए। उनकी
जगह करोड़ गुने बीज
हो गए हैं।
क्योंकि
मैंने सोचा
जितना पिता दे
गए हैं, उतना
भी क्या
लौटाना! उतना
ही लौटाना तो
कोई योग्यता न
होगी। बाजार
में मैं बेच न
सका क्योंकि
ये वे बीज
दूसरे होंगे।
दूसरे मेरे भी
बीज हैं लेकिन
आप जो बीज दे
गए थे, उनकी
ही संतान हैं;
उन्हीं का
सिलसिला है, उन्हीं की
शृंखला है।
लेकिन जितने
आप दे गए थे, मैं उतने ही
लौटाने में
असमर्थ हूं
क्योंकि मैंने
कभी गिनती
नहीं की। करोड़
गुने हो
गए हैं। आप सब
ले लें।
बाप
पीछे गया भवन
में। दूर-दूर
तक फूल ही फूल
खिले थे। बीज
ही बीज भरे
थे। बाप ने
कहा,
तुम जीत गए।
तुम मेरे
उत्तराधिकारी
हो। क्योंकि
वही बेटा
योग्य है, जो
संपदा को बढ़ाए,
जो संपदा को
जीवित रखे, जो संपदा को
फैलाए, जो
संपदा को और
मूल्यवान करे।
हम सभी
को बराबर
ऊर्जा मिली है, बराबर
बीज मिले हैं।
कोई महावीर
उसे खिला देता
है, परमात्म-स्थिति
उपलब्ध हो
जाती है। कोई
बुद्ध कमल बन
जाता है। और
हम ऐसे ही सिकुड़े-सिकुड़े
या तो बाजार
में बिक जाते
हैं--अधिक तो
हम बाजार में
बिक जाते हैं
या तिजोड़ियों
में सड़ जाते
हैं। जो कर्मठ
हैं बहुत, वे
बाजार में बिक
जाते हैं, जो
सुस्त, काहिल
हैं वे तिजोड़ियों
में सड़
जाते हैं।
लेकिन जीवन की
इस ऊर्जा का
फैलाव हमसे
नहीं हो पाता।
महावीर
कहते हैं: देशविरत
का अर्थ है, जिसने
अपनी सारी
ऊर्जा को एक
दांव पर
लगाया। जिसकी
ऊर्जा तीर बनी
और लक्ष्य की
तरफ जिसने
अपनी
प्रत्यंचा को
साधा। देशविरत:
लक्ष्य दिया,
दिशा दी, मर्यादा
बांधी। जो
व्यर्थ करता
नहीं, व्यर्थ
बोलता नहीं, व्यर्थ
सोचता नहीं।
जिसका सारा
जीवन एक संगति
है। और
प्रत्येक कदम
दूसरे कदम से
जुड़ा है। और
जिसके जीवन
में एक
मर्यादा है।
अगर
नदी बनना हो
तो किनारा
चाहिए। तो
सागर तक पहुंच
सकोगे। अगर
किनारे छोड़कर
बहने लगे, मर्यादा
टूट गई तो
सागर तक कभी न
पहुंच सकोगे।
किसी मरुस्थल
में खो जाओगे।
सागर तक
पहुंचने के
लिए नदी को
किनारे में
बंधे रहना
जरूरी है।
देशविरत का
अर्थ है, किनारों
में बंधा हुआ
व्यक्तित्व।
छठवां गुणस्थान
है: प्रमत्तविरत।
संयम के
साथ-साथ मंद रागादि के
रूप में
प्रमाद रहता
है। संयम तो आ
गया,
अनुशासन आ
गया, लेकिन
जन्मों-जन्मों
तक जो हमने
राग किया है, मोह किया है,
लोभ किया है,
उसकी मंद
छाया रहती है।
एकदम चली नहीं
जाती। हम उसके
ऊपर उठ आते
हैं, लेकिन
हमारे अचेतन
में दबी मंद
छाया रहती है।
हम ऊपर से
क्रोध नहीं भी
करते तो भी
क्रोध की तरंगें
भीतर अचेतन
में उठती रहती
हैं। हम लोभ नहीं
भी करते। हम
नियंत्रण कर
लेते हैं, लेकिन
भीतर अचेतन
लोभ के संदेश
भेजता है।
कहते
हैं भर्तृहरि
ने सब राज्य
छोड़ दिया, वे
जंगल में जाकर
बैठ गए। बड़े
अनूठे
व्यक्ति थे।
पहले लिखा
शृंगार
शतक--जीवन के
भोग का काव्य।
जीवन के भोग
की जैसी
स्तुति हो
सकती है वैसी
भर्तृहरि ने
की। कोई और
फिर कभी उनके
साथ मुकाबला न
कर पाया। कोई
और उन्हें
पीछे न कर पाया।
फिर लिखा
वैराग्य शतक।
पहले राग की
स्तुति की, फिर वैराग्य
की स्तुति की।
अक्सर ऐसा
होता है, जो
राग को ठीक से जीएगा, वह
किसी न किसी
दिन वैराग्य
को उपलब्ध हो
जाएगा। जो
शृंगार शतक से
ठीक से
गुजरेगा, वह
वैराग्य शतक
को उपलब्ध
होगा।
भर्तृहरि
ने सब छोड़
दिया, वे जंगल
में बैठे--सब
बड़ा
साम्राज्य, धन-वैभव, मणि-माणिक्य।
अचानक आंख
खुली, दो घुड़सवार
सामने की ही
पगडंडी पर घोड़ों
को दौड़ाते
हुए आए। आंख
खुल गई। ध्यान
में बैठ थे, ध्यान टूट
गया। देखा, सामने एक
बड़ा बहुमूल्य
हीरा पड़ा है
रास्ते में।
उठे नहीं, मन
उठ गया। गए
नहीं हीरा
उठाने को, मन
ने उठा लिया।
एक झलक भीतर
कौंध गई कि
उठा लूं। ऐसा
नहीं कि शब्द भी
बने। ऐसा भी
जरूरी नहीं है
कि ऐसा सोचा
कि उठा लेना
चाहिए। नहीं,
बस एक झलक
कौंध गई, एक
कंपन भाव का
हो गया, उठा
लूं। सजग हो
गए, झकझोर
दिया अपने को
कि अरे! इतना
सब छोड़कर आया,
इससे बड़े
बहुमूल्य
हीरे छोड़कर
आया तब मन में
यह वासना न
उठी और आज
अचानक यह उठ
गई?
चेतन
से तुम छोड़ दो, अचेतन
इतनी जल्दी
नहीं छूट
जाता।
सम्हलकर बैठ
गए, लेकिन
एक बात तो
खयाल में आ गई
कि अभी भीतर
सूक्ष्म राग
पड़े हैं। बड़े
गहरे में
होंगे। उनकी आवाज
भी अब मन तक
नहीं पहुंचती,
लेकिन
मौजूद हैं, तलघरे में
पड़े हैं। ऊपर
तुम्हारे बैठकखाने
तक उनकी कोई
खबर भी नहीं
आती लेकिन तलघरा
भी तुम्हारा
ही तुम्हारे
ही बैठकखाने
के नीचे है।
जिसको
मनोवैज्ञानिक
अनकांशस कहते
हैं,
अचेतन मन
कहते हैं, महावीर
उसी स्थिति की
बात कर रहे
हैं, प्रमत्तविरत। संयम के
साथ-साथ मंद रागादि के रूप
में प्रमाद
रहता है। अभी
बेहोशी है।
होश ऊपर-ऊपर
है। जैसे बर्फ
की चट्टान
पानी में तैरती
है तो एक
हिस्सा ऊपर
होता है, नौ
हिस्से नीचे
पानी में डूबी
होती है।
तो होश
ऊपर-ऊपर है
बर्फ की
चट्टान की
तरह। नौ हिस्सा
बेहोशी नीचे
है। दिखाई
नहीं पड़ती
किसी को, लेकिन
स्वयं
व्यक्ति को
समझ में आती
है। और जितना
होश बढ़ता है
उतनी ही
ज्यादा समझ
में आती है।
शायद तुम बैठे
होते
भर्तृहरि की
जगह तो
तुम्हें पता
भी न चलता।
लेकिन बड़ी
निर्मल आत्मा
रही होगी।
शब्द भी न बना,
और लहर पकड़
में आ गई कि
भाव हो गया।
थोड़ा-सा मैं कंप
गया हूं। कोई
भी न पहचान
पाता।
सूक्ष्म से
सूक्ष्म
यंत्र भी शायद
न पकड़ पाते कि
कंपन हुआ है।
क्योंकि कंपन
बड़ा ना के
बराबर था।
जैसे शून्य
में जरा-सी लहर
उठी। लेकिन
भर्तृहरि
पहचान गए।
वे जो
दो घुड़सवार
आए,
उन दोनों की
नजर भी एक साथ
उस हीरे पर
पड़ी। दोनों ने
तलवारें
निकालीं और
दोनों ने कहा,
पहले नजर
मेरी पड़ी है।
भर्तृहरि
बैठे देख रहे हैं।
एक क्षण भी न
लगा, वे
तलवारें
एक-दूसरे की
छाती में चुभ
गईं। हीरा
अपनी जगह पड़ा
रहा, जहां
दो जिंदा आदमी
थे वहां दो
लाशें गिर
गईं।
भर्तृहरि ने
आंखें बंद कर
लीं। वे
मुस्कुराए होंगे
कि हद्द हो गई! हीरा
अपनी जगह पड़ा
है। दो आदमी
आए और चले गए।
सब
हीरे पड़े रह
जाते हैं। सब
जो यहां
मूल्यवान
मालूम पड़ता है, पड़ा
रह जाता है।
हम आते हैं और
चले जाते हैं।
और अक्सर हम
एक-दूसरे की
छाती में छुरे
भोंक जाते
हैं। हम उसके
लिए बड़े दुख
दे जाते हैं, बड़े दुख उठा
जाते हैं, जो
हमारा कभी
नहीं हो पाता।
जो हमारा हो
नहीं सकता है।
सातवां:
अप्रमत्तविरत।
सप्तम भूमि, जहां
किसी प्रकार
का भी प्रमाद
प्रगट नहीं होता।
इतनी हलकी झलक
भी जहां नहीं
रह जाती। प्रगट
नहीं होती।
किसी तरह की
अभिव्यक्ति
नहीं होती।
सूक्ष्मतम
अभिव्यक्ति
भी शून्य हो
जाती है
मूर्च्छा की,
अहंकार की,
प्रमाद की।
इसी
अवस्था में
कोई व्यक्ति
साधु बनता है।
इस अवस्था में
आकर ही साधुता
का आविर्भाव
होता है। चौदह
गुणस्थानों
में यह सातवां
है। मध्य में
आकर खड़े हो
गए। आधी
यात्रा पूरी
हुई। जिसने
सातवें को पा
लिया हो वही
साधु है।
अक्सर
जिनको तुम
साधु कहते हो
वे सातवें तक
पहुंचे हुए
लोग नहीं
होते। उनमें
से कुछ तो
पहले में ही
अटके होते
हैं। उनमें से
कुछ दूसरे में
अटके होते
हैं। सातवें
तक पहुंचना भी
कठिन मालूम होता
है। क्योंकि
सातवें का
अर्थ है, भीतर
दीया पूरी तरह
जल गया, अब
कोई अंधकार
नहीं है। अब
कोई
अभिव्यक्ति
नहीं होती
किसी राग की।
आठवां: अपूर्वकरण।
साधक की अष्टम
भूमि, जिसमें
प्रविष्ट
होने पर जीवों
के परिणाम प्रतिसमय
अपूर्व-अपूर्व
होते हैं।
सातवें में
व्यक्ति साधु
बन जाता है।
आठवें में
घटनाएं घटनी
शुरू होती
हैं। सातवें
तक साधना है, आठवें से
अनुभव आने
शुरू होते
हैं। सातवें
तक तैयारी है,
आठवें से
प्रसाद बरसना
शुरू होता है।
प्रतिपल
अपूर्व-अपूर्व
अनुभव होते
हैं,
जैसे कभी न
हुए थे। ऐसी सुगंधें
आसपास डोलने
लगती हैं जैसी
कभी जानी न
थीं। ऐसी
मधुरिमा कंठ
में घुलने
लगती है जैसी
कभी जानी न
थी। ऐसे जीवन
की पुलक अनुभव
होती है, जिसकी
कोई मृत्यु
नहीं हो सकती।
अमृत का स्वाद
मिलता।
सातवें
तक तैयारी है।
पात्र तैयार
हुआ। आठवें
में वर्षा
शुरू होती है।
कबीर कहते हैं, बादल
गहन-गंभीर
होकर घिर गए।
अमृत बरस रहा
है। दादू कहते
हैं, हजार-हजार
सूरज निकल आए
ऐसी रोशनी है,
कि अंधेरे
को खोजो भी तो
कहीं मिलता
नहीं। मीरा
कहती है, पद
घुंघरू बांध
नाची।
ये
आठवें की
घटनाएं हैं--अपूर्वकरण।
यहां अनूठे
संगीत का जन्म
होता है। यही
घड़ी है जहां
झेन फकीर कहते
हैं,
एक हाथ की
ताली बजती है।
अपूर्व--जो हो
नहीं सकता ऐसा
होता है। जो
कभी हुआ नहीं
ऐसा होता है।
जिसको कहा
नहीं जा सकता
ऐसा होता है।
जिसको बताने
का कोई उपाय
नहीं। गूंगे
का गुड़। गूंगे
केरी सरकरा।
इस घड़ी
में आदमी बड़े
आनंद में लीन
होने लगता है।
और प्रतिपल
नया-नया होता
जाता है।
द्वार के बाद
द्वार खुलते
चले जाते हैं, पर्दे
के बाद पर्दे
उठते चले जाते
हैं। सात तक
तुम साधो, आठ
के बाद घटता
है।
अपूर्वकरण:
नाम भी महावीर
ने ठीक दिया।
पहले जैसा
नहीं हुआ, कभी
नहीं हुआ। और
जब तुम्हें
पहली दफा होता
है तभी
तुम्हें
भरोसा भी आता
है। कि महावीर
हुए होंगे कि
बुद्ध हुए
होंगे, कि
कबीर ठीक कहते
हैं। तुम
गवाही बनते
हो। आठवें पर
तुम्हारी
गवाही पैदा
होती है।
आठवें के पहले
तुम जो सिर
हिलाते हो वह
बहुत सार्थक
नहीं है।
आठवें के पहले
तुम कहते हो
हां, ठीक
लगती है बात।
बस, वह
लगती ही है।
तर्क से लगती
होगी, संस्कार
से लगती होगी।
बार-बार सुनी
है, पुनरुक्ति
से लगती होगी।
या तुम्हारे
भीतर वासना है,
आकांक्षा
है कि ऐसा घटे,
इसलिए तुम
मान लेते
होओगे कि हां,
घटता है।
लेकिन
आठवें पर पता
चलता है।
आठवें पर तुम
दस्तखत कर
सकते हो कि
हां,
महावीर हुए,
कि बुद्ध
हुए, कि
जीसस हुए। कि
इन्होंने जो
भी कहा है, ठीक
कहा है।
क्योंकि अब
तुम्हारे अनुभव
में आ रही
बात। अब
अस्तित्वगत
प्रमाण मिल
रहा है।
अपूर्वकरण की
स्थिति में ही
कोई कह सकता
है,
आत्मा है। अपूर्वकरण
की स्थिति में
ही कोई कह
सकता है कि
परमात्मा है। अपूर्वकरण
की स्थिति में
ही कोई कह
सकता है, समाधि
है। इसके पहले
सब तर्कजाल
है। इसके बाद
ही अनुभव के
स्रोत खुलने
शुरू होते
हैं।
प्रतिसमय
अपूर्व-अपूर्व।
तब कुछ भी
जीवन में जड़ता
जैसी नहीं रह
जाती।
यंत्रवत कुछ
भी नहीं रह जाता।
जैसे तुम
प्रतिक्षण
मरते हो और
प्रतिक्षण
जन्मते हो।
जैसे पुराना
मर जाता है हर
क्षण और नए का
आविर्भाव
होता है। जैसे
प्रतिपल पुराने
की धूल उड़
जाती है और
तुम्हारा
दर्पण फिर नया
हो जाता है।
जिसको
बौद्धों ने
क्षण-क्षण
जीना कहा है, वह
अपूर्वकरण
की स्थिति है।
जिसको
कृष्णमूर्ति
कहते हैं, मरो
अतीत के प्रति,
ताकि
भविष्य का
जन्म हो सके। छोड़ो अतीत
को, पकड़ो
मत, ताकि
अपूर्व घट
सके।
यह अपूर्वकरण
ध्यान का पहला
स्वाद है।
यहां से तुम
दूसरे लोक में
प्रविष्ट
हुए। यहां से
दूसरी दुनिया
शुरू हुई। ऐसा
समझो, अपूर्वकरण है, जैसा
कि कोई यात्री
नाव में बैठे
नदी के इस किनारे
से और नाव चले,
तो मध्य तक
तो पुराना
किनारा ही
दिखाई पड़ता रहता
है--सातवें
तक। नए किनारे
का पता नहीं
चलता। दूसरा
किनारा अभी
धुंध में छिपा
है दूर। आठवें
से, पुराना
किनारा तो
दिखाई पड़ना
बंद होने लगता
है, नया
किनारा दिखाई पड़ना शुरू
होता है।
आठवें से
पुराना तो
धुंध में छिप
जाता और नए का
आविर्भाव
होता है।
आठवां, साधु
के जीवन में
आत्मा का जन्म
है। आठवां, अंधेरे में
प्रकाश का
अवतरण है।
आठवां, मरुस्थल
में अमृत की
वर्षा है--अपूर्वकरण।
और फिर
ऐसा नहीं है
कि वही-वही
अनुभव रोज दोहरता
है,
प्रतिपल
नया होता जाता
है। जैसे-जैसे
तुम दूसरे
किनारे के
करीब होने
लगते और चीजें
स्पष्ट होने
लगती हैं, हर
घड़ी गहन से गहन,
सघन से सघन
प्रतीति आनंद
की होती चली
जाती है।
नौवां: अनिवृत्तिकरण।
साधक की नवम
भूमि में, जिसमें
समान समवर्ती
सभी साधकों के
परिणाम समान
हो जाते हैं
और प्रतिसमय
उत्तरोत्तर अनंतगुनी
विशुद्धता को
प्राप्त होते
हैं।
अनिवृत्तिकरण
नौवीं साधक की
भूमि है। यह
समझने जैसी
है। इस स्थिति
में लोगों के
व्यक्तित्व समाप्त
हो जाते हैं, व्यक्तिगत
भेद समाप्त हो
जाते हैं। इस
स्थिति में
आकर सभी साधक
एक जैसे हो
जाते हैं।
उनकी समान दशा
हो जाती है।
इस समय तक
व्यक्तित्व
की छाया रहती
है। कोई
स्त्री है, कोई पुरुष
है, कोई
बुद्धिमान है,
कोई बहुत
बौद्धिक है, कोई संगीत
में कुशल है, कोई गणित
में कुशल है, कोई कलाकार
है, कोई
कुछ है।
आठवें
तक भेद बने
रहते हैं।
नौवें से अभेद
शुरू होता है।
इस समय, जो भी
साधक नौवें
में पहुंचता
है उसके
व्यक्तित्व
की खोल गिर
जाती है। जैसे
सांप सरक जाता
है पुरानी चमड़ी
को छोड़कर, पुरानी
खोल को छोड़कर।
यहां से
अव्यक्तिगत
जीवन शुरू
होता है। यहां
से तुम्हारा
कोई भेद किसी
से नहीं रह
जाता। न तुम
स्त्री, न
तुम पुरुष; न तुम गोरे, न तुम काले; न तुम सुंदर,
न तुम
असुंदर; न
तुम
महत्वपूर्ण, न तुम
महत्वहीन। इस
अवस्था में
सभी समान हो
जाते हैं।
और
ध्यान रखना, यह
अभी केवल
नौवीं अवस्था
है। नौवीं
अवस्था में
व्यक्ति को
समता के बोध
का जन्म होता
है। तब वह
सबमें एक का
ही वास देखता
है। उनमें भी
जो सोए हैं, वह उस एक को
ही देखना शुरू
कर देता है, जो उसके
भीतर जग गया
है। अब फर्क
सोने और जगने का
होगा, लेकिन
अब और कोई
फर्क नहीं है।
इस घड़ी में न
तो साधु जैन
रह जाता है, न हिंदू, न
मुसलमान। रह
ही नहीं सकता।
इस घड़ी में न
तो मंदिर-मस्जिद
में कोई फर्क
रह जाता, न
गुरुद्वारा
में, गिरजाघर
में कोई फर्क
रह जाता। इस
घड़ी में जिन्होंने
भी जाना है वे
सभी एक ही
वक्तव्य को
देते मालूम
पड़ते हैं।
भाषा होगी अलग,
कथन अलग
नहीं। कथ्य
होगा अलग, कथन
अलग नहीं। कथा
होगी
भिन्न-भिन्न,
लेकिन जो
कहा जा रहा है
वह एक ही है।
नौवीं
अवस्था में
व्यक्ति
धर्मों के
विशेषणों के
पार हो जाता
है। देह की
भिन्नता के
पार हो जाता
है,
मन की विशिष्टताओं
के पार हो
जाता है।
सामान्य का
जन्म होता है,
या
सार्वलौकिक।
साधक
की नवम भूमि, जिसमें
समान समवर्ती
सभी साधकों के
परिणाम समान
हो जाते हैं
और प्रतिसमय
उत्तरोत्तर अनंतगुनी
विशुद्धता को
प्राप्त होते
हैं। और इसी
क्षण से
विशुद्धता
बढ़नी शुरू
होती है।
समता
के बाद है
विशुद्धता।
इसलिए
जो अभी कह रहा
हो कि मैं जैन
मुनि हूं, वह
अभी कहीं भटक
रहा है विशेषण
में। जो कहता
हो मैं हिंदू
संन्यासी हूं,
वह अभी कहीं
भटक रहा है
विशेषण में।
जो कहता हो
मैं ईसाई हूं,
वह भटक रहा
कहीं विशेषण
में।
विशेषण
छूट जाते हैं।
क्योंकि भीतर
जिसका अनुभव
होता है वह
बिलकुल एक-रस
है। इसीलिए शुद्धता
बढ़ती है।
ऐसा
समझो कि
तुम्हारा
कमरा है, बैठकघर है
तुम्हारा, तुम्हारा
फर्निचर
है, दीवाल
पर तुम्हारी
तस्वीरें हैं,
तुम्हारी
घड़ी है, तुम्हारा
फूलदान है, तुम्हारा
रेडियो-टेलीविजन
है। फिर किसी
दूसरे का, पड़ोसी
का बैठकघर
है, उसकी
अपनी
तस्वीरें हैं,
अपना
फूलदान है, अपना रेडियो
है, अपनी
पसंद का फर्निचर
है, अपने
ढंग के पर्दे
हैं।
फिर
तुम दोनों ऐसा
करो कि
धीरे-धीरे
चीजों को बाहर
निकालते जाओ।
जब कमरे दोनों
खाली हो जाएंगे
तो बड़े समान
हो जाएंगे।
क्योंकि भेद
पर्दे का था।
पर्दे अलग हो
गए। भेद
कुर्सी-टेबल
का था, कुर्सी-टेबल
अलग हो गई।
भेद चित्रों
का था, चित्र
दीवाल से अलग
हो गए। भेद
रेडियो-टेलिविजन
का था, वे
भी अलग हो गए।
अब दोनों कमरे
खाली रह गए, काफी एक
जैसे हो गए।
क्योंकि
दोनों कमरे
केवल कमरे रह
गए।
दोनों
के भीतर
शुद्धता है, शून्यता
है। दोनों में
अवकाश है।
जैसे-जैसे चीजें
खाली होती हैं
तुम्हारे
भीतर से, वैसे-वैसे
अवकाश, आकाश
उपलब्ध होता
है। आकाश समान
है। भराव के कारण
भेद है। एक
किताब कुरान
है, एक
किताब बाइबल
है। दोनों में
से स्याही के
अक्षर छांटकर
बाहर निकाल लो,
कोरे कागज रह
गए। फिर फर्क
करना मुश्किल
हो जाएगा, कौन
कुरान है और
कौन बाइबल है।
कोरी किताबें
बस कोरी
किताबें हैं।
कौन कुरान, कौन बाइबल?
सूफियों
की एक बड़ी
प्रसिद्ध
किताब है, जिसमें
कुछ भी लिखा
हुआ नहीं है।
उसको वे कहते
हैं, "द बुक
आफ द बुक।' किताबों
की किताब।
खाली है। सूफी
फकीर उसको खूब
पढ़ते हैं, वही
पढ़ने जैसी है।
उसमें कुछ
लिखा नहीं है।
सूफी फकीर बैठ
जाते हैं, सुबह
से खाली किताब
खोलकर पढ़ने
लगते हैं। चेष्टा
यह है कि इसी
खाली किताब
जैसे खाली हो
जाएं। महावीर
जिसको नौवीं
भूमि कहते हैं,
वही है "द
बुक आफ द बुक'। वही है
किताबों की
किताब। वहां
साधक शून्यता
को उपलब्ध होता
है।
दसवां गुणस्थान: सूक्ष्मसाम्पराय।
जहां सब कषाय
क्षीण हो जाने
पर भी लोभ या
राग की कोई
सूक्ष्म छाया
शेष रहती है।
अब यह
जरा समझने
जैसा है।
नौवें पर सब
शून्य हो गया।
दसवें में
महावीर कहते
हैं,
जहां सब कषायें
क्षीण हो गईं,
फिर भी राग
की कोई
सूक्ष्म छाया
शेष रहती है।
तुम्हारे
कमरे तो समान
हो गए, लेकिन
तुम्हारे तलघरों
का क्या? तुम्हारा
चेतन मन तो
बिलकुल समान
हो गया। जहां
तक तुम्हारा
बोध जाता है
वहां तक तो सब
समान हो गया, लेकिन
अनंत-अनंत
जन्मों में जो
कर्मों की सूक्ष्म
रेखाएं
तुम्हारे
भीतर पड़ी हैं,
उनका क्या?
तुमने
कभी देखा? पानी
को बहा दो
फर्श पर, धूप
आती है, पानी
उड़ जाता है
लेकिन एक सूखी
रेखा रह जाती
है। वह दिखाई
भी नहीं पड़ती।
साधारणतः कोई
उसको देख भी
नहीं पाएगा, जहां से
पानी बहा था।
अब वहां पानी
बिलकुल नहीं
है। अब पानी
का नाममात्र
भी नहीं बचा, लेकिन एक
सूखी रेखा रह
गई है। अगर
तुम पानी फिर ढालो तो
बहुत संभावना
है कि उसी
सूखी रेखा को पकड़कर
पानी बहेगा।
क्योंकि वह
सूखी रेखा
सुगम होगी।
कर्म
सूखी रेखाएं
हैं। जहां
तुमने
बहुत-बहुत कर्म
किए थे, क्रोध
बहुत बार किया
था, क्रोध
तो छोड़ दिया, क्रोध का फर्निचर
तो बाहर फेंक
दिया; लोभ
बहुत बार किया,
लोभ भी छोड़
दिया, लेकिन
अनंत कालों
में अनंत लोभ
के जो परिणाम
हुए थे, और
तुम्हारी जीवनधारा
से जो लोभ बहा
था, उसकी
सूखी रेखाएं
रह गई हैं। वे
तुम्हें दिखाई
भी नहीं पड़तीं।
वे नौवीं
अवस्था में
पहुंचे
व्यक्ति को ही
दिखाई पड़नी
शुरू होती
हैं। वे इतनी
सूक्ष्म हैं,
हैं ही नहीं,
लेकिन हैं।
जैसे
तुम्हारा
कमरा खाली कर
दिया, पड़ोसी
का भी कमरा
खाली कर दिया,
लेकिन फिर
भी तुम्हारे
कमरे में एक
खास बात होगी,
जो पड़ोसी के
कमरे में न
होगी। तुम
इतने दिन तक इस
कमरे में रहे,
तुम्हारी
बास इस कमरे
में होगी।
तुम्हारा होने
का ढंग इस
कमरे में
होगा।
तुम्हारी
उपस्थिति इस
कमरे में
होगी। तुम
इतने दिन तक
इस कमरे में
रहे, तुम्हारी
आदतें, तुम्हारे
मनोवेग, तुम्हारी
वासनाएं इस
कमरे में उठीं
और फैलीं,
वे इस कमरे
में होंगी।
तुमने
अगर इस कमरे
में किसी की
हत्या कर दी
थी तो उस हत्या
की घटना इस
कमरे पर बड़ी
स्पष्ट रूप से
लिखी है।
अदृश्य है
लिखावट, कोई
उसे पढ़ न
पाएगा, लेकिन
लिखी है। जिस
कमरे में किसी
की हत्या हुई
हो, उस
कमरे में तुम
अगर जाकर
सोओगे तो रात
ठीक से सो न
पाओगे।
वर्षों पहले
हुई होगी
हत्या, लेकिन
कोई चीख-पुकार
अभी भी दीवाल
की कणों से लटकी
रह गई है। कोई
सूक्ष्म भाव
अभी भी भटकता रह
गया है। उसी
को तो हम
प्रेतात्मा
कहते हैं। कोई
सूक्ष्म भाव
लटका रह गया
है।
इसलिए
जहां संत बैठे
हैं,
जहां संत
चले हैं वहां
तीर्थ बन जाते
हैं, क्योंकि
उनका सूक्ष्म
भाव वहां लटका
रह जाता है।
सदियां बीत
जाती हैं। जब
कभी तुम ऐसी
जगह जाकर खड़े
हो जाओगे, जहां
कभी कोई संत
बैठा था और
समाधि को
उपलब्ध हुआ था,
तो वह जगह
अब भी उस गीत
को गुनगुना
रही है; तुम्हें
चाहे पता भी न
चले। लेकिन
पता तुम्हें
भी चल जाता
है। तुम्हें भी
कभी-कभी लगता
है, किसी
स्थान पर
बैठकर बड़ी
शांति मिलती
है। किसी
स्थान पर
बैठकर एकदम
तुम अशांत
होने लगते हो।
किसी वृक्ष के
नीचे बैठकर
बड़ा अहोभाव
पैदा होता है।
किसी घर में
जाते ही कुछ
भय लगता है। किसी
घर में तुम
कभी गए भी
नहीं, बाहर
से ही निकलते
हो, लेकिन
मालूम होता है
कोई बुला रहा,
निमंत्रण
है--आओ। कोई
तुम्हें
पाहुना बनाना
चाहता है। कोई
कहता है, पधारो
जी। कोई कह
नहीं रहा, लेकिन
घर की स्थिति,
घर के
सूक्ष्म
कंपन...।
तो
महावीर कहते
हैं,
दसवीं
स्थिति है: सूक्ष्मसाम्पराय।
अति सूक्ष्म।
दिखाई नहीं
पड़ेंगे; अदृश्य
लेखन हैं। वे
नौवें को ही
दिखाई पड़ेंगे,
जो इस
अवस्था में आ
गया है, जहां
अब सब समान
है। सब विशेषण
गिर गए, सब
रूप-रंग-आकृतियां
गिर गईं, उसी
को दिखाई
पड़ेगा।
जन्मों-जन्मों
में जो-जो किया
गया है उसकी
सूक्ष्म
तरंगें भीतर
शेष रह गई
हैं।
जहां
सब कषायें
क्षीण हो जाने
पर भी लोभ या
राग की कोई
सूक्ष्म छाया
शेष रहती है।
ग्यारहवीं
अवस्था है: उपशांतमोह।
साधक की
ग्यारहवीं
भूमि, जिसमें कषायों का
उपशमन हो जाने
से वह कुछ काल
के लिए अत्यंत
शांत हो जाता
है।
ऐसी
अवस्था--जैन
शास्त्रों
में जो उदाहरण
दिया जाता है
वह ठीक है--ऐसी
है,
जैसे कि
किसी नदी से, छोटे झरने
से बैलगाड़ियां
गुजर गईं।
उनके गुजरने
से जमीन में
जमी मिट्टी, कूड़ा-कर्कट, सूखे
पत्ते, सब
ऊपर उठ आये।
झरना गंदा हो
गया। फिर बैलगाड़ियां
चली गईं दूर, धीरे-धीरे
पत्ते फिर बैठ
गए, धूल
फिर बैठ गई
तलहटी में, झरना फिर
स्वच्छ और साफ
हो गया।
तो ऊपर
तो बिलकुल
स्वच्छ और साफ
हो गया है। पी लो, इतना
स्वच्छ है।
लेकिन अगर जरा
हिलाया तो नीचे
पर जो बैठी
धूल है, वह
फिर उठ आएगी। कूड़ा-कर्कट
बैठा है नीचे।
सम्हालकर
चुल्लू भरना,
अन्यथा फिर
उठ आएगा।
यह जो
ग्यारहवीं
अवस्था है, यह
है उपशांतमोह।
मोह शांत हो
गया। जैसे धूल,
कूड़ा-कर्कट झरने
में नीचे बैठ
गया; लेकिन
मिट नहीं गया
है। बहुत
सम्हल-सम्हलकर
चलना होगा। इस
अवस्था में
व्यक्ति को
ऐसे चलना होता
है, जैसे
कोई गर्भिणी
स्त्री चलती
है। एक गर्भ
है; पेट
में एक नया
जीवन है।
सम्हलकर चलती
है, कहीं
गिर न जाए, फिसल
न जाए।
जैसे-जैसे
गर्भ बड़ा होने
लगता है, वैसे-वैसे
सावधानी
बरतनी होती
है। इस ग्यारहवीं
अवस्था में हम
आखिरी अवस्था
के बहुत करीब आ
गए। समझो कि
सात महीने
पूरे हुए गर्भ
के; कि
आठवां महीना
लग गया; कि
अब नौवां
महीना करीब आ
रहा है। अब
बड़ी सावधानी
की जरूरत है।
उस सावधानी
पर जोर देने
के लिए ही
इसको महावीर
ने उपशांतमोह
कहा है। बैठ
गई तलहटी में
धूल,
उठ सकती है।
निश्चिंत
होकर मत बैठ
जाना। अभी अंत
नहीं आ गया।
बड़ी सुखद
अवस्था है, बड़ी शांति
की अवस्था है।
कुछ क्षण में
तो ऐसा लगेगा
कि सिद्ध हो
गए। कुछ फर्क
नहीं है सिद्ध
में और इस
अवस्था में, जहां तक
पानी की
स्वच्छता का
संबंध है।
फर्क इतना ही
है कि सिद्ध
का पानी अब
तुम कितना ही उछलो-कूदो,
गंदा नहीं
हो सकता। यह
अभी गंदा हो
सकता है। अगर
किनारे से
बैठकर देखो तो
दोनों बिलकुल
एक जैसे हैं।
उपशांतमोह की
अवस्था का
व्यक्ति ठीक
सिद्ध जैसा
मालूम होगा।
साधारणतः
बाहर से लोग
फर्क भी नहीं
कर सकते, मगर
वह स्वयं फर्क
कर सकता है।
अभी विकृति उठ
सकती है। अभी
सांप आखिरी
बार फन उठा
सकता है।
बारहवीं
अवस्था है: क्षीणमोह, कषायों
का समूल नाश।
अब ऐसा नहीं
कि झरने में
नीचे कचरा
बैठा है, कचरा
झरने से
समाप्त कर
दिया गया। जब
बिलकुल शुद्ध
हो गया है।
फिर भी
महावीर अभी
इसको बारहवीं
अवस्था कहते हैं।
महावीर का
गणित बहुत साफ
है।
तेरहवीं
अवस्था है: संयोगिकेवलीजिन।
महावीर कहते
हैं सब ठीक हो
गया,
लेकिन अभी
देह से संबंध
है। अभी देह
से संयोग है।
सब समाप्त हो
गया, लेकिन
अभी जो चैतन्य
जागा है, वह
अभी देह में
है। अभी देह
से जुड़ा है।
संयोगी, केवली,
जिन--तीन
शब्द हैं।
संयोगी:
संयोगी का
अर्थ है, अभी
देह से संबंध
है। केवली: केवलज्ञान
को उपलब्ध हो
गया है। जिन:
जाग गया है।
केवल-ज्ञान की
उपलब्धि, परमात्मा
या भगवान की
संज्ञा।
महावीर
कहते हैं, इस
तेरहवीं
अवस्था में
व्यक्ति
भगवान की स्थिति
में है लेकिन
अभी काया से
जुड़ा है। अभी
देह से संबंध
है। सब समाप्त
हो गया, लेकिन
अभी देह से
मुक्ति नहीं
हुई है। अभी
देह के भीतर
है।
ऐसा
समझो कि तुम जेलखाने
में बंद हो और
खबर आ गई।
जेलर ने आकर
कहा कि खड़े हो
जाओ,
छुटकारे का
समय आ गया।
तुम्हारी
मुक्ति का क्षण
आ गया।
जंजीरें खोल
दी गईं, तुम
चल पड़े जेलर
के साथ दरवाजे
की तरफ, लेकिन
अभी तुम
दरवाजे के
भीतर हो। एक
अर्थ में
मुक्त हो गए।
हो ही गए
मुक्त। अब कुछ
बचा नहीं।
जंजीरें भी
छूट गईं, मुक्ति
का आदेश भी आ
गया, द्वार
की तरफ चल भी
पड़े, लेकिन
अभी भी
कारागृह में
हो। अब कोई
कारण नहीं कि
तुम रहोगे
कारागृह में
लेकिन हो अभी
भी।
महावीर
कहते हैं, इस
अवस्था में
व्यक्ति को
भगवान या
परमात्मा की
संज्ञा
उपलब्ध होती
है।
फिर
चौदहवीं
अवस्था है: अयोगिकेवलीजिन।
अयोगी
यानी जब शरीर
से भी संबंध
छूट गया, तब
तुम कारागृह
के बाहर हो
गए। जरा-सा
फर्क है; शायद
इंचभर
का। एक क्षणभर
पहले तुम
कारागृह के
भीतर थे, एक
क्षण के बाद
कारागृह के
बाहर हो गए।
बहुत बड़ा भेद
नहीं है।
इसलिए महावीर
कहते हैं, तेरहवीं
अवस्था में
व्यक्ति को
भगवान कहा जा सकता
है। सब
व्यावहारिक
अर्थों में वह
भगवत्ता को
उपलब्ध हो
गया। जरा-सी
बात रह गई है
कि अभी कारागृह
के दरवाजे के
पार नहीं हुआ
है।
अयोगिकेवलीजिन:
साधक की अंतिम
भूमि। जिसमें
मन,
वचन, काया
की समस्त चेष्टाएं
शांत होकर शैलेशी
स्थिति
प्राप्त होती
है।
अब डिग
नहीं सकता।
तेरहवीं
अवस्था तक
थोड़ा-सा खतरा
है। जेलर का
मन बदल जाए, कोई
दुर्घटना हो
जाए, वह जो
द्वार पर खड़ा
पहरेदार है
चाबी घर भूल
आया हो; कि
चाबी लगे न, कि चाबी
खराब हो गई हो,
कि ताला अटक
जाए। अभी भीतर
है, बिलकुल
चल पड़ा है
बाहर होने के
लिए, लेकिन
अभी देह से
जुड़ा है। चौदहवीं
अवस्था में
देह से संबंध
पूर्ण रूप से
छूट गया। तो शैलेशी
अवस्था।
यह
चौदहवीं
अवस्था भी
साधक की आखिरी
अवस्था है। इन
चौदहों के जो
आगे चला गया, उसको
सिद्ध कहते
हैं। तो सिद्ध
की अवस्था गुणातीत
है--गुणस्थान-मुक्त।
सिद्ध
परिभाषा के
बाहर है। जो
हिंदू शास्त्रों
में ब्रह्म की
परिभाषा है, वही जैन
शास्त्रों
में सिद्ध की
परिभाषा है--सच्चिदानंदरूप।
चूंकि ब्रह्म
का तो कोई
शब्द जैनों के
पास नहीं
है--सिद्ध।
क्योंकि
जैनों की तो
सारी खोज स्वयं
की खोज है।
तेरहवीं
अवस्था से
व्यक्ति
भगवान की
अवस्था को
उपलब्ध होता
है। भगवत्ता
अनुभव हो जाती
है,
कि जीवन भगवतस्वरूप
है। लेकिन एक
आखिरी बात रह
जाती है--देह
का पर्दा।
चौदहवें पर वह
पर्दा भी गिर
जाता।
फिर
पंद्रहवीं
में क्या होता
है?
पंद्रहवें पर यात्रा
समाप्त हो गई।
उसके पार कुछ
भी नहीं है।
उसको
पंद्रहवां भी
नहीं कहते।
चौदह गुणस्थान
हैं, पंद्रहवीं
अवस्था
तुम्हारा
स्वभाव है।
चौदह को पार
करके कोई
स्वयं को
उपलब्ध होता
है।
महावीर
के इस गणित को
स्मरण रखना।
इसमें तत्क्षण
तुम्हें समझ
में आ सकेगा
कि तुम कहां
खड़े हो। और
पता चल जाए कि
मैं कहां हूं
तो ही यात्रा
सुगमता से
होती है।
तुम हो
तो पहली अवस्था
में,
और सोच रहे
हो सातवीं
अवस्था में, तो तुम चल न
पाओगे। चलोगे
तो पहली से ही
चलना पड़ेगा।
जहां हो वहीं
से यात्रा
शुरू होगी।
तुम जहां नहीं
हो वहां से
यात्रा शुरू
नहीं हो सकती।
इसलिए
ठीक-ठीक अपने
को पहचानना।
और मैं कहता हूं
कि महावीर के
अतिरिक्त
किसी व्यक्ति
ने कभी भी
इतना सूक्ष्म
तौलने का उपाय
नहीं दिया है।
यहां एक-एक
बात साफ कर दी
गई है। अड़चन न
होगी। तुम
अपने को
ठीक-ठीक जांच
पाओगे, कहां
हो। और तुम
कहां हो यह
जानना अत्यंत
जरूरी है, तो
ही तुम वहां
पहुंच सकोगे
जहां पहुंचना
है।
अगर स्मरणपूर्वक
इस यात्रापथ
का उपयोग किया, इस
यात्रामार्ग-निर्देश
का उपयोग किया
तो किसी न
किसी क्षण में
वह अपूर्व, विलक्षण, अलौकिक घटना
घटती है, जब
तुम अपने घर आ
जाते हो।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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