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शनिवार, 14 जून 2014

गीता दर्शन--(भाग--3) प्रवचन--078

श्रद्धावान योगी श्रेष्ठ है (अध्याय—6) प्रवचन—इक्कीसवां

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।। 46।।

योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, शास्त्र के ज्ञान वालों से भी श्रेष्ठ माना गया है, तथा सकाम कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है, इससे हे अर्जुन, तू योगी हो।
पस्वियों से भी श्रेष्ठ है, शास्त्र के ज्ञाताओं से भी श्रेष्ठ है, सकाम कर्म करने वालों से भी श्रेष्ठ है, ऐसा योगी अर्जुन बने, ऐसा कृष्ण का आदेश है। तीन से श्रेष्ठ कहा है और चौथा बनने का आदेश दिया है। तीनों बातों को थोड़ा-थोड़ा देख लेना जरूरी है।
तपस्वियों से श्रेष्ठ कहा योगी को। साधारणतः कठिनाई मालूम पड़ेगी। तपस्वी से योगी श्रेष्ठ? दिखाई तो ऐसा ही पड़ता है साधारणतः कि तपस्वी श्रेष्ठ मालूम पड़ता है, क्योंकि तपश्चर्या प्रकट चीज है और योग अप्रकट। तपश्चर्या दिखाई पड़ती है और योग दिखाई नहीं पड़ता है। योग है अंतर्साधना, और तपश्चर्या है बहिर्साधना
अगर कोई व्यक्ति धूप में खड़ा है घनी, भूखा खड़ा है, प्यासा खड़ा है, उपवासा खड़ा है, शरीर को गलाता है, शरीर को सताता है--सबको दिखाई पड़ता है। क्योंकि तपस्वी मूलतः शरीर से बंधा हुआ है। जैसे भोगी शरीर से बंधा होता है; दिखाई पड़ता है उसका इत्र-फुलेल; दिखाई पड़ता है उसके शरीरों की सजावट; दिखाई पड़ते हैं गहने; दिखाई पड़ते हैं महल; दिखाई पड़ता है शरीर का सारा का सारा शृंगार। ऐसे ही तपस्वी का भी सारा का सारा शरीर-विरोध प्रकट दिखाई पड़ता है। लेकिन ओरिएंटेशन एक ही है; दोनों का केंद्र एक ही है--भोगी का भी शरीर है और तथाकथित तपस्वी का भी शरीर है।
हम चूंकि सभी शरीरवादी हैं, इसलिए भोगी भी हमें दिखाई पड़ जाता है और त्यागी भी दिखाई पड़ जाता है। योगी को पहचानना मुश्किल है, क्योंकि योगी शरीर से शुरू नहीं करता। योगी शुरू करता है अंतस से।
योगी की यात्रा भीतरी है, और योगी की यात्रा वैज्ञानिक है। वैज्ञानिक इस अर्थों में है कि योगी साधनों का प्रयोग करता है, जिनसे अंतस चित्त को रूपांतरित किया जा सके।
त्यागी केवल शरीर से लड़ता है शत्रु की भांति। तपस्वी केवल दमन करता हुआ मालूम पड़ता है। लड़ता है शरीर से, क्योंकि ऐसा उसे प्रतीत होता है कि सब वासनाएं शरीर में हैं। अगर स्त्री को देखकर मन मोहित होता है, तो तपस्वी आंख फोड़ लेता है। सोचता है कि शायद आंख में वासना है। और अगर कोई आदमी अपनी आंख फोड़ ले, तो हमें भी लगेगा कि ब्रह्मचर्य की बड़ी साधना में लीन है।
पर आंखों के फूटने से वासना नहीं फूटती है। आंखों के चले जाने से वासना नहीं जाती है। अंधे की भी कामवासना उतनी ही होती है, जितनी गैर-अंधे की होती है। अगर अंधों के पास कामवासना न होती, तो अंधे सौभाग्यशाली थे; पुण्य का फल था उन्हें। जन्मांध जो है, उसकी भी कामवासना होती है; तो आंख फोड़ लेने से कोई कैसे कामवासना से मुक्त हो जाएगा?
लेकिन योगी? योगी आंख नहीं फोड़ता। आंख के पीछे वह जो ध्यान देने वाली शक्ति है, उसे आंख से हटा लेता है।
रास्ते पर गुजरती है एक स्त्री, और मेरी आंखें उससे बंधकर रह जाती हैं। अब दो रास्ते हैं। या तो मैं आंख फोड़ लूं; आंख फोड़ लूं, तो आप सबको दिखाई पड़ेगा कि आंख फोड़ ली गई। या मैं आंख मोड़ लूं; तो भी दिखाई पड़ेगा कि आंख मोड़ ली गई। या मैं भाग खड़ा होऊं और कहूं कि दर्शन न करूंगा, देखूंगा नहीं, तो भी आपको दिखाई पड़ जाएगा। लेकिन मेरी आंख के पीछे जो ध्यान की ऊर्जा है, अगर मैं उसे आंख से हटा लूं, तो दुनिया में किसी को नहीं दिखाई पड़ेगा, सिर्फ मुझे ही दिखाई पड़ेगा।
योग अंतर-रूपांतरण है।
भोगी भोजन खाए चला जाता है; जितना उसका वश है, भोजन किए चला जाता है। त्यागी भोजन छोड़ता चला जाता है। लेकिन योगी क्या करता है? योगी न तो भोजन किए चला जाता है, न भोजन का त्याग करता है; योगी रस का त्याग कर देता है, स्वाद का त्याग कर देता है। जितना जरूरी भोजन है, कर लेता है। जब जरूरी है, कर लेता है। जो आवश्यक है, कर लेता है। लेकिन स्वाद की वह जो लिप्सा है, वह जो विक्षिप्तता है, जो सोचती रहती है दिन-रात, भोजन, भोजन, भोजन, उसे छोड़ देता है।
लेकिन यह दिखाई न पड़ेगा। यह तो योगी ही जानेगा, या जो बहुत निकट होंगे, वे धीरे-धीरे पहचान पाएंगे--योगी कैसे उठता, कैसे बैठता, कैसी भाषा बोलता। लेकिन बहुत मुश्किल से पहचान में आएगा।
तपस्वी दिखाई पड़ जाएगा, क्योंकि तपस्वी का सारा प्रयोग शरीर पर है। योगी का सारा प्रयोग अंतसचेतना पर है।
तप दिखाई पड़ने से क्या प्रयोजन है? तपस्वी को बाजार में खड़ा होने की जरूरत ही क्या है? यह प्रश्न तो अपना और परमात्मा के बीच है; यह मेरे और आपके बीच नहीं है। आप मेरे संबंध में क्या कहते हैं, यह सवाल नहीं है। मैं आपके संबंध में क्या कहता हूं, यह सवाल नहीं है। मेरे संबंध में परमात्मा क्या कहता है, वह सवाल है। मेरे संबंध में मैं क्या जानता हूं, वह सवाल है।
योगी की समस्त साधना, अंतर्साधना है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, तपस्वी से महान है योगी, अर्जुन। ऐसा कहने की जरूरत पड़ी होगी, क्योंकि तपस्वी सदा ही महान दिखाई पड़ता है। जो आदमी रास्तों पर कांटे बिछाकर उन पर लेट जाए, वह स्वभावतः महान दिखाई पड़ेगा उस आदमी से, जो अपनी आरामकुर्सी में लेटकर ध्यान करता हो। महान दिखाई पड़ेगा। आरामकुर्सी में बैठना कौन-सी महानता है?
लेकिन मैं आपसे कहता हूं, कांटों पर लेटना बड़ी साधारण सर्कस की बात है, बड़ा काम नहीं है। कांटों पर, कोई भी थोड़ा-सा अभ्यास करे, तो लेट जाएगा। और अगर आपको लेटना हो, तो थोड़ी-सी बात समझने की जरूरत है, ज्यादा नहीं!
आदमी की पीठ पर ऐसे बिंदु हैं, जिनमें पीड़ा नहीं होती। अगर आपकी पीठ पर कोई कांटा चुभाए, तो कई, पच्चीस जगह ऐसी निकल आएंगी, जब आपको कांटा चुभेगा, और आप न बता सकेंगे कि कांटा चुभ रहा है। आपकी पीठ पर पच्चीसत्तीस ब्लाइंड स्पाट्स हैं, हरेक आदमी की पीठ पर। आप घर जाकर बच्चे से कहना कि जरा पीठ में कांटा चुभाओ! आपको पता चल जाएगा कि आपकी पीठ पर ब्लाइंड स्पाट्स हैं, जहां कांटा चुभेगा, लेकिन आपको पता नहीं चलेगा। बस, उन्हीं ब्लाइंड स्पाट्स का थोड़ा-सा अभ्यास करना पड़ता है। व्यवस्थित कांटे रखने पड़ते हैं, जो ब्लाइंड स्पाट्स में लग जाएं। फिर पीठ पर लेटे हुए आदमी को कांटे का पता नहीं चलता है। यह तो फिजियोलाजी की सीधी-सी ट्रिक है, इसमें कुछ मामला नहीं है।
लेकिन कांटे पर कोई आदमी लेटा हो, तो चमत्कार हो जाएगा, भीड़ इकट्ठी हो जाएगी। लेकिन कोई आदमी अगर आरामकुर्सी पर बैठकर ध्यान को शांत कर रहा हो, तो कोई भीड़ इकट्ठी नहीं होगी, किसी को पता भी नहीं चलेगा। यद्यपि ध्यान को एकाग्र करना कांटों पर लेटने से बहुत कठिन काम है। ध्यान को एकाग्र करना कांटों पर लेटने से बहुत कठिन काम है, अति कठिन काम है। क्योंकि ध्यान पारे की तरह हाथ से छिटक-छिटक जाता है। पकड़ा नहीं, कि छूट जाता है। पकड़ भी नहीं पाए, कि छूट जाता है। एक क्षण भी नहीं रुकता एक जगह। इस ध्यान को एक जगह ठहरा लेना योग है।
तपस्वी दिखाई पड़ता है; बहुत गहरी बात नहीं है। इसका यह मतलब नहीं है कि जो आदमी योग को उपलब्ध हो, उसके जीवन में तपश्चर्या न होगी। जो आदमी योग को उपलब्ध हो, उसके जीवन में तपश्चर्या होगी। लेकिन जो आदमी तपश्चर्या कर रहा है, उसके जीवन में योग होगा, यह जरा कठिन मामला है। इसको खयाल में ले लें।
जो आदमी योग करता है, उसके जीवन में एक तरह की आस्टेरिटी, एक तरह की तपश्चर्या आ जाती है। वह तपश्चर्या भी सूक्ष्म होती है। वह तपश्चर्या बड़ी सूक्ष्म होती है। वह आदमी एक गहरे अर्थों में सरल हो जाता है। वह आदमी गहरे अर्थों में दुख को झेलने के लिए सदा तत्पर हो जाता है। वह आदमी सुख की मांग नहीं करता। उस आदमी पर दुख आ जाएं, तो वह चुपचाप उनको संतोष से वहन करता है। उसके जीवन में तपश्चर्या होती है। लेकिन तपश्चर्या कल्टिवेटेड नहीं होती, इतना फर्क होता है।
दुख आ जाए, तो योगी दुख को ऐसे झेलता है, जैसे वह दुख न हो। सुख आ जाए, तो ऐसे झेलता है, जैसे वह सुख न हो। योगी सुख और दुख में सम होता है।
तपस्वी? तपस्वी दुख आ जाए, इसकी प्रतीक्षा नहीं करता; अपनी तरफ से दुख का इंतजाम करता है, आयोजन करता है। अगर एक दिन भूख लगी हो और खाना न मिले, तो योगी विक्षुब्ध नहीं हो जाता; भूख को शांति से देखता है; सम रहता है। लेकिन तपस्वी? तपस्वी को भूख भी लगी हो, भोजन भी मौजूद हो, शरीर की जरूरत भी हो, भोजन भी मिलता हो, तो भी रोककर, हठ बांधकर बैठ जाता है कि भोजन नहीं करूंगा। यह आयोजित दुख है।
ध्यान रहे, भोगी सुख की आयोजना करता है, तपस्वी दुख की आयोजना करता है। अगर भोगी सिर सीधा करके खड़ा है, तो तपस्वी शीर्षासन लगाकर खड़ा हो जाता है। लेकिन दोनों आयोजन करते हैं।
योगी आयोजन नहीं करता। वह कहता है, प्रभु जो देता है, उसे सम भाव से मैं लेता हूं। वह आयोजन नहीं करता। वह अपनी तरफ से न सुख का आयोजन करता, न दुख का आयोजन करता। जो मिल जाता है, उस मिल गए में शांति से ऐसे गुजर जाता है, जैसे कोई नदी से गुजरे और पानी न छुए। ऐसे गुजर जाता है, जैसे कमल के पत्ते हों पानी पर खिले; ठीक पानी पर खिले, और पानी उनका स्पर्श न करता हो। लेकिन आयोजन नहीं है।
ध्यान रहे, किसी भी चीज का आयोजन करके मन को राजी किया जा सकता है--किसी भी चीज का आयोजन करके। दुख का आयोजन करके भी दुख में सुख लिया जा सकता है।
वैज्ञानिक जानते हैं, मनोवैज्ञानिक जानते हैं उन लोगों को, जिनका नाम मैसोचिस्ट है। दुनिया में एक बहुत बड़ा वर्ग है ऐसे लोगों का, जो अपने को सताने में मजा लेते हैं। दूसरे को सताने में सभी मजा लेते हैं; करीब-करीब सभी। कुछ लोग हैं, जो अपने को सताने में भी मजा लेते हैं।
आप कहेंगे, ऐसा तो आदमी नहीं होगा, जो अपने को सताने में मजा लेता हो! मनोवैज्ञानिक कहते हैं, ऐसा आदमी बढ़ी प्रगाढ़ मात्रा में है, जो अपने को सताने में मजा लेता है। अगर उसको खुद को सताने का मौका न मिले, तो वह मौका खोजता है। वह ऐसी तरकीबें ईजाद करता है कि दुख आ जाए। जहां वह छाया में बैठ सकता था, वहां धूप में बैठता है। जहां उसे खाना मिल सकता है, वहां भूखा रह जाता है। जहां सो सकता था, वहां जगता है। जहां सपाट रास्ता था, वहां न चलकर कांटे-कबाड़ में चलता है! क्यों?
क्योंकि खुद को दुख देने से भी अहंकार की बड़ी तृप्ति होती है। खुद को दुख देकर भी पता चलता है कि मैं कुछ हूं। तुम कुछ भी नहीं हो मेरे सामने! मैं दुख झेल सकता हूं।
यह जो स्वयं को दुख देने की वृत्ति है, यह दूसरे को दुख देने की वृत्ति का ही उलटा रूप है। चाहे दूसरे को दुख दें, चाहे अपने को दुख दें, असली रस दुख देने में है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, तपस्वी से योगी बहुत ऊपर है।
क्योंकि तपस्वी स्वयं को दुख देने की प्रक्रिया में लगा रहता है। मनोविज्ञान की भाषा में वह मैसोचिस्ट है।
मैसोच नाम का एक लेखक हुआ, जो अपने को ही कोड़े न मार ले, तब तक उसको नींद न आती थी। बिस्तर में कांटे न डाल ले, तब तक उसको नींद न आए। भोजन में जब तक थोड़ी-सी नीम न मिला ले, तब तक उससे भोजन न किया जाए। अगर हमारे मुल्क में मैसोच पैदा हुआ होता, तो हम कहते, बड़ा महात्मा है!
गांधीजी को भी नीम की चटनी भोजन के साथ खाने की आदत थी। जो भी लोग देखते थे, कहते थे, बड़ी ऊंची बात है! स्वभावतः। लुई फिशर गांधीजी को मिलने आया, तो उन्होंने लुई फिशर की भी थाली में एक बड़ी मोटी पिंडी नीम की चटनी की रखवा दी। जो भी मेहमान आता था, उसको खिलाते थे, क्योंकि खुद खाते थे। जो आदमी अपने को दुख देना सीख जाता है, वह दूसरे को भी दुख देने की चेष्टाएं करता है।
लुई फिशर ने देखा कि क्या है! और गांधीजी इतने रस से खा रहे हैं! तो उसने भी चखकर देखा, तो सब मुंह जहर हो गया। उसने सोचा कि बड़ा मुश्किल हो गया। उसके साथ रोटी लगाकर खानी, मतलब रोटी भी खराब हो जाए; सब्जी मिलाकर खाओ, सब्जी भी खराब हो जाए! पर उसने सोचा कि न खाएंगे, तो गांधीजी क्या सोचेंगे, कि मैंने इतने प्रेम से चटनी दी और न खाई। भला आदमी। उसने सोचा, इसको इकट्ठा ही गटक जाना बेहतर है सब भोजन खराब करने की बजाय। और अशुभ भी मालूम न पड़े, अशिष्टाचार भी मालूम न पड़े, इसलिए इसे एकदम एक दफा में गटक लेना अच्छा है। फिर पूरा भोजन तो खराब न हो। तो वह पूरी की पूरी चटनी गटक गया। गांधीजी ने रसोइए को कहा कि देखो, चटनी कितनी पसंद आई! और ले आओ!
लुई फिशर पर जो गुजरी होगी, वह हम समझ सकते हैं।
गांधीजी के आश्रम में एक सज्जन थे, अभी भी हैं, प्रोफेसर भंसाली। अभी उनका जन्मदिन मनाया गया। महा संत की तरह, गांधीजी के मानने वाले, भंसाली को मानते हैं। पक्के तपस्वी हैं। छः महीने तक गाय का गोबर खाकर ही रहे। तपस्वी पक्के हैं, इसमें कोई शक-शुबहा नहीं! लेकिन मैसोचिस्ट हैं। इलाज होना चाहिए दिमाग का। पागलखाने में कहीं न कहीं इलाज होना चाहिए। गाय का गोबर खाना! ऐसे तो मौज है आदमी की; जो उसे खाना हो, खाए। लेकिन यह तपश्चर्या बन जाती है। आस-पास के लोग कहते हैं, क्या महान तपस्वी! गाय का गोबर खाकर जीता है! हम तो नहीं जी सकते। नहीं जी सकते, तो फिर हम कुछ भी नहीं हैं; यह बहुत महान है। यह मैसोचिज्म है।
आज मनोविज्ञान जिसको पहचानता है कि खुद को सताने की वृत्ति बीमार है, रुग्ण है। यह स्वस्थ चित्त का लक्षण नहीं है। कृष्ण हजारों साल पहले पहचानते थे। वे अर्जुन से, जो आज का मनोविज्ञान कह रहा है, वह कह रहे हैं कि तपस्वी से ऊंचा है योगी।
क्यों? क्योंकि तपस्वी तो सिर्फ, जिसको हम कहें, ऊपरी तरकीबों और ऊपरी व्यर्थ की बातों में, और अपने को कष्ट देकर रस लेता है। और चूंकि कोई आदमी खुद को कष्ट देकर रस लेता है, बाकी लोग भी उसको आदर देते हैं। क्यों आदर देते हैं? अगर एक आदमी सड़क पर खड़े होकर अपने को कोड़े मार रहा है, तो आपको आदर देने का क्या कारण है?
अगर मनसविद से पूछेंगे, गहरा जो गया है आदमी के मन में, उससे पूछेंगे, तो वे कहेंगे, इसका कारण है कि आप सैडिस्ट हैं, वह मैसोचिस्ट है। वह अपने को सताने में मजा ले रहा है, और आप दूसरे को सताने में मजा ले रहे हैं। आपने चाहा होता कि किसी को कोड़े मारें; उस तकलीफ से भी आपको बचा दिया। वह खुद ही कोड़े मार रहा है। आप भीड़ लगाकर देख रहे हैं, और चित्त प्रसन्न हो रहा है। आप दुष्ट प्रकृति के हैं, इसलिए आप उसमें रस ले रहे हैं।
अब एक आदमी गोबर खा रहा है। जो दुष्ट प्रकृति के लोग हैं, वे कहे रहे हैं, महात्मा! आप बड़ा महान कार्य कर रहे हैं। उनका वश चले, तो दूसरों को भी गोबर खिला दें। ये अपने हाथ से खाने को राजी हैं, तो उसके चरणों में सिर रखकर कह रहे हैं कि तुम बड़े अदभुत आदमी हो। और जब अहंकार को इस तरह तृप्ति दी जाए, तो वह जो स्वयं को दुख देना वाला आदमी है, वह और दुख देने लगता है। फिर यह विशियस सर्किल है; इसका कोई अंत नहीं है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, योगी श्रेष्ठ है तपस्वी से। फिर कहते हैं कि शास्त्र को जो जानता है, उससे योगी श्रेष्ठ है।
क्योंकि शास्त्र को जानने से सिवाय शब्दों के और क्या मिल सकता है! सत्य तो नहीं मिल सकता; शब्द ही मिल सकते हैं, सिद्धांत मिल सकते हैं, फिलासफी मिल सकती है। और सारे सिद्धांत सिर में घुस जाएंगे और मक्खियों की तरह गूंजने लगेंगे, लेकिन कोई अनुभूति उससे नहीं मिलेगी। हजार शास्त्रों को निचोड़कर कोई पी जाए, तो भी रत्तीभर, बूंदभर अनुभव उससे पैदा नहीं होगा।
कृष्ण इतनी हिम्मत की बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, योगी श्रेष्ठ है शास्त्र को जानने वाले से।
क्यों? योगी श्रेष्ठ क्यों है? ऐसा योगी भी श्रेष्ठ है, जो शास्त्र को बिलकुल न जानता हो, तो भी श्रेष्ठ है। योग ही श्रेष्ठ है।
कबीर बिलकुल नहीं जानता शास्त्र को। अगर कोई उससे पूछे, तो वह कहता है कि कागज में क्या लिखा है, हमें कुछ पता नहीं। हम तो वही जानते हैं, जो आंखन देखी है। आंख से जो देखा है, वही जानते हैं। कागज में क्या लिखा है, वह हमें पता नहीं। हम बेपढ़े-लिखे गंवार हैं। हमें कुछ पता नहीं कि कागज में क्या-क्या लिखा है। तुम्हारे वेद, तुम्हारे शास्त्र, तुम्हारे आगम, तुम्हारे पुराण, तुम सम्हालो। हम तो उसकी खबर देते हैं, जो हमने आंख से देखा है। मैं तो कहता आंखन देखी, कबीर कहते हैं, तू कहता है कागद लेखी। किसी पंडित से कह रहे होंगे, तू कहता है कागज की लिखी हुई, और मैं कहता हूं, आंख की देखी हुई।
शास्त्र-ज्ञान में और योगी में यही फर्क है। शास्त्र-ज्ञान का मतलब है, कागज में जो लिखा है, उसे जान लिया। उसे जान लेने से जानने का भ्रम पैदा होता है, ज्ञान पैदा नहीं होता। ज्ञान तो पैदा होता है, स्वयं के दर्शन से। और दर्शन की विधि योग है। शुद्धतम चेतना शुद्ध होते-होते न्यू डायमेंशंस आफ परसेप्शन, दर्शन के नए आयाम को उपलब्ध होती है, जहां दर्शन होता है, जहां साक्षात्कार होता है, जहां हम देख पाते हैं, जहां हम जान पाते हैं।
शास्त्र-ज्ञान प्रमाण बन सकता है, सत्य नहीं। शास्त्र-ज्ञान विटनेस हो सकता है, साक्षी हो सकता है, ज्ञान नहीं। जिस दिन कोई जान लेता है, उस दिन अगर गीता को पढ़े, तो वह कह सकता है कि ठीक। गीता वही कह रही है, जो मैंने जाना। वेद को पढ़े, तो कहेगा, ठीक। कुरान को पढ़े, तो कहेगा, ठीक। कुरान वही कहता है, जो मैंने जाना।
और ध्यान रहे, जो हम नहीं जानते, उसे हम कभी भी गीता में न पढ़ पाएंगे। हम वही पढ़ सकते हैं, जो हम जानते हैं। इसलिए गीता जब आप पढ़ते हैं, तो उसका अर्थ दूसरा होता है। जब आपका पड़ोसी पढ़ता है, तो अर्थ दूसरा होता है। जब और दूसरा पढ़ता है, तो अर्थ दूसरा होता है। जितने लोग पढ़ते हैं, उतने अर्थ होते हैं। होंगे ही, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति वही पढ़ सकता है, जो उसकी क्षमता है।
हम जब कुछ समझते हैं, तो वह व्याख्या है, वह हमारी व्याख्या है। और शब्दों से बड़ी भ्रांतियां पैदा हो जाती हैं। कोई कुछ समझता है, कोई कुछ समझता है। एक ही शब्द से हजार अर्थ निकलते हैं।
अभी मैं विनोद भट्ट की एक कथा पढ़ रहा था चार-छः दिन पहले। पढ़ रहा था कि एक गांव के नेता बहुत मुश्किल में पड़ गए, क्योंकि कोई नया आंदोलन पकड़ में नहीं आ रहा था। और नेता का तो धंधा मर जाए, सीजन मर जाए, अगर कोई नया आंदोलन हाथ में न आए। फिर उन्होंने बहुत सोचा, फिर माथापच्ची की और उनको खयाल आया कि पहले भूमिदान आंदोलन चला, तो वह सफल नहीं हुआ। फिर भूमि-छीनो आंदोलन चला, वह भी सफल नहीं हुआ। हम पत्नी-छीनो आंदोलन क्यों न चलाएं! जिसके पास दो पत्नियां हैं, उसकी एक छीनकर उसको दे दी जाए, जिसके पास एक भी नहीं है।
पूरा गांव राजी हो गया। कई लोगों के पास पत्नियां नहीं थीं। लोगों ने कहा, यह तो बिलकुल समाजवादी प्रोग्राम है; यह तत्काल पूरा होना चाहिए। और गांव में कई लोग थे, जिनके पास दो-दो पत्नियां थीं। गांव का जमींदार था, जिसके पास दो पत्नियां थीं। सबकी नजरें उन पत्नियों पर थीं। उन्होंने कहा, कुछ न हो, हमको न भी मिली तो कोई हर्जा नहीं; जमींदार की तो छूट जाएगी। कोई फिक्र नहीं; आंदोलन चले।
आंदोलन चल पड़ा। जमींदार गांव के बाहर गया था। वह एक पत्नी को उठाकर आंदोलनकारी ले गए।
चल रहा है जुलूस। नारे लग रहे हैं। जमींदार भागा हुआ आया! नेता का पैर पकड़ लिया, और कहा कि बड़ा अन्याय कर रहे हो मेरे ऊपर। नेता ने कहा, अन्याय कुछ भी नहीं। अन्याय तुमने किया है। दो-दो पत्नियां रखे हो, जब कि गांव में कई लोगों के पास एक भी पत्नी नहीं है, आधी भी पत्नी नहीं है। दो-दो रखे हुए हो तुम? यह नहीं चलेगा। उसने कहा कि नहीं, आप समझ नहीं रहे हैं, बहुत अन्याय कर रहे हैं मेरे ऊपर। हाथ-पैर जोड़ता हूं। मुझ पर थोड़ा ध्यान धरो। मेरा थोड़ा खयाल करो। रोने लगा, गिड़गिड़ाने लगा।
और फिर इस भीड़ में, जब पत्नी को उठाकर लाए थे, तब तक तो सोचा था कि दो पत्नियां हैं जमींदार के पास। जब लाए तो इस बीच में देखा कि साधारण सी औरत है; नाहक परेशान हो रहे हैं। फिर जब वह इतना गिड़गिड़ाने लगा, तो नेताओं ने कहा कि झंझट भी छुड़ाओ। इस स्त्री को कोई लेने को भी राजी न होगा।
तो कहा, अच्छा तू नहीं मानता है, तो ले जा अपनी पत्नी को; हम छोड़े देते हैं।
जमींदार बोला कि आप बिलकुल गलत समझ रहे हैं। मेरा मतलब यह नहीं कि इसको लौटा दो। मेरा मतलब, दूसरी को क्यों छोड़ आए? बड़ा अन्याय कर रहे हैं। उसको भी ले जाओ।
अब जब उसने कहा कि बड़ा अन्याय कर रहे हैं, तो बहुत कठिन था कि नेता समझ पाता कि यह कह रहा है कि दूसरी को भी ले जाओ। मुश्किल था मामला। वह यही समझा स्वभावतः, कि इस पत्नी को छोड़ दो।
शब्द का अपने आप में अर्थ नहीं है। शब्द की व्याख्या निर्मित होती है। जब गीता में से कुछ आप पढ़ते हैं, तो आप यह मत समझना कि कृष्ण जो कहते हैं, वह आप समझते हैं। आप वही समझते हैं, जो आप समझ सकते हैं। सत्य का अनुभव हो, तो गीता में सत्य का उदघाटन होता है। सत्य का अनुभव न हो और अज्ञानी के हाथ में गीता हो, तो सिवाय अज्ञान के गीता में से कोई अर्थ नहीं निकलता; निकल सकता नहीं।
शास्त्र-ज्ञान दूसरी कोटि का ज्ञान है। प्रथम कोटि का ज्ञान तो अनुभव है, स्वानुभव है। पहली कोटि का ज्ञान हो, तो शास्त्र बड़े चमकदार हैं। और पहली कोटि का ज्ञान न हो, तो शास्त्र बिलकुल रद्दी की टोकरी में, उनका कोई मूल्य नहीं है।
गीता पढ़ने अगर योगी जाएगा, तो गीता में सागर है अमृत का। और गीता पढ़ने अगर बिना योग के कोई जाएगा, तो सिवाय शब्दों के और कुछ भी नहीं है। कोरे खाली शब्द हैं, ऐसे जैसे कि चली हुई कारतूस होती है। चली हुई कारतूस! कितना ही चलाओ, कुछ नहीं चलता। उठा लो सूत्र श्लोक एक गीता का, कर लो कंठस्थ! खाली कारतूस लिए घूम रहे हो; कुछ होगा नहीं। प्राण तो अपने ही अनुभव से आते हैं।
और कृष्ण खुद कहते हैं अर्जुन को, शास्त्र-ज्ञान भी नहीं है उतना श्रेष्ठ। शास्त्र-ज्ञान से भी ज्यादा श्रेष्ठ है योग।
और तीसरी बात कहते हैं, सकाम कर्मों से--किसी आशा से की गई कोई भी प्रार्थना, कोई भी पूजा, कोई भी यज्ञ--उससे योग श्रेष्ठ है। क्यों? क्योंकि योग की साधना का आधारभूत नियम, उसकी पहली कंडीशन यह है कि तुम निष्काम हो जाओ। आशा छोड़ दो, अपेक्षा छोड़ दो, फल की आकांक्षा छोड़ दो, तभी योग में प्रवेश है।
तब यज्ञ तो बहुत छोटी-सी बात हो गई, सांसारिक बात हो गई। किसी के घर में बच्चा नहीं हो रहा है, किसी के घर में धन नहीं बरस रहा है, किसी को पद नहीं मिल रहा है, किसी को कुछ नहीं हो रहा है, तो यज्ञ कर रहा है, हवन कर रहा है।
वासना और कामना से संयोजित जो भी आयोजन हैं, योग उनसे बहुत श्रेष्ठ है। क्योंकि योग की पहली शर्त है, निष्काम हो जाओ।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, तू योगी बन। तू योग को उपलब्ध हो। योग से कुछ भी नीचे, इंचभर नीचे न चलेगा। और उन्होंने अब तक योग की ही शिलाएं रखीं, आधारशिलाएं रखीं। योग की ही सीढ़ियां बनाईं। और अब वे अर्जुन से कहते हैं कि योग की यात्रा पर निकल अर्जुन। तेरा मन चाहेगा कि सकाम कोई भक्ति में लग जा, युद्ध जीत जाए, राज्य मिल जाए। लेकिन मैं कहता हूं कि सकाम होना धर्म की दिशा में सम्यक यात्रा-पथ नहीं है। तेरा मन करेगा कि योग के इतने उपद्रव में हम क्यों पड़ें! शास्त्र पढ़ लेंगे, सत्य उसमें मिल जाएगा। सरल, शार्टकट; कोई चेष्टा नहीं, कोई मेहनत नहीं। एक किताब खरीद लाते हैं। किताब को पढ़ लेते हैं। भाषा ही जाननी काफी है। सत्य मिल जाएगा। तेरा मन तुझे कहेगा, शास्त्र पढ़ लो, सत्य मिल जाएगा। कहां जाते हो योग की साधना को? पर तू सावधान रहना। शास्त्र से शब्द के अलावा कुछ भी न मिलेगा। असली शास्त्र तो तभी मिलेगा, जब सत्य तुझे मिल चुका है। उसके पूर्व नहीं, उससे अन्यथा नहीं। और तेरा मन शायद करने लगे...।
जानकर अर्जुन से ऐसा कहा है। क्योंकि अर्जुन कह रहा है कि दूसरों को मैं क्यों मारूं? दूसरे मर जाएंगे, तो बहुत दुख होगा जगत में। इससे बेहतर है, मैं अपने को ही क्यों न सता लूं! छोड़ दूं राज्य, भाग जाऊं जंगल, बैठ जाऊं झाड़ के नीचे।
अर्जुन ऐसे सैडिस्ट है। क्षत्रिय जिसको भी होना हो, उसे दूसरे को सताने की वृत्ति में निष्णात होना चाहिए, नहीं तो क्षत्रिय नहीं हो सकता। क्षत्रिय जिसे होना हो, उसे दूसरे को सताने की वृत्ति में सामर्थ्य होनी चाहिए। तो क्षत्रिय तो दूसरे को सताएगा ही। पर अगर क्षत्रिय दूसरे को सताने से किसी कारण से भी बेचैन हो जाए, तो अपने को सताना शुरू कर देगा।
इसलिए ध्यान रहे, ब्राह्मणों ने इतने तपस्वी पैदा नहीं किए, जितने क्षत्रियों ने पैदा किए इस भारत में। तपस्वियों का असली वर्ग क्षत्रियों से आया, ब्राह्मणों से नहीं। और बड़े मजे की बात है कि ब्राह्मण तो सदा दुख में जीए, दीनता में, दरिद्रता में। लेकिन फिर भी ब्राह्मणों ने कभी भी स्वयं को दुख देने के बहुत आयोजन नहीं किए। क्षत्रियों ने किए स्वयं को दुख देने के आयोजन। बड़े से बड़े तपस्वी क्षत्रियों ने पैदा किए हैं।
उसका कारण है। और वह कारण यह है कि क्षत्रिय की तो पूरी की पूरी साधना ही होती है दूसरे को सताने की। अगर वह किसी दिन दूसरे को सताने से ऊब गया, तो वह करेगा क्या? जिस तलवार की धार आपकी तरफ थी, वह अपनी तरफ कर लेगा। अभ्यास उसका पुराना ही रहेगा। कल वह दूसरे को काटता, अब अपने को काटेगा। कल वह दूसरे को मारता, अब वह अपने को मारेगा। ब्राह्मण ने कभी भी स्वयं को सताने का बहुत बड़ा आयोजन नहीं किया है।
इसलिए जब तक ब्राह्मण इस देश में बहुत प्रतिष्ठा में थे, तब तक इस देश में तपस्वी नहीं थे, योगी थे। जब तक ब्राह्मण इस देश में प्रतिष्ठा में थे, तो तपस्वियों की कोई बहुत महत्ता न थी, योगियों की महत्ता थी।
लेकिन तपस्वियों ने योगियों की महत्ता को बुरी तरह नीचे गिराया, क्योंकि योग तो दिखाई नहीं पड़ता था। तपस्वियों ने कहना शुरू किया कि ये ब्राह्मण? ये कहते तो हैं कि हम गुरुकुल में रहते हैं, लेकिन इनके पास हजार-हजार गाएं हैं, दस-दस हजार गाएं हैं। इनके पास दूध-घी की नदियां बहती हैं। इनके पास सम्राट चरणों में सिर रखते हैं, हीरे-जवाहरात भेंट करते हैं। यह कैसा योग? यह तो भोग चल रहा है!
और बड़े आश्चर्य की बात है कि जिन गुरुकुलों में, जिन वानप्रस्थ आश्रमों में ब्राह्मणों के पास आती थी संपत्ति, निश्चित ही आती थी, लेकिन उस संपत्ति के कारण उनका योग नहीं चल रहा था, ऐसी कोई बात न थी। बल्कि सच तो यह है कि वह संपत्ति इसीलिए आती थी कि जिनको भी उनमें योग की गंध मिलती थी, वे उनकी सेवा के लिए तत्पर हो जाते थे। लेकिन भीतर महायोग चल रहा था।
पर तपस्वियों ने कहा, यह कोई योग है? ये कैसे ऋषि? नहीं; ये नहीं। धूप में खड़ा हुआ, योगी होगा। भूखा, उपवास करता, योगी होगा। शरीर को गलाता, सताता, योगी होगा। रात-दिन अडिग खड़ा रहने वाला योगी होगा।
क्षत्रिय ऐसा कर सकते थे; ब्राह्मण ऐसा कर भी न सकते थे।
ब्राह्मणों के पास बहुत डेलिकेट सिस्टम थी, उनके पास शरीर तो बहुत नाजुक था। उनका कभी कोई शिक्षण तलवार चलाने का, और युद्धों में लड़ने का, और घोड़ों पर चढ़कर दौड़ने का, उनका कोई शिक्षण न था। क्षत्रियों का था। तपश्चर्या में वे उतर सकते थे सरलता से। अगर उन्हें खड़े रहना है चौबीस घंटे, तो वे खड़े रह सकते थे। ब्राह्मण तो सुखासन बनाता है। वह तो ऐसा आसन खोजता है, जिसमें सुख से बैठ जाए। वह तो नीचे आसन बिछाता है। वह तो ऐसी जगह खोजता है, जहां मच्छड़ न सताएं उसे।
क्षत्रिय खड़ा हो सकता था अधिक मच्छड़ों के बीच में। क्योंकि जिसका अभ्यास धनुष-बाणों को झेलने का हो, मच्छड़ उसको कुछ परेशान कर पाएंगे? और जिसको मच्छड़ परेशान कर दें, वह युद्ध की भूमि पर धनुष-बाण, बाण छिदेंगे जब छाती में, तो झेल पाएगा? सारी अभ्यास की बात थी।
इसलिए जब क्षत्रियों ने धर्म की साधना में गति शुरू की, तो उन्होंने तत्काल तपस्वी को प्रमुख कर दिया और योगी को पीछे कर दिया।
लेकिन कृष्ण कहते हैं अर्जुन को, योग ही श्रेष्ठ है अर्जुन। क्योंकि अर्जुन के लिए भी तपश्चर्या सरल थी। अर्जुन भी तपस्वी बन सकता था आसानी से। योगी बनना कठिन था। इसलिए कृष्ण ने तीनों बातें कहीं; सकाम भी तू बन सकता है सरलता से; युद्ध तुझे जीतना, राज्य तुझे पाना। शास्त्र भी पढ़ सकता है तू आसानी से, शिक्षित है, सुसंस्कृत है। शास्त्र पढ़ने में कोई अड़चन नहीं; सत्य मुफ्त में मिलता हुआ मालूम पड़ता है। स्वयं को सताने वाला तपस्वी भी बन सकता है तू। तू क्षत्रिय है; तुझे कोई अड़चन न आएगी। लेकिन मैं कहता हूं तुझसे कि योग श्रेष्ठ है इन तीनों में। अर्जुन, तू योगी बन!


योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः।। 47।।

और संपूर्ण योगियों में भी, जो श्रद्धावान योगी मेरे में लगे हुए अंतरात्मा से मेरे को निरंतर भजता है, वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है।


अंतिम श्लोक इस अध्याय का श्रद्धा पर पूरा होता है। कृष्ण कहते हैं, और श्रद्धा से मुझमें लगा हुआ योगी परम अवस्था को उपलब्ध होता है, वह मुझे सर्वाधिक मान्य है।
दो तरह के योगी हो सकते हैं। एक बिना किसी श्रद्धा के योग में लगे हुए। पूछेंगे आप, बिना किसी श्रद्धा के कोई योग में क्यों लगेगा?
बिना श्रद्धा के भी लग सकता है। बिना श्रद्धा के लगने का अर्थ यह है कि जीवन के दुखों से जो पीड?ित हो गया; जीवन के दुखों से जो छिन्न-भिन्न हो गया जिसका अंतःकरण; जीवन के दुख जिसके प्राणों में कांटे से चुभ गए; जीवन की पीड़ा से मुक्त होने के लिए कोई चेष्टा कर सकता है योग की। यह निगेटिव है। जीवन के दुख से हटना है। लेकिन जीवन के पार कोई परमात्मा है, इसकी कोई पाजिटिव श्रद्धा, इसकी कोई विधायक श्रद्धा उसमें नहीं है। इतना ही हो जाए तो काफी है कि जीवन के दुख से मुक्ति हो जाए। नहीं पाना है कोई परमात्मा, नहीं कोई मोक्ष, नहीं कोई निर्वाण। कोई श्रद्धा नहीं है कि ऐसी कोई चीज होगी। इतना ही हो जाए, तो काफी कि जीवन के दुख से छुटकारा हो जाए। जीवन के दुख से छुटकारा जिसको चाहिए, मात्र जीवन के दुख से छुटकारा जिसे चाहिए, जीवन की ऊब से भागा हुआ, जो अपने को किसी सुरक्षित अंतःस्थल में पहुंचा देना चाहता है; वह बिना परमात्मा में श्रद्धा के भी योग में संलग्न हो सकता है।
क्या वह परमात्मा को नहीं पा सकेगा? पा सकेगा, लेकिन यात्रा बहुत लंबी होगी। क्योंकि परमात्मा जो सहायता दे सकता है, वह उसे न मिल सकेगी। यह फर्क समझ लें।
इसलिए कृष्ण उसे कहते हैं, जो मुझमें श्रद्धा से लीन है, मेरी आत्मा से अपनी आत्मा को मिलाए हुए है, उसे मैं परम श्रेष्ठ कहता हूं। क्यों?
एक बच्चा चल रहा है रास्ते पर। कई बार बच्चा अपने बाप का हाथ पकड़ना पसंद नहीं करता। उसके अहंकार को चोट लगती है। वह बाप से कहता है, छोड़ो हाथ। मैं चलूंगा। बच्चे को बड़ी पीड़ा होती है कि तुम मुझे चलने तक के योग्य नहीं मानते! मैं चल लूंगा; तुम छोड़ो मुझे। बाप छोड़ दे या बेटा झटका देकर हाथ अलग कर ले, तो भी बेटा चलना सीख जाएगा, लेकिन लंबी होगी यात्रा। भूल-चूक बहुत होगी। हाथ-पैर बहुत टूटेंगे। और जरूरी नहीं है कि इसी जन्म में चलना सीख पाए। जन्म-जन्म भी लग सकते हैं।
तो बेटा चलना तो चाहता है, लेकिन अपने से अन्य में कोई श्रद्धा का भाव नहीं है। खुद के अहंकार के अतिरिक्त और किसी के प्रति कोई भाव नहीं है।
तो कृष्ण कहते हैं, जो मुझमें श्रद्धा से लगा है।
क्या फर्क पड़ेगा? यह फर्क पड़ेगा कि जो मुझमें श्रद्धा से लगा है, वह श्रम तो करेगा, लेकिन अपने ही श्रम को कभी पर्याप्त नहीं मानेगा, नाट इनफ। मेहनत पूरी करेगा, और फिर भी कहेगा कि प्रभु तेरी कृपा हो, तो ही पा सकूंगा। इसमें फर्क है। अहंकार निर्मित न हो पाएगा, श्रद्धा में जिसका जीवन है। वह कहेगा, मेहनत मैं पूरी करता हूं, लेकिन फिर भी तेरी कृपा के बगैर तो मिलना नहीं होगा। मेरी अकेले की मेहनत से क्या होगा? चलूंगा मैं जरूर, कोशिश मैं जरूर करूंगा, लेकिन मैं गिर जाऊंगा। तेरे हाथ का सहारा मुझे बना रहे। और आश्चर्य की बात यह है कि इस तरह का जो चित्त है, उसका द्वार सदा ही परम शक्ति को पाने के लिए खुला रहेगा।
जो श्रद्धावान नहीं है, उसका द्वार क्लोज्ड है, उसका मन बंद है। वह कहता है, मैं काफी हूं।
लीबनिज ने कहा है, कुछ लोग ऐसे हैं, जैसे विंडोलेस कोई मकान हो, खिड़की रहित कोई मकान हो; सब द्वार-दरवाजे बंद, अंदर बैठे हैं।
श्रद्धावान व्यक्ति वह है, जिसके द्वार-दरवाजे खुले हैं। सूरज को भीतर आने की आज्ञा है। हवाओं को भीतर प्रवेश की सुविधा है। ताजगी को निमंत्रण है कि आओ। श्रद्धा का और कोई अर्थ नहीं होता। श्रद्धा का अर्थ है, मुझसे भी विराट शक्ति मेरे चारों तरफ मौजूद है, मैं उसके सहारे के लिए निरंतर निवेदन कर रहा हूं। बस, और कुछ अर्थ नहीं होता।
मैं अकेला काफी नहीं हूं। क्योंकि मैं जन्मा नहीं था, तब भी वह विराट शक्ति मौजूद थी। और आज भी मेरे हृदय की धड़कन मेरे द्वारा नहीं चलती, उसके ही द्वारा चलती है। और आज भी मेरा खून मैं नहीं बहाता, वही बहाता है। और आज भी मेरी श्वास मैं नहीं लेता, वही लेता है। और कल जब मौत आएगी, तो मैं कुछ न कर सकूंगा। शायद वही मुझे अपने में वापस बुला लेगा। तो जो मुझे जन्म देता, जो मुझे जीवन देता, जो मुझे मृत्यु में ले जाता, जिसके हाथ में सारा खेल है, मैं अकड़कर यह कहूं कि मैं ही चल लूंगा, मैं ही सत्य तक पहुंच जाऊंगा, तो थोड़ी-सी भूल होगी। द्वार बंद हो जाएंगे व्यर्थ ही। विराट शक्ति मिल सकती थी सहयोग के लिए, वह न मिल पाएगी।
इसलिए अंतिम सूत्र कृष्ण कहते हैं, योग की इतनी लंबी चर्चा के बाद श्रद्धा की बात!
योग का तो अर्थ है, मैं करूंगा कुछ; श्रद्धा का अर्थ है, मुझसे अकेले से न होगा। योग और श्रद्धा विपरीत मालूम पड़ेंगे। योग का अर्थ है, मैं करूंगा--विधि, साधन, प्रयोग, साधना। और श्रद्धा का अर्थ है, करूंगा जरूर; लेकिन मैं काफी नहीं हूं, तेरी भी जरूरत पड़ती रहेगी। और जहां मैं कमजोर पड़ जाऊं, तेरी शक्ति मुझे मिले। और जहां मेरे पैर डगमगाएं, तेरा बल मुझे सम्हाले। और जहां मैं भटकने लगूं, तू मुझे पुकारना। और जहां मैं गलत होने लगूं, तू मुझे इशारा करना।
और मजे की बात यह है कि जो इस भाव से चलता है, उसे इशारे मिलते हैं, सहारे मिलते हैं; उसे बल भी मिलता है, उसे शक्ति भी मिलती है। और जो इस भरोसे नहीं चलता, उसे भी मिलता है इशारा, लेकिन उसके द्वार बंद हैं, इसलिए वह नहीं देख पाता। उसे भी मिलती है शक्ति, लेकिन शक्ति दरवाजे से ही वापस लौट जाती है। उसे भी मिलता है सहारा, लेकिन वह हाथ नहीं बढ़ाता, और बढ़ा हुआ परमात्मा का हाथ वैसा का वैसा रह जाता है।
ऐसा मत समझना आप कि श्रद्धा का यह अर्थ हुआ कि जो परमात्मा में श्रद्धा करते हैं, उनको ही परमात्मा सहायता देता है। नहीं, परमात्मा तो सहायता सभी को देता है। लेकिन जो श्रद्धा करते हैं, वे उस सहायता को ले पाते हैं। और जो श्रद्धा नहीं करते, वे नहीं ले पाते हैं।
श्रद्धा का अर्थ है, ट्रस्ट। मैं एक बूंद से ज्यादा नहीं हूं इस विराट जीवन के सागर में। इस अस्तित्व में एक छोटा-सा कण हूं। इस विराट अस्तित्व में मेरी क्या हस्ती है?
योग तो कहता है कि तू अपनी हस्ती को इकट्ठा कर और श्रम कर। और श्रद्धा कहती है, अपनी हस्ती को पूरा मत मान लेना। नाव को खोलना जरूर किनारे से, लेकिन हवाएं तो उसकी ही ले जाएंगी तेरी नाव को। नाव को खोलना जरूर किनारे से, लेकिन नदी की धार तो उसी की है, वही ले जाएगी। नाव को खोलना जरूर, लेकिन तेरे हृदय की धड़कन भी उसी की है, वही पतवार चलाएगी। यह सदा स्मरण रखना कि कर रहा हूं मैं, लेकिन मेरे भीतर तू ही करता है। चलता हूं मैं, लेकिन मेरे भीतर तू ही चलता है।
ऐसी श्रद्धा बनी रहती है, तो छोटा-सा दीया भी सूरज की शक्ति का मालिक हो जाता है। ऐसी श्रद्धा बनी रहती है, तो छोटा-सा अणु भी परम ब्रह्मांड की शक्ति के साथ एक हो जाता है। ऐसी श्रद्धा बनी रहती है, तो फिर हम अकेले नहीं हैं, फिर परमात्मा सदा साथ है।
एक छोटी-सी घटना, और मैं अपनी बात पूरी करूं।
संत थेरेसा, एक ईसाई फकीर औरत हुई। वह एक बहुत बड़ा चर्च बनाना चाहती थी; बहुत बड़ा, कि जमीन पर इतना बड़ा कोई चर्च न हो। उसके शिखर आकाश को छुएं, और उसके शिखर स्वर्णमंडित हों, और स्वर्ण में हीरे जड़े हों। वह दिन-रात उसी की कल्पना करती थी। फिर एक दिन उसने गांव में आकर कहा कि मुझे कोई कुछ दान कर दो। मैं एक बहुत बड़ा चर्च, मंदिर बनाना चाहती हूं प्रभु के लिए।
लेकिन जैसे कि सब गांव के लोग होते हैं, वैसे ही उस गांव के लोग भी थे। उसने बहुत, अगर उसके पास डब्बा रहा होगा, तो बहुत बजाया। तीन नए पैसे लोगों ने दिए। लेकिन थेरेसा नाचने लगी, और लोगों से बोली कि अब चर्च बन जाएगा। लोगों ने कहा, डब्बा तो इतना छोटा है, चर्च बहुत बड़ा। क्या डब्बा पूरा भर गया? तो भी क्या होगा?
डब्बा खोला। भरा तो क्या था, कुल तीन पैसे थे! फिर भी संत थेरेसा ने कहा कि नहीं, बन जाएगा चर्च। लोगों ने कहा, तू पागल तो नहीं हो गई। तीन पैसे में उतना बड़ा चर्च बनाने का इरादा रखती है! एक ईंट भी न आएगी! तू है दुबली-पतली गरीब औरत, और ये तीन पैसे हैं। तू + तीन पैसे! कितना बड़ा चर्च बनाने का इरादा है? हिसाब क्या है?
संत थेरेसा ने कहा, तुम एक और मौजूद है हम दोनों के बीच, उसे नहीं देख रहे हो। मैं, परमात्मा, तीन पैसे--जोड़ो। चर्च बन जाएगा। जोड़ो! मुझमें तो कुछ भी नहीं है; मुझसे क्या होगा! तीन पैसे में क्या रखा है, उससे क्या होगा! लेकिन हम दोनों की जितनी ताकत थी, वह हमने पूरी लगा दी। अब परमात्मा बीच में है, वह सम्हाल लेगा।
और जिस जगह पर संत थेरेसा ने यह कहा था, उस जगह पर संत थेरेसा का कैथेड्रल है--जमीन पर श्रेष्ठतम मंदिरों में से एक। वह अब भी खड़ा है। उस चर्च के नीचे पत्थर पर यह लिखा है कि हम हार गए इस गांव के लोग इस गरीब औरत से, जिसने कहा, तीन पैसे, मैं और धन एक और, जो तुम्हें नहीं दिखाई पड़ता, मुझे दिखाई पड़ता है।
श्रद्धा का इतना ही अर्थ है। श्रम आपका, शक्ति आपकी, लेकिन काफी नहीं; तीन पैसे से ज्यादा नहीं पड़ेगी। योग आपका, लेकिन तीन पैसे से ज्यादा का नहीं हो पाएगा।
इसलिए योग की इतनी चर्चा करने के बाद कृष्ण ने जो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात कही है, वह यह है कि श्रद्धायुक्त जो मुझमें है, उसे मैं परम श्रेष्ठ कहता हूं।
इतना ही इस बार।
अब थोड़ी देर, वह जो अदृश्य है, उस अदृश्य के गीत में ये संन्यासी संलग्न होंगे। आप भी संलग्न हों। कौन जाने किस क्षण उसकी वीणा का स्वर आपके भीतर भी बजने लगे; कोई नहीं जानता।
रोकें मत। आज तो आखिरी दिन है। यह पूरा का पूरा स्थान गूंज उठे आनंद से।



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