जिन सूत्र--(भाग--2)
सूत्र:
चंडो ण मुंचइ बेरं,
भंडणसीलो
य धरमदयरहिओ।
दुट्ठो ण
य एदि वसं,
लक्खणमेयं
तु किणहस्स।।
138।।
मंदो बुद्धिविहीणो,
णिव्विणाणी
य विसयलोलो
य।
लक्खणमेयं भणियं,
समासदो णीललेस्सस्स।।
139।।
रूसइ णिंदइ अन्ने,
दूसइ बहुइ
बहुसो य सोयभयबहुलो।
ण
गणइ कज्जाकज्जं,
लक्खणमेंयं
तु काउस्स।।
140।।
जाणइ कज्जाकज्जं,
सेयमसेयं
च सव्वसमपासी।
दयदाणरदो
य मिदू,
लक्खणमेयं
तु तेउस्स।।
141।।
चागी भद्दो चोक्खो,
अज्जवकम्मो
य खमदि बहुगं पि।
साहुगुरूपूजणरदो,
लक्खणमेयं
तु पम्मस्स।।
142।।
ण
य कुणइ पक्खवायं,
ण वि य णिदाणं
समो य सव्वेसिं।
मनुष्य
जैसा है, अपने
ही कारण है।
मनुष्य जैसा
है, वह
अपने ही
निर्माण से
वैसा है।
महावीर
की दृष्टि में
मनुष्य का
उत्तरदायित्व
चरम है। दुख
है तो तुम
कारण हो। सुख
है तो तुम
कारण हो। बंधे
हो तो तुमने
बंधना चाहा
है। मुक्त
होना चाहो, मुक्त हो
जाओगे। कोई
मनुष्य को बांधता
नहीं, कोई
मनुष्य को
मुक्त नहीं
करता। मनुष्य
की अपनी
वृत्तियां ही बांधती
हैं, अपने
राग-द्वेष ही बांधते
हैं, अपने
विचार ही बांधते
हैं।
एक
अर्थ में गहन
दायित्व है
मनुष्य का, क्योंकि
जिम्मेवारी
किसी और पर
फेंकी नहीं जा
सकती।
महावीर
के विचार में
परमात्मा की
कोई जगह नहीं
है। इसलिए तुम
किसी और पर दोष
न फेंक सकोगे।
महावीर ने दोष
फेंकने के सारे
उपाय छीन लिए
हैं। सारा दोष
तुम्हारा है।
लेकिन इससे
हताश होने का
कोई कारण नहीं
है। इससे
निराश हो जाने
की कोई वजह
नहीं है।
चूंकि
सारा दोष
तुम्हारा है, इसलिए
तुम्हारी मालकियत
की उदघोषणा
हो रही है।
तुम चाहो तो
इसी क्षण
जंजीरें गिर सकती
हैं। तुम
उन्हें पकड़े
हो, जंजीरों ने तुम्हें
नहीं पकड़ा है।
और किसी और ने
तुम्हें
कारागृह में
नहीं डाला है,
तुम अपनी
मर्जी से
प्रविष्ट हुए
हो। तुमने कारागृह
को घर समझा
है। तुमने
कांटों को फूल
समझा है।
ओल्ड
टेस्टामेंट
में, पुरानी
बाइबिल में
सोलोमन का
प्रसिद्ध वचन
है: "ऐज ए
मैन थिंकेथ
सो ही बिकम्स।'
जैसा आदमी
सोचता, वैसा
हो जाता है।
बुद्ध
ने धम्मपद के
वचनों का
प्रारंभ किया
है: तुम जो हो
वह अतीत में
सोचे हुए
विचारों का परिणाम
है। तुम जो
होओगे, वह
आज सोचे गए
विचारों का फल
होगा। मनुष्य
जैसा सोचता है,
वैसा हो
जाता है।
संसार
विचार की एक
प्रक्रिया है; मोक्ष, निर्विचार
की शांति है।
संसार गांठ है
विचारों की।
तुम सोचना बंद
कर दो--गांठ
अपने-आप पिघल जाती
है, बह
जाती है। तुम
सहयोग न दो, तुम्हारा
साथ न रहे, तो
जंजीरें
अपने-आप
स्वप्नवत
विलीन हो जाती
हैं।
इन
सूत्रों में
इसी तरफ इंगित
है। जैसा पहले
कहा कि मनुष्य
के ऊपर सात
पर्दे हैं। अब
महावीर एक-एक
पर्दे की
विचार-शृंखला
के संबंध में
इशारे करते
हैं।
"स्वभाव
की प्रचंडता,
रौद्रता, वैर की
मजबूत गांठ, झगड़ालू वृत्ति, धर्म
और दया से
शून्यता, दुष्टता,
समझाने से
भी नहीं मानना,
ये कृष्ण
लेश्या के
लक्षण हैं।'
इन
तानों-बानों
से बना है
पहला पर्दा:
अंधेरे का
पर्दा। अंधेरा
अगर तुम्हारे
बाहर होता तो
कोई बाहर से
रोशनी भी ला
सकता था। तुम
घर में बैठे
हो अंधेरे में, पड़ोसी भी
दीया ला सकता
है। लेकिन
जीवन में जो
अंधेरा है, वह कुछ ऐसा
है कि तुम उसे
निर्मित कर
रहे हो। वह
तुम्हारे
बाहर नहीं
तुम्हारे
भीतर उसकी जड़ें
हैं; इसलिए
कोई भी दीया
लाकर तुम्हें
दे नहीं सकता,
जब तक कि
तुम अंधेरे की
जड़ों को न तोड़ डालो।
जड़ें
हैं: स्वभाव
की प्रचंडता।
बहुत
लोग हैं, जो
क्रुद्ध ही
जीते हैं। कुछ
लोग हैं, जिन्हें
कभी-कभी क्रोध
होता है। कुछ
लोग हैं, क्रोध
जिनका स्वभाव
है। जिनसे तुम
अक्रोध की आशा
ही नहीं कर
सकते। जिनके
संबंध में तुम
निश्चित रह
सकते हो कि वे
कोई न कोई
कारण क्रोध करने
का खोज ही
लेंगे। देखनेवाले
चकित होते हैं
कि जहां कोई
कारण नहीं
दिखाई पड़ता था,
वहां भी लोग
कारण खोज लेते
हैं।
मैंने
सुना है, एक
पति-पत्नी में
निरंतर झगड़ा
होता रहता था।
पत्नी
मनोवैज्ञानिक
के पास गई और
मनोवैज्ञानिक
ने कहा कि कुछ
झगड़े को हटाने
के उपाय करो।
बनाया है तो
बन गया है। अब
पति का
जन्मदिन आता
हो--कब आता है?
उसने
कहा, कल ही
उनका जन्मदिन
है। तो उसने
कहा, इस
मौके को अवसर
समझो। कुछ
उनके लिए
खरीदकर लाओ, कुछ भेंट
करो। कुछ
प्रेम की तरफ
हाथ बढ़ाओ।
प्रेम की ताली
एक हाथ से तो
बजती नहीं।
तुम्हारा हाथ
बढ़े तो शायद
पति भी उत्सुक
हो।
पत्नी
को बात जंची।
बाजार से दो
टाई खरीद
लायी। दूसरे
दिन पति को
भेंट कीं। पति
बड़ा प्रसन्न
हुआ। ऐसा कभी
हुआ न था।
पत्नी कुछ
लायी हो
खरीदकर, इसकी
कल्पना भी
नहीं कर सकता
था।
मनोवैज्ञानिक
का सत्संग लाभ
कर रहा है।
प्रसन्न हुआ।
इतना प्रसन्न
हुआ कि उसने
कहा कि आज अब
भोजन मत बना।
आज हम नगर के
श्रेष्ठतम
होटल में चलते
हैं। मैं अभी
तैयार हुआ।
वह
भागा। स्नान
किया, कपड़े
बदले, पत्नी
दो टाई ले आयी
थी, उसमें
से एक टाई
पहनकर बाहर
आया। पत्नी ने
देखा और कहा, अच्छा, तो
दूसरी टाई
पसंद नहीं
आयी!
अब
आदमी एक ही
टाई पहन सकता
है एक समय
में। दो ही
टाई तो एक साथ
नहीं बांधे जा
सकते। अब कोई
भी टाई पहनकर
आता
पति...विवाद
शुरू हो गया।
यह बात पत्नी
को नाराज कर
गई कि दूसरी
टाई पसंद नहीं
आयी। मैं इतनी
मेहनत से, इतने भाव से,
इतने प्रेम
से खरीदकर
लायी हूं।
कुछ
लोग हैं जिनके
लिए क्रोध एक
भावावेश होता है--अधिक
लोग। किसी ने
गाली दी, क्रुद्ध
हो गए।
लेकिन
कुछ लोग हैं, जो क्रुद्ध
ही रहते हैं।
किसी के गाली
देने न देने
का सवाल नहीं
है। वे
गालियां खोज
लेते हैं।
जहां न हो
गाली, वहां
भी खोज लेते
हैं। जहां न
हो गाली, वहां
भी व्याख्या
कर लेते हैं।
महावीर
कहते हैं ऐसा
व्यक्ति, जिसने
क्रोध को अपनी
सहज आदत बना
लिया हो, कृष्ण
लेश्या में
दबा
रहेगा--क्रोध,
रौद्रता, दुष्टता!
राह से
तुम चले जा
रहे हो, एक
कुत्ता दिखाई
पड़ जाता है, तुम उठाकर
पत्थर ही मार
देते हो। कुछ
लेना-देना न
था। कुत्ता
अपनी राह जाता,
तुम अपनी
राह जाते थे।
तुम राह से
निकल रहे हो, वृक्ष फूले
हैं, तुम
फूल ही तोड़ते
चले जाते हो। क्षणभर
बाद तुम उनको
फेंक देते हो
रास्ते पर; लेकिन जैसे
दुष्टता
तुम्हारे
भीतर है।
और
ध्यान रखना, जो दुष्टता
आदत का हिस्सा
है, वही
असली खतरनाक
बात है। जो
दुष्टता
कभी-कभार हो
जाती है, वह
कोई बहुत बड़ा
प्रश्न नहीं
है, मानवीय
है। कोई किसी
क्षण में
नाराज हो जाता
है, क्रुद्ध
हो जाता है, कभी किसी
क्षण में
दुष्ट भी हो
जाता है। वह
क्षम्य है।
उससे कृष्ण
लेश्या नहीं
बनती। कृष्ण
लेश्या बनती
है, गलत
वृत्तियों का
ऐसा अभ्यास हो
गया हो, कि
जहां कोई भी
कारण न हो वहां
भी वृत्ति
अपने ही
अभ्यास के
कारण, कारण
खोज लेती हो।
तो फिर तुम
अपने अंधेरे
को पानी सींच
रहे हो, खाद
दे रहे हो।
फिर यह अंधेरा
और बड़ा होता
चला जाएगा।
"स्वभाव
की
प्रचंडता...।'
इसे
थोड़ा खयाल
रखना। ऐसी कोई
वृत्ति आदत मत
बनने देना।
कभी क्रोध आ
जाए तो बहुत
परेशान होने
की जरूरत नहीं
है। मनुष्य
कमजोर है।
असली प्रश्न
तो तब है, जब
कि क्रोध
तुम्हारे घर
में बस जाए; नीड़ बसाकर बस
जाए।
क्रोधी
आदमी अकेला भी
बैठा हो तो भी
क्रोधी होता
है। तुम उसकी
आंख में क्रोध
देखोगे।
चलेगा तो
क्रोध से
चलेगा।
बैठेगा तो
क्रोध से
बैठेगा। क्रोध
उसकी छाया है, उसका सत्संग
है। वह जो भी
करेगा, क्रोध
से करेगा।
दरवाजा
खोलेगा तो
क्रोध से खोलेगा।
जूते उतारेगा
तो क्रोध से
उतारेगा।
सूफी
फकीर बोकोजू
से कोई मिलने
आया। उसने जोर
से दरवाजे को
धक्का दिया।
क्रोधी आदमी
रहा होगा, कृष्ण
लेश्या का
आदमी रहा
होगा। फिर
जूते उतारकर
फेंके।
बोकोजू के पास
आकर बोला, शांति
की आकांक्षा
करता हूं। कोई
ध्यान का मार्ग
दें। बोकोजू
ने कहा, यह
बकवास पीछे।
पहले जाकर
दरवाजे से
क्षमा मांगो,
जूते को सिर
झुकाकर
नमस्कार करो।
उस
आदमी ने कहा, क्या मतलब? दरवाजे से
क्षमा? जूते
से नमस्कार? ये तो मृत
चीजें हैं, जड़ चीजें
हैं। इनसे
क्या क्षमा और
क्या नमस्कार!
बोकोजू
ने कहा, क्रोध
करते वक्त न
सोचा कि जड़
चीजों पर
क्रोध कर रहे
हो? जूते
को जब क्रोध
से फेंका, तब
न सोचा कि
जूते पर क्या
क्रोध करना!
दरवाजे को जब
धक्का दिया, बेहूदगी और
अशिष्टता की,
तब न सोचा।
जाओ वापस, अन्यथा
मेरे पास आने
की कोई सुविधा
नहीं है। मैं
तुमसे बात ही
तब करूंगा, जब तुम
दरवाजे से
क्षमा मांगकर
आ जाओ।
अब यह
जो आदमी है, कृष्ण
लेश्या से दबा
होगा। ऐसा
नहीं कि उसने
जानकर कोई
क्रोध किया।
क्रोध उसका
अंग बन गया है।
वह क्रोध से
ही दरवाजा खोल
सकता है।
तुम भी
लोगों को
ध्यानपूर्वक देखोगे तो
तुम्हें
दिखाई पड़ने
लगेगा। पहले
औरों को देखना, क्योंकि
औरों के संबंध
में सत्य को
जानना सरल होता
है। तुम्हारा
कुछ लेना-देना
नहीं। दूसरे
की बात है।
तुम दूर खड़े
होकर देख लेते
हो। लोगों को
जरा गौर से
देखना। कभी
रास्ते के
किनारे बैठ
जाना किसी
वृक्ष के नीचे,
चलते लोगों
को देखना।
देखना कि कौन
आदमी क्रोध से
चल रहा है।
कौन आदमी
प्रेम से चल
रहा है। कौन
आदमी आनंदभाव
से चल रहा है।
और तुम पाओगे,
हर स्थिति
में
भाव-भंगिमा
अलग है।
प्रेम
से चलनेवाले
की चाल में एक
संगीत होगा।
कोई अदृश्य
पायल बजती
होगी। हृदय
में कोई गहन
आनंद की वर्षा
होती होगी।
क्रोध से
चलनेवाला आदमी
जैसे कांटों
में चुभा
पड़ा है। पीड़ा
से जलता हुआ, आग की लपटों
में झुलसता चल
रहा है। राह
वही, लोग
अलग-अलग हैं।
जिन
रास्तों पर
तुम चलते हो, उन्हीं पर
बुद्ध और
महावीर चले
हैं। जिन
वृक्षों के
नीचे से तुम
गुजरे हो, उन्हीं
के नीचे से
बुद्ध और
महावीर गुजरे
हैं। लेकिन
तुम एक ही
दुनिया में
नहीं चले और
एक ही रास्तों
पर नहीं
गुजरे।
क्योंकि असली
में तो तुम
क्या हो, इससे
तुम्हारी
दुनिया
निर्मित होती
है।
ऐसा
पहले दूसरों
को देखना। कुछ
लोग
मूर्च्छित
मालूम
पड़ेंगे। चले
जा रहे हैं, लेकिन जैसे
किसी नशे में
हैं। कभी-कभी
कोई आदमी, कोई
छोटा बच्चा
जाग्रत मालूम
पड़ेगा।
कभी-कभी किसी
की आंखों में
जागृति की चमक
दिखाई पड़ेगी,
अन्यथा
अंधेरा है। चल
रहे हैं, जगे हुए
हैं, फिर
भी सोये हुए
हैं।
ऐसा
पहले दूसरों
का निरीक्षण
करना और फिर
जो तुम्हें
दूसरों के
निरीक्षण में
दिखाई पड़े, धीरे-धीरे
अपने पर लागू
करना। फिर खुद
चलते हुए, बैठते
हुए, उठते
हुए देखना कि
तुम किन्हीं
भाव-दशाओं में
बहुत लिप्त तो
नहीं हो गए हो!
कहीं ऐसा तो
नहीं है कि
तुम क्रोध से
भरे जीने लगे
हो, रोष से
भरे जीने लगे
हो, हिंसा
तुम्हारी अंतर्भूमि
बन गई है, दुष्टता
तुम्हारा
स्वभाव बन गई
है!
अगर यह
दिखाई पड़े तो
एक बड़ी
महत्वपूर्ण
अनुभूति हुई:
कृष्ण लेश्या
पहचान में
आयी। और जिसे मिटाना
हो उसे पहचान
लेना जरूरी
है। जिससे मुक्त
होना हो, उसे
आर-पार देख
लेना जरूरी
है।
"स्वभाव
की प्रचंडता,
वैर की
मजबूत गांठ...।'
ऐसे
लोग हैं, जो
जन्म-जन्म तक
वैर की गांठ
बांधकर रखते
हैं। जो भूलते
ही नहीं। जो
और सब भूल
जाते हैं, वैर
नहीं भूलते।
ऐसा भी होता
है कि पीढ़ी
दर पीढ़ी
वैर चलता है।
बाप मर जाता
है तो अपने
बेटे को शिक्षण
दे जाता है कि
पड़ोसी से झगड़ते
रहना। अपनी
पुश्तैनी
दुश्मनी है।
पुश्तैनी
दुश्मनी का
क्या मतलब हो
सकता है? लड़े
कोई और थे, जारी
कोई और रखे
हैं। शुरू
किसी ने किया
था, वे कभी
के मर चुके
होंगे
दादे-परदादे;
लेकिन
पुश्तैनी
दुश्मनी है, जारी रखे
हुए हैं।
ऐसा तो
कम होता है, लेकिन बीस
साल पहले किसी
ने तुम्हें
गाली दे दी थी,
वह तुम अभी
भी याद रखे
हो। गालियां
मुश्किल से
भूलती हैं।
जिस आदमी ने
तुम्हारे साथ
निन्यानबे
उपकार किए हों,
वह भी अगर
एक गाली दे दे
तो निन्यानबे
उपकार भूल
जाते हैं, वह
एक अपमान याद
रह जाता है।
तुम
कभी अपने पीछे
लौटकर विचार
करते हो, क्या
याद रह गया? तुम अचानक
चकित हो
जाओगे। सिर्फ
जलते हुए अंगारे
याद रह गए।
तुम कभी पीछे
लौटकर देखना
कि कौन-सी
याददाश्तें
तुम्हारे घर
में बड़ा गहरा
घर किए बैठी
हैं। तुम बहुत
हैरान होओगे।
कभी कोई
छोटी-सी
बात...तीस साल
हो गए, किसी
आदमी ने तुम
पर व्यंग्य से
हंस दिया था, वह अभी भी
हंसी उसकी
सुनाई पड़ती
है। तीस साल में
लाखों-अरबों
अनुभव हुए
हैं। लेकिन वह
अंगारा अब भी
कहीं घाव की
तरह बैठा है।
अभी भी हरा है।
अभी भी पीड़ा
होती है। अभी
भी तुम उस
आदमी से बदला
लेना चाहोगे।
छोटी-छोटी
बातें याद रह
जाती हैं।
क्षुद्र
बातें याद रह
जाती हैं। जीवन
के अनंत उपकार
भूल जाते हैं।
गुरजिएफ
कहता था कि
प्रत्येक
व्यक्ति को
अपने
माता-पिता से
किसी न किसी
दिन समझौता
करना होता है।
और जो व्यक्ति
अपने
माता-पिता को
क्षमा न कर
सके वह कभी
ध्यान में
प्रविष्ट
नहीं हो सकता।
तुम तो
कहोगे, माता-पिता
को क्षमा? लेकिन
गुरजिएफ बड़ी
गहरी बात कह
रहा है।
स्वाभाविक
है कि जिन
माता-पिता ने
तुम्हें बड़ा
किया, कई
दफा तुम पर
नाराज हुए
होंगे।
तुम्हारे हित में
हुए होंगे। कई
बार मारा, डांटा-डपटा
होगा, अगर
वह चुभन अभी
शेष रह गई है
और अगर तुम
अपने मां-बाप
से भी रसपूर्ण
रिश्ता नहीं
बना पाए हो, तो और किससे
बना पाओगे?
तो
गुरजिएफ कहता
है, मां-बाप
का आदर जिसके
मन में आ गया
वह साधु होने
लगा।
पूरब
की सारी
संस्कृति
कहती है मां
और पिता के
आदर के लिए।
क्यों? तुम
शायद इस तरह
कभी सोचे नहीं,
लेकिन
मनोविज्ञान
इसी तरह सोचता
है। जब
संस्कृति
इतना जोर देती
है कि
माता-पिता का
आदर करो, तो
इसका अर्थ ही
यह है कि अगर
जोर न दिया
जाए तो तुम
अनादर करोगे।
जोर केवल खबर
दे रहा है कि अगर
तुम्हें छोड़
दिया जाए तुम
पर, तो तुम
अनादर करोगे।
पश्चिम में
मनोविश्लेषण
ने बड़ी खोजें
की हैं। उनमें
सबसे बड़ी खोज
यह है कि
जितने भी लोग
मानसिक रूप से
बीमार होते
हैं वे किसी न
किसी तरह अपनी
मां से नाराज
हैं।
अगर
सारे
मनोविश्लेषण
को एक शब्द
में दोहराना
हो और सारी
मानसिक
बीमारियों को
एक शब्द में
लाना हो तो
वह--मां से
नाराजगी।
हर
आदमी छोटा था, बच्चा था, कमजोर था।
उस कमजोरी के
क्षण में
असहाय था, किसी
पर निर्भर था।
मां और पिता
पर निर्भर था।
और मां और बाप
को बच्चे को
बड़ा करना है, कई बातें
गलत हैं, जिनसे
रोकना है। कई
बातें सही हैं,
जिनकी तरफ
बच्चे को
गतिमान करना
है। बहुत दफा नाराज
भी होना है, बहुत दफे
डांटना-डपटना
भी है। वे घाव
भीतर रह जाते
हैं।
अक्सर
ऐसा होता है
कि जब बेटे
जवान हो जाते
हैं, शक्तिशाली
हो जाते हैं
और मां और बाप
बूढ़े होने
लगते हैं, तब
बदला शुरू
होता है। तब
पहिया पूरा
घूम गया। पहले
बच्चे थे तुम,
कमजोर थे, तुम कुछ कर न
सके, सहा; फिर मां-बाप
बच्चे हो जाते
हैं, बूढ़े
हो जाते हैं, कमजोर हो
जाते हैं। तुम
शक्तिशाली हो
जाते हो। फिर
तुम सताना
शुरू कर देते
हो।
मां-बाप
के पास भी
हमारा क्रोध, हमारा
वैर-भाव गांठ
की तरह बना
रहता है तो
औरों की तो
बात ही क्या!
और महावीर
कहते हैं कि
यह वैर की
गांठ जितनी
गहरी होगी, उतना ही
तुम्हारा
कृष्ण लेश्या
का पर्दा सघन होगा।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक बस में
यात्रा कर रहा
था। बस के
अंदर एक कतार
में खुद बैठा, दूसरी तरफ
उसकी पत्नी
बैठी थी। और
दूसरी कतार में
एक अपरिचित
महिला
यात्री। हवा
के झोंके से
उस युवती का
आंचल
लहरा-लहराकर
मुल्ला के पैर
को झाड़ता-पोंछता।
जब बस के मुड़ने
पर उस महिला
का हाथ मुल्ला
के पैर पर पड़
गया तो उसने
अपनी पत्नी के
कान में कहा, मुझे गौतम
बुद्ध समझ रही
है। थोड़ी देर
बाद जब बस के
झटके से चप्पल
सहित उसका पैर
मुल्ला के पैर
में लगा तो
पत्नी ने
मुल्ला के कान
में कहा, सावधान!
अब आपकी
असलियत पहचान
गई है।
आदमी
वैर की गांठ बांधता है
संसार से, उसका
आधारभूत कारण
क्या है? आधारभूत
कारण है कि
आदमी अपने को
तो गौतम बुद्ध
समझता है, इसलिए
अपेक्षा करता
है। बड़ी
अपेक्षा करता
है कि सारा
संसार उसके
चरणों में
झुके। और जब
लोग उसके
चरणों में झुकना
तो दूर रहा, उसका अपमान
करते हैं; चरणों
में झुकना तो
दूर रहा, अपेक्षा
पूरी करना तो
दूर रहा, उसकी
उपेक्षा करते
हैं; चरणों
में झुकना तो
दूर रहा, ऐसी
स्थितियां
पैदा करते हैं
कि उसे उनके
चरणों में
झुकना पड़े तो
घाव खड़े होते
हैं, वैर
की गांठ बंधती
है।
अहंकार
के कारण वैर
की गांठ बंधती
है। और अहंकार
कृष्ण लेश्या
का आधार है।
जितना अहंकार
होगा, उतनी
वैर की गांठ
होगी। तुमने
अगर अपने को
बहुत कुछ समझा
तो वैर की गांठें
बहुत हो
जाएंगी।
क्योंकि कोई
तुम्हारी
अपेक्षा पूरी
करने को नहीं
है। लोग अपने
अहंकार के लिए
जी रहे हैं।
तुम्हारे
अहंकार की
तृप्ति करने
को कौन जी रहा
है? लोग
तुम्हारे
अहंकार से
संघर्ष कर रहे
हैं। तुम
जितने
अहंकारी हो, लोग उतना
तुम्हें नीचे
दिखाने की
चेष्टा करेंगे।
क्योंकि
तुम्हारे
नीचे दिखाए
जाने में ही
उनका ऊंचा
होना निर्भर
है। तुम भी तो
लोगों के साथ
यही कर रहे हो
कि उनको नीचा
दिखाओ।
तो वही
आदमी वैर की
गांठ नहीं
बांधेगा
जिसके पास कोई
अहंकार नहीं
है। लाओत्सु
कहता है, मुझे
तुम हरा न
सकोगे
क्योंकि मैं
हारा हुआ हूं।
मेरी जीत की
कोई आकांक्षा
नहीं है। तुम
मुझे हटा न
सकोगे मेरी
जगह से
क्योंकि मैं
अंत में ही
खड़ा हुआ हूं।
इसके पीछे अब
और कोई जगह ही
नहीं है। लाओत्सु
यह कह रहा है, जो विनम्र
है उसके साथ
किसी की
शत्रुता नहीं
होगी। और अगर
किसी की
शत्रुता होगी
भी, तो वह
जो शत्रुता
बना रहा है
उसकी समस्या
है, विनम्र
की समस्या
नहीं है।
किसी
की दी गई गाली
तुम्हें
चुभती है क्योंकि
तुम अहंकार को
सजाए बैठे हो।
तुमने अहंकार
का कांच का
महल बना रखा
है। किसी ने
जरा-सा कंकड़
फेंका कि
तुम्हारे
दर्पण टूट-फूट
जाते हैं। अहंकार
बड़ा नाजुक है।
जरा-सी चोट से
डगमगाता है, टूटता है, कंपता है।
तो फिर वैर की
गांठ बनती
जाती है।
तुम
मित्र किन्हें
कहते हो? तुम
मित्र उन्हें
कहते हो जो
तुम्हारे
अहंकार की
परिपूर्ति
करते हैं।
इसलिए तो
चापलूसी का
दुनिया में
इतना प्रभाव
है। अगर तुम
किसी की
चापलूसी करो,
खुशामद करो,
तो तुम
अतिशयोक्ति
करो तो भी
जिसकी तुम
खुशामद करते
हो, वह मान
लेता है कि
तुम ठीक कह
रहे हो। वस्तुतः
वह सोचता है
कि तुम्हीं
पहले आदमी हो
जिसने उन्हें
पहचाना। वह तो
सदा से यही
मानता था कि मैं
एक महापुरुष
हूं। कोई उसको
पहचान नहीं पा
रहा था, तुम
मिल गए उसे पहचाननेवाले।
जिसकी
तुम खुशामद
करो, तुम कभी
चकित होना; तुम
अतिशयोक्ति
करते हो, अंधे
को कमलनयन
कहते हो, असुंदर
को सौंदर्य की
प्रतिमा
बताते हो, अज्ञानी
को ज्ञान का
अवतार कहते हो
और तुम्हें भी
चकित होना
पड़ता होगा कि
वह मान लेता
है। यह तो
उसने माना ही
हुआ था। तुम
पहली दफा पहचाननेवाले
मिले। कोई
दूसरा पहचान
नहीं पाया।
खुशामद इसीलिए
कारगर होती
है।
अगर वह
आदमी विनम्र
हो और असलियत
को जानता हो
तो तुम खुशामद
से उसे
प्रसन्न न कर
पाओगे। जिस
आदमी को तुम खुशामद
से प्रसन्न कर
लो, सम्हलकर
रहना। यह आदमी
वैर की गांठ
भी बांधेगा।
जो खुशामद से
प्रसन्न होगा,
वह अपमान से
नाराज होगा।
जो झूठी
खुशामद से प्रसन्न
हो जाता है, वह अवास्तविक
अपमान से भी
नाराज हो
जाएगा; तथ्यहीन
अपमान से भी
नाराज हो
जाएगा।
विनम्र
व्यक्ति को न
तो खुशामद से
प्रसन्न किया
जा सकता है और
न अपमान से
नाराज किया जा
सकता है।
विनम्र
व्यक्ति
तुम्हारी
नियंत्रण-शक्ति
के बाहर हो
जाता है। वह
स्वयं अपना
मालिक होने
लगता है।
कृष्ण
लेश्या में
दबा हुआ आदमी
गुलाम है। बड़ा
गुलाम है।
उसके ऊपर बटन
लगे हैं, जो
भी चाहो तुम
दबा दो, बस
वह वैसे ही
व्यवहार करता
है। जरा अपमान
कर दो कि वह
आग-बबूला हो
गया। बटन दबा
दो कि वह सौ डिग्री
पर उबलने
लगा, भाप
बनने लगा।
दूसरा बटन दबा
दो, वह
प्रसन्न हो गया,
आनंदित हो
गया। तुम जो
कहो, करने
को राजी है।
जान देने को
राजी हो जाए
तुम्हारे
लिए।
इसका
अर्थ हुआ कि
कृष्ण लेश्या
से भरा हुआ
आदमी
प्रतिक्रिया
से जीता है।
तुम उससे कुछ
भी करवा ले
सकते हो।
विनम्र
व्यक्ति अपने
बोध से जीता
है, प्रतिक्रिया
से नहीं।
"स्वभाव
की प्रचंडता
और वैर की
मजबूत गांठ, झगड़ालू वृत्ति...।'
संसार
में इतने झगड़े
नहीं हैं
जितने दिखाई
पड़ते हैं।
जितने दिखाई
पड़ते हैं वे झगड़ालू
वृत्ति के
कारण हैं। लोग
झगड़ने को
तत्पर ही खड़े
हैं। लोग
प्रतीक्षा कर
रहे हैं कब
मिले अवसर।
लोग बिना झगड़े
बेचैन हो रहे
हैं। लोग
निमंत्रण दे
रहे हैं कि आ
बैल, मुझे
सींग मार।
क्योंकि जब तक
बैल सींग नहीं
मारता, उन्हें
उनके
अस्तित्व का
बोध नहीं
होता। लड़ने
में ही उन्हें
पता चलता है
कि हम हैं। जब
जीवन में
कठिनाई होती
है, संघर्ष
होता है, तभी
उन्हें पता
चलता है कि हम
भी कुछ हैं।
सिद्ध करने का
मौका मिलता
है।
इसे
समझना। जिस
व्यक्ति को
अपनी आत्मा की
कोई झलक नहीं
मिली, वह
हमेशा झगड़ने
को तैयार
होगा।
क्योंकि झगड़ने
में ही उसे
थोड़ा आत्मभाव
पैदा होता है।
झगड़ने में ही
लगता है, मैं
भी हूं। और तो
कोई उसे उपाय
नहीं दिखाई पड़ता
सिद्ध करने
का। कैसे सिद्ध
करे कि मैं भी
हूं?
एक
आदमी ने
अमरीका में
सात हत्याएं
कीं एक घंटे
के भीतर।
अपरिचित, अनजान
आदमियों पर
गोली दाग दी।
उनमें कुछ तो
ऐसे थे, जिनको
उसने कभी देखा
ही नहीं था
पहले। दो तो ऐसे
थे, जिनको
उसने गोली
मारते वक्त भी
नहीं देखा क्योंकि
वे पीठ किए
खड़े थे समुद्र
के तट पर, उसने
पीछे से गोली
मार दी। अदालत
में जब पूछा गया,
ऐसा उसने
क्यों किया? क्या वह
विक्षिप्त है?
तो उसने कहा,
मैं
विक्षिप्त
नहीं हूं।
मुझे सिद्ध
करने का कोई
मौका ही नहीं
मिल रहा है कि
मैं भी हूं।
मैं अखबार में
पहले पेज पर
अपना नाम और
अपनी तस्वीर छपी
देखना चाहता
था, वह
मैंने देख ली।
अब तुम मुझे
सूली पर भी
चढ़ा दो, तो
मैं तृप्त
मरूंगा। मैं
ऐसे ही नहीं
जा रहा हूं, नाम करके जा
रहा हूं।
लोग
कहते हैं
बदनाम हुए तो
क्या, कुछ
नाम तो होगा
ही। तुम्हें
अपनी आत्मा का
पता कब चलता
है? जब तुम
किसी के साथ
संघर्ष में
जूझ जाते हो।
उस संघर्ष की
स्थिति में
तुम्हारी
आत्मा में
त्वरा आती है।
तुम्हें लगता
है, मैं भी
हूं। मेरे
कारण कुछ हो
रहा है।
कहते
हैं अडोल्फ
हिटलर कलाविद
होना चाहता
था। उसने एक
कला, चित्रकला
सीखने के लिए
आवेदन किया था,
लेकिन
विश्वविद्यालय
ने उसे
स्वीकार न किया।
वह जीवन के
अंत समय तक भी
कागजों पर चित्र
बनाता रहा।
लेकिन वह बड़ा
रुष्ट हो गया,
जब उसे
विश्वविद्यालय
ने इंकार कर
दिया।
मनुष्य
बड़ा अदभुत है।
वह कुछ सृजन
करना चाहता था, लेकिन किया
उसने विनाश।
मनोवैज्ञानिक
सोचते हैं कि
अगर उसे
कला-विश्वविद्यालय
में जगह मिल
गई होती तो
शायद दुनिया
में दूसरा
महायुद्ध न
होता। वह अगर
सृजन में
संलग्न हो गया
होता तो उसकी
शक्ति
सृजनात्मक हो
गई होती। उसने
सुंदर चित्र
बनाये होते, रंग भरे
होते, गीत
गुनगुनाए
होते। वह
दुनिया को
थोड़ा सुंदर करके
छोड़ जाता। वह
इतिहास में
अपना नाम
छोड़ना चाहता
था। लेकिन जब
सृजनात्मक
मार्ग न मिला
तो उसकी सारी
ऊर्जा
विध्वंसात्मक
हो गई।
तुम
खयाल रखना; जब तुम झगड़ालू
वृत्ति से
भरते हो, तब
तुम किसी तरह
चोर रास्ते से
आत्मा का
अनुभव करने
चले हो। जब
तुम कुछ विनाश
करते हो, तब
तुम्हें अपने
होने का पता
चलता है।
स्कूल में
विद्यार्थी खिड़कियों
के कांच फोड़
आते हैं, कालेज
में उपद्रव
खड़े कर देते
हैं। इससे
उनको पता चलता
है कि हम भी
हैं। अपने बल
का पता चलता है।
बल को
जानने के दो
उपाय हैं: या
तो कुछ
निर्माण करो, या कुछ मिटाओ।
तीसरा कोई
उपाय नहीं है।
तो जो व्यक्ति
मिटाने में बल
का अनुभव करता
है, वह
कृष्ण लेश्या
में दबा रह
जाएगा। सृजन
में बल का
अनुभव करो।
कुछ बनाओ। कुछ
तोड़ो मत।
क्योंकि
तोड़ना तो कोई
भी कर सकता है,
पागल कर
सकता है।
तोड़ना तो कोई
बुद्धिमत्ता
की अपेक्षा
नहीं रखता।
कुछ
बनाओ। एक गीत
बनाओ, एक
मूर्ति बनाओ,
एक वृक्ष
लगाओ, पौधा
रोपो। जब
उस पौधे में
फूल आएंगे तब
तुम्हें
आत्मवान होने
का पता चलेगा।
देखी है माली
की प्रसन्नता,
जब उसके फूल
खिल जाते हैं?
देखा है
मूर्तिकार का
आनंद, जब
उसकी मूर्ति
बन जाती है? देखा है कवि
का प्रफुल्ल
भाव, जब
कविता के फूल
खिल जाते हैं?
कुछ
बनाओ। दुनिया
में
सृजनात्मक
लोग बहुत कम
हैं। और हर
आदमी ऊर्जा
लेकर पैदा हुआ
है। तुम्हारी
ऊर्जा अगर
सृजन की तरफ न
गई तो विध्वंस
की तरफ जाएगी।
इसे तुम खयाल
करके देखो।
जीवन में
चारों तरफ आंख
फैलाकर देखो।
जो लोग कुछ
बनाने में लगे
हैं, तुम
उन्हें झगड़ालू
न पाओगे। तुम
उन्हें बड़ा
विनम्र, उदारमना,
सरल, सौम्य,
आर्जव से
भरे, मार्दव
से भरे हुए
पाओगे--मृदु, कोमल...जो लोग
भी कुछ बनाने
में लगे हैं।
जो लोग भी
मिटाने में
लगे जाते हैं,
तुम उन्हें
बड़े झगड़ालू
पाओगे। वे हर
चीज पर झगड़ने
को और विवाद
करने को तत्पर
हैं।
एक बड़ी
अदभुत घटना
घटती है। तुम
राजनीति के
क्षेत्र में
देख सकते हो।
जो लोग सत्ता
में पहुंच
जाते हैं, सत्ता में
पहुंचते ही
उनके पास
बनाने की ताकत
आ जाती है।
कुछ बना सकते
हैं। अगर
उनमें थोड़ी भी
बनाने की
क्षमता हो तो
उनकी ऊर्जा
सृजनात्मक
होने लगती है।
ये वे
ही लोग हैं, जो सत्ता
में जब नहीं
थे तो
विध्वंसात्मक
थे। जब इनके
हाथ में सत्ता
नहीं थी तो
हड़ताल, बगावत,
षडयंत्र, टे्रनों को गिराना, लोगों को उभाड़ना,
झगड़ाना--झगड़ालू
वृत्ति के लोग
थे; ये वे
ही लोग हैं।
इन्हीं को तुम
सत्ता में बिठाल
दो, ये
तत्क्षण हड़तालों
के खिलाफ हो
जाते हैं। ये
तत्क्षण तोड़-फोड़ के
विरोध में हो
जाते हैं।
तोड़-फोड़
के कारण ही
पहुंचे वहां
तक। तोड़-फोड़
से ही पहुंचे
वहां तक। सभी
क्रांतिकारी
सत्ता में
पहुंचते से ही
क्रांति का
साथ छोड़ देते हैं।
क्या
हो जाता है? इन आदमियों
में इतना
परिवर्तन
कैसे हो जाता
है? समझने
योग्य है।
क्योंकि ऊर्जा
एक ही तरफ बह
सकती है।
सत्ता में
पहुंचते से ही
लोगों की
क्रांति
समाप्त हो
जाती है। तब
वे कुछ और ही
बात करने लगते
हैं--देश के
निर्माण की, शांति की, सुख की। ये
वे ही लोग हैं
जो कुछ दिन
पहले स्वतंत्रता
की बात करते, सुख की
नहीं। देश के
निर्माण की
बात नहीं करते,
गति की, प्रगति
की बात करते; नए की बात
करते। यही
व्यक्ति जो कल
पुराने को मिटाने
को तत्पर थे, सत्ता में
आते से ही
पुराने को
सम्हालने में
तत्पर हो जाते
हैं। यह अनूठी
घटना है।
लेनिन और
स्टैलिन जैसे
ही सत्ता में
पहुंचते हैं,
ये क्रांति
के दुश्मन हो
जाते हैं। ये
उन लोगों को, जो अब भी
क्रांति में
लगे हैं, उनको
नष्ट करने
लगते हैं।
उनको जेलों
में फेंकने
लगते हैं।
ऐसा
प्रत्येक
व्यक्ति के
भीतर भी घटता
है। तुम जरा
कोशिश करके
देखना! तुम
किसी चीज के
बनाने में
उत्सुक हो
जाओ--कोई
छोटी-सी चीज!
बांसुरी बजाने
में उत्सुक हो
जाओ, और तुम
पाओगे, तुम्हारी
झगड़ालू
वृत्ति कम हो
गई। क्योंकि
ऊर्जा अब
बांसुरी से भी
तो बहेगी। जो
ऊर्जा
बांसुरी से
बहेगी, वह
झगड़े के लिए
अब उपलब्ध न
रहेगी।
महावीर ने इसीलिए
अहिंसा पर
इतना जोर
दिया।
"वैर
की मजबूत गांठ,
झगड़ालू वृत्ति, धर्म
और दया से
शून्यता...।'
ऐसे
व्यक्तियों
के मन में दया
का भाव नहीं
उठता। अभी
अमरीका में एक
विश्वविद्यालय
ने इस बात का
अध्ययन करने
की कोशिश की, कि जो लोग
रास्ते पर कभी
किसी की हत्या
कर देते हैं
या कार से
किसी को धक्का
मारकर गिरा
देते हैं, उस
घड़ी कुछ लोग
त्राता की तरह
आ जाते हैं।
एक आदमी ने एक
बूढ़ी को कार
से धक्का मारा
और वह धक्का
मारकर कार
लेकर भागा। एक
आदमी, जो
दुकान में
खरीद-फरोख्त
कर रहा था, वह
उचककर
अपनी मोटर
साइकिल पर
सवार हुआ। उस
कार के पीछे
लग गया। कोई
तीन मील दूर
जाकर उसने
पकड़ा और उस
आदमी की पिटाई
की।
मनोवैज्ञानिक
इसका अध्ययन
कर रहे थे। उस
आदमी से पूछा
गया कि जब बूढ़ी
औरत रास्ते पर
कार का धक्का
खाकर गिरी तो क्या
यह उचित नहीं
था कि पहले
तुम उस बूढ़ी
स्त्री को
अस्पताल
पहुंचाते, बजाय इस
आदमी के पीछे
जाकर तीन मील
दूर जाकर इसकी
मारपीट करने
के? क्योंकि
वह बूढ़ी मर
गई। अगर वह
अस्पताल पहुंचाई
गई होती तो बच
जाती। उस आदमी
ने कहा, यह
तो मुझे खयाल
ही नहीं आया।
मुझे तो पहला
खयाल यह आया
कि इस आदमी को
दंड देना
जरूरी है।
यह
आदमी लोगों से
कहेगा कि मैं दयाभाव से
भरा आदमी हूं, लेकिन यह
आदमी दयाभाव
से भरा नहीं
है। अगर किसी
एक स्त्री पर
कोई गुंडा
हमला कर देता
है तो जो आदमी
उस गुंडे से
जूझने लगते
हैं, वे भी
गुंडे जैसे ही
गुंडे हैं।
उनको भी उस स्त्री
से कुछ मतलब
नहीं है। झगड़ालू
वृत्ति के
हैं। हालांकि
वे कहेंगे कि दयाभाव से
प्रेरित होकर,
सदभाव से प्रेरित
होकर
उन्होंने ऐसा
किया। लेकिन वे
सदभाव की
सिर्फ आड़
ले रहे हैं।
और वह मामला
ऐसा है कि
समाज भी उनका
साथ देगा। तो
उनका
गुंडागर्दी
करने का बड़ा सुविधापूर्ण
मौका है। मगर
ये आदमी
गुंडों जैसे
ही गुंडे हैं।
ये गुंडे ही
हैं; इनमें
कुछ फर्क नहीं
है।
असली
सवाल तो उस
स्त्री को
बचाने का था, वह तो एक तरफ
हो गया। स्त्री
से तो कुछ
लेना-देना
नहीं है। इनको
एक मौका मिल
गया अपना
क्रोध, अपनी
हिंसा प्रगट
करने का।
महावीर
कहते हैं, "धर्म और दया
से शून्यता...।'
तो
कभी-कभी ऐसा
भी होता है, गलत तरह के
लोग भी दया की आड़ में
हिंसा को ही
चलाते हैं।
कोई चिल्लाता
है इस्लाम
खतरे में; कोई
कहता है हिंदू
धर्म खतरे में;
और जो उस
नाम से चलता
है वह
गुंडागर्दी
है।
जो
धर्म पे बीती
देख चुके, ईमां पे जो गुजरी
देख चुके
इस राम
और रहीम की
दुनिया में
इंसान का जीना
मुश्किल है
चाहे
धर्म
हों--हिंदू, मुसलमान, ईसाई; चाहे
नए धर्म हों--कम्युनिज्म,
समाजवाद, फासिज्म;
लेकिन सबके
पीछे ऐसा
मालूम पड़ता है
दया तो केवल
बहाना है, असली
मतलब कुछ और
है।
स्टैलिन
जब सत्ता में
आया रूस में, तो आया तो
इसी कारण कि
गरीबों की
हिमायत करनी है।
लेकिन सत्ता
में आने के
बाद लाखों
गरीबों को मार
डाला। जो मारे
गए वे अधिकतर
गरीब थे, जिनके
लिए सत्ता में
आने की
आकांक्षा थी।
क्या हुआ? गरीबों
के हित के लिए
गरीबों को
मारा!
तुमने
कभी खयाल किया? अपने भीतर
भी निरीक्षण
किया? तुम
अपने बच्चे को
कहते हो, चुप
हो जाओ। वह
चुप नहीं होता,
तुम उसको डांटते-डपटते
हो, मारते
हो। और तुम
कहते यही हो
कि तेरे हित के
लिए मार रहे
हैं। तुझे
शिष्टाचार
सिखा रहे हैं।
लेकिन तुमने
भीतर गौर किया?
वस्तुतः
तुम
शिष्टाचार
सिखाना चाहते
हो या तुम्हारी
आज्ञा नहीं
मानी गई इसलिए
तुम नाराज हो?
आदमी
अच्छी बातों
की आड़ में
अपनी बुरी
बातों को
छिपाता है।
अच्छे लिबास
में, साधु-संतों
के लिबास में
भी गुंडे
निकलते हैं।
साधु लिबास
में भी डाकू
निकलते हैं।
और यह सबने
किया है। थोड़ी
साफ आंख हो तो
तुम देख लोगे,
कि कारण कुछ
और था, वजह
कुछ और थी, बहाना
तुमने कुछ और
खोजा। बहाना
कुछ अच्छा खोजा,
जिसकी आड़
में बुराई चल
सके।
"धर्म
और दया से
शून्यता, दुष्टता,
समझाने से
भी नहीं मानना,
ये कृष्ण
लेश्या के
लक्षण हैं।'
तुम
अपनी दया में
भी विचार करना
और अपने धर्म में
भी विचार
करना। तुम
मंदिर भी जा
सकते हो। जाने
का कारण मंदिर
जाना बिलकुल न
हो, कुछ और हो
सकता है।
ऐसा
हुआ, लंदन के
एक चर्च में
इंग्लैंड की
रानी आने को थी।
तो सैकड़ों
फोन आए पादरी
के पास। सुबह
से ही फोनों
का आना शुरू
हो गया कि
हमने सुना है
रानी आ रही
है। कब पहुंचेगी?
हम भी आना
चाहते हैं। जो
कभी चर्च न आए
थे...। उस पादरी
को बड़ी हंसी
आयी। उसने फोन
पर सभी को एक बात
कही कि रानी
आएगी कि नहीं
पक्का नहीं।
क्या भरोसा!
राजा-रानियों
का क्या
भरोसा। लेकिन
अगर तुम आना
चाहते हो तो
स्वागत है। एक
बात पक्की है,
परमात्मा
रहेगा। रानी
आए या न आए। पर
लोगों ने कहा,
ठीक है, परमात्मा
तो ठीक है, मगर
रानी अगर आ
रही हो तो
ठीक-ठीक कह
दें, तो हम
आ जाएं। कब आ
रही है?
रानी
आयी तो चर्च
भरा था; खचाखच
भरा था। बाहर
तक भीड़ थी।
रानी ने पादरी
को कहा कि
तुम्हारे
चर्च में काफी
भीड़ है। लोग
बड़े धार्मिक
मालूम होते
हैं इस हिस्से
के। उस पादरी
ने कहा, पहली
दफा यह मुझको
भी दिखाई पड़
रही है भीड़।
इसके पहले तो
ये कभी दिखाई
नहीं पड़े थे।
अपनी-अपनी
बाइबिल लिए बैठे
हैं, बड़े भावमुग्ध।
मगर यह भावमुग्धता,
यह हाथ में
बाइबिल, सब
झूठी है।
प्रयोजन कुछ
और है।
तुम
मंदिर जाओ तो
खयाल रखना, किसलिए गए। तुम कभी
दया भी करो तो
खयाल रखना कि किसलिए
की। अपने भीतर
खोज जारी
रखना। रास्ते
पर भिखमंगा
हाथ फैलाकर
खड़ा हो जाता
है, तुम दो
पैसे डाल देते
हो। दया से
डाले, जरूरी
नहीं है। शायद
इसलिए डाले
हों कि और लोग
देख रहे थे।
दो पैसा डालकर
दानी बनने
जैसी सस्ती
बात और क्या
हो सकती है? शायद कहीं
भिखारी फजीहत
खड़ी न कर दे, ज्यादा
शोरगुल न मचा
दे। कहीं
लोगों को यह
पता न चल जाए
कि तुम दो
पैसे भी न दे
सके। हद्द
कंजूस हो! तो
दे दिए। या
छुटकारा पाने
के लिए दे दिए,
कि झंझट
मिटे। अपने
भीतर देखना।
तुम्हारी दया
के भीतर भी
जरूरी नहीं कि
दया हो।
तुम्हारी प्रार्थना
के भीतर भी
जरूरी नहीं कि
प्रार्थना
हो। और जो
भीतर नहीं है
उसके बाहर
होने से कुछ
अर्थ नहीं है।
इसलिए
महावीर कहते
हैं, "धर्म और
दया से
शून्यता।'
दिखावा
हो सकता है
लेकिन भीतर सब
सूनापन होगा।
"दुष्टता,
समझाने से
भी नहीं
मानना...।'
तुमने
कई दफे खयाल
किया? किसी
से तुम विवाद
में पड़ जाते
हो, तुम्हें
दिखाई भी पड़ने
लगता है कि
दूसरा ठीक है,
फिर भी
अहंकार मानने
नहीं देता। और
तुम
चीखते-चिल्लाते
हो कि अंधेरे
के बाहर कैसे
आएं? और
तुम रोते-गिड़गिड़ाते
हो कि हे
प्रभु! अंधेरे
से प्रकाश की
तरफ ले चल। असत
से सत की तरफ
ले चल। मृत्यु
से अमृत की
तरफ ले चल।
लेकिन तुम
इसके लिए
रास्ता तो
बनाते नहीं। कितनी
बार नहीं
विवाद में
केवल अहंकार
ही कारण होता
है! अन्यथा
तुम्हें दिखाई
पड़ना
शुरू हो जाता
है दूसरा ठीक
है, मान
लो। लेकिन
कैसे मान लो? पराजय
स्वीकार नहीं
होती।
जब दो
व्यक्ति लड़ते
हैं, विवाद
करते हैं तो
जरूरी नहीं है
कि यह सत्य के
लिए विवाद हो
रहा हो। यह
विवाद होता है
मेरे सत्य के
लिए। और जहां
मेरा
महत्वपूर्ण
है, वहां
सत्य तो होता
ही नहीं। हम
कहते हैं, मैं
कैसे गलत हो
सकता हूं? इसको
हम तरकीब से, पीछे के
दरवाजे से
सिद्ध करना
चाहते हैं कि
जो भी हम कहते
हैं वह ठीक
है।
मैंने
सुना है चार
मेंढक, वर्षा
में बाढ़-आयी
एक नदी पर
डूबने को थे।
एक लक्कड़
बहता आ गया, वे उस पर
सवार हो गए।
बड़े प्रसन्न
हुए। लक्कड़
बहने लगा। बाढ़
थी तेज, नदी
भागी जा रही
है सागर की
तरफ। पहले
मेंढक ने कहा,
यह लक्कड़
संसार का
श्रेष्ठतम लक्कड़ है।
देखो तो कितना
जीवंत और
गतिवान! कैसा
बहा जाता है। लक्कड़ तो
बहुत देखे, मगर ऐसा
प्राणवान लक्कड़
कभी नहीं
देखा। न कभी
हुआ, न कभी
होगा। दूसरे
ने कहा, लक्कड़ नहीं बह रहा
है महानुभाव!
नदी बह रही
है। विवाद छिड़
गया। दूसरे ने
कहा, लक्कड़ तो और लक्कड़ों
जैसा ही है।
कुछ
विशिष्टता
इसमें नहीं
है। जरा गौर
से तो देखो।
बह रही है
नदी। नदी के
बहने के कारण लक्कड़ भी
बह रहा है।
तीसरे
ने कहा, न लक्कड़
बहता, न
नदी; विवाद
फिजूल है। तुम
दोनों अंधे
हो। तुम आधा-आधा
देख रहे हो।
तुम अधूरा देख
रहे हो। आंखें
साफ चाहिए तो
असली बात
तुम्हें समझ
में आ जाए--जैसा
कि सभी धर्मशास्त्रों
ने कही है--कि
सब प्रवाह तो
मनुष्य के मन
में हैं। सब
गति मन की है।
सब दौड़-धूप मन
की है। ऐसा
मैं देखता हूं
कि न तो नदी का
सवाल है, न लक्कड़ का, यह मन में बह
रही विचारों
की धारा है, जिससे जीवन
में परिवर्तन
दिखाई पड़ता
है। मन ठहर
जाए, सब
ठहर जाता है।
शास्त्रों
में खोजो तो
तुम्हें पता
चलेगा।
विवाद
चलने लगा। कोई
निर्णय तो
करीब आता
दिखाई न पड़ा।
आखिर तीनों को
खयाल आया कि
चौथा चुप बैठा
है। चौथा
मेंढक चुप
बैठा था। कुछ
बोला ही नहीं
था। सबकी सुन
रहा था, गुन
रहा था, लेकिन
बोला कुछ भी
नहीं था। उन
तीनों ने कहा
कि अब कुछ
निर्णय तो
होता नहीं।
निर्णय होने
का उपाय भी
नहीं।
इसलिए
तो संसार में
विवाद सदियों
से चलते रहे
हैं, सनातन
चलते रहे हैं।
कुछ निर्णय
नहीं होता। नास्तिक-आस्तिक
के बीच क्या
निर्णय हुआ? जैन-हिंदू
के बीच क्या
निर्णय हुआ? मुसलमान-ईसाई
के बीच क्या
निर्णय हुआ? निर्णय तो
कभी होते ही
नहीं।
तो उन
तीनों ने कहा
कि आप चुप हैं।
आप कुछ कहें।
उस चौथे मेंढक
ने कहा, विवाद
का कोई अर्थ
नहीं है
क्योंकि तुम
तीनों ही ठीक
हो। नदी भी बह
रही है, लक्कड़ भी बह रहा, मन की गति तो
सारी दुनिया
को पता है।
तीनों ही ठीक
हो और तीनों
ही गलत भी।
क्योंकि तुम
छोटे-से सत्य
को बहुत बड़ा
करके कह रहे
हो। तुम खंड
सत्य को अखंड
करने की
चेष्टा कर रहे
हो। अंश सत्य
को सिद्ध कर
रहे हो कि वही
पूरा सत्य है।
महावीर
जैसा रहा होगा
यह मेंढक--स्यातवादी।
उसने कहा, तुम तीनों
ही ठीक हो।
साधु-चरित्र
रहा होगा यह
मेंढक। श्वेत
लेश्या को
उपलब्ध रहा
होगा यह मेंढक।
उसने कहा तुम
तीनों ही ठीक
हो और तीनों
गलत भी। गलत
इसलिए कि तुम
अंश को पूरा
सिद्ध कर रहे
हो। और सही
इसलिए कि
तुम्हारी
तीनों की
बातों में
सत्य की कोई झलक
है।
तीनों
बहुत नाराज हो
गए। यह बात तो
तीनों के बर्दाश्त
के बाहर हो
गई। क्योंकि
उनमें से कोई भी
यह मानने को
राजी नहीं था
कि उसका
वक्तव्य
पूर्ण सत्य
नहीं है। और न
ही उनमें से
कोई यह बात
मानने को राजी
था कि उसके विराधी
के वक्तव्य
में भी सत्य
का अंश हो
सकता है।
और तब
एक चमत्कारों
का चमत्कार
घटित हुआ। मेंढकों
में शायद ऐसा
न होता रहा हो, मनुष्य में
सदा होता रहा
है। लेकिन उस
दिन मेंढकों
में भी हुआ।
वे तीनों
इकट्ठे हो गए
और चौथे को
धक्का देकर लक्कड़ से
बाढ़ में गिरा
दिया।
उन्होंने कहा,
बड़े आए साधु
बने! बड़े
ज्ञानी होने
का दावा कर रहे
हैं। वे तीनों
इकट्ठे हो गए।
उन्होंने अपना
विवाद छुड़ा
दिया, छोड़
दिया विवाद
क्योंकि यह उन
तीनों को ही
दुश्मन मालूम
पड़ा। और एक
बात में वे
राजी हो गए कि
यह तो कम से कम
गलत है; बाकी
निर्णय हम
पीछे कर
लेंगे।
यही
अवस्था
महावीर के साथ
हुई। और सारे
दर्शनों के
दावे हैं, महावीर का
कोई दावा नहीं
है। इसलिए
महावीर किसी
को भी रुचे
नहीं। महावीर
ने कहा, वेदांत
भी ठीक है, सांख्य
भी ठीक है, वैशेषिक
भी ठीक है, मीमांसा
भी ठीक है, लेकिन
सभी अंश सत्य
हैं। यह बात
किसी को जंची नहीं।
इसलिए एक बहुत
महत्वपूर्ण
विचार-दर्शन
महावीर ने
दिया, लेकिन
अनुयायी वे
ज्यादा न खोज
पाए। क्योंकि सभी
नाराज हो गए।
वेदांती भी
नाराज हुआ।
उसने कहा, अंश
सत्य? हमारा
और अंश सत्य? सांख्य भी
नाराज हुआ कि
हमारा और अंश
सत्य? अहंकार
को बड़ी चोटें
लगीं।
महावीर
जैसा अंधेरे
में फेंक दिया
और कोई व्यक्तित्व
इतिहास में
खोजना
मुश्किल है।
महावीर के
विरोध में सभी
इकट्ठे हो गए।
यह बहुत चमत्कार
की बात है।
जैन
शास्त्रों के
खिलाफ भारत के
सभी शास्त्र
हैं। वे सभी
उनका खंडन
करते हैं।
क्योंकि यह जो
बात है, यह
बात किसी के
अहंकार को
टिकने नहीं
देती। आदमी
कहता है या तो
मैं पूरा सत्य
हूं, या
पूरा गलत हूं।
और पूरा गलत
देखें कौन
सिद्ध करता
है! मेरे रहते
कोई सिद्ध न
कर पाएगा। और
जब तक तुम ही
देखने को राजी
न हो, सत्य
तो दिखाया
नहीं जा सकता।
इसलिए तुम
विवाद में पड़े
रह सकते हो।
महावीर
कहते हैं, समझने से भी,
समझाने से
भी न मानना, दिखाई भी
पड़ने लगे तो
झुठलाना, आंख
को भी झुठलाना,
अंतर्दृष्टि
खुलने लगे तो
भी पत्थर
अटकाना, कृष्ण
लेश्या को
मजबूत करने के
उपाय हैं। ठीक
इनके विपरीत
चलो, कृष्ण
लेश्या अपने
आप उखड़ जाती
है। जड़ें टूट
जाती हैं।
पर्दा गिर
जाता है।
शिखरों
से ऊपर उठने
देती न हाय
लघुता आपी
मिट्टी
पर झुकने देता
है देव, नहीं
अभिमान हमें
तो
न तो हम
शिखरों के साथ
एक होने का
दावा कर पाते
हैं।
शिखरों
से ऊपर उठने
देती न हाय
लघुता आपी
आदमी
की सीमा है।
आदमी लघु है, अंश है।
विराट का बड़ा
छोटा-सा आणविक
कण है।
शिखरों
से ऊपर उठने
देती न हाय
लघुता आपी
और
अड़चन दूसरी है
और भी, और भी
बड़ी--
मिट्टी
पर झुकने देता
है देव, नहीं
अभिमान हमें
और
अहंकार दे
दिया है, झुक
भी नहीं सकते।
उठ भी नहीं
सकते क्योंकि
सीमा है। झुक
भी नहीं सकते
क्योंकि
अहंकार है। इन
दोनों के
बिबूचन में जो
पड़ा है, जो
जीवन के
सीधे-सीधे
सत्य को
स्वीकार नहीं
करता कि
अहंकार का
दावा गलत है।
आत्मा का दावा
सही है, अहंकार
का दावा गलत
है।
फर्क
क्या है दावों
में? अहंकार
यह कह रहा है
कि मैं पृथक
और अपने बल से सर्वशक्तिमान
हूं। आत्मा यह
कहती है
साथ-साथ, सबके
संग, सबके
साथ एक इस
विराट की मैं
भी एक छोटी
तरंग हूं। अगर
मुझमें कोई
शक्ति है तो
वह विराट की है।
अगर मुझमें
कोई निर्बलता
है, वह
मेरी है। अगर
भूल-चूक है, मेरी है।
अगर कुछ सत्य
है तो विराट
का है। अगर रोशनी
है तो
परमात्मा की
है। अगर
अंधेरा है तो मेरा
है। ऐसा जिसने
समझा, उसका
कृष्ण लेश्या
का पर्दा टिक
नहीं सकता, अपने आप गिर
जाता है। उसके
आधार न रहे, सहारे न
रहे।
"मंदता,
बुद्धिहीनता,
अज्ञान और
विषय लोलुपता,
ये संक्षेप
में नील
लेश्या के
लक्षण हैं।'
फिर
कृष्ण लेश्या
के पीछे छिपा
हुआ नीला पर्दा
है। अंधेरे के
पार गहरी
नीलिमा का
पर्दा है।
"मंदता,
बुद्धिहीनता,
अज्ञान और
विषय
लोलुपता...।'
कुछ न
कुछ हम मांग
ही रहे
हैं--लोलुप।
हम बिना मांगे
क्षणभर
को नहीं हैं।
हम बिना मांगे
रहते ही नहीं
हैं। हमारा
मांगना चलता
है दिन-रात, अहर्निश। हम
भिखमंगे
हैं। हम एक
क्षण को भी
अपने सम्राट
होने में थिर
नहीं होते।
तुमने
कभी देखा? कभी भी क्षणभर
को अगर मांग
बंद हो जाए तो
एक अपूर्व
उल्लास आ जाता
है। उस घड़ी
में तुम याचक
नहीं होते। उस
घड़ी में समाधि
के करीब सरकने
लगते हो। जैसे
ही मांग आयी
कि फिर याचक
हुए, फिर
छोटे हुए। या
तुमने यह देखा
कि जब भी तुम किसी
से कुछ मांगते
हो तो भीतर
कुछ सिकुड़
जाता है? जब
तुम किसी को
कुछ देते हो, भीतर कुछ
फैल जाता है? देने का मजा,
मांगने की
पीड़ा तुम्हें
अनुभव नहीं
हुई? किसी
से कुछ मांगकर
देखो। तुम उस
मांगने के
खयाल से ही
छोटे होने लगते
हो, संकीर्ण
होने लगते हो।
तुम्हारी
सीमा सिकुड़ने
लगती है। तुम
बंद होने लगते
हो। भय पकड़ने
लगता है। देगा,
नहीं देगा?
मिलेगा, नहीं
मिलेगा? अगर
मिला भी तो भी
मांगने में
तुम छोटे और
दीन तो हो ही
गए।
इसलिए
एक और बहुत
आश्चर्यजनक
घटना है कि
जिससे भी
तुम्हें कुछ
मिलता है, उसे तुम कभी
क्षमा नहीं कर
पाते।
धन्यवाद तो दूर,
तुम किसी से
मांगने गए कि
दस रुपये
चाहिए अगर वह
दे दे तो तुम
उसे कभी क्षमा
नहीं कर पाते।
भीतर गहरे में
तुम नाराज
रहते हो। उस
आदमी ने तुम्हें
छोटा कर दिया।
उसने हाथ ऊपर
कर लिया, तुम्हारा
हाथ नीचे हो
गया।
इसलिए
सूफी कहते हैं, नेकी कर और
कुएं में डाल।
अच्छा करना
लेकिन उसकी
घोषणा मत होने
देना। उसको
जल्दी से कुएं
में डाल देना,
नहीं तो
तुम्हें कोई
क्षमा न कर
सकेगा। क्योंकि
जिसके साथ तुम
अच्छा करोगे,
वहीं
साथ-साथ एक
घटना और घट
रही है कि
तुमने उसे
छोटा कर दिया।
और कोई क्षमा
नहीं करता
किसी को छोटा
करने के कारण।
सहायता
करना, लेकिन
इस तरह करना
कि जिसकी तुम
सहायता करो, उसे पता भी न
चले कि सहायता
की गई। इस तरह
करना कि उसे
लगे कि
देनेवाला वही
है, लेनेवाले
तुम हो। इस
तरह देना कि
देनेवाले को
देनेवाले की
अकड़ न पकड़े
और लेनेवाले
को पता ही न
चले कि किसी
ने उसे दिया
है।
पश्चिम
का एक बहुत
बड़ा धनपति मारगन
जब मरा, तो
मरने के पहले
उसे किसी ने
पूछा कि तुमने
इतनी अटूट
धनराशि
इकट्ठी की है
और तुम्हारे
नीचे हजारों
बड़ी प्रतिभा
के और
बुद्धिमान
लोग काम करते
थे। तुमने
इतने-इतने बुद्धिमानों
का कैसे उपयोग
किया? उसने
कहा, राज
छोटा-सा है।
मैंने कभी
उन्हें ऐसा
अनुभव नहीं
होने दिया कि
मैं उन पर कोई
अहसान कर रहा
हूं। और मैंने
कभी ऐसा भी
अनुभव नहीं
होने दिया कि
वे मेरी बात
मानकर कोई काम
कर रहे हैं।
मेरी सदा यह
चेष्टा रही कि
उनको सदा यह
लगता रहे कि
वे ही मुझ पर
अहसान कर रहे
हैं और उनकी
बातें मानकर
मैं चल रहा
हूं।
वह
आदमी बड़ा कुशल
था। उसको अगर
कोई काम भी
करवाना होता
तो अपने बीस
मित्रों को
इकट्ठा कर लेता।
उनसे कहता कि
यह समस्या आ
गई है, अब हल
खोजना है। खुद
चुपचाप बैठा
रहता। अब बीस
आदमी जहां
इकट्ठे हों, बीस हल आते।
उनमें से जो
हल उसका अपना
होता, वह
उसको स्वीकार
कर लेता।
लेकिन अपनी
तरफ से वह कभी
न कहता कि यह, यह मेरा
सुझाव है। वह
चुप बैठा
रहता। वह
सुझाव को आने
देता। ठीक समय
की प्रतीक्षा करता।
कोई न कोई उस
सुझाव को देगा
ही। या अगर ठीक
सुझाव न आता, कुछ हेर-फेर
से आता, तो
वह थोड़ी तरमीम
करता, वह
थोड़े संशोधन
पेश करता, लेकिन
वह भी सुझाव
की तरह; आज्ञा
की तरह नहीं।
उसने बड़े-बड़े
लोगों से काम
लिया।
मरते
वक्त वह कहकर
गया कि मेरी
कब्र पर एक
पत्थर लगा
देना कि यहां
एक आदमी सोता
है, जिसने
अपने से
ज्यादा
बुद्धिमान
लोगों से काम
लेने की
कुशलता
दिखाई। उसने
कहा कि मेरे
सारे इतने
विराट धन को
इकट्ठा कर
लेने का राज
इतना है कि
मैंने कभी
किसी को अनुभव
नहीं होने दिया
कि वह मुझसे
छोटा है।
यह जो
नील लेश्या से
भरा हुआ आदमी
है, याचक
होता है--विषय
लोलुपता। वह
कुछ न कुछ मांगता
ही रहता है।
उसकी लोलुपता
उसके पर्दे को
मजबूत करती
है।
"अज्ञान,
बुद्धिहीनता,
मंदता...।'
मंदता:
मिडियोक्रिटी, बड़े लोगों
के ऊपर छाती
पर पत्थर की
तरह बैठी है।
कोई भी मंद
होने को पैदा
नहीं हुआ है।
परमात्मा तो
असाधारण और
अद्वितीय
चेतनाएं ही
पैदा करता है।
अगर मंद हो तो
तुम अपने कारण
हो। मंद हो तो
तुमने अपने को
निखारा नहीं।
मंद हो तो तुम
ऐसे हीरे हो
जिसको साफ
नहीं किया गया
है; जिस पर
पालिश नहीं
किया गया। अनगढ़
पड़े हो। और
कोई और तो तुम
पर निखार ला
नहीं सकता, तुम्हीं ला
सकते हो। तो
जो तुम हो
उससे तृप्त मत
हो जाना।
अब
खयाल रखना, लोग अतृप्त
हैं, उससे
जो उनके पास
है; अपने
से तो लोग
बिलकुल तृप्त
हैं। उनको बड़ी
कार चाहिए, यह अतृप्ति
है, बड़ा
मकान चाहिए, यह अतृप्ति
है। तिजोड़ी
में और धन
चाहिए, यह
अतृप्ति है; लेकिन अपने
से तृप्त हैं
कि जो हैं, वह
बिलकुल ठीक
हैं। तो मंद
ही रहेंगे।
अपने
से अतृप्त
होना, और जो
मिला है उससे
तृप्त होना।
छोटा
मकान भी काम
दे देगा। कार
न हुई तो भी चल
जाएगा। तिजोड़ी
में बहुत न धन
हुआ तो भी
पर्याप्त है।
वस्तुओं से
तृप्त होना और
चैतन्य से
तृप्त मत होना; नहीं तो तुम
मंद रह जाओगे।
चैतन्य को तो
घिसते ही
रहना। उसको
किसी भी क्षण
ऐसा मत सोचना
कि आखिरी घड़ी
आ गई। उसमें
और निखार आ
सकते हैं। उसमें
बड़े अनंत
निखार छिपे
हैं। उसमें
इतने निखार
छिपे हैं कि
तुम्हारा
चैतन्य एक दिन
सच्चिदानंद
परमात्मा हो
सकता है।
मगर
बड़ी चमत्कार
की बात है।
लोग अपने से
बिलकुल तृप्त हैं।
इतने ज्यादा
तृप्त हैं कि
अगर तुम कहो
भी उनसे तो वे
कहेंगे, क्या
कह रहे हैं? मुझमें और
परिष्कार! मैं
तो परिष्कृत
हूं ही, अगर
कुछ अड़चन है
तो थोड़ी चीजें
कम हैं, वे
बढ़ जाएं।
लेकिन चीजें
बढ़ने से
तुम्हारा चैतन्य
बढ़ेगा? तुम
अगर बुद्धू हो
तो गरीब होकर
बुद्धू रहोगे,
अमीर होकर
बुद्धू
रहोगे। तुम
अगर बुद्धू हो
तो लंगोटी
लगाकर बुद्धू
रहोगे, सिंहासन
पर बैठकर
बुद्धू
रहोगे।
बुद्धिमान
आदमी वस्तुओं
में शक्ति
व्यय नहीं
करता।
बुद्धिमान
आदमी सारी
शक्ति चैतन्य
की जागृति में
लगाता है।
महावीर
कहते हैं, "मंदता, बुद्धिहीनता,
अज्ञान।'
कोई
अज्ञानी होने
को पैदा नहीं
हुआ है, लेकिन
अधिकतर लोग
अज्ञानी जीते
हैं, अज्ञानी
मरते हैं।
उसका कारण है
कि कोई यह स्वीकार
ही नहीं करता
कि मैं
अज्ञानी हूं।
लोग तो मानकर
चलते हैं कि
वे ज्ञानी
हैं। जब तुम
पहले से मान
ही लिए कि तुम
ज्ञानी हो तो
तुमने अज्ञानी
होने की कसम
खा ली। अब तुम
कभी ज्ञानी न
हो सकोगे। सीलबंद!
अब तुम
अज्ञानी ही
रहोगे। तुमने
प्रण कर लिया
कि हमको
अज्ञानी ही
रहना है।
ज्ञान
की तरफ जिसे
जाना है, उसे
स्वीकार करना
पड़ेगा कि अभी
मैं अज्ञानी हूं
और इस अज्ञान
को आत्यंतिक
मानने का कोई
कारण नहीं है;
इसमें
निखार हो सकते
हैं। जैसे
बीमार आदमी इलाज
करता है तो
स्वस्थ हो
जाता है।
दुर्बल आदमी
व्यायाम करता
है तो
शक्तिशाली हो
जाता है। ऐसे
ही अज्ञान
किसी की
स्थिति नहीं
है। तुमने अभ्यास
नहीं किया, तुमने श्रम
नहीं किया
ज्ञान के लिए।
तुम क्षुद्र
बातों की
छीना-झपटी में
लगे रहे और
विराट से
चूकते रहे।
और मजा
यह है कि
विराट के लिए
कोई छीना-झपटी
नहीं करनी थी।
कोई
प्रतियोगिता
ही नहीं है
वहां। तुम
अकेले हो।
तुम्हें अगर
अपनी बुद्धि
पर निखार लाने
हैं, अगर
तुम्हें अपनी
बुद्धि में
हीरे जड़ने
हैं तो कोई झगड़ा
नहीं है, कोई
से झगड़ा
नहीं है।
क्योंकि यहां
किसी को मतलब
ही नहीं है
बुद्धि से।
तुम्हें अगर
प्रतिभा को
जगाना है तो
कोई से
तुम्हारा कोई झगड़ा नहीं,
कोई
स्पर्धा नहीं
है, किसी
को लेना-देना
नहीं है।
लेकिन अगर
तुम्हें तिजोड़ी
बड़ी करनी है
तो करोड़ों लोग
स्पर्धी हैं।
मैंने
सुना, मुल्ला
नसरुद्दीन
एक रात गए
अपने घर लौटा।
और आते ही
उसने अपनी पत्नी
के हाथों में
सोने का एक
कटोरा रख
दिया। पत्नी
उसकी यह भेंट
देखकर
प्रसन्न भी
हुई और आश्चर्यचकित
भी। क्योंकि
मुल्ला कुछ
काम तो करता
नहीं। सोने का
कटोरा ले कहां
से आया है? थोड़ी
डरी भी। कटोरा
लाने के विषय
में जब पत्नी
ने उससे
प्रश्न किया
जो वह बोला, इसे मैंने
एक दौड़ में
जीता है। दौड़
में? पत्नी
को और भी
आश्चर्य हुआ
क्योंकि
मुल्ला और
दौड़े! बैठ जाए
तो उठता
मुश्किल से है,
उठ जाए तो
चलता मुश्किल
से है...दौड़े! लेट
जाए तो बैठता
मुश्किल से, दौड़े! दौड़
में? पत्नी
को और भी
आश्चर्य हुआ।
कैसी दौड़? मुल्ला
ने कहा, अजी,
अभी-अभी एक
दौड़ हुई
जिसमें पहले
नंबर पर मैं रहा,
दूसरे नंबर
पर एक सिपाही
और तीसरे नंबर
पर वह, जिसका
यह कटोरा है।
छीना-झपटी
है। वस्तुओं
के जगत में तो
बड़ी छीना-झपटी
है। तुम अपने
कटोरे पर गौर
करना, वह
बहुत हाथों
में रह चुका
है। तुम्हारा
कटोरा
तुम्हारा
नहीं है। तुम
नहीं थे, तब
भी था। तुम
नहीं रहोगे, तब भी होगा।
तुम्हारा
कटोरा बड़ा
झूठा है। न मालूम
कितने लोगों
के हाथों में
रह चुका है।
छीना-झपटी चल
रही है। कटोरा
हाथ बदलता
रहता है। एक
हाथ से दूसरे
हाथ, दूसरे
से तीसरे हाथ;
हाथवाले आते हैं, चले
जाते हैं, कटोरा
चलता रहता है।
यह कटोरे की
यात्रा है।
एक
तुम्हारे
भीतर की चेतना
है, जो
कुंआरी है, जूठी नहीं। उसे
जगाओ। उससे ही
तृप्ति
मिलेगी। ये कटोरों
को जितनी देर
तुम सम्हाले
रहोगे...और
जैसा तुमने
दूसरों से छीन
लिया है, कोई
न कोई तुमसे
छीन ले जाएगा।
यह ज्यादा देर
तुम्हारे हाथ
में भी
रहनेवाला
नहीं है। यह
कटोरे की आदत
नहीं है। यह
संभव भी नहीं
है, क्योंकि
यहां इतने लोग
छीनने के लिए
उत्सुक हैं।
यहां तो सिर्फ
एक चीज
तुम्हारे हाथ
में रह जाती
है, वह
तुम्हारे
चैतन्य की बात
है। उसे कोई
नहीं छीनता।
उसे कोई छीनना
भी चाहे तो
छीन नहीं सकता।
उसे मौत भी
नहीं छीन
सकती।
महावीर
जब कहते हैं
अज्ञान, तो
उनका अर्थ है,
जो व्यक्ति
ऐसी चीजों को
जुटाने में
लगा है जिन्हें
मौत छीन लेगी,
वह अज्ञानी
है। जो व्यक्ति
ऐसी चीज की
खोज में लगा
है, जिसे
मृत्यु भी न
छीनेगी, वही
ज्ञानी है, वही
बुद्धिमान
है। जो सार को
खोज रहा, वही
बुद्धिमान
है। जो स्वयं
को खोज रहा, वही
बुद्धिमान
है।
"जल्दी
जो रुष्ट हो
जाता है, दूसरों
की निंदा करता
है, दोष
लगाता है, अति
शोकाकुल होता
है, अत्यंत
भयभीत होता है,
ये कापोत
लेश्या के
लक्षण हैं।'
तीसरा:
जल्दी रुष्ट
हो जाना, दूसरों
की निंदा करना,
दोष लगाना,
अति
शोकाकुल होना,
अत्यंत
भयभीत होना।
भयभीत
हम सभी
हैं--अकारण।
क्योंकि जो
होना है, होगा।
उससे भय का
कोई अर्थ
नहीं। जैसे
मौत होनी है, होगी। उससे भय
क्या? निश्चित
है। होगी ही।
भयभीत होओ या
न होओ, होगी
ही। देह
जराजीर्ण
होनी है, होगी।
बुढ़ापा
आना है, आएगा
ही। उससे
भयभीत क्या
होना है, जो
होना ही है? लेकिन हम
बड़े भयभीत
हैं।
हम
जीवन के
तथ्यों से
भयभीत हैं। हम
जीवन के तथ्यों
को झुठलाना
चाहते हैं। हम
चाहते हैं सब
बूढ़े हुए, हम न हों। सब मरें, हम
न मरें, जीवन हमारे
लिए अपवाद कर
दे। तो हम कंप
रहे हैं। और
हम जानते भी
हैं गहरे में
कि यह होनेवाला
नहीं है।
अपवाद कभी कोई
हुआ नहीं
इसलिए डर भी
लगा है। पैर
जमाकर खड़े हैं,
जानते हुए
कि पैर उखड़ेंगे।
इस भय
के कारण हम
क्या-क्या कर
रहे हैं, थोड़ा
सोचो। इस भय
के कारण हम धन
इकट्ठा करते हैं
कि शायद धन से
थोड़ा बल आ
जाए। इस भय के
कारण हम
प्रतिष्ठा
इकट्ठी करते
हैं कि शायद
नाम-धाम लोक
में ख्यात हो
जाए तो कुछ
सहारा मिल
जाए। भय के
कारण हम पूजा
करते हैं, प्रार्थना
करते हैं। इस
भय से हम
भगवान को
निर्मित करते
हैं। सोचते
हैं, शायद
किसी का सहारा
नहीं, अदृश्य
का सहारा मिल
जाए। मगर जो
आदमी भय से भगवान
के पास जा रहा
है, वह जा
ही न सकेगा।
महावीर
ने कहा, अभय
पहला चरण है।
अभय का अर्थ
हुआ, जो
नहीं
होनेवाला है,
वह नहीं
होगा; उसका
तो भय करना
क्या? जो
होनेवाला है,
वह होगा; उसका भय
करना क्या?
सुकरात
मरता था; तो
उसके एक शिष्य
ने पूछा कि आप
भयभीत नहीं मालूम
होते। जहर घोंटा
जा रहा है, जल्दी
ही प्याला
भरकर आपके पास
आ जाएगा। छह
बजे आपको
प्याला पी
लेना है। आप
मरने को तत्पर
बैठे हैं। आप
भयभीत नहीं
मालूम होते।
सुकरात ने
क्या कहा? सुकरात
ने कहा, मैंने
सोचा कि या तो
प्याला पीकर
मैं मर ही जाऊंगा,
कुछ बचेगा
ही नहीं, तो
भय क्या? भय
करने को ही
कोई न बचेगा।
और या, दूसरी
संभावना है कि
जैसा लोग कहते
हैं, आत्मा
अमर है। जहर
का प्याला
पीकर शरीर ही
हटेगा, आत्मा
बचेगी; तो
फिर भय क्या? बचूंगा ही।
सुकरात
कह रहा है, दो ही तो
विकल्प हैं कि
या तो बिलकुल
मिट जाऊंगा।
मिट जाऊंगा
तो क्या भय? भयभीत होने
के लिए कोई
कारण ही नहीं।
कोई भय करनेवाला
ही नहीं। बात
ही समाप्त हो
गई। कहानी का
ही अंत हो
गया। तो मैं
निश्चिंत
हूं। और अगर
बच गया--जैसा
आत्मज्ञानी
कहते हैं--तो
भय की क्या
जरूरत?
या तो
नास्तिक सही
होंगे, या
आस्तिक सही
होंगे।
नास्तिक सही
हैं तो भी निर्भय,
आस्तिक सही
हैं तो भी
निर्भय।
इसको
ही मैं कहता
हूं परम
आस्तिकता। इस
आदमी ने देख
ली बात। इस
आदमी को विवेक
उपलब्ध हुआ। इस
आदमी के पास
दृष्टि है, अंतर्दृष्टि
है, आंख
है।
तुम
जरा जीवन में
देखना। तुम
कहते हो कि कल
दिवाला न निकल
जाए, इससे
भयभीत हो रहे
हैं। या तो
निकलेगा, या
नहीं
निकलेगा।
निकल गया तो
क्या करना है?
झंझट मिटी।
निकल ही गया।
नहीं निकला तो
परेशान क्यों
हो रहे हो?
महावीर
कहते हैं, जो होगा, होगा;
तुम नाहक कंपे जा
रहे हो।
तुम्हारे
कंपने से होने
में तो कोई
फर्क पड़ता
नहीं। तो कम
से कम कंपन तो छोड़ो।
भय
तीसरी लेश्या
है अधर्म की।
इसलिए भय से
जो भगवान की
पूजा करते हैं, वे धर्म में
प्रविष्ट
नहीं होते। वे
अभी अधर्म की
सीमा में ही
हैं। चौथी
लेश्या से
धर्म शुरू
होता है।
ये जो
भयभीत लोग हैं, ये जल्दी
रुष्ट हो जाते
हैं। भयभीत
आदमी शांत रह
ही नहीं सकता।
उसके भीतर ही
कंपन जारी है।
वह रुष्ट होने
को तत्पर है।
वह छोटी-छोटी
बातों से दुखी
होता है। बड़ी
क्षुद्र
बातों से दुखी
होता है।
तुमने
कभी सोचा, कैसी छोटी-छोटी
बातें
तुम्हें दुखी
कर जाती हैं!
अति क्षुद्र
बातें। तुम
सोचो तो खुद
ही हंसोगे।
पत्नी को चाय
लाने में पांच
मिनट देरी हो
गई कि बस तुम
रुष्ट हो गए।
और ऐसे रुष्ट
हो गए कि शायद
रोष दिनभर
रहे।
लोग
कहते हैं, बिस्तर के
गलत कोने से
उतर गए। गलत
से भी उतर गए
हो तो उतर गए, खतम हुआ।
मगर अब दिनभर...वह
जो बिस्तर के
गलत कोने से
उतर गए हैं, वह दिनभर
पीछा कर रहा
है। किसी आदमी
ने नमस्कार न
किया कि दिनभर
छाया की तरह
कांटा चुभता
रहता है। कोई
आदमी देखकर
हंस दिया, रुष्ट
हो गए।
ऐसे
छुई-मुई, ऐसे
दीन होकर संभव
नहीं है कि
तुम कभी
आत्मवान हो
सको। जरा देखो
भी तो, किन
बातों पर
रुष्ट हो रहे
हो। इन बातों
में कुछ सार
भी है?
अगर
तुम गौर से देखोगे
तो सौ में से
निन्यानबे तो
तुम असार
पाओगे, जिनमें
रुष्ट होने का
कोई कारण नहीं
है। और एक जो
तुम सार की
पाओगे, उसके
साथ तुम पाओगे
कि अगर तुम
रुष्ट हो जाओ
तो बिगड़ जाएगी
बात। वह जो
सार की बात है,
अगर रुष्ट न
हुए तो ही
सम्हल पाएगी।
तो जो
व्यर्थ की
बातें हैं
उनके कारण हम
रुष्ट होते
हैं, अपने को बिगाड़ते
हैं। और जो
सार्थक बातें
हैं, रुष्ट
होकर उन बातों
को बिगाड़ लेते
हैं।
क्रोध
में कब कौन
आदमी सम्यक
व्यवहार कर
पाया? रुष्ट
होकर आदमी तो
मदांध हो जाता
है। उस अंधेपन
में कौन ठीक
चल पाया? जितनी
कठिन समस्या
हो सामने, उतनी
ही शांत चित्त
की अवस्था
चाहिए, तो
ही तुम उसे हल
कर पाओगे।
लोग
कहते हैं बड़ी
समस्या में
उलझा हुआ हूं
इसलिए बड़ा
बेचैन हूं।
बेचैन हो तो
समस्या सुलझेगी
कैसे? सुलझाएगा
कौन? यह तो
तुम बड़ा उलटा
कर रहे हो। जब
कोई समस्या न हो
तब बेचैन हो
लेना, कोई
हर्जा नहीं।
जब समस्या हो
तब तो बड़े चैन
में हो जाओ।
तब तो बड़े
शांत हो जाओ
क्योंकि हल तुम्हें
करना है। शांत
हृदय से हल आ
सकेगा।
"दोष
लगाना, निंदा
करना, अति
शोकाकुल हो
जाना...।'
छोटी-छोटी
चीजों पर--फाउंटेनपेन
ठीक नहीं चल
रहा, खर्र-खर्र
की आवाज कर
रहा है, शोकाकुल
हो गए। अपने
व्यवहार को जांचते
रहो, देखते
रहो।
बोकोजू
झेन फकीर हुआ; वह जब अपने
गुरु के पास
था, छोटा
बच्चा था, उसका
काम था गुरु
का कमरा साफ
करना। कमरा
साफ कर रहा था
कि गुरु के
पास एक बड़ी
बहुमूल्य
मूर्ति थी, बड़ी
बहुमूल्य
मूर्ति थी
बुद्ध की, वह
गिर गई। वह
चकनाचूर हो
गई। वह बहुत
घबड़ाया। गुरु
को उस मूर्ति
से बड़ा लगाव
है। वह रोज दो
फूल उस मूर्ति
के चरणों में
चढ़ा जाता है।
और सदियों
पुरानी
मूर्ति है।
गुरु के गुरु
के पास थी, और
गुरु के गुरु
के पास थी। और पीढ़ी दर पीढ़ी
वसीयत की तरह
मिली है। यह
क्या हो गया?
वह
घबड़ा ही रहा
था कि तभी
गुरु कमरे में
आ गया। तो
उसने मूर्ति
अपने दोनों
हाथों के पीछे
छिपा ली और
उसने गुरु से
कहा, एक बात
पूछनी है। जब
कोई आदमी मरता
है तो क्यों
मरता है? तो
उसके गुरु ने
कहा, उसका
समय आ गया। तो
उसने कहा कि
यह आपकी मूर्ति
का समय आ गया
था।
गुरु
हंसा और उसने
कहा, जो तू
मुझे समझा रहा
है, अपने
जीवन में याद
रखना।
क्योंकि तेरे
जीवन में बहुत
मूर्तियों का
समय आएगा। जब
टूटे तो याद
रखना, समय
आ गया था।
और
बोकोजू कहता है, वही बात
उसके जीवन को बदलनेवाली
बन गई। जो चीज
टूट गई, उसने
सोचा, समय
आ गया था। जो
साथी छूट गए।
उसने सोचा, समय आ गया
था। जो
प्रियजन चल
बसे, उसने
सोचा, समय
आ गया था। कोई
नाराज हो गया
तो उसने समझा,
समय आ गया
था। बोकोजू ने
कहा कि यह बात
मेरे लिए
सूत्र बन गई।
यह अहर्निश
मेरे मन में
रहने लगा कि
वही होता है, जिसका समय आ
गया था।
धीरे-धीरे-धीरे
कोई भी चीज
फिर शोकाकुल न
करती।
"...अति
शोकाकुल होना,
अत्यंत
भयभीत होना, ये कापोत
लेश्या के
लक्षण हैं।'
हिंदू
शास्त्रों
में वचन है: "साहसे
श्री वसति।' साहस में
श्री बसती है,
श्रेय बसता,
श्रेयस बसता--अभय
में।
जीवन
को साहस से
पकड़ो। ये
कंपते हुए हाथ
बंद करो। ये
हाथ व्यर्थ
कंप रहे हैं।
इन हाथों के कंपने
के कारण तुम
जीवन पर पकड़
ही नहीं उठा
पाते। तुम
जीवन को
सम्हाल ही
नहीं पाते।
तुम्हारे भय
के कारण ही यह
चेतना की लौ
कंपती जाती
है। ये झकोरे
तुम्हारे भय
से आते हैं, किसी और पवन
से नहीं।
और जब
तक तुम इन तीन
पर्दों के पार
न हो जाओ तब तक
तुम्हें
सुकून, शांति
का कोई अनुभव
न होगा।
सुकून-ए-दिल
जहाने-बेस-ओ-कम
में ढूंढने
वाले
यहां
हर चीज मिलती
है
सुकून-ए-दिल
नहीं मिलता
यहां
हृदय की शांति
नहीं
मिलती--इस
संसार में। और
यह जो संसार
तुम जानते हो, इन तीन
पर्दों में
निर्मित है:
कृष्ण लेश्या,
नील लेश्या
और कापोत
लेश्या। इनके
पार धर्म का
जगत शुरू होता
है।
"त्याग,
कार्य-अकार्य
का ज्ञान, श्रेय-अश्रेय
का विवेक, सबके
प्रति समभाव,
दया, दान
में
प्रवृत्ति, ये पीत या
तेजो लेश्या
के लक्षण हैं।'
"कार्य-अकार्य
का ज्ञान'--क्या
करने योग्य है,
क्या करने
योग्य नहीं
है। जो भी
करते हो सोचकर
करो, विचारकर करो। जो न
करने से चल
जाए उसे करो
मत। जिसके किए
चल ही न सके, उसी को करो।
संरक्षित करो
अपनी ऊर्जा को,
व्यर्थ मत
गंवाओ। इस
ऊर्जा से हीरे
खरीदे जा सकते
हैं, तुम कंकड़-पत्थरों
पर गंवा रहे
हो।
"कार्य-अकार्य
का ज्ञान'--क्या
है करने योग्य? जिससे
आनंद बढ़े वह
करने योग्य
है। जिससे
सत्य की
प्रतीति बढ़े
वह करने योग्य
है। जिससे
अंधेरा बढ़े, दुख बढ़े, असत्य
बढ़े, वह
करने योग्य
नहीं है।
तो सोचो।
सोचकर, सम्हलकर
चलो। थोड़ी
सावधानी, थोड़े
सावचेत बनो।
चौबीस घंटे
में तुम इतनी
बातें कर रहे
हो कि अगर तुम
गौर से देखोगे
तो पाओगे, उनमें
से नब्बे
प्रतिशत तो
करने योग्य ही
नहीं हैं।
कितनी
बातें तुम
लोगों से कहते
हो, न कहते तो
क्या हर्ज था?
और उन कहने
के कारण कितनी
झंझटों में पड़
जाते हो।
इंगलैंड
के बड़े विचारक
एच. जी. वेल्स
ने अपनी आत्मकथा
में लिखा है
कि अगर लोग
चुप रहें तो
दुनिया में से
निन्यानबे
प्रतिशत झगड़े
समाप्त हो
जाएं। बोलने
से झगड़े खड़े
होते हैं।
बोले कि फंसे।
कुछ कहा कि
उलझे। चुप रह
जाओ। टेलिग्राफिक
होना चाहिए
आदमी को। जैसे
तार करने गए
हैं दफ्तर में
पोस्ट आफिस के, एक-एक पैसे
के दाम हैं; एक-एक
पंक्ति के, एक-एक शब्द
के दाम हैं।
तो आदमी
सोच-सोचकर निकालता
है कि दस शब्द
में काम चल
जाए।
उतना
ही बोलो, जितना
बोलने से काम
चल जाए। उतना
ही चलो, जितना
चलने से काम चल
जाए। उतने ही
संबंध बनाओ, जितनों से
काम चल जाए।
तो तुम
धीरे-धीरे
पाओगे, जीवन
में एक संयम
अवतरित होने
लगा।
"कार्य-अकार्य
का ज्ञान, श्रेय-अश्रेय
का विवेक, सबके
प्रति समभाव,
दया, दान
में
प्रवृत्ति, ये तेजो
लेश्या के
लक्षण हैं।'
छीनने-झपटने की
प्रवृत्ति, विषय-लोलुपता
संसार को
बनाती है।
देने की
वृत्ति, दान
की, बांटने
की वृत्ति
धर्म को
निर्माण करती
है। लोभ अगर
संसार की जड़
है तो दान
धर्म की।
जैसे
ही तुम देते
हो, कई
घटनाएं घटती
हैं। एक: देने
के कारण
वस्तुओं पर
तुम्हारा मोह
क्षीण होता
है। दो: देने
के कारण
तुम्हारा
प्रेम विकसित
होता है। तीन:
देने के कारण
दूसरा
व्यक्ति
मूल्यवान
बनता है।
छोटी-सी भी
चीज किसी को
दे दो, उस
क्षण में
तुमने दूसरे
को मूल्य
दिया।
इसलिए
तो भेंट का
इतना मूल्य
है। चाहे कोई
चार पैसे का
रूमाल ही किसी
को दे जाए, पैसे का कोई
सवाल नहीं है।
लेकिन जब कोई
किसी को कुछ
चीज भेंट में
दे आता है तो
उसका मूल्य
स्वीकार कर
रहा है कि तुम
मेरे लिए मूल्यवान
हो। कि मैं
तुम्हारे लिए
कुछ देने को
उत्सुक और
तत्पर हूं। कि
तुम्हें कुछ
देकर मैं आनंदित
होता हूं।
जो
व्यक्ति
दूसरों से
लेकर ही
आनंदित होता
है, वह केवल
सुख ही जानता
है, आनंद
नहीं जानता।
और सब सुख के
पीछे दुख छिपा
है। क्योंकि
जब तुम दूसरों
से छीनते हो, तुम दूसरों
को छीनने के
लिए निमंत्रण
दे रहे हो।
तुम शत्रुता
खड़ी करते हो, जब तुम
छीनते हो। जब
तुम देते हो, तब तुम
मित्रता खड़ी
करते हो। देने
में आनंद है, और आनंद के
पीछे कोई दुख
नहीं है।
महावीर
कहते हैं, समभाव।
चीजों को एक
ही दृष्टि से
देखना। अगर गौर
से देखो तो
गुलाब का फूल
भी मिट्टी है।
चंपा का फूल
भी, चमेली
का फूल भी, आदमी
की देह भी, आकाश
में खड़े हुए
ये वृक्ष भी, हिमालय के
शिखर भी, सभी
मिट्टी के खेल
हैं। सभी एक
ही ऊर्जा के
खिलौने हैं।
अगर तुम
धीरे-धीरे
देखना शुरू
करो तो तुम
पाओगे, सारा
जीवन एक की ही
अनेक-अनेक
रूपों में
अभिव्यक्ति
है। एक की
अभिव्यक्ति--तो
समता पैदा होती
है।
जानता
हूं राह पर दो
दिन रहेंगे
फूल
आज
ही तक सिर्फ
है यह वायु भी
अनुकूल
रात
भर ही के लिए
है आंख में सपना
आंजनी कल
ही पड़ेगी
लोचनों में
धूल
इसलिए
हर फूल को
गलहार करता
हूं
धूल
का भी इसलिए
सत्कार करता
हूं
फूल और
धूल में फर्क
क्या है? जो
फूल है, कल
धूल था। जो
फूल है, कल
फिर धूल हो
जाएगा। जो अभी
धूल है, कल
फूल पर नाचेगी,
सुगंध
बनेगी, रंग-रूप
बनेगी। धूल और
फूल में फर्क
क्या है? मित्र
और शत्रु में
फर्क क्या है?
जो मित्र था
वह शत्रु हो
जाता है। जो
शत्रु था, वह
मित्र हो जाता
है। जीवन और
मृत्यु में
फर्क क्या है?
जीवन
मृत्यु बनता
रहता है, मृत्यु
नए जीवन का
रूप धरती रहती
है। रोज दिन रात
बनता है, रात
दिन बनती है; फिर भी तुम
देखते नहीं।
जानता
हूं राह पर दो
दिन रहेंगे
फूल
आज
ही तक सिर्फ
है यह वायु भी
अनुकूल
रात
भर ही के लिए
है आंख में
सपना
आंजनी कल
ही पड़ेगी
लोचनों में
धूल
इसलिए
हर फूल को
गलहार करता
हूं
धूल
का भी इसलिए
सत्कार करता
हूं
तब
एक समभाव पैदा
होता है।
तब
न कोई अपना है, न पराया है।
तब को न
मित्र है, न शत्रु है।
तब न किसी से
सुख है, न
दुख है। तब सब
सम है। और
जैसे-जैसे
बाहर समभाव
पैदा होता है,
भीतर समता
पैदा होती है।
असली मूल्य तो
समता का है, सम्यकत्व का है, समाधि
का है।
ये सभी
एक ही धातु से
बने हैं--सम। सम्यकत्व
हो, समाधि हो,
संबोधि हो,
समता हो, समभाव हो, समत्व हो, सब एक
ही धातु से
बने हैं--सम।
सम पैदा हो
जाए। चीजों के
भेद
महत्वपूर्ण न
रह जाएं, चीजों
का अभेद दिखाई
पड़ने लगे। रूप
महत्वपूर्ण न
रह जाएं, रूप
के भीतर छिपा
अरूप पहचान
में आने लगे।
सोने
के हजारों
गहने रखे हैं, गहना दिखाई
पड़े तो भूल हो
रही है। सब
गहनों के भीतर
सोना दिखाई
पड़ने लगे तो
तुम ठीक दिशा
पर लगने लगे।
"कार्य-अकार्य
का ज्ञान, श्रेय-अश्रेय
का विवेक, सबके
प्रति समभाव,
दया, दान
में
प्रवृत्ति, ये पीत या
तेजो लेश्या
के लक्षण हैं।'
दिल
तो सबको मेरी
सरकार से मिल
जाते हैं
दर्द
जब तक न मिले
दिल नहीं होने
पाते
और जब
तक तुम्हारे
मन में दया का
दर्द न उठे, तब तक
तुम्हारे पास
दिल है नहीं। धड़कने को
दिल मत समझ
लेना, जब
तक कि दूसरे
के दर्द में न धड़के। जब
तक सिर्फ धड़कता
है, तब तक
सिर्फ फेफड़ा
है, फुफ्फस है, जब
दूसरे के लिए धड़कने लगे,
करुणा और
प्रेम से धड़कने
लगे, तभी
दिल है।
"त्यागशीलता,
परिणामों
में भद्रता, व्यवहार में
प्रामाणिकता,
कार्य में
ऋजुता, अपराधियों
के प्रति
क्षमाशीलता, साधु-गुरुजनों
की सेवापूजा
में तत्परता,
ये पद्म
लेश्या के
लक्षण हैं।'
"त्यागशीलता'--छोड़ने की
क्षमता। पकड़ने
की आदत तो सभी
की है। धन्यभागी
हैं वे, जो
छोड़ने की
क्षमता रखते
हैं। जो छोड़ने
की क्षमता
रखते हैं, वे
ही मालिक हैं।
जब तक तुम कोई
चीज छोड़ नहीं
सकते, तुम
उसके मालिक
नहीं। जब तक
तुम सिर्फ पकड़
सकते हो, तब
तक तुम गुलाम
हो।
यह
विरोधाभासी
लगेगा। लेकिन
यह परम सत्यों
में एक है कि
जब तुम किसी चीज
का त्याग कर
देते हो, उसी
दिन तुम उसके
मालिक हुए। जब
तक त्याग करने
की क्षमता न
थी, तब तक
गुलाम थे।
"त्यागशीलता,
परिणामों
में भद्रता...।'
बाहर
से हजार
घटनाएं घट रही
हैं। कोई गाली
दे जाता है, कोई सम्मान
कर जाता है; कोई सफलता
का संदेश ले
आता है, कोई
विफलता का; लेकिन तुम
भीतर भद्र रह
सको।
तुम्हारी
भद्रता अकलुषित
रहे।
तुम्हारी
समता को कोई
डिगा न पाए।
तुम्हारे
भीतर परिणाम
तुम्हारी
मालकियत में
रहें।
तुम्हारा कोई
मालिक न हो
सके। तो
विफलता को सफलता
को एक-सा देख
लेना। सुख का
सुसमाचार आए
कि दुख की खबर
आए, एक-सा
देख लेना।
तुम्हारा
परिणाम अभद्र
न हो पाए।
तुम्हारे
परिणाम में
जरा भी डांवांडोलपन
न हो।
"व्यवहार
में
प्रामाणिकता...।'
और तुम
जो भी करो, वही करो, जो
तुम करना
चाहते थे।
तुम्हारा
भीतर और बाहर एक
जैसा हो।
तुम्हारे
चेहरे पर नकाब
न हो।
तुम्हारे
चेहरे पर
मुखौटे न हों।
तुम सीधे-साफ,
नग्न; तुम
जैसे हो वैसे
ही; चाहे
कोई भी परिणाम
हो, तुम
अपने को छिपाओ
न।
प्रामाणिकता
बड़ा बहुमूल्य
शब्द है।
जिसको पश्चिम
के
अस्तित्ववादी
आथेन्टीसिटी
कहते हैं, वही महावीर
की
प्रामाणिकता
है।
हम तो
अक्सर...अक्सर
चौबीस घंटे
में तेईस घंटे
अप्रामाणिक
होते हैं। एक
घंटा हम
प्रामाणिक
होते हैं, जब हम गहरी
नींद में होते
हैं; उसका
कोई मतलब
नहीं। अन्यथा
हम कुछ कहते, कुछ सोचते, कुछ बतलाते।
गिरगिट की तरह
हमारा रंग
बदलता। हम
जैसा मौका
देखते, तत्क्षण
वैसा रंग धर
लेते।
अवसरवादिता
प्रामाणिकता
के विपरीत है।
हमारा अपना
कोई स्वर नहीं, कोई आत्मा
नहीं। जैसा
दूसरा आदमी हम
देखते, वैसा
ही हम व्यवहार
कर लेते हैं।
हम समय के अनुसार
चलते, आत्मा
के अनुसार
नहीं।
प्रामाणिकता
का अर्थ है:
हमारे भीतर
अपना बल पैदा
हुआ। अब हम
अपने बल से
जीते हैं।
कष्ट झेलना
पड़े तो झेल
लेते हैं, लेकिन सत्य
को नहीं खोते।
"सत्यं
वद। धर्मं
चर।' हिंदू
शास्त्र कहते
हैं, सत्य
बोले और धर्म
में चले। जैसा
हो वैसा कहे।
परिणाम की
चिंता छोड़ दे।
परिणाम का
हिसाब न रखे।
निष्कपट छोटे
बच्चे जैसा हो
जाए। बाहर और भीतर
के बीच कोई
द्वंद्व न
रहे। एक धारा
बहे।
उस एक
धारा के बहने
में ही योग
उपलब्ध होता
है। उस एक
धारा के बहने
में ही तुम
पहली दफा
खंड-खंड नहीं
रह जाते, अखंड
बनते हो।
तुम्हारे
सारे खंड एक महासंगीत
में सम्मिलित
होते हैं।
तुम्हारे
सारे स्वर एक-दूसरे
के विपरीत
नहीं रह जाते;
उन सबके बीच
एक संगति, एक
संगीत का जन्म
होता है।
"कार्य
में ऋजुता...।'
सरलता, सीधापन। कुछ
लोग एढ़े-टेढ़े
चलते हैं।
उनको जाना हो
पश्चिम तो
पहले पूरब की
तरफ जाते हैं।
उनको आना हो
घर तो पहले
बाजार की तरफ
जाते हैं। कुछ
लोग
इरछे-तिरछे
चलते हैं।
उनकी इरछा-तिरछा
चलना आदत हो
गई है।
तुम भी
बहुत बार यही
करते हो। किसी
से चार पैसे
उधार लेने हैं
तो तुम सीधे
नहीं मांग
लेते। तुम
पहले कुछ और
चालें चलते
हो। पहले तुम
भूमिका बनाते
हो, फिर
भूमिका के
पीछे से तुम
धीरे-धीरे जाल
फैलाते हो।
फिर आखिर में
चार पैसे
मांगते हो।
सीधा-सीधा...महावीर
कहते हैं, व्यवहार में,
कार्य में
ऋजुता! सीधी
रेखा। दो
बिंदुओं के बीच
जो सबसे
निकटतम की
दूरी है, वह
है सीधी रेखा।
ऐसे आड़े-तिरछे
चलकर बड़ी लंबी
यात्रा होती
है। और उस यात्रा
में बड़ी ऊर्जा
व्यय होती है।
"अपराधियों
के प्रति
क्षमाशीलता...।'
क्योंकि
जो भी अपराधी
है, ध्यान
रखना, वह
भी मनुष्य
है--तुम्हारे
जैसा; तुम्हारी
ही कमियों और
सीमाओं से भरा
हुआ। तो जिस
व्यक्ति ने
अपने को
पहचाना है, वह दूसरे को
क्षमा करने को
सदा तत्पर
होगा। क्योंकि
वह देखेगा, दूसरे में
जो हो रहा है, वह मुझमें
हो चुका है।
दूसरे में जो
हो रहा है, वह
मुझमें भी हो
सकता है।
ठीक-ठीक अपने
को जाननेवाला
व्यक्ति सारे
मनुष्यों को
जान लिया।
वह चोर
को भी क्षमा
कर सकेगा
क्योंकि वह
जानता है, चोर अपने
भीतर भी छिपा
है। वह क्रोधी
को भी क्षमा
कर सकता है
क्योंकि वह
जानता है, क्रोध
अपने भीतर भी
कहां मिट गया
है?
और
जैसे-जैसे तुम
अपराधी को
क्षमा करने
लगते हो, तुम्हारी
अपराध की
क्षमता कम
होने लगती है।
अगर तुम
अपराधी को
क्षमा नहीं
करते तो
तुम्हारी
अपराध की
क्षमता कम
नहीं होगी।
क्योंकि अपराधी
को क्षमा न
करना एक ही
हालत में संभव
है कि तुम्हें
यह खयाल ही
नहीं है कि तुम्हारे
भीतर भी ऐसा
ही अपराधी पड़ा
है। तुम्हारा
अपराधी
अंधेरे में हो
तो ही तुम
अपराधी को
क्षमा नहीं
करते। और जो
अंधेरे में है
उसे तुम मिटा
न सकोगे।
जिसने अपनी
शक्ल ठीक से
देखी, उसने
सारे जगत की
शक्लें ठीक से
देख लीं। अब वह
नाराज नहीं
है। अब वह समझ
सकता है।
"साधु
गुरुजनों
की सेवा...।'
और
जहां भी
तुम्हें
दिखाई पड़े कोई
भलाई, कोई
भला पुरुष, कोई जाग्रत
पुरुष, कहीं
जरा-सी भी झलक
दिखाई पड़े तो
महावीर कहते हैं,
जो व्यक्ति
अपनी
अंतरात्मा की
खोज में चल
रहा है, वह
वहां सेवा
करने को तत्पर
होगा।
क्योंकि उस सत्संग
से ही आखिरी
घटना घटेगी।
उस सत्संग से
ही तुम्हारे
भीतर, भीतर
जाने की समझ
जगेगी।
जो जाग
गए हैं, उनके
पास बैठकर
उनके जागने को
पकड़ना
सीखना चाहिए।
जो जाग गए हों,
उनकी सेवा
करके
विनम्रता से
प्रतीक्षा
करनी चाहिए उस
अवसर की, जहां
उनकी ऊर्जा और
तुम्हारी
ऊर्जा में कोई
तालमेल बैठ
जाएगा। जहां
उनकी लहर के
साथ गठबंधन
बांधकर तुम भी
अंतर्यात्रा
पर निकल
जाओगे। जो तुमसे
आगे हों, उनका
हाथ पकड़ लेने
की चेष्टा
करनी चाहिए।
और गुरुजनों
का हाथ पकड़ना
हो तो एक ही
उपाय है; उसको
महावीर
सेवा-पूजा
कहते हैं।
अब यह
बड़ी विचार की
जरूरत है इस
संबंध में, क्योंकि
ईसाइयत के
प्रभाव के बाद
सेवा का अर्थ
ही बदल गया।
जब जैन साधु
के पास जाता
है तो उससे
पूछो कहां जा
रहा है? वह
कहता है, साधु
की सेवा करने।
ईसाइयत के
प्रभाव के बाद
सेवा का अर्थ
हो गया है: कोढ़ी
की सेवा, बीमार
की सेवा, मलेरिया
है, प्लेग
है, हैजा
फैला है, तो
सेवा। ईसाइयत
ने सेवा का
बड़ा साधारण
अर्थ लिया है।
जिसकी कहीं
कोई पीड़ा है, जिसको हम
दया कहते हैं,
उसको
ईसाइयत सेवा
कहते हैं। दया
में तुम उसकी तरफ
जाते हो, जो
तुमसे पीछे
है।
महावीर
सेवा कहते हैं
उसकी तरफ जाने
को, जो तुमसे
आगे है; जो
तुमसे ज्यादा स्वस्थतर
है। तुम कोढ?ी हो, वह
स्वस्थ है।
तुम बीमार हो,
वह स्वस्थ
है। तुम सोए
हो, वह
जागा है। तुम
अंधेरे में
पड़े हो, वह
रोशनी में खड़ा
है। सेवा उसकी,
जो हमसे आगे
है। दया उसकी,
जो हमसे
पीछे हो।
क्योंकि सेवा
में पकड़ने
पड़ेंगे चरण।
दया में देना
होगा, जो
हमारे पास है।
और सेवा में
पाने की
तत्परता रखनी
होगी, जो
दूसरा हमें दे
सकता है। सेवा
स्वीकार करने की
दशा है।
अंग्रेजी में
वैसा कोई शब्द
नहीं है।
सर्विस से वह
बात पता नहीं
चलती, सर्विस
से तो दया ही
पता चलती है।
तो तुम
साधारणतः सोच
ही नहीं सकते
कि परम स्वस्थ
आदमी...महावीर
खड़े हैं, उनकी
सेवा के लिए
जा रहे हो, वहां
क्या जरूरत है?
किसी गरीब
की, किसी
बीमार की, किसी
रुग्ण की सेवा
करो। महावीर
को सेवा की क्या
जरूरत है? वे
तो पहुंच गए।
वहां तो अब
कोई रोग नहीं,
कोई पीड़ा
नहीं, कोई
दुख-दारिद्रय
नहीं, उनकी
सेवा के लिए
क्या जा रहे
हो?
लेकिन
जैन परंपरा
में, पूरब की
परंपरा में
सेवा का अर्थ
है: जिसको मिल
गया उसके पास
जाना; उसके
चरण दाबने, उसके सामने
झुकना, उसकी
पूजा करनी।
इसलिए सेवा और
पूजा समानार्थी
हैं। सिर्फ
पूजा भी कही
जा सकती थी, लेकिन पूजा
मंदिर की
मूर्ति की हो
सकती है, सेवा
नहीं हो सकती।
जीवित गुरु की
सेवा और पूजा
दोनों हो सकती
है। वहां सेवा
और पूजा
सम्मिलित है।
इससे
एक बहुत अनूठी
दृष्टि पूरब
की साफ होती है।
पूरब कहता है, दीन और दुखी
पर दया करो, आनंद-अमृत
को उपलब्ध की
सेवा करो। जो
तुम्हें पाना
है, उस तरफ
सेवा से झुके
हुए जाओ। जो
तुम्हें मिल
गया है, वह
दूसरे को दे
दो, दया
करो। दया में
दान है। सेवा
में झोली
फैलाना है।
ये
पद्म लेश्या
के लक्षण हैं।
"पक्षपात
न करना, भोगों
की आकांक्षा न
करना, सबमें
समदर्शी रहना,
राग, द्वेष
तथा प्रणय से
दूर रहना, ये
शुक्ल लेश्या
के लक्षण हैं।'
और
अंतिम लेश्या, शुक्ल
लेश्या।
"पक्षपात
न करना'--सत्य
जैसा हो, वैसा
ही स्वीकार
करना; पूर्व
पक्षपातों के
आधार पर नहीं।
अब मैं
जो यह कह रहा
हूं, महावीर
के सूत्रों का
अर्थ कर रहा
हूं, यहां
जो जैन बैठे
होंगे, वे
कहेंगे, बिलकुल
ठीक है। लेकिन
यह बिलकुल ठीक
तुम्हें दिखाई
पड़ रहा है या
सिर्फ पुराने
पक्षपात के
कारण?
क्योंकि
ये महावीर के
सूत्र हैं और
तुम जैन हो, इसलिए सिर
हिला दिया; तो झूठ हो
गया। यह
तुम्हें
दिखाई पड़े।
सत्य
पक्षपात से
निर्णीत नहीं
होता, दर्शन
से निर्णीत
होता है। किसी
धारणा को लेकर
सत्य के पास
गए कि चूक गए। निर्धारणा
से जाना।
"भोगों
की आकांक्षा न
करना...।'
सांसारिक
विषय लोलुपता
को तो छोड़ आए
बहुत पीछे।
छठवीं स्थिति
में इस आखिरी
पर्दे में भोग
की इच्छा छोड़नी
है। निश्चित
ही महावीर का
प्रयोजन है, स्वर्ग में
भोग की इच्छा,
पुण्य के
द्वारा भोग की
इच्छा।
क्योंकि विषय लोलुपता
को तो बहुत
पीछे छोड़ आए।
वे तो कृष्ण
और नील लेश्याओं
के हिस्से थे।
अब भोग की
लिप्सा न करना।
परलोक में कुछ
मांगना
नहीं।
"सबमें
समदर्शी
रहना...।'
पहले
कहा, समभाव; अब कहा
समदर्शी।
समभाव का अर्थ
है, भावना।
अभी घटना घटी
नहीं है, तुम
चेष्टा कर रहे
हो। तुम
प्रयास कर रहे
हो, साध
रहे हो।
समदर्शी का
अर्थ है: घटना
घट गई। अब
तुम्हें
दिखाई पड़ने
लगा।
समभाव
साधते-साधते
समदर्शी की
अवस्था आती है।
पहले तो
देख-देखकर, चेष्टा
कर-करके साधना
होगा कि सभी
में एक का ही
विस्तार है।
मिट्टी का ही
खेल है धूल और
फूल दोनों में।
मगर ऐसा अभी
तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ता। ऐसा तुमने
सुना गुरुजनों
से। ऐसा तुमने
शास्त्र में
सुना। ऐसा
तुमने सत्संग
में सीखा।
इसकी तुम
चेष्टा करते
हो। जब चेष्टा
करते हो, तब
क्षणभर
को लगता भी है
कि ठीक है, धूल
और फूल एक है।
लेकिन फिर
चेष्टा भूली,
भटके, फिर
फूल, फूल
दिखाई पड़ने
लगता है, धूल
धूल दिखाई
पड़ने लगती है।
चेष्टा करने
से कभी क्षणभर
को झलक मिलती
है, फिर
खो-खो जाती
है।
समदर्शी
का अर्थ है, जो गुरुजनों
ने कहा, वह
अब तुम्हें
स्वयं दिखाई
पड़ता है।
तुम्हारी
दृष्टि पैदा
हो गई।
"राग,
द्वेष तथा
प्रणय से दूर
रहना...।'
न तो
किसी को अपना
मानना, न
किसी को पराया
मानना। न इस
संसार से किसी
तरह का सुख
मिल सकता
है--प्रणय की
आकांक्षा, कि
इस संसार से
किसी भी तरह
का सुख संभव
है, इसकी
संभावना को भी
स्वीकार न
करना।
संभावना मात्र
का गिर जाना।
ये शुक्ल
लेश्या के
लक्षण हैं।
इन
एक-एक पर्दों
को पार करते
चलना है। बहुत
दफा भटकोगे, गिरोगे, फिर
उठ-उठ आना।
एक
तेरे बिना
प्राण ओ प्राण
के
सांस
मेरी सिसकती
रही उम्र भर
भेस
भाए न
जाने तुझे
कौन-सा
इसलिए
रोज कपड़े
बदलता रहा
किस
जगह कब कहां
हाथ तू थाम ले
इसलिए
रोज
गिरता-सम्हलता
रहा
इस
द्वार क्यों न
जाऊं उस द्वार
क्यों न जाऊं
घर
पा गया
तुम्हारा मैं
घर बदल-बदल कर
खोज
जारी रखनी है।
भटकाव होगा, गिरना होगा।
उठ आना, सम्हल
जाना। बहुत
बार वस्त्र
बदलने
पड़ेंगे। लेकिन
धीरे-धीरे, धीरे-धीरे
भीतर के बोध
सजग होते जाते
हैं। और तुम
ठीक उस वस्त्र
में हो जाते
हो, जिस
वस्त्र में उस
प्रीतम से
मिलना हो सकता
है, उस
भीतर के
अंतर्जगत में
प्रवेश हो
सकता है।
वह वेष
तो सत्य का है, ऋजुता का है,
समदर्शन का
है।
सत्यं
वद। धर्मं
चर।
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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