नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति
न चैकान्तमनश्नतः।
न
चाति स्वप्नशीलस्य
जाग्रतो नैव चार्जुन।।
16।।
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य
कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति
दुःखहा।।
17।।
परंतु
हे अर्जुन, यह योग न तो
बहुत खाने
वाले का सिद्ध
होता है और न
बिलकुल न खाने
वाले का तथा न
अति शयन करने
के स्वभाव वाले
का और न
अत्यंत जागने
वाले का ही
सिद्ध होता
है।
यह
दुखों का नाश
करने वाला योग
तो यथायोग्य
आहार और विहार
करने वाले का
तथा कर्मों
में यथायोग्य
चेष्टा करने
वाले का और
यथायोग्य शयन
करने तथा
जागने वाले का
ही सिद्ध होता
है।
समत्व-योग
की और एक दिशा
का विवेचन
कृष्ण करते
हैं। कहते हैं
वे, अति--चाहे
निद्रा में, चाहे भोजन
में, चाहे
जागरण
में--समता
लाने में बाधा
है। किसी भी
बात की अति, व्यक्तित्व
को असंतुलित
कर जाती है, अनबैलेंस्ड कर जाती है।
प्रत्येक
वस्तु का एक
अनुपात है; उस अनुपात
से कम या
ज्यादा हो, तो व्यक्ति
को नुकसान
पहुंचने शुरू
हो जाते हैं। दोत्तीन
बातें खयाल
में ले लेनी
चाहिए।
एक, आधारभूत।
व्यक्ति एक
बहुत जटिल
व्यवस्था है,
बहुत कांप्लेक्स
युनिटी है।
व्यक्ति का
व्यक्तित्व
कितना जटिल है,
इसका हमें
खयाल भी नहीं
होता। इसीलिए
प्रकृति खयाल
भी नहीं देती,
क्योंकि
उतनी जटिलता
को जानकर जीना
कठिन हो जाएगा।
एक
छोटा-सा
व्यक्ति उतना
ही जटिल है, जितना यह
पूरा
ब्रह्मांड।
उसकी जटिलता
में कोई कमी
नहीं है। और
एक लिहाज से
ब्रह्मांड से भी
ज्यादा जटिल
हो जाता है, क्योंकि
विस्तार बहुत
कम है व्यक्ति
का और जटिलता
ब्रह्मांड
जैसी है। एक
साधारण से
शरीर में सात करोड़
जीवाणु हैं।
आप एक बड़ी
बस्ती हैं, जितनी बड़ी
कोई बस्ती
पृथ्वी पर
नहीं है। टोकियो
की आबादी एक करोड़ है।
अगर टोकियो
सात गुना हो
जाए, तो जितने
मनुष्य टोकियो
में होंगे, उतने जीवकोश
एक-एक व्यक्ति
में हैं।
सात करोड़ जीवकोशों
की एक बड़ी
बस्ती हैं आप।
इसीलिए
सांख्य ने, योग ने आपको
जो नाम दिया
है, वह
दिया है, पुरुष।
पुरुष का अर्थ
है, एक
बहुत बड़ी पुरी
के बीच रहते
हैं आप, एक
बहुत बड़े नगर
के बीच। आप खुद
एक बड़े नगर
हैं, एक
बड़ा पुर। उसके
बीच आप जो हैं,
उसको पुरुष
कहा है।
इसीलिए कहा है
पुरुष कि आप
छोटी-मोटी
घटना नहीं हैं;
एक महानगरी
आपके भीतर जी
रही है।
एक
छोटे-से
मस्तिष्क में
कोई तीन अरब
स्नायु तंतु
हैं। एक
छोटा-सा जीवकोश
भी कोई सरल
घटना नहीं है; अति जटिल
घटना है। ये
जो सात करोड़
जीवकोश
शरीर में हैं,
उनमें एक जीवकोश भी
अति कठिन घटना
है। अभी तक
वैज्ञानिक--अभी
तक--उसे समझने
में समर्थ
नहीं थे। अब
जाकर उसकी मौलिक
रचना को समझने
में समर्थ हो
पाए हैं। अब
जाकर पता चला
है कि उस छोटे
से जीवकोश,
जिसके सात करोड़
संबंधियों से
आप निर्मित
होते हैं, उसकी
रासायनिक
प्रक्रिया
क्या है।
यह
सारा का सारा
जो इतना बड़ा
व्यवस्था का
जाल है आपका, इस व्यवस्था
में एक संगीत,
एक
लयबद्धता, एकतानता,
एक हार्मनी
अगर न हो, तो
आप भीतर
प्रवेश न कर
पाएंगे। अगर
यह पूरा का
पूरा आपका जो
पुर है, आपकी
जो महानगरी है
शरीर की, मन
की, अगर यह
अव्यवस्थित, केआटिक,
अराजक है, अगर यह पूरी
की पूरी नगरी
विक्षिप्त है,
तो आप भीतर
प्रवेश न कर
पाएंगे।
आपके
भीतर प्रवेश
के लिए जरूरी
है कि यह पूरा नगर
संगीतबद्ध, लयबद्ध, शांत,
मौन, प्रफुल्लित,
आनंदित हो,
तो आप इसमें
भीतर आसानी से
प्रवेश कर
पाएंगे।
अन्यथा बहुत
छोटी-सी चीज
आपको बाहर
अटका
देगी--बहुत
छोटी-सी चीज। और
अटका देती है
इसलिए भी कि
चेतना का
स्वभाव ही यही
है कि वह आपके
शरीर में कहां
कोई दुर्घटना
हो रही है, उसकी
खबर देती रहे।
तो अगर
आपके शरीर में
कहीं भी कोई
दुर्घटना हो रही
है, तो चेतना
उस दुर्घटना
में उलझी
रहेगी। वह इमरजेंसी,
तात्कालिक
जरूरत है उसकी,
आपातकालीन
जरूरत है कि
सारे शरीर को
भूल जाएगी और
जहां पीड़ा है,
अराजकता है,
लय टूट गई
है, वहां
ध्यान अटक
जाएगा।
छोटा-सा
कांटा पैर में
गड़ गया, तो
सारी चेतना
कांटे की तरफ
दौड़ने लगती
है। छोटा-सा
कांटा! बड़ी
ताकत उसकी
नहीं है, लेकिन
उस छोटे-से
कांटे की बहुत
छोटी-सी नोक भी
आपके भीतर सैकड़ों
जीवकोशों
को पीड़ा में
डाल देती है
और तब चेतना
उस तरफ दौड़ने
लगती है। शरीर
का कोई भी
हिस्सा अगर
जरा-सा भी
रुग्ण है, तो
चेतना का
अंतर्गमन
कठिन हो जाएगा।
चेतना उस
रुग्ण हिस्से
पर अटक जाएगी।
अगर
ठीक से समझें, तो हम ऐसा कह
सकते हैं कि
स्वास्थ्य का
अर्थ ही यही
होता है कि
आपकी चेतना को
शरीर में कहीं
भी अटकने
की जरूरत न
हो।
आपको
सिर का तभी
पता चलता है, जब सिर में
भार हो, पीड़ा
हो, दर्द
हो। अन्यथा
पता नहीं
चलता। आप बिना
सिर के जीते
हैं, जब तक
दर्द न हो।
अगर ठीक से
समझें, तो हेडेक ही
हेड है। उसके
बिना आपको पता
नहीं चलता सिर
का। सिरदर्द
हो, तो ही
पता चलता है।
पेट में तकलीफ
हो, तो पेट
का पता चलता
है। हाथ में
पीड़ा हो, तो
हाथ का पता
चलता है।
अगर
आपका शरीर
पूर्ण स्वस्थ
है, तो आपको
शरीर का पता
नहीं चलता; आप विदेह हो
जाते हैं।
आपको देह का
स्मरण रखने की
जरूरत नहीं रह
जाती। जरूरत
ही स्मरण रखने
की तब पड़ती है,
जब देह किसी
आपातकालीन
व्यवस्था से
गुजर रही हो, तकलीफ में
पड़ी हो, तो
फिर ध्यान
रखना पड़ता है।
और उस समय
सारे शरीर का
ध्यान छोड़कर,
आत्मा का
ध्यान छोड़कर
उस छोटे-से
अंग पर सारी चेतना
दौड़ने लगती है,
जहां पीड़ा
है!
कृष्ण
का यह समत्व-योग
शरीर के संबंध
में यह सूचना
आपको देता है।
अर्जुन को
कृष्ण कहते
हैं कि यदि
ज्यादा आहार
लिया, तो भी
योग में
प्रवेश न हो
सकेगा।
क्योंकि ज्यादा
आहार लेते ही
सारी चेतना
पेट की तरफ दौड़नी
शुरू हो जाती
है।
इसलिए
आपको खयाल
होगा, भोजन
के बाद नींद
मालूम होने
लगती है। नींद
का और कोई
वैज्ञानिक
कारण नहीं है।
नींद का वैज्ञानिक
कारण यही है
कि जैसे ही
आपने भोजन
लिया, चेतना
पेट की तरफ
प्रवाहित हो
जाती है। और
मस्तिष्क
चेतना से खाली
होने लगता है।
इसलिए
मस्तिष्क
धुंधला, निद्रित,
तंद्रा से
भरने लगता है।
ज्यादा भोजन
ले लिया, तो
ज्यादा नींद
मालूम होने
लगेगी, क्योंकि
पेट को इतनी
चेतना की
जरूरत है कि
अब मस्तिष्क
काम नहीं कर
सकता। इसलिए
भोजन के बाद
मस्तिष्क का
कोई काम करना
कठिन है। और
अगर आप
जबर्दस्ती
करें, तो
पेट को पचने
में तकलीफ पड़
जाएगी, क्योंकि
उतनी चेतना
जितनी पचाने
के लिए जरूरी
है, पेट को
उपलब्ध नहीं
होगी।
तो अगर
अति भोजन किया, तो चेतना
पेट की तरफ
जाएगी; और
अगर कम भोजन
किया या भूखे
रहे, तो भी
चेतना पेट की
तरफ जाएगी। दो
स्थितियों
में चेतना पेट
की तरफ दौड़ेगी।
जरूरत से कम
भोजन किया, तो भी भूख की
खबर पेट देता
रहेगा कि और, और; और
जरूरत है। और
अगर ज्यादा ले
लिया, तो
पेट कहेगा, ज्यादा ले
लिया; इतने
की जरूरत न
थी। और पेट
पीड़ा का स्थल
बन जाएगा। और
तब आपकी चेतना
पेट से अटक
जाएगी। गहरे
नहीं जा
सकेगी।
कृष्ण
कहते हैं, भोजन ऐसा कि
न कम, न
ज्यादा।
तो एक
ऐसा बिंदु है
भोजन का, जहां
न कम है, न
ज्यादा है।
जिस दिन आप उस
अनुपात में
भोजन करना सीख
जाएंगे, उस
दिन पेट को
चेतना मांगने
की कोई जरूरत
नहीं पड़ती। उस
दिन चेतना
कहीं भी
यात्रा कर
सकती है।
अगर आप
कम सोए, तो
शरीर का
रोआं-रोआं, अणु-अणु
पुकार करता
रहेगा कि
विश्राम नहीं
मिला, थकान
हो गई है।
शरीर का
अणु-अणु आपसे
पूरे दिन कहता
रहेगा कि सो
जाओ, सो
जाओ; थकान
मालूम होती
हैं; जम्हाई
आती रहेगी।
चेतना आपकी
शरीर के विश्राम
के लिए आतुर
रहेगी।
अगर आप
ज्यादा सोने
की आदत बना
लिए हैं, तो
शरीर जरूरत से
ज्यादा अगर सो
जाए या जरूरत से
ज्यादा उसे
सुला दिया जाए,
तो सुस्त हो
जाएगा; आलस्य
से, प्रमाद
से भर जाएगा।
और चेतना दिनभर
उसके प्रमाद
से पीड़ित
रहेगी। नींद
का भी एक अनुपात
है, गणित
है। और उतनी
ही नींद, जहां
न तो शरीर कहे
कि कम सोए, न
शरीर कहे
ज्यादा सोए, ध्यानी के
लिए सहयोगी
है।
इसलिए
कृष्ण एक बहुत
वैज्ञानिक
तथ्य की बात कर
रहे हैं। सानुपात
व्यक्तित्व
चाहिए, अनुपातहीन
नहीं।
अनुपातहीन
व्यक्तित्व
अराजक, केआटिक हो जाएगा।
उसके भीतर की
जो लयबद्धता
है, वह
विशृंखल हो
जाएगी, टूट
जाएगी। और
टूटी हुई
विशृंखल
स्थिति में, ध्यान में
प्रवेश आसान
नहीं होगा।
आपने अपने ही
हाथ से उपद्रव
पैदा कर लिए
हैं और उन
उपद्रवों के
कारण आप भीतर
न जा सकेंगे।
और हम सब ऐसे उपद्रव
पैदा करते हैं,
अनेक
कारणों से; वे कारण
खयाल में ले
लेने चाहिए।
पहला
तो इसलिए
उपद्रव पैदा
हो जाता है कि
हम इस सत्य को अब
तक भी ठीक से
नहीं समझ पाए
हैं कि अनुपात
प्रत्येक
व्यक्ति के
लिए भिन्न
होगा। इसलिए
हो सकता है कि
पिता की नींद
खुल जाती है
चार बजे, तो
घर के सारे
बच्चों को उठा
दे कि
ब्रह्ममुहूर्त
हो गया, उठो।
नहीं उठते हो,
तो आलसी हो।
लेकिन
पिता को पता
होना चाहिए, उम्र
बढ़ते-बढ़ते
नींद की जरूरत
शरीर के लिए
रोज कम होती
चली जाती है।
तो बाप जब
बहुत ज्ञान दिखला
रहा है बेटे
को, तब उसे
पता नहीं कि
बेटे की और
उसकी उम्र में
कितना फासला
है! बेटे को
ज्यादा नींद
की जरूरत है।
मां के
पेट में बच्चा
नौ महीने तक
चौबीस घंटे
सोता है; जरा
भी नहीं जगता।
क्योंकि शरीर
निर्मित हो रहा
होता है, बच्चे
का जगना
खतरनाक है।
बच्चे को
चौबीस घंटे
निद्रा रहती
है। इतना
प्रकृति भीतर
काम कर रही है
कि बच्चे की
चेतना उसमें
बाधा बन जाएगी;
उसे बिलकुल
बेहोश रखती
है। डाक्टरों
ने तो बहुत
बाद में
आपरेशन करने
के लिए बेहोशी,
अनेस्थेसिया खोजा; प्रकृति
सदा से अनेस्थेसिया
का प्रयोग कर
रही है। जब भी
कोई बड़ा
आपरेशन चल रहा
है, कोई
बड़ी घटना घट
रही है, तब
प्रकृति
बेहोश रखती
है।
चौबीस
घंटे बच्चा
सोया रहता है।
मांस बन रहा है, मज्जा बन रही
है, तंतु
बन रहे हैं।
उसका चेतन
होना बाधा डाल
सकता है। फिर
बच्चा पैदा
होने के बाद
तेईस घंटे सोता
है, बाईस
घंटे सोता है,
बीस घंटे
सोता है, अठारह
घंटे सोता है।
उम्र
जैसे-जैसे बड़ी
होती है, नींद
कम होती चली
जाती है।
इसलिए
बूढ़े कभी
भूलकर बच्चों
को अपनी नींद
से शिक्षा न
दें। अन्यथा
उनको नुकसान पहुंचाएंगे, उनके अनुपात
को तोड़ेंगे।
लेकिन बूढ़ों
को शिक्षा
देने का शौक
होता है।
बुढ़ापे का खास
शौक शिक्षा
देना है, बिना
इस बात की समझ
के।
इसलिए
हम बच्चों के
अनुपात को
पहले से ही बिगाड़ना
शुरू कर देते
हैं। और
अनुपात जब बिगड़ता
है, तो खतरा
क्या है?
अगर
आपने बच्चे को
कम सोने दिया, जबर्दस्ती
उठा लिया, तो
इसकी
प्रतिक्रिया
में वह किसी
दिन ज्यादा सोने
का बदला लेगा।
और तब उसके सब
अनुपात असंतुलित
हो जाएंगे।
अगर आप जीते, तो वह कम
सोने वाला बन
जाएगा। और अगर
खुद जीत गया, तो ज्यादा
सोने वाला बन
जाएगा। लेकिन
अनुपात खो
जाएगा।
अगर
मां-बाप
बलशाली हुए, पुराने
ढांचे और
ढर्रे के हुए,
तो उसकी
नींद को कम
करवा देंगे।
और अगर बच्चा नए
ढंग का, नई पीढ़ी का
हुआ, उपद्रवी
हुआ, बगावती
हुआ, तो
ज्यादा सोना
शुरू कर देगा।
लेकिन एक बात
पक्की है कि
दो में से कोई
भी जीते, प्रकृति
हार जाएगी; और वह जो बीच
का अनुपात है,
वह सदा के
लिए
अस्तव्यस्त
हो जाएगा।
बूढ़े
आदमी को जब
मौत करीब आने
लगती है, तो
तीन-चार घंटे
से ज्यादा की
नींद की कोई
जरूरत नहीं
रहती। उसका
कारण है कि
शरीर में अब
कोई निर्माण
नहीं होता, शरीर अब
निर्मित नहीं होता।
अब शरीर
विसर्जित
होने की
तैयारी कर रहा
है। नींद की
कोई जरूरत
नहीं है। नींद
निर्माणकारी
तत्व है। उसकी
जरूरत तभी तक
है, जब तक
शरीर में कुछ
नया बनता है।
जब शरीर में सब
नया बनना बंद
हो गया, तो
बूढ़े आदमी को
ठीक से कहें
तो नींद नहीं
आती; वह
सिर्फ
विश्राम करता
है; वह
थकान है।
बच्चे ही सोते
हैं ठीक से; बूढ़े तो
सिर्फ थककर
विश्राम करते
हैं। क्योंकि
अब मौत करीब आ
रही है। अब
शरीर को कोई
नया निर्माण
नहीं करना है।
लेकिन
दुनिया के सभी
शिक्षक--स्वभावतः, बूढ़े आदमी
शिक्षक होते
हैं--वे खबरें
दे जाते हैं, चार बजे उठो,
तीन बजे
उठो। कठिनाई
खड़ी होती है।
बूढ़े शिक्षक होते
हैं; बच्चों
को मानकर चलना
पड़ता है।
अनुपात टूट जाते
हैं।
भोजन
के संबंध में
भी वैसा ही
होता है। बचपन
से ही, बच्चों
को कितना भोजन
चाहिए, यह
बच्चे की
प्रकृति को हम
तय नहीं करने
देते। यह मां
अपने आग्रह से
निर्णय लेती
है कि कितना
भोजन। बच्चे
अक्सर इनकार
करते देखे
जाते हैं
घर-घर में कि
नहीं खाना है।
और मां-बाप मोहवश
ज्यादा
खिलाने की
कोशिश में
संलग्न हैं!
और एक बार
प्रकृति ने
संतुलन छोड़
दिया, तो
विपरीत अति पर
जा सकती है, लेकिन
संतुलन पर
लौटना
मुश्किल हो
जाता है।
हम सब
बच्चों की
सोने की, खाने
की सारी आदतें
नष्ट करते
हैं। और फिर जिंदगीभर
परेशान रहते
हैं। वह जिंदगीभर
के लिए
परेशानी हो
जाती है।
इजरायल
में एक
चिकित्सक ने
एक बहुत अनूठा
प्रयोग किया
है। प्रयोग यह
है, हैरान
करने वाला
प्रयोग है।
उसे यह खयाल
पकड़ा बच्चों
का इलाज करते-करते
कि बच्चों की
अधिकतम
बीमारियां
मां-बाप की
भोजन खिलाने
की
आग्रहपूर्ण
वृत्ति से पैदा
होती हैं।
बच्चों का
चिकित्सक है,
तो उसने कुछ
बच्चों पर
प्रयोग करना
शुरू किया। और
सिर्फ भोजन रख
दिया टेबल पर
सब तरह का और बच्चों
को छोड़ दिया।
उन्हें जो
खाना है, वे
खा लें। नहीं
खाना है, न खाएं।
जितना खाना है,
खा लें।
नहीं खाना है,
बिलकुल न खाएं।
फेंकना है, फेंक दें।
खेलना है, खेल
लें। जो करना
है! और विदा हो
जाएं।
वह इस
प्रयोग से एक
अजीब
निष्कर्ष पर
पहुंचा। वह
निष्कर्ष यह
था कि बच्चे
को अगर कोई
खास बीमारी है, तो उस बीमारी
में जो भोजन
नहीं किया जा
सकता, वह
बच्चा छोड़
देगा टेबल पर,
चाहे कितना
ही स्वादिष्ट
उसे बनाया गया
हो। उस बीमारी
में उस बच्चे
को जो भोजन
नहीं करना चाहिए,
वह नहीं ही
करेगा। और एक
बच्चे पर नहीं,
ऐसा सैकड़ों
बच्चों पर
प्रयोग करके
उसने नतीजे
लिए हैं। और
उस बच्चे को
उस समय जिस
भोजन की जरूरत
है, वह
उसको चुन लेगा,
उस टेबल पर।
इसको वह कहता
है, यह इंस्टिंक्टिव
है; यह
बच्चे की
प्रकृति का ही
हिस्सा है।
यह
प्रत्येक पशु
की प्रकृति का
हिस्सा है। सिर्फ
आदमी ने अपनी
प्रकृति को
विकृत किया
हुआ है।
संस्कृति के
नाम पर विकृति
ही हाथ लगती
है। प्रकृति
भी खो जाती
मालूम पड़ती है।
कोई जानवर गलत
भोजन करने को
राजी नहीं होता, जब तक कि
आदमी उसको
मजबूर न कर
दे। जो उसका
भोजन है, वह
वही भोजन करता
है।
और बड़े
मजे की बात है
कि कोई भी
जानवर अगर जरा
ही बीमार हो
जाए, तो भोजन
बंद कर देता
है। बल्कि अधिक
जानवर जैसे ही
बीमार हो जाएं,
भोजन ही बंद
नहीं करते, बल्कि सब
जानवरों की
अपनी
व्यवस्था है,
वॉमिट करने
की। वह जो पेट
में भोजन है, उसे भी बाहर
फेंक देते
हैं। अगर आपके
कुत्ते को जरा
पेट में तकलीफ
मालूम हुई, वह जाकर घास
चबा लेगा और
उल्टी करके
सारे पेट को
खाली कर लेगा।
और तब तक भोजन
न लेगा, जब
तक पेट वापस
सुव्यवस्थित
न हो जाए।
सिर्फ
आदमी एक ऐसा
जानवर है, जो प्रकृति
की कोई आवाज
नहीं सुनता।
लेकिन हम बचपन
से बिगाड़ना
शुरू करते
हैं। इसलिए इस
चिकित्सक का
कहना है कि सब
बच्चे इंस्टिंक्टिवली
जो ठीक है, वही
करते हैं। लेकिन
बड़े उन्हें
बिगाड़ने में
इस बुरी तरह
से लगे रहते
हैं कि जिसका
कोई हिसाब
नहीं है! जब उन्हें
भूख नहीं है, तब उनको मां
दूध पिलाए
जा रही है! जब
उनको भूख लगी
है, तब मां
शृंगार में
लगी है; उनको
दूध नहीं पिला
सकती! सब
अस्तव्यस्त
हो जाता है।
इसलिए
भी हमारा भोजन, हमारी
निद्रा, हमारा
जागरण, हमारे
जीवन की सारी
चर्या अतियों
में डोल जाती
है, समन्वय
को खो देती
है।
दूसरी
बात, प्रत्येक
व्यक्ति की
जरूरत अलग है।
उम्र की ही
नहीं, एक
ही उम्र के दस
बच्चों की
जरूरत भी अलग
है। एक ही
उम्र के दस
वृद्धों की भी
जरूरत अलग है।
एक ही उम्र के
दस युवाओं की
भी जरूरत अलग
है। जो भी नियम
बनाए जाते हैं,
वे एवरेज
पर बनते
हैं--जो भी
नियम बनाए
जाते हैं।
जैसे
कि कहा जाता
है कि हर आदमी
को कम से कम
सात घंटे की
नींद जरूरी
है। लेकिन किस
आदमी को? यह
किसी आदमी के
लिए नहीं कहा
गया है। यह
सारी दुनिया
के आदमियों की
अगर हम संख्या
गिन लें और
सारे आदमियों
के नींद के
घंटे गिनकर
उसमें भाग दे
दें, तो
सात आता है; यह एवरेज
है। एवरेज
से ज्यादा
असत्य कोई चीज
नहीं होती।
जैसे
अहमदाबाद में एवरेज
हाइट क्या है
आदमियों की? ऊंचाई क्या
है औसत? तो
सब आदमियों की
ऊंचाई नाप लें।
उसमें छोटे
बच्चे भी
होंगे, जवान
भी होंगे, बूढ़े
भी होंगे, स्त्रियां
भी होंगी, पुरुष
भी होंगे।
सबकी ऊंचाई नापकर, फिर
सबकी संख्या
का भाग दे
दें। तो जो
ऊंचाई आएगी, उस ऊंचाई का
शायद ही एकाध
आदमी
अहमदाबाद में
खोजने से
मिले--उस
ऊंचाई का! वह
औसत ऊंचाई है।
उस ऊंचाई का
आदमी खोजने आप
मत जाना। वह
नहीं मिलेगा।
सब
नियम औसत से
निर्मित होते
हैं। औसत
कामचलाऊ है, सत्य नहीं
है। किसी को
पांच घंटे
सोना जरूरी है।
किसी को छः
घंटे, किसी
को सात घंटे।
कोई दूसरा
आदमी तय नहीं
कर सकता कि
कितना जरूरी
है। आपको ही
अपना तय करना
पड़ता है।
प्रयोग से ही
तय करना पड़ता
है। और कठिन
नहीं है।
अगर आप
ईमानदारी से
प्रयोग करें, तो आप तय कर
लेंगे, आपको
कितनी नींद
जरूरी है।
जितनी नींद के
बाद आपको पुनः
नींद का खयाल
न आता हो, और
जितनी नींद के
बाद आलस्य न पकड़ता हो, ताजगी आ
जाती हो, वह
बिंदु आपकी
नींद का बिंदु
है।
समय भी
तय नहीं किया
जा सकता कि छः
बजे शाम सो जाएं, कि आठ बजे, कि बारह बजे
रात; कि
सुबह छः बजे उठें, कि
चार बजे, कि
सात बजे! वह भी
तय नहीं किया
जा सकता। वह
भी प्रत्येक
व्यक्ति के
शरीर की
आंतरिक जरूरत
भिन्न है। और
उस भिन्न
जरूरत के
अनुसार
प्रत्येक को
अपना तय करना
चाहिए।
लेकिन
हमारी
व्यवस्था
गड़बड़ है।
हमारी व्यवस्था
ऐसी है कि
सबको एक वक्त
पर भोजन करना
है। सबको एक
वक्त पर दफ्तर
जाना है। सबको
एक समय स्कूल
पहुंचना है।
सबको एक समय
घर लौटना है।
हमारी पूरी की
पूरी
व्यवस्था
व्यक्तियों
को ध्यान में
रखकर नहीं है।
हमारी पूरी
व्यवस्था
नियमों को
ध्यान में रखकर
है। हालांकि
इससे कोई
फायदा नहीं
होता, भयंकर
नुकसान होता
है। और अगर हम
फायदे और नुकसान
का हिसाब
लगाएं, तो
नुकसान भारी
होता है।
अभी
अमेरिका के एक
विचारक बक
मिलर ने एक
बहुत कीमती
सुझाव दिया है
जीवनभर के
विचार और
अनुसंधान के
बाद। और वह यह
है कि सभी
स्कूल एक समय
नहीं खुलने
चाहिए। यह तो
स्कूल में
भर्ती होने
वाले बच्चों
पर निर्भर
करना चाहिए कि
वे कितने बजे
उठते हैं; उस हिसाब से
उनके स्कूल
में भर्ती हो
जाए। कई तरह
के स्कूल गांव
में होने
चाहिए। सभी
होटलों में एक
ही समय, खाने
के समय पर लोग
पहुंच जाएं, यह उचित
नहीं है। सब
लोगों के खाने
का समय उनकी
आंतरिक जरूरत
से तय होना
चाहिए।
और
इससे फायदे भी
बहुत होंगे।
सभी
दफ्तर एक समय
खोलने की कोई
भी तो जरूरत
नहीं है। सभी
दूकानें भी एक
समय खोलने की
कोई जरूरत
नहीं है। इसके
बड़े फायदे तो
ये होंगे कि
अभी हम एक ही
रास्ते पर
ग्यारह बजे
ट्रैफिक जाम
कर देते हैं; वह जाम नहीं
होगा। अभी
जितनी बसों की
जरूरत है, उससे
तीन गुनी कम
बसों की जरूरत
होगी। अभी एक मकान
में एक ही
दफ्तर चलता है
छः घंटे और
बाकी वक्त
पूरा मकान
बेकार पड़ा
रहता है। तब
एक ही मकान में
दिनभर
में चार दफ्तर
चल सकेंगे।
दुनिया की चौगुनी
आबादी इतनी ही
व्यवस्था में
नियोजित हो
सकती है, चौगुनी
आबादी! अभी
जितनी आबादी
है उससे। यही
रास्ता अहमदाबाद
का इससे चार गुने
लोगों को चला
सकता है।
लेकिन
गड़बड़ क्या है? ग्यारह बजे
सभी दफ्तर जा
रहे हैं!
इसलिए रास्ते
पर तकलीफ
मालूम हो रही
है। रास्ता भी
परेशानी में
है और आप भी
परेशानी में
हैं, क्योंकि
ग्यारह बजे
सबको दफ्तर
जाना है, तो
ग्यारह बजे
सबको खाना भी
ले लेना है।
फिर सबको समय
पर उठ भी आना
है। ऐसा लगता
है कि नियम के
लिए आदमी है, आदमी के लिए
नियम नहीं है।
हम एक
बच्चे को कहते
हैं कि उठो, स्कूल जाने
का वक्त हो
गया। स्कूल को
कहना चाहिए कि
बच्चा हमारा
नहीं उठता, यह आने का
वक्त नहीं है।
स्कूल थोड़ी
देर से खोलो!
जिस दिन हम
वैज्ञानिक
चिंतन करेंगे,
यही होगा।
और उससे हानि
नहीं होगी, अनंत गुने
लाभ होंगे।
यह जो
कृष्ण कह रहे
हैं, यह आप
अपने-अपने, एक-एक
व्यक्ति अपने
लिए खोज ले कि
उसके लिए कितनी
नींद आवश्यक
है। और यह भी
रोज बदलता
रहेगा। आज का
खोजा हुआ सदा
काम नहीं
पड़ेगा। पांच
साल बाद बदल
जाएगा, पांच
साल बाद जरूरत
बदल जाएगी।
सारी तकलीफें
पैंतीस साल के
बाद शुरू होती
हैं आदमी के
शरीर
में--बीमारियां, तकलीफें,
परेशानियां।
अगर साधारण
स्वस्थ आदमी
है, तो
पैंतीस साल के
बाद उपद्रव
शुरू होते
हैं। और
उपद्रव का कुल
कारण इतना
है--यह नहीं कि
आप बूढ़े हो
रहे हैं, इसलिए
उपद्रव शुरू
होते
हैं--उपद्रव
का कुल कारण
इतना है कि
आपकी सब आदतें
पैंतीस साल के
पहले के आदमी
की हैं और
उन्हीं आदतों
को आप पैंतीस
साल के बाद भी
जारी रखना
चाहते हैं, जब कि सब
जरूरतें बदल
गई हैं।
आप
उतना ही खाते
हैं, जितना
पैंतीस साल के
पहले खाते थे।
उतना कतई नहीं
खाया जा सकता।
शरीर को उतने
भोजन की जरूरत
नहीं है। उतना
ही सोने की कोशिश
करते हैं, जितना
पैंतीस साल के
पहले सोते थे।
अगर नींद नहीं
आती, तो
परेशान होते
हैं कि मेरी
नींद खराब हो
गई। अनिद्रा आ
रही है। कोई
गड़बड़ हो रही
है। तो ट्रैंक्वेलाइजर
चाहिए, कि
कोई दवाई
चाहिए, कि
थोड़ी शराब पी
लूं, कि
क्या करूं!
लेकिन यह भूल
जाते हैं कि अब
आपकी जरूरत
बदल गई है। अब
आप उतना नहीं
सो सकेंगे।
रोज
जरूरत बदलती
है, इसलिए
रोज सजग होकर
आदमी को तय
करना चाहिए, मेरे लिए
सुखद क्या है।
और
ध्यान रखें, दुख सूचना
देता है कि आप
कुछ गलत कर
रहे हैं। सिर्फ
दुख सूचक है।
और सुख सूचना
देता है कि आप कुछ
ठीक कर रहे हैं।
समायोजित हैं,
संतुलित
हैं, तो
भीतर एक सुख
की भावना बनी
रहती है। यह
सुख बहुत और
तरह का सुख
है। यह वह सुख
नहीं है, जो
ज्यादा भोजन
कर लेने से
मिल जाता है।
ज्यादा भोजन
करने से सिर्फ
दुख मिल सकता
है। यह वह सुख
नहीं है, जो
रात देर तक जागकर
सिनेमा देखने
से मिल जाता
है। ज्यादा जागकर
सिर्फ दुख ही
मिल सकता है।
यह सुख संतुलन
का है।
ठीक
समय पर अपनी
जरूरत के
अनुकूल भोजन; ठीक समय पर
अपनी जरूरत के
अनुकूल
निद्रा; ठीक
समय पर अपनी
जरूरत के
अनुकूल
स्नान। ठीक चर्या,
सम्यक
चर्या से एक
आंतरिक सुख की
भाव-दशा बनती
है।
वह
बहुत अलग बात
है। वह सुख है
बहुत और
अर्थों में।
वह उत्तेजना
की अवस्था
नहीं है। वह
सिर्फ भीतर की
शांति की
अवस्था है। उस
शांति की
अवस्था में
व्यक्ति
ध्यान में
सरलता से
प्रवेश कर
सकता है। और
योग के लिए
अनिवार्य है
वह।
तो
अपनी चर्या की
सब तरफ से
जांच-परख कर
लेनी चाहिए।
किसी नियम के
अनुसार नहीं, अपनी जरूरत
के नियम के
अनुसार। किसी
शास्त्र के
अनुसार नहीं,
अपनी स्वयं
की प्रकृति के
अनुसार। और
दुनिया में
कोई कुछ भी
कहे, उसकी
फिक्र नहीं
करना चाहिए।
एक ही बात की
फिक्र करनी
चाहिए कि आपका
शरीर सुख की
खबर देता है, तो आप ठीक जी
रहे हैं। और
आपका शरीर दुख
की खबर देता
है, तो आप
गलत जी रहे
हैं। ये सुख
और दुख मापदंड
बना लेने
चाहिए।
अति
श्रम कोई कर
ले, तो भी
नुकसान होता
है। श्रम
बिलकुल न करे,
तो भी
नुकसान हो
जाता है। फिर
उम्र के साथ
बदलाहट होती
है। बच्चे को
जितना श्रम
जरूरी है, बूढ़े
को उतना जरूरी
नहीं है।
बुद्धि से जो
काम कर रहा है
और शरीर से जो
काम कर रहा है,
उनकी
जरूरतें बदल
जाएंगी।
बुद्धि से जो
काम कर रहा है,
उसे ज्यादा
भोजन जरूरी
नहीं है। शरीर
से जो काम कर
रहा है, उसे
थोड़ा ज्यादा
भोजन जरूरी
होगा। वह
ज्यादा, जो
बुद्धि से काम
कर रहा है, उसको
मालूम पड़ेगा।
उसके लिए वह
ठीक है।
जो
शरीर से काम
कर रहा है, उसे और किसी
श्रम की अब
जरूरत नहीं है,
कि वह शाम
को जाकर टेनिस
खेले। वह पागल
है। लेकिन जो
बुद्धि से काम
कर रहा है, उसके
लिए शरीर के
किसी श्रम की
जरूरत है। उसे
किसी खेल का, तैरने का, दौड़ने का, कुछ न कुछ
उपाय करना
पड़ेगा।
प्रकृति
संतुलन
मांगती है।
हेनरी
फोर्ड ने अपने
संस्मरण में
लिखवाया है कि
मैं भी एक
पागल हूं।
क्योंकि जब एयरकंडीशनिंग
आई, तो मैंने
अपने सब भवन एयरकंडीशन
कर दिए। कार
भी एयरकंडीशन
हो गई। अपने एयरकंडीशन
भवन से निकलकर
मैं अपनी
पोर्च में
अपनी एयरकंडीशन
कार में बैठ
जाता हूं। फिर
तो बाद में
उसने अपना
पोर्च भी एयरकंडीशन
करवा लिया।
कार निकलेगी,
तब आटोमेटिक
दरवाजा खुल
जाएगा। कार
जाएगी, दरवाजा
बंद हो जाएगा।
फिर इसी तरह
वह अपने एयरकंडीशंड
पोर्च में
दफ्तर के
पहुंच जाएगा।
फिर उतरकर
एयरकंडीशंड
दफ्तर में चला
जाएगा।
फिर
उसको तकलीफ
शुरू हुई। तो
डाक्टरों से
उसने पूछा कि
क्या करें? तो उन्होंने
कहा कि आप रोज
सुबह एक घंटा
और रोज शाम एक
घंटा काफी गरम
पानी के टब
में पड़े रहें।
गरम
पानी के टब
में पड़े रहने
से हेनरी
फोर्ड ने लिखा
है कि मेरा
स्वास्थ्य
बिलकुल ठीक हो
गया। क्योंकि
एक घंटे सुबह
मुझे पसीना-पसीना
हो जाता, शाम
को भी
पसीना-पसीना
हो जाता।
लेकिन तब मुझे
पता चला कि
मैं यह कर
क्या रहा हूं! दिनभर
पसीना बचाता
हूं, तो
फिर दो घंटे
में इंटेंसली
पसीने को
निकालना पड़ता
है, तब
संतुलन हो
पाता है।
प्रकृति
पूरे वक्त
संतुलन मांगेगी।
तो जो लोग
बहुत विश्राम
में हैं, उन्हें
श्रम करना
पड़ेगा। जो लोग
बहुत श्रम में
हैं, उन्हें
विश्राम करना
पड़ेगा। और जो
व्यक्ति भी इस
संतुलन से चूक
जाएगा, ध्यान
तो बहुत दूर
की बात है, वह
जीवन के
साधारण सुख से
भी चूक जाएगा।
ध्यान का आनंद
तो बहुत दूर
है, वह
जीवन के
साधारण जो सुख
मिल सकते हैं,
उनसे भी
वंचित रह
जाएगा।
ध्यान
और योग के
प्रवेश के लिए
एक संतुलित
शरीर, अति
संतुलित शरीर
चाहिए। एक ही
अति माफ की जा सकती
है, संतुलन
की अति, बस।
और कोई
एक्सट्रीम
माफ नहीं की
जा सकती। अति
संतुलित! बस, यह एक शब्द
माफ किया जा
सकता है। बाकी
और कोई अति, कोई
एक्सट्रीम, कोई एक्सेस
माफ नहीं की
जा सकती। अति
मध्य, एक्सट्रीम
मिडिल, माफ
किया जा सकता
है, और कुछ
माफ नहीं किया
जा सकता।
बुद्ध
ऐसा कहते थे।
बुद्ध कहते थे, अति से बचो।
मध्य में चलो।
सदा मध्य में
चलो। हमेशा
मध्य में रहो,
बीच में।
खोज लो हर चीज
का बीच बिंदु,
वहीं रहो।
एक दिन
सारिपुत्र ने
बुद्ध को कहा
कि भगवन! आप इतना
ज्यादा जोर
देते हैं मध्य
पर कि मुझे
लगता है कि यह
भी एक अति हो
गई! हर चीज में
मध्य, मध्य!
यह तो एक अति
हो गई!
बुद्ध
ने कहा, एक
अति माफ करता
हूं। मध्य की
अति, दि एक्सेस
आफ बीइंग इन
दि मिडिल, उसको
माफ करता हूं।
बाकी कोई अति
नहीं चलेगी। एक
अति को चलाए
रहना--मध्य, मध्य, मध्य--सब
चीजों में
मध्य। तो
ध्यान में बड़ी
सुगमता हो
जाए।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं, ध्यान
में बड़ी
कठिनाई है।
ध्यान में बड़ी
कठिनाई नहीं
है। आप उपद्रव
में हैं और
आपके उपद्रव
की सारी की
सारी
व्यवस्था आप
ही कर रहे हैं,
कोई नहीं
करवा रहा है!
जो नहीं खाना
चाहिए, वह
खा रहे हैं! जो
नहीं पहनना
चाहिए, वह
पहन रहे हैं!
जैसे नहीं
बैठना चाहिए,
वैसे बैठ
रहे हैं। जैसे
नहीं चलना
चाहिए, वैसे
चल रहे हैं! जैसे
नहीं सोना
चाहिए, वैसे
सो रहे हैं।
सब
अव्यवस्थित
किया हुआ है। फिर
पूछते हैं एक
दिन कि ध्यान
में कोई गति
नहीं होती है,
बड़ी तकलीफ
होती है। क्या
मेरे पिछले
जन्मों का कोई
कर्म बाधा बन
रहा है? ध्यान
में कोई गति
नहीं होती।
बहुत मेहनत
करता हूं, कुछ
सार हाथ नहीं
आता है।
कभी
नहीं आएगा, क्योंकि
मेहनत करने
वाला इस
स्थिति में
नहीं है कि
भीतर प्रवेश
हो सके। आपको
अपनी पूरी स्थिति
बदल लेनी
पड़ेगी।
ध्यान
एक महान घटना
है, एक बहुत
बड़ी हैपनिंग
है। उसकी पूर्वत्तैयारी
चाहिए। उसकी पूर्वत्तैयारी
के लिए यह
सूत्र बहुत
कीमती है। और
इसीलिए कृष्ण
कोई सीधे, डायरेक्ट
सुझाव नहीं दे
रहे हैं।
सिर्फ नियम बता
रहे हैं। न
अति भोजन, न
अति अल्प
भोजन। न अति
निद्रा, न
अति जागरण। न
अति श्रम, न
अति विश्राम।
कोई सीधा नहीं
कह रहे हैं, कितना। वह
कितना आप पर
छोड़ दिया गया
है। वह अर्जुन
पर छोड़ दिया
गया है। वह
आपकी जरूरत और
आपकी बुद्धि खोजे। और
प्रत्येक
व्यक्ति अपने
जीवन का
नियंता बन
जाए। कोई किसी
दूसरे से
मर्यादा न ले,
नहीं तो
कठिनाई में
पड़ेगा।
जैसे
आमतौर से घरों
में पति पहले
उठ आते हैं। थोड़ा
चाय-वाय बनाकर
तैयार करते
हैं। मगर बड़ा
संकोच अनुभव
करते हैं कि कोई
देख न ले कि
पत्नी अभी उठी
नहीं है और वे
चाय वगैरह बना
रहे हैं!
लेकिन यह
बिलकुल उचित
है, वैज्ञानिक
है।
स्त्रियों
के सोने की
जितनी
जांच-पड़ताल
हुई है, वह
पुरुषों से दो
घंटा पीछे
है--सारी
जांच-पड़ताल
से। आज
अमेरिका में
कोई दस स्लीप लेबोरेटरीज
हैं, जो
सिर्फ नींद पर
काम करती हैं।
वे कहती हैं
कि पुरुषों और
स्त्रियों के
बीच नींद का
दो घंटे का
फासला है। अगर
पुरुष पांच
बजे सुबह
स्वस्थ उठ
सकता है, तो
स्त्री सात
बजे के पहले
स्वस्थ नहीं
उठ सकती है।
लेकिन अगर
स्त्री ने
शास्त्र पढ़े
हैं, तो
पति के पहले
उठना चाहिए!
पति अगर पांच
बजे उठे, तो
स्त्री को कम
से कम साढ़े
चार बजे तो उठ
आना चाहिए। तब
नुकसान होगा!
निद्रा
का जो अध्ययन
हुआ है
वैज्ञानिक, उससे पता
चला है कि रात
में दो घंटे
के लिए, चौबीस
घंटे में, प्रत्येक
व्यक्ति के
शरीर का
तापमान नीचे
गिर जाता है।
सुबह जो आपको
ठंड लगती है, वह इसलिए
नहीं लगती कि
बाहर ठंडक है!
उसका असली
कारण आपके
शरीर के
तापमान का दो
डिग्री नीचे
गिर जाना है।
बाहर की ठंडक
असली कारण
नहीं है।
हर
व्यक्ति का
चौबीस घंटे
में दो घंटे
के लिए तापमान
दो डिग्री
नीचे गिर जाता
है। वैज्ञानिक
इस नतीजे पर
पहुंचे हैं कि
वे ही दो घंटे
उस व्यक्ति के
लिए गहरी
निद्रा के घंटे
हैं। अगर उन
दो घंटों में
वह व्यक्ति
ठीक से सो ले, तो वह दिनभर
ताजा रहेगा।
और अगर उन दो
घंटों में वह
ठीक से न सो
पाए, तो वह
चाहे आठ घंटे
सो लिया हो, तो भी ताजगी
न मिलेगी।
और वे
दो घंटे
प्रत्येक
व्यक्ति के थोड़े-थोड़े
अलग होते हैं।
किसी व्यक्ति
का रात दो बजे
और चार बजे के
बीच में
तापमान गिर
जाता है। तो
वह व्यक्ति
चार बजे उठ
आएगा बिलकुल
ताजा। उसे दिनभर
कोई अड़चन न
होगी। किसी
व्यक्ति का
सुबह पांच और
सात के बीच
में तापमान
गिरता है। तब
वह अगर सात
बजे के पहले
उठ आएगा, तो
अड़चन में
पड़ेगा।
पुरुषों
और स्त्रियों
के बीच अनेक
प्रयोग के बाद
दो घंटे का
फासला खयाल
में आया है।
तो अधिक पुरुष
पांच बजे उठ
सकते हैं, लेकिन अधिक
स्त्रियां
पांच बजे नहीं
उठ सकती हैं।
वे शरीर के
फर्क हैं, वे
बायोलाजिकल
फर्क हैं।
जैसे-जैसे
समझ बढ़ती है, लेकिन एक
बात साफ होती
जाती है कि
शरीर की अपनी
नियमावली है।
और शरीर के
नियम, सिर्फ
आपके शरीर के
नियम नहीं हैं,
बल्कि बड़े कास्मास
से जुड़े हुए
हैं। देखा है
हमने, चांद
के साथ समुद्र
में अंतर पड़ते
हैं। कभी आपने
खयाल किया कि
स्त्रियों का
मासिक-धर्म भी
चांद के साथ संबंधित
है और जुड़ा
हुआ है!
अट्ठाइस दिन
इसीलिए हैं, चांद के चार
सप्ताह। ठीक
चांद के साथ
जैसे समुद्र
में अंतर पड़ता
है, ऐसे
स्त्री के
शरीर में अंतर
पड़ता है।
लेकिन
अभी जैसे-जैसे
सभ्यता
विकसित होती
है, स्त्रियों
का मासिक-धर्म
अस्तव्यस्त
होता चला जाता
है सभ्यता के
साथ। क्या हो
गया? कहीं
कोई संतुलन
टूट रहा है।
वह जो विराट
के साथ हमारे
शरीर के तंतु
जुड़े हैं, उनमें
कहीं-कहीं
विकृतियां हम
अपने हाथ से
पैदा कर रहे
हैं। कहीं कोई
गड़बड़ हो रही
है।
आज
जमीन पर, मैं
मानता हूं, करीब-करीब
पचास प्रतिशत
से ज्यादा
स्त्रियां
मासिक-धर्म से
अति परेशान
हैं। अनेक तरह
की परेशानियां
उनके मैंसेस
से पैदा होती
हैं। और वह मैंसेस
इसलिए
परेशानी में
पड़ा है कि
स्त्री के
व्यक्तित्व
में जो
प्रकृति के
साथ अनुकूलता
होनी चाहिए, जो संतुलन
होना चाहिए, वह खो गया
है। वह कोई
संबंध नहीं रह
गया है।
हमने
अपने ढंग से
जीना शुरू कर
दिया है, बिना
इसकी फिक्र
किए कि हम बड़ी
प्रकृति के एक
हिस्से हैं।
और हमें उस
बड़ी प्रकृति
को समझकर उसके
सहयोग में ही
जीने के
अतिरिक्त
शांत होने का
कोई उपाय नहीं
है।
लेकिन
आदमी ने अपने
को कुछ ज्यादा
समझदार समझकर
बहुत-सी नासमझियां
कर ली हैं।
ज्यादा
समझदारी आदमी
के खयाल में आ
गई है और वह
सारे संतुलन
भीतर से तोड़ता
चला जा रहा
है।
जब तक
हमारे पास
रोशनी नहीं थी, तब तक
पृथ्वी पर
नींद की
बीमारी किसी
आदमी को भी न
थी। अभी भी
आदिवासियों
को नींद की
कोई बीमारी
नहीं है।
आदिवासी
भरोसा ही नहीं
कर सकता कि इन्सोमनिया
क्या होता है!
आदिवासी से
कहिए कि ऐसे
लोग भी हैं, जिनको नींद
नहीं आती, तो
वह बहुत हैरान
हो जाता है कि
कैसे? क्या
हो गया? आदिवासी
से पूछिए कि
तुम कैसे सो
जाते हो? वह
कहता है, सोने
के लिए कुछ
करना पड़ता है!
बस, हम सिर
रखते हैं और
सो जाते हैं।
जानकर आप
हैरान होंगे
कि जो आदिवासी
सभ्यता के और
भी कम संपर्क
में आए हैं, उनको स्वप्न
भी न के बराबर
आते हैं--न के
बराबर! इसलिए
जिस आदिवासी
को स्वप्न आ
जाता है, वह
विशेष हो जाता
है--विशेष! वह
साधारण आदमी
नहीं समझा
जाता, विजनरी,
मिस्टिक, कुछ खास
आदमी! बड़ी
घटना घट रही
है!
आज भी
जमीन पर ऐसी
आदिवासी कौमें
हैं; जैसे एस्कीमो
हैं, जो कि
दूर ध्रुव पर
रहते हैं।
उनको अब भी
भरोसा नहीं
आता कि सब
लोगों को सपने
आते हैं। लेकिन
अमेरिका के
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
ऐसा आदमी ही
नहीं है, जिसको
सपना न आता हो!
वे अमेरिका के
आदमी के बाबत
बिलकुल ठीक कह
रहे हैं। उनके
अनुभव में
जितने आदमी
आते हैं, सबको
सपने आते हैं।
वे तो कहते
हैं, जो
आदमी कहता है,
मुझे सपना
नहीं आता, उसकी
सिर्फ मेमोरी
कमजोर है। और
कोई मामला
नहीं है। उसको
याद नहीं
रहता। आता तो
है ही।
और अब
तो उन्होंने
यंत्र बना लिए
हैं, जो बता देते
हैं कि सपना आ
रहा है कि
नहीं आ रहा
है। इसलिए अब
आप धोखा भी
नहीं दे सकते।
सुबह यह भी नहीं
कह सकते कि
मुझे याद ही
नहीं, तो
कैसे आया? अब
तो यंत्र है, जो आपकी
खोपड़ी पर लगा
रहता है और
रातभर ग्राफ बनाता
रहता है, कब
सपना चल रहा
है, कब
नहीं चल रहा
है। और अब तो
धीरे-धीरे
ग्राफ इतना
विकसित हुआ है
कि आपके भीतर
सेक्सुअल
ड्रीम चल रहा
है, तो भी
ग्राफ खबर
देगा। रंग बदल
जाएगा स्याही
का। क्योंकि
आपके
मस्तिष्क में
जब तंतु कामोत्तेजना
से भर जाते
हैं, तो
उनके कंपन, उनकी वेव्स
बदल जाती हैं।
वह ग्राफ पकड़
लेगा।
अब
आपके तथाकथित
ब्रह्मचारियों
को बड़ी कठिनाई
होगी। क्योंकि
दिनभर
ब्रह्मचर्य
साधना बहुत
आसान है, सवाल
रात का है, नींद
का है, सपने
का है। वह भी
पकड़ लिया
जाएगा। वह
पकड़ा जाएगा, उसमें कोई
अड़चन नहीं है।
क्योंकि
स्वप्न की क्वालिटी
अलग-अलग होती
है। और
प्रत्येक
स्वप्न की जो
कंपन विधि है,
वह अलग-अलग
होती है। जब
आपके भीतर कोई
कामोत्तेजक
स्वप्न चलता
है, तो
स्वप्न
बिलकुल
विक्षिप्त हो
जाता है और ग्राफ
बिलकुल पागल
की तरह लकीरें
खींचने लगता है।
जब आपके भीतर
गहरी नींद
होती है, तो
स्वप्न
बिलकुल बंद हो
जाता है; ग्राफ
सीधी लकीर
खींचने लगता है;
उसमें कंपन
खो जाते हैं।
लेकिन
बड़ी हैरानी की
बात है कि
सभ्य आदमी, सुशिक्षित
आदमी रातभर
में मुश्किल
से दस मिनट
गहरी नींद में
होता है, जब
स्वप्न नहीं
होता। सिर्फ
दस मिनट! पूरी
रात स्वप्न
चलता रहता है।
लेकिन
आदिवासी अभी
भी हैं, जिनको
सपना नहीं
चलता; जिनकी
नींद प्रगाढ़
है। स्वभावतः,
सुबह उनकी
आंखों में जो
निर्दोष भाव
दिखाई पड़ता है,
वह उस आदमी
की आंख में
नहीं दिखाई पड़
सकता जिसको
रातभर सपना
चला है। सुबह
आदिवासी की
आंख वैसे ही
होती है, जैसे
गाय की। उतनी
ही सरल, उतनी
ही भोली, उतनी
ही निष्कपट।
रात वह इतनी
गहराई में गया
है कि हम कह
सकते हैं कि
बेहोशी में
ठीक परमात्मा
में उतर गया
है।
सुषुप्ति
समाधि ही है।
सिर्फ बेहोश
समाधि है, इतना ही
फर्क है।
उपनिषद तो
कहते हैं, सुषुप्ति
जैसी ही है
समाधि। एक ही
उदाहरण उपनिषद
देते हैं।
समाधि कैसी? सुषुप्ति
जैसी। फर्क? फर्क इतना, कि समाधि
में आपको होश
रहता है और
सुषुप्ति में
आपको होश नहीं
रहता।
आप
परमात्मा की
गोद में
सुषुप्ति में
भी पहुंच जाते
हैं, लेकिन
आपको पता नहीं
रहता। समाधि
में भी पहुंचते
हैं, लेकिन
जागते हुए
पहुंचते हैं।
लेकिन फायदा दोनों
में बराबर मिल
जाता है।
लेकिन
सभ्य आदमी की
नींद ही खो गई
है, सुषुप्ति
बहुत दूर की
बात है।
स्वप्न ही
हमारा कुल जमा
हाथ में रह
गया है। जैसे
कि लहरों में
सागर के ऊपर
ही ऊपर रहते
हों, गहरे
कभी न जा पाते
हों, ऐसे
ही नींद में
भी गहरे नहीं
जा पाते।
स्वयं
के भीतर
पहुंचने के
लिए कम से कम
गहरी नींद तो
जरूरी ही है।
लेकिन गहरी
नींद उसे ही
आएगी जिसका श्रम
और विश्राम
संतुलित है; जिसका भोजन
और भूख
संतुलित है; जिसकी वाणी
और मौन
संतुलित है; उसके लिए ही
गहरी नींद
उपलब्ध होगी।
वह गहरी नींद
का फल और
पुरस्कार
उसको मिलता है,
जिसका जीवन
संतुलित है।
नींद
में ही जाना
मुश्किल हो
गया है, ध्यान
में जाना तो
बहुत मुश्किल
है। क्योंकि ध्यान
तो और आगे की
बात हो गई, जागते
हुए जाने की
बात हो गई।
कृष्ण
ठीक कहते हैं, अपने-अपने
आहार को, विहार
को संतुलित कर
लेना जरूरी है;
किसी नियम
से नहीं, स्वयं
की जरूरत से।
प्रश्न:
भगवान
श्री, इस
श्लोक में अंत
में, कर्मों
में सम्यक
चेष्टा, ऐसा
कहा गया है।
कृपया कर्मों
में सम्यक
चेष्टा, इसका
अर्थ भी
स्पष्ट करें।
कर्मों
में सम्यक
चेष्टा। वही
बात है, कर्म
के लिए।
कर्मों में
असम्यक
चेष्टा का क्या
अर्थ है, खयाल
में आ जाए, तो
सम्यक चेष्टा
का खयाल आ
जाएगा।
कभी
किसी स्कूल
में परीक्षा
चल रही हो, तब आप भीतर
चले जाएं।
देखें बच्चों
को। कलम पकड़कर
वे लिख रहे
हैं।
स्वाभाविक है
कि अंगुली पर
जोर पड़े।
लेकिन उनके
पैर देखें, तो पैर भी अकड़े
हुए हैं। उनकी
गर्दन देखें,
तो गर्दन भी
अकड़ी हुई
है। उनकी
आंखें देखें,
तो आंखें भी
तनाव से भरी
हैं। लिख रहे
हैं हाथ से, लेकिन जैसे
पूरा शरीर कलम
पकड़े हुए
है!
असम्यक
चेष्टा हो गई; जरूरत से
ज्यादा
चेष्टा हो गई।
यह तो सिर्फ
अंगुली चलाने
से काम हो
जाता, इसके
लिए इतने शरीर
को लगाना, बिलकुल
व्यर्थ हो
गया। यह तो
ऐसा हुआ कि
जहां सुई की
जरूरत थी, वहां
तलवार लगा दी।
और सुई जो काम
कर सकती है, वह तलवार
नहीं कर सकती,
ध्यान रखना
आप। इतना तना
हुआ बच्चा जो
उत्तर देगा, वे गलत हो
जाएंगे।
क्योंकि
चेष्टा
असम्यक है, अतिरिक्त
श्रम ले रही
है, व्यर्थ
तनाव दे रही
है।
आप भी
खयाल करना, जब आप लिखते
हैं, तो
सिर्फ अंगुली
पर भार हो, इससे
ज्यादा भार
असम्यक है। एक
आदमी साइकिल चला
रहा है, तो
पैर की अंगुलियां
पैडिल को
चलाने के लिए
पर्याप्त
हैं। लेकिन
छाती भी लगी
है; आंखें
भी लगी हैं; हाथ भी अकड़े
हैं। सब अकड़ा
हुआ है!
असम्यक
चेष्टा हो रही
है। अननेसेसरी,
व्यर्थ ही
अपने को परेशान
कर रहा है।
लेकिन आदत की
वजह से परेशान
है।
हमारी
सारी चेष्टाएं
असम्यक हैं।
या तो हम
जरूरत से कम
करते हैं; और या हम
जरूरत से
ज्यादा कर
देते हैं।
ध्यान रखना
जरूरी है, किस
कर्म के लिए
कितना श्रम; किस कर्म के
लिए कितनी
शक्ति।
और
नहीं तो कई
दफे ऐसा हो
जाता है कि
मैंने सुना है, एक आदमी एक
सांझ--रात उतर
रही है एक
गांव के ऊपर--सड़क
पर तेजी से
कुछ खोज रहा
है। और लोग भी
खड़े हो गए और
कहा कि हम भी
सहायता दे दें,
क्या खोज
रहे हो? तब
तक वह आदमी थक
गया था, तो
हाथ जोड़कर
परमात्मा से
प्रार्थना कर
रहा है कि मैं
एक नारियल चढ़ा
दूंगा; मेरी
खोई चीज मिल
जाए। तो लोगों
ने कहा, भई,
तेरी चीज
क्या है, वह
तो तू बता दे!
उसका
एक पैसा खो
गया है। पांच
आने का
नारियल! पुराने
जमाने की
कहानी है।
पांच आने का
नारियल, एक
पैसा खो गया
है, उसको चढ़ाने के
लिए सोच रहा
है! उन लोगों
ने कहा, तू
बड़ा पागल है।
एक पैसा खो
गया, उसके
लिए पांच आने
का नारियल चढ़ाने
की सोच रहा है!
उस आदमी ने
कहा, पहले
पैसा तो मिल
जाए, फिर
सोचेंगे कि चढ़ाना है
कि नहीं। नहीं
मिला तो अपना
निर्णय पक्का है!
मिल गया तो
पुनर्विचार
के लिए कौन
रोक रहा है!
हमारे
पूरे जीवन की
व्यवस्था ऐसी
ही है, जिसमें
हम कभी भी यह
नहीं देख रहे
हैं कि जो हम पाने
चले हैं, उस
पर हम कितना
दांव लगा रहे
हैं! वह इतना
लगाने योग्य
है? जो
मिलेगा, उसके
लिए किया गया
श्रम योग्य है?
इज़
इट वर्थ? कभी कोई
नहीं सोचता।
कभी कोई नहीं
सोचता कि जितना
हम लगा रहे
हैं, उतना
उससे जो मिल
भी जाएगा--अगर
सफल भी हो
जाएं, तो
जो मिलेगा--वह
इसके योग्य है?
एक पैसे पर
कहीं हम पांच
आने का नारियल
तो चढ़ाने
नहीं चल पड़े!
और फिर
इस तरह की जो
आदत बढ़ती चली
जाए, तो इसकी
दूसरी अति, इसका दूसरा
रिएक्शन और
प्रतिक्रिया
भी होती है कि
कभी-कभी जब कि
सचमुच लगाने
का वक्त आता
है दांव, तब
हमारे पास
लगाने को ताकत
ही नहीं होती।
संयत
श्रम, कर्मों
में सम्यक
चेष्टा। जीवन
को एक विचार देने
की जरूरत है; एक अविचार
में, विचारहीनता
में जीने की
जरूरत नहीं
है।
एक
आदमी धन कमाने
चल पड़ा है।
चले तो सोच ले
कि धन मिलकर
जो मिलेगा, उसके लिए
इतना सब गंवा
देने की जरूरत
है? इतना
सब, आत्मा
भी बेच डालने
की जरूरत है? सब कुछ गंवा
देने की जरूरत
है धन पाने के
लिए? असम्यक
चेष्टा हो रही
है।
कृष्ण
मना नहीं करते
कि धन मत कमाओ।
कहते हैं, सम्यक
चेष्टा करो।
थोड़ा सोचो भी
कि गंवाओगे
क्या? कमाओगे क्या? थोड़ा
हिसाब भी रखो।
थोड़ी व्यवहार
बुद्धि का भी
उपयोग करो।
नहीं
है बिलकुल
वैसी बुद्धि।
वैसी संयत
बुद्धि का
हमारे पास कोई
खयाल नहीं है।
कारण इतना ही
है कि हमने
कभी उस तरह
सोचा नहीं।
सोचना
शुरू करें।
एक-एक कर्म
में सोचना
शुरू करें कि
कितनी शक्ति
लगा रहा हूं; इतना उचित
है? तत्काल
आप पाएंगे कि
व्यर्थ लगा
रहे हैं। थोड़े
कम में हो
जाएगा, थोड़े
और कम में हो
जाएगा।
सुना
है मैंने कि
अकबर ने एक
दफा चार लोगों
को सजाएं
दीं। चारों का
एक ही कसूर
था। चारों ने
मिलकर राज्य
के खजाने
से गबन किया
था। और बराबर
गबन किया था।
असल में चारों
साझीदार थे।
सबने बराबर अशर्फियां
ले ली थीं।
चारों
को बुलाया
अकबर ने। और
पहले को कहा, तुमसे ऐसी
आशा न थी! जाओ।
वह आदमी चला
गया। दूसरे
आदमी से कहा
कि तुम्हें
सिर्फ इतनी
सजा देता हूं
कि झुककर सारे
दरबारियों
के पैर छू लो, और जाओ।
तीसरे को कहा
कि तुम्हें एक
वर्ष के लिए
राज्य-निष्कासन
देता हूं।
राज्य के बाहर
चले जाओ। चौथे
को कहा कि
तुम्हें
आजीवन कैदखाने
में भेज देता
हूं।
कैदी
जा चुके, दरबारियों ने पूछा कि
बड़ा अजीब-सा
न्याय किया है
आपने! दंड
इतने भिन्न, जुर्म इतना
एक समान; यह
कुछ न्याय
नहीं मालूम
पड़ता है! एक
आदमी को सिर्फ
इतना ही कहा
कि तुमसे ऐसी
आशा न थी और एक
आदमी को आजीवन
कैद में भेज
दिया!
अकबर
हंसा और उसने
कहा कि मैं
उनको जानता
हूं। अगर
तुम्हें
भरोसा न हो, तो जाओ, पता
लगाओ, वे
चारों क्या कर
रहे हैं! गए।
सबसे पहले तो
उस आदमी के
पास गए, जिस
आदमी से कहा
था कि तुमसे
ऐसी आशा न थी।
उसके घर
पहुंचे। पता
चला, वह
फांसी लगाकर
मर गया। हैरान
हो गए। लौटकर
अकबर से कहा।
अकबर
ने कहा, देखते
हैं, वहां
सूई भी काफी
थी। उतना कहना
भी ज्यादा पड़ गया।
उतना कहना भी
ज्यादा पड़ गया;
वह आदमी ऐसा
था। इतना काफी
सजा थी, कि
तुमसे ऐसी आशा
न थी। बहुत
सजा हो गई!
जिसको थोड़ा भी
अपने
व्यक्तित्व
का बोध है, उसके
लिए बहुत सजा
हो गई। अब
जाकर देखो उस
आदमी को जिसको
कि सजा दी है
जीवनभर की।
वे
वहां गए, तो
जेलर ने बताया
कि वह आदमी जेलखाने
में रिश्वत का
इंतजाम
फैलाकर भागने
की योजना बना
रहा है। उससे
मिले, तो
वह कोई उदास न
था। कहा कि
उदास नहीं हो!
आजीवन सजा हो
गई। उसने कहा
कि छोड़ो
भी। जिस
दुनिया में सब
कुछ हो रहा है,
उसमें हम
कोई सदा जेल
में रहेंगे!
निकल जाएंगे।
जहां सब कुछ
संभव हो रहा
है, वहां
कोई हम सदा
जेल में
रहेंगे! तुम
दो-चार दिन
में देखना कि
हम बाहर हैं।
और तुम
पंद्रह-बीस
दिन के बाद देखोगे
कि हम दरबार
में हैं। तुम
चिंता मत करो;
हम जल्दी
लौट आएंगे। और
वैसे भी बहुत
थक गए थे, पंद्रह-बीस
दिन का
विश्राम मिल
गया! हैरान
हुए कि उसको
जीवनभर की सजा
मिली है, वह
आदमी यह कह
रहा है। और
जिससे सिर्फ
इतना कहा है
कि तुझसे इतनी
अपेक्षा, ऐसी
आशा न थी, वह
फांसी लगाकर
मर गया!
अकबर
ने ठीक--जिसको
कहें कर्म में
सम्यक चेष्टा, कितना कहां
जरूरी
है--उतना ही; उससे
रत्तीभर
ज्यादा नहीं।
योगी
को तो ध्यान
में रखना ही
पड़ेगा कि कर्म
में सम्यक
चेष्टा हो।
बुद्ध ने तो
सम्यक चेष्टा
पर बहुत बड़ी
व्यवस्था दी
है। सारी
चीजों पर
सम्यक होने की
व्यवस्था दी
है। बुद्ध
जिसे अष्टांगिक
मार्ग कहते
हैं, सब सम्यक
पर आधारित है।
उसमें सम्यक
व्यायाम, सम्यक
श्रम, सम्यक
स्मृति, सम्यक
दर्शन, सम्यक
ज्ञान--सब
चीजें सम्यक
हों। कोई भी
चीज असम न हो
जाए। उसी
सम्यक की तरफ
कृष्ण इशारा
कर रहे हैं।
वे कह रहे हैं,
तुम्हारे
कर्मों में
तुम सदा ही
संयत रहना। उतनी
ही चेष्टा
करना, जितनी
जरूरी है; न
कम, न
ज्यादा। और
फिर तुम पाओगे
कि कर्म
तुम्हें नहीं
बांध पाएंगे।
सम्यक
जिसने चेष्टा
की है, वह
कर्म के बाहर
हो जाता है।
जो ज्यादा
करता है, वह
भी पछताता है,
क्योंकि
अंत में फल
बहुत कम आता
है। जो कम करता
है, वह भी
पछताता है, क्योंकि फल
आता ही नहीं।
लेकिन जो
सम्यक कर लेता
है, वह कभी
भी नहीं
पछताता। फल आए,
या न आए। जो
सम्यक कर लेता
है, वह कभी
नहीं पछताता।
क्योंकि वह
जानता है, जितना
जरूरी था, वह
किया गया। जो
जरूरी था, वह
मिल गया है।
जो नहीं मिलना
था, वह
नहीं मिला है।
जो मिलना था, वह मिल गया
है। मैंने
अपनी तरफ से
जितना जरूरी
था, वह
किया था; बात
समाप्त हो गई।
एक
मित्र अभी
मेरे पास आए।
उनकी पत्नी चल
बसी है। बहुत
रो रहे थे, बहुत परेशान
थे। मैंने
उनसे कहा कि
पत्नी के साथ
तुम्हें कभी
इतना खुश नहीं
देखा था कि
सोचूं कि मरने
पर इतना
रोओगे! मैंने
कहा, असम्यक
चेष्टा कर रहे
हो। उस वक्त
थोड़ा ज्यादा
खुश हो लिए
होते, तो
इस वक्त थोड़ा
कम रोना पड़ता।
वे
थोड़े हैरान
हुए।
उन्होंने कहा, क्या मतलब? मैंने कहा, थोड़ा बैलेंसिंग
हो जाता।
मैंने उनसे
पूछा, सच
बताओ मुझे, पत्नी के
मरने से रो
रहे हो या बात
कुछ और है? क्योंकि
बातें अक्सर
और होती हैं, बहाने और
होते हैं।
आदमी की
बेईमानी का
कोई अंत नहीं
है। उन्होंने
कहा, क्या
मतलब आपका? मेरी पत्नी
मर गई और आप
कहते हैं, बहाने
और बेईमानी।
यहां बहाने!
मेरी पत्नी मर
गई है, मैं
दुखी हूं।
मैंने कहा, मैं मानता
हूं कि तुम
दुखी हो।
लेकिन मैं फिर
से तुमसे
पूछता हूं कि
तुम सोचकर
मुझे दो-चार दिन
बाद बताना कि
सच में रोने
का यही कारण
है कि पत्नी
मर गई है?
चार
दिन बाद वे
लौटे और
उन्होंने कहा
कि शायद आप
ठीक कहते हैं।
भीतर झांका, तो मुझे
खयाल आया कि
जितनी मुझे
उसकी सेवा करनी
चाहिए थी, वह
मैंने नहीं
की। जितना
मुझे उस पर
ध्यान देना
चाहिए था, वह
भी मैंने नहीं
दिया। सच तो
यह है कि
जितना प्रेम
सहज उसके
प्रति मुझमें
होना चाहिए था,
वह भी मैं
नहीं दे पाया।
उस सब की पीड़ा
है कि अब! अब
माफी मांगने
का भी कोई
उपाय नहीं
रहा।
ध्यान
रहे, अगर आपने
किसी व्यक्ति
को पूरा प्रेम
कर लिया है, जितना संभव
था, जो
सम्यक था; पूरी
सेवा कर ली है,
जो सम्यक थी;
सब ध्यान
दिया, जो
सम्यक था; तो
मृत्यु के बाद
जो दुख होगा, वह दुख बहुत
भिन्न प्रकार का
होगा। और वह
दुख आपको तोड़ेगा
नहीं, मांजेगा। वह पीड़ा
आपको निखारेगी,
नष्ट नहीं
करेगी। वह
पीड़ा आपके
जीवन में कुछ
अनुभव और
ज्ञान दे
जाएगी, सिर्फ
जंग नहीं लगा
जाएगी।
क्योंकि जो हो
सकता था, सम्यक
था, जो ठीक
था, वह कर
लिया गया था।
जो मेरे हाथ
में था, वह
हो गया था।
फिर शेष तो
सदा परमात्मा
के हाथ में
है।
लेकिन
हममें से कोई
भी सम्यक कभी
नहीं कर पाता।
न पति पत्नी
के लिए, न
पत्नी पति के
लिए। न बेटे
बाप के लिए, न बाप बेटे
के लिए। सब
असम्यक होता
है। जिस दिन
छूट जाता है
कोई, उस
दिन भारी पीड़ा
का वज्राघात
होता है। उस
दिन लगता है
कि अब! अब तो
कोई उपाय न
रहा। अब तो
कोई उपाय न
रहा।
इसलिए
जो बेटे बाप
के मरने की
प्रतीक्षा
करते हैं, वे भी बाप के
मरने पर छाती
पीटकर रोते
हैं। जो बेटे
न मालूम कितनी
दफे सोच लेते
हैं कि अब यह बूढ़ा
चला ही जाए, तो बेहतर। न
मालूम कितनी
दफे! मन ऐसा
है। मन ऐसा
सोचता रहता
है। हालांकि
आप झिड़क
देते हैं अपने
मन को, कि
कैसी गलत बात
सोचते हो! ठीक
नहीं है यह।
लेकिन मन फिर
भी सोचता रहता
है। फिर यह
बेटा छाती पीटकर
रो रहा है। यह
असंतुलन है
जीवन का।
अगर
इसने पिता की
सम्यक सेवा कर
ली होती! यह तो पक्का
ही है कि पिता
जाएगा। मौत से
कोई बचेगा? वह जाने
वाला है। अगर
इसने थोड़ा
खयाल रखा होता
कि पिता जाने
ही वाला है, जाएगा ही; थोड़ी सेवा
कर ली होती, थोड़ा प्रेम
दिया होता, थोड़ा सम्मान
किया होता--यह
तो पता ही है
कि वह जाएगा
ही--इसने अगर
सम्यक चेष्टा
कर ली होती जो जाने
वाले व्यक्ति
के साथ कर
लेनी है, तो
शायद पीछे यह
घाव इस भांति
का न लगता। यह
घाव दूसरे
अर्थ में लग
रहा है। यह न
किया हुआ जो छूट
गया है, और
जिसके करने का
अब कोई उपाय
नहीं रह गया, यह उसकी
पीड़ा है, जो
जिंदगीभर
सालेगी, कांटे की
तरह चुभती
रहेगी।
सम्यक
कर्मों में!
कर्मों में सम्यक
चेष्टा का
अर्थ है, समस्त
कर्मों में जो
किया जाने
योग्य है, वह
जरूर करना
चाहिए। जितनी
शक्ति से किया
जाने योग्य है,
उतनी शक्ति
लगानी चाहिए;
न कम, न
ज्यादा।
निर्णय
कौन करेगा कि
कितनी लगाई
जानी चाहिए? आपके
अतिरिक्त कोई
निर्णय नहीं
कर सकता है। आप
ही सोचें। और
बड़ा अनुभव
होगा, अदभुत
अनुभव होगा।
जिस काम में
आप संयत चेष्टा
कर पाएंगे, उस काम के
बाद आप बिलकुल
निर्भार हो
जाएंगे, मुक्त
हो जाएंगे।
काम कर लिया, बात समाप्त
हो गई।
अगर आप
दफ्तर में
पूरे पांच
घंटे ठीक श्रम
कर लिए हैं, सम्यक, तो
दफ्तर आपकी
खोपड़ी में घर
नहीं आएगा।
नहीं तो घर
आएगा; आएगा
ही; सस्पेंडेड;
लटका रहेगा
खोपड़ी पर।
क्योंकि
दफ्तर में तो
बैठकर
विश्राम किया!
मैंने
सुना है कि एक
दिन दफ्तर के
मैनेजर को उसके
मालिक ने...।
अचानक मालिक
अंदर आ गया।
आने का वक्त
नहीं था, नहीं
तो मैनेजर
तैयार रहता।
वह अपने पैर
फैलाए हुए
कुर्सी पर सो
रहा था! घबड़ाकर
चौंका।
क्षमायाचना
की और कहा कि
माफ करें, कल
रात घर नहीं
सो पाया। तो
मालिक ने कहा,
अच्छा, तो
तुम घर भी
सोते हो! यह हम
सोच भी नहीं
सकते थे। घर
भी सोते हो? यह हम सोच ही
नहीं सकते थे,
क्योंकि दिनभर तो
यहां सोते हो।
तो घर सोते
होगे, इसका
हमें खयाल ही
नहीं आया!
अब यह
आदमी जो दफ्तर
में बेईमानी
कर रहा है, दफ्तर इसके
साथ बदला
लेगा। वह घर
चला जाएगा। यह
घर से बेईमानी
करके दफ्तर
चला आया है, घर दफ्तर
चला आएगा।
जिस
कर्म को आपने
पूरा नहीं कर
लिया है, सम्यक
नहीं कर लिया
है, वह
आपके भीतर अटका
रहेगा, वह
आपका पीछा
करेगा। इसलिए
हम बड़ी अजीब
हालत में हैं।
जब आप चौके
में बैठकर
भोजन करते हैं,
तब दफ्तर
में होते हैं।
जब दफ्तर में
बैठे होते हैं,
तो अक्सर
भोजन कर रहे
होते हैं। यह
सब चलता रहता
है!
यह सब
इतना ज्यादा कनफ्यूजन
मस्तिष्क में
इसलिए पैदा
होता है कि जब
भोजन कर रहे
हैं, तब सम्यक
रूप से भोजन
कर लें। सब
छोड़ें उस वक्त।
जितनी जरूरी
चेष्टा है
भोजन करने की,
जितना
ध्यान देना
जरूरी है भोजन
को, उतना
ध्यान दे दें।
जितना चबाना
है, उतना
चबा लें।
जितना स्वाद
लेना है, उतना
स्वाद ले लें।
जितना भोजन
करना है, सम्यक
चेष्टा पूरी
भोजन की थाली
पर करके कृपा
करके उठें,
तो भोजन
आपका पीछा
नहीं करेगा; और तृप्ति
भी आएगी।
जो भी
काम करना है, उसे पूरा कर
लें। पूरा
किया गया काम,
संयत किया
गया काम, सस्पेंडेड,
लटका हुआ
नहीं रह जाता,
और व्यक्ति
प्रतिपल बाहर
हो जाता
है--प्रत्येक कर्म
के बाहर हो
जाता है। और
तब वैसा
व्यक्ति कभी
भी भार, बर्डन नहीं अनुभव
करता
मस्तिष्क पर।
निर्भार होता है,
वेटलेस होता है, हल्का
होता है। सब
पूरा है।
सुकरात
मर रहा है, तो किसी
मित्र ने पूछा
कि कोई काम
बाकी तो नहीं
रह गया? सुकरात
ने कहा, मेरी
कोई आदत कभी किसी
काम को बाकी
रखने की नहीं
थी। मैं हमेशा
ही तैयार था
मरने को। कभी
भी मौत आ जाए, मेरा काम
पूरा, साफ
था। सब जो
करने योग्य था,
मैंने कर
लिया था। जो
नहीं करने
योग्य था, नहीं
किया था। मेरा
हिसाब सदा ही
साफ रहा है। मेरे
खाते-बही, कभी
भी मौत का
इंस्पेक्टर आ
जाए, देख
ले, तो मैं
वैसा नहीं डरूंगा,
जैसा इनकम
टैक्स के
इंस्पेक्टर
को देखकर कोई भी
दुकानदार
डरता है, ऐसा
सुकरात ने कहा
होगा। सिर्फ
एक छोटी-सी
बात रह गई, वह
भी मुझे पता
नहीं था, नहीं
तो मैं सुबह
उस आदमी को
कहता।
एचीलियस
नाम के आदमी
ने एक मुर्गी
मुझे उधार दी थी, छः आने उसके
बाकी रह गए
हैं। बस इतना
ही सस्पेंडेड
है। बस, और
कुछ भी नहीं
है। वह भी मैं
चुका देता, लेकिन जेल
में पड़ा हूं
और छः आने
कमाने का भी कोई
उपाय मेरे पास
नहीं है।
अचानक मुझे
जेल में ले आए,
अन्यथा मैं
उसके छः आने
चुका देता। एक
काम भर इस
पृथ्वी पर मेरा
अधूरा पड़ा है,
वे छः आने एचीलियस
को देने हैं।
मेरे मरने के
बाद तुम मेरे
मित्र, एक-एक,
दो-दो पैसा
इकट्ठा करके
उसे दे देना, ताकि बहुत
भार मुझ पर न
रह जाए। छः
आने का इकट्ठा
बहुत पड़ेगा।
एक-एक पैसे का
तुम सब का रह
जाएगा। किसी
रास्ते पर, किसी मार्ग
पर अगर अनंत
में कभी मिलना
हो गया, तो
मैं चुका
दूंगा। बस, इतना ही बोझ
है, बाकी
सब निपटा हुआ
है।
आप
मरते वक्त
कितने आने के
बोझ से भरे
होंगे? कोई
हिसाब लगाना
मुश्किल हो
जाएगा। न
मालूम कितना
अटका रह जाएगा
सब तरफ! किसी
को गाली दी थी,
माफी नहीं
मांग पाए।
किसी पर क्रोध
किया था, क्षमा
नहीं कर पाए।
किसी को प्रेम
करने के लिए
कहा था, लेकिन
कर नहीं पाए।
किसी को सेवा
का भरोसा दिया
था, लेकिन
हो नहीं पाई।
सब तरफ सब
अधूरा अटका रह
जाएगा।
यह
अटका, अधूरा
ही आपको वापस
नए जन्मों में
लेता चला जाएगा।
ये असम्यक
कर्म आपको
वापस नए
कर्मों में लेते
चले जाएंगे।
और पिछला कर्म
भी पूरा नहीं होता,
इस जन्म का
पूरा नहीं
होता, और एडीशन, और
भार बढ़ता चला
जाता है।
हल्के न हो
पाएंगे फिर।
कर्मों
का विचार, कर्म के
सिद्धांत के
पीछे जो मूल
आधार है, वह
यही है कि वही
व्यक्ति कर्म
से मुक्त हो
जाता है, जो
सब कर्मों को
संयत रूप से
कर लेता है और
उनके बाहर हो
जाता है। फिर
उसकी कोई
मृत्यु नहीं
है, उसका
मोक्ष है; क्योंकि
लौटने का कोई
कारण नहीं है।
यदा
विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो
युक्त इत्युच्यते
तदा।। 18।।
इस
प्रकार योग के
अभ्यास से
अत्यंत वश में
किया हुआ
चित्त जिस काल
में परमात्मा
में ही भली
प्रकार स्थित
हो जाता है, उस काल में
संपूर्ण
कामनाओं से स्पृहारहित
हुआ पुरुष योगयुक्त
है, ऐसा
कहा जाता है।
योग
के अभ्यास से
संयत, शांत,
शुद्ध हुआ
चित्त। इस बात
को ठीक से समझ
लें।
योग के
अभ्यास से!
हमारा
अशुद्ध होने
का अभ्यास गहन
है। हमारे
जटिल होने की
कुशलता अदभुत
है। स्वयं को
उलझाव में डालने
में हम कुशल
कारीगर हैं।
हमने अपने
कारागृह की
एक-एक ईंट
काफी मजबूत
बनाकर रखी है।
और हमने अपनी
एक-एक हथकड़ी
की जंजीर को
बहुत ही मजबूत
फौलाद से ढाला
है। हमने सब
तरह का इंतजाम
किया है कि
जिंदगी में
आनंद का कोई
आगमन न हो
सके। हमने सब
द्वार-दरवाजे
बंद कर रखे हैं
कि रोशनी कहीं
भूल-चूक से
प्रवेश न कर
जाए। हमने सब
तरफ से अपने
नरक का आयोजन
कर लिया है।
इस आयोजन को
काटने के लिए
इतने ही आयोजन
की विपरीत
दिशा में
जरूरत पड़ती
है। उसी का
नाम
योग-अभ्यास
है।
योगाभ्यास
की कोई जरूरत
नहीं है। जैसा
कि कृष्णमूर्ति
कहते हैं, कोई जरूरत
नहीं है
योगाभ्यास
की। जैसा कि
झेन फकीर कहते
हैं जापान में
कि किसी
अभ्यास की कोई
जरूरत नहीं
है। अगर आपने
नरक की तरफ
कोई यात्रा न
की हो, तो
कोई भी जरूरत
नहीं है। लेकिन
अगर आपने नरक
की तरफ तो
भारी अभ्यास
किया हो, और
सोचते हों
कृष्णमूर्ति
को सुनकर कि
स्वर्ग की तरफ
जाने के लिए
किसी अभ्यास
की कोई जरूरत
नहीं है, तो
आप अपने नरक
को मजबूत करने
के लिए आखिरी
सील लगा रहे
हैं।
अशांत
होने के लिए
कितना अभ्यास
करते हैं, कुछ पता है
आपको? एक
आदमी को गाली
देनी होती है,
तो कितना
रिहर्सल करना
पड़ता है, कुछ
पता है आपको? कितनी दफे
मन में देते
हैं पहले!
किस-किस रस से देते
हैं! किस-किस
कोने से, किस-किस
एंगल से सोचकर
देते हैं!
किस-किस भांति
जहर भरकर गाली
को तैयार करके
देते हैं!
एक
आदमी को गाली
देने के लिए
कितने बड़े
रिहर्सल से, पूर्व-अभ्यास
से गुजरना
पड़ता है। उस
पूर्व-अभ्यास
के बिना गाली
भी नहीं निकल
सकती है।
अशांत
होने के लिए
कितना श्रम
उठाते हैं, कभी हिसाब
रखा है? सुबह
से शाम तक
कितनी
तरकीबें
खोजते हैं कि
अशांत हो
जाएं! अगर
किसी दिन
तरकीबें न
मिलें, तो
खुद भी ईजाद
करते हैं।
मेरे
एक मित्र हैं।
उनके बेटे ने
मुझे कहा कि मैं
बड़ी मुसीबत
में हूं। मैं
कोई रास्ता ही
नहीं खोज पाता
कि पिता को
अशांत करने से
कैसे बचूं!
मैंने कहा कि
वे जिन बातों
से अशांत होते
हों, वह मत
करो। उसने कहा,
यही तो मजा
है कि अगर मैं
ठीक कपड़े
पहनकर दफ्तर
पहुंच जाऊं, तो वे कहते
हैं, अच्छा!
तो कोई फिल्म
स्टार हो गए
आप? अगर
ठीक कपड़े
पहनकर न
पहुंचूं, तो
वे कहते हैं, क्या मैं मर
गया? जब
मैं मर जाऊं, तब इस शक्ल
में घूमना!
अभी मेरे रहते
तो मजा कर लो।
वह
बेटा मुझसे
पूछने आया कि
मैं क्या करूं, जिससे पिता
अशांत न हों? क्योंकि मैं
कुछ भी करूं, वे तरकीब
खोज ही लेते
हैं। ऐसा कोई
काम मैं नहीं
कर पाया, जिसमें
उन्होंने
तरकीब न खोज
ली हो। वह
सोचकर विपरीत
करता हूं, उसमें
भी निकाल लेते
हैं। अच्छे
कपड़े पहनता हूं,
तो कहते हैं,
अच्छा, फिल्म
स्टार हो गए!
क्या इरादे
हैं? हीरो
बन गए? न
पहनकर ठीक कपड़ा
पहुंचूं, तो
कहते हैं, यह
तो मैं जब मर
जाऊं, तब
इस शक्ल में
घूमना। अभी तो
मैं जिंदा हूं;
अभी तो मजे
करो, गुलछर्रे
कर लो! तो मैं
क्या करूं?
मैंने
कहा, एकाध दफा
दिगंबर
पहुंचकर देखा
कि नहीं देखा!
और तो कोई
तीसरा रास्ता
ही नहीं बचता!
दिगंबर
पहुंचकर देख।
उसने कहा कि
आप भी क्या कह
रहे हैं!
बिलकुल मेरी
गर्दन काट
देंगे!
हम सब
ऐसा खोजते
रहते हैं, खूंटियां
खोजते रहते
हैं।
खूंटियां
खोजते रहते
हैं! खूंटियां
न मिलें, तो
अपनी कीलें भी
गाड़ लेते
हैं।
अशांत
होने के लिए
भारी अभ्यास
चल रहा है।
बड़ी योग-साधना
करते हैं हम
अशांत होने के
लिए, क्रोधित
होने के लिए, परेशान होने
के लिए! कुछ
ऐसा लगता है
कि अगर आज परेशान
न हुए, तो
जैसे दिन
बेकार गया। कई
दफे ऐसा होता
भी है।
क्योंकि
परेशानी से
हमको पता चलता
है कि हम भी
हैं। नहीं तो
और तो कोई पता
चलने का कारण
नहीं है।
तो
बड़ी-बड़ी
परेशानियां
करके दिखलाते
रहते हैं।
भारी
परेशानियां
हैं। उससे पता
चलता है कि हम
भी कोई हैं, समबडी! क्योंकि
जितना बड़ा
आदमी हो, उतनी
बड़ी
परेशानियां
होती हैं! तो
हर छोटा-मोटा
आदमी भी
छोटी-मोटी
परेशानियों
को मैग्नीफाई
करता रहता है।
बड़ी करके खड़ा
कर लेता है।
उनके बीच में
खड़ा रहता है।
यह सब अभ्यास
चलता है। बिना
अभ्यास के यह
भी नहीं हो
सकता। यह भी
सब अभ्यास का
फल है।
तो
कृष्ण जब
अर्जुन से
कहते हैं कि
योगाभ्यास से
शांत हुआ
चित्त, तो
इससे विपरीत
अभ्यास करना
पड़ेगा।
विपरीत अभ्यास
का क्या अर्थ
है? विपरीत
अभ्यास का
अर्थ है कि अब
तक हम निगेटिव
इमोशंस
के लिए, नकारात्मक
भावनाओं के
लिए कारण खोज
रहे हैं चौबीस
घंटे; योगाभ्यास
का अर्थ है, पाजिटिव इमोशंस
के लिए चौबीस
घंटे कारण
खोजने में जो
लगा है।
और
जिंदगी में
दोनों मौजूद
हैं। खड़े हो
जाएं गुलाब के
फूल के
किनारे। वह जो
अभ्यासी है
अशांति का, वह कहेगा, व्यर्थ है, बेकार है
सब। कांटे ही
कांटे हैं, एकाध फूल
खिलता है कभी।
वह जो योगाभ्यासी
है, वह जो पाजिटिव
को, विधायक
को खोजने
निकला है, वह
कहेगा, प्रभु
तेरा धन्यवाद!
आश्चर्य है, जहां इतने
कांटे हैं, वहां भी
इतना कोमल फूल
खिल सकता है!
यह उनके देखने
के ढंग का
फर्क होगा।
जब आप
किसी आदमी से
मिलते हैं, तो उसमें
बुरा अगर आप
खोजते हैं
तत्काल, तो
आप अभ्यासी
हैं अशांति
के। उस आदमी
में कुछ तो
भला होगा ही, नहीं तो
जीना मुश्किल
था। बुरे से
बुरे आदमी का
भी जीना असंभव
है, अगर वह एब्सोल्यूट
बुरा हो जाए।
चोर भी
किन्हीं के
साथ तो ईमानदार
होते हैं। और
डाकू भी
किन्हीं के
साथ वचन निभाते
हैं। बेईमान
भी बेईमान
नहीं हो सकता
सदा, चौबीस
घंटे, किन्हीं
के साथ
ईमानदारी से
जीता है। जो
आपका दुश्मन
है, वह भी
किसी का मित्र
है; वह भी
मित्रता
जानता है। जो
आपकी छाती में
छुरा भोंकने
को तैयार है, वह किसी दिन
किसी के लिए
अपनी छाती में
भी छुरा
भोंकने की
तैयारी रखता
है।
इस
जमीन पर, इस
अस्तित्व में
कोई बिलकुल
बुरा है, ऐसा
नहीं है। और
कोई बिलकुल
भला है, ऐसा
भी नहीं है।
लेकिन आपके
चुनाव पर
निर्भर है कि
आप क्या चुनते
हैं। आपके
अभ्यास पर
निर्भर है कि
आप क्या चुनते
हैं। अगर आपने
तय कर रखा है कि
बुरा ही चुनेंगे,
तो आपको
बुरा मिलता
चला जाएगा।
जिंदगी में भरपूर
बुरा है। अगर
आपने तय कर
लिया है कि
अंधेरा ही चुनेंगे,
तो दिनभर
विश्राम करना
आप आंख बंद
करके, रात
को निकल जाना
खोजने; मिल
जाएगा।
मिलेगा
वही-वही।
बुरे
को खोजना है, बुरा मिल
जाएगा। दुख को
खोजना है, दुख
मिल जाएगा।
पीड़ा खोजनी है,
पीड़ा मिल
जाएगी। शैतान
खोजना है, शैतान
मिल जाएगा।
परमात्मा
खोजना है, तो
वह भी मौजूद
है, जस्ट बाई दि कार्नर।
वहीं, जहां
शैतान खड़ा है।
शायद इतना भी
दूर नहीं है।
शायद शैतान भी
परमात्मा के
चेहरे को गलत
रूप से देखने
के कारण है।
जिस
आदमी को
कांटों के बीच
फूल खिला हुआ
मालूम पड़ता है
और जो कहता है, धन्य है!
लीला है, रहस्य
है प्रभु का!
इतने कांटों
के बीच फूल खिलता
है! उस आदमी को
बहुत दिन
कांटे दिखाई
नहीं पड़ेंगे।
जो इतने
कांटों के बीच
फूल को देख
लेता है, वह
थोड़े ही दिनों
में कांटों को
फूल के मित्र की
तरह देख ही
पाएगा। वह, कांटे फूल
की रक्षा के
लिए हैं, यह
भी देख पाएगा।
अंततः वह यह
भी देख पाएगा
कि कांटों के
बिना फूल नहीं
हो सकता है, इसलिए कांटे
हैं। और आखिर
में कांटों का
जो कांटापन
है, खो
जाएगा; और
कांटे भी
धीरे-धीरे फूल
ही मालूम पड़ने
लगेंगे।
और जिस
आदमी ने देखा
कि कांटे ही
कांटे हैं; कहीं एकाध
फूल खिल जाता
है भूल-चूक से,
यह एक्सिडेंट
मालूम होता
है। यह फूल एक्सिडेंट
है, कांटे
असलियत हैं।
बात भी ठीक लगती
है। कांटे
बहुत, फूल
एक। वह आदमी
बहुत दिन तक
फूल में भी
फूल को नहीं
देख पाएगा।
बहुत जल्दी
उसको फूल में
भी कांटे
दिखाई पड़ने
लगेंगे।
हमारी
दृष्टि
धीरे-धीरे
फैलकर निरपेक्षपूर्ण
हो जाती है।
लेकिन
अस्तित्व? अस्तित्व
द्वंद्व है; वहां दोनों
मौजूद हैं।
योगाभ्यासी
का अर्थ है, ऐसा व्यक्ति,
जो जीवन में
शांति की
खूंटियां
खोजता है, आनंद
की खूंटियां
खोजता है। फूल
खोजता है। आशा
खोजता है।
सौंदर्य
खोजता है।
आनंद खोजता है।
जो जीवन में
नृत्य खोजता
है, उत्सव
खोजता है।
जीवन में
उदासी बटोरने
का जिसने ठेका
नहीं लिया है।
जो जगह-जगह
जाकर कांटे और
कंकड़
नहीं खोजता
रहता है। और
जिनको इकट्ठा
करके छाती पर
रखकर
चिल्लाता
नहीं है कि
जिंदगी बेकार है,
अर्थहीन
है।
योगाभ्यास
का अर्थ है, जीवन को
विधायक
दृष्टि से
देखने का ढंग।
योग जीवन की
विधायक
कीमिया है, पाजिटिव केमेस्ट्री
है। और उसका
अभ्यास करना
पड़ेगा।
क्योंकि आपने
अभ्यास किया
हुआ है। अगर
आप पुराने
अभ्यास को ऐसे
ही, बिना
अभ्यास के
छोड़ने में
समर्थ हों, तो छोड़ दें।
तो फिर नए
अभ्यास की कोई
भी जरूरत नहीं
है।
लेकिन
वह पुराना
अभ्यास जकड़ा
हुआ है, भारी
है; वह छूटेगा
नहीं। उसे
इंच-इंच जैसे
बनाया, वैसे
ही काटना भी
पड़ेगा। जैसे
घर बनाया, वैसे
अब एक-एक ईंट
उसकी गिरानी
भी पड़ेगी। भला
वह ताश का ही
घर क्यों न हो,
लेकिन ताश
के पत्ते भी उतारकर
रखने पड़ेंगे।
भला ही वह
कितनी ही झूठी
व्यवस्था
क्यों न हो, लेकिन झूठ
की भी अपनी
व्यवस्था है;
उसको भी
काटना और
मिटाना पड़ेगा।
योगाभ्यास
गलत अभ्यासों
को काटने का
अभ्यास है।
ठीक विपरीत
यात्रा करनी
पड़ेगी। जिस
व्यक्ति में
कल तक देखा था
बुरा आदमी, उसमें देखना
पड़ेगा भला
आदमी। जिसमें
देखा था शत्रु,
उसमें
खोजना पड़ेगा
मित्र। जहां
देखा था जहर, वहां अमृत
की भी तलाश
करनी पड़ेगी।
यह तो हुई एक बहिर्व्यवस्था।
और फिर
अपने में भी
यही करना
पड़ेगा। अपने
भीतर भी
जिन-जिन चीजों
को बुरा देखा
था, उन-उन में
शुभ को खोजना
पड़ेगा।
कामवासना में
देखा था नरक
का मार्ग, अब
कामवासना में
स्वर्ग का
मार्ग भी
देखना पड़ेगा।
स्वर्ग का
मार्ग
कामवासना में
देखते से ही, काम की
वासना
ऊर्ध्वगामी
होकर स्वर्ग
के मार्ग को
भी लगा देती
है। कल तक
क्रोध में
देखा था सिर्फ
क्रोध, अब
क्रोध में उस
शक्ति को भी
देखना पड़ेगा,
जो क्षमा बन
जाती है।
क्रोध की
शक्ति ही
क्षमा बनती
है। काम की
शक्ति ही
ब्रह्मचर्य
बनती है। लोभ
की शक्ति ही
दान बन जाती
है।
देखना
पड़ेगा; खोजना
पड़ेगा। अब तक
एक तरह से
देखा था जीवन
को, अब ठीक
विपरीत तरह से
देखना पड़ेगा।
उस विपरीत तरह
के देखने की
क्या विधियां
हैं, उनकी
बात मैं
संध्या
करूंगा। इस
सूत्र पर भी पूरी
बात संध्या
करेंगे। अभी
इतना ही खयाल
में लें कि
अगर गलत का
अभ्यास किया
है, तो गलत
को काटने का
भी अभ्यास
करना पड़ेगा।
निश्चित
ही, जब गलत कट
जाता है, तो
जो शेष रह
जाता है वह
शुभ है। इसलिए
एक अर्थ में
कृष्णमूर्ति
या झेन फकीर
जो कहते हैं, ठीक कहते
हैं। क्योंकि
शुभ के पाने
के लिए किसी
अभ्यास की
जरूरत नहीं
है। लेकिन
अशुभ को काटने
के लिए अभ्यास
की जरूरत है।
इसलिए एक
दृष्टि से वे
बिलकुल गलत
कहते हैं।
फर्क
समझें आप। शुभ
को पाने के
लिए किसी
अभ्यास की
जरूरत नहीं
है। शुभ
स्वभाव है।
लेकिन अशुभ को
काटने के
लिए...।
ऐसा
समझ लें, तो
ठीक होगा।
मेरे हाथों
में आपने
जंजीरें डाल
दी हैं, तो
क्या मैं कहूं
कि
स्वतंत्रता
पाने के लिए
जंजीरें तोड़ने
की जरूरत है? स्वतंत्रता
पाने के लिए
तो किसी जंजीर
को तोड़ने की
क्या जरूरत
है!
स्वतंत्रता
पर कोई जंजीरें
नहीं हैं।
लेकिन फिर भी
जंजीर तोड़नी
पड़ेगी।
परतंत्रता को
तोड़ने के लिए
जंजीर तोड़नी
पड़ेगी। और जब
जंजीर टूट जाएगी
और परतंत्रता
टूट जाएगी, तो जो शेष रह
जाएगी, वह
स्वतंत्रता
है।
स्वतंत्रता
के लिए जंजीर
नहीं तोड़नी
पड़ती है।
लेकिन
परतंत्रता के
लिए, परतंत्रता
को तोड़ने के
लिए जंजीर तोड़नी
पड़ती है।
शुभ तो
स्वभाव है।
सत्य तो
स्वभाव है।
धर्म तो
स्वभाव है।
परमात्मा तो
स्वभाव है।
परमात्मा को
पाने के लिए
कोई जरूरत
नहीं है।
लेकिन
परमात्मा को
खोने के लिए
जो-जो उपाय
आपने किए हैं, उन उपायों
को काटने के
लिए अभ्यास
करना पड़ता है।
वही अभ्यास
योगाभ्यास
है।
उस
संबंध में हम
रात बात
करेंगे। अभी
तो पांच मिनट
थोड़ा-सा
योगाभ्यास
करें। थोड़ा
कीर्तन। थोड़ा
कीर्तन में डूबें।
लेकिन
कीर्तन में भी
कोई देखेगा कि
अरे, इसमें
क्या रखा है!
कोई देखेगा कि
चिल्लाने-नाचने
से क्या होगा!
कांटे
देख रहे हैं
आप। फूल देखने
की कोशिश करें, तो फूल
दिखाई पड़ने
शुरू हो
जाएंगे। और
सिर्फ दिखाई
पड़ने से नहीं
दिखाई पड़ेंगे;
थोड़ा
सम्मिलित हों,
तो जल्दी खिलने
शुरू हो
जाएंगे।
तो
ताली दें; उनके गीत
में आवाज दें।
डोलें
अपनी जगह पर।
एक पांच मिनट
भूलें अपने को,
खोएं।
आज इतना
ही।
thank you guruji
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