अर्जुन
उवाच
योऽयं योगस्त्वया
प्रोक्तः
साम्येन
मधुसूदन।
एतस्याहं
न पश्यामि
चंचलत्वात्स्थितिं
स्थिराम्।।
33।।
चंचलं हि मनः
कृष्ण प्रमाथि
बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव
सुदुष्करम्।।
34।।
हे
मधुसूदन, जो यह ध्यानयोग
आपने समत्वभाव
से कहा है, इसकी
मैं मन के
चंचल होने से
बहुत काल तक
ठहरने वाली
स्थिति को
नहीं देखता
हूं। क्योंकि
हे कृष्ण, यह
मन बड़ा चंचल
और प्रमथन
स्वभाव वाला
है, तथा
बड़ा दृढ़ और
बलवान है, इसलिए
उसका वश में
करना मैं वायु
की भांति अति
दुष्कर मानता
हूं।
योग
की आधारभूत शिलाओं के
संबंध में
कृष्ण के
द्वारा बात
किए जाने पर
अर्जुन ने वही
पूछा है, जो
आप भी पूछना
चाहेंगे।
अर्जुन कह रहा
है, बातें
होंगी ठीक
आपकी, मिलता
होगा परम
आनंद। आकर्षण
भी बनता है कि
उस आयाम में
यात्रा करें।
लेकिन मन बड़ा
चंचल है। और
समझ में नहीं
पड़ता है कि इस
चंचल मन के
साथ कैसे उस
थिर स्थिति को
पाया जा
सकेगा! क्षणभर
भी ठहरेगी
वह स्थिति, इसका भी
भरोसा नहीं
आता है।
फिर
चंचल ही नहीं
है यह मन, बहुत
शक्तिशाली, बहुत जिद्दी
भी है। बहुत
अडिग, अपने
स्वभाव को
कायम भी रखता
है। ऐसा लगता
है कि हे
मधुसूदन, जैसे
वायु को वश
में करना कठिन
हो, वैसा
ही कठिन इस मन
को वश में
करना है।
वायु
के साथ खूबी
है एक। वायु
पर मुट्ठी
बांधें, तो
पकड़ में नहीं
आती है। जितने
जोर से मुट्ठी
बांधें, उतनी
ही मुट्ठी के
बाहर हो जाती
है। न तो दिखाई
पड़ती है वायु
कि हम उसका
पीछा कर सकें।
ऐसा ही मन भी
दिखाई नहीं
पड़ता है। और न
ही वायु जरा
ही देर थिर
रहती है। जो
अथिर है
प्रतिपल, यहां
से वहां
डांवाडोल है,
दौड़ती
फिरती है, ऐसा
ही यह मन
है--प्रतिपल दौड़ता हुआ;
अदृश्य; न
दिखाई पड़ता, न पकड़ में
आता; सिर्फ
अनुभव होता है
इसके कंपन का।
वायु
का आपको अनुभव
क्या है? वायु
का कोई अनुभव
नहीं है। वायु
की दौड़ती, भागती
धारा के थपेड़ों
का अनुभव है।
वायु अगर थिर
हो, तो
वायु का कोई
भी अनुभव न
होगा। उसकी अथिरता का
ही अनुभव है, उसके प्रवाह
का ही अनुभव
है। दौड़ती है
वायु आपको
छूकर, तो
उसका स्पर्श
होता है। दौड़ता
हुआ ही स्पर्श
होता है। और
तो कोई अनुभव
नहीं है।
मन का
भी, उसके
परिवर्तन का
ही अनुभव होता
है; मन का
तो कोई अनुभव
नहीं है। उसकी
चंचलता ही प्रतीति
में आती है, और तो कुछ
प्रतीति में
आता नहीं है।
जैसे
वायु की गति
प्रतीति में
आती है, वायु
नहीं; ऐसे
ही मन की भी
चंचलता प्रतीति
में आती है, मन नहीं।
ऐसा जो अदृश्य,
जो पकड़ के
बाहर और सदा
ही भागता हुआ
मन है।
तो
अर्जुन की
शंका उचित ही
है। वह पूछता
है कृष्ण को, संभावी नहीं
मालूम पड़ता, इंप्रोबेबल है, असंभव
दिखता है। आप
कहते हैं, सदा
के लिए थिर हो
जाए; क्षण
के लिए भी थिर
होना असंभव
मालूम पड़ता
है। मन का यह
स्वभाव ही
नहीं है कि
थिर हो जाए।
मन तो चंचल ही
है। या कहें
कि चंचलता ही
मन है। दुरूह
मालूम होती है
बात। आकर्षण
भारी। मन को
देखकर, कमजोरी
को देखकर, मन
की स्थिति को
देखकर असंभव
मालूम होती है
बात।
यह
अर्जुन का ही
सवाल नहीं है, यह पूरे
मनुष्य के मन
का सवाल है।
इसमें दोत्तीन
बातें ध्यान
में ले लेनी
जरूरी हैं।
एक, कि मन के
संबंध में जो
भी हम जानते
हैं, स्वभावतः
उसी जानने के
भीतर सोचते
हैं। हमने मन
को कभी थिर
नहीं जाना। तो
उचित ही लगता
है, स्वाभाविक
ही तर्कयुक्त
लगता है कि मन
की थिरता असंभव
है। हमने कभी
मन को थिर
नहीं जाना।
इसलिए स्वाभाविक
ही लगता है कि
यह शंका उठे
कि यह मन थिर
नहीं हो
सकेगा।
लेकिन
यह हमारी
धारणा
नकारात्मक
है। यह हमारी
धारणा
निगेटिव है।
हमें थिरता का
कोई अनुभव नहीं
है, चंचलता
का ही अनुभव
है। इसलिए
हमारा यह
सोचना कि
थिरता असंभव
है, थोड़ा
जरूरत से
ज्यादा सोचना
है। हम इतना
ही कहें कि
चंचल हैं हम, थिरता का
हमें कोई पता
नहीं। वहां तक
बात तथ्य की
है। लेकिन
तत्काल हमारा
मन एक कदम आगे
बढ़कर नतीजा
लेता है, जिसके
लिए कोई कारण
नहीं है।
हमारा मन कहता
है कि नहीं, थिरता असंभव
है।
चंचलता
हमने जानी है, वह हमारे
अतीत का अनुभव
है। थिरता
हमारा अनुभव
नहीं है।
लेकिन जो
हमारा अनुभव
नहीं है, वह
असंभव है, ऐसा
कहने का कोई
कारण नहीं है।
अगर बहरे को
कोई कहे, बहरे
को कोई समझाए
लिखकर कि वाणी
संभव है; बहरा
कहेगा, असंभव
है। अंधे को
कोई समझाने की
कोशिश करे कि
प्रकाश संभव
है; अंधा
कहेगा, असंभव
है। अंधा
कहेगा, हे
मधुसूदन, अंधकार
के सिवाय कभी
कुछ जाना
नहीं। मान
नहीं सकता कि
आंखें प्रकाश
भी देख सकती
हैं, क्योंकि
अंधकार ही
देखती रही
हैं। एक क्षण
को भी देख
सकती हैं, यह
अकल्पनीय
मालूम पड़ता है,
क्योंकि
सदा से अंधकार
ही जाना है।
फिर भी
हम जानते हैं
कि वह अंधे की
धारणा नकारात्मक
है। लेकिन
अंधे की बात
गलत न कह
सकेंगे हम।
अंधा अपने
अनुभव से कहता
है। और अनुभव
के सिवाय कहने
का उपाय भी
क्या है!
हम जब
मन के संबंध
में कह रहे
हैं, तब भी हम
अपने अनुभव से
कहते हैं।
लेकिन अनुभव अंधे
जैसा है। मन
के अतिरिक्त
हमने कभी कुछ
जाना ही नहीं।
जो हमने नहीं
जाना है, उसके
बाबत पाजिटिव
कनक्लूजन
लेना उचित
नहीं है।
अर्जुन
का यह कहना तो
ठीक है कि मन
चंचल है, बहुत
कठिन मालूम
पड़ता है।
लेकिन यह कहना
उचित नहीं है
कि अकल्पनीय
मालूम पड़ता है,
कृष्ण। यह हम
अपनी अनुभूति
के बाहर का
नतीजा ले रहे
हैं, जो
खतरनाक हो
सकता है।
क्योंकि वैसा
नतीजा, रोकने
वाला सिद्ध
होगा। वैसा
नतीजा अवरोध
बन जाएगा।
एक बार
किसी ने सोच
लिया कि ऐसी
बात असंभव है, तो करने की
धारणा ही छूट
जाती है।
असंभव को कोई
करने नहीं
निकलता। जब
कोई असंभव को
भी करने
निकलता है, तो मानकर
चलता है कि
संभव है। अगर
संभव को भी कोई
मान ले कि
असंभव है, तो
करने ही नहीं
निकलता। और
मान्यता फिर
असंभव ही बना
देगी; क्योंकि
जब करने ही
नहीं जाएंगे,
तो सिद्ध ही
हो जाएगा कि
देखो, असंभव
है; क्योंकि
फलित नहीं
होगा। और इस
तरह तर्क का
अपना एक
दुष्चक्र, एक
विशियस
सर्किल है।
अगर आप मानते
हैं कि असंभव
है, तो आप
करेंगे नहीं;
करेंगे
नहीं, तो
संभव नहीं हो
पाएगा। आपकी
मान्यता और
दृढ़ हो जाएगी
कि असंभव है।
देखो, कहा
था पहले ही कि
असंभव है!
अगर आप
असंभव को भी
संभव मानकर
चलते हैं, तो करने की
सामर्थ्य, शक्ति
बढ़ती है। और
कुछ आश्चर्य
नहीं कि असंभव
भी संभव हो
जाए। क्योंकि
बहुत असंभव
संभव होते
देखे गए हैं।
असल में हम
असंभव उसे
कहते हैं, जिसे
हम नहीं कर पा
रहे हैं।
लेकिन जिसे हम
नहीं कर पा
रहे हैं, उसे
नहीं ही कर
पाएंगे, ऐसा
निष्कर्ष
लेने की तो कोई
भी जरूरत नहीं
है।
पर
अक्सर हम अतीत
से निष्कर्ष
लेते हैं
भविष्य का।
अतीत भविष्य
का निर्धारक
नहीं है; और
अतीत से कोई
नतीजा भविष्य
के लिए नहीं
लिया जा सकता।
मैं अभी तक
नहीं मरा हूं,
इसलिए मैं
अगर कहूं कि
मृत्यु असंभव
है, तो
गलती है कुछ? इतने दिन का
अनुभव है, इतने
दिन जीकर जाना
है कि नहीं
मरता हूं। अगर
मैं कहूं कि
इतने वर्ष का
अनुभव!
एक
आदमी कहे कि
अस्सी वर्ष का
मेरा अनुभव कि
नहीं मरता हूं, नतीजा देता
है कि मृत्यु
असंभव है।
अस्सी वर्ष तक
जो संभव नहीं
हो पाया, वह
अचानक एक क्षण
में संभव हो
जाएगा, यह
तर्कयुक्त नहीं
मालूम होता।
जो अस्सी वर्ष
तक नहीं आ सकी
मौत, अस्सी
वर्ष तक मैं
प्रतीक्षा
करता रहा हूं,
वह एक क्षण
में कैसे आ
जाएगी? जिसको
अस्सी वर्ष
मैंने हराया,
वह एक क्षण
में मुझे कैसे
हराएगी? जो अस्सी
वर्ष तक मेरी
प्रतीति नहीं
बनी, वह एक
क्षण में मेरा
अनुभव नहीं बन
सकता है--ऐसा
अगर कोई कहे, तो गलत कह
रहा है? ठीक
ही मालूम पड़ता
है, तर्कयुक्त
मालूम पड़ता
है।
लेकिन
सभी
तर्कयुक्त
बातें सत्य
नहीं होतीं।
सच तो यह है कि
सभी असत्य
तर्कयुक्त
रूप लेते हैं।
सभी असत्य
अपने आस-पास
तर्क का जाल
बुन लेते हैं।
अर्जुन
कहता है, असंभव
मालूम पड़ता
है--अकल्पनीय,
इनकंसीवेबल--कोई धारणा
नहीं बनती कि
यह हो सकता है,
एक क्षण को
भी ठहरेगा मन।
लेकिन यह
अर्जुन बिना
जाने कह रहा
है।
अर्जुन
एक अर्थ में
ठीक कह रहा है, क्योंकि हम
सब का अनुभव
यही है। एक
अर्थ में गलत
कह रहा है, क्योंकि
जो हमारा
अनुभव नहीं है,
उसके संबंध
में कोई भी
विधायक
वक्तव्य ठीक
नहीं है।
एक
आदमी कहता है
कि मेरा जीवन
हो गया, मैंने
ईश्वर का कहीं
दर्शन नहीं
किया, इसलिए
ईश्वर नहीं
है। उसे इतना
ही कहना चाहिए
कि ईश्वर है
या नहीं, मुझे
पता नहीं।
इतना ही मुझे
पता है कि
मैंने उसका
अभी तक दर्शन
नहीं किया है।
तो बात बिलकुल
ही तथ्य की
है।
लेकिन
मैंने दर्शन
नहीं किया है, इसलिए ईश्वर
नहीं है, तो
फिर तर्क अपनी
सीमा के बाहर
गया। और अक्सर
तर्क कब अपनी
सीमा के बाहर
चला जाता है, हमें पता
नहीं चलता। एक
छोटी-सी छलांग
तर्क लेता है,
और खतरनाक
स्थितियों
में पहुंचा
देता है।
एक
बिलकुल
छोटी-सी छलांग; मैंने ईश्वर
को नहीं जाना
अब तक; बहुत
खोजा, नहीं
पाया। सब तरह
खोजा, नहीं
दर्शन हुआ, तो ईश्वर
नहीं है। इन
दोनों के बीच
में गैप है, जो आपको
दिखाई नहीं पड़
रहा है। इस
निष्पत्ति तक
पहुंचने के
लिए उतने आधार
काफी नहीं
हैं। इस निष्पत्ति
पर तो वही
पहुंच सकता है,
जो यह भी कह
सके कि जो भी
संभव था, वह
सब मैंने देख
लिया; जो
भी अस्तित्व
था, वह
मैंने पूरा
छान डाला; कोना-कोना
जहां तक असीम
का विस्तार था,
मैंने सब पा
लिया, देख
लिया। अब एक
रत्तीभर
अस्तित्व
नहीं बचा है छानने को, इसलिए मैं कहता
हूं कि ईश्वर
नहीं है। तब
उसकी बात में
कोई तर्कयुक्तता
हो सकती है।
लेकिन सदा शेष
है।
तो
अर्जुन के इस
संदेह में
वास्तविकता
है। फिर भी
कहीं कोई गहरी
भूल है।
दूसरी
बात वह कहता
है कि वायु की
तरह है। और ठीक
उसने उपमा ली
है। ठीक उसने
उपमा ली है।
लेकिन फिर भी उपमा
में कुछ
बुनियादी
भूलें हैं, वह खयाल में
ले लें, तो
कृष्ण का
उत्तर समझना
आसान हो
जाएगा।
एक तो
बुनियादी भूल
यह है कि वायु
पदार्थ है, मन पदार्थ
नहीं है। वायु
पदार्थ है, मन पदार्थ
नहीं है।
अर्जुन के
वक्त में तो
वायु को पकड़ना
मुश्किल था, अब मुश्किल
नहीं है। अगर
आज अर्जुन
सवाल पूछता, तो वायु की
उपमा नहीं ले
सकता था। आज
तो विज्ञान ने
सुलभ कर दिया
है। हम चाहें
तो वायु को ठंडा
करके पानी बना
ले सकते हैं।
और ज्यादा
ठंडा कर सकें,
तो ठोस
पत्थर की तरह
वायु जम
जाएगी।
क्योंकि
विज्ञान कहता
है, प्रत्येक
पदार्थ की तीन
अवस्थाएं
हैं। जैसे
बर्फ, पानी,
भाप। इसी
तरह प्रत्येक
पदार्थ की तीन
अवस्थाएं
हैं। और
प्रत्येक
पदार्थ एक
अवस्था से दूसरी
अवस्था में
प्रवेश कर
सकता है। वायु
भी एक विशेष
ठंडक पर जल की
तरह हो जाती
है; और एक
विशेष ठंडक पर
पत्थर की तरह
जम जाएगी। पदार्थ
की तीन अवस्थाएं
हैं।
खैर, अर्जुन को
उसका कोई पता
नहीं था। अगर
आज कोई अर्जुन
की तरफ से
पूछता, तो
वायु का
उदाहरण नहीं
ले सकता था।
क्योंकि वायु
अब बिलकुल
मुट्ठी में पकड़ी जा
सकती है; ठंडी
करके पानी
बनाई जा सकती
है; बर्फ
की तरह जमाई
जा सकती है।
उसे कोई आदमी
हाथ में लेकर
चल सकता है।
पदार्थ
की तुलना मन
से देने में
एक बुनियादी भूल
हो गई। मन तो
सिर्फ विचार
है। मन है
क्या, इसे
हम थोड़ा ठीक
से समझ लें, तो बहुत साफ
हो जाएगी बात।
दो
चीजों के बाबत
हमें बड़ी सफाई
है। एक तो शरीर
के बाबत बहुत
साफ स्थिति है
कि शरीर है।
वह पदार्थ का
समूह है। वह
पंचभूत कहें, या जितने
भूत हों उतने
कहें, उन
सब का समूह
है। उसके बाबत
बहुत स्थिति
साफ है। आत्मा
है, उसके
बाबत भी
स्थिति साफ है
कि वह पदार्थ
नहीं है। इतना
तो साफ है
नकारात्मक, कि वह
पदार्थ नहीं
है। वह चैतन्य
है, वह
कांशसनेस है।
यह मन क्या है
दोनों के बीच
में?
यह मन
दोनों के मिलन
से उत्पन्न
हुई एक बाइ-प्रोडक्ट
है। यह मन
पदार्थ और
चेतना के मिलन
से पैदा हुई
एक उत्पत्ति
है। वस्तुतः
देखा जाए, तो शरीर का
भी बहुत गहन
अस्तित्व है
और आत्मा का
भी। मन का गहन
अस्तित्व
नहीं है।
मन ऐसा
है, जैसे कि
मैं आपको एक
जंगल में मिल
जाऊं। और हम
दोनों के बीच
मैत्री का जन्म
हो। आप भी
बहुत हैं, मैं
भी बहुत हूं, लेकिन यह
मैत्री हम
दोनों के बीच
एक संबंध है।
यह मैत्री
पदार्थ भी
नहीं है, और
यह मैत्री
आत्मा भी नहीं
है। क्योंकि
अकेले दो
पदार्थों के
बीच यह घटित
नहीं हो सकती,
इसलिए
पदार्थ तो
नहीं है। और
अकेली दो
आत्माओं के
बीच भी घटित
नहीं हो सकती
बिना शरीरों
को बीच में
माध्यम बनाए,
तो यह सिर्फ
आत्मा भी नहीं
है। लेकिन
शरीर और आत्मा
मौजूद हों, तो मैत्री
नाम का एक
संबंध, एक
रिलेशनशिप
घटित हो सकती
है।
मन
वस्तु नहीं है, संबंध है।
मन पदार्थ
नहीं है, संबंध
है। इसे थोड़ा
ठीक से समझ
लें; क्योंकि
संबंध को
पदार्थ से
तुलना देने
में बड़ी भूल
हो जाएगी।
पदार्थ को कभी
तोड़ा नहीं जा सकता।
आप कहेंगे, तोड़ा जा
सकता है; हम
एक पत्थर के
दस टुकड़े कर
सकते हैं।
आपने पदार्थ
नहीं तोड़ा, सिर्फ पत्थर
तोड़ा है।
पदार्थ तोड़ने
का मतलब यह है
कि पत्थर को
आप इतना तोड़ें,
इतना तोड़ें
कि पत्थर
शून्य में
विलीन हो जाए।
आप नहीं तोड़
सकते।
विज्ञान कहता
है, कोई
पदार्थ तोड़ा
नहीं जा सकता
इस अर्थ में।
नष्ट नहीं
किया जा सकता।
लेकिन
संबंध नष्ट
किया जा सकता
है। मेरे और
आपके बीच की
मैत्री के
नष्ट होने में
कौन-सी कठिनाई
है! मैत्री
नष्ट हो सकती है; बिलकुल नष्ट
हो सकती है।
अस्तित्व में
फिर वह कहीं ढूंढ़े से न
मिलेगी।
संबंध
नष्ट हो सकते
हैं, पदार्थ
नष्ट नहीं
होता। वायु
पदार्थ है, मन संबंध
है। मन संबंध
है शरीर और
आत्मा के बीच।
शरीर और आत्मा
के बीच जो
दोस्ती है, उसका नाम मन
है। शरीर और
आत्मा के बीच
जो मैत्री हो
गई है, उसका
नाम मन है।
शरीर और आत्मा
के बीच जो राग
है, उसका
नाम मन है।
शरीर और आत्मा
के बीच जो
लेश्या है, उसका नाम मन
है। शरीर और
आत्मा के बीच
जो संबंध है, रिलेशनशिप
है, उसका
नाम मन है।
निश्चित
ही, यह संबंध
शरीर की तरफ
से आत्मा की
तरफ नहीं हो
सकता, क्योंकि
शरीर जड़ है।
अगर मैं अपनी
कार को प्रेम
करने लगता हूं,
तो भी मैं
यह नहीं कह
सकता कि मेरी
कार मुझे प्रेम
करती है। कार
की तरफ से
मेरी तरफ कोई
प्रेम नहीं हो
सकता। इकतरफा
है; वन वे
ट्रैफिक है।
तो
संबंध में भी
एक बात खयाल
रख लेना कि जब
दो
व्यक्तियों के
बीच मैत्री
होती है, तो
टू वे ट्रैफिक,
डबल
ट्रैफिक है।
यहां से भी
कुछ जाता है, वहां से भी
कुछ आता है।
लेकिन जब एक
व्यक्ति और एक
वस्तु के बीच
संबंध होता है,
तो वन वे
ट्रैफिक है।
एक ही तरफ से
जाता है; दूसरी
तरफ से कुछ
आता नहीं।
तो
संबंध भी यह
इस तरह का है, जैसा कि एक
व्यक्ति और
वस्तु के बीच
होता है; दो
व्यक्तियों
के बीच नहीं।
एक तरफ चेतना
है भीतर, और
दूसरी तरफ
पदार्थ है
शरीर। चेतना
की तरफ से ही
यह संबंध है।
और
ध्यान रहे, इकतरफा
संबंध में एक
सुविधा है, उसे तोड़ने
में सदा ही
इकतरफा
निर्णय काफी
होता है। दो
तरफा संबंध
तोड़ने में
कठिनाई है।
अगर मैं किसी
व्यक्ति को
प्रेम करूं, तो झंझट है
तोड़ते वक्त; क्योंकि
दूसरी तरफ से
भी कुछ
लेन-देन हुआ
है। और जब तक
दोनों राजी न
हो जाएं तोड़ने
को, तब तक
तोड़ने में
कठिनाई है, अड़चन है।
वस्तु
के साथ संबंध
तोड़ने में कोई
भी अड़चन नहीं
है, क्योंकि
इकतरफा है।
मेरा ही
निर्णय था कि
संबंधित हूं।
मेरा ही
निर्णय है कि
संबंधित नहीं हूं,
बात समाप्त
हो गई। वस्तु
जाकर किसी
अदालत में मुकदमा
नहीं करेगी कि
यह आदमी मुझे डायवोर्स
कर रहा है, कि
यह तलाक
मांगता है।
वस्तु को कोई
प्रयोजन नहीं
है। जब मेरा
संबंध था, तब
भी वस्तु का
कोई संबंध
मुझसे नहीं
था।
इसलिए
ध्यान रखें कि
मन एक संबंध
है, पहली बात,
वस्तु
नहीं। दूसरी
बात, मन
इकतरफा संबंध
है--चेतना का
शरीर की तरफ; शरीर से
चेतना की तरफ
नहीं। शरीर की
तरफ से चेतना
की तरफ कोई
संबंध की धारा
ही नहीं है।
सारी धारा
चेतना से शरीर
की तरफ है।
इसलिए
अर्जुन जब
कहता है, वायु
जैसा है, तो
कई भूलें करता
है। उपमा में
भूलें अक्सर
हो जाती हैं।
मन पदार्थ
नहीं है, इसलिए
वायु जैसा
नहीं है।
इसलिए वायु तो
किसी दिन पकड़
ली जाएगी, पकड़
ली गई; मन
को किसी भी
दिन नहीं पकड़ा
जा सकेगा।
संबंध को पकड़ने
का कोई उपाय
नहीं है।
इसीलिए
विज्ञान मन को
मानने तक को
राजी नहीं है।
उसका कारण है
कि उसकी
लेबोरेटरी
में, उसकी
प्रयोगशाला
में कहीं भी
मन पकड़ा नहीं
जा सकता।
एक
आदमी को काटकर, विज्ञान सब
तरफ से डिसेक्ट
करके खोज लेता
है। हड्डी
मिलती है, मांस
मिलता है, मज्जा
मिलती है, खून
मिलता है, पानी
मिलता है, लोहा,
तांबा सब
मिलता है। एक
चीज नहीं
मिलती, मन।
इसलिए
विज्ञान कहता
है, हमने
खोज करके देख
लिया, मन
नहीं मिलता।
और जो नहीं
मिलता है, वह
नहीं है। वही
भूल तर्क की
फिर हो रही
है। क्योंकि
जो नहीं मिलता,
जरूरी नहीं
है कि नहीं
हो। हो सकता
है, खोजने
का ढंग ऐसा है
कि वह नहीं
मिल सकता।
अगर
आपके हृदय की
काट-पीट करके
हम खोजें कि
प्रेम है या
नहीं; और न
मिले--नहीं
मिलेगा; अब
तक नहीं मिला।
कभी नहीं
मिलेगा।
फेफड़ा खोलकर
पूरा देख
लेंगे।
फुफ्फुस
मिलेगा, हवा
को फेंकने का
यंत्र
मिलेगा।
प्रेम-व्रेम नहीं
मिलेगा।
इसलिए
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
फेफड़ा है, हृदय है ही
नहीं। नाहक
हृदय-हृदय की
लोग बातें किए
जा रहे हैं! एक
कविता है हृदय,
यह है नहीं।
लेकिन
क्या आप मानने
को राजी होंगे
कि प्रेम नहीं
है? सबका
अनुभव है कि
है। मां जानती
है कि है।
बेटा जानता है
कि है। मित्र
जानते हैं कि
है। प्रेमी
जानते हैं कि
है।
अनुभव
में सबके है
प्रेम, लेकिन
फिर भी
प्रयोगशाला
में सिद्ध
नहीं होगा। और
अगर
प्रयोगशाला
के वैज्ञानिक
से आपने जिद्द
की, तो आप
ही गलत सिद्ध
होंगे। असल
में प्रयोगशाला
जिन साधनों का
उपयोग कर रही
है, वे
वस्तुओं के पकड़ने के
साधन हैं, उनसे
संबंध पकड़ में
नहीं आते।
संबंध छूट
जाते हैं।
संबंध
वस्तु नहीं
है। और इसलिए
संबंध की एक
खूबी है कि
संबंध बन सकता
है और विनष्ट
हो सकता है।
संबंध शून्य
से पैदा होता
है और शून्य
में विलीन हो
जाता है।
इस बात
को ठीक से समझ
लें।
वस्तु
कभी भी पैदा
नहीं होती; वस्तु सदा
है। और कभी
नष्ट नहीं
होती; सदा
है। न तो
वस्तु का कोई
सृजन होता है
और न कोई
विनाश होता है;
सिर्फ
रूपांतरण
होता है। जो
अभी पानी था, वह बर्फ बन
जाता है। जो
बर्फ था, वह
पानी बन जाता
है। जो पानी
था, वह भाप
बन जाता है।
जो अभी पहाड़
पर जमा था, वह
समुद्र में
पिघलकर बह
जाता है। जो
अभी शरीर था, वह कल खाद बन
जाता है। जो
अभी खाद है, वह कल शरीर
बन जाता है।
जो अभी पौधे
में बीज की तरह
प्रकट हुआ है,
वह कल आपका
खून बन जाता
है। जो अभी
आपके भीतर खून
है, कल
जमीन में
समाकर फिर
किसी बीज में
प्रवेश कर
जाएगा। सब
रूपांतरण हैं;
लेकिन मूल
नहीं खोता है।
मूल थिर है।
आइंस्टीन
का खयाल
स्वीकृत हुआ
है, और वह यह
कि इस जगत में
जितनी वस्तु
है, जितना
मैटर है, वह
सीमित है।
क्योंकि
उसमें नया
नहीं जुड़ सकता
और पुराना घट
भी नहीं सकता।
वह कितना ही
विराट हो, लेकिन
पदार्थ सीमित
है। हम नाप
पाएं कि न नाप पाएं;
हमारे
नापने के साधन
छोटे पड़ जाएं,
लेकिन
पदार्थ सीमित
है, क्योंकि
उसमें नया एडीशन
नहीं हो सकता।
एक पानी की
बूंद ज्यादा
नहीं जोड़ी जा
सकती इस जगत
में!
आप
कहेंगे, हम
हाइड्रोजन और
आक्सीजन को
मिलाकर पानी
बना सकते हैं।
बिलकुल बना
सकते हैं।
लेकिन
हाइड्रोजन
आक्सीजन को ही
मिलाकर बना
सकते हैं। वह
हाइड्रोजन आक्सीजन
का एक रूप है।
वह कोई नई
घटना नहीं है।
आज तक एक रेत
का टुकड़ा भी
हम नया नहीं
बना सकते हैं।
न बना सके हैं
और न बना
सकेंगे।
पदार्थ
जैसा है, है।
जितना है, है।
उतना ही है, उतना ही
रहेगा। लेकिन
संबंध रोज नए
बन सकते हैं, और रोज खो जा
सकते हैं।
इस
जमीन पर जितने
लोग रहे हैं, उनके शरीरों
में जितना था,
वह सब अभी
इस जमीन में
मौजूद है; जमीन
का वजन
कम-ज्यादा
नहीं होता। हम
कितने ही लोग
पैदा हों, मर
जाएं, जमीन
का वजन उतना
ही रहता है।
हम जब जिंदा
रहते हैं, तब
भी उतना रहता
है; जब मर
जाते हैं, तब
भी जमीन का
वजन उतना ही
रहता है।
हमारे शरीर
में से कुछ
खोता नहीं।
हां, जमीन
में गिर जाता
है, रूप
बदल जाते हैं।
लेकिन
हमारे
संबंधों का
क्या होता है? कोई प्रेम
किया था। कोई फरिहाद
किसी शीरी
को प्रेम किया
था। उस प्रेम
का क्या हुआ? जब वह प्रेम
चल रहा था, तब
भी जमीन पर
कोई चीज बढ़ी
नहीं थी, और
जब वह प्रेम
नहीं है, तब
भी जमीन पर
कोई चीज घटी
नहीं है। वह
प्रेम क्या था?
वह चला है, यह निश्चित
है। क्योंकि
वह प्रेम इतना
बड़ा भी हो
जाता है कभी
कि कोई अपने पदार्थगत
शरीर की गर्दन
काट दे।
प्रेमी अपने
को मार डाल
सकता है।
प्रेम इतना हो
सकता है गहन
कि शरीर को
तोड़ दे, जीवन
को नष्ट कर
दे। तो वह
प्रेम नहीं है,
ऐसा नहीं
कहा जा सकता।
वह है तो है
ही। और कभी-कभी
तो जीवन से भी
ज्यादा वजनी
हो जाता है।
लेकिन वह है
क्या?
वह
संबंध है, रिलेशनशिप
है। संबंध की
एक खूबी है कि
वह खो सकता है;
बन भी सकता
है, मिट भी
सकता है।
इसलिए
अर्जुन का यह
खयाल कि वायु
की तरह है यह मन, ठीक नहीं
है। उदाहरण
करीब-करीब
सूचक है, लेकिन
ठीक नहीं है।
प्रामाणिक
नहीं है। जमता
है, फिर भी
बहुत गहरे में
नहीं जमता है।
मन एक संबंध
है।
और यह
भी बात अर्जुन
की ठीक नहीं
है--हम सबके मन में
हैं ये बातें, इसलिए मैं
कह रहा हूं--यह
भी बात अर्जुन
की ठीक नहीं
है कि इस मन को
थिर नहीं किया
जा सकता। क्योंकि
एक और गहरे
नियम की आपको
मैं बात कर
दूं, जो भी
चीज चंचल हो
सकती है, वह
थिर हो सकती
है। और जो चीज
थिर नहीं हो
सकती, वह
चंचल भी नहीं
हो सकती। जो
भी दौड़ सकता
है, वह खड़ा
हो सकता है।
और जो खड़ा भी
नहीं हो सकता,
वह दौड़ भी
नहीं सकता।
अगर आप दौड़
सकते हैं, तो
आप खड़े हो
सकते हैं।
दौड़ने की
क्षमता साथ
में ही खड़े
होने की
क्षमता भी है।
भला आप कभी खड़े
न हुए हों, दौड़ते
ही रहे हों, और अब ऐसी
आदत बन गई हो
कि आपको खयाल
ही न आता हो कि
खड़े कैसे
होंगे! बन
जाता है।
मैंने
सुना है कि एक
आदमी
पक्षाघात से, पैरालिसिस
से परेशान है
दस साल से। घर
के भीतर बंद
पड़ा है; उठ
नहीं सकता।
लेकिन एक दिन
रात, आधी
रात अंधेरे
में आग लग गई।
सारे घर के
लोग बाहर निकल
गए। वह
पैरालिसिस से
करीब-करीब मरा
हुआ आदमी, वह
भी दौड़कर
बाहर आ गया।
जब वह दौड़कर
बाहर आया, तो
लोग चकित हुए।
वे तो हैरान
थे कि अब क्या
होगा, उसको
निकाला नहीं
जा सकता।
लेकिन जब उसको
लोगों ने
दौड़ते देखा, तो मकान की
आग तो भूल गए
लोग। दस साल
से वह आदमी हिला
नहीं था, वह
दौड़ रहा है!
लोगों
ने कहा, यह
क्या हो रहा
है। चमत्कार,
मिरेकल! आप,
और दौड़ रहे
हैं! उस आदमी
ने नीचे झांककर
अपने पैर
देखे। उसने
कहा, मैं
दौड़ कैसे सकता
हूं! वापस गिर
गया। मैं दौड़
ही कैसे सकता
हूं? दस
साल से...!
लेकिन
अब वह कितना
ही कहे कि दौड़
नहीं सकता, लेकिन वह
खाट से मकान
के बाहर आया
है। फिर नहीं
उठ सका वह
आदमी। पर क्या
हुआ क्या? इस
बीच आ कैसे
गया?
वह जो
एक कंडीशनिंग
थी, एक खयाल
था कि मैं उठ
नहीं सकता, चल नहीं
सकता, आग के
सदमे में भूल
गया। बस, इतना
ही हुआ। एक
शॉक। और वह
भूल गया
पुरानी आदत।
दौड़ पड़ा।
सौ में
से नब्बे
पक्षाघात के
बीमार मानसिक
आदत से बीमार
हैं। सौ में
से नब्बे!
शरीर में कहीं
कोई खराबी
नहीं है। सौ
में से नब्बे, मैं कह रहा
हूं। लेकिन एक
आदत है।
और मन
के मामले में
तो सौ में से
सौ दौड़ने के
बीमार हैं।
पक्षाघात से
उलटा। इतने
जन्मों से मन
को दौड़ा
रहे हैं कि अब
यह सोच में भी
नहीं आता कि
मन खड़ा हो
सकता है? नहीं
हो सकता। कौन
कहता है, नहीं
हो सकता? यह
मन ही कह रहा
है।
तो
अर्जुन जो
सवाल पूछ रहा
है, वह अगर
ठीक से हम
समझें, तो
अर्जुन नहीं
पूछ रहा है।
अर्जुन अभी है
भी नहीं, पूछेगा
कैसे! मन ही
पूछ रहा है।
मन ही कह रहा
है कि मैं कभी
खड़ा नहीं हो
सकता। मैं कभी
खड़ा हुआ ही
नहीं। मैं सदा
चलता ही रहा।
दौड़ना मेरी
प्रकृति है।
चंचलता मेरा
स्वभाव है।
मैं चंचलता ही
हूं; मैं
खड़ा नहीं हो
सकता।
लेकिन
ध्यान रहे, इस जगत में
प्रत्येक
शक्ति अपनी
विपरीत शक्ति
से जुड़ी होती
है। जो जीएगा,
वह मरेगा।
जीने के साथ
मरना जुड़ा
रहता है। यहां
कोई भी शक्ति
अकेली पैदा
नहीं होती, पोलेरिटी में पैदा
होती है।
अस्तित्व पोलर
है, ध्रुवीय
है। यहां हर
चीज अपने
विपरीत से जुड़ी
है, विपरीत
के बिना
अस्तित्व में
नहीं हो सकती।
अगर हम
दुनिया से
प्रकाश
समाप्त कर दें, तो आप सोचते
होंगे, अंधेरा
ही अंधेरा रह
जाएगा। आप गलत
सोचते हैं।
अगर हम दुनिया
से प्रकाश
समाप्त कर दें,
अंधेरा
तत्काल
समाप्त हो
जाएगा। आप
कहेंगे, फिर
क्या होगा? कुछ भी हो, अंधेरा नहीं
हो सकता। हां,
बात असल यह
है कि प्रकाश
आप समाप्त न
कर पाएंगे।
इसलिए पता
करना मुश्किल
है। प्रकाश और
अंधेरा
संयुक्त
अस्तित्व
हैं।
और
आसान होगा
समझना, अगर
दुनिया से हम
गर्मी समाप्त
कर दें, तो
क्या आप सोचते
हैं, सर्दी
बच रहेगी? ऊपर
से तो ऐसे ही
दिखाई पड़ता है
कि गर्मी
बिलकुल
समाप्त हो जाएगी,
तो एकदम
ठंडक हो जाएगी
दुनिया में।
लेकिन ठंडक
गर्मी का एक
रूप है, गर्मी
के साथ ही
समाप्त हो
जाएगी। वह
दूसरा पोल है।
अगर आप
सोचते हों कि
हम सब पुरुषों
को समाप्त कर
दें, तो
दुनिया में
स्त्रियां ही
स्त्रियां रह
जाएंगी, तो
आप गलत सोचते
हैं। अगर सब
पुरुषों को
समाप्त कर दें,
स्त्रियां
तत्काल
समाप्त हो
जाएंगी। या सब
स्त्रियों को
समाप्त कर दें,
तो पुरुष
तत्काल
समाप्त हो
जाएंगे। वे पोलर हैं।
वे एक-दूसरे
के छोर हैं।
एक ही साथ हो
सकते हैं, अन्यथा
नहीं हो सकते।
क्या
आप सोचते हैं, इस दुनिया
में हम
शत्रुता
समाप्त कर दें,
तो मित्रता
ही बचेगी? तो
आप गलत सोचते
हैं। हालांकि
बहुत लोग इसी
तरह सोचते हैं
कि दुनिया से
शत्रुता
समाप्त कर दो,
तो मित्रता
ही मित्रता बच
जाएगी! उन्हें
कोई पता नहीं
है अस्तित्व
के नियमों का।
जिस दिन दुनिया
से शत्रुता
समाप्त होगी,
उसी दिन
मित्रता
समाप्त हो
जाएगी।
मित्रता जीती
है शत्रुता के
साथ।
दुनियाभर
के शांतिवादी
हैं, वे कहते
हैं कि दुनिया
से युद्ध बंद
कर दो, तो
शांति ही
शांति हो
जाएगी। वे गलत
कहते हैं।
उन्हें जीवन
के नियम का
कोई पता नहीं
है। अगर आप
युद्ध समाप्त
करते हैं, उसी
दिन शांति भी
समाप्त हो
जाएगी। पोलर
है। अस्तित्व
एक-दूसरे से
बंधा है, विपरीत
से बंधा है।
ऊपर से
सोचने में ऐसा
लगता है कि
ठीक है, पुरुष
को समाप्त
करने से...हम सब
पुरुषों की छाती
में छुरा भोंक
दें। तो
स्त्रियों की
छाती में तो
छुरा भोंक ही
नहीं रहे, तो
वे तो बचेंगी
ही! पर आपको
पता ही नहीं
है। वे तत्काल
विनष्ट हो
जाएंगी। इधर
पुरुष समाप्त
होंगे, उधर
स्त्रियां कुम्हलाएंगी,
सूखेंगी और विदा हो
जाएंगी। जिस
दिन आखिरी
पुरुष समाप्त
होगा, उस
दिन आखिरी
स्त्री मर
जाएगी।
अस्तित्व
पोलर है, ध्रुवीय है।
हर चीज अपने
विपरीत के साथ
जुड़ी है।
इसलिए
अर्जुन का यह
कहना कि मन
चंचल है, इसलिए
ठहर नहीं सकता,
गलत है।
चंचल है, इसीलिए
ठहर सकता है।
चंचल है, इसीलिए
ठहर सकता है।
अगर जीवन के
नियम का बोध हो,
तो कहना था
ऐसा कि मन का
स्वभाव चूंकि
चंचल है, हे
मधुसूदन, इसलिए
मेरी बात समझ
में आ गई। मन
ठहर सकता है।
यह ठीक
नियमयुक्त
बात होती, लेकिन बड़ी
एब्सर्ड। अगर
अर्जुन ऐसा
कहता कि मन
चंचल है, इसलिए
मैं समझ गया
कि ठहर सकता
है, तो
हमें भी बड़ी
दिक्कत पड़ती
गीता समझने
में। हम कहते,
यह अर्जुन
कैसा पागल है!
जब मन चंचल है,
तो ठहरेगा
कैसे?
तो यह
तो हमें, यह सिलोजिज्म,
यह
तर्क-वाक्य तो
ठीक मालूम
पड़ता है कि मन
चंचल है, मधुसूदन,
इसलिए, देअर
फोर, ठहर
नहीं सकता। यह
तो बिलकुल
तर्कयुक्त
मालूम पड़ता
है।
लेकिन
मैं आपसे कहता
हूं, यह
तर्कयुक्त है,
लेकिन सत्य
नहीं है। सत्य
वचन तो यह
होगा कि चूंकि
मन चंचल है, मधुसूदन, इसलिए, देअरफोर, ठहर सकता
है। यह सत्य
होगा।
क्योंकि आदमी
जीवित है, इसलिए
मर सकता है।
अगर आपने कहा,
चूंकि आदमी
जीवित है, इसलिए
नहीं मर सकता,
तो गलत
होगा। अगर
आपने कहा कि
आदमी स्वस्थ
है, इसलिए
बीमार नहीं पड़
सकता, तो
गलत है। अगर
आप कहें कि
आदमी स्वस्थ
है, इसलिए
बीमार पड़ सकता
है, तो ठीक
है।
असल
में स्वस्थ
आदमी ही बीमार
पड़ता है। अगर
आप इतने बीमार
हो जाएं कि
डाक्टर कह दे, स्वास्थ्य
रत्तीभर नहीं
बचा, तो
फिर आप बीमार
न पड़ सकेंगे, ध्यान रखना।
मरा हुआ आदमी
कभी बीमार
पड़ते देखा है
आपने? आप
कह सकते हैं
कि यह मुर्दा
बीमार पड़ गया?
मुर्दा
बीमार पड़ता ही
नहीं। पड़ ही
नहीं सकता। जिंदा
ही बीमार पड़
सकता है।
स्वास्थ्य हो,
तो ही आप
बीमार पड़ सकते
हैं। असल में
बीमारी का पता
ही इसलिए चलता
है कि
स्वास्थ्य का
भी पता चलता
है। यह पोलर
है, यह
ध्रुवीय है।
पर
अर्जुन को इस
सत्य का कोई
बोध नहीं है।
हम जैसा ही
उसका मन है।
जिस तर्क-विधि
से हम चलते
हैं, उसी
तर्क-विधि से
वह चलता है।
हम कहते हैं
कि फलां
व्यक्ति से
मेरा इतना
प्रेम है कि
कभी झगड़ा
नहीं होगा। बस,
हम गलत
बातों में पड़
गए। जिससे
प्रेम है, उससे
झगड़ा
होगा। पोलर
हैं। जब आपका
किसी से प्रेम
हो, तो आप
समझ लेना कि
आप झगड़े का एक
नाता स्थापित कर
रहे हैं।
लेकिन
हमारा तर्क
नहीं है ऐसा।
हम कहते हैं, मेरा इतना
प्रेम है कि झगड़ा कभी
नहीं होगा। बस,
मूढ़ता में पड़े आप।
आपको जिंदगी
की पोलेरिटी
का कोई पता
नहीं है।
जिससे जितना
ज्यादा प्रेम
है, उससे
उतनी ही कलह
की संभावना
है। अगर कलह
से बचना हो, तो कृपा
करके प्रेम से
बच जाना। और
आप सोचते हों
कि
प्रेम-प्रेम
हम सम्हाल
लेंगे, और
कलह-कलह से बच
जाएंगे, तो
आप निपट
अंधकार में
हो। आपको
जिंदगी में यह
कभी भी रास्ते
पर नहीं लाएगी
बात।
जिसको
शत्रुता से
बचना हो, उसको
मित्रता से बच
जाना चाहिए।
लेकिन हम करते
हैं कोशिश कि
मित्र बना लें,
ताकि
शत्रुता से बच
जाएं। प्रेम
फैला दें, ताकि
संघर्ष न हो।
अपना बना लें,
ताकि कोई
पराया न रहे।
जो जितना गहरा
आपका अपना है,
उससे आपको
उतने ही पराएपन
के क्षण
उपलब्ध
होंगे। जो
आपके जितना
निकट है, किन्हीं
क्षणों में वह
आपको इस
पृथ्वी पर सर्वाधिक
दूर मालूम
पड़ेगा।
मगर यह
जीवन का गहरा
नियम है, जो
हमारे
सामान्य
हिसाब में
नहीं आता। और
इसलिए हम जिंदगीभर
गलती किए चले
जाते हैं। जिंदगीभर
गलती किए चले
जाते हैं।
मेरे पास लोग
आते हैं, वे
कहते हैं कि मेरा
तो मेरी पत्नी
से इतना प्रेम
है, फिर
कलह क्यों
होती है? मैं
कहता हूं, इसीलिए।
और तो कोई
कारण नहीं है।
अभी एक
मौका आया। कोई
आठ साल पहले
एक महिला ने मुझे
आकर कहा था कि
मेरे पति से
बहुत कलह होती
है। और मेरा
प्रेम इतना
है! मेरा यह
प्रेम-विवाह
है, और हमने
जी-जान लगाकर
यह शादी की
है। न मेरे घर
के लोग पक्ष
में थे, न
उस घर के लोग
पक्ष में थे।
और जब तक हम घर
के लोगों से
लड़ रहे थे, तब
तक ही हमारा
प्रेम रहा। और
जब से हमने
शादी की, तब
से हम दोनों
लड़ रहे हैं!
इतना प्रेम था
कि हम जीवन
देने को तैयार
थे, और अब
हालत ऐसी है
कि एक साथ
बैठना
मुश्किल हो
गया है। बात
क्या है? मैंने
कहा, यही
बात है। इतना
प्रेम होगा, तो यही फल
होगा।
फिर आठ
साल बाद वह
महिला मुझे
मिली। मैंने
उससे पूछा, कहो, कलह
कैसी चल रही
है? उसने
कहा, कलह!
कलह अब बिलकुल
नहीं चलती, क्योंकि
प्रेम ही नहीं
रहा। अब कलह
भी नहीं चलती।
उसने जो शब्द
मुझे कहे, वे
बहुत ठीक थे।
उसने कहा, अब
कलह भी नहीं
चलती है। अब
तो कोई संबंध
ही नहीं रहा।
बात ही शांत
हो गई। प्रेम
ही नहीं बचा; अब कलह भी
नहीं बची!
जितना
हम मन के भीतर
जाएंगे या
जीवन के भीतर
जाएंगे, उतना
इस विरोधी
तत्व को
पाएंगे। रिपल्शन
और अट्रैक्शन,
विकर्षण और
आकर्षण एक साथ
हैं। राग और
विराग एक साथ
हैं। विरोध
साथ में खड़े
हैं।
इसलिए
अर्जुन लगता
है कि ठीक पूछ
रहा है; ठीक
नहीं पूछ रहा
है। और अर्जुन
को यह भी खयाल नहीं
है कि कृष्ण
जो कह रहे हैं,
वह कोई
सिद्धांत
नहीं कह रहे
हैं। अगर
कृष्ण कोई
सिद्धांत कह
रहे हैं, तो
अर्जुन कृष्ण
को हरा देगा।
अगर कृष्ण कोई
सिद्धांत कह
रहे हैं, तो
अर्जुन कृष्ण
को हरा देगा।
क्योंकि
सिद्धांत के
माध्यम से मन
को हल करने का
कोई उपाय नहीं
है। क्योंकि
सब सिद्धांत
मन की संततियां
हैं।
सिद्धांत के
द्वारा मन को
हराने का कोई
उपाय नहीं है,
क्योंकि सब
सिद्धांत मन
ही पैदा करता
है और निर्मित
करता है।
अभी
मैं एक महानगर
में था। एक
पंडित, बड़े
सज्जन, भले
आदमी। एक ही
बुराई, कि
पंडित। वे
मुझे मिलने
आए। मैंने
उनसे पूछा, क्या कर रहे
हैं आप जिंदगीभर
से? उन्होंने
कहा कि मेरा
तो एक ही काम
है कि मैं जैन
साधु-साध्वियों
को सिद्धांत
की शिक्षा
देता हूं।
मैंने कहा, कितनों को
दिया? उन्होंने
कहा, सैकड़ों जैन
साधु-साध्वियों
को मैंने
निष्णात किया
है। शास्त्र
का बोध दिया
है। मैंने कहा,
इतने सैकड़ों
जैन
साधु-साध्वी
आपने बना दिए,
लेकिन आप अब
तक साधु नहीं
हुए? उन्होंने
कहा, मैं
तो नौकरी
बजाता हूं।
मैंने कहा, तो कभी सोचा
कि नौकरी
बजाने वाला
पंडित जिन साधु-साध्वियों
को पैदा किया
होगा, वे
किस हालत के
होंगे? नौकर
से भी गए-बीते
होंगे! कितनी
महीने की तनख्वाह
मिलती है! वे
कहने लगे, ज्यादा
नहीं देते।
पैसा तो
जैनियों पर
बहुत है, लेकिन
डेढ़ सौ
रुपए महीने से
ज्यादा नहीं
देते! मैंने
कहा, तुमने
जो
साधु-साध्वी
पैदा किए, उनकी
कीमत कितनी
होगी? डेढ़ सौ रुपए
महीने का
मास्टर
साधु-साध्वी
पैदा कर रहा
है! सिद्धांत
की शिक्षा दे
रहा है!
मैंने
कहा, जिन
सिद्धांतों
को तुम लोगों
को समझाते हो,
उनके सत्य
का तुम्हें
खुद कोई अनुभव
नहीं हुआ? उसने
कहा कि बिलकुल
नहीं। मैं तो
अपने डेढ़
सौ रुपए के
लिए करता हूं।
अगर
अर्जुन किसी
पंडित के पास
होता, तो
पंडित को हरा
देता।
क्योंकि
अर्जुन जो कह
रहा है, वे
जीवन की
गहराइयां
हैं। हमारी
ऐसी उलझन है।
लेकिन कृष्ण
के साथ कठिनाई
है, क्योंकि
कृष्ण कोई
सिद्धांत की
बात नहीं कर रहे,
सत्य की बात
कर रहे हैं।
इसलिए अर्जुन
कितनी ही
कठिनाइयां
उठाए, वे
सत्य के सामने
एक-एक जड़ सहित उखड़कर
गिरती चली
जाएंगी। उसने
उचित कठिनाई
उठाई है।
मनुष्य की वह
कठिनाई है।
मनुष्य के मन
की कठिनाई है।
लेकिन जिस
आदमी के सामने
उठाई है, उसे
सिद्धांतों
में कोई रस
नहीं है।
इसीलिए
गीता में एक
अभूतपूर्व
घटना घटी है
कि गीता में
कृष्ण ने इतने
सिद्धांतों
का उपयोग किया
है कि दुनिया
में जितने
सिद्धांत हो
सकते हैं, करीब-करीब
सबका। और
इसलिए सभी
सिद्धांतवादी
पंडितों को
गीता बड़े काम
की मालूम पड़ी है,
क्योंकि सब
अपने मतलब की
बात गीता से
निकाल सकते
हैं। इसीलिए
तो गीता पर
इतनी टीकाएं
हो सकी हैं।
एकदम एक-दूसरे
से विरोधी!
लेकिन
उन टीकाओं में
एक भी कृष्ण
को समझने की सामर्थ्य
की टीका नहीं
है। उसका कारण
है। क्योंकि
जो भी टीका
निकाल रहा है, उसका
सिद्धांत
पहले से तय है,
गीता को
जानने के पहले
से तय है। और
अपने सिद्धांत
को वह गीता पर
थोप देता है।
जब कि कृष्ण का
कोई सिद्धांत
नहीं है।
कृष्ण का कुछ
सत्य जरूर है।
और वह उस सत्य
तक पहुंचाने
के लिए किसी भी
सिद्धांत का
उपयोग कर सकते
हैं। इसलिए वे
भक्ति की भी
बात करते हैं,
ज्ञान की भी,
कर्म की भी,
ध्यान की भी,
योग की भी।
वे सारी बात
करते चले जाते
हैं। ये सब
सिद्धांत
सिद्धांत की
तरह विरोधी
हैं, सत्य
की तरह
अविरोधी हैं।
सत्य की तरह
कोई विरोध
नहीं है, लेकिन
सिद्धांत की
तरह भारी विरोध
है।
इसलिए
गीता पर जितना
अनाचार हुआ है, ऐसा अनाचार
किसी पुस्तक
पर पृथ्वी पर
नहीं हुआ है।
क्योंकि एक
सिद्धांत को
मानने वाला जब
गीता की
व्याख्या
करता है, तो
वह अपने
सिद्धांत को
सब
सिद्धांतों
की गर्दन
काटकर गीता पर
थोप देता है।
एक गर्दन बचा
लेता है। जो
उसके
सिद्धांत से
कहीं मिलता है,
उसको बचा
लेता है। बाकी
सब की गर्दन
कलम कर देता
है। गीता की
हत्या हो जाती
है।
गीता
सिद्धांतवादी
शास्त्र नहीं
है, गीता एक
सत्य की उदघोषणा
है। सिद्धांत
का मोह नहीं
है। इसलिए
विपरीत सिद्धांतों
की एक साथ
चर्चा है--एक
साथ। गीता तर्क
का शास्त्र
नहीं है। अगर
तर्क का
शास्त्र होता,
तो कंसिस्टेंट
होता, एक
संगति होती
उसमें।
गीता
जीवन का
शास्त्र है।
जितना विरोधी
जीवन है, उतनी
ही विरोधी
गीता है।
जितना जीवन पोलर है, स्वविरोधी है, उतने
ही गीता के
वक्तव्य स्वविरोधी
हैं।
और
कृष्ण से
ज्यादा तरल आदमी, लिक्विड आदमी खोजना
कठिन है। वे
कहीं भी बह
सकते हैं। पत्थर
की तरह नहीं
हैं कि बैठ गए
एक जगह। पानी की
तरह बह सकते
हैं। या और भी
उचित होगा कि
भाप की तरह
हैं। बादल की
तरह कोई भी
रूप ले सकते
हैं। कोई
ढांचा नहीं
है।
इसलिए
अर्जुन
दिक्कत में
पड़ता जाता है।
अपनी ही
शंकाएं उठाकर
दिक्कत में
पड़ता जाता है।
क्योंकि उसकी
प्रत्येक
शंका उसके मन
की सूचना देती
है कि वह कहां
खड़ा है। इस
प्रश्न ने
अर्जुन की
स्थिति को
बहुत साफ किया
है।
अर्जुन
को मन के ऊपर
किसी चीज का
उसे कोई अनुभव
नहीं है।
तर्क-बुद्धि
उसके पास गहरी
है। सोचता-समझता
है, लेकिन
भाव के जगत
में उसका कोई
प्रवेश नहीं
है। नियम की
बात करता है, लेकिन गहरे,
अल्टिमेट नियम का उसे
कोई भी अहसास
नहीं है।
इस
वक्तव्य ने
अर्जुन के
अर्जुन की
स्थिति बहुत
साफ की है। और
कृष्ण के लिए
अब उसकी
स्थिति को हल
करना प्रतिपल
आसान होता चला
जाएगा। सबसे
बड़ी कठिनाई यह
है, वह
कठिनाई है, डायग्नोसिस की, निदान
की। और जहां
तक शरीर की डायग्नोसिस,
बीमारियों
का पता लगाने
का सवाल है, हम उपाय कर
सकते हैं।
लेकिन जहां तक
मन की बीमारियों
का सवाल है, उनको कन्फेस
करवाना पड़ता
है। और कोई
उपाय नहीं है।
उनको बीमार से
ही स्वीकृति दिलवानी
पड़ती है।
फ्रायड
एक काम करता
रहा
है--करीब-करीब
कृष्ण वही काम
कर रहे
हैं--फ्रायड
एक काम करता
रहा है, और
फ्रायड के
पीछे चलने
वाले मनसविदों
का जो समूह है,
साइकोएनालिस्ट्स का, वे भी
एक काम करते
रहे हैं। वे
मरीज को पर्दे
के पीछे एक
कोच पर लिटा
देते हैं। और
उससे कहते हैं,
जो तुझे
बोलना है बोल।
कुछ भी छिपाना
मत, जो
तेरे मन में
आए, बोलते
जाना। कभी वह
गीत गाता है।
कभी गालियां बकता
है। कभी भजन
बोलने लगता
है। जो तेरे
मन आए, बस
मन में आए, उसको
तू शब्द देते
जाना। तू यह
भी मत फिक्र
करना कि वह
ठीक है कि
गलत।
पर्दे
के पीछे छिपा
हुआ
मनोवैज्ञानिक
बैठा रहता है।
वह आदमी पर्दे
के पार
अनर्गल--हमें
अनर्गल दिखाई
पड़ता है बाहर
से, उसके
भीतर तो उसकी
भी संगति
है--वह बोलता
चला जाता है।
जैसा हम सब
अंदर बोलते
रहते हैं, अगर
जोर से बोल
दें, बस
वैसे ही। वह
बोलता चला
जाता है।
एक-दो
दिन, तीन दिन
तो थोड़ा रोकता
है, कोई-कोई
बात छिपा जाता
है। लगता है
कि नहीं बोलनी
चाहिए, तो
छिपा लेता है।
लेकिन तीन-चार
दिन में वह धीरे-धीरे
राजी हो जाता
है, हल्का
हो जाता है, बहने लगता
है, और
बोलने लगता
है। फिर
मनोवैज्ञानिक
पीछे बैठकर
खोज करता रहता
है कि उसके मन
का सार मिल
जाए।
कृष्ण
भी अर्जुन से
ऐसी बातें कह
रहे हैं कि अर्जुन
के मन का सार
मिल जाए।
अर्जुन का मन
साफ प्रकट हो
जाए। इस
वक्तव्य में
अर्जुन के मन
का सार साफ
हुआ है, अर्जुन
के मन का
निदान हुआ है।
अब कृष्ण
चिकित्सा में
ज्यादा
व्यवस्था से
लग सकते हैं।
श्रीभगवानुवाच
असंशयं महाबाहो
मनो दुर्निग्रहं
चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय
वैराग्येण
च गृह्यते।।
35।।
हे महाबाहो, निःसंदेह मन
चंचल और
कठिनता से वश
में होने वाला
है, परंतु
हे
कुंतीपुत्र
अर्जुन, अभ्यास
अर्थात
स्थिति के लिए
बारंबार यत्न
करने से और वैराग्य
से वश में
होता है।
कृष्ण
ने अर्जुन की
मनोदशा को
देखकर कहा, निश्चय ही
अर्जुन, मन
बड़ी मुश्किल
से वश में
होने वाला है।
यह जो
कहा, निश्चय
ही, यह
मनुष्य के मन
की स्थिति के
लिए कहा है।
निश्चय ही, जैसा मनुष्य
है, ऐज वी आर, जैसे
हम हैं; हमें
देखकर, निश्चय
ही मन बड़ी
मुश्किल से वश
में होने वाला
है। जैसा आदमी
है, अगर हम
उसे वैसा ही
स्वीकार करें,
तो शायद मन
वश में होने
वाला ही नहीं
है।
लेकिन--और
उस लेकिन में
गीता का सारा
सार छिपा है--
लेकिन अर्जुन, अभ्यास और
वैराग्य से मन
वश में हो
जाता है।
जैसा
मनुष्य है, अगर हम उसे
अनछुआ, वैसा
ही रहने दें, और चाहें कि
मन वश में हो
जाए, तो मन
वश में नहीं
होता है।
क्योंकि जैसा
मनुष्य है, वह सिर्फ मन
ही है। मन के
पार उसमें कुछ
भी नहीं है।
मन के पार
उसका कोई भी
अनुभव नहीं
है। मन को वश
में करने की
कोई भी कीमिया,
कोई भी
तरकीब उसके हाथ
में नहीं है।
लेकिन--और
लेकिन बहुत
महत्वपूर्ण
है; और ये
दो शब्द, अभ्यास
और वैराग्य
गीता के प्राण
हैं--लेकिन अभ्यास
और वैराग्य से
मन वश में हो
जाता है। अभ्यास
और वैराग्य का
आधार आपको
समझा दूं, फिर
हम अभ्यास और
वैराग्य को
समझेंगे।
अभ्यास
और वैराग्य का
पहला आधार तो
यह है कि
मनुष्य जैसा
है, उससे
अन्यथा हो
सकता है।
मन की
बात ही नहीं
कर रहे वे। वे
कह रहे हैं, मन को छोड़ो।
तुम जैसे हो, ऐसे में मन
वश में नहीं
होगा। पहले हम
तुम्हें ही
थोड़ा बदल लें।
पहले हम
तुम्हें ही
थोड़ा बदल लें,
फिर मन वश
में हो जाएगा।
अभ्यास और
वैराग्य इस
बात की घोषणा
है कि मनुष्य
जैसा है, उससे
अन्यथा भी हो
सकता है।
मनुष्य जैसा
है, उससे
भिन्न भी हो
सकता है।
मनुष्य जैसा
है, वैसा
होना एकमात्र
विकल्प नहीं
है, और
विकल्प भी
हैं। हम जैसे
हैं, यह
हमारी
एकमात्र
स्थिति नहीं
है, और स्थितियां
भी हमारी हो सकती
हैं।
अगर हम
एक बच्चे को
जंगल में छोड़
दें पैदा हो तब, तो क्या आप
सोचते हैं, वह बच्चा
कभी भी मनुष्य
की कोई भी
भाषा बोल पाएगा!
कोई भाषा नहीं
बोल पाएगा।
ऐसा नहीं कि
वह आपके घर
में पैदा हुआ
था, तो
गुजराती
बोलेगा जंगल
में! कि
हिंदुस्तान की
जमीन पर पैदा
हुआ था, तो
हिंदी
बोलेगा। कि
अंग्रेज के घर
में पैदा हुआ
था, तो
अंग्रेजी
बोलेगा। नहीं,
वह कोई भाषा
नहीं बोलेगा।
शायद आप सोचते
होंगे, वह
कोई नई भाषा
बोलेगा। वह नई
भाषा भी नहीं
बोलेगा। वह
भाषा ही नहीं
बोलेगा।
उन्नीस
सौ बीस में
बंगाल में दो
बच्चियां पकड़ी
गईं, जिनको भेड़िए
उठाकर ले गए
थे और
उन्होंने
उनको बड़ा कर
लिया। भेड़िए
शौकीन हैं। और
कई दफे दुनिया
में कई जगह
उन्होंने यह
काम किया है।
बच्चों को उठा
ले जाते हैं, फिर उनको
पाल लेते हैं।
एक बच्ची
ग्यारह साल की
थी और एक तेरह
साल की थी, जब
वे पकड़ी
गईं। और पहली
दफा हैरानी हुई,
वे कोई भाषा
नहीं बोलती
थीं। भाषा की
तो बात दूसरी
है, वे दो
पैर से खड़ी भी
नहीं हो सकती
थीं। वे चारों
हाथ-पैर से ही
चलती थीं।
अभी
कुछ दिन पहले, पांच-सात
वर्ष पहले यू.पी.
में एक बच्चा
पकड़ा गया जंगल
में, वह भी भेड़ियों
ने पाल लिया
था। वह कोई
चौदह साल का
था, वह भी
कोई भाषा नहीं
बोल सकता था।
उसका नाम रख लिया
था राम, पकड़ने के बाद। छः
महीने कोशिश
करके
बामुश्किल
उससे राम निकलवाया
जा सका कि वह
राम कह सके।
लेकिन छः
महीने में वह
मर गया। और
चिकित्सक
कहते हैं कि
वह राम कहलवाने
की कोशिश ही
उसकी जान लेने
वाली सिद्ध
हुई।
चौदह
साल का बच्चा
एक शब्द नहीं
बोलता था। क्या
हुआ? चारों
हाथ-पैर से
चलता था। छः
महीने मसाज
कर-करके उसको
बामुश्किल
खड़ा कर पाए।
नहीं तो रीढ़
उसकी सीधी
नहीं होती थी,
फिक्स्ड हो गई थी।
चार हाथ-पैर
से वह भेड़ियों
की तेजी से दौड़ता
था! लेकिन खड़ा
करके वह ऐसा
चलता था कि
रत्ती-रत्ती
मुश्किल हो
गया। क्या हो
गया?
आदमी
वही हो जाता
है, जिस आयाम
में उसका
अभ्यास करवा
दिया जाता है;
वही हो जाता
है। वह भेड़िए
के साथ रहा, भेड़िए का अभ्यास
हो गया।
अभ्यास कर
लिया, वही
हो गया।
आदमी
एक अनंत
संभावना है, इनफिनिट पासिबिलिटी।
हम जो हो गए
हैं, वह
हमारी एक पासिबिलिटी
है सिर्फ। वह
हमारी एक
संभावना है, जो हम हो गए
हैं। अगर हम
दुनिया की
मनुष्य जातियों
को भी देखें, तो हमको पता
चलेगा कि अनंत
संभावनाएं
हैं।
ऐसे
कबीले हैं आज
भी, जो क्रोध
करना नहीं
जानते हैं। आप
हैरान होंगे!
आप कहेंगे, क्रोध!
क्रोध तो हर
मनुष्य करता
है। आपको सब
मनुष्यों का पता
नहीं है।
ऐसे
कबीले हैं आज
भी
आदिवासियों
के, जो क्रोध
करना नहीं
जानते।
क्योंकि
क्रोध भी अभ्यास
से आता है; अचानक
नहीं आ जाता।
बाप कर रहा है,
मां कर रही
है, घर भर
क्रोध कर रहा
है, और
तख्ती भी लगी
है कि क्रोध
करना पाप है
घर में। और सब
चल रहा है। वह
बच्चा सीख रहा
है, वह कंडीशन
हो रहा है। वह
जवान होकर
बच्चा कहेगा
कि ऐसा हो ही
कैसे सकता है
कि आदमी क्रोध
न करे! तो यह सिखावन
है। बच्चा तो
एक तरल चीज
थी। आपने उसे
एक दिशा में
ढाल दिया।
कठिनाई हो गई।
वह अड़चन हो गई।
ऐसे
कबीले हैं, जिनमें
संपत्ति का
कोई मोह नहीं
है; कोई
मोह नहीं है।
संपत्ति का
मोह ही नहीं
है। अभी एक
छोटे-से कबीले
की खोज हुई, तो बड़े चकित
हो गए लोग, उस
कबीले में
संपत्ति की
मालकियत का
खयाल ही नहीं
है। किसी आदमी
को यह खयाल
नहीं है कि यह
मेरी जमीन है।
किसी को खयाल
नहीं है कि यह
मेरा मकान है।
लेकिन
कबीले का पूरा
ढंग और है
कंडीशनिंग
का। कोई अपना
मकान नहीं
बनाता, सारा
गांव मिलकर
उसका मकान
बनाता है। जब
भी गांव में
एक नए मकान की
जरूरत पड़ती है,
पूरा गांव
मिलकर एक मकान
बनाता है।
गांव में कोई
नया आदमी रहने
आ जाता है, तो
पूरा गांव एक
मकान बना देता
है। वह आदमी
उसमें रहने
लगता है। पूरा
गांव घर-घर से
चीजें देकर उसके
घर को जमा
देता है पूरा।
वह घर का
उपयोग करने
लगता है।
उस
कबीले में
खयाल ही नहीं
है प्राइवेट ओनरशिप का, कि
व्यक्तिगत
संपत्ति भी
कोई चीज होती
है। आप उस
कबीले में कम्युनिज्म
न फैला
सकेंगे।
क्योंकि कम्युनिज्म
पोलेरिटी
है।
व्यक्तिगत
संपत्ति हो, तो कम्युनिज्म
का खयाल पैदा
हो सकता है; नहीं तो
पैदा नहीं हो
सकता। उस
कबीले में आप
किसी को नक्सलाइट
नहीं बना सकते
हैं। कोई उपाय
नहीं है। उस
कबीले में
किसी को खयाल
ही नहीं है कि
वस्तु और
व्यक्ति में
कोई संबंध
मालकियत का
होता है।
और हम
मरे जाते हैं
अपरिग्रह का
सिद्धांत दोहरा-दोहराकर।
वह कुछ हल
होता नहीं।
अपरिग्रही से
अपरिग्रही
भी...अब दिगंबर
जैन मुनि नग्न
रहते हैं।
दो
दिगंबर जैन
मुनि शिखरजी
के पास के वन
में झगड़
पड़े। अब झगड़ा
लोग कहते हैं
कि या तो
स्त्री के
कारण होता है
या धन के कारण।
न उनके पास
स्त्री है, न धन है, जहां
तक जानकारी
है। झगड़ा
हो गया, तो
जो पिच्छी
वगैरह रखते
हैं साथ में, उससे
एक-दूसरे की
खोपड़ी पर हमला
बोल दिया! लोगों
ने, गांव
वालों ने आकर छुड़ाया।
पुलिस भी आ
गई। और तब बड़ी
हैरानी हुई कि
वह जो पिच्छी
का डंडा था, उसमें सौ-सौ
के नोट अंदर
भरे हुए थे।
उसी पर झगड़ा
हो गया था। वह बंटवारे
में झगड़ा
हो गया था। गए
थे शौच को
जंगल में, लेकिन
वह बंटवारे
में झगड़ा
हो गया!
पुलिस
थाने ले गई।
आस-पास के
गांव के जैनी
हाथ-पैर जोड़कर
उनको छुड़वाए, कि हमारी
इज्जत का खयाल
करो। कोई क्या
कहेगा! दिगंबर
मुनि हैं!
चर्चा बंद
करो। रिश्वत
खिलाई मुनि को
छुड़ाने
के लिए।
बड़े
आश्चर्य की
बात है, एक
आदमी नग्न खड़ा
होने की
हिम्मत जुटा
पाया, तो पिच्छी
में रुपए के
बंडल रखे हुए
है! कंडीशनिंग
है। कंडीशनिंग
भारी है। मगर
यह एक रूप ही
है। यह
अनिवार्य
नहीं है। ऐसे
रूप आदमी के
हैं, जहां
उनको पता भी
नहीं है।
अब
यहां हम सोचते
हैं। जिस ढंग
से हम सोचते
हैं, वह एक
विकल्प है। यह
मैंने इसलिए
उदाहरण के लिए
आपको कहा कि
अन्य विकल्प
सदा हैं।
अभ्यास
का मूल आधार
यह है कि आप
जैसे हैं, उससे अन्यथा
हो सकते हैं।
अभ्यास का
अर्थ है, ऐसी
विधि, जो
आपको अन्यथा
कर देगी। अब
जैसे एक आदमी
है, वह
कहता है कि
मेरे हाथ में
बहुत तकलीफ है,
आपरेशन
करवाना है।
आपरेशन आप
करिएगा, तो
मैं न करवा
पाऊंगा, मैं
हाथ को खींच
लूंगा। इतनी
तकलीफ होगी।
हम कहते हैं, कोई फिक्र
नहीं। हम
तुम्हें अनस्थेसिया
दे देंगे, पहले
बेहोशी की दवा
दे देंगे, फिर
आपरेशन कर
लेंगे। फिर
तुम्हें
तकलीफ न होगी।
अर्जुन
कहता है, मन
बड़ा चंचल है।
कृष्ण कहते
हैं, बिलकुल
ठीक कहते हो।
हम पहले
अभ्यास करवा
देंगे। फिर मन
चंचल न रहेगा।
हम पहले
तुम्हें बदल
देंगे। हम सारी
स्थिति बदल
देंगे।
अभ्यास
का अर्थ है, सारी बाह्य
और आंतरिक
स्थिति की
बदलाहट। अभ्यास
का अर्थ है, वे जो
संस्कार हैं,
कंडीशनिंग
है, वह जो
हमारे भीतर
पुराना जमा
हुआ प्रवाह है,
उसको
जगह-जगह से तोड़कर
नई दिशा दे
देना।
और
दूसरा शब्द
कृष्ण उपयोग
करते हैं, वैराग्य।
उनका अर्थ तो
मैं सांझ आपसे
कहूंगा। अभी
मैं सिर्फ मूल
आधार आपको कह
दूं।
अभ्यास
का अर्थ है, आप जैसे हैं,
उससे
अन्यथा करने
की विधियां, मेथड्स। और आप जैसे
हैं, वह भी
किन्हीं
विधियों के
कारण हैं, अपने
कारण नहीं।
अगर आप
गुजराती
बोलते हैं, तो सिर्फ
इसलिए कि गुजराती
का अभ्यास
करवा दिया गया
है। और कोई
कारण नहीं है।
आप अंग्रेजी
बोल सकेंगे, अगर
अंग्रेजी का
अभ्यास करवा
दिया जा सके।
कोई अड़चन नहीं
है।
जो भी
आप हैं, वह
अभ्यास का फल
है। लेकिन अभी
जो अभ्यास
करवाया है, वह समाज ने
करवाया है। और
समाज बीमारों
का समूह है।
अभी जो अभ्यास
करवाया है, वह भीड़ ने
करवाया है। और
भीड़ मनुष्य की
निम्नतम
अवस्था है।
इसलिए आप उस
भीड़ के एक
हिस्से हैं।
अभी आप हैं
नहीं। अभी आप
जो भी हैं, वह
भीड़ का ही
हिस्सा हैं।
और भीड़ ने जो
करवा दिया है,
वह आप हैं।
अभ्यास
का अर्थ है, व्यक्तिगत
चेष्टा उस
दिशा में, जहां
आप नए हो सकें,
जहां आप
भिन्न हो
सकें।
यह मन
की धारा, जो
बहुत चंचल
दिखाई पड़ती है,
वह चंचल
इसीलिए है कि
पूरी
व्यवस्था उसे
चंचल कर रही
है।
हमारी
हालत
करीब-करीब ऐसी
है कि मैंने
सुना है, एक
कुत्ते के मन
में खयाल आ
गया कि वह
दिल्ली चला
जाए। सारी
दुनिया दिल्ली
जा रही थी।
उसने सोचा कि
कुत्ते क्यों पीछे
रह जाएं! और जब
सभी दिल्ली
पहुंच जाएंगे,
तो कुत्तों
के अधिकारों
का क्या होगा?
फिर वह
कुत्ता कोई
छोटा-मोटा
कुत्ता भी
नहीं था, एक
एम.पी. का
कुत्ता था।
नेता का
कुत्ता था।
दिन-रात दिल्ली
जाओ, दिल्ली
आओ की बात सुनाई
पड़ती थी।
दिल्ली जाने
की विधियां और
उपाय और सीढ़ियां
ईजाद किए जाते
थे; आदमियों
के कंधों पर
कैसे चढ़ो,
लोगों की
आंखों में धूल
कैसे झोंको,
सब उसने सुन
लिया था। वह
ठीक ट्रेंड हो
गया था।
एक दिन
उसने अपने
गुरु को
कहा--गुरु, मालिक जो
उसका एम.पी.
था--कहा कि अब
बहुत देर हुई
जा रही है। अब
मुझे
आशीर्वाद दें,
मैं भी
दिल्ली जाऊं!
उसने कहा कि
तू क्या करेगा
दिल्ली जाकर?
कुत्ता
होकर और तेरी
ऐसी हिम्मत?
समझ
गया था। वह
कुत्ता तो
बहुत दिन से
रहता था; वह
सब राज समझ
गया था। उसने
कहा कि आप
देखते नहीं कि
आपका वह जो
विरोधी पहुंच गया
है इस बार, वह
कुत्तों से
बेहतर है? बदतर
है। नेता ने
कहा कि बिलकुल
ठीक। यह बात तो
बिलकुल ठीक
है। तू जा। तू
दिल्ली जा।
उसने कहा, रास्ता
कुछ बता दें।
मैं कैसे
दिल्ली जाऊं!
तो
रास्ता, नेता
ने कहा कि
सूत्र सरल है।
जिस तरकीब से
मैं जाता रहा,
वही तरकीब
तू भी उपयोग
कर। क्योंकि
वह अनुभव में
लाई गई तरकीब है।
तरकीब उसने
बता दी कि जब
अमीर कोई
दिखाई पड़े, अमीर
कुत्ता...!
कुत्तों
में भी अमीर
और गरीब होते
हैं। अमीर कुत्ता
आपने देखा
होगा; कार
में भी चलता
है; सुंदरतम
स्त्रियों की
गोद में भी
बैठता है; शानदार
गलीचों पर विश्राम
भी करता है!
आदमी को रोटी
न मिले, उसको
तो विशेष भोजन
मिलता है। वह
अमीर कुत्ता है।
तो
उसने कहा, जब अमीर कोई
कुत्ता दिखे,
तो कहना कि
सावधान। गरीब
कुत्ते
इकट्ठे हो रहे
हैं; तुम्हारे
लिए खतरा है।
मैं तुम्हारी
रक्षा कर सकता
हूं। और जब
कोई गरीब
कुत्ता दिखे,
तो फौरन
कहना कि मर
जाओगे। लूटे
जा रहे हो। शोषण
किया जा रहा
है। लाल झंडा
हाथ में लो।
मैं तुम्हारा
नेता हूं। इन
अमीरों को ठीक
करना जरूरी
है। और जब
तक--जैसा कि
अहमदाबाद की
सड़कों पर मैंने
दो-चार जगह
लिखा देखा:
जनता जागे, सेठिया
भागे--उसने
कहा होगा, कुत्ते
जागे, सेठिया
भागे। तैयार
हो जाओ!
पर उस
कुत्ते ने कहा
कि महाराज, यह तो ठीक
है। लेकिन
अमीर और गरीब
कुत्ते दोनों
साथ मिल जाएं,
तो मैं क्या
करूं? तो
कहना, मैं सर्वोदयी
हूं! मैं सबके
उदय में
विश्वास करता
हूं। गरीब का
भी उदय हो, अमीर
का भी उदय हो।
सूरज पूरब से
भी निकले, पश्चिम
से भी साथ
निकले। हम सर्वोदयी
हैं।
सूत्र
पूरा हो गया।
कुत्ते ने
प्रचार शुरू
कर दिया। और
नेता ने कहा, ध्यान रखना,
जोर से बोले
चले जाना।
कुत्ते ने कहा,
यह तो
अभ्यास है
हमारा। इसमें
कोई चिंता न
करें। इसमें
हम नेताओं को
मात दे देते
हैं। इसमें
कोई दिक्कत
नहीं है। हम
चिल्लाते
रहेंगे। नेता
ने कहा, अगर
चिल्लाते रहे,
तो दिल्ली
पहुंच जाओगे।
बस, चिल्लाने
में कुशलता
चाहिए। इसकी
फिक्र मत करना
कि क्या
चिल्ला रहे
हो। जोर से
चिल्ला रहे हो,
इसका खयाल
रखना। दूसरे
को दबा देना
चिल्लाने में,
बस!
कुत्ते
ने शुरू कर दिया
काम। महीने
पंद्रह दिन
में उसने काशी
के कुत्तों को
राजी कर लिया।
नेता से कहा
कि अब मैं जाता
हूं। आप वहां
खबर करवा दें
दिल्ली में कि
मैं आ रहा
हूं। ठहरने का
इंतजाम, सब
व्यवस्था
करवा दें।
कितनी देर
लगेगी, नेता
ने पूछा, तेरे
पहुंचने में?
कुत्ते ने
कहा कि कुत्ते
की चाल से जाऊंगा;
और सर्वोदयी
कहकर फंस गया
हूं। तो वे
कुत्ते कह रहे
हैं, पैदल
जाओ। झंझट हो
गई। वे कहते
हैं, सर्वोदयी,
पैदल जाओ, पदयात्रा
करो! फंस गया
झंझट में; नहीं
तो ट्रेन में
निकल जाता। अब
तो पैदल ही जाना
पड़ेगा। कम से
कम महीनाभर
लग जाएगा।
खबर कर
दी गई। दिल्ली
के कुत्ते बड़े
प्रसन्न हुए।
काशी का
कुत्ता आता है; धर्मतीर्थ से आता है।
जरूर कुछ
ज्ञान लेकर
आता होगा! काम पड़ेगा।
लेकिन बड़ी
मुश्किल तो यह
हुई कि एक महीने
के बाद
उन्होंने
स्वागत का
इंतजाम किया,
द्वार-दरवाजे
बनाए। लेकिन
कुत्ता सात ही
दिन में पहुंच
गया। वे तो
इंतजाम कर रहे
थे एक महीने
बाद का, कुत्ता
सात दिन में
दिल्ली पहुंच
गया। बड़े चकित
हुए।
उन्होंने
कहा, बिलकुल
समझ नहीं
तुम्हें।
बेवक्त आ गए।
हम सब इंतजाम
किए थे। मेयर
को राजी किए
थे। फूलमाला पहनवाते।
यह तुमने क्या
किया! सब
विरोधी पार्टी
के नेताओं को
इकट्ठा कर रहे
थे कि फूलमाला
पहनाते। तुम
यह क्या किए? इतनी जल्दी
आ गए बेवक्त।
कोई तैयारी
नहीं है।
उस
कुत्ते ने कहा
कि मैं क्या
कर सकता हूं? काशी से
निकला; एक
मिनट रुक नहीं
सका कहीं। जिस
गांव में पहुंचा,
उसी गांव के
कुत्ते इस
बुरी तरह पीछे
लग जाते कि
मैं जान बचाकर
गांव के बाहर
होता। वे
दूसरे गांव के
बाहर तक जब तक
मुझे छोड़ते, तब तक दूसरे
गांव के
कुत्ते मेरे
पीछे लग जाते।
मैं ठहरा ही
नहीं, रुका
ही नहीं, विश्राम
नहीं किया। बस,
भागता ही
चला आ रहा हूं!
और कहते हैं, इतना ही
कहकर वह
कुत्ता मर गया,
क्योंकि
इतना थक गया
था।
दिल्ली
आमतौर से कब्र
बनती है
पहुंचने
वालों की। बड़ी
कब्र है। दौड़-दौड़कर
किसी तरह
पहुंचते हैं
वहां; गिरकर
मर जाते हैं।
शायद मरने के
लिए पहुंचते हैं
या किसलिए
पहुंचते हैं,
कुछ कहना
कठिन है। मर
गया वह
कुत्ता। पर एक
राज की बात
बता गया कि
ठहर नहीं पाया
कहीं; दौड़ाते ही रहे लोग।
हम भी
एक-एक आदमी के
मन को बचपन से दौड़ा रहे
हैं। सब मिलकर
दौड़ा रहे
हैं। सब मिलकर
दौड़ा रहे
हैं। बाप दौड़ा
रहा है कि
नंबर एक आओ।
मां दौड़ा
रही है कि
क्या कर रहे
हो, बगल के
पड़ोसी का लड़का
देख रहे हो? स्पोर्ट्स
में नंबर एक आ
गया। मां-बाप
किसी तरह पीछा
छोड़ेंगे,
तो एक पत्नी
उपलब्ध होगी।
वह कहेगी, दौड़ो।
देखते हो, बगल
का मकान बड़ा
हो गया। बगल
की पत्नी के
पास हीरों की चूड़ियां आ
गईं। तुम
देखते रहोगे
ऐसे ही बैठे! दौड़ो।
किसी तरह दौड़-दाड़कर और
थोड़ी उम्र
गुजारता है, तो बच्चे
पैदा हो जाते
हैं। वे कहते
हैं कि क्या
बाप मिले तुम
भी! न घर में
कार है, न
टेलीविजन सेट
है। कुछ भी
नहीं है। बड़ी
दीनता मालूम
होती है। इनफीरिआरिटी
कांप्लेक्स
पैदा हो रहा
है हममें, स्कूल
जाते हैं तो। दौड़ो।
पूरी
शिक्षा, पूरा
समाज, पूरी
व्यवस्था
दौड़ने के एक
ढांचे में ढली
हुई है।
दिल्ली पहुंचो।
दौड़ो, चाहे
जान चली जाए, कोई फिक्र
नहीं। दौड़ते
रहो। ठहरना भर
मत।
अगर
इतने सारे
अभ्यास में
आदमी का मन
ठहरने का
स्थान नहीं
पाता, किसी
विश्रामगृह
में नहीं रुक
पाता, भागता
ही चला जाता
है; तो अगर
अर्जुन एक दिन
कह रहा है
कृष्ण से कि
यह मन बड़ा
भागने वाला है,
यह रुकता
नहीं क्षणभर
को, तो ठीक
ही कह रहा है।
हम सब का मन
ऐसा है।
लेकिन
कृष्ण कहते
हैं, यह मन का
ढंग सिर्फ एक
संस्कारित
व्यवस्था है।
अभ्यास से इसे
तोड़ा जा सकता
है। अभ्यास से
नई व्यवस्था
दी जा सकती
है। और
वैराग्य से!
क्यों? वैराग्य
को क्यों जोड़
दिया? क्या
अभ्यास काफी न
था? अभ्यास
की विधि बता
देते कि इससे
बदल जाओ।
वैराग्य
इसलिए जोड़
दिया कि अगर
वैराग्य न हो, तो आप
विधियों का
उपयोग न
करेंगे।
क्योंकि राग दौड़ाने की
व्यवस्था है।
राग के बिना
कोई दौड़ता
नहीं है।
दिल्ली कोई
ऐसे ही
वैराग्य भाव
से नहीं दौड़ता।
राग, कुछ
उपलब्धि की
आकांक्षा, कुछ
पाने का खयाल दौड़ाता
है। कोई
लक्ष्य, कोई
राग दौड़ाता
है।
तो राग
चंचल होने का
आधार है, तो
वैराग्य
विश्राम का
आधार बनेगा।
अभी हम सब राग
में जीते हैं।
हमारा पूरा
समाज राग से
भरा है। हमारी
पूरी शिक्षा,
समाज की
व्यवस्था, परिवार,
संबंध--सब
राग पर खड़े
हैं। इसलिए हम
सब दौड़ते हैं।
राग बिना दौड़े
नहीं फलित हो
सकता। राग
यानी दौड़।
चंचलता
का बुनियादी
आधार राग है।
इसलिए ठहराव
का बुनियादी
आधार वैराग्य
होगा।
तो
वैराग्य की
शर्त जरूरी है, नहीं तो आप
ठहरने को राजी
नहीं होंगे।
आप कहेंगे, ठहरकर मर
जाएंगे। पड़ोसी
तो ठहरेगा
नहीं, वह
तो दौड़ता
रहेगा। आप
मुझसे ही
क्यों कहते
हैं कि ठहर जाओ?
अगर मैं ठहर
गया, तो
दूसरा तो
ठहरेगा नहीं;
वह पहुंच
जाएगा!
जब तक
आपको कहीं
पहुंचने का
राग है, जब
तक कुछ पाने
का राग है, तब
तक मन अचंचल
नहीं हो सकता,
चंचल
रहेगा। इसमें
मन का क्या कसूर
है! आप राग कर
रहे हैं, मन
दौड़ रहा है।
मन आपकी आज्ञा
मान रहा है।
इसलिए
वैराग्य की
शर्त पीछे जोड़
दी कि वैराग्य
की भावना हो, तो फिर ऐसी
विधियां हैं,
जिनके
अभ्यास से
आदमी मन को
विश्राम को
पहुंचा सकता
है।
संध्या
हम वैराग्य के
संबंध में और
अभ्यास के संबंध
में थोड़ी गहरी
छान-बीन
करेंगे। अभी
तो पांच-सात मिनट
के लिए सब राग
छोड़कर, एक
पांच-सात मिनट
कीर्तन के
वैराग्य
में--क्योंकि
कीर्तन कहीं
ले जाएगा
नहीं।
एक
युवक मेरे पास
आया था। वह
पूछ रहा था, कीर्तन से
फायदा क्या
होगा? सोचते
हैं आप, वह
पूछता है, कीर्तन
से फायदा क्या
होगा?
फायदा!
फायदे की भाषा
में जो सोचता
है, वह
कीर्तन नहीं
कर पाएगा।
कीर्तन से
फायदा होता है,
लेकिन उसी
को, जो
फायदे की भाषा
छोड़ देता है।
कीर्तन तो
वैराग्य के मन
की दशा है। और
कीर्तन एक
अभ्यास भी है;
एक अभ्यास
मन को ठहराने
का। शरीर
नाचेगा। शब्द
वाणी से
निकलेंगे। और
भीतर कोई
बिलकुल ठहरा
रहेगा। नाच के
बीच कोई
बिलकुल ठहरा
रहेगा।
आप भी
साथ दें। साथ
देंगे, तो
ही अनुभव हो
पाएगा। और
संकोच न करें,
छोटे-से
संकोच व्यर्थ
ही बाधा डाल
देते हैं। देखते
हैं कि कहीं
पड़ोस का आदमी
क्या सोचने
लगे! वह पहले
ही से आपके
बाबत बहुत
अच्छा नहीं
सोचता है। आप
बिलकुल
बेफिक्र रहें।
आज इतना
ही।
THANK YOU GURUJI
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